बिहार में अपराधियों की बहार

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 12 फरवरी को राज्य में सुशासन की बहाली और कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बैठक खत्म कर उठने ही वाले होते हैं कि तभी भोजपुर इलाके से खबर आती है कि सोनवर्षा बाजार में विशेश्वर ओझा की हत्या कर दी गई. विशेश्वर ओझा भोजपुर इलाके में दबंग-धाकड़ और कुख्यात नेता होने के साथ ही भाजपा के उपाध्यक्ष भी थे, इसलिए उनकी हत्या की खबर जंगल की आग की तरह फैलती है. सोनवर्षा से लेकर पटना तक राजनीतिक गलियारा गरमा जाता है. भोजपुर से लेकर आरा तक तोड़फोड़ का सिलसिला शुरू होता है. पटना में भाजपाई नेता जंगलराज-जंगलराज का शोर कर 72 घंटे का अल्टीमेटम देते हैं कि कार्रवाई नहीं हुई तो पूरे राज्य में आंदोलन चलेगा. नीतीश कुमार की मीटिंग के रंग में भंग-सा पड़ जाता है. राहत की बात यह होती है कि थोड़ी ही देर में यह बात भी हवा में फैलने लगती है कि ओझा की हत्या उनके पुराने दुश्मन शिवाजीत मिश्रा के गुर्गों ने की है. शिवाजीत मिश्रा आरा जेल में बंद है. 100 बीघे जमीन पर कब्जे के लिए दोनों के बीच वर्षों की खूनी जंग का इतिहास भोजपुर के लोकमानस में कैद है. भोजपुर में दोनों के आपसी रंजिश में दर्जनों लाशें भी गिरी थीं.

भोजपुर इलाके में विशेश्वर ने पहले पंचायत चुनाव में अपने परिजनों को जितवाया. बाद में विधानसभा चुनाव में छोटे भाई की पत्नी को जितवाकर अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास करवाया. तीन माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में वह खुद ही मैदान में उतरे थे. भाजपा ने उन्हें शाहपुर विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया था. हालांकि प्रसिद्ध नेता शिवानंद तिवारी के बेटे राहुल तिवारी ने राजद के टिकट से चुनाव लड़ विशेश्वर को हरा दिया था. विशेश्वर की हत्या के बाद जदयू के लोग शिवाजीत मिश्र और विशेश्वर की अदावत वाली बातों को जोर-शोर से फैलाने की कोशिश करते हैं. इसका मकसद यह बताना होता है कि यह सिर्फ निजी रंजिश का परिणाम है. इसका राज्य की कानून-व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है. राज्य के डीजीपी पीके ठाकुर कहते हैं, ‘हम अपने स्तर से मामले को देख रहे हैं. अतिरिक्त पुलिस बल को लगाया गया है.’

नीतीश आंकड़ों से अपराध के कम होने का दावा करते हैं, लेकिन सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से अपराध बढ़ा है उससे सुशासन के दावे पर सवाल खड़े हो रहे हैं

