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केशव के हाथ कमल

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कहते हैं कि राजनीति में टोटके खूब चलते हैं. ऐसा ही एक टोटका सत्तारूढ़ भाजपा में चल रहा है. यह टोटका हिंदुत्व, पिछड़ा और चायवाला कंबिनेशन का है. लोकसभा चुनाव में ऐसे ही उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने बड़ी जीत दर्ज की तो अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ऐसे ही कंबिनेशन के सहारे जीत हासिल की जाने की तैयारी हो रही है. उप्र भाजपा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य इस कंबिनेशन पर सटीक बैठ रहे हैं. अपेक्षाकृत कम अनुभवी और दागदार छवि वाले केशव कोइरी जाति से आते हैं. वे बजरंग दल से जुड़े रहे हैं. विश्व हिंदू परिषद के संगठन में रहे हैं और एक जमाने में चाय भी बेचते रहे हैं.

गत आठ अप्रैल को जब भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उनके नाम की घोषणा की तो पार्टी कार्यकर्ता, विरोधी और राजनीतिक विश्लेषक सभी भौचक रह गए. पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए धर्मपाल सिंह, स्वतंत्रदेव सिंह, मनोज सिन्हा, दिनेश शर्मा, विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह जैसे दूसरे नेताओं के नाम की चर्चा चल रही थी, लेकिन इसके बजाय शीर्ष नेतृत्व ने केशव को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को अगले आम चुनावों के पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस बार भी नरेंद्र मोदी की सरकार बनाने में उत्तर प्रदेश का बड़ा हाथ रहा है. पार्टी ने यहां से 73 सीटों पर जीत दर्ज की है. हालांकि उसके बाद से होने वाले पंचायत चुनावों, विधान परिषद चुनावों समेत अन्य मुकाबलों में पार्टी की बुरी गत हुई है. ऐसे में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है. हालांकि विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के खेवनहार केशव की जिंदगी भी काफी उठापटक भरी रही है.

केशव प्रसाद मौर्य इलाहाबाद से सटे कौशांबी के सिराथू के कसया गांव के रहने वाले हैं. जानकार बताते हैं कि किसी जमाने में उनके पिता श्याम लाल वहां चाय की दुकान चलाते थे. केशव की प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई थी. उन्होंने पिता की चाय की दुकान में मदद करने से लेकर अखबार बेचने का काम किया. इसी दौरान एक दिन उनकी मुलाकात विहिप नेता दिवंगत अशोक सिंहल से हुई. इसके बाद से केशव का रुझान संघ की तरफ हो गया और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने संघ की शाखाओं में जाना शुरू कर दिया. सिंहल से करीबी और अपने जुनून से वे बहुत जल्द संगठन में जिला स्तर तक पहुंचने में सफल हो गए. विहिप कार्यकर्ता के रूप में केशव 18 साल तक गंगापार और यमुनापार में प्रचारक रहे.

साल 2002 में इलाहाबाद शहर पश्चिमी विधानसभा सीट से उन्होंने भाजपा प्रत्याशी के रूप में राजनीतिक सफर शुरू किया. उन्हें बसपा प्रत्याशी राजू पाल ने हराया था. इसके बाद साल 2007 के चुनाव में भी उन्होंने इसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा. पर इस बार भी उन्हें जीत तो हासिल नहीं हुई. 2012 के चुनाव में उन्हें सिराथू विधानसभा से जीत मिली. यह सीट पहली बार भाजपा के खाते में आई थी. दो साल तक विधायक रहने के बाद केशव ने फूलपुर लोकसभा सीट पर भी पहली बार भाजपा का झंडा फहराया. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में इससे पहले भाजपा को कभी जीत नहीं मिली थी.

‘केशव प्रसाद मौर्य आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृत्ति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. आप देख सकते हैं कि उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है’ 

इन सबसे अलग मौर्य का एक पहलू और भी है. लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने मई 2014 में जो हलफनामा चुनाव आयोग में जमा किया था, उसके अनुसार केशव के खिलाफ 10 आपराधिक मामले हैं. इनमें धारा 302 (हत्या), धारा 153 (दंगा भड़काना) और धारा 420 (धोखाधड़ी) के तहत लगाए गए आरोप शामिल थे. इसके अलावा हलफनामे में यह भी बताया गया है कि कभी चाय बेचने वाले केशव और उनकी पत्नी करोड़ों के मालिक हैं. केशव दंपति पेट्रोल पंप, एग्रो ट्रेडिंग कंपनी, लॉजिस्टिक कंपनी आदि के मालिक हैं. साथ ही वे इलाहाबाद के जीवन ज्योति अस्पताल में पार्टनर भी हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश जातीय राजनीति की प्रयोगशाला है. यहां सपा ने पिछड़ों के सहारे जातीय समीकरण साधकर इस बार सत्ता का सफर तय किया है तो इससे पहले बसपा ने ब्राह्मण और दलितों को एकजुट कर सत्ता हासिल की थी. कुछ ऐसा ही भाजपा केशव प्रसाद मौर्य को अध्यक्ष बनाकर करना चाह रही है. दरअसल उत्तर प्रदेश में भाजपा 2003 से सत्ता से बाहर है. इसके बाद से हर विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में तेजी से गिरावट आई है. 2002 के विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा ने 88 सीटों पर जीत दर्ज की थी वहीं 2007 में यह संख्या 51 रही तो 2012 में यह घटकर 47 हो गई. ऐसे में 12 सालों बाद प्रदेश में किसी पिछड़े की ताजपोशी कर भाजपा सत्ता हथियाना चाहती है. केशव को अध्यक्ष बनाए जाने का यह सबसे प्रबल कारण रहा.’

सियासी मुलाकात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ केशव प्रसाद मौर्य
सियासी मुलाकात : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ केशव प्रसाद मौर्य

हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी इस बात से इत्तफाक नहीं रखते हैं. वे कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्या का चुनाव किसी जाति विशेष से आने के कारण नहीं हुआ है. उनके चुनाव का कारण सिर्फ उनका हिंदू होना है. वे एक कुशल राजनेता हैं.’

कुछ ऐसी ही राय वहीं कौशांबी के सरसवां ब्लॉक के पूर्व प्रमुख और भाजपा नेता लाल बहादुर भी रखते हैं. वे कहते हैं, ‘केशव प्रसाद का चुनाव जाति के आधार पर नहीं हुआ है. उनकी ताकत संगठन को मजबूत करने और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता है. संघ और विहिप में रहने के दौरान ही केशव प्रसाद ने अपनी इस प्रतिभा को दिखा दिया था. संघ का विश्वास उनके ऊपर है. वे अपने काम को लेकर जुनूनी हैं. उनमें बहुत उत्साह है. जिस दौर में इलाहाबाद में भाजपा से लोग दूर जा रहे थे उस दौर में कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम उन्होंने किया था. इसी के बलबूते वे ऐसी जगहों पर जीतने में भी सफल रहे जहां भाजपा ने कभी जीत हासिल नहीं की थी. सिराथू विधानसभा सीट और फूलपुर लोकसभा सीट दोनों पर पहली बार भाजपा ने उन्हें ही प्रत्याशी बनाकर जीत हासिल की. पार्टी में उनकी स्वीकार्यता खूब है. वे किसी गुट विशेष से जुड़े हुए नहीं माने जाते हैं. अध्यक्ष बनने के बाद वे जहां भी गए उनका जोरदार स्वागत किया गया है. लखनऊ में कार्यकर्ताओं ने नारा लगाया- केशव मौर्या संत है, सपा-बसपा का अंत है.’

लेकिन वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा हमेशा यह कोशिश करती है कि अगड़ी और यादव के अलावा बाकी पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाया जाए. यह दीनदयाल उपाध्याय के जमाने से भाजपा की सामाजिक रणनीति रही है. जब भाजपा इसमें कामयाब हो जाती है मतलब जब उसे अगड़ी जातियों के साथ लोधी, कोइरी, कुर्मी, पटेल आदि गैर-यादव पिछड़ी जातियों का वोट मिल जाता है तो उसकी सीटों में भारी इजाफा हो जाता है. इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने अब अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया है जो कोइरी जाति का है. अब वहां कुर्मी और कोइरी को जोड़कर लव-कुश कंबिनेशन बनाया जा रहा है. अपना दल वगैरह के साथ गठबंधन करके भाजपा पहले से ही कुर्मियों को अपने साथ करने में सफल रही है. ऐसे में भाजपा यह दांव खेलकर कितनी कामयाब होगी यह कहना जल्दबाजी होगा क्योंकि सिर्फ अध्यक्ष बदलने से आप विधानसभा चुनाव जीत नहीं सकते हैं. इसके लिए आपको टिकट वितरण को ध्यान में रखना होगा. इसके अलावा विपक्षी पार्टियां अपनी रणनीति कैसी बनाती हैं यह भी देखना होगा.’

वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष के रूप में केशव प्रसाद मौर्य का चुनाव नहीं किया गया है. दरअसल इस पद पर उनकी नियुक्ति अमित शाह द्वारा की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास की कितनी भी बात करें लेकिन जब-जब अमित शाह को निर्णय लेने का मौका मिलता है तो वह सिर्फ राम मंदिर और हिंदुत्व का ही मुद्दा चलाने की कोशिश करते हैं. हालांकि वह इसमें फेल भी होते हैं, लेकिन अभी इस मुद्दे से उनका मोह गया नहीं है. अब इस फैसले में भी यह साफ नजर आता है. केशव का इतिहास देखें तो हिंदुत्व और अशोक सिंहल के करीबी होने के अलावा उन्होंने कुछ खास नहीं किया है. उन्होंने गोहत्या पर रोक लगाने के लिए एक संगठन बनाया लेकिन कौशांबी के रहने वाले लोगों का कहना है कि वह गोहत्या करने वाले लोगों को बचाने में भी खूब लगे रहे.’ 

हालांकि ऐसा नहीं रहा कि केशव प्रसाद मौर्य का विरोध नहीं हुआ. इलाहाबाद में ही भाजपा नेत्री राजेश्वरी पटेल ने उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में पार्टी से इस्तीफा दे दिया. लेकिन ज्यादातर भाजपा नेताओं ने इस घटना को ज्यादा तवज्जो नहीं दी और इस इस्तीफे को निजी रंजिश का परिणाम बताया. हालांकि इलाके में यह उनकी इकलौती रंजिश नहीं है. इसकी फेहरिस्त काफी लंबी है. जिले में जैसे-जैसे उनका कद और पद बढ़ा, उन पर मुकदमे भी बढ़ते गए. इनमें साजिश, लूट, दंगा भड़काने, धार्मिक स्थल तोड़ने, धोखाधड़ी समेत तमाम संगीन धाराओं में उन पर मुकदमे दर्ज हैं. इनमें सबसे अधिक मुकदमे दंगा भड़काने के हैं. उनके खिलाफ इलाहाबाद और कौशांबी के विभिन्न थानों में कुल दस एफआईआर दर्ज हैं.

केशव प्रसाद के खिलाफ सबसे पहले 1996 में कौशांबी के पश्चिम शरीरा थाने में दंगा भड़काने, सरकारी काम में बाधा डालने, पुलिस पर हमला, और बलवा करने का मामला दर्ज हुआ था. इसके बाद ठीक दो साल बाद इलाहाबाद के कर्नलगंज थाने में ऐसे ही मामलों में एफआईआर हुई . 2008 में कौशांबी के मोहम्मदपुर पइंसा थाने में धोखाधड़ी, जालसाजी समेत अन्य धाराओं में रिपोर्ट लिखी गई. इसी घटना के साथ एक अन्य मुकदमा किया गया है जिसमें केशव पर मोहम्मदपुर पइंसा थाने में ही धार्मिक स्थल तोड़ने, बलवा करने और दंगा भड़काने की एफआईआर दर्ज हुई. उनके खिलाफ कौशांबी में 2011 में तीन मुकदमे दर्ज हुए. पहला मंझनपुर थाने में बलवा, दंगा भड़काने समेत अन्य मामलों में दूसरा कोखराज थाने में एक मुस्लिम युवक की हत्या और साजिश के मामले में वे नामजद हुए. कोखराज थाने में भी दंगा भड़काने की एफआईआर हुई. 2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ प्रतियोगी छात्रों के आंदोलन के दौरान हुए बवाल में केशव के खिलाफ बलवा, सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाने, तोड़फोड़, पुलिस टीम पर हमला, सरकारी काम में बाधा समेत अनेक धाराओं में मुकदमा किया गया.

हालांकि मुकदमों की लंबी फेहरिस्त बताकर विरोध करने वालों को केशव ने जोरदार भाषा में जवाब दिया. लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि अन्याय के खिलाफ उनकी लड़ाई जारी रहेगी. सरकार 11 नहीं, 11 हजार मुकदमे लगा दे तब भी कोई परवाह नहीं है. वहीं इस मामले पर कौशांबी भाजपा के जिलाध्यक्ष रमेश पासी कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्य आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. आप देख सकते हैं कि उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है. मेरा मानना है कि भाजपा कार्यकर्ता अब विपक्ष का अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेगा.’

कुछ ऐसी ही बात लक्ष्मीकांत बाजपेयी भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘किसी भी पार्टी का कोई कार्यकर्ता जब किसी जिले में अपने काम की बदौलत तेजी से उभरना शुरू होता है तो वह सत्तारूढ़ दल समेत अन्य लोगों को खटकना शुरू हो जाता है. फिर उस पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न अर्जी-फर्जी मुकदमे दायर होने लगते हैं. जो इन मुकदमों से डर जाता है वह नेपथ्य में चला जाता है, लेकिन जिसने अपने शर्ट के दो बटन खोल दिए उसके उपर दो मुकदमे और दायर हो जाते हैं. वैसे भी ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ मुकदमे दायर होने से जनप्रतिनिधि नहीं बन सकता है. अगर वह जनप्रतिनिधि बन सकता है तो संगठन के लिए क्यों अयोग्य होगा?’

हालांकि बाजपेयी से जब यह पूछा गया कि आखिर भाजपा की ऐसी कौन-सी मजबूरी थी जिसके चलते वह संगठन में तमाम वरिष्ठ लोगों की मौजूदगी के बावजूद आपराधिक छवि वाले केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुनती है तो उन्होंने कहा, ‘मुझसे आप तीन वाक्य सुन लो पहला, टिट फॉर टैट; दूसरा, जैसे को तैसा और तीसरा शठे शाठ्यम् समाचरेत. अरे, सामने वाला नंगा है और आप मुझसे कह रहे हैं कि आपने लंगोट क्यों पहन लिया है. अरे, माला जपने से राजनीति नहीं होती है. राजनीति के हिसाब से चीजें बदल जाती है.’

केशव को प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा बनाया गया एक पोस्टर, जिस पर विवाद हुआ
केशव को प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा बनाया गया एक पोस्टर, जिस पर विवाद हुआ

आपराधिक छवि को लेकर 47 वर्षीय केशव का समर्थन करने वालों में सिर्फ भाजपा नेता नहीं बल्कि इलाहाबाद में रहकर सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने वाले कुछ युवा भी शामिल हैं. सिविल परीक्षा की तैयारी करने वाले अनूप तिवारी कहते हैं, ‘2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ प्रतियोगी छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ तो केशव छात्रों के समर्थन में कूद पड़े. 2015 में लोकसेवा आयोग के मुद्दे पर छात्रों का आंदोलन चल रहा था तो वे बेली अस्पताल में छात्रों से मिलने पहुंचे. इस दौरान उनकी दरोगा से कहासुनी भी हो गई थी. इसके पहले वे 2013 में सिविल लाइंस में छात्रों के साथ खड़े रहे. इन तीनों मामलों में उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज है. अब इसमें उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं हैं. जहां दूसरे नेता छात्रों के साथ खड़े नहीं होते हैं वही केशव एक आवाज देने पर हमारे साथ कहीं भी चलने के लिए तैयार हो जाते हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें इसका फायदा मिला और छात्रों ने उनके पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाया था.’

