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‘सत्ता हस्तांतरण संधि से पता चल पाएगी नेताजी की सच्चाई’ : राम तीर्थ विकल

गुमनामी बाबा उर्फ भगवन जी की ‘गुमनाम’ मौत के 42 दिन बाद फैजाबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘नये लोग’ के दो पत्रकार राम तीर्थ विकल और उनके सहयोगी चंद्रेश कुमार ने गुमनामी बाबा के नेताजी होने का दावा करते हुए पहली खबर लिखी. इस खबर को अखबार के पहले पन्ने पर जगह दी गई. इस रिपोर्ट के आने के बाद ही दूसरे अखबारों ने इस खबर को तरजीह देना शुरू किया. रिपोर्ट में विकल और चंद्रेश ने लिखा, ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस जो पिछले 12 साल से अयोध्या-फैजाबाद में गुमनामी बाबा के नाम से रह रहे थे, उनकी मौत 16 सितंबर को रहस्यमय परिस्थितियों में हो गई है. मौत के बाद फैजाबाद के बस स्टॉप के पास स्थित राम भवन पर उनके तीन तथाकथित दावेदारों ने नेताजी की संपत्ति पर दावा किया है. तीनों ने घर पर अपने-अपने ताले भी जड़ दिए हैं. साथ ही वे सभी सबूतों को मिटाने में भी लग गए हैं.’ बाद में अखबार के संपादक अशोक टंडन ने ‘गुमनामी सुभाष’ नाम की पुस्तक भी लिखी. इसके कुछ अंश कमलेश्वर के संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका ‘गंगा’ में धारावाहिक के रूप में छपे थे. टंडन का दावा है कि उन्होंने बाबा के पास से मिली 2,760 वस्तुओं की बारीकी से जांच की है और उनमें से अनेक नेताजी से संबंधित हैं.

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पत्रकार राम तीर्थ विकल

 गुमनामी बाबा के नेताजी होने की खबर कैसे पता चली और इसके सूत्र क्या रहे?

उन दिनों मैं अपने अखबार में संडे मैगजीन का पेज देखता था. इसके लिए मैं रामकथा पर कुछ लेख लिख रहा था. इसी सिलसिले में शायद पांच अक्टूबर के दिन यहां के राजकरन इंटर कॉलेज के शिक्षक कृष्ण गोपाल श्रीवास्तव के पास कुछ स्केच लेने गया था. स्केच लेने के दरमियान ही उन्होंने इस घटना का उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि 14 सितंबर को राम भवन में रहने वाले गुमनामी बाबा, जो कि नेताजी थे, की मौत हो गई है. उसके तीन दिन बाद उनका अंतिम संस्कार गुफ्तार घाट पर कर दिया गया. जब हमने पूछा कि यह कैसे मान लिया जाए कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे, तब उन्होंने कहा कि हम आपकी मुलाकात उनकी सबसे खास सेविका सरस्वती देवी से करा देते हैं. गुमनामी बाबा के अंतिम दिनों में वही उनके साथ रही थीं. सरस्वती देवी बस्ती की रहने वाली हैं.

जब हमारी भेंट सरस्वती देवी से हुई तब उनसे बातचीत के दौरान हमें कई ऐसी बातों का पता चला जिससे लगा कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. हालांकि इस दौरान हमारे पास कोई ऐसे साक्ष्य नहीं थे जिनसे साबित होता कि यह बात सही है. हमने इस खबर के बारे में अपने संपादक को बताया. उन्होंने कहा कि इस घटना के बारे में और पड़ताल करो. करीब 21 दिन तक पूरी पड़ताल करने के बाद 27 अक्टूबर को हमने यह खबर लिखी और 28 अक्टूबर, 1985 के अंक में यह खबर लोगों को पढ़ने को मिली. इस दौरान हमने राम किशोर पंडा, राजकुमार शुक्ला, डॉ. पी बनर्जी समेत इस मामले से जुड़े सारे लोगों से बातचीत की. खबर पढ़ने के बाद यहां जनांदोलन शुरू हो गया. उस दौरान राम भवन के जिस कमरे में गुमनामी बाबा रहा करते थे वहां पर तीन ताले लगे हुए थे. पहला ताला डॉ. पी. बनर्जी ने लगा रखा था. दूसरा डॉ. आरपी रॉय ने लगा रखा था जबकि तीसरा सरस्वती देवी ने लगा रखा था. इस दौरान भारी जनदबाव के चलते प्रशासन ने सूची बनाकर सारी चीजों को अपनी कस्टडी में रखने का निर्णय लिया. इतना होने तक सारे देश के अखबारों का ध्यान इस तरफ गया. कई अखबार इसे फॉलो करने लगे.

पहली खबर छपने के बाद से मामले में क्या प्रगति हुई?

खबर छपने के बाद प्रशासन ने गुमनामी बाबा के सारे सामान को बाहर निकालकर एक सूची बनाई और उसे बक्सों में भरकर कोषागार पहुंचा दिया गया. हालांकि ये बात आ चुकी थी तो जनता ने इस मामले काे साफ करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. इसी का परिणाम हुआ कि केंद्र सरकार को मुखर्जी आयोग का गठन करना पड़ा. जब मुखर्जी आयोग ने मामले की जांच शुरू कर दी तो लोगों को लगा कि सच सामने आएगा लेकिन सरकार ने इस आयोग की जांच को बीच में ही रोक दिया. तब इस मामले को लेकर नेताजी के परिवार की एक महिला और राम भवन के मालिक शक्ति सिंह अदालत की शरण में चले गए.

1985 में जब आपने यह खबर छापी तो क्या प्रशासन की तरफ से इसका खंडन आया था या जिले के अधिकारियों ने इससे इनकार किया?

उस दौरान जिले में कौन-कौन-से अधिकारी थे, यह तो याद नहीं है, लेकिन एक बात साफ है कि किसी भी अधिकारी ने इस खबर का खंडन नहीं किया था. यह सिर्फ हमारे अखबार की बात नहीं थी, देश भर के अखबारों ने इस खबर को छापना शुरू किया था. इसमें लखनऊ, नई दिल्ली और कोलकाता से छपने वाले अखबार शामिल थे. इस दौरान यह आरोप भी लगा कि बहुत सारे अधिकारी गुमनामी बाबा के अंतिम संस्कार में शामिल भी रहे लेकिन न तो किसी अधिकारी ने इन खबरों की पुष्टि की और न ही खंडन किया. जबकि उस वक्त अगर हम प्रशासन के खिलाफ कोई भी खबर छापते थे तो तुरंत अगले दिन अधिकारी उसका खंडन करते थे. इस मामले में उस परंपरा का निर्वाह नहीं किया गया.

कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के अंतिम संस्कार में शामिल होने कोलकाता से उनका कोई भी परिजन नहीं आया था. क्या यह बात सच है?

सरस्वती देवी के अनुसार गुमनामी बाबा की मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार दो दिन बाद किया गया था. उन्होंने बताया था कि इस दौरान कोलकाता से आने वाले उनके परिजनों का इंतजार किया जा रहा था. हालांकि जब वहां से कोई नहीं आया तो शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

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क्या वाकई में गुमनामी बाबा के मरने के बाद उनका चेहरा विकृत कर दिया गया था. उस समय मौजूद डॉ. आरपी मिश्रा इस बात का खंडन करते हैं?

हां, बिल्कुल उनका चेहरा खराब कर दिया गया था. सरस्वती देवी ने मुझे पहली मुलाकात में यह बात बताई थी कि डॉ. बनर्जी और डॉ. मिश्रा ने उनका चेहरा खराब कर दिया था. यही कारण भी था कि उनके भक्तों में इस बात को  लेकर लड़ाई हुई और यह बात दुनिया को पता चल गई. डॉ. मिश्रा आज भले ही इस बात से इनकार कर रहे हैं लेकिन उस दौरान जब लोग उन पर आरोप लगा रहे थे तब उन्होंने चुप्पी साध रखी थी या कहते थे कि यह गुमनामी बाबा का आदेश था.

इतने दिनों तक गुमनामी बाबा या नेताजी से जुड़ा यह रहस्य बना हुआ है, क्या लगता है कि इस मामले का कभी खुलासा होगा?

मुझे लगता है इस मामले का खुलासा ट्रांसफर ऑफ पावर पैक्ट (सत्ता हस्तांतरण संधि) के खुलासे से हो सकता है. मुझे यह भी लगता है कि सरकार को यह पता है कि गुमनामी बाबा कौन थे, पर वह किन मजबूरियों के चलते खुलासा नहीं कर रही है इस बारे में मुझे पता नहीं है. हालांकि अब आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद जनता को यह पता चलना चाहिए कि हमें अंग्रेजों ने आजादी किन शर्तों पर दी थी. बहुत सारे लोगों का मानना है कि इसमें नेताजी को सौंपे जाने की भी शर्त जुड़ी हुई थी. अगर यह बात सच है तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.

इतने लंबे समय तक इस मामले पर रिपोर्टिंग करने के बाद आप किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं?

इन 30 सालों की रिपोर्टिंग के दरमियान मेरी मुलाकात तमाम ऐसे लोगों से हुई और तमाम ऐसे साक्ष्य सामने आए जिससे मुझे लगता है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. आज भी जब गुमनामी बाबा का सामान बाहर निकाला जाता है या इसे इधर-उधर किया जाता है तो एक बड़ा वर्ग यह दावा करता है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. पर अभी देखिए जो सामान रामकथा संग्रहालय भेजा जा रहा है और जिसे देखकर लोग उनके नेताजी होने का कयास लगा रहे हैं. उन्हें मैं 30 साल से देख रहा हूं. पहली बार जब वो सामान जब्त हुआ तब भी बहुत सारे लोगों की यही धारणा थी. बाद में जब मुखर्जी आयोग बना तो इस धारणा को और बल मिला. अब जब अदालत के आदेश से सामान को संग्रहालय में रखा जा रहा है तो भी कहीं न कहीं इसी बात की पुष्टि हो रही है. सरकार इस पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है तो यह बात तो साफ है कि वे जरूर ही आजादी से जुड़े नायक रहे होंगे.

दो साल की मोदी सरकार, अच्छे दिनों का इंतजार

फोटो साभारः asia361.com
फोटो साभारः asia361.com

तीस साल बाद केंद्र में प्रचंड बहुमत से आई मोदी सरकार अपने दो साल पूरे कर रही है. निजी तौर पर नरेंद्र मोदी ने सत्ता की दौड़ में अपने प्रतिद्वंद्वी गठबंधन यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस) को काफी पीछे छोड़ते हुए एनडीए (नेशनल डेेमोक्रेटिक एलायंस) को जबरदस्त बढ़त दिलाई और प्रधानमंत्री बने. यह पहली बार था जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अकेले ही सरकार बनाने के लिए जितना जरूरी है, उससे ज्यादा बहुमत हासिल किया. लोकसभा चुनाव 2014 के लिए जब चुनाव प्रचार खत्म हुआ, तब पार्टी ने दावा किया कि नरेंद्र मोदी ने अब तक तीन लाख किलोमीटर से अधिक यात्राएं कीं और परंपरागत व नए तरीकों से करीब 5,827 कार्यक्रमों में शिरकत की. मोदी ने कुल 437 जनसभाओं को संबोधित किया. उन्होंने प्रचार का नया तरीका अपनाते हुए 1,350 3डी रैलियां कीं. यह भारत के चुनावी इतिहास का सबसे बड़ा प्रचार अभियान था. भाजपा को इसका फायदा भी मिला. भाजपा ने अकेले 543 लोकसभा सीटों में  से 282 सीटें जीत लीं और एनडीए गठबंधन को कुल 336 सीटें मिलीं. इसके उलट सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को महज 44 सीटें मिलीं और यूपीए गठबंधन को कुल 60 सीटें मिलीं.

‘जब कोई सितारवादक बैठता है सितार बजाने, तो थोड़ा समय लेकर खूंटियां वगैरह कसता है. तबलावादक बैठता है तो तबले को ठीक करता है. यह समय बहुत थोड़ा होना चाहिए वरना दर्शक उकता जाएंगे. केंद्र सरकार अभी तक उसी स्टेज में है, वादन से पहले की ही स्टेज में. अभी तक उपलब्धियां सामने नहीं आ पाई हैं’ 

नरेंद्र मोदी ने देश भर में गुजरात मॉडल लागू करने, आर्थिक उदारीकरण को तेज करने, अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे ले जाने, किसानों और गरीबों का विकास करने, भारत की युवाशक्ति को वैश्विक स्तर पर ले जाने जैसे लोकलुभावन वादे किए. चुनावी वादों से जगी उम्मीद और नरेंद्र मोदी के प्रभावी व्यक्तित्व ने उन्हें ऐतिहासिक बढ़त दिलाई. अब जब नरेंद्र मोदी सरकार दो साल पूरे कर रही है, एक मजबूत सरकार और मजबूत प्रधानमंत्री का सिलसिलेवार आकलन भी किया जाना चाहिए.

हाल ही में आए सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के सर्वे में कहा गया कि 70 फीसदी लोग नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं, जबकि इसके उलट 49 फीसदी लोग मोदी के कामकाज से खुश नहीं हैं. यानी मोदी अब भी सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. लगभग हर जनमत सर्वेक्षण में मोदी की लोकप्रियता कायम है. फिलहाल किसी पार्टी का कोई नेता उन्हें चुनौती देता नहीं दिखता. इसके उलट कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता अपने सबसे निचले स्तर पर है. परिवारवाद और यूपीए-दो के समय हुए भ्रष्टाचार का ठप्पा कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा है, तो दूसरी तरफ राहुल गांधी और सोनिया गांधी का व्यक्तित्व वह करिश्मा नहीं कर पा रहा है जो मोदी का मुकाबला करने के लिए जरूरी है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी केंद्र के दावेदारों में गिना जाता है लेकिन उनके पास मोदी जितना बड़ा तंत्र और संसाधन फिलहाल नहीं हैं.

हालांकि, मोदी की इस लोकप्रियता के बीच ही उनकी पार्टी को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा. लेकिन केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद पार्टी ने हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में सरकार भी बनाई. जबकि भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी राज्य में चुनाव जीत सकने में कामयाब नहीं हो सकी है.

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अतुल अनजान
महासचिव, सीपीआई

मोदी सरकार के दो साल आशाओं से भरे थे लेकिन जनता निराशाओं के घटाटोप अंधेरे में पहुंच गई. अच्छे दिन आने का मतलब अगर ये है कि हम 200 रुपये किलो दाल छह महीने से खाते रहे, तो बुरे दिनों की कल्पना करना ही दु:स्वप्न है. दो करोड़ लोगों को काम दिलाने का वादा करके देश की 65 प्रतिशत युवा आबादी का वोट लिया लेकिन 2015 के आंकड़े कहते हैं कि एक लाख चौदह हजार नौकरियां ही बन पाईं. सर्विस सेक्टर के अंदर जो नौकरियां बनीं वो सिर्फ हायर और फायर की हैं.
सरकार पीने का पानी नहीं दिला सकी लोगों को, डॉक्टरों ने कहा कि आपका पानी जहरीला है, इसलिए सबको कहा कि आरओ का पानी पीजिए. 18 हजार रुपये का आरओ मध्यवर्ग के घर-घर में पहुंचवा दिया गया. निम्न मध्यवर्ग से भी कह रहे हैं कि घर में आरओ जरूर लगवाओ. फिर नौजवानों से कहा कि आरओ लगाने से काम मिलेगा. तीन से ज्यादा कोई आदमी आरओ लगा नहीं सकता. एक आरओ लगाने का 150 रुपये मिलता है. एक युवा दिन में तीन आरओ लगाता है तो एक लीटर पेट्रोल भी जलाता है. यही रोजगार पैदा हुआ, कोई स्थायी रोजगार नहीं है. यह हायर ऐंड फायर का रोजगार है. सवाल यह है कि उस दो करोड़ रोजगार का क्या हुआ.
सितंबर 2014 में सरकार ने बताया था कि हमारा हस्तकला से निर्यात 29 बिलियन डॉलर का है. 2015 में वह 29 बिलियन डॉलर से घटकर 22 बिलियन डॉलर का हो गया. इसका क्या अर्थ है? भारत की अर्थव्यवस्था तब आगे बढ़ेगी जब हमारा निर्यात बढ़ता है. अगर हमारा आयात बढ़ता है तो उसका अर्थ है कि रोजगार के साधन घटते हैं. जो बाहरी फैक्टरियां लाकर आप लगा रहे हैं, वे तो हाइली स्किल्ड हैं. उसमें तो जरूरत ही नहीं है आदमी की. ये निर्यात जो घट गया, इसका मतलब है कि लघु और मझोले उद्योग बंद हो गए हैं. हस्तकला उद्योग खत्म हो गया. राजस्थान में लाख की चूड़ियों का कारोबार खत्म हो गया. मुरादाबाद में बर्तन पर नक्काशी का काम खत्म हो गया क्योंकि इसका निर्यात बंद हो गया. हजारों-हजार परिवार खत्म हो गए.
मनमोहन और मोदी दोनों की अर्थनीति एक ही है. मोदी की अर्थनीति के पितामह तो डॉ. मनमोहन सिंह ही हैं. सारा झगड़ा कमीशन का पैसा खाने को लेकर है. मोदी ने कहा था कि सौ दिन में काला धन लाएंगे, जन-धन योजना के तहत सबका खाता खुलवा दिया. बोले 15 लाख मिलेंगे. अब लोगों को यूनियन बनाकर प्रधानमंत्री के वादों का हिसाब मांगना चाहिए. दो वर्षों में मोदी ने साबित किया कि वे कॉरपोरेट घरानों के अभिन्न मित्र हैं. गरीब लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है. चोरबाजारी, कालाबाजारी, वायदा कारोबार करने वालों के साथ वे पहले भी थे, जिन्होंने उनके चुनाव की फंडिंग की, वे उनके साथ अब भी हैं. ये प्रतिबद्धता भारतीय राजनीति में कभी नहीं देखी गई.

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केंद्र सरकार के दावों और मोदी के भाषणों में देश की विकास गति काफी उत्साहजनक है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सरकार के कामकाज को अभी जमीन पर उतरना बाकी है. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘जब कोई सितारवादक बैठता है सितार बजाने के लिए, तो थोड़ा समय लेता है, खूंटियां वगैरह कसता है. तबलावादक बैठता है तो तबले को ठीक करता है. यह समय बहुत थोड़ा होना चाहिए वरना दर्शक उकता जाएंगे अगर वह तबला ही ठीक करता रहेगा. केंद्र सरकार अब तक उसी स्टेज में है, वादन शुरू करने से पहले की ही स्टेज में. अभी तक उपलब्धियां सामने नहीं आ पाई हैं. बहुत सारी योजनाओं की घोषणा हुई है. दावे बहुत हैं. लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि कहा जा सके कि यह है दो साल के कामकाज का ठोस परिणाम. दावा तो यह था कि ठोस परिणाम मिलेगा. अब दो साल हो चुके हैं. लोग इंतजार कर रहे हैं, देखिए कब तक करते हैं. अभी तक किसी भी काम का कोई ठोस परिणाम नहीं मिला है. ये नहीं कहा जा सकता कि ये-ये नतीजे मिल गए हैं और जनता को इसका लाभ मिलना शुरू हो गया है.’

पठानकोट हमले पर आई संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है. देश में आतंकरोधी गतिविधि में लगे सुरक्षा तंत्र में गंभीर खामी है. भारत की कोई काउंटर टेरर पॉलिसी नहीं है. सटीक जानकारी होने के बावजूद पठानकोट पर हमला नहीं रोका जा सका 

प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल यात्रा पर नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल यात्रा पर नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कीं. अमेरिका वे कई बार गए. कथित तौर पर बिना किसी पूर्व योजना के पाकिस्तान भी पहुंच गए. ओबामा के रात्रिभोज में नवरात्र व्रत के साथ शामिल होने का इतिहास रचा तो ब्रिटेन की महारानी के साथ भोजन कर आए. हर देश में उनकी चर्चित सभाएं हुईं, जहां प्रवासी भारतीयों ने उनकी जय-जयकार भी की. इस दौरान वे स्थायी भाव के साथ कांग्रेस के 65 साला शासन की खूब आलोचना भी करते रहे. इन विदेश यात्राओं के दौरान भाजपा और मोदी सरकार ने इसे ‘न भूतो न भविष्यति’ के अंदाज में पेश किया कि हम दुनिया में भारत की नई पहचान बना रहे हैं. शुरुआती दौर में ऐसा माना भी गया कि मोदी के ताबड़तोड़ दौरों और विदेशों में बड़ी-बड़ी भारतीय सभाओं का अपना खास मतलब हो सकता है. चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूलना या अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए प्रेमपूर्वक संबोधन ‘बराक’ भी खासा चर्चित रहा. नवाज शरीफ के घरेलू कार्यक्रम में मोदी की शिरकत से एक दफा कोई भी सोच सकता था कि अब पाकिस्तान से भारत के रिश्ते बेहद मधुर होने वाले हैं.

सरकार के सौ दिन पूरे होने के बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मीडिया के सामने आईं और विदेश नीति पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा, ‘कूटनीति और विदेश नीति एक-दूसरे का पर्याय नहीं हैं. विदेश नीति अक्सर वही रहती है, लेकिन काम करने का तरीका बदलता है.’ मोदी की नई विदेश नीति को ‘फास्ट ट्रैक डिप्लोमेसी’ का नाम दिया गया. नरेंद्र मोदी पुरानी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ को अहमियत देते हुए पहली यात्रा पर भूटान गए. उसके बाद नेपाल और जापान की यात्रा की. उन्होंने कुछ ऐसे भी देशाें की यात्रा की जहां अभी तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री गया ही नहीं था, या दशकों पहले गया था. मोदी ने इजराइल की यात्रा की जहां अब तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. उन्होंने आयरलैंड की यात्रा की जहां पिछले 60 साल से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बांग्लादेश, म्यांमार, वियतनाम, सिंगापुर आदि देशों की यात्राएं कीं. इन सब देशों के साथ पाकिस्तान का मसला मोदी सरकार की प्राथमिकता में रहा.

‘अमेरिका के बरक्स देखें तो पता नहीं हम क्या हासिल करने में कामयाब रहे हैं. द्विपक्षीय संबंध आपसी व्यक्तिगत संबंधों के मोहताज नहीं होते. ओबामा ने पाकिस्तान द्वारा जैश-ए-मोहम्मद पर कोई कार्रवाई न करने को लेकर उंगली तक नहीं उठाई है. पाकिस्तान के मुद्दे पर हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं’ 

लेकिन इन सब विदेश यात्राओं के चलते अब तक कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दर्ज नहीं की जा सकी है. भारत सरकार द्वारा विदेश में फंसे भारतीय नागरिकों को बचाने के लिए चलाए गए अभियान जरूर सफल रहे. युद्ध और आंतरिक संकट से जूझ रहे यमन में फंसे भारतीयों को बचाने के लिए भारत सरकार ने आॅपरेशन राहत चलाया था. अप्रैल 2015 में सफलतापूर्वक खत्म हुए इस ​अभियान में 5,600 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाला गया. इनमें 4,640 भारतीय नागरिक थे, बाकी 41 देशों के 960 विदेशी नागरिकों को भी भारतीय सैनिकों ने बचाया. युद्धग्रस्त यमन में बड़ी संख्या में भारतीय नर्सें और नागरिक फंसे हुए थे. यह किसी दूसरे देश में चलाया गया अब तक का सबसे बड़ा बचाव अभियान था. विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह की अगुवाई में चले इस अभियान में भारतीय नौसेना, वायुसेना, एयर इंडिया और भारतीय रेल शामिल थीं. इस अभियान की सफलता के चलते सरकार को खूब तारीफ मिली.

मोदी की अप्रत्याशित पाकिस्तान यात्रा के बीच अमेरिका ने पाकिस्तान की सामरिक मदद की और भारत की ओर से एक औपचारिक नाराजगी का प्रदर्शन भर हो सका. नेपाल जैसा देश, जो भारत का अनन्य पड़ोसी है, जो भारत चीन के बीच ‘बफर स्टेट’ की भूमिका निभाता रहा है, उससे रिश्ते बिगड़ गए. हालांकि, मोदी सरकार आम लोगों के बीच यह प्रचारित कर रही है कि उनकी सरकार की विदेश नीति काफी उम्दा है, लेकिन विशेषज्ञों की राय इसके उलट है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसे विदेश नीति की कामयाबी के तौर पर नहीं देखा जा सकता कि विदेशों में बहुत-से लोग मोदी को सुनने आते हैं. नेपाल से संबंध खराब होने, नेपाल की चीन से नजदीकी बढ़ने, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों से संबंधों में उल्लेखनीय सुधार न होने जैसे तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता. विदेश मामलों के जानकारों का कहना है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की नीति समझ में न आने वाली है. कई बार बातचीत होना, फिर टूटना, आतंकवाद के मुकदमों का आगे न बढ़ना और एक-दूसरे पर दोषारोपण करते जाना दोनों देशों की नीतिगत अगंभीरता को दिखाता है.

