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जिंदल को जमीन, जनता पर जुल्म

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उत्तराखंड में अल्मोड़ा और रानीखेत के बीच स्थित डीडा द्वारसो ग्रामसभा के नैनीसार गांव के ग्रामीणों को एक दिन पता चलता है कि उनकी जमीन पर डीएस जिंदल समूह एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल बना रहा है. गांव वालों को हैरानी होती है. न कोई अधिग्रहण, न कोई कानूनी प्रक्रिया, न कोई राय मशविरा. गांव में करीब सात हेक्टेयर जमीन की तारबंदी कर दी गई और उसमें बिजली का करंट दौड़ा दिया गया. अंग्रेजी में बोर्ड लगवा दिया कि नजदीक आने पर खतरा है. गांववालों को अंग्रेजी न आने के बावजूद अंदाजा लग गया कि तार में करंट है, लेकिन जानवरों को बोर्ड की सूचनाएं पढ़नी नहीं आतीं. एक गाय चरते हुए तार की चपेट में आ गई. गांववालों ने इन सबका विरोध करना शुरू किया, लेकिन विरोध के हर कदम के साथ उन्हें पांव के नीचे से जमीन सरका देने वाली सच्चाई से रूबरू होना पड़ा. उनके मुताबिक, पुलिस, प्रशासन, नेता, ग्रामप्रधान सब जिंदल समूह पर मेहरबान हैं, पुलिस भी उनकी है, योजना भी उनकी है. जमीन गांववालों की है, लेकिन मर्जी उनकी नहीं है.

गांववालों ने आरटीआई लगाकर जब सूचना मांगी कि ग्रामसभा की बैठक करके सहमति लिए बगैर जमीन जिंदल समूह को कैसे दे दी गई तो उन्हें ग्राम प्रधान द्वारा दिया गया अनापत्ति प्रमाण पत्र दिखा दिया गया, जिस पर गांववालों के फर्जी दस्तखत हैं. जो गांववाले निपट अनपढ़ हैं और अपना नाम तक नहीं लिख सकते, उनके दस्तखत अंग्रेजी में किए गए हैं. ग्रामप्रधान ने लिख दिया है, ‘गांववालों को जमीन की जरूरत नहीं है.’ इस कथित अनापत्ति प्रमाण पत्र पर तारीख नहीं पड़ी है और न ही वह सत्यापित है. ग्रामीणों ने इसे फर्जीवाड़ा मानते हुए रिपोर्ट भी दर्ज करवाई जिस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि जमीन हस्तांतरित करने की पूरी कार्यवाही गुपचुप तरीके से की गई और आवंटन की प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही संस्था ने जमीन पर कब्जा कर लिया.

‘जमीन अधिग्रहण की कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. जब जमीन की घेराबंदी हो गई तब गांव वालों को पता चला कि यहां कुछ होने जा रहा है’

गांववालों को पता चला कि डीएस जिंदल समूह की दिल्ली स्थित हिमांशु एजुकेशनल सोसायटी यहां पर एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल बनाने जा रही है. यह स्कूल सात हेक्टेयर की जमीन में होगा. उतनी जमीन पर सोसायटी ने प्रशासन की मदद से घेरेबंदी कर दी है. ग्रामीणों का कहना है, ‘कागज में यह जमीन 353 नाली यानी करीब सात हेक्टेयर है, लेकिन वास्तव में यह 1200 नाली यानी चार गुना है.’ नया क्रांतिकारी जनवादी मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष जीवनचंद इसकी पुष्टि करते हैं, ‘कब्जाई गई जमीन जितनी बताई जा रही है, उससे काफी ज्यादा है. प्रधान ने ग्रामपंचायत के नियमों का उल्लंघन करके फर्जी पत्र बनाया और अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया है.’ ग्रामीणों ने इस ‘अतिक्रमण’ के खिलाफ डीएम व एसडीएम के यहां शिकायतें कीं, ज्ञापन दिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के महासचिव सुरेश नौटियाल ने बताया, ‘गांव की जमीन पर जबरन कब्जा करके इस पर स्कूल का निर्माण होगा, लेकिन यह गांव के बच्चों के लिए नहीं होगा.’ सोसायटी ने प्रशासन को जो प्रस्ताव दिया है, उसमें बताया गया है कि इस स्कूल में कॉरपोरेट घरानों के बच्चे, एनआरआई बच्चे, उत्तर-पूर्व के बच्चे, माओवाद प्रभावित राज्यों के बच्चे, गैर-अंग्रेजी भाषी देशों के बच्चे, भारत में रहने वाले विदेशी समुदायों के बच्चे और वैश्विक एनजीओ द्वारा भेजे गए बच्चे पढ़ सकते हैं. गांववालों का कहना है कि एक तो इस जमीन को गैरकानूनी ढंग से कब्जाया गया है, कोई मुआवजा नहीं दिया गया, न ही सही प्रक्रिया का पालन किया गया. दूसरे, गांव में ऐसे स्कूल की क्या जरूरत है जिसमें उनके बच्चे ही नहीं पढ़ सकते?

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‘मैं गलत होता तो जांच के लिए क्यों कहता?’