हालांकि ऐसा नहीं है कि सब केशव प्रसाद मौर्य की इस छवि से खुश हैं. चायल विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ चुके सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद रूफी कहते हैं, ‘शीर्ष भाजपा नेतृत्व केशव की छवि को कैसे भी दिखाए लेकिन इलाहाबाद में हकीकत सबको पता है. केशव ने अपराध के सहारे ही अपनी राजनीति चमकाई है. उनके उपर मामले इसलिए नहीं दर्ज हुए कि वे राजनीतिक रूप से मजबूत हो रहे थे बल्कि जितना अपराध में वे मजबूत हुए उतना ही राजनीति में उनका कद बढ़ा. गोरक्षा समेत दूसरे अभियान चलाकर उन्होंने हमेशा अल्पसंख्यकों को डराने और बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण की कोशिश की है. इलाहाबाद से मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी समेत दूसरे भाजपा नेता भी रहे हैं, लेकिन केशव इस कड़ी में सबसे कमजोर हैं. उनके नेतृत्व में भाजपा के मजबूत होने के आसार कम ही हैं. खुद उनकी अपनी ही जाति में उनका जनाधार बहुत ज्यादा नहीं है. उनका कद इतना बड़ा नहीं है कि अल्पसंख्यक उनके साथ अपने को जोड़ सकें. कुल मिलाकर केशव भाजपा के लिए फायदे का सौदा नहीं हैं.’

‘चुनाव से पहले केशव की नियुक्ति से साफ पता चलता है कि भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता है. जबकि यह साफ है कि राम मंदिर और हिंदुत्व को भुनाने का वक्त बीत चुका है. पार्टी जब-जब इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है’

वहीं शरत प्रधान कहते हैं, ‘चुनाव से पहले केशव की नियुक्ति से साफ पता चलता है कि भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता है. जबकि यह साफ है कि राम मंदिर और हिंदुत्व को भुनाने का वक्त बीत चुका है. पार्टी जब-जब इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा उपचुनावों में पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को आगे बढ़ाकर चुनाव लड़ा था लेकिन सफलता नहीं मिल पाई थी. इस दौरान जमकर हिंदुत्व, लव जेहाद और राम मंदिर जैसे मुद्दों को उछाला गया था. वैसे भी चुनाव के ठीक पहले लक्ष्मीकांत बाजपेयी को हटाकर केशव की नियुक्ति करके भाजपा भी कांग्रेस की राह पर है. कांग्रेस में पहले से ही यह कल्चर रहा है कि काम करने वाले आदमी को चुनाव के ठीक पहले हटाकर अपने आदमी को नियुक्त कर दें. यही अब अमित शाह कर रहे हैं. योगी आदित्यनाथ को उपचुनाव की बागडोर देकर हार का सामना कर चुकी भाजपा अब दूसरे योगी आदित्यनाथ यानी केशव को बागडोर सौंप रही है. मुझे आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्या में खास फर्क नजर नहीं आता है. आगामी विधानसभा चुनावों में अमित शाह की कलई खुल जाएगी.’

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता रमेश यादव कहते हैं, ‘केशव के चुने जाने से कुछ अलग होने का दावा करने वाली भाजपा का चेहरा प्रदेश की जनता के सामने खुल गया है. विधानसभा चुनाव से पहले दागी छवि वाले व्यक्ति को प्रदेश की कमान सौंपे जाने से सीधे-सीधे यह पता चलता है कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. हालांकि उत्तर प्रदेश में उनका यह दांव नहीं चलने वाला है. प्रदेश की जनता ने पिछले दो साल में केंद्र की सत्ता में भाजपा के कुशासन को देख लिया है.’

विपक्षी उनकी संपत्ति को लेकर भी सवाल उठाते रहे हैं. उनका कहना है कि चाय बेचने से अपने जीवन की शुरुआत करने वाले केशव सिर्फ दो दशक के भीतर करोड़पति हो गए. हालांकि भाजपा नेता लाल बहादुर इसके जवाब में कहते हैं, ‘विरोधियों ने केशव का जुझारूपन नहीं देखा है. वह आदमी मेहनती और उर्जा से भरपूर है. उन्होंने बिजनेस करके सारा पैसा कमाया है और खुद अपनी संपत्ति घोषित की है. उन्होंने कोई चोरी नहीं की है. उनका व्यापार इलाहाबाद समेत अन्य जिलों में फैला है. अगर आपको कुछ गड़बड़ लगता है तो जांच करा लीजिए. प्रदेश में कौन-सी हमारी सरकार है. दरअसल यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा है, जिसके जरिए जनता को भरमाया जा रहा है.’

फिलहाल प्रदेश में नेतृत्व संभालते ही केशव अपने तेवर दिखाने लगे हैं. वे अभी प्रदेश में ताबड़तोड़ दौरे कर रहे हैं और स्थानीय नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं. जल्ह ही वे आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अपनी टीम का गठन भी करने वाले हैं. प्रदेश कार्यकारिणी समेत जिला कार्यकारिणी में बड़े बदलाव किए जाने की बात भी हो रही है. वे मंदिर मुद्दे से तो परहेज कर रहे हैं लेकिन प्रदेश में रामराज्य लाने की बात कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर भी सक्रिय केशव ने मिशन 265 प्लस को अपना एजेंडा बना लिया है. जीत के लिए सपा-साफ, बसपा-हाफ और बीजेपी ऑन ‘टॉप’, सपा-बसपा मुक्त उत्तर प्रदेश जैसे जुमले भी गढ़े जा रहे हैं.

हालांकि इस सबके बावजूद विश्लेषक भाजपा और केशव की राह को कांटों भरी ही बता रहे हैं. डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्य के सामने चुनौती काफी बड़ी है और उनका कद काफी छोटा है. प्रदेश की कुल 20-25 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखने वाले व्यक्ति को मिशन 265 प्लस की जिम्मेदारी सौंपा जाना समझ से परे है. प्रदेश में लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा समर्थकों में कमी ही आई है. इसमें इजाफा नहीं हुआ है. हालांकि केशव जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए सबसे मुफीद हैं, लेकिन बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रूहेलखंड, मध्य यूपी और अवध जैसे अलग-अलग हिस्सों में वे कैसे प्रभाव जमाएंगे यह देखने वाली बात होगी. पूरे प्रदेश में आप एक नारे से जीत नहीं हासिल कर सकते हैं. हर जगह अपने स्थानीय मुद्दे और समीकरण हैं जिन्हें साधकर चलना होगा. हालांकि अभी तक भाजपा पिछली विधानसभा में हासिल की गई सीटों में सिर्फ 10-20 सीटों का इजाफा करती नजर आ रही है. इसे बहुमत तक पहुंचाना केशव, अमित शाह और संघ सभी के लिए चुनौतीपूर्ण है.’            

खेती में लिंगभेद के बीज

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सभी फोटो : विजय पांडेय

स्कूूल के दिनों में हम सबने ‘अपना देश भारत’ या ‘हमारा देश भारत’ विषय पर निबंध जरूर लिखा होगा. यह निबंध एक किस्म के आध्यात्मिक अनुष्ठान की तरह होता था, लिखा ही होगा. जहां तक मुझे याद है इसका एक शुरुआती वक्तव्य होता था- भारत एक कृषि प्रधान देश है. निबंध का विषय आज भी बना हुआ है, किंतु यह वक्तव्य मृत्युशैया पर पड़ा हुआ है. अब भी जबकि भारत की 48.17 करोड़ की कामकाजी जनसंख्या में से 26.30 करोड़ लोग खेती पर सीधे-सीधे निर्भर हैं (जनगणना 2011), वहां विकास की नीति का मूल मकसद यह है कि खेती क्षेत्र से लोगों को बाहर निकलना है. तर्क यह है कि खेती पर बहुत ज्यादा बोझ है और लोगों को दूसरे क्षेत्रों में रोजगार खोजना चाहिए.

ऐसे में पांच अहम बातों को छिपाकर रखा जाता है. पहला- अगर लोग खेती छोड़ेंगे तो कंपनियों या औद्योगिक समूहों को इसमें निर्णायक दखल देने का मौका मिल जाएगा. दूसरा- जब खेतिहर समाज उत्पादन से दूर होगा, तो वह अपनी खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार में आएगा, जहां उसे राज्य का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा. उसकी जिंदगी ठेके पर संचालित होगी. तीसरा- कृषि एक व्यापक व्यवस्था है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों (जंगल, पशुधन, जल स्रोत, जमीन, पहाड़ आदि) का जुड़ाव अंतर्निहित है. जब समाज का रिश्ता खेती से टूट जाएगा, तब इन संसाधनों का खनिज संपदा और भीमकाय औद्योगिकीकरण के लिए ‘बेतहाशा’ शोषण करना आसान हो जाएगा. चौथा- जब हम समाज को संगठित और असंगठित क्षेत्र में बांटते हैं, तब यह भूल जाते हैं कि समाज अपने आप में असंगठित नहीं है. जब राज्य अपने दायरे का व्यापक तौर पर विस्तार करके खेती-संसाधनों-सामाजिक व्यवहार को अपने कब्जे में कर लेने की नीति पर काम करता है, तब समाज का सबसे ज्यादा संगठित हिस्सा अपने आप असंगठित की श्रेणी में आ जाता है, क्योंकि उसका अपने संसाधनों पर नियंत्रण खत्म हो जाता है. और एक समूह, जो हमेशा इस फिराक में रहता है कि किस तरह से सामाजिक-आर्थिक-प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हासिल किया जाए, वह एकदम से ‘संगठित’ क्षेत्र का आकार ले लेता है. पांचवां- जब यह सवाल पूछा जाता है कि रोजगार कहां है और सरकार क्यों आजीविका सुरक्षित नहीं करती; तो अचानक विवादित बयान आने लगते हैं, दंगे भड़क जाते हैं और मीडिया मूल सवाल छिपा देता है.

ऐसा नहीं है कि खेती में सब कुछ अच्छा ही चलता रहा है. वहां भी कुछ मूल विषय छिपाए जाते रहे हैं. भारत पर लिखे जाने वाले अपने निबंधों में हमने भी शायद यह कभी उल्लेख नहीं किया होगा कि खेती और उससे जुड़े कामों में हमारे घर-समाज की महिलाओं की भूमिका सबसे अहम रही है. इस नजरिये पर कोई शंका नहीं की जा सकती है कि जिस तरह की भूमिका महिलाओं ने कृषि में निभाई है, उनके बिना खेती के होने और बने रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

16 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घर की जिम्मेदारियां’ निभाना है. इसे हमारे समाज में भावनात्मक काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए कभी ये ‘श्रमिक’ हड़ताल पर नहीं जाती हैं. परंतु आप कल्पना कीजिए कि अगर इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा?

श्रम का असमान विभाजन और लैंगिक आधार पर अमान्यता

ईयू-एफटीए एेंड द लाइकली इम्पैक्ट आॅन इंडियन विमेन; सेंटर फाॅर ट्रेड एेंड डेवलपमेंट के अनुसार, भारत में कुल कामकाजी महिलाओं में से 84 प्रतिशत महिलाएं कृषि उत्पादन और इससे जुड़े कार्यों से आजीविका अर्जित करती हैं. चाय उत्पादन में लगने वाले श्रम में 47 प्रतिशत, कपास उत्पादन में 48.84 प्रतिशत, तिलहन उत्पादन में 45.43 प्रतिशत और सब्जियों के उत्पादन में 39.13 प्रतिशत का सीधा योगदान महिलाओं का होता है. मानव समाज में श्रम के असमान बंटवारे और उसके भेदभाव मूलक महत्व के निर्धारण के जरिये लैंगिक भेदभाव को स्थापित किया गया है. खेती के घरेलू काम में महिलाएं सबसे ज्यादा श्रम वाला काम करती हैं, किन्तु उनके काम को मान्यता नहीं दी जाती है और उस काम के जरिए किए जाने वाले आर्थिक योगदान को ‘नगण्य’ मान लिया जाता है. रोल आॅफ फार्म विमेन इन एग्रीकल्चर एेंड लेसंस लर्न्ड (सेज पब्लिकेशन) की ओर से समय के उपयोग पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय महिलाएं सप्ताह में 25 घंटे अपने घर के काम के लिए श्रम करती हैं. इसके साथ ही पांच घंटे देखभाल और सामुदायिक काम में लगाती हैं. इसके बाद वे 30 घंटे ‘बिना भुगतान का श्रम’ करती हैं.  

दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन चुके भारत देश में अब तक घरेलू जिम्मेदारियां निभाने के लिए किए गए श्रम और काम को नीतिगत स्तर पर कोई सामाजिक-आर्थिक मान्यता नहीं मिली है. पहले समाज तय करता है कि घर का काम करना स्त्री की जिम्मेदारी है और फिर यह तय भी कर दिया जाता है कि इस काम का कोई ‘मोल’ नहीं होगा. लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि अगर आर्थिक पैमानों पर समाज में महिलाओं के नियमित घरेलू काम का ही आकलन करें तो प्रचलित कुशल मजदूरी की न्यूनतम दर (भारत के राज्यों की औसत मजदूरी) के आधार पर उनके काम का सालाना आर्थिक मूल्य (16.29 लाख करोड़ रुपये) भारत सरकार के सालाना बजट (वर्ष 2013-14 के बजट का संशोधित अनुमान 15.90 लाख करोड़ रुपये था) से अधिक होता है.

यह काम करने वालों के लिए कोई अवकाश नहीं होता है. यह समूह संगठित और असंगठित श्रम की अवधारणाओं से ऊपर है. 16 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घर की जिम्मेदारियां’ निभाना है. इसे हमारे समाज में भावनात्मक काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए कभी ये ‘श्रमिक’ हड़ताल पर नहीं जाती हैं. परंतु आप कल्पना कीजिए कि अगर इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा? घर में खाना न बनेगा, सफाई न होगी, बच्चों की देखभाल न हो पाएगी, कपड़े धुल न पाएंगे, मेहमाननवाजी न हो पाएगी. इस तर्क को लैंगिक भेदभाव के नजरिये से न भी देखें, तो भी उस भूमिका को मान्यता दी जानी चाहिए. उनके इस योगदान को खारिज करने का मतलब है घरेलू श्रम की उपेक्षा और महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक न्याय के हकों का सुनियोजित उल्लंघन.

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कृषि की मौजूदा स्थिति
21वीं सदी का पहला दशक हमारे समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौतियां लाया है. सरकार उस नीति में सफल होती दिखाई दे रही है, जिसे लागू करके वह खेती से लोगों को दूर करना चाहती थी. इस शुरुआती दशक में भारत में कुल कामकाजी जनसंख्या में 8 करोड़ का इजाफा हुआ, किंतु खेती से जुड़े लोगों को आजीविका के अपने संसाधन त्यागने पड़े. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ लोग किसान की श्रेणी में आते थे, यानी कृषि उत्पादन का काम कर रहे थे. वर्ष 2011 में इनकी संख्या में 86.2 लाख की कमी आई. हर रोज 2368 किसानों को खेती का साथ छोड़ना पड़ा. अकेले उत्तर प्रदेश में 31 लाख किसानों ने खेती छोड़ी. पंजाब में 13 लाख, हरियाणा में 5.37 लाख, बिहार में 9.97 लाख, मध्य प्रदेश में 11.93 लाख और आंध्र प्रदेश में 13.68 लाख किसानों ने खेती को त्यागा.
इसका दूसरा पहलू ज्यादा भयावह और दर्दनाक है. इन्हीं दस साल में खेतिहर मजदूरों की संख्या में 3.75 करोड़ की बढ़ोतरी हुई. महाशक्ति का मुखौटा ओढ़ रहा भारत हर घंटे 430 कृषि मजदूर पैदा करता है. उत्तर प्रदेश में दस साल में कृषि मजदूरों की संख्या में 1.25 करोड़ का इजाफा हुआ. बिहार में 49.27 लाख, आंध्र प्रदेश में 31.35 लाख और मध्य प्रदेश में 47.91 लाख कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है.

