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फर्जी एनकाउंटर का खेल जनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए

इशरत जहां एनकाउंटर
इशरत जहां एनकाउंटर
इशरत जहां एनकाउंटर, जिसे बाद में हुई जांच में फर्जी पाया गया था

सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय समाज में एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिली हुई है. समाज इसे स्वीकार करता है. आप इसे एक उदाहरण से समझिए कि एक मशहूर कांड; भागलपुर का अंखफोड़वा कांड, जिस पर प्रकाश झा ने फिल्म भी बनाई थी वह बहुत ही जघन्य कांड था. बिहार की जनता आम तौर पर पुलिस विरोधी जनता है और जब भी कोई बात होती है तो सड़क पर निकल आती है. लेकिन उस कांड की जांच करने जब एक दल गया तो पूरा भागलपुर बंद हो गया. भागलपुर के प्रोफेसरों से लेकर रिक्शेवालों तक सबने हड़ताल की और सबने कहा कि नहीं बहुत सही हुआ था. तो सबसे बड़ी दिक्कत है कि सामाजिक रूप से जब आप ऐसी घटनाओं को इस तरह से स्वीकार करेंगे तो पुलिसवालों को भी लगता है कि अगर कानून-कायदा और अदालतें काम नहीं कर रही हैं तो यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह सब कुछ ठीक करे और अपराधी को मार दे क्योंकि अपराधी को अदालतें सजा नहीं दे पा रहीं.

यह बड़ा खतरनाक खेल है कि एक-दो अपराधी, जो सचमुच दुर्दांत होते हैं, जिनको अदालत सजा नहीं दे पाती वे मारे जाते हैं. फिर एक चलन बन जाता है और पैसा लेकर मारना शुरू हो जाता है. इसमें यह भी होता है कि किसी राजनीतिक व्यक्ति के कहने पर उसके दुश्मन को मार दिया जाता है. जो माफिया गैंग हैं वे अपने विरोधियों को पकड़-पकड़कर पुलिस को देते रहते हैं, पैसा भी देते हैं और लोग मारे जाते हैं. तो कुल मिलाकर यह एक खराब और खतरनाक खेल होता है जिसमें पुलिस फंसती है जबकि उसे इससे बचना चाहिए.

वंजारा साहब जिस इशरत जहां के केस में फंसे थे, उसमें मसला यह नहीं था कि इशरत लश्कर-ए-तैयबा की सदस्य थी कि नहीं, वह तो लश्कर की सदस्य थी. उसमें बहस यह होनी चाहिए थी कि क्या राज्य को यह अधिकार है कि आप किसी को भी पकड़कर मार देंगे. अगर वह लश्कर की सदस्य भी है तो क्या आप उसको पकड़कर मार देंगे? आपको यह मारने का ये अधिकार भारत का संविधान या कानून देता है! इस पर बहस होने लगी कि नहीं वह तो बड़ी भली महिला थी. उसे गलत तरीके से मारा गया. आप किसी को पकड़कर नहीं मार सकते. ऐसा इसलिए हुआ कि यह कांग्रेस भी इस तरह की मूर्खता करती रहती है. प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिकता पर अमल करती है और इसमें कांग्रेस से भाजपा हमेशा जीत जाएगी. यह कहने के बजाय कि वह बड़ी भली महिला थी, सज्जन थी, कहना यह था कि वह लश्कर की थी भी तो आपको यह अधिकार किसने दिया कि आप उसे पकड़कर मार दें. आप किसी को भी ऐसे नहीं मार सकते.

पीलीभीत वाले मामले में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे. इस एनकाउंटर को अंजाम देने वालों को इनाम दिया गया था जबकि पूरा उत्तर प्रदेश जानता था कि ये फर्जी है

एनकाउंटर ऐसा खेल है जिसे जनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए. लेकिन आपको इसी के साथ सवाल उठाना चाहिए कि 1947 के बाद पुलिस का बुनियादी स्वरूप क्यों नहीं बदला गया. ये पुलिस अंग्रेजों ने बनाई थी. 1860-61 में यह पुलिस बनाई गई थी. और यह भी पूछना चाहिए कि 60-70 देशों में अंग्रेजों ने पुलिस बनाई, लेकिन सारे देशों में अलग-अलग पुलिस क्यों बनाई. भारत में ऐसी पुलिस क्यों बनाई जो कानून विरोधी थी, जनता की दुश्मन थी? यह पुलिस भारत में क्यों बनाई, श्रीलंका, केन्या और बर्मा में ऐसी ही पुलिस क्यों नहीं बनाई? उनमें केवल रैंक एक जैसी हैं, लेकिन उनके स्वरूप अलग-अलग हैं. यह एक गंभीर मसला है जिस पर बहस होनी चाहिए.

अब फर्जी एनकाउंटर काफी हद तक कम हो गए हैं क्योंकि मीडिया बहुत सक्रिय हो गया है. न्यायपालिका का समर्थन कम हो गया है. एक जमाने में न्यायपालिका का भी समर्थन खूब मिलता था. पीलीभीत वाले मामले में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और इस एनकाउंटर को अंजाम देने वालों को इनाम दिया गया था जबकि पूरा उत्तर प्रदेश जानता था कि यह फर्जी है. उसमें एक ऐसा भी अफसर शामिल था जिसने मेरठ में मलियाना कांड किया था, जिसने 84 में सिखों को मरवाया. लेकिन उसे कभी कोई सजा नहीं मिली. उसने अपनी नौकरी पूरी की और ऊपर तक पहुंचकर रिटायर हुआ. अब इसमें सच्चाई यह है कि आपने छोटे पुलिसवाले को सजा दे दी. गुजरात का मसला अलग है जिसमें डीजी रैंक का अफसर जेल चला गया वरना छोटे स्तर के अधिकारी और कर्मचारी ही सजा पाते हैं.

यह भी बात महत्वपूर्ण है कि यह काम उन्हीं से कराया जाता है जो इसे करने को तैयार होते हैं. जो करने को नहीं तैयार होते, उनसे कोई कहता ही नहीं. हमारे साथ एक इंस्पेक्टर बनवारी हुआ करते थे, वे कभी गलत काम नहीं करते थे तो कभी उनसे कोई कहता भी नहीं था. लेकिन ज्यादातर लोग उसके लिए तैयार रहते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक निर्मिति है कि पुलिसवाले जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह कानून और जनता के हित में है और सबसे बड़ी बात जनता इसे सपोर्ट करती है. आप जाकर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरों से बात कीजिए तो वे भी सपोर्ट करते हैं. आप एक सामान्य चोरी के आरोपी को थाने में ले आइए तो लोगों की प्रतिक्रिया होती है कि साहब देखिए, थाने में बैठाए हुए हैं, अब तक इसे उल्टा लटकाया नहीं गया, इसे पीटा नहीं गया. लोग थर्ड डिग्री के लिए दबाव डालते हैं तो पुलिसवाला सोचता है कि वह थर्ड डिग्री करके बड़ा पवित्र काम कर रहा है.

(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं )

फर्ज का एनकाउंटर

न्याय! अदालत से सजा पाने के बाद पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर में शामिल दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर पुलिस वैन से जेल ले जाया गया. इस दौरान वैन को घेरे उनके परिजन
न्याय! अदालत से सजा पाने के बाद पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर में शामिल दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर पुलिस वैन से जेल ले जाया गया. इस दौरान वैन को घेरे उनके परिजन

12 जुलाई, 1991 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश स्थित नानकमत्था गुरुद्वारे (अब उत्तराखंड के उधमसिंह नगर में) से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र स्थित सिख धर्मस्थलों के दर्शन के लिए चली तीर्थयात्रियों से भरी एक बस अपनी यात्रा पूरी करके वापस लौट रही थी. बस में उस समय 25 लोग सवार थे. इनमें दो बुजुर्गों सहित 13 पुरुष, नौ महिलाएं और तीन बच्चे शामिल थे. सभी पंजाब के गुरदासपुर और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर के रहने वाले थे. यह बस 29 जून, 1991 को नानकमत्था गुरुद्वारे से चली थी. बस में नवविवाहिता बलविंदर कौर भी अपने पति, देवर और सास के साथ सवार थीं. वे बताती हैं, ‘दो हफ्ते लंबी यात्रा थी जिसे पूरी कर हम वापस नानकमत्था गुरुद्वारा लौट रहे थे. बस में खुशी का माहौल था और जल्द से जल्द घर पहुंचने की उत्सुकता. हम यात्रा के आखिरी पड़ाव पर थे.’

हालांकि इन यात्रियों को यह नहीं पता था कि उत्साह का यह माहौल जल्द ही दहशत में बदलने वाला था. उसी सुबह पीलीभीत से 125 किलोमीटर पहले स्थित बदायूं के कछला घाट पर पहुंचते ही उत्तर प्रदेश पुलिस की एक वैन ने बस को रोका और पास के चेकपोस्ट पर ले गए. वहां पुलिस के जवान बस के अंदर दाखिल हुए और सभी पुरुष यात्रियों को जबरन बाहर निकाल दिया. उनकी पगड़ी उतारकर उससे उनके हाथ बांध दिए. बस में चीख-पुकार में मच गई थी. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या चल रहा है. बाद में दो बुजुर्गों को वापस बस में चढ़ा दिया गया और बाकी को एक पुलिस वैन में बैठाया गया. बस में मौजूद महिलाएं और बच्चे रोते रहे, बुजुर्ग अपने बच्चों को छोड़ देने की विनती करते रहे लेकिन बस में घुसे जवानों ने सबको चुप रहने की हिदायत दी. जिन्होंने उनके हुक्म की नाफरमानी की, उनके साथ हाथापाई भी की गई.

पंजाब के गुरदासपुर की निवासी बलविंदर कौर की जिंदगी का वह सबसे खौफनाक दिन था. उस दिन की कहानी बताते हुए वे कहती हैं, ‘हमारी बस और जिस गाड़ी में नौजवानों को बैठाया था, दोनों को पुलिस की गाड़ियों ने घेर लिया. पुलिस की गाड़ियां आगे चल रही थीं, उनके पीछे हमारी बस. बस में भी कुछ पुलिसवाले सवार थे. जिन्होंने हमें यहां-वहां देखने तक से मना कर रखा था. हमें बोलने की भी इजाजत नहीं थी. हम जब भी उनसे कुछ जानने की कोशिश करते तो हमें चुप करा देते, धक्के मारते और डराते. किसी को न तो बाथरूम जाने दिया जा रहा था, न खाना-पानी दिया जा रहा था. मैं तब सात माह की गर्भवती थी. हमारी बस में मेरे अलावा एक और गर्भवती महिला थी. इसी तरह रात दस बजे तक वो हमें जंगलों में घुमाते रहे. इसके बाद हमारी बस और पुलिस वैन जिसमें हमारे सगे-संबंधियों बैठे  हुए थे, को अलग कर दिया गया. हमें पीलीभीत ले जाकर एक गली के पास बस रोक दी औैर बोला गया कि इस गली के उस पार गुरुद्वारा है. वहां रात गुजार लो और किसी से कुछ मत कहना. आपके पति और बच्चों की छानबीन करने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा.’ लेकिन उस दिन के बाद बलविंदर कभी अपनी पति और देवर को वापस नहीं देख सकीं.

यह घटना उस दौर की है जब उत्तर प्रदेश के सिख बहुल तराई क्षेत्र में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिए थे. दिन ढलते ही थानों तक के दरवाजे बंद हो जाते थे. मिनी पंजाब कहे जाने वाले पीलीभीत में दहशत का ऐसा माहौल था कि दिन ढलते ही वहां सन्नाटा पसर जाता था

यह घटना उस दौर की है जब उत्तर प्रदेश के सिख बहुल तराई क्षेत्र में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिए थे. दिन ढलते ही पुलिस थानों तक के दरवाजे बंद हो जाते थे. हथियारबंद जवान ड्यूटी देने से कतराते थे. मिनी पंजाब कहे जाने वाले पीलीभीत में दहशत का ऐसा माहौल था कि दिन ढलते ही बाजार में सन्नाटा पसर जाता था. लोग अपने-अपने घरों में कैद हो जाते थे. आम जनता ही नहीं, खुद पुलिस पर भी हमले हो रहे थे. उन्हीं दिनों एसपी पीलीभीत आवास के पास गोलियां बरसाई गई थीं. पुलिस पर दबाव पड़ रहा था कि आतंक के इस साये से क्षेत्र को बाहर निकाला जाए. इसी बीच कथित तौर पर कुछ पुलिस अफसर समस्या की जड़ तक पहुंचने के बजाय पूरा माहौल अपने पक्ष में भुनाकर वाहवाही लूटने में प्रयासरत थे. क्षेत्र के निवासी बताते हैं कि एक ओर आतंकवाद था तो दूसरी ओर हमें पुलिसिया जुल्म का भी सामना करना पड़ता था. आतंकवाद के नाम पर जिले के निर्दोष सिख युवकों को टाडा के तहत जेल में ठूंस दिया जाता था. पुलिस के गश्ती दल के हत्थे अगर कोई आम आदमी भी चढ़ जाता था तो उसे भी वैसी ही यातनाएं भोगनी पड़ती थीं जैसी किसी दहशतगर्द को. पुलिसवाले अपने कंधे पर तरक्की का तमगा लगवाने के लिए ऐसा करते थे.

संघर्ष बलविंदर कौर के पति और देवर को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में  मार गिराया था. तंग आर्थिक हालात के बावजूद उन्होंने पच्चीस साल तक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी
संघर्ष बलविंदर कौर के पति और देवर को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में
मार गिराया था. तंग आर्थिक हालात के बावजूद उन्होंने पच्चीस साल तक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी

इसी कड़ी में 13 जुलाई, 1991 को पीलीभीत के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक आरडी त्रिपाठी ने मीडिया को बताया कि पुलिस ने तीन अलग-अलग मुठभेड़ों में खालिस्तान लिबरेशन आर्मी के कमांडर बलजीत सिंह समेत 10 खूंखार आतंकियों को मार गिराया है. अगले दिन जब यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी तो पुलिस के दावे पर सवाल उठने लगे. मुठभेड़ में मारे गए जिन लोगों को पुलिस आतंकी बता रही थी उनके परिजन सामने आए. उनके दावे के अनुसार पुलिस जिन्हें आतंकी बता रही थी वे सिख तीर्थस्थलों के दर्शन करके लौट रहे लोगों से भरी बस में सवार तीर्थयात्री थे जिन्हें पुलिस ने जबरन बस से उतारकर अपनी वैन में बैठा लिया था. बलजीत सिंह जिन्हें पुलिस ने खालिस्तान लिबरेशन आर्मी का कमांडर बताकर मुठभेड़ में मारा था, वे कोई और नहीं बल्कि बलविंदर कौर के ही पति थे.

इस मामले ने जब तूल पकड़ा तो अधिवक्ता आरएस सोढ़ी ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लगाकर इस मामले की सीबीआई से जांच कराए जाने की मांग की. 12 मई, 1992 से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने जांच शुरू की और उत्तर प्रदेश पुलिस के 57 पुलिसकर्मियों पर आरोप तय किए. 12 जून, 1995 को सीबीआई ने 55 पुलिसकर्मियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की क्योंकि दो आरोपियों की मौत हो चुकी थी. इस घटना के 25 साल बाद बीते दिनों लखनऊ की सीबीआई कोर्ट का इस मामले पर फैसला आया है. सीबीआई के विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह ने इस मुठभेड़ को फर्जी करार देते हुए सभी 47 आरोपियों को दोषी ठहराया है. अपने फैसले में उन्होंने कहा कि ‘आउट ऑफ टर्न’ प्रमोशन की चाह में पुलिसवालों ने 11 निर्दोषों का कत्ल कर दिया. फैसले पर नजर डालते हुए मामले की पैरवी करने वाले सीबीआई के अधिवक्ता सतीश जायसवाल बताते हैं, ‘25 साल के लंबे संघर्ष के बाद पीड़ितों को न्याय देते हुए कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है और उनसे वसूली जाने वाली जुर्माना राशि से हर पीड़ित परिवार को 14 लाख रुपये दिए जाने के आदेश दिए हैं.’

फर्जी मुठभेड़ के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2010 से 2015 के दरमियान उत्तर प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ की 782 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं. जबकि सूची में दूसरे नंबर पर रहे आंध्र प्रदेश में इस अवधि में महज 87 शिकायतें दर्ज हुई हैं

इस पूरे मामले में 57 पुलिसकर्मी जांच के दायरे में आए थे. इनमें से दो की मौत मामले पर सुनवाई शुरू होने से पहले ही हो गई थी. 20 साल चली सुनवाई के दौरान आठ और पुलिसकर्मियों की मौत हो गई. बाकी बचे 47 दोषियों में से 38 को फैसले वाले दिन ही जेल भेज दिया गया और अदालत में पेश नहीं हुए नौ दोषियों के खिलाफ वारंट जारी कर दिए गए. लेकिन पीड़ितों के परिजनों को जो बात खल रही है वह यह कि जो पुलिसकर्मी सीबीआई जांच के दायरे में थे और जिन पर 11 हत्याओं का मुकदमा चल रहा था वे इस पूरी अवधि में न सिर्फ अपनी नौकरी पर बने रहे बल्कि प्रमोशन भी पाते रहे. अदालत ने भी अपने फैसले में इस ओर ध्यान आकर्षित किया और पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए. बलविंदर कौर पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए पूछती हैं, ‘जो हत्यारे थे उन्हें अपने पापों की सजा के बजाय इनाम और सम्मान मिला. सरकारी पगार पर मौज करते रहे. वहीं दूसरी ओर हम दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे थे. सजा जिन्हें मिलनी थी वो तो ऐशोआराम की जिंदगी जीते रहे और हम 25 सालों तक बिना किसी गुनाह की सजा भुगतते रहे. ये कैसी व्यवस्था है?’ दोषी 47 पुलिसवालों में से 13 अब भी पुलिस विभाग में विभिन्न पदों पर तैनात हैं.

