बुत को पूजते हैं पर इंसानियत की कीमत पता नहीं

AApbiti

ये घटना बीते साल की है. हमारे शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक छोटा पर प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर है, जहां हर महीने की 17 तारीख को मेला लगता है. इस मेले में आसपास के क्षेत्रों के लोग अच्छी-खासी संख्या में जुटते हैं. मंदिर बहुत बड़ा और व्यवस्थित नहीं है, श्रद्धालु ही खुद व्यवस्थापक की भी भूमिका निभाते हैं. ये जुलाई या अगस्त का महीना था. मानसून की बौछारों के बाद तेज धूप निकली थी. गर्मी और उमस अपने चरम पर थी. वैसे तो यहां ज्यादा भीड़ नहीं होती पर चंूकि ये सावन के दिन थे इसलिए श्रद्धालुओं की भीड़ का कोई ठिकाना नहीं था.

उस दिन शिव को जल चढ़ाने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी हुई थी. उनकी सुविधा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जगह-जगह बैरिकेड लगाए गए थे, कुछ सुरक्षाकर्मी भी व्यवस्था में लगाए गए थे. दर्शन करने जाने के लिए कई कतारें लगी हुई थीं. ये कतारें आसमान में सूरज चढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जा रही थीं. हर कुछ देर में ‘बम-बम भोले’  औैर ‘हर-हर महादेव’ के स्वर मंदिर को गुंजायमान कर रहे थे. लोग इतनी गर्मी में अपना धैर्य बनाए रखने के लिए शायद जोर-जोर से जयकारे लगा रहे थे. कई लोग बैरिकेड लांघकर आगे निकलने की कोशिश में भी थे पर सुरक्षाकर्मियों की मुस्तैदी के चलते सफल नहीं हो पा रहे थे. मंदिर से दर्शन करके निकलने के लिए भी लाइन लगी थी.

दुनिया में तमाम धर्म हैं पर आज जिंदगी के पचास-पचपन साल देखने के बाद भी मुझे मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं लगता

मैं अपनी एक परिचित के साथ थी और हम दर्शन कर चुके थे. मंदिर से निकलने वाली कतार में लगे हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे कि तभी अचानक पीछे से कुछ शोर सुनाई दिया. इतनी धक्का-मुक्की और भीड़ में हमें लगा कोई जेबकतरा या चेन स्नेचर मौके का फायदा उठा ले गया पर यहां माजरा कुछ और ही था. मंदिर में दर्शन करने के लिए लगी कतार में एक महिला भीषण गर्मी और उपवास के कारण गश खाकर गिर गई थी. हमें लगा उसके साथ कोई संगी-साथी तो होगा पर ऐसा नहीं था. पीछे से किसी ने बताया कि वो महिला अकेली है क्योंकि गिरने के बाद उसकी मदद के लिए कोई नहीं आया. यहां तक कि पास खड़े लोगों ने भी उनकी मदद करना जरूरी नहीं समझा. हम दोनों ही ये सुनकर पीछे मुड़े पर भीड़ के रेले ने पलटकर जाने का मौका नहीं दिया.

भीड़ में से ही इतना देख पाए कि वो महिला जमीन पर गिरी हुई थी और लोग उसको लांघते हुए दर्शन करने के लिए बढ़े जा रहे थे. जिस जगह वो महिला थी, हम दोनों ही उस जगह से विपरीत लाइन में काफी दूर थे और उलटी दिशा में निकलकर जाने का कोई रास्ता नहीं था. ऐसी कोई कोशिश भी करते तो वहां की व्यवस्था में खलल पड़ने का डर था. उसे असहाय देखते रहने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. हम उसकी मदद न कर पाने की विवशता में पलटकर देखते और दूसरी तरफ की लाइन में लगे लोगों से कहते कि कोई जाकर उसकी मदद तो कर दे पर कोई फायदा नहीं हुआ. इसी रेलमपेल में हम मंदिर प्रांगण से बाहर आ गए.

फिर पलटकर देखा तो शायद किसी सुरक्षाकर्मी या रहमदिल ने उसे उठाकर पेड़ के नीचे बैठा दिया था. वो पानी पी रही थी. देखकर थोड़ा सुकून मिला. पर इस वाकये ने सोचने पर मजबूर कर दिया. लोगों के लिए इंसान से ज्यादा कीमत उस मूर्ति, उस बुत की थी जिसे हम सब भगवान कहते हैं. श्रद्धालुओं की आस्था सिर्फ भगवान के दर्शन में थी पर क्या उनकी ईश्वर में इस आस्था के सामने इंसानी जान या इंसानियत की कीमत कम थी! किसी पुण्य की आशा में भगवान को पूजना पर किसी को दुख में देखते हुए भी उसकी मदद न करना… ये सत्कर्म या पूजा का कौन-सा रूप है?

दुनिया में तरह-तरह के विश्वासों को मानने वाले लोग हैं. सभी के पास अपने तर्क हैं पर आज जिंदगी के पचास-पचपन साल देखने के बाद भी मुझे मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं लगता.  

(लेखिका गृहिणी हैं और उत्तर प्रदेश के रामपुर में रहती हैं)