‘भाजपा सरकार की विदेश नीति में खामी है. ये अमेरिका से जाकर दोस्ती कर रहे हैं, जबकि नेपाल के साथ हमारा विरोध चल रहा है. यह गलत नीति के ही कारण है. इस समय तो विदेश नीति के मामले में कुछ भी ठीक नहीं है. भाजपा सरकार जिस तरह की नीति अपनाए हुए है, वह सही नहीं है’

मोदी और नवाज शरीफ की मुलाकातों, दोनों के बीच साड़ी-शॉल आदि के आदान-प्रदान और शरीफ की मां से मोदी के मिलने जाने की खूब चर्चा हुई. इस सबके बावजूद अगस्त में प्रस्तावित विदेश सचिवों की वार्ता से ठीक पहले पाकिस्तान के हाई कमिश्नर ने कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत की और नतीजतन भारत सरकार ने 25 अगस्त की वार्ता रद्द कर दी.

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पठानकोट हमले के मामले में पाकिस्तान एक तरफ जांच का दिखावा करता रहा और दूसरी तरफ वह जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को लेकर अगंभीर भी बना रहा. इधर भारत की ओर से पाकिस्तानी जांच टीम को पठानकोट बेस तक ले जाया गया. यह एक रणनीतिक रूप से एक भारी चूक थी. पठानकोट हमला, पाकिस्तानी जांच टीम बुलाकर जांच करवाना, जांच टीम के लौटने के बाद पाकिस्तान का वार्ता से इनकार करना, ये सभी घटनाएं सरकार की विफलताओं में दर्ज हुईं. इस उठापटक के बीच सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं वैसी ही हो रही हैं, जैसे पिछले वर्षों में होती रही हैं.

पठानकोट हमले पर हाल ही में आई संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लचर सुरक्षा व्यवस्था पर चिंता जताते हुए कहा गया कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था अभी भी ठीक नहीं है. समिति ने कहा कि देश में आतंकरोधी गतिविधि में लगे सुरक्षा तंत्र में गंभीर खामी है. एसपी सलविंदर सिंह से एक बार फिर पूछताछ की जरूरत बताते हुए समिति ने कहा कि भारत की कोई काउंटर टेरर पॉलिसी नहीं है. सटीक जानकारी होने के बावजूद पठानकोट पर हमला नहीं रोका जा सका. इस हमले में पंजाब पुलिस की भूमिका की जांच होनी चाहिए. समिति के प्रमुख प्रदीप भट्टाचार्य ने बयान दिया कि पठानकोट में सुरक्षा-व्यवस्था खराब थी, एसपी पठानकोट की गतिविधि संदिग्ध थी, उनसे सवाल-जवाब ठीक से नहीं हुए. समिति ने गृह मंत्रालय को कठघरे में खड़ा करते हुए रिपोर्ट में लिखा है कि बीएसएफ ने बेशक बॉर्डर में कंटीले तार लगाए हों लेकिन आतंकवादी अंदर घुसने में कामयाब हुए. समिति ने एयरबेस की सुरक्षा को लेकर भी कई अहम सवाल खड़े किए हैं. 31 सदस्यीय समिति ने यह सवाल भी उठाया है कि जब पठानकोट हमले में पाकिस्तानी एजेंसियों की भूमिका थी तो पाकिस्तानी जांच समिति को भारत क्यों आने दिया गया. समिति का कहना है कि मंत्रालय के ज्यादातर काम कागजों में सिमटे रहते हैं, जमीनी स्तर पर नहीं दिखते. इसे बदलने की जरूरत है. यह हमला दो जनवरी को हुआ था जिसमें सेना के सात जवान शहीद हुए थे. भारत ने इसके लिए आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद को जिम्मेदार ठहराया था. भारत का कहना है कि जैश प्रमुख मौलाना मसूद अजहर इस हमले का मास्टरमाइंड था.

‘सरकार की आर्थिक नीतियां गलत हैं. आज हिंदुस्तान में नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं. महंगाई बढ़ रही है. मजदूर विरोधी काम चल रहा है. कानून बदलकर उसे मजदूरों के खिलाफ किया जा रहा है. किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं. यह नीतियों की पूरी तरह विफलता को दिखाता है.’

चीन के साथ संबंधों में भी कोई उल्लेखनीय सुधार देखने को नहीं मिला है. संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर को आतंकी घोषित करवाने के भारत के प्रस्ताव को चीन ने वीटो कर दिया. विदेश नीति के मामले में यह एक कमजोर कड़ी थी. इसके जवाब में भारत ने उइगर नेता डोल्कन ईसा को वीजा दे दिया और बाद में रद्द भी कर दिया. यह शायद चीन को एक संदेश देने की कोशिश थी. डोल्कन ईसा को चीन ने आतंकवादी घोषित किया है और उनके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी किया है. ईसा लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं लेकिन वे चीनी सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं. वे जर्मनी में निर्वासित जीवन जी रहे हैं. चीन का आरोप है कि इस्लाम को मानने वाले उइगर समुदाय के लोग शिनजियांग प्रांत में जो आंदोलन करते हैं उसे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी गुटों से मदद मिलती है. चूंकि डोल्कन ईसा उइगरों के नेता हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से चीन के दुश्मन हुए. चीन की नाराजगी की चिंता न करके डोल्कन ईसा को भारत आने देना शायद ज्यादा मजबूत संदेश होता, लेकिन अंतत: उन्हें नहीं आने दिया गया. उनको वीजा देने या बाद में रद्द कर देने से कोई फर्क पड़ने के संकेत अब तक तो नहीं दिखे. यह जरूर स्थापित हुआ है कि शांतिपूर्ण लड़ाई लड़ने वाले डोल्कन ईसा चीन की नजर में आतंकवादी हैं, लेकिन कंधार कांड का कारण बना मसूद अजहर, जिस पर मुंबई हमलों और पठानकोट हमले की साजिश रचने का आरोप है, वह आतंकवादी नहीं है. फिलहाल उसकी इस मान्यता में भारत कोई अड़चन खड़ी नहीं कर पाया है.

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अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘डोल्कन के मामले में भारत सरकार ने जिस तरह के डावांडोल रवैये का परिचय दिया, उसका उसकी विदेश नीति और खास तौर पर चीन नीति पर खासा असर पड़ेगा. डोल्कन को वीजा देने का भारत सरकार का फैसला इन मायनों में चौंकाने वाला था, क्योंकि अतीत में ऐसा कदम नहीं उठाया गया था. भारत ने डोल्कन को वीजा देने का फैसला तब लिया था जब चीन ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने के भारत के आग्रह के खिलाफ वीटो कर दिया था. चीन ने ऐसा पाकिस्तान के प्रति दोस्ती निभाने के लिए किया है. डोल्कन को वीजा देने का फैसला सही था. लेकिन डोल्कन का वीजा रद्द करने के मामले में अधिकृत रूप से अभी तक कुछ भी नहीं कहा गया है. सरकार इस मामले में जो भी सफाई दे, आम धारणा तो यही बनेगी कि वह चीन के सामने झुक गई और राजनीति व कूटनीति में आम राय का सर्वाधिक महत्व होता है.’

‘अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई उछाल नहीं है. जितनी ग्रोथ रेट दिखाई जा रही है, उतनी तो 10-12 साल से चल रही है. 2004 से 09 के बीच ग्रोथ रेट इससे भी ज्यादा थी. रोजगार मिलना शुरू नहीं हुआ. बाजार पूरी तरह बंद पड़ा हुआ है. बड़े पूंजीपति अपनी संपत्तियां बेच रहे हैं ताकि अपना कर्ज चुका सकें’ 

रक्षा और विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन का कहना है, ‘वास्तविक स्थिति क्या है, ये तो उन्हीं को पता है जिन्होंने ये निर्णय लिया है. चीन के साथ पेचीदगियां बहुत हैं. एक तो सामरिक स्तर पर जिस तरीके का चीन का रवैया है, उनके जो हित हैं, वो भारत के हित के साथ मेल नहीं खाते. मुझे लगता है कि चीन के साथ कई स्तर पर निपटना पड़ेगा. कई मामलों में आप चीन के साथ सख्ती दिखा सकते हैं लेकिन फिर कई में आपको नरमी बरतनी होगी.’

सुशांत सरीन का कहना है, ‘पाकिस्तान पर नीति में एक तरह से कमजोरी है. पिछले दो साल में कम से कम पांच बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पहल की है. हाल में भी जब रिश्तों में कड़वाहट आई तो उसे बेहतर करने की कोशिश नरेंद्र मोदी ने की. लेकिन लगता है कि पहले के प्रधानमंत्रियों की कोशिशों की तरह उनकी कोशिश का कोई असर नजर नहीं आ रहा. दूसरा पहलू है नरेंद्र मोदी का सऊदी अरब या यूएई जाकर नए सामरिक समीकरण बनाने की कोशिश करना. ये कदम इसमें एक बड़ा बदलाव है. एक सच्चाई भारत को स्वीकार करनी होगी कि अगर नेताओं के व्यक्तिगत संबंध अच्छे भी हैं तो इससे मुल्कों के संबंध बेहतर नहीं हो जाते. जिस नाटकीयता से लाहौर की यात्रा हुई, उसकी जरूरत नहीं थी. उसका एक नकारात्मक पहलू यह रहा कि जब से मोदी सरकार आई थी तब से पाकिस्तान में जो डर या हिचकिचाहट थी- मोदी की नीतियां पाकिस्तान को लेकर पिछली सरकारों से बिल्कुल अलग होंगी; वो लगभग पूरी तरह से खत्म हो गई है.’

आॅल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के महासचिव रह चुके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गुरुदास दासगुप्ता कहते हैं, ‘भाजपा सरकार की विदेश नीतियों में खामी है. ये अमेरिका से जाकर दोस्ती कर रहे हैं, जबकि नेपाल के साथ हमारा विरोध चल रहा है. यह गलत नीतियों के ही कारण है. इस समय तो विदेश नीति के मामले में कुछ भी ठीक नहीं है. सरकार जिस तरह की नीति अपनाए हुए है, वह सही नीति नहीं है. चीन और पाकिस्तान दोनों एक नहीं है. पाकिस्तान से हमारे यहां आतंकी आते हैं. लेकिन चीन के साथ ऐसा कुछ नहीं है. उसके साथ कोई द्वंद्व नहीं होना चाहिए. अच्छी दोस्ती होनी चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है.’

‘ये सुधार की बात करते हैं तो सिर्फ आर्थिक सुधार की बात करते हैं. हमारी पूरी मशीनरी पुरानी हो गई है. नियम-कानून पुराने हो गए. प्रशासनिक सुधार, चुनाव सुधार, पुलिस सुधार, न्यायिक सुधार- ये सब मसले लंबे अरसे से लटके पड़े हैं. मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह इन सुधारों की शुरुआत करेगी’ 

वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके पत्रकार अरुण शौरी ने पिछले दिनों एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में मोदी की विदेश नीति पर सवाल उठाते हुए कहा, ‘पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते फिलहाल समझ से बाहर हैं. पाकिस्तान के साथ नरेंद्र मोदी की विदेश नीति न तो संवैधानिक है और न ही तार्किक. पाकिस्तान के पीएम ने अपनी चालबाजी से भारत को अब तक गुमराह किया है. पाकिस्तान ने हालिया दिनों में भारत को केवल मूर्ख बनाने का काम किया. देश के नागरिक से लेकर सेना के जवान तक संतुष्ट नहीं हैं. फिर कौन-से सुशासन की बात हो रही है?’ शौरी ने कहा, ‘अमेरिका के बरक्स देखें तो पता नहीं हम क्या हासिल करने में कामयाब रहे हैं. द्विपक्षीय संबंध आपसी व्यक्तिगत संबंधों के मोहताज नहीं होते. ओबामा ने अफगानिस्तान शांति वार्ता से भारत को अलग करने या फिर पाकिस्तान द्वारा जैश-ए-मोहम्मद पर कोई कार्रवाई न करने को लेकर उंगली तक नहीं उठाई है. पाकिस्तान के मुद्दे पर हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं. कश्मीरी अलगाववादियों के पाकिस्तान के साथ वार्ता करने को लेकर रवैया लचर है. पाकिस्तानी जांचकर्ताओं को पठानकोट एयरबेस का निरीक्षण करने की अनुमति देना मूर्खतापूर्ण फैसला था. चीन के मुद्दे पर ध्यान और गंभीरता की कमी साफ देखी जा सकती है. मोदी को लगता है कि वे चीन को खुश कर सकते हैं लेकिन वर्तमान में चीन पुराने कश्मीर राज्य के 20 प्रतिशत हिस्से पर काबिज है और हो सकता है कि एक दिन ऐसा आए जब वह कहे कि कश्मीर का मसला द्विपक्षीय नहीं बल्कि त्रिपक्षीय है.’

राजनीतिक विश्लेेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘विदेश नीति के मामले में स्थिति है कि नेपाल हमारा पड़ोसी है और आज उससे हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं. पाकिस्तान से ठंडे-गरम संबंध होते हैं, वह भी आज किसी खास हालत में नहीं है. विदेश नीति के मामले में जब हम अपने पड़ोसियों से भी अच्छे संबंध नहीं रख पाए हैं तो इस मामले में और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? मुझे नहीं लगता कि सरकार ने दो साल में कुछ ऐसा किया है जिस पर गर्व किया जा सके.’

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की सालाना बैठक में भाग लेने अमेरिका गए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन ने डाउ जोंस ऐंड कंपनी की मैग्जीन ‘मार्केटवॉच’ से एक इंटरव्यू में कहा, ‘मुझे लगता है कि हमें अब भी वह स्थान हासिल करना है जहां हम संतुष्ट हो सकें. हमारे यहां लोकोक्ति है, अंधों में काना राजा. हम थोड़े-बहुत वैसे ही हैं.’ हालांकि, कमजोर वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच आईएमएफ समेत विभिन्न संस्थान भारतीय अर्थव्यवस्था को सराह चुके हैं, लेकिन रघुराम राजन की निगाह में यह फिलहाल ‘अंधों में काना राजा’ जैसी स्थिति में है. राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए कई उल्लेखनीय उपाय जरूर किए हैं. उन्होंने अपने इस इंटरव्यू में कहा, ‘हम उस मोड़ की ओर बढ़ रहे हैं जहां हम अपनी मध्यावधि वृद्धि लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं क्योंकि हालात ठीक हो रहे हैं. निवेश में मजबूती आ रही है. हमारे यहां काफी कुछ व्यापक स्थिरता है. (अर्थव्यवस्था) भले ही हर झटके से अछूती नहीं हो लेकिन बहुत-से झटकों से बची है.’

इस बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ उत्साहजनक तथ्य भी सामने आए हैं जो इसकी मजबूती को लेकर आशा जगाते हैं. चालू खाते और राजकोषीय घाटे का नियंत्रण में आना, वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) का आना, महंगाई 11 से घटकर 5 प्रतिशत से नीचे आना, इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में चल रहे सुधार, दो बैंक खातों में मोबाइल से पैसा ट्रांसफर करने का नया प्लेटफॉर्म शुरू होना आदि चीजें अर्थव्यवस्था को मजबूती देंगी, ऐसे अनुमान लगाए जा रहे हैं. हालांकि, अर्थव्यवस्था के मसले पर सरकार अब तक जितना कुछ कर सकी है, उससे ज्यादा का चुनावी वादा किया गया था. दहाई अंक में वृद्धि दर, दो करोड़ नौकरियां, मनरेगा, आधार जैसी योजनाएं खत्म करने जैसे वादे अधूरे हैं.

अर्थव्यवस्था के बारे में अरुण शौरी का कहना है, ‘पुनरुद्धार के सिर्फ छोटे-मोटे संकेत प्रभावी होते दिखाई दे रहे हैं और ऐसे में सरकार के दावों की जांच होनी चाहिए. निवेश को पुनर्जीवित करने की मुख्य चुनौती पर कोई प्रगति नहीं है. टैक्स सुधार और बैंकिंग सुधार नहीं हो पाए हैं.’ गुरुदास दासगुप्ता कहते हैं, ‘सरकार की आर्थिक नीतियां गलत हैं. आज हिंदुस्तान में नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं. महंगाई बढ़ रही है. मजदूर विरोधी काम चल रहा है. कानून बदलकर उसे मजदूरों के खिलाफ किया जा रहा है. किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं. यह नीतियों की पूरी तरह विफलता को दिखाता है.’

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अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई उछाल नहीं है. जितनी ग्रोथ रेट दिखाई जा रही है, उतनी ग्रोथ रेट तो 10-12 साल से चल रही है. 2004 से 09 के बीच ग्रोथ रेट इससे भी ज्यादा थी. रोजगार मिलना शुरू नहीं हुआ. बाजार पूरी तरह बंद पड़ा हुआ है. हिंदू में खबर छपी है कि हिंदुस्तान के दस बड़े पूंजीपति अपनी संपत्तियां बेच रहे हैं ताकि अपना कर्ज चुका सकें. जाहिर है कि बिजनेस करके अपना कर्ज चुका सकने की हालत में वे नहीं हैं. इसमें अंबानी ब्रदर्स हैं, अडाणी हैं. ये तो स्थिति है. न तो बाजार को कोई उछाल मिल रहा है. न निवेश में कोई बड़ी पहल हुई है. इन चीजों की जब आलोचना की जाती है तो सरकार कहती है, नहीं, हम अभी तक काम कर रहे थे, अब इसके नतीजे निकलने शुरू होंगे.’

घरेलू मामलों में भारतीय कानून और राज व्यवस्था में बहुत सी खामियां लंबे समय से चिह्नित की जा रही हैं. इन पर समय-समय पर चर्चा होने के साथ सुधारों की बात उठती रही है. नरेंद्र मोदी ने भी वादा किया था कि वे पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को रद्द करके सुधारों का रास्ता साफ करेंगे. लेकिन कानून बनाने के मसले पर अब तक सरकार कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाई है. लोकसभा में सरकार मजबूत है, लेकिन राज्यसभा में सरकार बहुमत में नहीं है. ज्यादातर कानूनी मसलों पर सर्वदलीय आम राय कायम न हो पाने के कारण ज्यादातर कानून या तो पेश ही नहीं हो सके हैं, या फिर वे पास नहीं हो सके. नई सरकार के मुकाबले यूपीए सरकार को याद करें तो उसने देश को सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, आधार, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार जैसे कानून दिए थे जो आम जनता, खासकर गरीबों के लिए मील का पत्थर हैं. जबकि मोदी सरकार की जो भी योजनाएं या कानून अब तक सामने आए हैं वे जनपक्षीय होने की जगह पूंजीपरस्त दिखते हैं. मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप और स्वच्छ भारत अभियान आदि सरकारी स्तर के नारे हैं जिनसे गरीब जनता को फिलहाल तो कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है. अभी यह भी देखने में नहीं आया है कि सरकार आम जनता या गरीबों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने जा रही हो.

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी तो उससे उम्मीद यह थी कि जो बहुत सारे सुधार तीस-चालीस साल से लटके पड़े हैं, उन्हें सरकार पूरा करेगी. ये सुधार की बात करते हैं तो सिर्फ आर्थिक सुधार की बात करते हैं. हमारी पूरी मशीनरी पुरानी हो गई है. नियम-कानून पुराने हो गए. प्रशासनिक सुधार नहीं हुए हैं, चुनाव सुधार नहीं हुए हैं, पुलिस सुधार नहीं हुए हैं, न्यायिक सुधार नहीं हुए हैं. ये सब मसले लंबे अरसे से लटके पड़े हैं. मोदी बस औद्योगिक सुधार की बात करते हैं, लेकिन शासन चलाने के लिए तो ये सारे सुधार भी होने चाहिए. मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह इन सुधारों की शुरुआत करेगी. पहले ब्लू प्रिंट तैयारी करेगी, उसके बाद शुरुआत होगी तो दस-बारह साल लगेंगे. लेकिन मोदी सरकार ने इन सारे सुधारों को लेकर अब तक कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया है.’

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रचार करते समय नरेंद्र मोदी मंचों से कहते थे कि देश के संसाधन पर पहला हक गरीबों और किसानों का है. लेकिन उनके सत्ता में आने के बाद 13 राज्यों में सूखा पड़ा तो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा कि लोगों को मरता हुआ नहीं छोड़ सकते. पिछले दो साल में किसान आत्महत्याओं के आंकड़े और बढ़े हैं. कृषि और आर्थिक मामलों के जानकार देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि सरकार कृषि के बारे में शायद भूल ही गई है. अक्सर देखा गया है कि चुनाव के पहले सरकारें किसानों की बात करती हैं और सत्ता में आने के बाद सिर्फ कॉरपोरेट की बात करती हैं. कृषि की हालत बेहद दयनीय है. शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट का कि उसने फटकार लगाई तो सरकार को इस बात का एहसास हुआ कि सूखा पड़ा हुआ है. 2014 में किसानों की आत्महत्या की रोजाना की एवरेज 42 आ रही थी. 2015 में यह बढ़कर 52 हो गई.’

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देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘किसानों की समस्या उत्पादन या पानी नहीं है, समस्या आय की है. किसान की आय हमने जानबूझकर ऐसी रखी है कि उसे तो मरना ही मरना है. किसान आत्महत्या के मामले में पंजाब महाराष्ट्र से आगे निकल रहा है. इसका कारण यह है कि आपने किसान को आमदनी नहीं दी. पंजाब में खेती से जो किसान की वास्तविक आय है वह एक हेक्टेयर पर तीन हजार रुपये है. चपरासी की जो बेसिक सैलरी है वह 18 हजार रुपये है, जिसे सरकार 21 हजार करने जा रही है. इसको कोई एड्रेस नहीं करना चाहता.’ अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘कुछ योजनाओं की केवल घोषणाएं हुई हैं, कोई परिणाम नहीं आया है. जन-धन योजना मोदी की पहली योजना थी. आज तक उसकी व्यवस्थित समीक्षा सामने नहीं आई है कि कितने खाते खुले और लोग उनका कैसे इस्तेमाल कर रहे हैं. क्या जमीन पर उसका कोई लाभ हुआ है? मेक इन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्किल इंडिया, ये सब सुनने में बहुत अच्छी योजनाएं हैं. मोदी की प्रवृत्ति के बारे में उनके गुरु लालकृष्ण आडवाणी, जो बाद में उनके प्रतिद्वंद्वी हो गए, ने कहा था कि नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे इवेंट मैनेजर हैं.  मेरा कहना है कि अभी तक के दो वर्ष तो इवेंट मैनेजमेंट और रीपैकेजिंग में गुजर गए. इस इवेंट मैनेजमेंट का नतीजा क्या निकलेगा, ये देखने की बात होगी.’

गांवों के विकास के सवाल पर सीपीआई के महासचिव अतुल अनजान कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने कहा कि हर सांसद एक गांव को गोद लेगा. सात लाख गांवों में से सात सौ गांव गोद लेने वाली इस अनोखी योजना का यह हाल है कि उनके अपने ही ज्यादातर सांसदों ने कोई गांव गोद नहीं लिया. जिस गांव को मोदी जी ने गोद लिया था, वहीं उनका उम्मीदवार स्थानीय चुनाव हार गया. राजनाथ और कलराज के गांव में यही हाल हुआ. लोकसभा के सिर्फ 44 सांसदों ने गांव गोद लिया और राज्यसभा के 8 सांसदों ने, बाकी ने नहीं लिया. उनके अपने ही सांसद उनकी बात नहीं सुन रहे. इसलिए कह रहा हूं कि दो साल का कार्यकाल तो पूरी तरह असफलता का काल है.’