गांव की जमीन का जिंदल समूह को दिया जाना कानूनी है या गैर-कानूनी ये तो एसडीएम या तहसील वाले बता सकते हैं. मैं पुख्ता तौर पर नहीं कह सकता. मैंने शुरुआत में भी गांववालों से यही कहा था कि मेरा पहला फर्ज गांव के प्रति बनता है. मैंने जमीन की जांच कराई और पाया कि वह जमीन ग्रामसभा की नहीं है, वह सरकारी जमीन है. हालांकि, यह मामला कोर्ट में है. जहां तक मुझे पता है, मैंने अभिलेख देखे हैं, उसमें वह सरकारी जमीन है. हमारे यहां जमीनें तीन तरह की हैं, निजी, वनविभाग के अंतर्गत या वन पंचायत के अंतर्गत. ये जमीन इन तीनों की नहीं है, तो राजस्व की होगी. जिस समय हमने चुनाव जीता था, उस समय पूरा गांव हमारे साथ था. आज गांववालों को कुछ संदेह हो गया है, इसलिए वे हमारे विरोध में आ गए हैं. वे कह रहे हैं कि हमने उनके फर्जी दस्तखत करके अनापत्ति प्रमाण पत्र दे दिया. उन लोगों ने खुद दस्तखत किए थे, लेकिन अब मुकर रहे हैं. मेरा यही कहना है कि मामले की जांच करवा ली जाए. मैं गलत होता तो जांच के लिए क्यों कहता. दूसरे, ग्रामसभा की खुली बैठक का कोई प्रस्ताव नहीं था.

मुझसे केवल इतना पूछा गया कि हम आपके यहां एक स्कूल की स्थापना कर रहे हैं. हमें ठीक लगा तो हमने हामी भर दी. हम तो गांव का विकास चाहते हैं. अगर विकास हो रहा है तो हमें क्यों विरोध करना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय स्तर का विद्यालय खुलने पर हमारे क्षेत्र का विकास होगा. अब हम ये कोशिश कर सकते हैं कि वह विद्यालय सबके लिए हो और शिक्षा के अधिकार के तहत 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करे. जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे यहां से छह किलोमीटर दूर रहते हैं. चंद परिवार इसके विरोध में हैं. ये विकास विरोधी हैं. हर चीज का विरोध करते हैं. हमने मुख्यमंत्री से कहा था कि जमीन से जो राजस्व मिलेगा, उसका दो तिहाई गांव के विकास के लिए दीजिए. लोगों को रोजगार का भी प्रस्ताव दिया है. लोग पता नहीं क्यों विरोध कर रहे हैं. जो लोग विरोध कर रहे हैं, वे हमेशा करते हैं.

गोकुल सिंह राणा, ग्राम प्रधान, नैनीसार [/box]

ग्रामीणों की इस लड़ाई में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता मुनीष कहते हैं, ‘जमीन अधिग्रहण की कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. जब जमीन की घेराबंदी हो गई तब गांववालों को पता चला कि यहां कुछ होने जा रहा है. शुरुआत में एक शासनादेश जारी हुआ था, जिसमें कानूनी प्रक्रिया की सारी अर्हताएं पूरी करने को कहा गया था. डीएम ने वन विभाग की अनुमति और ग्रामीणों से सहमति के लिए प्रस्ताव दिया था, लेकिन बाद में कोई प्रक्रिया पूरी नहीं की गई. बिना अनुमति के पेड़ काट दिए गए और जमीन की घेराबंदी कर दी गई. शिलान्यास के समय हम लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया तो पुलिस ने लोगों को दौड़ाकर पीटा. 26 जनवरी को भी गांववालों ने प्रदर्शन रखा था तो लोगों को रास्ते में जहां-तहां रोक दिया गया ताकि वे प्रदर्शन स्थल तक पहुंच ही न सकें. बावजूद इसके वहां पर चार सौ के आसपास लोग जमा हुए थे.’

जब गांववालों को गैरकानूनी तौर पर सोसायटी को जमीन देने के बारे में पता चला तो वे स्कूल निर्माण को रुकवाने के लिए उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के पीसी तिवारी के पास गए और उनसे हस्तक्षेप की मांग की. उनके नेतृत्व में गांव वालों ने कानूनी लड़ाई छेड़ दी. लगभग तीन महीने तक ग्रामीण आंदोलन करते रहे. इस बीच ग्रामीणों की ओर से निचली अदालत में जमीन हस्तांतरण को चुनौती देते हुए याचिका लगाई गई. 23 जनवरी को इस याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने अगली सुनवाई 15 फरवरी तय की और तब तक के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगाने का आदेश दे दिया.

‘जब हमने एसडीएम से कहा कि हस्तांतरण का कागज दिखाइए तो पता चला कि जमीन का पट्टा नहीं हुआ है लेकिन जमीन पर कब्जा हो गया’

अदालत के आदेश की प्रति लेकर पीसी तिवारी, अदालत के कर्मचारी देवीदत्त, अपने पांच सहयोगियों के साथ निर्माण स्थल पर निर्माण रुकवाने की गरज से पहुंचे. पीसी तिवारी के भाई रघु तिवारी समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं व ग्रामीणों का आरोप है कि बातचीत के दौरान वहां पर तैनात बाउंसरों ने पीसी तिवारी को अंदर खींच लिया और बाकी को एक तरफ खड़ा कर दिया गया. फिर पीसी तिवारी व उनकी सहयोगी रेखा धस्माना के साथ मारपीट की. 