अगले दिन 13 फरवरी को विशेश्वर हत्याकांड को लेकर गरमाहट बढ़ी ही रहती है कि नवादा से एक खबर का विस्फोट होता है कि वहां के दबंग राजद विधायक राजवल्लभ यादव फरार हो गए हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ रही है लेकिन पटना से लेकर नवादा तक वे कहीं मिल नहीं रहे हैं. राजवल्लभ पर एक सप्ताह पहले ही 15 वर्षीया नाबालिक लड़की से बलात्कार करने का आरोप लगा है. उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी किए गए थे, जिसके बाद वे फरार हो गए. राजवल्लभ को उनकी पार्टी राजद अगले दिन निलंबित कर देती है. एक माह से भी कम समय में दूसरा मौका होता है, जब सत्ताधारी दल के विधायक को ऐसे कृत्य की वजह से निलंबित करना पड़ता है. इसके पहले जदयू के विधायक सरफराज आलम को भी ऐसे ही मामले में निलंबित किया गया था. सरफराज पर चलती ट्रेन में एक महिला के साथ छेड़खानी का आरोप लगता है. सत्तारूढ़ दल के ही एक कांग्रेसी विधायक सिद्धार्थ पर एक लड़की को उठाने का आरोप भी लग चुका है. राजवल्लभ यादव की घटना के बाद लालू प्रसाद यादव का बयान आता है, ‘पार्टी किसी किस्म की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेगी.’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बयान आता है, ‘ऐसी घटनाओं को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. चाहे कोई हो, कार्रवाई होगी. राजद ने अपने विधायक पर कार्रवाई की है.’ पर वह एक और बात जोड़ देते हैं, ‘ऐसी घटनाएं शर्मनाक हैं, लेकिन यह कहना सही नहीं है कि राज्य में अपराध बढ़ रहा है. पिछले तीन सालों से अपराध घट रहा है.’ नीतीश कुमार जब यह कहते हैं तो एक तरीके से खुद बिरनी के छत्ते में हाथ जैसा डालते हैं. वे आंकड़ों की तहजाल में जाकर अपराध के कम होने का हवाला देने की कोशिश करते हैं. ऐसा कहते वक्त वे ये भूल जाते हैं कि आंकड़े भले ही उन्हें तसल्ली दें लेकिन इस बार सत्ता संभालने के बाद पिछले ढाई माह में ही जितने किस्म की घटनाएं घटी हैं, उससे सिद्ध होता है कि अपराध का कम होना एक बात हो सकती है लेकिन अपराध की प्रवृत्ति जिस तरह से बदली है, उसे आंकड़ों के जरिये पुष्ट नहीं किया जा सकता. हां, मन को तसल्ली जरूर दे सकता है.

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मीडिया की साख की भी परीक्षा

जंगलराज बनाम मंगलराज के तमाम तहजाल के बीच एक तीसरा नजरिया भी है. यह मीडिया का नजरिया है. बिहार के चुनाव के वक्त ही ये बातें कही जा रही थीं कि मीडिया की असल परीक्षा की घड़ी अब आयी है. कुछ सालों पहले तक यह कहा जाता था कि नीतीश कुमार बिहार के मिस्टर चीफ एडिटर हैं, यानी मीडिया को नियंत्रित रखते हैं. तब भाजपा भी उनके साथ थी. ये बातें सिर्फ कही नहीं जाती थी, इस पर उठा बवाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की देहरी तक पहुंच चुका था. सुनवाइयों का दौर चला था. यह साबित करने की कोशिश हुई थी कि नीतीश कुमार सीधे मीडिया को नियंत्रित करते हैं और बिहार की मीडिया बिकाऊ हो गई है. बिहार की मीडिया नीतीश के नियंत्रण में थी या नहीं, यह वाद-विवाद और पड़ताल का विषय हो सकता है लेकिन तब यह सच्चाई थी कि बड़ी से बड़ी अपराध और कुशासन की खबरें अखबारों में, मीडिया में उस तरह से जगह नहीं पाती थी, जैसा कि जरूरत होती थी या कि जैसा अब हो रहा है. वह चाहे फारबिसगंज के भजनपुरा में अल्पसंख्यकों को मार दिए जाने का मामला हो या कोई और. लेकिन अब बारास्ता मीडिया बिहार में घटित होने वाली तमाम घटनाएं सतह पर आ रही हैं. जानकार बता रहे हैं कि मीडिया की वजह से भी अचानक अपराध इस किस्म का दिखने लगा है वरना यह रोग तो पुराना ही था, घटनाएं पहले भी हो रही थीं. जानकार बताते हैं कि इसके पीछे वजह दूसरी भी है. मीडिया द्वंद्व में फंसी हुई है. एक तरफ बिहार में नीतीश कुमार हैं, दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की सरकार. अपने बेहतर भविष्य के लिए उसे दोनों से बेहतर रिश्ता रखना है. अगर बिहार की खबरें दबेंगी या सतह पर नहीं लाई जाएंगी तो केंद्र की सरकार का अपना हिसाब-किताब होता है मीडिया घरानों से और अगर बिहार की बातों को ज्यादा ही सतह पर लाएंगे तो बिहार की सरकार भी अगले पांच साल के लिए बहुमत से चुनी गई है, सो उसका भी अपना हिसाब-किताब होता है. कुछ जानकार इसे मीडिया घरानों के विज्ञापन के कारोबार से जोड़कर देखते हैं और उसे ही दुविधा की वजह बताते हैं जबकि कुछ विश्लेषक इसे मीडिया के जातीय चरित्र के हिसाब से भी आंकते हुए बताते हैं कि चूंकि बिहार के मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व है. अब पिछड़ों की सरकार बन गई है. लालू प्रसाद के साथ नीतीश का आना हजम नहीं हो रहा, इसलिए मीडिया में बैठे नुमाइंदे हर घटना पर नजर रख रहे हैं, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं. नीतीश जब तक भाजपा के साथ थे और घटनाएं होती थीं तो वही नुमाइंदे चुप्पी साधे रहते थे. बात दोनों सही हो सकती हैं या दोनों में से कोई भी नहीं. जो भी हो लेकिन नीतीश कुमार की इस पारी में मीडिया की साख की भी परीक्षा जारी है.

