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‘हत्या के उस सजायाफ्ता कैदी से जिंदगी हिम्मत से जीने की सीख मिलती है’

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2013 में जेलर की हैसियत से बाराबंकी जेल में मेरी तैनाती हुई थी. रोजाना रात में मैं जेल की गश्त पर निकलता था. दिसंबर की उस रात की हाड़ कंपाती ठंड से बचने के लिए जेल का हर कैदी गुड़ी-मुड़ी होकर काले मोटे कंबलों की आगोश में था. जेल की बैरकें सींखचों से बनी होती हैं ताकि हर कैदी को बाहर से देखा जा सकता है. ठंडी हवा से बचाव के लिए इन्हें तीन से चार कंबल दिए जाते हैं.

उस रात गश्त करते हुए मेरी नजर एक बैरक के अंदर जाकर टिक गई. वहां एक आदमी मोटे ऊनी काले कंबल पर बिना कुछ ओढ़े औंधा लेटा हुआ था. बदन पर केवल एक बदरंग स्वेटर और कमर के नीचे पटरेवाला जांघिया था. इसके पहले कि मैं अपने साथ ड्यूटी पर चल रहे सिपाही से कुछ पूछता, वो मुझे हैरान देखकर खुद ही बोल पड़ा, ‘अरे! इ तो लोहा है साहब.’ तब तक बैरक के अंदर पहरा लगा रहा कैदी पहरेदार शफीक भी वहां आ गया और बोला, ‘अभी-अभी गिना साहब इस बैरक में सभी 59 कैदी ठीक-ठाक हैं.’ मैं नाराजगी से बोला, ‘ठीक-ठाक कहां सो रहे हैं सब, इस कैदी को तो ओढ़ने को कंबल भी नहीं मिला है शायद.’ ‘अरे नहीं सर! ये कभी कुछ नहीं ओढ़ता, इसे कई बार तीन-तीन कंबल दिए गए हैं, लेकिन हर बार ये उन्हें चौपत कर सिरहाने पर रख देता है. रात में कोई ओढ़ा भी दिया तो फिर फेंक देता है. इ अइसहिं रहता है सब दिन.’ शफीक बताता जा रहा था और मेरी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं था, ‘अरे देखो! ठीक-ठाक है भी कि नहीं.’ ‘हां, सर बिल्कुल फिटफाट है.’

ये तसल्ली होने पर कि वह व्यक्ति जिसे सब लोहा बुलाते हैं, सकुशल है और बिना कुछ ओढ़े सोने के लिए उसने अपने जिस्म को ढाल रखा है, मैं आगे बढ़ गया और बैरक के दूसरे छोर पर शफीक को इशारे से बुलाकर पूछा, ‘यह कैदी ऐसे क्यों रहता है?’ शफीक ने बताना शुरू किया, ‘आप नए हैं न साहब, वरना इस कैदी को सभी जानते हैं. नंगे पैर, नंगे सिर, वनमानुष की तरह रहता है. अभी सुबह होने दीजिए, सबसे पहले उठकर नहा धोकर अलाव जलाकर रख देगा, जब तक सब कैदी तापेंगे तब तक लोहा झाड़ू लिए सारी बैरक, अहाता, नाली साफ करके रख देगा. इसके बाद पूरे दिन निराई, गुड़ाई करते खटता रहेगा. सफाई के लिए कोई और झाड़ू या कुदाल उठाता नहीं कि लोहा की आंखें उसे घूर कर ऐसा न करने की समझाइश दे देती हैं. बदन तो देख ही रहे हैं आप (लोहा की कद-काठी अच्छी खासी थी) लेकिन आज तक उसने किसी कैदी को कोई तकलीफ नहीं पहुंचाई.  उल्टा बंदियों के बीमार होने पर उनकी पूरी सेवा करता है.’

आजीवन कारावास की सजा काट रहे लोहा से घरवाले यदा-कदा ही मिलने आते हैं. उसे न किसी ने कभी खुश देखा, न उदास

इस कहानी को जानकर लोहा की जिंदगी में मेरी दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही थी. मैं गश्त खत्म कर घर आकर रजाई में लेट तो गया मगर मन अब भी लोहा और उसकी कहानी जानने के लिए बेचैन था. सुबह आॅफिस (जेल) पहुंचते ही सबसे पहले मैंने वो रजिस्टर मंगाया जिसमें बंदियों का समूचा ब्योरा दर्ज रहता है. लोहा का नाम रजिस्टर में भी लोहा ही दर्ज था-लोहा, पुत्र बृजकिशोर, उम्र 48 वर्ष, धारा 302 आईपीसी के तहत आजीवन कारावास की सजा से दंडित.

इसके बाद मैंने एक सिपाही से लोहा को बुला लाने को कहा. सुबह के वक्त नहाया धोया हुआ लोहा काले ग्रेनाइट के बुत की तरह चमक रहा था. आॅफिस में काम करने वाले राइटर ने उसके सामने ही बताना शुरू किया कि लोहा को अपने गांव के किसी आदमी की हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास हुआ है. घरवाले यदा-कदा ही मिलने आते हैं, लेकिन लोहा उनसे भी केवल इशारों में बात करता है. घरवाले जो सामान उसे देते हैं, वह दूसरे बंदियों में बांट देता है. लोहा को न किसी ने कभी खुश देखा, न उदास, न रोते, न हंसते. उसे बस थक के चूर हो जाने तक किसी न किसी काम में खटते देखा गया था. बारहों मास दोनों समय नहाना. मैं लोहा के कंधे पर हाथ रखकर उससे बात करने की कोशिश कर रहा था. मगर लोहा मेरी आंखों में अपनी पथरीली आंखें धंसाए बिल्कुल बुत बना खड़ा रहा. मैंने उसकी ठुड्डी हाथ से ऊपरकर स्नेह से कहा, ‘लोहा! कुछ तो बोलो यार.’ जवाब में उसकी पथरीली आंखों से पिघलते हुए आंसू टप टप कर बहने लगे. कुछ बूंदें मेज के खुले पड़े उस रजिस्टर के पन्ने पर जा पड़ीं, जहां उसके जुर्म का ब्योरा दर्ज था. यह खराब न हो जाए, इस गरज से लोहा ने हाथ से तुरंत आंसू की वो बूंद पोंछ दी. यूं भी पश्चाताप के इन आंसुओं से कागज पर लिखी सख्त तहरीरें कहां पसीजनी थीं. उसने अतीत में जो भी किया है, लेकिन अब जब भी उसकी ओर देखता हूं तो उससे जिंदगी को लोहे की तरह जीने की हिम्मत लगातार मिलती है.

(लेखक बाराबंकी जिला कारागार में डिप्टी जेलर हैं)

क्या होगा अगर क्रिकेट में सट्टेबाजी पर लग जाए मुहर?

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हर धर्म में कुरीतियां होती हैं. भारत का एक धर्म क्रिकेट भी है. इस धर्म में भी एक कुरीति है- सट्टेबाजी. भारत क्रिकेट में सट्टेबाजी का विश्व का सबसे बड़ा बाजार है. सट्टेबाजी के इस शास्त्र ने भारतीय क्रिकेट को कई ऐसे जख्म दिए हैं जो कभी भरे नहीं जा सकते. सट्टेबाजी पर यूं तो देश में कानूनन रोक है. घुड़दौड़, रमी और लॉटरी को छोड़ दिया जाए तो सट्टा अवैध है. फिर भी यह भीतरखाने धड़ल्ले से जारी है. सरकारी मशीनरी इसकी रोकथाम में विफल रही है. इसलिए क्रिकेट पर पड़ते इसके दुष्प्रभावों को देख समय-समय पर क्रिकेट सट्टेबाजी को वैध करने की मांग उठती रही है. लेकिन पहली बार यह मांग कानूनी हलकों से बाहर आ रही है. देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने क्रिकेट सुधार पर अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है. इस तीन सदस्यीय लोढ़ा समिति ने क्रिकेट सट्टेबाजी को कानूनी बनाने की सिफारिश की है. लोढ़ा समिति ने कहा है, ‘क्रिकेट पर सट्टा कानूनी होगा तो खेल भ्रष्टाचार मुक्त होगा. सट्टे पर कानूनी निगरानी होने से कालेधन पर लगाम लगेगी. पारदर्शिता आएगी. खेल से हवाला रैकेट का सफाया होगा. देश को कर के रूप में मोटा राजस्व भी मिलेगा.’

दोहा की संस्था अंतर्राष्ट्रीय खेल सुरक्षा केंद्र (आईसीएसएस) के मुताबिक भारत में अवैध सट्टेबाजी का बाजार करीब दस लाख करोड़ रुपये का है. भारत जिस एकदिवसीय मैच में खेलता है, उस पर दुनियाभर में लगभग 1320 करोड़ रुपयेे दांव पर लगते हैं. पिछले दिनों ईडी के हवाले से भी खबर आई थी कि भारत में यूके की बैटफेयर डॉट कॉम 2010 से सक्रिय है. यह क्रिकेट पर सट्टा लगवाती है. इस वेबसाइट पर भारत की दस लाख आईडी से लगभग 1.9 लाख करोड़ रुपये अवैध तौर पर भेजे गए हैं. इससे देश में क्रिकेट पर सट्टे का अर्थगणित समझा जा सकता है. कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार फिक्की भी मानता है कि क्रिकेट पर सट्टा वैध करने से भारत को सालाना 12 से 20 हजार करोड़ रुपयेे के राजस्व की प्राप्ति हो सकती है. इस मामले में ब्राजील का जिक्र करना जरूरी होगा. वहां फुटबाल के लिए ऐसी ही दीवानगी है जैसी भारत में क्रिकेट के लिए. वहां भी फुटबॉल पर सट्टा प्रतिबंधित है. लेकिन सरकार की डांवाडोल अर्थव्यवस्था को संभालने के विकल्प के तौर पर सट्टा वैध बनाने के प्रयास होते रहे हैं. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि एक देश की पूरी अर्थव्यवस्था को संभालने की कूवत रखने वाले सट्टा बाजार में कितना पैसा हो सकता है.

क्रिकेट एक्सपर्ट आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘सट्टा हम रोक नहीं पा रहे. यह गुप्त रूप से चलता रहेगा. अच्छा यही है कि इसे वैध कर दें. पर्दे के पीछे होने वाली चीजें फिर सामने तो आएंगी. यहां बहुत कालाधन है. लेकिन इससे मोटा राजस्व मिलेगा, इस पर शंका है. जो मोटा पैसा है वो 365 डॉट कॉम, बैटफेयर डॉट कॉम जैसी विदेशी वेबसाइटों पर ही जाएगा. क्योंकि बड़ा सट्टा कोई व्हाइट मनी से तो लगाएगा नहीं. ऐसा भी नहीं है कि पचास लाख लेकर दुकान पर पहुंच जाएं और कहें कि लगा दो मैच पर. बावजूद इसके कहूंगा कि यह एक सराहनीय पहल है. सट्टा समाज का हिस्सा बन चुका है इसे वैध करने में ही भलाई है.’

‘सट्टा मीठा जहर है. पहले आप छोटे दांव खेलकर जीतते हैं और फिर लालच में एक ही बड़े दांव में सब गंवा देते हैं. यह आपको पराश्रित कर देता है’

­भारतीय क्रिकेटरों की बात करें तो वहां भी इस पर दो राय बनती दिख रही है. मनिंदर सिंह का कहना है, ‘कुछ सालों पहले मैंने भी देश में क्रिकेट सट्टा वैध करने की बात कही थी. फिर बाद में विचार आया कि वैध करने से भी कौन सा अवैध सट्टेबाजी रुक जाएगी. चेक से कौन सट्टा लगाना चाहेगा? बैंक से पैसा निकालकर कौन देगा? हम टैक्स चोरी में वैसे ही माहिर हैं. फिर सट्टा जीतने पर टैक्स चुकाना चाहेंगे? कोई व्यक्ति अपनी कमाई घर खर्च में दिखाना चाहेगा या जुए में? ऊपर से इस पैसे पर टैक्स भी ज्यादा लगता है.’

इसके परे अगर बात करें क्रिकेट सट्टे को देशभर में वैधता देने में आने वाली अड़चनों की तो इसे वैधता देना न तो बीसीसीआई के हाथ है और न ही  सुप्रीम कोर्ट के. पब्लिक गैम्बलिंग एक्ट 1867 सट्टेबाजी पर प्रतिबंध लगाता है. सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला इसकी व्याख्या करते हुए खेलों को दो श्रेणी में बांटता है, कौशल वाले खेल (games of skills) और अवसर वाले खेल (games of Chance). कौशल वाले खेलों पर सट्टेबाजी की अनुमति है. फिलहाल घुड़दौड़ और रमी पर ही देश में सट्टा लगाया जाता है. इस लिहाज से तो क्रिकेट की दावेदारी मजबूत दिखती है, क्रिकेट में कौशल लगता है लेकिन सट्टा राज्यों का विषय है. कानून राज्य सरकारों को अधिकार देता है कि वे अपने यहां सट्टा या लॉटरी जैसी व्यवस्था को अनुमति दे या न दें.  केरल, गोवा, सिक्किम और पंजाब सरकार ने ही वर्तमान में अपने यहां सट्टेबाजी को वैधता प्रदान कर रखी है. यहां रमी, घुड़दौड़ और लॉटरी पर सट्टे खेले जाते हैं लेकिन यहां पूरे देश में क्रिकेट सट्टे को वैधता देने की बात हो रही है. इसके लिए केंद्र सरकार की पहल जरूरी है. उसे गैम्बलिंग एक्ट पर पुनर्विचार करना होगा. पर इस मामले में पिछला अनुभव कड़वा रहा है. 2013 में जब आईपीएल सट्टेबाजी और स्पॉट फिक्सिंग कांड सामने आया था, तब भी यही मांग उठी. उस समय केंद्र में यूपीए की सरकार थी. कपिल सिब्बल कानून मंत्री थे. उन्होंने यह कहते हुए इस मांग को सिरे से खारिज कर दिया था कि इससे समाज पर दुष्प्रभाव पड़ेंगे. जनता बाद में इसके लिए सरकार को कोसती नजर आएगी. इस आधार पर कह सकते हैं कि वर्तमान सरकार भी इस पर शायद ही ऐसा कोई जोखिम उठाए. देश के कानून मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने ऐसे संकेत भी दे दिए हैं. इकोनॉमिक्स टाइम्स को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘क्रिकेट पर सट्टेबाजी को वैध बनाने के बारे में तब सोचा जाए जब हम हर स्तर पर इसे रोक पाने में असमर्थ साबित हों. देश का वर्तमान कानून और सरकार सट्टेबाजी को खत्म करने में सक्षम है.’

आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘पहली बात तो विधेयक ही आगे नहीं बढ़ेगा. इसका कड़ा विरोध किया जाएगा. कारण है कि सट्टेबाजी एक गुप्त रूप से चलने वाली गतिविधि है. समाज इसे इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा कि सब खुले में हो और सरकार जन भावना के खिलाफ जाएगी नहीं. यह कुछ-कुछ शराबबंदी वाली स्थिति है.’

सुप्रीम कोर्ट में वकील अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘सट्टा एक सामाजिक बुराई है. इसका अंत करने की जरूरत है न कि बढ़ावा देने की. इसने न जाने कितने ही घर बर्बाद किए हैं. ये एक बुरी लत बन जाती है.’

सोचा जाए तो बात सही भी जान पड़ती है. शेयर बाजार के वैध सट्टे में न जाने कितने ही लोग बर्बाद हो चुके हैं. कईयों ने तो स्वयं का जीवन ही समाप्त कर लिया. शेयर बाजार के एक सट्टा कारोबारी बताते हैं, ‘सट्टा मीठा जहर है. पहले आप छोटे-छोटे दांव खेलते हैं, जीतते हैं और फिर लालच में एक ही बड़े दांव में सब गंवा देते हैं. यह आपको एक तरह से पराश्रित कर देता है. आप काम पर ध्यान कम देते हैं. एक झटके में पैसा बनाने पर ज्यादा.

वर्तमान में कुछ ही देशों में खेलों पर सट्टेबाजी वैध है, इनमें यूके, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका के कुछ राज्य और यूरोप का कुछ भाग शामिल है. क्रिकेट पर सट्टेबाजी केवल यूके में होती है. अगर भारत में भी इसे मान्यता मिलती है तो लोगों का क्रिकेट देखने का नजरिया ही बदल जाएगा.

सट्टे की भाषा में कहा जाता है कि मैच की हर गेंद कीमत रखती है. क्रिकेट पर सट्टा वैध होने के बाद हर क्रिकेट प्रेमी हर गेंद की कीमत का आकलन करता नजर आएगा क्योंकि जिस देश में क्रिकेट धर्म हो, वहां इसके भक्त भला कैसे उससे जुड़े किसी उपक्रम से दूर रह सकते हैं.

प्रेम-पैसा-प्रसारण

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‘ओवर की आखिरी गेंद… सचिन ने फाइन लेग की तरफ खेल दिया है … और इस एक रन के साथ ही सचिन का शतक पूरा..’

कमेंटटेर की आवाज के बीच अचानक से टीवी पर क्रिकेट प्रसारण रुक जाता है. फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन आने लगता है. दो मिनट बाद प्रसारण शुरू होता है. सचिन नए ओवर की पहली गेंद खेल रहे होते हैं.

यह तो महज एक उदाहरण था. हम अक्सर टीवी पर क्रिकेट देखते समय ऐसी स्थिति से रूबरू होते ही रहते हैं. कभी-कभी तो ओवर की आखिरी गेंद फेंके जाने से पहले ही टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन आ जाता है तो कभी ओवर की पहली गेंद देखने से चूक जाते हैं.

विज्ञापन क्रिकेट पर इतना हावी है कि यह खेल प्रसारण कंपनियों के लिए पैसा बनाने की मशीन बन गया है. केवल ब्रेक के ही दौरान विज्ञापन नहीं दिखाए जाते, प्रसारण के दौरान भी हर वक्त टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन की पट्टी चलती रहती है. चौके-छक्के और विकेट के रिप्ले तक विज्ञापन के साथ दिखाए जाते हैं. इस कारण दर्शक कई ऐसे क्षण, जो एक दर्शक की भावनाओं को खेल से जोड़ते हैं, देखने से चूक जाते हैं.

विज्ञापनों के इस अर्थगणित के बीच पहली बार लोढ़ा समिति ने इस खेल से जुड़ी दर्शकों की भावनाओं की बात की है. समिति ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी अपनी रिपोर्ट में विज्ञापन प्रसारण  की गाइडलाइन तय की है. इसके अनुसार मैच के दौरान विज्ञापन केवल लंच और टी ब्रेक के समय ही दिखाए जाएंगे. अगर ऐसा होता है तो भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिहाज से यह एक ऐतिहासिक फैसला होगा, लेकिन बीसीसीआई का पूरा अर्थतंत्र गड़बड़ा जाएगा. बीसीसीआई के राजस्व के एक बहुत बड़े हिस्से का स्रोत टीवी प्रसारण अधिकार हैं. वर्तमान में साल में 650 करोड़ रुपये की कमाई वह इन्हें बेचकर करता है. 2018 तक यह अधिकार स्टार इंडिया के पास हैं. बीसीसीआई ने उसके साथ 2012 में 3,851 करोड़ रुपयेे का अनुबंध छह सालों के लिए किया था. वह एक मैच के प्रसारण का अमूमन 45 करोड़ रुपये बीसीसीआई को देता है. अगर लोढ़ा समिति की सिफारिशें मानने के लिए बीसीसीआई बाध्य होता है तो उसे स्टार इंडिया के साथ अपने अनुबंध को नए सिरे से करना होगा. उस स्थिति में बीसीसीआई को एक बड़ा आर्थिक नुकसान सहना पड़ सकता है.  ब्रॉडकास्टिंग कंपनियों के अार्थिक गणित को समझें तो वह अपना पैसा विज्ञापन और चैनल की सब्सक्रिप्शन फीस के जरिए निकालती हैं. सब्सक्रिप्शन फीस मामूली होती है. लंच और टी ब्रेक के दौरान ज्यादा विज्ञापन चला नहीं सकते. दर्शक चैनल बदल देता है. इससे विज्ञापन से होने वाली उनकी कमाई न के बराबर हो जाएगी. इस स्थिति में वह अपनी सब्सक्रिप्शन फीस तो बढ़ा सकते है पर वह पर्याप्त नहीं होगी. यह भार बीसीसीआई पर ही आएगा और अनुबंध राशि में भारी कमी आएगी. ऐसे में बोर्ड प्रयास करेगा कि ऐसा संभव न हो.

