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सवालों के घेरे में चिदंबरम

Finance Minister P Chidambaram  Photo by Shailendra Pandey/Tehelka

उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें बिना किसी करिअर प्लान का उत्तराधिकारी बताते हैं. शायद यही कारण है कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बेटे कार्थी चिदंबरम, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट की तरह अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभाल नहीं पाए. तमिलनाडु में युवा कांग्रेस के अध्यक्ष रहने के बावजूद लोग उनके बारे में कम ही जानते हैं, साथ ही उनकी गतिविधियां भी हमेशा एक परदे में ही रही हैं.

भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के ‘मसीहा’ के ये इकलौते पुत्र आजकल गलत कारणों से ही सही, सुर्खियों में हैं. मशहूर दक्षिणपंथी नेता और कूटनीतिज्ञ सुब्रह्मण्यम स्वामी के आरोप है कि कार्थी विवादित एयरसेल-मैक्सिस अनुबंध में एक लाभार्थी हैं. इसके बाद कार्थी पर राजस्थान एम्बुलेंस स्कैम में भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप भी लगे, जिसने उन्हें मीडिया और जनता के सामने सवालों के घेरे में ला दिया. आरोपों का ये सिलसिला यहीं नहीं थमा. आरएसएस के विचारक एस. गुरुमूर्ति ने हाल ही में पी. चिदंबरम और कार्थी चिदंबरम पर हेल्थकेयर चेन वासन आई केयर से काला धन लेने सहित कई गंभीर आरोप लगाए हैं. दोनों पर वासन आई केयर के बेनामी मलिक होने का भी आरोप है. चिदंबरम का कहना है कि ये आरोप गलत हैं और राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित हैं. पर इससे आरोप लगाने वाले गुरुमूर्ति और ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. गुरुमूर्ति ने चेन्नई के एक पूर्व आयकर कमिश्नर एम. श्रीनिवास राव के शपथ पत्र का हवाला भी दिया है. राव ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) में दर्ज एक शिकायत में कहा था कि उनके वरिष्ठों के ‘नाजायज’ आदेश न मानने की सजा के बतौर उनका ट्रांसफर किया गया.

इस दैनिक अखबार में लिखे लेख में गुरुमूर्ति ने दावा किया है कि कार्थी की कंपनियों के वासन आई केयर के साथ संभावित संबंध के परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी उपलब्ध हैं. गुरुमूर्ति आगे ये भी कहते हैं कि ये हेल्थकेयर चेन जेडी ग्रुप नाम की एक कंपनी और किन्ही डॉ. एएम अरुण के साथ मिलकर अवैध गतिविधियों में भी शामिल है.

‘न मैं, न मेरा बेटा और न ही मेरे परिवार का कोई  सदस्य ‘कथित’ कंपनी में किसी भी प्रकार के निवेश या आर्थिक लाभ के भागीदार हैं’

राव द्वारा दायर याचिका बताती है कि जेडी ग्रुप ने वासन ग्रुप को लगभग सौ करोड़ रुपये का भुगतान काले धन से किया था. गुरुमूर्ति लिखते हैं, ‘राव की याचिका पर कैट द्वारा की गई जांच बताती है कि जेडी ग्रुप द्वारा वासन ग्रुप को 223 करोड़ रुपये नकद दिए गए हैं.’ कहा जा रहा है कि इस बात के सबूत आयकर विभाग के पास हैं.

गुरुमूर्ति के अनुसार वासन आई केयर से ये सारा काला धन डॉ. एएम अरुण के माध्यम से पी. चिदंबरम तक पहुंचा है. वे कहते हैं, ‘कुछ बेनामी और फर्जी कंपनियों के चिदंबरम और उनके बेटे कार्थी वासन आई केयर में महत्वपूर्ण भागीदार हैं.’ राव की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए उनका ये भी कहना है कि मॉरिशस और सिंगापुर की कुछ कंपनियों के माध्यम से चिदंबरम वासन आई केयर के मालिक हैं. इस बात की पुष्टि करते हुए वे कहते हैं कि कार्थी की एक  कंपनी ‘शेल’ (एक गैर व्यावसायिक कंपनी जिसका प्रयोग कई वित्तीय मामलों में माध्यम के रूप में किया जाता है या भविष्य के किसी काम के लिए निष्क्रिय अवस्था में रखा जाता है) की आड़ में निवेश करने के बाद ही वासन आई केयर में वृद्धि देखी गई, जब मॉरिशस की कुछ फर्मों ने उसमें लगभग हजारों करोड़ रुपये का निवेश किया. गुरुमूर्ति ये भी कहते हैं कि चिदंबरम ने वासन की राजनीतिक पहुंच की झलक तब दिखाई जब तमिलनाडु के कराईकुडी में वासन के सौवें क्लीनिक के उद्घाटन के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बुलाया. गुरुमूर्ति इस मामले की सरकारी जांच की मांग कर रहे हैं.

वहीं चिदंबरम ने इन सभी आरोपों को खारिज किया है. वे अपने बयान में कहते हैं, ‘न मैं, न मेरा बेटा और न ही मेरे परिवार का कोई भी सदस्य ‘कथित’ कंपनी में किसी भी प्रकार के निवेश या आर्थिक लाभ के भागीदार हैं. मुझे आयकर विभाग या इसके अधिकारियों से संबंधित जून 2015 में हुई किसी भी घटना की जानकारी नहीं है. संप्रग सरकार तो मई 2014 में ही दफ्तर छोड़ चुकी थी.’

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फोटोः जितेंद्र गुप्ता/आउटलुक

हालांकि यहां भी गुरुमूर्ति का कहना है कि चिदंबरम की अस्वीकृति उन पर लगे आरोप के किसी भी तथ्य, परिस्थिति या दस्तावेज से जुड़े सवाल का जवाब नहीं देती. 22 सितंबर को लिखे एक लेख में वे कहते हैं, ‘चिदंबरम के बौद्धिक स्तर को देखते हुए कोई भी सामान्य व्यक्ति उनकी बात मान लेगा पर अगर बात वासन से जुड़े मामले की है तो उनके बयान की समीक्षा करने की जरूरत है.’ विवादित एयरसेल-मैक्सिस अनुबंध से प्रसिद्द मारन बंधुओं के जुड़े होने का आरोप लगा चुके गुरुमूर्ति चिदंबरम पर भी सवाल खड़े करते हैं, ‘वासन का नाम लेने में चिदंबरम की हिचकिचाहट ही अपने आप में गवाह है. उन्होंने अपने बयान एक भी बार वासन का नाम नहीं लिया है बल्कि इसे ‘कथित’ कंपनी कह कर संबोधित किया है. ये आश्चर्यजनक है क्योंकि अप्रैल 2008 में खुद उन्होंने मदुरै में वासन के 25वें क्लीनिक का उद्घाटन किया था. फिर 2011 में उनके संसदीय क्षेत्र में वासन के सौवें क्लीनिक के उद्घाटन के समय भी प्रधानमंत्री और राज्यपाल के साथ वे मुख्य अतिथियों में से एक थे. एक निजी नेत्र देखभाल संस्थान से असाधारण रूप से प्रगाढ़ता दिखाने के बाद अब उन्हें वासन का नाम लेते हुए भी शर्म आ रही है, क्यों?’

गुरुमूर्ति आगे लिखते हैं, ‘इसके बावजूद, चिदंबरम ‘कथित’ कंपनी द्वारा जारी की गई ‘तात्कालिक’ अस्वीकृति का लाभ उठाते . वासन का बयान देखिए, वे इन सभी आरोपों को गलत और द्वेषपूर्ण बताते हैं.’ गुरुमूर्ति का कहना है कि वासन का खंडन उनके सवालों का जवाब नहीं है. उन्होंने अपने लेख में 28 सवाल उठाए थे, जिनका वासन ने कोई जवाब नहीं दिया है. ‘चिदंबरम के बेटे कार्थी से जुड़े किसी सवाल का तो जवाब दिया जाता! जैसे- क्या प्रवर्तन निदेशालय ने वासन और डॉ अरुण को द्वारकानाथन से कार्थी की कंपनी को डेढ़ लाख शेयर ट्रांसफर करने पर नोटिस नहीं दिया था? 17 सितंबर को किए गए खुलासे में बताया गया है कि कार्थी के स्वामित्व वाली एक कंपनी ने वासन के डेढ़ लाख शेयर अधिग्रहित किए हैं. इस तथ्य को या तो स्वीकारा जाए या नकारा जाए. कोई नकारा हुआ तथ्य झूठा या द्वेषपूर्ण कैसे हो सकता है?’

सच कुछ भी हो, इस मामले ने मीडिया और जनता का ध्यान खींचा है. मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक सी. लक्ष्मणन का कहना है, ‘केंद्र और राज्य दोनों जगह प्रतिकूल सरकार होने की वजह से चिदंबरम पिता-पुत्र के लिए इस मामले से निकलना बड़ी चुनौती होगी. इससे निकलने के लिए उन्हें खासी मशक्कत करनी होगी. गुरुमूर्ति के पीछे आरएसएस-भाजपा नेतृत्व का समर्थन है, जिनका जाहिर रूप से पिता-पुत्र के काम करने की शैली को लेकर दुराव है. गुरुमूर्ति के चिदंबरम की राजनीतिक नींव पर हमला करने के उद्देश्य निजी हो सकते हैं पर इस बात से चिदंबरम पर लगाए गए आरोपों की गंभीरता कम नहीं हो जाती.’

शिक्षा बचाने का संघर्ष

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विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नॉन नेट फेलोशिप खत्म करने का निर्णय लेने के बाद देश के कई विश्वविद्यालयों में शुरू हुआ आंदोलन खत्म होने की जगह बढ़ता जा रहा है. हालांकि, बाद में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने फेलोशिप खत्म न करने की बात कही, लेकिन छात्र-छात्राओं ने फेलोशिप के तहत मिलने वाली राशि बढ़ाने अाैर शिक्षा का निजीकरण न करने की मांग काे लेकर आंदोलन जारी रखा है. सैकड़ों की संख्या में छात्र-छात्राएं दिल्ली स्थित यूजीसी मुख्यालय के सामने ‘ऑक्यूपाई यूजीसी’ अभियान चलाते हुए धरना दे रहे हैं. बीते 27 अक्टूबर को यूजीसी के सामने प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया जिसमें  कई छात्र-छात्राओं को गंभीर चोटें आईं.

सात अक्टूबर को यूजीसी ने एक बैठक में नौ वर्षों से चल रही नॉन नेट फेलोशिप योजना खत्म करने का निर्णय लिया था. इस योजना के तहत वर्तमान में एमफिल की पढ़ाई कर रहे छात्रों को 18 महीने तक प्रतिमाह 5,000 रुपए जबकि पीएचडी की पढ़ाई कर रहे छात्रों को चार साल तक प्रतिमाह 8,000 रुपए की वित्तीय मदद दी जाती है. यह फेलोशिप देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शोध करने वाले उन छात्र-छात्राओं को दी जाती है, जिन्होंने नेशनल एलिजबिलिटी टेस्ट (नेट) पास नहीं किया है या जिन्हें जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) नहीं मिलती है.  इस  फेलोशिप को बंद करने के पीछे यूजीसी का तर्क था कि इसमें पारदर्शिता की कमी के कारण इसका दुरुपयोग किया जा रहा है. यूजीसी ने कहा था कि यह फेलोशिप कार्यक्रम भेदभावपूर्ण है और विश्वविद्यालयों में चयन प्रक्रिया में समरूपता की कमी है. साथ ही धन की कमी के कारण भी यूजीसी यह फेलोशिप देने में असमर्थ है. इस फैसले के बाद दिल्ली, इलाहाबाद, हैदराबाद समेत कई शहरों व विश्वविद्यालय परिसरों में प्रदर्शन शुरू हो गए.

विरोध-प्रदर्शनों को देखते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 25 अक्टूबर को एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि सरकार ने यूजीसी द्वारा प्रदान की जाने वाली नेट और नॉन नेट रिसर्च फेलोशिप के मामलों की जांच के लिए एक समीक्षा समिति गठित करने का फैसला किया है. समीक्षा समिति, दिसंबर 2015 तक मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. तब तक यूजीसी का निर्णय स्थगित है, सभी मौजूदा फेलोशिप जारी रहेंगी. यूजीसी साल में दो बार अखिल भारतीय राष्ट्रीय योग्यता परीक्षा (नेशनल एलिजबिलिटी टेस्ट) आयोजित करता है, जिसके तहत फेलोशिप प्रदान की जाती है. यूजीसी ने 2006 में नॉन नेट फेलोशिप योजना शुरू की थी. इसके तहत ऐसे छात्रों को भी फेलोशिप दी जाती है जिन्हें नेट के तहत जूनियर रिसर्च फेलोशिप नहीं मिलती. मौजूदा वक्त में यह फेलोशिप केवल 50 संस्थानों के लिए सीमित है. वर्तमान में करीब 35,000 छात्र इन फेलोशिप का उपयोग कर रहे हैं.

