‘हिंदी इंटरनेट पर बहुत अकेली है’

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हिमोजी बनाने का विचार कैसे आया?

हिंदी का अब जो सिलेबस है वो पहले की तरह नहीं है कि आपको सिर्फ मध्ययुगीन प्रेम आख्यान पढ़ाने हैं या सिर्फ तुलसीदास या आधुनिक कवि पढ़ाने हैं. हिंदी के सिलेबस में बहुत बदलाव आए हैं. इंटरनेट है, सोशल मीडिया है, ब्लॉगिंग है, वेब डिजाइनिंग में हिंदी है, कंप्यूटर में हिंदी का प्रयोग है. ये सारी चीजें पढ़ाने के लिए आपको तकनीकी क्षेत्र में उतरना ही पड़ेगा. 2006 में मुझे पहली बार हिंदी कंप्यूटर पढ़ाने को मिला. मेरा झुकाव तकनीक और स्केचिंग की ओर था. जब ब्लॉग आदि लिखना शुरू किया तब ही महसूस किया कि हिंदी इंटरनेट पर कितनी अकेली है. हमारे पास साझा करने के लिए रचनात्मक सामग्री नहीं है.

फिर हम लगातार चैट यानी बातचीत करते हैं पर आजकल जैसे चैट स्टिकर हैं वो तब नहीं थे. मेरी अपने विद्यार्थियों से लगातार चैट होती है और हिंदी में बातचीत के दौरान हम अंग्रेजी के इमोटिकॉन प्रयोग करते जो शायद उस समय महसूस की गई भावना की सही अभिव्यक्ति नहीं होते. यही सोचकर मैंने साल 2015 की शुरुआत में अपने तरीके के 15-20 स्टिकर बनाए और उन्हें सोशल मीडिया पर साझा किया. इन स्टिकर को दोस्तों ने बहुत सराहा. तब मुझे लगा कि इसे एक प्रोजेक्ट के बतौर आगे ले जाना होगा. पहले खुद कोशिश की इस पर ऐप की तरह काम करने की, पर फिर जल्द ही समझ आ गया कि तकनीकी रूप से ये सीखने में लंबा समय लग जाएगा. फिर ऐप बनाने के लिए दोस्तों की मदद ली. दो दोस्त मदद के लिए आगे आए और फिर ये स्टिकर ऐप के रूप में लॉन्च हुए.

क्या इस ऐप को लाने का कोई आर्थिक पहलू भी था?

अभी फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल नहीं था. चाहे मेरे या जिन्होंने कैलीग्राफी की या जिन्होंने तकनीकी सहयोग दिया, हम सबके दिमाग में यही था कि हम हिंदी के लिए कुछ करने जा रहे हैं, जो अपने आप में पहली बार होगा. हमें सिर्फ अपना थोड़ा-सा समय देना है. हममें से जिसे जो ज्ञान था, उसने वही किया है. मैं स्टिकर बना सकती हूं, मैंने वो बनाए. मेरे पति भास्कर कर्ण कैलीग्राफी बहुत अच्छी करते हैं तो उन्होंने वो किया. टेक्निकल सपोर्ट आईटेकलाइनफॉरयू का है. उसे तरुण चौधरी ने इसीलिए शुरू किया ताकि हम इसे नाम दे सकें. हां, अगर हम इसे बेहतर बनाकर बाजार में लाते हैं तब आर्थिक पहलू के बारे में सोचा जा सकता है.

हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए साल भर में कितने ही सेमिनारों, बैठकों का आयोजन होता है. आपको क्या लगता है जिस उद्देश्य के लिए ये कार्यक्रम किए जाते हैं, वो पूरा होता है? हिंदी को अगर इंटरनेट के जरिए जन-जन तक पहुंचना है, क्या तकनीक की जरूरत होगी?

देखिए, आपके पास तो ये सवाल आज है पर हम क्लासरूम में इस सवाल से रोज टकराते हैं. जब हमारा विद्यार्थी हिंदी ऑनर्स कोर्स में एडमिशन लेता है तो उसका पहला सवाल होता है कि मैं इससे किस रोजगार की ओर जा सकूंगा. क्या मैं किसी बड़ी कंपनी में बड़े पद पर जा सकता हूं. किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर सकता हूं, क्या मैं सिविल सर्विस परीक्षा पास कर सकता हूं? ये सच है कि केवल हिंदी से ये सब हासिल नहीं हो सकता. हिंदी को अपने हाथ-पांव फैलाने होंगे. दूसरी बात कि अगर इंटरनेट के जरिए हिंदी को आम जन तक पहुंचना है तो इसकी सबसे बड़ी जरूरत टेक्निकल बनना है. हालांकि, बहुत-से लोग इस ओर बहुत काम कर रहे हैं लेकिन वो काम बहुत कम है. हमें चाहिए कि हर व्यक्ति जो हिंदी भाषा जानता है, हिंदी के लिए कुछ करना चाहता है वो आगे आए.

