लखनऊ की होली के क्या कहने साहब ! होली क्या है हिंदुस्तान की कौमी यकजहती की आबरू है. जो ये मानते हैं कि होली सिर्फ हिंदुओं का त्योहार है वह होली के दिन पुराने लखनऊ के किसी भी मोहल्ले में जाकर देख लें. पहचानना मुश्किल हो जाएगा रंग में डूबा कौन-सा चेहरा हिंदू है कौन-सा मुसलमान. शहर के दिल चौक की मशहूर होली की बारात आजादी के जमाने से हिंदू-मुस्लिम मिलकर निकालते हैं. लखनऊ की साझी होली की पहचान बन चुकी ये बारात चौक, विक्टोरिया स्ट्रीट, अकबरी गेट और राजा बाजार जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों से होकर ही निकलती है. इसमें मुसलमान न सिर्फ रंग खेलते, नाचते गाते आगे बढ़ते हैं बल्कि मुस्लिम घरों की छतों से रंग-गुलाल और फूलों की बरसात भी होती है. और ये सिर्फ एक-दो साल की खुशफहमी नहीं है. इस तरह की मिली जुली होली लखनऊ पिछले सैकड़ों सालों से मनाता आ रहा है.
लखनऊ का ये सद्भाव असल में यहां के नवाबों की देन है. नवाबों के खानदान से ताल्लुक रखने वाले जाफर मीर अब्दुल्ला कहते हैं, ‘लखनऊ में मुसलमान होली तो मनाते ही हैं साथ ही होली का प्रभाव उनके अपने त्योहारों पर भी साफ दिखता है. ईरानी नव वर्ष ‘नौरोज’ जो कि होली के ही आस-पास हर साल 21 मार्च को पड़ता है यूं तो पूरे देश में और देश के बाहर भी मनाया जाता है लेकिन सिर्फ लखनऊ में नौरोज के दिन होली की तर्ज पर रंग खेला जाता है. नवाबीन-ए-अवध खुद ज़ोरदार होली खेलते थे. दरअसल वे चाहते थे कि लखनऊ में कोई भी बड़ा त्योहार किसी एक फिरके का त्योहार बन कर न रह जाए.’ नवाबों के वक्त में इस शहर में मोहर्रम और होली के त्योहार हिंदू-मुस्लिम मिलकर मनाते थे. इस बात की गवाही लखनऊ की उर्दू शायरी भी देती है. जहां प्यारे साहब रशीद, नानक चंद नानक, छन्नू लाल दिलगीर, कृष्ण बिहारी नूर जैसे हिंदू शायरों के लिखे मर्सिये आज भी मोहर्रम की मजलिसों की जान हैं वहीं लखनऊ के मुस्लिम शायरों ने भी लखनऊ की होली का बयान अपनी शायरी में खूब किया है.
खुदा-ए-सुखन मीर तकी मीर की लखनऊ से बेजारी के चर्चे सबने सुन रखे हैं, लेकिन इस शहर की होली के वे भी दीवाने थे. मीर जब दिल्ली से लखनऊ आए और उन्होंने तब के नवाब आसफुद्दौला को रंगों में सराबोर होली खेलते देखा तो उनकी तबीयत भी रंगीन हो गई, और उन्होंने पूरी मिस्नवी नवाब आसफुद्दौला की होली पर लिख डाली.
‘होली खेले आसफुद्दौला वजीर, रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर दस्ता-दस्ता रंग में भीगे जवां जैसे गुलदस्ता थे जूओं पर रवां कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल’
बाद के सालों में तो मीर को लखनऊ की होली ने इस कदर मस्त किया कि इसका रंग जब तब उनके अशआर में झमकता रहा.
आओ साथी बहार फिर आई होली में कितनी शादियां लाई जिस तरफ देखो मार्का सा है शहर है या कोई तमाशा है फिर लबालब है आब-ए-रंग और उड़े है गुलाल किस किस ढंग थाल भर भर अबीर लाते हैं गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं
सिर्फ मीर ही नहीं, दिल्ली छोड़कर लखनऊ तशरीफ लाने वाले एक और शायर सआदत यार खां ‘रंगीन’ भी लखनऊ की होली में सरापा रंगे हुए थे. रंगीन की चंचल शोख रेख्ती (खड़ी बोली) ने लखनऊ को बहुत बदनामी भी दिलाई लेकिन इस शहर की होली उनके मिजाज से बहुत मिलती थी. नमूना मुलाहिजा हो-
भरके पिचकारियों में रंगीन रंग नाजनीं को खिलायी होली संग बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल कुछ किसी का नहीं किसी को ख्याल चलती है दो तरफ से पिचकारी मह बरसता है रंग का भारी हर खड़ी है कोई भर के पिचकारी और किसी ने किसी को जा मारी भर के पिचकारी वो जो है चालाक मारती है किसी को दूर से ताक किसने भर के रंग का तसला हाथ से है किसी का मुंह मसला और मुट्ठी में अपने भरके गुलाल डालकर रंग मुंह किया है लाल जिसके बालों में पड़ गया है अबीर बड़बड़ाती है वो हो दिलगीर जिसने डाला है हौज में जिसको वो यह कहती है कोस कर उसको ये हंसी तेरी भाड़ में जाए तुझको होली न दूसरी आए’
लखनऊ स्कूल के सबसे बड़े उस्तादों में एक ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ भी अपने शहर की होली से मुतासिर हुए बगैर नहीं रह सके.
होली शहीद-ए-नाज के खूं से भी खेलिए रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की
लखनऊ की तारीख में जो शख्स होली के सबसे बड़े दीवाने के तौर पर मशहूर है उसका नाम है वाजिद अली शाह ‘अख्तर’ जिसे आज तक उसका शहर जान-ए-आलम कहकर याद करता है. कौमी यकजहती की निशानी के तौर पर अमर हो चुके लखनऊ के इस बांके नवाब ने बेशुमार लोक-गीत होली पर रचे.
मोरे कान्हा जो आए पलट के अबके होली मैं खेलूंगी डट के उनके पीछे मैं चुपके से जाके ये गुलाल अपने तन से लगाके रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के अबके होली मैं खेलूंगी डट के
वाजिद अली शाह की होली को लेकर लखनऊ में मशहूर किस्सों में एक किस्सा यह भी सुनाई देता है कि एक दफा मोहर्रम और होली एक ही दिन पड़ गए. पहले आप की तहजीब वाले लखनऊ में हिंदुओं ने फैसला किया कि इस बार वे होली नहीं मनाएंगे. जबकि मुसलमानों का मानना था कि जैसे मोहर्रम को हिंदू अपना ही त्योहार मानते हैं वैसे ही होली हम भी मनाते हैं इसलिए मोहर्रम की वजह से होली न टाली जाए, लिहाजा कोई और रास्ता निकलना चाहिए. वाजिद अली शाह ने एक ही दिन में होली खेले जाने का और मोहर्रम के मातम का अलग अलग वक्त तय किया. इस तरह पूरा लखनऊ होली और मोहर्रम दोनों में शरीक हुआ. ऐतिहासिक रूप से पता नहीं यह घटना कितनी सच्ची है, लेकिन अपनी मिली-जुली तहज़ीब में यकीन रखने वाला हर लखनवी इसे पूरे ईमान से तस्लीम (स्वीकार) करता है.
उर्दू के एक और बड़े शायर इंशा अल्लाह खां इंशा ने भी नवाब सादत अली खां के होली खेलने की तारीफ गद्य और शायरी दोनों में की है. इंशा लिखते हैं- ‘जो शख्स भी इस बात से गुमान करता है कि मैं उनकी खुशामद कर रहा हूं तो उसके लिए होली के जमाने में बिल-खुसूस हुजूर की खिदमत में हाजिर होना शर्त है कि वो खुद देख ले कि राजा इंद्र परियों के दरम्यान ज्यादा खुश मालूम होते हैं या वली अहद हूरों के दरम्यान.’ शायरी में होली का बयान इंशा इस तरह करते हैं-
संग होली में हुजूर अपने जो लावें हर रात कन्हैया बनें और सर पे धर लेवें मुकट गोपियां दौड़ पड़े ढ़ूंढें कदम की छैयां बांसुरी धुन में दिखा देवें वही जमना तट गागरे लेवें उठा और ये कहती जावें देख तो होली जो बज्म होती है पनघट
लखनऊ में नवाबी उजड़ने के बाद भी मुसलमानों का होली खेलना और होली पर शायरी करना पहले की तरह ही जारी रहा. स्वतंत्रता सेनानी और अज़ीम शायर हसरत मोहानी जिनका रकाबगंज स्थित मज़ार आज पूरी तरह गुमनाम है, उन्होंने भी होली पर खूब शायरी की.
मोसे छेड़ करत नंदलाल लिए ठाड़े अबीर गुलाल ढीठ भई जिनकी बरजोरी औरन पर रंग डाल डाल
शायरे इंकलाब जोश मलीहाबादी की शायरी भी होली के रंगों से सराबोर है, आम तौर पर अपनी नज़्मों और गजलों के लिए मशहूर जोश ने कई गीत भी लिखे हैं जिनमे होली का जिक्र मिलता है-
गोकुल बन में बरसा रंग बाजा हर घर में मिरदंग खुद से खुला हर इक जूड़ा हर इक गोपी मुस्काई हिरदै में बदरी छाई
अपने तंजो मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) के लिए मशहूर सागर खय्यामी और उनके भाई नाजिर खय्यामी भी होली की मस्ती के मतवाले थे. दोनों होली पर दोस्ताना महफिलें भी सजाते थे. सागर साहब की होली-ठिठोली मुलाहिजा हो-
छाई हैं हर इक सिम्त जो होली की बहारें पिचकारियां ताने वो हसीनों की कतारें हैं हाथ हिना रंग तो रंगीन फुवारें इक दिल से भला आरती किस किस की उतारें चंदन से बदन आबे गुले शोख से नम हैं सौ दिल हों अगर पास तो इस बज्म से कम हैं
यहां तो लखनऊ के सिर्फ चंद मुसलमान शाइरों के होली के रंग में डूबे कलाम दिए गए हैं. वास्तव में इस शहर के अनगिनत मुस्लिम शायरों ने होली पर अपनी शायरी के जरिए न सिर्फ लखनऊ की होली की महानता बयान की है बल्कि पूरी दुनिया को धार्मिक सद्भाव का संदेश भी दिया है. नाजिर खय्यामी का यह पैगाम ही देखिए.
ईमां को ईमां से मिलाओ इरफां को इरफां से मिलाओ इंसां को इंसां से मिलाओ गीता को कुरआं से मिलाओ दैर-ओ-हरम में हो न जंग होली खेलो हमरे संग!
दुनिया में वामपंथ का सबसे मजबूत किला ढह चुका था. दुनिया तेजी से पूंजीवाद की ओर बढ़ रही थी. उदारीकरण भारत की दहलीज लांघकर अपने को स्थापित कर चुका था. तमाम धुर वामपंथी आवाजें मार्क्सवाद के खात्मे की बात कह रही थीं. उसी दौर की बात है, जब जेएनयू कैंपस में एक युवा छात्रनेता अपने साथियाें से कह रहा था, ‘हम अगर कहीं जाएंगे तो हमारे कंधे पर उन दबी हुई आवाजों की शक्ति होगी जिनको बचाने की बात हम सड़कों पर करते हैं. अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा होगी तो भगत सिंह जैसे शहीद होने की महत्वाकांक्षा होगी, न कि जेएनयू से इलेक्शन में गांठ जोड़कर चुनाव जीतने और हारने की महत्वाकांक्षा होगी.’ दबी हुई आवाजों को बचाने की अलख जगाने वाले इस युवक का नाम था चंद्रशेखर, जिसे उसके दोस्त प्यार से कॉमरेड चंदू कहा करते थे. जो लोग चंदू को नहीं जानते, उनके मन में सवाल उठेगा कि वे आजकल कहां हैं? जवाब है कि वे भगत सिंह की तरह अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ते हुए शहीद तो नहीं हुए, लेकिन लड़ते हुए मारे जाने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी हो गई. वे अब हमारे बीच नहीं हैं.
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जेएनयू में उठे विवाद और छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया की गिरफ्तारी के बाद उनको पूरा देश जान गया. उनके हर भाषण का वीडियो वायरल हो गया. तमाम लोगों ने कन्हैया में एक तेज-तर्रार नेता की छवि देखी. हालांकि, उसी अनुपात में उनकी आलाेचना भी हुई. कन्हैया की लोकप्रियता, उनका जज्बा, उनकी ऊर्जा चंद्रशेखर की याद दिलाती है. दोनों में बहुत असमानताओं के साथ समानता यह है कि दोनों में व्यवस्था से टकराने का माद्दा है. दोनों ही जेएनयू छात्रसंघ की पैदावार हैं. दोनों के सरोकार गरीबों, मजदूरों, दलितों और महिलाओं को संबोधित करते हैं. हां, कन्हैया और चंद्रशेखर में फर्क यह है कि कन्हैया की शुरुआत एक ऐसी गिरफ्तारी से हुई, जिसमें शुरुआती तौर उन्हें बढ़त मिलती दिख रही है. लेकिन चंद्रशेखर बिहार की जनता के लिए एक उम्मीद बनकर उनके बीच काम करने गए थे और बाहुबल की राजनीति ने उन्हें लील लिया.
20 सितंबर, 1964 को बिहार के सीवान जिले में जन्मे चंदू आठ बरस के थे जब उनके पिता का देहांत हो गया. सैनिक स्कूल तिलैया से इंटरमीडियट तक की शिक्षा के बाद वे एनडीए प्रशिक्षण के लिए चुने गए. लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा और दो साल बाद वापस आ गए. इसके बाद उनका वामपंथी राजनीति से जुड़ाव हुआ और एआईएसएफ के राज्य उपाध्यक्ष के पद तक पहुंचे. बाद में वे जेएनयू पहुंचे तो कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया लिबरेशन की छात्र इकाई आइसा के साथ अपना राजनीतिक सफर शुरू किया. एक छात्र नेता के रूप में वे बहुत तेजी से उभरे और लोकप्रिय हुए. 1993-94 में जेएनयू छात्रसंघ के उपाध्यक्ष चुने गए और फिर लगातार दो बार अध्यक्ष चुने गए. इसके बाद वे जमीनी स्तर पर काम करने के मकसद से अपने गृह जिले सीवान गए, जहां उनका मुकाबला संगीन अपराधियों की खूनी राजनीति से होना था.
सीवान पहुंचकर चंदू ने बिहार के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के खिलाफ उनके गढ़ में ही बिगुल फूंक दिया. उन्होंने बिहार की राजनीति में अपराध, बाहुबल, घोटालों और भ्रष्टाचार के मुद्दों को बहुत प्रमुखता से उठाया. जनता से उनको बेहतर प्रतिक्रिया मिल रही थी. चंदू भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बदलने का सपना देख रहे थे और इसकी शुरुआत भी कर दी थी. बिहार में जनसंहारों और घोटालों के विरोध में 2 अप्रैल, 1997 को बंद बुलाया गया था. इस बंद के लिए 31 मार्च शाम चार बजे जेपी चौक पर एक नुक्कड़ सभा को संबोधित करते हुए चंदू और उनके सहयोगी श्याम नारायण को गोलियों से भून दिया गया. इस गोलीबारी में एक ठेलेवाले भुटेले मियां भी मारे गए.
प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे. हमारी दोस्त प्रथमा कहती थी, ‘वह रेयर आदमी हैं.’ हमारा नारा था, ‘पोएट्री, पैशन एंड पाॅलिटिक्स’
चंद्रशेखर की हत्या के बाद भाकपा माले ने आरोप लगाया, ‘अब तक हमारे कई नेताओं कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है. श्याम नारायण और चंद्रशेखर की हत्या में राजद सांसद शहाबुद्दीन का हाथ है. वही सूत्रधार हैं. जिस समय हत्या हुई, हमारे कार्यकर्ता वहां पर मौजूद थे, जिन्होंने हत्यारों को पहचाना. वे शहाबुद्दीन के साथ के लोग थे. हत्या की वजह राजनीतिक है. हमारी पार्टी ने पिछले चुनाव में शहाबुद्दीन को सशक्त चुनौती दी थी. हमने चुनाव में अपराध के खिलाफ एजेंडा तैयार किया था. शहाबुद्दीन अपराध शिरोमणि हैं. अपराध को एजेंडा बनाने के बाद हमारे कार्यकर्ताओं पर चुन-चुनकर हमला हो रहा है.’
भाकपा माले के नेता रमेश एस. कुशवाहा ने उस समय बयान दिया था, ‘शहाबुद्दीन एक पेशेवर अपराधी रहे हैं. इसके पहले बिहार के बुद्धिजीवी उनके खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते थे. पत्रकार कलम चलाने से डरते थे. हम लोगों ने पहली बार अपराध को एजेंडा बनाया और उनके खिलाफ बोलना शुरू किया.’ यह सही है कि इसके पहले भी बिहार चुनाव में कई वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी थी. लोगों को वोट देने से रोकने के लिए अपराधी नेताओं के गुंडे झुंड में पहुंचकर गोलियां चलाते थे और विरोधी पार्टी के मतदाताओं को मतदान से रोकते थे.
हत्या के बाद देश भर में प्रदर्शन शुरू हो गए. चंद्रशेखर के गांव बिंदुसार में देश भर से हजारों छात्र पहुंचे और चंदू की मां के नेतृत्व में मार्च निकाला गया. इस सभा को संबोधित करते हुए चंदू की बूढ़ी मां कौशल्या देवी ने कहा था, ‘मेरा बेटा मर कर भी अमर है और सदा अमर रहेगा. मेरी झोपड़ी को झोपड़ी मत आंकना. इस झोपड़ी की बहुत कीमत है… मेरा बेटा मरा नहीं है. ये हजारों लाल मेरे बेटे हैं.’ चंदू के गांव से चलकर हजारों नौजवानों का जुलूस सीवान के जेपी चौक पहुंचा. बताते हैं कि इतना बड़ा जुलूस सीवान में शायद ही कभी निकला था. दिल्ली में छात्र और बुद्धिजीवियों ने भारी विरोध मार्च निकाला. यह प्रदर्शन पूरे देश में हुआ और शहाबुद्दीन और साधु यादव को सजा देने की मांग की गई. जेएनयू के छात्रों के विरोध मार्च पर पुलिसिया लाठीचार्ज में बड़ी संख्या में लड़के लड़कियां घायल हुए. चंदू की हत्या के बाद दो अप्रैल का बंद और व्यापक हो गया और करीब करीब हिंसक भी रहा. पूरे बिहार में जनता सड़क पर उतरी.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने राहत राशि के रूप में एक लाख रुपये का चेक भेजा तो चंदू की मां ने यह कहकर लौटा दिया कि ‘बेटे की शहादत के एवज में मैं कोई भी राशि लेना अपमान समझती हूं… मैं उन्हें लानतें भेज रही हूं जिन्होंने मेरे बेटे की जान की कीमत लगाई. एक ऐसी मां के लिए, जिसका इतना बड़ा बेटा मार दिया गया हो और जो यह भी जानती हो कि उसका कातिल कौन है, एकमात्र काम हो सकता है, वह यह है कि कातिल को सजा मिले. मेरा मन तभी शांत होगा महोदय. मेरी एक ही कीमत है, एक ही मांग है कि अपने दुलारे शहाबुद्दीन को किले से बाहर करो या तो उसे फांसी दो या फिर लोगों को यह हक दो कि उसे गोली से उड़ा दें.’
तत्कालीन सरकार से मांग की गई कि शहाबुद्दीन की संसद सदस्यता खारिज की जाए और बिहार आवास पर प्रदर्शन के दौरान छात्रों पर गोली चलाने वाले साधु यादव को गिरफ्तार किया जाए. प्रधानमंत्री गुजराल ने इन मांगों को अव्यवहारिक बताया. सांसद शहाबुद्दीन गिरफ्तार हुए, लेकिन उनके खिलाफ ठोस सबूत और गवाह नहीं मिले. वे जमानत पर छूट गए. अदालत में यह मामला 15 साल तक खिंचा. आखिरकार बाहुबली नेताओं से संबंध रखने वाले तीन शार्प-शूटरों को उम्रकैद की सजा मिली. शहाबुद्दीन को जेल तो हुई लेकिन अन्य मामलों में. उनके खिलाफ चंद्रशेखर हत्याकांड और अन्य कई मामलों में गवाहों पर इतना अधिक दबाव डाला गया कि कई गवाह घर छोड़कर भाग गए या फिर गवाही से पलट गए. उस दौर में बिहार में शहाबुद्दीन की तूती बोलती थी.