ग्रामीण राजेंद्र सिंह राणा ने बताया, ‘अदालत ने जब हमारी अपील मंजूर करते हुए स्टे दे दिया तो हम लोग निर्माण रुकवाने के लिए वहां गए थे. वहां पर बाउंसर तैनात थे. इसके अलावा उनकी तरफ से करीब 150 लोग वहां पर मौजूद थे. बाउंसरों ने पीसी तिवारी के साथ जमकर मारपीट की. पीसी तिवारी की सहयोगी रेखा धस्माना अपने टैब से उसका वीडियो बनाने लगीं जिसे बाउंसरों ने छीन लिया. वह टैब चालीस हजार का था. इसके बाद रेखा के साथ भी मारपीट की. तिवारी को गंभीर चोटें आईं. दोनों की पिटाई करने के बाद उन्हें वहां से बाहर धकेल दिया गया.’

23 जनवरी को मारपीट की इस घटना के बाद रेखा धस्माना ने भी बयान दिया, ‘हम लोगों को गेट के भीतर उठाकर ले जाया गया. वहां जिंदल का बेटा बैठा हुआ था. फिर उनके गुंडों ने पीसी तिवारी को लात, घूंसों और लाठियों से बहुत मारा. उन्होंने मेरे साथ भी हाथापाई की और मेरा टैब छीन लिया. हमारे साथ गांव के पांच लोग गए थे. उन्हें किनारे खड़ा कर दिया और हमें अलग ले जाकर मारा. उसके बाद बाहर फेंक दिया. हम लोग 100 नंबर पर फोन करते रह गए लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया.’

राजेंद्र सिंह राणा का कहना है, ‘हमारे फोन करने के करीब एक घंटे के बाद एसडीएम आए और तिवारी को मेडिकल कराने के लिए ले गए. मेडिकल कराने के बाद गांव से पीसी तिवारी समेत करीब तीस लोगों को पुलिस ने उठा लिया.’ दूसरी ओर, ग्रामीणों ने डीएस जिंदल समूह के प्रतीक जिंदल, उसके सहयोगी प्रेमपाल और अन्य के खिलाफ जानलेवा हमला करने के लिए प्राथमिकी दर्ज करवाई है. फिलहाल पीसी तिवारी जेल और उनकी सहयोगी रेखा धस्माना अस्पताल में हैं.

सुरेश नौटियाल ने बताया, ‘इस मामले में सीधे तौर पर मुख्यमंत्री की भागीदारी है. किसी भी जमीन का हस्तांतरण का पट्टा बनता है. जब हम सबने एसडीएम के पास जाकर उसके बारे में पूछा कि हस्तांतरण का कागज दिखाइए तो पता चला कि जमीन का पट्टा नहीं हुआ है. बिना पट्टा हुए जमीन को तार से घेर दिया गया है. ग्राम प्रधान गोकुल सिंह राणा भी उनके साथ मिला हुआ है. कुछ गांववाले प्रधान का साथ दे रहे हैं. ज्यादातर गांव वाले हमारे साथ हैं क्योंकि गांववाले खुद पीसी तिवारी के पास आए थे और मामले में दखल देने की मांग की थी.’ सुरेश ने बताया कि जेल जाने के बाद पीसी तिवारी और रेखा धस्माना के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट लगाते हुए मुकदमा दर्ज कर दिया गया है.

सुरेश नौटियाल के मुताबिक, 26 जनवरी को गांव वाले निर्माण स्थल के बाहर प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हुए, जिसमें कई सामाजिक कार्यकर्ता और सिविल सोसायटी के लोग भी थे. उस दौरान वहां पर एक आदमी था जिसने मुंह ढंक रखा था. उसने डीएम को डांटते हुए कहा, ‘क्या तुम्हें इसीलिए रखा है कि तुम इनके साथ मिल जाओ?’ लोगों के अनुसार वह जिंदल का बेटा था. सामाजिक कार्यकर्ता रघु तिवारी ने बताया, ‘गांववालों ने 26 जनवरी को कब्जा की गई जमीन पर गांव के बुजुर्ग, जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी हैं, से झंडारोहण करवाया. प्रशासन ने वह झंडा तुरंत उतरवा दिया.’ जीवनचंद चिंता जताते हुए कहते हैं, ‘सारे गांव के विरोध के बाद शासन पर कोई असर नहीं हुआ लेकिन जिंदल के कहने पर संयुक्त मजिस्ट्रेट ने 26 जनवरी को राष्ट्रीय झंडे का अपमान करते हुए उसे उतरवा दिया.’ 