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व्यथा कथा : 1 

पूरा परिवार तबाह हो गया, उसके सामने मुआवजा कुछ भी नहीं

1991 में पीलीभीत के पस्तौर इलाके में रहने वाले नरिंदर सिंह अपनी मां जोगिंदर के साथ तीर्थयात्रा पर निकले तो फिर कभी वापस न आए. वे अपने पीछे चार बच्चे छोड़ गए थे. दो लड़के और दो लड़कियां. उनके बड़े लड़के सतनाम सिंह की उम्र उस समय 16-17 वर्ष थी और उनकी सबसे छोटी संतान 3 वर्ष की थी. आज 25 साल बाद भी उनका परिवार उसी खौफ में जी रहा है. इसकी बानगी तब मिली जब सतनाम से ‘तहलका’ ने संपर्क साधा. सतनाम से कई बार बात करने की कोशिश की गई लेकिन वे बार-बार किसी न किसी बहाने से फोन काट देते थे. फिर उन्होंने फोन ही उठाना बंद कर दिया जिससे साफ था कि वे उस बारे में किसी से कोई बात नहीं करना चाहते.

कारण जानने के लिए उनके चचेरे भाई शैली सिंह से संपर्क किया गया. तब पुलिसिया जुल्म की उस दास्तान से पर्दा हटा जिसने सतनाम के मन में भय के बीज बो दिए थे. सतनाम ने पुलिसिया जुल्म के चलते केवल अपने पिता को नहीं खोया बल्कि अपने चाचा लखविंदर सिंह को भी इसका शिकार बनते देखा था. लखविंदर को पुलिस ने टाडा लगाकर जेल में ठूंस दिया था. जब नरिंदर की हत्या की गई तब उनके छोटे भाई लखविंदर जेल में थे. लखविंदर को 1997 में जमानत मिली. शैली बताते हैं, ‘जमानत के बाद भी उन्हें तंग किया जाता था तो हमारे फूफा जी जो पंजाब में रहते हैं वे उन्हें पंजाब ले गए. मामला कोर्ट में चलता रहा और आखिरकार हमारे ताऊ लखविंदर बरी हो गए. वे आजकल पंजाब में ही हैं.’ नरिंदर की मां जो उनके साथ उस घटना के समय बस में थीं, अपने बेटे के न्याय की लड़ाई लड़ते हुए दशक भर पहले चल बसीं. शैली बताते हैं, ‘इन हालात में घर-परिवार में किसी की पढ़ाई तक नहीं हो सकी. इस दौरान सतनाम ने अपनी एक बहन को भी खो दिया. हम लोगों की जमीन-जायदाद पुलिसिया ज्यादतियों की भेंट चढ़ गई. हालात ऐसे थे कि कुछ कर नहीं पा रहे थे, उस समय पुलिस पर किसी का जोर नहीं था.’

नरिंदर के न्याय की लड़ाई लड़ रहे उनके करीबी हरजिंदर सिंह कहलो बताते हैं, ‘पुलिसिया सितमों के कारण मैंने नरिंदर का पूरा परिवार ही तबाह होते देखा है. आज उस परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी भी नहीं दिखती कि वह दो वक्त की रोटी सुकून से खा सके. इस परिवार ने जितना खोया है, उसके सामने 14 लाख रुपये की मुआवजा राशि कुछ नहीं.’ [/symple_box]

मामले में पैरोकार हरजिंदर सिंह कहलो कहते हैं, ‘इतनी बड़ी वारदात को अंजाम देना इंस्पेक्टर स्तर के पुलिसवालों के लिए संभव नहीं था. वह सब कुछ बड़े अधिकारियों के निर्देशों पर ही हुआ था लेकिन सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में उन्हें बचाया है. फैसला हमारे पक्ष में आया है इसलिए अब मुझे अगर उन बड़े अफसरों को सलाखों के पीछे भिजवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट भी जाना पड़ा तो जाऊंगा.’ विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह भी यह मानते हैं. फैसला सुनाते वक्त उन्होंने कहा भी, ‘सीबीआई ने ऊपर से मिले निर्देशों के चलते ऐसे महत्वपूर्ण लोगों को बचाया जो अभियुक्त थे. जिन लोगों पर आरोप तय हुए हैं, उन्होंने सभी निर्णय अपनी मर्जी से नहीं लिए. जिस तरह पुलिस ने 11 लोगों को तीन हिस्सों में बांटकर अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी हत्या करने के बाद पूरे घटनाक्रम को मुठभेड़ की शक्ल दी, इससे साफ है कि उन्हें जिला स्तर के वे महत्वपूर्ण अधिकारी निर्देश दे रहे थे जिनके पास काफी शक्तियां थीं.’

मृतकों के परिजनों को जो बात खल रही है वह यह कि जो पुलिसकर्मी सीबीआई जांच के दायरे में थे और जिन पर 11 हत्याओं का मुकदमा चल रहा था वे मामले की सुनवाई के दौरान न सिर्फ अपनी नौकरी पर बने रहे बल्कि प्रमोशन भी पाते रहे

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व्यथा कथा :2 

‘तब तक लड़ेंगे जब तक दोषियों के गले में फांसी का फंदा न पहुंच जाए’

मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह
मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह

‘23 साल का था वो. बढ़ई का काम करता था. एक दिन मेरे पास आया और बोला कि मुझे किसी कोठी में काम करने का मौका मिला है. उस दिन वो बहुत ही खुश नजर आ रहा था. फिर बोला कि काम शुरू करने से पहले मैं गुरुद्वारों की यात्रा पर जाना चाहता हूं. उसके मन में यह बहुत दिनों से था. वो धार्मिक किस्म का था इसलिए मैंने भी उसे नहीं रोका.’

पीलीभीत में हुई उस फर्जी मुठभेड़ कांड में पुलिस की गोली का शिकार बने पंजाब के गुरदासपुर स्थित राउरखेड़ा गांव के रहने वाले मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह जब उस 25 साल पुराने दिन को याद करते हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं. वे आगे बताते हैं, ‘15 दिन की यात्रा थी. जिस दिन उसे वापस आना था, उसी दिन उसकी मौत की खबर आई.’ संतोख सिंह के मुताबिक, उन्हें अपने बेटे के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर अखबार के जरिए मिली. पहली बार तो उन्हें पढ़कर यकीन नहीं हुआ लेकिन जब दोबारा पढ़ा और गौर से अपने बेटे का चेहरा देखा तो पैरों तले जमीन खिसक गई. वे बताते हैं, ‘उस दिन को याद कर आज भी रूह कांप उठती है. जब बेटे की फोटो देखी तो दिल दहल गया, जमीन पर लाइन से लाशें पड़ी हुई थीं, जिनमें से एक मेरा बेटा मुखविंदर भी था. पुलिस मेरे निर्दोष बेटे को मारकर वाहवाही लूट रही थी. हम खेती-किसानी करने वाले लोग थे. उत्तर प्रदेश पहुंचे तो किसी को नहीं जानते थे. हमने पुलिस को बताया कि वो काम करके आता था, हमें रोटी खिलाता था. मेहनत की कमाई से घर का खर्च चलाता था. उसे क्यों मार दिया? पर यहां हमारी सुनने वाला कोई नहीं था. पुलिस और प्रशासन तो हमें आतंकवादी का पिता मान ही चुका था तो किससे न्याय की आस लगाते?’

मुखविंदर काम करके जो भी कमाते थे वह सब लाकर अपने पिता के हाथ में रख देते थे. लेकिन मुखविंदर के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बाद संतोख के परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई. एक तरफ घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था तो दूसरी तरफ बेटे के न्याय की लड़ाई भी लड़नी थी, जिसमें भी पैसा लगाना था. वहीं जब संतोख सिंह की उम्र बिस्तर पर आराम करने की थी वे अदालतों के चक्कर काट रहे थे. वे बताते हैं, ‘हमारे पास तो इतना पैसा नहीं था कि हम इतनी लंबी लड़ाई लड़ पाते. वो तो उत्तर प्रदेश सिख प्रतिनिधि बोर्ड था जिसने हमारे लिए न्याय की लड़ाई लड़ी.’ उनके मुताबिक एक वक्त ऐसा भी आया कि उन्हें लगने लगा था कि उनके बेटे के हत्यारों को सजा नहीं मिलेगी.

वे कहते हैं, ‘न्याय मिला है पर खुशी नहीं मिली. 25 साल लगा दिए. पूरी उम्र ढल गई न्याय के इंतजार में. हमने तो एक तरह से हथियार ही डाल दिए थे. मेरा बेटा निर्दोष था यह तो तभी तय था जब पुलिस उसके खिलाफ एक आपराधिक मामला तक नहीं खोज पाई थी. इस न्याय से बस सांत्वना मिली है कि इतनी भाग-दौड़ के बाद कुछ तो हासिल हुआ. पर अभी हमारा हक पूरा नहीं हुआ है. जिन्होंने हमारे बच्चों को मारा, उन्होंने तो तरक्की पा ली. गुनहगार वो रहे और संघर्ष हमने किया. उनके गुनाहों की सजा हमें मिली. वे घर-बंगला बनाकर बैठे हैं. किसी का परिवार डुबो दिया और अपने परिवार को खुशहाल बना लिया. वे हाई कोर्ट जाएंगे तो हम भी तब तक लड़ेंगे जब तक उन हत्यारों के गले में फांसी का फंदा न पहुंच जाए.’ संतोख सिंह आज अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में हैं, उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता लेकिन देश में न्याय की धीमी रफ्तार के चलते वे इस उम्र में भी न्याय के लिए अदालतों के चक्कर काटने को मजबूर हैं.[/symple_box]

न्याय की यह पूरी कवायद इतनी आसान भी नहीं रही. न्याय के लिए ताल ठोकने वालों और गवाहों पर पुलिस लगातार दबाव बनाती रही कि वे अपना नाम वापस ले लें. मारे गए गुरदासपुर के रहने वाले सुरजन सिंह के पिता करनैल सिंह पर भी लगातार ऐसा ही दबाव रहा. करनैल सिंह की दिमागी हालत आज ठीक नहीं है. उनकी बहू बताती हैं, ‘कभी उन्होंने मुझे सीधे तौर पर नहीं बताया कि उन्हें धमकियां मिल रही हैं लेकिन उनसे मिलने-जुलने वाले और पड़ोसी बताया करते थे कि उन पर बहुत दबाव है कि वे मामले से अपने हाथ पीछे खींच लें.’ ऐसा ही दबाव गुरदासपुर के ही रहने वाले अजीत सिंह पर बनाया गया. अजीत सिंह के बेटे हरमिंदर सिंह मिंटा भी उस दिन पत्नी स्वर्णजीत के साथ उसी बस में सवार थे जिन्हें मार दिया गया. स्वर्णजीत मामले की एक प्रमुख गवाह थीं. अजीत सिंह बताते हैं, ‘पंजाब पुलिस लगातार मुझे इस मामले से हटने की नसीहत देती रही लेकिन मैंने कह दिया कि मर जाऊंगा पर गुनहगारों को सजा दिलाकर ही रहूंगा.’ वहीं हरजिंदर सिंह कहलो को तो उत्तर प्रदेश पुलिस ने आतंकवादी तक घोषित करने का प्रयास किया. वे बताते हैं, ‘मुझे आईपीसी की धारा 216 के तहत नोटिस थमा दिया गया था जिसके खिलाफ मैं सुप्रीम कोर्ट चला गया और पुलिस के मंसूबों पर पानी फिर गया. यही नहीं, पुलिस ने तो मेरे ऊपर धारा 302 तक का एक झूठा मुकदमा कायम कर दिया था और मेरे ऊपर इनाम भी घोषित कर दिया.’ कहलो के मुताबिक, उनके ऊपर जानलेवा हमला भी करवाया गया. पुलिस ने उस दिन बस से उतारा तो 11 लोगों को था लेकिन मुठभेड़ में 10 लोगों का मारा जाना दर्शाया. उन लोगों में शामिल शाहजहांपुर के रहने वाले तलविंदर का आज तक कुछ पता नहीं चल सका कि उनके साथ क्या हुआ. उनके पिता मलकैत सिंह उस घटना के थोड़े ही समय बाद भारत छोड़कर कनाडा जा बसे थे. कहलो कहते हैं, ‘संभव है कि वे तराई में बढ़ रही आतंकी घटना और पुलिस के जुल्म या फिर पुलिस के डराए-धमकाए जाने के कारण भाग गए हों.’

इस घटना के दौरान पीलीभीत के एसएसपी रहे आरडी त्रिपाठी से ‘तहलका’ ने बात की. वे अपने ऊपर लग रहे आरोपों को निराधार बताते हैं. इस पर यूपी सिख प्रतिनिधि बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. गुरमीत सिंह जो इस पूरे मामले में शुरू से अंत तक पीड़ित परिवारों के साथ खड़े रहे, कहते हैं, ‘वे लोग आतंकवादी थे या नहीं, हमने कभी इस पर बहस नहीं की. हमने सिर्फ ये सवाल उठाया कि क्या आपको किसी को भी बस से उतारकर मारने का अधिकार संविधान देता है? अगर वे आतंकी थे तो आपने उन्हें पकड़ लिया था. कोर्ट में पेश करते, फांसी दिलाते.’ वे आगे कहते हैं, ‘राज्य सरकार ने आरडी त्रिपाठी को वहां आतंकवाद से निपटने के लिए भेजा था. पर उन्हीं के नेतृत्व में इस नरसंहार को अंजाम दिया गया. बाद में वही आरडी त्रिपाठी एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में दावा करते है कि उन्होंने तराई में सब ठीक कर दिया. वे इस नरसंहार को अपनी उपलब्धि बताते हैं. अब इसे क्या कहा जाएगा? जब लोग निर्दोषों की हत्या करने को अपनी उपलब्धि मानते हैं और इसके लिए पुरस्कारों से नवाजे जाते हैं तो देश के इस सिस्टम पर अफसोस जताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता.’ मृतकों में से एक मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह कहते हैं, ‘मेरा बेटा आतंकी था तो क्यों पुलिस उसके खिलाफ एक भी आपराधिक मामला साबित नहीं कर सकी?’ बस में लखविंदर सिंह नाम का एक किशोर भी था. उसकी उम्र तकरीबन 15 वर्ष थी. पीलीभीत के अमरिया में रहने वाले उनके भाई हरदीप बताते हैं, ‘हम तीन भाइयों में वे सबसे बड़े थे. स्कूल जाया करते थे और उसके बाद मेडिकल स्टोर पर बैठा करते थे. उन्हें उस वारदात को अंजाम देने वाले कई पुलिसकर्मी पहचानते थे. उस वारदात के प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था कि जब पुलिसवाले उन्हें बस से उतारकर ले जा रहे थे तो उन्होंने उनसे पूछा भी था कि हमें तो आप पहचानते हो फिर भी क्यों ले जा रहे हो.’

इस मामले की पैरवी से जुड़े वकील परविंदर सिंह ढिल्लो बताते हैं, ‘उन लोगों का कोई आपराधिक रिकॉर्ड पुलिस के पास नहीं मिला था और न ही उनसे कोई हथियार बरामद हुआ था.’

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वहीं गुनहगारों को मिली सजा और मुआवजे की राशि से मृतकों के परिजन संतुष्ट नहीं हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें फांसी की सजा हो और मुआवजे की राशि बढ़ाकर कम से कम 50 लाख रुपये की जाए. बलविंदर कहती हैं, ‘जिन्होंने मेरे पति और देवर की हत्या की, उन पर सीबीआई जांच चल रही थी. तब भी वे नौकरी में बने रहे और तनख्वाह पाते रहे. मेरा घर उजाड़कर उन्होंने अपना आबाद कर लिया. अगर मेरे पति और देवर जिंदा होते तो हमें दो वक्त की रोटी जुटाने में परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. सरकार की ओर से 14 लाख रुपये का जो मुआवजा मिल रहा है उससे ज्यादा तो सुनवाई के दौरान हमारा खर्च हो चुका है.’ वह यह भी मांग करती हैं कि इन 25 सालों के दौरान सरकारी नौकरी में रहकर दोषी पुलिसवालोंको सरकार ने अब तक जितनी तनख्वाह दी है उसे वापस लिया जाए. मुआवजे की राशि को बढ़ाने के संबंध में कहलो कहते हैं, ‘मृतकों के परिजन बहुत ही दयनीय जीवन जी रहे हैं. फर्जी मुठभेड़ का शिकार पीलीभीत निवासी नरिंदर के परिरजनों को तो दो वक्त की रोटी के भी लाले हैं. 25 साल तक लड़ते-लड़ते वो सब गंवा चुके हैं और फर्जी मुठभेड़ में नरिंदर की मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया है. पीडि़तों की हालत देखते हुए उन्हें कम से कम 50 लाख रुपये तक का मुआवजा तो दिया ही जाना चाहिए.’ जहां तक फांसी की सजा का सवाल है तो सीबीआई के विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह अपने फैसले में साफ कर चुके हैं, ‘फांसी से अधिक दर्दनाक सजा उम्रकैद होती है जिसमें व्यक्ति एक बार नहीं बल्कि सलाखों के अंदर रहकर खुद को बार-बार मरा पाता है. उसकी दुनिया ही वहां सिमटकर रह जाती है.’

बहरहाल उत्तर प्रदेश के फर्जी मुठभेड़ों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2010 से 2015 केे दरमियान राज्य में फर्जी मुठभेड़ की 782 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं. जबकि सूची में दूसरे नंबर पर रहे आंध्र प्रदेश में इस अवधि में महज 87 शिकायतें दर्ज हुई हैं. इससे यूपी पुलिस के काम करने का तरीका समझा जा सकता है. यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक है जहां इतनी बड़ी संख्या में फर्जी मुठभेड़ में शामिल पुलिसवालों को सजा सुनाई गई है. इस फैसले के आने के बाद संभावना है कि पुलिस की मानसिकता में बदलाव आए.