क्रिकेट विशेषज्ञ आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘नुकसान उठाना पड़ेगा लेकिन बोर्ड का अर्थ नहीं बिगड़ेगा. पर्याप्त धन है उसके पास. विश्व का सबसे धनी बोर्ड है. विश्व क्रिकेट के अर्थ में 70 फीसदी हिस्सा उसका है लेकिन विज्ञापन हटाना जनहित में है. इससे मैच का रोमांच बिगड़ता है. वैसे भी आईपीएल तो इससे मुक्त है, वहां से बनाइए पैसा.’ क्रिकेट प्रेमी सौरभ अरोड़ा कहते हैं, ‘खेल के दौरान कई ऐसे क्षण आते हैं जब आपकी भावनाएं चरम पर होती हैं. आप खेल से भावुकता की हद तक जुड़ जाते हैं लेकिन विज्ञापन का दखल आपकी भावनाओं का मजाक उड़ाता जान पड़ता है. हम भी देखना चाहते हैं कि दर्द से कराहता एक चोटिल खिलाड़ी देश के लिए मैदान पर डटे रहने का जज्बा कहां से और कैसे लाता है. ओवर समाप्ति के बाद वह अपने दर्द को नए ओवर की शुरुआत के पहले कैसे पी जाता है. आखिरी बॉल तक चलने वाले करीबी मुकाबलों में ब्रेक के दौरान खिलाड़ी कैसे रणनीति बनाते हैं. दबाव दूर भगाते हैं लेकिन अभी तो स्थिति यह है कि स्क्रीन पर चलने वाली विज्ञापन की पट्टी के कारण हम स्कोर ही नहीं देख पाते हैं. अब ऐसी सिफारिश की गई है तो इस पर अमल होना चाहिए.’  एक अन्य क्रिकेट प्रेमी राहुल काले कहते हैं, ‘हम दर्शक ही हैं जिनकी दीवानगी क्रिकेट को इतना लोकप्रिय बनाती है. इसी लोकप्रियता को बीसीसीआई पैसे के रूप में भुनाता है. पैसा देखने से पहले उसे दर्शकों की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का फैसला आए उससे पहले ही उसे विज्ञापन मुक्त प्रसारण की घोषणा कर देनी चाहिए.’ आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘पैसे और प्रसारण का नेक्सस टूटना चाहिए. मैंने दूसरे देशों में भी रहकर क्रिकेट को फॉलो किया है. वहां निर्बाध प्रसारण होता है. विज्ञापन नहीं, खाली समय में भी क्रिकेट पर चर्चा होता है.’

बहरहाल अगर लोढ़ा समिति की इस सिफारिश पर अमल होता है तो देश में क्रिकेट के प्रसारण की तस्वीर ही बदल जाएगी. यह दूसरे खेलों के लिए भी नजीर साबित होगा. जहां तक बीसीसीआई को होने वाले आर्थिक नुकसान की बात है तो उसकी क्षतिपूर्ति लोढ़ा समिति की अन्य सिफारिशों से होती दिखती है. जैसे कि  सदस्य राज्य संघों को आत्मनिर्भर बनकर अपने पास उपलब्ध संसाधनों से स्वयं ही राज्य में क्रिकेट के विकास के लिए पैसा जुटाने के प्रयास करने होंगे. इसके तरीके भी सुझाए गए हैं. इन सिफारिशों से बोर्ड द्वारा उन्हें दी जानी वाली वार्षिक अनुदान राशि में कमी आएगी. जिससे प्रसारण अधिकार से होने वाले घाटे की भरपाई हो सकती है.

लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर, बदल जाएगा क्रिकेट का चेहरा

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‘जस्टिस लोढ़ा समिति की सिफारिशें देश में केवल क्रिकेट ही नहीं, अन्य खेलों के लिए भी नजीर पेश करने वाली हैं. जितनी गहराई में वे गए हैं, उतनी गहराई से भारतीय क्रिकेट का पोस्टमार्टम कभी नहीं हुआ’

ये शब्द पूर्व भारतीय क्रिकेटर बिशन सिंह बेदी के हैं, जो क्रिकेट में सुधार को लेकर लोढ़ा समिति द्वारा पेश रिपोर्ट पर ‘तहलका’ से चर्चा करते हुए उन्होंने कहे.

इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग कांड ने भारतीय क्रिकेट में भूचाल ला दिया था. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पूर्व जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. समिति को क्रिकेट में सुधार की गुंजाइशें तलाशने का काम सौंपा गया था ताकि देश में ‘धर्म’ माने जाने वाले इस खेल को भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जा सके. पिछले दिनों लोढ़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है. 159 पृष्ठीय इस दस्तावेज में कई क्रांतिकारी सुझाव दिए गए हैं. अगर इन्हें लागू किया जाता है तो देश में क्रिकेट के एक नए युग की शुरुआत होगी और क्रिकेट के प्रशासन से लेकर प्रसारण तक की तस्वीर ही बदल जाएगी. यह रिपोर्ट समिति द्वारा क्रिकेट से किसी न किसी रूप में जुड़ाव रखने वाले 74 व्यक्तियों से चर्चा करने के बाद तैयार की गई है.

रिपोर्ट में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की कार्यप्रणाली पर कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं. रिपोर्ट के हवाले से लोढ़ा समिति कहती है, ‘देश में क्रिकेट का कर्ता-धर्ता बीसीसीआई है पर वह हमेशा ही विवादों से घिरा रहता है. निर्णयों में पारदर्शिता और जबावदेही की कमी होती है. अपने पदाधिकारियों, कर्मचारियों और खिलाड़ियों के हितों के टकराव को बढ़ावा देने वाले कामों की अनदेखी की जाती है. चहेतों का दखल बोर्ड में बनाए रखने के लिए बार-बार नियम बदले जाते हैं. प्रभावी शिकायत तंत्र उपलब्ध नहीं है. गलत कार्यों के प्रति उदासीन रवैया अपनाकर रखा जाता है. सट्टेबाजी व मैच फिक्सिंग में खिलाड़ी और पदाधिकारी लिप्त पाए जाते हैं. बोर्ड सार्वजनिक इकाई है लेकिन कहा जाता है कि यहां कामकाज बंद दरवाजे या गुप्त रास्तों से होता है. वहीं न तो यह अपने फैसलों से प्रभावित होने वालों के प्रति जवाबदेह है और न ही इस खेल में सबसे ज्यादा हित रखने वाले प्रशंसकों के लिए. इसलिए इस खेल से प्यार करने वाले करोड़ों लोगों का विश्वास और जुनून दांव पर है.’

159 पृष्ठीय दस्तावेज में कई क्रांतिकारी सुझाव दिए गए हैं. अगर इन्हें लागू किया जाता है तो देश में क्रिकेट के एक नए युग की शुरुआत होगी

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इन्हीं तथ्यों के आधार पर जो सिफारिशें लोढ़ा समिति ने की हैं, वे अक्सर विवादों में घिरे रहने वाले बीसीसीआई के ताबूत में आखिरी कील ठोकने जैसी हैं. सबसे पहले तो बोर्ड के अंदरूनी ढांचे पर ही प्रहार किया गया है. मंत्री और अफसरों की भागीदारी पर रोक लगाने की बात कही गई है. पदाधिकारियों की उम्र सीमा को अधिकतम 70 साल कर दिया गया है. कोई भी पदाधिकारी बोर्ड में नौ वर्ष से अधिक नहीं रह सकता है. नौ वर्ष का यह कार्यकाल भी उसे तीन चरणों में पूरा करना होगा, लगातार दूसरी बार उसका चुना जाना अवैध होगा. साथ ही बीसीसीआई का जो पदाधिकारी होगा, वो इस दौरान अपने राज्य की इकाई में कोई पद नहीं रख सकेगा. मतलब एक व्यक्ति एक वोट. इसके साथ ही सुझाव दिया गया है कि बोर्ड ‘एक राज्य-एक सदस्य-एक वोट’ की नीति पर चले. देश के सभी राज्यों में क्रिकेट बोर्ड हों और वही बीसीसीआई के पूर्ण सदस्य हों. सर्विस क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी और रेलवे स्पोर्ट्स प्रमोशन बोर्ड की पूर्ण सदस्यता समाप्त कर एसोसिएट सदस्य का दर्जा दिया जाए. समान नियम क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया और नेशनल क्रिकेट क्लब पर भी लागू हों.

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इससे यह तो स्पष्ट है कि अब कोई भी पदाधिकारी बोर्ड में स्थायी नहीं रहेगा. लंबे समय से बोर्ड में जमे रहकर अपना आर्थिक हित तलाशने वालों की बोर्ड से छुट्टी हो जाएगी. लेकिन एक व्यक्ति एक वोट का फैसला कितना असरकारक होगा, इस पर संशय है. लोढ़ा समिति का कहना है, ‘बोर्ड और अपने संबंधित राज्य संघ दोनों में पदाधिकारी होने पर व्यक्ति बोर्ड की शक्तियों का अनुचित लाभ उठाकर अपनी राज्य इकाई को फायदा पहुंचाता है, जिससे राज्य संघों के बीच असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. इसलिए यह नियम जरूरी है.’

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महिला क्रिकेट को मिलेगी आवाज

बोर्ड की कार्यसमिति में महिलाओं का अब तक कोई प्रतिनिधित्व नहीं रहा है. उनका घरेलू क्रिकेट सत्र केवल एक माह का ही होता है और न ही पुरुषों की तरह महिला क्रिकेटरों को बीसीसीआई कोई सेंट्रल कॉन्ट्रैक्ट देता है. क्रिकेट से उनकी नाममात्र की कमाई होती है. अन्य देशों में कॉन्ट्रैक्ट की व्यवस्था है. इन सब बातों को ध्यान में रख समिति ने बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की भी सिफारिश रखी है. महिला क्रिकेटरों की आवाज न दबे इसके लिए एक महिला क्रिकेट समिति के साथ महिला क्रिकेटर संघ बनाने की सिफारिश भी की गई है. साथ ही बोर्ड की अपेक्स काउंसिल में भी एक महिला सदस्य को रखा गया है. कुछ ऐसा ही प्रावधान विकलांग क्रिकेटरों के लिए भी किया गया है. उनके लिए भी विकलांग क्रिकेटर संघ व विकलांग क्रिकेट समिति की बात कही गई है. यह समिति देशभर में विभिन्न श्रेणी के विकलांगों द्वारा खेले जाने वाले क्रिकेट को एक संयुक्त मंच पर लेकर आएगी. फिलहाल विकलांग क्रिकेट को बोर्ड कितनी गंभीरता से लेता है इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि बीसीसीआई देश में क्रिकेट की कर्ता-धर्ता है लेकिन न तो उसकी वेबसाइट पर विकलांग क्रिकेट से संबंधित कोई जानकारी मिलती है और न ही कभी इसके कर्ता-धर्ता मीडिया में इस पर बात करते नजर आते हैं. [/box]

वर्तमान में बोर्ड अध्यक्ष शशांक मनोहर तीन वोट (एक कोई फैसला टाई होने पर) और अनुराग ठाकुर, अमिताभ चौधरी, अनिरूद्ध चौधरी, राजीव शुक्ला अपने पास दो-दो वोट का अधिकार रखते हैं. इस नियम के बाद सीधे तौर पर बोर्ड में इनके प्रभाव में कटौती हो जाएगी. लेकिन इस नियम में पूरी संभावना है कि इसका इलाज राज्य संघों में डमी उम्मीदवार को खड़ा करके किया जाएगा.

ऐसे कई राज्य और केंद्रशासित प्रदेश हैं, जो बीसीसीआई की सदस्यता तक से वंचित हैं. वहां क्रिकेट का कोई ढांचा नहीं है. क्या वहां प्रतिभाएं नहीं हैं?

वहीं ‘एक राज्य-एक सदस्य-एक वोट’ की नीति पर क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (कैब) के सचिव और पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता आदित्य वर्मा का कहना है, ‘आगे बढ़ने का अधिकार सबका है. बीसीसीआई का वर्तमान ढांचा भेदभावपूर्ण है. एक तरफ तो महाराष्ट्र के पास बोर्ड में चार वोट का अधिकार है, गुजरात के पास तीन वोट हैं. तो दूसरी तरफ ऐसे कई राज्य और केंद्रशासित प्रदेश हैं, जिन्हें बीसीसीआई की सदस्यता तक प्राप्त नहीं है. वहां क्रिकेट का ढांचा तक नहीं है. क्या वहां प्रतिभाएं नहीं हैं?’ वहीं क्रिकेट एक्सपर्ट आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘सर्विस, रेलवे और  यूनिवर्सिटी के वोट चुनाव के वक्त अपने पक्ष में करना सबसे आसान होता है. मान लीजिए बोर्ड अध्यक्ष रेल मंत्री के करीबी हैं तो रेल मंत्री से सिफारिशी आवेदन लगवाकर रेलवे के वोट को प्रभावित कर दिया जाता है. यहां सौदेबाजी होती है.’

हालांकि असली विवाद तो महाराष्ट्र और गुजरात में खड़ा होगा. पूर्व भारतीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘महाराष्ट्र और गुजरात में तीन-तीन संघ हैं. तीनों बोर्ड के पूर्ण सदस्य हैं. तीनों घरेलू क्रिकेट में अपनी टीम उतारते हैं. यह सिफारिश लागू होने के बाद हर राज्य से दो संघों को अपनी पूर्ण सदस्यता छोड़नी होगी. हालांकि वे बोर्ड के एसोसिएट सदस्य बने रहेंगे लेकिन कौन छोड़ना चाहेगा अपनी पूर्ण सदस्यता! यहां बड़ा विवाद होगा. उसका निपटारा कैसे होगा, किसका वोटिंग अधिकार बरकरार रखा जाएगा? इस पर स्थिति साफ नहीं है.’ वैसे विशेषज्ञों का मानना है कि यह नीति देश में क्रिकेट की लोकप्रियता को बढ़ाने वाली साबित हो सकती है. इससे कई नए राज्यों में क्रिकेट का ढांचा खड़ा होगा और क्रिकेट का प्रसार देश के कोने-कोने तक हो जाएगा. उत्तर पूर्व भारत के राज्य जहां स्पोर्टिंग टैलेंट तो हैं पर खेल के लिए जरूरी संसाधन नहीं, वहां भी क्रिकेट अपनी पहुंच बना लेगा.

एक सिफारिश यह भी है कि बोर्ड खिलाड़ियों का एक संघ बनाए. पर यह पहली बार नहीं है जब खिलाड़ियों का संघ बनाने की बात उठी हो. इससे पहले भी कई पूर्व खिलाड़ियों ने संघ बनाने के प्रयास किए हैं पर बोर्ड उन्हें साम, दाम, दंड, भेद के सहारे कुचलता रहा है. पूर्व भारतीय खिलाड़ी अरुण लाल के अनुसार, ऐसा ही एक प्रयास कुछ वर्ष पहले भी हुआ था. कुछ पूर्व खिलाड़ियों ने मिलकर प्लेयर्स एसोसिएशन का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष नवाब पटौदी थे और संस्थापक सदस्यों में सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली जैसे दिग्गज थे. लेकिन बीसीसीआई ने उसे मान्यता नहीं दी. मनिंदर सिंह बताते हैं, ‘हमारी परेशानी यही रही है कि बोर्ड को लगता है कि अगर खिलाड़ी संघ बन गया तो क्रिकेट पर उसका एकाधिकार समाप्त हो जाएगा. उसके समकक्ष खिलाड़ियों का एक ऐसा संगठन खड़ा हो जाएगा जो उसे चुनौती दे सकेगा. इसलिए जब भी ऐसे प्रयास हुए बोर्ड ने हमें किसी न किसी हथकंडे का प्रयोग कर इसे तोड़ दिया.’ वह आगे कहते हैं, ‘प्लेयर्स एसोसिएशन कोई समकक्ष संस्था नहीं होती. बोर्ड को यह समझना होगा. यह खिलाड़ियों और शासकों को जोड़ने की कड़ी है. कुछ इस तरह समझिए, अभी होता यह है कि साल के बीच बोर्ड को कभी भी खाली समय मिला वो कोई सीरीज फिक्स कर देता है. अब मान लीजिए अगर प्लेयर्स एसोसिएशन अस्तित्व में है तो खिलाड़ी उसके सामने अपनी बात रख सकते हैं. वे कह सकते हैं कि हम पर खेल का दबाव ज्यादा है और शरीर को आराम का मौका नहीं मिल रहा. एसोसिएशन बोर्ड पर दबाव डाल सकती है, लेकिन फिलहाल तो तानाशाही है. खिलाड़ियों को जैसे चाहे जोत लो.’ अरुण लाल कहते हैं, ‘अभी समिति ने केवल कोर्ट के समक्ष अपनी सिफारिशें रखी हैं. यह तय नहीं हुआ है कि खिलाड़ियों का संघ बन ही रहा है. यह तो भविष्य बताएगा कि क्या होता है.’ मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘क्रिकेट एसोसिएशन बनती है तो खिलाड़ियों पर दबाव कम होगा और उनके खेल में भी सुधार आएगा.’ इससे उन खिलाड़ियों की भी आवाज बुलंद होगी जो आर्थिक तौर से क्रिकेट पर ही निर्भर हैं और बीसीआईआई के खिलाफ आवाज उठाने का जोखिम नहीं उठा पाते.