ग्रामीण राजेंद्र के मुताबिक, ‘हम लोगों को कोई अंदाजा ही नहीं था. जमीन जिस प्रक्रिया से ली जाती है, वैसी किसी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया. जब वहां पर काम शुरू हो गया तब हमें इसके बारे में पता चला कि गांव की जमीन किसी कंपनी को दी गई है. किसी तरह के मुआवजे की कोई बात ही नहीं चली. कोर्ट ने स्टे का आदेश दिया है, लेकिन उसे प्रशासन ने तामील नहीं करवाई. जमीन कानूनन तो हमारी है लेकिन हमारी ही सुनने वाला कोई नहीं है. हम लोगों ने कोर्ट जाने से पहले एफआईआर दर्ज कराई थी, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.’

गांववालों से धोखा होने का उदाहरण देते हुए मुनीष कहते हैं, ‘जब गांववालों ने आंदोलन शुरू किया तो मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बयान दिया था कि यदि गांव वाले नहीं चाहते तो उनकी जमीन नहीं ली जाएगी. इसके बाद गांववालों ने उन्हें एक मेमोरेंडम भेजा कि हम अपनी जमीन किसी को नहीं देना चाहते. इस पर गांववालों ने दस्तखत किए थे. इसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया और शासन की मदद से ही जिंदल समूह को कब्जा दिलाया गया.’

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यह हमने एक नीति के तहत किया है. हमारे पहाड़ों में निवेश नहीं आता है और शिक्षा की बड़ी समस्या है. पलायन का यह एक बहुत बड़ा कारण है. शिक्षा संस्थान और अस्पताल अगर आएंगे तो इससे हमारा भला होगा. इसमें तीस प्रतिशत सीटें राज्य के लोगों के लिए होंगी. स्थानीय लोगों और पहाड़ों में काम करने वाले अधिकारियों के बच्चों की पढ़ाई हो सकेगी. इसके निकट के गांवों के चार प्रधानों की इसमें सहमति है. अब यह विरोधी पार्टी के कार्यकर्ता हैं जो प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं

हरीश रावत, मुख्यमंत्री, उत्तराखंड [/box]

अंतर्राष्ट्रीय स्कूल की यह परियोजना कारोबारी जिंदल परिवार की है. जो सोसाइटी इस स्कूल का निर्माण करवा रही है, वह देवी सहाय जिंदल समूह की है. सोसायटी के उपाध्यक्ष प्रतीक जिंदल हैं, जो नवीन जिंदल के भतीजे हैं. जिंदल परिवार से कांग्रेस पार्टी की नजदीकी किसी से छुपी नहीं है. खुद नवीन जिंदल दस साल तक कांग्रेस के सांसद रहे हैं. पिछला लोकसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था और हार गए थे.

गांववालों के मुताबिक, 22 अक्टूबर को जिस दिन इस स्कूल का शिलान्यास होना था, प्रतीक जिंदल और मुख्यमंत्री हरीश रावत के पुत्र आनंद रावत एक ही हेलीकॉप्टर में सवार होकर नैनीसार आए थे. शिलान्यास का विरोध करने पर गांववालों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. कई लोगों को पकड़कर थाने में बंद कर दिया गया. 22 अक्टूबर को ही विरोध करने वाले गांव के 32 लोगों को नामजद करते हुए 382 लोगों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया था.   

गांववालों का सरकार के साथ संघर्ष बढ़ने के साथ यह मामला चर्चा में आया तो दिल्ली से कुछ पत्रकारों का एक स्वतंत्र जांच दल नैनीसार गया था. जांच दल की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘नैनीसार की जो सात हेक्टेयर जमीन हिमांशु एजुकेशन सोसायटी को दी गई है, उस संबंध में जिलाधिकारी कार्यालय (अल्मोड़ा) द्वारा उपजिलाधिकारी (रानीखेत) को 29 जुलाई, 2015 को भेजे गए एक ‘आवश्यक’ पत्र में तीन बिंदुओं पर संस्तुति मांगी गई थी: एक- प्रस्तावित भूमि के संबंध में संयुक्त निरीक्षण करवाकर स्पष्ट आख्या; दो- ग्राम सभा की खुली बैठक में जनता/ग्रामप्रधान द्वारा प्राप्त अनापत्ति प्रमाण पत्र की सत्यापित प्रति; और तीसरा- वन भूमि न होने के संबंध में स्पष्ट आख्या. इसके जवाब में 14 अगस्त, 2015 को शासन को जो पत्र भेजा गया, उसमें संयुक्त निरीक्षण का परिणाम यह बताया गया कि कुल 7.061 हेक्टेयर प्रस्तावित जमीन वन विभाग के स्वामित्व की नहीं है. उस पर 156 चीड़ के पेड़ लगे हैं लेकिन वे ‘वन स्वरूप में नहीं हैं’. आकलन के मुताबिक, इस भूमि का नजराना 4,16,59,900.00 रुपये बनता है और वार्षिक किराया 1196.80 रुपये बनता है. जवाब में ग्रामसभा की खुली बैठक का कोई जिक्र नहीं है.’

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एक अन्य आरटीआई आवेदन के जवाब में प्रशासन की ओर से 22 नवंबर को कहा गया कि सोसायटी ने सरकार के खजाने में दो लाख रुपये का नजराना 20 नवंबर को जमा कराया है.