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हमारी कुल जनसंख्या को दो भागों में बांटा जाता है- कार्यशील जनसंख्या और अकार्यशील जनसंख्या. जो पूरे समय या अंशकालिक रूप से आर्थिक उत्पादन से जुड़े हैं, वे कार्यशील माने जाते हैं. अकार्यशील जनसंख्या वह मानी गई जिसने किसी तरह का काम नहीं किया. इसमें ये शामिल हैं- विद्यार्थी, भिखारी, आवारा और घरेलू जिम्मेदारी निभाने वाला समूह. जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में कुल 72.89 करोड़ लोगों को अकार्यशील माना गया है. आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक ये वे लोग हैं जिन्होंने संदर्भ समय में कोई और किसी भी तरह का काम नहीं किया है. ये वो लोग हैं जिनके काम या गतिविधि को आर्थिक योगदान करने वाली गतिविधि नहीं माना जाता है. इन 72.89 करोड़ अकार्यशील लोगों में से 16.56 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके जीवन में मुख्य काम ‘घरेलू जिम्मेदारियां’ निभाना रहा है. सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनमें से 15.99 करोड़ यानी 96.50 फीसदी महिलाएं हैं. ताजा जनगणना 2011 के आंकड़ों से पता चलता है कि मुख्य काम के तौर पर केवल 34.49 लाख पुरुष (3.5 प्रतिशत) ही घरेलू जिम्मेदारियां निभाते हैं. महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियां (खाना, बर्तन, कपड़े धोना, देखभाल, पानी भरना, सफाई आदि) निभाती हैं, पर उन्हें कामगार नहीं माना गया.

महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैं कि हर महिला कामकाजी है, फिर वह चाहे आय अर्जित करने के लिए श्रम करे या फिर परिवार-घर को चलाने-बनाने के लिए. इस हिसाब से मातृत्व हक हर महिला का हक है. माउंटेन रिसर्च जर्नल में उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था. इसका विषय था- परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओं का योगदान. इस अध्ययन में महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं, पर जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन 9 घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे काम कर रही थीं. अगर तात्कालिक सरकारी दर पर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता तो पुरुष को 128 रुपये प्रतिदिन और महिला को 228 रुपये प्रतिदिन प्राप्त होते. जब इनमें से कुछ कामों की कीमत का आकलन बाजार भाव से किया गया तो पता चला कि लकड़ी, चारे, शहद, पानी और सब्जी लाने के लिए साल भर में परिवार को 34,168 रुपये खर्च करने पड़ते. 

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कृषि क्षेत्र में महिलाएं

व्यापक तौर पर समाज में महिलाओं की स्थिति को जांचने के लिए एक महत्वपूर्ण पैमाना है उनकी सहभागिता और उनके योगदान को मान्यता दिया जाना. जब हम कृषि क्षेत्र में लगी जनसंख्या (जो श्रम कर रहे हैं, उनकी संख्या) में महिलाओं की संख्या का आकलन करते हैं, तब पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में आए संकट का उन पर गहरा असर पड़ा है.

किसानी का श्रम करने वालों में महिलाएंः इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि कृषि में महिलाओं की बराबर की भूमिका और योगदान है, पर उन्हें मान्यता नहीं दी जाती है. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ किसान (कृषि उत्पादक) थे. इनमें से 4.19 करोड़ (33 प्रतिशत) महिलाएं थीं. वर्ष 2011 में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में और कमी आई और यह घटकर 3.60 करोड़ (30.3 प्रतिशत) रह गई.

राज्य की स्थिति देखने पर हमें पता चलता है कि खाद्यान्न उत्पादन में नाम कमाने वाले पंजाब में कृषि श्रम करने वालों में केवल 14.6 प्रतिशत महिलाएं थीं. यह संख्या भी दस साल में घटकर 9.36 प्रतिशत रह गई. मध्य प्रदेश में 37.6 प्रतिशत महिलाएं किसान थीं, जो घटकर 33 प्रतिशत रह गईं. बहरहाल इससे हम अंतिम रूप से यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल सकते हैं कि मुख्य काम के रूप में पंजाब में महिलाएं किसानी का काम नहीं कर रही हैं. इसका मतलब यह है कि किसान के रूप में उनकी भूमिका और योगदान को पहचाना नहीं जा रहा है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्च सामाजिक-आर्थिक तबकों में महिलाओं का अस्तित्व तुलनात्मक रूप से ज्यादा उपेक्षित होता है.

वर्ष 2001 में किसानी का काम करने वालों में सबसे बेहतर स्थिति राजस्थान (46 प्रतिशत महिलाएं) और महाराष्ट्र (43.4 प्रतिशत महिलाएं) की थी. इन दोनों राज्यों में भी महिला किसानों की संख्या में कमी आई है.

खेती छोड़ने वालों में महिलाएं ज्यादाः इन दस सालों में जिन 86.20 लाख किसानों ने खेती छोड़ी, उनमें से 59.10 लाख (68.5 प्रतिशत) महिलाएं थीं. हरियाणा में खेती छोड़ने वाले 5.37 लाख किसानों में से 87.6 प्रतिशत (4.70 लाख) महिलाएं थीं. इसी तरह मध्य प्रदेश में ऐसे 11.93 लाख किसानों में से 75.5 प्रतिशत (9 लाख) महिलाएं थीं.

गुजरात में पुरुष किसानों की संख्या में 3.37 लाख की वृद्धि हुई, किंतु महिला किसानों की संख्या में 6.92 लाख की कमी हो गई. केवल राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहां किसानों (महिला-पुरुष) की संख्या में 4.78 लाख की वृद्धि हुई.  झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां 1.14 लाख पुरुषों ने खेती छोड़ी है, किंतु इस काम में 39 हजार महिलाएं जुड़ी हैं.[/symple_box]

कृषि और महिलाएं यानी बेदखली

पूरे भारत में महिलाएं खेती के लिए जमीन तैयार करने, बीज चुनने, अंकुरण संभालने, बुआई करने, खाद बनाने, खरपतवार निकालने, रोपाई, निराई-गुड़ाई, भूसा सूपने और फसल की कटाई का काम करती हैं. वे ऐसे कई काम करती हैं जो सीधे खेत से जुड़े हुए नहीं हैं, पर कृषि क्षेत्र से संबंधित हैं. मसलन पशुपालन का लगभग पूरा काम उनके जिम्मे होता है. जहां मछली पालन होता है, वहां उनकी भूमिका बहुत अहम होती है. घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और मान्यता नहीं है. इस सबके बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिलता है. खेती के काम में लिए जाने वाले निर्णयों में उनकी सहभागिता लगातार कम हुई है खास तौर पर तब से, जब से संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग और मशीनीकरण की व्यवस्था खेती की स्थानीय तकनीकों पर हावी हुई है. बाजार की परिभाषा में किसान होने की पहचान इस बात से तय होती है कि जमीन का आधिकारिक मालिक कौन है. इस बात से नहीं कि उसमें श्रम किसका लग रहा है.

फरवरी 2014 में जारी हुई कृषि जनगणना (2010-11) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थिति में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोतें महिलाओं के नाम पर हैं. स्वाभाविक है कि इस कारण से ‘कृषि क्षेत्र’ में उनकी निर्णायक भूमिका नहीं है. यह महज एक प्रशासनिक मामला नहीं है कि जमीन केे कागज पर किसका नाम है; वास्तव में यह एक आर्थिक-राजनीतिक विषय है, जिस पर सरकार कानूनी पहल नहीं कर रही है, क्योंकि उसका चरित्र भी तो पितृ-सत्तात्मक ही है.

घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और पहचान नहीं है

समाज जानता है कि पुरुषों की तुलना में खेती महिलाओं के लिए संसाधन से ज्यादा सम्मान, जिम्मेदारी और भावनाओं का केंद्र है. कृषि जनगणना के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 में कृषि जोतों की संख्या 12.92 करोड़ थी. जो वर्ष 2010-11 में बढ़कर 13.83 करोड़ हो गई, लेकिन कृषि भूमि में तो इजाफा हुआ नहीं. वास्तव में भूमि सुधार न होने और असमान वितरण के बाद अब भूमि अधिग्रहण के कारण जोतों के आकार लगातार छोटे हो रहे हैं. वर्ष 1970-71 में भारत में जोतों का औसत आकार 2.28 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2010-11 में घटकर 1.15 हेक्टेयर रह गया है. कुल किसानों में से 85.01 प्रतिशत किसान वे हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है, जो छोटे और सीमांत किसान कहलाते हैं. ऐसी स्थिति में जरूरी हो जाता है कि समाज उन तकनीकों से खेती करे जिनसे उत्पादन बढ़े, किंतुु मिट्टी और उसकी उर्वरता को नुकसान न पहुंचे. हरित क्रांति के जरिए थोपी गई तकनीकों, बीजों, रसायनों के कारण छोटी जोतों पर खेती करना नुकसानदायक ‘कर्म’ होता गया. जरा सोचिए कि जब 85 प्रतिशत किसान छोटे और मझौले हों, तब क्या खेती को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों के हवाले किया जाना उचित और नैतिक है?

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तथ्यों में झांकने से पता चलता है कि विकास की मौजूदा नीति न केवल कृषि क्षेत्र के लिए घातक है, बल्कि इससे पैदा होने वाले अभावों और असुरक्षा के चलते लैंगिक भेदभाव की खाई और चौड़ी होती जाएगी (देखें बॉक्स). गैर-बराबरी को बढ़ाना विकास के मौजूदा दृष्टिकोण का मूल चरित्र है.

भारत में आज भी सभी महिलाओं को मातृत्व, स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार मयस्सर नहीं है. कृषि क्षेत्र (किसान और कृषि मजदूर दोनों ही संदर्भों में) में काम करने वाली महिलाओं के सामने एक तरफ तो सूखा, बाढ़, नकली बीज-उर्वरक-कीटनाशक-फसल के मूल्य का अन्यायोचित निर्धारण सरीखे संकट हैं ही इसके साथ ही उन्हें हिंसा-भेदभाव से मुक्ति और मातृत्व हक जैसे बुनियादी संरक्षण नहीं मिले हैं. वास्तव में हमें अपने विकास की धारा का ईमानदार आकलन करने की जरूरत है. बेहतर होगा कि यह आकलन लैंगिक बाल केंद्रित दृष्टिकोण से किया जाए. हम संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता चाहते हैं किंतु अपने किसानों की सुरक्षा तो कर नहीं पा रहे हैं. इससे आप अंदाजा लगा लें कि जिन सालों में देश की वृद्धि दर सबसे उल्लेखनीय मानी गई, उन सालों में समाज को क्या हासिल हो रहा था.  

बुत को पूजते हैं पर इंसानियत की कीमत पता नहीं

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ये घटना बीते साल की है. हमारे शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक छोटा पर प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर है, जहां हर महीने की 17 तारीख को मेला लगता है. इस मेले में आसपास के क्षेत्रों के लोग अच्छी-खासी संख्या में जुटते हैं. मंदिर बहुत बड़ा और व्यवस्थित नहीं है, श्रद्धालु ही खुद व्यवस्थापक की भी भूमिका निभाते हैं. ये जुलाई या अगस्त का महीना था. मानसून की बौछारों के बाद तेज धूप निकली थी. गर्मी और उमस अपने चरम पर थी. वैसे तो यहां ज्यादा भीड़ नहीं होती पर चंूकि ये सावन के दिन थे इसलिए श्रद्धालुओं की भीड़ का कोई ठिकाना नहीं था.

उस दिन शिव को जल चढ़ाने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी हुई थी. उनकी सुविधा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जगह-जगह बैरिकेड लगाए गए थे, कुछ सुरक्षाकर्मी भी व्यवस्था में लगाए गए थे. दर्शन करने जाने के लिए कई कतारें लगी हुई थीं. ये कतारें आसमान में सूरज चढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जा रही थीं. हर कुछ देर में ‘बम-बम भोले’  औैर ‘हर-हर महादेव’ के स्वर मंदिर को गुंजायमान कर रहे थे. लोग इतनी गर्मी में अपना धैर्य बनाए रखने के लिए शायद जोर-जोर से जयकारे लगा रहे थे. कई लोग बैरिकेड लांघकर आगे निकलने की कोशिश में भी थे पर सुरक्षाकर्मियों की मुस्तैदी के चलते सफल नहीं हो पा रहे थे. मंदिर से दर्शन करके निकलने के लिए भी लाइन लगी थी.

दुनिया में तमाम धर्म हैं पर आज जिंदगी के पचास-पचपन साल देखने के बाद भी मुझे मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं लगता

मैं अपनी एक परिचित के साथ थी और हम दर्शन कर चुके थे. मंदिर से निकलने वाली कतार में लगे हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे कि तभी अचानक पीछे से कुछ शोर सुनाई दिया. इतनी धक्का-मुक्की और भीड़ में हमें लगा कोई जेबकतरा या चेन स्नेचर मौके का फायदा उठा ले गया पर यहां माजरा कुछ और ही था. मंदिर में दर्शन करने के लिए लगी कतार में एक महिला भीषण गर्मी और उपवास के कारण गश खाकर गिर गई थी. हमें लगा उसके साथ कोई संगी-साथी तो होगा पर ऐसा नहीं था. पीछे से किसी ने बताया कि वो महिला अकेली है क्योंकि गिरने के बाद उसकी मदद के लिए कोई नहीं आया. यहां तक कि पास खड़े लोगों ने भी उनकी मदद करना जरूरी नहीं समझा. हम दोनों ही ये सुनकर पीछे मुड़े पर भीड़ के रेले ने पलटकर जाने का मौका नहीं दिया.

भीड़ में से ही इतना देख पाए कि वो महिला जमीन पर गिरी हुई थी और लोग उसको लांघते हुए दर्शन करने के लिए बढ़े जा रहे थे. जिस जगह वो महिला थी, हम दोनों ही उस जगह से विपरीत लाइन में काफी दूर थे और उलटी दिशा में निकलकर जाने का कोई रास्ता नहीं था. ऐसी कोई कोशिश भी करते तो वहां की व्यवस्था में खलल पड़ने का डर था. उसे असहाय देखते रहने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. हम उसकी मदद न कर पाने की विवशता में पलटकर देखते और दूसरी तरफ की लाइन में लगे लोगों से कहते कि कोई जाकर उसकी मदद तो कर दे पर कोई फायदा नहीं हुआ. इसी रेलमपेल में हम मंदिर प्रांगण से बाहर आ गए.

फिर पलटकर देखा तो शायद किसी सुरक्षाकर्मी या रहमदिल ने उसे उठाकर पेड़ के नीचे बैठा दिया था. वो पानी पी रही थी. देखकर थोड़ा सुकून मिला. पर इस वाकये ने सोचने पर मजबूर कर दिया. लोगों के लिए इंसान से ज्यादा कीमत उस मूर्ति, उस बुत की थी जिसे हम सब भगवान कहते हैं. श्रद्धालुओं की आस्था सिर्फ भगवान के दर्शन में थी पर क्या उनकी ईश्वर में इस आस्था के सामने इंसानी जान या इंसानियत की कीमत कम थी! किसी पुण्य की आशा में भगवान को पूजना पर किसी को दुख में देखते हुए भी उसकी मदद न करना… ये सत्कर्म या पूजा का कौन-सा रूप है?

दुनिया में तरह-तरह के विश्वासों को मानने वाले लोग हैं. सभी के पास अपने तर्क हैं पर आज जिंदगी के पचास-पचपन साल देखने के बाद भी मुझे मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं लगता.  