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छात्रों की मांग

  • यूजीसी और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को स्पष्ट तौर पर नोटिफिकेशन जारी करना चाहिए कि 7 अक्टूबर को जारी यूजीसी का निर्णय मान्य नहीं होगा
  • इस तरह के किसी भी प्रावधान को वापस लिया जाना चाहिए जो मेरिट या आर्थिक आधार पर लाभार्थी छात्रों को लाभ से वंचित करता हो
  • फेलोशिप की मौजूदा राशि 5,000/8,000  रुपये से बढ़ाकर जेआरएफ फेलोशिप के अनुपात में 8,000/12,000 रुपये की जाए. साथ ही भविष्य को ध्यान में रखते हुए फेलोशिप को महंगाई सूचकांक के साथ भी जोड़ा जाए
  • फेलोशिप केंद्रीय विश्वविद्यालयों के साथ राज्य विश्वविद्यालयों में भी बिना किसी भेदभाव के लागू की जाए
  • शिक्षा के बाजारीकरण के सभी प्रयास बंद किए जाएं

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मंत्रालय ने दिसंबर 2014 से नेट आधारित रिसर्च फेलोशिप के लिए सहायता राशि बढ़ा दी थी. जूनियर रिसर्च फेलो को पहले दो वर्ष के लिए 25,000 रुपये प्रतिमाह और हर वर्ष 30 प्रतिशत मकान किराया (एचआरए) और आकस्मिक अनुदान तथा सीनियर रिसर्च फेलो को अगले तीन वर्षों के लिए प्रतिवर्ष 28,000 रुपये प्रतिमाह, 30 प्रतिशत एचआरए और आकस्मिक अनुदान मिलता है.

हालांकि, मंत्रालय के समिति गठित करने की घोषणा के बाद भी छात्रों ने अपना आंदोलन वापस नहीं लिया है. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने बताया, ‘ऑक्यूपाई यूजीसी आंदोलन जारी रहेगा. मंत्रालय की ओर से हमें जो पत्र मिला है, उसमें कहा गया है कि इस बारे में कमेटी गठित की गई है, वह नॉन नेट फेलोशिप की समीक्षा करेगी. उसकी सिफारिश के बाद इस बारे में निर्णय लिया जाएगा. समीक्षा समिति बने, इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन कमेटी इसलिए बननी चाहिए कि छात्रों को शोध कार्य के लिए और क्या बेहतर सुविधाएं दी जा सकती हैं. कमेटी आर्थिक हालत और मेरिट के आधार पर समीक्षा करने जा रही है, जिससे हम सहमत नहीं हैं. फेलोशिप की समीक्षा के लिए आर्थिक और मेरिट का आधार हटाया जाए और इसके तहत राज्य विश्वविद्यालयों को भी शामिल किया जाए.’

आंदोलन से सिर्फ फेलोशिप का मसला नहीं जुड़ा है. केंद्र सरकार पिछले बजट में उच्च शिक्षा के आवंटित बजट में 25 प्रतिशत की कटौती कर दी थी. दिसंबर में विश्व व्यापार संगठन के जनरल एग्रीमेंट्स ऑन ट्रेड सर्विस की वार्ता में सरकार उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की तैयारी कर रही है. 2005 में मनमोहन सिंह ने उच्च शिक्षा को इसके तहत लाने का प्रस्ताव रखा था. इस साल के अंत में इस समझौते पर अंतिम वार्ता होनी है. अगर सरकार उच्च शिक्षा को वैश्विक निजी क्षेत्र के लिए खोल देती है तो शिक्षा एक उत्पाद होगी और छात्रों को अंतर्राष्ट्रीय कीमत पर शिक्षा खरीदनी होगी. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों ने शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोलने से इंकार कर दिया है. छात्र-छात्राएं और अध्यापकों का तर्क है कि सरकार से इस कदम से शिक्षा की गुणवत्ता तो प्रभावित होगी ही, साथ ही देश का बहुसंख्यक तबका जो आर्थिक रूप से कमजोर है, उच्च शिक्षा से वंचित हो जाएगा.

शिक्षा को विश्व व्यापार के लिए खोलने के विरोध में अध्यापकों के संगठन भी छात्रों के साथ हैं. प्रदर्शन में शामिल सभी छात्रों की ओर से एक राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की तैयारी है जो इस मसले पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाएगा. 29 अक्टूबर को आईसा की ओर से जारी बयान में कहा गया, ‘हमारा आंदोलन तब तक जारी रहेगा जब तक हमारी सभी मांगें पूरी नहीं हो जातीं. हमें मालूम है कि नॉन नेट फेलोशिप बंद करने का निर्णय दिसंबर में विश्व व्यापार संगठन के साथ होने वाली वार्ता के मद्देनजर लिया गया है. हम शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन के हवाले करने की इजाजत नहीं देंगे.’

जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष का कहना है, ‘हम नॉन नेट फेलोशिप के अलावा शिक्षा को बाजार और पूंजी के हवाले करने के भी विरोध में हैं. इससे शिक्षा गरीब जनता की पहुंच से बाहर हो जाएगी. दरअसल हम शिक्षा को बचाने के लिए लड़ रहे हैं.’ इस विरोध प्रदर्शन में एआईएसएफ, एसएफआई, आईसा, एनएसयूआई शामिल हैं. इसके अलावा ऐसे छात्र भी शामिल हैं जो किसी संगठन में नहीं हैं. फिलहाल, इलाहाबाद, पुडुचेरी, वर्धा, हैदराबाद और अलीगढ़ से विरोध-प्रदर्शन की खबरें हैं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की ओर से जारी बयान में कहा गया है, ‘हम यूजीसी के उस फरमान के खिलाफ हैं जिसमें कहा गया है कि उन छात्र-छात्राओं को अब शोधवृत्ति नहीं दी जाएगी जो नेट की परीक्षा पास नहीं होंगे.’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष ऋचा सिंह ने 28 अक्टूबर को एक जुलूस का नेतृत्व किया, जिसमें एसएफआई, आईसा, एआईडीएसओ और फ्रेंड्स यूनियन के छात्र-कार्यकर्ता शमिल रहे. छात्राें ने मांग की है कि यूजीसी अपना निर्णय वापस लेने की घोषणा करे और उसे अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित करने के साथ शोध छात्रों का मानसिक उत्पीड़न बंद करे. भारत के राष्ट्रपति और मानव संसाधन विकास मंत्री को संबोधित अलग-अलग ज्ञापनों में छात्रों ने अपनी मांगें और शिकायतें दर्ज कराईं. इस मसले पर इलाहाबाद में हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है. यहां पर एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने भी यूजीसी के चेयरमैन का पुतला फूंका. हालांकि, एबीवीपी ने छात्र आंदोलन से खुद को अलग रखा है.  इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष ऋचा सिंह ने कहा, ‘नॉन-नेट शोध छात्रों की फेलोशिप हटाना अदूरदर्शी और अलोकतांत्रिक है.’

गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के शोध छात्र रमाशंकर ने बताया कि ‘केन्या की राजधानी नैरोबी में होने वाली विश्व व्यापार संगठन की आगामी बैठक में किए जाने वाले समझौते छात्रों को ग्राहक में बदल देंगे. फीस महंगी हो जाएगी और उच्च शिक्षा गरीबों के लिए सपना हो जाएगी. केंद्र सरकार को शिक्षा के बजट को बढ़ाकर शोध और विकास की उस परियोजना को आगे बढ़ाना चाहिए जो भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान इसके निर्माताओं ने सोची थी. आज के दौर में प्रजातंत्र और आधुनिकता के मूल्य उच्च शिक्षा के बिना आगे नहीं जा सकते. दुर्भाग्य से केंद्र सरकार ने अपनी रुचियों का क्षेत्र बदल दिया है.’

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इलाहाबाद छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड़ चुके एसएफआई के प्रदेश उपाध्यक्ष विकास स्वरूप का मानना है, ‘समान कार्य के लिए समान फेलोशिप की संरचना जरूरी है, न कि इस प्रकार की विभेदकारी व्यवस्था.’ शोधछात्र अंकित पाठक मानते हैं, ‘नॉन नेट छात्र विश्वविद्यालय में शोध कार्यक्रम में प्रवेश लेते हैं, अपने पांच साल के शोध के दौरान नेट हो जाते हैं, कुछ को जूनियर रिसर्च फेलोशिप मिल जाती है. यह फरमान इन संभावनाओं को खत्म कर देगा.’

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मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से गठित समिति इन मुद्दों पर करेगी विचार

  • योग्यता के आधार पर नेट फेलोशिप की संख्या बढ़ाने की व्यावहारिक समीक्षा
  • नॉन नेट शोधकर्ताओं को हर माह फेलोशिप की राशि का हस्तांतरण करने के लिए पारदर्शी पद्धति स्थापित करना. वर्तमान में यह प्रतिपूर्ति के आधार पर और सरकार के प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण आदेश के बिना की जा रही है
  • नॉन नेट फेलोशिप योजना के लाभों और अवसरों को राज्य विश्वविद्यालयों सहित बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों तक पहुंचाना
  • नॉन नेट फेलोशिप के लिए आर्थिक और अन्य मापदंड पर विचार करना. नॉन नेट फेलोशिप के चयन, प्रदान करने और प्रशासन के बारे में दिशानिर्देश की सिफारिश करना

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आंदोलन में शामिल जेएनयू के शोधछात्र ताराशंकर ने कहा, ‘हम मांग कर रहे थे कि महंगाई और बढ़ते खर्चों को देखते हुए नॉननेट फेलोशिप की राशि बढ़ाई जाए तो यूजीसी ने कहा कि अगले साल से फेलोशिप ही बंद कर दी जाएगी! इसका विरोध किया गया तो सरकार ने कहा कि ठीक है फेलोशिप बंद नहीं होगी! कुल मिलाकर बात तो वहीं पहुंची जहां से शुरू हुई थी! दबाव में आकर स्मृति ईरानी ने कहा कि मांग के मुताबिक नॉन नेट फेलोशिप सभी विश्वविद्यालयों में लागू रहेगी, लेकिन ये भी कहा कि एक रिव्यू कमेटी बनेगी, वो समीक्षा करेगी और उसके अनुसार निर्णय लिया जाएगा… यानी अगर कल को रिव्यू कमेटी कह दे कि बिना नेट परीक्षा पास किए किसी को फेलोशिप नहीं दी जाएगी या मेरिट वाला कोई क्राइटेरिया रखकर अधिकांश छात्रों को इस दायरे से बाहर कर दिया जाए तो यूजीसी उसे मान लेगी!’

बहरहाल,  ‘ऑक्यूपाई  यूजीसी’ अभियान का दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ, जामिया शिक्षक संघ ने समर्थन किया है. दक्षिण अफ्रीका की शिक्षा नीति को लेकर वहां के छात्र भी आंदोलनरत हैं. उस आंदोलन से जुड़े छात्रों ने भी इस अभियान के समर्थन में पत्र भेजा है.

देशबंधु कॉलेज के प्रोफेसर संजीव ने कहा, ‘नॉन नेट फेलोशिप और शिक्षा के बाजारीकरण के मुद्दे आपस में जुड़े हैं. शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोलने के बाद आप जितनी सुविधाएं, फंडिंग आदि अपने विश्वविद्यालयों को देते हैं, उतना ही विदेशी संस्थाओं को भी देना होगा. ऐसा न करना डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन होगा. दूसरे, शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोल देने पर आम जनता के लिए शिक्षा की उपलब्धता कम हो जाएगी, जो कि पहले से ही कम है. इसके बाद के हालात और भी भयावह हो जाएंगे.’

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. आशुतोष कुमार ने आगाह किया कि ‘विश्व व्यापार संगठन से समझौते का मतलब है कि शिक्षा प्रणाली को विश्व व्यापार के लिए खोलना, जिसकी शर्तें बाजार तय करेगा. फेलोशिप कम करना, शिक्षा बजट घटाना उसी प्रक्रिया का हिस्सा है. सरकार का अगला कदम होगा कि आईआईटी और अन्य बड़े संस्थानों की आर्थिक सहायता कम की जाएगी और उन्हें निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया जाएगा. बाहर से जितना कॉन्ट्रीब्यूशन ​होगा, सरकार उसी हिसाब से फंड करेगी. निजी क्षेत्र शिक्षा के लिए फंड करेगा तो वह अपनी प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाएगा, सरकार भी उन्हीं विषयों को तवज्जो देगी. ज्ञान के बुनियादी इलाके में मार्केट की कोई दिलचस्पी नहीं है. इसका परिणाम यह होगा कि बाजार की मांग पर रिसर्च भी होंगे और जितने भी बेसिक रिसर्च हैं, वे सब के सब बंद हो जाएंगे.’