चंदू जब जेएनयूएसयू के उपाध्यक्ष थे, तभी प्रणय कृष्ण अध्यक्ष थे. प्रणय कहते हैं, ‘प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे. हमारी दोस्त प्रथमा कहती थी, ‘वह रेयर आदमी हैं.’ 91-92 में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी. राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक से थे. हमारा नारा था, ‘पोएट्री, पैशन एंड पाॅलिटिक्स.’ चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे. समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे. चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गए. बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत, मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे.’
भाकपा माले की नेता कविता कृष्णन कहती हैं, ‘चंद्रशेखर का मामला और अब कन्हैया का मामला, इन दोनों घटनाओें में काेई समानता तो नहीं है, लेकिन ये जेएनयू की भूमिका को जरूर दिखाती हैं. जेएनयू पर इस बार का हमला भाजपा का पहले से प्लान किया हुआ है. इसके पहले भी कोशिश होती रही है जेएनयू को निशाना बनाने की. इस बार उन्होंने इसे लॉन्च किया. चंद्रशेखर की जो हत्या हुई, उसमें कई लोगों की पहले से हत्या हो चुकी थी. चंद्रशेखर यह जानते थे कि वहां खतरा है लेकिन उन्होंने चुना कि मैं वहां का हूं और वहीं जाकर काम करूंगा. वे वहां गए और वहां राजद सांसद ने उनकी हत्या करवाई. दोनों का राजनीतिक संदर्भ है लेकिन दोनों में अंतर है.’
चंदू के व्यक्तित्व के बारे में वे कहती हैं, ‘जितने लोग चंद्रशेखर को जानते थे, वे जानते थे कि उनमें कुछ खास बात थी. वे कोई बहुत करिश्माई नेता नहीं थे. उनकी खास बात थी कि वे 24 घंटे लोगों के लिए समर्पित रहते थे. साधारण से साधारण छात्र कभी भी उनके पास जाकर मदद मांगता था और वे प्रस्तुत रहते थे. जनता के लिए उनमें वास्तविक प्रेम था. वे बहुत समर्पित रहते थे. यह समर्पण उनकी खास बात थी. उनके सीवान जाने के बाद विरोधियों को पता था कि वे एक जननेता के रूप में उभर रहे हैं. इस खतरे से बचने के लिए उनकी हत्या कर दी गई.’
उनके अनन्य सहयोगी रहे प्रणय कृष्ण के पास उनके बारे में बहुत सारे किस्से हैं. वे बताते हैं, ‘दिल्ली के बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, छात्रों आैैर पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता था. वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावालों, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे. महिलाओं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते. छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था. हाॅस्टल में उनका कमरा अनेक ऐसे छात्रों और विद्रोह करने वालों, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एेडजस्ट नहीं कर पाते थे. मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता. उनके लिए तो जेएनयू का हर कमरा खुला रहता, लेकिन अपने आश्रितों के लिए वे चिंतित रहते. एक बार मेस बिल जमा करने के लिए उन्हें 1600 रुपये इकट्ठा करके दिए गए. अगले दिन पता चला कि कमरा फिर भी नहीं खुला. चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि 800 रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिए क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी.’
‘हम कहीं जाएंगे तो हमारे कंधे पर उन दबी आवाजों की शक्ति होगी जिनको बचाने की बात हम करते हैं. अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा होगी तो भगत सिंह जैसे शहीद होने की महत्वाकांक्षा’
जेएनयू के छात्र आज जिस तरह देश भर के दलितों, महिलाओं, मजदूरों, छात्रों आदि के मुद्दे पर सक्रिय रूप में आंदोलन छेड़ते हैं, इसकी बुनियाद में चंदू का बहुत बड़ा योगदान है. जेएनयू में फीस न बढ़ने देने, आरक्षण लागू होने, विश्वविद्यालय के निजीकरण का विरोध करने जैसे मुद्दों पर उन्होंने निर्णायक लड़ाई लड़ी.
प्रणय कृष्ण बताते हैं, ‘जेएनयू छात्रसंघ को उन्होंने देश भर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया. चाहे बर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर के राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ बनी शांति कमेटियां हों, नर्मदा बचाओे आंदोलन हो या टिहरी आंदोलन हो- चंद्रशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे. उन्होंने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्राएं भी की थीं. आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आंदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्य अगर किया तो सिर्फ चंद्रशेखर ने. यह अतिशयोक्ति नहीं है.’
चंद्रशेखर के समय आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके वी. शंकर कहते हैं, ‘चंदू मास लीडर था. वह होता तो जनता का नेता होता. वह हमारा बहुत महत्वपूर्ण कॉमरेड था. जेएनयू में अध्यक्ष बनने के बावजूद उसने गांव जाकर काम करने को तवज्जो दी और वहां उसे खूब समर्थन मिल रहा था. चंदू की हत्या के बाद सीवान में हुई रैली ऐतिहासिक थी. वह बेहद पढ़ा लिखा, समझदार और जनता की आकांक्षाओं को समझने वाला नेता था, जिसे मार दिया गया.’
कन्हैया में जिन्हें युवा नेतृत्व की संभावना दिखती है, वे सही हैं. लेकिन चंद्रशेखर एक ज्यादा बड़ी उम्मीद का नाम था, जिसे यह देश संभाल नहीं पाया. चंदू में एक अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने की संभावनाएं भी मौजूद थीं. प्रणय अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘1995 में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ राजनीतिक प्रस्ताव लाए तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया. समय की कमी का बहाना बनाया गया. चंद्रेशेखर ने वहीं आॅस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश और तीसरी दुनिया के देशों के अन्य प्रतिनिधियों का एक ब्लाॅक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया. इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे जबरदस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताओं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया. यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिए जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया.’
भाकपा माले नेता कविता कृष्णन का आरोप है कि ‘चंदू की हत्या के मुख्य आरोपियों को तो सजा नहीं हुई. वे कहती हैं, ‘शूटरों को सजा हुई थी. लेकिन अब ऐसा सुनने में आ रहा है कि उन्हें भी छोड़ने की कोशिश की जा रही है. हालांकि, हम लोग इसे लेकर सतर्क हैं. ऐसा होता है तो हम विरोध करेंगे.’
चंदू के बारे में एक मशहूर घटना है. 1993 में छात्रसंघ के चुनाव के दौरान छात्रों से संवाद में किसी ने उनसे पूछा, ‘क्या आप किसी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं?’ इसके जवाब में उन्होंने कहा था, ‘हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगत सिंह की तरह जीवन, चे ग्वेरा की तरह मौत.’ उनके दोस्त गर्व से कहते हैं कि चंदू ने अपना वायदा पूरा किया.
इस देश में सिनेमा का जादू ऐसा है कि कोई भी इससे बच नहीं सकता. फिल्में किसी को कम किसी को ज्यादा लेकिन प्रभावित जरूर करती हैं. सिनेमा का प्रभाव इतना भव्य है कि हर तरह के दर्शक के लिए यहां कुछ न कुछ मिल ही जाता है. दर्शकों पर छाए जादू की वजह से भारतीय सिनेमा सौ बरस से ज्यादा की उम्र पार कर चुका हैै. यह कहानी है ऐसे ही एक दर्शक की जो न सिर्फ सिनेमा से प्रभावित हुआ बल्कि आगे चलकर उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली हो गया कि भारतीय सिनेमा भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका.
सिनेमा और उसके इस खास दर्शक की प्रेम कहानी की शुरुआत 40 के दशक में होती है. केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में उस वक्त गिनती के सिनेमाघर हुआ करते थे और जो सिनेमाघर थे भी उन तक बिना अभिभावकों की इजाजत के बच्चों की पहुंच मुश्किल थी. उस जमाने में टेंट में अस्थायी तौर पर विकसित किए गए एक सिनेमाघर में सात से आठ साल का एक लड़का रेत पर बैठकर के. सुब्रमण्यम की कोई धार्मिक फिल्म देख रहा होता है. सिनेमा के साथ अपने पहले ही अनुभव में वह लड़का उसे अपना दिल दे बैठता है और उसकी आगे की जिंदगी भारतीय सिनेमा के नाम हो जाती है.
सिनेमा को इस जुनूनी अंदाज में चाहने वाले शख्स का नाम है परमेश कृष्णन नायर, जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री में पीके नायर के नाम से जाना-पहचाना जाता है. तिरुवनंतपुरम में जन्मे नायर साहब को बचपन से ही सिनेमा के टिकट जमा करने का शौक था. इसके अलावा आपने विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर अब ‘विलुप्तप्राय’ की श्रेणी में आ चुकी वजन नापने की मशीन तो देखी ही होगी, जिसमें सिक्का डालने पर एक टिकट निकलता था, जिसके एक तरफ वजन की जानकारी और दूसरी तरफ किसी अभिनेता और अभिनेत्री की तस्वीर के साथ आपके लिए शुभकामना संदेश होता था. उस वक्त नायर साहब की चिंता अपने वजन से ज्यादा टिकट के दूसरी ओर प्रकाशित कलाकार की तस्वीर की और उसे अपने संग्रह में जमा करने की होती थी. किसी चीज को संजोने और संवारने का उनका शौक ताजिंदगी बना रहा. फिल्में देखते हुए वे बड़े हुए और फिल्म बनाने का सपना उनकी आंखों में पलने लगा.
1953 में केरल विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक होने के बाद फिल्म निर्माण में अपना भविष्य बनाने के लिए 1958 में उन्होंने मुंबई का रुख किया था. उस जमाने में इस तरह के शौक और सपनों के लिए परिवार में कोई जगह नहीं होती थी. ऐसे सपनों को किस नजर से देखा जाता था यह बताने की जरूरत नहीं. सो, तब के बंबई पहुंचने का उनका सफर परिवारवालों की सहमति के बिना ही पूरा हुआ. मुंबई पहुंचने के बाद उन्हें बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी और महबूब खान का साथ मिला. भारतीय सिनेमा को दिशा देने वाली इन महान शख्सियतों के बीच कुछ समय तक फिल्म निर्माण के गुर सीखने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि उनमें फिल्म निर्माण के लिए जरूरी योग्यता नहीं है. इसके बाद सिनेमा से जुड़े अपने शौक पर ध्यान केंद्रित करते हुए उन्होंने फिल्म से जुड़ी किसी तरह की शिक्षा लेने की सोची.
सेल्यूलॉयड मैन, सिनेमाई एनसाइक्लोपीडिया जैसे उपनामों से मशहूर पीके नायर एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने काम को वास्तव में जिया
अब जरा सोचिए, भारतीय सिनेमा के ‘मूक युग’ (1899-1930) के दौरान तकरीबन 1700 फिल्में बनाई गई थीं, जिनमें से सिर्फ नौ फिल्में आज देखने के लिए उपलब्ध हैं. ऐसा इसलिए हुआ कि उस जमाने में फिल्मों को सहेजने का कोई ‘बैंक’ नहीं हुआ करता था और न ही इस तरफ किसी ने कभी विचार ही किया. गिनती की ये मूक फिल्में उस ‘बैंक’ की वजह से बच गईं जिसे नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया यानी राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के नाम से जाना जाता है, जिसकी नींव पीके नायर ने पुणे में रखी थी.
मुंबई में फिल्म निर्माण की विधा से मन उचटने के बाद उन्होंने पुणे स्थित फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) का रुख किया. वर्ष 1961 में वे बतौर शोध सहायक इस संस्थान से जुड़े. यहां उन्हें वह लक्ष्य मिल गया जिसकी वजह से भारतीय सिनेमा की तमाम क्लासिक फिल्मों को बचाया जा सका. एफटीआईआई से जुड़ने के बाद ही उन्हें लगा कि एक स्वायत्त संस्थान होना चाहिए जहां फिल्मों का संग्रह किया जा सके. एफटीआईआई में काम के दौरान उन्होंने इसके लिए अथक प्रयास करने शुरू कर दिए, जिसके बाद एफटीआईआई परिसर में ही 1964 में राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय अस्तित्व में आ सका. 1965 में उन्हें इस संग्रहालय का सहायक निरीक्षक बनाया गया और फिर वे इसके पहले निदेशक बनाए गए. 1991 में रिटायर होने तक वे संग्रहालय के निदेशक रहे.
बीते चार मार्च को पीके नायर ने जब इस दुनिया को अलविदा कह दिया तो यह खबर अखबारों के पिछले पन्नों में दबकर रह गई. सोशल मीडिया पर उनके लिए ‘आरआईपी’ (रेस्ट इन पीस) लिखने वाले भी न के बराबर नजर आए और बजट सत्र की बहस के बीच देश के राजनीतिज्ञों को उनके जाने की भनक भी नहीं लग पाई!
जिन दादा साहब फाल्के को हम भारतीय सिनेमा के जनक के तौर पर जानते हैं और जिन्होंने 1913 में भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई, उनसे पहचान करवाने की वजह नायर साहब और राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ही बने. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि ‘पाथेर पांचाली’ से लेकर ‘मुगल-ए-आजम’ तक उन्हें अधिकांश फिल्मों के सीन दर सीन जबानी याद थे. यह कुछ ऐसा था जैसे कोई अंधा व्यक्ति कोई चीज छूकर उसकी पहचान कर लेता था, ठीक वैसे ही नायर साहब सिर्फ फिल्म की रील छूकर बता देते थे कि उसमें कौन-सा सीन दर्ज है. उनकी याददाश्त फिल्मों के प्रति उनके सच्चे लगाव को दर्शाती थी.
रिटायर होने तक अपने 26 साल के कार्यकाल में फिल्म आर्किविस्ट नायर ने तकरीबन 12 हजार फिल्मों का संग्रह किया. इनमें से आठ हजार भारतीय और बाकी विदेशी भाषा की फिल्में हैं. फिल्मों की रील जमा करने के लिए उन्होंने भारत के सुदूर इलाकों की यात्राएं कीं. उन्होंने हर उस फिल्म को संग्रहित करने की कोशिश की, जिसे संग्रहीत करने की जरूरत थी या उन्हें मौका मिला. फिर वह चाहे विश्व सिनेमा हो, हिंदी की कोई फिल्म या फिर क्षेत्रीय सिनेमा, राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में हर तरह की फिल्मों का संग्रह मौजूद है. यहां तक कि वे विश्व सिनेमा को गांवों तक भी ले जाने के लिए प्रयासरत रहे.
पीके नायर की जिंदगी और उनके काम पर आधारित शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की डॉक्यूमेंट्री ‘सेल्यूलॉयड मैन’ साल 2013 में तीन मई को रिलीज हुई थी. संयोग से यह ठीक वही समय था जब भारतीय सिनेमा ने अपनी यात्रा के सौ बरस पूरे किए थे. हालांकि सिनेमा के सौ बरस पूरे होने पर खास तौर से बनाई गई फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज’ की चर्चा के आगे यह फिल्म कहीं खो-सी गई थी, लेकिन 60वें राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म ने जोरदार धमक दिखाते हुए दो पुरस्कार अपने नाम किए. इसे बेस्ट एडिटिंग और बेस्ट बायोग्राफिकल ऐंड हिस्टोरिकल रिकंस्ट्रक्शन का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. इस फिल्म को तकरीबन 50 फिल्म महोत्सवों में प्रदर्शित किया गया. कुछ ही भारतीय फिल्मों के साथ ऐसा हो पाता है कि वे इतने फिल्म महोत्सवों में प्रदर्शन के लिए चुनी जाएं. इसमें उन फिल्मकारों और शख्सियतों के इंटरव्यू दिखाए गए हैं जो किसी न किसी रूप से पीके नायर से प्रभावित थे. इसमें गुलजार, बासु चटर्जी, नसीरुद्दीन शाह, कमल हासन, जया बच्चन, दिलीप कुमार, सायरा बानो, सितारा देवी, संतोष सीवन, राजकुमार हिरानी, श्याम बेनेगल, महेश भट्ट, रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा, मृणाल सेन आदि की बातचीत शामिल की गई. इसके अलावा इस डॉक्यूमेंट्री में भारतीय सिनेमा की शुरुआत की कुछ मास्टरपीस फिल्मों के फुटेज भी दिखाए गए हैं.
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उन पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘सेल्यूलॉयड मैन’ बनाने वाले उनके शिष्य शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ऑनलाइन डेली ‘द सिटीजन’ से बातचीत में बताते हैं, ‘थियेटर के अंधेरे में नायर साहब का साया मुझे याद आता है. देर रात तक सिनेमा देखते हुए, फिर रुक-रुककर पॉकेट टॉर्च की रोशनी में अपनी छोटी-सी डायरी में उसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां लिखते हुए, बीच-बीच में प्रोजेक्शनिस्ट पर चिल्लाते और हमेशा कोई न कोई फिल्म देखते हुए. हमें उनसे थोड़ा डर भी लगता था. किसी फिल्म को देखने का आग्रह करने के लिए उनके ऑफिस में बनी लकड़ी की सीढ़ियां चढ़ते हुए हमें काफी साहस जुटाना पड़ता था. अब तक मेरे लिए वही एकमात्र व्यक्ति थे जो ये बता सकते थे कि फिल्म की किस रील में कौन-सा सीन मिल सकता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘नायर साहब कभी भी खुद पर फिल्म बनाने के पक्ष में नहीं रहे. जब मैंने उन पर फिल्म बनाने की बात कही तो उन्होंने कहा कि अगर यह फिल्म संग्रह करने को लेकर होगी तभी वे उसका हिस्सा बन सकते हैं. डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग के समय मैंने कभी भी उनसे नहीं कहा कि ये उनके काम पर आधारित है. जब भी हम उनके पास कुछ शूट करने के लिए पहुंचते तो वे कहा करते कि मेरे बारे में इतना कुछ क्यों शूट कर रहे हो. डॉक्यूमेंट्री बनने के बाद ही उन्हें इस बात का एहसास हो सका कि वह किस पर बनी है.’
बंगलुरु इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के एग्जिक्यूटिव आर्टिस्टिक डायरेक्टर विद्याशंकर कहते हैं, ‘भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में दस्तावेजीकरण और संग्रह की स्थिति बहुत मजबूत नहीं है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. इस कमजोरी को पीके नायर ने चुनौती दी और अपनी प्रतिबद्धता और कठिन परिश्रम के दम पर उन्होंने स्थिति को अपवाद साबित कर दिया. अगर उन्होंने ऐसी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई होती तो मेरी पीढ़ी के तमाम लोग सिनेमा से तमाम महान कार्यों को देख-समझ नहीं पाते.’
सेल्यूलॉयड मैन, भारतीय सिनेमा के अभिभावक, सिनेमाई एनसाइक्लोपीडिया जैसे उपनामों से मशहूर पीके नायर एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने काम को वास्तव में जिया. जब तक रहे, सिनेमा को समृद्ध और विभिन्न फिल्मों की रील संग्रह करने का काम करते रहे. उनके काम को उनके द्वारा संग्रहीत की गईं फिल्मों की संख्या से नहीं आंका जा सकता. उनके काम से कई पीढ़ियां प्रभावित हुईं. खास तौर से मणि कौल, अदूर गोपालकृष्णन, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा, जाहनू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली, जॉन एब्राहम (निर्देशक), विधु विनोद चोपड़ा और कुंदन शाह. उनके जाने के बाद शायद ही कोई दूसरा पीके नायर हो सके और सिनेमा के अलावा शायद ही किसी को उनके जाने का फर्क पड़े, लेकिन हमें इस बात को समझना चाहिए कि भारतीय सिनेमा को एक और ‘नायर साहब’ की जरूरत अब आन पड़ी है.