‘क्रिकेट जनता की धरोहर है. फिर जनता को उसके बारे में जानने का हक क्यों नहीं है? यह ताकतवर लोगों की जागीर नहीं है’

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लोकपाल की नियुक्ति से बोर्ड की कार्यप्रणाली में आएगा सुधार

रिपोर्ट में बोर्ड पदाधिकारियों, कर्मचारियों और खिलाड़ियों पर हितों के टकराव, सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग के मामले में नजर रखने के लिए एथिक्स ऑफिसर (नैतिक अधिकारी), निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव अधिकारी और बोर्ड के आंतरिक मसलों को निपटाने के लिए एक लोकपाल की व्यवस्था की भी बात की गई है. इससे संभावना है कि हमेशा विवादों में घिरे रहने वाले बीसीसीआई की कार्यप्रणाली में सुधार आएगा. वर्तमान स्थिति यह है कि कई मामलों में बीसीसीआई देश के विभिन्न न्यायालयों में मुकदमे लड़ रहा है. इसके बाद उम्मीद है कि ऐसे मामलों मे कमी आ सकती है. साथ ही बोर्ड के वित्तीय लेन-देन पर नजर रखने के लिए कैग के अधिकारी की नियुक्ति की बात भी की गई है. यही संरचना बोर्ड के हर सदस्य संघ को भी अपनानी होगी. देखा गया है कि अधिकांश राज्य क्रिकेट इकाईयां विवादों की शिकार हैं, जिससे खेल और खिलाड़ियों का प्रदर्शन भी प्रभावित हो रहा है. बिहार, राजस्थान, पुडुचेरी के संघों का बोर्ड से विवाद बना हुआ है. दिल्ली क्रिकेट संघ अपने ही आंतरिक भ्रष्टाचार से जूझ रहा है. सिक्किम और छत्तीसगढ़ के संघ भी पूर्ण सदस्यता की मांग के लिए बोर्ड से जूझते ही रहते हैं. मणिपुर क्रिकेट संघ से भी बोर्ड के मधुर संबंध नहीं हैं. वहीं मैचों के आवंटन को लेकर भी विवाद होते रहते हैं. लोकपाल की नियुक्ति के बाद इस स्थिति में निश्चित रूप से सुधार होने की संभावना है. साथ ही आईपीएल की गवर्निंग काउंसिल में पारदर्शिता लाने इसका ढांचा बदला गया है. अब इसमें नौ सदस्य होंगे जिनमें से चार बोर्ड से बाहर के होंगे. [/box]

लोढ़ा समिति की सिफारिशों की लगभग सभी पूर्व खिलाड़ियों ने सराहना की है लेकिन एक मुद्दा है जिस पर मतभेद बना हुआ है. टीम के चयन में पारदर्शिता लाने और इसे भाई-भतीजेवाद से दूर रखने के लिए समिति ने राष्ट्रीय चयन समिति को पांच की जगह केवल तीन सदस्यों तक ही सीमित रखने को कहा है. पूर्व खिलाड़ियों का मानना है कि भारत ऑस्ट्रेलिया नहीं है जहां कुछ चुनिंदा टीमें ही घरेलू क्रिकेट में हैं. भारत में क्रिकेट का ढांचा बहुत बड़ा है. केवल तीन चयनकर्ता सक्षम नहीं होंगे कि वह देशभर के खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर नजर रख सकें. मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ के अध्यक्ष व पूर्व राष्ट्रीय चयनकर्ता संजय जगदाले कहते हैं, ‘तीन चयनकर्ताओं का फॉर्मूला व्यावहारिक नहीं होगा. इससे उन पर आवश्यकता से अधिक दबाव होगा.’ मनिंदर सिंह भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं. वह कहते हैं, ‘चयनकर्ता तो पांच ही होने चाहिए थे. हां, अच्छी बात यह है कि एक क्रिकेट टैलेंट समिति भी बना दी गई है जो देशभर से प्रतिभा खोजने का काम करेगी. इससे चयनकर्ताओं पर दबाव कम होगा.’ पर आशीष शुक्ला का कहना है, ‘कैसा दबाव? चयनकर्ता घंटेभर में टीम का चयन कर लेते हैं. सारे खिलाड़ी वही होते हैं. विवाद तो बस अपने-अपने जोन के चहेते खिलाड़ियों को तवज्जो देने पर होता है. अब चयन प्रभावी होगा.’

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/justice-lodha-committee-has-recommended-to-leaglise-betting/” style=”tick”]क्या होगा अगर सट्टेबाजी पर लग जाए ‘कानूनी मुहर'[/ilink]

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लेकिन बोर्ड का सबसे बड़ा सिरदर्द है सूचना का अधिकार कानून. जस्टिस लोढ़ा बोर्ड को इसके दायरे में लाना चाहते हैं. वैसे तो पहले भी बीसीसीआई को आरटीआई के दायरे में लाने की बात उठती रही है लेकिन बोर्ड हमेशा इससे बचने का प्रयास करता रहा है. बोर्ड तर्क देता है कि वह एक स्वतंत्र संस्था है, जो सरकार से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं करता इसलिए उसे इसके बाहर रखा जाना चाहिए. यह उसकी स्वायत्तता पर हमला होगा. लेकिन जस्टिस लोढ़ा इस पर अलग ही राय रखते हैं. उनका मानना है कि बोर्ड सार्वजनिक कार्यों का निर्वहन करता है. इसलिए लोगों को अधिकार है कि वह बोर्ड की गतिविधियों पर सवाल उठाए. आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘क्रिकेट जनता की धरोहर है. फिर जनता को उसके बारे में जानने का हक क्यों नहीं है? यह ताकतवर लोगों की जागीर नहीं है. जो लोग विरोध कर रहे हैं वे सिर्फ संरक्षक हैं और संरक्षक भी इसलिए क्योंकि हम इस खेल को पसंद करते हैं.’ मनिंदर भी आरटीआई के तहत बोर्ड को लाने के समर्थन में हैं. लेकिन उन्हें इस बात का भी डर है कि कल को अगर टीम के चयन पर भी आरटीआई लगाई जाने लगी तो क्या होगा? लेकिन आदित्य वर्मा का कहना है, ‘टीम में चयन प्रदर्शन के आधार पर होता है और प्रदर्शन दिखता है.’ मनिंदर इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वह कहते हैं, ‘प्रदर्शन एक तो वह होता है कि खिलाड़ी घरेलू क्रिकेट में रनों का पहाड़ खड़ा कर दे या विकेटों की झड़ी लगा दे. और एक वह होता है कि खिलाड़ी में माद्दा कितना है. वह विपरीत परिस्थितियों में कैसे खुद को ढालता है. कई बार देखा गया है कि घरेलू सत्र में सर्वाधिक रन बनाने और विकेट लेने वाले खिलाड़ी का चयन राष्ट्रीय टीम में नहीं होता, उससे आधे रन या विकेट वाले का हो जाता है. ऐसा सिर्फ इसलिए कि भले ही कम रन बनाए पर जिन हालातों में बनाए वे बहुत कठिन थे. अब कल को होगा ये कि अगर सत्र के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज, गेंदबाज या ऑलराउंडर का चयन टीम में नहीं होगा तो लगा दो आरटीआई. इस चयनकर्ताओं की जरूरत ही नहीं रह जाएगी. सिर्फ जिसके आंकड़े सबसे ज्यादा प्रभावित हों, उसे ही खिलाइए.’ आशीष शुक्ला भी ऐसी संभावना जताते हैं पर यह भी मानते हैं कि अगर किसी काम से दस बुराइयों का अंत हो रहा है और एक पनप रही है तो उस काम को करना चाहिए. वह कहते हैं, ‘आज बोर्ड में इतना गड़बड़ घोटाला है कि अगर इसे आरटीआई के दायरे में नहीं लाया गया तो देश में क्रिकेट सिर्फ पैसा बनाने का एक हथियार बनकर रह जाएगा.’ पर क्या बीसीसीआई इसके लिए राजी होगा?

‘बोर्ड में इतना गड़बड़-घोटाला है कि अगर इसे आरटीआई के दायरे में नहीं लाया गया तो देश में क्रिकेट पैसा बनाने का हथियार बनकर रह जाएगा’

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कुछ अन्य सिफारिशें

  • राष्ट्रीय चयन समिति का हिस्सा केवल वही खिलाड़ी होंगे जिन्होंने टेस्ट मैचों में देश का प्रतिनिधित्व किया है.
  • टीवी पर मैच के प्रसारण के दौरान केवल ड्रिंक/टी ब्रेक और लंच ब्रेक के दौरान ही विज्ञापन दिखाए जाएंगे. साथ ही पूरी टीवी स्क्रीन पर मैच का प्रसारण ही होगा. कोई विज्ञापन नहीं दिखाया जाएगा.
  • आईपीएल और बीसीसीआई के संचालन के लिए अलग-अलग तंत्र होगा.
  • खिलाड़ियों को आराम देने के लिए आईपीएल के सत्र और राष्ट्रीय कैलेंडर में 15 दिन का अंतराल रखना होगा.
  • खिलाड़ियों के एजेंटों का पंजीकरण करना होगा.
  • कमेंटेटर के साथ होने वाले अनुबंध से बोर्ड को वह शर्त हटानी होगी जो उन्हें बोर्ड की नीतियों की आलोचना से रोकती है.
  • बोर्ड से संबंधित हर गतिविधि, दस्तावेज और लेन-देन से संबंधित जानकारी वेबसाइट पर डालनी होगी. राज्य संघ भी इसके लिए बाध्य होंगे.
  • बोर्ड की रोजमर्रा की नान क्रिकेटिंग कार्रवाई के लिए पेशेवरों की टीम सीईओ के नेतृत्व में नियुक्त की जाए. जिससे बोर्ड की कार्यप्रणाली पेशेवर रूप ले.
  • मैच के दौरान स्टेडियम में किसी भी परिस्थिति में टिकट का कोटा 10 प्रतिशत से अधिक नहीं रखा जाएगा. इससे अब जनता के लिए अधिक सीटें उपलब्ध होंगी.
  • टिकट विक्रय और स्टेडियम की सुविधाओं  से संबंधित शिकायत लोकपाल से की जा सकेगी.
  • मैच फिक्सिंग को आपराधिक कृत्य बनाया जाए और भारतीय कानून के मुताबिक सजा हो.
  • फिक्सिंग से निपटने बोर्ड पुलिस में एक अपना विशेष जांच दस्ता बनाए, जो फिक्सिंग के मामले सामने आने पर सक्रिय हो जाए. इस दस्ते का खर्चा बोर्ड उठाए. [/box]

बोर्ड की हालिया स्थिति देखी जाए तो जस्टिस लोढ़ा द्वारा फेंके गए बाउंसर को वह न तो खेलने की स्थिति में है और न छोड़ सकता है. आगे क्या करना है इस पर बोर्ड का रूख अभी स्पष्ट नहीं है. फिलहाल बोर्ड सचिव अनुराग चौधरी ने सभी राज्य संघों को ई-मेल कर इन सिफारिशों पर उनके सुझाव मांगे हैं. उनसे पूछा गया है कि इन सिफारिशों से आपका संघ कितना प्रभावित होगा? लेकिन बोर्ड के लिए आगे की राह मुश्किल नजर आती है. देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा जैसी शख्सियत रखते हैं, उसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी सिफारिशों को सिरे से खारिज करने की संभावनाएं कम ही हैं. यहां बोर्ड पूरी तरह से फंसा हुआ है. वह न तो सभी सिफारिशों का अस्वीकार कर सकता है और न ही चुनिंदा को मानने की स्थिति में है. वह उच्चतम न्यायालय के आदेश पर निर्भर है. या तो उसे सभी सिफारिशों को मानना पड़ सकता है या फिर किसी को भी नहीं. वहीं इन सिफारिशों से जिनके हित प्रभावित हो रहे हैं, उनमें खलबली मची हुई है. मुंबई क्रिकेट संघ (एमसीसी) के संयुक्त सचिव पीवी शेट्टी कहते हैं, ‘हम इन सिफारिशों से सहमत नहीं हैं. इन पर विचार कर बीसीसीआई को बताया जाएगा.’ गौरतलब है कि एमसीसी के अध्यक्ष शरद पवार फिर से बोर्ड अध्यक्ष बनने का सपना पाले हुए हैं. लेकिन उनकी उम्र 70 के पार हो चुकी है.

अब यह देखना रोचक होगा कि क्या यह सिफारिशें लागू होती हैं और देश के क्रिकेट में लोढ़ा युग की शुरुआत होती है या फिर पहले की तरह ही खेल के साथ खिलवाड़ होता रहेगा.

यामी और पुलकित का याराना!

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कहते हैं कि जोड़ियां ऊपरवाला बनाता है और बॉलीवुड में जोड़ियां फिल्मों के साथ बनती-टूटती रहती हैं. पिछले साल नवंबर में ‘फुकरे’ फेम पुलकित सम्राट बॉलीवुड के दबंग अभिनेता सलमान खान की मुंहबोली बहन श्वेता रोहिरा से अलग हो गए. दोनों की शादी बमुश्किल सालभर ही चल सकी. कयास लगाए जा रहे थे कि इसके पीछे फेयर एंड लवली गर्ल यामी गौतम का हाथ है. हालांकि दोनों इसे नकार रहे थे. अब इस बात की अफवाह उड़ रही है कि दोनों ने एक-दूसरे से रिलेशनशिप की बात स्वीकार कर ली है. दरअसल ऐसी अफवाह इसलिए उड़ रही है क्योंकि फिल्म ‘सनम रे’ की शूटिंग के समय यामी के साथ एक किसिंग सीन के लिए पुलकित तुरंत राजी हो गए लेकिन जब उर्वशी रौतेला के साथ किसिंग सीन करने को कहा गया तो उन्होंने साफ मना कर दिया. तो जनाब पुलकित और यामी अब तो कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश नहीं रह गई है.

‘सनम रे’ की शूटिंग के समय पुलकित ने किया उर्वशी के साथ किसिंग सीन से इंकार

 

रनबीर-कैटरीना में दरार!

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भाई लोग! आखिरकार जिसका डर था वही हुआ. रनबीर कपूर और कैटरीना कैफ की जोड़ी में दरार की खबर बॉलीवुड में जंगल की आग की तरह फैल गई है. रनबीर पिछले कुछ समय से अपने माता-पिता से अलग कैटरीना के साथ लिव-इन में रह रहे थे. दोनों पिछले छह सालों से रिलेशनशिप में थे. कपूर परिवार के सूत्रों की मानें तो कुछ दिन पहले ही रनबीर अपना सामान लेकर वापस अपने घर लौट आए हैं. हालांकि अभी न तो इस ब्रेकअप की आधिकारिक पुष्टि हुई है और न ही ये पता चल सका है कि ऐसा क्यों हुआ है. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘तमाशा’ के समय रनबीर कपूर और दीपिका पादुकोण की केमिस्ट्री की वजह से कैटरीना असहज महसूस कर रही थीं. बहरहाल जो कुछ भी हुआ हो, लेकिन इस खबर से वे प्रशंसक दुखी हैं जो रनबीर-कैटरीना की जोड़ी को पसंद करते हैं वहीं कुछ ये भी कह रहे हैं कि ये सब सिर्फ दिखावा है. कैटरीना अपनी आने वाली फिल्म ‘फितूर’ के लिए ये सब पब्लिसिटी स्टंट के तौर पर कर रही हैं. वहीं कैटरीना के वे प्रशंसक खुश नजर आ रहे हैं, जिन्हें लगता था कि रनबीर उनके लिए ठीक चुनाव नहीं थे.

इसे कुछ लोग कैटरीना का पब्लिसिटी स्टंट बता रहे हैं

 

श्रीदेवी की बेटी का करारा जवाब

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इन दिनों कुछ स्टार किड्स सोशल मीडिया में अपनी तस्वीरों पर मिल रही भद्दी टिप्पणियों की वजह से चर्चा में हैं. अभिनेत्री पूजा बेदी की बेटी आलिया फर्नीचरवाला के बाद ऐसी भद्दी टिप्पणियों की शिकार अभिनेत्री श्रीदेवी की बेटी खुशी हुई हैं. खुशी ने हाल ही में अपनी कुछ तस्वीरेें इंस्टाग्राम पर शेयर की हैं. ये तस्वीरें उनकी एक दाेस्त की बर्थ-डे पार्टी की हैं. इन्हीं तस्वीरों पर उन्हें भद्दी टिप्पणियों का सामना करना पड़ा. हालांकि उन्होंने इसका करारा जवाब दिया है. खुशी ने एक पोस्ट में लिखा है, ‘मैं अपनी तस्वीर इसलिए शेयर करती हूं क्योंकि मुझमें आत्मविश्वास भरा हुआ है. किसी को यह अधिकार नहीं है कि मेरे कपड़े और लुक्स पर भद्दी टिप्पणी करे.’ उनके इस जवाब का आलिया फर्नीचरवाला ने सपोर्ट किया है और खुशी को ‘पॉर्न रेडी’ बताने वाले कमेंट्स की निंदा की है. इसे कहते हैं ईंट का जवाब पत्थर से देना!

 

 

 

 

 

 

 

ग्राम स्वराज का काला सच

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पत्नी के चुनाव हारने पर पति ने किया मर्डर, प्रत्याशी की गोली मार कर हत्या, भाई के हारने पर ताऊ को मार डाला, प्रत्याशी के भतीजे को मारी गोली, प्रधानी का चुनाव हारने पर समर्थक को मारी गोली. ये उत्तर प्रदेश में पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव नतीजे आने के पहले और बाद अखबारों में रोजाना आई चंद सुर्खियां हैं. वैसे भी राज्य में पंचायत चुनावों के नतीजे भले आ गए हों लेकिन हिंसा की घटनाओं में कोई कमी नहीं दिख रही. बीते दिनों मिर्जापुर जिले में चुनाव जीतने वाली एक महिला की नाबालिग बेटी से सामूहिक दुष्कर्म करने का मामला सामने आया है. महिला के विरोधियों की प्रताड़ना से तंग आकर उस लड़की ने खुदकुशी कर ली. राज्य में चुनाव परिणाम आने के बाद हुई हिंसा में अब तक ​करीब दो दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है और 50 से ज्यादा लोग घायल हैं.

पंचायत चुनाव में हुई भारी हिंसा यह बात सोचने पर मजबूर कर रही है कि आखिर गांधी के सपनों को आधार बनाकर शुरू किया गया सत्ता के विकेंद्रीकरण का लक्ष्य कहीं अपने उद्देश्य से भटक तो नहीं गया है. इस पर वरिष्ठ चिंतक बद्री नारायण कहते हैं, ‘जब पंचायती राज कानून बना था, तो इसकी मूल आत्मा इस उम्मीद पर केंद्रित थी कि इस कानून के जरिये सत्ता का विस्तार कमजोर और निर्बल तबकों तक होगा. लोकतंत्र में निर्बल लोगों की सहभागिता बढ़ेगी. लेकिन अभी जो दिखाई दे रहा है, उससे लगता है कि ग्रामीण क्षेत्र के शक्तिवान और अभिजात्य लोगों ने सत्ता-विस्तार की इस प्रक्रिया को भी अपने कब्जे में कर लिया है. मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों और शक्तिवानों का जो तबका सत्ता-संस्थानों में शीर्ष पर काबिज है, वही आधार तल पर सत्ता के प्रसार की प्रक्रिया व उसके संसाधनों को भी अपने कब्जे में लेने की कोशिश में जुट गया है. बेशक इससे ‘ग्राम स्वशासन’ या ‘स्थानीय स्वराज’ की मूल भावनाओं पर प्रश्नचिह्न लग गया है, पर हकीकत यही है. यह देखने में आ रहा है कि भारतीय समाज में लोकतंत्र के प्रसार के साथ हिंसा और भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों में भी इजाफा हो रहा है. सत्ता का विकेंद्रीकरण तो हो रहा है, लेकिन इसके साथ भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण और फैलाव हो रहा है. हिंसा की बढ़ती घटनाएं तात्कालिक रूप से ​तो समाज के लिए विभाजनकारी हैं, लेकिन मुझे लगता है लंबे समय में यह फलदायी होंगी. क्योंकि लोग अब धीरे-धीरे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे हैं. धीरे-धीरे चुनावों में हिंसा अप्रासंगिक हो जाएगी.’ हालांकि यह एक पक्ष है. चुनाव में हिंसा और अपराध की घटनाओं का बढ़ना समाज में बढ़ती हिंसा को परिलक्षित कर रहा है. अब पंचायत चुनावों में विधायक और सांसदों के चुनाव की तरह बढ़े पैमाने पर पैसा खर्च किया जा रहा है. चुनाव की पूरी प्रक्रिया का खर्चीला होना भी हिंसा के बढ़ने का एक कारण है.