आॅल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के चेयरमैन शैलेंद्र दुबे कहते हैं, ‘नई सरकार से आकांक्षाएं बहुत ज्यादा थीं. लेकिन दो साल में यह हालत हुई है 2008 कि मंदी के समय जितना रोजगार पैदा हुआ था, उससे कम रोजगार इनके समय में पैदा हुआ है. निचले स्तर पर भ्रष्टाचार पहले जैसा बना हुआ है. श्रम कानूनों में जितने भी संशोधन हो रहे हैं वे मजदूरों के विरोध में हैं. सरकार की नीति से पावर सेक्टर में आठ लाख करोड़ का नुकसान हुआ है. 3.8 लाख करोड़ रुपये का घाटा हुआ है और 4.3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज हो चुका है. इसकी दो वजहें हैं. पहली- महंगी बिजली खरीदकर उपभोक्ताओं को दी जा रही है. महंगी बिजली खरीद का कारण है कि बिजली की खरीद केवल प्राइवेट सेक्टर से की जा रही है, जिससे महंगी बिजली खरीदी जा रही है. ऊर्जा नीति में संतुलन नहीं है. दूसरे, बिजली को राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. किसानों के साथ कुछ सेक्टरों में फ्री देने और बिजली चोरी को राजनीतिक संरक्षण, ये घाटे के बड़े कारण हैं. इस पर कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण यह घाटा हुआ है. क्रोनी कैपिटलिज्म तो वैसे ही बना हुआ है. चुनिंदा औद्योगिक घराने अंबानी और अडाणी को फायदा पहुंचाया जा रहा है.’

गंगा को साफ-सुथरा करने के लिए ‘नमामि गंगे’ मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है. हालांकि, गंगा की सफाई के प्रयास पिछले तीस वर्षों से जारी हैं और अब तक कोई नतीजा सामने नहीं आया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, 40 प्रमुख नदियों में से 35 बुरी तरह प्रदूषित हैं, जिनका पानी पीने लायक बिल्कुल नहीं है. कुछ समय पहले गंगा सफाई मसले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मौजूदा कार्ययोजनाओं से लगता नहीं कि गंगा 200 वर्षों में भी साफ हो पाएगी. ‘नमामि गंगे’ योजना पर वर्ष 2014-15 में 324.88 लाख रुपये खर्च किए गए और अगले पांच साल के लिए 20 हजार करोड़ रुपये स्वीकृत हुए. हालांकि अभी तक ‘नमामि गंगे’ अभियान अपने शुरुआती चरण में भी नहीं पहुंचा है.

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भारत की युवा आबादी के लिहाज से शिक्षा का क्षेत्र बेहद अहम है जो कि पिछले दो साल से लगातार विवादों में है. लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में टकराव और उथल-पुथल का माहौल रहा. जेएनयू, हैदराबाद, बीएचयू, इलाहाबाद, एनआईटी कश्मीर और जादवपुर विश्वविद्यालयों में संघ-भाजपा समर्थकों और बाकी दलों या विचारधाराओं के छात्रों के बीच जबरदस्त टकराव की स्थितियां पैदा हुईं. इसके उलट शिक्षा के क्षेत्र में अब तक कोई उल्लेखनीय पहलकदमी नहीं हुई है. यूपीएससी के पूर्व सदस्य प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ‘जहां तक मुझे याद पड़ता है, शैक्षिक नीतियों में औपचारिक रूप से कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं है. उच्च शिक्षा की नीति कागज पर तो वही है जो कपिल सिब्बल के समय थी. अब सवाल ये है कि आप किस तरह के लोगों को नियुक्त कर रहे हैं. किस तरह का वातावरण विश्वविद्यालय के रोजमर्रा के कामकाज में बनाया है. अब खबरें आ रही हैं कि इलाहाबाद के कुलपति ने असंतोष प्रकट किया है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का हस्तक्षेप बहुत बढ़ रहा है. ये गंभीर समस्याएं हैं. स्कूली शिक्षा समवर्ती सूची में है तो केंद्र और राज्य दोनों की ओर से कोई महत्वपूर्ण पहल नहीं हो रही है. जहां तक मुझे याद है कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुए हैं, लेकिन दोनों बजटों में शिक्षा का बजट कम कर दिया गया. एक तरफ शिक्षा बढ़ानी है दूसरी तरफ बजट में कटौती की जा रही है.’

‘जहां तक मुझे याद पड़ता है, शैक्षिक नीतियों में औपचारिक रूप से कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं है. उच्च शिक्षा की नीति कागज पर तो वही है जो कपिल सिब्बल के समय थी. सवाल ये है कि आप किस तरह के लोगों को नियुक्त कर रहे हैं. किस तरह का वातावरण विश्वविद्यालय के रोजमर्रा के कामकाज में बनाया है’

भाजपा के सत्ता में आने के बाद उसके कई सांसदों और नेताओं के विवादित बयान लगातार सियासी माहौल को सांप्रदायिक रंग भी देते हैं. लव जिहाद, राम मंदिर, बीफ, गोहत्या, राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्र आदि मसले इस पूरे दो साल के कार्यकाल में हमेशा न सिर्फ चर्चा में रहे हैं, बल्कि इन्हें लेकर कई जगह उपद्रव की स्थितियां बनीं. प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में इस पर कड़ा बयान देकर अपने नेताओें को सलाह भी दी थी कि ‘इस तरह की अनाप-शनाप बयानबाजी बंद होनी चाहिए’ लेकिन शायद हिंदूवादी अभियान चलाने वाले उनके सहयोगियों ने कोई सबक नहीं सीखा. केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति, सांसद योगी आदित्यनाथ, सांसद साक्षी महाराज, विश्व हिंदू परिषद की नेता साध्वी प्राची, संगीत सोम आदि नेताओें की लगातार सांप्रदायिक बयानबाजी पर रोक न लगाना भी सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करता है. दादरी में अखलाक की हत्या के बाद शुरू हुई असहिष्णुता के विवाद ने सरकार की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फजीहत करवाई. कथित तौर पर कट्टरपंथी हिंदू संगठनों द्वारा तीन लेखकों की हत्या से गुस्साए लेखक खुलकर सरकार के विरोध में आए तो यह मसला व्यापक स्तर पर उठा. हालांकि, असहिष्णुता की बहस को सरकार ने राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह ठहराने का प्रयास किया. इतिहासकार एस इरफान हबीब कहते हैं, ‘आज जो संघ का राष्ट्रवाद है वह धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव करता है. जो उनके इस मानदंड को पूरा करता है वह राष्ट्रवादी है और जो नहीं कर पाता है उसे यह राष्ट्रवादी मानने से इनकार कर देते हैं. चूंकि पहली बार उनकी सरकार बनी है, तो अब इसे पूरे देश में लागू करने की कोशिश की जा रही है.’ पुरुषोत्तम अग्रवाल चिंता जताते हैं, ‘देश में यह पहली बार है जब बोलना, लिखना या असहमति जताना गुनाह हो गया है. इस लिहाज से यह संकट का समय है.’ अरुण शौरी अपने इंटरव्यू में कहते हैं, ‘मुझे इस बात का डर है कि मोदी के नेतृत्व में सरकार जिस दिशा में कदम बढ़ा रही है वह भारत के लिए अच्छा नहीं है. इशारों में धमकियां देने का दौर चल रहा है. नागरिक स्वतंत्रता पर लगाम लगाने के क्रम में और अधिक व्यवस्थित प्रयास भी किए जाएंगे.’  

‘डोमिसाइल नीति ने बाहरी आबादी को उनकी मुंहमांगी सौगात देने के साथ आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकारों में कटौती कर दी है’

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झारखंड में रघुबर दास की भाजपा सरकार ने स्थानीय नीति लागू कर दी है. इस नीति के अनुसार 1985 को कट ऑफ डेट माना गया है.  जबकि झारखंडी जनता 1932 के खतियान को स्थानीयता का आधार बनाने की मांग करती रही है. राज्य बनने के 15 साल बाद आई सरकार की इस नीति ने आजादी के तुरंत बाद भारी संख्या में आ बसी बाहरी आबादी को उनकी मुंहमांगी सौगात दे दी है तो झारखंड की मूलवासी और आदिवासी जनता के उस नैसर्गिक अधिकार में कटौती कर दी है, जिसकी गारंटी संविधान इस विशेष क्षेत्र के लिए करता है.

झारखंड अन्य भारतीय राज्यों की तरह सामान्य राज्य नहीं है, औपनिवेशिक समय से ही इस क्षेत्र को विशेष प्रावधानों के तहत शासित किया जाता रहा है. पांचवीं अनुसूची के द्वारा झारखंड की इस विशेष स्थिति को संविधान में बनाए रखा गया है. सन 2000 में इसका गठन भी स्वायत्तता और अलग प्रांत के लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद ही हुआ. देश का यह पहला आदिवासी बहुल राज्य है जिसने 1928 में झारखंड को अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने का ज्ञापन साइमन कमीशन को दिया था. ज्ञापन में कहा गया था कि सबसे ज्यादा राजस्व (वनोपज, खनन, उद्योग से) देने के बावजूद झारखंड के आदिवासियों को शिक्षा, नौकरी और प्रशासन में भागीदारी से वंचित रखा जा रहा है. बंगाल-बिहार उनके साथ भेदभाव कर रहे हैं. इससे उनकी भाषा-संस्कृति और पहचान खतरे में है.

1940 में इन्हीं सवालों पर जयपाल सिंह मुंडा ने कांग्रेस को घेरा और 1970 तक गांधी-नेहरू नीतियों को राजनीतिक तौर पर धूल चटाते रहे. अस्सी-नब्बे के दशक में झामुमो और आजसू के उभार के पीछे भी 1932 के खतियान धारकों के मूल अधिकार- शिक्षा, रोजगार, भाषा-संस्कृति, परंपरागत स्वशासी व्यवस्था की बहाली का हनन और खनन व उद्योगों के कारण होने वाला भारी विस्थापन और बाहरी आबादी का दबाव रहा है. इसलिए डोमिसाइल का मुद्दा झारखंड के लिए कोई सामान्य मुद्दा नहीं है, यह झारखंड की विशिष्ट आदिवासी जनता के विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्मिता का मसला है. यह जीवन-मरण का मुद्दा है जिसके लिए आदिवासियों का इतिहास जाना जाता है. चाहे वह 18वीं सदी के मध्य में हुआ बाबा तिलका का शहीदी विरोध हो, 1830-32 का सारंडा से लेकर चतरा तक पसरा कोल का युद्ध हो, 1855 का संताल हूल हो या 1900 में बिरसा के नेतृत्व में हुआ उलगुलान. इसी कारण 17वीं सदी के अंत से 20वीं सदी की शुरुआत तक अंग्रेज शासकों को बार-बार ‘विल्किंसन रूल 1832’ और ‘छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट 1908’ जैसे कानून बनाने पड़े ताकि वे आदिवासियों का भरोसा जीत सकें. 1949 में भारतीय संविधान ने भी पांचवीं अनुसूची से आदिवासियों को भरोसा दिया लेकिन रघुबर दास ने 2016 में स्थानीय नीति बनाकर यह भरोसा छीन लिया. राज्य गठन की मूल झारखंडी भावना को सदा-सदा के लिए खारिज कर दिया. इसका दूरगामी लाभ भाजपा को मिलेगा, पर उसने हमेशा के लिए आदिवासी-मूलवासी समर्थन खो दिया है.

राजनीतिक दलों की यह मजबूरी होती है कि वे सत्ता में बने रहने के लिए विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच अपना संतुलन बनाए रखें. 1960 के बाद झारखंड की संरचना बाहरी आबादी के कारण स्पष्ट रूप से दो वर्गों- झारखंडी और गैर-झारखंडी में विभाजित हो गई है. इसलिए झामुमो, आजसू जैसे झारखंडी दल भी विरोध के जरिए अपने मुख्य मूलवासी-आदिवासी आधार को इस सवाल पर हिमायती बने रहने का आश्वासन तो दे रहे हैं, परंतु समूचे राज्य में जो आक्रोश है, उसका नेतृत्व करने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि ऐसा करने से दूसरा सामाजिक वर्ग जो गैर-झारखंडियों का है, उनसे पूरी तरह से अलग हो जाएगा, और वे सत्ता में आने की संभावना खो बैठेंगे. भाकपा माले इस मुद्दे पर मुखर है और ईमानदार भी, परंतु उनका प्रभाव क्षेत्र सीमित है. इसलिए अगर कोई संगठित राजनीतिक विरोध इस स्थानीय नीति के खिलाफ नहीं दिख रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि झारखंडी जनता ने इसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया है. राजनीतिक पंडितों को आने वाला समय चकित करेगा क्योंकि आदिवासी जनता धीरे-धीरे सुलगती है, वह तत्काल प्रतिक्रिया नहीं करती. देखती है, सुनती है, गुनती है और फिर जब लामबंद होती है, तो इतिहास बदल जाता है. पिछले 250 सालों की अनवरत संघर्ष परंपरा उनकी इसी मानसिकता को बताती है. क्योंकि डोमिसाइल का सवाल ऐतिहासिक है, झारखंड की आदिवासी अस्मिता से जुड़ा है. आग लगी हुई है, और तेज हवा चलेगी ही, फिर तो बहुत कुछ जलेगा.

अब नहीं हो रहा दिल पे काबू…!

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साल 2002 में आई भट्ट कैंप की फिल्म ‘राज’ की याद तो अब भी आपको रह- रहकर आती ही होगी.   फिर तो वो भूत भी याद होगा जिसका रोल मालिनी शर्मा ने निभाया था. क्यों क्या हो गया? जी ललचाए, रहा न जाए… टाइप फीलिंग आ रही है न? चलिए सस्पेंस के बादल हटा देते हैं. दरअसल भट्ट कैंप 14 साल बाद इस फिल्म को ‘राज रिबूट’ नाम से रिलॉन्च कर रहा है. हालांकि इसे फिल्म का चौथा संस्करण भी बताया जा रहा है. खैर इस फिल्म के साथ बॉलीवुड में एक नई तारिका कदम रखने काे एकदम तैयार नजर आ रही है. इनका नाम है कृति खरबंदा. फिल्म में वे इमरान हाशमी और गौरव अरोड़ा के साथ नजर आएंगी. बॉलीवुड में कृति भले ही नई हों लेकिन तेलुगु और कन्नड़ सिनेमा में वे एक जाना-पहचाना नाम हैं. लेकिन इससे हमें क्या. हमें तो मतलब फिल्म ‘राज’ से है. जैसे- क्या उनका रोल मालिनी शर्मा जैसा ‘हाहाकारी’ होगा? और फिल्म में इमरान हैं तो कुछ नहीं तो ‘वो’ सब होगा ही, अगर ऐसा है तो भाई अभी से वो गाना याद आने लगा है, अब नहीं हो रहा दिल पे काबू सनम, आपकी चाहतों में है जादू सनम… क्यों आ रहा है न याद?


 

आलिया और नीतू में कैट फाइट

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बिहारी अस्मिता के नाम पर दो हीरोइनों में भिड़ंत हो गई है. विवाद आलिया भट्ट की आने वाली फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ से जुड़ा है जिसमें आलिया एक बिहारी मजदूर का रोल निभा रही हैं. फिल्म के ट्रेलर में उनके एक डायलॉग पर कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं. अब डायलॉग में क्या है ये हम नहीं बताएंगे, जाकर यू-ट्यूब पर देख लीजिए. बहरहाल इसे लेकर आलिया से नाराज हुई हैं फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ फेम नीतू चंद्रा. ओपन लेटर लिखने के इस दौर में उन्होंने भी आलिया के नाम एक पत्र लिखा है जिसका कुल मिलाकर सार है कि आलिया के इस किरदार से बिहारियों की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है. आलिया ने इसके जवाब में कहा, ‘ट्रेलर से अनुमान लगाकर कुछ भी कहने से बेहतर होगा कि ऐसे लोग चुप रहें.’


 

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काम की मारी, समांथा बेचारी    

दक्षिण की कुछ खूबसूरत हीरोइनों में शुमार ‘मक्खी’ फेम समांथा रुथ प्रभु  ‘थेरी’ और ‘24’  जैसी ब्लॉकबस्टर देने के बाद कुछ समय के लिए ब्रेक लेने की बात कही तो बवाल मच गया. तब गर्मी थाेड़ी और बढ़ गई जब उन्होंने एक ट्वीट करके बोल दिया, ‘किसने कहा कि मैं सिंगल हूं?’ इसके बाद तो अटकलों का बाजार गर्म हो गया. उनके चाहने वालों के जेहन में छिपे जासूस के दिमाग में तमाम प्रश्नवाचक शब्द उमड़ने-घुमड़ने लगे. तो आपको बता दें कि ऐसी कोई बात नहीं. अरे नहीं भाई… जैसा आप सोच रहे हैं ‘वैसी’ भी कोई बात नहीं. दरअसल पिछले काफी दिनों से लगातार काम करने की वजह से कुछ दिनों के लिए उन्होंने शूटिंग से ब्रेक लेकर आराम फरमाने का मन बनाया है. इसलिए वे ट्वीट करके आपके मजे ले रही हैं. दिखावे पर न जाओ, अपनी अकल लगाओ… बूझ गए न मोहन प्यारे?

असु​रक्षित पत्रकार, राष्ट्रपति से गुहार

फोटो : विजय पांडेय
फोटो : विजय पांडेय
फोटो : विजय पांडेय

कौन
छत्तीसगढ़ के पत्रकार
कब
10 मई, 2016
कहां
जंतर मंतर, दिल्ली

क्यों
छत्तीसगढ़ में चार पत्रकारों को जेल, कई पत्रकारों पर मुकदमा और कई को खबर लिखने पर मिलने वाली धमकियों ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं. नक्सलियों और सरकार की दोहरी मार झेल रहे पत्रकार 10 मई को दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देने पहुंचे और राष्ट्रपति से सुरक्षा की गुहार लगाई है.

छत्तीसगढ़ में 2012 से अब तक छह पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. इन हत्याओं के सिलसिले में कोई भी आरोपी पकड़ा नहीं गया है. चार पत्रकार जेल में हैं. छह पत्रकार डर के मारे फरार हैं. कुछ को धमकियां मिल रही हैं. कुछ को डराया जा रहा है. कुछ को कई तरीकों से प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ ने पत्रकारिता छोड़ दी है. कुछ पर छोड़ने का दबाव है. कुछ सिर्फ सरकारी विज्ञापन को खबर बनाकर लिखते हैं, कुछ ऐसा कभी नहीं करना चाहते. कुछ ने सवाल करना छोड़ दिया है. कुछ ने पत्रकारिता ही छोड़ दी है और ठेकेदार बन गए हैं. उन्हें प्रसाद स्वरूप सरकारी ठेके भी मिल गए हैं. कुछ ने अन्य तरीकों से समझौता कर लिया है और कुछ अभी डटे हुए हैं.
छत्तीसगढ़ के नक्सली पत्रकारों से कहते हैं कि हमारे लिए लिखो. सरकार कहती है कि हमारे लिए लिखो. नक्सलियों के पास बंदूक है तो सरकार के पास पुलिस, बंदूक, जेल और मशीनरी सब कुछ है. दोहरी मार झेल रहे पत्रकार राष्ट्रपति से गुहार लगाने दिल्ली पहुंचे हैं कि उन्हें न्यूनतम पत्रकारीय सुरक्षा दे दी जाए, ताकि वे अपना काम कर सकें. जंतर मंतर पर धरना देने पहुंचे अलग-अलग पत्रकारों ने ये हालात बयान किए.

‘हम पत्रकार तो मीडिया घरानों से भी असुरक्षित हैं. हम फंसते हैं तो ये कभी भी हमसे नाता तोड़ लेते हैं. पत्रकारों के फंसने पर संस्थान कह देता है कि ये हमारे संस्थान के नहीं हैं. ईटीवी, नवभारत, पत्रिका आदि ऐसा कर चुके हैं.’

पत्रकार नितिन सिन्हा कहते हैं, ‘ऐसे बहुत सारे मामले हैं जब खबर लिखने के बाद पत्रकारों पर केस दर्ज हुए, हमले हुए, धमकाया गया. यहां तक कि गोली भी मारी गई है. छत्तीसगढ़ में प्रशासनिक आतंक ​मचा हुआ है. अगर कोई पत्रकार किसानों को मुआवजा न मिलने का मसला उठाता है तो वह दोषी हो जाता है. उसे धमकी दी जाती है, या केस दर्ज ​कर दिया जाता है.’
पत्रकारों ​की ओर से राष्ट्रपति को जो ज्ञापन सौंपा गया है ​उसमें लिखा है, ‘छत्तीसगढ़ में पिछले काफी समय से स्वतंत्र व निरपेक्ष पत्रकारिता के लिए माहौल लगभग समाप्त हो गया है. सरकार की नीतियों और उनके क्रियान्वयन में हो रही गड़बड़ी को उजागर करने वाले पत्रकारों को फर्जी प्रकरण बनाकर जेल भेजा जा रहा है. विशेषकर बस्तर संभाग में राज्य शासन की स्थानीय पुलिस व प्रशासन पर पकड़ ढीली हो चुकी है और अपनी विफलताओं का गुस्सा वहां के निर्दोष ग्रामीण तथा जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों पर उतारा जा रहा है.
बस्तर में नक्सली का सहयोगी बताकर और फर्जी मामलों में फंसाकर एक वर्ष के भीतर चार पत्रकारों- सोमारू नाग, संतोष यादव, दीपक जायसवाल और प्रभात सिंह को जेल भेजा गया है जबकि पूरे प्रदेश में कई पत्रकारों के खिलाफ फर्जी प्रकरण दर्ज करके उन्हें जेल भेजने की कोशिश की जा रही है. बस्तर में पत्रकार साथी नेमीचंद जैन और साईं रेड्डी को पुलिस मुखबिर बताकर नक्सलियों द्वारा मौत के घाट उतारा जा चुका है. इनमें से साईं रेड्डी को नक्सली का सहयोगी बताकर राज्य सरकार ने ‘छत्तीसगढ़ राज्य जनसुरक्षा अधिनियम’ के तहत दो वर्ष बंद रखा था.’
प्रदर्शन में शामिल कमल शुक्ला कहते हैं, ‘लंबे समय से बस्तर समेत पूरे छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का माहौल खराब हो गया है. वहां हमको दोनों तरफ से दबाव झेलना पड़ रहा है. एक तरफ तो माओवादी दबाव बनाते हैं कि हम उनकी तरफ से रिपोर्ट करें, दूसरी तरफ सरकार दबाव बना रही है कि उनके हिसाब से रिपोर्ट करें. कोई खोजबीन या जांच पड़ताल न करें. नक्सलियों ने दो साथियों को मार डाला. उनमें से एक-दो साल जेल में गुजारकर आया था. पुलिस कह रही है कि वे नक्सलियों के आदमी थे. नक्सली कह रहे हैं कि वे पुलिस के आदमी थे. जो भी लिखने-पढ़ने वाले पत्रकार हैं, वे सब दबाव में हैं. संतोष और सोमारू को जेल भेज दिया गया तो हम लोगों ने सोचा कि पत्रकार सुरक्षा जैसा कोई कानून होना चाहिए क्योंकि माहौल बिल्कुल खराब हो रहा है. 10 अक्टूबर को हम लोगों ने रायपुर में आंदोलन शुरू किया जिसमें सारे पत्रकार शामिल हुए. हम पत्रकार तो मीडिया घरानों से भी असुरक्षित हैं. हम फंसते हैं तो ये कभी भी हमसे नाता तोड़ लेते हैं. पत्रकारों के फंसने पर संस्थान कह देता है कि ये हमारे नहीं हैं. ईटीवी, नवभारत, पत्रिका आदि ऐसा कर चुके हैं.’