अब सवाल उठता है कि अगर सरकारी खजाने में पहली बार 20 नवंबर को दो लाख रुपये जमा हुए, तो जिंदल समूह को जमीन पर कब्जा दो महीने पहले कैसे दे दिया गया? पट्टा तो भुगतान के बाद हस्तांतरित होना चाहिए था, जबकि सितंबर में कब्जा ले लिया गया और अक्टूबर में शिलान्यास भी हो गया.

मुनीष ने कहा, ‘इस स्कूल के निर्माण में मुख्यमंत्री हरीश रावत का बेटा शामिल है. प्रतीक जिंदल से उसकी घनिष्ठता है. हरीश रावत का जिंदल परिवार से करीबी रिश्ता है. वे गांव वालों के हित-अहित को नजरअंदाज करके कॉरपोरेट को फायदा पहुंचा रहे हैं.’ ग्रामीणों की परेशानी जो भी हो, लेकिन जिंदल समूह को पहाड़ों की ऊंचाई पर बसी सात हेक्टेयर जमीन की सालाना कीमत अगर 1196.80 रुपये देनी हो, तो उनके लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है?

‘सारे गांव के विरोध के बाद शासन पर कोई असर नहीं हुआ लेकिन जिंदल के कहने पर संयुक्त मजिस्ट्रेट ने राष्ट्रीय झंडे का अपमान किया’

ग्राम प्रधान गोकुल सिंह राणा जमीन को सरकारी बताते हुए ग्रामीणों के विरोध को ही अनुचित बताते हैं, लेकिन नया क्रांतिकारी जनवादी मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष जीवनचंद इस बात को नकारते हुए तथ्य पेश करते हैं, ‘अगर वह जमीन सरकारी थी तो वहां वनपंचायत कैसे संभव हुई? उसमें वनपंचायत की जमीन है, जिसे लेकर 2001 में नोटिफिकेशन जारी हुआ था. चूंकि उस जमीन में एक हिस्सा वनभूमि भी है, इसलिए वह जमीन सरकार द्वारा किसी को भी नहीं दी जा सकती. वनपंचायत के गठन में पांच सरपंच नियुक्त हुए थे, वे अभी जिंदा हैं जिनसे तस्दीक की जा सकती है. इसमें ग्रामीणों की भी जमीन है, लेकिन उनकी राय नहीं ली गई. इस प्रक्रिया में पंचायतीराज एक्ट का भी उल्लंघन हुआ है. दूसरे, आज तक उस जमीन की लीज निष्पादित नहीं हुई है. फिर जिंदल समूह को कब्जा कैसे मिल गया? बिना लीज निष्पादित हुए किसी को कब्जा कैसे दिया जा सकता है? 22 अक्टूबर को मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उस परियोजना का शिलान्यास भी कर दिया. इससे यह साफ है कि सरकार और मुख्यमंत्री प्रतीक जिंदल पर मेहरबान हैं और पूरा तंत्र इस गैरकानूनी कार्य में शामिल है.’ 

सरकारी बदमाशी, बेबस आदिवासी

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गले में फांसी का फंदा, हाथों में हथकड़ी और मुंह पर पट्टी बांधे मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के कलेक्टर कार्यालय के सामने आदिवासियों का जमावड़ा लगा हुआ है. वे कोई नुक्कड़ नाटक नहीं दिखा रहे. यह तरीका है प्रशासन के खिलाफ उनके अनोखे प्रदर्शन का. ये तरीका है प्रशासन को उसकी वादाखिलाफी याद दिलाने, अपनी जमीन पर अधिकार पाने के संघर्ष और प्रशासन को संदेश देने का, तभी वे अपने प्रदर्शनों में कह रहे हैं…

‘जीने दो या फांसी दो, जमीन दो या मौत दो’

 बैतूल जिले के चिचौली क्षेत्र पश्चिम वन मंडल की सांवलीगढ़ रेंज में उमरडोह वनग्राम है. लगभग आधा सैकड़ा आदिवासी किसान परिवार यहां वर्षों से छप्पर बनाकर रह रहे हैं. वह यहीं खेती किसानी करते हैं और अपना परिवार पालते हैं. लेकिन 19 दिसंबर की सुबह उनसे उनका आशियाना छीन ले गई. उस दिन भी वह रोजमर्रा के कामों मे लगे थे. तभी अचानक वन विभाग की टीम पुलिस और एसएएफ के जवानों के साथ आ धमकी. उनके साथ जेसीबी मशीन भी थी. आदिवासी परिवार कुछ समझते, उससे पहले ही उनके आशियाने जेसीबी की जद में आ चुके थे. लगभग दो सौ लोगों का अमला तीन भागों में बंटकर पूरे क्षेत्र को घेर चुका था. असहाय आदिवासी मूकदर्शक बने बस अपने उजड़ते आशियानों को देख रहे थे.