डीयू के एक कॉलेज की शिक्षक डॉ. सुनीता का कहना है, ‘यूजीसी व सरकार को यह नॉन नेट फेलोशिप बंद नहीं करनी चाहिए. अगर उसे लगता है कि इसमें पारदर्शिता की कमी है तो उसके उपाय करने चाहिए. क्योंकि अगर कोई साधारण पृष्ठभूमि का छात्र संघर्ष करके शोध करने तक पहुंचता है तो यह फेलोशिप उसे बहुत मदद करती है. ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन की अपेक्षा शोध महंगा है. फेलोशिप मिलने से छात्रों को मुक्त होकर शोध करने का अवसर मिलता है.’ आईसा की अध्यक्ष सुचेता डे ने बताया, ‘हमारा संघर्ष देश के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए है. इस मुद्दे पर जनता की राय ली जानी चाहिए. यह आंदोलन उनके लिए है जो हमारी आवाज को दरकिनार कर रहे हैं.’

डीयू के प्रो. अपूर्वानंद का कहना है, ‘दुनिया भर के देश जब अपने को मापते हैं तो यह देखते हैं कि उनके यहां कितना शोधकार्य हो रहा है. उस हिसाब से वे अपनी शैक्षिक नीतियां तय करते हैं. चीन अपने यहां उच्च शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहा है. अमेरिका इसलिए सुपर पावर नहीं है कि वह हथियार बेचता है. दुनियाभर के स्कॉलर वहां पर शोध करना चाहते हैं. उसने बड़ी संख्या में नोबेल विजेता पैदा किए हैं. आप गुणवत्ता के तर्क के आधार पर अगर परिमाण घटा देंगे तो गुणवत्ता और कम हो जाएगी. परिमाण बढ़ेगा तो गुणवत्ता अपने आप बढ़ेगी. केंद्र सरकार ने विज्ञान प्रयोगशालाओं से भी कहा है कि वे अपने लिए पैसा खुद जुटाएं. इसी क्रम में नॉन नेट फेलाशिप भी हटा दी. यह कदम पूरी तरह ज्ञान विरोधी है. पिछले कुछ समय से जिस नॉलेज इकोनॉमी की बात चल रही थी, इस सरकार ने उसे बदल दिया. नई सरकार ने अपनी नीतियों से नॉलेज (ज्ञान) शब्द ही हटा दिया है.’

मां बनने का दुख!

Rehabilitation

ये यकीन से परे था, दो महीने पहले 13 साल की मूक-बधिर लड़की को गर्भपात के लिए एक अस्पताल में भर्ती किया गया. वो बेचारी ये तक नहीं जानती थी कि उसके साथ क्या हो रहा था. अस्पताल में उसके गर्भ को गिराया गया, उसकी वजह बलात्कार थी. दूसरी तरफ उसके घर का उजाड़ वातावरण वहां रहने वालों की मनोदशा जैसा ही था. पड़ोसी उस मासूम की मां गीता की मदद के लिए आते हैं, जो दो साल पहले अपने पति को खो चुकी हैं. उनके चेहरे पर सिर्फ डर और चिंता है, जिसकी वजह 37 साल के एक शख्स की घटिया हरकत है. ये उस शख्स ने किया जो न केवल उनका भरोसेमंद पड़ोसी था, बल्कि उनके परिवार के लिए एक भाई की तरह था.

अब तक, यौन उत्पीड़न और बलात्कार से जुड़े मामलों को आरोपियों की गिरफ्तारी तक ही रिपोर्ट किया जाता है. एक बार अगर आरोपी गिरफ्तार हो जाता है, तो ये मान लिया जाता है कि ये मामला अब खत्म हुआ, अब ‘पीड़िता’ और  उसका परिवार फिर से सामान्य जीवन जीने लगेगा. पर क्या ये कहना और सोचना इतना आसान है? इस दौरान जिस अहम चीज की उपेक्षा कर दी जाती है वह यह है कि पीड़िता किस तरह एक ‘सर्वाइवर’ में बदल जाती है. वो महिलाएं या लड़कियां, जो बलात्कार की वजह से मां बनती हैं और इसके अवांछित नतीजों का सामना करती हैं, उनके दर्द को शायद ही कोई समझ सके.

‘तहलका’ ऐसी ही कुछ महिलाओं और युवतियों की आवाज सामने ला रहा है, ये बताने के लिए कि उनकी जंग अभी भी खत्म नहीं हुई है. सौभाग्य से, इनमें से कुछ युवतियों के साथ समाज खड़ा होता है. बलात्कार की शिकार 13 साल की मासूस की पड़ोसी गौरी कहती हैं, ‘उसके दिन अच्छे थे जो वो जेल में है हमारे हाथ में आता तो मर चुका होता. अच्छा हुआ कि हम समय रहते बच्ची के गर्भ के बारे में जान गए, वरना पूरे समाज के सामने हमें शर्मिंदा होना पड़ता.’ दूसरी तरफ वो मासूम लड़की इस हादसे की वजह से हुए बदलावों से अनजान है, क्योंकि उसके मूक-बधिर होने के कारण उसे बलात्कार के जैविक परिणामों के बारे में प्रभावी ढंग से नहीं बताया जा सकता. उसकी मां गीता रोते हुए बताती हैं, ‘इस घटना का असर बस उसके डर में दिखता है.’ पीड़िता को धमकाया गया था कि अगर वो अपने साथ हुई घटना (बलात्कार) के बारे में किसी को बताएगी तो उसकी मां की हत्या कर दी जाएगी. उस मासूम की पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब वो अपने घर में इकट्ठी भीड़ को हैरानी भरे सवालिया नजरों से देखती है.

सामान्य तौर पर यौन उत्पीड़न के मामले उनके साथ होते हैं, जिन्हें असहाय के रूप में देखा जाता है और दुनिया भर में बच्चे ही इसका आसान शिकार बनते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से जाहिर होता है कि 2013 में बलात्कार की कुल 33,707 वारदातें सामने आईं, जो 2012 के मुकाबले 35.2 फीसदी ज्यादा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2002 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में 18 साल से कम उम्र की करीब 15 करोड़ लड़कियों और 7.3 करोड़ लड़कों ने किसी न किसी रूप में यौन हिंसा का सामना किया था. अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक 2002 में अमेरिका के प्रति 1000 बच्चों में 12 बच्चे यौन उत्पीड़न के शिकार थे. इन आंकड़ों की रोशनी में ‘तहलका’ ने न्यूयॉर्क टाइम्स की मशहूर लेखिका डलीन बेरी से संपर्क किया. डलीन एक पुरस्कृत पत्रकार, स्तम्भकार और संपादक रही हैं, जिन्होंने हाल ही में ऑनलाइन प्रकाशकों के लिए भी लिखना शुरू किया है. डलीन की जिंदगी का दूसरा पहलू ये है कि 13 साल की उम्र में वे भी यौन उत्पीड़न की शिकार हुई थीं.

अक्सर यही देखा जाता है कि बलात्कारी या आरोपी पीड़ित की जान-पहचान का ही होता है. ज्यादातर तो परिवार के बेहद विश्वस्त होते हैं. बेरी बताती हैं, ‘तमाम दूसरे बच्चों की तरह मैं भी सिंगल-पैरेंट वाले घर से थी. मां जरूरत से ज्यादा काम में व्यस्त रहती थीं, पिता होकर भी नहीं थे. शायद इसलिए मेरे उत्पीड़क के लिए मुझ तक पहुंचना आसान था. अगर माता-पिता साथ होते तो मुझ तक उसकी पहुंच इतनी आसान नहीं होती. मेरी मां उस पर अपने परिवार के किसी सदस्य की तरह विश्वास करती थीं.’

बलात्कार और उसके साथ जुड़े सदमे की वजह से ये युवतियां खुद को अकेला और अलग-थलग महसूस करती हैं. ऐसे में अगर वह गर्भवती हो जाएं, तब तो ये भावनाएं उन पर और ज्यादा हावी हो जाती हैं. तीन साल तक यौन उत्पीड़न की शिकार बनने के बाद बेरी ने आखिरकार अपने उत्पीड़क से शादी कर ली क्योंकि वे उसके बच्चे की कुंवारी मां बनने वाली थी. दुर्भाग्य से, उनके उत्पीड़न का ये सिलसिला यही खत्म नहीं हुआ. बेरी याद करती हैं, ‘1995 तक, मैं 21 साल की थीं, तीन बच्चे थे और चौथा जन्म लेने वाला था. मैं बाथरूम के फर्श पर बैठी थी और बच्चों समेत खुद को मारने की योजना बना रही थी.’

एक बार जब यौन उत्पीड़न से जुड़ी कानूनी-प्रक्रियाएं पूरी हो जाती हैं तो अक्सर औरत की लाचारगी, उसकी असहाय स्थिति की उपेक्षा कर दी जाती है. बेरी अपने आत्महत्या के बारे में सोचने की वजह बताती हैं, ‘मैं मरना चाहती थी क्योंकि मुझे लगता था कि जैसे खुद अपने शरीर पर भी मेरा कोई अख्तियार नहीं है, उसके साथ क्या हुआ या क्या होगा इस पर मेरा कोई वश नहीं है. मैं जैसे कोई कठपुतली थी जिसका कोई अपनी मर्जी के हिसाब से इस्तेमाल कर रहा था. ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा शरीर कोई औजार हो, कोई खिलौना हो और वह (पति) उसके साथ जो चाहे वो कर सकता था. मुझे लगता था कि मैं उस जिंदगी से कभी आजाद नहीं हो पाऊंगी और उस जिंदगी को मैं और ज्यादा नहीं जीना चाहती थी.’ पर उनका सौभाग्य था कि वे बच गईं. वह बताती हैं, ‘मैं अपने पति के चंगुल से तब तक नहीं निकल सकती थी जब तक कि मैं अपनी और बच्चों की खुद देखभाल करने लायक नहीं हो जाती. इसलिए मैंने एक योजना बनाई. मुझे एक नौकरी मिल गई. मैं बच्चों और खुद की सारी जिम्मेदारियां उठाना सीख गई और इन सबके दरम्यान धीरे-धीरे मेरा आत्मसम्मान विकसित हुआ, जिसने मुझमें भरोसा जगाया कि मैं उस आदमी से बच निकलने और अपने बलबूते पर जीवनयापन करने के योग्य थी.’

बेरी के उलट, बहुत सारी महिलाएं इन परिस्थितियों में खुद को पूरी तरह असहाय पाती हैं. भारत में, ऐसी पीड़िताओं को इन विपरीत परिस्थितियों से पार पाने और जिंदगी जीने में मदद करने के लिए तमाम परामर्शदाता या सलाहकार होते हैं. कई सलाहकार ‘रेप क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर्स’, राष्ट्रीय महिला आयोग, दिल्ली महिला आयोग जैसे संगठनों के साथ मिलकर पीड़िताओं की मदद करते हैं.

दिल्ली महिला आयोग की काउंसलर और वकील शुभ्रा मेंदीरत्ता बताती हैं, ‘एक बार जब शिकायत दर्ज हो जाती है तो हम पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों को हर तरह की भावनात्मक, कानूनी और चिकित्सकीय मदद देने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं.’ बलात्कार की शिकार बहुत सारी नाबालिग बच्चियां परिस्थितियों को नहीं समझ पातीं. ऐसे मामलों में माता-पिता की काउंसलिंग बहुत जरूरी हो जाती है. मेंदीरत्ता आगे बताती हैं, ‘माता-पिता बेटी से बलात्कार होने के बाद उसकी शादी को लेकर बेहद चिंतित हो जाते हैं. उन्हें काउंसलिंग की बेहद जरूरत होती है. एक बार जब पीड़िता भावनात्मक रूप से कुछ हद तक संभल जाती है तो हम उसके लिए काउंसलिंग सत्र नियमित कर देते हैं. पीड़िता की चिकित्सकीय जांच के दौरान सलाहकार उसके साथ रहते हैं और टू-फिंगर टेस्ट न हो इसके लिए दबाव भी डालते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी टू-फिंगर टेस्ट पर बैन लगा रखा है.’ अगर पीड़िता गर्भवती हो जाए और गर्भपात करना मुमकिन हो तो इसके लिए भी प्रावधान दिया गया है. हालांकि मेंदीरत्ता गर्भपात करवाने से असहमत हैं, ‘प्री-मैच्योर अबॉर्शन यानी समय पूर्व गर्भपात में बहुत सारी ऊर्जा का ह्रास होता है और लड़की को समुचित पोषण की जरूरत होती है. ये तभी हो सकता है जब सरकारी मुआवजे को तत्काल उपलब्ध कराया जाए.’ आगे बात करते हुए उन्होंने जिक्र किया कि ऐसे मुआवजों को उपलब्ध कराने की कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी है कि तत्काल राहत का इसका उद्देश्य ही बेमानी हो जाता है.