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व्यथा कथा : 3 

‘असि मर जावांगे पर केस वापस न लांगे’

हरमिंदर सिंह के पिता अजीत सिंह (दाएं)
हरमिंदर सिंह के पिता अजीत सिंह (दाएं)

हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटा और स्वर्णजीत की शादी को अभी सात महीने ही हुए थे. स्वर्णजीत को पांच महीने का गर्भ भी था. विदेश जाने के लिए हरमिंदर ने पासपोर्ट बनवाया था. स्वर्णजीत ने उनसे गुजारिश की कि आपके विदेश जाने से पहले क्यों न हम हुजूर साहिब जाकर मत्था टेक आएं. हरमिंदर राजी हो गए. पिता अजीत सिंह ने भी जाने की अनुमति दे दी. 15 दिन लंबी यह यात्रा उन दोनों की साथ की गई अंतिम यात्रा साबित हो जाएगी, यह किसी को नहीं पता था.

स्वर्णजीत अपनी जिंदगी के उस सबसे खौफनाक मंजर को याद करते हुए बताती हैं, ‘यात्रा पूरी कर वापस लौटते समय पीलीभीत के पास हमारी बस पुलिस ने रोक ली. फिर वो बस को अपने साथ ले जाने लगे. बाद में एक नहर के पास बस को रोक दिया गया. कई पुलिसवाले अंदर घुसे और सभी युवकों को नीचे उतारकर ले गए. सब कुछ इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कुछ समझ नहीं आ रहा था. बुजुर्ग पुरुषों को उन्होंने बांध दिया था, उनके साथ मारपीट की. बस से उतारे गए युवकों को उन्होंने एक पुलिस वैन में चढ़ा दिया. हमारी चीख-पुकारों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था.’ स्वर्णजीत के अनुसार, उनकी बस को बंधक बना लिया गया था. पूरा दिन पुलिस की कई गाड़ियों के साथ बस सड़क पर दौड़ती रही. वे बताती हैं, ‘पता नहीं चल रहा था कि हम कहां घूम रहे हैं. रात को हमें एक गली के पास छोड़कर कहा गया कि पास में ही एक गुरुद्वारा है, वहां चले जाओ. मैंने हिम्मत करके उनसे अपने पति के बारे में पूछा तो वे बोले कि जल्द ही छोड़ देंगे. बस जैसा कहा है वैसा करते रहो. यहां से जाकर किसी को कुछ मत बताना.’ वे रूआंसे स्वर में कहती हैं, ‘उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था तो मुझे भी लगा कि छोड़ देंगे. जैसा वे कह रहे थे, मैं उनका इंतजार करती रही. पुलिस बेगुनाह युवकों को भी मार सकती है ऐसा तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था. सुना था पुलिस तो रक्षा करती है पर वो लालच के लिए बेगुनाहों की हत्या भी करती है ऐसा कभी न देखा था, न सुना. वो पुलिस के हवाले थे तो उम्मीद तो यही थी कि वो सुरक्षित हैं.’

स्वर्णजीत ने दो दिन उसी गुरुद्वारे में बिताए. अगले दिन उनके ससुर उन्हें लेने आए. जब स्वर्णजीत ने उनसे हरमिंदर के बारे में पूछा तो वे बोले कि पहले तुम्हें घर छोड़ दें. वे बताती हैं, ‘उन्होंने मुझे कुछ नहीं बताया क्योंकि मेरी हालत ठीक नहीं थी, उन्हें पहली चिंता मुझे घर वापस पहुंचाने की थी. जब मैं घर पहुंच गई तो वे बोले तुम अपना ख्याल रखो, उन्होंने मिंटा को गिरफ्तार कर लिया है, जैसे तुमको ले आए हैं, उसको भी लेकर वापस आते हैं. उसके बाद वापस आने पर वे रोने लगे और मेरे हाथ में एक अखबार थमा दिया.’

गन्ना मिल में काम करने वाले 21 वर्षीय मिंटा को पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में आतंकी ठहराकर मारा जा चुका था. उनकी मौत के बाद अजीत सिंह के घर के आर्थिक हालात बिगड़ने लगे. चार महीने बाद स्वर्णजीत ने एक लड़की को जन्म दिया लेकिन जिसके जन्म पर खुशी होनी थी वहां स्वर्णजीत के सामने सवाल खड़ा था कि वे अपनी बच्ची की परवरिश कैसे करेंगी. 20 साल की उम्र में स्वर्णजीत विधवा हो गई थीं और एक बच्चे को पालने का भार भी उनके कंधे पर था. वे सिलाई करके घर चलाने लगीं. बाद में अजीत सिंह ने अपने छोटे बेटे से उनकी शादी करा दी. आज हरमिंदर और स्वर्णजीत की बेटी पच्चीस साल की हो गई हैं. उसने नर्सिंग की पढ़ाई की है.

अजीत सिंह बताते हैं, ‘केस शुरू हुआ तो यूपी पुलिस ने पंजाब पुलिस से हम पर दबाव बनवाना शुरू कर दिया कि हम केस वापस लें. गवाही न दें. यहां का थानेदार मक्खन सिंह बार-बार हम पर दबाव बनाता था. आए दिन तंग करता था. हम बोले कि ‘असि मर जावांगे पर केस वापस न लांगे.’ वे मायूसी से कहते हैं, ‘फैसले में 25 साल लगे, इन 25 सालों में कितना पैसा लगता है? आज हरमिंदर की बेटी की शादी करनी है. हमारे पास तो अब इतना पैसा रहा नहीं है. उसकी बच्ची को अच्छी जिंदगी मिले बस यह तमन्ना है.’ [/symple_box]

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व्यथा कथा : 4 

परिवार का एक सदस्य अगर बेमौत मारा जाए तो पूरे परिवार की मौत हो जाती है

करनैल सिंह (बीच में) अपनी बहू परमजीत कौर के साथ सुनवाई में शामिल होने बीते दिनों लखनऊ आए थे
करनैल सिंह (बीच में) अपनी बहू परमजीत कौर के साथ सुनवाई में शामिल होने बीते दिनों लखनऊ आए थे

कहते हैं कि न्याय के इंतजार में पीढ़ियां गुजर जाती हैं. गुरदासपुर जिले के मानेपुर गांव निवासी करनैल सिंह के परिवार के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. उनके दो बेटे थे. बड़े बेटे सुरजन की उम्र 21 साल थी और छोटा 10 साल का था. सुरजन सिंह भी पीलीभीत पुलिस के उस अमानवीय कृत्य का शिकार बने थे. वे उस बस में अपनी मां के साथ मौजूद थे.

करनैल सिंह से जब ‘तहलका’ ने संपर्क साधा तो उनकी बहू परमजीत कौर से पता लगा कि वे साफ देख व सुन नहीं सकते. इसलिए अब इस लड़ाई को लड़ने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कंधों पर उठा रखी है. आगे परमजीत सिंह ने जो बताया, वह संवेदनाओं को झकझोरने वाला था. वे बोलीं, ‘सुरजन सिंह मेरे जेठ थे पर मैं कभी उनसे मिली नहीं. उनकी मौत मेरी शादी के 10 साल पहले ही हो गई थी.’ यह बोलते समय उनके चेहरे और जुबान पर दर्द साफ देखा जा सकता था. आगे हम कुछ पूछते उससे पहले ही वे बोल पड़ीं, ‘पुलिस की उस घिनौनी करतूत के बारे में मैंने अपने ससुर से जाना था. उस हादसे के बाद वे दिमागी रूप से कमजोर हो गए थे इसलिए मेरी सास जो उस घटना के समय बस में मौजूद थीं, वही कानूनी लड़ाई लड़ती रहीं. मेरे पति तब महज 10 साल के थे. ससुर की दिमागी हालत ठीक नहीं थी इसलिए घर और बाहर का सारा भार मेरी सास के कंधे पर आ गया जिसके दबाव में 1997 में उन्होंने भी दम तोड़ दिया. परिवार की आर्थिक हालत भी बिगड़ गई.’

उस हादसे ने करनैल सिंह से केवल उनका बड़ा बेटा ही नहीं छीना था. बल्कि इस घटना में यह परिवार ही टूट गया. वहीं करनैल सिंह के मन में यह भी डर बैठ गया था कि कहीं कोई उनके छोटे बेटे की भी हत्या न कर दे तो वे उन्हें अपनी आंखों से दूर कहीं नहीं जाने देते थे. कुछ सालों बाद उन्होंने उनकी शादी परमजीत से करा दी. इस बीच सदमे और डर के साये में रहकर मेरे  पति धीरे-धीरे अपना दिमागी संतुलन खो बैठे. परमजीत बताती हैं, ‘आज भी मेरे पति अपने भाई और मां के गम में डूबे रहते हैं. उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं है. शराब भी पीते हैं. हमारे पास इतना पैसा नहीं कि उनका इलाज करा सकें. जो जमीन-जायदाद और गहने थे वो सब या तो इस केस में बिक गए या फिर घर चलाने में. यही कारण था कि शादी के बाद इस मुकदमे की बागडोर लेने के लिए मैं बेबस थी. मैं न लेती तो कौन लेता और लड़ूं भी क्यों नहीं? आज मैं दूसरों के घर के बर्तन साफ कर घर चलाती हूं. यह सब उस 25 साल पुराने जख्म की देन है. आज मेरे पति को कोई सहारा देने या समझाने वाला नहीं है. इसलिए मन में आता है कि अगर मेरे जेठ होते तो उनकी ऐसी हालत नहीं होती. अब तो हम अकेले रह गए हैं. खुद ही जानते हैं कि कैसे समय काट रहे हैं, घर का भी करते हैं और बाहर का भी.’ आगे वे आरोपियों को मिली सजा के बारे में कहती हैं, ‘अगर परिवार का एक सदस्य बेमौत मारा जाए तो मौत पूरे परिवार की होती है. उन्होंने हमारे पूरे परिवार का कत्ल किया है, जो था वो सब छिन गया. उन्हें तो फांसी होनी चाहिए.’

बहरहाल करनैल सिंह भले ही साफ देख व सुन नहीं सकते, चलने के लिए भी उन्हें एक व्यक्ति के सहारे की जरूरत पड़ती है, लेकिन अपने बेटे सुरजन सिंह को न्याय दिलाने के लिए वे आज भी प्रतिबद्ध हैं. जिस दिन लखनऊ की सीबीआई कोर्ट आरोपी पुलिसवालों की सजा मुकर्रर करने वाली थी, उस दिन भी वे एक हजार किलोमीटर का सफर तय करके पंजाब से लखनऊ पहुंचे थे.[/symple_box]

छत्तीसगढ़ में एक तरफ अमीरों की सेना है, दूसरी तरफ आदिवासी

Photo : Tehelka Archives
Photo : Tehelka Archives
Photo : Tehelka Archives

छत्तीसगढ़ की लड़ाई नक्सलवादियों के खिलाफ कतई नहीं है. यह खनिजों, जंगलों, नदियों पर कब्जे के लिए किया जाने वाला युद्ध है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि भारत में आजादी से लेकर आज तक अमीर कंपनियों के लिए सारी जमीनों पर कब्जा पुलिस की लाठी और बंदूकों के दम पर ही किया गया है. जहां नक्सली नहीं होते वहां भी सरकारी बंदूकों के दम पर गरीबों को डराकर या मारकर उनकी जमीनों पर कब्जा करके अमीरों को सौंपने का काम किया जाता. चाहे वह ओडिशा के जगतसिंहपुर में कोरियन कंपनी पोस्को के लिए जमीन छीनने का किस्सा हो या दिल्ली के नजदीक नोएडा में जमीन छीनने का मामला, हर जगह किसानों के घर जलाए गए, किसानों को मारा गया और जेलों में डाल दिया गया.

इसलिए हम सबको यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की लड़ाई भी खनिजों के लिए लड़ी जा रही है. इस लड़ाई में एक तरफ बड़ी कंपनियां हैं. कंपनियों की तरफ सरकार है, कंपनियों की तरफ सरकार की पुलिस है, कंपनियों की तरफ सरकार की अदालतें हैं और कंपनियों की तरफ मीडिया का एक बड़ा वर्ग है. इस युद्ध में दूसरी तरफ आम आदिवासी हैं. आदिवासी की तरफ गांधीवादी लोग भी हैं. वामपंथी लोग हैं. सही सोच वाले न्यायप्रिय लोग भी आदिवासियों की तरफ हैं. इत्तफाक से नक्सली भी आदिवासी की तरफ हैं.

सरकार एक चालाक खेल खेलती है. सरकार कहती है कि चूंकि नक्सली भी आदिवासियों की तरफ हैं इसलिए सारे आदिवासी नक्सली हैं. सरकार और ज्यादा चालाकी से कहती है कि चूंकि गांधीवादी और वामपंथी भी आदिवासियों की तरफ हैं इसलिए वामपंथी और गांधीवादी भी नक्सली हैं और इसलिए सारे सही सोचने वाले लोग भी नक्सली हैं.

सरकार अपनी चालाकी की आड़ में अपने सारे अत्याचारों और मानवाधिकार हनन को राष्ट्रहित में किया गया काम बताती है. सरकार कहती है कि चूंकि हम जनता की रक्षा करने के लिए नक्सलियों से लड़ाई कर रहे हैं इसलिए नक्सली समर्थक लोग सरकारी सुरक्षा बलों को बदनाम करते हैं.

लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी सुरक्षा बल इन इलाकों में आदिवासियों को जमीनों से भगाने के लिए एक योजना के तहत अत्याचार कर रहे हैं ताकि आदिवासियों के दिलों में खौफ पैदा किया जा सके. आदिवासी महिलाओं के साथ सिपाहियों द्वारा सामूहिक बलात्कारों को एक रणनीति के तहत लागू किया जा रहा है. अभी हाल ही में कई सारे सामूहिक बलात्कार के मामले हुए हैं, जिनमें सिपाहियों के बचाव में पूरी सरकार लग गई है. मेरे द्वारा 500 से ज्यादा मामले सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे गए हैं. लेकिन आज तक एक भी मामले में किसी सिपाही को सजा नहीं दिलाई जा सकी. मीना खलखो के साथ सामूहिक बलात्कार मामले में तो जांच आयोग ने भी बलात्कार की पुष्टि की. लेकिन एफआईआर होने के आठ महीने बाद भी आज तक किसी सिपाही को गिरफ्तार नहीं किया गया है. उलटा सोनी सोरी को थाने में ले जाकर उसके गुप्तांगों में पत्थर भरने वाले पुलिस अधिकारी को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार दिया गया.

इसलिए हमें साफ-साफ यह समझ लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में एक युद्ध चल रहा है. इसमें एक तरफ अमीरों की सेना है जो गरीबों की जमीनें छीनने के लिए भेजी गई है और दूसरी तरफ आदिवासी हैं. जो इस समय छत्तीसगढ़ में हो रहा है वैसा दुनिया के अनेक देशों में पहले हो चुका है. अमेरिका में लाखों नेटिव अमेरिकियों ने आदिवासियों की हत्या की और उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया.

कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड समेत दुनिया के 65 देशों में आदिवासियों को मारकर उनकी जमीनों पर कब्जा किया गया है. हम भी जानते हैं कि अगर हमें कारों और शॉपिंग माल वाला ऐशो-आराम का जीवन चाहिए तो आदिवासियों की जमीनों को छीनना ही पड़ेगा. इसलिए हम अपने ‘लुटेरे’ सिपाहियों की तरफ हैं. इस युद्ध में कानून, नैतिकता, संविधान का कोई स्थान ही नहीं है. इसलिए जो आज संविधान और कानून की बात कर रहे हैं उन्हें देशद्रोही और नक्सली समर्थक कहा जा रहा है.

डर एक ही है कि अगर एक बार सरकार को इस तरह संविधान को कुचल-कर सफल होने की आदत पड़ गई तो फिर सरकार हर जगह इसी तरह से आतंक के माध्यम से अमीरों के लिए लूटपाट करेगी. सारे देश के किसानों की जमीनों पर इसी तरह बड़ी कंपनियों के लिए कब्जा करने का अभियान चलाया जाएगा. यानी अमीरों के फायदे के लिए गरीब पर हमला किया जाएगा और उस हमले को राष्ट्रवाद का नाम दे दिया जाएगा. फासीवाद ऐसे ही आता है और दशकों बाद हमें समझ में आता है कि हम असल में लुटेरे बन चुके हैं. छत्तीसगढ़ के माध्यम से हम देश के संविधान को ही बचाने की कोशिश कर रहे हैं.

राजनीति का नया कलाम, ‘जय भीम – लाल सलाम’

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Photo : IANS

जेएनयू में कथित देशविरोधी नारे को लेकर बवाल हुआ तो छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी से पहले उनके भाषण में ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा शामिल था. उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘जब हम महिलाओं के हक की बात करते हैं तो ये (संघ-भाजपा के लोग) कहते हैं कि आप भारतीय संस्कृति को बर्बाद करना चाहते हो. हम बर्बाद करना चाहते हैं शोषण की संस्कृति को, जातिवाद की संस्कृति को, मनुवाद और ब्राह्मणवाद की संस्कृति को. आपकी संस्कृति की परिभाषा से हमारी संस्कृति की परिभाषा तय नहीं होगी. इनको दिक्कत होती है जब इस मुल्क के लोग लोकतंत्र की बात करते हैं, जब लोग लाल सलाम के साथ नीला सलाम का नारा लगाते हैं.’ उन्होंने भाषण खत्म किया तो ‘इंकलाब जिंदाबाद, जय भीम, लाल सलाम’ नारा लगाया. कन्हैया जेल से छूटे तो भी उनके भाषण में ‘लाल और नीले’ झंडे की एकजुटता का संदेश प्रमुखता से मौजूद था. इसके पहले हैदराबाद में रोहित वेमुला प्रकरण में भी यह नारा गूंज रहा था. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों में घटी घटनाओं के बाद आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी संगठनों की नजदीकी पर चर्चा जोर पकड़ रही है. 

सत्ता में आने के बाद भाजपा ने लगभग सभी इतिहास-पुरुषों पर अपनी दावेदारी पेश की. इसकी शुरुआत सरदार पटेल से हुई थी और फिर इस कड़ी में गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, आंबेडकर आदि एक-एक कर जुड़ते गए. 14 अप्रैल को देश भर में आंबेडकर की 125वीं जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गई, जिसे लेकर सभी राजनीतिक दलों ने भव्य आयोजन किए. इस दिन सोशल मीडिया पर भी आंबेडकर खूब सेलिब्रेट किए गए. इस सेलिब्रेशन में यह सवाल शामिल था कि ‘जय भीम और लाल सलाम’ की भविष्य की संभावनाएं क्या हैं.