जहां तक बात है बड़े सेमिनारों और बैठकों की तो ये आलोचना के लिए मददगार साबित होते हैं. आपको नए तरह से पढ़ने-समझने की दृष्टि मिलती है.

बोलचाल को छोड़ दें तो समाज में भाषा के रूप में हिंदी कहां है?

एक बात है. बड़े-बड़े रचनाकारों की बड़ी रचनाओं से ज्यादा हिट छोटी हिंदी फिल्में हो जाती हैं. हमें माध्यम का फर्क समझना है. हमें आम जनता को भाषा से जोड़ने के लिए हिंदी में वो सहजता लानी होगी जिससे जनता उससे जुड़ा हुआ महसूस करे. अगर हम कहेंगे कि नहीं ऐसे नहीं लिखा जा सकता क्योंकि साहित्य में ऐसे नहीं लिखा जा सकता, ऐसे नहीं बोल सकते क्योंकि इसका चलन ही नहीं है तो कोई भी व्यक्ति हिंदी के पास आने से डरेगा. आप इसके बजाय उन्हें हिंदी प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कीजिए. हिमोजी ऐप बनाने के पीछे भी हिंदी को प्रोत्साहित करने का ही उद्देश्य था. आपको प्रयास करने होंगे, चाहे वो भाषा को विकसित करने के लिए हों या अपने कौशल को विकसित करने के लिए. भारतेंदु ने तो बहुत पहले कह दिया था कि कलाहीनता समाज को हमेशा गर्त में ले जाती है. निज भाषा उन्नति में ही हमारी उन्नति है पर लोग ये समझते नहीं हैं.

छोटे-छोटे बच्चों को सिखाया जाता है कि नाक मत बोलो, नोज बोलो, मां नहीं ममा तो हम उनसे शब्द छीन रहे हैं. उन्हें ऐसी भाषा में ठूंस दे रहे हैं जहां वो सहज रूप में अभिव्यक्त नहीं कर सकते. आपको सपने अंग्रेजी में नहीं आते. वो अपनी भाषा-बोली में ही आते हैं. जब हम हिमोजी बना रहे थे तब भी ये बात दिमाग में थी कि जिस पीढ़ी को हम पढ़ा रहे हैं, बढ़ता देख रहे हैं, हम उसकी भाषा सुधारने का काम कर रहे हैं. जो भाषा वो बोलते हैं मुझे उसे बोलने में बहुत आपत्ति है. वे क्लासरूम में एक-दूसरे से बोलते हैं कि उसको देखकर तेरी तो फट गई! अगर आप उससे पूछें तो वो बताते हुए शर्मिंदा हो जाएंगे कि इसका असली अर्थ क्या है. पर वो आसानी से इसे बोलते हैं क्योंकि इसे बोला जाता है, इस भाव के लिए कोई अभिव्यक्ति विकल्प में ही नहीं है. भाषा का सजग होकर प्रयोग करना बहुत जरूरी है. अगर एक बार उसका गलत इस्तेमाल होना शुरू हो जाए तो फिर उस गलती की कोई सीमा नहीं रह जाती. कूल होने और बदतमीज होने में फर्क है. जरूरी नहीं है कि हनी सिंह के गाने गाकर ही कूल दिखा जाए. जो आपकी भाषा है उसका प्रयोग कीजिए, उसे जिंदा रखने का प्रयास कीजिए.

हिमोजी को लेकर कैसी प्रतिक्रिया मिली?

बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया रही. हमें इतनी उम्मीद ही नहीं थी. इस साल 14 मार्च को लॉन्च होने के बाद एक महीने में इसके बीस हजार से ज्यादा डाउनलोड हुए हैं. लोगों के लगातार फोन आ रहे हैं कि आईओएस और विंडोज पर भी इसे लाया जाए. ये सब बहुत सकारात्मक है और अब मैं इसे एक सामाजिक जिम्मेदारी मानते हुए आगे बढ़ाने की सोच रही हूं.

हिमोजी चैट स्टिकर
हिमोजी चैट स्टिकर

वैसे बैंक या किसी अन्य जगह निर्देश आदि हिंदी में पढ़ते हैं तो पाते हैं कि बहुत कठिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है.  हम उसे आसानी से नहीं समझ सकते.