पत्रकारों ने पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति के तहत निरपेक्ष पत्रकारिता के विरुद्ध बने इस माहौल के खिलाफ पिछले एक वर्ष से आंदोलन छेड़ रखा है. जेल में बंद पत्रकारों की रिहाई के साथ ही पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर 21 दिसंबर, 2015 को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले में पत्रकारों ने जेल भरो आंदोलन किया. इसमें देश भर के पत्रकारों ने हिस्सा लिया था. कमल शुक्ला कहते हैं, ‘जेल भरो आंदोलन स्थगित करवाने के लिए मुख्यमंत्री रमन सिंह ने हमारे साथ बहुत बड़ा धोखा किया. पहले फोन पर, बाद में प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया था कि सभी मांगें मान रहे हैं. संतोष और सोमारू को रिहा करवा देंगे. फर्जी प्रकरणों में फंसाए गए पत्रकार के मामलों की जांच के लिए समन्वय समिति गठित की जाएगी. उन्होंने यह भी माना कि दोनों के साथ गलत हुआ है. मगर बाद में इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल पत्रकार प्रभात सिंह और दीपक जायसवाल को भी जेल भेज दिया गया. मामूली धाराओं के बावजूद दोनों को जमानत नहीं मिल सकी है.’ पत्रकारों के मुताबिक, उपर्युक्त मामलों के अलावा प्रदेश में धरमजयगढ़ से पावेल अग्रवाल, गुरुचरण, डोंगरगढ़ से संतोष राजपूत, सोमेश्वर सिन्हा, रोहन सिन्हा, दुर्ग के पत्रकार नरेंद्र मार्कंडेय व विनोद दुबे, अंबागढ़ चौकी के पत्रकार एनिस गोस्वामी, बिलासपुर के पत्रकार दुलेश्वर प्रसाद गिरी गोस्वामी, देवधर तिवारी, शिव तिवारी, महेंद्र द्विवेदी, विनोद श्रीवास्तव, कोंडागांव के पत्रकार राजेश शर्मा के साथ ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी पत्रकार पवन ठाकुर, संदीप कडक्वार व संतोष साहू पर भी रिपोर्टिंग के दौरान प्रशासन द्वारा ज्यादती की जा चुकी है.
कमल शुक्ला ने कहा, ‘पत्रकार की सुरक्षा की मांग करने गए प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों को ही जेल में डाल दिया तो बाकी लोग क्या उम्मीद करें. सरकार की इस तरह की कार्रवाइयों से डर का माहौल है. पिछले लंबे समय से वहां के स्थानीय पत्रकारों ने कोई खोजी रिपोर्टिंग नहीं की. जो भी हुआ वह सब नेशनल मीडिया ने किया है. चाहे जेल से छूटे हुए व्यक्ति को पुलिस द्वारा एक लाख का इनामी बताकर मारने का मसला हो, या 72 नक्सलियों के समर्पण का मसला हो, कोई पत्रकार पुलिस अधिकारियों से पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है कि आप ये जो फोटो जारी कर रहे हैं वो हैं कहां.’
पत्रकार नितिन सिन्हा बताते हैं, ‘जगदीश कुर्रे मानवाधिकार के मामलों की रिपोर्टिंग करते थे. काफी मामले उन्होंने उठाए कि आदिवा​सी लड़कियों को दिल्ली और बाहर के शहरों में ले जाकर बेचा जा रहा है. इससे सरकार बदनाम हो रही थी. दो-तीन बार उनको धमकी दी फिर उसी में से एक मामले में मानव तस्करी का आरोप लगाकर फंसा दिया गया.’

‘छत्तीसगढ़ में स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए माहौल लगभग समाप्त हो गया है. सरकार की कमियां उजागर करने वाले पत्रकारों को फर्जी मामलों में जेल भेजा जा रहा है’

कमल शुक्ला ने बताया, ‘मनीष सोनी जी-न्यूज में रिपोर्टिंग करते थे. सोनी ने पुलिस विभाग के खिलाफ कई मामले उठाए थे. पहले जी-न्यूज ने उनको निकाल दिया. जी-न्यूज से निकाले जाने के बाद ही पुलिस विभाग ने उनके पूरे परिवार के खिलाफ मामले दर्ज कर लिए. अब वे फरार चल रहे हैं.’
ऐसी ही एक दूसरी घटना के बारे में वे बताते हैं, ‘हिंडाल्को मामले में रिपोर्टिंग करने वाले सौरभ अग्रवाल ने जिंदल समूह पर सवाल उठाए. हिंडाल्को की वजह से मिझोर आदिवासियों की पूरी बस्ती रात भर में हटा दी गई थी. उस मामले को कवर करने गए सौरभ का मोबाइल जब्त कर लिया गया और उनके खिलाफ केस दर्ज कर दिया. फिलहाल सौरभ फरार चल रहे हैं.’
नितिन सिन्हा कहते हैं, ‘प्रशासनिक आतंकवाद का ताजा उदाहरण आपको दूं कि रायगढ़ में नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म होता था. एक अनाथालय चलता था जिसकी व्यवस्था भाजपा से जुड़े कुछ लोग देख रहे थे. उसके अंदर कई घोटाले भी थे. ​​बच्चियों का यौन शोषण होता था. उसके विरुद्ध हमने मुहिम चलाई थी. उसकी वजह से मुझे भी जेल जाना पड़ा. मेरे खिलाफ दो फर्जी मामले दर्ज किए गए. मेरे जेल में रहने के दौरान सारा मामला रफा-दफा हो गया. फाइनली वह आरोपी जमानत पर बाहर है.’
पत्रकार सौरभ ने बताया, ‘रायगढ़ में कॉरपोरेट घरानों का राज है. जो पत्रकार सच्चाई लिख रहे हैं, जो पत्रकार कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ कुछ लिख रहे हैं, उनके खिलाफ फर्जी एफआईआर दर्ज कर दी जा रही है. धमकियां दी जा रही हैं. मुख्यमंत्री पूरी तरह कॉरपोरेट के कंट्रोल में हैं. रिपोर्टिंग के दौरान मेरा मोबाइल जब्त कर लिया गया और मुझे धमकी दी गई.’
कमल शुक्ला ने बताया कि यहां से जाते हुए इनकी भी गिरफ्तारी हो सकती है. छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता पर आए संकट के बारे में बात करते हुए कमल शर्मा कहते हैं, ‘सिर्फ बस्तर ही नहीं, पूरे प्रदेश में पत्रकारिता करना बेहद मुश्किल हो गया है. विशेषकर जहां कॉरपोरेट घरानों का काम चल रहा हो, सरकार की नीतियों के खिलाफ कुछ लिखना हो, कोई भंडाफोड़ करना हो, इस सबके​ खिलाफ लिखने से सरकार को दिक्कत है. सरकार का सीधा संदेश है कि उसके खिलाफ लिखने-बोलने वाले को प्रताड़ित किया जाएगा.’
कमल शुक्ला बताते हैं, ‘हमारे साथ आंदोलन के दौरान जो पत्रकार सक्रिय थे, उनमें से कई आंदोलन से अलग हो गए और पत्रकारिता छोड़कर ठेकेदारी शुरू कर दी है. अधिकांश को एक-एक करोड़, 70-75 लाख के ठेके बांट दिए गए. किसी को कंस्ट्रक्शन किसी को सप्लाई में. ये ठेके सरकार की तरफ से दिए जा रहे हैं. कई पत्रकारों को उनके चैनल हेड ने सीधा फोन करके बोला कि आप आंदोलन से अलग हो जाइए वरना नौकरी से हटना पड़ेगा. प्रदर्शन में शामिल होने के लिए दिल्ली आने वाले पत्रकारों पर नहीं आने के लिए दबाव बनाया गया.’
सौरभ कहते हैं, ‘रायगढ़ में नक्सलवाद उतना प्रभावी नहीं है. वहां तो कॉरपोरेट का दबदबा है. सब उन्हीं के कब्जे में है. जो वे कहते हैं, वही होता है.’ पत्रकार नितिन सिन्हा कहते हैं, ‘रमेश अग्रवाल अवैध खनन के खिलाफ लिखते रहे हैं. 2012 में उन पर गोली चलवाई गई और जान से मारने की कोशिश की गई. वे दो साल तक राष्ट्रद्रोह की धारा में जेल में रहे. बाद में इस मामले को दबा दिया गया, लेकिन यह निश्चित है कि यह गोली जिंदल ने चलवाई थी.’
ज्ञापन में कहा गया है, ‘बस्तर संभाग में पुलिस आईजी शिवराम प्रसाद कल्लूरी सीधे पत्रकारों को फोन करके धमकाते हैं कि पत्रकार अगर सरकार के खिलाफ लिखेंगे तो उन्हें भुगतना पड़ेगा. इस माहौल में पूरे प्रदेश के पत्रकारों में भय व्याप्त है. अतः मान्यवर से प्रार्थना है कि प्रदेश में लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए पहल करें.’
राष्ट्रपति को दिए ज्ञापन में पत्रकारों ने फर्जी मामलों में फंसाकर जेल में बंद किए गए पत्रकारों की रिहाई, पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने, पुलिस द्वारा धमकी देने का सिलसिला बंद कराने समेत छह सूत्री मांगें उठाई हैं.

‘हिंदी इंटरनेट पर बहुत अकेली है’

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हिमोजी बनाने का विचार कैसे आया?

हिंदी का अब जो सिलेबस है वो पहले की तरह नहीं है कि आपको सिर्फ मध्ययुगीन प्रेम आख्यान पढ़ाने हैं या सिर्फ तुलसीदास या आधुनिक कवि पढ़ाने हैं. हिंदी के सिलेबस में बहुत बदलाव आए हैं. इंटरनेट है, सोशल मीडिया है, ब्लॉगिंग है, वेब डिजाइनिंग में हिंदी है, कंप्यूटर में हिंदी का प्रयोग है. ये सारी चीजें पढ़ाने के लिए आपको तकनीकी क्षेत्र में उतरना ही पड़ेगा. 2006 में मुझे पहली बार हिंदी कंप्यूटर पढ़ाने को मिला. मेरा झुकाव तकनीक और स्केचिंग की ओर था. जब ब्लॉग आदि लिखना शुरू किया तब ही महसूस किया कि हिंदी इंटरनेट पर कितनी अकेली है. हमारे पास साझा करने के लिए रचनात्मक सामग्री नहीं है.

फिर हम लगातार चैट यानी बातचीत करते हैं पर आजकल जैसे चैट स्टिकर हैं वो तब नहीं थे. मेरी अपने विद्यार्थियों से लगातार चैट होती है और हिंदी में बातचीत के दौरान हम अंग्रेजी के इमोटिकॉन प्रयोग करते जो शायद उस समय महसूस की गई भावना की सही अभिव्यक्ति नहीं होते. यही सोचकर मैंने साल 2015 की शुरुआत में अपने तरीके के 15-20 स्टिकर बनाए और उन्हें सोशल मीडिया पर साझा किया. इन स्टिकर को दोस्तों ने बहुत सराहा. तब मुझे लगा कि इसे एक प्रोजेक्ट के बतौर आगे ले जाना होगा. पहले खुद कोशिश की इस पर ऐप की तरह काम करने की, पर फिर जल्द ही समझ आ गया कि तकनीकी रूप से ये सीखने में लंबा समय लग जाएगा. फिर ऐप बनाने के लिए दोस्तों की मदद ली. दो दोस्त मदद के लिए आगे आए और फिर ये स्टिकर ऐप के रूप में लॉन्च हुए.

क्या इस ऐप को लाने का कोई आर्थिक पहलू भी था?

अभी फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल नहीं था. चाहे मेरे या जिन्होंने कैलीग्राफी की या जिन्होंने तकनीकी सहयोग दिया, हम सबके दिमाग में यही था कि हम हिंदी के लिए कुछ करने जा रहे हैं, जो अपने आप में पहली बार होगा. हमें सिर्फ अपना थोड़ा-सा समय देना है. हममें से जिसे जो ज्ञान था, उसने वही किया है. मैं स्टिकर बना सकती हूं, मैंने वो बनाए. मेरे पति भास्कर कर्ण कैलीग्राफी बहुत अच्छी करते हैं तो उन्होंने वो किया. टेक्निकल सपोर्ट आईटेकलाइनफॉरयू का है. उसे तरुण चौधरी ने इसीलिए शुरू किया ताकि हम इसे नाम दे सकें. हां, अगर हम इसे बेहतर बनाकर बाजार में लाते हैं तब आर्थिक पहलू के बारे में सोचा जा सकता है.

हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए साल भर में कितने ही सेमिनारों, बैठकों का आयोजन होता है. आपको क्या लगता है जिस उद्देश्य के लिए ये कार्यक्रम किए जाते हैं, वो पूरा होता है? हिंदी को अगर इंटरनेट के जरिए जन-जन तक पहुंचना है, क्या तकनीक की जरूरत होगी?

देखिए, आपके पास तो ये सवाल आज है पर हम क्लासरूम में इस सवाल से रोज टकराते हैं. जब हमारा विद्यार्थी हिंदी ऑनर्स कोर्स में एडमिशन लेता है तो उसका पहला सवाल होता है कि मैं इससे किस रोजगार की ओर जा सकूंगा. क्या मैं किसी बड़ी कंपनी में बड़े पद पर जा सकता हूं. किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर सकता हूं, क्या मैं सिविल सर्विस परीक्षा पास कर सकता हूं? ये सच है कि केवल हिंदी से ये सब हासिल नहीं हो सकता. हिंदी को अपने हाथ-पांव फैलाने होंगे. दूसरी बात कि अगर इंटरनेट के जरिए हिंदी को आम जन तक पहुंचना है तो इसकी सबसे बड़ी जरूरत टेक्निकल बनना है. हालांकि, बहुत-से लोग इस ओर बहुत काम कर रहे हैं लेकिन वो काम बहुत कम है. हमें चाहिए कि हर व्यक्ति जो हिंदी भाषा जानता है, हिंदी के लिए कुछ करना चाहता है वो आगे आए.

जहां तक बात है बड़े सेमिनारों और बैठकों की तो ये आलोचना के लिए मददगार साबित होते हैं. आपको नए तरह से पढ़ने-समझने की दृष्टि मिलती है.

बोलचाल को छोड़ दें तो समाज में भाषा के रूप में हिंदी कहां है?

एक बात है. बड़े-बड़े रचनाकारों की बड़ी रचनाओं से ज्यादा हिट छोटी हिंदी फिल्में हो जाती हैं. हमें माध्यम का फर्क समझना है. हमें आम जनता को भाषा से जोड़ने के लिए हिंदी में वो सहजता लानी होगी जिससे जनता उससे जुड़ा हुआ महसूस करे. अगर हम कहेंगे कि नहीं ऐसे नहीं लिखा जा सकता क्योंकि साहित्य में ऐसे नहीं लिखा जा सकता, ऐसे नहीं बोल सकते क्योंकि इसका चलन ही नहीं है तो कोई भी व्यक्ति हिंदी के पास आने से डरेगा. आप इसके बजाय उन्हें हिंदी प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कीजिए. हिमोजी ऐप बनाने के पीछे भी हिंदी को प्रोत्साहित करने का ही उद्देश्य था. आपको प्रयास करने होंगे, चाहे वो भाषा को विकसित करने के लिए हों या अपने कौशल को विकसित करने के लिए. भारतेंदु ने तो बहुत पहले कह दिया था कि कलाहीनता समाज को हमेशा गर्त में ले जाती है. निज भाषा उन्नति में ही हमारी उन्नति है पर लोग ये समझते नहीं हैं.

छोटे-छोटे बच्चों को सिखाया जाता है कि नाक मत बोलो, नोज बोलो, मां नहीं ममा तो हम उनसे शब्द छीन रहे हैं. उन्हें ऐसी भाषा में ठूंस दे रहे हैं जहां वो सहज रूप में अभिव्यक्त नहीं कर सकते. आपको सपने अंग्रेजी में नहीं आते. वो अपनी भाषा-बोली में ही आते हैं. जब हम हिमोजी बना रहे थे तब भी ये बात दिमाग में थी कि जिस पीढ़ी को हम पढ़ा रहे हैं, बढ़ता देख रहे हैं, हम उसकी भाषा सुधारने का काम कर रहे हैं. जो भाषा वो बोलते हैं मुझे उसे बोलने में बहुत आपत्ति है. वे क्लासरूम में एक-दूसरे से बोलते हैं कि उसको देखकर तेरी तो फट गई! अगर आप उससे पूछें तो वो बताते हुए शर्मिंदा हो जाएंगे कि इसका असली अर्थ क्या है. पर वो आसानी से इसे बोलते हैं क्योंकि इसे बोला जाता है, इस भाव के लिए कोई अभिव्यक्ति विकल्प में ही नहीं है. भाषा का सजग होकर प्रयोग करना बहुत जरूरी है. अगर एक बार उसका गलत इस्तेमाल होना शुरू हो जाए तो फिर उस गलती की कोई सीमा नहीं रह जाती. कूल होने और बदतमीज होने में फर्क है. जरूरी नहीं है कि हनी सिंह के गाने गाकर ही कूल दिखा जाए. जो आपकी भाषा है उसका प्रयोग कीजिए, उसे जिंदा रखने का प्रयास कीजिए.

हिमोजी को लेकर कैसी प्रतिक्रिया मिली?

बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया रही. हमें इतनी उम्मीद ही नहीं थी. इस साल 14 मार्च को लॉन्च होने के बाद एक महीने में इसके बीस हजार से ज्यादा डाउनलोड हुए हैं. लोगों के लगातार फोन आ रहे हैं कि आईओएस और विंडोज पर भी इसे लाया जाए. ये सब बहुत सकारात्मक है और अब मैं इसे एक सामाजिक जिम्मेदारी मानते हुए आगे बढ़ाने की सोच रही हूं.

हिमोजी चैट स्टिकर
हिमोजी चैट स्टिकर

वैसे बैंक या किसी अन्य जगह निर्देश आदि हिंदी में पढ़ते हैं तो पाते हैं कि बहुत कठिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है.  हम उसे आसानी से नहीं समझ सकते.

मैं उसमें हर स्तर पर सुधार की जरूरत समझती हूं. जिस हिंदी की बात आपने की वो उधारी हिंदी है, वो शब्द हिंदी के अपने शब्द भंडार से नहीं हैं. आप दूसरी भाषाओं से शब्द लेकर उन्हें हिंदी में क्रिएट करने की कोशिश कर रहे हैं. आप प्रतिष्ठित भाषाओं के बजाय बोलियों से शब्द उधार लेते हैं तो वो ज्यादा सजीव हैं. आप संस्कृत से शब्द ले रहे हैं. जो भाषा अपने समय में इतनी प्रतिष्ठित और क्लिष्ट हो गई थी कि लोग उसे छोड़कर पाली, प्राकृत, जो उस समय की देशज भाषाएं थीं, उनकी ओर मुड़ गए थे. जब भी कोई भाषा अपने व्यवहार, व्याकरण और कलेवर में दुरूह हो जाएगी, जनता उससे दूर होगी.

इंटरनेट पर हिंदी कहां ठहरती है?

हिंदी को इंटरनेट पर बनाए रखने के काफी प्रयास हो रहे हैं पर फिर भी हम मुट्ठी भर ही हैं. अगर हम हिंदी बोलने वालों, उसे पढ़ने वालों और उसमें लिखने वालों का प्रतिशत देखें तो ये लगातार घटता जाता है. हम इंटरनेट के लिए हिंदी में बहुत कम कंटेंट क्रिएट कर पा रहे हैं. हमें उस पर काम करना चाहिए. मेरे ख्याल से ब्लॉग इसका सबसे अच्छा और आसान माध्यम है. अगर हमें लगता है कि हम थोड़ा-बहुत लिख पाते हैं, तो ब्लॉग बनाएं. फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया पर लिखा हुआ सर्च इंजन पर ढूंढ़ने पर नहीं दिखता, जबकि ब्लॉग सर्च इंजन पर सबसे पहले आता है. ऐसे में मैं यही कहूंगी कि ये हमारी, शिक्षित वर्ग की जिम्मेदारी है कि जो भी लिखना चाहता है भले ही वो किसी भी क्षेत्र का हो, ब्लॉग बनाकर टूटी-फूटी अंग्रेजी में लिखने के बजाय अच्छी हिंदी या अपनी भाषा-बोली में लिखिए. लिखना, दर्ज करना जरूरी है क्योंकि जितना ज्यादा लिखा जाएगा, हिंदी की स्थिति मजबूत होगी. लोग जानेंगे कि हिंदी में लिखा जा रहा है. दुनिया भर में देखिए. फ्रेंच और जापानी अपनी भाषा में बोलते हैं. आपको उन्हें समझना है तो आप इंटरप्रेटर (दुभाषिया) की मदद लीजिए. वे अपनी ही भाषा में बोलेंगे, वे दूसरी भाषा को हमेशा दोयम रखते हैं.

इस सरकार के मंत्रियों की ये एक बात मुझे अच्छी लगती है कि इनके नेता अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी भाषा में बोलने का माद्दा रखते हैं, चाहे प्रधानमंत्री हों, सुषमा स्वराज या स्मृति ईरानी. राजनाथ सिंह तो बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं.

चेतन भगत का कहना है कि हिंदी लोकप्रिय तो है पर भाषा जानते हुए भी बहुत-से लोग इसे पढ़ नहीं पाते, इसलिए रोमन में ही हिंदी लिखी जानी चाहिए. आपका क्या कहना है?

चेतन भगत बहुत बुद्धिमान हैं! उन पर कोई कमेंट करना अपने को गर्त में गिराने जैसा है. उनकी बौद्धिकता तक शायद अभी हम पहुंच नहीं पा रहे हैं. वैसे मैं उनकी इस बात से इत्तफाक नहीं रखती. देवनागरी लिपि बहुत खूबसूरत, वैज्ञानिक और तर्कसंगत है, वो ऐसे कि आप जो बोल रहे हैं वही लिख रहे हैं. हिंदी अकेली ऐसी भाषा है जहां कोई शब्द साइलेंट नहीं है. कोई ऐसा अक्षर नहीं है जो अतिरिक्त लिख दिया जाएगा पर बोला नहीं जाएगा. अतिरिक्तता देवनागरी का हिस्सा नहीं है, अंग्रेजी का है. बचपन में हमारी टीचर बोर्ड पर लिखकर पढ़ाती थीं, गोल-गोल अंडा, मास्टर जी का डंडा, घोड़े की पूंछ, रावण की मूंछ…बोलो क्या बना? हम सब बच्चे कोरस में बोलते थे क. ये क का बनना अपने आप में एक चित्र है. इससे आपकी इमेजिनेशन आगे बढ़ती है. मैं चेतन भगत से यही कहना चाहूंगी कि सर देवनागरी में बस अपना नाम ही लिखकर देख लें, जो चेतना है वो जागृत हो जाएगी.

ऐप में हिंदी की बात करें तो हाईक (एक चैटिंग ऐप) पर भी देवनागरी में इमोटिकॉन उपलब्ध हैं जो खासे लोकप्रिय भी हैं. उनमें और हिमोजी में क्या फर्क है?

हिमोजी और हाईक में यही फर्क है कि वहां कई हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाएं भी हैं जबकि हिमोजी देवनागरी में ही हैं. हाईक एक खिचड़ी की तरह है जहां सब कुछ है पर हिमोजी पहला ऐसा ऐप है जिसमें देवनागरी में स्टिकर की 14 कैटेगरी हैं और कैटेगरी के नाम भी हिंदी में ही हैं.

ऐसा मानना है कि आजकल के युवाओं में हिंदी भाषा के प्रति झुकाव नहीं है. आप शिक्षा के क्षेत्र में हैं, क्या अनुभव रहा?

हिंदी की ओर रुझान तो है पर जैसा मैंने पहले कहा कि युवाओं में आशंका बस यही है कि रोजगार क्या मिलेगा. आपको सोचना होगा कि अपनी भाषा में कितना रोजगार पैदा कर रहे हैं. अभिभावक अपने बच्चों को तब ही कोई भाषा पढ़ने की इजाजत देंगे जब उसमें रोजगार होंगे. जैसे-जैसे रोजगार की संभावना बढ़ती जाएगी, ये आशंकाएं दूर होती जाएंगी.

आजकल स्कूलों में जब मां-बाप से बच्चों के लिए कोई भाषा चुनने को कहा जाता है तो वो जर्मन या फ्रेंच चुनते हैं. भले ही बच्चे को उसका अक्षर न आए पर वो दुनिया से कह सकें कि उसने विदेशी भाषा सीखी है. वो शायद ये भी सोचते हैं कि अगर वो कुछ नहीं बन पाया तो हो सकता है इन भाषाओं का ज्ञान उसे बेहतर रोजगार पाने में मदद करे. अन्य भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करें, ये बुरा नहीं है पर लिखें-समझें अपनी भाषा में. जरूरत अपनी भाषा में रोजगार पैदा करने की भी है. यहां जरूरी बात ये भी है कि ये सब रोजगार सरकार नहीं पैदा कर सकती. हम अपने ज्ञान, कला-कौशल का विस्तार करें और अपनी भाषा को अपने प्रयासों से आगे बढ़ाएं.

आपने बार-बार लोगों के हिंदी में लिखने की बात कही, लोग हिंदी में लिखना भी चाहते हैं पर हिंदी में जो अब तक लिखा जा चुका है उसे पढ़ने की बात कम ही होती है. पहले पत्र-पत्रिकाओं में प्रचलित और बड़े लेखकों की रचनाएं छपा करती थीं, अब वे सिर्फ साहित्यिक पत्रिकाओं तक सीमित हैं. लोग ब्लॉग, फेसबुक आदि पर हिंदी में पढ़ते है पर साहित्य और आम जनता के बीच दूरी आ चुकी है.