वरिष्ठ पत्रकार शीतला प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘हमारे समाज अपराध का बोलबाला में बढ़ रहा है. घर, परिवार में हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं. यही पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों में दिख रहा है. इसके अलावा हमारा आर्थिक विकास का ढांचा ऐसा है, जिससे अपराध को बढ़ावा मिलता है. अब देखिए प्रधान पद के लिए चुनाव खर्च की सीमा 75 हजार रुपये थी, लेकिन मेरी जानकारी में आया है कि लोगों ने 5 से 10 लाख रुपये तक खर्च किए हैं. अब अगर चुनाव में इतना पैसा लगाया जाएगा तो निश्चित ही अपराध को भी बढ़ावा मिलेगा.’ ​

‘इस बार के चुनाव ने हमें यह भी बताया है कि जनतंत्र ताकत व साधनों के प्रसारण की प्रक्रिया के साथ भ्रष्टाचार और हिंसा का प्रसार भी करता है’

कुछ ऐसा ही मानना वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक अरुण कुमार त्रिपाठी का है. वे कहते हैं, ‘राजनीतिशास्त्र अपराधशास्त्र की ही एक शाखा है. मध्यवर्ग ने अपनी सुविधा के हिसाब से उसे बहुत गौरवपूर्ण बनाने की कोशिश की है. तरह-तरह के आदर्श जोड़े और संस्थाएं बनाई. इसके बावजूद आज भी राजनीतिशास्त्र की जो कार्यप्रणाली है उसमें अपराध अंतर्निहित है. यह बहुत ही दुखद बात है. इन चुनावों में हिंसा जाति, धर्म आदि कई रूपों में देखने को मिल रही है. सबसे खराब बात यह है कि इसे रोकने के लिए न तो किसी के पास कोई विचार है, न ही संस्था के स्तर पर ही कोई प्रयास किया जा रहा है.’ हालांकि चुनाव में आवश्यकता से अधिक खर्च करने की बात आम तौर पर होती है, लेकिन जब इस बारे में इलाहाबाद के असिस्टेंट डिस्ट्रिक्ट इलेक्शन ऑफिसर दिनेश कुमार तिवारी से बात की तो उन्होंने बताया कि इस पूरे पंचायत चुनाव के दौरान जिले में उन्हें तय सीमा से अधिक खर्च की कोई शिकायत नहीं आई. इसलिए इसपर उन्होंने कोई कदम नहीं उठाया.

वैसे अगर देखा जाए तो पंचायती राज संस्थाओं के गठन के पीछे का मूल उद्देश्य सुदूरवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक विकास योजनाओं को पहुंचाना था. महात्मा गांधी ने कहा था, ‘सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए बीस व्यक्ति नहीं चला सकते, वो तो नीचे हर गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए. सत्ता के केंद्र बिंदु जो अभी दिल्ली, कलकत्ता या बंबई जैसे बड़े शहरों में है, मैं उसे भारत के सात लाख गांवों में बांटना चाहूंगा.’ इसी को ध्यान में रखते हुए ग्राम पंचायतों को पंचायती राज कानून ने महत्वपूर्ण वित्तीय शक्तियां दी हैं. 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज की विकेंद्रित व्यवस्था में ग्राम पंचायतों के पास अनेक कार्य आ गए हैं. इनमें पंचायती राज के अलावा सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील, साफ सफाई, हैंडपंपों का रखरखाव, वृद्धावस्था, विधवा, गरीब पेंशन, छात्रवृत्ति वितरण, राशन कार्ड तथा अन्य अनेक योजनाओं के लाभार्थियों का चयन एवं क्रियान्वयन शामिल है. इसके अलावा गांव में सड़क, खड़ंजा, नाली बनवाने का काम भी प्रधान के जिम्मे है. इन सबके इतर मनरेगा के तहत कराए जा रहे कार्य भी प्रधान पद के दायित्वों के अंतर्गत आते हैं.

सरकार अपने संसाधनों के एक महत्वपूर्ण भाग का वितरण आधार तल पर पंचायत प्रधानों के माध्यम से करती है. छोटी से छोटी ग्राम सभा में भी पांच साल में खर्च करने के लिए न्यूनतम 20 लाख रुपये आते हैं. बड़ी ग्राम सभाओं में यह राशि 50 लाख रुपये तक भी हो जाती है. यह पैसा प्रधान के खाते में सीधे आता है. इस कारण लोकतंत्र की संभावना के साथ भ्रष्टाचार की नई आशंका भी जन्म लेती है. इसीलिए ग्राम पंचायतों के चुनाव में न सिर्फ गलाकाट स्पर्धा दिखने लगी है, बल्कि यह लगातार बढ़ भी रही है. बद्री नारायण कहते हैं, ‘सत्ता से आने वाले इस धन को हड़पने की बढ़ती होड़ ने इस बार पंचायत चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा को जन्म दिया है. हत्या, अपहरण, धमकी, बूथ कब्जा अनेक तरह से शक्तियों के विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का अपहरण कर लिया गया है. हमारे यहां राज्य और जनतंत्र के प्रसार का इतिहास हमें बताता है कि भ्रष्टाचार और हिंसा का चोली दामन का संबंध है. इस चुनाव ने हमें यह भी बताया है कि जनतंत्र अपने साथ ताकत व साधनों के प्रसारण की प्रक्रिया के साथ भ्रष्टाचार और हिंसा का प्रसार भी करता है. यहां एक नैतिक प्रश्न भी खड़ा होता है कि जो लोग जनता के इस धन पर बुरी नजर के साथ ही चुनाव में आ रहे हैं, वे इसका सही इस्तेमाल करेंगे कैसे? मांस वितरण करने के लिए अगर गिद्ध को दे दिया जाए तो क्या वह लोगों तक पहुंच पाएगा? गिद्ध मांस को खुद ही खा जाएगा. संभव है इन चुने गए पंचायत प्रधानों का एक वर्ग विकास को जमीन तक ले जाना चाहता हो, लेकिन फिर भी यह शंका बनी हुई है कि जनतंत्र के प्रसार की इस प्रक्रिया में हम अब तक कितना जनतांत्रिक बन पाए हैं.’

हालांकि इस दौरान सबसे खराब बात यह रही कि सामाजिक रूप से हिंसा और भ्रष्टाचार को स्वीकृति मिल गई. गांवों में इसे लेकर कोई विरोध नहीं रहा, जो लोग चुनाव लड़ रहे थे वे खुलेआम पैसा बांटने से लेकर दूसरे अनैतिक कामों में लगे रहे. अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘चुनावों के दौरान पूरे समाज का भ्रष्ट हो जाना बहुत खतरनाक है. पंचायत चुनावों में खूब पैसा खर्च किया गया है. खिलाना-पिलाना, दारू-मुर्गा जैसी बातें अब सामान्य हो गई है. खुले तौर पर मतदाताओं को खरीदने की होड़ मची हुई थी. पता चलता था कि एक मतदाता को किसी प्रत्याशी ने हजार रुपये दिए, तो दूसरे ने आकर दो हजार रुपये दिए. सबसे दुखद यह रहा कि मतदाता ने आखिर में वोट उसे दिया जिसने ज्यादा पैसे दिए. मतदाताओं ने अपनी प्राथमिकता में प्रत्याशी के चरित्र, उसकी पढ़ाई-लिखाई, उसके सामाजिक जीवन, उसकी सोच को रखा ही नहीं. वह सिर्फ आखिरी समय में प्रत्याशी द्वारा खर्च किए गए पैसे पर सिमटे रहे. इसके चलते पंचायत को बनाने की असली मंशा पर सवाल उठ रहे हैं.’ पंचायत चुनाव जीतकर आए लोगों की कुल संपत्ति पर गौर किया जाए तो यह बात भी समझ आती है. उप्र चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार नवनिर्वाचित ग्राम प्रधानों में से 78 फीसदी लखपति हैं. इनके पास पांच लाख से अधिक की चल या अचल संपत्ति है.

पंचायत चुनावों में 44 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है. एकबारगी इस आंकड़े को देखकर राहत महसूस होती हैं, लेकिन अगर गौर से देखें तो यह कहानी दूसरी ही नजर आती हैं. प्रदेश में प्रधान पति, प्रधान पुत्र जैसे कई नए पद सृजित हो गए हैं. इसकी बानगी चुनाव प्रचार के लिए चौक-चौराहों पर चिपके पोस्टरों में ही दिख जाती है. पोस्टरों में महिला उम्मीदवारों की तस्वीर की जगह उनके पति, पिता, ससुर, बेटों की तस्वीरें लगाई गई थीं. अगर कुछ पोस्टरों में महिलाओं की तस्वीरें लगी भी थीं तो वो घर के पुरुष मुखिया की फोटो के बाद ही लगी थी. यहां तक कि पोस्टरों में दिए गए मोबाइल नंबर भी घर के पुरुषों के थे. यही हाल तब भी दिखा जब महिलाएं जीत कर आईं. जीतीं तो महिलाएं लेकिन फूलमाला पतियों के गले में डाली गई. बधाई भी उन्हें ही दी गई. महिलाएं उनके बगल कठपुतली बनकर खड़ी दिखाई दे रही थीं. ये बातें संदेह पैदा करती हैं कि इन 44 प्रतिशत महिलाओं में कितनी महिलाएं वास्तविकता में अपने गांव की सरकार चला पाएंगी?

बद्री नारायण कहते हैं, ‘देशभर के स्थानीय निकायों के चुनावों में महिलाएं बड़ी तादाद में चुनी जा रही हैं जो अच्छा संकेत है. इस बार उत्तर प्रदेश में प्रधानी का पर्चा भरने वाली महिलाओं का प्रतिशत 44.79 था, जिसमें 43.86 प्रतिशत ने चुनाव जीता. यानी 33 प्रतिशत महिला सुरक्षित क्षेत्र के अतिरिक्त महिलाओं ने 10 प्रतिशत पुरुष या सामान्य क्षेत्र में भी जीत हासिल की है. इतना ही नहीं, मुस्लिम बहुल जिलों में भी मुस्लिम महिलाओं ने पंचायत चुनाव में शिरकत कर जीत हासिल की है.

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भारतीय समाज विशेषकर उत्तर भारतीय समाज में परिवार की बुनावट ऐसी है, जिसमें महिलाओं की निर्णय क्षमता पर अभी पुरुष प्रभावी हैं. देखना यह है कि ये महिलाएं कैसे अपने पतियों को प्रधान पति बनने से रोक पाती हैं. परिवार के पिता, भाई, पति से संबंध रखते हुए भी खुद निर्णय लेकर विकास नीचे तक पहुंचा पाती हैं. राज्य की नौकरशाही, भ्रष्टाचार से जूझते तंत्र, कानूनी दांवपेंच वगैरह से भी उलझते हुए महिलाओं को अपनी क्षमता साबित करनी होगी. इन शंकाओं और समस्याओं के बावजूद यह आधी आबादी, अगर आधे जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा भी कर पाती है तो भारतीय जनतंत्र का भविष्य संभावनाओं से भरा होगा.’

हालांकि महिलाओं का लगातार चुने जाते रहने का फायदा आगामी समय में मिलेगा. ऐसी उम्मीद ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों को है. शीतला सिंह कहते हैं, ‘महिलाओं का चुना जाना एक लोकतंत्र के लिए सुखद है. हमें एक बात तो माननी पड़ेगी कि उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है. पुरुषों के वर्चस्व को महिलाएं अब चुनौती दे रही हैं, यह बात उन्हें पच नहीं रही है. इसलिए वो प्रधान पति, प्रमुख पति और अध्यक्ष पति जैसे पदों को सृजित कर रहे हैं. लंबे समय से शक्ति पर पुरुष ही कब्जा जमाए बैठे रहे हैं, ऐसे में जब ​शक्ति का लैंगिक आधार पर बंटवारा होगा तो वह उसे रोकने की कोशिश करेंगे. लेकिन जैसे-जैसे महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, वे शक्ति का नियंत्रण भी करेंगी और अपने फैसले खुद लेंगी. बड़ी संख्या में उनका चुना जाना इस तरफ बढ़ा पहला कदम है.’

चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार नवनिर्वाचित ग्राम प्रधानों में से 78 फीसदी लखपति हैं. इनके पास पांच लाख से अधिक की चल या अचल संपत्ति है

इस मामले में एक और चौंकाने वाला पहलू यह है कि अगर महिलाओं में सवर्ण और गैर-सवर्ण जातियों को देखें तो अभी गांवों में सवर्ण महिलाओं को वह आजादी नहीं हासिल है जो गैर-सवर्ण जातियों की महिलाओं को मिली है. अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘महिलाएं इतनी बड़ी संख्या में जीती भले हैं, लेकिन अगर ध्यान से देंखे तो वे चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया में ज्यादा जुड़ी ही नहीं थी. वे न तो मतदाताओं से संपर्क कर रही थी और न ही कहीं बैठकों में नजर आ रही थीं. उनके स्थान पर मोर्चा घर के पुरुष संभाले हुए थे. हालांकि गैर-सवर्ण जातियों के हिसाब से देंखे तो महिलाओं के लिए यह सुखद है. उनके घर की महिलाएं ज्यादा बाहर निकलती हैं. वे ज्यादा स्वतंत्रता के साथ फैसले लेती हैं. हालांकि वास्तविकता यही है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के बहाने ग्रामीण अभिजात्य वर्ग ने खुद को सशक्त बनाया है. कुल मिलाकर ग्राम स्वराज को ये स्वरूप चिंता उत्पन्न करता है. जिस तरह से प्रधान चुने जा रहे हैं वह सत्ता के केंद्रीकरण का ही एक रूप है. इसमें विकेंद्रीकरण जैसा कुछ भी नहीं हैं.’

इसके अलावा दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर कई जगह सवर्ण जातियों के दबंगों द्वारा डमी उम्मीदवारों के जिताने का मामला सामने आया है. चुनाव परिणाम आने के दिन उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के रहने वाले अभिषेक सिंह ने फेसबु​क पर लिखा था, ‘हमारे गांव में प्रधानी की सीट दलितों के लिए आरक्षित थी. चुनाव में जीत भी दलित ने हासिल की. लेकिन लोग बधाई गांव के ही एक दबंग को दे रहे हैं. उसी को माला पहना रहे हैं और मिठाई खिला रहे हैं. यहां तक कि डीजे भी उन्हीं के घर बज रहा है. धन्य हो लोकतंत्र.’

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पंचायती राज में उत्तर प्रदेश सबसे घटिया राज्य

 

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उत्तर प्रदेश में कोई पंचायत राज नहीं है, वहां सरपंच राज है. जब तक हम पंचायत राज को पूरे मायने में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सोच के हिसाब से निचले स्तर पर नहीं लाते हैं और संरपच राज जारी रखते हैं, तब तक आपको गुंडाराज मिलेगा. पंचायत राज में सबसे घटिया राज्य उत्तर प्रदेश है. आप बिहार का उदाहरण ले लीजिए एक समय वहां भी यही सब हो रहा था, लेकिन नीतीश कुमार के आने के बाद हालात बदल गए हैं. अब वहां की पंचायतें उत्तर प्रदेश से बेहतर हैं. आप दक्षिण की तरफ चले जाएं केरल या कर्नाटक में वहां ऐसा बिल्कुल नहीं होता है. दरअसल, पहले आप पंचायतों को सशक्त बनाएं, फिर आप देखें  कि यह पंचायत राज हो ना कि संरपच राज. मतलब जो दस-पंद्रह लोग चुन कर आते हैं, वो सब बैठकर तय करें, कि क्या होना चाहिए क्या नहीं. फिर वह अपनी जवाबदेही तय करें.जब तक कि ग्राम सभा गठित न हो और सही तरीके से काम न करे, तब तक पंचायत राज संभव ही नहीं है. पंचायती राज के तीन नहीं चार स्तर होते हैं. ग्राम सभा पहले फिर ग्राम पंचायत और बाद में ब्लाक व जिला पंचायत. अब आप सिक्किम या हिमाचल प्रदेश जैस्ो राज्य का उदाहरण लें. वहां कोई भी अपराध, गुंडागर्दी की कहानियां चुनाव के दौरान सामने नहीं आती है.

 

मणिशंकर अय्यर, पूर्व पंचायती राज मंत्री [/box]

हालांकि इस बार पंचायत चुनाव में पूरे प्रदेश में 19 पीएचडी धारक युवा प्रधान बनकर आए हैं. कुल जीते युवा प्रधानों का प्रतिशत 35 रहा. देश में प्रधानी को लेकर चली आ रही पुरानी परिपाटी को तोड़ने की वास्तविक चुनौती नए लोगों के सामने ही है. नए लोगों का जीतकर आगे आना निश्चय ही नया बदलाव और नई उम्मीद जगा रहा है. इस पूरे पंचायत चुनावों पर बद्री नारायण कहते हैं, ‘भारतीय लोकतंत्र के प्रसार का रास्ता काफी उलझन भरा और जटिल है. एक तरफ उच्च लोकतांत्रिक नैतिकता है, तो दूसरी तरफ व्यावहारिक राजनीतिक दबाव. एक ओर निर्बल तक पहुंचने का लक्ष्य है, तो दूसरी तरफ शक्तिवानों का लगातार लोकतांत्रिक स्पेस में सबल होते जाना. एक ओर जनतंत्र के साथ राजनीतिक चेतना का प्रसार है, तो दूसरी ओर हिंसा और भ्रष्टाचार का आधार तल की जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में फैलते जाना. इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच से भारतीय लोकतंत्र को आगे बढ़ने और जड़ें जमाने का रास्ता बनाना है.’

‘मल्टीप्लेक्स पॉपकॉर्न बेचने के लिए खोले गए हैं, उनके लिए बाजीराव मस्तानी या चौरंगा कोई मतलब नहीं रखता’

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फिल्म को  ‘चौरंगा’  नाम क्यों दिया? इसका अर्थ क्या है?

इसकी दो वजहें हैं. एक तो चौरंगा का मतलब ही होता है चार रंग. दूसरा फिल्म एक तरह से हमारी वर्ण व्यवस्था से जुड़ी हुई है. हिंदू वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज को चार जातियों में बांटा गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र. यह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से हमारी संस्कृति और समाज का हिस्सा रही है, लेकिन पुराने समय में शायद जातियों के बीच दीवार नहीं रही होगी. ऐसा कहानियों में आता है कि वाल्मीकि शूद्र थे. वे डकैत हुआ करते थे. बाद में उन्होंने तपस्या की और फिर रामायण लिखी. इस तरह से वह शूद्र से ब्राह्मण हो गए. इसी तरह विश्वामित्र क्षत्रिय थे. उन्होंने तपस्या की और ब्राह्मण बन गए. धर्मशास्त्रों में कहा गया है, ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्भवेत द्विजः, वेद पाठात्भवेत्विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः.’ मोटी-मोटा इसका अर्थ ये है कि व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है लेकिन अपने कर्मों से बाह्मण हो जाता है. हालांकि समाज में जैसे-जैसे कर्मकांड बढ़ता गया वैसे-वैसे रूढ़िवादिता कायम होती चली गई. आप किसी भी परिवार (जाति) में पैदा हो जाएं और कुछ भी कर लें लेकिन आप उसी जाति के होकर ही मरेंगे. भले ही कर्म से आप कुछ भी बन जाएं. यानी अगर आप शूद्र पैदा हुए तो जीवनभर शूद्र ही रहेंगे. इससे गैर-बराबरी आई और ये व्यवस्था समाज में अपनी जड़ें और गहरी जमाती गई. हमारे यहां चुनाव के समय जातीय गठबंधन होते हैं और हम लोकतांत्रिक देश में रहते हैं. गांव या छोटे शहरों में आप देख सकते हैं कि हर कोई आपके घर नहीं आ सकता है. अगर कोई आता है तो आप उसको खिला सकते हैं या नहीं, वो आपके घर खा सकता है या नहीं, इसके बारे में अब भी सोचा जाता है. आप किसी भी अखबार के मेट्रीमोनियल पेज को देख लें उसमें जाति के साथ उपजाति और गोत्र तक समान होना चाहिए तब शादी की बात आगे बढ़ती है. ये हमारे आज के समाज की सच्चाई है. चौरंगा की कहानी इसी जाति व्यवस्था पर चोट करती है. यह चौदह साल के एक बच्चे की प्रेम कहानी है, जो चार रंगों से अपना पहला प्रेम पत्र लिखता है. चार रंगों वाला  पेन उसका बड़ा भाई उसे देता है. इन्हीं वजहों से हमारी फिल्म को चौरंगा नाम मिला.