 पुंदिया बाई भी उनमें से एक थीं. वह बताती हैं, ‘उन्होंने हमारा सब उजाड़ दिया. वर्षों से हम जिन पेड़-पौधों को बच्चों की तरह पाल रहे थे, उन्हें भी जड़ से उखाड़ दिया. टप्पर तोड़ दिए गए. विरोध करने पर मारपीट की गई.’ शिवपाल बताते हैं, ‘जाते-जाते वो बोल गए थे, पानी मत पीना… फसलें मत खाना… उनमें जहर मिला दिया है.’

उस दिन वन विभाग की टीम ने आदिवासी किसान परिवारों के सिर्फ आशियाने ही नहीं तोड़े बल्कि उनकी गेहूं की फसल को ट्रैक्टर से रौंद दिया. जेसीबी से खेत खोद दिए. पीने के पानी और फसल में कीटनाशक डाल दिया.

बीते 19 दिसंबर को वन विभाग ने बैतूल के उमरडोह वनग्राम के आदिवासी किसानों को उजाड़ दिया. वन विभाग ने इन परिवारों के सिर्फ घर ही नहीं तोड़े बल्कि उनकी फसल को भी रौंद दिया

क्षेत्र में दो दशकों से आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ रहे श्रमिक आदिवासी संगठन के अनुराग मोदी कहते हैं, ‘जिस जमीन पर ये परिवार दशकभर से अधिक समय से रह रहे हैं, वन विभाग उसे अपनी जमीन बताता है. इसलिए इन परिवारों को वहां से हटाना चाहता है. लेकिन  अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी अधिनियम (वन अधिकारों की मान्यता), 2006 के तहत यह गैरकानूनी है. इस कानून में प्रावधान है कि वे आदिवासी जो 2005 के पहले से जिन वन क्षेत्रों में रह रहे हैं उन्हें वहां से हटाया नहीं जाएगा. पर वन विभाग वन अधिकार अधिनियम 1927 के पुराने कानून के तहत काम कर रहा है. यह गलत है.’

उमरडोह वासियों के साथ ऐसा पहली बार भी नहीं हुआ. इससे पहले भी वन विभाग 2011 में एक ऐसी ही कोशिश कर चुका है. लेकिन स्थानीय पत्रकार अकील अहमद बताते हैं, ‘2005 से ही वन विभाग के ऐसे प्रयास जारी हैं. पर हर बार वन विभाग के अमले के जाते ही ये लोग अपने छप्पर फिर से डालकर रहना शुरू कर देते थे.’ जिस दिन वन विभाग की यह कार्रवाई हुई उस दिन बैतूल में पारा लगभग चार डिग्री था. वो रात आदिवासी परिवारों ने अपने बच्चों सहित खुले आसमान के नीचे गुजारी. उन्हें उम्मीद थी कि बस एक-दो दिन की ही तो बात है. फिर से पहले की तरह छप्पर डाल लेंगे. लेकिन इस बार वन विभाग उन्हें हटाने की पूरी तैयारी में था. उनकी आजीविका का साधन उनकी फसल तो पहले ही नष्ट कर दी गई थी. चार दिन तक इन परिवारों ने सर्द रातें खुले आसमान के नीचे गुजारीं. जब बात नहीं बनी तो 24 दिसंबर को जिला कलेक्ट्रेट के आगे धरने पर बैठ गए. उनकी मांग थी कि वन अधिकार कानून 2006 को उसकी मूल भावना और प्रावधानों के साथ लागू किया जाए. साथ ही  उमरडोह में प्रशासन के दल ने वनभूमि से आदिवासियों के कब्जे हटाते समय ज्यादती की थी. उस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के तहत बैतूल में बने शिकायत निवारण प्राधिकरण से जांच करवाकर दोषियों पर कार्रवाई की जाए. जब आठ दिन धरने को हुए तो शासन-प्रशासन के माथे पर बल पड़ा.  मामले में राज्य के मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा. मुख्यमंत्री के आदेश पर स्थानीय विधायक हेमंत खंडेलवाल और जिला कलेक्टर ज्ञानेश्वर वी. पाटिल ने आदिवासियों की सभी मांगें मानने का आदेश देकर उन्हें धरने से उठाया. वे  वापस उमरडोह लौट गए. लेकिन उनके वहां पहुंचने से पहले ही वन विभाग वहां से उनका पूरा सामान भरकर ले जा चुका था. तब से ही वह कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं. वन विभाग की चौकी यहां से महज 500 मीटर की दूरी पर है. वन विभाग का अमला कभी भी आ धमकता है. गाली-गलौच करता है. महिलाओं से छेडछाड़ करता है. ठंड के कारण बच्चों की तबियत बिगड़ रही है. पर वह अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहते.

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फूलवती बाई बताती हैं, ‘हमारे घर तोड़ दिए तब भी उन्हें सुकून नहीं मिला. अब आते हैं, हमारे साथ जोर आजमाइश करते हैं. सामान में आग लगा देते हैं. नहीं तो यहां से भाग जाने को कहते हैं. रात को 10-10 बजे आते हैं. क्या सरकार ने रात की कार्रवाई के आदेश दिए हैं?’