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम के मुताबिक, ‘सबसे पहला काम तो ये सुनिश्चित करना होता है कि सर्वाइवर्स के पास खुद के पैरों पर खड़े होने की क्षमता हो. उन्हें समाज से पूरा सहारा मिलना चाहिए. उन्हें हाथों हाथ लिए जाने की जरूरत है.’ ललिता के अब तक अनुभवों के आधार पर वो बताती हैं कि महिला के लिए यौन हिंसा सिर्फ शारीरिक कष्ट नहीं है, ये इससे कहीं ज्यादा है. कुछ समय तक के लिए तो उनके आत्म-अस्तित्व की भावना ही खत्म हो जाती है. वह खुद को किसी भी लायक नहीं समझती. एक बार जब वह इससे पार पाना सीख लेती हैं तो वह पहले से मजबूत हो जाती हैं और बलात्कार की वजह से पैदा हुए बच्चे का पालन-पोषण और उसके लिए लिए संघर्ष करने लगती हैं. कुमारमंगलम कहती हैं, ‘बच्चे का भला-बुरा इस बात पर निर्भर करता है कि मां भावनात्मक रूप से कितनी मजबूत है. आमतौर पर माताएं काफी मजबूत होती हैं और अपने बच्चों का लालन-पालन करने में समर्थ होती हैं.’ यहां भारतीय समाज को भी बेहतर भूमिका निभाने की जरूरत है. समाज को भी रेप सर्वाइवर और उसके बच्चों को स्वीकृति देनी होगी.

बलात्कार की शिकार युवतियों को पूरी आजादी तभी मिल पाएगी जब उनका सही से पुनर्वास हो, समाज संवेदनशीलता के साथ मां और उसके बच्चे का साथ दे

भारतीय समाज की पाखंडी प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कुमारमंगलम कहती हैं, ‘हाल ही में बलात्कार के एक मामले में एक खाप पंचायत ने फैसला लिया कि बलात्कारी से ही लड़की (जो नाबालिग थी) की शादी कर दी जाए तो लड़की सुरक्षित रहेगी. ये बेहद गलत है क्योंकि खुद लड़की की राय के बारे में किसी ने जरा भी फिक्र नहीं की.’ सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक और दूरगामी असर डालने वाला फैसला सुनाया है. फैसले के मुताबिक, बिन-ब्याही माताएं अपने बच्चों की संरक्षक हैं, पूर्ण अभिवावक हैं. कुमारमंगलम ये भी बताती हैं कि बलात्कार की शिकार डरी हुई होती हैं कहीं वे एचआईवी से संक्रमित तो नहीं हो चुकी हैं क्योंकि ज्यादातर बलात्कारी सीरियल रेपिस्ट भी होते हैं.

यौन उत्पीड़न का सामना कर चुकी ज्यादातर महिलाएं इसके लिए खुद को जिम्मेदार मानने लगती हैं. बलात्कार की शिकार युवतियों की जिंदगी में बदलाव लाने के संबंध में कुमारमंगलम बताती हैं, ‘सबसे पहला कदम तो खुद को दोष देने की प्रक्रिया पर रोक लगाना है, जो अपने आप में एक बहुत बड़ा कदम होगा. इसके बाद महिला को भौतिक या मनोवैज्ञानिक, हर स्तर पर आत्म-निर्भर बनाना है. उसमें ये विश्वास जगे कि उसके पास वह सब कुछ है जो जिंदगी जीने के लिए जरूरी है, उसके पास मकसद है. जरूरत पड़ने पर उन्हें ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वे समाज में खुद के लिए एक जगह बनाने में समर्थ हों.’ शुभ्रा मेंदीरत्ता की राय है कि ये एक अंतहीन प्रक्रिया है. वह भी ललिता कुमारमंगलम जैसी ही राय रखती हैं और कहती हैं, ‘निश्चित तौर पर ये प्रक्रिया ऐसी है जैसे आपको हाथ थामकर चलना है. ऐसे मामलों में ये उसी तरह है जैसे आप घोड़े को पानी के पास ले जा रहे हों और उसे पीने की प्रक्रिया समझा रहे हों और उनमें ये विश्वास भर रहे हों कि वे ऐसा करके जी पाएंगी.

विपरीत परिस्थितियां लोगों को मजबूत बनाती हैं और ये पीड़िताएं अधिकांश लोगों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होती हैं. इन्हें उनकी जरूरत की सारी चीजें उपलब्ध कराने के लिए निश्चित तौर पर एक सिस्टम विकसित होना चाहिए, लेकिन पीड़िताओं के अपने परिजनों-दोस्तों की भूमिका यहां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. अगर वे उसके साथ मजबूती से खड़े होते हैं तो वह सारी मुश्किलों से पार पा जाएंगी. अगर परिजन-प्रियजन उसके साथ नहीं खड़े होंगे तो निश्चित ही ऐसा माहौल बनेगा जिसमें वह टूट जाएंगी. इन्हें पूरी तरह आजादी तभी मिल पाएगी जब उनका सही से पुनर्वास हो, समाज संवेदनशीलता के साथ मां और उसके बच्चे का साथ दे.

 (सभी नाम बदले गए हैं)

पटेल आरक्षण चाहते हैं या सिर्फ आंदोलन

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इस समय पटेल आंदोलन क्यों शुरू हुआ? क्या ये सच में पटेलों के लिए आरक्षण पाने की मुहिम है या ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण को खत्म करने की साजिश? शुक्र है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तक फिलहाल इस आंदोलन की आंच नहीं पहुंची. क्या यह आंदोलन नरेंद्र मोदी को मजबूत करने की लिए है, जिन्होंने आम चुनावों में पिछड़ी जाति का वोट बटोरने के चक्कर में खुद को पिछड़ी जाति का घोषित कर दिया था और जिसकी वजह से वे चुनकर आए? वैसे भी इस बार तो भाजपा की जगह उन्हें ही चुना गया है. या कहीं ये इसलिए तो नहीं किया जा रहा कि मोदी की नाव को झटका देकर यह देखा जाए कि पटेल, जाट, गुर्जर जैसी पिछड़ी जातियों की पकड़ केंद्र सरकार में मजबूत होती है या नहीं. हालांकि सवाल ये भी उठता है कि क्या ये जातियां वाकई में इतनी मजबूत हैं कि ब्राह्मण और बनियों को चुनौती दे सकें, जो वास्तव में केंद्र सरकार को चला रहे हैं और जिनकी वजह से मोदी मजबूत प्रधानमंत्री नजर आते हैं? इस तरह के कुछ सवाल हैं, जिनकी पूछताछ करने के साथ इनके संभावित जवाबों को जनता के सामने रखने की जरूरत है.

भाजपा के प्रबल समर्थकों में वे लोग भी शामिल हैं, जो आरक्षण का समर्थन करने वालों के खिलाफ हैं. साथ ही वे भी, जो ‘सनातन वर्ण धर्म’ (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के समर्थक हैं. इस प्रकार इन प्रबल समर्थकों में ब्राह्मण, बनिया, राजपूत और शूद्र वर्ग की उच्च जातियों जैसे पटेल, जाट और मराठा शामिल हैं, जो लोकसभा चुनावों के समय जोश में थे और जिन्हें यह समझाया गया था कि अगर मोदी की सरकार केंद्र में आई तो ओबीसी आरक्षण पर फिर से विचार किया जाएगा.

हमें यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया पर ‘टीम मोदी’ (उस समय यह ‘टीम इंडिया’ नहीं थी) के लोगों को लामबंद करने की रणनीति में उच्च वर्ग के युवाओं की संख्या ज्यादा थी, जो आरक्षण के खिलाफ थे. अब ये युवा खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं. उन्हें लगता हैं कि मोदी की जीत उनकी वजह से ही हुई है, लेकिन जीत के बाद उनकी सरकार आरक्षण के मुद्दे की समीक्षा की तरफ ध्यान ही नहीं दे रही है.

मोदी ने जब खुद को पिछड़ी जाति का बताया था तब उनका यह बयान हैरान कर देने वाला था क्योंकि जब तक वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहे तब तक उन्होंने इसे तुरुप के पत्ते की तरह छिपाकर रखा. उन्हें इस बात का अंदाजा था कि पटेल और ऊंची जाति वाले दूसरे गुजराती लोग ओबीसी और अल्पसंख्यकों (मुस्लिम या दलित ईसाइयों) के आरक्षण के खिलाफ हैं. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश और बिहार का चुनावी मैदान अलग था. इन राज्यों में जब तक अन्य पिछड़ा वर्ग के सत्तारूढ़ नेताओं से तालमेल बैठाकर ओबीसी वोट को अपने पक्ष में नहीं किया जाता तब तक मोदी यहां ज्यादा सीटें नहीं जीत सकते थे. यूपी और बिहार में अच्छी खासी संख्या में सीटें जीतने के बाद मोदी अब न तो ओबीसी आरक्षण के खिलाफ जा सकते हैं और न सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय किए गए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था को खत्म कर सकते हैं. न ही वे आरक्षण की सीमा को भारत की शूद्र जाति के उच्च वर्ग तक बढ़ा सकते हैं, जो एक समय में मंडल कमीशन को तरजीह देने की बजाय क्षत्रियों के साथ होने को तरजीह देते थे.

इन सभी जातियों ने अपने नाम के साथ पटेल, चौधरी, रेड्डी और राव जैसे उपनाम लगाने शुरू कर दिए. ऐतिहासिक रूप से क्षत्रिय होने के क्रम में (हिंदुत्व के प्रभाव में) ऐसा किया गया था. ऐसा इसलिए क्योंकि आजादी के बाद से यह एक तरह का चलन बन गया था. दूसरे शब्दों में कहें, जिसे मैंने अपनी किताब ‘वाय आई एम नॉट अ हिंदू’ में भी बताया है कि अनुसूचित जाति और जनजाति से घृणा के कारण शुरुआत में वे ‘नए-क्षत्रिय’ (नियो-क्षत्रिय) बन गए. इसके बाद अब इन लोगों ने अन्य पिछड़ा वर्ग के खिलाफ भी घृणा विकसित करनी शुरू कर दी हैं, जो केंद्रीय और राज्य सेवा में शामिल हो रहे हैं. हालांकि अंग्रेजी सीखने और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जाने के मामले में ये समुदाय ब्राह्मण, बनिया और क्षत्रिय युवाओं से तगड़ा मुकाबला नहीं कर सका है. इसका परिणाम यह हुआ कि अब हम देख सकते हैं कि गुजरात केंद्रित केंद्र सरकार में ब्राह्मण और बनिया ज्यादा दिखाई देते हैं, लेकिन पटेल मुश्किल से नजर आते हैं. पटेल सोचते हैं कि ‘गुजरात’ का मतलब ‘वे खुद’ हैं और ‘वे खुद’ ही ‘गुजरात’ हैं. हालांकि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में उनकी मौजूदगी लगभग शून्य है. अब उन्हें महसूस हुआ है कि गुजरात में उनका पाटीदारी जीवन या यूरोप और अमेरिका में उनका औद्योगिक स्वामित्व भारतीय नौकरशाही तंत्र में ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह गए हैं. मुझे नहीं लगता है कि भारत में पटेल समुदाय में से अंग्रेजी में बोलने वाला कोई प्रबुद्ध राजनयिक होगा. भारत की शूद्र जाति के उच्च वर्ग में यही वास्तविक समस्या है.

अंग्रेजी से लैस उच्च प्रशासनिक तंत्र में मुख्य रूप से ब्राह्मण, बनिया और जैन के साथ कुछ दलित अधिकारी और दक्षिण भारत के कुछ नेता शामिल हैं. शूद्र जाति के उच्च वर्ग रियल इस्टेट और औसत दर्जे के शिक्षा से जुड़े व्यापारों में  हैं. यह उन्हें वैश्विक जीवन स्तर के लिए जरूरी प्रबुद्धता नहीं देता. ईमानदारी से कहूं तो मोदी खुद भी भारत के अंग्रेजीदां प्रशासनिक तंत्र को संभालने में कठिनाई महसूस करते होंगे. दिल्ली की जनसभाओं में हिंदी में भाषण देना भर ही काफी नहीं.