फिल्म का मुख्य किरदार 14 साल का एक बच्चा है. बाल कलाकारों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाते समय कलाकारों का चयन मुश्किल होता है. अक्सर बाल कलाकार फिल्मों में दोहराये नहीं जाते. आपने इन्हें कैसे ढूंढा? किसका अभिनय ज्यादा पसंद आया?

फिल्म में मुख्य किरदार चौदह साल का संतू है. यह किरदार सोहम मैत्रा ने निभाया है. इसके अलावा ऋद्धि सेन उसके बड़े भाई बजरंगी और एना साहा मोना के किरदार में हैं, जिससे संतू को प्यार होता है. ये तीनों बंगाली सिनेमा के जाने-पहचाने नाम हैं. हिंदी में ये उनकी पहली फिल्म है. ये तीनों मंजे हुए कलाकार हैं. ऋद्धि ने इससे पहले फिल्म ‘कहानी’ में भी काम किया है. और ऐसा नहीं है कि बच्चों को एक फिल्म के बाद दूसरी में नहीं लिया जाता. होता ये है कि बच्चे बहुत जल्दी बड़े होते हैं. किसी फिल्म के लिए आपको लगता है कि कोई बच्चा फिट है, लेकिन जब तक फिल्म शुरू होती है वह बच्चा बड़ा हो जाता है. ऐसा कोई परहेज नहीं है कि किसी बच्चे को दोबारा किसी फिल्म में नहीं लिया जा सकता. ये तीनों बच्चे ऑडिशन के जरिये आए. इससे पहले बहुत सारे बच्चों के साथ वर्कशॉप की थी. सबसे पहले ऋिद्ध मिला. सोहम एक ऐसे समय मिला जब लगा था कि उसके रोल के लिए कोई मिल ही नहीं पाएगा. एक बच्चे के साथ काम शुरू किया था, लेकिन ऐन वक्त उसे स्कूल से छुट्टी नहीं मिली पर किस्मत से सोहम मिल गया. वैसे ये तीनों अलग तरह के कलाकार हैं. सोहम बहुत ही स्वतः स्फूर्त, स्वाभाविक और सहज कलाकार है. ऋद्धि ने लंदन के रॉयल एकेडमी ऑफ आर्ट्स में ट्रेनिंग ली है. वह स्थितियों को बहुत ही अच्छे से समझता है और उसे बहुत ही इमोशनल तरीके से अपने अभिनय में उतार देता है. एना ने टीवी में काफी काम किया है. आजकल वह दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी काम कर रही हैं.

छोटी जाति के लड़के और ऊंची जाति की लड़की के बीच प्रेम के मुद्दे पर फिल्म बनाने का विचार कैसे आया?

यह फिल्म एक असल घटना से प्रेरित है. 2008 में बिहार के कैमूर जिले के एक गांव में छोटी जाति के एक लड़के ने ऊंची जाति की एक लड़की को लव लेटर दे दिया था, जिसके बाद गांववालों ने बहुत ही बेरहमी से उसे ट्रेन के आगे फेंक दिया था और उसकी मौत हो गई. इसी घटना ने मुझे ‘चौरंगा’ लिखने के लिए प्रेरित किया. हां, लेकिन चौरंगा में बिल्कुल वही घटना नहीं है. इसमें बहुत बदलाव किए गए हैं. मैं झारखंड के एक गांव से आता हूं. मैंने कल्पना की कि अगर वह दर्दनाक हादसा मेरे गांव में होता तो क्या होता. मैंने फिल्म की कहानी मेरे गांव के हिसाब से बुनी है.

निर्देशक ओनीर और संजय सूरी का साथ कैसे मिला?

2010 की बात है. ओनीर मुझे एनएफडीसी के स्क्रीन राइटर्स लैब में मिले थे, जहां चौरंगा की स्क्रिप्ट पहली बार चुनी गई थी. ये उनसे पहली मुलाकात थी. ओनीर को चौरंगा की कहानी पसंद आई. उन्होंने फिल्म बनाने में मेरी मदद की बात कही और फिल्म के प्रोड्यूसर बन गए. उस समय वो फिल्म ‘आई एम’ बना रहे थे जो क्राउड फंडिंग से बनी भारत की पहली फिल्म है. उनके पास पैसे नहीं थे, लेकिन उन्होंने कहा कि हमें धैर्य रखने की जरूरत है. एक न एक दिन ‘चौरंगा’ जरूर बनेगी. आज उनकी बात बिल्कुल सच निकली. संजय ओनीर के साथ मिलकर काम करते हैं. इस तरह दोनों का साथ मिल गया.

रिलीज से पहले ही  ‘चौरंगा’  कई पुरस्कार जीत चुकी है. ओनीर ने तो यहां तक कह दिया है कि इसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए?

अच्छा, ऐसा बोला ओनीर ने… देखिए, होता क्या है जब उनसे पूछा गया होगा कि फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए तो उन्होंने कहा होगा कि हां, बिल्कुल मिलना चाहिए. जब कोई फिल्म बनाता है तो उसकी हमेशा इच्छा होती है कि फिल्म को हर तरह की सफलता मिले. अब कोई पूछेगा कि क्या आपकी फिल्म सौ करोड़ क्लब में शामिल हो पाएगी. अब हमें मालूम है कि नहीं जा पाएगी, लेकिन इच्छा की बात करें तो बिल्कुल इच्छा होती है. ओनीर ने जब ये कहा होगा कि राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए तो दो चीजें हैं इसमें. एक तो ये है कि उन्हें फिल्म पर पूरा भरोसा है. दूसरा इस तरह की इच्छा हर फिल्म बनाने वाले की होती है.

‘चौरंगा’ जातिगत प्रेम पर आधारित फिल्म  ‘मसान’  और मराठी फिल्म  ‘फंड्री’  से आपकी फिल्म किस तरह से अलग है?

आपने सही कहा कि मसान में भी बहुत हद तक ये मसला आया है, लेकिन कोई फिल्म किसी एक मसले पर ही नहीं होती. चौरंगा का जो किरदार है वो मसान और फंड्री के किरदार से बहुत अलग है. इसकी कहानी भी अलग है. मुझे लगता है कि चौरंगा दूसरी फिल्मों से इसलिए अलग है क्योंकि यह एक ऐसी जगह की कहानी है जहां की कहानी शायद ही आपने देखी होगी. यह झारखंड के एक गांव की कहानी है. झारखंड और गांव दोनों ही हिंदी सिनेमा से लगभग नदारद हैं. जहां तक मुझे हिंदी सिनेमा का इतिहास पता है मेरे जेहन में ऐसी कोई फिल्म नहीं आती है, जिसमें चौदह साल का एक दलित किरदार हीरो है. इस मायने में मुझे लगता है कि चौरंगा अलग है. मसले के लिहाज से फंड्री और मसान में भी ये मुद्दा महत्वपूर्ण था. कुछ हद तक फिल्म कोर्ट में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई थी. मुझे बहुत ही अच्छा लगता है जब ऐसी फिल्मों के साथ चौरंगा का नाम जोड़ा जाता है, क्योंकि ये बहुत ही अच्छी फिल्में हैं और ऐसे लोगों ने बनाई हैं, जिन्हें मैं निजी तौर पर जानता हूं. मुझे अच्छा लगता है कि इन लोगों के बीच मुझे भी जगह मिल रही है.

पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय सिनेमा (खासकर मराठी और दक्षिण भारतीय फिल्मों) ने राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ही मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है. क्या बॉलीवुड के लिए यह खतरे की घंटी है?

इस समय हिंदी सिनेमा की जो दिशा है वो ये है कि अच्छी विषयवस्तु वाली फिल्में अच्छा कर रही हैं. सिर्फ स्टारकास्ट के दम पर फिल्में नहीं चलतीं अच्छी फिल्मों के लिए अच्छी स्क्रिप्ट बहुत जरूरी मानी जाती है. इसे अब पूरी इंडस्ट्री स्वीकार कर रही है. ऐसा नहीं है कि आप शाहरुख खान या सबसे बड़े फिल्मकार के साथ फिल्म बना दें तो वह चल जाएगी. कहानी अच्छी होगी, दर्शक उससे जुड़ पाएंगे तभी वह चल पाएगी. मुझे लगता है कि पूरी इंडस्ट्री इसी दिशा में आगे बढ़ रही है. हिंदी सिनेमा के हिसाब से ये बहुत ही सकारात्मक बदलाव है क्योंकि पहले बहुत अराजनीतिक फिल्में बनती थीं. लोग हर ऐसी चीज से दूर रहना चाहते थे जिसे लेकर कोई राजनीतिक बहस शुरू हो सकती थी, लेकिन फिल्मकारों की जो नई पीढ़ी आई है वह बहुत ही जागरूक और सक्रिय है. वे तमाम मसलों पर अपना पक्ष रखते हैं. मुझे लगता है कि अच्छी कहानी और अच्छी कहानियां कहने वालों के लिए अच्छा वक्त आ रहा है.

जहां तक क्षेत्रीय सिनेमा की बात है तो इससे हिंदी सिनेमा को खतरा नहीं. हिंदी सिनेमा के साथ एक बहुत बड़ी दिक्कत है जो क्षेत्रीय सिनेमा के साथ नहीं है. हिंदी सिनेमा है तो क्षेत्रीय लेकिन इससे राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षाएं की जाती हैं. मराठी फिल्म मराठी लोग बनाते हैं, मराठी कलाकारों के साथ बनाते हैं और उसे मराठी बोलने और समझने वाले देखते हैं. लेकिन हिंदी सिनेमा हिंदी बोलने वाले लोगों की तरह विस्थापित लोगों का सिनेमा है. जैसे मैं झारखंड का हिंदी भाषी हूं. फिल्म बनाने के लिए मुझे अपना शहर छोड़कर मुंबई आना पड़ता है, नहीं तो मेरी फिल्म हिंदी दर्शकों तक पहुंच ही नहीं पाएगी. हिंदी सिनेमा चूंकि विस्थापित लोगों का सिनेमा है इसलिए यह अलग तरह से विकसित हो रहा है.

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Untitled-1मैं पत्रकार रहा हूं. दिल्ली में जी-न्यूज में काम किया. फिर मुंबई आ गया सीएनबीसी आवाज में. इससे पहले छोटे-बड़े कई अखबारों में भी काम कर चुका था. ज्यादातर काम हिंदी अखबारों में किया है. हजारीबाग में ‘हजारीबाग टाइम्स’ व जमशेदपुर के एक सिंगल एडिशन अखबार में काम किया. रविवार को जनसत्ता का परिशिष्ट आता था ‘सबरंग’, उसमें मैं कहानियां लिखा करता था. प्रभात खबर अखबार में भी कभी-कभी लेख लिखता था

बिकास रंजन मिश्रा

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गत वर्षों में लगातार अर्थपूर्ण फिल्में आ रही हैं? क्या आपको लगता है कि मुद्दा या विषय आधारित फिल्में समाज की सोच बदल रही हैं?

देखिये, मुझे इस बात से दिक्कत है जब आप बोलते हैं कि चौरंगा विषय आधारित फिल्म हैं. मैं कहता हूं कि बाजीराव मस्तानी भी विषय आधारित फिल्म हैं. यह एक ब्राह्मण पेशवा की कहानी है. यह भी जात-पात के बारे में है और हर फिल्म एक तरह से जात-पात के बारे में होती है. हर फिल्म का हीरो ऊंची जाति का एक हिंदू होता है. हर फिल्म मुद्दा आधारित होती है, कुछ मुद्दों को नजरअंदाज करके मुद्दे बन जाते हैं, लेकिन जब आप चौदह साल के एक दलित बच्चे की कहानी सुनाते हो तो लोग कहते हैं कि ये फिल्म दलित मुद्दे पर बनी है. जब आप ऊंची जाति के युवा को लेकर फिल्म बनाते हैं तब आप नहीं बोलते हैं कि यह उच्च वर्ग के हिंदू की कहानी है. बाजीराव मस्तानी के बारे में कोई नहीं बोलता है कि यह बहु-पत्नी प्रथा पर आधारित कहानी है. ये एक दोहरा रवैया है कि जब आप हाशिये के लोगों की बात करते हो तो फिल्म को उस पर ही आधारित बता दिया जाता है, लेकिन जब बड़े बजट की फिल्म की बात होती है तो इस तरह के मुद्दे गायब हो जाते हैं.

इसके अलावा फिल्म से समाज बदलता है या नहीं, अपने आप में यह सवाल विवादास्पद है. ये शोध का मुद्दा है लेकिन सिनेमा कहीं न कहीं लोगों और उनकी सोच पर प्रभाव जरूर डालता है. फर्क इतना है कि सिनेमा लोगों के पहनावे और भाषा पर ज्यादा असर डालता है. लोग उसे फैशन के तौर पर अपनाते हैं. समाज की सोच पर प्रभाव पड़ता है या नहीं यह तो धीरे-धीरे पता चलेगा, लेकिन मुझे लगता है कि कहीं न कहीं फर्क तो पड़ता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि अच्छी फिल्में बनाकर आप एक अच्छा समाज बना देंगे. ये है कि कई मुद्दे हैं जिन पर बात नहीं होती थी, अगर वे बातचीत का मुद्दा बन जाएं तो ये अपने आप में बहुत बड़ी बात होती है. अगर कॉलेज का कोई छात्र चौरंगा देखने पहुंचता है और उससे विचलित होता है तो यह मेरी फिल्म के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.

मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखना लगातार महंगा होता जा रहा है. बड़ी बजट की फिल्मों की ही टिकट दर छोटी फिल्मों की भी रखनी पड़ती है. ऐसे में छोटी फिल्मों को नुकसान उठाना पड़ता है. क्या टिकट दर अलग-अलग होने चाहिए?

अभी मैंने एक रिपोर्ट पढ़ी जिसके मुताबिक, 2014 के मुकाबले 2015 में हिंदी सिनेमा का व्यापार छह से सात प्रतिशत तक नीचे आ गया और इसके लिए बड़ी फिल्में जिम्मेदार हैं, उनका बिजनेस कम हो गया. अच्छा बिजनेस छोटी फिल्मों ने किया. खैर यह एक पहलू है. मुझे लगता है कि इस मामले में सरकार को थोड़ी मदद करनी चाहिए. अभी सरकार फिल्मों से सिर्फ वसूली का काम करती है. फिल्म का जो बजट होता है उसका तकरीबन 40 प्रतिशत सरकार सर्विस टैक्स ले लेती है और टीडीएस कटता है. इसके बाद जब फिल्म बनकर आती है तो सरकार 40 से 100 प्रतिशत तक मनोरंजन कर लगाती है. इस पैसे से फिल्म इंडस्ट्री में वापस कुछ नहीं आता. हालांकि चौरंगा के मामले में मैं खुशनसीब हूं कि मुझे सरकार से पैसे मिले हैं. एनएफडीसी हमारी फिल्म की प्रोड्यूसर है. मुझे लगता है कि सरकार अगर इतना टैक्स लेती है तो उसे थोड़ा सहयोग भी करना चाहिए. बड़ी फिल्मों जैसे- दिलवाले, बाजीराव मस्तानी से सरकार पैसे कमाए, लेकिन जब छोटी फिल्में आएं तो उन्हें मनोरंजन कर से मुक्त रखना चाहिए. इसका फायदा दर्शकों को मिलेगा. इससे ज्यादा दर्शक आएंगे, इस तरह की फिल्में देखेंगे और एक बातचीत शुरू होगी.

दूसरी ओर मल्टीप्लेक्स पॉपकॉर्न बेचने के लिए खोले गए हैं. उनके लिए बाजीराव मस्तानी या चौरंगा कोई मतलब नहीं रखता. उनके लिए मतलब रखता है कि जो लोग आ रहे हैं वे कितना पॉपकॉर्न खा रहे हैं. उन्होंने मल्टीप्लेक्स बनाने में बहुत पैसा खर्च किया है और उन्हें उसकी भरपाई करनी है. इसलिए वहां टिकट महंगे होते हैं. यहां पर सोचने वाली बात ये भी है कि सरकार क्यों छोटी और बड़ी फिल्म के बीच भेद नहीं करती, सभी फिल्मों पर एक समान टैक्स क्यों लगाती है?

एक बच्चे की प्रेम कहानी पर आधारित चौरंगा को  ‘ए’  सर्टिफिकेट मिला है. सेंसर बोर्ड ने किन बातों पर आपत्तियां जताईं?

सेंसर बोर्ड ने फिल्म के कुछ सीन कटवा दिए हैं और कुछ डायलॉग्स में फेरबदल करवाए हैं. हाल ये है कि इस देश में फिल्म मस्तीजादे को भी ‘ए’ सर्टीफिकेट मिलता है और चौरंगा को भी. ऐसा क्यों होता है ये तो सेंसर बोर्ड जाने. समझ नहीं आता कि ये कैसे काम करता है. इस बोर्ड का नाम सेंसर बोर्ड नहीं है, उसका नाम है सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन. इस लिहाज से इनको फिल्म को सर्टिफिकेट देने का काम करना चाहिए. उन्हें फिल्म के सीन काटने के लिए कहना ही नहीं चाहिए. वे हमें ‘ए’ सर्टिफिकेट दें इससे हमें कोई परेशानी नहीं है, लेकिन वे ये कहते हैं पहले आप पांच सीन हटाइए फिर आपको ‘ए’ सर्टिफिकेट देंगे. यहां हमें दिक्कत है. इसका मतलब ये हुआ कि अगर मैं कहूं कि मैं इसके लिए तैयार नहीं तो वे कहेंगे कि सर्टिफिकेट नहीं देंगे. यानी आपकी फिल्म बैन हो गई.

ये अच्छा माहौल नहीं है. जो लोग फिल्म बनाते हैं, चाहे वो एक्टर हो या डायरेक्टर, वे बहुत मेहनत करते हैं. इससे वे फिल्म बनाने की कला को सीखते हैं. लेकिन जो फिल्म को सर्टिफिकेट देते हैं उन्होंने क्या किया है? फिल्म में क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं, जो ये बताने वाले हैं उनकी योग्यता क्या है. जो लोग ये निर्णय लेते हैं उन्हें अभिभावक बनकर वहां नहीं बैठना चाहिए. अभी श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक कमेटी बैठी हैं, जो इस पूरी प्रक्रिया की समीक्षा कर रही है. मैं उम्मीद करता हूं कि कमेटी की सिफारिशें आएं उसे लागू भी किया जाए. हालांकि अब तक ये सरकार सिर्फ वादों तक ही सीमित है. कई बार कहा गया था कि पहलाज निहलानी को हटा दिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं है. पिछले साल सेंसर बोर्ड ने कुछ शब्दों के फिल्मों में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था. बोर्ड ने चौरंगा से भी एक शब्द (गाली) हटाने के लिए कहा था. जबकि अब उस शब्द से प्रतिबंध हटा दिया गया है. साफ तौर पर कुछ समझ नहीं आता कि सरकार करना क्या चाहती है. आखिरकार उस शब्द को हमें फिल्म से हटाना ही पड़ा.