चार साल पहले की बात है. लखनऊ का दिल कहे जाने वाले हजरतगंज में किताबों की एक दुकान पर एक शोधार्थी पहुंचा. उसने चार हजार रुपये से अधिक की किताबें निकालीं पर जब पैसे देने की बारी आई तो उसकी जेब से मुश्किल से दो हजार रुपये ही निकले. उसने बिल कैंसिल करने की गुजारिश करते हुए अगली बार किताबें ले जाने की बात कही. यह देखकर दुकान के मालिक ने उसे बैठाया. बातचीत का सिलसिला चला तो उसके शोध के विषय से लेकर किताबों पर लंबी बात हुई. इसके बाद मालिक ने किताबें ले जाने और अगली बार आने पर पैसे देने की बात कही. आज के समय में एक अनजान ग्राहक पर इस तरह का विश्वास करने वाले दुकान के मालिक थे- राम आडवाणी. क्या ‘राम आडवाणी बुक सेलर्स’ के मालिक अपने यहां आने वाले किसी भी शख्स पर इस तरह आंख मूंदकर भरोसा कर लेते हैं, इस पर राम आडवाणी का कहना था, ‘ऐसा नहीं है. दुकान में आने वाले शख्स की नजर और उसका किताबें देखने का सलीका बता देता है कि वह किताबों से कितनी मोहब्बत करता है और जो किताबों से मोहब्बत करता है, वह यहां बार-बार आना चाहता है और आता भी है. ऐसे में पैसे न देने का सवाल ही नहीं उठता. यह मेरा 90 साल की जिंदगी का तर्जबा है.’ बचपन में नाना से किताबों की दुकानदारी की बारीकियां जानने वाले राम आडवाणी विभाजन के समय परिवार के साथ रावलपिंडी से पहले शिमला आए, फिर लखनऊ. यहां जेबी कृपलानी के सहयोग से हजरतगंज स्थित गांधी आश्रम परिसर के एक कोने में किताबों की दुकान की नींव डाली गई, फिर कुछ समय बाद वे मेफेयर बिल्डिंग में अपनी किताबों की दुनिया लेकर पहुंच गए. इस दुनिया से उन्हें कितनी मोहब्बत थी इसका अंदाजा उनकी इस बात से मिल जाता था, ‘जब हमारे अधिकतर दोस्त पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वकील और जज बनने का ख्वाब देखते थे, तब मैं एक अच्छी किताबों की दुकान खोलने का सपना बुनता था.’ किताबें बेचने के साथ-साथ पढ़वाने के फलसफे में यकीन रखने वाले राम आडवाणी अपनी पारखी नजर से पुस्तक प्रेमियों को पहचानने में देर नहीं लगाते थे. पुस्तक प्रेमी भी उनके अनुभव व लखनवी संस्कृति के किस्से-कहानियों का भरपूर लाभ उठाते थे. लखनऊ और अवध पर वे शोधार्थियों के लिए संदर्भ केंद्र का काम करते थे. लखनवी तहजीब में गहरे रचे-बसे राम आडवाणी किसी भी पुस्तक प्रेमी का एक मेहमान की तरह स्वागत करते थे. इतिहासकार आलोक बाजपेयी बताते हैं, ‘25 साल पहले झिझकते हुए उनकी दुकान पर गया तो वे मुस्कुराकर मिले. पहले मेरी झिझक तोड़ी फिर पसंद पूछी और खुद उठकर किताबें दिखाने लगे. उस दिन से एक जान-पहचान बन गई और अब तक जब भी लखनऊ जाता तो वहां जरूर जाता.’ राम आडवाणी के पास बैठना एक तरह से लखनऊ के पास बैठना था. उन्होंने लखनऊ को दुल्हन की तरह सजते-संवरते और इठलाते हुए देखा था. यानी बग्घी के दौर से लेकर ऑडी फिर बीएमडब्ल्यू तक का जमाना देखा. किताबी दुनिया से सरोकार रखने वाले जब गंजिंग (लखनऊ के हजरतगंज इलाके में तफरीह करना) के लिए निकलते तो उनकी दुकान के सामने से निकलते हुए उन्हें एक नजर देखने की इच्छा रखते. उनमें लखनऊ धड़कता था. बातचीत में अगर लोग गलती से उन्हें मूल स्थान से रेखांकित करते तो वे मुस्कुराते हुए यह कहने में संकोच नहीं करते कि ‘मैं सिंधी नहीं, लखनवी हूं.’ वे लखनऊ को देखने, जानने और समझने का आईना थे. उनका निधन एक तरह से लखनऊ के आईने का बिखरना है तो सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षति भी. एक शख्स चुपचाप किताबों का व्यवसाय करते हुए किस तरह एक संस्था बन जाता है, राम आडवाणी इसका साक्षात उदाहरण थे. उनकी या उनकी दुकान की लोकप्रियता का कारण यह भी था कि वे उसे महज व्यवसाय नहीं मानते थे. उनका मानना था कि किताबों की दुनिया में गोता लगाने के दौरान अच्छे लोग मिलते हैं. जानकारों से बात करने का अवसर मिलता है. आदमी अच्छे मिलते हैं तो आपका जीवन भी अच्छा बनता है. अपने इसी फलसफे के कारण उनकी दोस्ती का दायरा लखनऊ और हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों तक फैला. उनके यहां देशी-विदेशी शोधार्थियों के आने का क्रम बना रहता था. उनके दोस्तों में रस्किन बॉन्ड से लेकर रोजी लवलेन जोंस, वीएस नायपॉल, विक्रम सेठ, विलियम डेलरिंपल, अमिताव घोष, मार्क टुली, प्रो. मुशीरुल हसन आदि न जाने कितने लेखक शामिल थे. इस तरह वे अंग्रेजी किताबों के व्यवसायी व लखनऊ के जानकार के तौर पर देशी-विदेशी शोधार्थियों के बीच ख्यातिलब्ध थे. अवध और लखनऊ पर किताबें लिखने वाली रोजी के लखनऊ प्रेम को देखकर उन्होंने रोजी को अपने घर लॉरेंस टैरेस में रहकर किताब लिखने की अनुमति दी थी. अनेक लेखक उनके जरिए ही देश-विदेश से किताबें मंगवाते थे. लेखक विलियम डेलरिंपल ने बताया था, ‘लॉन्च होने के बाद जिस किताब का हम लंदन में तीन दिन तक इंतजार करते वह राम आडवाणी के यहां 48 घंटे में मिल जाती.’
उनमें लखनऊ धड़कता था. बातचीत में अगर लोग गलती से उन्हें मूल स्थान से रेखांकित करते तो आडवाणी मुस्कुराते हुए यह कहने में संकोच नहीं करते कि ‘मैं सिंधी नहीं, लखनवी हूं.’
एक वाकया प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी जुड़ा है. आडवाणी बताते थे, ‘एक बार इंदिरा गांधी के पीए का फोन आया कि दिल्ली में ‘पीस ऑफ माइंड’ किताब खोजकर थक गया हूं. इंदिरा जी ने आपके पास फोन करने को कहा है. मैंने कहा कि मेरे पास किताब है और उन्हें भिजवा दी.’ प्रधानमंत्री नेहरू भी एक बार राम आडवाणी के यहां किताब खरीदने पहुंचे थे तो सुचेता कृपलानी, गोविंद बल्लभ पंत, संपूर्णानंद जैसे अनेक नेता उनके स्थायी ग्राहक हुआ करते थे. वे किताब लेने पहुंचते थे तो लंबी बातचीत का खाका बुन जाता था. यही वजह थी कि राम आडवाणी के पास संस्मरणों का भरपूर खजाना था. वे सकारात्मक सोचते थे. इसी बात का ख्याल रखते हुए वे लोगों की नकारात्मक बातें बताने से परहेज करते थे. उनका मानना था कि लोगों को उनके अच्छे काम से याद करना चाहिए. उसका समाज में अच्छा संदेश जाता है. राम आडवाणी की दुकान में एक विजिटर बुक रखी रहती है. वे उसमें अपने यहां आए प्रमुख लोगों की राय लिखवाते थे. हिंदी के आलोचक वीरेंद्र यादव बताते हैं, ‘उनकी विजिटर बुक में नेहरू, इंदिरा गांधी, फिरोज गांधी से लेकर जाने कितने ख्यात पुस्तक प्रेमी राजनेता, नौकरशाह, शिक्षक थे.’ एक मुलाकात में विजिटर बुक के बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि वे ये बातें अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहते हैं. वे बच्चों को बताते थे कि पढ़ने-लिखने वालों से उन्हें कैसे और क्या सीखना चाहिए. बढ़ती उम्र के बावजूद उनकी सक्रियता कम नहीं थी. उन्होंने खुद को कभी रिटायर नहीं होने दिया. दुकान चलाने के साथ वे किताबों और संस्कृति से जुड़े आयोजनों में बराबर शरीक होते थे. अपना यह पुस्तक प्रेम उन्होंने बेटे रुकुन में भी पैदा किया, जो अंग्रेजी लेखक होने के साथ-साथ एक प्रकाशन के मालिक हैं. राम आडवाणी की सक्रियता देखकर युवाओं को भी रश्क होता था. कम लोगों को पता होगा कि वह गोल्फ के अच्छे खिलाड़ी भी थे. 90 साल की उम्र तक गोल्फ खेलते रहे. लखनऊ गोल्फ क्लब के संस्थापक सदस्यों में उनका नाम है. साथ ही वे पियानो और शास्त्रीय संगीत के दीवाने थे. उनके बारे में कहा जाता है कि उनमें अंग्रेजी को लेकर श्रेष्ठता भाव था, लेकिन पांच साल में अनेक मुलाकातों और घंटों की बातचीत में इस बात का कभी अहसास नहीं हुआ. हां, इतना अवश्य था कि वे समय के पाबंद थे. इसमें कोताही करने वालों को वह कभी गंभीरता से नहीं लेते थे. पिछले दस महीने से उनकी सक्रियता में कमी आई थी. पिछले साल जून में पत्नी का निधन हुआ, फिर नवंबर में गिरने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई. तब से वे चलने-फिरने की स्थिति में नहीं थे और अंततः बीती नौ मार्च की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली. उनकी दोनों संतानें लखनऊ से बाहर हैं. ऐसे में पुस्तक प्रेमियों के मन में सवाल है कि क्या अब यह दुकान उसी स्वरूप में मौजूद रहेगी. जिस बिल्डिंग में यह दुकान है, पहले उसमें लखनऊ की पहचान मेफेयर सिनेमा बंद हुआ, फिर ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी. काश… यह सिलसिला आगे न बढ़े और राम आडवाणी की खेती को खाद-पानी मिलता रहे.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 12 फरवरी को राज्य में सुशासन की बहाली और कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बैठक खत्म कर उठने ही वाले होते हैं कि तभी भोजपुर इलाके से खबर आती है कि सोनवर्षा बाजार में विशेश्वर ओझा की हत्या कर दी गई. विशेश्वर ओझा भोजपुर इलाके में दबंग-धाकड़ और कुख्यात नेता होने के साथ ही भाजपा के उपाध्यक्ष भी थे, इसलिए उनकी हत्या की खबर जंगल की आग की तरह फैलती है. सोनवर्षा से लेकर पटना तक राजनीतिक गलियारा गरमा जाता है. भोजपुर से लेकर आरा तक तोड़फोड़ का सिलसिला शुरू होता है. पटना में भाजपाई नेता जंगलराज-जंगलराज का शोर कर 72 घंटे का अल्टीमेटम देते हैं कि कार्रवाई नहीं हुई तो पूरे राज्य में आंदोलन चलेगा. नीतीश कुमार की मीटिंग के रंग में भंग-सा पड़ जाता है. राहत की बात यह होती है कि थोड़ी ही देर में यह बात भी हवा में फैलने लगती है कि ओझा की हत्या उनके पुराने दुश्मन शिवाजीत मिश्रा के गुर्गों ने की है. शिवाजीत मिश्रा आरा जेल में बंद है. 100 बीघे जमीन पर कब्जे के लिए दोनों के बीच वर्षों की खूनी जंग का इतिहास भोजपुर के लोकमानस में कैद है. भोजपुर में दोनों के आपसी रंजिश में दर्जनों लाशें भी गिरी थीं.
भोजपुर इलाके में विशेश्वर ने पहले पंचायत चुनाव में अपने परिजनों को जितवाया. बाद में विधानसभा चुनाव में छोटे भाई की पत्नी को जितवाकर अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास करवाया. तीन माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में वह खुद ही मैदान में उतरे थे. भाजपा ने उन्हें शाहपुर विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया था. हालांकि प्रसिद्ध नेता शिवानंद तिवारी के बेटे राहुल तिवारी ने राजद के टिकट से चुनाव लड़ विशेश्वर को हरा दिया था. विशेश्वर की हत्या के बाद जदयू के लोग शिवाजीत मिश्र और विशेश्वर की अदावत वाली बातों को जोर-शोर से फैलाने की कोशिश करते हैं. इसका मकसद यह बताना होता है कि यह सिर्फ निजी रंजिश का परिणाम है. इसका राज्य की कानून-व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है. राज्य के डीजीपी पीके ठाकुर कहते हैं, ‘हम अपने स्तर से मामले को देख रहे हैं. अतिरिक्त पुलिस बल को लगाया गया है.’
नीतीश आंकड़ों से अपराध के कम होने का दावा करते हैं, लेकिन सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से अपराध बढ़ा है उससे सुशासन के दावे पर सवाल खड़े हो रहे हैं
अगले दिन 13 फरवरी को विशेश्वर हत्याकांड को लेकर गरमाहट बढ़ी ही रहती है कि नवादा से एक खबर का विस्फोट होता है कि वहां के दबंग राजद विधायक राजवल्लभ यादव फरार हो गए हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ रही है लेकिन पटना से लेकर नवादा तक वे कहीं मिल नहीं रहे हैं. राजवल्लभ पर एक सप्ताह पहले ही 15 वर्षीया नाबालिक लड़की से बलात्कार करने का आरोप लगा है. उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी किए गए थे, जिसके बाद वे फरार हो गए. राजवल्लभ को उनकी पार्टी राजद अगले दिन निलंबित कर देती है. एक माह से भी कम समय में दूसरा मौका होता है, जब सत्ताधारी दल के विधायक को ऐसे कृत्य की वजह से निलंबित करना पड़ता है. इसके पहले जदयू के विधायक सरफराज आलम को भी ऐसे ही मामले में निलंबित किया गया था. सरफराज पर चलती ट्रेन में एक महिला के साथ छेड़खानी का आरोप लगता है. सत्तारूढ़ दल के ही एक कांग्रेसी विधायक सिद्धार्थ पर एक लड़की को उठाने का आरोप भी लग चुका है. राजवल्लभ यादव की घटना के बाद लालू प्रसाद यादव का बयान आता है, ‘पार्टी किसी किस्म की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेगी.’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बयान आता है, ‘ऐसी घटनाओं को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. चाहे कोई हो, कार्रवाई होगी. राजद ने अपने विधायक पर कार्रवाई की है.’ पर वह एक और बात जोड़ देते हैं, ‘ऐसी घटनाएं शर्मनाक हैं, लेकिन यह कहना सही नहीं है कि राज्य में अपराध बढ़ रहा है. पिछले तीन सालों से अपराध घट रहा है.’ नीतीश कुमार जब यह कहते हैं तो एक तरीके से खुद बिरनी के छत्ते में हाथ जैसा डालते हैं. वे आंकड़ों की तहजाल में जाकर अपराध के कम होने का हवाला देने की कोशिश करते हैं. ऐसा कहते वक्त वे ये भूल जाते हैं कि आंकड़े भले ही उन्हें तसल्ली दें लेकिन इस बार सत्ता संभालने के बाद पिछले ढाई माह में ही जितने किस्म की घटनाएं घटी हैं, उससे सिद्ध होता है कि अपराध का कम होना एक बात हो सकती है लेकिन अपराध की प्रवृत्ति जिस तरह से बदली है, उसे आंकड़ों के जरिये पुष्ट नहीं किया जा सकता. हां, मन को तसल्ली जरूर दे सकता है.
जंगलराज बनाम मंगलराज के तमाम तहजाल के बीच एक तीसरा नजरिया भी है. यह मीडिया का नजरिया है. बिहार के चुनाव के वक्त ही ये बातें कही जा रही थीं कि मीडिया की असल परीक्षा की घड़ी अब आयी है. कुछ सालों पहले तक यह कहा जाता था कि नीतीश कुमार बिहार के मिस्टर चीफ एडिटर हैं, यानी मीडिया को नियंत्रित रखते हैं. तब भाजपा भी उनके साथ थी. ये बातें सिर्फ कही नहीं जाती थी, इस पर उठा बवाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की देहरी तक पहुंच चुका था. सुनवाइयों का दौर चला था. यह साबित करने की कोशिश हुई थी कि नीतीश कुमार सीधे मीडिया को नियंत्रित करते हैं और बिहार की मीडिया बिकाऊ हो गई है. बिहार की मीडिया नीतीश के नियंत्रण में थी या नहीं, यह वाद-विवाद और पड़ताल का विषय हो सकता है लेकिन तब यह सच्चाई थी कि बड़ी से बड़ी अपराध और कुशासन की खबरें अखबारों में, मीडिया में उस तरह से जगह नहीं पाती थी, जैसा कि जरूरत होती थी या कि जैसा अब हो रहा है. वह चाहे फारबिसगंज के भजनपुरा में अल्पसंख्यकों को मार दिए जाने का मामला हो या कोई और. लेकिन अब बारास्ता मीडिया बिहार में घटित होने वाली तमाम घटनाएं सतह पर आ रही हैं. जानकार बता रहे हैं कि मीडिया की वजह से भी अचानक अपराध इस किस्म का दिखने लगा है वरना यह रोग तो पुराना ही था, घटनाएं पहले भी हो रही थीं. जानकार बताते हैं कि इसके पीछे वजह दूसरी भी है. मीडिया द्वंद्व में फंसी हुई है. एक तरफ बिहार में नीतीश कुमार हैं, दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की सरकार. अपने बेहतर भविष्य के लिए उसे दोनों से बेहतर रिश्ता रखना है. अगर बिहार की खबरें दबेंगी या सतह पर नहीं लाई जाएंगी तो केंद्र की सरकार का अपना हिसाब-किताब होता है मीडिया घरानों से और अगर बिहार की बातों को ज्यादा ही सतह पर लाएंगे तो बिहार की सरकार भी अगले पांच साल के लिए बहुमत से चुनी गई है, सो उसका भी अपना हिसाब-किताब होता है. कुछ जानकार इसे मीडिया घरानों के विज्ञापन के कारोबार से जोड़कर देखते हैं और उसे ही दुविधा की वजह बताते हैं जबकि कुछ विश्लेषक इसे मीडिया के जातीय चरित्र के हिसाब से भी आंकते हुए बताते हैं कि चूंकि बिहार के मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व है. अब पिछड़ों की सरकार बन गई है. लालू प्रसाद के साथ नीतीश का आना हजम नहीं हो रहा, इसलिए मीडिया में बैठे नुमाइंदे हर घटना पर नजर रख रहे हैं, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं. नीतीश जब तक भाजपा के साथ थे और घटनाएं होती थीं तो वही नुमाइंदे चुप्पी साधे रहते थे. बात दोनों सही हो सकती हैं या दोनों में से कोई भी नहीं. जो भी हो लेकिन नीतीश कुमार की इस पारी में मीडिया की साख की भी परीक्षा जारी है.
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अपराध का अनवरत सिलसिला
विशेश्वर की हत्या के मामले को आपसी रंजिश का ही मामला भर मान लें और राजवल्लभ के कृत्य को भी व्यक्तिगत कुकृत्य की परिधि में समेट देने के बावजूद तो भी पिछले दो-ढाई माह में बिहार में घटित घटनाओं पर गौर करें तो मालूम होगा कि कैसे अपराधी सिर्फ अपराध नहीं कर रहे बल्कि वे घटनाओं को ऐसे अंजाम दे रहे हैं, जैसे वे मान चुके हैं कि शासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ने वाला है. यह सिलसिला दरभंगा इंजीनियर हत्याकांड के बाद शुरू होता है. विगत माह दरभंगा में चड्डा एंड चड्डा कंपनी के दो इंजीनियरों की हत्या संतोष झा गिरोह के लोग करते हैं. बात सामने आती है कि जेल में बंद संतोष झा का गुर्गा मुकेश पाठक यह हत्या करता है. हत्या की वजह रंगदारी और लेवी नहीं देना बताया जाता है. मारे गए दोनों इंजीनियर बिहार के ही हैं इसलिए यह राष्ट्रीय स्तर पर उस तरह से चर्चा में नहीं आता. इस हत्याकांड पर न तो शासन के, न सत्तारूढ़ दल के लोग खुलकर बोलते हैं. बोलने की स्थिति भी नहीं बनती, क्योंकि जो मुकेश पाठक इस घटना को अंजाम देता है, वह पुलिस के सौजन्य से ही जेल से फरार होता है. लोग कहते हैं कि फरार करवाया गया है.