इस पूरे विवाद पर पश्चिम वन मंडल के डीएफओ प्रशांत कुमार का कहना है, ‘वह क्षेत्र वन विभाग का है. हम वहां पौधरोपण करना चाहते हैं. इसके लिए हमें वहां साफ-सफाई तो करनी ही पड़ेगी. गड्ढे भी खोदने पड़ेंगे. इसलिए वहां जाते हैं.  और रहा सवाल पुरानी कार्रवाई का तो वह वन अधिकार कानून 1927 के तहत की गई थी. उन लोगों ने अतिक्रमण किया था. उन्हें नियमानुसार हटाया गया है. आज की कार्रवाई नहीं है, 2011 से चल रही है. 2006 का कानून कहता है, जो वनक्षेत्रों की जमीन पर रह रहे हैं, उन्हें ग्राम सभा के माध्यम से जमीन पर दावा करना होता है. अगर वह दावा मान्य होता है और यह पाया जाता है कि संबंधित जमीन पर उनका कब्जा 2005 से पहले का है तो उन्हें पट्टे जारी कर दिए जाते हैं. लेकिन उनकी तरफ से ऐसा कोई भी दावा नहीं किया गया. 2011 में भी हमने कार्रवाई की थी. अगर वाकई में आदिवासियों का उस जमीन पर दावा होता तो ये ग्रामसभा में अपना दावा पेश कर चुके होते.’

इसके जवाब में अनुराग मोदी कहते हैं, ‘मान लीजिए ये लोग ग्रामसभा के पास नहीं गए. लेकिन क्या कानून ये कहता है कि जो व्यक्ति ग्राम सभा के पास नहीं जाएगा, उसे अवैध बोलकर हटा दिया जाए. ये प्रक्रिया पूरी करना तो आपका काम है. आप शासन-प्रशासन में बैठे हुए हैं. आपके पास सारे तंत्र हैं. आप उन सीधे-सादे अनपढ़ आदिवासियों के सिर क्यों ठीकरा फोड़ रहे हो कि वो नहीं गए. आपकी ग्राम सभा चली जाती उनके पास. इसमें आदिवासी विभाग को नोडल एजेंसी बनाया गया है. जिसकी जवाबदारी है कि उसे आदिवासी के पास जाकर फॉर्म भरना है. अनपढ़ आदिवासी ये सब प्रक्रिया नहीं कर सकते. इसलिए तो कानून के नाम पर अंग्रेज उससे जमीन छीन लेते थे. आजाद भारत में भी आप वही कर रहे हैं और उसी कानून के तहत कर रहे हैं. कोई दावा नहीं तो जमीन हमारी.’

मामले में शासन की ओर से मध्यस्थता करने वाले बैतूल विधायक हेमंत खंडेलवाल कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री के आदेश पर समझौता कराया था. तय हुआ था कि जांच के बाद जो भी सामने आएगा उसके तहत आगे की कार्रवाई होगी. वन विभाग ने जब कार्रवाई की थी तो उसके कब्जे में जमीन आ गई थी. जब आदिवासी कब्जा लेने वापस गए तो विभाग ने उन्हें हटाया. तब से वो वहां बैठे हुए हैं. समझौते में यह तय नहीं हुआ था कि जमीन उन्हें तत्काल प्रभाव से दे दी जाएगी.’ वह आगे बोलते हुए जिस संवेदनहीनता का परिचय देते हैं उससे साफ पता लगता है कि आदिवासियों को राज्य शासन किस दृष्टि से देखता है. वह कहते हैं, ‘माना कि वे खुले आसमान के नीचे सर्दी में रात बिता रहे हैं लेकिन 15 दिन की ही तो बात है. जमीन उनके पास है या विभाग के पास क्या फर्क पड़ता है. ये चीज दिखने में बहुत बड़ी लगती है. लेकिन 15 दिन तो कोई भी इंतजार कर सकता है. अगर उनके हक में फैसला होगा तो कब्जा मिल जाएगा. न्यायिक जांच हो जाने दीजिए. अगर 15 दिन में फैसला न आए तब आंदोलन कीजिए.’ पर आज महीना भर हो चुका है और हालात जस के तस हैं.

वहीं पूरे मामले में शासन और प्रशासन के बीच स्पष्ट मतभेद दिखाई देता है. जहां एक ओर विधायक हेमंत खंडेलवाल मानते हैं कि पीड़ितों में 10-15 ही  ऐसे हैं, जांच के बाद जिनका दावा जमीन पर सही साबित होगा. वहीं दूसरी ओर जिला कलेक्टर तहलका से बात करते हुए कहते हैं, ‘जांच इस बात की नहीं कराई जा रही कि जमीन पर अवैध अतिक्रमण है या नहीं? जांच इस बात की कराई जा रही है कि वन विभाग की कार्रवाई का तरीका सही था या नहीं. अवैध अतिक्रमण तो पहले ही साबित हो चुका है.’ पर अनुराग मोदी सवाल उठाते हैं, ‘प्रशासन ने कैसे साबित किया कि वह अवैध हैं. कौन-सी जांच की, किन लोगों के बयान लिए? उस जांच की रिपोर्ट हमें उपलब्ध करा दें. अतिक्रमण ढहाने के बाद की थी या पहले? प्रशासन की कार्रवाई खुद सवालों के घेरे में है और वह खुद ही जांच करके खुद को क्लीनचिट दे रहा है.’