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सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्मों पर बैन और काट-छांट कहां तक सही है? क्या आप सिनेमा के लिए खतरा महसूस करते हैं?

हां, बिल्कुल खतरा महसूस करते हैं. आज हर कोई जेब में इंटरनेट लेकर घूम रहा है. ऐसे समय में फिल्मों पर बैन और काट-छांट मुमकिन ही नहीं. नई सरकार आई थी तो 276 पोर्न साइटों पर बैन लगा दिया था, वे स्वच्छ इंटरनेट कैम्पेन चला रहे थे लेकिन ये बैन हटाना पड़ा. सिनेमा में हर कोई अपनी नाक घुसेड़ना चाहता है. स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि धूम्रपान के दृश्यों के समय स्क्रीन पर लिखना होगा कि यह हानिकारक है. सरकार फिल्मकारों को थोड़ी आजादी तो दे ताकि वे फिल्म बना सकें. ये ठीक बात है कि धूम्रपान से बहुत नुकसान होता है, लेकिन फिर आप सिगरेट बेचने क्यों देते हो, बंद कर दो!

देश और समाज में सब कुछ अच्छा चल रहा है, सिनेमा सिर्फ उतना दिखाने भर का माध्यम नहीं है. कई दफा ऐसा होता है कि आप कुछ देखते हैं, सोचते हैं, विचलित होते हैं. कुछ चीजें आपको इतना विचलित कर देती हैं कि आप उसकी कहानी दूसरों को सुनाना चाहते हो. ये जगह तो सरकार छीनती जा रही है. सरकार देश को सुधारे, वह सिनेमा को क्यों सुधारना चाह रही है? सिनेमा के अंदर देश की जो छवि दिखाई जाती है उसे वह क्यों सुधारने में लगी है? इससे कुछ नहीं होने वाला. ये झूठ होगा. ये सच होता तो उत्तर कोरिया विश्व का सबसे अच्छा देश होता. उन्हें कुछ मालूम ही नहीं कि उनके देश में क्या दिक्कतें हैं. एक ऐसा समाज क्यों बनाना चाहते हो जो भ्रम में रहता हो, जिसका सच्चाई से कोई राब्ता ही नहीं है. आप अच्छी दुनिया बनाओ तो हम अच्छी-अच्छी फिल्में बनाना शुरू कर देंगे, जिसमें सब कुछ अच्छा-अच्छा ही होगा.

 पत्रकार से फिल्मकार बनने के सफर के बारे में बताइए?

90 के दशक में मैं झारखंड के हजारीबाग में रहता था. मेरे बाबूजी एक सिनेमाघर के वकील हुआ करते थे. वहां वे खुद फिल्म देखते थे और जो अच्छी लगती थी मुझे भी दिखाने ले जाते थे. यहीं सिनेमा के साथ मेरा पहला वास्ता पड़ा. उसके बाद जमशेदपुर पढ़ाई करने के लिए आ गया. वहां कॉलेज के कैंपस में ही दो सिनेमाघर थे. उस दौरान वहां फिल्में ज्यादा देखी, पढ़ाई कम की. ये सिनेमाघर निर्देशक इम्तियाज अली का परिवार चलाता था. इम्तियाज अली हमारे कॉलेज में आए भी थे और स्क्रीन राइटिंग के बारे में वर्कशॉप भी की थी. फिल्म बनाने के बारे में यह मेरी औपचारिक शुरुआत थी. इसके अलावा जमशेदपुर में एक फिल्म सोसायटी थी, जहां देश-विदेश की फिल्में दिखाई जाती थीं. वहां मुझे विश्व सिनेमा के बारे में जानने-समझने का मौका मिला. उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए ‘जामिया’ दिल्ली में आ गया. यहां मास कॉम की पढ़ाई की तो बाकायदा फिल्म बनाने के बारे में एक दरवाजा खुला. मैं फिल्म बनाना चाहता था. दिमाग में ये था कि इसका रास्ता बहुत आसान नहीं है. सो पढ़ाई के साथ नौकरी करता रहा.

मैं पत्रकार रहा हूं. दिल्ली में जी-न्यूज में काम किया. फिर मुंबई आ गया सीएनबीसी आवाज में. इससे पहले छोटे-बड़े कई अखबारों में भी काम कर चुका था. ज्यादातर काम हिंदी अखबारों में किया है. हजारीबाग में ‘हजारीबाग टाइम्स’ में काम किया. जमशेदपुर के एक सिंगल एडिशन अखबार में काम किया. कलकत्ता से रविवार को जनसत्ता का परिशिष्ट आता था ‘सबरंग’, उसमें मैं कहानियां लिखा करता था. प्रभात खबर अखबार में भी कभी-कभी लेख लिखता था.

चौरंगा तक के सफर की बात करूं तो 2010 में इसकी स्क्रिप्ट लिखकर एनएफडीसी के स्क्रीनराइटर्स लैब भेजा, इसे चुन लिया गया. उन्होंने स्विटजरलैंड के लोकार्नो में हुई एक कार्यशाला में भेजा. यही पर ओनीर बतौर प्रोड्यूसर फिल्म से जुड़ गए. चौरंगा की यात्रा ऐसी रही कि काफी जगहों से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग भी मिला. अक्टूबर 2014 में फिल्म बनकर तैयार हो गई. भारत के बाहर भी ये कई देशों में गई है और कई देशों में अवॉर्ड भी मिले हैं. अब फिल्म रिलीज हो गई है और लोगों को पसंद भी आ रही है, पर अभी ये शुरुआत भर ही है.

हिंदुत्व के नए ठेकेदार

गाजियाबाद के डासना में एक प्रसिद्ध देवी मंदिर है. मंदिर के प्रवेशद्वार पर टंगे बोर्ड को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. बोर्ड पर साफ लिखा है, ‘मंदिर में मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है.’ मंदिर के अंदर एक किशोर लगभग दस साल के बच्चे को बुरी तरह पीट रहा है. बच्चा बुरी तरह रो रहा है, खुद को छोड़ने की भीख मांग रहा है. ये देख मंदिर का पुजारी हंस रहा है. जैसे ही वह किशोर छड़ी उठाने के लिए जाता है, बच्चा भागता है. किशोर उसे पकड़ने के लिए दौड़ता है पर बच्चा मंदिर परिसर से भाग निकलता है.

पुजारी से इस मारपीट के बारे में पूछने पर पता चलता है कि वह बच्चा मुस्लिम था और मंदिर के तालाब से पानी लेने आया था. इस तालाब के पानी को पवित्र समझा जाता है और उसका इस्तेमाल औषधि के तौर पर भी किया जाता है. किशोर के साथ मंदिर के महंत स्वामी नरसिंहानंद महाराज के पास जाते वक्त पुजारी कहता है, ‘मुझे समझ में नहीं आता कि जब यहां उनका (मुस्लिमों) प्रवेश वर्जित है तो वे आते ही क्यों हैं? ये बात उनकी समझ में क्यों नहीं आती.’

नरसिंहानंद, जो स्वामीजी के नाम से प्रसिद्ध हैं, किशोर उनके पैर छूने झुकता है और स्वामीजी गर्व से उसकी पीठ को थपथपाते हुए ‘आ मेरे शेर’ कहकर शाबासी देते हैं. इस किशोर का नाम प्रमोद है और वह मूक-बधिर है. वह बचपन से इस मंदिर में आ रहा है और अब मंदिर परिसर की निगरानी का काम करता है. राष्ट्रीय स्तर के जूडो खिलाड़ी प्रमोद ने हाल ही में गोवा में आयोजित एक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है. उसके लिए स्वामीजी किसी भगवान से कम नहीं हैं. वही प्रमोद का सारा खर्च उठाते हैं और उन्होंने उसका दाखिला मूक-बधिर बच्चों के स्कूल में भी कराया हुआ है.

उस युवक के अंदर कट्टरपंथ की भावना इस कदर भर दी गई है कि वह किसी मुस्लिम को देखकर ही अपना आपा खो बैठता है. वास्तव में, उसका जूडो सीखना इस्लामिक जिहादियों से लड़ने का ही प्रशिक्षण था

इन सब बातों से प्रमोद का भविष्य और करिअर उम्मीदों भरा लगता है पर कट्टरपंथ की जो शिक्षा उसे व उसके जैसे हजारों और बच्चों को स्वामीजी द्वारा दी जा रही है, उसके बाद ऐसा सोचना ही बेमानी हो जाता है. प्रमोद के अंदर कट्टरपंथ की भावना इस कदर भर दी गई है कि वह किसी मुस्लिम को देखकर ही अपना आपा खो बैठता है. वास्तव में, उसका जूडो सीखना इस्लामिक जिहादियों से लड़ने का ही प्रशिक्षण था. वह सांकेतिक भाषा में कहता है, ‘अगर मैंने दोबारा उन्हें (मुस्लिमों को) यहां देखा तो बंदूक से उड़ा दूंगा.’

सेना के प्रशिक्षण सरीखी यह ट्रेनिंग सात से आठ साल के मासूमों तक को भी दी जा रही है. स्वामीजी, उनके अनुयायियों और सहयोगियों ने इस तरह की ट्रेनिंग देने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे कई प्रशिक्षण केंद्र खोले हुए हैं, जिसे सांप्रदायिक तनाव के लिहाज से देश के सबसे संवेदनशील इलाकों में गिना जाता है. फोन पर स्वामीजी किसी से तेज आवाज में बात करते हुए कहते हैं, ‘मुसलमानों और हिंदुओं के बीच युद्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही युद्धस्थली होगा.’

रोचक यह भी है कि स्वामीजी उर्फ दीपक त्यागी कभी समाजवादी पार्टी (सपा) के यूथ विंग के प्रमुख सदस्य रह चुके हैं, उनके कई मुस्लिम दोस्त भी हुआ करते थे. हालांकि कुछ निजी वजहों के कारण उन्होंने ‘इस्लामिक जिहाद’ से लड़ने के लिए सपा छोड़कर कट्टरपंथी हिंदू संगठनों का हाथ थाम लिया.

1995 में मॉस्को से एमटेक करके आए स्वामीजी का मानना है कि इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) 2020 तक भारत पर आक्रमण करेगा और इसलिए इस्लामिक जिहाद से लड़ने के लिए हिंदुओं को प्रशिक्षित करना जरूरी है. मुसलमानों को गालियां देते हुए स्वामीजी ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘देश में मौजूद हर एक मुसलमान उस वक्त आईएस का समर्थन करेगा इसलिए हिंदुओं का एक होना जरूरी है. हमें इन राक्षसों से अपने देश, अपनी बहन-बेटियों को बचाना है. अगर हम अब भी एक नहीं हुए तो बहुत देर हो जाएगी.’

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स्वामीजी और उन्हीं के जैसी सोच रखने वाले दूसरे लोगों ने पश्चिमी यूपी में हिंदुओं की भलाई के नाम पर ‘हिंदू स्वाभिमान संगठन’ बनाया है जिसका मकसद मुस्लिमों से लड़ना है. यह संगठन ‘सैफरन कॉरिडोर’ कहे जाने वाले पूरे पश्चिमी यूपी में गाजियाबाद से लेकर सहारनपुर तक सक्रिय है. हिंदू स्वाभिमान संगठन के सदस्य इस्लामिक जिहाद के फैलने से पहले इस संगठन की शाखाएं पूरे देश में स्थापित करने की चाहत रखते हैं.

अनिल यादव, इसके महासचिव हैं और पड़ोस के बम्हेटा गांव के रहने वाले हैं. यादव इस प्रशिक्षण के लिए संगठन में लड़कों की भर्ती करने में स्वामीजी की मदद करते हैं. यादव राज्य-स्तरीय पहलवान रहे हैं और अब अपने अखाड़े में सैकड़ों युवाओं को कुश्ती के गुर सिखाते हैं. बम्हेटा गांव कुश्ती की परंपरा के लिए जाना जाता है जिसने देश को कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पहलवान दिए हैं, जैसे- जगदीश पहलवान, विजयपाल पहलवान, सत्तन पहलवान लेकिन अब यह हिंदू कट्टरपंथी पैदा करने की जगह बन गया है.

हिंदुओं की भलाई के नाम पर ‘हिंदू स्वाभिमान संगठन’ बनाया गया है जिसका मकसद मुस्लिमों से लड़ना है. यह ‘सैफरन कॉरिडोर’ कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद से लेकर सहारनपुर तक सक्रिय है

इन पहलवानों को एक योजनाबद्ध तरीके से कट्टरपंथ की शिक्षा के जरिये ‘तैयार’ करने के खतरे का एहसास तब होता है जब यादव कहते हैं कि इन पहलवानों को तैयार करने का काम ‘बेकाबू सांड’ को संभालने जैसा है. वे कहते हैं, ‘हम इन्हें कड़े अनुशासन में रखते हैं, दिन भर मेहनत करवाते हैं. अगर इन्हें सड़कों पर खुला छोड़ दिया जाए तो बड़ा हंगामा कर सकते हैं क्योंकि इनमें से हर कोई एक समय पर दस लोगों को आसानी से संभालने की कूवत रखता है.’ ऐसे हाल में सांप्रदायिक तनाव के समय ये लोग क्या कर सकते हैं, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है.

हिंदूवादी सेना

ये हिंदू कट्टरपंथी खूंखार रणबीर सेना और सलवा जुडूम की तरह ही हजारों युवकों की एक निजी सेना बना रहे हैं. प्रशिक्षण के दौरान इन युवकों को तलवारबाजी, धनुष चलाना, मार्शल आर्ट्स और यहां तक कि पिस्तौल, राइफल व बंदूक चलाना भी सिखाया जा रहा है. जब बच्चों को हथियार चलाने के प्रशिक्षण के बारे में स्वामीजी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ये सब ओलंपिक की तैयारी हो रही है. वो इसे सही ठहराते हुए कहते हैं, ‘क्या हम अपने मंदिर के अंदर खेलों का प्रशिक्षण नहीं दे सकते! इस सबमें गलत क्या है?’ शारीरिक प्रशिक्षण के अलावा युवाओं को ये भी बताया जा रहा है कि संसार की सभी समस्याओं की जड़ इस्लाम है और जो भी इसके अनुयायी हैं वे सब के सब राक्षस हैं.

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सभी फोटो- विजय पांडेय

मुस्लिमों के खिलाफ भड़काई जा रही इस नफरत का अंदाजा इस बात से लगता है कि एक आठ साल के बच्चे में भी मुस्लिमों के प्रति घृणा है. गाजियाबाद के रोड़ी गांव में प्रशिक्षण ले रहा एक बच्चा कहता है कि वह मुसलमानों से लड़ेगा क्योंकि वे हमारे देश के लिए एक खतरा हैं. जब उस बच्चे से पूछा गया कि मुस्लिम कौन हैं,  तब उसने कुछ देर रुककर बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘जो मीट खाते हैं, वो मुसलमान हैं.’

हिंदू स्वाभिमान से जुड़े परमिंदर आर्य पूर्व सैन्यकर्मी हैं. वे अपने घर के अहाते में ऐसे ही एक प्रशिक्षण केंद्र का संचालन करते हैं. इस केंद्र में मेरठ और कभी-कभी देश के दूसरे हिस्सों से भी प्रशिक्षक आते हैं. यहां गांव के आठ से लेकर तीस साल तक की उम्र के लगभग 70 लोगों को प्रशिक्षित किया जा रहा है. कारगिल युद्ध का हिस्सा रहे सेवानिवृत्त परमिंदर कहते हैं, ‘मैं घर-घर जाकर बच्चों के माता-पिता से नहीं कहता कि बच्चों को प्रशिक्षण के लिए भेजो. वे खुद यहां आते हैं. मुस्लिमों को छोड़कर मेरे प्रशिक्षण केंद्र में सभी का स्वागत है.’

सितंबर 2011 में सेना से रिटायर परमिंदर ने लंबे समय तक उथल-पुथल के दौर में कश्मीर में अपनी सेवाएं दी हैं. परमिंदर कहते हैं कि वे हिंदुओं के लिए हमेशा से ही काम करते रहे हैं लेकिन कश्मीर से पंडितों को खदेड़े जाने के बाद उन्होंने कट्टरपंथ का रास्ता अपना लिया. वे मानते हैं कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ, उसके बाद वे विश्वास करने लगे कि मुस्लिमों से लड़ाई के लिए हिंदुओं को एकजुट होना पड़ेगा. उन्माद से भरे हुए परमिंदर कहते हैं, ‘लाखों कश्मीरी पंडित या तो मार दिए गए या फिर अपना गांव-घर छोड़ने को मजबूर कर दिए गए. उनके पास यही विकल्प थे कि या तो वे अपने घर की औरतों का बलात्कार होते हुए देखें, कश्मीर छोड़ दें, या फिर इस्लाम स्वीकार करें.’

हिंदूवादी संगठनों की ओर से चलाए जा रहे केंद्रों में शारीरिक प्रशिक्षण के अलावा युवाओं को ये भी बताया जा रहा है कि संसार की सभी समस्याओं की जड़ इस्लाम है और जो इसको मानते हैं वे सभी राक्षस हैं

परमिंदर बताते हैं कि उन्होंने प्रशिक्षण केंद्र की शुरुआत चार साल पहले आईएस से लड़ने के लिए की थी. जब उनसे कहा गया कि चार साल पहले तक तो आईएस को कहीं कोई जानता ही नहीं था, तब उनका जवाब था, ‘मुझे पता था कि आने वाले सालों में इस्लामिक जिहाद बढ़ेगा इसलिए बच्चों को प्रशिक्षण देना शुरू किया ताकि वे देश की रक्षा कर सकें.’ हिंदुत्व के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण देते हुए परमिंदर कहते हैं कि 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान उन्होंने अपने लड़कों को हिंदुओं की रक्षा करने के लिए वहां भेजा था.

रोड़ी गांव हिंदू बहुल है, यहां की बहुसंख्यक आबादी जाटों की है. गांव के एक कोने में मुसलमानों के परिवार हैं. गांव में सांप्रदायिक तनाव का अभी तक कोई बड़ा मामला सामने नहीं आया है लेकिन दोनों समुदायों में झड़पें होती रही हैं. अब हिंदू बच्चों को ऐसा प्रशिक्षण दिए जाने से मुस्लिम जरूर चिंतित हैं. रोड़ी गांव में अपने घर के बाहर बैठे एक वृद्ध मुस्लिम चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, ‘हमें ऐसा लगता है कि गांव में हम मुस्लिम अलग-थलग कर दिए गए हैं. जब मैं छोटा था तो दोनों समुदाय के बच्चे एक-साथ खेला करते थे लेकिन अब एक खालीपन-सा है.’

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गांव में हिंदुओं को दिए जा रहे इस तरह के प्रशिक्षण ने एक अनकही दीवार खड़ी कर दी है. गांव के कुछ लोग बताते हैं कि यहां के सामाजिक ताने-बाने को तब भी धक्का लगा जब 22 अक्टूबर को दशहरे के अवसर पर गांव में अग्नि शस्त्र पूजन का आयोजन किया गया था. फिर रोड़ी गांव में कुुछ समय पहले हुई एक महापंचायत में फैसला लिया गया कि हिंदुओं को अब एकजुट होना पड़ेगा. आरोप है कि इस महापंचायत में वक्ताओं ने मुस्लिमों को गालियां दीं.