इस घटना पर कार्रवाई करने की बात नीतीश कुमार करते हैं. वे अपने अधिकारियों पर झल्लाते हैं कि जैसे भी हो रिजल्ट चाहिए. नीतीश कुमार कहते हैं कि अगर अपराध कम नहीं हुआ तो एसपी से लेकर थानेदारों तक नापेंगे, पर उनकी इस झुंझलाहट और झल्लाहट का पुलिस-प्रशासन पर कोई असर पड़ता नहीं दिखता. इसका उलटा असर जरूर होता है. बिहार में अपराधियों का मनोबल बढ़ जाता है. एक के बाद एक दनादन घटनाएं शुरू हो जाती हैं. इंजीनियर हत्याकांड के अगले ही दिन समस्तीपुर में अपराधी दिनदहाड़े एक प्रतिष्ठित डॉक्टर के घर पर गोलियां बरसाते हैं. ये गोलियां भी रंगदारी नहीं दिए जाने के बाद धमकाने के लिए बरसाई जाती हैं. यह घटना भी समस्तीपुर में ही दबकर रह जाती है, लेकिन 18 जनवरी को एक ऐसा दिन आता है, जब एक बार फिर से जदयू और सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ता है. इस दिन एक खबर आती है कि चंपारण के एक बैंक से अपराधियों ने 20 लाख की लूट की. इस पर लोग ज्यादा ध्यान नहीं देते लेकिन तभी खबर आती है कि जदयू की चर्चित विधायक व पूर्व मंत्री बीमा भारती का पति कुख्यात सरगना अवधेश मंडल पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद थाने से फरार हो गया. हालांकि दो दिनों के अंदर ही वह गिरफ्त में आ जाता है. लेकिन अवधेश के गिरफ्त में आने और फरार हो जाने की घटना की पड़ताल की गई तो जो कारण पता चले उसे किसी आंकड़े से पुष्ट नहीं किया जा सकता.
दरअसल अवधेश मंडल को कोसी इलाके के कुख्यात चेहरों में से एक माना जाता है. जिस मामले में अवधेश मंडल गिरफ्तार हुए, फरार हुए, फिर गिरफ्तार हुए. उस मामले को जानने से यह बात साफ होती है. अवधेश मंडल पर 46 से अधिक मामले दर्ज हैं. सब क्रिमिनल केस हैं. अवधेश मंडल फैजान गिरोह के संचालक रहे हैं. फैजान गिरोह सवर्ण दबंगों और सामंतों से लड़ने के लिए गठित हुई निजी सेना थी. सवर्णों से लड़ते-लड़ते अवधेश मंडल और फैजान गिरोह के लोग दलितों व वंचितों से ही लड़ने लगे. उनका ही हक मारने लगे. इसी क्रम में पूर्णिया के भवानीपुर में 60-70 दलित परिवारों की 110 एकड़ जमीन पर अवधेश मंडल और उनके गिरोह के लोगों ने कब्जा कर लिया. 20 सालों से यह कब्जा है. सरकार ने यह जमीन दलितों को खेती करने के लिए दी थी. दलित इसका विरोध नहीं कर सके. जिन्होंने विरोध किया, उनकी कहानी खत्म हुई. इसी क्रम में चंचल पासवान और कैलाश पासवान नामक दो भाइयों ने विरोध किया. दोनों की हत्या हो गई. इसके बाद चंचल पासवान की पत्नी पर पक्ष में गवाही देने के लिए अवधेश मंडल और उनके लोगों ने दबाव बनाना शुरू किया. इसी डर से चंचल पासवान की पत्नी और उनका पूरा परिवार इधर-उधर भटकता फिरने लगा. अवधेश मंडल उसी मामले में गिरफ्तार हुए. फिर भागे. फिर पकड़े गए. अवधेश मंडल के भाग जाने वाली घटना को सामान्य घटना भी मान लें तो भी 20 सालों से एक गांव के दलितों की जमीन पर एक विधायक पति का कब्जा होना कोई सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती.
Photo – Patna view blogspot
जदयू के प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘अपराध बढ़ा है तो सरकार कार्रवाई कर रही है लेकिन यह भी तो देखिए बिहार में अभी भी दूसरे राज्यों की तुलना में अपराध कम है. आपसी रंजिश और व्यक्तिगत कारणों से हो रही घटनाओं को भी बढ़ते अपराध की श्रेणी में शामिल कर बिहार में पेश किया जा रहा है.’ वशिष्ठ नारायण सिंह आसानी से यह बात कह देते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार के शासनकाल की मूल पहचान गवर्नेंस को दुरुस्त रखना और कानून व्यवस्था को ठीक रखना ही माना जाता है. उनके कार्यकाल में अपराध का किसी भी रूप में बढ़ जाना या दिखने लगना सरकार की सेहत पर भले ही किसी किस्म का असर न डाले लेकिन नीतीश कुमार की जो छवि पिछले डेढ़ दशक से बिहार के अलावा पूरे देश में बनी हुई है, उसको नुकसान हो रहा है. वशिष्ठ बाबू जब ऐसा कहते हैं तो वे एक तरीके से सिर्फ सरकार का बचाव करने के मूड में होते हैं. संभव है कि ढेरों घटनाएं उस परिधि में आती हों. लेकिन क्या यह संभव है कि उनके बनाए फॉर्मूले के अनुसार सभी घटनाएं उसी फ्रेम में समा जाएं? चाहे वह 13 दिसंबर को मुजफ्फरपुर में चावल व्यवसायी की हत्या का मामला हो या 28 दिसंबर को वैशाली में रिलायंस इंजीनियर की हुई हत्या की बात हो, 16 जनवरी को पटना में दिनदहाड़े एक ज्वेलरी व्यवसायी को रंगदारी न देने पर मार देने और दो दिनों बाद ही बेटे की मौत के सदमे से पिता के गुजर जाने की भी बात को भी उसी फ्रेम में समझा जा सकता है, क्योंकि ज्वेलरी व्यवसायी की हत्या रंगदारी नहीं दिए जाने के कारण हुई. किसी का रंगदारी मांगना और रंगदारी देना भी व्यक्तिगत परिधि में आ सकता है. अगर ये घटनाएं व्यक्तिगत रंजिश की परिधि में आ जाएं तो 17 जनवरी को अररिया जिले के नरपतगंज में घटी घटना तो और आसानी से उस परिधि में आ जाएगी. 17 जनवरी को एक दबंग ने महादलितों पर तेजाब फेंककर आठ लोगों को घायल कर दिया. बताया जाता है कि नरपतगंज में आनंदी ऋषिदेव नामक एक महादलित को भूदान में वर्षों पहले जमीन मिली थी. उस पर पांच सालों से दबंग सुरेंद्र ठाकुर का कब्जा था. सुरेंद्र ठाकुर उस जमीन पर रोड बनवाना शुरू करता है. आनंदी ऋषिदेव का परिवार विरोध करने पहुंचता है. दबंग सुरेंद्र ठाकुर के लोग तेजाब फेंकते हैं आैर आठ लोग घायल हो जाते हैं. पटना में सरेआम सृष्टि जैन हत्याकांड की घटना को तो और आसानी से उस परिधि में समेटा जा सकता है, क्योंकि सृष्टि की हत्या प्रेम प्रसंग में होती है. इन सबके बाद राघोपुर इलाके में लोजपा नेता बृजनाथ सिंह की हत्या को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. बृजनाथ सिंह की हत्या अपराधियों ने सरेआम एके 47 से 27 गोलियां बरसाकर की थी. बृजनाथ राघोपुर इलाके के नेता थे. उनकी पत्नी वीणा देवी राबड़ी देवी के खिलाफ चुनाव लड़कर उन्हें कड़ी टक्कर दे चुकी हैं. बृजनाथ के घर की एक महिला ब्लॉक भी प्रमुख हैं. राघोपुर इलाका लालू प्रसाद यादव का गढ़ माना जाता है. इस वजह से बृजनाथ की हत्या के बाद सवाल दूसरे किस्म के भी उठाए गए.
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जंगलराज बनाम मंगलराज
नीतीश कुमार जब ये कह रहे होते हैं कि आंकड़ों में अपराध कम है और वशिष्ठ बाबू जब यह कह रहे होते हैं कि व्यक्तिगत रंजिश के कारण हो रही घटनाओं को भी अपराध की श्रेणी में शामिल किया जा रहा है तो वे जानबूझकर कई बातों को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे होते हैं. अगर वशिष्ठ बाबू के फ्रेम में जाकर बिहार में हालिया दिनों में हुई घटनाओं का पोस्टमाॅर्टम करें तो सिर्फ बैंक लूट और इंजीनियर हत्याकांड को ही लॉ एंड ऑर्डर के बिगड़ने की परिधि में रख सकते हैं. एक सच यह भी है कि जिस तरह से भाजपा के लोग इन दिनों बिहार में रोज-ब-रोज अपराध के बढ़ने, जंगलराज के वापस आने का ढोल पीट रहे हैं, वह भी एक तरीके से अपने किए को ही मिटाने का काम कर रहे हैं. वे जब किसी एक घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं और बताते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ आ गए हैं, तो वे भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार के साथ सबसे लंबे समय तक वही रहे हैं और उनके समय में आंकड़ों के हिसाब से भी अपराध का ग्राफ बिहार में बढ़ा रहा. बड़ी घटनाएं भी लगातार होती रहीं. इन घटनाओं में फारबिसगंज का गोलीकांड सबसे बड़ा माना जा सकता है, जब पुलिस ने छह अल्पसंख्यकों को बूटों से रौंदकर मार डाला था. एक भाजपा नेता की फैक्ट्री के विवाद को लेकर ही पुलिस ने ऐसा किया था. भाजपा के साथ रहने के दौरान ही पूर्णिया के भाजपा विधायक राजकिशोर केशरी की हत्या हुई थी. भाजपा के साथ रहते ही ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या आरा में हुई थी और उसके बाद मुखिया की शवयात्रा के बहाने राजधानी पटना में तांडव मचा था. भाजपा और नीतीश के साथ रहते हुए घटनाओं को छोड़ दें तो जिस जीतन राम मांझी को लेकर भाजपा भावुक हुई, उनके कार्यकाल में ही दलितों पर जुल्म की कई बड़ी घटनाएं हुई. जो जीतन राम मांझी भाजपा के प्रियपात्र बने, उन्हीं के समय में ही गया के पुरा नामक गांव से दलितों को दबंगों ने निकाला. मांझी के समय में भोजपुर के एक बाजार में पांच दलित महिलाओं के साथ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया. इसके अलावा रोहतास के एक गांव में एक दलित बच्चे को जिंदा जलाया गया. ऐसी ही कई और घटनाएं घटीं. इसलिए भाजपा जंगलराज-जंगलराज का जब शोर मचाती है तो जदयू-राजद-कांग्रेस के नेता, कार्यकर्ता पूछ सकते हैं कि आप साथ थे तो कौन सा मंगलराज था? लेकिन मुश्किल ये है कि जदयू के नेता और कार्यकर्ता दोराहे पर हैं. वे इसे खुलकर पूछ भी नहीं सकते, क्योंकि अपराध चाहे भाजपा के साथ रहते हुआ हो या राजद के साथ रहते बढ़ा हो, दोनों ही समय नीतीश कुमार ही मुखिया थे. यानी चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटना दोनों ही हाल में खरबूजे को ही होगा. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर वात्स्यायन कहते हैं, ‘बिहार इन दिनों जिस बदनामी का पर्याय बना हुआ है, उसके कई पहलू हैं. यह सच है कि नीतीश कुमार इस बार जब से सत्ता संभाले हैं, तब से उनका ताप और असर कम दिख रहा है. इसे जंगलराज कहना तो कतई ठीक नहीं लेकिन यह एक सवाल है कि जिस तरह से अपराधी सरेआम राजधानी पटना से लेकर दूसरी जगहों पर हत्या करने और अपराध की घटनाओं को अंजाम देने का सिलसिला शुरू किए हुए हैं, उसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में इसका बुरा असर देखने को मिलेगा. छोटे-छोटे अपराधी बिल से बाहर निकलेंगे और कहर बरपाएंगे.’ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘अपराधी दिन में घटना कर रहे हैं, राजधानी जैसे चाक-चौबंद इलाके में सरेआम हत्या कर रहे हैं, इसका मतलब साफ है कि उनमें पुलिस का खौफ या भय कम है और यही मूल चुनौती है. रही बात भाजपा नेताओं द्वारा रोजाना आंकड़ों को पेश करने की तो वे सियासी पार्टियां हैं. उनका काम ही यही है लेकिन इसका जवाब भी दूसरी ओर से दिया जाना चाहिए.’
आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2012-2013 में ही बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ाने लगी थी. 2012 की तुलना में 2013 में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध में 21% की बढ़ोतरी हुई है
ज्ञानेश्वर एक आंकड़े के जरिये इसे समझाते हुए कहते हैं, ‘पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक बात वायरल हुई कि नीतीश कुमार ने जब से सत्ता संभाली है तब से दो माह में ही 578 हत्याएं बिहार में हो चुकी हैं. इस बात को इस तरह से ढोल पीटकर प्रचारित किया गया जैसे यह अचानक से हुई घटनाएं हों. जो भी ये सवाल उठाते हैं और इसी आधार पर ये कहते हैं कि बिहार में जंगलराज आ गया है तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अगर हत्याओं के इन आंकड़ों के जरिये ही नीतीश कुमार की इस पारी को जंगलराज साबित करना है. यह बताना है कि लालू प्रसाद की पार्टी के साथ रहने से ऐसा हो रहा है तो फिर यह भी कहा जाना चाहिए कि जब नीतीश कुमार अौर लालू प्रसाद यादव की बजाय भाजपा के संग सरकार चला रहे थे, तब जंगलराज का प्रकोप ज्यादा था.’
ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘मेरा मकसद लालू प्रसाद की पार्टी राजद, नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के पक्ष में कोई सफाई देना नहीं और न ही भाजपा समर्थकों की बातों को काटना है लेकिन रोज-ब-रोज आंकड़ों के जरिये बिहार को बदनाम करने के पहले कुछ और बातों पर गौर करना चाहिए.’ ज्ञानेश्वर आंकड़ों का हवाला देते हुए समझाते हैं, ‘अभी कहा जा रहा है कि दो माह में 578 हत्याएं हुईं. चलिए इसे मान भी लिया जाए. इस हिसाब से मासिक हत्या दर 264 पर पहुंच गई. 2011 में भाजपा साथ थी. उस साल बिहार में 3,198 हत्याएं हुई थी. यानी मासिक हत्या दर 266 थी. 2012 में बिहार में 3,566 हत्याएं हुई थीं. यानी उस साल मासिक हत्या दर औसतन 297 थी. कुछ लोग सिर्फ दो माह नहीं, पूरे 2015 के साल में हुई हत्याओं का आंकड़ा भी पेश कर रहे हैं कि बीते वर्ष बिहार में 2,736 हत्याएं हो गईं. यह सच भी है. उस हिसाब से भी देखें तो औसतन मासिक हत्या दर 2015 में 273 रही.’ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘मेरा मकसद हत्याओं को आंकड़ों में समेटकर कोई नया तर्क पेश करना नहीं. बिहार में बढ़ रहा अपराध सभी बिहारियों के लिए चिंता की बात है लेकिन ऐसा नहीं है कि हत्या के एक-दो माह के आंकड़े को लेकर यह साबित करने लगें कि अचानक जंगलराज आ गया है और फिर बिहार की बदनामी को ग्लोरीफाई करने लगें.’ ज्ञानेश्वर सवाल उठाते हैं कि अगर आंकड़ों को ही आधार बनाकर जंगलराज साबित करना है तो फिर यह माना जाना चाहिए कि बिहार में सबसे ज्यादा जंगलराज 2012 में था. जब औसतन हर माह 297 हत्याएं हो रही थी और यह एक रिकॉर्ड की तरह है. तब नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव के साथ नहीं बल्कि भाजपा के साथ सरकार चला रहे थे.
ज्ञानेश्वर की बातों को छोड़ भी दें तो दूसरे किस्म के आंकड़े भी बताते हैं कि बिहार में अपराध का यह सिलसिला कोई एकबारगी से बढ़ा हुआ नहीं है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ही आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2012-2013 में ही बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ाने लगी थी. 2012 की तुलना में 2013 में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध, मुख्यतया बलात्कार की घटनाओं में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई थी. 2012 में 927 रेप केस दर्ज हुए थे, जबकि 2013 में यह आंकड़ा घटने की बजाय बढ़कर 1128 पर पहुंच गया था. इसी तरह 2012 में अपहरण-फिरौती आदि की घटनाओं की संख्या 3,789 थी जो अगले साल यानी 2013 में घटने की बजाय बढ़कर 4,419 तक पहुंच गई थी. ऐसे कई आंकड़े हैं जो यह साबित करते हैं कि बिहार में अपराध की घटनाओं में पिछले कुछ सालों से लगातार बढ़ोतरी हो रही है. आंकड़ों की बात छोड़ भी दें तो कई चर्चित घटनाओं ने भी साबित किया है कि बिहार पहले से ही बेपटरी होने की राह पर चल पड़ा है. भाजपा वाले भी पुरानी बातों को छोड़ तब से आंकड़े जुटा रहे हैं, जब उनका साथ नीतीश कुमार से छूट गया और बिहार में आम लोगों के बीच भाजपा से साथ छूटने की बजाय नीतीश कुमार द्वारा नई पारी शुरू होने के बाद बढ़े अपराधों पर बात हो रही है. नीतीश कुमार के लिए परेशानी का असल सबब यही है. उन्होंने इस बार जब से मुख्यमंत्री का पद संभाला है, भंवरजाल बढ़ता ही जा रहा है. भाजपा नेता और केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह कहते हैं, ‘अपराध की घटनाओं की प्रकृति तो देखिए. गोपालगंज जैसी छोटी सी जगह में मिठाई की दुकानवालों से रंगदारी मांगी जा रही है, नहीं देने पर सरेआम मारा जा रहा है. अंचलाधिकारी जैसे अधिकारियों से रंगदारी मांगी जा रही है. अपराध की बात को दूसरी ओर रखिए. भाजपा के साथ जब नीतीश कुमार सरकार चला रहे थे तो दो साल पहले तक राज्य का विकास दर 16 प्रतिशत था जो बाद में आधे पर यानी आठ प्रतिशत पर आ गया. इसको क्या कहेंगे?’ राधामोहन सिंह ही ऐसे सवाल नहीं उठाते. भाजपा के तमाम नेता इन दिनों रोजाना आंकड़ों के जरिये सवाल उठा रहे हैं, उछाल रहे हैं और उन बातों पर बिहार में चर्चा भी हो रही है.
नीतीश कुमार भाजपा की बातों से ज्यादा परेशान भले न हों लेकिन इस पारी में उनके लिए मुश्किलें दूसरी हैं. वे इन बातों को लेकर परेशान चल रहे हैं, ये कई बार देखा जा चुका है. दरभंगा में इंजीनियरों की हत्या के बाद ही पुलिस पदाधिकारियों की मीटिंग में जिस गुस्से में नीतीश कुमार दिखे थे, उससे साफ हुआ था कि वे इन घटनाओं से घटती हुई अपनी साख और कम होते ताप को लेकर चिंतित हैं. नीतीश कुमार लगातार कोशिश में हैं. वे दिन-रात एक कर कई विकास योजनाओं को धरातल पर उतार या घोषणा कर साबित करने की कोशिश में लगे हुए हैं कि लोगों का ध्यान काम पर ज्यादा रहे लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा. नीतीश कुमार के सामने परेशानी यह है कि उन्हें इस पारी में साबित करना है कि वे भाजपा के साथ रहें या लालू प्रसाद के साथ, उनके ताप और तप से बिहार की विधि व्यवस्था सुदृढ़ रही है, सुशासन सरकार का मुख्य मसला रहा है. लालू प्रसाद के साथ रहने पर उनके लिए यह चुनौती और बड़ी है, क्योंकि एक तरीके से बिहार में इस बात को स्थापित कर दिया गया है कि लालू प्रसाद जब सत्ता में थे तो बिहार में अपहरण, फिरौती, गुंडागर्दी वगैरह एक उद्योग की तरह था और उसे ही दूर करने के नाम पर नीतीश कुमार का उभार हुआ था. नीतीश कुमार अब लालू प्रसाद के साथ ही हैं तो उससे कितना और किस स्तर पर निपट पाते हैं, यह साबित करना होगा. बेशक यह सवाल गैरवाजिब भी नहीं है. नीतीश कुमार के लिए उनकी तीसरी पारी मुश्किलों से भरी है. सरकार चलाने के स्तर पर भले ही वे 2020 तक निश्चिंतता की मुद्रा में रहें लेकिन उन्होंने खुद ही अपनी छवि का निर्माण इस तरह का किया है और सुशासन के ‘आइकॉन’ के तौर पर खुद को स्थापित किया है, उस ‘आइकॉनिज्म’ को बनाए रखने के साथ बिहार की लड़खड़ाती लय उनके लिए बड़ी चुुुनौती है.