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अपराध का अनवरत सिलसिला

विशेश्वर की हत्या के मामले को आपसी रंजिश का ही मामला भर मान लें और राजवल्लभ के कृत्य को भी व्यक्तिगत कुकृत्य की परिधि में समेट देने के बावजूद तो भी पिछले दो-ढाई माह में बिहार में घटित घटनाओं पर गौर करें तो मालूम होगा कि कैसे अपराधी सिर्फ अपराध नहीं कर रहे बल्कि वे घटनाओं को ऐसे अंजाम दे रहे हैं, जैसे वे मान चुके हैं कि शासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ने वाला है. यह सिलसिला दरभंगा इंजीनियर हत्याकांड के बाद शुरू होता है. विगत माह दरभंगा में चड्डा एंड चड्डा कंपनी के दो इंजीनियरों की हत्या संतोष झा गिरोह के लोग करते हैं. बात सामने आती है कि जेल में बंद संतोष झा का गुर्गा मुकेश पाठक यह हत्या करता है. हत्या की वजह रंगदारी और लेवी नहीं देना बताया जाता है. मारे गए दोनों इंजीनियर बिहार के ही हैं इसलिए यह राष्ट्रीय स्तर पर उस तरह से चर्चा में नहीं आता. इस हत्याकांड पर न तो शासन के, न सत्तारूढ़ दल के लोग खुलकर बोलते हैं. बोलने की स्थिति भी नहीं बनती, क्योंकि जो मुकेश पाठक इस घटना को अंजाम देता है, वह पुलिस के सौजन्य से ही जेल से फरार होता है. लोग कहते हैं कि फरार करवाया गया है.

इस घटना पर कार्रवाई करने की बात नीतीश कुमार करते हैं. वे अपने अधिकारियों पर झल्लाते हैं कि जैसे भी हो रिजल्ट चाहिए. नीतीश कुमार कहते हैं कि अगर अपराध कम नहीं हुआ तो एसपी से लेकर थानेदारों तक नापेंगे, पर उनकी इस झुंझलाहट और झल्लाहट का पुलिस-प्रशासन पर कोई असर पड़ता नहीं दिखता. इसका उलटा असर जरूर होता है. बिहार में अपराधियों का मनोबल बढ़ जाता है. एक के बाद एक दनादन घटनाएं शुरू हो जाती हैं. इंजीनियर हत्याकांड के अगले ही दिन समस्तीपुर में अपराधी दिनदहाड़े एक प्रतिष्ठित डॉक्टर के घर पर गोलियां बरसाते हैं. ये गोलियां भी रंगदारी नहीं दिए जाने के बाद धमकाने के लिए बरसाई जाती हैं. यह घटना भी समस्तीपुर में ही दबकर रह जाती है, लेकिन 18 जनवरी को एक ऐसा दिन आता है, जब एक बार फिर से जदयू और सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ता है. इस दिन एक खबर आती है कि चंपारण के एक बैंक से अपराधियों ने 20 लाख की लूट की. इस पर लोग ज्यादा ध्यान नहीं देते लेकिन तभी खबर आती है कि जदयू की चर्चित विधायक व पूर्व मंत्री बीमा भारती का पति कुख्यात सरगना अवधेश मंडल पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद थाने से फरार हो गया. हालांकि दो दिनों के अंदर ही वह गिरफ्त में आ जाता है. लेकिन अवधेश के गिरफ्त में आने और फरार हो जाने की घटना की पड़ताल की गई तो जो कारण पता चले उसे किसी आंकड़े से पुष्ट नहीं किया जा सकता.