आईआईएम इंदौर के शोधछात्र विनोद कुमार कहते हैं, ‘भारत में वामपंथियों की गलती यही थी कि वे इस देश में गरीबी की सबसे बड़ी वजह और हकीकत ‘जाति’ को उपेक्षित करते रहे (और इसी का फल भुगता है). अब अगर नई पीढ़ी समझ रही है, बदल रही है तो स्वागत कीजिए. पुरानी पीढ़ी के आधार पर हर पीढ़ी पर संदेह करना ही तो मनुवादी सोच है, हमें इसी से लड़ना है. खुद पर भरोसा रखिए. अगर इस देश के मनुवाद से लड़ना है तो सारी गैरमनुवादी ताकतों को एकजुट होना होगा; हमारी ताकत अपने हित को समझने में, हमारी समझ में होगी हमारे संदेह में नहीं. भारत में वामपंथ का मार्ग सही मायने में आंबेडकर की तरफ बढ़े बिना हासिल नहीं होगा.’

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आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की सिंथेसिस की जरूरत है : अशोक कुमार पांडेय

वामपंथ और दलित राजनीति के बीच एक तरह का अंतः संबंध शुरू से रहा ही है. वाम आंदोलन सर्वहारा का पक्षधर है और इस देश के सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय से आता है, जो भूमिहीन है, कृषि मजदूर है और शहरी समाज के सबसे निचले तबके की नौकरियों में शोषण का शिकार है. आंबेडकर के समय से ही दोनों आंदोलनों को करीब लाने की कोशिशें हुईं, संवाद भी हुए लेकिन अगर एका नहीं बन सका तो उसके लिए दोनों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां जिम्मेदार रहीं. वाम आंदोलन में शामिल कई तत्व जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्ति नहीं पा सके थे, पार्टी संवैधानिक और गैर-संवैधानिक तरीकों से इंकलाब की राहों को लेकर एक दिग्भ्रम जैसी स्थिति में रही और डॉ. आंबेडकर संविधान को लेकर आशान्वित थे, उनके नजरिये में यह दलित समुदाय को उसके अधिकार दिलाने के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया था. बाद में नामदेव ढसाल जैसे विद्रोही दलित कवि ने मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद की एक सिंथेसिस करने की कोशिश की. राव साहब कसबे की किताब ‘मार्क्स और आंबेडकर’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल थी, लेकिन अलग-अलग वजहों से कोई ठोस पहल नहीं हो पाई. कम्युनिस्ट पार्टियां वर्ग की अपनी आर्थिक समझ को भारतीय परिस्थितियों में जाति से नहीं जोड़ पाईं, हालांकि दलितों पर होने वाले अत्याचारों को लेकर पार्टियों की पक्षधरता हमेशा साफ रही. बिहार, झारखंड, ओडिशा सहित जिन जगहों पर सीधे किसान संघर्ष चले, वहां भूमिहीन दलितों की एक बड़ी संख्या जुड़ी भी. दलित राजनीति भी रामदास अठावले से मायावती तक तमाम मोड़ पार करती रही. कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा से गठबंधन हुआ, कभी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ दोस्ती हुई. हिंदू राष्ट्र को दलितों के लिए सबसे खतरनाक बताने वाले डॉ. आंबेडकर के अनुयायियों के लिए यह विचलन सहज तो नहीं ही था.

आज के समय वामपंथ और आंबेडकरवाद के सामने सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- आवारा पूंजी व जल-जंगल-जमीन की लूट और दक्षिणपंथी फासीवाद का उदय. रोहित वेमुला के साथ प्रशासन का व्यवहार और उसकी आत्महत्या इस संकट को बहुत स्पष्टतः व्यंजित करती है. जाति और आर्थिक वंचना का दंश साथ मिलकर इस संकट को इतना गहरा कर देता है कि संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता. इसलिए लाल और नीले का साथ आना कोई चुनावी गठबंधन या सत्ता का खेल नहीं, देश की वंचित-दमित जनता की मुक्ति का सवाल है. यह ऐतिहासिक आवश्यकता है कि आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की एक ऐसी सिंथेसिस प्रस्तुत की जाए जो भारत में मुक्ति के एक लंबे और फैसलाकुन संघर्ष के लिए आवश्यक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के लिए वैचारिक आधार दे सके. आज लेखकों-बुद्धिजीवियों और छात्रों के बीच इसे लेकर एक सहमति-सी बनती दिख रही है, देखना यह होगा कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व इसे कितनी गंभीरता से लेता है. आज अगर वह इस ऐतिहासिक मौके को चूकता है तो यह दोनों आंदोलनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा.[/symple_box]

भागलपुर के एक कॉलेज में अध्यापक डॉ. योगेंद्र ने फेसबुक पर लिखा, ‘मैं इंतजार कर रहा हूं कि नीला और लाल कब और कहां मिल रहे हैं. जेल से लौटने के बाद जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया ने बयान दिया था. इससे नीला-लाल की बहस जोर पकड़ ली है. लाल के बड़े-बड़े नेता चुप मारे हुए हैं. लगता है कि ऐसा होने पर उनकी कुर्सी को खतरा है. यह सर्वेक्षण मजेदार होगा कि लाल के मौजूदा नेतृत्व में नीला कितना प्रतिशत है?’

इस बहस ने शायद आरएसएस-भाजपा को असहज स्थिति में ला दिया है क्योंकि दलितों और पिछड़ों का मार्क्सवादियों के साथ जाना भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. आंबेडकर जयंती पर आरएसएस के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ ने मार्क्स और आंबेडकर को साथ जोड़ने को ‘कुत्सित कृत्य’ बताकर उसकी कड़ी आलोचना भी कर डाली है.

इस नए समीकरण की चर्चा कैंपसों से बाहर लेखक समुदाय में भी है. रोहित वेमुला प्रकरण के बाद दिल्ली में पांच लेखक संगठनों ने ‘आजाद वतन, आजाद जुबान’ नाम से एक आयोजन शुरू किया है. यह आयोजन आंबेडकर की 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर भी गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में संपन्न हुआ. यह अपने आप में ऐतिहासिक है कि इन पांच संगठनों में तीन वामपंथी संगठन- ‘जनवादी लेखक संघ’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘जन संस्कृति मंच’ हैं और दो दलित संगठन- ‘दलित लेखक संघ’ और ‘साहित्य संवाद’. इन संगठनों का कहना है, ‘भाजपा का हिंदूवादी राष्ट्रवाद प्रगतिशील, समाजवादी और दलित तबकों के लिए खतरा है जिससे मिलकर लड़ना ही कारगर उपाय हो सकता है.’

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इस कार्यक्रम में शरीक हुए जेएनयू छात्रसंघ महासचिव रामा नागा ने कहा, ‘सवाल यह नहीं है कि हमारे झंडे का रंग लाल है या नीला, सवाल यह है कि इन दोनों को मिलकर भगवा से लड़ना है. जिस तरह से हम पर हमले बढ़े हैं, ­­­हम साथ आने को मजबूर हुए हैं. सवाल लाल-नीले के विलय या एक हो जाने का नहीं, सवाल साथ मिलकर फासीवाद से लड़ने का है.’

आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के साथ आने की इस नई परिघटना पर जेएनयू के शोधछात्र ताराशंकर कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि चूंकि एक बड़ी लड़ाई है पूंजीवाद के खिलाफ, जो आर्थिक गैर-बराबरी का मसला है, और जो तमाम तरह की गैर-बराबरी को जन्म देता है, उस बड़ी गैर-बराबरी के समानांतर इस तरह की हजारों लड़ाइयां हमें लड़नी होती हैं. जैसे कि जेंडर का मसला हो, जाति का मसला हो, छुआछूत का मसला हो, आजादी हो. इस तरह की तमाम समानांतर लड़ाइयां लड़नी होती हैं. चूंकि मार्क्सवाद एक जगह थोड़ा-सा फेल होता है कि जाति के मसले को चिह्नित नहीं कर पाया जो भारत में बहुत बड़ा मसला था. हालांकि, उसका भी आधार शुरू में आर्थिक रहा है, लेकिन बाद में वह मानसिक स्तर पर चला गया. इसलिए इसकी लड़ाई भी साथ-साथ लड़नी बहुत जरूरी है. इसलिए इस संबंध में आंबेडकर और मार्क्स का एक साथ आना बहुत जरूरी हो जाता है. हाल में कैंपसों में बड़ा ध्रुवीकरण हुआ है.’

भाकपा माले की कार्यकर्ता कविता कृष्णन आंबेडकरवादी और मार्क्सवादियों के साथ आने को वक्त की जरूरत बताते हुए कहती हैं, ‘क्योंकि आज जिस तरह से लोकतंत्र पर हमला हो रहा है, वह खतरनाक है. आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी ही नहीं, मुझे तो लगता है कि आंदोलनकारी जितनी ताकतें हैं, गांधीवादी भी, समाजवादी भी, आपस में बहसें करते हुए एकता को मजबूत कर सकते हैं. इसकी जरूरत सब महसूस कर रहे हैं. यह कोई बड़ी पार्टियों के स्तर से नहीं तय हुआ है. यह एकता स्वाभाविक रूप में आंदोलनों में बढ़ी है. क्योंकि जो हमला हो रहा है, वह काॅरपोरेट गाइडेड फासीवादी हमला है जिसमें वामपंथी और आंबेडकरवादी छात्रों को निशाना बनाया गया. दूसरी ओर कई दलित पार्टियां सत्ता में भागीदार भी हैं. तो जो युवा तबका है, उसे लगता है कि एक ऐसे राजनीतिक मॉडल की जरूरत है जो आंबेडकरवादी आंदोलन को आगे बढ़ाए और वामपंथी आंदोलन के साथ भी मजबूती स्थापित करे.’

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधार्थी और आइसा के कार्यकर्ता रामायण राम कहते हैं, ‘यह भगत सिंह और आंबेडकर को एक साथ याद करने का समय है. क्योंकि उन्हीं के विचारों के आधार पर शोषणमुक्त समाज बन सकता है. आज जब राष्ट्रवाद की नई और संकीर्ण परिभाषा गढ़ी जा रही है तब आंबेडकर याद आते हैं. हमें उनकी संकल्पनाओं को स्वीकार करने की जरूरत है. आज वर्णव्यवस्था का समर्थन हो रहा है, भेदभावपूर्ण जातिवाद को संस्थाबद्ध करने की कोशिश की जा रही है. देश भर के विश्वविद्यालयों में जातीय युद्ध छेड़ा जा रहा है और ऐसा करने वाले भी आंबेडकर का नाम ले रहे हैं. जाति उन्मूलन ही बाबा साहब के राष्ट्रवाद का आधार था. बाबा साहब का कहना था कि दस सालों में लोकतांत्रिक ढंग से राजकीय समाजवाद लागू हो. हमें उनके इस सपने को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है.’

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जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के शोध छात्र रमाशंकर सिंह का मानना है, ‘आज जब विश्वविद्यालयों में जय भीम, लाल सलाम का नारा लग रहा है तो इसे तात्कालिक रूप से ही नहीं देखना होगा. इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही है. पिछले साल बांदा जिले में सम्मेलन हुआ जिसमें मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, अनीता भारती, आनंद तेलतुंबड़े ने हिस्सा लिया. इसमें प्रकाश करात भी आए थे. कहा गया कि किसान, मजदूर, दलित और स्त्री की मुक्ति के समान धरातल मार्क्स और आंबेडकर के बताए रास्ते से ही आ सकते हैं.’

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा अपना नाम न छापने की शर्त पर कहती हैं, ‘आज गहराते आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संकट में आंबेडकरवादियों और मार्क्सवादियों का नजदीक आना जरूरी व स्वागत योग्य है. लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी हैं. आंबेडकरवाद सवर्ण वर्ग को ही अपना मूल शत्रु मानता है. निश्चित तौर पर, सवर्ण वर्चस्व व मानसिकता के खिलाफ संघर्ष जरूरी है, लेकिन क्या यह संघर्ष पूंजीवादी आर्थिक संकट, अभाव, शोषण व गैर-बराबरी, पूंजीवादी मुनाफे की लूट के खिलाफ भी होगा? मजदूर, किसान, कर्मचारी, छात्र-नौजवान, महिला- इनके कॉमन प्रश्न क्या आंदोलन के केंद्र बनेंगे? सामाजिक आंदोलनों से कटे रहने और अपनी गंभीर ऐतिहासिक गलतियों के चलते समाज में अपना प्रभाव नहीं बना पा रहे प्रमुख मार्क्सवादी दल बढ़ते फासीवादी खतरे से निपटने के लिए यह शॉर्ट कट अपना रहे हैं, ताकि समाज के एक हिस्से में अपनी जगह बना सकें.’

हालांकि, रमाशंकर इन नए गठजोड़ को लेकर आशान्वित हैं. वे कहते हैं, ‘एक तरफ आंबेडकर हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों में इस विचार को आगे बढ़ाते हैं कि लोकतंत्र से ही वंचना और बहिष्करण से मुक्ति मिलेगी, बराबरी और अधिकार से ही दुनिया समान होगी. तो दूसरे छोर पर मार्क्स हैं जो पूंजी और समाज के रिश्ते को समझाकर उसे आम जनता के पक्ष में लाना चाहते हैं. मार्क्स और आंबेडकर के अनुयायी समाज को आमूलचूल बदलना तो चाहते रहे हैं लेकिन वे ऐसी किसी दृष्टि का विकास करने में असफल रहे जो एक वैकल्पिक राजनीतिक समाज बना सके जिसमें दलित, मजदूर, स्त्री, अल्पसंख्यक का शोषण न हो. अब एक ऐसा समय है कि जहां युवा, किसान, मजदूर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक नवपूंजीवादी ब्राह्मणवादी सत्ताओं से दबाए जा रहे हैं और यही समूह इतिहास को एक नए रास्ते पर ले जाना चाहता है. जब रोजगार के अवसर सीमित हो रहे हैं, सरकारें अपनी सामाजिक और संवैधानिक जिम्मेदारियों से पीछे हटना चाह रही हों और उन्हें फासीवादी पूंजीवाद का सहारा मिल रहा हो तो आंबेडकर और मार्क्स की गतिकी से एक मदद मिल सकती है.’

दूसरी ओर आंबेडकर को अपनाने लेने के लिए मचे सियासी हड़कंप पर भी सवाल उठ रहे हैं. पत्रकार अजय प्रकाश ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा, ‘देश के आखिरी आदमी के नेता आंबेडकर की इतनी ऊंची बोली पहली बार लगी है. जिसे देखो वही आंबेडकर को अपनी ओर घसीट रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि राजनीतिक पार्टियों का यह हृदय परिवर्तन उनको बाजार में नीलाम करने के लिए है या फिर मंशा कुछ और है. ऐसे में मैं इस आशंका से उबरने के लिए एक जानकारी चाहता हूं कि क्या आप 6 लाख गांवों के इस देश में ऐसे छह गांव भी जानते हैं जहां दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत नहीं होती? छह छोड़िए, एक ही बता दीजिए. अगर नहीं तो आंबेडकर को अपने-अपने पाले में घसीटना छोड़कर पहले एक ऐसा गांव बनाइए और भरोसा रखिए वहां आंबेडकर खुद चलकर आ जाएंगे. आपको खुद के आंबेडकरवादी होने की बांग नहीं देनी पड़ेगी.’

वामपंथ और आंबेडकरवाद के बीच कोई सियासी सामंजस्य हो सकता है या नहीं, भविष्य में राजनीतिक मोर्चा जैसी कोई संभावना हो सकती है या नहीं, इस सवाल पर पत्रकार और जेएनयू के शोध छात्र दिलीप मंडल कहते हैं, ‘दलित आंदोलन की तरफ से  मार्क्सवाद की तरफ कोई हाथ बढ़ाया गया हो, इसके मुझे कोई संकेत नहीं दिखे हैं. मार्क्सवादी पार्टी के रहते हुए आंबेडकर ने अपनी पार्टी बनाई थी. उसकी जरूरत महसूस की थी. उनके लिए जाति का सवाल बहुत जरूरी था, सामाजिक लोकतांत्रिक समाज बने, यह सवाल बहुत जरूरी था. चूंकि लेफ्ट ने इस इश्यू को सीधे-सीधे कन्फ्रंट नहीं किया, इसलिए इस पार्टी की जरूरत महसूस की गई थी. आप कांशीराम को देखेंगे तो उन्होंने भी एक प्रयोग किया. वाम पार्टियों के रहते हुए भी आंबेडकरवादी आंदोलन का स्पेस था और लोगों ने अपने ढंग से काम करने की कोशिश की. नई चीज जो हुई है कि लेफ्ट ने पहली बार, अपने हाशिये पर चले जाने के दौर में, ये कोशिश की है कि जाति के सवाल को एड्रेस करें. पहली बार उन्होंने जातियों के सवाल पर सम्मेलन किए. पार्टी का ढांचा बदलने की बात की, हालांकि अभी तक हुआ ऐसा कुछ नहीं है कि जो सवर्ण वर्चस्व था पार्टी में उसको तोड़ने की कोशिश की हो. कुल मिलाकर एक नई प्रक्रिया शुरू हुई है. मुझे लगता है कि इस पर नजर रखनी चाहिए कि चीजें कहां तक जाती हैं. अभी यह दोतरफा प्रक्रिया नहीं है. उधर से चार कदम आगे बढ़े तो इधर से एक कदम कोई बढ़ाए, ऐसा मुझे नहीं दिखता. कैंपसों में जरूर वाम और आंबेडकरवादियों के बीच एक सिंथेसिस बना है, लेकिन कैंपस में वाम पर दलित लोग बहुत भरोसा कर रहे हैं, ऐसा लगता नहीं है.’