मैं उसमें हर स्तर पर सुधार की जरूरत समझती हूं. जिस हिंदी की बात आपने की वो उधारी हिंदी है, वो शब्द हिंदी के अपने शब्द भंडार से नहीं हैं. आप दूसरी भाषाओं से शब्द लेकर उन्हें हिंदी में क्रिएट करने की कोशिश कर रहे हैं. आप प्रतिष्ठित भाषाओं के बजाय बोलियों से शब्द उधार लेते हैं तो वो ज्यादा सजीव हैं. आप संस्कृत से शब्द ले रहे हैं. जो भाषा अपने समय में इतनी प्रतिष्ठित और क्लिष्ट हो गई थी कि लोग उसे छोड़कर पाली, प्राकृत, जो उस समय की देशज भाषाएं थीं, उनकी ओर मुड़ गए थे. जब भी कोई भाषा अपने व्यवहार, व्याकरण और कलेवर में दुरूह हो जाएगी, जनता उससे दूर होगी.

इंटरनेट पर हिंदी कहां ठहरती है?

हिंदी को इंटरनेट पर बनाए रखने के काफी प्रयास हो रहे हैं पर फिर भी हम मुट्ठी भर ही हैं. अगर हम हिंदी बोलने वालों, उसे पढ़ने वालों और उसमें लिखने वालों का प्रतिशत देखें तो ये लगातार घटता जाता है. हम इंटरनेट के लिए हिंदी में बहुत कम कंटेंट क्रिएट कर पा रहे हैं. हमें उस पर काम करना चाहिए. मेरे ख्याल से ब्लॉग इसका सबसे अच्छा और आसान माध्यम है. अगर हमें लगता है कि हम थोड़ा-बहुत लिख पाते हैं, तो ब्लॉग बनाएं. फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया पर लिखा हुआ सर्च इंजन पर ढूंढ़ने पर नहीं दिखता, जबकि ब्लॉग सर्च इंजन पर सबसे पहले आता है. ऐसे में मैं यही कहूंगी कि ये हमारी, शिक्षित वर्ग की जिम्मेदारी है कि जो भी लिखना चाहता है भले ही वो किसी भी क्षेत्र का हो, ब्लॉग बनाकर टूटी-फूटी अंग्रेजी में लिखने के बजाय अच्छी हिंदी या अपनी भाषा-बोली में लिखिए. लिखना, दर्ज करना जरूरी है क्योंकि जितना ज्यादा लिखा जाएगा, हिंदी की स्थिति मजबूत होगी. लोग जानेंगे कि हिंदी में लिखा जा रहा है. दुनिया भर में देखिए. फ्रेंच और जापानी अपनी भाषा में बोलते हैं. आपको उन्हें समझना है तो आप इंटरप्रेटर (दुभाषिया) की मदद लीजिए. वे अपनी ही भाषा में बोलेंगे, वे दूसरी भाषा को हमेशा दोयम रखते हैं.

इस सरकार के मंत्रियों की ये एक बात मुझे अच्छी लगती है कि इनके नेता अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी भाषा में बोलने का माद्दा रखते हैं, चाहे प्रधानमंत्री हों, सुषमा स्वराज या स्मृति ईरानी. राजनाथ सिंह तो बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं.

चेतन भगत का कहना है कि हिंदी लोकप्रिय तो है पर भाषा जानते हुए भी बहुत-से लोग इसे पढ़ नहीं पाते, इसलिए रोमन में ही हिंदी लिखी जानी चाहिए. आपका क्या कहना है?

चेतन भगत बहुत बुद्धिमान हैं! उन पर कोई कमेंट करना अपने को गर्त में गिराने जैसा है. उनकी बौद्धिकता तक शायद अभी हम पहुंच नहीं पा रहे हैं. वैसे मैं उनकी इस बात से इत्तफाक नहीं रखती. देवनागरी लिपि बहुत खूबसूरत, वैज्ञानिक और तर्कसंगत है, वो ऐसे कि आप जो बोल रहे हैं वही लिख रहे हैं. हिंदी अकेली ऐसी भाषा है जहां कोई शब्द साइलेंट नहीं है. कोई ऐसा अक्षर नहीं है जो अतिरिक्त लिख दिया जाएगा पर बोला नहीं जाएगा. अतिरिक्तता देवनागरी का हिस्सा नहीं है, अंग्रेजी का है. बचपन में हमारी टीचर बोर्ड पर लिखकर पढ़ाती थीं, गोल-गोल अंडा, मास्टर जी का डंडा, घोड़े की पूंछ, रावण की मूंछ…बोलो क्या बना? हम सब बच्चे कोरस में बोलते थे क. ये क का बनना अपने आप में एक चित्र है. इससे आपकी इमेजिनेशन आगे बढ़ती है. मैं चेतन भगत से यही कहना चाहूंगी कि सर देवनागरी में बस अपना नाम ही लिखकर देख लें, जो चेतना है वो जागृत हो जाएगी.