दरअसल अवधेश मंडल को कोसी इलाके के कुख्यात चेहरों में से एक माना जाता है. जिस मामले में अवधेश मंडल गिरफ्तार हुए, फरार हुए, फिर गिरफ्तार हुए. उस मामले को जानने से यह बात साफ होती है. अवधेश मंडल पर 46 से अधिक मामले दर्ज हैं. सब क्रिमिनल केस हैं. अवधेश मंडल फैजान गिरोह के संचालक रहे हैं. फैजान गिरोह सवर्ण दबंगों और सामंतों से लड़ने के लिए गठित हुई निजी सेना थी. सवर्णों से लड़ते-लड़ते अवधेश मंडल और फैजान गिरोह के लोग दलितों व वंचितों से ही लड़ने लगे. उनका ही हक मारने लगे. इसी क्रम में पूर्णिया के भवानीपुर में 60-70 दलित परिवारों की 110 एकड़ जमीन पर अवधेश मंडल और उनके गिरोह के लोगों ने कब्जा कर लिया. 20 सालों से यह कब्जा है. सरकार ने यह जमीन दलितों को खेती करने के लिए दी थी. दलित इसका विरोध नहीं कर सके. जिन्होंने विरोध किया, उनकी कहानी खत्म हुई. इसी क्रम में चंचल पासवान और कैलाश पासवान नामक दो भाइयों ने विरोध किया. दोनों की हत्या हो गई. इसके बाद चंचल पासवान की पत्नी पर पक्ष में गवाही देने के लिए अवधेश मंडल और उनके लोगों ने दबाव बनाना शुरू किया. इसी डर से चंचल पासवान की पत्नी और उनका पूरा परिवार इधर-उधर भटकता फिरने लगा. अवधेश मंडल उसी मामले में गिरफ्तार हुए. फिर भागे. फिर पकड़े गए. अवधेश मंडल के भाग जाने वाली घटना को सामान्य घटना भी मान लें तो भी 20 सालों से एक गांव के दलितों की जमीन पर एक विधायक पति का कब्जा होना कोई सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती.