शूद्र जाति के उच्च वर्ग को लगता है कि वीपी सिंह के कार्यकाल में उन्होंने जिस मंडल कमीशन का विरोध किया था वह अब ब्राह्मण और बनियों के मुकाबले में उनके प्रशासनिक सेवाओं में जाने का दरवाजा खोल देगा. शूद्र जाति के उच्च वर्ग के बच्चे सामान्य कोटा में ब्राह्मणों और बनियों के साथ प्रशासनिक सेवा के लिए मुकाबला करते हैं और जब सफल नहीं होते तो बिना अंग्रेजी के चल सकने वाले कारोबार या फिर कृषि से जुड़े व्यवसायों को पकड़ लेते हैं. उदाहरण के तौर पर राजस्थान और गुजरात के मीणा (जनजाति) को देखा जा सकता है. मीणा अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और दोनों राज्यों की नौकरशाही में पटेल और गुर्जरों की तुलना में बेहतर दखल रखते हैं. पैसे से इतर राज्य की सत्ता में होना एक अलग हैसियत प्रदान करता है.

भाजपा यह नहीं जानती कि पटेल और उच्च वर्ग के आंदोलन को कैसे संभाला जाए क्योंकि वह खुद उनसे आरक्षण की समीक्षा करने का वादा कर चुकी है. अगर दिल्ली में ऐसा कुछ होता है तो ओबीसी कोटे के सांसद विद्रोह कर उठेंगे. तब मोदी सरकार एक बड़ी समस्या का सामना करेगी. ये सब बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की महानता की छांव तले हो रहा है, जिन्होंने देश की आरक्षण व्यवस्था को नई राह दिखाई. साथ ही देश में पनप रहीं इस तरह की स्थितियां जाति व्यवस्था के लिए भी खतरनाक साबित होंगी.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और विश्व हिंदू परिषद (विहिप) जहां इस आंदोलन का सहयोग कर रहे हैं, वहीं भाजपा इससे अपना पीछा छुड़ाते हुए नजर आ रही है. हालांकि यह मामला राम मंदिर निर्माण जैसा नहीं है. वास्तव में गुजरात में अगर वे पटेलों को आरक्षण देते हैं, जैसा कि कांग्रेस ने महाराष्ट्र में मराठियों को दिया तो अदालत इसे रद्द कर सकती है. इस लिहाज से देखा जाए तो भारतीय न्याय व्यवस्था और अधिक संकट का सामना करने से बचाती है. यह उन लोगों के साथ भी विश्वासघात होगा, जिनसे भाजपा आरक्षण देने का वादा कर चुकी है. बहरहाल ये देखने वाली बात होगी इस समस्या का समाधान किस तरह से निकाला जाता है.

हालांकि इस बीच एक बात साफ हो चुकी है कि शूद्र जाति के उच्च वर्ग का अंग्रेजी भाषा और आरक्षण को हल्के में लेने का घमंड चूर-चूर हो चुका है.

(लेखक शिक्षाविद हैं)

भारत में कमर्शियल सरोगेसी पर लगेगा प्रतिबंध

Stamp Babyक्या है मामला?

केंद्र सरकार ने कमर्शियल सरोगेसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह इसका समर्थन नहीं करती. इससे संबंधित नए कानून में केवल भारतीयों को ही सरोगेसी की सुविधा प्राप्त करने की अनुमति होगी. कमर्शियल सरोगेसी के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा था. सरकार ने माना कि केवल भारतीय पति-पत्नी को ही परोपकारिक तौर पर ये सुविधा मिलेगी जो बच्चा पैदा करने में असमर्थ हैं. इसमें किसी तरह का लेन-देन नहीं होना चाहिए. सुविधा का लाभ लेने वाले युगलों का चयन एक सक्षम प्राधिकरण पूरी छानबीन के बाद करेगा. ‘सहायक प्रजनन तकनीक (नियमन) बिल, 2014’ में सरोगेसी से जुड़े विभिन्न प्रावधान और सरोगेट मां के अधिकारों को शामिल किया गया है.  प्रस्तावित कानून के मुख्य बिंदु हैं- कमर्शियल सरोगेसी को प्रतिबंधित करना और दंड लगाना. विकलांग सरोगेट बच्चे को लेने से मना करने पर युगल पर दंड लगाना. सरोगेट मां के अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी प्रावधान.

क्या होती है कमर्शियल सरोगेसी?

जो पति-पत्नी किसी कारण से स्वयं बच्चा पैदा करने में असमर्थ होते हैं वे ऐसी महिलाओं की कोख किराये पर लेते हैं जो प्रजनन करने में सक्षम हैं. इसके लिए औरत के अंडों और आदमी के शुक्राणुओं को सरोगेट मां की बच्चेदानी में निषेचित कर दिया जाता है. गर्भावस्था के दौरान सरोगेट मां की सभी जरूरतों का ख्याल वह जोड़ा करता है जिसे बच्चा चाहिए. इस सुविधा के लिए देश में कई चिकित्सालय हैं जिन्होंने सरोगेट माओं को ठहराने के लिए हॉस्टल जैसे इंतजाम भी किए हैं. बच्चा पैदा होने के बाद उसके असली मां-बाप को सौंप दिया जाता है और सरोगेट मां को सहायता के तौर पर कुछ राशि उपलब्ध करा दी जाती है. इस सुविधा के दुरुपयोग के भी मामले आए हैं जिसके चलते सरकार ऐसा कदम उठाने जा रही है.

नए कानून का क्या होगा असर?

भारत में कमर्शियल सरोगेसी का कारोबार पिछले दशक में बहुत तेजी से बढ़ा है. संयुक्त राष्ट्र की जुलाई 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में यह कारोबार 400 मिलियन डॉलर सालाना का है और करीब तीन हजार प्रजनन केंद्र इस समय यह सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं. कई महिलाएं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, अपनी कोख किराए पर देती हैं. सरकार के इस फैसले से न सिर्फ उन गरीब महिलाओं के लिए मुश्किल खड़ी होगी बल्कि विदेशी जोड़ों को भी परेशानी होगी जो एक अदद बच्चे की आस में भारत का रुख करते हैं. पश्चिमी देशों से विदेशी जोड़े भारत में इस सुविधा का लाभ लेने आते हैं क्योंकि उनके यहां सरोगेसी काफी महंगी है. नए कानून के बाद विदेशी नागरिक इस सुविधा से वंचित हो जाएंगे. साथ ही बच्चा पाने के इच्छुक भारतीय युगलों के लिए भी सरोगेट मांओं का इंतजाम करना मुश्किल हो जाएगा.

बाबा, बवाल और जरूरी सवाल

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पांच अक्टूबर को बनारस में जो हुआ, उसे सबने देखा. टीवी और सोशल मीडिया के जरिये धारणा बनी कि मोदी के बनारस आने पर अब यही सब होना है. दिल्ली से लेकर दूर देस में बसे लोग बनारस की घटना पर तरह-तरह से तर्क दे रहे थे और बनारसी उन सारे तर्कों को हंसी उड़ा रहे थे. दरअसल पांच अक्टूबर को जो कुछ भी हुआ और फिर उसे जिस तरह से बताया गया, उन दोनों यानी तथ्यों व तर्कों में तालमेल का अभाव था, उसमें घालमेल जैसा ज्यादा था.

उस दिन जो भी हुआ वह पहले से तय था. अनायास जैसा कुछ नहीं था. देखते ही देखते बनारस रणक्षेत्र बन गया. हजारों की संख्या में साधु-संन्यासी बनारस की सड़कों पर उतर गए और पुलिस से टकराव हुआ. पत्थरबाजी और लाठीचार्ज हुआ. कुछ देर के लिए कर्फ्यू भी लगा रहा. बाद में बात उड़ी कि प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र में फैली यह अशांति और डेढ़ दशक बाद काशी में लगा कर्फ्यू कहीं भाजपा और संघ परिवार की नई चाल तो नहीं. कुछ यह कह रहे थे कि बनारस का बवाल मोदी की लोकप्रियता कम करने के लिए चली गई चाल है. हालांकि सच्चाई इसके पार की है. सच यही है कि बनारस के बवाल की वजह और परिणाम दूसरा ही था. इससे जो कुछ भी हासिल हुआ उसके जरिये पहला निशाना सीधे-सीधे उत्तर प्रदेश की सरकार पर साधने की गुंजाइश है, बाद में जिसका असर पूरे देश पर होगा.

बनारस साधु-संन्यासियों से पटा रहता है, लेकिन उस दिन जो कुछ भी हुआ वह इस शहर के बदलते हुए मिजाज की ओर संकेत दे रहा है. पहली बार ऐसा हुआ कि एक-दूसरे के घोर विरोधी माने जाने वाले साधु-संन्यासी एक साथ खड़े नजर आए. यह सब स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद की अगुवाई में निकली अन्याय प्रतिकार यात्रा में दिखा, जो कुछ दिन पहले गणेश प्रतिमा के विसर्जन को लेकर साधु-संतों पर पुलिस के लाठीचार्ज के विरोध में निकाली गई थी. अविमुक्तेश्वरानंद बनारस के श्रीविद्यामठ के प्रमुख हैं. श्रीविद्यामठ जोशीमठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का आश्रम है. स्वरूपानंद और कांग्रेस के मधुर संबंध राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से ही सब जानते हैं. भाजपा और विश्व हिंदू परिषद (विहिप)जैसी संस्थाएं स्वामी स्वरूपानंद को खुलेआम कांग्रेसी एजेंट कहती रही हैं. इस नाते स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद भी हमेशा से भाजपा, विहिप जैसे संगठनों के निशाने पर रहे हैं. गंगा सेवा अभियान से लेकर दूसरे तमाम अभियानों में भाजपा और संघ के लोग उनके विरोध में ही रहे हैं. हालांकि यह समीकरण उस रोज बदलता हुआ दिखा. हिंदुत्व के उभार के नाम पर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के समर्थन में विहिप, भाजपा समेत साध्वी प्राची जैसे वे संत-संन्यासी भी आ गए, जो अविमुक्तेश्वरानंद के विरोधी रहे हैं. यह बनारस के बदलते हुए समीकरण का संकेत है.

नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में यह सब मोदी के सांसद बनने के बाद हो रहा है लेकिन बनारसवाले जानते हैं कि यह अखिलेश सरकार के लिए नया जख्म बनने जा रहा है

इस घटना का आगे क्या असर पड़ेगा, इस पर बात करने के पहले यह जान लेना जरूरी है कि बात यहां तक पहुंची कैसे थी? हर साल की तरह इस साल भी बनारस में कुछ जगहों पर गणेश चतुर्थी का आयोजन हुआ था. बात 17 सितंबर की है. प्रतिमा विसर्जन की बारी आई तो प्रतिमाओं को गंगा की ओर ले जाने की तैयारी हो रही थी. इसके पहले हाईकोर्ट ने प्रशासन को यह आदेश दिया था कि किसी भी प्रतिमा का विसर्जन गंगा में न हो, प्रशासन इसके लिए वैकल्पिक इंतजाम करे. बनारस में प्रशासन ने राजघाट के पास एक कुंड बनवाकर इंतजाम कर दिया था. लेकिन इस पूरे मामले में काशी विद्वत परिषद ने अड़ंगा लगा दिया. परिषद ने तर्क दिया कि कुंड में प्रतिमा को विसर्जित करना शास्त्रसम्मत नहीं. प्रतिमा का विसर्जन प्रवाहमान जल में ही होना चाहिए, ठहरे हुए जल में नहीं. परिषद ने तर्क गढ़े तो पूजा समितियों को बल मिला. गणेश की प्रतिमाएं शहर के दशाश्वमेध घाट के पास पहुंचीं. उसे पुलिस ने रोका तो प्रतिमा विसर्जित करने वाले गंगा में विसर्जन को लेकर अड़ गए और बात बढ़ती चली गई. धरना प्रदर्शन शुरू हो गया. इस धरने में दो दिन गुजर गए. श्रीविद्यामठ के प्रमुख स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद अपने आश्रम के बच्चों के साथ शामिल हो गए. वह कहते हैं, ‘मैंने एक दिन देखा, दो दिन देखा. मुझे अच्छा नहीं लगा कि गणेशजी की प्रतिमाएं सड़क पर हैं और हम लोग आराम कर रहे हैं. इसलिए मैं पहुंच गया.’