फिल्मों की कहानियां समाज की जमीनी सच्चाई से ही निकलती हैं. इसी तरह की एक सच्ची कहानी बागपत जिले के गांव ढिकाना की है. डॉक्टर अगर आपसे कहे कि आपकी बहन को कैंसर है और जल्द से जल्द ऑपरेशन करने की जरूरत है वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. इस स्थिति में आप क्या करेंगे? जाहिर है अपने रिश्तेदारों के पास मदद के लिए जाएंगे. लेकिन अगर आपका किसी के ऊपर जायज बकाया हो तो पहले वहीं का रुख करेंगे. लेकिन वह देने में आनाकानी करे तब आप क्या करेंगे? आत्महत्या!
बात पिछले साल 12 सितंबर की है. बैंक के कर्ज और मेहनत का मेहनताना न मिलने के चलते गांव ढिकाना के 32 वर्षीय गन्ना किसान राहुल ने खुद को गोली मारकर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था. उनकी छोटी बहन पारुल कैंसर से पीड़ित थीं जिनका तीन महीने से दिल्ली में इलाज चल रहा था. बहन के इलाज का खर्च उठाते-उठाते राहुल के परिवार पर भारी कर्ज हो गया था. राहुल के परिवार के पास 32 बीघे जमीन थी जिसमें गन्ना उगाया जाता था. हाड़ कंपाती ठंड में जिस फसल को बोया और काटा, मिल तक ले जाने का प्रबंध किया उसी का मेहनताना उन्हें नहीं मिल पाया. राहुल का जिले के मलकपुर मिल पर तीन लाख रुपये का बकाया था जिसका भुगतान नहीं किया जा रहा था. जिस दिन राहुल ने आत्महत्या की उसी दिन उनकी बहन पारुल का ऑपरेशन होना था. लेकिन पैसों का प्रबंध न हो पाने के कारण राहुल कुंठा से भरे हुए थे.
12 सितंबर की दोपहर जब राहुल खेत से घर आए तब उनकी पत्नी नीशू खाना बना रही थीं. अंदर आने के बाद उन्होंने कपड़े उतारे और अलमारी में रखी बड़े भाई रूपेश की लाइसेंसी राइफल निकालकर अपने सिर में गोली मार ली. पति को लहुलूहान देख नीशू की चीख निकल गई. राहुल अपने पीछे 13 लोगों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए, जिसमें उनके सात और चार साल के दो छोटे बच्चे भी हैं. इस घटना ने प्रदेश के गन्ना किसानों के गुस्से की आग का और भड़का दिया. भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में किसानों ने प्रदेश में जगह-जगह प्रदर्शन किए.
‘न मोदी सरकार कुछ कर रही है, न ही सपा सरकार. किसान बेचारा मेहनत करके कड़ाके की ठंड में मरकर जो फसल उगाता है अगर उसकी मूल लागत भी न मिले तो वह क्या करे?’
राहुल के बड़े भाई रूपेश ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘सुनने में आ रहा है कि प्रशासन अब बकाया भुगतान दिलाने जा रहा है.’ रुंआसे होकर रूपेश आगे कहते हैं, ‘क्या जो मरेगा उसी का पेमेंट होगा? हमें नहीं चाहिए पैसे, हमें सिर्फ हमारा भाई चाहिए.’ घाव पर नमक छिड़कने का काम बागपत के अपर जिला अधिकारी संतोष कुमार शर्मा करते हैं. संतोष कुमार कहते हैं, ‘15 दिन पहले टीकरी में जिस रामबीर ने खुदकुशी की उसके परिवार को पैसे का भुगतान मिल गया है. ढिकाना में जिसने आत्महत्या की है उसके भुगतान का चेक भी तैयार है और कभी भी सौंप दिया जाएगा.’ यहां सवाल उठता है कि क्या जो आत्महत्या करेगा उसी के बकाये का भुगतान किया जाएगा?
प्रदेश के गन्ना किसान चीनी मिलों पर बकाया अपने अरबों रुपये का भुगतान न होने से परेशान हैं. गन्ना एक नकदी फसल है जिसके भुगतान से किसान अपनी बहन-बेटियों की शादी और बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम करते हैं. अगर उनकी एकमात्र उम्मीद इस फसल का बकाया भी नहीं मिल पाएगा तो उनकी आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक स्थिति में उथल-पुथल होना लाजिमी है.
बागपत के छपरौली निवासी गन्ना किसान सहदेव की बहू की मौत समय पर इलाज न हो पाने से हो गई. 23 अक्टूबर 2015 को उन्होंने जिलाधिकारी कार्यालय में अधिकारियों की मौजूूदगी में फांसी लगाकर आत्महत्या करने की कोशिश की. लेकिन वहां मौजूद लोगों ने तत्परता दिखाते हुए उन्हें बचाया. उसी समय एडीएम ने डीसीओ को उनका भुगतान करने का निर्देश दिया. हमारे देश में प्रशासन तभी जागता है जब कोई अनहोनी हो जाए. इसी तरह सरकार की गलत नीतियों के चलते बागपत के सूजती गांव के किसान ने अपनी खड़ी फसल में आग लगा दी और उसमें कूदकर खुदकुशी करने का प्रयास किया. लेकिन ग्रामीणों की सूझबूझ ने उसे बचा लिया. इसी तरह का मामला लखीमपुर में भी सामने आया जहां किसान सत्यपाल ने 50 हजार का भुगतान न होने के चलते फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. सत्यपाल ने अपने सुसाइड नोट में गन्ने का भुगतान न होने और कर्ज के बारे में लिखा था.
गन्ना किसानों की परेशानी चीनी मिलों की ब्लैकमेलिंग से शुरू होती है. यह आज की बात नहीं है, पिछली सरकारों को भी चीनी मिलों ने ब्लैकमेल किया है. चीनी मिलें घाटे में चल रही हैं, यह सरासर झूठ है. सरकारें भी इस झूठ में उनके साथ हैं. चाहे वह उत्तर प्रदेश, पंजाब या फिर केंद्र की सरकार ही क्यों न हों. केंद्र की मोदी सरकार ने तो कमाल ही कर दिया है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी बोलते हैं किसानों को भगवान या सरकार के भरोसे नहीं होना चाहिए. लेकिन जो बात वह नहीं बोलते हैं वह यह है कि किसानों को सिर्फ इंडस्ट्री के भरोसे होना चाहिए. अब अगर यह होगा तो किसानों का भला कैसे होगा? हमें यह समझना होगा कि सरकार की मंशा सिर्फ इंडस्ट्री की मदद करने की है. वैसे भी चीनी मिलें हमेशा फायदे में रहती हैं, जब बंद अर्थव्यवस्था थी तब उन्होंने खूब मुनाफा कमाया और आज जब खुली अर्थव्यवस्था है तब भी वह अपना मुनाफा कम नहीं होने देना चाह रही हैं. किसानों की परवाह उन्हें नहीं हैं. यही नहीं किसानों की परवाह तो उनकी यूनियनों को भी नहीं है. वैसे तो वह बड़ा आंदोलन करते हैं, लेकिन चुनावों के समय राजनीतिक पार्टियों के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं. इससे किसानों का भला नहीं होने वाला है. अब यूनियनों को सबक लेने की जरूरत है.
देविंदर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
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गन्ना किसानों की समस्या पर जब ‘तहलका’ ने भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत से बात की तो उन्होंने कहा, ‘न मोदी सरकार कुछ कर रही है, न ही सपा सरकार. किसान बेचारा इतनी मेहनत करके कड़ाके की ठंड में मरकर जो फसल उगाता है अगर उसकी मूल लागत भी न मिले तो वह क्या करे? मोदी सरकार जय जवान जय किसान के नारे के साथ बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई थी लेकिन अब किसानों की चिंता किसी को नहीं है.’ समाजवादी पार्टी की मंशा पर सवाल उठाते हुए टिकैत ने कहा, ‘राज्य सरकार ने भी प्रदेश के किसानों की समस्याओं से मुंह मोड़ा हुआ है. जबसे सपा सरकार आई है एक भी बार गन्ने का दाम नहीं बढ़ाया गया. जबकि गन्ना उगाने की लागत कई गुना बढ़ चुकी है. एक क्विंटल गन्ना बोने में लागत 400 रुपये के करीब पड़ रही है. हम तो फिर भी 350 रुपये की मांग कर रहे हैं.’
वहीं राष्ट्रीय किसान मंच के विनोद सिंह का कहना है, ‘गन्ना किसानों के लिए 280 रुपये प्रति क्विंटल का समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, लेकिन जब चीनी बनती है तो वह 32 रुपये किलो बिकती है. जब तक कच्चा माल और तैयार प्रोडक्ट के लाभ का बंटवारा बराबर नहीं किया जाएगा, तब तक किसान परेशान रहेंगे, सड़क पर उतरते रहेंगे, प्रदर्शन करते रहेंगे. हमारे यहां जिस तरह की व्यवस्था है उसमें कुल लाभ में किसानों को 30 प्रतिशत हिस्सा मिलता है, जबकि बाकी 70 प्रतिशत हिस्सा बिचौलिए खा जाते हैं. इसके अलावा सरकार ने किसानी के लिए दी जाने वाली सब्सिडी भी कम कर दी है. अभी के हालात ये हैं कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को गन्ना किसानों की परवाह नहीं है.’
Photo- Tehelka Archives
सपा सरकार द्वारा इस साल भी गन्ने के मूल्य में वृद्धि न करने के चलते भाकियू ने किसानों के साथ मिलकर एक फरवरी को एनएच-58 पर चक्काजाम किया था जिसके चलते लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा था. इस विरोध प्रदर्शन पर टिकैत कहते हैं, ‘आंदोलन करने में हमें कोई खुशी नहीं मिलती. जनता परेशान होती है तो हमें भी दुख होता है. लेकिन सोई हुई सरकार को जगाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.’
चीनी मिलें भुगतान क्यों नहीं करतीं, इस पर टिकैत कहते हैं, ‘चीनी मिल वाले भी अपना रोना रोते रहते हैं. उनका कहना है कि मिल चलाने का खर्च भी नहीं निकल पा रहा भुगतान कैसे करें. बाजार में चीनी के दाम गिर रहे हैं जिससे उत्पादन लागत भी नहीं निकल पा रही है. वे मिल बंद करने की बात भी दोहराते रहते हैं.’
भाकियू अध्यक्ष आगे कहते हैं, ‘हमारी केंद्र सरकार और राज्य सरकार से मांग है कि किसानों के हित को ध्यान में रखकर ही नीतियां बनाएं. हमारा देश कृषि प्रधान देश है लेकिन यहां की सरकारों को किसानों की ही चिंता नहीं है. अगर देश का किसान अपनी मर्जी चलाने पर आ गया तो देश भूखा बैठा रहेगा.’
समस्या की गंभीरता पर बोलते हुए टिकैत कहते हैं, ‘अपने बच्चों की पढ़ाई, शादी वगैरह के लिए किसान सरकार द्वारा तय कीमत से भी कम कीमत पर गन्ना बेचने को मजबूर होते हैं. जबकि सरकार को चाहिए कि गन्ना मूल्य पहले से ही घोषित कर दे. जो रेट सरकार मंजूर करती है अगर उनकी घोषणा पहले हो जाए तो किसान समय से फसल की बुवाई-कटाई करके सही दाम पर अपनी फसल बेच सकेगा.’ विरोध प्रदर्शन का क्या परिणाम मिला इस पर टिकैत ने सरकार की तरफ से आश्वासन मिलने की बात कही. एक वक्त था जब प्रदेश के किसान आजीविका के लिए नकदी फसल गन्ने पर निर्भर रहते थे. राज्य की चीनी मिलें भी गन्ने के खेतों पर नजरें गड़ाए रहती थीं और दिन-रात गन्ने की सप्लाई के लिए ताकती रहती थीं. मगर अब हालात बिल्कुल बदल चुके हैं. आज आलम यह है कि कुछ गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार गन्ना उगाने की लागत 325 रुपये प्रति क्विंटल पड़ रही है जबकि किसान को सिर्फ 280 रुपये मिल रहे हैं. उसके लिए भी किसानों को विरोध प्रदर्शनों का सहारा लेना पड़ता है. पिछले चार साल से सपा सरकार ने गन्ना मूल्य में खास बढ़ोतरी नहीं की है.
पिछले दिनों लखनऊ में मुख्य सचिव आलोक रंजन की अध्यक्षता में गन्ना मूल्य निर्धारण समिति की बैठक हुई थी जिसमें इस साल भी गन्ने का मूल्य न बढ़ाने का फैसला किया गया. बैठक में किसानों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे जिन्होंने गन्ने का मूल्य 300 से 340 रुपये के बीच रखने की मांग की थी. लेकिन उनकी मांग पर कोई ध्यान देने के बजाय सरकार ने चीनी मिलों के हितों की रक्षा की. चीनी मिलों की ओर से यूपी एस्मा (इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष सीबी पटोदिया ने बैठक में कहा, ‘चीनी उद्योग अब भी संकट के दौर से गुजर रहा है और गन्ने के दाम इस साल भी नहीं बढ़ाए जाने चाहिए.’
इस फैसले के पीछे गन्ना शोध परिषद के निदेशक डॉ. बीएल शर्मा की वह रिपोर्ट भी थी जिसमें दावा किया गया था कि गन्ने की उत्पादन लागत 245 रुपये प्रति क्विंटल आ रही है. हालांकि विनोद सिंह इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘यह रिपोर्ट पूरी तरह से छलावा है. इन्हें सरकार से भुगतान मिलता है इसलिए ये सरकार की भाषा बोलते हैं. ऐसी रिपोर्ट से किसानों का तो भला नहीं होने वाला है.’ प्रदेश में लगभग 50 लाख गन्ना किसान हैं जिन पर करीब चार करोड़ लोगों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है. चीनी मिलों पर इनका आठ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया है.
सपा सरकार ने पेराई सत्र 2012-13 में गन्ने का राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) 275, 280 और 290 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया था. ये रेट क्रमशः अस्वीकृत, सामान्य और अगेती प्रजाति के लिए थे. 2013-14 और 2014-15 में भी गन्ना किसानों को इसी दर पर भुगतान किया गया. 2015-16 के गन्ना मूल्य में भी कोई बढ़ोतरी नहीं की गई. दूसरी तरफ राज्य सरकार ने चीनी मिलों को 35 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से राहत पैकेज देने की घोषणा की है.
भुगतान न होने की समस्या पर ‘तहलका’ ने मुजफ्फरनगर जिले के बुडिना कला गांव निवासी गन्ना किसान धीरज से बात की. धीरज ने बताया, ‘हमारे पास कुल 20 बीघा जमीन है. तितावी शुगर कॉम्प्लेक्स में हम गन्ने की सप्लाई करते हैं. इस मिल पर किसानों का करीब 80 करोड़ रुपये बकाया है. मेरा खुद का करीब एक लाख रुपये बकाया है. नियम के मुताबिक हमें गन्ने की सप्लाई के 15 दिन के भीतर भुगतान मिल जाना चाहिए. मगर पिछले साल का बकाया तो अब तक नहीं मिला. इस साल जो गन्ना दिया है उसके भुगतान के बारे में तो अभी सोच भी नहीं सकते.’ गौरतलब है कि गन्ना अधिनियम (पूर्ति तथा खरीद विनियमन) के मुताबिक किसानों को गन्ना सप्लाई करने के 15 दिन के भीतर उसका भुगतान कर दिया जाना अनिवार्य है. लेकिन हमारे देश में कानून के पालन की किसे परवाह है.
धीरज ने तितावी शुगर कॉम्प्लेक्स पर आरोप लगाते हुए कहा, ‘किसानों को भुगतान के लिए इनके पास पैसे नहीं हैं वहीं हरियाणा में कंपनी ने एक नया प्लांट लगाया है.’ हरियाणा में प्लांट लगाने की सच्चाई जानने के लिए जब ‘तहलका’ ने तितावी शुगर कॉम्प्लेक्स के एजीएम (क्वालिटी कंट्रोल) मनोज धवन से बात की तो उन्होंने कहा, ‘हरियाणा में नया प्लांट लगाने जैसी तो कोई बात नहीं है. मिल पर कितना बकाया है इस बारे में मेरे पास कोई जानकारी नहीं है.’
इसके अलावा विधानसभा चुनावों की आहट के चलते उत्तर प्रदेश में गन्ने को लेकर राजनीति भी शुरू हो गई है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब साठ से सत्तर और पूरे उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ सौ विधानसभा सीटों पर हार जीत गन्ना किसान ही तय करते हैं. इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नोएडा में हुए किसान सम्मेलन में गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और मुख्य विपक्षी बसपा पर जमकर आरोप लगाए. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में आई सरकारों ने चीनी मिल मालिकों से गठजोड़ कर लिया है और इसी के चलते राज्य में किसानों को गन्ने का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है.
गन्ना किसानों को उनकी उपज की पूरी कीमत मिल रही है. हमने जो कीमत तय की है वह कम नहीं है. दरअसल केंद्र सरकार दूसरे देशों से चीनी मंगा रही है. इससे चीनी के दाम में गिरावट आ गई है. अब अगर चीनी का दाम कम रहेगा, तो मिल मालिक कहां से भुगतान कर पाएंगे? प्रदेश सरकार ने इसी को ध्यान में रखते हुए इस बजट में 1,336 करोड़ रुपये की राशि भी आवंटित की है. इसका मकसद किसानों को पैसा देकर उनके हितों की रक्षा करना है. पिछले साल भी अखिलेश सरकार ने तीन हजार करोड़ रुपये की राशि किसानों को बचाने के लिए आवंटित की थी. मेरा साफ कहना है कि प्रदेश में गन्ना किसानों की दुर्दशा के लिए केंद्र सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं. अगर वह विदेशों से चीनी मंगाना बंद कर दे, तो किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य मिलना शुरू हो जाएगा. प्रदेश में जब भी हमारी सरकार आई तब हमेशा गन्ना के खरीद मूल्य में इजाफा हुआ है. किसानों का हमेशा ध्यान रखा गया है. लेकिन केंद्र सरकार की नीतियों के चलते गन्ना किसान बेमौत मरने के लिए मजबूर हैं.
विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह,
कृषि मंत्री, उत्तर प्रदेश
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गन्ना किसानों की समस्याओं पर उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी का कहना है, ‘केंद्र सरकार के ऊपर गन्ना किसानों की परवाह न करने का आरोप लगाना बिल्कुल गलत है. गन्ने के मूल्य भुगतान का मामला राज्य सरकार के अंतर्गत आता है. केंद्र सरकार ने अभी देशभर में गन्ना किसानों के बकाया भुगतान के लिए 6,000 करोड़ रुपये की ब्याज मुक्त राशि चीनी मिलों को दी है. यह राशि सीधे किसानों के खातों में भेजी गई है. इसके अलावा केंद्र सरकार ने किसानों के लिए फसल बीमा योजना की शुरुआत की है. अब यह प्रदेश की सपा सरकार है जो किसानों को उनका वाजिब हक नहीं दिला पा रही है. आप ही बताएं पिछले दो सालों से राज्य में किसान वर्ष मनाया जा रहा है और उत्तर प्रदेश में किसानों के आत्महत्या की खबरें भी आ रही हैं. हमारी पार्टी का किसान मोर्चा इसे लेकर पूरे राज्य में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है.’
Photo- Tehelka Archives
लक्ष्मीकांत बाजपेयी गन्ना किसानों की परेशानी को लेकर केंद्र सरकार और अपनी पार्टी को पूरी तरह से पाक-साफ बता रहे हैं. लेकिन हाल ही में जब अमित शाह दोबारा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए तब उनके फेसबुक पेज पर बधाई देने के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान इस बात की तरफ भी उनका ध्यान दिला रहे थे कि किसानों को उनका भुगतान नहीं मिला है और वह तकलीफ में हैं.
इस मुद्दे पर राजनीति करने वालों में सिर्फ भाजपा ही अकेली नहीं है. प्रदेश की सभी पार्टियों ने अपने तीर कमान से निकाल लिए हैं. अभी कुछ ही महीने पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सहारनपुर में पदयात्रा कर चुके हैं. जबकि पार्टी के राज्यसभा सांसद प्रमोद तिवारी का कहना है, ‘सरकार और मिल मालिकों की साठ-गांठ के चलते प्रदेश में गन्ना किसानों को सही तरीके से भुगतान नहीं मिल रहा है. इस पर कठोर कदम उठाए जाने की जरूरत है. प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाए का तत्काल भुगतान किया जाना चाहिए. वैसे भी गन्ना राजनीति का विषय नहीं है, यह लोगों की जीविका से जुड़ा है. सारे पक्षों को मिल बैठकर इसका जल्द समाधान निकालना चाहिए.’