(लेखिका गृहिणी हैं और उत्तर प्रदेश के रामपुर में रहती हैं)

सियासी शराब

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बिहार में एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो एक जमाने में लालू यादव के काफी करीबी रहे हैं. शराबबंदी के आदेश के दिन संयोग से उनके साथ ही था. वे एक किस्सा सुनाते हैं. उन दिनों का किस्सा जब लालू यादव का बिहार में नया-नया उभार हो रहा था. उन्हें सत्ता मिल गई थी और मुख्यमंत्री बनने के कुछ माह के अंदर ही लालू सासाराम पहुंचे थे. भारी भीड़ थी. लालू मंच पर गए. तब समाज की नब्ज पकड़ने की उस्तादी सीख रहे थे लालू प्रसाद. उन्होंने अचानक ही मंच से पूछा कि यहां कौन-कौन है जो ताड़ के पेड़ पर चढ़ता है. हाथ उठाओ. भीड़ में सहमते हुए कुछ लोगों ने हाथ उठाया. लालू प्रसाद ने ललकार भरी, डरो नहीं, हाथ उठाओ. हाथों की संख्या कुछ और बढ़ी. लालू ने कहा कि सब इधर मंच पर आओ. हाथ उठाने वाले कुछ लोग मंच के पास बनी सीढ़ी के पास खड़े हो गए. लालू प्रसाद ने ललकारा, ‘ सीढ़ी से आओगे! नाम हंसाओगे! सामने से मंच पर चढ़ो.’ जो सीढ़ियों के पास थे, वे मंच के सामने गए और मंच पर चढ़ गए. लालू प्रसाद ने सबको मंच पर खड़ा किया. सबके कुरते के बटन को सामने से खोलने को कहा. फिर ताड़ के पेड़ पर चढ़ने से बने दाग को भीड़ को दिखाया. लालू ने कहा, ‘लालू जादव इसी दाग को मिटाने आया है. जाओ आज से ताड़ी टैक्स फ्री हुई.’

जिस समय की यह बात है, उस समय मीडिया का इतना विस्तार नहीं था. न तो इतने क्षेत्रीय चैनल थे, न सोशल मीडिया का जमाना. मोबाइल युग का सूत्रपात भी नहीं हुआ था. फोन भी तब इतने नहीं थे लेकिन सासाराम की यह बात शाम होते-होते तक पूरे बिहार में फैल गई और लालू प्रसाद एक बड़े तबके के लिए नायक बन गए. इस बार जब एक अप्रैल से देसी शराब पर प्रतिबंध की पूर्व घोषित योजना पर अमल शुरू हुआ और उसके चार दिन बाद ही विदेशी शराब पर भी प्रतिबंध लगा तो यह बात हवा में उड़ी कि ताड़ी को भी प्रतिबंधित कर दिया जाए जबकि ऐसा हुआ नहीं. नीतीश कुमार की कैबिनेट ने यह फैसला लिया कि ताड़ी सार्वजनिक जगहों पर नहीं बिकेगी और खुलेआम नहीं बिकेगी. शराबबंदी की बात तो सबको समझ में सीधे-सीधे आ गई कि देसी हो या विदेशी शराब, जो भी बेचेगा, पिएगा, उसे पकड़ लेना है. शराब जहां मिले, उसे जब्त कर लेना है, सड़कों पर बहा देना है. पुलिसवाले यह भी समझ गए कि अगर कोई शराब बेचते या बनाते हुए मिलता है तो उसे समझाना है कि 10 लाख रुपये तक का जुर्माना और दस साल तक की सजा हो सकती है. सार्वजनिक जगहों पर पीकर कोई बौराता है तो उसे दस साल तक की सजा दी जा सकती है. पुलिसवाले को यह भी समझ में आ गया था कि कैंपस या घर आदि में जमावड़ा लगाकर कोई पीने-पिलाने का प्रबंध करता है तो उसे भी बताना है कि दस साल की सजा और उम्रकैद तक हो सकती है. पुलिसवाले यह सब समझ गए लेकिन वे ताड़ी का पेंच समझ नहीं सके इसलिए अगले दिन से ताड़ी उतारने वाले चौधरियों को भी पकड़ने लगे, परेशान करने लगे. दो-चार दिन तक यह होता रहा और बिहार में शराबबंदी पर जितनी बात हुई, जितनी खुशी हुई, उतनी ही नाराजगी एक बड़े वर्ग में ताड़ी को लेकर हुई कार्रवाइयों से व्याप्त हो गई.

ताड़ी के धंधे में लगे लोगों ने कहा कि लालू प्रसाद ही हमारे मसीहा थे, नीतीश तो दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहे हैं. कुछ दिनों बाद ताड़ीवालों को परेशान करना छोड़ दिया गया लेकिन यह बात चूंकि तेजी से फैल चुकी थी इसलिए शराबबंदी के कुछ दिनों बाद नीतीश कुमार को भी बोलना पड़ा. उन्होंने कहा था, ‘हम जल्द ही ताड़ और ताड़ी का नया इस्तेमाल करने जा रहे हैं. रोजगार के सृजन का नया द्वार खोलने जा रहे हैं. सूर्योदय से पहले की ताड़ी सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होती है इसलिए सुबह-सुबह की ताड़ी सभी जगहों से जमा होगी और फिर उसका प्रसंस्करण होगा, उसे बोतलबंद किया जाएगा जो ‘नीरा’ नाम से पूरे बिहार में बिकेगी.’

‘शराबबंदी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह नीतीश के लिए अग्निपरीक्षा है. पुलिसवाले चाहेंगे, तभी यह सफल होगा और पुलिसवाले ऐसा आसानी से चाहेंगे, इसमें संदेह है’

शराबबंदी के प्रसंग में ताड़ी पर यह बात इसलिए कि महज पांच दिन में यह पता लग गया कि शराबबंदी का बिहारियों की सेहत और आर्थिक नफा-नुकसान से चाहे जिस किस्म का रिश्ता हो लेकिन इसका सियासत से भी उतना ही गहरा रिश्ता है लेकिन सियासी रिश्ते सतह पर नहीं हैं. बात सिर्फ ताड़ी पर नहीं हुई, पहले सिर्फ देसी शराब पर प्रतिबंध लगाने के ठीक चार दिन बाद ही जिस तरह से नीतीश कुमार ने विदेशी शराब पर भी प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया, बिहार में शराबियों के मुंह से चाहे जितनी गालियां निकली हों, शराब का विरोध करने वालों ने चाहे जितनी वाहवाही दी लेकिन बिहार की सियासत को जो समझते हैं, उन्होंने प्रतिक्रिया दी थी कि जनता की नब्ज पकड़ने के मामले में नीतीश अब लालू से ज्यादा उस्ताद हो गए हैं और उन्होंने शराबबंदी के जरिए एक ऐसा तीर चलाया है जिससे एक साथ कई निशाने सधेंगे. जो यहां की सियासत को समझते हैं, वे यह भी जानते हैं कि नीतीश ने शराबबंदी का एजेंडा चुनाव के पहले क्यों सामने लाया और चुनाव होने और परिणाम आने के बाद सबसे पहले ठोस फैसले के रूप में शराबबंदी को ही क्यों लागू किया.

मीनापुर के पूर्व राजद विधायक हिंद केशरी यादव कहते हैं, ‘नीतीश जी ने ये फैसला अचानक लिया है. स्वागत है लेकिन इस शराबबंदी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह उनके लिए अग्निपरीक्षा है. उनके पुलिसवाले चाहेंगे, तभी यह सफल होगा और पुलिसवाले आसानी से चाहेंगे, इसमें संदेह है. मैं तो वर्षों से शराबबंदी अभियान चलाता रहा, चार साल पहले मुझे जिला प्रशासन और पुलिस के तमाम बड़े पदाधिकारियों के बीच में ही शराबबंदी अभियान के तहत पदयात्रा निकालने के कारण शराब माफियाओं ने मारा-पीटा. मेरे साथ महिलाओं को मारा-पीटा गया था. अभियान में शामिल एक गर्भवती महिला को इतना पीटा गया कि उनका अबॉर्शन कराना पड़ा. हमने नामजद एफआईआर कराई लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई.’

हिंद केशरी कांग्रेसी कुल के नेता रहे हैं. बाद में राजद से जुड़े और विधायक बने. अब राजद, कांग्रेस सब नीतीश कुमार के साथ हैं इसलिए वे खुलकर कुछ नहीं बोल रहे. हिंद केशरी की मजबूरी है, इसलिए वे जो कहना चाह रहे हैं वह कह नहीं पा रहे लेकिन बिहार के जानकार लोग जानते हैं कि इसके निहितार्थ क्या हैं. निहितार्थ गहरे न होते तो शराब के कारोबार पर प्रतिबंध लगाने का फैसला एक झटके में नहीं लिया गया होता. एक झटके में 500 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान उठाने को कोई भी यूं ही तैयार नहीं हो जाता. बहरहाल इस प्रतिबंध के निहितार्थ सरल हैं. नीतीश दो साल पहले जब भाजपा से अलग होकर लालू प्रसाद के साथ जा मिले थे तो यह कोई साधारण राजनीतिक फैसला नहीं था. नीतीश के राजनीतिक जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी इस नए सियासी समीकरण को साध लेना और खुद को फिर से स्थापित कर लेना. उन्होंने ऐसा साबित किया और यह सब जानते हैं कि यह सब सिर्फ लालू से जुड़ाव या भाजपा की कमजोर रणनीतियों की वजह से नहीं हुआ बल्कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका बिहार के महिलाओं की रही जिन्होंने नीतीश कुमार को खुलकर वोट किया और नीतीश को बड़ी जीत दिलवाने में अहम भूमिका निभाई. महिलाओं का इस तरह एकमुश्त खुलकर नीतीश को वोट देने के पीछे कई कारण माने जाते हैं.

संभावना है कि साइकिल वितरण और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद शराबबंदी का फैसला सभी वर्गों की महिलाओं को नीतीश से जोड़ेगा

बताया जाता है कि नीतीश ने महिलाओं को पंचायत चुनाव में आरक्षण दिया इसलिए महिलाएं उनकी मुरीद हुईं. एक बड़ा तबका यह मानता है कि चूंकि नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल दी इसलिए भी महिलाएं प्रभावित हुईं. पहली खेप में साइकिल पाने वाली लड़कियां भी अब वोटर हो चुकी हैं, इसलिए भी उनके महिला वोट में इजाफा हुआ है. लेकिन जानकार यह बताते हैं कि इस बार तमाम प्रतिकूल स्थितियों में भी कास्ट और कम्युनिटी के दायरे से बाहर निकलकर महिलाओं ने नीतीश को वोट दिया. एक बड़ी वजह यह भी रही कि नीतीश ने चुनाव के पहले महिलाओं से शराबबंदी का वादा किया था. यह सब जानते हैं कि इसकी बुनियाद कब रखी गई थी. चुनाव के ठीक पहले नौ जुलाई, 2015 को पटना में जीविका परियोजना से जुड़ी महिलाएं ग्रामवार्ता कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं. कार्यक्रम में नीतीश के भाषण के बाद एक महिला ने कहा कि शराब बंद करवा दीजिए, सर. तो नीतीश को एक बार फिर माइक संभालना पड़ी. तब उन्होंने कहा था कि इस बार जीत मिली तो पक्का. नीतीश के इस एलान का असर रहा. बाद में नीतीश ने इसे अपने सात निश्चयों में भी शामिल किया और सरकार बनने के बाद पहला फैसला शराबबंदी का ही लिया.

पहला फैसला यही लेने की ठोस वजहें भी थीं. नीतीश जान चुके थे कि भाजपा से अलगाव और राजद से जुड़ने के बाद भी वे अगर भारी जीत हासिल करने में सफल हुए हैं तो उसमें महिलाओं का वोट सबसे अहम रहा है और यह सही वक्त है जब वे उस वोट के चैंपियन बन जाएं और सदा-सदा के लिए अपने पक्ष में कर लें. पहले नीतीश कुमार ने सिर्फ देसी शराबबंदी का आदेश दिया लेकिन चार दिन में ही वे यह भी जान गए कि यह उनकी राजनीतिक भूल है और इसका नुकसान उन्हें ज्यादा होगा इसलिए चार दिन के भीतर ही विदेशी पर भी प्रतिबंध लगा दिया. नीतीश कहते भी हैं कि यह फैसला उन्होंने महिलाओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए लिया है.

नीतीश यह बात सही कह रहे हैं. उन्होंने वास्तव में महिलाओं के दबाव में आकर यह फैसला लिया है क्योंकि महिलाएं न सिर्फ इसकी मांग कर रही थीं बल्कि पिछले कुछ सालों से बिहार के अलग-अलग हिस्से में आंदोलन भी चला रही थीं. अपने दम पर शराबबंदी अभियान चलाकर शराब के अड्डों को ध्वस्त भी कर रही थीं. नीतीश के पास शराबबंदी करने की घोषणा करना ही एकमात्र विकल्प बच गया था. महिलाओं ने पूरे बिहार में किस तरह से शराबबंदी की कमान संभाली थी उसकी बानगी बिहार चुनाव के दौरान ही देखने को मिली थी. रोहतास जिले में महिलाओं ने शराबबंदी के लिए नोटा का प्रचार शुरू कर दिया था. पांच सितंबर को एक बड़ी खबर छपरा के शोभेपुर गांव से आई. वहां शराबबंदी के लिए समूह में पहुंची महिलाओं ने शराब के अड्डे को ध्वस्त कर दिया था. ऐसी ही खबर पटना से सटे मनेर हल्दी छपरा, सादिकपुर, शेरपुर, छितनावां जैसे गांवों से आई थी कि वहां महिलाओं ने शराब के अड्डों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है. बरबीघा जैसे इलाके से यहां तक खबर आई कि महिलाओं ने वहां समूह बनाकर पीने और पिलाने वाले, दोनों पर जुर्माना और सार्वजनिक तौर पर डंडे से पिटाई जैसे दंड की व्यवस्था की न सिर्फ घोषणा की बल्कि उस पर अमल भी कर रही थीं. बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के ये सारे अभियान महिलाओं ने खुद चलाए. इस तरह के अभियान पूरे बिहार में इतनी तेजी से फैल रहे थे कि अगर नीतीश यह फैसला नहीं लेते तो शायद जिन महिलाओं ने उनका साथ दिया था वे उनसे छिटकना शुरू कर देतीं.

Photo by - Sonu Kishan
Photo by – Sonu Kishan

इसका दूसरा मजबूत पक्ष यह है कि नीतीश अब यह जान चुके हैं कि पूरी तरह से जाति की राजनीति में फंस चुके बिहार में उन्होंने जाति से इतर अपने लिए एक वोट बैंक खुद के बूते तैयार किया है और वह वोट बैंक इतना ठोस है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कद को बनाए-बचाए रख सकता है. नीतीश ने पिछड़ों से अतिपिछड़ों और दलितों से महादलितों को अलग करके अपने लिए एक अलग वोट बैंक तैयार किया था लेकिन ये वोट बैंक मजबूती से नीतीश के साथ नहीं रह पाए. महादलितों के वोट का बंटवारा हो चुका है और अतिपिछड़ा अब अपनी सत्ता के लिए अलग राह अपना रहे हैं. ऐसे में भविष्य की राजनीति के लिए यह जरूरी था कि नीतीश महिलाओं को अपने साथ रखते. अब साइकिल वितरण योजना और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद शराबबंदी का फैसला पिछड़ी से लेकर उच्च जाति की महिलाओं को नीतीश से जोड़ेगा. साथ ही पढ़ी-लिखी शहरी लड़कियों से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाली लड़कियों को भी उनके पक्ष में खड़ा करेगा. नीतीश कह भी रहे हैं कि फैसले का असर अभी से दिख रहा है. एक सप्ताह में ही बिहार में जिस तरह से महिलाओं में खुशी की लहर है उससे पता चल रहा है कि आगे बिहार का भविष्य बेहतर होने वाला है.

वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘महिलाओं का अलग से वोट बैंक बन जाने की ऐसी घटना बिहार में पहले कभी नहीं हुई थी.’ सच्चिदानंद सिन्हा जैसे कई लोग मानते हैं कि यह एक अभूतपूर्व राजनीतिक गोलबंदी है जो नीतीश को बड़ा नेता बनाती है लेकिन नीतीश ने शराबबंदी करके भाजपा की आगे की राह मुश्किल करने के साथ ही सबसे बड़ी चुनौती लालू यादव के लिए खड़ी कर दी है. पत्रकार पुष्यमित्र कहते हैं, ‘बहुत साफ है कि नीतीश और लालू की जोड़ी के जीतने के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि लालू खुद को बड़े कद का नेता साबित करने की कोशिश करेंगे लेकिन नीतीश ने खुद को उनसे पहले ही बड़े कद का लोकप्रिय नेता बना लिया. इस प्रक्रिया में शराबबंदी एक बड़े औजार की तरह रही.’ पुष्यमित्र की बातों का विस्तार करें तो एक और बात सामने आती है. इस फैसले से नीतीश ने लालू को चुनौती भर ही नहीं दी है बल्कि इन दिनों वे लालू को दरकिनार करके खुद को एक बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने में जुटे हुए हैं. बिहार में चुनाव परिणाम आने के बाद लालू ने कहा था कि नीतीश बिहार संभालेंगे और वे अब देश घूमकर राजनीति करेंगे लेकिन लालू के इस मंसूबे पर भी नीतीश ने पानी फेर दिया है. नीतीश राष्ट्रीय लोकदल और झारखंड विकास मोर्चा जैसी पार्टियों का विलय जदयू में करवा रहे हैं, और अब वे खुद जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन केंद्रीय राजनीति में अपना कद बढ़ा चुके हैं.

बात इतनी ही नहीं हैं. वे किसी स्तर पर लालू प्रसाद को यह मौका ही नहीं दे रहे कि वे खुद का उभार कर सकें. कहा जा रहा है कि इस शराबबंदी के जरिए भी नीतीश ने लंबी सियासी चाल चली है. नीतीश भी जानते हैं कि अभी नहीं तो 2019 में लोकसभा चुनाव आते-आते तक लालू और उनके बीच का रास्ता अलग हो सकता है. लालू से अलगाव के बाद नीतीश को खुद को खड़ा करने के लिए एक मजबूत आधार चाहिए होगा. उस आधार के तौर पर ही उन्होंने हर तरह के कार्ड खेलने शुरू किए हैं. उनमें से एक कार्ड तो हालिया दिनों में लगातार नीतीश कुमार द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग वाला कार्ड है, जिससे वे एक नए किस्म का आधार वोट बैंक नौजवानों, पिछड़ों और दलितों के बीच बनाना चाह रहे हैं. इस बार के चुनाव में नीतीश और लालू अपने वोट बैंक के आधार पर ही चुनावी मैदान में थे. उस आधार से इतर नीतीश ने एक अलग ठोस वोट बैंक का निर्माण महिलाओं के रूप में किया है. यह सब जानते हैं कि लालू इस तरह शराबबंदी के पक्ष में कभी नहीं रहे. उनका जहां-जहां भी कोर वोटर है वहां शराब उसकी जीवन का अहम हिस्सा है, इसलिए लालू पहले भी कहते रहे हैं कि गरीबों का लाल पानी (देसी शराब) कभी बंद नहीं होना चाहिए. अब नीतीश ने सबका लाल पानी बंद कर दिया है और इसे लेकर लालू का अब तक कोई ठोस बयान नहीं आया है. हालांकि उनके बेटे और राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि हमने तो नया नारा ही दिया है- ‘नशा छोड़ो, समाज जोड़ो.’ तेजस्वी कहते हैं कि हमारी सरकार ने बिहार की गरीब जनता का ध्यान रखकर और महिलाओं-बच्चों की खुशी के लिए यह फैसला लिया है और ताड़ीवालों को परेशान होने की जरूरत नहीं. सरकार जल्द ही उनके लिए नया वैकल्पिक इंतजाम करने जा रही है ताकि ताड़ी के धंधे पर आश्रित लोगों का जीवनयापन होने के साथ वे कमाई भी कर सकें. तेजस्वी शराबबंदी पर अपनी बात खुलकर रखते हैं. वे इसे अपनी सरकार के श्रेय के खाते में जोड़ना चाहते हैं वहीं नीतीश इसे सरकार के बजाय अपनी उपलब्धियों के खाते में डाल चुके हैं.

शराबबंदी की सियासत तो एक बात हुई. बिहार में शराबबंदी के आदेश के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार में सिर्फ सरकारी आदेश से शराबबंदी हो जाएगी. यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि यहां पहली बार शराबबंदी नहीं हुई है. इससे पहले 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी तब भी शराबबंदी का आदेश सरकार ने दिया था लेकिन यह ज्यादा दिनों तक चल नहीं सका था. तस्करी के कारण आदेश धरा का धरा रह गया था और अंत में कर्पूरी ठाकुर के बाद दूसरी सरकार आते ही शराबबंदी का आदेश वापस ले लिया गया. इस बार भी कहा जा रहा है कि तस्करी होगी. सूचना यह मिल रही है कि बिहार से लगे झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाके में शराब की दुकानें खोलने की तैयारी है और उससे तस्करी भी होगी. मुख्यमंत्री के पास भी यह सवाल रखा जाता है तो वे कहते हैं कि इस भ्रम में किसी को रहने की जरूरत नहीं है. हमने शराबबंदी की बात की है तो जो पड़ोसी राज्य हैं वहां भी यह आवाज उठेगी और कोई तस्करी नहीं होगी. हालांकि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से तो यह आवाज अब तक नहीं उठी लेकिन झारखंड में इस बात की आवाज नीतीश द्वारा बिहार में आदेश दिए जाने के बाद से ही उठने लगी है. तस्करी तो फिर भी एक मसला है, लेकिन दूसरी बड़ी चुनौती पुलिस-प्रशासन के सहयोग से स्थानीय स्तर पर ‘चुलइया’ शराब बनाने की होगी. अपराध विशेषज्ञ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘नीतीश के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि बिहार की पुलिस लगातार कमजोर और शिथिल चल रही है. ऐसे में संभव है कि पुलिस शराबबंदी की आड़ में अवैध वसूली का नया कारोबार शुरू करे.’

शराबबंदी से नीतीश ने लालू को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि इन दिनों वे उन्हें दरकिनार करके खुद को एक बड़े नेता के बतौर स्थापित करने में भी जुटे हुए हैं

खैर, यह सब तो बाद की बात है. फिलहाल बिहार में शराबबंदी का आदेश होने के बाद से हर दिन शराब को लेकर प्रशासन कार्रवाइयां कर रहा है. नीतीश भी हर आयोजन में शराबबंदी के अपने फैसले की चर्चा करते नहीं अघा रहे हैं. शराबबंदी के बाद रोजाना नए किस्से-कहानियों का भंडार भी बढ़ता जा रहा है. जैसे शराबबंदी के आदेश के दूसरे दिन ही खबर आई कि झारखंड से आने वाली ट्रेनों में दूध के ड्रम में शराब छिपाकर लाने का काम शुरू हो गया है. बेतिया से खबर आई कि वहां कई शराबी शराब न मिलने से साबुन खाने लगे हैं. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जा रहा है. पूर्णिया से खबर आई कि वहां एंबुलेंस में मरीज को साथ रखकर उसकी आड़ में शराब लाया जा रहा था. औरंगाबाद इलाके से खबर आई कि रोजाना पीने वाले लोग 30-40 किमी तक साइकिल चलाकर झारखंड के सीमावर्ती इलाकों में जा रहे हैं. इसी तरह की खबरें राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आ रही हैं. दूसरी ओर पुलिस भी सक्रियता दिखा रही है. राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक सुनील कुमार कहते हैं, ‘शराबबंदी के आदेश के बाद पुलिस द्वारा अब तक 15 हजार से अधिक स्थानों पर छापेमारी हो चुकी है. शराब की भट्ठियां तोड़ी गई हैं. केस दर्ज किए जा रहे हैं.’

खैर! यह होना स्वाभाविक भी है. इतने वर्षों में बिहार की एक बड़ी आबादी को शराब पीने की आजादी मिली है. सब अचानक से बंद होने पर ये मुश्किलें आनी ही थीं लेकिन यह भी तय है कि अगर यह कुछ सालों तक लागू रहा और पुलिस ने सख्ती दिखाई तो बिहार में एक नई किस्म की मुश्किल जरूर खड़ी होगी. वजह है कि पिछले कुछ सालों से बिहार में यह कहावत बन चुकी है कि द्वारे-द्वारे शराब पहुंचाकर और शिक्षा को रसातल में पहुंचाकर सरकार ने इसे बर्बादी के मुहाने पर पहुंचा दिया है, जहां सामाजिक न्याय, समावेशी विकास और बिहारीपन जैसे नारे का कोई महत्व नहीं होता. वहीं शराबबंदी के आदेश के बाद बिहार में नई उम्मीद जगी है. नीतीश के फैसले का स्वागत विरोधी भी कर रहे हैं.        

नरगिस के नखरे उफ-उफ-उफ!

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जिसे इस देश का बच्चा-बच्चा सीरियल किसर के नाम से जानता है, उसकी ‘किसिंग’ काबिलियत पर सवालिया निशान लगाना कम दिलेरी का काम नहीं है. और तो और, ये सवालिया निशान किसी और ने नहीं बल्कि पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन की बायोपिक ‘अजहर’ में संगीता बिजलानी का किरदार निभा रही उनकी को-स्टार नरगिस फाखरी ने लगाए हैं. इमरान हाशमी के साथ किसिंग सीन के बारे में पूछे जाने पर  उन्होंने कह दिया कि ये कुछ खास नहीं था. इतना ही नहीं उन्होंने फिल्म के पोस्टर की ओर इशारा करते हुए कुछ ऐसा कहा जिसका लब्बोलुआब ये था कि उन मूंछों (इमरान फिल्म में मूंछों के साथ नजर आएंगे) के होते हुए किस कैसे अच्छा हो सकता है. ‘हफिंग्टन पोस्ट’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘फिल्म में उन्हें कई बार किस करना पड़ा. उनकी मूंछें बेहद खीझ दिलाने वाली थीं.’ नरगिस के इस बयान से इमरान के चाहने वालों की भवें तन गई हैं. बॉलीवुड में नरगिस जैसे-जैसे पुरानी हो रही हैं उनके नखरे ‘उफ-उफ-उफ टाइप’ होते जा रहे हैं. वैसे कुछ सूत्र ये भी कह रहे हैं कि नरगिस मजाक कर रही थीं.

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कंगना के लिए कड़ी परीक्षा की घड़ी
कंगना रनौत इन दिनों इम्तिहान की घड़ी से गुजर रही हैं. साल की शुरुआत में हृतिक रोशन के साथ कथित प्रेम संबंधों के उजागर होने के बाद दोनों के बीच चल रही लड़ाई में फिलहाल हृतिक का पलड़ा भारी होता दिख रहा है. कंगना की इस लड़ाई में जहां उनकी बहन रंगोली उनके साथ हैं वहीं अब तक अकेले कानूनी लड़ाई लड़ रहे हृतिक को कंगना के एक्स बॉयफ्रेंड अध्ययन सुमन का साथ मिल गया है. कंगना से ब्रेकअप के सात साल बाद उन्होंने चुप्पी तोड़ी है. हृतिक से सहानुभूति जताते हुए उन्होंने बताया कि कंगना उन्हें मारती-पीटती थीं. साथ ही उन पर काले जादू का इस्तेमाल करती थीं. इस पर अब तक कंगना की ओर से कोई टिप्पणी नहीं आई है. वैसे इस लड़ाई में अभी और खुलासे होने बाकी हैं. अब देखना ये है कि अपनी ‘रिवाल्वर रानी’ इसका जवाब कैसे देती हैं.

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सनी के ‘स्वीट ड्रीम्स’
बॉलीवुड में कदम रखने के बाद से मशहूर पॉर्न स्टार सनी लियोन की प्रतिभा दिनोंदिन निखरती ही जा रही है. बॉलीवुड की कई फिल्मों में काम करने के बाद अब वे लेखिका भी बन गई हैं. हाल ही में उन्होंने ‘स्वीट ड्रीम्स’ नाम की एक किताब लिखी है. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया, ‘मैं बस अलग-अलग कहानियों और विचारों के बारे में सोच रही थी लेकिन असल में मैंने कभी कुछ लिखा नहीं था.’ हालांकि जब जगरनॉट बुक पब्लिकेशन ने उनसे लिखने के लिए संपर्क किया तो उन्होंने 3 महीनों में ये किताब लिख डाली. इस किताब में12 छोटी कहानियां हैं जो ऐसी-वैसी नहीं हैं. बताया जा रहा है कि हर कहानी उनकी फिल्मों की तरह ही खुद में ‘चाट मसाले’ के साथ काफी मात्रा में ‘गरम मसाला’ लपेटे हुए है. अब जिसमें इतना मसाला हो उस किताब को बेस्टसेलर बनने से कौन रोक सकता है.

गांवों में बुजुर्गों की बदहाली

वरिष्ठ नागरिकों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं के बावजूद गांव में रहने वाले बुजुर्गों की हालत खराब है. बुजुर्गों पर आई सरकार की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ग्रामीण इलाकों में मौजूद कुल बुजुर्गों में करीब 66 फीसदी ऐसे हैं जो अब भी दिहाड़ी पर अपना जीवनयापन कर रहे है. इसी तरह आजीविका कमाने को मजबूर बुजुर्ग महिलाओं की संख्या एक चौथाई से कुछ अधिक है. गांवों में करीब 28 फीसदी बुजुर्ग महिलाओं को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, गांव में मेहनत-मजदूरी करके जीवन-यापन करने वाली बुजुर्ग महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसके अनुसार 2001 में ग्रामीण भारत में रोजी-रोटी कमाने वाली महिला बुजुर्गों की संख्या 24.9 फीसदी थी, जो 2011 आते-आते बढ़कर 28.4 फीसदी हो गई. वहीं 2001 में पुरुष बुजर्गों में 65.6 फीसदी अपनी रोजी-रोटी कमा रहे थे जो 2011 में बढ़कर 66 फीसदी हो गए.

चुनावी चंदा पाने में भाजपा नंबर एक

देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को पिछले वित्त वर्ष के दौरान कुल 622 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले हैं. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे ज्यादा चंदा (437.35 करोड़ रुपये) केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को मिला. उसके खाते में आई रकम चार राष्ट्रीय दलों कांग्रेस, राकांपा, भाकपा और माकपा को मिले कुल चंदे के दुगने से भी ज्यादा है. वहीं देश के छठे राष्ट्रीय दल बसपा को कोई चंदा ही नहीं मिला. सभी दलों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए चंदे के ब्योरे से ये आंकड़े निकले हैं. गौरतलब है कि सभी राष्ट्रीय दलों को 20 हजार रुपये से ज्यादा मिले चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. इसी के तहत भाजपा ने बताया है कि उसे 1,234वीं बार दान में कुल 437.35 करोड़ रुपये की रकम मिली. इनमें बड़े व्यावसायिक घराने और व्यक्तिगत दानदाता दोनों शामिल हैं. वहीं बसपा ने बताया है कि उसे 20 हजार रुपये से बड़ा कोई चंदा नहीं मिला. बसपा के साथ यह स्थिति पिछले 10 साल से है. इसके अलावा राकांपा ने घोषित किया है कि उसको 2013-14 में 14.02 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले थे. इसमें एक साल में 177 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. 2014-15 में उसे 38.82 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले थे. वहीं भाजपा को पिछले वित्त वर्ष के 170.86 करोड़ रुपये के मुकाबले 437.35 करोड़ रुपये मिले. यानी भाजपा के चंदे की रकम में कुल 156 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. 

अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला

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क्या है मामला?

भारत को 12 वीवीआईपी हेलिकॉप्टर आपूर्ति के दौरान हुए घोटाले के आरोप में इटली की एक अदालत ने दो लोगों को सजा सुनाई है. यह सौदा फिनमेकैनिका से 3600 करोड़ रुपये में किया गया था. मिलान की अपीलीय अदालत ने इस मामले में इटली की रक्षा और अंतरिक्ष क्षेत्र की बड़ी कंपनी फिनमेकैनिका के पूर्व प्रमुख गिसपे ओरसी और फिनमेकैनिका की अधीनस्थ कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड के पूर्व सीईओ ब्रूनो स्पैगनोलिनि को साढे़ चार साल कैद की सजा सुनाई है. इस मामले में भारत के पूर्व वायुसेना प्रमुख एसपी त्यागी भी दोषी ठहराए गए हैं. 