Photo - Patna view blogspot
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जदयू के प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘अपराध बढ़ा है तो सरकार कार्रवाई कर रही है लेकिन यह भी तो देखिए बिहार में अभी भी दूसरे राज्यों की तुलना में अपराध कम है. आपसी रंजिश और व्यक्तिगत कारणों से हो रही घटनाओं को भी बढ़ते अपराध की श्रेणी में शामिल कर बिहार में पेश किया जा रहा है.’ वशिष्ठ नारायण सिंह आसानी से यह बात कह देते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार के शासनकाल की मूल पहचान गवर्नेंस को दुरुस्त रखना और कानून व्यवस्था को ठीक रखना ही माना जाता है. उनके कार्यकाल में अपराध का किसी भी रूप में बढ़ जाना या दिखने लगना सरकार की सेहत पर भले ही किसी किस्म का असर न डाले लेकिन नीतीश कुमार की जो छवि पिछले डेढ़ दशक से बिहार के अलावा पूरे देश में बनी हुई है, उसको नुकसान हो रहा है. वशिष्ठ बाबू जब ऐसा कहते हैं तो वे एक तरीके से सिर्फ सरकार का बचाव करने के मूड में होते हैं. संभव है कि ढेरों घटनाएं उस परिधि में आती हों. लेकिन क्या यह संभव है कि उनके बनाए फॉर्मूले के अनुसार सभी घटनाएं उसी फ्रेम में समा जाएं? चाहे वह 13 दिसंबर को मुजफ्फरपुर में चावल व्यवसायी की हत्या का मामला हो या 28 दिसंबर को वैशाली में रिलायंस इंजीनियर की हुई हत्या की बात हो, 16 जनवरी को पटना में दिनदहाड़े एक ज्वेलरी व्यवसायी को रंगदारी न देने पर मार देने और दो दिनों बाद ही बेटे की मौत के सदमे से पिता के गुजर जाने की भी बात को भी उसी फ्रेम में समझा जा सकता है, क्योंकि ज्वेलरी व्यवसायी की हत्या रंगदारी नहीं दिए जाने के कारण हुई. किसी का रंगदारी मांगना और रंगदारी देना भी व्यक्तिगत परिधि में आ सकता है. अगर ये घटनाएं व्यक्तिगत रंजिश की परिधि में आ जाएं तो 17 जनवरी को अररिया जिले के नरपतगंज में घटी घटना तो और आसानी से उस परिधि में आ जाएगी. 17 जनवरी को एक दबंग ने महादलितों पर तेजाब फेंककर आठ लोगों को घायल कर दिया. बताया जाता है कि नरपतगंज में आनंदी ऋषिदेव नामक एक महादलित को भूदान में वर्षों पहले जमीन मिली थी. उस पर पांच सालों से दबंग सुरेंद्र ठाकुर का कब्जा था. सुरेंद्र ठाकुर उस जमीन पर रोड बनवाना शुरू करता है. आनंदी ऋषिदेव का परिवार विरोध करने पहुंचता है. दबंग सुरेंद्र ठाकुर के लोग तेजाब फेंकते हैं आैर आठ लोग घायल हो जाते हैं. पटना में सरेआम सृष्टि जैन हत्याकांड की घटना को तो और आसानी से उस परिधि में समेटा जा सकता है, क्योंकि सृष्टि की हत्या प्रेम प्रसंग में होती है. इन सबके बाद राघोपुर इलाके में लोजपा नेता बृजनाथ सिंह की हत्या को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. बृजनाथ सिंह की हत्या अपराधियों ने सरेआम एके 47 से 27 गोलियां बरसाकर की थी. बृजनाथ राघोपुर इलाके के नेता थे. उनकी पत्नी वीणा देवी राबड़ी देवी के खिलाफ चुनाव लड़कर उन्हें कड़ी टक्कर दे चुकी हैं. बृजनाथ के घर की एक महिला ब्लॉक भी प्रमुख हैं. राघोपुर इलाका लालू प्रसाद यादव का गढ़ माना जाता है. इस वजह से बृजनाथ की हत्या के बाद सवाल दूसरे किस्म के भी उठाए गए.