गन्ना मूल्य निर्धारण समिति की बैठक में इस साल गन्ने का मूल्य न बढ़ाने का फैसला किया गया. गन्ना किसानों की मांग पर कोई ध्यान देने के बजाय सरकार ने चीनी मिलों के हितों की रक्षा की
प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बसपा भी इस मुद्दे को लेकर समय-समय पर राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करती रहती है. राष्ट्रीय लोकदल ने भी राज्य की वर्तमान सपा सरकार पर गन्ना मिल मालिकों के हाथों में खेलने का आरोप लगाया है. हालांकि प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस तरह के आरोपों को पूरी तरह से खारिज करते हुए कहते हैं कि राज्य सरकार किसानों के हित में हरसंभव कदम उठा रही है. राज्य सरकार ने 2016-17 के लिए पेश किए गए अपने चुनावी बजट में गन्ना मूल्य भुगतान के लिए 1,336 करोड़ रुपये की राशि भी आवंटित की है. हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि किसानों या मिल मालिकों में से किसका भला होता है.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘सरकारें गन्ना किसानों के लिए तो सब्सिडी की घोषणा करती हैं पर इसका एक बड़ा हिस्सा मिल मालिकों के पास चला जाता है. यदि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार गन्ना किसानों के मुद्दे का सही ढंग से समाधान नहीं करती है तो यह आगामी चुनाव में निश्चित रूप से इनके खिलाफ जाएगा. वैसे किसान अभी किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं हैं. पार्टियां इसे लेकर समय-समय पर अपने राजनीतिक हितों को पूरा करती हैं. यह समस्या लंबे समय से बनी हुई है. आज भी किसानों की हालत चिंताजनक है पर किसी को इसकी परवाह नहीं है. हालांकि गन्ना किसानों का संघर्ष हमें एक राह भी दिखाता है कि बाकी फसलों के किसान इससे जुड़कर अपने लिए कुछ बेहतर तलाश सकते हैं.’
फिलहाल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक होने के चलते गन्ने पर जमकर राजनीति हो रही है. राजनेताओं ने भी किसानों के गन्ने को अपनी राजनीति की लाठी बना ली है, जिसका सहारा लेकर वह चुनावी वैतरणी पार करना चाह रहे हैं. पर सवाल वहीं बना हुआ है कि इस सबसे गन्ना किसानों का कितना भला होगा? क्या आत्महत्या का सिलसिला रुकेगा? क्या फिर गन्ना किसानों को सड़क पर उतरना नहीं पड़ेगा? क्या वह राष्ट्रीय राजमार्ग जाम करने के बजाय खेतों में काम करके हरियाली की चमक बिखरेंगे?
हर साल भारत सरकार और भारतीय बाल कल्याण परिषद की ओर से राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार दिए जाते हैं. इसके लिए देशभर से उन बच्चों को चुना जाता है, जो अपने साहस और बहादुरी से दूसरों के लिए नजीर बन जाते हैं. इस साल गणतंत्र दिवस पर देशभर के 25 बच्चों को साल 2015 के राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इनमें से दो बहादुर बच्चों को ये सम्मान मरणोपरांत दिया गया. इन 25 बच्चों में से 3 लड़कियां और 22 लड़के हैं.
इस बार सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार हासिल करने वाला राज्य केरल बना. इस राज्य के छह बच्चों को ये सम्मान मिला. इसके बाद महाराष्ट्र और उत्तर पूर्व के चार बच्चों के नाम ये पुरस्कार रहे. उत्तर पूर्व के राज्यों में मणिपुर से दो और मिजोरम व मेघालय से एक-एक बच्चों के गले में वीरता पुरस्कार के मेडल सजे. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और गुजरात के दो-दो और उत्तराखंड, हरियाणा, ओडिशा से एक-एक बच्चे राष्ट्रीय वीरता पुरस्कारों की सूची में शुमार रहे.
बहादुर बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित करने का सिलसिला 1957 में शुरू हुआ. 1957 में गांधी जयंती पर दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित एक कार्यक्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू शामिल हुए थे. कार्यक्रम शुरू होने के बाद अचानक शामियाने में आग लग गई और तकरीबन 100 लोग उसमें फंस गए. तब 14 साल के स्काउट बच्चे हरिशचंद्र मेहरा ने समझदारी का परिचय देते हुए शामियाने का एक हिस्सा अपने चाकू से काट दिया, जिससे पांडाल से लोगों के निकलने का रास्ता बन गया. हरिशचंद्र की बहादुरी से प्रेरित होकर पंडित नेहरू ने उनकी तरह के दूसरे बहादुर बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार देने की घोषणा की. चार फरवरी 1958 को पहला आधिकारिक वीरता पुरस्कार हरिशचंद्र और एक अन्य बच्चे को दिया गया. छह से अठारह साल की उम्र तक के बच्चों को मिलने वाला ये पुरस्कार उन्हें किसी परिस्थिति या किसी दुर्घटना के समय अदम्य साहस दिखाने के लिए मिलता है. वीरता पुरस्कार पांच श्रेणियों में दिए जाते हैं. पहला सामान्य राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार होता है, जिसकी शुरुआत 1958 में हुई. इसके बाद 1978 में संजय चोपड़ा सम्मान और गीता चोपड़ा सम्मान देने की शुरुआत हुई. इसके बाद 1987 में भारत सम्मान और 1988 में बापू गैधानी सम्मान देने का सिलसिला शुरू हुआ.
इन पुरस्कारों में मेडल, सर्टिफिकेट और नकद पुरस्कार शामिल होते हैं. भारत सम्मान जीतने वाले को गोल्ड मेडल और अन्य को सिल्वर मेडल दिए जाते हैं. इसके अलावा सरकार की ओर से हर बच्चे की पढ़ाई में मदद दी जाती है. भारतीय बाल कल्याण परिषद के मुताबिक अब तक 920 बहादुर बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है, जिनमें 656 लड़के और 264 लड़कियां शामिल हैं.
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता कई तरह की संस्कृतियों को अपने आप में समेटे हुए है. ‘सिटी ऑफ जॉय’ के नाम से मशहूर इस शहर में मौजूद तमाम धरोहरों में से एक हाथ रिक्शा भी है. कोलकाता जा चुके लोग इससे भलीभांति परिचित होंगे. यह वही हाथ रिक्शा है, जिसे बिमल रॉय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में अभिनेता बलराज साहनी खींचते नजर आते हैं. आप बेशक इन्हें कोलकाता या फिर पश्चिम बंगाल की धरोहर मान सकते हैं लेकिन जब आप इन रिक्शों पर सवार होकर सैर पर निकलेंगे तब आप जान पाएंगे कि यह धरोहर चंद लोगों की लाचारगी या बेचारगी से ज्यादा अब कुछ नहीं है.
कहते हैं कि विकास की इबारत लिखते वक्त सिर्फ उन्हीं किस्सों या फिर उन्हीं लोगों को जगह दी जाती है जिन्हें समाज में कुछ तवज्जो मिलती है. शायद यही वजह है कि आपको कोलकाता के मशहूर हाथ रिक्शों के इतिहास या फिर इनकी शुरुआत कहां से हुई, ऐसे सवालों को तलाशने में कुछ मुश्किलें हों. इनके इतिहास को खोजने में आपको काफी समय लगेगा.
आप इन रिक्शों को पालकी से जोड़कर देख सकते हैं. वही पालकी जिन पर शिमला की वादियों में शाही घरानों की महिलाएं सफर किया करती थीं. उन रास्तों से इन पालकियों को अपने कंधों पर रखकर प्रवासी मजदूर बड़ी मुश्किलों से उनकी मंजिल तक पहुंचाते थे. शिमला की वादियों से निकली पालकी हाथ रिक्शा के रूप में कोलकाता की गलियों तक आ पहुचीं. कभी शाही परिवार की सवारी रहा हाथ रिक्शा ब्रिटिशराज में अफसरों की पत्नियों यानी मेमसाहबों की सवारी बन गया था. वह रोज शाम को इन रिक्शों पर सैर के लिए निकलती थीं.
हाथ रिक्शा ने धीरे-धीरे तरक्की की और फिर इसे एक ऐसे ठेले में तब्दील कर दिया गया जिसे खींचने की जिम्मेदारी एक बेबस और लाचार इंसान के हाथों पर होती थी. धीरे-धीरे हाथ से खींची जाने वाली यह गाड़ी कोलकाता के जमींदार और उच्च वर्गों के बीच लोकप्रिय होती गई और दूसरों को आराम पहुंचाने के लिए मजबूर मजदूर इसे खींचने के लिए तैयार होता गया.
कोलकाता के ‘शंभू महतो’
एक धरोहर के अलावा कोलकाता के हाथ रिक्शे अब सामंतवादी प्रथा का एक अमानवीय चेहरा भी बन गए हैं. यह रिक्शे आधुनिकता की ओर बढ़ते एक शहर के लिए किसी पराजय से कम नहीं हैं. ‘दो बीघा जमीन’ में बलराज साहनी ने उस किसान शंभू महतो की भूमिका निभाई है, जिसे अपनी जमीन छुड़ाने के लिए इस रिक्शे को खींचने के लिए मजबूर होना पड़ता है. कोलकाता में आज आपको ऐसे ही कई ‘शंभू महतो’ मिल जाएंगे जो कभी अपनी जीविका तो कभी किसी मजबूरी की वजह से इन रिक्शों को खींच रहे हैं.
दरअसल कोलकाता के इन हाथ रिक्शों की असली कहानी आपको वर्ष 1971 से देखने को मिलेगी. उस समय युद्ध के माहौल के बीच बांग्लादेश से कई प्रवासी यहां पहुंचे और इस शहर में अपनी गुजर-बसर के लिए पैसे कमाने के माध्यम के तौर पर उन्होंने हाथ रिक्शा चुना. उस दौर में रिक्शे के सामान्य किराये की वजह से रिक्शों का शहर में एक अलग दबदबा था. दूसरी ओर शहर में मौजूद परिवहन के दूसरे माध्यम भी अपनी लोकप्रियता हासिल कर रहे थे. इसका नतीजा हुआ कि शहर के कई इलाकों में रिक्शे या तो बंद हो गए या फिर उनकी आवाजाही को सीमित कर दिया गया.
प्रतिबंध की थी तैयारी
पश्चिम बंगाल में जब बुद्धदेब भट्टाचार्य की अगुवाई वाली कम्युनिस्ट सरकार थी, उस समय घोषणा की गई थी कि शहर में हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा. सरकार इसे मानवता के साथ अन्याय का प्रतीक मानती थी और चाहती थी कि शहर को इससे छुटकारा मिल जाए. इन रिक्शों पर कलकत्ता वाहन विधेयक (संशोधित) के तहत पूरी तरह से प्रतिबंध सुनिश्चित किया गया था. इसे वर्ष 2006 में विधानसभा में पेश भी किया गया था.
उस समय इस प्रस्ताव को रिक्शा चालकों की ट्रेड यूनियनों की ओर से खासे विरोध का सामना करना पड़ा. यूनियनें रिक्शा चालकों के पुनर्स्थापन से जुड़े पैकेजों को लेकर आश्वस्त नहीं थीं. सरकार भी उस समय इन रिक्शा चालकों की बेहतर जिंदगी से जुड़े विकल्पों को उनके सामने रखने में असफल रही. विधेयक के सामने लगातार चुनौतियां आती गईं और अंत में हाई कोर्ट ने इस पर स्टे लगा दिया.
हालांकि, वर्ष 2005 में हाथ से खींचने वाले रिक्शा के लिए लाइसेंस की व्यवस्था खत्म कर दी गई लेकिन रिक्शावाले यूनियनों की ओर से जारी समर्थन की बदौलत अपना काम करते रहे. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस समय तकरीबन 6,000 लोग इस काम से जुड़े हुए हैं. वहीं ऑल बंगाल रिक्शा यूनियन के आंकड़ों पर अगर नजर डालें तो ये संख्या 6,000 नहीं बल्कि 24,000 है और इसमें गैर-लाइसेंसी रिक्शा चालक भी शामिल हैं. इन आंकड़ों में उन लाखों लोगों का कोई जिक्र नहीं है जो दो वक्त की रोजी रोटी के लिए इस रिक्शा पर निर्भर हैं.
प्रवासी मजदूरों का पेशा
इन आंकड़ों को समझने और इस पूरे मामले पर नजर डालने के बाद आपको कोलकाता की गलियों में नंगे पैर और तन को सिर्फ एक लुंगी से ढंके हुए रिक्शा खींचते मजबूर लोग नजर आएं तो हैरान न हों. खुद को मिटाने की इनकी कोशिश उस घंटी के बिना पूरी नहीं हो पाती है, जिसके जरिए ये लोगों को आवाज लगाते हैं.
कोलकाता की सड़कों पर नजर आने वाले रिक्शा खींचने वाले ज्यादातर लोग अप्रवासी हैं. ये बिहार और झारखंड जैसे दूसरे राज्यों के विभिन्न शहरों से यहां आकर बसे हैं. घर के नाम पर अगर उनके पास कुछ है तो वह है डेरा यानी गैराज, रिपेयर सेंटर और शयनागार का एक मिलाजुला रूप. जो लोग इन ‘विलासिताओं’ का खर्च नहीं उठा पाते हैं वे सड़कों पर सोने को मजबूर हैं. वहीं डेरा मालिक इन रिक्शावालों को रोजाना कमीशन के आधार पर रिक्शा देते हैं. यहां पर आपको बता दें कि रिक्शावालों के कमरे का किराया इससे अलग होता है.
बहुत कम रिक्शावाले ऐसे हैं जिन्हें अपनी मेहनत का वाजिब हिस्सा मिल पाता है. एक दिन में इन्हें 150 से 250 रुपये ही हासिल होते हैं लेकिन इतनी कीमत के लिए इन्हें पूरे दिन धूप में तपना और पसीना बहाना पड़ता है और फिर शाम को इन्हीं पैसों में से एक बड़ा हिस्सा ये अपने मालिक को बतौर कमीशन अदा कर देते हैं.
मानसून की सवारी
आप इन रिक्शों पर बैठकर कोलकाता की तंग और संकरी गलियों में घूमने का मजा ले सकते हैं. ऐसी गलियां जहां पर कार और दूसरे वाहनों को प्रवेश कभी-कभी नामुमकिन सा हो जाता है. ऐसी जगहों पर ये रिक्शावाले कोलकाता की निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं.
मानसून का समय आते ही इनकी मांग और बढ़ जाती है. उस समय परिवहन के दूसरे साधनों की आवाजाही बारिश में एकदम थम सी जाती है. यहां तक कि राज्यपाल जैसे उच्च पद पर आसीन व्यक्ति को भी इनकी ही मदद लेनी पड़ जाती है. इस मौसम में आप रिक्शावालों को कुछ भी ले जाते हुए देख सकते हैं. कभी इन पर सामान का बोझ लदा होता है तो कभी इन पर स्कूल से आते हुए बच्चे दिखाई पड़ जाते हैं. कुछ रिक्शावालों का तो कोलकाता के कुछ परिवारों से भी गहरा नाता जुड़ गया है. ऐसे में वह हर समय उनके लिए अपनी सेवाएं देने को तत्पर रहते हैं.
ऐसे ही एक रिक्शावाले हैं मोहम्मद खलील, जिनके दिन की शुरुआत तड़के ही हो जाती है. कभी-कभी इन्हें दोपहर को आराम करने का मौका मिल जाता है और फिर देर रात बीड़ी के कश के साथ ये अपना दिन खत्म करते हैं. खलील बिहार के मुजफ्फरपुर के रहने वाले हैं और बेनियापुकुर के अनवर हुसैन के डेरे में रहते हैं. 53 वर्ष के खलील 35 वर्षों से भी ज्यादा समय से रिक्शा चला रहे हैं. वहीं उनके बेटे दिल्ली में जामा मस्जिद के पास कपड़ों का बिजनेस करते हैं. खलील को अपने इस पेशे पर शर्म नहीं महसूस होती है. वह गर्व से इसे स्वीकारते हैं और कहते हैं कि बीमारी की हालत में भी वह रिक्शा चलाते हैं. वजह पूछो तो उनका जवाब होता है कि उन्हें यह अच्छा लगता है.
भले ही खलील यह कहें कि उन्हें बीमारी की हालत में भी रिक्शा चलाना अच्छा लगता है लेकिन यह बात भी सही है कि यह बात कहीं न कहीं उनकी मजबूरी पर पर्दा डालने का काम करती है. परिवार से दूर खलील जैसे कई लोग रोजाना अपनी थकान मिटाने के लिए कभी जुआ खेलते हैं तो कभी शराब में अपना सुकून तलाशते हैं. कभी सेक्स वर्कर्स का सहारा लेते हैं तो कभी नशे की दूसरी आदतों से अपनी थकान को कम करते हैं.
वहीं दूसरी ओर अनवर हुसैन को ये कहने में गर्व महसूस होता है कि वह रिक्शा खींचने वालों के समूह के मालिक हैं. हालांकि उनके डेरे में पिछले कुछ वर्षों में रिक्शा चालकों की संख्या में कमी आई है. किसी जमाने में उनके डेरे में करीब 150 रिक्शावाले रहते थे लेकिन आज यह संख्या घटकर 50 रह गई है. अनवर कहते हैं, ‘रिक्शावालों की संख्या अब कम हो रही है. नई पीढ़ी का कोई युवा अब इस पेशे में नहीं आना चाहता है.’ अनवर सवाल उठाते हैं, ‘युवा अब इस पेशे में क्यों आएंगे जबकि कमाई के नाम पर तो कुछ नहीं मिलता. अगर कुछ मिलता है तो वह है गालियां और पुलिस की ओर से होने वाला शोषण.’ इस बीच हुसैन के पास एक फोन आता है. उन्हें बताया जाता है कि उनके एक रिक्शा को इसके चालक सहित पुलिस ने हिरासत में ले लिया है. कसूर सिर्फ इतना था कि वह रिक्शावाला उस सड़क से गुजर रहा था, जहां उसे रिक्शा ले जाने की अनुमति नहीं है. हुसैन कहते हैं, ‘कभी-कभी अतिरिक्त पैसे के लिए रिक्शावाले गलत गलियों में रिक्शा लेकर चले जाते हैं. उन्हें छुड़ाने के लिए जुर्माना अदा करना पड़ता है और फिर यह रकम उनकी आय से काट ली जाती है.’
बैटरी रिक्शा से उम्मीद
फिलहाल इन रिक्शावालों की उम्मीदें अब ‘पोरिबोर्तन’ का दावा करने वाली ममता बनर्जी की सरकार पर टिकी हैं. राज्य सरकार ने हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा को बैटरी चालित रिक्शा के साथ बदलने का एक उपाय तलाशा है. ऑल बंगाल रिक्शा यूनियन के उपाध्यक्ष मुख्तार अली कहते हैं, ‘बैटरी से चलने वाले रिक्शों का विचार काफी उम्मीदों भरा नजर आता है क्योंकि इन रिक्शों की मदद से रिक्शावालों के पास एक दिन में 300 से 400 रुपये तक कमाने का मौका होगा.’ उनके मुताबिक रिक्शों को हाथ से खींचने का काम बेहद थकान और मेहनत वाला है. निम्न आय वर्ग के लोगों के पास कोई और हुनर न होने के कारण उन्हें इसी पेशे पर निर्भर होना पड़ता है.
मुख्तार अली ने बताया कि कोलकाता में रिक्शावालों की संख्या में कमी आ रही है और शहर को और ज्यादा रिक्शा चालकों की जरूरत है. ऐसे में सरकार की इस तरह की पहल से युवा पीढ़ी भी इस पेशे की ओर से देख सकती है. हालांकि मुख्तार अली बदलते दौर के साथ रिक्शावालों के लिए ट्रेनिंग की भी पुरजोर वकालत करते हैं.
बैटरी वाले रिक्शा का ट्रेंड आने से शहर में लाइसेंस की व्यवस्था भी होगी. इतना तो तय है कि गैर-लाइसेंस रिक्शावालों की बढ़ती तादाद के बीच बैटरी वाले रिक्शों के लिए लाइसेंस हासिल करना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं हो पाएगा.
वहीं इस मुद्दे पर मुख्तार अली इस बात का भरोसा दिलाते है कि लाइसेंसी और गैर-लाइसेंसी दोनों ही तरह के रिक्शावालों के पुनर्स्थापन के लिए एक वाजिब कार्यक्रम भी होगा. इस पूरे कार्यक्रम का लब्बो-लुआब यह है कि वह उम्रदराज व्यक्ति जो दशकों से रिक्शा चलाता आ रहा है या चलाना चाहेगा, वह इस नए विकल्प के अनुकूल होगा या नहीं. रिक्शा को हाथ से खींचने के इस काम की निंदा कई शब्दों के प्रयोग से कर सकते हैं लेकिन यह सत्य नहीं बदला जा सकता है कि स्वतंत्र भारत के पश्चिम बंगाल में रहने वाले अप्रवासियों के लिए रिक्शा खींचना ही फिलहाल उनके लिए कमाई का एकमात्र जरिया रहेगा.