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/is-india-being-governed-by-dictators/” style=”tick”]अविमुक्तेश्वरानंद से बातचीत..यहां पढ़ें[/ilink]

अविमुक्तेश्वरानंद वहां पहुंचे तो पुलिस से बात बढ़ी. लाठीचार्ज शुरू हुआ और बवाल मच गया. अविमुक्तेश्वरानंद समेत कई लोग घायल हुए. प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने पर भी मोदी ने पुलिसिया लाठीचार्ज पर कुछ नहीं बोला. इससे भाजपा कार्यकर्ता नाराज हुए. भाजपा के करीब 300 कार्यकर्ताओं ने इस्तीफा दे दिया. यह एक आश्चर्यजनक बात थी क्योंकि बनारस में यह सब जानते हैं कि भाजपा और अविमुक्तेश्वरानंद में छत्तीस का आंकड़ा रहा है. उन्हीं अविमुक्तेश्वरानंद के लिए भाजपाइयों के दिल में प्यार उपजा, जो इस घटना के कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के न आने के बाद बीएचयू के नवनिर्मित ट्रॉमा सेंटर का उद्घाटन नारियल फोड़ खुद कर आए थे. यह कहते हुए कि पीएम नहीं आ रहे हैं तो क्या गरीबों के लिए बने इस अस्पताल का उद्घाटन रुका रहेगा!

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अविमुक्तेश्वरानंद घायल हुए तो उन्होंने ऐलान किया कि नासिक कुंभ के बाद पांच अक्टूबर को बनारस में संतों का जमावड़ा होगा और अन्याय प्रतिकार यात्रा निकलेगी. प्रशासन सचेत हो गया. लाठीचार्ज के बाद पुलिस को भी लग गया कि गलत जगह पर उसने हाथ डाल दिया है और अब बवाल मचेगा. प्रशासन ने दूसरा रास्ता अपनाया. बनारस में संतों में फूट डाली, जिसकी स्वाभाविक संभावना हमेशा बनी रहती है. अविमुक्तेश्वरानंद के दो घोर विरोधी संतों को अपने पाले में किया गया. उन दोनों का संघ से गहरा जुड़ाव माना जाता है. गंगा महासभा से जुड़े स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती और विहिप के सौजन्य से शंकराचार्य बने स्वामी नरेंद्रानंद ने प्रशासन के लाठीचार्ज कार्रवाई को गैरवाजिब नहीं बताया. हालांकि दोनों की बात का कोई खास असर नहीं हुआ. इसी बीच बनारस में राज्य के डीजीपी जगमोहन यादव का आना हुआ. उनसे पूछा गया कि लाठीचार्ज की जो घटना हुई और जिसकी वजह से शहर अंदर ही अंदर जल रहा है, उस पर आप क्या कर रहे हैं. डीजीपी ने जवाब दिया, ‘जिसने लाठीचार्ज किया है, उनसे पूछिए, मैं कुछ नहीं जानता.’ डीजीपी के बयान से बात और बिगड़ गई. मामला संभालने के लिए राज्य के पर्यटन मंत्री ओमप्रकाश सिंह भी सरकार का दूत बनकर अविमुक्तेश्वरानंद से मिलने पहुंच गए. फिर शिवपाल यादव ने भी बात की लेकिन बात बनी नहीं. तब तक अन्याय प्रतिकार यात्रा निकालने का समय आ गया और देखते ही देखते नजारा बदल गया. विहिप और दूसरे हिंदूवादी संगठन जो अविमुक्तेश्वरानंद का कांग्रेसी एजेंट कहकर विरोध करते थे, वे भी यात्रा में शामिल हुए. साध्वी प्राची जैसी फायर ब्रांड नेता भी पहुंच गई. प्रदर्शन शुरू हुआ. भीड़ में संतों और समर्थकों की संख्या बढ़ी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अविमुक्तेश्वरानंद से बात करने की कोशिश की तब स्वामीजी ने मना कर दिया और उसके बाद जो हुआ वो सबके सामने है. बात यह हो रही है कि बनारस में डेढ़ दशक बाद कर्फ्यू लगा. घटना का दूसरा पक्ष यह है कि ढाई दशक बाद कांग्रेस और भाजपा के खेमे में बंटे रहने वाले संत एक हुए. ये नरेंद्र मोदी के लिए कम और अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के लिए ज्यादा खतरे की घंटी है. ऊपरी तौर पर यह बताया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में यह सब मोदी के सांसद बनने के बाद हो रहा है लेकिन बनारसवाले जानते हैं कि यह अखिलेश सरकार के लिए नया जख्म बनने जा रहा है. अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं, ‘लॉ एंड ऑर्डर केंद्र का नहीं, राज्य का मसला है. हमारा विरोध राज्य सरकार से है. इस बहाने बनारस में इतिहास बना, आपसी विरोध के सारे बंधन टूट गए, सनातन समाज के नाम पर सबमें एका हो गया है, इसका असर देखने को मिलेगा.

अब आगे कौन, कैसा आंदोलन करेगा, ये तो संत ही जानें लेकिन इसके संकेत मिल गए हैं. साथ ही कुछ हलको में यह संदेश चला भी गया है कि विहिप और संघ परिवार ने इस घटना के जरिये अविमुक्तेश्वरानंद का समर्थन कर एक बड़ी चाल चली है. देश में स्वामी स्वरूपानंद ही भाजपा विरोधी मुखर संत माने जाते हैं, जो इतने बड़े ओहदे यानी दो पीठों के शंकराचार्य हैं. स्वामी स्वरूपानंद का उत्तराधिकारी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को ही माना जाता है. अगर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को संघ या विहिप या फिर भाजपा ने साध लिया तो फिर देश में संतों के जरिये राजनीति करने में उनके लिए राह आसान होगी. आज नहीं लेकिन एक समय के बाद भाजपा के लिए संभावनाओं के नए द्वार खुलेंगे.

तेनज़िन Tsundue के साथ तहलका कविता

घबराए वामपंथी चला रहे राजनीतिक मुहिम

p4-0145भारतीय संस्कृति और दर्शन का एक सूत्र-वाक्य है ‘नेति-नेति’, जिसका अर्थ होता है यह भी नहीं वह भी नहीं. अर्थात भारतीय समाज प्रकृति से प्रयोगधर्मी और विमर्शात्मक है. संक्षेप में शास्त्रार्थ हमारी सभ्यताई परंपरा है, इसलिए प्रयोगधर्मिता और विमर्शात्मकता बनी रहनी चाहिए और इस पर चोट करने वाली किसी भी ताकत और विचारधारा को परास्त किया जाना चाहिए. तभी तो नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के संदिग्ध अपराधियों, जिनका संबंध कथित रूप से सनातन संस्था से है, को जब पकड़ा गया तब कोई भी उनके बचाव में सामने नहीं आया. जब उनकी हत्या हुई, तब महाराष्ट्र और केंद्र में कांग्रेस की सरकारें थीं और जब अपराधी पकड़े गए तब भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं. इस देश के लोगों का मानवीय सरोकार कितना मजबूत है इसका प्रमाण इस बात से मिला कि पूरे देश ने एक स्वर में प्रो. कलबुर्गी और दादरी घटना की निंदा की. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि इन घटनाओं को सिर्फ इन बातों से नजरअंदाज कर दिया जाए. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो.

लेकिन इन घटनाओं की आड़ में कुछ साहित्यकारों के द्वारा अवार्ड लौटाने की मुहिम कितनी उचित है, यह विचारणीय प्रश्न है. विरोध प्रकट करना और विरोध प्रकट करने की प्रकृति निश्चित रूप से किसी का निजी और मौलिक अधिकार होता है. अतः साहित्यकारों के विरोध प्रकट करने के अधिकार पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता. सवाल विरोध प्रकट करने की नीयत का है. कलबुर्गी की हत्या या दादरी की घटना से अगर कुछ साहित्यकार विचलित हुए हैं तो यह अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन स्थानीय मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बना देना और अपराध को वैचारिक रंग दे देना ऐसे साहित्यकारों की नीयत पर सीधा सवाल खड़ा करता है. क्या अवार्ड लौटाना ही इन घटनाओं से लड़ने का एकमात्र रास्ता है?

सच्चाई यह है कि एक विशिष्ट विचारधारा ने समाजशास्त्र और साहित्य के क्षेत्र में अपना आधिपत्य पिछले साठ सालों से बनाए रखा है और इस आधिपत्य ने विमर्श को सर्वसमावेशी नहीं बनने दिया और संस्थाओं पर अपना एकाधिकार बनाए रखा, जिसके कारण वैकल्पिक विचारधाराएं सिर्फ पीड़ित ही नहीं हुईं बल्कि स्वतंत्र सोच और मेधा के लोग भी या तो उनके दासत्व को स्वीकार करने के लिए बाध्य हुए अथवा हाशिये पर भेज दिए गए. क्या कोई कल्पना कर सकता है कि 70-80 के दशकों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संघ की विचारधारा का प्रतिपादन करने वाला व्यक्ति वहां सफल शोधार्थी या शिक्षक हो सकता था? वैसे ही साहित्य के क्षेत्र में ट्रेड यूनियन की राजनीति किसने शुरू की? जिन तीन संगठनों ने अपना इस क्षेत्र में आधिपत्य बनाए रखा वे तीनों भारत की तीन कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हुए हैं. ये हैं प्रगतिशील लेखक संघ (जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा है), जनवादी लेखक संघ (जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा है) और जन संस्कृति मंच (जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से संबद्ध है). क्या यह महज संयोग है कि पुरस्कार लौटाने की मुहिम जिस व्यक्ति उदय प्रकाश ने शुरू की, वे 16 वर्षों तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे हैं और प्रगतिशील लेखक संघ से 22 वर्षों तक जुड़े रहे हैं. उनकी कार्रवाई के बाद बाकी दोनों वामपंथी संगठनों में होड़ मच गई और जन संस्कृति मंच के मंगलेश डबराल और राजेश जोशी मैदान में कूद गए. बड़ी तादाद में जिन साहित्यकारों ने अवार्ड लौटाया है वे सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) से जुड़े हैं. सहमत की वैचारिक पहचान से पूरी दुनिया वाकिफ है. निश्चित तौर पर इस क्रम में कुछ ऐसे साहित्यकार भी सामने आए जिनका इन संगठनों से संबंध नहीं है और वे इन वामपंथियों के द्वारा बनाए गए माहौल के शिकार हो गए.

कलबुर्गी की हत्या पर संवेदना और दर्द पूरे देश को है, लेकिन जो लोग संवेदना और दर्द की बात कर आज मुहिम चला रहे हैं उनको आईने में अपने आप को देखना पड़ेगा. उन्होंने न सिर्फ राष्ट्रवादी साहित्यकारों को हाशिये पर डाला व उनका दमन किया, बल्कि उनका समय-समय पर उपहास किया. इस संदर्भ में दो नाम उल्लेखनीय हैं- नरेंद्र कोहली और कमल किशोर गोयनका. इसकी सूची लंबी है. यही नहीं, उनसे असहमत रहने वाले वामपंथी साहित्यकारों को भी स्टालिनवादी दमन का सामना करना पड़ा. हिंदी साहित्य में त्रिलोचन जी एक बड़ा नाम हैं. उनका घोर अपमान और दमन इस हद तक किया गया कि उन्हें दिल्ली शहर छोड़ना पड़ा. रामविलास शर्मा के साथ क्या व्यवहार किया गया, यह किसी से छिपा नहीं है. संवेदना के प्रति ये कितने जागरुक हैं, इसका उदाहरण अवार्ड लौटाने वाले अशोक वाजपेयी का वह कथन है, जो उन्होंने भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बाद कहा था. तब हजारों लोग मारे गए थे. उस वक्त वाजपेयी अंतर्राष्ट्रीय कविता सम्मेलन करा रहे थे. संवेदनशील लोगों ने उसे स्थगित करने की अपील की तो वाजपेयी ने कहा, ‘मुर्दों के साथ रचनाकार नहीं मरते.’ जिस सफदर हाशमी की हत्या कांग्रेस शासन में खुलेआम हुई वही ‘सहमत’ कांग्रेस सरकार से लाखों का अनुदान लेता रहा.

यह मुहिम राजनीतिक-वैचारिक उपक्रम है. इसका प्रमाण यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व इसी जमात के अनेक साहित्यकारों ने अपील जारी की थी कि ‘फासीवादी’, ‘नस्लवादी’, और ‘सांप्रदायिक’ नरेंद्र मोदी को मतदान न करें. यह अपील 8 अप्रैल, 2014 के जनसत्ता अखबार में छपी थी. इसमें वाजपेयी और डबराल जैसे लोग भी थे, जिन्होंने पहले ही नरेंद्र मोदी और संघ की विचारधारा को फासीवादी मान लिया था. वे आज कलबुर्गी की हत्या की आड़ में किस वैचारिक स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं. इन्हीं लोगों ने या इनकी धारा के लोगों ने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने पर उनका गौरवगान किया था. तब जिन फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने सम्मान वापस किया था, इन्होंने उनकी आलोचना की थी. 1984 के दंगे उनकी नजर में आई-गई घटना बन गए. जब सिंगूर और नंदीग्राम में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी शासित पश्चिम बंगाल राज्य ने सर्वहारा और अल्पसंख्यकों पर बर्बर हिंसा की थी तब मार्क्सवादी चिंतक नोम चॉम्सकी ने अपील की थी कि मार्क्सवादी सरकार का विरोध न करें और इक्के-दुक्के (इतिहासकार सुमित सरकार और उपन्यासकार महाश्वेता देवी जैसे) लोगों को छोड़कर अधिकांश साहित्यकारों ने मौन-व्रत धारण कर लिया था. तब उन गरीब लोगों की हत्या पर इनकी कलम की स्याही सूख गई थी और संवेदना रेफ्रिजरेटर में बंद हो गई थी.