कैसे हुआ सौदा?

भारत में वीआईपी लोगों के लिए पहले रूस के हेलिकॉप्टर एमआई-8 का प्रयोग होता था. इनके पुराने हो जाने पर अगस्त 1999 में भारतीय वायुसेना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को एमआई-8 हेलिकॉप्टर को बदलने का प्रस्ताव दिया. 2006 में इसके लिए ग्लोबल टेंडर निकाला गया और फिर नए हेलिकॉप्टर के तौर पर इटली के अगस्ता वेस्टलैंड का चुनाव हुआ. भारतीय रक्षा मंत्रालय ने फिनमेकैनिका कंपनी से 2010 में 3600 करोड़ रुपये में 12 हेलिकॉप्टर खरीदे थे. फरवरी 2012 में इस सौदे में रिश्वतखोरी के आरोप लगे. 12 फरवरी 2013 को इटली पुलिस ने फिनमेकैनिका के तत्कालीन प्रमुख को गिरफ्तार किया. इसके बाद भारतीय रक्षा मंत्रालय ने अगस्ता वेस्टलैंड कंपनी के बकाया भुगतान पर रोक लगाई और इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी. जनवरी 2014 में भारत सरकार ने अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील को रद्द कर दिया.

क्यों मचा बवाल?

इटली की मिलान कोर्ट में मामले से जुड़े कुछ दस्तावेज पेश किए गए हैं. इन दस्तावेजों में भारतीय नेताओं के नाम भी शामिल हैं. इनमें से एक नाम ‘सिग्नोरा गांधी’ भी है. कुछ राजनीतिक दल आरोप लगा रहे हैं कि ‘सिग्नोरा गांधी’ नाम सोनिया गांधी के लिए इस्तेमाल किया गया और वे रिश्वत लेने वालों में शामिल थीं. इसके अलावा जिन नेताओं का नाम दस्तावेजों में सामने आने की बात कही जा रही है उनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अहमद पटेल, एम वीरप्पा मोईली, ऑस्कर फर्नाडीज और एमके नारायण शामिल हैं. इतालवी कोर्ट से इस तरह का विवरण सामने आने के साथ ही सत्ताधारी भाजपा ने कांग्रेस और सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की. राज्यसभा में जब सुब्रमण्यन स्वामी ने मामले में सोनिया गांधी का नाम लिया तो कांग्रेस सांसद भड़क गए और हंगामा करने लगे. हालांकि इस मामले पर सोनिया गांधी ने कहा कि मैं आरोपों से डरी नहीं हूं. इस मामले में केवल झूठ बोला जा रहा है.

मुठभेड़ चाल

गुजरात में 15 जून, 2004 को इशरत जहां का एनकाउंटर किया गया. बाद में जांच में इसे फर्जी पाया गया.
गुजरात में 15 जून, 2004 को इशरत जहां का एनकाउंटर किया गया. बाद में जांच में इसे फर्जी पाया गया.
गुजरात में 15 जून, 2004 को इशरत जहां का एनकाउंटर किया गया. बाद में जांच में इसे फर्जी पाया गया.

सीबीआई कोर्ट ने 25 साल पहले पीलीभीत में हुए 10 सिखों के फर्जी एनकाउंटर में 47 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया है. फर्जी एनकाउंटर तो हमारे देश में आम बात है, लेकिन बहुत कम मामले ऐसे हैं जिनमें फर्जी एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों या सैन्यकर्मियों को सजा हुई हो. हो सकता है कि एनकाउंटर कभी ऐसे अपराधियों को ठिकाने लगाने का हथियार रहा हो जो कानून-व्यवस्था और जनता के लिए खतरा बने, लेकिन साथ-साथ यह विरोधियों को ठिकाने लगाने और राजनीतिक बदला लेने या अंडरवर्ल्ड के इशारे पर किसी को निपटाने का भी जरिया बना. बीहड़ों के डकैत और अंडरवर्ल्ड के लोग, जो कानून व्यवस्था के लिए मुसीबत बने हुए थे, उनके खात्मे से शुरू हुई पुलिस मुठभेड़ की कार्रवाई बहुत जल्द ही पुलिस अधिकारियों के लिए  पद-पैसे में बढ़ोतरी और प्रशंसा बटोरने का खेल बन गई. पिछले दो-तीन दशकों में कई ऐसे एनकाउंटर के मामले चर्चित हुए जो पहले पुलिस के दावे से अलग फर्जी एनकाउंटर या कहें पुलिस द्वारा की गई गैर-कानूनी हत्या साबित हुए.

उत्तर प्रदेश फर्जी एनकाउंटर के मामले में सबसे अव्वल है. अगस्त 2009 में लखनऊ में ह्यूमन राइट्स वॉच ने ‘ब्रोकेन सिस्टम, डिस्फंक्शनल एब्यूज ऐंड इम्प्यूनिटी इन इंडियन पुलिस’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट की शुरुआत में एक पुलिस अधिकारी का कबूलनामा था, ‘इस हफ्ते मुझे एक एनकाउंटर करने को कहा गया है. मैं उसकी तलाश कर रहा हूं. मैं उसे मार डालूंगा. हो सकता है कि मुझे जेल भेज दिया जाए लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 से 2015 के बीच देश में सबसे ज्यादा फर्जी एनकाउंटर उत्तर प्रदेश में हुए. इस दौरान यूपी में लगभग 782 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें दर्ज कराई गईं. वहीं, दूसरे नंबर पर आंध्र प्रदेश रहा, जहां सिर्फ 87 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें आईं. आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के मुताबिक, इन 782 मामलों में से 160 मामलों में यूपी सरकार ने पीड़ित परिवार को लगभग 9.47 करोड़ रुपये मुआवजा भी दिया. वहीं, इस दौरान पूरे देश में कुल 314 शिकायतों में मुआवजे दिए गए. यूपी और आंध्र प्रदेश के बाद तीसरा नंबर बिहार और चौथा असम का रहा. जहां इस दौरान बिहार में 73 फर्जी एनकाउंटर के मामले आए तो असम में 66 मामले दर्ज हुए. इसके अलावा जुलाई 2014 में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने बताया था कि साल 2011 से 2014 के बीच 185 फर्जी मुठभेड़ के केस पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज हुए थे. इनमें सबसे ज्यादा यूपी में 42 केस और इसके बाद झारखंड में 19 केस दर्ज हुए हैं. आंकड़ों के मुताबिक, 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुईं. 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज्यादा थी. 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी. 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए.

उत्तर प्रदेश के भदोही में 2005 में हुई एक फर्जी मुठभेड़ के केस में 28 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ था. सीआईडी जांच में पाया गया कि 5000 रुपये के इनामी बदमाश विजय उर्फ लल्लू उर्फ बुद्धसेन को पुलिस ने मार गिराया था. पुलिस ने इसे मुठभेड़ दिखाया लेकिन बाद में इसे फर्जी पाया गया. जिन 28 पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया, उनमें से पांच बाद में थाना प्रभारी भी बन गए.

नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी एनकाउंटर हुए जिसमें गुजरात पुलिस के कुल 32 अधिकारी जेल गए. इनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं 

पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर मामले के पहले भी एनकाउंटर की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जो फर्जी साबित हुईं. दिसंबर 2015 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मेरठ के दौराला के एक जंगल में फर्जी मुठभेड़ मामले में तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. इस घटना में मेरठ कॉलेज की एक 20 साल की छात्रा स्मिता भादुड़ी की 14 जनवरी, 2000 को मेरठ के सिवाया गांव के पास फर्जी मुठभेड़ में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नवनीत कुमार ने सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक अरुण कौशिक, कांस्टेबल भगवान सहाय और सुरेंद्र कुमार को हत्या का दोषी पाया था.

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर में अप्रैल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ का मामला सामने आया था. इस मामले में सेना ने 2015 में एक कर्नल रैंक अधिकारी समेत छह जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी, लांस नायक अरुण कुमार और राइफल मैन अब्बास हुसैन ने तीन आतंकियों को मारने का दावा किया था. मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ. मरने वालों के परिजनों ने दावा किया कि वे तीनों सामान्य नागरिक थे, जिनको फर्जी मुठभेड़ में मारा गया. उनकी पहचान  बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई. इस घटना के बाद पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई. बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें 123 लोग मारे गए थे. पुलिस जांच में साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. इस मुठभेड़ का मकसद इनाम और प्रमोशन पाना था. सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया तो छह जवान दोषी पाए गए.

जुलाई 2009 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के एक पूर्व आतंकी चोंग्खम संजीत मेइतेई को मणिपुर पुलिस के हेड कांस्टेबल हेरोजित सिंह ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था. उस समय तहलका ने कुछ तस्वीरों के जरिए इस मुठभेड़ की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे. हाल में आई एक अंग्रेजी दैनिक की रिपाेर्ट के मुताबिक हेरोजित ने माना कि यह मुठभेड़ नहीं थी बल्कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी के कहने पर संजीत को मारा था
जुलाई 2009 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के एक पूर्व आतंकी चोंग्खम संजीत मेइतेई को मणिपुर पुलिस के हेड कांस्टेबल हेरोजित सिंह ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था. उस समय तहलका ने कुछ तस्वीरों के जरिए इस मुठभेड़ की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे. हाल में आई एक अंग्रेजी दैनिक की रिपाेर्ट के मुताबिक हेरोजित ने माना कि यह मुठभेड़ नहीं थी बल्कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी के कहने पर संजीत को मारा था

अप्रैल 2015 में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सीमा पर तिरुपति के पास आंध्र प्रदेश के सेशाचलम के जंगल में एसटीएफ ने 20 लोगों को मार गिराया. एसटीएफ ने दावा किया कि ये सभी दुर्लभ लाल चंदन की लकड़ियों की तस्करी से जुड़े थे, लेकिन बाद में जो तस्वीरें और तथ्य सामने आए वे विरोधाभासी थे. मारे गए लोगों के परिजनों ने दावा किया कि वे सभी मजदूर थे जिनकी गलत तरीके से हत्या की गई. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस एनकाउंटर पर सवाल उठाए थे. इसी दौरान अप्रैल 2015 में तेलंगाना के वारांगल जिले में पुलिस ने पांच ऐसे लोगों को मुठभेड़ में मारने का दावा किया जो न्यायिक हिरासत में थे. पुलिस के मुताबिक वारंगल सेंट्रल जेल से हैदराबाद कोर्ट ले जाते समय कैदियों ने हथियार छीनने की कोशिश की और पुलिस कार्रवाई में मारे गए. इन पांचों पर एक स्थानीय आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप था. जिस वक्त इन्हें मारा गया, सभी कैदियों के हाथ में हथकड़ियां लगी थीं. इस एनकाउंटर पर भी सवाल उठे थे. 

भारत में पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों, कुख्यात अपराधियों और बीहड़ के डकैतों को फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने का इतिहास काफी पुराना है. इसका चलन साठ के दशक में शुरू हुआ जब पुलिस ने बीहड़ों के डाकुओं के खिलाफ अभियान चलाए. सीधी मुठभेड़ में कुख्यात डाकुओं के मारे जाने के बाद आॅपरेशन को अंजाम देने वाले अधिकारी को राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कार और पदोन्नति मिलती थी. बाद में सामने आया कि इन मुठभेड़ों में कुख्यात अपराधियों के अलावा कई निर्दोष लोग फर्जी तरीके से मारे गए. 20वीं सदी के आखिरी वर्षों में और नई सदी के पहले दशक में मानवाधिकार संगठनों ने इन मुठभेड़ों और गैर-कानूनी हत्याओं पर चिंताएं जाहिर करनी शुरू कीं. इसके पहले ये एनकाउंटर एक तरह से जायज माने जाते रहे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मानना है कि राज्यों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में से ज्यादातर को पुलिस अंजाम देती है, सेना की ओर से ऐसी कार्रवाइयां कम सामने आती हैं.

मुंबई में 1990 के दशक में संगठित अपराध खत्म करने के लिए धड़ाधड़ एनकाउंटर हुए और ऐसे अधिकारियों को ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के तमगे से नवाजा गया. पुलिस का कहना था कि एनकाउंटर करके वह न्याय प्रक्रिया में तेजी ला रही है. जनवरी, 1982 में मान्या सुर्वे नामक कुख्यात गैंगस्टर को पुलिस ने वडाला इलाके में मार गिराया. इसे मुंबई पुलिस के पहले एनकाउंटर के रूप में दर्ज किया गया. इसके बाद 2003 तक मुंबई पुलिस ने करीब 1200 एनकाउंटर किए. मुंबई पुलिस के कई अधिकारी एनकाउंटर  स्पेशलिस्ट के तौर पर पहचाने गए. जैसे इंस्पेक्टर प्रदीप शर्मा के नाम 104 एनकाउंटर करने का तमगा है. उनका कहना था, ‘अपराधी गंदगी हैं और मैं सफाईकर्मी हूं.’ शर्मा को राम नारायण गुप्ता एनकाउंटर केस में 2009 में सस्पेंड किया गया था, बाद में 2013 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. इसी तरह सब इंस्पेक्टर दया नायक ने 83 एनकाउंटर किए, जिन पर ‘अब तक छप्पन’ फिल्म बनी थी. इंस्पेक्टर प्रफुल्ल भोंसले के नाम 77, इंस्पेक्टर रवींद्रनाथ अंग्रे के नाम 54, असिस्टेंट इंस्पेक्टर सचिन वाजे के नाम 63 और इंस्पेक्टर विजय सालस्कर के नाम 61 एनकाउंटर केस दर्ज हैं. इंस्पेक्टर विजय सालस्कर 2008 में मुंबई आतंकी हमले में मारे गए थे.

हालांकि बाद में न्याय की इस थ्योरी पर सवाल उठना शुरू हुआ. अदालतों ने इस पर नकारात्मक टिप्पणियां कीं. कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आईं कि पुलिसवालों ने अंडरवर्ल्ड से पैसे लेकर किसी व्यक्ति की फर्जी एनकाउंटर में हत्या की. एक मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ‘पुलिस अब जनता की रक्षक न होकर एक पेशेवर कातिल बन चुकी है.’ महाराष्ट्र में 2006 में हुए लखन भैया फर्जी मुठभेड़ मामले में 11 पुलिसकर्मियों को मुंबई सत्र अदालत ने जुलाई 2013 में दोषी करार दिया था.

हाल के वर्षों में रणवीर फर्जी एनकाउंटर मामला काफी चर्चित रहा था. जुलाई 2009 में गाजियाबाद का रणवीर, जो एमबीए का छात्र था, अपने अपने एक दोस्त के साथ नौकरी के लिए इंटरव्यू देने व घूमने के लिए देहरादून गया था. उत्तराखंड पुलिस ने उसे बदमाश बताकर देहरादून स्थित लाडपुर के जंगल में एनकाउंटर में मार गिराया. उत्तराखंड सरकार ने एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को सम्मानित भी किया. रणवीर के शरीर में 29 गोलियों के निशान पाए गए, जिनमें से 17 गोलियां करीब से मारी गई थीं. बहुत हंगामे के बाद में राज्य सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपते हुए इसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया. सीबीआई जांच में पाया गया कि यह एनकाउंटर फर्जी था. जून 2014 में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने 17 पुलिसकर्मियों को अपहरण, हत्या की साजिश और हत्या के जुर्म में उम्रकैद और एक पुलिसकर्मी को दो साल की सजा सुनाई.