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जंगलराज बनाम मंगलराज

नीतीश कुमार जब ये कह रहे होते हैं कि आंकड़ों में अपराध कम है और वशिष्ठ बाबू जब यह कह रहे होते हैं कि व्यक्तिगत रंजिश के कारण हो रही घटनाओं को भी अपराध की श्रेणी में शामिल किया जा रहा है तो वे जानबूझकर कई बातों को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे होते हैं. अगर वशिष्ठ बाबू के फ्रेम में जाकर बिहार में हालिया दिनों में हुई घटनाओं का पोस्टमाॅर्टम करें तो सिर्फ बैंक लूट और इंजीनियर हत्याकांड को ही लॉ एंड ऑर्डर के बिगड़ने की परिधि में रख सकते हैं. एक सच यह भी है कि जिस तरह से भाजपा के लोग इन दिनों बिहार में रोज-ब-रोज अपराध के बढ़ने, जंगलराज के वापस आने का ढोल पीट रहे हैं, वह भी एक तरीके से अपने किए को ही मिटाने का काम कर रहे हैं. वे जब किसी एक घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं और बताते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ आ गए हैं, तो वे भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार के साथ सबसे लंबे समय तक वही रहे हैं और उनके समय में आंकड़ों के हिसाब से भी अपराध का ग्राफ बिहार में बढ़ा रहा. बड़ी घटनाएं भी लगातार होती रहीं. इन घटनाओं में फारबिसगंज का गोलीकांड सबसे बड़ा माना जा सकता है, जब पुलिस ने छह अल्पसंख्यकों को बूटों से रौंदकर मार डाला था. एक भाजपा नेता की फैक्ट्री के विवाद को लेकर ही पुलिस ने ऐसा किया था. भाजपा के साथ रहने के दौरान ही पूर्णिया के भाजपा विधायक राजकिशोर केशरी की हत्या हुई थी. भाजपा के साथ रहते ही ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या आरा में हुई थी और उसके बाद मुखिया की शवयात्रा के बहाने राजधानी पटना में तांडव मचा था. भाजपा और नीतीश के साथ रहते हुए घटनाओं को छोड़ दें तो जिस जीतन राम मांझी को लेकर भाजपा भावुक हुई, उनके कार्यकाल में ही दलितों पर जुल्म की कई बड़ी घटनाएं हुई. जो जीतन राम मांझी भाजपा के प्रियपात्र बने, उन्हीं के समय में ही गया के पुरा नामक गांव से दलितों को दबंगों ने निकाला. मांझी के समय में भोजपुर के एक बाजार में पांच दलित महिलाओं के साथ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया. इसके अलावा रोहतास के एक गांव में एक दलित बच्चे को जिंदा जलाया गया. ऐसी ही कई और घटनाएं घटीं. इसलिए भाजपा जंगलराज-जंगलराज का जब शोर मचाती है तो जदयू-राजद-कांग्रेस के नेता, कार्यकर्ता पूछ सकते हैं कि आप साथ थे तो कौन सा मंगलराज था? लेकिन मुश्किल ये है कि जदयू के नेता और कार्यकर्ता दोराहे पर हैं. वे इसे खुलकर पूछ भी नहीं सकते, क्योंकि अपराध चाहे भाजपा के साथ रहते हुआ हो या राजद के साथ रहते बढ़ा हो, दोनों ही समय नीतीश कुमार ही मुखिया थे. यानी चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटना दोनों ही हाल में खरबूजे को ही होगा. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर वात्स्यायन कहते हैं, ‘बिहार इन दिनों जिस बदनामी का पर्याय बना हुआ है, उसके कई पहलू हैं. यह सच है कि नीतीश कुमार इस बार जब से सत्ता संभाले हैं, तब से उनका ताप और असर कम दिख रहा है. इसे जंगलराज कहना तो कतई ठीक नहीं लेकिन यह एक सवाल है कि जिस तरह से अपराधी सरेआम राजधानी पटना से लेकर दूसरी जगहों पर हत्या करने और अपराध की घटनाओं को अंजाम देने का सिलसिला शुरू किए हुए हैं, उसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में इसका बुरा असर देखने को मिलेगा. छोटे-छोटे अपराधी बिल से बाहर निकलेंगे और कहर बरपाएंगे.’ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘अपराधी दिन में घटना कर रहे हैं, राजधानी जैसे चाक-चौबंद इलाके में सरेआम हत्या कर रहे हैं, इसका मतलब साफ है कि उनमें पुलिस का खौफ या भय कम है और यही मूल चुनौती है. रही बात भाजपा नेताओं द्वारा रोजाना आंकड़ों को पेश करने की तो वे सियासी पार्टियां हैं. उनका काम ही यही है लेकिन इसका जवाब भी दूसरी ओर से दिया जाना चाहिए.’

आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2012-2013 में ही बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ाने लगी थी. 2012 की तुलना में 2013 में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध में 21% की बढ़ोतरी हुई है 

ज्ञानेश्वर एक आंकड़े के जरिये इसे समझाते हुए कहते हैं, ‘पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक बात वायरल हुई कि नीतीश कुमार ने जब से सत्ता संभाली है तब से दो माह में ही 578 हत्याएं बिहार में हो चुकी हैं. इस बात को इस तरह से ढोल पीटकर प्रचारित किया गया जैसे यह अचानक से हुई घटनाएं हों. जो भी ये सवाल उठाते हैं और इसी आधार पर ये कहते हैं कि बिहार में जंगलराज आ गया है तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अगर हत्याओं के इन आंकड़ों के जरिये ही नीतीश कुमार की इस पारी को जंगलराज साबित करना है. यह बताना है कि लालू प्रसाद की पार्टी के साथ रहने से ऐसा हो रहा है तो फिर यह भी कहा जाना चाहिए कि जब नीतीश कुमार अौर लालू प्रसाद यादव की बजाय भाजपा के संग सरकार चला रहे थे, तब जंगलराज का प्रकोप ज्यादा था.’

ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘मेरा मकसद लालू प्रसाद की पार्टी राजद, नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के पक्ष में कोई सफाई देना नहीं और न ही भाजपा समर्थकों की बातों को काटना है लेकिन रोज-ब-रोज आंकड़ों के जरिये बिहार को बदनाम करने के पहले कुछ और बातों पर गौर करना चाहिए.’ ज्ञानेश्वर आंकड़ों का हवाला देते हुए समझाते हैं, ‘अभी कहा जा रहा है कि दो माह में 578 हत्याएं हुईं. चलिए इसे मान भी लिया जाए. इस हिसाब से मासिक हत्या दर 264 पर पहुंच गई. 2011 में भाजपा साथ थी. उस साल बिहार में 3,198 हत्याएं हुई थी. यानी मासिक हत्या दर 266 थी. 2012 में बिहार में 3,566 हत्याएं हुई थीं. यानी उस साल मासिक हत्या दर औसतन 297 थी. कुछ लोग सिर्फ दो माह नहीं, पूरे 2015 के साल में हुई हत्याओं का आंकड़ा भी पेश कर  रहे हैं कि बीते वर्ष बिहार में 2,736 हत्याएं हो गईं. यह सच भी है. उस हिसाब से भी देखें तो औसतन मासिक हत्या दर 2015 में 273 रही.’  ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘मेरा मकसद हत्याओं को आंकड़ों में समेटकर कोई नया तर्क पेश करना नहीं. बिहार में बढ़ रहा अपराध सभी बिहारियों के लिए चिंता की बात है लेकिन ऐसा नहीं है कि हत्या के एक-दो माह के आंकड़े को लेकर यह साबित करने लगें कि अचानक जंगलराज आ गया है और फिर बिहार की बदनामी को ग्लोरीफाई करने लगें.’ ज्ञानेश्वर सवाल उठाते हैं कि अगर आंकड़ों को ही आधार बनाकर जंगलराज साबित करना है तो फिर यह माना जाना चाहिए कि बिहार में सबसे ज्यादा जंगलराज 2012 में था. जब औसतन हर माह 297 हत्याएं हो रही थी और यह एक रिकॉर्ड की तरह है. तब नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव के साथ नहीं बल्कि भाजपा के साथ सरकार चला रहे थे.