परमिंदर कहते हैं, ‘इस देश में हिंदुओं को सिर्फ मुसलमानों से ही लड़ना है. दुनिया में सभी आतंकवादी मुसलमान ही हैं. क्या आपने कभी देश में किसी हिंदू को आतंकवाद फैलाते देखा है?’, परमिंदर इस समय भाजपा का समर्थन कर रहे हैं. वे किसी भी उस पार्टी के साथ रहेंगे जो हिंदुओं के लिए काम करे, उनके अनुसार ऐसा इस वक्त मोदी कर रहे हैं.

जब उनसे प्रशिक्षण केंद्र चलाने के लिए फंडिंग और संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े सवाल किए गए तो परमिंदर और उनके एक वकील सहयोगी कोई विश्वसनीय जवाब नहीं दे पाए. उन्होंने सिर्फ इतना कहा, ‘हम दान नहीं मांगते क्योंकि हिंदू सिर्फ ढोंगी बाबाओं को ही दान देते हैं.’ उन्होंने आगे बताया कि पश्चिमी यूपी से उनके जैसे स्वामीजी के भक्त इस काम के लिए संसाधन उपलब्ध कराते हैं.

शाम के प्रशिक्षण सत्र के लिए आने वाले बच्चे अखाड़े में प्रवेश से पहले ‘जय श्रीराम’ कहकर गुरुजी (परमिंदर आर्य) का अभिनंदन करते हैं. निखिल आर्य (17) और कुलदीप शर्मा (19) पिछले दो सालों से यहां प्रशिक्षण के लिए आ रहे हैं. जब उनसे पूछा गया कि हथियारों की ट्रेनिंग क्यों ले रहे हो तो उनका जवाब था, ‘आत्मरक्षा के लिए.’ एसएससी की तैयारी कर रहे निखिल ने कहा, ‘सभी आतंकवादी मुस्लिम हैं इसलिए उनसे खतरा है.’ कुलदीप ने बताया कि उसके और दूसरे बच्चों के पास मोबाइल में 10-12 ह्वाट्सएप ग्रुप हैं और हर ग्रुप में 150 से 200 लोग हैं. सोशल मीडिया का इस्तेमाल वे इसलिए कर रहे हैं ताकि अगर कोई प्रशिक्षण के लिए न आ पाए तो उसे कम से कम घटनाक्रम से तो अवगत रखा जा सके. हिंदू स्वाभिमान संगठन द्वारा ग्रुप में भेजी गई एक तस्वीर में लिखा है, ‘हिंदू क्यों भूल गया है शस्त्रों को?’

ये संगठन सात साल के बच्चों का भी ब्रेनवॉश करने में सफल हुए हैं. अब ये लोग अपने संगठन का विभिन्न रूपों में राजस्थान, हरियाणा, बिहार और झारखंड में विस्तार करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं

परमिंदर और गांववाले कहते हैं कि वे बच्चों को सिर्फ इसलिए प्रशिक्षित कर रहे हैं ताकि इस्लामिक जिहादियों के आक्रमण के समय वे अपने परिवार और देश की रक्षा कर सकें. इससे प्रशासन को क्या परेशानी होनी चाहिए? उनके अनुसार समस्या तो मदरसों में है. परमिंदर ने यह भी बताया कि प्रशिक्षण के लिए तकरीबन 100 लोगों ने रिवॉल्वर, पिस्तौल और लाइसेंसी हथियार उपलब्ध कराए हैं. इस बीच उनका मोबाइल फोन बजता है. चेहरे पर बड़ी मुस्कान के साथ परमिंदर बताते हैं कि इंटेलिजेंस ब्यूरो से किसी का फोन था.

इन प्रशिक्षण केंद्रों की श्रृंखला सिर्फ रोड़ी गांव तक ही सीमित नहीं बल्कि मेरठ में भी ऐसे आठ केंद्र चल रहे हैं. हिंदू स्वाभिमान संगठन के मुताबिक उनका दायरा सहारनपुर और हरिद्वार तक फैला हुआ है. हालांकि सभी केंद्र खुलेआम नहीं चलाए जा रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि इस आंदोलन की प्रेरणा और आदर्श 107 साल के एक स्वामीजी हैं जो देवबंद में रहते हैं.

मेरठ के केंद्रों का संचालन चेतना शर्मा देखती हैं, जो पेशे से वकील हैं. जहां तक उनकी संगठन से जुड़ी पहचान का सवाल है तो चेतना के पास कई हैं, जिनका जरूरत के मुताबिक प्रयोग होता है. कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘दुर्गा वाहिनी’ की विभाग संयोजक रहीं चेतना को ‘अखंड हिंदुस्तान मोर्चा’ की जोनल इंचार्ज के तौर पर भी जाना जाता है.

पूर्व भाजपा सांसद बीएल शर्मा, जिन्होंने विहिप और बजरंग दल की सेवा करने के लिए राजनीति छोड़ी और फिर 2009 में वापस भाजपा में शामिल हो गए, इस अखंड हिंदुस्तान मोर्चा के संस्थापक हैं. चेतना बीएल शर्मा की बेटी जैसी हैं और उनकी संभावित वारिस भी. चेतना ‘लव जिहाद’ के मामले पर अभियान चलाने को लेकर विवादों में रह चुकी हैं.

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यहां रोचक पहलू ये है कि ये लोग किसी भी राजनीतिक विचारधारा के प्रति निष्ठा रखने की बात दरकिनार करते हैं लेकिन किसी न किसी रूप में एक राजनीतिक विचारधारा की छत्र-छाया में ही फल-फूल रहे हैं. सबसे बड़ी बात है कि जिन क्षेत्रों में ये संगठन सक्रिय हैं, वहां ये सात साल के बच्चों का भी ब्रेनवॉश करने में सफल हुए हैं. अब ये संगठन का विभिन्न रूपों में राजस्थान, हरियाणा, बिहार और झारखंड में विस्तार करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं.

सहारनपुर में कपड़े की दुकान चलाने वाले दिनेश वर्मा, अब दिनेश ‘हिंदू’ के नाम से जाने जाते हैं. वे इस क्षेत्र में हिंदू स्वाभिमान संगठन का काम देखते हैं. उनके अनुसार वे ‘हिंदुओं से जुड़े सभी मसलों पर काम करते हैं, चाहे वो लव जिहाद का मामला हो या गोहत्या का.’ डासना के स्वामीजी से उनका संपर्क ह्वाट्सएप के जरिये हुआ था, जिसके बाद उनकी सोच बदल गई. उनका दृढ़ विश्वास है कि यदि अब भी जिम्मेदारी नहीं ली गई तो हिंदुओं को न सिर्फ पश्चिमी यूपी बल्कि पूरे देश से निकाल दिया जाएगा. वे कहते हैं, ‘उन्होंने पहले पाकिस्तान में ऐसा किया, फिर बांग्लादेश में. अगर भारत भी हाथ से निकल गया तो हिंदुओं के लिए दुनिया में कोई देश नहीं रहेगा. हम कहां जाएंगे?’ हालांकि इस संगठन के प्रभाव से क्षेत्र में बढ़ी कट्टरता साफ महसूस की जा सकती है. यहां एक और बात है, जिस पर डासना के स्वामीजी, अनिल यादव और परमिंदर आर्य समान रूप से सहमत हैं. उनके अनुसार अगर कोई संकट आता है तो ये प्रशिक्षित बच्चे न केवल हिंदुओं की रक्षा करेंगे बल्कि ऐसा खूनखराबा करेंगे कि पश्चिमी यूपी का वह क्षेत्र ‘पवित्र’ हो जाएगा. पर ये सभी सामान्य रूप में उनके द्वारा प्रशिक्षित बच्चों द्वारा कानून हाथ में लेने की स्थिति में उस कानून के उल्लंघन की जिम्मेदारी लेने से साफ इंकार करते हैं. फिर वे ये कह कर चौंका देते हैं कि यदि उनके द्वारा प्रशिक्षित बच्चे कोई गलत काम ही क्यों न करें, वे उसका साथ देंगे.

इन सबके बीच उत्तर प्रदेश पुलिस को इस मामले की कोई जानकारी ही नहीं है. मोदीनगर के डीएसपी राजेश कुमार सिंह बताते हैं, ‘हमें हिंदू कट्टरपंथ के इस तरह हो रहे विस्तार के बारे में कोई जानकारी नहीं है.’ फिर वे आश्वस्त भी करते हैं कि वे इस मामले में संज्ञान लेंगे और उचित कार्रवाई करेंगे. हालांकि दिलचस्प बात ये है कि डासना के स्वामीजी द्वारा दिए गए एक भड़काऊ भाषण पर मोदीनगर में ही एफआईआर हुई, जिसके प्रतिरोध में मोदीनगर में ही एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की गई थी.

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इसी बीच हिंदू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष कमलेश तिवारी द्वारा पैगंबर मोहम्मद पर दिए गए विवादित बयान ने इस धार्मिक राजनीति की बहस को गरमा दिया है. बिजनौर के मौलाना अनवर-उल-सादिक ने ये घोषणा की थी, ‘जो कमलेश तिवारी का सिर कलम करेगा, उसको 51 लाख रुपये इनाम दिया जाएगा.’ पश्चिमी यूपी के स्योहारा में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने तिवारी को सजा-ए-मौत देने की मांग की है. इस तरह के विरोध देशभर में कई जगह हुए, हाल ही में पश्चिम बंगाल के मालदा और बिहार के पूर्णिया में भी इसी को लेकर हिंसक झड़प हुई थी.

कम ही लोग जानते हैं कि कमलेश डासना के स्वामीजी के शिष्य हैं. गुस्से से भरे स्वामीजी कहते हैं, ‘अगर कमलेश मारे गए तो परिणाम बहुत बुरा होगा, ऐसा होता है तो फिर पूरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश देखेगा कि हम उनके (मुस्लिमों) साथ क्या करेंगे!’

‘बसपा इस क्षेत्र में अपनी जमीन तैयार कर रही है और 2017 का विधानसभा चुनाव जीत सकती है. पर  सांप्रदायिक तनाव बना रहा तो मुकाबला सीधे-सीधे हिंदू-मुस्लिम यानी भाजपा और सपा के बीच होगा’

रोड़ी गांव के रहवासी प्रीतम, जो ब्लॉक ऑफिस में काम करते हैं, बताते हैं कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी इस क्षेत्र में अपनी जमीन तैयार कर रही है और 2017 के विधानसभा चुनावों में बहुमत से जीत सकती है. पर अगर इस तरह का सांप्रदायिक तनाव बना रहा तो मुकाबला सीधे-सीधे हिंदू-मुस्लिम यानी भाजपा और सपा के बीच होगा.

ये बात सोचने को मजबूर करती है कि अगर ये सब 2017 की सियासी लड़ाई की तैयारी है तो क्या जब इसके राजनीतिक उद्देश्य पूरे हो जाएंगे, तब समाज में बनाई जा रही इस खाई, खूनखराबे और कट्टरपंथ का भी अंत हो जाएगा? ऐसी संभावना नहीं दिखती.

क्या घाटी का मुस्लिम समाज कश्मीरी पंडितों की वापसी चाहता है?

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कहां से : कश्मीर घाटी

कब से : 1989

कितने :  तकरीबन 3,00,000

घाटी से कश्मीरी पंडितों को विस्थापित हुए 26 साल हो गए. पंडितों की एक नई पीढ़ी सामने है और सामने है यह प्रश्न भी कि क्या कभी ये लोग वापस अपने घर कश्मीर जा पाएंगे.

14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया. टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई. फिर 13 फरवरी को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था. घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इस के निशाने पर आ गए कश्मीरी पंडित. एक विस्थापित कश्मीरी पंडित रमाकांत याद करते हैं, ‘उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित थे. वे किसी भी कीमत पर सभी पंडितों को मारना चाहते थे या फिर उन्हें घाटी से बाहर फेंकना चाहते थे. इसमें वे सफल हुए.’ रमाकांत के मुताबिक हिंदुओं को आतंकित करने की शुरुआत तो बहुत पहले ही हो चुकी थी मगर 19 जनवरी को जो हुआ वह ताबूत में अंतिम कील थी.

वे बताते हैं, ‘पंडितों के घरों में कुछ दिन पहले से फोन आने लगे थे कि वे जल्द-से-जल्द घाटी खाली करके चले जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें. घरों के बाहर ऐसे पोस्टर आम हो गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़कर जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की नसीहत दी गई थी. लोगों से उनकी घड़ियों को पाकिस्तानी समय के साथ सेट करने का हुक्म दिया जा रहा था. सिंदूर लगाने पर प्रतिबंध लग गया था. भारतीय मुद्रा को छोड़कर पाकिस्तानी मुद्रा अपनाने की बात होने लगी थी.’

जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज सुनाई देती थी आज उनसे कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था. एक अन्य कश्मीरी पंडित अजय बताते हैं, ‘ये लाउडस्पीकर लगातार तीन दिन तक इसी तरह उद्घोष करते रहे थे. ‘यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’, ‘आजादी का मतलब क्या ला इलाहा इल्लल्लाह’, ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है’ और ‘असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान’ जिसका मतलब था कि हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना.’

जब तक कश्मीर घाटी में सहिष्णुता नहीं आती तब तक पंडितों की वापसी मुश्किल है

दिलीप पडगांवकर

कश्मीर मसले पर केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की टीम के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार

कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के अश्विनी चंग्रू कहते हैं, ‘उस दौरान कर्फ्यू लगा हुआ था फिर भी कर्फ्यू को धता बताते हुए कट्टरपंथी सड़कों पर आ गए. कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारने, उनकी बहन-बेटियों का बलात्कार करने और हमेशा के लिए उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ने की शुरुआत हो चुकी थी.’

आखिरकार 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित अनिश्चितकाल के लिए अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से बाहर जाने को विवश हो गए. इन्हीं लोगों में शामिल शिवकुमार कहते हैं, ‘कश्मीरी पंडितों को सिर्फ दो चीजें ही आती हैं. एक पढ़ना और दूसरा पढ़ाना. ऐसे में उन लोगों का मुकाबला करना, जो हमारे खून के प्यासे थे, संभव ही नहीं था.’ 

23 साल हो गए इन घटनाओं को. पिछले 23 साल से ही कश्मीरी पंडित अपने घर से दूर शरणार्थियों का जीवन गुजार रहे हैं. उस समय घाटी से जान बचाकर शरण की आस में लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित जम्मू, दिल्ली समेत देश के अन्य दूसरे इलाकों में चले गए. जम्मू में पहुंचने के बाद ये लोग वहां अगले 20 साल तक लगातार कैंपों में रहे. शुरुआती पांच साल तक तो ये लोग टेंट वाले कैंपों में रहे. अंदाजा लगाया जा सकता है कि पांच साल तक लगातार पूरे परिवार ने छोटे-से टेंट में किस तरह से सर्दी-गर्मी-बरसात बिताये होंगे. खैर, एक लंबे समय के बाद इन्हें टेंट के स्थान पर ‘घरों’ में शिफ्ट कर दिया गया.

घर के नाम पर उन मकानों में पूरे परिवार के लिए सिर्फ एक कमरा था जहां औसतन पांच सदस्यों के एक परिवार को रहना था. इसके अलावा एक बड़ी दिक्कत यह थी कि ये कश्मीर घाटी में रहने वाले लोग थे जहां की जलवायु जम्मू से बिल्कुल अलग है. जम्मू में लंबे समय तक रहने का नतीजा यह रहा कि ज्यादातर कश्मीरी पंडित स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से जूझने लगे.

विभिन्न रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि पिछले 23 साल में कश्मीरी पंडितों की जनसंख्या तेजी से कम हुई है. 60 वर्षीय हरिओम इसकी वजह बताते हैं, ‘एक कमरे में पूरा परिवार रहता था. मां-बाप भाई-बहन सब. पिछले 23 साल में पर्सनल स्पेस जैसी कोई चीज नहीं रह गई थी. यही कारण है कि जनसंख्या में गिरावट दिखाई देती है. इसके अलावा जिस तरह की आर्थिक समस्या से समाज गुजर रहा था उसमें किसी नए सदस्य को दुनिया में लाना उसके साथ अन्याय करने के समान था.’

आज कश्मीरी पंडितों की बड़ी आबादी को उस एक कमरे के घरों वाले कैंपों, जहां वे लगातार 20 साल तक रहे, से निकालकर उनके लिए बनाई गई कालोनियों में बसा दिया गया है. इस तरह के पुनर्वास पर अजय चंग्रू कहते हैं, ‘कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास की समस्या तो कश्मीर में ही रहने से हल होगी. सरकार ये सोचे कि कश्मीर के बाहर किसी जगह पर उनके लिए रहने की व्यवस्था करा देने से मामला हल हो जाएगा तो ऐसा नहीं है.’

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कश्मीरी पंडितों के विभिन्न संगठनों की मांग है कि उन्हें कश्मीर में ही एक अलग केंद्रशासित होमलैंड का निर्माण करके बसाया जाए. पनुन कश्मीर संगठन के प्रवक्ता वीरेंद्र कहते हैं, ‘कौन कहां जाना चाहता है हमें इससे मतलब नहीं है, हमें कश्मीर में ही रहना है और भारतीय संविधान के अंदर ही रहना है.’

कश्मीरी पंडितों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके कश्मीर स्थित घरों को आग लगा दी गई या फिर उन्हें तोड़ दिया गया. जमीन पर स्थानीय लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया या फिर दो जून की रोटी की व्यवस्था के लिए इन्हें उसे कौड़ियों के भाव बेचना पड़ा. ऐसे ही एक पीड़ित अजय कुमार भट्ट कहते हैं, ‘नरसंहार की उस घटना के बाद मैं अपने परिवार के साथ यहां जम्मू स्थित रिफ्यूजी कैंप में रहने लगा. जो कुछ हमारे पास था सब पीछे छूट चुका था. न पैसे थे न रोजगार. ऐसे में अपनी जमीन बेचने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. घर का खर्च चलाने के लिए हमें अपनी जमीन कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ी. खरीदने वाला भी जानता था कि हम मजबूर हैं इसलिए उसने जमीन की कीमत नहीं बल्कि सांत्वना राशि हमें दी थी.’

गाहे-बगाहे घाटी स्थित विभिन्न तबकों द्वारा कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर की जाने वाली बयानबाजी अब इन लोगों में किसी उत्साह के बजाय गुस्से का संचार करती है. विस्थापित कश्मीरी पंडित अश्विनी कहते हैं, ‘घाटी के वे पृथकतावादी लोग हमें घाटी में वापस देखने को बेकरार हैं जिन्होंने हमारे लोगों का कत्लेआम किया, बहन बेटियों की इज्जत लूटी. इन लोगों को तो जेल में होना चाहिए था क्योंकि सब कुछ इन्हीं की देखरेख में हुआ.’

विश्वास की खाई कितनी गहरी है यह इस बात से पता चलता है कि जब कुछ समय पहले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर बयान दिया था कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है, तो उनकी इस बात पर भरोसा करने वाला एक भी कश्मीरी पंडित दिखाई नहीं दिया.

कश्मीर घाटी में हम पंडितों की वापसी का स्वागत करते हैं. इसमें हमारी तरफ से कोई रुकावट नहीं है

सैयद अली शाह गिलानी

पृथकतावादी नेता

आखिर क्यों? पंडित चमनलाल कहते हैं, ‘यह लिप सर्विस  है. दुनिया को वे यह दिखाना चाहते हैं कि देखिए साहब कश्मीरी पंडितों के लिए हम घाटी में कब से पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं. वही हैं जो आना नहीं चाहते. असली सवाल यह है कि क्या सरकार पंडितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने को तैयार है. और फिर यह जानना भी जरूरी है कि घाटी के मुसलमान पंडितों की वापसी के लिए कितने उत्साहित हैं. क्योंकि आखिर में रहना तो उन्हीं के साथ है.’