क्या यह महज संयोग है कि पुरस्कार लौटाने की मुहिम जिस व्यक्ति उदय प्रकाश ने शुरू की, वे 16 वर्षों तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे हैं और प्रगतिशील लेखक संघ से वर्षों तक जुड़े रहे हैं

सरकार के कुछ नीतिगत फैसलों से भी कुछ साहित्यकार प्रभावित हुए हैं. मोदी सरकार आने के बाद ऐसे अनेक लोग हैं जो कई कारणों से दुखी हैं, उनमें से एक वर्ग उन लोगों का है जो एनजीओ चलाता है. सरकार ने विदेशी धन देने वाली फोर्ड फाउंडेशन जैसी विदेशी संस्थाओं पर लगाम लगाने का काम किया है. इसका सीधा प्रभाव ऐसे अनेक एनजीओ पर पड़ा है जिनको कई लेखक चलाते हैं. इनमें से एक गणेश देवी हैं. इनकी संस्था को लगभग 12 करोड़ रुपये का डोनेशन मिला. मैं उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं कर रहा, न ही मैं उनके एनजीओ की गतिविधियों पर सवाल कर रहा हूं लेकिन उन्हें 2014-15 में फोर्ड फाउंडेशन से मिलने वाला धन पहले की तुलना में कम हो गया.

विचारधारा के स्तर पर मिल रही चुनौती से घबराए ये वामपंथी साहित्यकार इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की आड़ में राजनीतिक मुहिम चला रहे हैं, जिनके साथ कुछ स्वतंत्र साहित्यकार भी शामिल हुए हैं. जो ऐसा ही है कि जौ के साथ घुन भी पीसा जाता है.

मैं इतिहास के एक उद्धरण के द्वारा अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं. 1919 के भारत सरकार अधिनियम के तहत जब चुनाव हुआ और 1922 में पहली बार प्रांतों में कांग्रेस के लोग मंत्री बने, तब एक विकट स्थिति उत्पन्न हुई. औपनिवेशिक नौकरशाही को जिन मंत्रियों के साथ काम करना था उन्हें वे कल तक गुंडा कहते थे. (पुलिस और नौकरशाही में मौजूद लोग कांग्रेसियों को गुंडा कहते थे) नौकरशाही इन ‘गुंडों’ को सरकार में हजम करने को तैयार नहीं थी. ठीक वही स्थिति है. जिन लोगों को इनमें से अधिकांश लेखक सांप्रदायिक और फासीवादी कहते रहे हैं, उन्हें आज सत्ता में देखकर बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. खैर, इस घटना से वैचारिक विमर्श का फलक बढ़ेगा और विमर्श पर प्रायोजित वामपंथी एकाधिकारवाद को और भी बड़ी चुनौती मिलेगी. इन साहित्यकारों के यह कार्य ताकत के तर्क का प्रदर्शन है न कि तर्क की ताकत का.

(लेखक भारत नीति प्रतिष्ठान के निदेशक और संघ से जुड़े विचारक हैं)

मुसलमान-वध वर्णाश्रम की जरूरत है!

letters_novऐसा लग ही नहीं रहा है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार किसी भी मोर्चे पर नाकाम है. न ये कि कोई भी चुनावी वादा ऐसा है जो अधूरा रह गया है. चारों दिशाओं से आ रही मुसलमानों की बेरहम हत्याओं ने जश्न का कुछ ऐसा समां बांधा है, मानो बेरोक-टोक हो रही ये मुस्लिम-हत्याएं इस देश की हर नई-पुरानी समस्या का अंत कर रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा चुनाव पूर्व का हर वादा झूठ, ढोंग, जुमला साबित हो चुका है, इसके बावजूद वो दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे मुख्य क्षेत्रों के चुनाव में स्टार प्रचारक हैं. उन्हें लाज क्यों नहीं आती, डर क्यों नहीं लगता कि जनता उन्हें विकास के वादे याद दिला सकती है? और वाकई जनता भी उन्हें ये वादे क्यों नहीं याद दिलाती? क्यों जनता ये नहीं पूछती कि अच्छे दिन की बजाय बदतर दिन क्यों आ गए? किसानों की आत्महत्याएं क्यों बढ़ीं? बलात्कार क्यों बढ़ गए?  दाल का भाव 180-200 रुपये प्रतिकिलो क्यों चल रहा है? श्रम-कानून क्यों लचर किए गए? पर्यावरण कानून क्यों कमजोर हुए? नेपाल क्यों दीदे दिखा रहा है? चीन क्यों नहीं सुधर रहा है? पाकिस्तान से आखिर चल क्या रहा है? बेतहाशा विदेश-यात्राओं की फिजूलखर्ची से क्या हासिल हुआ? काला धन आने की बजाय बाहर क्यों जा रहा है? शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट बढ़ाने की बजाय घटाया क्यों जा रहा है? मनरेगा जैसी योजनाओं को असफल क्यों बनाया जा रहा है?

जनता चुनाव की रैलियों में ये सवाल क्यों नहीं पूछती अपने इस अंतर्राष्ट्रीय नेता से? क्या जनता सिर्फ इस बात से खुश है कि और कुछ हुआ हो या न हुआ हो लेकिन म्लेच्छ-मुसलमानों को सही काटा जा रहा है? क्योंकि डेढ़ साल में सिर्फ यही फर्क आया है कि भारत की सबसे निर्धन-कमजोर-सत्ताहीन आबादी-दलितों और मुसलमानों को बे-रोक, बेहिचक मारना और भी आसान हो गया है. तो क्या इस देश को बस यही चाहिए? क्या वह सिर्फ इस बात से राजी-खुशी है कि और कुछ करो न करो बस मुसलमानों को ‘ठीक’ कर दो? दलितों का सिर कुचल दो? विकास की वे बातें सब छलावा थीं.

सवाल यही है कि मुस्लिमों के प्रति हिंसा को बढ़ाने के लिए इतिहास की किताबों तक को प्रोपेगेंडा पम्फलेट में बदल रही ये व्यवस्था किस लक्ष्य को पाना चाहती है? 13 प्रतिशत की आबादी वाले सबसे निर्धन और हशियाग्रस्त मुस्लिम समाज से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश को क्या वाकई खतरा हो सकता है? भारत के किसी भी हिस्से में इतने मुसलमान एक साथ नहीं रहते कि देश की संप्रभुता को कोई खतरा बन जाएं. भारत का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहां इनकी एकछत्र मर्जी चलती हो. कृषि-उद्योग-कारीगरी-श्रम में ये न सिर्फ दूध में चीनी की तरह घुले हुए हैं बल्कि सबसे निचले पायदान पर हैं. राजनीति, नीति और अर्थतंत्र में ये अपने सभी हकों से वंचित हैं, ऐसे में मुस्लिम-वध के लिए इतनी संवेदनहीन और खून की प्यासी जमीन कैसे तैयार की गई? और सबसे बड़ा सवाल यह कि इसकी जरूरत क्यों है?

इसका जवाब वर्ण-व्यवस्था के अंदर है और दलित समाजविज्ञानी अब इस साजिश को समझने लगे हैं कि इस खून-खराबे की धुरी सांप्रदायिकता या हिंदू-मुस्लिम ‘एकता-फेकता’ है ही नहीं. धर्मनिरपेक्षता से इसका लेना-देना है ही नहीं, न ही देश की छवि का सवाल इसके आड़े आता है. दरअसल ये सवाल सनातन समाज के अंदर से आ रहे जानलेवा चुनौती को भ्रमित कर, मुसलमान को खतरा बता, सनातन धर्म के अस्तित्व को बचाने का आखिरी दांव है. वरना ऐसा क्यों है कि जब भी सनातन व्यवस्था आधुनिकता से टकराती है, दलित को बराबरी और हिस्सा देने की बात सिर उठाती है तभी हिंदू-मुस्लिम एकता और द्वेष के धुर-विरोधी खेमे आपस में जोर-शोर से कदमताल करने लगते हैं?

आजादी की लड़ाई याद कीजिए, उस वक्त भी सब कुछ ‘ठीक’ चल रहा था. गोरे मालिकों को बाहर कर देसी मालिकों के हाथ में सत्ता आ ही गई थी कि सनातन-व्यवस्था के अंदर के गुलामों (दलितों) ने अपना दावा ठोंक दिया. गांधी जो महात्मा बन चुके थे, इसलिए दलितों (हरिजनों) के स्वयं के नेतृत्व के अधिकार को नकारते हुए, ये तय कर चुके थे कि वैश्य जाति के वे स्वयं ही अछूतों के प्रतिनिधि हैं, न कि एक दलित भीमराव आंबेडकर! दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेंस में वे बिफर गए, बाबा साहेब की आधुनिक और वैज्ञानिक दलीलों ने अंग्रेजों से दलितों के लिए अलग व्यवस्था सुनिश्चित करा ली थी लेकिन ‘महात्मा’ के राजहठ के आगे उन्हें अपने कदम वापस लेने पड़े. दलित का सवाल केंद्र में आ ही गया था कि तभी सबसे तीखा हिंदू-मुस्लिम टकराव पैदा होता है. गांधी एक तरफ हिंदू-मुस्लिम की एकता की वकालत करते तो दूसरी तरफ भारत में ‘रामराज्य’ लाने का शोशा छेड़कर मुसलमानों को संदेश देते कि नई व्यवस्था सनातन धर्म के आधार पर चलेगी. ‘रामराज्य’ की स्थापना को अपना लक्ष्य बताने वाले गांधी अपने विरोधाभासों से हिंदू-मुस्लिम नफरत की जड़ें मजबूत कर रहे थे. ये द्वेष जैसे-जैसे बढ़ा वैसे-वैसे दलितों का एजेंडा हाशिये पर सरकता चला गया. बहरहाल बंटवारा हुआ और हिंदुओं के साथ सहअस्तित्व में यकीन न रखने वाला सामंती-सांप्रदायिक मुसलमान सरहद पार कर गया, जिससे काफी हद तक भारतीय मुस्लिम समाज के अंदर का सामंती मैल भी छंटा. लेकिन भारत के हिंदू समाज में ऐसी कोई छंटनी नहीं हुई बल्कि उस तरफ का सामंती और सहअस्तित्व का विरोधी हिंदू भी इधर ही जमा हो गया. नतीजा ये कि महज कुछ दशकों में ही शाकाहारी हत्यारे जत्थे उत्तर भारत की पहचान बन गए हैं और दलितों और मुसलमानों पर पिल पड़े.

गांधी एक तरफ हिंदू-मुस्लिम  एकता की वकालत करते तो दूसरी तरफ भारत में ‘रामराज्य’ लाने का शोशा छेड़कर मुसलमानों को संदेश देते कि नई व्यवस्था सनातन धर्म के आधार पर चलेगी. ‘रामराज्य’ को अपना लक्ष्य बताने वाले गांधी अपने विरोधाभासों से हिंदू-मुस्लिम नफरत की जड़ें मजबूत कर रहे थे

तब से लेकर आजतक सफल फार्मूला वही है- दंगों में दलितों-पिछड़ों का इस्तेमाल कर ‘सत्ताहीनों की एकता’ को तोड़ो, दलित-वध बिना शोर शराबे के और मुसलमान-वध उत्सव की तरह करते रहो. देश को हिंदू-मुस्लिम की परिपाटी से इतर सोचने न दो और हिंदू धर्म-समाज के अंदर से सिर उठाने वाली चुनौतियों को कभी मुख्यधारा के सवाल बनने न दो. लिहाजा मुख्यधारा का बनिया-ब्राह्मण संचालित सर्वव्यापी मीडिया कभी किसी दलित की हत्या पर शोर नहीं मचाता, उनकी नैतिकता दलित हत्याओं-बलात्कारों को आत्मसात कर चुकी है. उनकी जरूरत तो मुसलमान-वध है. पूरे हिंदू समाज की एकता को साझा दुश्मन यानी मुसलमान की सबसे ज्यादा जरूरत आज ही इसलिए भी है कि अब दलित-आदिवासी चेतना अपने इतिहास के सबसे मुखर दौर में दाखिल हो चुकी है. दलित बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता देश से लेकर विदेशों तक अपने समाज को तेजी से आंदोलित कर रहे हैं. अब इस सैलाब को भटकाया नहीं गया तो महज 8 प्रतिशत की आबादी वाला ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ कैसे देश के 80 प्रतिशत संसाधनों पर काबिज रह सकेगा? जैसे-जैसे बेदखल अवाम आपसी गठजोड़ बनाएंगे उसी अनुपात में हिंदू एकता को मुसलमान बलि की दरकार रहेगी. अतः फिलहाल ये उत्सव जारी रहेगा.