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साथ-साथ ? आंबेडकर जयंती पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य

आजादी की लड़ाई के समय से ही आंबेडकर की अपनी अलग लड़ाई रही थी, क्योंकि वे जातीय शोषण और भारतीय समाज की विषमता को खत्म किए बगैर दलित समाज की मुक्ति को असंभव मान रहे थे. इसलिए मार्क्सवाद से भी उनकी दूरी बनी रही. मार्क्सवादी रुझान के दलित लेखकों को यह उम्मीद है कि अगर मार्क्सवादी अपने विचारों और संगठनों में कुछ संशोधनों के साथ दलितों को जगह दें तो दोनों मिलकर बेहतर राजनीतिक विकल्प बन सकते हैं. लेखक कंवल भारती कहते हैं, ‘मार्क्सवादियों ने आंबेडकर के जमाने में उनको नकार दिया था, लेकिन आज उनको स्वीकार करने के लिए विवश हो रहे हैं वोट की राजनीति की वजह से. आंबेडकर ने तो जब लेबर पार्टी बनाई थी, उस समय कहा था कि जितनी भी सोशलिस्ट ताकतें हैं, वे सब हमारे साथ आ जाएं और मिलकर एक जॉइंट फ्रंट बनाएं. लेकिन उस समय तक कोई भी उनके साथ खड़ा होने को तैयार नहीं था. आज से 20-25 साल पहले नंबूदरीपाद तक आंबेडकर को साम्राज्यवाद का पिट्ठू कह रहे थे. आज वही वामपंथी आंबेडकर के साथ आने को कह रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्होंने आंबेडकर को भारतीय संदर्भ में समझने की कोशिश की है. मैं तो शुरू से कहता हूं कि वामपंथी विचारधारा जब तक भारतीयकरण नहीं करेगी अपनी राजनीति का, तब तक वह इस देश में विकल्प नहीं बन सकती.’

राजनीतिक संभावनाओं के सवाल पर कंवल भारती कहते हैं, ‘बाबा साहब पूरे मार्क्सवादी थे, पूरे समाजवादी थे. वे चाहते थे कि सब समाजवादी ताकतें मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाएं. अगर ऐसा हुआ होता तो सत्ता कांग्रेस के हाथ में आती ही नहीं. लेकिन ऐसी ताकतें कांग्रेस की पिछलग्गू थीं.’

वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच भी इस मसले पर बहस छिड़ चुकी है. मार्क्सवाद हर समस्या के मूल में वर्ग को देखता है तो आंबेडकरवाद जाति के सवाल के बिना आगे नहीं बढ़ता. हाल ही में बांदा में प्रकाश करात के बयान पर प्रतिक्रिया स्वरूप लेखक अरुण माहेश्वरी ने एक लेख में लिखा है, ‘मार्क्सवाद किसी भी संरचना के लक्षणों की, उसकी दरारों की पहचान कराता है. जाति से अगर वर्ग बनते हैं तो जातियों का अंत वर्ग का अंत नहीं हो सकता. यह एक संरचना का टूटना और उसकी जगह दूसरी संरचना का निर्माण है. इसीलिए कम्युनिस्टों ने जातिवाद के विरोध के साथ ही वर्ग संघर्ष पर हमेशा बिल्कुल सही बल दिया है. जातिवाद का खात्मा तो पूंजीवाद के विकास से भी होगा, लेकिन जातिवाद के अंत से पूंजीवाद का अंत नहीं होगा… आज जो लोग कम्युनिस्ट आंदोलन में आए गतिरोध के कारण जातिवाद के मसले के प्रति कम्युनिस्टों के नजरिये में किसी प्रकार के दोष में देख रहे हैं, वे पूरे विषय को सिर के बल खड़ा कर रहे हैं. कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी विफलता के कारण अपनी राजनीतिक कार्यनीति और सांगठनिक नीतियों की कमियों में खोजना चाहिए. मुश्किल यह है कि ऐसा करने पर पार्टियों के प्रभावी नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठने लगेंगे, जो कोई करना नहीं चाहता.’

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वामपंथियों ने कभी सामाजिक प्रश्न पर विचार नहीं किया : अभय कुमार दुबे

वामपंथी पार्टियों ने कभी सामाजिक प्रश्न पर पुनर्विचार नहीं किया. पार्टियों की जो लाइन तय की जाती है उसमें सामाजिक प्रश्न नहीं आए, जबकि आरएसएस इस पर व्यवस्थित तरीके से काम कर रहा है. वह वैदिक ज्ञान और आधुनिक संविधान में एक सूत्र स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. वामपंथी सही सवाल क्यों नहीं उठा रहे? वे दलितों के सवाल से बचते क्यों हैं? दलितों के सवाल बड़े जटिल हैं, क्योंकि वे असुविधा पैदा करते हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां दलित विमर्श और आंबेडकर के विचारों के जरिए अपना पुनर्संस्कार कर पाएं, इसके लिए तो उन्हें अपने विचारों में संशोधन करना चाहिए.

सीपीआई एमएल ने थोड़ा-सा वर्ग से अलग हटकर दलित महासभा बनाने का भी प्रयोग किया था. लेकिन उनका प्रयोग दो महीने नहीं चला. ऐसा क्यों हुआ? ये सीपीआईएमएल वही पार्टी है जिसको, जब मैं दिल्ली आया था तब दिल्ली के वामपंथी सर्किल में चमार पार्टी कहा जाता था. तो ऐसी पार्टी जिसे गरीबों और भूमिहीन दलितों का समर्थन हासिल था, उसने दलित महासभा बनाई तो वह दो महीने भी नहीं चली. इसकी सीधी वजह यह है कि जब तक आप सिर्फ वर्ग के सवाल पर फंसे रहेंगे तब तक न तो जाति के सवाल पर गंभीरतापूर्वक सोचेंगे, न ही जेंडर के साथ गंभीरता से विचार कर पाएंगे.

जो हो रहा है वह तो ऐतिहासिक है. मैं पिछले तीस सालों से राजनीति में दिलचस्पी रखता हूं, जो हो रहा है, ऐसा कभी नहीं देखा. लेकिन इसकी सीमा है कि ये छात्रों तक सीमित है. ये अभी कैंपस पॉलिटिक्स तक ही सीमित है. ज्यादा से ज्यादा बाहर जो कुछ बुद्धिजीवी वर्ग तक है, जो छात्रों के मुखातिब बहुत कम होता है. छात्रों में भी यह उन छात्रों तक सीमित है जिनमें से बहुत-से अब छात्र नहीं रहे. इस चीज का अगर हम लोग लाभ उठाना चाहते हैं और इस मुद्दे पर कोई ठोस और दीर्घकालिक राजनीति करना चाहते हैं, तो इस बारे में राजनीतिक दलों को सोचना पड़ेगा. जब तक राजनीतिक दल इस विषय पर नहीं सोचेंगे, तब तक यह मसला केवल लेखक संघों और छात्रसंघों द्वारा ही संचालित किया जा सकता है. और राजनीतिक दल कब सोचेंगे, कैसे सोचेंगे, ये मुझे नहीं पता. राजनीतिक दल अपनी सोच और अपनी स्थापित राजनीति बड़ी मुश्किल से बदलते हैं. उनको सामाजिक रूप से बहुत बड़ा धक्का लगता है तब वे अपनी रणनीति बदलते हैं. अभी मुझे नहीं लगता कि ऐसी स्थिति आई है कि वे इस दिशा में सोचें. इसका जो तुरंत राजनीतिक लाभ होगा, मुझे लगता है कि भाजपा रोहित वेमुला प्रकरण से पहले परमानेंट एलेक्टोरल बैलेट डेफिसिट के साथ आती थी और वो था अल्पसंख्यकों का घाटा. उसके पास अल्पसंख्यकों का घाटे का खाता था. अगर स्थिति इसी तरह से आगे बढ़ती रही और भाजपा अपनी कुल्हाड़ी से अपने पैर काटने की कोशिश करती रही तो उसका एक दूसरा परमानेंट डेफिसिट का खाता खुल जाएगा, वह है दलितों का खाता. अब देखने की बात है कि आगे क्या होगा.

(राजनीतिक विश्लेषक हैं. लेखक संगठनों के कार्यक्रम में दिए वक्तव्य के अंश)
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क्या घाटी में आईएस के झंडे लहराना आतंक की नई आहट है?

सभी फोटोः फैज़ल खान
सभी फोटोः फैज़ल खान
सभी फोटोः फैज़ल खान

20 साल का अंडरग्रैजुएट छात्र शबीर आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) का झंडा नहीं फहराता पर वह मास्क पहने हुए उस समूह का हिस्सा है जिसने श्रीनगर की बड़ी मस्जिद के बाहर सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाए थे. वह सड़क के दूसरी ओर खड़े आईएस के झंडे लहराने वाले युवकों की ओर प्रशंसा और समर्थन भरी नजरों से देखता है. साफ नजर आता है कि अगर मौका मिले तो शबीर भी इस तरह से झंडों को लहराना चाहेगा.

शबीर दुनिया को कश्मीर के अलगाववादी हलके की विचारधारा के माध्यम से देखता है जो उसके आसपास के सामाजिक दायरे में भी प्रचलित है. वह आईएस के बारे में कुछ मोटी-मोटी बातें जानता है. जैसे- बड़ी ताकतों के खिलाफ आईएस का पुरजोर संघर्ष और किसी से कोई समझौता न करने वाला उनका विचारधारात्मक रुझान. लेकिन आईएस के क्रूर व्यवहार के बारे में शबीर काफी कम जानता है और जो कुछ जानता है वह उसे इस्लाम का नाम बदनाम करने के लिए झूठे प्रचार के रूप में देखता है. लंबे और पतली कद-काठी वाले शबीर का कहना है, ‘जो लोग अल्लाह में ऐतबार के लिए अपनी जान दे सकते हैं, वे बुरे नहीं हो सकते हैं. सच्चा मुसलमान इस दुनिया और यहां की भौतिक सुविधाओं से प्यार नहीं करता.’ शबीर के भीतर भले ही आईएस के झंडे लहराने की इच्छा दबी हो लेकिन वह आतंकवादी नहीं बनना चाहता. उसका मानना है कि पत्थर फेंककर विरोध का तरीका बंदूक उठाने की अपेक्षा ज्यादा कारगर है. वह कहता है, ‘पत्थर फेंककर आप कश्मीर की समस्याओं की ओर तुरंत ध्यान खींचते हैं और ऐसा करने के लिए आपको भूमिगत भी नहीं होना पड़ता. लेकिन मैं बंदूक और बंदूक उठाने वालों की कद्र करता हूं. वे भी कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं.’

श्रीनगर के घनी बसावट वाले मुख्य इलाके में रहने वाले शबीर की उम्र के युवा कैसा सोचते हैं यह शबीर का नजरिया उसी का प्रतिबिंब है. 90 के दशक में शहर की गलियों में दिल दहलाने वाली हिंसा देखते हुए बड़ी हुई इस पीढ़ी के दिल में नई दिल्ली (भारत) के प्रति स्वाभाविक रूप से अलगाव का भाव है. इनके लिए भारत महज कोई दूसरा देश नहीं है, बल्कि उनके ऊपर मंडराता एक खतरा है. साथ ही कश्मीर में जो कुछ भी गलत हुआ है, इसके लिए ये युवा स्वाभाविक रूप से भारत को जिम्मेदार मानते हैं. पिछले 25 सालों से कश्मीर की तनावपूर्ण स्थिति जिसमें व्यापक पैमाने पर सेना की मौजूदगी, कश्मीरियों के साथ हर रोज होने वाली ज्यादतियां और आजादी की उनकी मांग की अनदेखी शामिल है, इन सबके लिए वे भारत को जिम्मेदार ठहराते हैं. वर्तमान स्थिति को लेकर भी युवाओं में गहरा असंतोष व्याप्त है. अपने दिलोदिमाग में वे इस असंतोष को ‘कश्मीर समस्या’ के तहत परिभाषित करते हैं.

वर्ष 2008-10 के दौरान फैले असंतोष में सुहैल अहमद ने 19 साल की उम्र में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले 12 लोगों के एक समूह का नेतृत्व किया था. सुहैल के अनुसार, ‘इस साल 26 जनवरी को जो कुछ भी हुआ वो सबके सामने है. श्रीनगर में कर्फ्यू लगा और इंटरनेट-फोन बंद कर दिए गए थे. क्या इस सबसे लगता है कि हम भारत का हिस्सा हैं?’ सुहैल को 2009 और 2010 में गिरफ्तार किया गया. उसके खिलाफ पुलिस ने तीन अलग-अलग थानों में एफआईआर दर्ज कराई थी. बकौल सुहैल, ‘ऐसा इसलिए किया गया ताकि मुझे जेल में अधिक समय तक रखा जा सके.’ बारामूला के खानयार इलाके के सुहैल बताता है कि इसी तरह उसके तमाम साथियों के खिलाफ थानों में केस दर्ज किए गए हैं.

श्रीनगर के मुख्य इलाके और दक्षिणी व उत्तरी कश्मीर के गांवों के युवाओं की प्राथमिकताओं में काफी अंतर है. इन गांवों के युवाओं में आतंकवाद की ओर रुझान बढ़ रहा है 

2010 में जब सुहैल कक्षा 12 में पढ़ता था तो पुलिस की ज्यादतियों के कारण और जूतों की दुकान में अपने पिता की मदद करने के लिए उसे स्कूल छोड़ना पड़ा. वह बताता है कि इन सबके बावजूद उसने कश्मीर के सवाल को नहीं छोड़ा. उसके शब्दों में, ‘श्रीनगर के मुख्य इलाके के युवा आजादी की जंग के स्वाभाविक योद्धा हैं. पत्थर फेंकने वाले समूह फिर से मजबूत हो गए हैं और हमें जो भूमिका मिली है, हम उसकी अनदेखी नहीं कर सकते.’

श्रीनगर में पत्थर फेंककर विरोध जताने का इतिहास पुराना है. कश्मीरियों ने पत्थर फेंकने का यह तरीका 1940 में तत्कालीन डोगरा राजवंश के अत्याचारों के खिलाफ शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में भी अपनाया था. 1947 में कश्मीरियों ने एक बार फिर से विरोध का यह तरीका तब अपनाया जब भारत और पाकिस्तान दोनों देश इस हिमालयी राज्य पर अपना-अपना दावा करने लगे. बाद के दशकों में कश्मीर के सवाल को लेकर जब-तब होने वाले राजनीतिक उबाल के समय या फिर भारत सरकार के खिलाफ उठने वाले असंतोष को जाहिर करने के लिए प्रदर्शनकारियों के लिए पत्थर सबसे मुफीद हथियार बन गए.

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90 के दशक में पत्थरों की जगह कहीं अधिक खतरनाक हथियार बंदूकों ने ले ली. चार लाख की आबादी वाले श्रीनगर में लगभग 12,000 आतंकवादी उठ खड़े हुए जो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ), हिजबुल मुजाहिदीन (एचएम), लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े थे. पिछले डेढ़ दशक के दौरान इनमें से अधिकांश आतंकवादियों को मारा जा चुका है और बाकियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा. इससे कश्मीर में हिंसा का ग्राफ बिल्कुल नीचे आ चुका है. 2010 तक श्रीनगर में आतंकवाद घटकर फिरदौस अबद बतमालू में रह रहे एक आतंकी सजाद अहमद खान तक सिमट गया. उसी साल जम्मू के राजौरी में यह आतंकी एक एनकाउंटर में मारा गया और इसी के साथ श्रीनगर को आतंकवाद मुक्त घोषित कर दिया गया. साथ ही बड़गाम और गांदरबल सहित श्रीनगर में अाफ्स्पा को बनाए रखने पर बल दिया गया. लेकिन आतंकवाद के गिरते ग्राफ से खाली हुई जगह फिर से पत्थर फेंकने वाले समूह ले रहे हैं ताकि स्थिति सामान्य न हो सके और ‘संघर्ष जारी’ रहे. श्रीनगर में आए दिन नकाबपोश युवाओं के कुछ समूहों की ओर से विरोध प्रदर्शन या बंद का आह्वान कर दिया जाता है. इन प्रदर्शनों के बीच पुुलिस और पैरामिलिट्री पर पत्थर फेंका जाता है.

2010 के बाद लगातार तीन गर्मियों के मौसम में पत्थर फेंकने का चलन व्यापक तौर पर बढ़ता ही गया. श्रीनगर के मुख्य इलाके से निकलकर यह दक्षिणी और उत्तरी कश्मीर के शहरी क्षेत्रों के साथ ही गांवों तक भी फैल गया. पत्थर फेंकने वाले इन प्रदर्शनों की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2011 में पत्थर फेंकने के जुर्म में पकड़े 1800 युवाओं को राज्य सरकार की एमनेस्टी योजना के तहत छोड़ा गया. पड़ोसी देश और बाकी दुनिया में बदलती जेहादी प्रवृत्तियों के प्रभाव में आकर कभी-कभी युवा लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान और अलकायदा के झंडे भी लहराते हैं. प्रदर्शनों के दौरान पत्थरबाजी फिर से शुरू होने से पहले विरोध करने वाली भीड़ से कुछ देर के लिए बाहर निकलकर कुछ युवा आईएस के झंडे मीडिया के सामने लहराते हैं और वापस उसी भीड़ में कहीं गुम हो जाते हैं. 25 साल के जाहिद रसूल के अनुसार, ‘आईएस के झंडे हम इस संगठन के समर्थन में नहीं लहराते बल्कि भारत को परेशान करने के लिए लहराते हैं. हमें वो सब कुछ पसंद है जिससे भारत नफरत करता है, ठीक वैसे ही जैसे हमारी आजादी से भारत नफरत करता है.’

बहरहाल, श्रीनगर के मुख्य इलाके और दक्षिणी व उत्तरी कश्मीर के गांवों के युवाओं की प्राथमिकताओं में काफी अंतर है. दक्षिणी कश्मीर के गांवों में युवाओं में आतंकवाद में शामिल होने के लिए रुझान बढ़ रहा है. पुलिस के अनुमान के अनुसार, 2015 में 100 से अधिक युवा आतंकी संगठनों में शामिल हुए. इन युवाओं में से अधिकांश दक्षिणी कश्मीर के त्राल, शोपियां और पुलवामा इलाकों से थे. इतना ही नहीं, पिछले एक दशक में पहली बार विदेशियों की तुलना में स्थानीय आतंकवादियों की संख्या बढ़ी है. पिछले साल अक्टूबर तक सक्रिय 142 सक्रिय आतंकियों में से 88 कश्मीरी थे, बाकी के आतंकी पाकिस्तान या फिर पाक अधिकृत कश्मीर से थे. 