एक तरह से ये दूरी लिखने वालों द्वारा खुद पैदा की हुई है. आपने एक स्तर तय कर लिया है कि इस पत्रिका में छपना बड़ी बात है, इसमें छपना छोटी. अगर आप इस तरह का कोई पैमाना बना लेते हैं तो आप पाठक और साहित्य के बीच की खाई को खुद बड़ा कर रहे हैं. आज साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या कितनी है? बहुत कम. कुछ पत्रिकाएं तो नुकसान उठाकर भी छापी जा रही हैं. वे कुछ दिन चलती हैं फिर बंद हो जाती हैं. वहीं प्रचलित पत्रिकाएं, जिनके पाठकों की संख्या लाखों में है, उनमें भी कहानियां छप रही हैं पर उन लेखकों को आप मुख्यधारा में शामिल कब करेंगे!

अंग्रेजी में देखिए. बड़े-बड़े लेखक अखबारों में छपते हैं. आप किसी पत्र-पत्रिका में छपना तौहीन मत समझिए. जनता के बीच जाइए, स्वीकार-अस्वीकार पाठक पर छोड़ दीजिए. समय बदला है. लोगों के पढ़ने-लिखने की आदतें बदली हैं, तो लेखक को उन बदली आदतों के अनुसार पाठक तक पहुंचना होगा. साहित्य और जनता के बीच खाई नहीं बल्कि पुल बनना होगा.

मराठवाड़ा : त्रासदी की तस्वीर

Photo : Tehelka Archives
Photo : Tehelka Archives

42 डिग्री सेल्सियस की तपा देने वाली धूप और भीषण गर्मी के बीच सधे हुए कदमों से अपने घर की ओर बढ़ती हुई 10 साल की अमृता मुजमुले इस बात का पूरा ध्यान रखे हुए है कि उसके सिर पर रखे हुए घड़े का पानी जरा भी न छलके. अमृता हर रोज़ करीब 4० किमी. का फासला सिर्फ पानी भरने के लिए पूरा करती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उसे दिनभर में अपने घर से दो किमी. की दूरी पर स्थित कुएं पर 10 बार पानी भरने जाना पड़ता है. सोचिए अगर शहर में आपको अपने घर से हर रोज 200 मीटर ही दूर पानी भरने जाना पड़े तो आप पर क्या बीतेगी.

अमृता जैसे कई बच्चे हैं जो हर रोज कई मील दूर अपने परिवारों की पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए 10-10 चक्कर लगाते हैं. कई बार भीषण गर्मी से शरीर में पानी की कमी और कई बार कुओं में गिर जाने से, ये काल के गाल में भी समा जाते हैं. ऐसी कई घटनाएं हैं जो सूखाग्रस्त महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र की हकीकत से रूबरू कराती हैं. ‘तहलका’ ने मराठवाड़ा के बीड जिले का दौरा किया और पाया कि पानी की कमी से मौत, विस्थापन, मानव तस्करी, अवैध हिरासत और शादियों के टूटने के खतरे ने इस क्षेत्र के जनजीवन को तार-तार कर दिया है.

अमृता के दिन की शुरुआत सुबह छह बजे हो जाती है. वह उठते ही अपनी मां और दो छोटी बहनों के साथ दो किमी दूर स्थित कुएं में पानी भरने निकल जाती है. वह कहती है, ‘हम सुबह उठते ही यहां आ जाते हैं. कभी-कभी हमें पानी भरने के लिए एक घंटा इंतजार करना पड़ता है और कभी-कभी नंबर आने में 4-5 घंटे लग जाते हैं. शाम को चार बजे हमें फिर से यहां पानी भरने आना पड़ता है, कुल मिलाकर दिन भर में पानी भरने के लिए हम 10 चक्कर तो लगा ही लेते हैं.’ अमृता की मां शीला मुजमुले कहती हैं, ‘मुझे अपनी छोटी-छोटी बच्चियों को इस तरह पानी भरता देख दुख होता है, लेकिन क्या करूं मेरे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है. सूखे की वजह से यहां पानी की इतनी किल्लत है कि अगर हम कुओं से पानी नहीं भरेंगे तो प्यास से मर जाएंगे. दिन भर में औरतें और बच्चे लगभग पांच-छह घंटे कुओं, नलों और टैंकरों से पानी भरने में गुजारते हैं. हाल ये है कि हम दिन भर सिर्फ पानी भरने के बारे में सोचते रहते हैं और किसी काम की तरफ ध्यान जाता ही नहीं है.’

मौत का कुआं : यह कुआं बीड जिले की वडवनी तहसील के उपली गांव का है. कुओं से पानी भरने के दौरान बच्चों की मौत की वजह से यह जिला लगातार सुर्खियों में बना हुआ है.
यह कुआं बीड जिले की वडवनी तहसील के उपली गांव का है. कुओं से पानी भरने के दौरान बच्चों की मौत की वजह से यह जिला लगातार सुर्खियों में है. फोटो : प्रतीक गोयल

मराठवाड़ा में कर्ज और फसलों के नुकसान के चलते किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. साथ ही पानी भरने के दौरान हुए हादसों के भी कई मामले सामने आए हैं. बीड जिले में पिछले तीन महीनों में पानी भरने के दौरान आठ बच्चों की मौत हो चुकी है. 21 अप्रैल की सुबह खेज तहसील के वीडा गांव में 10 साल के सचिन खेंगेरे की कुएं से पानी भरने के दौरान उसमें गिरकर मौत हो गई. गांव के सरपंच बापूसाहेब देशमुख कहते हैं, ‘गांव के हर परिवार को पता है कि बच्चों का कुओं पर पानी भरना खतरनाक है. हमारे गांव में चार कुएं हैं और सभी गांववालों को बताया हुआ है कि बच्चों को पानी भरने न तो साथ लाएं और न ही अकेले भेजें, लेकिन कोई सुनता नहीं है. टैंकरों से पानी बांट नहीं सकते क्योंकि पानी भरने के दौरान लोग आपस में झगड़ने लगते हैं.’

मराठवाड़ा में सूखे से उपजी पानी की कमी के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी तो सभी को है लेकिन इसका महिलाओं और बच्चों को क्या खामियाजा भुगतना पड़ता है इसकी ओर लोगों का ध्यान तब आकर्षित हुआ जब 18 अप्रैल को बीड जिले की आष्टी तहसील के सबलखेड गांव में रहने वाली 12 साल की योगिता देसाई की पानी भरने के दौरान मौत हो गई. यह मौत लू लगने की वजह से हुई थी. योगिता दिन में कई बार कड़ी धूप में पानी भरने जाती थी. उस रोज जब वह 5वीं बार हैंडपंप पर पानी भरने गई तो बेहोश होकर गिर गई और फिर उसे कभी होश नहीं आया. स्थानीय गुरुदत्त अस्पताल में काम करने वाले डॉ. हनुमंत काकड़े, जिन्होंने योगिता की जांच की थी, कहते हैं, ‘बच्ची को पिछले 24 घंटों से बुखार था. घटना वाले दिन उसे सुबह उल्टियां भी हुई थीं लेकिन फिर भी वह पानी भर रही थी. लू लगने और शरीर में पानी की कमी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई.’ योगिता के चाचा ईश्वर देसाई कहते हैं, ‘हमारे गांव में बाकी कामों के लिए पर्याप्त पानी है लेकिन पीने के पानी की कमी है इसलिए बच्चे-बूढ़े सभी लोग पानी भरने जाते हैं.’

इसी साल फरवरी में गेवराई तहसील के बाग पिंपलगांव में 10 साल की राजश्री कांबले की भी पानी भरते समय कुएं में गिरकर मौत हो गई. उसके पिता नामदेव कांबले के अनुसार, ‘स्कूल में मध्याह्न भोजन खाने के बाद वहां पानी न होने के चलते वह घर पर पानी पीने आई थी लेकिन जब घर पर भी पानी नहीं मिला तो वह कुएं से पानी भरने गई और उसमें गिर पड़ी.’ नामदेव कांबले ने इस हादसे के बाद गांव के सरपंच के खिलाफ गेवराई थाने में शिकायत दर्ज कराई. उन्होंने अपनी शिकायत में कहा था कि गांव में जल स्वराज्य योजना के तहत बने कुएं में पर्याप्त पानी होने के बावजूद  सरपंच ने दलित बस्तियों में जा रही पाइप लाइनों में पानी नहीं छोड़ा, जिसके चलते लोगों को दूसरे कुओं से पानी भरने जाना पड़ता है और इसी वजह से उनकी बेटी की मौत हो गई. गांव की सरपंच सत्यभामा चितलकर से बातचीत करने की कोशिश की गई तो उनके पति जनार्दन चितलकर उनका पक्ष रखते हुए कहते हैं, ‘जब कुएं में पर्याप्त पानी था तो नलों में पानी छोड़ा जाता था लेकिन सूखे के चलते कुएं में पानी की कमी हो गई है और इस वजह से हमने नलों में पानी छोड़ना बंद कर दिया है. अब सभी लोग कुएं से पानी भरने आते हैं, किसी के साथ भी कोई भेदभाव नहीं हुआ है.’

इसी साल जनवरी में नौ साल की कोमल जगताप की कुएं में गिरकर मौत हो गई. कोमल के माता-पिता उस वक्त कर्नाटक में गन्ने की कटाई करने के लिए गए थे. कोमल तब अपने मामा के साथ गेवराई तहसील के जातेगांव में रहती थी. मामा सतीश चह्वाण बताते है, ‘उस कुएं में पानी बहुत कम था, इसलिए पानी भरने के दौरान जब वह उसमें गिरी तो उसके सिर पर चोट लगी जिससे उसकी मौत हो गई.’

मराठवाड़ा में लगातार तीन साल से अकाल की स्थिति है और इस साल हालत बुरी तरह से बिगड़ चुकी है. फसलें नष्ट हो चुकी हैं. इन हालात में तमाम लोग रोजी-रोटी के जुगाड़ में ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. पानी की कमी और बेरोजगारी ने इस विस्थापन को इतना विकराल रूप दे दिया है कि मराठवाड़ा के ग्रामीण क्षेत्रों की 40 प्रतिशत आबादी पश्चिम महाराष्ट्र के बड़े-छोटे शहरों की ओर कूच कर गई है. पुणे, कोल्हापुर, मुंबई जैसे शहरों में मराठवाड़ा से आए लोगों का तांता लगा हुआ है. ये किसान शहरों में मजदूरी करके अपना पेट पाल रहे हैं. क्षेत्र के कई गांवों का दौरा करने के बाद स्थिति बिल्कुल साफ हो जाती है.

बंद दरवाजा बीड जिले की वडवनी तहसील की पांच हजार की आबादी वाला उपली गांव अब वीरान नजर आता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक इस गांव के 300 परिवार अपना घर-बार छोड़कर शहर पलायन कर चुके हैं. फोटो : प्रतीक गोयल
बीड जिले की वडवनी तहसील की पांच हजार की आबादी वाला उपली गांव अब वीरान है. स्थानीय लोगों के मुताबिक गांव के 300 परिवार घर-बार छोड़कर पलायन कर चुके हैं. फोटो : प्रतीक गोयल

खाली सड़कें और घर के दरवाजों पर लगे ताले उपली गांव में एक आम नजारा है. बीड जिले की वडवनी तहसील की पांच हजार की आबादी वाला यह गांव अब वीरान-सा नजर आता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक इस गांव के 300 परिवार अपना घर-बार छोड़कर शहर पलायन कर चुके हैं और बाकी भी शहर जाने की योजना बना रहे हैं. बहुत- से लोग तो अपने बूढ़े मां-बाप को गांवों में ही छोड़कर जा चुके हैं.

70 वर्षीय जयराम इचके अपने परिवार सहित काम की तलाश में पुणे जा रहे हैं. उनकी माली हालत इतनी खराब है कि कुछ दिन पहले उनके पास शक्कर तक खरीदने के पैसे नहीं थे. उनकी बीमार बेटी के लिए दवाई तक का इंतजाम वह नहीं कर पा रहे थे. इचके को शक्कर और दवाई का इंतजाम करने के लिए घर में रखा पलंग और एक पुराना टेलीविजन बेचना पड़ा. वे कहते हैं, ‘यहां पानी की बहुत कमी है जिसके चलते न ही यहां खेती बची है और न ही कोई काम. मेरे बेटे की मृत्यु बहुत साल पहले हो गई थी, इसलिए मेरी पत्नी और बेटी की जिम्मेदारी मुझ पर है. हमने पुणे जाने का फैसला कर लिया है. अभी फिलहाल वहां मजदूरी करने के बारे में सोचा है.’ इसी गांव के विष्णु सावंत अपने परिवार के साथ पुणे रहने लगे हैं. सावंत कहते हैं, ‘सूखे के चलते मुझे अपनी पौने दो एकड़ खेती बेचनी पड़ी. बेटी की शादी के लिए भी साहूकार से डेढ़ लाख रुपये का कर्ज लिया था लेकिन कर्ज न चुका पाने की वजह से मुझे अपना घर उसके नाम करना पड़ा. ऐसी परिस्थिति में मजबूरन शहर जाना पड़ा.’ सावंत का 16 वर्षीय लड़का भी उनके साथ मजदूरी करता है. पैसों की कमी के चलते उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी. सावंत कहते हैं, ‘मैं अपने बेटे को स्कूल भेजना चाहता था, लेकिन अभी अपने परिवार को दो जून की रोटी खिलाना ज्यादा जरूरी है. क्या करें, हमारे जैसे लोगों के जीवन में ज्यादा विकल्प नहीं होते.’

उपली में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता कांता इचके ने बताया, ‘ग्रामीण अपनी जमीन-जायदाद बेचकर पश्चिम महाराष्ट्र के शहरों में पलायन कर रहे हैं. स्थिति इतनी खराब है कि लोग अपना घर बेचकर शहर जाने के लिए किराये का जुगाड़ कर रहे हैं ताकि वहां पहुंचकर उन्हें कुछ रोजगार मिल सके. कोई भी गांव में रहना नहीं चाहता.’ इस गांव में पानी की इतनी ज्यादा कमी है कि लोगों को पानी पांच दिन में एक बार नसीब होता है. गांववालों ने बताया कि पानी भरने के लिए हर परिवार को सरपंच को 50 रुपये देने पड़ते हैं. दत्ता नातेवाइके ने बताया, ‘अगर पैसे न दिए जाएं तो सरपंच के लोग पानी भरने नहीं देते और गांव के नलों पर ताला लगा देते हैं.’ इस बारे में गांव की सरपंच असरबी शेख से बात की तो वे कहती हैं, ‘गांव में लगे हुए नल और पाइपलाइन सरकारी पैसों से नहीं बल्कि हमने अपने निजी खर्चे से लगवाए हैं इसीलिए हर परिवार से पानी भरने के लिए हम 50 रुपये लेते हैं. हालांकि गरीबों को इससे निजात है.’ नलों पर ताले लगाने के बारे में वे कहती हैं, ‘गांव में पानी 3-4 दिन में एक दफा आता है. नलों पर ताले इसलिए लगाए हैं ताकि सबको समान रूप से पानी मिले और कोई विवाद न हो.’

माजल गांव तहसील स्थित झरनेवाड़ी गांव के 40 वर्षीय रामराव मुथाल ने अपने खेत पर एक बोर्ड लगा रखा है जिस पर मराठी में लिखा है, ‘जमीन बिक्रि आहे’ यानी ये जमीन बिकाऊ है. मुथाल जमीन बेचकर अपनी तीन बेटियों की शादी के लिए ग्रामीण बैंक और साहूकार से लिया हुआ छह लाख रुपये का कर्ज चुकाकर मुंबई या पुणे जाकर बसना चाहते हैं. वे कहते हैं, ‘पिछले दो सालों से फसल नहीं हुई है. यहां पीने के लिए पानी नहीं है तो खेती के लिए पानी कहां से आएगा. जमीन बेचना जरूरी है वरना बैंक और साहूकार का कर्ज कैसे चुकाएंगे. हालात ऐसे हैं कि शहर जाकर मजदूरी करना ही एक विकल्प रह गया है.’

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आत्महत्याओं का सिलसिला जारी

गेवराई तहसील के जातेगांव की रहने वाली जनाबाई चह्वाण की आंखें आज भी अपने बेटे का जिक्र आने के साथ नम हो जाती हैं. उनके 23 वर्षीय बेटे सखाराम चह्वाण ने 15 महीने पहले जहर पीकर अपनी जान दे दी थी. सखाराम ने खेत में कुआं बनाने के लिए तीन लाख रुपये का कर्ज लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए थे. फोटो : प्रतीक गोयल
गेवराई तहसील के जातेगांव की रहने वाली जनाबाई चह्वाण की आंखें आज भी अपने बेटे का जिक्र आने के साथ नम हो जाती हैं. उनके 23 वर्षीय बेटे सखाराम चह्वाण ने 15 महीने पहले जहर पीकर अपनी जान दे दी थी. सखाराम ने खेत में कुआं बनाने के लिए तीन लाख रुपये का कर्ज लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए. फोटो : प्रतीक गोयल

बीड जिले के पुसरा गांव के विलास जोगड़े एक भूमिहीन मजदूर थे. उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए पिछले साल 1.5 लाख रुपये का कर्ज लिया था लेकिन सूखे के चलते वे इतने पैसे नहीं कमा पाए कि कर्ज चुका सकें. इस साल अप्रैल में उन्होंने पेड़ से फांसी लगाकर अपनी जान दे दी. उनके अंतिम संस्कार तक के लिए उनकी पत्नी प्रियंका जोगड़े को 10 हजार रुपये का कर्ज लेना पड़ा.

उनकी पत्नी प्रियंका नम आंखों से कहती हैं, ‘उन्होंने हमारी बेटी की शादी के लिए कर्ज लिया था लेकिन विडंबना ये है कि बेटी के पति ने उसे एक साल में ही छोड़ दिया. मेरे पास तो 10वीं कक्षा में पढ़ने वाले बेटे की पढ़ाई के लिए भी पैसे नहीं हैं. सरकार भूमिहीन किसानों के लिए कुछ नहीं करती. गांव में भी कुछ काम नहीं है, अब हमें शहर जाकर मजदूरी करनी पड़ेगी.’

गेवराई तहसील के जातेगांव की रहने वाली जनाबाई चह्वाण की आंखें आज भी अपने बेटे का जिक्र आने के साथ नम हो जाती हैं. उनके 23 वर्षीय बेटे सखाराम चह्वाण ने 15 महीने पहले जहर पीकर अपनी जान दे दी थी. सखाराम ने खेत में कुआं बनाने के लिए तीन लाख रुपये का कर्ज लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए थे. सरकार की तरफ से उनके परिवार को एक लाख रुपये का मुआवजा दिया गया था और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत उन्हें लाभार्थी बनाकर उनके खेत पर एक कुआं बनाया जा रहा है लेकिन इसकी प्रक्रिया में उनके माता-पिता को विभिन्न दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं और संबंधित अधिकारियों को उनकी फाइल बढ़ाने के लिए रिश्वत भी देनी पड़ रही है. जनाबाई कहती हैं, ‘बेहतर होता कि सरकार हमें मुआवजे के रूप में कुछ पैसे दे देती यह कुएं का निर्माण जी का जंजाल बन चुका है.’

बीड कलेक्ट्रेट में कार्यरत एक अधिकारी अपना नाम न लिखने की शर्त पर बताते हैं, ‘ब्लॉक लेवल पर अधिकारी किसानों का मुआवजा पास कराने के लिए उनसे 15 प्रतिशत तक का कमीशन मांगते हैं. यह दुख की बात है लेकिन बिना इसके काम नहीं होता.’ बीड जिले के कलेक्टर नवल किशोर राम मानते हैं कि भूमिहीन मजदूरों के परिवारों को किसी भी तरह का मुआवजा नहीं दिया जाता लेकिन सरकार एक नई नीति जल्द ही बनाएगी जिसके तहत भूमिहीनों को लाभ मिलेगा. उन्होंने बताया, ‘मुआवजा देने से पहले वह तीन बातों की तसल्ली जरूर करते है. जिस व्यक्ति ने आत्महत्या की है क्या उसने कोई कर्ज लिया है, क्या उसकी फसल बर्बाद हो चुकी है और तीसरी यह कि क्या बैंक वाले उनके घर चक्कर लगा रहे हैं?’ नवल किशोर राम आगे कहते हैं, ‘आत्महत्या कोई भी करे उसे आत्महत्या ही माना जाएगा. सरकार नई नीति लेकर आएगी जिसके तहत कोई भी किसान भूमिहीन या जिनके पास भूमि है अगर सूखे की वजह से या खेती में हुए नुकसान की वजह से आत्महत्या करता है तो सरकार उसे मुआवजा देगी.’ वे यह भी कहते है कि अगर कोई अधिकारी किसानों को मुआवजा देते वक्त भ्रष्टाचार करता है तो उसे कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी.[/symple_box]

बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर

बीड को गन्ना काटने वाले मजदूरों का गढ़ कहा जाता है. महाराष्ट्र में गन्ना काटने वाले मजदूरों की संख्या तकरीबन नौ लाख है और इनमें से चार लाख बीड के रहवासी हैं. प्रायः भूमिहीन मजदूर ही गन्ने की कटाई का काम करते हैं. यह अक्टूबर से लेकर मई के बीच होता है. गन्ना काटने के लिए ये मजदूर पश्चिम महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के तमाम शहरों में जाते हैं लेकिन सूखा के चलते इन भूमिहीन मजदूरों के संघर्षपूर्ण और शोषित जीवन में एक ऐसा उतार आया है जो बंधुआ मजदूरी की याद दिलाता है. इन भूमिहीन मजदूरों को काम देने वाले इनके ठेकेदार जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘मुकादम’ कहा जाता है, फसल के उत्पादन में आई कमी के चलते इन्हें कैद रखने लगे हैं. इन मजदूरों का जीवन बेहद कठिन होता है. साल के आठ महीने ये अपने घर से कोसों दूर अस्थायी घरों में गुजारते हैं. इनके बच्चे भी इनके साथ चले जाते हैं जिसके चलते उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है. हालांकि कुछ मजदूर अपने बच्चों को घर के बड़े-बुजुर्गों के पास छोड़कर जाते हैं ताकि वे पढ़-लिख सकें. ये मजदूर शक्कर कारखाने वाले मुकादम के साथ गन्ने की कटाई का करार करते हैं और मुकादम इन्हें गन्ना काटने के लिए अलग-अलग इलाकों में लेकर आते हैं. मुकादम जोड़ों (पति-पत्नी) के रूप में मजदूरों को लाते हैं. उन्हें एक अग्रिम रकम दे दी जाती है. मुकादम को शक्कर कारखानों से तो पैसे मिलते ही हैं उसमें से 20 प्रतिशत कमीशन मुकादम को देना पड़ता है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अगर इन मुकादमों को लगता है कि मजदूरों ने उन्हें अग्रिम रूप से मिली हुई रकम के अनुसार गन्ने नहीं काटे तो वे इन्हें पैसे लौटाने के लिए मजबूर करते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता राजू थोराट कहते हैं, ‘मुकादम हर गांव से 100-200 जोड़े अपने साथ ले जाते हैं. आठ महीने काम करने के लिए ये प्रति जोड़ा मात्र 30,000 से 80,000 रुपये तक देते हैं. उनसे कोल्हू के बैल की तरह काम करवाया जाता है. सूखे के चलते गन्ने की उपज कम हो गई है जिसके चलते मजदूरों का काम निर्धारित समय के पहले ही पूरा हो जाता है. ऐसी स्थिति में मुकादम इन लोगों को दी हुई रकम का कुछ हिस्सा लौटाने के लिए बाधित करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि मजदूरों ने मिली हुई रकम के हिसाब से गन्ने नहीं काटे. ऐसी सूरत में अगर मजदूर पैसे नहीं लौटा पाते तो उन्हें बंधक बना लिया जाता है और तब तक नहीं छोड़ा जाता जब तक उनके दोस्त या रिश्तेदार वह रकम मुकादम को लौटा नहीं देते.’