दिल्ली से सटे दादरी में एक मुस्लिम परिवार पर सैकड़ों की भीड़ का हमला करना, मुखिया अखलाक को पीट-पीट के मार डालना और जवान बेटे को लगभग मरा छोड़ कर इस जघन्य अपराध को जायज ठहराना, सारी दुनिया की पहली खबर बना, लेकिन बात-बात पर ‘मन की बात’ करने वाले प्रधानमंत्री ने उस परिवार से दो शब्द हमदर्दी के नहीं कहे. हमदर्दी से कोई जिंदा नहीं हो जाता, शरीर और आत्मा के घाव भर नहीं जाते, किसी नुकसान की भरपाई नहीं हो जाती. वह प्रधानमंत्री, जिसने तीन माह पूर्व ही अपनी विदेश यात्राओं से ठीक पहले, देश के मुसलमानों को वचन दिया था कि ‘अगर आधी रात में भी आप मेरा द्वार खटखटाएंगे तो मैं आपका साथ दूंगा’. प्रधानमंत्री अपनी तमाम नाकामियों को मुसलमान-वध के उत्सव में ढक देना चाहते हैं.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

इस राजनीति को हिंसा से परहेज नहीं

amarnathदेश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए दादरी के एक गांव में जिस तरह उन्मादी भीड़ ने एक मुस्लिम परिवार के घर में घुसकर मुखिया की हत्या कर दी और फिर उसके बाद उसी उन्माद को और आगे बढ़ाने की जो हरकतें राजनेताओं की फौज ने कीं, वह देश भर के आम लोगों को आतंकित करने वाला प्रसंग है. सामान्य लोगों का आतंकित होना इसलिए कि इस पूरी घटना से कानून व्यवस्था के पूरी तरह ध्वस्त हो जाने की तस्वीर उभरती है. जो जानकारी आई उसके मुताबिक मंदिर से कुछ घोषणाएं कराई गईं और उसके बाद उन्मादी भीड़ ने एक मुस्लिम परिवार पर उसके घर में घुसकर हमला किया जिसमें बाप की मृत्यु हो गई और बेटा अब भी अस्पताल में दाखिल है. डर के मारे परिवार एयरफोर्स की पनाह में है क्योंकि उस परिवार का एक सदस्य एयरफोर्स की नौकरी करता है. मैं सोचता हूं कि यदि वह एयरफोर्स में न होता तो वह परिवार कहां पनाह लेता? राज्य सरकार उस परिवार की सुरक्षा भी सुनिश्चित करने लायक नहीं बची. अलबत्ता उसने 5 लाख से बढ़ाते-बढ़ाते मुआवजे की रकम 45 लाख रुपये जरूर कर दी. देश के प्रधानमंत्री ने इस घटना पर दुख व्यक्त करना तथा ऐसे कदम की निंदा करना भी जरूरी नहीं समझा. बहुत आग्रह के बाद मुंह खोला भी तो अपनी राजनीति करने के अंदाज में.

यह घटना उस प्रकार की राजनीति को उजागर करती है जो धर्म व संप्रदाय का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए करती है और जिसे हिंसा से कोई परहेज नहीं है. यह कहा ही जा सकता है या कहा जा रहा है कि समाज में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है और विद्वेष की मानसिकता बन रही है लेकिन यह सही नहीं है. समाज तो अब भी प्रेम, भाईचारे और सहयोग के साथ आगे बढ़ रहा है. केवल एक वर्ग है जो निहित स्वार्थ वाली राजनीति का खिलौना बन जाता है जो किसी भी रूप में समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता. सभ्य समाज को प्रतिगामी बनाने की नीयत से कबीलाई मानसिकता की ओर धकेलते हुए सत्ता हथियाने की राजनीति करने की प्रवृत्ति तो मेरी चिंता का विषय है ही, लेकिन इससे अधिक चिंता का सबब है कानून व्यवस्था व प्रशासनिक तंत्र का ध्वस्त हो जाना. कोई भी विध्वंसक व विभाजनकारी शक्तियां सिर्फ इसलिए ही बलवती नहीं होतीं कि उन्हें राजनेताओं का प्रश्रय और प्रोत्साहन है, बल्कि इसलिए घातक रूप अख्तियार कर लेती हैं कि उनके सामने कानून, न्याय, संविधान और समूची व्यवस्था नतमस्तक हो जाती है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब हम कानून व्यवस्था को ध्वस्त होते या कुछ लोगों को कानून को धता बताते हुए समाज में कटुता, विद्वेष और हिंसा फैलाते देख रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ समय से, खासकर केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से जो हालात बन रहे हैं, वे सचमुच ऐसी स्थितियों को विस्तारित करने वाले हैं.

गांव में एक मुस्लिम परिवार के खिलाफ उन्मादी भीड़ इकट्ठा होकर उसके घर में हमला करती है और पुलिस प्रशासन को इसकी कोई पूर्व जानकारी नहीं होती. ऐसा उन्माद अचानक नहीं फैलता. इसकी तैयारी तो पहले से चलती रही होगी लेकिन प्रशासन इससे नावाकिफ रहा या मूकदर्शक. हमला हो जाने के बाद राजनेताओं की फौज निषेधाज्ञा का खुलेआम उल्लंघन करती है, वे माहौल को और उन्मादी बनाने की हरकतें करते हैं लेकिन समूची सरकार व प्रशासनिक तंत्र फिर मूकदर्शक बना रहता है. जिन राजनेताओं ने कानून तोड़ा, उन पर तत्काल ही कार्रवाई की जाती जो आम आदमी द्वारा कानून तोड़ने पर की जाती है तो ऐसे राजनेताओं को सबक मिलता जो अपने आपको कानून से ऊपर समझकर समाज में अराजकता व हिंसा का माहौल बनाते हैं. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो लोग इस घटना से दुखी या असहमत हैं, उनकी मुख्य आपत्ति सिर्फ इतनी रही कि इस घटना पर प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं, उन्हें प्रशासन व सरकार की निष्क्रियता से कोई शिकायत नहीं है. प्रदेश के मुख्यमंत्री टोने-टोटके के चलते घटनास्थल पर नहीं जाते. चलिए, कम से कम प्रशासन को सख्ती से कार्रवाई करने का निर्देश तो दे ही सकते थे. उल्टे उनके ही एक मंत्री मामले को जब संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाने की पहल करते हैं तो वे खामोशी से उस पहल को खारिज नहीं कर पाते. जिस राजनेता ने भी कानून का उल्लंघन किया, उसके खिलाफ कानून सम्मत कार्रवाई कर दी जाती तो अन्य नेताओं को सबक मिलता लेकिन इसमें भी राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित देखा जाने लगा.

प्रश्न यह नहीं है कि किसी घटना विशेष के प्रति प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सरकारें विशेष रूप से ध्यान दें बल्कि असली सवाल तो यह है कि कानून का न्यूनतम पालन भी क्यों नहीं किया जाता

हिंसा और विद्वेष फैलाने की क्रिया-प्रतिक्रिया होती रही, दोषारोपण होता रहा और आम जनता आतंक के आगोश में समाती रही. यह सही है कि प्रधानमंत्री इस घटना पर तत्काल प्रतिक्रिया देते तो यह संदेश जाता कि ऐसी घटनाओं के प्रति सरकार सख्त है. हो सकता है कि अपनी राजनीति के चलते वे अपनी पार्टी के उन नेताओें के खिलाफ कार्रवाई करने की स्थिति में न रहे हों. ऐसा इसलिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक उनकी पार्टी के नेता मंत्री उन्माद फैलाने वाले, भड़काऊ और विभाजनकारी बयान देते रहे हैं लेकिन कभी किसी पर उनके या उनकी पार्टी द्वारा कार्रवाई नहीं की गई और न ही ऐसे विचारों को बयान बनने से रोका गया. अलबत्ता ऐसे नेताओं को सम्मानित करने की भी पहल की गई. यहां यह समझना चाहिए कि हत्या करने वाली उन्मादी भीड़ से अधिक गुनहगार वे लोग हैं जिन्होंने अबोध लोगों को उन्मादी भीड़ में तब्दील कर दिया. प्रश्न यह नहीं है कि किसी घटना विशेष के प्रति प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सरकारें विशेष रूप से ध्यान दें बल्कि असली सवाल तो यह है कि कानून का न्यूनतम पालन भी क्यों नहीं किया जाता, एक खास वर्ग को कानून तोड़कर आमजन के जानो-माल को असुरक्षित करने का अधिकार क्यों दे दिया जाता है. सभी को सुरक्षा प्रदान करने का संवैधानिक दायित्व राज्य क्यों नहीं निभाता? यही वह स्थिति है जो उन लोगों को भी आतंकित करती है जो किसी घटना विशेष से बहुत दूर हैं. ‘कानून के ऊपर कोई नहीं’, ‘कानून अपना काम करेगा’, जैसे सत्ताधारी राजनेताओं के दावे आम आदमी को न्याय के प्रति आश्वस्त नहीं करते बल्कि ये ऐसे मुहावरे बन गए हैं जो एक वर्ग विशेष को कानून और संविधान से परे हर तरह के गैरकानूनी कार्य करने का विशेषाधिकार प्रदान करते हैं. कानून व्यवस्था का प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम करने का यह आधार है. सामान्यजन को सुरक्षा प्रदान करना न्याय की पहली जरूरत है और यदि तंत्र असफल होता है तो छोटे-छोटे दादरी हर दिन होते रहेंगे और समूची व्यवस्था निहित स्वार्थों के हाथों की कठपुतली हो जाएगी.

राजनीति और राजनेताओं द्वारा जाति, संप्रदाय, धर्म के आधार पर लोगों को एकजुट करने तथा समाज में हिंसा फैलाने की घटनाओं की निंदा तो की ही जानी चाहिए लेकिन उनसे ऐसा नहीं करने की अपेक्षा करने की बजाय कानून व्यवस्था का राज कायम करने पर जोर देना ज्यादा जरूरी है. दादरी जैसी घटनाओं से परे भी पूरे देश में कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी अराजक हो चली है कि गिरोहबंद लोग कानून को अपनी बांदी मानकर चलते हैं. वहीं राजनीति और व्यवसाय के साथ गठबंधन धर्म निभाने वाला प्रशासन तंत्र भी उसी के साथ खड़ा नजर आता है जिसके साथ बल और सत्ता हो. ऐसे में लोकतंत्र, संविधान, कानून का राज, न्याय जैसी कोई चीज नजर नहीं आती. दादरी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जरूरी है देश व समाज में कानून व्यवस्था का राज कायम हो और वह राजनीति पर हावी हो, न कि राजनीति प्रशासन तंत्र पर. यह कहा जा सकता है कि राजनीति या सत्ता के दुरुपयोग के चलते प्रशासन तंत्र अपने आपको असहाय पाता है और कानून का राज स्थापित करने में वह सक्षम नहीं है लेकिन यह तर्क सही नहीं है. कई उदाहरण हैं जहां प्रशासकों ने सत्ता या राजनीति को कानून से खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं दी और दादरी जैसी घटनाओं से बचा जा सका.

राजनीति की बुराइयों को ढाल बनाकर प्रशासन तंत्र अपनी निष्क्रियता या अकर्मण्यता का औचित्य साबित नहीं कर सकता. इसी तरह प्रशासन पर निष्क्रियता का आरोप लगाकर राजनेता अपनी ओछी राजनीति को आगे बढ़ाने का लाइसेंस नहीं पा सकते. दोनों एक-दूसरे के पूरक भी नहीं हैं लेकिन न्यायपूर्ण व्यवस्था को कायम करने की दिशा में एक-दूसरे के विलोम हो सकते हैं. विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका का संवैधानिक प्रावधान ऐसी ही अराजकता के बदले न्याय की व्यवस्था कायम करने के लिए है. हाशिये पर पड़े लोगों को लाठी से हांकने की मानसिकता ही आगे चलकर दादरी जैसी घटनाओं को जन्म देती है और वह स्थिति तब और दुखद हो जाती है जब तंत्र द्वारा लगातार किए जा रहे अन्याय के चलते आम लोगों में प्रतिरोध की सोच और क्षमता ही खत्म होती जाती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)