दूसरी ओर, पिछले 25 सालों से उत्तरी कश्मीर का सोपोर इलाका हमेशा से आतंकवाद के लिहाज से संवेदनशील रहा है लेकिन पिछले साल उत्तरी कश्मीर के इलाकों में आतंकवादी अभियानाें को बड़ा झटका तब लगा जब हिजबुल मुजाहिदीन के लिए काम करने वाले आतंकी समूहों में विघटन हो गया. हिजबुल मुजाहिदीन में लंबे वक्त से कमांडर रहे अब्दुल कयूम नजर को संगठन से निकाल देना इसका बड़ा कारण रहा. दरअसल कयूम ने पाक अधिकृत कश्मीर के अपने आकाओं के आदेश की नाफरमानी करते हुए एक के बाद एक चार पूर्व आतंकियों और अलगाववादियों से हमदर्दी रखने वाले लोगों की हत्या करवा दी थी.

उधर, श्रीनगर के मुख्य इलाके में अब बंदूक के प्रति आकर्षण कम हो रहा है. इसे लेकर कुछ लोग काफी विश्वसनीय तर्क देते हैं. अगर शबीर की बात पर यकीन करें तो यह कदम काफी सोच-समझ कर उठाया जा रहा है. ‘हम लोगों ने हिंसक विरोध से शांतिपूर्ण विरोध तक की एक यात्रा पूरी की है. हम भारत के इस प्रचार को नकार देना चाहते हैं कि हम आतंकी हैं.’ हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं द्वारा बंदूक उठाने के फैसले का भी वो समर्थन भी करता है. बकौल शबीर, ‘आतंकवाद का पूरी तरह सफाया भी ठीक नहीं होगा. आजादी के आंदोलन को बनाए रखने के लिए कुछ मात्रा में आतंकवादी जरूरी है.’

बहरहाल, इन स्थितियों को लेकर सुरक्षा तंत्र का जो नजरिया है वह श्रीनगर के युवाओं से उलट है. मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत न होने का हवाला देते हुए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम जाहिर न किए जाने की शर्त पर बताते हैं, ‘इस स्थिति के दो पहलू हैं. पहला, जब से श्रीनगर में सुरक्षा बलों का दखल बढ़ा है तब से शहर में आतंकवाद का बने रहना मुश्किल हो गया है. दूसरा, बेशक युवाओं के एक वर्ग में बंदूक के प्रति आकर्षण बढ़ा है, लेकिन उनके लिए हथियार उपलब्ध ही नहीं हैं. ऐसा कुछ हद तक नियंत्रण रेखा पर बाड़बंदी और कुछ हद तक  पाकिस्तान की दिलचस्पी घटने के कारण हुआ है. इसलिए कश्मीर में अब पहले जैसे आक्रामक जेहाद की संभावना बहुत कम है.’ हालांकि इसी के साथ ये अधिकारी चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘ये स्थिति किसी भी वक्त बदल सकती है. जमीन तैयार है और कोई भी यहां नए सिरे से जेहादी गतिविधियों की नई  फसल तैयार कर सकता है.’

इसमें दो राय नहीं कि श्रीनगर के मुख्य या पुराने इलाके में भारत के प्रति विरक्ति का भाव बहुत गहरा है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि शहर ने खुद को शुरू से ही मुख्यधारा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखा है. क्लाशनिकोव राइफलों के साये में वर्षों बिताने के बाद यह शहर अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने के मिजाज में नहीं है. संभवतः ऐसा इसलिए कि गांवों की अपेक्षा शहरों में लोगों की याददाश्त ज्यादा समय तक जीवित रहती है. एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में आजादी और लोकतांत्रिक भागीदारी साथ-साथ चलती रही हैं वहीं श्रीनगर हमेशा से अलगाववादियों के लिए चुनाव-दर-चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बहिष्कार के लिए झंडाबरदार की भूमिका में रहा है. तमाम राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद श्रीनगर मुख्यधारा में कभी शामिल नहीं हुआ, लेकिन इसके बावजूद यहां के युवाओं ने विकल्प के तौर पर अनिवार्य  रूप से बंदूक को नहीं अपनाया. फिर भी युवा वर्ग को बंदूक के आकर्षण से मुक्त नहीं कहा जा सकता. आतंक को महिमामंडित करते तमाम फेसबुक पेजों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि बंदूक के प्रति आकर्षण किस कदर युवाओं को अपनी ओर खींच रहा है.

‘हम आईएस के झंडे समर्थन में नहीं लहराते बल्कि भारत को परेशान करने के लिए लहराते हैं. वो सब कुछ हमें पसंद है जिससे भारत नफरत करता है’

दक्षिणी कश्मीर के त्राल से हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर 22 वर्षीय बुरहान मुजफ्फर वानी के नाम पर दर्जन भर फेसबुक पेज हैं. वी लव बुरहान, बुरहान काॅलेज, त्रालः द लैंड आॅफ मार्टियर्स जैसे नामों से खुले इन पेजों पर जंगल में बुरहान केे गुप्त ठिकानों की तस्वीरें और वीडियो अपलोड किए जाते हैं. विभिन्न तस्वीरों में बुरहान को क्लाशनिकोव राइफल टांगे दिखाया गया है. तमाम वीडियो में भी उसे हथियारों से लैस अपने साथियों के साथ दिखाया गया है. अपलोड होने के साथ ही ऐसी तस्वीरों पर सैकड़ों लाइक्स और इन युवाओं के साहस की तारीफ करती टिप्पणियों की झड़ी लग जाती है. 2010 में सड़क के किनारे बने एक सुरक्षा कैंप में कथित रूप से सुरक्षा बलों द्वारा बुरहान को पीटने के बाद से उसके द्वारा बंदूक उठाने और कश्मीर में आतंकवाद को फिर से जीवित करने के लिए लोग उसकी तारीफ करते हैं.

बुरहान के प्रति युवा वर्ग की यह दीवानगी बढ़ती दिखाई दे रही है. ‘बुरहान काॅलेज’ पेज पर एक टिप्पणी के अनुसार, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं बुरहान. मैं तुम्हारा काॅलेज जॉइन करना चाहता हूं और मैं तुम जैसा बनना चाहता हूं’. सबसे ताजा पोस्ट ‘जिहाद के बारे में हमेशा सकारात्मक सोच रखो’ है. इसे अपलोड किए जाने के एक घंटे के भीतर इसे 300 लाइक और 62 टिप्पणियां मिल जाती हैं. इसी तरह बुरहान के नाम से चलाए जा रहे एक अन्य अकाउंट पर बुरहान की ओर से अपने पिता के लिए संदेश लिखा गया है, ‘चिंता मत कीजिए पापा आपका बेटा सही राह पर है. मैं इस्लाम के लिए लड़ रहा हूं. मैं खिलाफत के लिए लड़ रहा हूं. हम सारी दुनिया पर राज करेंगे. हम खिलाफत लाएंगे.’ इस पोस्ट में एक ओर बुरहान के पिता की तस्वीर लगी है जिसके नीचे लिखा है, ‘मैं आपसे प्यार करता हूं पापा. मैं एक मुजाहिद हूं जो इस्लाम के लिए मरने के लिए पैदा हुआ है.’

फेसबुक के साथ-साथ बुरहान के आक्रामक सार्वजनिक संवाद का दायरा वाॅट्स एेप और शहर की गलियों की दीवारों पर चित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है. त्राल में एक दुकान की शटर पर लिखा है, ‘बुरहान वापस आ रहा है.’ इसी तरह श्रीनगर के बाहरी इलाके पम्पोर में विभिन्न गलियों की दीवारों पर ‘त्राल, बुरहान जिंदाबाद’ लिखा हुआ मिल जाता है. बहरहाल, यह अति सक्रिय आॅनलाइन जेहादी आंदोलन अब तक श्रीनगर के युवाओं को ललचा नहीं सका है.

90 के दशक में आतंकवाद श्रीनगर के बाहर भी फैल गया था. अब श्रीनगर के सीमांत इलाकों में आतंकवाद फिर से अपना फन फैला रहा है. हालांकि अब तक यह श्रीनगर के भीतर प्रवेश नहीं पा सका है. लेकिन उत्तरी और दक्षिणी कश्मीर में उन हजारों लोगों को लंबे वक्त तक अनदेखा करना मुश्किल होगा जो आतंकवादियों के जनाजे में शामिल होते हैं और मातम मनाते हैं. यह स्थिति लोगों में नए सिरे से आतंकवाद के प्रति लगाव की ओर इशारा करती है. अपने आॅनलाइन अभियानों से आतंकवादी इस तरह की भावनाओं को बल देते हैं.

कुछ समय पहले पुलवामा के बाटापोरा में शकीर अहमद नाम के एक आतंकवादी के जनाजे में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए. इसमें तीन आतंकी भी थे और इस जनाजे का वीडियो वायरल हो गया था. इसके बाद जदूरा के एक कब्रिस्तान में कुछ आतंकियों ने अपने साथी मुफीद बशीर उर्फ रकीब की कब्र पर 21 बंदूकों से सलामी दी. उत्तरी कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियानों का हिस्सा रहे­­­ एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘घाटी में आईएस के झंडों के लहराने का मतलब तत्काल रूप से आतंकवाद भले ही न हो, लेकिन हम इसे पूरी तरह से नकार नहीं सकते. तालिबान और आईएस जैसे जेहादी आतंकी संगठनों की कुछ मोर्चों पर हुई जीत के कारण भू-राजनीतिक स्थितियों में आतंकवाद के अनुकूल स्थितियों में बदलाव आया है. इसलिए तस्वीर किसी भी समय बदल सकती है.’

(पहचान छिपाने के लिए सभी युवाओं के नाम बदले गए हैं)

केन मेरे लिए केदारनाथ की कविताओं की तरह थी, लेकिन उस दिन इस नदी से जुड़े सारे ‘भ्रम’ टूट गए

Tarangire_River_Tanzania_in_July_(Dry_season)

इस बार दिल्ली में ठंड सिर्फ नाम के लिए आई. फरवरी आते-आते गायब. उस रात हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से ट्रेन पकड़ते वक्त भी ठंड का एहसास नहीं हुआ. यह बुंदेलखंड की मेरी पहली यात्रा थी, जिसका पहला पड़ाव बांदा था. आम तौर पर ट्रेन में घुसते ही मुझे नींद आ जाती थी, लेकिन उस रात ऐसा नहीं हुआ. 10 से 11 घंटे की यात्रा में अधिकांश समय टकटकी में गुजर गया. सिर्फ चार घंटे ही सो पाई और वह नींद भी किस्तों में नसीब हुई. ऐसा शायद बांदा पहुंचने की उत्सुकता की वजह से हुआ था. खैर, सुबह-सुबह संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बांदा स्टेशन पहुंच चुकी थी.
सफर पर निकलने से पहले ही दोस्तों और परिचितों ने घूमने-फिरने की एक लंबी लिस्ट पकड़ा दी थी, ‘देखो! बांदा जा रही हो तो कालिंजर का किला जरूर देखना, भूरागढ़ का किला भी, वहां पहाड़ों के ऊपर एक मंदिर बना है, वहां जरूर जाना. जामा मस्जिद देख आना और हां, अगर समय हो तो केन नदी भी देख आना और केदारनाथ अग्रवाल ने जो लाइब्रेरी बनाई है, वो भी.’

गंगा किनारे की लड़की होने के नाते बचपन से ही नदियों से एक स्वाभाविक प्रेम रहा है. इसलिए स्टेशन से बाहर निकलते ही रिक्शा वाले भइया से केन नदी ले जाने को कहा. केन यमुना का अभिन्न अंग है. केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की कविताओं में केन के बारे में बहुत पढ़ा था. दूर से ही नदी की छोटी पहाड़ियां दिखने लगी थीं. सोचने लगी शायद केन भी नर्मदा जैसी ही पहाड़ियों के ऊपर से बहती होगी. मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी. धीरे-धीरे रिक्शे की गति कम हो रही थी और फिर रिक्शा रुक जाता है. मैं रेलवे लाइन पार कर केवटों के एक छोटे-से मोहल्ले से होते हुए केन किनारे पहुंच गई. किनारे पर पहुंचते ही मानो आंखों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया. इस नदी से जुड़े कई भ्रम टूट चुके थे. ‘नहीं-नहीं! ये केन नहीं हो सकती.’

आपत्तियों के बावजूद यमुना किनारे हुए एक कार्यक्रम में शीर्ष नेताओं का पहुंचना बताता है कि वे नदियों को लेकर कितने सजग हैं

दरअसल केन मेरे लिए केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की तरह थी. बांदा जिले के कमासिन में जन्मे केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविता में लिखते हैं, ‘मैं घूमूंगा केन किनारे/यों ही जैसे आज घूमता/लहर-लहर के साथ झूमता/संध्या के प्रिय अधर चूमता/दुनिया के दुख-द्वंद्व बिसारे/मैं घूमूंगा केन किनारे.’ लेकिन केन किनारे ऐसा कुछ नहीं था जहां घूमा जा सके, जिसे निहारा जा सका. यहां न तो पेड़ दिख रहे थे, न ही नदी की धार. नजर आ रहे थे तो सिर्फ बालू के पहाड़ जो केन का सीना खोदकर निकाले जा रहे थे. नदी का पाट गंदगी से भरा था. पास में ही एक व्यक्ति फावड़ा लिए नदी से बालू निकाल रहा था. उसे टोकने पर वह सिर्फ इतना बताता है कि वह लोगों के हित के लिए काम कर रहा है. इसके आगे कुछ भी बताने से वह इनकार कर देता है और वापस बालू खोदने के अपने काम में लग जाता है. नदियों से बालू का अवैध खनन आम बात है. बांदा से दिल्ली लौटने के बाद अक्सर केन की हालत आंखों के सामने नजर आने लगती है.

केन नदी को लेकर मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक हो गई थी, तभी उसकी हालत देखकर इतना धक्का लगा था. हमारे देश में अधिकांश नदियों की हालत कमोबेश ऐसी ही है. केन की हालत देखकर यमुना की याद आ गई. हाल यह है कि नदियों के नाम पर हमारी याद सिर्फ गंगा-यमुना पर आकर टिक जाती है. दूसरी नदियों की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता. बीते मार्च में यमुना के खादर में आयोजित विश्व स्तर के एक कार्यक्रम ने इस बात की ओर ध्यान खींचा कि नदियां अब हमारी प्राथमिकता में नहीं हैं. नदियों को लेकर हमारे राजनीतिज्ञ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. बड़ी योजनाएं चलाते हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है. तमाम आपत्तियों और जुर्माना लगाने के बावजूद वह कार्यक्रम यमुना किनारे होता है और हमारे शीर्ष नेता इसमें शामिल होकर इस बात का सबूत पेश करते हैं कि नदियों की हालत सुधारने को लेकर वे कितने सजग हैं.

(लेखिका पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं)

‘मित्रो’ को आज अपनी सेक्सुअल डिजायर व्यक्त करने का अधिकार है और इसे उसने अर्जित किया है…

सभी फोटोः विजय पांडेय
सभी फोटोः विजय पांडेय
सभी फोटोः विजय पांडेय

‘मित्रो मरजानी’  के 50 साल पूरे हुए हैं, आज मित्रो को कहां पाती हैं?

अब मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही, समय के साथ-साथ वह एक व्यक्तित्व में बदल गई है. वह अब एक संयुक्त परिवार की स्त्री नहीं है जो हर बात में पीछे रखी जाती है. उसे अपनी सेक्सुअल डिजायर व्यक्त करने का भी अधिकार है और ये अधिकार उसने अर्जित किया है. और यह एक विस्मयकारी बात भी है कि एक इतना चुलबुलाहट पैदा करने वाला नाम अब इतनी गंभीरता से लिया जा रहा है. पिछली सदी की जो दस बड़ी किताबें हैं उनमें मित्रो मरजानी आती है और ये मैं जानती हूं कि ये लेखक का काम नहीं है. ये उसका अपना व्यक्तित्व था, जिसे उसने खुद तैयार किया.

मित्रो को आए आधी सदी बीत चुकी है. इस काल खंड में स्त्री स्वतंत्रता और समानता के अधिकार पर ढेरों बहसें हुईं. इन बहस-मुबाहिसों के बीच क्या मित्रो अब भी कहीं खड़ी है?

देखिए, मित्रो इसी दुनिया का हिस्सा है और अब दुनिया बदल रही है. अब हमारे एक छोटे-से गांव की लड़की को भी जागृति है कि मैं वह नहीं जो मैं हुआ करती थी. और वह इस बात को खुद में ही नहीं टटोलती बल्कि दुनिया में भी देखती है. तब उसे वो शब्द याद आते हैं जो उसने तब कहे थे जब वो शिक्षित भी नहीं थी. अगर ऐसा न होता कि उसकी उलझनों के पीछे वह गंभीरता न होती जिसका संबंध सिर्फ आजादी से नहीं था, शिक्षा से भी नहीं था पर उसका संबंध सेक्स से भी है, जिसे ये मान लिया गया है कि उस पर महिलाओं का कोई अधिकार नहीं है. उस पर सिर्फ पुरुषों का अधिकार है. ये भी अजीब बात है कि इस वक्त पूरी दुनिया में इस बात का एहसास तीखा होकर उभर रहा है कि स्त्री, जिसे इस पूरे लोक को कायम रखने की ताकत दी गई, उसे हम नीचे कुचल रहे हैं. इसके पीछे कई कारण भी हैं. हमारे यहां संयुक्त परिवार ने कई बातों का अपने रूप में अनुवाद करके स्त्री पर थोपा हुआ है. पर अब शिक्षा के साथ, आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ये बदलेंगी.

50 साल पहले की मित्रो अपनी सेक्सुअल डिजायर को लेकर जिस आजादी की बात करती है वह वर्तमान में भी नहीं दिखती. शिक्षा, समानता और आर्थिक अधिकारों की बात होती है पर स्त्री अपनी यौन इच्छाओं को जाहिर नहीं कर सकती. इसे  ‘नैतिकता’  के परदे में डाल दिया गया है.