बीड के कारी गांव के रहने वाले विजय कसबे को कर्नाटक में एक महीना बंधक बनाकर रखा गया था. विजय ने बताया कि मुकादम ने उन्हें और उनकी पत्नी को छह महीने तक काम करने के लिए 50,000 रुपये दिए थे. काम तीन महीनों में ही खत्म हो गया, जिसके बाद मुकादम उन पर तीन महीनों का बकाया पैसा लौटाने के लिए दबाव बनाने लगा और फिर एक महीने तक उन्हें बंधक बनाकर रखा. फोटो : प्रतीक गोयल
बीड के कारी गांव के रहने वाले विजय कसबे को कर्नाटक में एक महीना बंधक बनाकर रखा गया था. विजय ने बताया कि मुकादम ने उन्हें और उनकी पत्नी को छह महीने तक काम करने के लिए 50,000 रुपये दिए थे. काम तीन महीनों में ही खत्म हो गया, जिसके बाद मुकादम उन पर तीन महीनों का बकाया पैसा लौटाने के लिए दबाव बनाया और बकाया न दे पाने पर उन्हें  एक महीने बंधक बनाकर रखा. फोटो : प्रतीक गोयल

बंधक बनाए गए कुछ मजदूरों ने अपने अनुभव ‘तहलका’ से साझा किए हैं. बीड में काम करने वाली एक गैर-सरकारी संस्था ‘मानवीय हक अभियान’ के प्रयासों से इन्हें छुड़ाया गया था. बीड जिले की धारूर तहसील की रहने वाली 29 वर्षीया जयश्री मुजमुले ने अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया कि उन्हें और उनके जैसे 20 दूसरे जोड़ों (पति-पत्नी) व उनके बच्चों को कर्नाटक के गुलबर्गा में इस साल फरवरी में एक महीने तक बंधक बनाकर रखा गया था. जयश्री कहती हैं, ‘हमें और हमारे बच्चों को जानवरों की तरह एक मैदान में रखा गया था. मैदान के चारों ओर मुकादम के आदमियों का पहरा रहता था. हमारे सिर पर न छत थी और न ही हमें एक महीने तक खाना दिया गया था. हम-में से कुछ लोगों को मुकादम के आदमी एक आटा चक्की ले जाते थे और वहां जमीन पर पड़ा आटा उठवाकर वापस ले आते थे. उस आटे की रोटियों और गांव से साथ में लाए हुए बचे-खुचे ज्वार-बाजरे से हमने अपना और बच्चों का गुजारा किया था. हमारे कुछ लोगों को वे मारते-पीटते भी थे.’

बीड के कारी गांव के रहने वाले विजय कसबे की भी यही कहानी है. उन्हें भी कर्नाटक में एक महीना बंधक बनाकर रखा गया था. विजय ने बताया कि मुकादम ने उन्हें और उनकी पत्नी को छह महीने तक काम करने के लिए 50,000 रुपये दिए थे लेकिन पानी की कमी की वजह से उपज कम हुई थी इसलिए काम तीन महीने में ही खत्म हो गया, जिसके बाद मुकादम उन पर तीन महीने का बकाया पैसा लौटाने के लिए दबाव बनाने लगा और फिर उन्हें एक महीने तक बंधक बनाकर रखा गया. कसबे कहते हैं, ‘हम गरीब लोग हैं. हमारे पूरे परिवार का पेट गन्ने की कटाई में कमाए गए पैसों से पलता है. शादी, दवा, बच्चों की पढ़ाई सब कुछ इन पैसों के बल पर होता है. इसलिए जब पैसा आता है तो एक ही बार में खर्च हो जाता है. मुकादम को लौटाने के लिए हमारे पास कुछ नहीं बचता. लेकिन ये हमारी मजबूरी है कि इतनी कठिनाइयों और शोषण के बावजूद हम वापस उन्हीं लोगों के साथ काम पर जाते हैं. अगर नहीं जाएंगे तो परिवार को कैसे पालेंगे.’

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जालना जिले के चिंचोली गांव के रहने वाले राहुल पालेकरएओ को भी पंढरपुर में 15 दिन तक मुकादम ने बंधक बनाकर रखा था. वे कहते हैं, ‘हमें 60,000 रुपये दिए गए थे. हम लोग रोज सुबह चार बजे उठते थे और रात 12 बजे तक काम करते थे. लगभग 20 घंटे काम करते थे, कम उपज के चलते मुकादम हमें चार जगह गन्ने की कटाई और ढुलाई के लिए ले गया था. लेकिन इतना काम करने के बावजूद उसे लगा कि हमने रकम के हिसाब से गन्ने नहीं काटे हैं और हमें 15 दिन के लिए बंधक बना लिया.’ पालेकरएओ के साथ दस अन्य जोड़ों को भी एक बिल्डिंग में बंधक बनाकर रखा गया था, पुरुषों को एक कमरे में बंद कर दिया गया था सिर्फ महिलाओं को बाहर जाकर दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करने की इजाजत थी वह भी इसलिए ताकि बंधकों के खाने का इंतजाम हो जाए.

लोकसभा सांसद और स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के अध्यक्ष राजू शेट्टी के अनुसार बिचौलियों को मजदूर और कारखानों के बीच से हटाकर पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए. शेट्टी कहते हैं, ‘मुकादमों द्वारा संचालित इस प्रणाली पर प्रतिबंध लगना चाहिए. ये मुकादम कोई और नहीं बल्कि स्थानीय नेता या उनके चमचे होते हैं जिनका स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप होता है. ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके तहत मजदूर और कारखानों का सीधा संपर्क हो सके और इन ठेकेदारों का सफाया हो जाए.’

टूटती शादियां

बीड जिले के बाबी तांडा गांव में मटकों और बाल्टियों की एक लंबी कतार लगी हुई है. महिला-पुरुष, छोटे-बड़े सभी लोग गांव के एकमात्र नल के आगे पानी भरने के इंतजार में खड़े हुए हैं. बंजारों के इस गांव में इस साल 100 लड़कियों की शादियां टूट चुकी हैं, 800 की आबादी वाले इस गांव में पानी की कमी को लोग अपनी बेटियों की शादी टूटने का कारण बताते हैं. 50 वर्षीया केसरबाई राठौड़ कहती हैं, ‘पानी के चलते किसी के पास कोई काम नहीं है, अब जब काम ही नहीं है तो बेटियों की शादी में हुंडा (दहेज) कहां से दें. लड़के वाले बिना दहेज के शादी करने से मना कर देते हैं.’ 19 वर्षीय कविता राठौड़ की शादी मई में होने वाली थी, लेकिन दहेज का इंतजाम न हो पाने की वजह से उनकी शादी टूट गई. वे कहती हैं, ‘मैं 12वीं तक पढ़ी हूं और नर्सिंग की पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन शादी तय होने की वजह से और पैसों की कमी के चलते पढ़ नहीं पाई. मेरे माता-पिता शादी और पढ़ाई दोनों का खर्च नहीं उठा सकते थे. उनका मानना है कि पढ़ाई करने के बाद नौकरी के जरिए मिले हुए पैसे तो मेरे पति को ही मिलेंगे तो इससे अच्छा है कि वे शादी में पैसे लगाएं लेकिन अब अकाल के चलते पैसों की इतनी कमी हो गई है कि मेरी शादी ही टूट गई.’

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पानी भरने की कतार में लगी हुई सोनाली राठौड़ बताती हैं, ‘मेरी चचेरी बहन की शादी तय तारीख से दो दिन पहले टूट गई थी. चाचा ने दो लाख रुपये का कर्जा उठाया था, अपनी जमीन भी बेच दी थी और खुद के पास जमा सारे पैसे शादी की तैयारियों में लगा दिए थे लेकिन फिर लड़केवालों ने 12 लाख रुपये की रकम की मांग कर दी जिसके चलते शादी टूट गई.’

मराठवाड़ा के किसान बेटियों की शादी करवाने के दौरान अक्सर कर्जदार हो जाते हैं. 20 जनवरी को लातूर जिले के भिसे वाघोली गांव की मोहिनी भिसे ने इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि उनके पिता को शादी के लिए कर्ज न लेना पड़े. उन्होंने अपने सुसाइड नोट में दहेज प्रथा को अपनी आत्महत्या का कारण बताया था. भिसे वाघोली गांव में रहने वाले सत्तार पटेल मोहिनी के परिवार से परिचित हैं. वे किसानों के लिए काम करने वाले बलिराजा शेतकरी संगठन के मुखिया हैं. उनका कहना है, ‘मोहिनी के माता-पिता बेटी की शादी के लिए अपनी जमीन बेच रहे थे. वह नहीं चाहती थी कि उसका परिवार भूमिहीन हो जाए इसलिए उसने आत्महत्या कर ली थी. अब तक तो सिर्फ किसान आत्महत्या कर रहे थे लेकिन अब उनके परिवार के सदस्य आत्महत्या कर रहे हैं, यह स्थिति बेहद चिंताजनक है.’

पुरसा गांव में रहने वाली रुक्मिणी गलफड़े के परिवार को खाने के भी लाले पड़े हैं. उनके पति एक मैरिज बैंड में काम करते हैं और उनकी कमाई 150 रुपये प्रतिदिन है. फोटो : प्रतीक गोयल
पुरसा गांव की रुक्मिणी गलफड़े के घर खाने के भी लाले हैं. उनके पति एक मैरिज बैंड में काम करते हैं, जिनकी कमाई 150 रुपये प्रतिदिन है. फोटो : प्रतीक गोयल

मानव तस्करी का खतरा

मानव तस्करी के खिलाफ काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था स्नेहालय के अध्यक्ष गिरीश कुलकर्णी ने बताया, ‘सूखे के चलते किशोर लड़कियों की तस्करी का खतरा बढ़ गया है. मराठवाड़ा से इतने बड़े स्तर पर पलायन हो रहा है कि ऐसे में आपराधिक तत्वों के लिए उनका शोषण करना आसान हो गया है.’ कुलकर्णी और उनका संगठन केतन तिरोडकर के जिलों में पलायन करके आए लोगों को मानव तस्करी के खतरे के प्रति जागरूक कर रहे हैं. उन्होंने अहमदनगर स्थित स्नेहालय में तकरीबन 150 किशोर-किशोरियों के रहने का बंदोबस्त भी किया है. वे कहते हैं, ‘शहर पहुंचने के बाद इन लोगों के पास रहने तक की जगह नहीं होती, पैसे नहीं. होते ऐसे में मानव तस्कर काम दक़िलाने के बहाने इन्हें बहला-फुसलाकर वेश्यावृत्ति के धंधे में झोक देते हैं. इनका निशाना ज्यादातर किशोरियां होती हैं. मुंबई के कमाठीपुरा इलाके में वेश्यावृत्ति करने वाली मराठी मूल की अधिकांश लड़कियां मराठवाड़ा से हैं. सूखे की वजह से सामाजिक दुष्परिणाम का यह एक जीता-जागता उदाहरण है.’

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आईपीएल पर पीआईएल

महाराष्ट्र में आईपीएल मैच करवाने के खिलाफ पीआईएल यानी जनहित याचिका लगाने वाले पत्रकार केतन तिरोडकर कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में सूखे की स्थिति होने के बावजूद सरकार के पास पर्याप्त पानी है पर इसे लोगों की जान बचाने के बजाय आईपीएल मैचों, गोल्फ क्लबों और फाइव स्टार होटलों में प्रयोग किया जा रहा है. ऐसी फिजूल गतिविधियों में पानी बर्बाद करने से ही महाराष्ट्र में सूखे की यह स्थिति आई है. इस साल फरवरी की शुरुआत में केंद्र सरकार की एक टीम ने सूखे की संभावनाओं को जांचने हेतु राज्य के 16 जिलों का दौरा किया था और निष्कर्ष दिया था कि सूखे जैसी स्थितियां नहीं बनेंगी. इसके बाद ही राज्य में आईपीएल मैच करवाने की अनुमति दी गई थी. यही कारण था कि पहले लातूर और अन्य सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए वॉटर ट्रेन की व्यवस्था नहीं हो पाई.’

तिरोडकर द्वारा डाली गई याचिका के अनुसार, एक आईपीएल मैच के लिए पिच तैयार करने में 22 लाख लीटर और इसके रखरखाव के लिए 60 हजार लीटर पानी की जरूरत होती है. जबकि महाराष्ट्र सरकार ने लातूर में ट्रेन द्वारा केवल 25 लाख लीटर पानी भेजने की घोषणा की है.

गौरतलब है कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने 1 मई के बाद महाराष्ट्र में होने वाले सभी आईपीएल मैचों को शिफ्ट करने का आदेश दिया है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने भी मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन और महाराष्ट्र क्रिकेट एसोसिएशन की बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा इस फैसले के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए हाई कोर्ट के फैसले को ही कायम रखा है.[/symple_box]

70 वर्षीय जयराम इचके अपने परिवार सहित काम की तलाश में पुणे जा रहे हैं. उनकी माली हालत इतनी खराब है कि कुछ दिन पहले उनके पास शक्कर तक खरीदने के पैसे नहीं थे. उनकी बीमार बेटी के लिए दवाई तक का इंतजाम वे नहीं कर पा रहे थे. इचके को शक्कर और दवाई का इंतजाम करने के लिए घर में रखा पलंग और एक पुराना टेलीविजन बेचना पड़ा. फोटो : प्रतीक गोयल
70 वर्षीय जयराम इचके अपने परिवार सहित काम की तलाश में पुणे जा रहे हैं. उनकी माली हालत इतनी खराब है कि बीमार बेटी के लिए दवाई का इंतजाम भी नहीं कर पा रहे थे. दवाई का इंतजाम करने के लिए उन्हें घर में रखा पलंग और एक पुराना टेलीविजन बेचना पड़ा. फोटो : प्रतीक गोयल

किसानों के हक के लिए लड़ने वाले और मौजूदा प्रदेश सरकार द्वारा सूखे से निपटने के लिए गठित वसंतराव नाईक शेती स्वावलंबन मिशन के निदेशक किशोर तिवारी कहते हैं, ‘गन्ने की कटाई करने वाले मजदूरों की स्थिति अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों की दासता की याद दिलाती है. इन मजदूरों की यह स्थिति का कारण शुगर मिल चला रहे नेताओं का सामंतवाद है. इन मिलों को बंद करना चाहिए. इन लोगों की वजह से सूखे की स्थिति और खराब हो जाती है. ऐसे लोगों को फांसी दे देनी चाहिए. भूमिहीन मजदूर हो या किसान अगर वह आत्महत्या करता है तो उसके परिवार को मुआवजा मिलना चाहिए. हर सरकार उनके हालात ठीक करने की बात करती है लेकिन कोई कुछ नहीं करता.’ तिवारी ने बताया कि इन मुद्दों पर वे मुख्यमंत्री के साथ होने वाली समीक्षा बैठक में चर्चा करेंगे.

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महाराष्ट्र की ग्रामीण विकास और जल संरक्षण मंत्री पंकजा मुंडे ‘तहलका’ से बातचीत में कहती हैं, ‘प्रदेश सरकार द्वारा शुरू की गई जलयुक्त शिविर योजना पानी  संरक्षित करने की अच्छी पहल है. इसका फायदा जुलाई में जब बारिश शुरू होगी तब दिखेगा. इससे सूखे से निजात मिलेगी और मराठवाड़ा में जीवन फिर से पटरी पर आ जाएगा. पानी भरने की समस्या से निजात मिलने के साथ किसान आत्महत्या भी रुक जाएगी.’

लोकसभा सांसद राजू शेट्टी कहते हैं, ‘सरकार को सभी किसानों का कर्ज माफ कर देना चाहिए. इस मांग को लेकर हम नौ मई को देश भर में आंदोलन करेंगे. जब सरकारी बैंक रईस उद्योगपतियों के एक लाख चौदह हजार करोड़ रुपये का कर्ज छोड़ सकते हैं तो गरीब किसानों का छोटा-सा कर्ज क्यों माफ नहीं करते? विजय माल्या जैसा व्यक्ति बैंकों का 9000 करोड़ का कर्जा चुकाए बिना लंदन भाग जाता है लेकिन एक गरीब किसान 50,000 रुपये का कर्ज न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर लेता है.’ 

किसका झारखंड?

रांची का अल्बर्ट एक्का चौक फोटोः अमित दास
रांची का अल्बर्ट एक्का चौक फोटोः अमित दास
रांची का अल्बर्ट एक्का चौक
फोटोः अमित दास

23 जुलाई, 2002 की बात है. पहली बार रांची पहुंचा था. काम के सिलसिले में जब अगली सुबह निकला तो देखा कि सड़कें वीरान होने लगीं. चारों ओर भय-दहशत का माहौल. तोड़फोड़-आगजनी का दौर शुरू हुआ. गाड़ियां बंद. जो जहां था वहीं छिपने की कोशिश करने लगा. एक-दूसरे के पास सूचनाएं पहुंचने लगीं. धुर्वा, डिबडीह, कुटे, नया सराय और आदर्शनगर में स्थिति गंभीर होने का पता चला. पांच लोग मारे जा चुके थे और कर्फ्यू का ऐलान हो चुका था. रांची के इन मोहल्लों का नाम पहली बार सुना था. सुबह से शाम एक अनजान गली में एक अजनबी के घर शरण लिए रहा. मालूम करता रहा कि मामला क्या है. सब यही बताते कि डोमिसाइल की लड़ाई है. ज्यादा समझ में नहीं आया. कोई साफ-साफ बताने वाला नहीं था कि आखिर डोमिसाइल की लड़ाई है क्या. बाद में पता चला कि तब के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने बिहार की ही डोमिसाइल नीति को झारखंड में लागू कर दिया है और पूरा बवाल इस कारण ही मचा था. दोनों पक्षों में नाराजगी है. दोनों ही पक्षों का मतलब एक पक्ष वह जो झारखंड के मूल निवासी- आदिवासी हैं और दूसरा वह जो बाहर से आकर झारखंड में रह रहे हैं. उस रोज कर्फ्यू लगा रहा. अगले कई दिनों तक शहर तनाव की आग में झुलसता रहा. इस घटना को तकरीबन 14 साल हो गए. झारखंड में डोमिसाइल का मसला काफी गंभीर है. इन वर्षों में डोमिसाइल यानी स्थानीय नीति को तय करने के लिए सभी सरकारों ने बातें कीं, बयान दिए, लगातार वाद-विवाद हुए लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. अब समझ में आ गया था कि दरअसल यह एक ऐसा मसला भी है जिसे हर राजनीतिक दल, हर सरकार बनाए रखना चाहती है ताकि उसे लेकर राजनीति की जा सके.

एक दशक से ज्यादा समय तक चले इस विवाद के बाद अब डोमिसाइल के मुद्दे को झारखंड की वर्तमान सरकार ने एक नीति लागू करके कई निशानों को साधने का काम किया है. मुख्यमंत्री रघुबर दास ने सात अप्रैल को नई डोमिसाइल नीति पास कर दी. रघुबर चाहते तो वे भी अपने पूर्ववर्ती भाजपाई मुख्यमंत्रियों बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा या फिर पूर्व की हेमंत सोरेन सरकार की तरह इसे मुद्दा बनाकर टालते रहते लेकिन उनके लिए अब यह मुश्किल-सा होता जा रहा था. मुश्किल सिर्फ विपक्षियों से नहीं थी. विपक्षियों ने तो मार्च में चले विधानसभा सत्र के दौरान ही डोमिसाइल नीति की मांग को लेकर पांच दिन तक सदन नहीं चलने दिया था. हो-हंगामा होता रहा था और रघुबर दास ने एक लाइन में जवाब देकर विपक्षियों को चुप करा दिया था. पूर्व मुख्यमंत्री और झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने विधानसभा सत्र के दौरान डोमिसाइल नीति को लेकर कहना शुरू किया कि यह सरकार नीति बनाना नहीं चाहती तब रघुबर ने पूछा था, ‘आप भी सरकार में थे, आपने तब क्यों नहीं बनाया था?’ इसका जवाब हेमंत नहीं दे पाए थे.

रघुबर ऐसे ही सवाल बाबूलाल मरांडी से लेकर किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री से पूछकर उसे चुप करा सकते थे लेकिन उन पर किसी भी तरह से डोमिसाइल नीति को जल्द से जल्द पास कराने का दबाव उनके अपने ही लोगों की ओर से बढ़ गया था. मार्च में जिस समय सदन में रघुबर डोमिसाइल पर विरोधियों के विरोध का सामना कर रहे थे उसी समय भाजपा के ही 28 विधायक भी अपनी ही सरकार को लिखित मांग पत्र सौंपकर जल्द से जल्द स्थानीय नीति बनाने की मांग कर रहे थे. ये 28 विधायक वे थे जो झारखंड के मूल निवासी- आदिवासी हैं. यह स्थिति असहज थी और मामला दिल्ली तक पहुंच गया. भाजपा के प्रदेश प्रभारी त्रिवेंद्र सिंह रावत रांची आए. उन्होंने विधायकों से पूछा कि आप अपनी ही सरकार से लिखित मांग कर रहे हैं, विपक्षियों की तरह घेर रहे हैं, यह गंभीर मामला है.

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‘इस नीति से बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति होगी. सरकार एक ओर खतियान की बात कर रही है लेकिन दूसरी ओर 1985 को आधार बनाकर उन्हें झारखंड का निवासी बना रही है जो एक षडयंत्र है. सरकार ने सरहुल के पहले स्थानीय लोगों को अपमानित करने का काम किया है इसलिए हम इसके विरोध में लगातार आंदोलन करेंगे’

सुप्रियो भट्टाचार्य
महासचिव, झारखंड मुक्ति मोर्चा[/symple_column]

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र राय ने विधायकों की ओर से रावत को जवाब दिया कि भाजपाई विधायकों पर, विशेषकर आदिवासी- विधायकों पर जबरदस्त दबाव है. वे अपने क्षेत्र में जाते हैं तो जनता पूछती है कि स्थानीय नीति का वादा था, वह क्यों नहीं पूरा हो रहा. रावत को भी बात समझ में आ गई. दबाव बढ़ता गया और नतीजा यह हुआ कि मुख्यमंत्री को झारखंड में 10 अप्रैल को होने वाले सबसे लोकप्रिय पर्व ‘सरहुल’ के पहले इसकी घोषणा करनी पड़ी ताकि वे बता सकें कि उनकी सरकार ने जनता को इस त्योहार का तोहफा भेजा है.

16 वर्षों से फंसे एक पेच को सुलझाने की कोशिश करना और डोमिसाइल जैसे विवादित मसले पर एक फाइनल नीति कैबिनेट से पास करना रघुबर दास के लिए कितना मुश्किल काम रहा होगा, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस दिन इस नीति की घोषणा हुई उसके दो दिन पहले तक वे लगातार एक जगह से दूसरी जगह मीटिंग करते रहे, लोगों से मिलते रहे. उन्होंने बाबूलाल मरांडी को फोन किया लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी. हेमंत से बात करने की कोशिश की, उनसे भी बात नहीं हो सकी. आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन पार्टी) के नेता सुदेश महतो से मिले. प्रमुख अखबारों के संपादकों से मिले. कई आला अधिकारियों के साथ मिलते रहे. जिस दिन इसकी घोषणा होनी थी, उस दिन रांची समेत सभी बड़े शहरों को सुरक्षाकर्मियों से पाट दिया गया ताकि कोई प्रतिक्रिया हो तो उसे तुरंत संभाला जा सके. यह शंका-आशंका बेजा नहीं थी.