जैसे-जैसे यह तरीका बेकार होता जाएगा शायद यह व्यवसाय भी खुद की पहचान खोने लगेगा और लोग भी भुला दिए जाएंगे या फिर कहीं खो जाएंगे.
कश्मीर के अलगाववादी नेता फिर एक बार गुस्से में हैं. हालांकि इस बार कारण भारत सरकार नहीं बल्कि पाकिस्तान सरकार है. पाकिस्तान सरकार ने गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान का संवैधानिक प्रांत बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसके बाद जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के अध्यक्ष यासीन मलिक ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को एक पत्र भेजा है. 12 जनवरी को लिखे गए इस पत्र में मलिक ने शरीफ से पाक अधिकृत कश्मीरी क्षेत्र की प्रांतीय स्थिति न बदलने का आग्रह किया है क्योंकि इससे कश्मीर विवाद बदतर हो जाएगा. मलिक लिखते हैं, ‘कई बार ये संभावनाएं उठती रही हैं कि आपकी सरकार में गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान में मिलाने पर आम सहमति बन सकती है. इससे जम्मू-कश्मीर पर चल रहा विवाद और उलझेगा. अगर पाकिस्तान गिलगित-बाल्टिस्तान को अपने संवैधानिक अधिकार में ले लेता है तो भारत को इसे कश्मीर के साथ एकीकृत करने का राजनीतिक और नैतिक अधिकार मिल जाएगा.’
हुर्रियत अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने इस पर और कड़ी प्रतिक्रिया दी है. उनका कहना है कि सरकार के पास गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान में मिलाने का कोई संवैधानिक और नैतिक तर्क नहीं है, साथ ही ऐसा कोई कदम उठाना कश्मीरियों के साथ धोखा करने जैसा होगा. गिलानी कहते हैं, ‘साथ ही ऐसा करना कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के दिए गए प्रस्तावों का सीधा हनन है.’ वहीं हुर्रियत के उदारवादी धड़े के अध्यक्ष मीरवाइज़ उमर फारूक का कहना है कि पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान को अपना पांचवां प्रांत बनाने से भारत को लद्दाख को मिलाने का बहाना मिल जाएगा, जबकि अगर भौगोलिक रूप से देखें तो ये एक ही क्षेत्र यानी अविभाजित कश्मीर का ही हिस्सा है.
गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर छिड़े इस हो-हल्ले की शुरुआत नवाज़ शरीफ के एक सुधार कमेटी के गठन के बाद हुई, जिसे शरीफ ने इस प्रांत का एक रोडमैप तैयार करने की जिम्मेदारी दी थी. इस कमेटी के मुखिया, विदेशी मामलों में शरीफ के सलाहकार सरताज़ अज़ीज़ हैं. बीते कुछ महीनों में ये कमेटी इस्लामाबाद में तीन बैठकें कर चुकी है, जिसमें इस बात पर चर्चा की गई कि कैसे इस मुद्दे को संभाला जाए कि ऐसा करने पर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की स्थिति प्रभावित न हो.
इस्लामाबाद की तरफ से इस प्रांत के मुद्दे पर जल्दबाजी करने की वजह लगभग 46 अरब डॉलर की लागत का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा है. विवादित क्षेत्र में इस निवेश को कानूनी जामा पहनाने के लिए चीन कथित तौर पर पाकिस्तान पर दबाव बना रहा है. अरबों डॉलर के इस प्रोजेक्ट के लिए गिलगित-बाल्टिस्तान प्रवेश द्वार का काम करेगा. चीन इस क्षेत्र में औद्योगिक पार्क, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट, रेलवे लाइन और सड़कें बना रहा है. इसके अलावा इस प्रोजेक्ट में काराकोरम हाईवे का विस्तार चीन के अशांत रहने वाले शिंजिआंग सूबे तक किया जाएगा. इससे घाटी तक चीन को मुक्त और ट्रेन से तेज रफ्तार पहुंच मिलेगी. एक बार गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान के अन्य प्रांतों तक रेलवे लाइन और सड़कों का काम पूरा हो जाने पर, ग्वादर, पासनी और ओरमारा में चीन द्वारा निर्मित नौसेना बेस के रास्ते आने वाले चीनी कार्गो को पाकिस्तान पहुंचने में सिर्फ 48 घंटे लगेंगे. अभी इसमें 16 से 25 दिन का समय लगता है.
ये मुद्दा इसलिए और जटिल है क्योंकि यह क्षेत्र अविभाजित कश्मीर का हिस्सा है और इसलिए इसे इस विवादित क्षेत्र से अलग नहीं किया जा सकता. इस मामले में न ही इस्लामाबाद से इस क्षेत्र के संवैधानिक संबंधों से मदद मिल रही है और न ही भारत का इस आर्थिक गलियारे को गिलगित-बाल्टिस्तान से गुजारने पर की गई आपत्ति से ही कोई फर्क पड़ा है.
एक हालिया बयान में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने कहा है कि पूरा जम्मू कश्मीर, जिसमें वर्तमान में पाक अधिकृत हिस्सा भी आता है, भारत का ही अभिन्न हिस्सा था. उन्होंने बताया कि सरकार के पास गिलगित-बाल्टिस्तान की राजनीतिक स्थिति से जुड़ी कई रिपोर्ट हैं, जिन पर वह संज्ञान ले रही है. स्वरूप ने मीडिया से कहा कि भारत का रवैया इस पर बिलकुल साफ है.
पाकिस्तान अब अपने द्वारा दिए गए एम्पावरमेंट एंड सेल्फ गवर्नेंस आॅर्डर, 2009 को संशोधित करना चाहता है. इस आॅर्डर के अनुसार गिलगित-बाल्टिस्तान में विधानसभा और गिलगित-बाल्टिस्तान काउंसिल बनीं, जिसने इस क्षेत्र के लोगों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार दिया. इस तरह गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान का संवैधानिक हिस्सा बने बिना ही एक ‘डीफेक्टो’ (वास्तविक जैसा) क्षेत्र का दर्जा मिल गया, जिससे लगभग 15 लाख लोगों को अपनी सरकार और अपना मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार मिला. इस क्षेत्र में पहला चुनाव 2009 में हुआ, जिसमें पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सत्ता में आई. 5 साल के कार्यकाल के बाद जून 2015 में दूसरे चुनाव हुए, जिसमें मौजूदा प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) को बहुमत मिला.
हालांकि, असली सत्ता हमेशा से इस क्षेत्र के प्रशासन के जिम्मेदार रहे कश्मीरी मामलों और उत्तरी क्षेत्र के मंत्रालय के हाथ में ही रही, जिसने सिर्फ असंतोष को बढ़ाया.
एक पाकिस्तानी दैनिक के हवाले से, इस प्रस्ताव के लागू हो जाने के बाद गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान के अस्थायी संवैधानिक हिस्सा हो जाएंगे. संविधान में शामिल होने के अलावा इस हिस्से से दो प्रतिनिधि पाकिस्तान की संसद में भेजे जाएंगे. हालांकि उन्हें पर्यवेक्षक का ही दर्जा दिए जाने की संभावना है.
पाकिस्तान से गिलगित-बाल्टिस्तान का रिश्ता 1947 में उसके इस क्षेत्र के आधिपत्य के बाद से काफी बदल गया है. तब 24 साल के मेजर ब्राउन ने जम्मू कश्मीर नरेश हरि सिंह द्वारा नियुक्त गवर्नर ब्रिगेडियर घंसारा सिंह को सत्ता से हटाकर गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान के हवाले कर दिया था. हालांकि, पाकिस्तान ने स्थानीय नेताओं द्वारा दिए गए विलय के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इससे पूरे कश्मीर पर पाकिस्तान की दावेदारी कमजोर हो जाती. इस्लामाबाद में बैठी सरकार ये भी चाहती थी कि इस इलाके के ज्यादा से ज्यादा पाक समर्थक संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में होने वाले जनमत-संग्रह में भाग लें, जिससे उनके जीतने की संभावनाएं बढ़ जाएं.
इस इलाके का क्षेत्रफल 85,793 वर्ग किमी. है पर 1970 में पाक सरकार ने इसे ‘आजाद जम्मू कश्मीर’ और उत्तरी इलाकों में बांट दिया था. जहां ‘आजाद जम्मू कश्मीर’ को 1974 में ‘सेमी-स्टेट’ का दर्जा मिल गया, ये उत्तरी इलाके संवैधानिक रूप से अधर में ही लटके रहे. 2009 में सरकार बनने के बाद स्थितियां बदलीं. इससे न केवल उत्तरी इलाकों को स्थानीय सरकार मिली, बल्कि गिलगित-बाल्टिस्तान का नाम भी मिला, जिससे यहां के लोगों पहचान मिली. पर अब इस इलाके के लोगों की और प्रामाणिक संवैधानिक पहचान की मांग को भारत ही नहीं बल्कि नियंत्रण रेखा के कश्मीरियों के भी कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है. सितंबर 2012 में गिलगित-बाल्टिस्तान की विधानसभा ने इस इलाके को प्रांतीय दर्जा देने के एक सुझाव को मंजूरी दी थी पर तुरंत ही इसे पाक अधिकृत कश्मीर की सरकार का प्रतिरोध भुगतना पड़ा. इसके बाद 13 जनवरी को, इस्लामाबाद सरकार के गिलगित-बाल्टिस्तान को प्रांतीय दर्जा देने की गंभीरता को समझते हुए, पाक अधिकृत कश्मीर की विधानसभा ने सम्मिलित रूप से, इस प्रस्तावित कदम के विरोध में दो सुझाव दिए.
पहले प्रस्ताव के अनुसार, गिलगित-बाल्टिस्तान को पांचवां पाकिस्तानी प्रांत बनाने से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाक जम्मू कश्मीर मुद्दे पर कमजोर पड़ जाएगा. दूसरा, गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू कश्मीर का हिस्सा है, और अगर कभी भी यहां के लोगों के बीच कोई जनमत-संग्रह करवाया जाता है तो जम्मू-कश्मीर के बाकी हिस्सों की तरह ही, यहां के लोगों को भी अपने भविष्य के बारे में फैसला लेने का अधिकार मिलना चाहिए. पाक अधिकृत कश्मीर सरकार के पुनर्वास मंत्री अब्दुल मजीद का कहना है, ‘जम्मू-कश्मीर को अलग करने के किसी भी कदम के विरोध में खड़े होना हमारी संयुक्त जिम्मेदारी है.’
इस तरह गिलगित-बाल्टिस्तान का क्षेत्र एक भू-राजनीतिक खेल में फंस गया है, जहां चीन इसको आर्थिक गलियारे के अपने फायदे के रूप में इस्तेमाल कर रहा है, जो कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय है.
इस क्षेत्र को इसी स्थिति में रहने देने का अर्थ होगा अविभाजित कश्मीर के साथ इसकी पहचान, जिससे यह क्षेत्र स्वतः ही भारत-पाक के बीच कश्मीर को लेकर चल रहे विवाद का हिस्सा बन जाता है. कश्मीरी अलगाववादियों का इस क्षेत्र को प्रांत का दर्जा देने पर भड़कना इस बात की ही पुष्टि करता है.
मलिक ने नवाज़ को लिखे पत्र में कहा है, ‘अगर आपकी सरकार गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान में मिलाती है और इसके परिणामस्वरूप अगर भारत पूरे कश्मीर पर संयुक्त रूप से अपना हक बताता है, तो ये लोगों कि उम्मीदों का सौदा करने जैसा होगा. कश्मीर मसला सिर्फ जमीन या क्षेत्र का ही तो नहीं है. ये लोगों के हक का है. जमीन के बदले इन हकों का सौदा लोगों की महत्वाकांक्षाएं कुचलना होगा.’
26 मई, 2014 को जब भारत के राष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई तब देश एक ऐसे नेता की उम्मीद कर रहा था जो उनके साथ संवाद करे क्योंकि उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह पर अपने कार्यकाल के दौरान मौन रहने का आरोप लगता रहा था. नरेंद्र मोदी खूब बोलने के लिए जाने जाते हैं. इसके अलावा वे जनता के साथ संवाद के लिए नए माध्यमों का भी जमकर इस्तेमाल करते हैं. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर उनकी सक्रियता जगजाहिर है. प्रधानमंत्री बनने के बाद से वे रेडियो पर मन की बात भी लगातार सुना रहे हैं. मजेदार बात यह है कि पिछले 21 महीनों में प्रधानमंत्री ने इतने भाषण दिए कि चुटकुले बनाए जाने लगे थे. कुछ का कहना है कि इसके पहले के प्रधानमंत्री कभी बोलते ही नहीं थे और एक मोदी जी हैं कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है.
इसका दूसरा पहलू यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के दरम्यान उन तमाम मसलों पर चुप्पी साधे रखी जिन पर लाेगों ने उनसे बोलने की उम्मीद लगा रखी थी. यानी प्रधानमंत्री का संवाद एकतरफा रहा और वे उन तमाम मुद्दों पर कुछ नहीं बोले जिन पर इस दौरान देश में बहसें चल रही थीं. हालांकि इस बीच उनके ही पार्टी के अध्यक्ष, नेता, मुख्यमंत्री और कैबिनेट सहयोगी इन तमाम मसलों पर ऊलजलूल बयान देते रहे. फिर चाहे वह मसला हालिया हरियाणा जाट आरक्षण हिंसा, जेएनयू विवाद, रोहित वेमुला, दादरी, असहिष्णुता से लेकर पाकिस्तान में पटाखे फूटने और मसला ‘रामजादे-हरामजादे’ का ही क्यों न रहा हो. इस पर जब प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाए गए तो ऐसे आरोपों को उन्होंने विपक्ष की साजिश करार दिया.
हाल ही में एक जनसभा में वे कहते हैं, ‘कुछ लोगों को मेरा प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है. उन्हें ये हजम नहीं हो रहा है कि एक चायवाला प्रधानमंत्री बन गया. जिस दिन से हमने इन लोगों की विदेशी फंडिंग की डीटेल मांगनी शुरू की है, इन्होंने मेरे खिलाफ गैंग बना लिया है और चिल्ला रहे हैं- मोदी को मारो, मोदी को मारो. अब हर रोज मेरी छवि खराब करने और मुझे खत्म करने की कोशिश हो रही है.’
हालांकि इस मसले पर ज्यादातर राजनीतिक चिंतक प्रधानमंत्री से इतर राय रखते हैं. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘मोदी की चुप्पी जानी-बूझी रणनीति का हिस्सा है. रणनीति यह है कि विवादास्पद मुद्दों, विचारधारा के मुद्दों, सांप्रदायिक मुद्दों समेत जो भी पॉलिटिक्स का डर्टी जॉब है वह दूसरे लोग करते हैं. मोदी इस पर चुप रहते हैं. वे केवल चुनाव में भाषण देते हैं या तथाकथित विकास के मसले पर बयान देते हैं. यह उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले ही दिन से जारी है. लाल किले से भाषण के दौरान वे कहते हैं कि दस साल के लिए इन मुद्दों को कूड़ेदान में डाल देना चाहिए. इस तरह के मुद्दों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए, लेकिन भाजपा के केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक ऐसे मसलों पर लगातार बयानबाजी कर रहे हैं. हालांकि अब इस रणनीति की पोल खुल चुकी है. सबको इसका मतलब समझ में आने लगा है.’
प्रधानमंत्री पर चुप रहने का आरोप लगाना पूरी तरह तथ्य से परे है. भाजपा और सरकार के प्रवक्ता जो भी बोलते हैं उस पर पार्टी व प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति होती है. अब प्रधानमंत्री जिन मसलों पर बोलते हैं वह विपक्ष को सूट नहीं करता है, वह इस तलाश में रहता है कि प्रधानमंत्री से क्या छूट गया है उसे मुद्दा बनाया जाए. अब सरकार और पार्टी के प्रवक्ता भी तो हैं, जो प्रधानमंत्री से अलग आवाज नहीं हैं. प्रधानमंत्री हर मसले पर अपना बयान नहीं दे सकते हैं. अगर विपक्ष को प्रवक्ताओं की बात नहीं सुननी है तो वह भी अपने प्रवक्ताओं को हटा दे, सोनिया गांधी या दूसरे बड़े नेता ही हर मसले पर बोला करें. जहां तक बात भाजपा नेताओं की बयानबाजी की है तो जो पार्टी लाइन का बयान है वह प्रवक्ता देते रहते हैं. जिन लोगों ने निजी रूप से बयान दिया है, पार्टी ने उसका खंडन किया है. पार्टी ने हमेशा हर मसले पर अपनी राय साफ जाहिर की है. [/symple_box]
वहीं, लेखक सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘जब जगह-जगह पर संविधान की अवहेलना हो रही है, कभी वकील हमला कर रहे हैं, कभी दादरी जैसी घटनाएं हो रही हैं. तो ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मौन एक सूचक मौन है. अब लोग यह भी सवाल उठा सकते हैं कि प्रधानमंत्री हर मसले पर क्यों बोलेंगे. लेकिन मेेरे ख्याल से जो व्यक्ति जिम्मेदारी के पद पर, संवैधानिक पद पर बैठा हुआ है वह ऐसे समय मौन रहता है जब उसके सामने तमाम घटनाएं घटित हो रही हों तो यह सूचक मौन है. यह लोकतंत्र के लिए चिंताजनक स्थिति है.’ बहरहाल इस दौरान दूसरे तमाम मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संवाद तो जारी रहा, लेकिन वे उन कुछ चुनिंदा मसलों पर टिप्पणी करने से बचते रहे या जानबूझकर देरी करते रहे जिनसे उनकी पार्टी का हित टकरा रहा था.
लेखक और पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘जहां तक इस दौरान हुए विवादों की बात रही तो इस दौरान दो तरह के विवाद रहे. कुछ ऐसे विवाद रहे जिनका निपटारा सही ढंग से नहीं हुआ. दूसरे ऐसे विवाद रहे जिन्हें राजनीतिक वजहों से विवादित बनाया गया. ऐसे में मोदी की चुप्पी रणनीति के तहत रही. सुषमा, वसुंधरा या दादरी का मसला पहली तरह का विवाद रहा, जहां मोदी चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाए. दूसरा जेएनयू का मसला था, इसको राजनीतिक वजहों से विवादित किया गया. इसमें भी सत्ताधारी दल फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है. अब इंग्लैंड में प्रधानमंत्री के ऊपर राष्ट्रीय मसलों पर बोलने का नैतिक दबाव होता है, लेकिन कोई नियम, कायदा या कानून नहीं होता है. ठीक वैसा ही भारत में भी है. अब जेएनयू के मसले पर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के संसद में दिए गए बयान को प्रधानमंत्री सत्यमेव जयते लिखकर ट्वीट करते हैं तो यह साफ होता कि वे उस बयान से सहमत होते हैं. अगर हम यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री जेएनयू के मसले पर चुप हैं तो ऐसा कहते वक्त हम सिर्फ तकनीकी रूप से बात कर रहे होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री अपनी मंशा जाहिर कर चुके होते हैं.’
राशिद किदवई की बात से हम सहमत भी हो सकते हैं, क्योंकि हमारे लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की प्रणाली विकसित की गई है. देश के ज्यादातर प्रधानमंत्री बहुत मुखर नहीं रहे हैं. लेकिन क्या वाकई में प्रधानमंत्री लोगों की उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं? किदवई कहते हैं, ‘किसी भी सरकार के कार्यकाल के दौरान बहुत सारे उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. मोदी कई बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे, साथ ही बहुत दिनों बाद पूर्ण बहुमत की सरकार आई थी इसलिए लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं. हालांकि प्रधानमंत्री रहने के दौरान वे विपक्ष को साथ लेकर सदन को सुचारू रूप से चलाने में असफल रहे हैं.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल उन मुद्दों पर बोलते हैं जो उन्हें राजनीतिक तौर पर सुविधाजनक लगते हैं. देश के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने में वे पूरी तरह से नाकाम रहे हैं. नफरत फैलाने वाले, बांटने वाले, विभाजनकारी और विघटनकारी एजेंडे का वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन करते दिखते हैं. इसके लिए वे या तो चुप्पी साध लेते हैं या अपनी परोक्ष सहमति से बांटने वाली ताकतों को प्रोत्साहित करते हैं. यह भी पूरे देश ने देखा कि बांटने वालों के सरगना संजीव बालयान, साध्वी निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, राजकुमार सैनी, योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह आदि को प्रधानमंत्री ने अच्छे पदों और पुरस्कारों से नवाजा है. यह सूची काफी लंबी है और बढ़ती जा रही है. इसका संदेश बहुत ही स्पष्ट है- फूट डालो और राज करो. देश को बांटो, शासन करो. नफरत फैलाओ, विभाजन करो और शासन करो. [/symple_box]
वहीं वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘पिछले कुछ समय में मोदी ने जिस तेजी से लोकप्रियता के शिखर को छुआ था, उतनी ही तेजी से वह घट रही है. आम आदमी को रोटी खाने से मतलब होता है, लेकिन अभी तक अच्छे दिन का वादा जुमला साबित हुआ है. सरकार ने इस दौरान सिर्फ विघटनकारी और विभाजनकारी एजेंडे पर जोर-शोर से काम किया है. बाकी तमाम मुद्दे पीछे रह गए हैं. देश में किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. मजदूरों के पास काम नहीं है. मध्यवर्ग महंगाई से त्रस्त है. ऐसे में उनकी छवि पर भी लगातार सवाल उठे हैं. वे एक कमजोर प्रशासक साबित हो रहे हैं.’