राजस्थान पुलिस की एसओजी टीम ने अक्टूबर 2006 में एक संदिग्ध डकैत दारा सिंह को मार गिराया. पुलिस ने उस पर 25 हजार का इनाम रखा था. पुलिस ने दावा किया कि हत्या और स्मगलिंग के केस में बंद दारा सिंह ने हिरासत से भागने की कोशिश की तो एनकाउंटर में मारा गया. दारा सिंह की पत्नी सुशीला की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया. सीबीआई ने 2011 में जांच पूरी करके 16 लोगों के खिलाफ चार्जशीट तैयार की. इसमें तत्कालीन एडिशनल डीजीपी, एसपी, एडिशनल एसपी, सात सब इंस्पेक्टर और तीन कॉन्स्टेबल भी शामिल थे. इस केस की सुनवाई करते हुए जस्टिस मार्कंडेय काटजू और सीके प्रसाद की बेंच ने सभी आरोपियों की गिरफ्तारी का आदेश देते हुए कहा था, ‘पुलिस को कानून का संरक्षक माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वह लोगों की जान की सुरक्षा करेगी, न कि उनकी जान ही ले लेगी. पुलिस द्वारा की जाने वाली फर्जी मुठभेड़ अमानवीय हत्या के अलावा कुछ नहीं है, जिसे रेयरेस्ट ऑफ द रेयर अपराध माना जाएगा. फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्त पुलिसवालों को फांसी पर लटका देना चाहिए.’

गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई एनकाउंटर हुए जो विवादों में रहे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी  एनकाउंटर हुए. फर्जी एनकाउंटर को लेकर गुजरात के कुल 32 पुलिस अधिकारी जेल गए, जिनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं. हाल ही में गुजरात के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, 1987 बैच के आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा नौ साल बाद गुजरात पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया. वे 2007 में गिरफ्तार किए गए थे. 2015 में जमानत मिली, लेकिन सीबीआई कोर्ट ने उनके गुजरात में प्रवेश पर रोक लगा रखी थी. बाद में कोर्ट ने यह रोक हटा ली. वंजारा 2002 से 2005 तक अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस थे. इस दौरान राज्य में करीब बीस लोगों का एनकाउंटर हुआ. बाद में जब सीबीआई जांच हुई तो पता चला कि इनमें से कई एनकाउंटर फर्जी थे. वंजारा के बारे में कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत करीबी थे. 2007 में गुजरात सीआईडी ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल भेजा. उन पर सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसर बी, तुलसीराम प्रजापति, सादिक जमाल, इशरत जहां समेत आठ लोगों की हत्या का आरोप है. इन सभी एनकाउंटरों के बाद गुजरात क्राइम ब्रांच ने दावा किया था कि ये सभी पाकिस्तानी आतंकी थे और गुजरात के मुख्यमंत्री को मारना चाहते थे, लेकिन बाद में कोर्ट के आदेश पर सीबीआई जांच में साबित हुआ कि ये सभी एनकाउंटर फर्जी थे.

आंध्र प्रदेश के सेशाचालम जंगल में एसटीएफ द्वारा मारे गए कथित चंदन तस्करों के शव (फाइल फोटो)
आंध्र प्रदेश के सेशाचालम जंगल में एसटीएफ द्वारा मारे गए कथित चंदन तस्करों के शव (फाइल फोटो)

इशरत जहां एनकाउंटर केस 15 जून, 2004 को अहमदाबाद में हुआ था. इसमें 19 वर्षीय इशरत के साथ जावेद शेख उर्फ प्राणेश पिल्लै, अमजद अली, अकबर अली राणा और जीशान जौहर मारे गए थे. इस मामले में पृथ्वीपाल पांडेय (पीपी पांडेय) व जीएल सिंघल समेत सात अधिकारियों को सीबीआई ने चार्जशीट में अभियुक्त बनाया था. बाद में जीएल सिंघल ने यह कहते हुए इस्तीफा भी दिया था कि सरकार उनका बचाव नहीं कर रही, जबकि उन्होंने क्राइम ब्रांच में रहते हुए जो भी किया, वह सब सरकार के दिशा-निर्देश पर किया.

पीपी पांडेय 1982 बैच के अधिकारी हैं जो 2003 में अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया बने. उनकी अगुवाई में क्राइम ब्रांच ने 11 कथित आतंकियों को मुठभेड़ों में मार गिराया. इन मुठभेड़ों में कई के फर्जी होने के आरोप लगे. इनमें से इशरत जहां मुठभेड़ भी शामिल है. सीबीआई का दावा था कि पांडे ने इंटेलीजेंस ब्यूरो के अफसरों के साथ मिलकर इस कथित फर्जी मुठभेड़ की ‘साजिश’ रची. अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित किया. बाद में उन्होंने आत्मसमर्पण किया था. फरवरी 2016 में सीबीआई कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उन्हें फिर से बहाल करके अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) बनाया गया. अप्रैल में उन्हें गुजरात पुलिस का प्रभारी महानिदेशक बनाया गया.

हाल में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई ने एक इंटरव्यू में कहा कि इशरत मामले में दूसरा हलफनामा गृह मंत्री पी चिदंबरम के कहने पर बदला गया था. इसी बीच गृह मंत्रालय के एक मौजूदा अधिकारी आरवीएस मणि ने आरोप लगाया कि इशरत मुठभेड़ के मामले में हलफनामा बदलवाने के लिए सतीश वर्मा ने उन पर दबाव बनाया और प्रताड़ित किया. गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी सतीश वर्मा इशरत जहां एनकाउंटर की जांच करने वाली कोर्ट की गठित उस एसआईटी के सदस्य थे. वर्मा ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा, ‘ये पूरा आईबी नियंत्रित ऑपरेशन था. चार लोगों को पकड़ा गया. इनमें से दो के बारे में आईबी को जानकारी थी कि वे संभवत: लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे. इन सभी पर आईबी और गुजरात पुलिस की नजर थी और फिर ये लोग कथित मुठभेड़ में मार दिए गए. ये पूरा ऑपरेशन बड़ा कामयाब था. लेकिन साथ ही फर्जी भी था.’

26 नवंबर, 2005 को सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस हुआ. सोहराबुद्दीन शेख पर हत्या, उगाही करने और अवैध हथियारों का धंधा चलाने जैसे 60 आपराधिक मामले चल रहे थे. 23 नवंबर को वह अपनी बीवी कौसर बी के साथ हैदराबाद से महाराष्ट्र जा रहा था तभी गुजरात एटीएस ने दोनों को उठा लिया. तीन दिन बाद पुलिस हिरासत में ही सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया गया. आरोप है कि कौसर बी को भी मारकर अधिकारी डीजी वंजारा के गांव में दफना दिया गया. इस घटना के करीब एक साल बाद सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसी प्रजापति का भी एनकाउंटर हो गया. इस एनकाउंटर को लेकर भाजपा नेता और गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह पर आरोप लगे कि यह एनकाउंटर उनके कहने पर किया गया है. अमित शाह को जेल भी जाना पड़ा था. इन मुठभेड़ों में जेल जाने वाले वंजारा ने भी दावा किया था कि ‘गृहमंत्री अमित शाह ने कई लोगों के एनकाउंटर का आदेश दिया था.’ 2014 में विशेष कोर्ट ने अमित शाह के खिलाफ आरोप खारिज कर दिए.

‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. कुछ ऐसे जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी’

सितंबर 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस में पुलिस ने दो संदिग्ध आतंकियों को मारने का दावा किया. दो आतंकी पकड़े गए थे और एक भागने में सफल रहा था. इस मुठभेड़ में एक इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा भी मारे गए. जामा मस्जिद के शाही इमाम समेत मानवाधिकार संगठनों से इस एनकाउंटर को फर्जी बताया और जांच की मांग की. हालांकि, जांच के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अाैर अदालत ने फर्जी एनकाउंटर के आरोप को खाारिज कर दिया. 

हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में कई ऐसे मामले सामने आए जब पुलिस-नक्सल मुठभेड़ को लेकर सवाल उठे. पुलिस का दावा है कि उसने नक्सली मारे लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि पुलिस ग्रामीण आदिवासियों को नक्सली बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार रही है. कुछ दिनों पहले प्रदेश कांग्रेस ने जनाक्रोश रैली की जो इसी मसले पर थी. इस रैली में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने कहा, ‘चिड़िया मारने वाली बंदूक रखने वाले आदिवासियों को 5 से 10 लाख तक का इनामी नक्सली बताकर पुलिस झूठी मुठभेड़ में उन्हें मार रही है. पुलिस को नक्सलियों को मारना ही है तो पहले ऐसे आरोपियों के नाम और पहचान की सूची उजागर करे जो सभी थानों में सहज सुलभ हो. बस्तर में फर्जी मुठभेड़ का खेल खेलकर पुलिस झूठी वाहवाही ले रही है. बेकसूर आदिवासियों को या तो जेल में ठूंसा जा रहा है या मार दिया जाता है.’

उत्तर प्रदेश पुलिस में अतिरिक्त महानिदेशक रह चुके एसआर दारापुरी कहते हैं, ‘राजनीति में अपराधी तत्वों का बढ़ता प्रभाव कथित फर्जी मुठभेड़ों के पीछे एक बड़ा कारण है. जो राजनेता सत्ता में हैं, उनके लिए काम करने वाले अपराधियों को संरक्षण मिलता है जबकि उनके विरोधियों के लिए काम करने वाले अपराधियों को खत्म करने के लिए पुलिस को औजार बनाया जाता है. कई मामलों में पुलिस सत्तारूढ़ राजनेताओं को खुश करने के लिए, पदोन्नति और शौर्य पदकों के लिए भी ऐसी कार्रवाइयां करती है.’

जब अपराधियों को सजा देने के लिए पुलिस, कानून और अदालतें मौजूद हैं तो किसी को कानून से परे जाकर मारने की प्रक्रिया क्यों अपनाई जाती है, इसके जवाब में पूर्व अधिकारी प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. आपको सुनकर अजीब लगेगा, लेकिन सारा समाज चाहता है. उसका कारण यह है कि समाज में कुछ ऐसे अराजक तत्व या जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. अगर पकड़ता भी है तो जमानत हो जाती है. मुकदमे 20 साल चलते हैं. तब तक गवाह टूट जाते हैं. लोग कहते हैं कि इनको मारो और खत्म करो. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी. ऐसे बदमाश से छुट्टी मिली. मुख्य कारण तो यह है कि लोग चाहते हैं और खुलकर कोई नहीं कहता है. दूसरे, हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना विलंब से काम करता है, कछुए की चाल चलता है कि इस तरह की कार्रवाई को सामाजिक मान्यता मिली हुई है. अब आप कह रहे हैं कि इसकी वजह से कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं, यह भी सही है. जब आप इस तरह की छूट दीजिएगा तो जाहिर है कि पुलिस इसका दुरुपयोग करेगी और करती भी है.’

रिहाई मंच संगठन से जुड़े वकील मोहम्मद शोएब कहते हैं, ‘कानून फर्जी एनकाउंटर की इजाजत बिल्कुल नहीं देता है. पुलिस एनकाउंटर के मसले में किसी भी तरह से नियमों का पालन नहीं करती है. पुलिस को ऐसा कोई अधिकार ही नहीं है. हां, पुलिस को अगर अपनी जान का खतरा है तो वह किसी को मार सकती है. लेकिन जानबूझकर किसी को मारा जाए, तो यह कानूनन गलत है. जिस व्यक्ति से उनको जान का खतरा नहीं है, उसे भी मार देना गलत है. ज्यादातर एनकाउंटर में पुलिस लोगों को पहले से पकड़ती है, बाद में मार देती है और उसे दिखाती है कि यह एनकाउंटर में मारा गया. एनकाउंटर के बाद उस मसले की जांच तभी होती है जब कोई शिकायत आती है, वरना तो पुलिस के दावे को ही मान लिया जाता है. पुलिस कहती है कि फलां आदमी मुठभेड़ में मारा गया, और इसे ही सच मान लिया जाता है. फर्जी एनकाउंटर के बाद भी अगर कोई इस मसले को उठाता है तो उसे इतना डरा दिया जाता है कि वह चुपचाप बैठ जाए.’

प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘इसका एक ही उपाय है कि आपका क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना प्रभावशाली हो कि जघन्य अपराध में भी एक आदमी को दो साल में सजा हो जाए. 20 साल न चले मुकदमा, इसका और कोई उपाय नहीं है. इसके लिए पुलिस सुधार चाहिए. न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहिए. जमानत के प्रावधानों में सुधार चाहिए. मामलों का जल्दी से निस्तारण हो. चार्जशीट 60 दिन में फाइल हो जाती है. दो साल में मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए. अभी तो लोगों को सिस्टम में विश्वास ही नहीं है कि आदमी पकड़ा तो गया, लेकिन उसको सजा कहां होगी. शहाबुद्दीन ज्वलंत उदाहरण हैं. उन्होंने जेएनयू के प्रेसिडेंट चंद्रशेखर की हत्या करवा दी. अभी तक उन्हें कोई दंड नहीं मिला, उल्टा वे पार्टी की नेशनल एक्जिक्यूटिव के सदस्य हो गए. इसका मतलब उनको राजनीतिक संरक्षण हासिल है. न्यायिक तंत्र से सजा भी नहीं हो पाती है. ऐसे लोगों के लिए क्या उपाय है. हर कोई यही चाहेगा कि ऐसे लोग न रहें तो अच्छा है. समाज के पाप और व्यवस्था के निकम्मेपन की गठरी पुलिस अपने सर पर ढोती है.’ 

तुम्हारे धर्म की क्षय

Rahul Sankrityayan

वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है. एक पूरब मुंह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर. एक सिर पर कुछ बाल बढ़ाना चाहता है, तो दूसरा दाढ़ी. एक मूंछ कतरने के लिए कहता है, तो दूसरा मूंछ रखने के लिए. एक जानवर का गला रेतने के लिए कहता है, तो दूसरा एक हाथ से गर्दन साफ करने को. एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखता है, तो दूसरा बाईं तरफ. एक जूठ-मीठ का कोई विचार नहीं रखता तो दूसरे के यहां जाति के भीतर भी बहुत-से चूल्हे हैं. एक खुदा के सिवाय दूसरे का नाम भी दुनिया में रहने देना नहीं चाहता, तो दूसरे के देवताओं की संख्या नहीं. एक गाय की रक्षा के लिए जान देने को कहता है, तो दूसरा उसकी कुर्बानी से बड़ा सबाब समझता है.

इसी तरह दुनिया के सभी मजहबों में भारी मतभेद है. ये मतभेद सिर्फ विचारों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि इन मतभेदों के कारण मजहबों ने एक-दूसरे के ऊपर जुल्म के कितने पहाड़ ढाए. यूनान और रोम के अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दीखता है? इसलिए कि वहां एक मजहब आया, जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को अपने लिए खतरे की चीज समझता था. ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नामशेष-सा क्यों हो जाना पड़ा? क्योंकि, उसे एक ऐसे मजहब से पाला पड़ा, जो इंसानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था. मेक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान, मिस्र और जावा – जहां भी देखिए, मजहबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया. और खून-खराबा? इसके लिए तो पूछिए मत. अपने-अपने खुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी किताबों और पाखंडों के नाम पर मनुष्य के खून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया. यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बूढ़ों, बच्चों, स्त्री-पुरूषों को शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो पीछे अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे? ईसा मसीह के नाम पर उन्होंने खुल कर तलवार का इस्तेमाल किया. जर्मनी में ईसाइयत के भीतर लोगों को लाने के लिए कत्लेआम सा मचा दिया गया. पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे. कहीं ऐसा न हो कि ये ओक उन्हें फिर पथभ्रष्ट कर दें, इसके लिए बस्तियों के आस-पास एक भी ओक को रहने न दिया गया. पोप और पेत्रियार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार-स्वातंत्र्य को आग और लोहे के जरिए से दबाते रहे. जरा से विचार-भेद के लिए कितनों को चर्खी से दबाया गया- कितनों को जीते जी आग में जलाया गया. हिंदुस्तान की भूमि ऐसी धार्मिक मतांधता का कम शिकार नहीं रही है. इस्लाम के आने से पहले भी क्या मजहब ने बोलने और सुनने वालों के मुंह और कानों में पिघले रांगे और लाख को नहीं भरा? शंकराचार्य ऐसे आदमी जो कि सारी शक्ति लगा गला फाड़-फाड़कर यही चिल्ला रहे थे कि सभी ब्रह्म हैं, ब्रह्म से भिन्न सभी चीजें झूठी हैं तथा रामानुज और दूसरों के भी दर्शन जबानी जमा-खर्च से आगे नहीं बढ़े, बल्कि सारी शक्ति लगाकर शूद्रों और दलितों को नीचे दबा रखने में उन्होंने कोई कोर-कसर उठा नहीं रखी और इस्लाम के आने के बाद तो हिंदू-धर्म और इस्लाम के खूंरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं. उन्होंने तो हमारे देश को अब तक नरक बना रखा है. कहने के लिए इस्लाम शक्ति और विश्व-बंधुत्व का धर्म कहलाता है, हिंदू धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है, किंतु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया? हिंदू मुसलमानों पर दोष लगाते हैं कि ये बेगुनाहों का खून करते हैं, हमारे मंदिरों और पवित्र तीर्थों को भ्रष्ट करते हैं, हमारी स्त्रियों को भगा ले जाते हैं. लेकिन झगड़े में क्या हिंदू बेगुनाहों का खून करने से बाज आते हैं? चाहे आप कानपुर के हिंदू-मुस्लिम झगड़े को ले लीजिए या बनारस के, इलाहाबाद के या आगरे के, सब जगह देखेंगे कि हिंदुओं और मुसलमानों के छुरे और लाठी के शिकार हुए हैं- निरपराध, अजनबी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे. गांव या दूसरे मुहल्ले का कोई अभागा आदमी अनजाने उस रास्ते आ गुजरा और कोई पीछे से छुरा भोंक कर चंपत हो गया. सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिए, तो आपको मालूम होगा कि यहां मनुष्यता पनाह मांग रही है. निहत्थे बूढ़े और बूढ़ियां ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चे तक मार डाले जाते हैं. अपने धर्म के दुश्मनों को जलती आग में फेंकने की बात अब भी देखी जाती है.