2002 की घटना झारखंड में एक बड़ी घटना मानी जाती है और यह घटना लोगों के जेहन में अब भी ताजा है. खैर, शंकाएं निर्मूल साबित हुईं. स्थानीय नीति की घोषणा हुई. राजनीतिक पार्टियों का विरोध हुआ. कुछ जगहों पर प्रदर्शन भी हुए. प्रदर्शन और विरोध से ज्यादा दूसरे विपक्षी नेता टीवी चैनलों पर बयान देने और अखबारों को अपने बयान भिजवाने में लगे रहे. रघुबर दास ने जो नीति घोषित की उसका सार छह बिंदुओं में है. पहला- झारखंड में निवास करने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे. दूसरा- राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे. तीसरा- झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे. चौथा- भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे. पांचवां- झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा. आखिरी- जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

इस नीति को लाने का दबाव इसलिए ज्यादा था क्योंकि झारखंड में बड़ी संख्या में बहालियां होने वाली हैं. इनका ऐलान हो चुका है. स्थानीय नीति के साथ ही सरकार ने नियोजन नीति को भी स्पष्ट कर दिया है. सरकार ने जो नियोजन नीति बनाई है उसके अनुसार शिक्षक, जनसेवक, पंचायत सचिव, आरक्षी, चौकीदार, वनरक्षी और एएनएम जैसे पदों पर बहाली जिला स्तर पर होगी और इन पदों पर सिर्फ उसी जिले के स्थानीय लोगों को बहाल किया जाएगा. साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि झारखंड के साहेबगंज, पाकुड़, रांची, खूंटी, लातेहार, सरायकेला खरसांवा, लोहरदगा, पलामू, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम जैसे इलाकों में अगले दस वर्षों तक तृतीय और चतुर्थ वर्ग के पदों पर शत-प्रतिशत मूल निवासियों की ही नियुक्ति होगी. इसी तरह की कई बातें डोमिसाइल और नियोजन नीति में सरकार ने शामिल किया है.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-social-activist-a-k-pankaj-on-domicile-policy-in-jharkhand/” style=”tick”]जानिए स्थानीय नीति पर सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज के विचार[/ilink]

झारखंड सरकार के इस फैसले के बाद बवाल की स्थिति है लेकिन बवाल कौन करे, किस आधार पर करे, यह अभी तमाम राजनीतिक दल तय नहीं कर पाए हैं. हालांकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इसे लेकर झारखंड बंद का भी ऐलान किया था और कई जगहों पर प्रदर्शन भी किए. झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं, ‘इस नीति से बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति होगी. सरकार एक ओर तो खतियान की बात कर रही है लेकिन दूसरी ओर 1985 को आधार बनाकर उन्हें झारखंड का निवासी बना रही है जो एक षड्यंत्र है. सरकार ने सरहुल के पहले स्थानीय निवासियों को अपमानित करने का काम किया है, इसलिए हम इसके विरोध में लगातार आंदोलन करेंगे.’ हालांकि विरोध करने के पीछे सुप्रियो के पास कोई ठोस तर्क नहीं होता. तथ्य नहीं होता. यहां यह बताते चलें कि सुप्रियो अपनी बातों में जिस खतियान की चर्चा करते हैं, उसका आशय 1932 के खतियान से है. झारखंड में कई राजनीतिक दलों व संगठनों की यह मांग रही है कि 1932 के ही खतियान को आधार बनाकर किसी व्यक्ति को झारखंड का निवासी बनने का मौका दिया जाए. झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख व राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी कहते हैं, ‘स्थानीय नीति के जरिए सरकार ने झारखंडियों को झुनझुना थमा दिया है, जो सही नहीं है.’ मरांडी आगे कहते हैं, ‘अभी हमने मसौदा नहीं देखा है, देखेंगे तो बात करेंगे.’

धनबाद का बिरसा मुंडा चौक
धनबाद का बिरसा मुंडा चौक

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‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो उनको अपने कार्यकाल में स्थानीय नीति बनाकर लागू करना चाहिए था’ 

नीलकंठ सिंह
भाजपा नेता और कैबिनेट मंत्री[/symple_column]

इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार ने जो नीति लागू की है उसमें कुछ छूट गया हो तो उसे शामिल करना चाहिए. आज भले ही भाजपा सरकार ने इसे लागू कर दिया हो लेकिन इसका खाका पूरी तरह से यूपीए सरकार ने ही तय किया था.’ सुबोध कांत  सहाय जैसे वरिष्ठ नेता यह समझ नहीं पा रहे कि उन्हें इस मसले पर क्या स्टैंड लेना है. हालांकि कांग्रेस के ही एक दूसरे नेता और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत कहते हैं, ‘इसमें तो स्थानीय का भाव ही नहीं है तो फिर यह स्थानीय नीति कैसे हुई? यह दुविधा और आपस में ही एक-दूसरे के बयान काटने का खेल सिर्फ कांग्रेस के अंदर नहीं है बल्कि दूसरी पार्टियों में भी ऐसा देखने को मिल रहा है. जैसे एक ओर आजसू के प्रमुख सुदेश महतो इस नीति के लागू होने के पहले मुख्यमंत्री से मुलाकात करते हैं तो दूसरी ओर नीति के लागू होने के बाद आजसू के ही एक प्रमुख नेता देवशरण भगत कहते हैं कि यह नीति अन्याय है.

यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि आजसू सरकार में शामिल पार्टी है. इस पर कुछ बोलने-न बोलने की दुविधा सबसे ज्यादा राजद-जदयू जैसी बिहारी पार्टियों को है. राजद-जदयू जैसी पार्टियां अगर इस पर कुछ बोलती हैं तो उनका बिहारी बेस ही खत्म होगा और बिहारी बेस को हटा देने के बाद झारखंड में राजनीति के लिए उनके पास कुछ खास बचता भी नहीं. प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता व राज्य के कैबिनेट मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा कहते हैं, ‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो अपने कार्यकाल में दूसरी सरकारों को इसे बनाकर लागू करना चाहिए था.’ नीलकंठ सिंह वही बात कहते हैं जो भाजपा के सभी बड़े-छोटे नेता कह रहे हैं.

दरअसल स्थानीय की नीति को लागू करना और फिर लगे हाथ विपक्षियों को भी घेर लेना भाजपा की रणनीति का हिस्सा रहा है. जानकार बताते हैं कि रघुबर दास ने इस एक नीति को लागू करके एक साथ कई निशाने साध लिए हैं. एक तो यह कि इससे विपक्षियों कोे झटका लगा है. दूसरा यह कि उन्होंने जिस तरह से स्थानीय नीति तैयार की है उससे भाजपा के आधार वोट में वृद्धि होगी और वह लंबे समय तक जुड़ा भी रह सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, ‘इस खेल को अभी समझ नहीं पा रहा. रघुबर दास ने इस नीति के जरिए झारखंडियों के लिए भले कब्र खोदी हो लेकिन भाजपा के भविष्य के लिए एक उर्वर जमीन जरूर तैयार कर दी है. राजनीतिक दल तो इसका उस तरह से विरोध नहीं कर पाएंगे क्योंकि जब नीति बन रही थी और सरकार ने सुझाव मांगे थे तभी दलों को खुलकर अपनी राय रखनी चाहिए थी लेकिन दलों के विरोध नहीं करने का मतलब यह नहीं होगा कि इस पर झारखंडी समाज चुप रहेगा.’

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कौन होगा झारखंड का निवासी

  • झारखंड में रहने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान (जमीन के मालिकाना हक का कागज) में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे.
  • राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे.
  • झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा.
  • जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से पास की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

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बकौल अश्विनी पंकज, ‘वैसे झारखंडी समाज किसी बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं करता, इसलिए अभी शांत है लेकिन आज नहीं तो कल इस नीति के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और जब लोग प्रतिक्रिया करेंगे तो एक विशाल आंदोलन खड़ा होगा.’ गिरिडीह में रहने वाले भाकपा माले के नेता मनोज उन नेताओं में रहे हैं जिन्होंने स्थानीय की नीति लागू होते ही उसका अध्ययन किया और कहा कि यह झारखंड के भविष्य के लिए ठीक नहीं. मनोज कहते हैं, ‘इस नीति की खामियों को दूसरे तरीके से समझना होगा तब मालूम होगा कि यह क्यों और कैसे झारखंड विरोधी नीति है. सरकार ने 1985 से या उससे पहले रहने वाले लोगों को झारखंडी बनाने का फैसला किया है. हम लोगों की मांग 1932 के आधार पर रही है. 60 और 70 का दशक वह दौर रहा है जब झारखंड में बड़ी संख्या में बाहरियों का प्रवेश हुआ. कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ, एचईसी और बोकारो स्टील प्लांट जैसी कंपनियां झारखंड में आईं. इसके साथ ही मजदूर से लेकर ठेकेदार के रूप में लोग यहां पहुंचे. इनमें ऐसे लोग अधिक रहे जिनका झारखंड से वास्ता सिर्फ रोजगार का रहा. वे भाषा, संस्कृति के आधार पर हमेशा अपने मूल से ही जुड़े रहे. अब वे सारे लोग झारखंडी हो जाएंगे. इनमें अधिकांश संख्या उन लोगों की होगी जिनका आगे भी झारखंड की अस्मिता, भाषा-संस्कृति और संकटों से मतलब नहीं रहेगा. जब ऐसे लोग अचानक ही वैधानिक तौर पर झारखंडी बन जाएंगे तो जाहिर-सी बात है कि उनका वर्चस्व बढ़ेगा और फिर झारखंडी जनता पीछे हो जाएगी.’ मनोज जिन बातों की ओर इशारा करते हैं उसे झारखंड में कई स्तरों पर जांचा और आंका जा सकता है. झारखंड के हर हिस्से में बाहरी आबादी की संख्या बहुत ज्यादा है लेकिन उसमें भी बोकारो, रांची के एचईसी इलाके और धनबाद में बसे लोगों में अधिकांश बाहरी ही हैं. इन इलाकों में झारखंड की भाषा-संस्कृति का न तो ज्यादा असर दिखता है, न ही इन लोगों का झारखंड की संस्कृति से कोई सरोकार ही नजर आता है. यह स्थिति कमोबेश हर जगह दिखती है.

जो झारखंड को जानते हैं वे यह मान रहे हैं कि स्थानीय नीति के बाद एक नई लड़ाई जरूर अंगड़ाई लेगी. झारखंड में बाहरी-भीतरी की लड़ाई राज्य निर्माण के पहले से ही तेज रही है. राज्य निर्माण के बाद से तो यह लड़ाई और तेज होती रही है. दो महीने पहले तक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जैसे नेता सदन में खुलेआम बाहरियों को तीर-धनुष से भगाने की बात किया करते थे.  यह माना जा रहा है कि झामुमो अब अपना पक्ष साफ करेगी. वह झारखंडी अस्मिता की राजनीति करने वाली सबसे बड़ी पार्टी है. वह चाहेगी कि इस मसले पर जनता की गोलबंदी हो. इसके लिए वह आक्रामक राजनीति करने की कोशिश करेगी. आदिवासी इलाके में झामुमो के आंदोलन का असर भी होगा. पेच बस यह फंसेगा कि डोमिसाइल की नीति से सिर्फ आदिवासियों का अहित नहीं होने वाला बल्कि यह झारखंड के मूल निवासियों का साझा मसला है और राज्य निर्माण के 16 सालों में झामुमो, आजसू समेत कई पार्टियों ने मूल निवासी- आदिवासियों और सदानों (गैर-आदिवासी) के बीच अपने-अपने आधार के विस्तार के चक्कर में झारखंडी एकता को दांव पर लगा दिया है.

‘गुजराती समाज के सांप्रदायिकीकरण की लंबी प्रक्रिया चलाई गई थी’

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अपनी किताब  ‘गुजरात बिहाइंड द कर्टेन’  के बारे में बताइए?

यह किताब 2015 में प्रकाशित हुई थी, लेकिन इसका लोकार्पण नहीं हो सका था. इसके लिए न तो प्रकाशक और न ही किसी और ने हिम्मत दिखाई क्योंकि लोगों को एक तरह का डर है. इस किताब में मूल रूप से वही बातें हैं जो मैंने अपने एफिडेविट में दी थीं, यह सारा रिकाॅर्ड मेरी वेबसाइट पर उपलब्ध था लेकिन उसकी पहुंच ज्यादा नहीं थी. फिर मैंने इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए पुस्तक का रूप देने के बारे में सोचा, क्योंकि मुझे लगा कि पुस्तक के रूप में इसे ज्यादा लोग पढ़ेंगे. लोगों ने भी सुझाव दिया कि इसे पुस्तक का रूप देते हुए प्रकाशित किया जाए. इस तरह से ये किताब ‘गुजरात बिहाइंड द कर्टेन’ सामने आई जिसका उद्देश्य सच्चाई को सामने लाना है. किताब तैयार होने के बाद कोई भी प्रकाशक इसे प्रकाशित करने को तैयार नहीं हो रहा था. एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ने तो इसे चार महीने अपने पास रखने के बाद यह कहते हुए वापस कर दिया कि इसमें खतरनाक बातें हैं. जब मैंने उनसे कहा कि इस किताब में जो भी लिखा है, उसके सपोर्टिंग दस्तावेज मेरे पास हैं और सारी जवाबदेही मेरी होगी, लेकिन उनका कहना था कि हम एक कंपनी हैं और कोई रिस्क नहीं ले सकते.

240 पृष्ठों की इस किताब में कुल 14 अध्याय हैं, पहले अध्याय में 2002 के नरसंहार का संदर्भ बताया गया है. दूसरे अध्याय में उस समय के वातावरण का विवरण है. तीसरे में इस बात का उल्लेख है कि कैसे मैंने एक पुलिस आॅफिसर के तौर पर अपने कर्तव्यों का पालन किया. चौथे अध्याय में है कि कैसे सत्य की विजय हुई. पांचवें में मैंने लिखा है कि कैसे अपना काम ईमानदारी से करने की वजह से मुझे दंडित किया गया और मैंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी. छठे अध्याय में जांच आयोग की उदासीनता का विवरण है. सातवां अध्याय जांच टीम द्वारा की गई लापरवाही के बारे में है. आठवें अध्याय में यह विवरण है कि कैसे मैंने गलत आदेशों को नहीं माना. नौवें अध्याय में मैंने उन अधिकारियों के बारे में बताया है जिन्होंने दंगों में सहयोग किया था और इसी अध्याय में उन अधिकारियों के बारे में भी बताया गया है जिन्होंने कानून के अनुसार कार्य करते हुए हिंसा नहीं होने दी. दसवां अध्याय कांग्रेस व समाजवादी पार्टी की फर्जी धर्मनिरपेक्षता को लेकर है. ग्यारहवें अध्याय में दंगे और राजधर्म का उल्लेख किया गया है. बारहवें अध्याय में बताया है कि गुजरात दंगे से हम क्या सबक सीख सकते हैं. तेरहवें अध्याय में राजनीति के अपराधीकरण का विवरण है और अंतिम अध्याय में मेरे वे पत्र शामिल हैं जो मैंने प्रधानमंत्री, तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी, केरल के मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को लिखे थे. 

वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के तौर पर गुजरात दंगों के दौरान आपने क्या महसूस किया?

दंगों के दौरान हालात बहुत खराब थे, उस समय मैं ऑफिस के लिए अहमदाबाद से गांधीनगर आता था. मैंने खुद देखा कि किस तरह से पुलिस की टुकड़ी खड़ी हुई है और दंगाई लोगों को मार रहे हैं, दुकानें जला रहे हैं. दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी क्योंकि मुस्लिम मिल्कियत वाली दुकानों और घरों को चिह्नित करके जलाया गया था. इसके कई उदाहरण आपके सामने पेश कर सकता हूं. एक बार देखा कि बाटा की एक दुकान जलाई गई है. मैंने अपने सहयोगी पुलिसकर्मी से पूछा कि इन लोगों ने बाटा की दुकान क्यों जलाई तो उन्होंने बताया कि इसमें मेमन लोगों का 50 प्रतिशत शेयर है. इसी तरह से मेट्रो शूज की दुकानों को निशाना बनाया गया क्योंकि इनकी ओनरशिप में भी मुस्लिम समुदाय के लोग थे. इससे स्पष्ट है कि दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी और बाकायदा अध्ययन किया गया था कि कौन-सी दुकान हिंदुओं की थी और कौन-सी मुसलमानों की. यहां तक कि कई हिंदू नाम वाले होटलों पर भी हमले हुए क्योंकि उसे मुस्लिम चला रहे थे. ऐसा लगता है उनका इरादा मुसलमान समुदाय को आर्थिक रूप से भी तोड़ देने का था.

गुजरात में जो कुछ भी हुआ, उसमें आप राजनीति, पुलिस-प्रशासन और समाज की भूमिका को कैसे देखते हैं?

गुजरात में 2002 में हुई घटनाएं सुनियोजित थीं. इसके लिए पहले से योजनाएं बनाई गई थीं. फरवरी और मार्च के महीनों में गुजरात के 11 जिलों में बिना किसी रोक-टोक के हिंसा होती रही क्योंकि इसे संरक्षण प्राप्त था. उस दौरान पुलिस-प्रशासन की भूमिका मूकदर्शक की बनी रही. मैंने जांच के दौरान पाया कि हिंदुत्ववादी संगठनों के लोगों ने गुजरात हिंसा को अंजाम दिया और इसमें उन्हें मोदी सरकार का संरक्षण प्राप्त था. प्रशासन ने जिन स्थानों पर दंगाइयों की मदद की या मौन रही वहीं पर ही बड़ी घटनाएं हुईं. इन हिंसक घटनाओं के प्रति समाज का रवैया भी संवेदनहीन था. जो थोड़ी-बहुत प्रतिक्रियाएं हुईं भी, वे भी कुछ शहरों और कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित थीं. लेकिन ये सब अचानक नहीं हुआ था. इसकी एक पृष्ठभूमि है. गुजराती समाज के सांप्रदायिकीकरण  के लिए लंबी प्रक्रिया चलाई गई थी. गुजरात में ऐसा जनमानस बना दिया गया था कि लोग हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग प्रजाति की तरह मानने लगे थे. ऐसा लगता था मानो लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना ‘बोन मैरो’ (अस्थि-मज्जा) तक इंजेक्ट कर दी गई हो. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही और उन्होंने जमीनी स्तर पर इस प्रक्रिया के जवाब में कुछ नहीं किया. इसी तरह से मुसलमानों के ‘अरबीकरण’ की प्रक्रिया भी चलाई गई.

‘लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना ‘बोन मैरो’ तक इंजेक्ट कर दी गई. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही. इसी तरह से मुसलमानों के ‘अरबीकरण’ की प्रक्रिया भी चलाई गई’

गुजरात दंगों में और उसके बाद भी पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं? इस बारे में आप क्या कहेंगे?

ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है, बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगों के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे, जिसमें से केवल 11 जिलों में गंभीर हिंसा की घटनाएं हुईं, अन्य 11 जिलों में कोई भी बड़ी घटना नहीं हुई और न ही कोई हत्या हुई. बाकी जिलों में भी छिटपुट घटनाएं ही देखने को मिलीं. इसलिए यह व्यवस्था की असफलता नहीं थी, बल्कि यह कई अधिकारियों की व्यक्तिगत असफलता थी. ज्यादातर जिलों में व्यवस्था बनी रही तो इसका श्रेय व्यवस्था और प्रतिबद्ध अधिकारियों को जाता है. इसके बाद जिन लोगों ने दंगे रोकने का प्रयास किया या चार्जशीट में दर्ज ‘आधिकारिक’ बयान पर असहमति जताई थी, उन्हें अनेक तरीकों से दंडित किया गया जिसमें मैं भी शामिल हूं. सांप्रदायिक परिस्थितियों में किस तरह का एक्शन लेना है इसके लिए पुलिस मैन्युअल में एसओपी (Standard Operating Procedures Manual) है, जिसे घटनाओं के समय कार्यान्वित करना जरूरी है लेकिन ज्यादातर अधिकारियों ने गलत एफिडेविट दिया जो कि मोदी साहब द्वारा बनवाया गया था और सरकार के समर्थन में था, केवल मैंने और राहुल शर्मा ने अपना एफिडेविट बनाया था. इसका हमें खामियाजा भी भुगतना पड़ा. गुजरात सरकार ने मेरे खिलाफ गुपचुप तरीके से ‘सीक्रेट डायरी’ बनाने और सरकार के गोपनीय दस्तावेज जांच पैनल को मुहैया कराने के आरोप लगाए. मुझे धमकी दी गई थी कि अगर मैंने सच बोला तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. नौकरी के आखिरी चार सालों में मोदी साहब ने मुझे कोई काम नहीं दिया और मेरी पदोन्नति भी रोक दी गई. उस दौरान मेरे पास कोई फाइल नहीं भेजी जाती थी, बस मुझे एक कमरे में बैठा दिया गया था और एक चपरासी दे दिया गया था. मुझे वहां आकर सुबह से शाम तक खाली बैठे रहना पड़ता था.

आप लंबे समय तक पुलिस सेवा में रहे हैं, इस दौरान पुलिसिंग में किस तरह के बदलाव आए?

पहले के मुकाबले परिस्थितियों में बदलाव आया है. यह बदलाव इमरजेंसी के बाद स्पष्ट देखा जा सकता है जिसके बाद से पॉलिटिकल ब्यूरोक्रेसी (मंत्री) की तरफ से सिविल ब्यूरोक्रेसी (पुलिस-प्रशासन) को ये संदेश आने लगे कि आपको क्या और कैसे करना है. इस तरह से पुलिस और प्रशासन के लोग दबाव में काम करने को मजबूर किए जाने लगे लेकिन फिर भी उस समय अगर कोई अधिकारी दबाव में कोई काम करने से मना कर देता था तो राजनेताओं की तरफ से उन पर ज्यादा दबाव नहीं डाला जाता था.

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ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है, बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगों के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे, जिसमें से केवल 11 जिलों में हिंसा की गंभीर घटनाएं हुईं

प्रशिक्षण के बाद मुझे गुजरात कॉडर मिला, वहां मैं सात जिलों में एसपी रहा. स्थानीय नेता और एमएलए लोग मुझे किसी भी जिले में 10 माह से ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. पहले के राजनेता थोड़े बेहतर थे और कई बार मुख्यमंत्री तबादला करने से पहले मुझे बुलाकर कहते थे कि मैं आपके काम से खुश हूं लेकिन आप स्थानीय विधायक से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं. मुझे उनकी बात भी सुननी पड़ेगी, इसलिए आपको कहीं और भेजना पड़ेगा.

अब तो पुलिस का राजनीतिकरण कर दिया गया है. राजनेता चाहते हैं कि पुलिस उनके मन और विचार के अनुसार ही काम करे. नेताओं के इस स्वभाव को मैं एंटीसिपेटरी साइकोफेंसी यानी अग्रिम चाटुकारिता कहता हूं. पुलिस भी, जो लोग सत्ता में होते हैं उनके कहने के अनुसार काम करने लगी है. अब उसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और पार्टी को खुश करना हो गया है. इसकी वजह से आज हम देखते हैं कि कई पुलिस अधिकारी राजनेताओं को खुश करने के लिए एनकाउंटर तक कर रहे हैं. पुलिस में बहुत गिरावट आई है. सीआरपीसी में कॉन्स्टेबल से लेकर डीजी तक के अधिकारों का उल्लेख है. विधायिका ने उन्हें सीधे तौर पर शक्ति दी है लेकिन वे इन शक्तियों के उपयोग की जगह राजनेताओं के दबाव में काम करने लगे हैं.

नरेंद्र मोदी आपसे नाराज क्यों हो गए थे?

9 अप्रैल, 2002 को जब मुझे एडीजीपी (इंटेलीजेंस) के तौर पर पोस्ट किया गया तो मैंने डीजी साहब को साफ कहा था कि मैं सच ही रिपोर्ट करूंगा. मेरे पास फील्ड से हेड कॉन्स्टेबल, इंस्पेक्टर जो रिपोर्ट भेजते थे, मैंने उन पर एक्शन लेना शुरू कर दिया जो कि ज्यादातर संघ परिवार के खिलाफ थे. यह सब मोदी साहब को अच्छा नहीं लगा होगा, उस समय आला अधिकारियों ने मुझसे यहां तक कहा कि आप हिंदुओं के खिलाफ काम कर रहे हैं.

अपनी किताब के हर अध्याय की शुरुआत भी आप धर्म ग्रंथों से उद्धरण देकर करते हैं, एक तरफ वह हिंदू धर्म है जिस पर आप विश्वास करते हैं लेकिन दूसरी तरफ हिंदुत्व के ही नाम पर अलग तरह का समाज और देश बनाने की कोशिश की जा रही है, इन दोनों में क्या फर्क देखते है?