जेएनयू के प्रो. सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘मोदी की भूमिका बहुत साफ है कि वे सभी मसलों पर मौन हैं. संसद में स्मृति ईरानी के भाषण को उन्होंने बहुत सराहा. मतलब साफ है कि सरकार की जो लाइन है, पार्टी की जो लाइन है, उससे वे सहमत हैं और उसके साथ हैं. देश भर में उपद्रवी तत्व अगर उत्पात मचाते हैं और सरकार कुछ नहीं बोलती तो समझना चाहिए कि उनको सरकार का समर्थन है.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन सारे मसलों पर चुप्पी साधे बैठे हैं जो उनकी राजनीतिक विचारधारा के करीब हैं. घर वापसी, बीफ, दादरी, जेएनयू, रोहित मसले पर उनकी चुप्पी है, बाकी दिन भर दहाड़ते ही रहते हैं. जो मसले सांप्रदायिक तनाव बढ़ाते हैं, लोगों को बांटते हैं, उनके जो मंत्री ‘हरामजादे’ जैसे बयान देते हैं, जो लोगों को पाकिस्तान भेजते हैं, उन पर भी मोदी चुप्पी साधे रहते हैं. दरअसल वे चाहते हैं कि ऐसे मसले उठते रहें. वरना जिसकी मर्जी पर स्टाफ में प्यून तक रखे जाते हैं, वह एक बार कह दे कि खबरदार कोई नहीं बोलेगा, तो शायद ही कोई बोले. पर वे खुद ही चाहते हैं कि धार्मिक ध्रुवीकरण होता रहे. इसलिए उद्देश्यपूर्ण चुप्पी धारण किए रहते हैं. गोधरा दंगे के चलते उन्हें दो बार गुजरात की कुर्सी मिल गई थी, इसलिए वे देश में भी ऐसा करना चाह रहे हैं. इसलिए धार्मिक उन्माद को रोकने की कोशिश ही नहीं की जा रही है. वरना कोई मंत्री या सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष यह बयान कैसे दे सकता है कि यदि बिहार में जदयू जीत गई तो पाकिस्तान में पटाखे छूटेंगे? क्या हम पाकिस्तान के नागरिक हैं? साध्वी निरंजन ज्योति यह बयान कैसे दे सकती हैं कि जो हमें वोट दे रहे हैं वे रामजादे हैं बाकी सब बास्टर्ड हैं. अगर नेता न चाहे तो कोई ऐसा बयान दे ही नहीं सकता है. लेकिन मोदी खुद ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के लिए ऐसे बयानों को मौन सहमति देते हैं. [/symple_box]
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इससे इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘शुरू से ही पूरा विपक्ष मोदी को निशाने पर लिए हुआ है. वह यह पचा नहीं पा रहा है कि मोदी प्रधानमंत्री हैं. कोई छोटी-सी भी बात हो तो एक मांग उठती है कि इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोलें. कई बार घटनाएं इतनी छोटी रहती हैं कि प्रधानमंत्री को बोलने की कोई जरूरत नहीं होती है. जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में यह बात कई बार कही है कि सरकार या प्रधानमंत्री को जनता ने कुछ करने के लिए चुना है और विपक्ष को बोलने के लिए चुना है. इसका मतलब विपक्ष को बोलने का हर अवसर मिलना चाहिए और सरकार को काम करने का हर अवसर मिलना चाहिए, लेकिन यहां हम पा रहे हैं कि विपक्ष मोदी को बोलने के लिए ज्यादा मजबूर कर रहा है और काम करने का पूरा मौका भी नहीं देना चाहता है. अपने यहां संसदीय लोकतंत्र की जो परिपाटी बनी है उसका पिरामिड उल्टा हो गया है. विपक्ष को लगता है कि प्रधानमंत्री हर छोटी बात पर बोलें. वे बोलेंगे तो गलती भी करेंगे और गलती पर वह मुद्दा बनेगा. ये विवेक भी शायद विपक्ष के पास नहीं है कि किस बात पर प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए और किस बात पर उनके बोलने की जरूरत नहीं है. मेरे हिसाब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास यह विवेक है कि उन्हें कब बोलना चाहिए और कब चुप रहने की जरूरत है.’
राम बहादुर राय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी को सही बताते हुए संसदीय लोकतंत्र का सहारा लेते हैं. साथ ही वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उद्धृत करते हुए कहते हैं, ‘जहां तक बोलने की बात है तो वाजपेयी जी अक्सर कहा करते थे कि बोलने के लिए सिर्फ बुद्धि की जरूरत होती है और चुप रहने के लिए बुद्धि व विवेक दोनों की जरूरत होती है. नरेंद्र मोदी अगर चुप हैं तो वे अपनी बुद्धि और विवेक के कारण चुप हैं. ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री चुप्पा हो गए हैं. जब उन्हें ठीक लगता है तो वे बोलते हैं. प्रधानमंत्री पर चुप्पी का आरोप लगाने वाले विपक्ष से मेरा एक सवाल है कि आप संसदीय प्रणाली में रह रहे हैं या फिर राष्ट्रपति प्रणाली में जी रहे हैं. यह सही बात है कि 2014 का आम चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव की तर्ज पर लड़ा गया. इसके बावजूद हम संसदीय लोकतंत्र में रह रहे हैं. संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री के अलावा मंत्रिमंडल, राज्यों के मुख्यमंत्री, सरकारी प्रवक्ता बहुत सारे लोग हैं. ऐसे में किसी मामले पर प्रधानमंत्री बोले या फिर उनका मंत्री या कोई प्रतिनिधि अगर बयान देता है तो वह भी ठीक होता है. अमेरिका में यह हो सकता है कि आप हर बात के लिए ओबामा की तरफ देखें और वे उसका जवाब दें. हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र में इसकी जरूरत नहीं है. भारत में इसके पहले भी जो प्रधानमंत्री थे वे संबंधित मंत्रालयों और विभागों के मुखिया को ही संसद के अंदर व बाहर जवाब देने के लिए कहते रहे हैं. हमने लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की प्रणाली विकसित की है. ऐसा इसलिए भी होता है.’
हालांकि इसके साथ ही एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी ही पार्टी के नेताओं और अपनी ही सरकार के मंत्रियों के ऊटपटांग बयानों से बेखबर हैं? यदि नहीं, तो फिर उन्होंने आज तक इन बयानों की आलोचना क्यों नहीं की? यदि भाजपा दादरी कांड समेत अन्य घटनाओं के विरुद्ध है, तो उसने अपने विधायकों और सांसदों पर लगाम क्यों नहीं कसी? इसके पहले भी उसके अनेक नेता सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाले बयान देते रहे हैं लेकिन पार्टी ने कभी उन पर किसी तरह का अंकुश नहीं लगाया. क्या शीर्ष नेताओं का सिर्फ यह कह देना पर्याप्त है कि पार्टी ऐसी घटनाओं के विरुद्ध है? क्या इससे यह जाहिर नहीं होता है कि पार्टी जानबूझकर वोटबैंक के लिए ऐसे तत्वों को बढ़ावा दे रही है?
अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘यह सिर्फ वोट बैंक की राजनीति नहीं है. यह एक से अधिक घोड़ों की सवारी करने की कोशिश है. एक तरफ हम देखेंगे कि विकास के मसले पर भी सरकार काम करती रहेगी और सांप्रदायिक मुद्दे पर भी सरकार काम करती रहेगी. जब चुनाव नजदीक आएंगे तो रणनीतिकार बैठकर सोचेंगे कि कौन-सा मुद्दा काम करेगा. इसलिए सारे मसलों को जिंदा करके रखो. रणनीतिकार अगर देखेंगे कि विकास से लोग नाखुश हैं तो सांप्रदायिकता के कार्ड को आगे बढ़ा देंगे. जहां तक भाजपा सांसदों, विधायकों और नेताओं द्वारा की जाने वाली फूहड़ बयानबाजी का सवाल है तो वे यह मानते हैं कि उदारवादी लोगों को ये बातें भले ही खराब लगंे, लेकिन उनका जो जनाधार है उसके मन में इस तरह के बयानों से गुदगुदी होती है. जब हम भाजपा की आलोचना करते हुए कहते हैं कि वह सांप्रदायिक है तो हमें लगता है कि हमने आलोचना की, लेकिन भाजपा वाले इसे तारीफ की तरह लेते हैं. मैं अपनी किसी भी डिबेट में भाजपा को मुस्लिम विरोधी कहता ही नहीं हूं क्योंकि भाजपाई इसे भी अपनी तारीफ ही समझते हैं.’
ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री बोलते नहीं हैं, वे सेलेक्टिवली बोलते हैं. बोलना होता है तो खूब बोलते हैं, नहीं तो चुप्पी साधकर बैठे रहते हैं. प्रधानमंत्री एक तरफ रोहित वेमुला के मसले पर, जेएनयू के मसले पर, दादरी के मसले पर तो नहीं बोलते हैं, लेकिन अगर मैक्सिको में किसी खिलाड़ी की मौत हो जाए तो उस पर तुरंत ट्वीट करते हैं. प्रधानमंत्री ने यह मौन जान-बूझकर धारण किया है. वह चाहते हैं कि देश का ध्रुवीकरण हो, समाज बंट जाए, ये वोट बैंक की राजनीति है. दरअसल बात ये है कि अगर देश का प्रधानमंत्री खुद को एक पार्टी का, एक संगठन का पीएम समझने लगे तो ऐसी दिक्कतें सामने आती हैं. दुर्भाग्य से मोदी खुद को आज भी भाजपा का प्रधानमंत्री ही मानते हैं. ऐसे में उन मसलों पर जिन पर भाजपा को फायदा मिलने की उम्मीद होती है, उन पर तो वे बोलते हैं. लेकिन जहां देश हित की बात हो, देश को जोड़ने की बात हो वहां पर वे मौन धारण कर लेते हैं.
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वहीं सुभाष गाताडे भी इस बात से सहमत दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘अपने मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सांसदों और विधायकों के अनर्गल बयानों पर रोक न लगा पाने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असफलता मान सकते हैं, लेकिन मेरे ख्याल से यह जानबूझकर प्राप्त की जा रही असफलता है. मोदी एक सख्त प्रशासक हैं. इस पर भी बहस किए जाने की जरूरत है, क्योंकि जब 2002 में वे गोधरा के समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उस दौरान बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक मारे गए थे, तो वे कितने सख्त प्रशासक थे, इसकी पड़ताल किए जाने की जरूरत है. यह एक मिथक तैयार किया गया था जिसकी असलियत उजागर हो रही है. वैसे भी देश में जो हालात हैं उसका फायदा व्यक्तिगत तौर पर मोदी और संघ को मिल रहा है. क्योंकि जो भी विचार के वाहक व्यक्ति हैं उनके हिसाब से सब ठीक ही हो रहा है.’
हालांकि राशिद किदवई इस बात को दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘मोदी के मंत्रियों, सांसदों और पार्टी नेताओं की बयानबाजी हमें भले ही खराब लगती है, लेकिन यदि हम कहें कि इसके पीछे एक राजनीतिक सोच है, तो ये सारी बातें गौण हो जाती हैं. हर व्यक्ति की लिए मर्यादा, विचार, सोच की परिभाषाएं अलग-अलग होती हैं. अगर हम कहें कि पिछले 50 सालों से एक तरह की बातें चली आ रही थीं, उसके इतर कुछ करने की कवायद है तो चीजें बदल जाती हैं. जैसे जेएनयू है यह सिर्फ पांच, दस लोगों का मसला नहीं है. अगर हम इसके पीछे की सोच को देखें तो यह साफ है कि अब राष्ट्रवाद क्या होता है, इसके क्या पैमाने हैं, ऐसी तमाम बातों को तय करने की शुरुआत हो गई है. इसका मकसद यह है कि एक पार्टी जो लंबे समय तक विपक्ष में रही है, उसके मिजाज को भी समझा जाए और उसे आगे बढ़ाया जाए. ये प्रयास इसीलिए है.’
वहीं राम बहादुर राय इस सबसे बिल्कुल इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक सांसदों के बोलने पर प्रधानमंत्री द्वारा अकुंश न लगाए जाने की बात है तो हमारे यहां जो भी सांसद चुनकर आते हैं उनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. ब्रिटेन में ऐसी व्यवस्था बनी हुई है. हमारे यहां चुनाव जीतने के आधार पर ही उम्मीदवारों का चयन होता है. ऐसी स्थिति में कई बार अलग-अलग विचार सामने आ जाते हैं. इसके अलावा राजग के सांसदों के विचारों में भी एकरूपता नहीं है. एक तरीके से यह अच्छा और बुरा दोनों है. हर सांसद अलग-अलग तरह का विचार रखता है. इसलिए भी अक्सर सरकार को परेशानी में डालने वाले बयान सामने आ जाते हैं.’
राय के अनुसार ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. वे कहते हैं, ‘1971 में जब इंदिरा प्रचंड बहुमत से जीती थीं तब लोकसभा में कांग्रेस के अंदर दो फोरम काम करते थे. एक नेहरू फोरम, दूसरा सोशलिस्ट फोरम. नेहरू फोरम अलग सुर में बोलता था तो सोशलिस्ट फोरम के सांसद अलग राग अलापते थे. इसके अलावा कुछ लोगों ने मिलकर युवा तुर्क गुट भी बना रखा था जो हर बात पर अपनी तीसरी राय रखता था. इसी तरह भाजपा में भी जो लोग बोलते हैं तो इसका कारण यह नहीं है कि प्रधानमंत्री उन्हें बोलने देते हैं. इसका कारण यह भी नहीं है कि प्रधानमंत्री उनके बोलने पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. वैसे भी कोई सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र और अपने वोटबैंक की अनदेखी नहीं कर सकता है. मुझे लगता है इतनी विविधता बनी रहनी चाहिए. यह लोकतंत्र के लिए बेहतर ही होता है.’
वैसे अगर हम मान भी लें कि मोदी का यह आरोप सही है कि उनके विरोधी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं, तो इस कोशिश को नाकाम करने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा और केंद्र सरकार क्या कर रही है? उन्होंने इस ध्रुवीकरण को रोकने के लिए अब तक क्या कदम उठाए हैं और उनकी भविष्य की योजना क्या है?
अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘जब हम यह सवाल सरकार से पूछते हैं, तो हमें यह भी समझने की जरूरत होगी कि इस ध्रुवीकरण से फायदा किसको हो रहा है. अगर चुनावी लिहाज से देखें तो इसका सीधा फायदा भाजपा को है. कई बार लगता है कि यह कवायद आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए है. यह एक तरह से आगामी लोकसभा का सेमीफाइनल मैच है. इस दौरान ध्रुवीकरण की राजनीति की परीक्षा भी हो जाएगी. हालांकि मेरे ख्याल से भाजपा की यह राह समाज और देश के लिए बहुत ही खतरनाक साबित होने वाली है. अगर सिर्फ ध्रुवीकरण करके उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना है तो उन्हें पश्चिम से लेकर पूरब तक सांप्रदायिक विद्वेष फैलाना होगा. यह बहुत ही मुश्किल काम है. लेकिन गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाने वालों के लिए यह असंभव काम भी नहीं है.’
हालांकि इस दौरान बहुत सारे लोगों का कहना रहा कि भारतीय जनता पार्टी ने संघ के दबाव में काम किया है. बिहार चुनाव से लेकर बृहत्तर भारत या हिंदूवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में संघ ने अहम भूमिका अदा की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थकों का एक धड़ा लगातार इस बात को प्रचारित करता रहा है कि वे संघ के दबाव में कुछ नहीं बोल रहे हैं, जबकि उनके एजेंडे में विकास सर्वोपरि है. गुजरात में मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने विकास के एजेंडे को ही आगे बढ़ाया और उन्होंने एक सख्त प्रशासक की छवि निर्मित की है.
हालांकि अभय कुमार दुबे इस बात को पूरी तरह से खारिज कर देते हैं. वे कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी के दबाव में हैं. मोदी की चुप्पी जानी-बूझी समन्वित रणनीति है. इसमें मोदी, संघ, भाजपा सबके रणनीतिकार शामिल हैं. इसमें कभी-कभी गलतियां भी होती हैं, तो मामला बहुत फूहड़ हो जाता है. कई बार ये लोग सफल भी हो जाते हैं. जेएनयू के मसले को जिस तरह उठाया गया, उसके पीछे सोची-समझी रणनीति लग रही है. हालांकि स्मृति ईरानी की एक गलती से सारा मामला राष्ट्रवाद से हटकर दलित, आदिवासियों और पिछड़ों के खिलाफ चला गया.’
वहीं राशिद किदवई कहते हैं, ‘जहां तक सख्त प्रशासक की बात होती है तो इसका कारण थोड़ा अलग है. मोदी इसके पहले गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं. जहां तक राज्य के मुख्यमंत्री का सवाल होता है तो वह विदेश, रक्षा, आर्थिक आदि मसलों पर पूरी जिम्मेदारी उठाने से बचा रहता है. साथ में यदि विपक्ष कमजोर है तो आप खुद को बहुत बेहतर दिखाने में सफल रहते हैं, लेकिन देश के साथ ऐसा नहीं होता है. यहां राज्यसभा और लोकसभा दोनों सदन होते हैं. विपक्ष यहां मजबूती से आपका प्रत्युत्तर देने के लिए खड़ा रहता है. इसके अलावा केंद्र में आप अपने मंत्रियों पर भी निर्भर होते हैं. करीब 20 मंत्रालय ऐसे हैं जहां पर आपको जिम्मेदार और योग्य लोगों को नियुक्त करने की जरूरत होती है. मुझे लगता है कि मोदी के मत्रिमंडल में भी योग्य लोगों की कमी है. इसके चलते उनकी सख्त प्रशासक की छवि धूमिल हो रही है.’
राम बहादुर राय भी संघ के दबाव की बात से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी देश के दूसरे प्रधानमंत्री हैं जो संघ की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए हैं. इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे. अब अगर हम वाजपेयी की बात करें तो उस समय भाजपा के पास बहुमत लायक सीटें नहीं थीं. इसके अलावा उनकी राजनीतिक समझ मोदी की तुलना में बहुत ज्यादा थी. इस नाते संघ से उनका तालमेल बेहतर था. वे संघ को यह बात याद दिलाते रहते थे कि देखिए सरकार तो मैं चलाऊंगा, आप सिर्फ सलाह दे सकते हैं. नरेंद्र मोदी के साथ भी यह किस्सा है. वे संगठन के आदमी रहे हैं. वाजपेयी की तरह वे संघ के साथ तालमेल बिठाने में सफल तो रहे हैं. संघ अभी तक सार्वजनिक रूप से सरकार की आलोचना करता नहीं दिखा है, जो बेहतर तालमेल की पुष्टि करता है. हां, जब लोग कहते हैं कि संघ सरकार चला रहा है तो यह सिर्फ आरोप है.’
फिलहाल मोदी ने विकास और रोजगार का वादा करके प्रधानमंत्री बनने का सफर तय किया था लेकिन देश के लोग अब भी सात फीसदी की दर से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था को महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दो साल का सूखा, फसल की बर्बादी, ग्रामीणों और शहरी आम आदमी की आमदनी में गिरावट आने से जनता मोदी सरकार से निराश है. यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री इससे निपटने के बजाय लोगों के हाथ में राष्ट्रवाद का झुनझुना पकड़ा रहे हैं. यह देखने वाली बात होगी कि राष्ट्रवाद और विद्वेष के इस झुनझुने से उन्हें कितना फायदा होता है और जनता को अपनी मुश्किलों से कितनी राहत मिलती है.