ये दुनिया बहुत बड़ी है. इसमें कई तरह के आवरण हैं. आज जो लड़कियां शिक्षित हैं, पढ़ रही  हैं उन्हें इस बात का एहसास है. हमारे समाज में इन बातों को लेकर नैतिकता का जो कोड है वो बहुत सख्त रहा है. पर अब ये बदलेगा क्योंकि अब वह सिर्फ घर में नहीं है, परिवार में नहीं बाहर भी है. वह अपनी जीविका कमा रही है. मेरा तो यह कहना है कि जब तक कोई व्यक्ति अपनी जीविका नहीं कमाता वह पूरा नागरिक ही नहीं है. वो भी इस समाज में, जहां संयुक्त परिवार हैं. संयुक्त परिवार में जितनी भी खूबियां हों, यह आपको और स्त्रियों को कितनी भी सुरक्षा देता हो, पर उनके आत्मबल, आत्मविश्वास को कम कर देता है.

तो ये कह सकते हैं कि कहीं न कहीं संयुक्त परिवार स्त्रियों को पीछे खींचता रहा है?

जी, बिल्कुल खींचता रहा है और अब जो परिवर्तन हो रहा है वो सिर्फ इसलिए कि बेटियां बाहर निकल रही हैं, बेटे देश से बाहर जा रहे हैं. परिवार का जो पहला स्वरूप था वो छिन्न-भिन्न हो रहा है. ये तो समाजशास्त्री भी मानेंगे.

पर समाजशास्त्रियों का ये भी कहना है कि एक समाज के बतौर इन संयुक्त परिवारों का टूटना नकारात्मक है. पर अगर स्त्रियों की बात करें तो संयुक्त परिवार से निकल कर ही वे कुछ कर पाती हैं.

बिल्कुल. मैं खुद संयुक्त परिवार से हूं पर मेरी अपनी आजादी का एक हिस्सा है जो सभी संयुक्त परिवारों में नहीं मिलता. वहां आपको सुरक्षा मिलती है यानी अगर आप नहीं भी कमा रहे हैं तब भी आराम से रह सकते हैं. लोग इन्हीं बातों पर समझौते करते हैं. इसके अलावा एक व्यक्ति के रूप में अकेले रहकर अर्जित की हुई खूबियां नहीं आ सकतीं. संयुक्त परिवार में अपना अलग अस्तित्व बना पाना बहुत मुश्किल है.

आज जब स्त्री मुद्दों पर बात होती है तब उसे स्त्री विमर्श का नाम दिया जाता है. इस स्त्री विमर्श पर क्या कहेंगी?

ये जो शब्द है ये भी एक खास किस्म की इंटेलेक्चुअल धोखाधड़ी है. इस तरह की बातों से आप एक तरह से उन्हें गलत रास्ते पर जाने के लिए लगातार प्रोत्साहित कर रहे हैं कि तुम्हारी सुरक्षा का प्रश्न है तो इतना तो चलेगा. और इसके साथ हमारी नैतिकता भी चलेगी. आप किसे कह रहे हैं नैतिकता! आज की तारीख में चीजें बदल गई हैं. अब पुरानी चीजें नहीं चलेंगी. अब ये एक स्वतंत्र लोकतंत्र है. लोकतंत्र होने की कुछ शर्तें होती हैं, उसकी एक जलवायु होती है. अगर आप अपने समाज के एक हिस्से को लगातार दबाए रहेंगे तो ये मानकर चलिए कि आपकी अगली पीढ़ियां वैसी नहीं होंगी जैसा उन्हें होना चाहिए.

सालों पहले मित्रो जिस तरह अपनी शारीरिक इच्छाओं को लेकर आजादी की बात करती है, अब तक कहीं चर्चा का हिस्सा नहीं है.

हमें ये कहने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि हम कुछ चीजों पर अटक जाते हैं. उनसे जुड़े रहना चाहते हैं. हम दिखाना चाहते हैं कि हम बदल रहे हैं पर हम इतना ही बदल रहे हैं जितनी हमारी सहूलियत है.

पहले तो स्त्रियां लिखती नहीं थीं, न साहित्य का हिस्सा ही होती थीं, अब वे बहुत संघर्ष के बाद वहां पहुंची हैं. तो अभी इस नई मिली आजादी को महसूस कर रही हैं. वे बदलाव की तरफ अग्रसर तो हैं

साहित्य में महिलाएं कहां हैं? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो स्त्री प्रेम और त्याग में ही अटकी हुई है.

साहित्य की बात कुछ बदलकर करनी होगी. हमारे यहां समाज के बदलने की रफ्तार जरा धीमी है. पर चीजें बदलती हैं. तो ये बातें अपने आप आती हैं. आप किसी पर थोप नहीं सकते कि तुम्हें क्या करना चाहिए. पहले तो स्त्रियां लिखती भी नहीं थीं, न साहित्य का हिस्सा ही होती थीं, अब वे बहुत संघर्ष के बाद वहां पहुंची हैं. तो अभी इस नई मिली आजादी को महसूस कर रही हैं. वे बदलाव की तरफ अग्रसर तो हैं.

पर जिस तरह समाज बदला है उस बदलाव को साहित्य में उतनी जगह नहीं मिली है.

ये वो देश है जहां नागार्जुन ने कहीं लिखा है कि घर में भी मेरी और मेरी पत्नी की बात नहीं होती थी तो हमने सोचा कहीं भाग चलते हैं. तो जिस तरह का दबाव समाज में है वो साहित्य में भी है. वैसे कुछ लेखिकाओं के लेखन में आपको नयापन मिलेगा.

कृष्णा सोबती का नाम उन कुछ हिंदी साहित्यकारों में शुमार है जिनकी किताबों के अंग्रेजी अनुवादों को भी खासा सराहा गया. मित्रो मरजानी के अलावा डार से बिछुड़ी, ऐ लड़की, सूरजमुखी के घेरे और समय सरगम को अंग्रेजी में अनूदित किया गया
कृष्णा सोबती का नाम उन कुछ हिंदी साहित्यकारों में शुमार है जिनकी किताबों के अंग्रेजी अनुवादों को भी खासा सराहा गया. मित्रो मरजानी के अलावा डार से बिछुड़ी, ऐ लड़की, सूरजमुखी के घेरे और समय सरगम को अंग्रेजी में अनूदित किया गया

2010 में आपने पद्म सम्मान लेने से मना किया. तब आपने कहा था कि लेखक को शासक वर्ग से दूर होना चाहिए. वजह?

मैं अब भी ऐसा ही सोचती हूं. अगर शासक और राजनीतिक दलों द्वारा अपने फायदे के लिए ऐसे सम्मान मिलते हैं तो उससे आप बड़े नहीं हो जाते. इसके बिना आपके पास ये अधिकार रहता है कि अगर आपको कोई बात गलत लग रही है तो आप उस पर बोल सकते हैं.

तो क्या ये समझें कि ये पुरस्कार इसलिए दिए जाते हैं ताकि आप शासन का पक्ष लें?

प्रबुद्ध वर्ग का विरोध का अपना तरीका होता है. जैसे कुछ समय पहले पुरस्कार वापस किए गए. मेरे हिसाब से ये विरोध जताने का सबसे विनम्र तरीका था पर जब आप इसे भी गालियां दे रहे हैं तो ये गलत है. ये समझना चाहिए कि ये एक ऐसा मुल्क है जहां कोई साधारण लेखक हो या बड़ा, उसके पास ये अधिकार तो है कि वो जो सही समझता है उसे कह सके.

इस बार पुरस्कार वापसी पर भी लेखकों का विरोध हुआ. कहा गया कि ये मोदी विरोधी लेखक हैं जो ऐसा कर रहे हैं.

इस तरह की भाषा और अभिव्यक्ति का ये रूप सही नहीं है. एक लोकतंत्र को ऐसे तरीकों की जरूरत नहीं है. कितने संघर्ष के बाद हमें आजादी मिली, संविधान मिला है, हमें इसे कीमती समझते हुए इसकी सुरक्षा करनी चाहिए. पर इन सबके बीच मैं इन बातों के लिए खुश हूं कि इतनी गलत बातों के बीच भी हमारे राष्ट्रपति ऐसी बातें कह देते हैं जिन पर नागरिकों और राजनीतिक दलों को भी गौर करना बहुत जरूरी है.

कुछ समय पहले पुरस्कार वापस किए गए. मेरे हिसाब से ये विरोध जताने का सबसे विनम्र तरीका था. ये एक ऐसा मुल्क है जहां लेखक के पास ये अधिकार तो है कि वो जो सही समझता है उसे कह सके

वर्तमान सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वह असहमति के अधिकार को छीन रही है.

हां पर ये बिल्कुल गलत है. ये अच्छी बात नहीं है. हम इस देश के नागरिक हैं, हमारे भी कुछ अधिकार हैं. आप उन्हें नहीं छीन सकते.

बुद्धिजीवियों का एक तबका बार-बार कह रहा है कि ये फासीवाद के लक्षण हैं. क्या ये हिंदू पाकिस्तान बनाने की राह पर हैं?

हमारे पास पॉलिटिकल आइडेंटिटी बनने का एक पूरा इतिहास है. हमने पाकिस्तान बनते देखा है. मैं कह सकती हूं कि जिस रास्ते पर ये चल रहे हैं और टुकड़े हो जाएंगे. जब आप लोगों में इतनी नफरत पैदा करेंगे तो इसका नतीजा क्या होगा! आप जो कर रहे हैं वो गलत है, आप इसमें कामयाब नहीं होंगे. और अगर हो भी गए तो इससे आपका ही नुकसान होगा.

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विश्वविद्यालयों में भी प्रतिरोध के स्वर लगातार उठ रहे हैं. देश के कई नामी विश्वविद्यालय चाहे हैदराबाद हो, जेएनयू या इलाहाबाद विश्वविद्यालय विवादों में हैं. राजनीति के इस तरह से विश्वविद्यालयों में पहुंच जाने पर क्या कहेंगी?

आप हर चीज को अपनी विचारधारा के अनुरूप नहीं बना सकते जबकि असल में वो कोई विचारधारा भी नहीं है. आपकी विचारधारा कुछ नहीं है. देश के लोग प्रबुद्ध हैं. वे सब समझते हैं. एक किसान चाहे पढ़ा-लिखा न हो पर वो भी अपना अच्छा-बुरा सब समझता है. हमारी पीढ़ी के लिए ये देखना बेहद तनाव भरा है. आप उर्दू लेखकों से लिखवाते हैं कि आप सरकार के खिलाफ नहीं लिखेंगे! आप बिना क्रिटिकल हुए तो खुद को बेहतर नहीं बना सकते तो क्या सरकार बिना आलोचना के खुद को बेहतर बना सकती है!

नई पीढ़ी क्या करना चाहती है, वो हमसे कितनी आगे है ये पता होना चाहिए, तभी आप आगे बढ़ पाएंगे. पिछले दिनों एक कार्यक्रम में कन्हैया कुमार और उनके साथियों से मिलना हुआ. वे लोग कितने स्पष्ट हैं कि उन्हें क्या चाहिए, उन्हें क्या करना है. मुझे उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा. और ऐसा इसलिए है कि वे बहुत कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं, वे हिंदी पढ़ते हैं. वे लोग हमारी तरह नहीं हैं जो ब्रिटिश समय में पढ़े हैं. सरकार को सोचना चाहिए कि वो इस पीढ़ी के साथ क्या कर रही है! नयी पीढ़ी के पास ऊर्जा है, ख्याल हैं, ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं फिर भी वे आगे बढ़ रहे हैं. आपका मुल्क उनसे आगे बढ़ेगा.

समाज में धर्म अौर जाति के आधार पर भेदभाव बढ़ रहा है. किसी भी तरह का विवाद हो उसे हिंदू-मुस्लिम रंग दे दिया जाता है.

इसके पीछे बस एक रणनीति है हिंदू राष्ट्र, जिसमें ये कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. और ऐसा कभी देखा नहीं होगा कि हिंदुओं की मेजॉरिटी के बावजूद आप मुस्लिमों से डर रहे हैं! क्यों? और आप देश, समाज में उनका योगदान भूल रहे हैं. हर क्षेत्र में चाहे कला हो, संगीत या साहित्य. पर अब जो बच्चे बड़े हो रहे हैं वो बिल्कुल अलग हैं. कुछ समय पहले एक टीचर कुछ बच्चों को मुझसे मिलवाने लाई थीं. उनमें से कुछ थोड़े कमजोर तबके के भी थे. एक बच्चे ने बताया कि उसके पिता कबाड़ का काम करते हैं. ये बात कई बच्चों को हतोत्साहित कर सकती है पर उस बच्चे में वो आत्मविश्वास था. कोई भेदभाव नहीं, कोई गिला नहीं. ये आजाद मुल्क है. तो जब ये बच्चे बड़े होंगे तो मैं नहीं समझती ये किसी भेदभाव में विश्वास करेंगे.

हिंदू राष्ट्र बनने के सपने का कोई भविष्य है?

नहीं. यह कभी सफल ही नहीं हो सकता. विश्व में कितने मुस्लिम राष्ट्र हैं तो क्या इस समय उनकी भाग-दौड़, वहां हो रही हलचल हम नहीं देख पा रहे हैं! आप क्या सोचते हैं कि आप क्या नया करेंगे किसी एक धर्म विशेष के आधार पर राष्ट्र बनाकर!

लेखक, बुद्धिजीवी और विद्यार्थी अपनी राय जाहिर करने पर विरोध का सामना कर रहे हैं. क्या असहमति को दबाना इस तरह लोकतंत्र के खिलाफ है?

बिल्कुल है. इतनी सदियों बाद देश में लोकतंत्र आया है और जिस तरह से ये शासन कर रहे हैं, ये सबूत है कि इतनी बुरी तरह से तो बाहर के लोगों ने भी हम पर शासन नहीं किया. विरोध करना कोई बुरी बात नहीं है, इससे आप विकास करते हैं.

आपने विभाजन से पहले का संघर्ष भी देखा है. उस वक्त भी शासक वर्ग के प्रति असंतोष था. क्या आज के हालात वैसे ही हैं?

आज माहौल उससे बहुत ज्यादा खस्ता है. उस समय बात राजनीतिक पहचान की थी जो अब नहीं है.

उनकी बस एक रणनीति है हिंदू राष्ट्र, जिसमें ये कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. और ऐसा कभी देखा नहीं होगा कि हिंदुओं की मेजॉरिटी के बावजूद आप मुस्लिमों से डर रहे हैं! क्यों?

यदि मित्रो 2016 में लिखी जा रही होती तो…

इस पर मुझे एक बात याद आती है. मित्रो मरजानी में एक जगह मित्रो की सास वंश बढ़ाने के बारे में कहती है, तो मित्रो जवाब देती है कि ये तुरत-फुरत का खेल नहीं है कि एक ही मिनट में जिंद बोलने लगे. जब इसका मंचन हो रहा था तो ख्याल ये था कि लोग हंसेंगे पर हम सब चकित रह गए जब कोई हंसा नहीं. तो इस तरह की कंडीशनिंग है. लोग खुद भी जानते हैं कि कैसे उन्होंने स्त्री को दबाकर रखा है.

मित्रो मरजानी में एक जगह मित्रो कहती है  ‘जिंद जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म!’  जिस तरह की सेक्सुअल लिबर्टी की बात मित्रो कर रही है, हिंदुस्तान के मुख्यधारा के साहित्य में ऐसा कभी नहीं देखा गया था. एक पितृसत्तात्मक समाज में लिख पाने की प्रेरणा कैसे मिली?

देखिए, साफ कहूं तो लेखक बहुत कुछ नहीं कर सकता, ये उनकी गलतफहमी होती है. हड्डी पात्र की मजबूत होती है और उसी की जरूरत होती है. मैं उस वक्त राजस्थान में थी. वहां कुछ मजदूर काम कर रहे थे. वहां एक ठेकेदार और औरत थे. औरत ने लहंगा पहना हुआ था और छोटा-सा घूंघट भी निकाल रखा था. ठेकेदार ने उसे अपने पास बुलाने के लिए एकदम तपी हुई आवाज में पुकारा, ‘आजा री’ और वो औरत जोर से हंसी और बोली, ‘इस लहंगे की मांद में आ गए तो गए काम से!’ मैंने बस ये सुना. मैंने यही सोचा कि ये इन शब्दों से ज्यादा कुछ है. राजस्थानी मुझे ज्यादा नहीं आती पर उसमें बहुत ज्यादा टीस है. और फिर पात्रों को रचने का तरीका होता है. अगर आपने एक कोरे कागज पर कोई एक लाइन खिंची देखी है तो लिखते समय आप तीन जगह अपनी ताकत बांटते हैं…पहली उस लाइन की जो आपने देखी है, दूसरी लेखक की अपनी ताकत और फिर पात्र की. अगर पात्र में जान न हो तो आप क्या करेंगे? और अगर आप पात्र को पहचानते नहीं हैं फिर क्या! और एक बात, लेखक को न तो पात्र को अपने से नजदीक रखना है न बहुत दूर रखना है. तब आप किरदारों को नियंत्रित कर सकते है. मैं ये कह सकती हूं कि भाषा के तारतम्य से ही ये किरदार निकला.

आपके स्त्री किरदार बहुत स्वतंत्र हैं, जो जिस दौर में वे लिखे गए, उस समय की सच्चाई से बिल्कुल उलट हैं. ये कैसे हुआ?

मेरी परवरिश संयुक्त परिवार में हुई है पर हमें बहुत आजादी मिली साथ ही अनुशासन भी था. तो शायद इसी का प्रतिबिंब इन किरदारों पर है.

आपकी अधिकतर किताबों के अंग्रेजी अनुवाद हुए हैं, हिंदी के कम ही लेखकों के काम को ऐसी सराहना मिली.

(हंसते हुए) मैं तो बोर हो जाती हूं. एक बार किताब प्रकाशित हो जाती है फिर मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं सोचती.

बच्चों को हथियार बनाते माओवादी!