दोनों में बहुत फर्क है. हिंदुत्व का आंदोलन हिंदू धर्म के मूल आदर्शों के खिलाफ है, मेरा जिस हिंदू दर्शन में विश्वास है वो गांधी जी की तरह है जो भगवद्गीता में विश्वास करते थे जबकि उन लोगों का जिस हिंदू धर्म में विश्वास है वो गोडसे की तरह का है. अजीब बात है कि गोडसे ने अपनी पुस्तक ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ में लिखा है कि उन्होंने गांधी जी की हत्या भगवद्गीता से प्रेरणा लेकर की है. यहां हम देखते हैं कि गांधी और गोडसे दोनों की प्रेरणा भगवद्गीता ही है. ठीक इसी तरह से जिन लोगों ने हजारों गरीब और निर्दोष मुसलमानों को मार डाला है अगर उनका प्रेरणास्रोत भगवद्गीता है तो मुझे भी गीता से ही प्रेरणा मिलती है. मैं मानता हूं कि जिस तरह से ‘आईएसआईएस’ और ‘अलकायदा’ का राजनीतिक इस्लाम, इस्लाम धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है उसी तरह से संघ परिवार और दूसरे हिंदुत्ववादी संगठनों की विचारधारा भी हिंदू धर्म के खिलाफ है. हिंदू धर्म तो इतना विविध है कि एक ही परिवार में एक भाई नशा करके मांस खाकर काली की आराधना कर सकता है, वहीं दूसरा भाई बिना प्याज-लहसुन खाए विष्णु की पूजा करता है. मैंने लालकृष्ण अाडवाणी को भेजे गए अपने पत्र में उनसे पूछा था कि अगर आप मुझे हिंदू धर्म की मूल पुस्तकों में एक भी ऐसा श्लोक दिखा दें जो मस्जिद तोड़ने को जायज ठहरता हो तो मैं आपका समर्थन करने को तैयार हो जाऊंगा. इबादतगाहों को तोड़ना किसी भी ग्रंथ में नहीं लिखा है और जिन लोगों ने ऐसा किया है उन्होंने हिंदू धर्म के खिलाफ काम किया है, आईएसआईएस ने इस्लाम का जितना नुकसान किया है उतना किसी और का नहीं किया है. इसने सबसे ज्यादा मुसलमानों को ही मारा है. इसी तरह से हिंदुत्ववादी भी हिंदू धर्म के लिए खतरनाक हैं और इनको रोकना सच्चे हिंदू का कर्तव्य है.

आजकल जिस तरह खुलेआम भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात की जा रही है, भविष्य के मद्देनजर इसे आप कैसे देखते हैं?

मैं ये मानता हूं कि अभी भी बहुसंख्यक भारतीय सर्वधर्म सद्भावना में विश्वास करते हैं. आज भी आप दरगाहों, मजारों पर बड़ी संख्या में हिंदुओं को देख सकते हैं. हमारे देश की सबसे बड़ी खासियत यही है कि लोग भले ही अपने धर्म को ज्यादा पसंद करते हों लेकिन इसी के साथ वे दूसरों की धार्मिक भावनाओं को भी इज्जत देते हैं. हमारी इसी ताकत को तोड़ने की कोशिश की जा रही है और इसके बदले संघ परिवार देश और समाज पर हिंदुत्ववादी व्यवस्था को थोपने की कोशिश कर रहा है जो कि मूल रूप से ब्राह्मणवादी विचारधारा है. वर्तमान में इसके खतरे बढ़ गए हैं लेकिन हमारे देश और समाज की जिस तरह से बनावट है उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में इसके खिलाफ प्रतिरोध की और आवाजें उठेंगी.

नेताजी गुमनाम!

सभी फोटो साभार : शक्ति सिंह, राकेश यादव
सभी फोटो साभार : शक्ति सिंह, राकेश यादव
सभी फोटो साभार : शक्ति सिंह, राकेश यादव

कभी अवध की राजधानी रहा फैजाबाद जिला अपने भीतर तमाम तरह की रहस्यमयी कहानियां समेटे हुए है. सरयू नदी के किनारे बसे इस शहर में ऐसी ही एक कहानी की शुरुआत 16 सितंबर, 1985 को तब होती है जब शहर के सिविल लाइंस में स्थित ‘राम भवन’ में गुमनामी बाबा या भगवन जी की मौत होती है और उसके दो दिन बाद बड़ी गोपनीयता से इनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है. हालांकि लोग तब हैरान रह जाते हैं जब उनके कमरे से बरामद सामान पर उनकी नजर जाती है. उसी के ठीक बाद इस तरह की बात ने दम भरा कि ये व्यक्ति कोई साधारण बाबा नहीं थे और ये नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी हो सकते हैं. हालांकि सरकार के अनुसार नेताजी की 1945 में एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई थी. लेकिन गुमनामी बाबा के पास से बरामद चीजों में नेताजी के परिवार की तस्वीरें, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नेताजी से संबद्ध आलेख, कई आला लोगों के पत्र, नेताजी की कथित मौत के मामले की जांच के लिए गठित शाहनवाज आयोग एवं खोसला आयोग की रिपोर्ट आदि शामिल हैं.

स्थानीय लोगों की मानें तो गुमनामी बाबा इस इलाके में तकरीबन 15 साल रहे. वे 1970 के दशक में फैजाबाद पहुंचे थे. शुरुआत में वे अयोध्या की लालकोठी में किरायेदार के रूप में रहा करते थे और इसके बाद कुछ समय प्रदेश के बस्ती शहर में भी बिताया लेकिन यहां लंबे समय तक उनका मन नहीं लगा और वे वापस अयोध्या लौट आए. यहां वे पंडित रामकिशोर पंडा के घर रहने लगे. कुछ सालों बाद ही उन्होंने यह जगह भी बदल दी. उनका अगला ठिकाना अयोध्या सब्जी मंडी के बीचोबीच स्थित लखनऊवा हाता रहा. इन सारी जगहों पर वे बेहद गुप्त तरीके से रहे. इस दौरान उनके साथ उनकी एक सेविका सरस्वती देवी रहीं जिन्हें वे जगदंबे के नाम से बुलाया करते थे. अपने आखिरी समय में गुमनामी बाबा फैजाबाद के राम भवन में पिछवाड़े में बने दो कमरे के मकान में रहे. यहीं उनकी मृत्यु हुई और उसी के बाद कयास तेज हुए कि ये सुभाष चंद्र बोस हो सकते हैं.

सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के अध्यक्ष और राम भवन के मालिक शक्ति सिंह उनके राम भवन आने की कहानी बताते हैं, ‘शहर के एक चिकित्सक डॉ. आरपी मिश्र के माध्यम से गुमनामी बाबा का संपर्क पूर्व नगर मजिस्ट्रेट और मेरे दादा ठाकुर गुरुदत्त सिंह से हुआ. उस समय यह कहा गया कि एक दोस्त के बाबा बीमार हैं. इस दौरान वे पूरी गोपनीयता बरतते हुए रात में राम भवन के उस हिस्से में शिफ्ट हो गए जो उनके लिए मुकर्रर किया गया था. यहां उनसे मिलने सीमित लोग आते थे. कुछ लोग देर रात कार से भी आते थे और सुबह होने से पहले ही चले जाते थे. चिट्ठियां भी आती थीं. गुमनामी बाबा ज्यादातर लोगों से पर्दे के पीछे रहकर बात करते थे. वे किसी के सामने नहीं आते थे. गुमनामी बाबा अंग्रेजी, जर्मन, बांग्ला समेत कई भाषाएं जानते थे. उन्होंने करीब दो साल का समय राम भवन में बिताया. लोग उन्हें देख नहीं पाते थे. मैंने भी इस दरमियान उन्हें कभी ठीक ढंग से नहीं देखा.’ 

कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के चेहरे पर तेजाब डाले जाने को लेकर उनके स्थानीय शिष्यों में विवाद इस कदर उग्र हुआ था कि इस हाईप्रोफाइल मामले को मीडिया के सामने लीक कर दिया गया था. नतीजतन देहांत के 42 दिन बाद एक समाचार पत्र ने संबंधित समाचार को सुर्खियां देते हुए प्रकाशित किया

राम भवन में गुमनामी बाबा ने जब अंतिम सांस ली तो उस दिन की गतिविधियों के गवाह रहे कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि गुमनामी बाबा उर्फ भगवन जी के करीबी डॉ. आरपी मिश्र और पी. बनर्जी सुबह से लगातार उनके कमरे से अंदर-बाहर आ-जा रहे थे. दोपहर तक गुमनामी बाबा की मौत की खबर फैल चुकी थी. लिहाजा राम भवन के बाहर लोगों का जमावड़ा लगने लगा था. सबसे ज्यादा कौतूहल इस बात को लेकर था कि पता करें गुमनामी बाबा दिखते कैसे थे. हालांकि इस दौरान स्थानीय प्रशासन भी पहरा बिठा चुका था. कहा जाता है कि फौज व प्रशासन के आला अधिकारियों की मौजूदगी में गुपचुप ढंग से गुमनामी बाबा के पार्थिव शरीर को गुफ्तार घाट ले जाकर कंपनी गार्डेन के पास अंतिम संस्कार कर दिया गया. लोगों का कहना है कि इस सैन्य संरक्षित क्षेत्र में किसी साधारण शख्स के अंतिम संस्कार की कल्पना तक बेमानी है. उनके बाद से आज तक फिर वहां किसी का अंतिम संस्कार नहीं किया गया है. बाद में इसी जगह पर उनकी समाधि बनवाई गई है. कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के चेहरे पर तेजाब डाले जाने को लेकर उनके स्थानीय शिष्यों में विवाद इस कदर उग्र हुआ था कि कुछ शिष्यों ने इस हाई प्रोफाइल मामले को मीडिया के सामने लीक कर दिया था. नतीजतन देहांत के 42 दिन बाद एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र ने संबंधित समाचार को सुर्खियां देते हुए प्रकाशित किया. इसके बाद फैजाबाद समेत पूरे देश में भूचाल-सा आ गया.

स्थानीय लोगों ने बताया कि जब उनके निधन के बाद उनके नेताजी होने की बातें फैलने लगीं तो नेताजी की भतीजी ललिता बोस कोलकाता से फैजाबाद आईं और गुमनामी बाबा के कमरे से बरामद सामान देखकर यह कहते हुए फफक पड़ी थीं कि यह सब कुछ उनके चाचा का ही है. इसके बाद से स्थानीय लोगों ने राम भवन के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया. लंबे समय तक चले इस प्रदर्शन से सरकार इस मामले पर बैकफुट पर आ गई. जब लंबे समय तक जनदबाव बना रहा तो केंद्र सरकार को नए सिरे से इस मामले की जांच कराने के लिए मुखर्जी आयोग का गठन करना पड़ा. हालांकि बाद में जब आयोग की पूरी रिपोर्ट को सरकार ने ठीक ढंग से स्वीकार नहीं किया तो सुभाष चंद्र बोस की भतीजी ललिता बोस ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. बाद में गुमनामी बाबा के यहां मिली चीजों के सही रखरखाव और संरक्षण के लिए राम भवन के मालिक शक्ति सिंह भी इस मामले से जुड़ गए.

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      गुमनामी बाबा के कमरे से मिला सामान

  • नेताजी की तरह के दर्जनों गोल चश्मे
  • प्रख्यात रोलेक्स ब्रांड की जेब और हाथ घड़ियां
  • 555 सिगरेट, सिगार, सिगार क्लीनर और विदेशी शराब का बड़ा स्टॉक, दूरबीन, ऑडियो टेप, टाइपराइटर
  • आजाद हिंद फौज की यूनिफॉर्म
  • सुभाष चंद्र बोस के परिवार की निजी तस्वीरें
  • 1974 में कलकत्ता के दैनिक अखबार ‘आनंद बाजार पत्रिका’ में 24 किस्तों में छपी खबर ‘ताइहोकू विमान दुर्घटना एक बनी हुई कहानी’ की कटिंग्स
  • जर्मन, जापानी और अंग्रेजी साहित्य की ढेरों किताबें
  • कलकत्ता में हर वर्ष 23 जनवरी को मनाए जाने वाले नेताजी के जन्मोत्सव की तस्वीरें
  • सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की जांच पर बने शाहनवाज और खोसला आयोग की रिपोर्टें
  • सैकड़ों टेलीग्राम, पत्र आदि जिन्हें भगवन जी के नाम पर संबोधित किया गया था, इसमें गुरु गोलवलकर के पत्र भी
  • आजाद हिंद फौज की गुप्तचर शाखा के प्रमुख पवित्र मोहन रॉय के लिखे गए बधाई संदेश[/symple_box]

इस दौरान याचिकाकर्ताओं ने मांग की कि गुमनामी बाबा से जुड़े सामान को संग्रहालय में रखा जाए ताकि आम लोग उसे देख सकें. मामले की सुनवाई करते हुए 31 जनवरी, 2013 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया था कि गुमनामी बाबा के सामान को संग्रहालय में रखा जाए ताकि आम लोग उन्हें देख सकें. इससे पहले भी हाई कोर्ट के आदेश पर जिला प्रशासन को गुमनामी बाबा के कमरे से मिली चीजों और दस्तावेजों की फर्द (सूची) बनानी पड़ी और राजकीय कोषागार में इसे रखा गया.

लखनऊ बेंच ने 31 जनवरी, 2013 के फैसले में यह भी कहा था, ‘1945 में एक प्लेन क्रैश में मारे गए नेताजी की मृत्यु के संदर्भ में विभिन्न इतिहासकारों और पत्रकारों की खोजबीन को खंगालने के बाद निष्कर्ष निकला है कि प्लेन क्रैश में नेताजी की मृत्यु हुई या नहीं, इस बारे में निश्चित राय कायम नहीं की जा सकती, पर यह तथ्य निर्विवाद और सर्वविदित है कि नेताजी स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे सेनानी थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में आजादी का जज्बा भर दिया था. ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की स्मृति या उनकी धरोहर आने वाली नस्लों के लिए प्रेरणादायक है. अगर फैजाबाद में रहने वाले गुमनामी बाबा, जिनके बारे में लोगों का विश्वास था कि वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस हैं और उनके पास आने-जाने वाले लोगों व उनके कमरे में मिली तमाम वस्तुओं से इस बात का तनिक भी आभास होता है कि लोग गुमनामी बाबा को नेताजी के रूप में मानते थे तो ऐसे व्यक्ति की धरोहर को राष्ट्र की धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए.’ इसी आदेश के परिप्रेक्ष्य में गृह अनुभाग उत्तर प्रदेश शासन ने तत्कालीन जिलाधिकारी विपिन कुमार द्विवेदी को आदेश दिया कि गुमनामी बाबा के सामान को संग्रहीत करने के लिए निर्माणाधीन राम कथा संग्रहालय का चयन किया गया है. तब से लेकर गुमनामी बाबा से जुड़े सामान को राम कथा संग्रहालय पहुंचाने की कवायद चल रही है.

‘अपने जीवन में नेताजी ने जैसी जिंदगी जी है उसके आधार पर क्या आप यह मान सकते हैं कि वह सिर्फ मौत के डर से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो सकते हैं. जब वह गुलामी के समय अंग्रेजों को छका सकते हैं तो आजाद भारत में उनके लिए यह बेहद आसान रहता’

फैजाबाद में गुमनामी बाबा के पास से मिले चश्मे व अन्य सामान की जांच करते तकनीकी टीम के सदस्य
फैजाबाद में गुमनामी बाबा के पास से मिले चश्मे व अन्य सामान की जांच करते तकनीकी टीम के सदस्य

फैजाबाद में आपको गुमनामी बाबा और नेताजी से जुड़ी ढेरों कहानियां मिल जाएंगी. इसमें से ज्यादातर कहानियों के अनुसार गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. ऐसी ही एक कहानी के अनुसार, नेताजी की गुमनाम जिंदगी पं. जवाहरलाल नेहरू और गांधी की देन है. 18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना में नेताजी शहीद हो गए, ऐसा सरकार कहती है. उस समय नेताजी जापान में थे. अंग्रेजों ने जापान में उनकी हत्या का षडयंत्र रचा था जिसकी भनक लगने पर नेताजी भूमिगत हो गए थे और 22 अगस्त, 1945 को बीबीसी रेडियो पर खबर आई थी कि विमान दुर्घटना में नेताजी मारे गए. रूसी राष्ट्रपति स्टालिन से नेताजी के अच्छे संबंध थे. नेताजी ने उनसे बात की और गुप्त रूप से रूस चले गए. इससे ब्रिटेन और अमेरिका दिग्भ्रमित हो गए. नेताजी 1955 तक रूस में रहे. जब देश आजाद हुआ तो भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रूस में रह रहे नेताजी ने गुप्त पत्र भेजा था और भारत आने की मंशा जाहिर की थी. परंतु नेहरू ने गद्दारी करते हुए ब्रिटिश हुकूमत को यह जानकारी दे दी कि रूस जिसे वह मित्र देश समझता है उसी ने नेताजी को शरण दे रखी है. ब्रिटिश हुकूमत ने स्टालिन पर दबाव बनाया और कहा कि नेताजी को खत्म कर दो, जिस पर स्टालिन ने जवाब दिया था कि उन्हें खत्म कर दिया गया है लेकिन नेताजी 1955 में चीन के रास्ते तिब्बत होते हुए भारत पहुंचे और 30 साल विभिन्न स्थानों पर गुमनामी की जिंदगी बिताई और अंतत: राम भवन में 16 सितंबर, 1985 को अंतिम सांस ली.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/interview-of-the-reporter-ram-teerth-vikal-who-first-reported-about-gumnami-baba-who-is-allegedly-known-as-sc-bose/” style=”tick”]पहली बार गुमनामी बाबा के नेताजी होने की खबर लिखने वाले पत्रकार राम तीर्थ विकल से ‘तहलका’ की बातचीत[/ilink]

हालांकि बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो गुमनामी बाबा को नेताजी मानने से इनकार करते हैं. फैजाबाद से निकलने वाले अखबार जनमोर्चा के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह इस पर सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, ‘राजनीतिक फायदे के लिए कुछ लोग इस मामले को जिंदा रखे हुए हैं. यह ऐसा मसला है जिसका जवाब तलाशने के लिए कई कमेटियों का गठन किया जा चुका है, लेकिन कुछ भी पता नहीं चल पाया है. क्या सिर्फ कदकाठी समान होने और कुछ सामान मिलने से किसी को नेताजी मान लिया जाए. अपने जीवन में नेताजी ने जैसी जिंदगी जी है, उसके आधार पर क्या आप यह मान सकते हैं कि वे सिर्फ मौत के डर से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो सकते हैं. जब वे गुलामी के समय अंग्रेजों को छका सकते हैं तो आजाद भारत में उनके लिए यह बेहद आसान रहता. फैजाबाद में भी जो समझदार तबका है वह ऐसी किवदंतियों के साथ कभी नहीं रहा. क्या आपने सुना कि कभी गुमनामी बाबा को लेकर कोई बड़ा आंदोलन सामने आया.’ शीतला सिंह इस मुद्दे पर राजनीति करने वालों को लेकर भी सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘आपको यह भी पता होगा कि 30 साल पहले गुमनामी बाबा की मौत के समय उनके भक्तों ने उनका चेहरा बिगाड़ दिया था. उन्होंने ऐसा किस मंशा से किया था? कहा जाता था कि कलकत्ता से कई लोग सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन पर उनसे मिलने आया करते थे. बाद में जांच कमेटी या वैसे भी कोई आदमी कभी भी सामने क्यों नहीं आया? आजाद हिंद फौज और उनके कुछ विश्वसनीय लोगों से भी जब मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि क्या आपको विश्वास है कि अगर वे नेताजी होते तो कम से कम उनकी मौत पर हम उनसे मिलने नहीं आते. कहते हैं गुमनामी बाबा की मौत के बाद कलकत्ता से कोई भी नहीं आया था, जबकि उनकी लाश दो दिन बाद जलाई गई थी. ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं मिलता है और जो इस बात को साबित भी करते हैं कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं थे.’

हालांकि अगर हम यह मान लें कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं थे तो भी कई सवाल खड़े होते हैं जो भ्रम पैदा करते हैं. सबसे पहले अपने इर्द-गिर्द गोपनीयता बनाकर रहने वाला यह व्यक्ति कौन था? दूसरा, कोई नहीं जान सका कि यह व्यक्ति 1970 के दशक में फैजाबाद-बस्ती के इलाके में कहां से आया? तीसरा- अगर यह व्यक्ति जंगलों में ध्यानरत एक संत था तब इतनी फर्राटेदार अंग्रेजी और जर्मन कैसे बोलता था? चौथा- इस व्यक्ति के पास दुनिया भर के नामचीन अखबार, पत्रिकाएं, साहित्य, सिगरेट और शराबें कौन पहुंचाता था? पांचवां- इस व्यक्ति के पास नेताजी से जुड़ी चीजें कहां से पहुंचीं? छठवां- वे हमेशा लोगों को नए नोट दिया करते थे उनके पास यह करेंसी कहां से आती थी? सातवां- उनके भक्तों की मानें तो वे कौन लोग थे जो उनसे मिलने दुर्गा पूजा के दिनों और खास तौर से 23 जनवरी को गुप्त रूप से फैजाबाद आते थे और उस वक्त बाबा के परम श्रद्धालु और निकट कहे जाने वाले परिवारजनों को भी उनसे मिलने की मनाही थी? आठवां- गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार सैन्य संरक्षित क्षेत्र में क्यों हुआ? नवां- उनके मरने के बाद पूरा प्रशासनिक अमला, लोकल इंटेलीजेंस यूनिट समेत दूसरे लोग क्यों सक्रिय रहे? दसवां- जब अखबारों में उनके नेताजी होने की खबरें छपने लगीं तो प्रशासन ने इसका खंडन क्यों नहीं किया?

‘गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं यह पता लगाना सरकार का काम है. लेकिन उनसे मिले सामान को देखकर यही लगता है कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि नेताजी हो सकते थे. हमने अदालत से गुहार लगाई थी कि गुमनामी बाबा से मिले सामान को संरक्षित किया जाए जिसे अदालत ने मान लिया है’ 

गुमनामी बाबा के पास से मिली नेताजी के परिजनों की तस्वीर
गुमनामी बाबा के पास से मिली नेताजी के परिजनों की तस्वीर

हालांकि शक्ति सिंह भी इस बारे में सीधे-सीधे कुछ भी कहने से बचते हैं. वे कहते हैं, ‘गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं यह पता लगाना सरकार का काम है. लेकिन उनसे मिले सामान को देखकर यही लगता है कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि नेताजी हो सकते थे. अभी मामला अदालत में है. हमने अदालत से गुहार लगाई थी कि गुमनामी बाबा से मिले सामान को संरक्षित किया जाए, उसकी सुरक्षा की जाए, जिसे अदालत ने मान लिया है. अब उनसे जुड़े सामान को संग्रहालय में प्रदर्शित किया जा रहा है. हम इसे अपनी पहली जीत मान रहे हैं. हम इस मामले पर लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं. जनता का सहयोग हमारे साथ है. बोस के परिवार के लोगों का भी हमें सहयोग मिलता है. हर साल बड़ी संख्या में लोग 16 सितंबर को उनकी पुण्यतिथि केे कार्यक्रम में इकट्ठा होते हैं, सरकार को एक न एक दिन सच सबके सामने लाना होगा.’

वहीं इस मामले पर डॉ. आरपी मिश्रा भी अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘गुमनामी बाबा या भगवन जी सिद्ध पुरुष थे. उनके पास परकाया प्रवेश करने की भी ताकत थी. हमारे शास्त्रों में इसका जिक्र किया जाता है. मुझे नहीं लगता है कि वे नेताजी थे. आप ही बताइए अगर लोगों को उनके मरने की तिथि पता है तो गुफ्तार घाट स्थित उनकी समाधि पर जन्म की तारीख लिखी गई है और मृत्यु की तारीख के सामने तीन प्रश्नवाचक चिह्न क्यों बनाए गए हैं जबकि बहुत सारे लोगों को उनकी मौत के बारे में पता चला था?’ गुमनामी बाबा के शव के चेहरे को विकृत किए जाने संबंधी सवाल पर डॉ. मिश्रा कहते हैं, ‘उस दौरान भी बहुत सारे लोगों का कहना था कि डॉक्टरों ने उनके शव को विकृत कर दिया था जबकि ऐसा नहीं था. हम डॉक्टर लोगों की जान बचाने के लिए होते हैं न कि किसी के शव को खराब करने के लिए. मुझे नहीं पता कि यह अफवाह क्यों फैलाई जा रही है.’

हालांकि 1945 में उनकी मृत्यु हुई थी या नहीं, इसे लेकर विवाद है. तीन-तीन जांच आयोग भी इस रहस्य को नहीं सुलझा सके. 1954 में शाहनवाज आयोग और 1970 में खोसला आयोग ने अपने-अपने निष्कर्ष में कहा था कि उक्त दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हुई थी, लेकिन 1999 में बने मुखर्जी आयोग ने इसे मानने से मना कर दिया. असाधारण जीवन की तरह असाधारण मृत्यु ने नेताजी के इर्द-गिर्द रहस्यों का जाल-सा बुन दिया है. दुखद यह है कि जांच आयोगों के भंवरजाल में नेताजी किसी जासूसी कथा के नायक बन गए हैं.