ऐप में हिंदी की बात करें तो हाईक (एक चैटिंग ऐप) पर भी देवनागरी में इमोटिकॉन उपलब्ध हैं जो खासे लोकप्रिय भी हैं. उनमें और हिमोजी में क्या फर्क है?

हिमोजी और हाईक में यही फर्क है कि वहां कई हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाएं भी हैं जबकि हिमोजी देवनागरी में ही हैं. हाईक एक खिचड़ी की तरह है जहां सब कुछ है पर हिमोजी पहला ऐसा ऐप है जिसमें देवनागरी में स्टिकर की 14 कैटेगरी हैं और कैटेगरी के नाम भी हिंदी में ही हैं.

ऐसा मानना है कि आजकल के युवाओं में हिंदी भाषा के प्रति झुकाव नहीं है. आप शिक्षा के क्षेत्र में हैं, क्या अनुभव रहा?

हिंदी की ओर रुझान तो है पर जैसा मैंने पहले कहा कि युवाओं में आशंका बस यही है कि रोजगार क्या मिलेगा. आपको सोचना होगा कि अपनी भाषा में कितना रोजगार पैदा कर रहे हैं. अभिभावक अपने बच्चों को तब ही कोई भाषा पढ़ने की इजाजत देंगे जब उसमें रोजगार होंगे. जैसे-जैसे रोजगार की संभावना बढ़ती जाएगी, ये आशंकाएं दूर होती जाएंगी.

आजकल स्कूलों में जब मां-बाप से बच्चों के लिए कोई भाषा चुनने को कहा जाता है तो वो जर्मन या फ्रेंच चुनते हैं. भले ही बच्चे को उसका अक्षर न आए पर वो दुनिया से कह सकें कि उसने विदेशी भाषा सीखी है. वो शायद ये भी सोचते हैं कि अगर वो कुछ नहीं बन पाया तो हो सकता है इन भाषाओं का ज्ञान उसे बेहतर रोजगार पाने में मदद करे. अन्य भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करें, ये बुरा नहीं है पर लिखें-समझें अपनी भाषा में. जरूरत अपनी भाषा में रोजगार पैदा करने की भी है. यहां जरूरी बात ये भी है कि ये सब रोजगार सरकार नहीं पैदा कर सकती. हम अपने ज्ञान, कला-कौशल का विस्तार करें और अपनी भाषा को अपने प्रयासों से आगे बढ़ाएं.

आपने बार-बार लोगों के हिंदी में लिखने की बात कही, लोग हिंदी में लिखना भी चाहते हैं पर हिंदी में जो अब तक लिखा जा चुका है उसे पढ़ने की बात कम ही होती है. पहले पत्र-पत्रिकाओं में प्रचलित और बड़े लेखकों की रचनाएं छपा करती थीं, अब वे सिर्फ साहित्यिक पत्रिकाओं तक सीमित हैं. लोग ब्लॉग, फेसबुक आदि पर हिंदी में पढ़ते है पर साहित्य और आम जनता के बीच दूरी आ चुकी है.

एक तरह से ये दूरी लिखने वालों द्वारा खुद पैदा की हुई है. आपने एक स्तर तय कर लिया है कि इस पत्रिका में छपना बड़ी बात है, इसमें छपना छोटी. अगर आप इस तरह का कोई पैमाना बना लेते हैं तो आप पाठक और साहित्य के बीच की खाई को खुद बड़ा कर रहे हैं. आज साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या कितनी है? बहुत कम. कुछ पत्रिकाएं तो नुकसान उठाकर भी छापी जा रही हैं. वे कुछ दिन चलती हैं फिर बंद हो जाती हैं. वहीं प्रचलित पत्रिकाएं, जिनके पाठकों की संख्या लाखों में है, उनमें भी कहानियां छप रही हैं पर उन लेखकों को आप मुख्यधारा में शामिल कब करेंगे!

अंग्रेजी में देखिए. बड़े-बड़े लेखक अखबारों में छपते हैं. आप किसी पत्र-पत्रिका में छपना तौहीन मत समझिए. जनता के बीच जाइए, स्वीकार-अस्वीकार पाठक पर छोड़ दीजिए. समय बदला है. लोगों के पढ़ने-लिखने की आदतें बदली हैं, तो लेखक को उन बदली आदतों के अनुसार पाठक तक पहुंचना होगा. साहित्य और जनता के बीच खाई नहीं बल्कि पुल बनना होगा.