ज्ञानेश्वर की बातों को छोड़ भी दें तो दूसरे किस्म के आंकड़े भी बताते हैं कि बिहार में अपराध का यह सिलसिला कोई एकबारगी से बढ़ा हुआ नहीं है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ही आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2012-2013 में ही बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ाने लगी थी. 2012 की तुलना में 2013 में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध, मुख्यतया बलात्कार की घटनाओं में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई थी. 2012 में 927 रेप केस दर्ज हुए थे, जबकि 2013 में यह आंकड़ा घटने की बजाय बढ़कर 1128 पर पहुंच गया था. इसी तरह 2012 में अपहरण-फिरौती आदि की घटनाओं की संख्या 3,789 थी  जो अगले साल यानी 2013 में घटने की बजाय बढ़कर 4,419 तक पहुंच गई थी. ऐसे कई आंकड़े हैं जो यह साबित करते हैं कि बिहार में अपराध की घटनाओं में पिछले कुछ सालों से लगातार बढ़ोतरी हो रही है. आंकड़ों की बात छोड़ भी दें तो कई चर्चित घटनाओं ने भी साबित किया है कि बिहार पहले से ही बेपटरी होने की राह पर चल पड़ा है. भाजपा वाले भी पुरानी बातों को छोड़ तब से आंकड़े जुटा रहे हैं, जब उनका साथ नीतीश कुमार से छूट गया और बिहार में आम लोगों के बीच भाजपा से साथ छूटने की बजाय नीतीश कुमार द्वारा नई पारी शुरू होने के बाद बढ़े अपराधों पर बात हो रही है. नीतीश कुमार के लिए परेशानी का असल सबब यही है. उन्होंने इस बार जब से मुख्यमंत्री का पद संभाला है, भंवरजाल बढ़ता ही जा रहा है. भाजपा नेता और केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह कहते हैं, ‘अपराध की घटनाओं की प्रकृति तो देखिए. गोपालगंज जैसी छोटी सी जगह में मिठाई की दुकानवालों से रंगदारी मांगी जा रही है, नहीं देने पर सरेआम मारा जा रहा है. अंचलाधिकारी जैसे अधिकारियों से रंगदारी मांगी जा रही है. अपराध की बात को दूसरी ओर रखिए. भाजपा के साथ जब नीतीश कुमार सरकार चला रहे थे तो दो साल पहले तक राज्य का विकास दर 16 प्रतिशत था जो बाद में आधे पर यानी आठ प्रतिशत पर आ गया. इसको क्या कहेंगे?’ राधामोहन सिंह ही ऐसे सवाल नहीं उठाते. भाजपा के तमाम नेता इन दिनों रोजाना आंकड़ों के जरिये सवाल उठा रहे हैं, उछाल रहे हैं और उन बातों पर बिहार में चर्चा भी हो रही है.

नीतीश कुमार भाजपा की बातों से ज्यादा परेशान भले न हों लेकिन इस पारी में उनके लिए मुश्किलें दूसरी हैं. वे इन बातों को लेकर परेशान चल रहे हैं, ये कई बार देखा जा चुका है. दरभंगा में इंजीनियरों की हत्या के बाद ही पुलिस पदाधिकारियों की मीटिंग में जिस गुस्से में नीतीश कुमार दिखे थे, उससे साफ हुआ था कि वे इन घटनाओं से घटती हुई अपनी साख और कम होते ताप को लेकर चिंतित हैं. नीतीश कुमार लगातार कोशिश में हैं. वे दिन-रात एक कर कई विकास योजनाओं को धरातल पर उतार या घोषणा कर साबित करने की कोशिश में लगे हुए हैं कि लोगों का ध्यान काम पर ज्यादा रहे लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा. नीतीश कुमार के सामने परेशानी यह है कि उन्हें इस पारी में साबित करना है कि वे भाजपा के साथ रहें या लालू प्रसाद के साथ, उनके ताप और तप से बिहार की विधि व्यवस्था सुदृढ़ रही है, सुशासन सरकार का मुख्य मसला रहा है. लालू प्रसाद के साथ रहने पर उनके लिए यह चुनौती और बड़ी है, क्योंकि एक तरीके से बिहार में इस बात को स्थापित कर दिया गया है कि लालू प्रसाद जब सत्ता में थे तो बिहार में अपहरण, फिरौती, गुंडागर्दी वगैरह एक उद्योग की तरह था और उसे ही दूर करने के नाम पर नीतीश कुमार का उभार हुआ था. नीतीश कुमार अब लालू प्रसाद के साथ ही हैं तो उससे कितना और किस स्तर पर निपट पाते हैं, यह साबित करना होगा. बेशक यह सवाल गैरवाजिब भी नहीं है. नीतीश कुमार के लिए उनकी तीसरी पारी मुश्किलों से भरी है. सरकार चलाने के स्तर पर भले ही वे 2020 तक निश्चिंतता की मुद्रा में रहें लेकिन उन्होंने खुद ही अपनी छवि का निर्माण इस तरह का किया है और सुशासन के ‘आइकॉन’ के तौर पर खुद को स्थापित किया है, उस ‘आइकॉनिज्म’ को बनाए रखने के साथ बिहार की लड़खड़ाती लय उनके लिए बड़ी चुुुनौती है.