भारत-पाक शांति वार्ता का विरोध करने वाले दोनों ही तरफ बहुत-से लोग हैं : रज़ा रूमी

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आपकी पहली किताब भारत की राजधानी पर थी. अब ये किताब पाकिस्तान पर है. क्या ये किताबें एक-दूसरे से संबंधित हैं?

नहीं, डेल्ही माय हार्ट एक पर्यटक की दृष्टि से लिखा गया यात्रा संस्मरण था, जिसमें उस शहर के सदियों के इतिहास को तलाशा गया था. वहीं द फ्रैक्शस पाथ पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के शासन के बाद कैसे डेमोक्रेसी आई, विकसित हुई उस पर केंद्रित है. आसिफ अली जरदारी के शासन के पांच साल (2008-2013) काफी महत्वपूर्ण थे क्योंकि पाकिस्तान में पहली बार यह किसी नागरिक सरकार का शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण था. पाकिस्तान के हालिया इतिहास के इसी बदलाव पर यह किताब बात करती है.

यह किताब पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से कैसे जुड़ती है?

यह किताब पाकिस्तान की सरकार और विदेश नीति से जुड़े हुए कुछ जरूरी मुद्दों पर की गई राजनीतिक टिप्पणियों और लेखों का संकलन है. इसमें पाकिस्तान ने 2008 से 2013 तक राजनीति, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और संविधान से जुड़ी जिन समस्याओं का सामना किया उन्हें भी दर्ज किया गया है. मैं नहीं जानता कि यह वर्तमान में हो रही बहस से जुड़ता है कि नहीं पर मैं यह तो निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि पाकिस्तान केवल काला या सफेद नहीं है, यानी सिर्फ अच्छा या बुरा नहीं है. यह एक जटिल देश है जो धीरे-धीरे बदलाव की ओर बढ़ रहा है और मेरा विश्लेषण इसी बात पर रोशनी डालता है. यह विश्लेषण तब शुरू हुआ जब मैं मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़ा और मुझे विभिन्न मुद्दों पर विभिन्न नजरियों को जानने का मौका मिला. मैं यही कहना चाहूंगा कि भले ही आप मेरे लिखे हुए से असहमत हों पर मेरे लेख आपको पाकिस्तान को देखने का एक ‘देसी’ नजरिया देंगे जो उन लेखों से बिल्कुल अलग है जिन्हें कई बाहरी लेखकों द्वारा, खासकर आतंक के खिलाफ छिड़ी लड़ाई के बाद लिखा गया.

जनरल मुशर्रफ के बाद पाकिस्तान की डेमोक्रेसी के इन आठ सालों को कैसे देखते हैं?

यह धीरे-धीरे मजबूत हो रही है. बीते आठ सालों में हमने एक नागरिक सरकार से दूसरी नागरिक सरकार को सत्ता का हस्तांतरण पहली बार 2013 के आम चुनावों के बाद देखा. 2013 से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और मिलिट्री चीफ चारों लोकतांत्रिक तरीके से काम कर रहे हैं. ये दिखाता है कि व्यवस्थाओं में बदलाव आ रहा है और संवैधानिक प्रक्रियाअों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. जनरल मुशर्रफ के बंद पड़े केस की सुनवाई शुरू होना इसका एक उदाहरण है. राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्थाओं पर अभी लोकतांत्रिक नियंत्रण आना बाकी है. 2014 के बाद से सेना ने देश के राष्ट्रीय मुद्दों पर नाटकीय रूप से अपना रुख बदला है. सेना अब पहले की तरह न आसानी से तख्तापलट कर सकती है और न ही वो यह सोचती है कि सत्ता में सीधे हस्तक्षेप करना उसके हित में है. और वैसे भी लोकतंत्र एक लंबी प्रक्रिया है और अगर जैसे चल रहा है वो चलता रहा तो आगे भी डेमोक्रेसी बनी रहेगी.

पर भारत में आम धारणा यही है कि पाकिस्तान में सत्ता सेना और नागरिक सरकार के बीच बंटी हुई है.

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पाकिस्तान में मिलिट्री जनरलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया है. आम चुनावों और लोकतांत्रिक सरकार बनने से भी सेना और सरकार के बीच सत्ता के संतुलन में बदलाव नहीं आया है. सेना को नियंत्रण में लाने के लिए अभी कई आम चुनाव लगेंगे. इस वक्त पाकिस्तान कई तरह की बगावतों और नागरिक संघर्षों से जूझ रहा है जिससे सेना को घरेलू मसलों और राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने का मौका मिल रहा है. वैसे पाकिस्तानी नेताओं को अभी तक संसद पर पूरा विश्वास नहीं है इसलिए वे पिछले दरवाजे से सेना के साथ किसी भी सौदे के लिए तैयार रहते हैं.

नए सेना प्रमुख राहील शरीफ को उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान और कराची में आतंकवादियों के खिलाफ सफलता मिली है. ऐसा माना जा रहा है कि इसने उनके प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से रिश्ते को मजबूत किया है.