एक देश और एक खून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं. खून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम हिंदुस्तान में क्या देखते हैं? हिंदुओं की सभी जातियों में, चाहे आरंभ में कुछ भी क्यों न रहा हो, अब तो एक ही खून दौड़ रहा है. क्या शक्ल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद्र? कोयले से भी काले ब्राह्मण आपको लाखों की तादाद में मिलेंगे और शूद्रों में भी गेहुएं रंग वालों का अभाव नहीं है. पास-पास में रहने वाले स्त्री-पुरुष के यौन संबंध, जाति की ओर से हजार रुकावट होने पर भी, हम आए दिन देखते हैं. कितने ही धनी खानदानों, राजवंशों के बारे में तो लोग साफ ही कहते हैं कि दास का लड़का राजा और दासी का लड़का राजपुत्र. इतना होने पर भी हिंदू धर्म लोगों को हजारों जातियों में बांटे हुए है. कितने ही हिंदू, हिंदू के नाम पर जातीय एकता स्थापित करना चाहते हैं. किंतु, वह हिंदू जातीयता है कहां? हिंदू जाति तो एक काल्पनिक शब्द है. वस्तुतः वहां है तो एक काल्पनिक शब्द है. वस्तुतः वहां है ब्राह्मण ब्राह्मण भी नहीं, शाकद्वीपी, सनाढ्य, जुझौतिया, राजपूत, खत्री, भूमिहार, कायस्थ, चमार आदि-आदि. एक राजपूत का खाना-पीना, ब्याह-श्राद्ध अपनी जाति तक सीमित रहता है. उसकी सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक सीमित है. इसीलिए जब एक राजपूत बड़े पद पर पहुंचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फायदा पहुंचाना चाहता है. यह स्वाभाविक है. जबकि चौबीसों घंटे जीने-मरने सब में साथ संबंध रखने वाले अपनी बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक कैसे जाएगी?

कहने के लिए तो हिंदुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पांत के बंधनों को तोड़ दिया. इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं. लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुंजड़ा) आदि का सवाल न उठता. अर्जल और अशरफ का शब्द किसी के मुंह पर न आता. सैयद-शेख, मलिक-पठान, उसी तरह का ख्याल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिंदुओं के बड़ी जात वाले. खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिंदुओं में भी कम होता जा रहा है. लेकिन सवाल तो है – सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौका दिया? हिंदुस्तानियों में से चार-पांच करोड़ आदमियों ने हिंदुओं के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अत्याचारों से त्राण पाने के लिए इस्लाम की शरण ली. लेकिन, इस्लाम की बड़ी जातों ने क्या उन्हें वहां पनपने दिया? सात सौ वर्ष बाद भी आज गांव का मोमिन जमींदारों और बड़ी जातों के जुल्म का वैसा ही शिकार है, जैसा कि उसका पड़ोसी कानू-कुर्मी. सरकारी नौकरियों में अपने लिए संख्या सुरक्षित कराई जाती है. लेकिन जब उस संख्या को अपने भीतर वितरण करने का अवसर आता है, तब उनमें से प्रायः सभी को बड़ी जाति वाले सैयद और शेख अपने हाथ में ले लेते हैं. साठ-साठ, सत्तर-सत्तर फीसदी संख्या रखने वाले मोमिन और अंसार मुंह ताकते रह जाते हैं. बहाना किया जाता है कि उनमें उतनी शिक्षा नहीं. लेकिन सात सौ और हजार बरस बाद भी यदि वे शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं, तो इसका दोष किसके ऊपर है? उन्हें कब शिक्षित होने का अवसर दिया गया? जब पढ़ाने का अवसर आया, छात्रवृत्ति देने का मौका आया, तब तो ध्यान अपने भाई-बंधुओं की तरफ चला गया. मोमिन और अंसार, बावर्ची और चपरासी, खिदमतगार, हुक्काबरदार के काम के लिए बने हैं. उनमें से कोई यदि शिक्षित हो भी जाता है, तो उसकी सिफारिश के लिए अपनी जाति में तो वैसा प्रभावशाली व्यक्ति है नहीं और बाहर वाले अपने भाई-बंधु को छोड़ कर उन पर तरजीह क्यों देने लगे? नौकरियों और पदों के लिए इतनी दौड़-धूप, इतनी जद्दोजहद सिर्फ खिदमते-कौम और देश सेवा के लिए नहीं है, यह है रुपयों के लिए, इज्जत और आराम की जिंदगी बसर करने के लिए.

हिंदू और मुसलमान फरक-फरक धर्म रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का खून बह रहा है, जो इसी देश में पैदा हुए और पले, फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज क्या उन्हें अलग कौम साबित कर सकती है? क्या खून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिंदू और मुसलमान को फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिंदुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है? जापान में जाइए या जर्मनी, ईरान जाइए या तुर्की- सभी जगह हमें हिंदी और ‘इंडियन’ कहकर पुकारा जाता है. जो धर्म भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मजहब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मजहब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिंदू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है. एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है. एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिंतो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है. एक ईरानी चाहे वह मुसलमान हो या जरतुस्त, किंतु वह अपने लिए ईरानी छोड़ दूसरा नाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. तो हम हिंदियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बांटने को क्यों तैयार हैं और इन नाजायज हरकतों को हम क्यों बर्दाश्त करें?

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसीलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की भी बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं. लेकिन क्या यह संभव है? ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना है? अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता, तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों से गोबर खाने वालों को लड़ा रहा है? असल बात यह है- ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना. भाई को है सिखाता भाई का खून पीना.’ हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी. कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता. काली कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता. मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है. उसको मौत छोड़ कर इलाज नहीं. 

एक तरफ तो वे मजहब एक-दूसरे के इतने जबर्दस्त खून के प्यासे हैं. उनमें से हर एक एक-दूसरे के खिलाफ शिक्षा देता है. कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, बोली-बानी, रीति-रिवाज में हर एक एक-दूसरे से उल्टा रास्ता लेता है. लेकिन, जहां गरीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है, तो दोनों बोलते हैं.

गदहा गांव के महाराज बेवकफ बख्श सिंह सात पुश्त से पहले दर्जे के बेवकूफ चले आते हैं. आज उनके पास पचास लाख सालाना आमदनी की जमींदारी है, जिसको प्राप्त करने में न उन्होंने एक धेला अकल खर्च की और न अपनी बुद्धि के बल पर उसे छह दिन चला ही सकते हैं. न वे अपनी मेहनत से धरती से एक छटांक चावल पैदा कर सकते हैं, न एक कंकड़ी गुड़. महाराज बेवकूफ बख्श सिंह को यदि चावल, गेहूं, घी, लकड़ी के ढेर के साथ एक जंगल में अकेले छोड़ दिया जाए, तो भी उनमें न इतनी बुद्धि है और न उन्हें काम का ढंग मालूम है कि अपना पेट भी पाल सकें, सात दिन में बिल्ला-बिल्लाकर जरूर वे वहीं मर जायेंगे. लेकिन आज गदहा गांव के महाराज दस हजार रुपया महीना तो मोटर के तेल में फूंक डालते हैं. बीस-बीस हजार रुपये जोड़े कुत्ते उनके पास हैं. दो लाख रुपये लगाकर उनके लिए महल बना हुआ है. उन पर अलग डॉक्टर और नौकर हैं. गर्मियों में उनके घरों में बरफ के टुकड़े और बिजली के पंखे लगते हैं. महाराज के भोजन-छाजन की तो बात ही क्या? उनके नौकरों के नौकर भी घी-दूध में नहाते हैं और जिस रुपये को इस प्रकार पानी की तरह बहाया जाता है, वह आता कहां से है? उसे पैदा करने वाले कैसी जिंदगी बिताते हैं? वे दाने-दाने को मोहताज हैं. उनके लड़कों को महाराज बेवकूफ बख्श सिंह के कुत्तों का जूठा भी यदि मिल जाए, तो वे अपने को धन्य समझें. 

लेकिन यदि किसी धर्मानुयायी से पूछा जाए कि ऐसे बेवकूफ आदमी को बिना हाथ-पैर हिलाए दूसरे की कसाले की कमाई को पागल की तरह फेंकने का क्या अधिकार है, तो पंडित जी कहेंगे, ‘अरे वे तो पूर्व की कमाई खा रहे हैं. भगवान की ओर से वे बड़े बनाए गए हैं. शास्त्र-वेद कहते हैं कि बड़े-छोटे को बनाने वाले भगवान हैं. गरीब दाने-दाने को मारा-मारा फिरता है, यह भगवान की ओर से उसको दंड मिला है.’ यदि किसी मौलवी या पादरी से पूछिए तो जवाब मिलेगा, ‘क्या तुम काफिर हो? नास्तिक तो नहीं हो? अमीर-गरीब दुनिया का कारबार चलाने के लिए खुदा ने बनाए हैं. राजी-व-रजा खुदा की मर्जी में इंसान को दखल देने का क्या हक? गरीबी को न्यामत समझो. उसकी बंदगी और फरमाबरदारी बजा लाओ, कयामत में तुम्हें इसकी मजदूरी मिलेगी.’ पूछा जाए जब बिना मेहनत ही के महाराज बेवकूफ बख्श सिंह धरती पर ही स्वर्ग का आनंद भोग रहे हैं, तो ऐसे ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ के दरबार में बंदगी और फरमाबरदारी से कुछ होने-हवाने की क्या उम्मीद?

उल्लू शहर के नवाब नामाकूल खां भी बड़े पुराने रईस हैं. उनकी भी जमींदारी है और ऐशो-आराम में बेवकफ बख्श सिंह से कम नहीं हैं. उनके पाखाने की दीवारों में इतर चुपड़ा जाता है और गुलाबजल से उसे धोया जाता है. सुंदरियों और हुस्न की परियों को फंसा लाने के लिए उनके सैकड़ों आदमी देश-विदेशों में घूमा करते हैं. ये परियां एक ही दीदार में उनके लिए बासी हो जाती हैं. पचासों हकीम, डॉक्टर और वैद्य उनके लिए जौहर, कुश्ता और रसायन तैयार करते रहते हैं. दो-दो साल की पुरानी शराबें पेरिस और लंदन के तहखानों से बड़ी-बड़ी कीमत पर मंगाकर रखी जाती हैं. नवाब बहादुर का तलवा इतना लाल और मुलायम है, जितनी इंद्र की परियों की जीभ भी न होगी. इनकी पाशविक काम-वासना की तृप्ति में बाधा डालने के लिए कितने ही पति तलवार के घाट उतारे जाते हैं, कितने ही पिता झूठे मुकदमों में फंसा कर कैदखाने में सड़ाए जाते हैं. साठ लाख सालाना आमदनी भी उनके लिए काफी नहीं है. हर साल दस-पांच लाख रुपया और कर्ज हो जाता है. आपको बड़ी-बड़ी उपाधियां सरकार की ओर से मिली हैं. वायसराय के दरबार में सबसे पहले कुर्सी इनकी होती है और उनके स्वागत में व्याख्यान देने और अभिनंदन-पत्र पढ़ने का काम हमेशा उल्लू शहर के नवाब बहादुर और गदहा गांव के महाराजा बहादुर को मिलता है. छोटे और बड़े दोनों लाट, इन दोनों रईसूल उमरा की बुद्धिमानी, प्रबंध की योग्यता और रियाया-परवरी की तारीफ करते नहीं अघाते. 

नवाब बहादुर की अमीरी को खुदा की बरकत और कर्म का फल कहने में पंडित और मौलवी, पुरोहित और पादरी सभी एक राय हैं. रात-दिन आपस में तथा अपने अनुयायियों में खून-खराबी का बाजार गर्म रखने वाले, अल्लाह और भगवान यहां बिलकुल एक मत रखते हैं. वेद और कुरान, इंजील और बाइबिल की इस बारे में सिर्फ एक शिक्षा है. खून चूसने वाली इन जोंकों के स्वार्थ की रक्षा ही मानो इन धर्मों का कर्तव्य हो और मरने के बाद भी बहिश्त और स्वर्ग के सबसे अच्छे महल, सबसे सुंदर बगीचे, सबसे बड़ी आंखों वाली हूरें और अप्सराएं, सबसे अच्छी शराब और शहद की नहरें उल्लू शहर के नवाब बहादुर तथा गदहा गांव के महाराजा और उनके भाई-बंधुओं के लिए रिजर्व हैं, क्योंकि उन्होंने दो-चार मस्जिदें, दो-चार शिवाले बनवा दिए हैं. कुछ साधु-फकीर और ब्राह्मण-मुजावर रोजाना उनके यहां हलवा-पूड़ी, कबाब-पुलाव उड़ाया करते हैं. गरीबों की गरीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं. हां, यदि वे हर एकादशी के उपवास, हर रमजान के रोजे तथा सभी तीरथ-व्रत, हज और जियारत बिना नागा और बिना बेपरवाही से करते रहे, अपने पेट को काट कर यदि पंडे-मुजावरों का पेट भरते रहे, तो उन्हें भी स्वर्ग और बहिश्त के किसी कोने की कोठरी तथा बची-खुची हूर-अप्सरा मिल जाएगी. गरीबों को बस इसी स्वर्ग की उम्मीद पर अपनी जिंदगी काटनी है. किंतु जिस स्वर्ग-बहिश्त की आशा पर जिंदगी भर के दुःख के पहाड़ों को ढोना है, उस स्वर्ग-बहिश्त का अस्तित्व ही आज बीसवीं सदी के इस भूगोल में कहीं नहीं है. पहले जमीन चपटी थी. स्वर्ग इसके उत्तर से सात पहाड़ों और सात समुद्रों के पार था. आज तो न उस चपटी जमीन का पता है और न उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात समुद्रों का. जिस सुमेरु के ऊपर इंद्र की अमरावती व क्षीरसागर के भीतर शेषशायी भगवान थे, वह अब सिर्फ लड़कों के दिल बहलाने की कहानियां मात्र हैं. ईसाइयों और मुसलमानों के बहिश्त के लिए भी उसी समय के भूगोल में स्थान था. आजकल के भूगोल ने तो उनकी जड़ ही काट दी है. फिर उस आशा पर लोगों को भूखा रखना क्या भारी धोखा नहीं है?