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Illustration- Tehelka Archives

तीन मार्च को झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के जमदी और कटिया गांवों से एक खबर आती है. भाकपा माओवादी ने दोनों गांवों से बच्चों की मांग की है. इसे न मानने पर जंगल से जलावन के लिए लकड़ी काटने और पशुओं को चराने पर रोक लगा देने की बात कही गई है. यह खबर जंगल में आग की तरह पूरे इलाके में फैल चुकी है लेकिन कोई इस आदेश की पुष्टि करने को तैयार नहीं होता. कुछ लोग दबी जुबान यही बताते हैं कि ऐसा हुआ है.

माओवादी कमांडर नकुल यादव ने 28 फरवरी को गांव में बैठक की थी. बैठक के बाद धमकी दी गई है कि जिन घरों में बच्चों की संख्या दो से ज्यादा है वे अपने बच्चों को माओवादी दस्ते में शामिल करने के लिए सौंप दें. यह काम 15 दिन के अंदर हो जाना चाहिए. गांववाले इस बात की पुष्टि नहीं करते, लेकिन पुलिस की गतिविधियों से इस चेतावनी की पुष्टि होती है. बैठक के बाद एक मार्च को इन दोनों गांवों में पुलिस ने विशेष अभियान चलाया. यह अभियान इसलिए था ताकि ग्रामीणों को नक्सलियों के खौफ से बेखौफ बनाया जा सके. अभियान का नेतृत्व खुद जिले के एसपी ने किया.

गुमला की यह खबर दब जाती है. जिले के ग्रामीण इलाकों में इस पर चर्चा होकर रह जाती है और राजधानी रांची तक तो यह खबर कायदे से पहुंच भी नहीं पाती. ऐसा इसलिए होता है कि ऐसी घटनाओं को गुमला जैसे जिले की नियति जैसा मान लिया गया है. पिछले साल भी ऐसी ही खबर गुमला से आई थी. 22 अप्रैल, 2015 को यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी थी कि गुमला के ग्रामीण क्षेत्र से 35 बच्चों को उठाकर नक्सली ले गए हैं. यह खबर तब इतनी बड़ी थी कि हाई कोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय समेत झारखंड और छत्तीसगढ़ की पुलिस से पूछा था कि अखबारों में बच्चों को नक्सलियों द्वारा उठा लिए जाने की खबर पर सरकार क्या कर रही है. तब केंद्रीय गृह मंत्रालय और छत्तीसगढ़ सरकार ने क्या कहा था, हाई कोर्ट की बातों को कितनी गंभीरता से लिया था इसकी तो जानकारी नहीं है, लेकिन झारखंड सरकार ने मई, 2015 में हाई कोर्ट में कहा था कि तीन प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं, बच्चों को बरामद करेंगे. बाद में राज्य के डीजीपी डीके पांडेय ने कहा कि बच्चों को मुक्त कराने तक अभियान जारी रहेगा. न बच्चे रिहा हुए, न बाद में उन्हें रिहा कराने का कोई अभियान चला. इसकी सूचना या खबर आई जो गुमला से निकलकर रांची हाई कोर्ट तक का सफर तय करके वहीं खत्म हो गई.

गुमला से तो बच्चों की रिहाई की कोई खबर नहीं आई लेकिन मार्च के पहले हफ्ते में ही गोमिया से एक खबर आई. गोमिया गुमला से ठीक दूसरे छोर पर बोकारो के पास स्थित है. खबर आई कि माओवादियों के बाल दस्ते में शामिल गोलू और गप्पू नाम के दो बच्चे पुलिस की गिरफ्त में आए हैं. आठ साल के गोलू ने पुलिस को बताया कि उसे माओवादी जंगल में ले गए थे. उस समय वह पहली क्लास का छात्र था. उस दिन वह घर में अकेला था. उसके एक परिजन घर पर आए. पूछा कि घर में कोई नहीं है क्या. उसने बताया, नहीं. फिर उसके परिजन जिनके साथ माओवादी भी थे, उसे उठाकर ले गए. वह जब माओवादियों के दस्ते में गया तो उससे खाना बनवाया जाने लगा. हथियार ढोने को कहा गया. वह ऐसा करने भी लगा. रात में उससे पहरेदारी का काम भी लिया जाता था. लेकिन इस सबसे अहम यह था कि माओवादी-पुलिस की मुठभेड़ में गोलू और उसके जैसे बच्चों को ढाल के तौर पर आगे कर दिया जाता था.

समाजशास्त्री और मानवाधिकारों के विशेषज्ञ प्रो. सचिंद्र नारायण कहते हैं, ‘बच्चों को भय के साथ बाल दस्ते या किसी दूसरे दस्ते में शामिल करके माओवादी अपना ही नुकसान कर रहे हैं. यह पूरा का पूरा काम ही उनके मूल सिद्धांतों के खिलाफ है. कोई बच्चा बड़ा होगा तब वह तय करेगा कि उसे यह आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक नीति ठीक लग रही है या नहीं! अगर उसे ठीक नहीं लगेगा तो वह अपने तरीके से अपने विचारों के आधार पर रास्ते को अपनाएगा. संभव है वह माओवादी भी बने लेकिन यह फैसला उसका खुद का होना चाहिए, अगर उसे जबर्दस्ती माओवादी बना रहे हैं तो इसे माओवादियों का हताश कदम माना जाएगा.’

ऐसा नहीं कि यह कहानी पहली बार गोलू के जरिए ही सामने आई है कि बाल दस्ते में शामिल बच्चे क्या करते हैं. इसके पहले भी कई बार कई बच्चे ऐसी कहानियां सामने ला चुके हैं. जब-जब ऐसी बातें सामने आती हैं कुछ लोग चिंतित भाव से, कुछ रोमांच के साथ किस्से-कहानियों की तरह इन्हें पढ़ते हैं, जानते हैं, सुनते हैं और बात फिर खत्म हो जाती है. पुलिस पर सवाल उठाए जाते हैं. पुलिस पर सवाल उठाना लाजिमी भी है लेकिन माओवादियों को लेकर झारखंड पुलिस से सवाल पूछने का अब बहुत मतलब नहीं बनता. राज्य बनने के 15 साल बाद अब तक झारखंड सरकार माओवादियों के नाम पर कई योजनाएं चलाती रही है. आम आदमी से लेकर पुलिसवाले उन्हीं योजनाओं की तरह तेज रफ्तार से मारे भी जाते रहे हैं.

पहले की बात छोड़ भी दें तो जिस मार्च महीने में गुमला से गोमिया तक ऐसी खबरें आ रही थीं उसी मार्च के पहले हफ्ते में पुलिस और माओवादियों के बीच जुड़ी दूसरी खबर भी आ रही थी. खबर यह आई कि कोल्हान प्रमंडल के चाईबासा जिले के गुवा थाना क्षेत्र के बांका और रोआम गांवों में माओवादियों ने बैठक की. एक बार नहीं, कई बार. नक्सलियों से लड़ने के लिए झारखंड में राज्य पुलिस के जवानों के साथ ही जिला पुलिस बल, इंडियन रिजर्व बटालियन और झारखंड जगुआर के अलावा अर्धसैनिक बलों की 120 कंपनियां तैनात हैं. इन 120 में से 34 कंपनियां कोल्हान प्रमंडल में ही तैनात हैं, फिर भी जनवरी और फरवरी माह में यहां माओवादियों ने लगातार बैठक की.

‘नक्सल आंदोलन की जड़ें अब धीरे-धीरे खोखली होती जा रही है. उनका जन समर्थन कम हो रहा है. विचारधारा भी पहले से ज्यादा विकृत हो गई है’

माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘यह सब सरकारी तंत्र की फैलाई हुई अफवाह है. माओवादी किसी बच्चे को अपने दस्ते में जबर्दस्ती शामिल नहीं कर रहे. सरकार के स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती, खाने को भोजन नहीं मिलता. इस व्यवस्था से निजात पाने के लिए अभिभावक खुद माओवादियों से आग्रह करते हैं कि वे उनके बच्चे को अपने दस्ते में शामिल कर लें ताकि वह बड़ा होकर व्यवस्था को बदलने में सहयोग करे. पुलिस और मीडिया के लोग आपस में मिलकर यह अफवाह फैलाते हैं कि माओवादियों ने बच्चों को जबर्दस्ती उठाने की धमकी दी.

इन घटनाओं के बाबत कई पुलिस अधिकारियों की राय जानने की कोशिश करते हैं. चार मार्च को ‘नेचर एेंड डायमेंशन ऑफ माओइस्ट एक्सट्रीमिज्म इन झारखंड’ विषय पर हुए एक सेमिनार में पहुंचे कई अधिकारियों से बातचीत होती है. झारखंड पुलिस के एडीजीपी एसएन प्रधान कहते हैं, ‘नक्सल आंदोलन की जड़ें अब धीरे-धीरे खोखली होती जा रही है. उनका जन समर्थन कम हो रहा है. विचारधारा भी पहले से ज्यादा विकृत हो गई है.’ आईजी प्रोविजन आरके मलिक कहते हैं, ‘राजनीतिक दल सामान्य लोगों को प्रभावित करने में नाकाम दिखते हैं वहीं नक्सल अपनी बात मनवाने में लगे रहते हैं. नक्सल आंदोलन अब पैसे का खेल हो गया है. अब पैसा उगाहने के लिए ही हिंसा का खेल होता है.’ सीआईडी आईजी संपत मीणा कहती हैं, ‘सरकारी कर्मचारी सुदूर गांवों में जाने से कतराते हैं, जिससे नक्सल आंदोलन गांवों तक फैला है और वे तरह-तरह की गतिविधियों को बढ़ाने में सफल हो रहे हैं.’

महिलाओं और किशोरियों का नक्सलियों द्वारा शोषण हुआ है, सरकार अब यह बात जनता को बताकर लोगों को नक्सलियों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर रही है. सभी पुलिस अधिकारी सही ही बात कहते हैं. नक्सल आंदोलन की धारा पहले से विकृत हुई है. झारखंड जैसे राज्य में सिर्फ वैचारिक स्तर पर नहीं बल्कि दूसरे रूपों में भी कई निकृष्टतम गतिविधियां दिखती हैं. जैसे-बच्चों को उठाकर ले जाने या उठा ले जाने की धमकी देने से लेकर बच्चियों को उठा ले जाने की घटना तक होती है. ऐसी घटनाएं सूचना के तौर पर भी सामने नहीं आ पातीं. जानकार बताते हैं कि अगर पीएलएफआई जैसे संगठन यह सब करते हैं तो बात समझ में भी आती है क्योंकि वे माओवादी संगठन तो हैं भी नहीं. उनका तो एकसूत्रीय काम भयादोहन करके अपने साम्राज्य का विस्तार करना है ताकि अधिक से अधिक पैसा बनाया जा सके. लेकिन भाकपा माओवादी के लोग जब ऐसा करते हैं तब उनके पतन के गर्त में जाने की कहानी सामने आती है. भाकपा माओवादियों के भी इस तरह के कृत्य में शामिल होने की वजह दूसरी बताई जा रही है. बताया जा रहा है कि पिछले कुछ सालों में झारखंड में करीब 76 अलग-अलग संगठन खड़े हो गए हैं. सभी लगातार माओवादियों का ही नुकसान कर रहे हैं और उन्हें कमजोर कर रहे हैं. ऐसे में भाकपा माओवादी भी अपने घटते दायरे को बढ़ाने और अपनी साख बचाने के लिए ऐसे-वैसे रास्ते अपना रही है.    

दबंग- 3 पर टॉपलेस तस्वीर का साया!

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सलमान खान की फिल्म ‘दबंग’ के तीसरे संस्करण पर ‘टॉपलेस’ प्रजाति की कुछ तस्वीरों का साया पड़ने से बॉलीवुड में बवाल-सा मचा हुआ है. जी हां, ध्यान लगाकर और कान खोलकर सुन लीजिए. ये खबर बिल्कुल पक्की है. इस बात को गौर से समझना है तो होश में आ जाइए. एक मॉडल की कुछ टॉपलेस तस्वीरें लीक हुई हैं. बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी लेकिन रायता तब फैल गया जब पर्ल राह नाम की इस माॅडल ने दावा किया कि उन्हें फिल्म ‘दबंग-3’ में बतौर अभिनेत्री सलमान के अपोजिट साइन किया गया है. अब गर्मी के दिनों में ये बात सुनकर सलमान से जुड़े सूत्र बेहोश हो गए! उन पर पानी मारकर जब उन्हें होश में लाया गया तो उन्होंने बताया कि ये पब्लिसिटी स्टंट का मामला है, जो सही भी लग रहा है क्योंकि फिल्म प्रमोशन के लिए सलमान की ओर से कभी इस तरह के हथकंडे नहीं अपनाए गए. किसी भी फिल्म के प्रमोशन के लिए उनका नाम ही काफी होता है. बहरहाल जो होना था वो तो हो गया लेकिन इस वाकये से लंदन बेस्ड इस मॉडल ने पर्याप्त सुर्खियां जरूर बटोर ली हैं.

 

वाणी-रणवीर हुए बेफिकरे

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फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ के तीन साल बाद अभिनेत्री वाणी कपूर की वाणी सिनेमाघरों में गूंजेगी. अगर आप ‘शुद्ध देसी रोमांस’ देख चुके होंगे तो आपको याद होगा कि फिल्म की दोनों हीरोइनों ने अभिनय के नाम पर इसमें सिर्फ हीरो को किस किया था! अब वाणी की दूसरी फिल्म ‘बेफिकरे’ रिलीज होने वाली है. हाल ही में इस फिल्म का पहला पोस्टर लॉन्च किया गया है और यकीन मानिए वाणी कपूर आपको इस बार भी निराश होने का मौका नहीं देंगी. इस फिल्म में आपको पर्याप्त मसाला मिलेगा. पोस्टर में रणवीर सिंह और वाणी कपूर एक-दूसरे काे किस करते नजर आ रहे हैं. अब और क्या आप दर्शकों को बताया जाए… लिफाफा देखकर आप खत का मजमून तो समझ ही गए होंगे.

 

कैरोल का कमाल

Carol 1 copyजिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा… ये लाइनें शायद आपने सुनी होंगी और नहीं सुनीं तो जनाब हम इन लाइनों से जुड़ी एक कहानी आपको सुना देते हैं. साल 2006 में जब ‘बिग बॉस’ के पहले सीजन ने छोटे पर्दे पर दस्तक दी थी तब एक खांटी अंग्रेजीदां गोवन कैथलिक लड़की ने भोजपुरी की ये लाइनें बोलकर दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचा था. इस मॉडल का नाम है- कैरोल ग्रेशियस. इस जुड़ाव का एक कारण भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता रवि किशन भी थे जिन्होंने कैरोल को ये लाइनें रटा दी थीं. बहरहाल काफी सालों बाद कैरोल ने एक बार फिर ध्यान खींचा है. बीते दिनों एक फैशन शो में वे बेबी बंप के साथ रैंप वॉक करती नजर आईं. विदेशों में ये चलन आम है, लेकिन भारत में यह चलन अपनी तरह का पहला और अनूठा था, जिसने मॉडलिंग से जुड़े कई पारंपरिक मिथकों को तोड़ा. हरी-गुलाबी साड़ी में कैरोल कमाल की नजर आ रही थीं. तो है न ये कमाल की बात?

 

 

पनामा पेपर्स लीक

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क्या है मामला?

दुनिया में सबसे ज्यादा गोपनीय ढंग से काम करने वाली कंपनियों में से एक पनामा की मोसाक फोंसेका के एक करोड़ 10 लाख गोपनीय दस्तावेज लीक हुए हैं. इन दस्तावेजों में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के करीबियों से लेकर मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक समेत दुनिया के कई बड़े नेताओं के नाम हैं. इन पर आरोप है कि इन्होंने टैक्स हैवन देशों में अकूत संपत्ति जमा की. इनमें करीब 500 भारतीयों के भी नाम हैं. इन गोपनीय दस्तावेजों से पता चला है कि अमीर व शक्तिशाली लोग किस तरह अपने पैसे को बचाने के लिए टैक्स की चोरी करते हैं या उन तरीकों का प्रयोग करते हैं जिनसे उन्हें कम टैक्स भरना पड़े. इससे पता चलता है कि मोसाक फोंसेका ने किस तरह अपने ग्राहकों के काले धन को वैध बनाने, प्रतिबंधों से बचने और कर चोरी में मदद की.

कैसे हुआ खुलासा?

इस खोजबीन में दुनिया के 78 देशों के 107 मीडिया संस्थानों के 350 से ज्यादा पत्रकार शामिल रहे. पत्रकारों ने पनामा पेपर्स मामले से जुड़े दस्तावेजों का एक साल तक अध्ययन किया उसके बाद यह खुलासा हुआ. इस टीम में भारत की ओर से ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार के भी तीन पत्रकार शामिल थे. इन्होंने इंटरनेशनल कॉन्सोर्टियम ऑफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) के साथ मिलकर काम किया. आईसीआईजे के निदेशक गेरार्ड राइल का कहना है कि इन दस्तावेजों में मोसाक फोंसेका की हर दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों का ब्योरा दर्ज है. वहीं कंपनी का कहना है कि वह लगभग 40 साल से बिना किसी लांछन के काम कर रही है. उस पर कुछ गलत करने का आरोप कभी नहीं लगा. इस खुलासे में नाम आने के बाद आइसलैंड के प्रधानमंत्री डेविड गुनलाउगसन ने इस्तीफा दे दिया है. 

कौन-कौन से भारतीय हैं शामिल?

इन दस्तावेजों में फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, उनकी बहू ऐश्वर्या राय बच्चन, डीएलएफ के मालिक केपी सिंह, गौतम अडाणी के बड़े भाई विनोद अडाणी और इंडिया बुल्स के समीर गहलोत समेत 500 बड़े लोगों के नाम शामिल हैं. बहरहाल इन लोगों को आयकर विभाग ने नोटिस भी भेज दिया है. इसमें एक नाम इकबाल मिर्ची का भी है जो अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम का खास मददगार माना जाता था. हालांकि उसकी मौत तीन साल पहले हो गई थी. इन खुलासों के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जांच के लिए ‘मल्टी एजेंसी ग्रुप’ बना दिया है. वहीं, काला धन वापस लाने के लिए बनी एसआईटी ने कहा है कि वह मामले की विस्तार से जांच करेगी.