वैसे यह तो है कि जनरल राहील शरीफ प्रधानमंत्री शरीफ से ज्यादा प्रभावी लगते हैं और शायद मशहूर भी. और ऐसा शायद इसलिए है कि उनका पाकिस्तानी तालिबान पर रुख साफ है, वे उसी हिसाब से काम करते हैं इसलिए समाज के बड़े तबके की सराहना भी उन्हें मिली है. वहीं नवाज़ शरीफ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से बातचीत को तरजीह देते हैं. दूसरे, 2014 में देश के अंदर ही शुरू हुए राजनीतिक संकट ने भी प्रधानमंत्री शरीफ को कमजोर किया है. हालिया महीनों में नवाज़ शरीफ ने अपनी राजनीतिक साख फिर पानी शुरू की थी, बड़े शहरों में स्थानीय चुनावों में भी उनकी पार्टी को ही ज्यादा सीटें मिली थीं पर ‘पनामा पेपर्स’ में नाम आने के बाद नवाज़ कमजोर पड़ गए और सेना का पलड़ा फिर भारी हो गया.

अगर भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ता की बात करें तो उधमपुर हमले के बाद इस प्रक्रिया में एक कभी न खत्म होने वाली पेचीदगी आ गई है. भारत में तो यही सोच है कि अगर पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इसे खराब करने की कोशिश ही की जानी है तो ऐसी वार्ता का क्या फायदा.

भारत-पाक शांति वार्ता हमेशा से ही जटिल रही है. दोनों ही तरफ इसका विरोध करने वाले बहुत-से लोग हैं. पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियां यहां के व्यावसायिक हितों की रक्षा करना चाहती हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, जो सेना में कमांडर भी रहे हैं, भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से बातचीत में लगे हैं. इसी बातचीत के चलते ही पाकिस्तानी खुफिया टीम ने पिछले दिनों भारत का दौरा किया था. तो इस तरह यह कह सकते हैं कि ये द्विपक्षीय वार्ता प्रक्रिया अभी पूरी तरह से खत्म तो नहीं हुई है भले ही यह कछुए की चाल में आगे बढ़ रही है.

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पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को लेकर एक दुविधा है. प्रशासन इसे एक आतंकी समूह मानता है और यह बात भी प्रचलित है कि इसे भारत द्वारा मदद दी जाती है. जो बात यहां अस्पष्ट है वो ये है कि इसका अफगान तालिबान से क्या संबंध है.

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने पूरे पाकिस्तान के सरकारी संस्थानों, सैन्य संस्थानों और निजी जगहों पर प्रत्यक्ष रूप से हमले किए हैं. (कराची के नौसेना बेस पर पीसी-3 ओरियन एयरक्राफ्ट को नष्ट कर दिया गया) पाकिस्तान की इंटेलीजेंस को पूरा यकीन है कि इसे भारत द्वारा पाकिस्तान में अस्थिरता लाने के लिए मदद दी जा रही है. इसलिए तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान राष्ट्र का दुश्मन है और इसे किसी भी कीमत पर खत्म किया जाना ही चाहिए. एक बात और कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान कहीं बाहर से नहीं आया है, इसमें कई ऐसे आतंकवादी हैं जिनकी पाकिस्तान की सरकार ने पहले मदद की थी पर कई वजहों से ये आतंकी उनके खिलाफ हो गए. मेरे अनुसार मुख्य वजह चरमपंथियों का पाकिस्तानी सेना को पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका के हाथ की कठपुतली मानना है.
हां, अफगान और पाकिस्तान तालिबान में संबंध तो है पर फिलहाल उनके उद्देश्य अलग-अलग हैं. अफगान तालिबान पाकिस्तान के अंदर हमले नहीं करता क्योंकि उसे पाकिस्तानी सरकार की मदद चाहिए. वहीं तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान देश को नुकसान पहुंचाना चाहता है, इसलिए वह सेना को तो नुकसान पहुंचाता ही है साथ ही आम जनता को भी डराता है.

यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि पाकिस्तानी सेना के अनुसार अफगान तालिबान अफगानिस्तान की एक कानूनी राष्ट्रीय और राजनीतिक इकाई है. इसलिए सरकारी नीति के अनुसार अफगानिस्तान में नियंत्रण और प्रभाव कायम करने के लिए पाकिस्तान को अफगान तालिबान से किसी स्तर पर बातचीत का माहौल रखना ही होगा. और ये तो जाहिर बात है कि पाकिस्तान की अफगानिस्तान से जुड़ी नीतियां भारत की घेराबंदी के डर से बनती हैं. वहीं भारत को अफगानिस्तान के आतंकियों के हाथ में वापस जाने पर आतंकवाद के बढ़ने का डर है. यही कारण है कि भारत-पाकिस्तान को आपस में अपने उद्देश्यों के बारे में स्पष्ट तौर पर बात करने की जरूरत है वरना इन क्षेत्रों में स्थिरता कभी नहीं आ पाएगी.