कश्मीरी पंडितों के मन में इस बात को लेकर भी पीड़ा है कि घाटी की मुस्लिम आबादी ने उस दौरान उनका साथ नहीं दिया जब उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा था, उनके साथ कत्लेआम हो रहा था. अश्विनी कहते हैं, ‘अगर कश्मीर के मुसलमान उस समय हमारे साथ खड़े होते तो किसी आतंकवादी में ये हिम्मत नहीं होती कि वह किसी कश्मीरी पंडित को चोट पहुंचाने की सोच पाता. लेकिन उन्होंने उस समय हमारा साथ देने के बजाय कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए.’   

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने विभिन्न मौकों पर कश्मीरी पंडितों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का सुझाव राज्य सरकार को दिया लेकिन राज्य सरकार ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई. पंडित संगठनों का कहना है कि जिस तरह के नरसंहार से पंडितों को राज्य में गुजरना पड़ा और अल्पसंख्यक होने के नाते उनकी जो स्थिति है उसे देखते हुए उनके समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए था. मगर ऐसा नहीं हुआ और जम्मू कश्मीर में आज तक अल्पसंख्यक आयोग का गठन तक नहीं हुआ है. अजय कहते हैं, ‘आज भी राज्य सरकार इस पर विचार करने को तैयार नहीं है. दरअसल वह बहुसंख्यक आबादी को अल्पसंख्यक आयोग का गठन करके नाराज नहीं करना चाहती.’ 

वर्ष 1990 में जो कुछ भी हुआ उसको कश्मीरी पंडित जेनोसाइड अर्थात नरसंहार और एथनिक क्लींजिंग का नाम देते हैं. वीरेंद्र कहते हैं, ‘जो हुआ वह सिर्फ कोई आतंकी घटना नहीं थी बल्कि कट्टरपंथियों की ये सोची-समझी रणनीति थी कि कश्मीर में हर उस प्रतीक को खत्म कर दिया जाए जो उनके इस्लामिक राज्य की स्थापना में बाधक हो रहा है. पहले उन लोगों ने पंडितों का कत्लेआम शुरू करके भय का माहौल बनाया जिससे सारे हिंदू यहां से भाग जाएं. उसके बाद उनके घरों को आग लगी दी, मंदिरों और पूजा स्थानों को तोड़ा और जलाया. वे कश्मीर से पंडितों की पूरी पहचान हमेशा-हमेशा के लिए मिटाना चाहते थे. जो लोग हमें वहां बुलाना चाहते हैं, वे जरा एक बार ये शोध करके यह बताएं कि आज घाटी में पंडितों से जुड़ी हुई कितनी पहचानें सुरक्षित बची हैं.’

सवालों के घेरे में डीजीपी की नियुक्ति

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नए साल की शुरुआत के साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार ने 15 वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को दरकिनार करके एस जावीद अहमद को राज्य का पुलिस महानिदेशक बनाया तो यह तय हो गया कि पुलिस सुधारों की बातें अभी दूर की कौड़ी है. जावीद अहमद 1984 बैच के अधिकारी हैं जो कि अब तक पुलिस महानिदेशक (रेलवे) के पद पर तैनात थे. प्रदेश में रंजन द्विवेदी सबसे वरिष्ठ अधिकारी हैं, जो 1979 बैच के आईपीएस हैं. कायदे से इस पद पर उनकी दावेदारी बनती थी, लेकिन उनके साथ 14 अन्य अधिकारियों को नजरअंदाज करके यह नियुक्ति हुई. वरिष्ठता क्रम में द्विवेदी के बाद 1980 बैच के डीजी आईपीएस सुलखान सिंह का नंबर था. राज्य पुलिस महानिदेशक पद के दावेदार 15 अधिकारियों को दरकिनार करके जावीद अहमद को नियुक्त किए जाने को लेकर तमाम सवाल उठे कि क्या सभी 15 वरिष्ठ अधिकारी इस पद के लिए अयोग्य थे? इस पद से डीजीपी जगमोहन यादव के रिटायर होने के बाद अधिकारी महकमे में जबरदस्त लॉबिंग शुरू हुई थी. चर्चा है कि जाति, धर्म, वफादारी, खेमेबाजी आदि सब मुद्दे उछाले गए और अंतत: नौकरशाही में सियासत की बाजी जावीद अहमद के हाथ लगी. आरोप हैं कि जावीद अहमद को अखिलेश यादव सरकार ने आने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अपने चुनावी कार्ड के रूप में चुना है क्योंकि 15 अधिकारियों को दरकिनार कर किसी जूनियर अधिकारी को प्रमोट करने का मसला गंभीर सवाल खड़े करता है.

जावीद अहमद अब उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के रूप में मार्च 2020 तक सेवाएं देंगे. उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव हैं. माना जा रहा है कि यह नियुक्ति आगामी चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश सरकार के गुणा-गणित का परिणाम है. अधिकारियों की बिरादरी में यह आम धारणा है कि नियुक्तियां और तबादले उत्तर प्रदेश और बिहार के सबसे बड़े उद्योगों में से हैं जो पर्दे के पीछे चलते हैं. जब-जब इस तरह की नियुक्ति या पुलिस प्रताड़ना की कोई घटना होती है, तब तब यह सवाल उठता है कि करीब चार दशक से लंबित पुलिस सुधारों की शुरुआत कब होगी?

पूर्व आईएएस अधिकारी आरके मित्तल ने इस बारे में कहा, ‘मेरा मत है कि अगर सरकार की नीयत ठीक है तो यह नियुक्ति ठीक है, क्योंकि एक-एक, दो-दो महीने वाली नियुक्तियां तो किसी भी तरह से ठीक नहीं हो सकतीं. नियुक्तियों में थोड़ा-बहुत राजनीतिक फैक्टर तो होता है, लेकिन अगर व्यापक तौर पर मंशा ठीक है तो किसी भी नियुक्ति में कोई बुराई नहीं है. दूसरे, यहां पर राजनीतिक बाध्यताएं भी काम करती हैं. पार्टियां यह तो जरूर ध्यान में रखती हैं कि कौन सा अधिकारी उनके लिए मुफीद रहेगा. अगर नियुक्ति के पीछे कोई दुर्भाव नहीं है तो वह गलत नहीं है.’

‘पुलिस सुधार होगा, लेकिन समय के साथ होगा. कभी ऐसा उफान आएगा कि सुधार करना अनिवार्य बन जाएगा, जैसे चुनाव सुधार हुए’

हाल ही में गुजरात में हुए राज्य पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुलिस को अपने कामकाज में संवेदनशील होने की बात कही थी. बेशक पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार की वकालत मौजूं है. पुलिस सुधार के जरिये कानून-व्यवस्था संबंधी तमाम खामियों को तंत्र से दूर किया जा सकता है. लेकिन इसकी शुरुआत कहां से होगी जब तक कि इस तरह से राजनीतिक फायदे-नुकसान की बिना पर तबादले और नियुक्तियां होती रहेंगी?

पुलिस तंत्र को संवेदनशील और कार्यकुशल बनाने के प्रधानमंत्री के सुझाव पर अमल की शुरुआत किसकी तरफ से होगी? क्या केंद्रशासित प्रदेशों में केंद्र कोई नजीर पेश करके राज्यों से वैसा करने  के लिए कहेगा? क्या केंद्र पुलिस सुधार की दिशा में कोई गाइडलाइन जारी करेगा? क्या राज्य इस दिशा में खुद से पहल करेंगे या फिर पुलिस सुधार चर्चा पिछले चार दशकों की तरह आगे भी जारी रहेगी?

पुलिस सुधार की बहस चलते हुए चार दशक से ज्यादा हो चुके हैं. इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट की एक दशक पुरानी गाइड लाइन पर अब तक केंद्र या राज्य सरकारों की ओर से कोई ठोस पहल सामने नहीं आ सकी है. प्रधानमंत्री ने जो सुझाव दिए, इस तरह के सुझाव पहले भी विभिन्न मंचों से आते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट भी लंबे समय से 1861 में बने भारतीय पुलिस कानून में बदलाव लाने का दिशा-निर्देश जारी कर चुका है और कई बार केंद्र व राज्य सरकारों को तलब भी कर चुका है. विडंबना यह है कि कोर्ट के दिशा-निर्देशों पर केंद्र या राज्य की ओर से कोई अमल नहीं किया गया. कोर्ट के निर्देश के बाद कुछ राज्यों ने पुलिस सुधार का दिखावा जरूर किया. सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को आए दस साल होने को हैं, बीच में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर राज्यों से जवाब भी मांगा था, लेकिन राज्यों की ओर से उदासीनता की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट लाचार ही नजर आया. अब सिर्फ यह चारा बचा है कि सुप्रीम कोर्ट अपने दिशा-निर्देशों को लेकर समय निर्धारित करे और कड़ी निगरानी के साथ इसे लागू करवाए.

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आपातकाल के दौरान पुलिसिया दमन अपने खौफनाक चेहरे के साथ सामने आया था. 1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पुलिस सुधार का मुद्दा व्यापक चर्चा का विषय बना. उस समय की मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने जाने-माने पूर्व आईएएस अधिकारी डॉ. धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया. 1977 से लेकर 1981 के बीच इस आयोग ने आठ रिपोर्ट पेश की और पुलिस सुधार के लिए बेहद अहम सुझाव दिए. आयोग ने मॉडल पुलिस एक्ट का एक प्रारूप भी प्रस्तुत किया था लेकिन उन पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया. 1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके पुलिस सुधार की मांग की. याचिका में उन्होंने अपील की थी कि कोर्ट केंद्र व राज्यों को यह निर्देश दे कि वे अपने-अपने यहां पुलिस की गुणवत्ता में सुधार करें और जड़ हो चुकी व्यवस्था को प्रदर्शन करने लायक बनाएं. इस याचिका पर न्यायमूर्ति वाईके सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनवाई करते हुए 2006 में कुछ दिशा-निर्देश जारी किए. न्यायालय ने केंद्र और राज्यों को सात अहम सुझाव दिए. इन सुझावों में प्रमुख बिंदु थे- हर राज्य में एक सुरक्षा परिषद का गठन, डीजीपी, आईजी व अन्य पुलिस अधिकारियों का कार्यकाल दो साल तक सुनिश्चित करना, आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करना और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन. उस वक्त मेघालय, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और हिमाचल प्रदेश ने इन सभी सुझावों से सहमति जताई थी. कई राज्यों ने कोर्ट के दिशा-निर्देश के कुछ बिंदुओं पर आपत्ति जताई और उन पर अमल को नामुमकिन करार दिया था. उस वक्त यह दलील भी सामने आई थी कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य-सूची का विषय है, इसलिए यह कार्यपालिका के अधिकार-क्षेत्र में आता है. इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट का आदेश राज्यों के अधिकार-क्षेत्र में दखलंदाजी है. कोर्ट के इस दिशा-निर्देश को दस साल बीत चुके हैं और अब तक कोई कारगर पहल नहीं हो सकी है. इस उदासीनता के चलते पुलिस सुधार का एजेंडा अभी तक लंबित है.

इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में फिर से हस्तक्षेप करते हुए उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों को अदालत में तलब किया. इन अधिकारियों की ओर से कहा गया था कि वे एक हफ्ते के अंदर अदालत को बताएंगे कि उसके आदेश को लागू करने की दिशा में क्या रुकावटें आ रही हैं? उस दौरान इस मामले में न्यायमित्र यानी एमिकस क्यूरी रहे महाधिवक्ता जीएम वाहनवती ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों पर न के बराबर अमल किया है. इसके बाद अदालत ने राज्यों से सुधार की दिशा में आ रही बाधाओं के बारे में पूछते हुए कहा कि उसके निर्णय पर समग्रता से अमल किया जाए. इसके लिए अदालत और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती.

इससे पहले भी देश में पुलिस सुधार के लिए कई आयोग व कमेटियां बनाई जा चुकी थीं और बाद में उनकी सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया. इसी क्रम में विधि आयोग, रिवेरियो कमेटी, पद्मनाभैया कमेटी, मलिमथ कमेटी तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया. इन सभी की ओर से समय-समय पर पुलिस सुधार के तमाम उपाय सुझाए गए लेकिन उनमें से किसी पर अमल नहीं किया गया. पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह जैसे तमाम अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं कि सरकारें अपने फायदे के लिए पुलिस का दुरुपयोग करती हैं. राज्यसत्ता के पास पुलिस ऐसी ताकत है जो विरोधियों से निपटने से लेकर अपनी नाकामी छुपाने तक में काम आती है. यह एक मुख्य वजह है कि जिसके कारण सरकारें पुलिस प्रणाली में सुधार करने के लिए तैयार नहीं हैं.

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अखिलेश सरकार को लगता होगा कि किसी मुस्लिम को डीजीपी बनाकर वोटबैंक को प्रभावित कर पाएंगे

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उत्तर प्रदेश में नियमों का उल्लंघन कोई नई बात नहीं है. यह लगातार हो रहा है. सपा ने अब तक छह डीजीपी बना लिए हैं. किसी में भी नियमों का अनुपालन नहीं हुआ. हर सरकार का अपना नजरिया है. वे देखते हैं कि किस अधिकारी को नियुक्त करने पर उनके वोट बैंक पर असर पड़ेगा. यही मैं जावीद अहमद के बारे में कहूंगा. फिर भी जिस तरह के अधिकारी आजकल नियुक्त हो रहे हैं, उनको देखते हुए कहना चाहिए कि जावीद अहमद अच्छे अधिकारी हैं. उनकी छवि अच्छी है. हालांकि, वोट बैंक पर असर हो रहा हो तो खराब छवि के लोग भी तैनात हो जाते हैं. ऐसे कई लोग नियुक्त हो चुके हैं. इस तरह की नियुक्तियों से पुलिस महकमे में निराशा होती है. इस नियुक्ति से कुछ लोग निराश जरूर होंगे. तमाम अच्छे अधिकारी भी हैं जो डीजीपी नहीं बन पाए. क्यों नहीं बन पाए, ये अखिलेश यादव जानें. रंजन द्विवेदी का नाम बार-बार आया लेकिन उनको नहीं बनाया गया. एके गुप्ता भी अच्छे अधिकारी थे. अखिलेश सरकार को लगता होगा कि किसी मुस्लिम को डीजीपी बनाकर वोटबैंक को प्रभावित कर पाएंगे. हालांकि, यह सही है कि जावीद अहमद अपने आप में अच्छे अफसर हैं.

प्रकाश सिंह, पूर्व डीजीपी, उत्तर प्रदेश  [/box]

2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की 153 अति महत्वपूर्ण सिफारिशों पर रायशुमारी करने के मकसद से मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाया. इस सम्मेलन में पुलिस सुधार का रोडमैप तैयार किया जाना था. पुलिस जांच, पूछताछ के तौर-तरीके, जांच विभाग को विधि-व्यवस्था विभाग से अलग करना, महिलाओं की भागीदारी 33 फीसदी बढ़ाना और पुलिस की निरंकुशता की जांच के लिए विभाग बनाना, इस सम्मेलन का एजेंडा था. दिलचस्प है कि इस सम्मेलन में ज्यादातर राज्यों के मुख्यमंत्री आए ही नहीं. इस वजह से यह सम्मेलन बेनतीजा रहा और कोई रोडमैप नहीं बन सका. पुलिस सुधार के लिए गृह मंत्रालय ने राज्यों से राय मांगी तो मात्र आधा दर्जन राज्यों ने अपनी राय भेजी. राज्य सरकारों के इस रवैये से साफ पता चलता है कि राज्य सरकारें नहीं चाहतीं कि पुलिस की जंग लगी प्रणाली में कोई बदलाव हो. प्रकाश सिंह ने ‘तहलका’ को बताया, ‘सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में ही गाइडलाइन जारी की थी लेकिन उसे उत्तर प्रदेश ने या किसी दूसरे प्रदेश ने लागू नहीं किया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को तलब किया. यूपी के मुख्य सचिव दो बार तलब हुए और उन्हें फटकार भी लगी लेकिन कोई खास फर्क नहीं पड़ा. अब भी शायद वह मामला कोर्ट में है. दो तीन बार मैंने निजी स्तर पर कोशिश की कि इसे लागू कराया जाए. सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पेंडिंग है, देखिए अब क्या नोटिस लेते हैं. जस्टिस ठाकुर जब तक मुख्य न्यायाधीश नहीं बने थे, तब तक उन्होंने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया. उनकी जानकारी में ये बात लाई गई पर मुझे लगा कि उनका दृष्टिकोण बहुत ज्यादा उदार था.’

सरकारें फायदे के लिए पुलिस का दुरुपयोग करती हैं. सत्ता के पास पुलिस ऐसी ताकत है, जो विरोधियों से निपटने से लेकर नाकामी छुपाने तक में काम आती है

इस मसले के कोर्ट में दो दशक तक लटके रहने के सवाल पर प्रकाश सिंह ने कहा, ‘मैंने तो जितना हो सकता था किया. अब मैं अपनी लड़ाई विरासत में छोड़ जाऊंगा. जहां तक ले जा पाऊंगा, ले जाऊंगा, उसके बाद अगली पीढ़ी उसे आगे बढ़ाएगी. कुछ लड़ाइयां बहुत लंबी चलती हैं. इस देश में जो दो सबसे पावरफुल आॅर्गनाइजेशन हैं- ब्यूरोक्रेसी और राजनीतिक तबका, दोनों ही इसका विरोध कर रहे हैं. ये दोनों जिसका विरोध करें, वह इस देश में बिल्कुल नहीं हो सकता. ये दोनों मिलकर सेना तक को हतोत्साहित कर देते हैं, फिर इनके आगे पुलिस की क्या बिसात है. पुलिस सुधार न लागू करने की कोशिश खास तौर से ब्यूरोक्रेसी और राजनीतिक तबके की है क्योंकि सुधार की पहल नहीं होने से दोनों को ही फायदा है. सुप्रीम कोर्ट के सामने यह भी दिखाना है कि हम कुछ कर रहे हैं, इसलिए सुधार का स्वांग रचा गया है. असलियत में जांचने पर पता चलता है कि स्थिति कुछ और है. ब्यूरोक्रेसी और राजनीति के लोग चाहते हैं कि चीजें यथास्थिति बनी रहें. घोड़े की सवारी सभी को अच्छी लगती है. पुलिस पर आपका रौब हो तो बहुत अच्छी बात है.’

आरके मित्तल का कहना है, ‘शॉर्ट टर्म में राजनीति पुलिस का फायदा उठाती है. पुलिस सुधार लागू करना उनके लिए अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा लेकिन लॉन्ग टर्म में यह लागू नहीं होता. उत्तर प्रदेश में पिछले तीन बार से कोई सरकार दोबारा नहीं लौटी. वे शॉर्ट टर्म भर का ही फायदा उठा पाते हैं. बड़े काम करते तो शायद दो-तीन टर्म की सरकारें चला सकते थे. पुलिस सुधार होगा, लेकिन समय के साथ होगा. कभी ऐसा उफान आएगा कि सुधार करना अनिवार्य बन जाएगा, जैसे चुनाव सुधार हुए. इस मामले में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट कड़े कदम उठाएं तो बात बन सकती है.’