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मजबूरीः बैतूल जिले के उमरडोह वनग्राम के आदिवासियों के आशियाने उजड़ जाने के बाद ठंड में वे खुले आसमान के नीचे दिन-रात गुजारने को मजबूर हैं

मोदी के अनुसार 2010 से कई बार जिला कलेक्टर को इस बारे में पत्र लिखा जा चुका है. पर प्रशासन ने उदासीन रवैया अपनाए रखा. और अब अचानक से हटाने की बात करने लगे. क्यों इस बीच ग्राम सभा के माध्यम से आदिवासियों की बसाहट से संबंधित प्रक्रिया पूरी नहीं की गई? अकील अहमद प्रशासन की मंशा पर सवाल उठाते कहते हैं, ‘जब प्रशासन को पता था कि 2011 से ही इनका अवैध कब्जा है और वह तब ऐसी एक कार्रवाई भी कर चुका था, तो उसके बाद पांच साल वह सोता क्यों रहा? क्यों वहां अतिक्रमण होने दिया?’ वहीं अनुराग मोदी कहते हैं कि कोई भी कार्रवाई की जाती है तो पूर्व सूचना के बाद की जाती है. पर वन विभाग ऐसी कोई सूचना नहीं देता. वो नोटिस जारी करके अपने पास रख लेता है और कार्रवाई के लिए कभी भी पहुंच जाता है. पर प्रशांत इससे इंकार करते हुए कहते हैं कि नोटिस जारी किया गया था. जिस पर अनुराग मोदी का तर्क है कि जब किसी को यह पता हो कि उसका घर उजड़ने वाला है तो वह उसे बचाने के लिए हाथ-पैर जरूर मारता है. वनवासियों को पता नहीं था कि उनके ऊपर कौन सी आपदा आने वाली है.

‘उन्होंने हमारा सब कुछ उजाड़ दिया. विरोध करने पर हमसे मारपीट की गई और जाते-जाते ये तक बोल दिया गया कि पानी मत पीना, फसलें मत खाना, उनमें जहर मिला दिया है’

वहीं शासन-प्रशासन यह भी तर्क प्रस्तुत कर रहा है कि उमरडोह के वनवासी सही मायने में जंगल की जमीन को कब्जाना चाहते हैं. उनके पास पहले से ही खुद के मकान और जमीन हैं. लेकिन प्रशासन का यह तर्क गले नहीं उतरता. क्योंकि अगर ऐसा होता तो पीड़ित परिवार अपने बच्चों के साथ सर्द रातें खुले में बिताने का जोखिम कभी नहीं उठाते.

अनुराग कहते हैं, ‘2006 के अधिनियम में ऐसा प्रावधान किया गया था कि किसी भी कब्जेधारी को तब तक नहीं हटाया जाएगा, जब तक ग्राम सभा द्वारा उसके दावे पर विचार नहीं कर लिया जाता. ऐसा इसलिए था क्योंकि अगर आप लोगों को कब्जे से हटा देंगे तो वो अपनी जमीन पर दावा करने की स्थिति में ही नहीं होंगे. लेकिन वन विभाग ने इसका तोड़ इस तरह निकाला कि जबरन उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया. अब करिए दावा. आपके कब्जे में जमीन तो है नहीं. वहीं वन विभाग किसी भी कार्रवाई से पहले ग्राम सभा की सहमति से नोटिस जारी होता है. लेकिन इसकी पूरी तरह अनदेखी की गई.’

बहरहाल इस सबके बीच बिना छत के सर्द मौसम में रात गुजारने वाले उमरडोह के वनवासियों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. शासन-प्रशासन उन्हें धरने से उठाकर अपना दांव खेल चुका है और जांच की प्रक्रिया देश में कितनी लंबी चलती है, यह किसी से छिपा नहीं. वन विभाग कार्रवाई में देरी की लापरवाही तो स्वीकारता है, पर गलत नहीं ठहराता. वन विभाग की देर से फैसला लेने की लापरवाही की कीमत चुका रहे वनवासियों का आगे क्या होगा? इसका जवाब किसी के पास नहीं.

इस बीच मामले से संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश के जबलपुर हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि तीन महीने में पीड़ितों के दावे का निराकरण किया जाए. तब तक उन्हें वहां से न हटाया जाए. अनुराग बताते  हैं, ‘इस पर कितना अमल होता है, पता नहीं. फिलहाल तो स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है. वे अभी खुले आसमान के नीचे रातें बिताने पर मजबूर हैं.’

वे कौन हैं जो मुस्लिम महिलाओं को लूट व अंधविश्वास के केंद्र- मजार और दरगाह में प्रवेश की लड़ाई को सशक्तिकरण का नाम दे रहे हैं?

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Photograph: Andreas Werth/Alamy

भारत की मुस्लिम बेटियां समाज का सबसे अशिक्षित वर्ग हैं, सम्मानित रोजगार में उनकी तादाद सबसे कम है, अपने ही समाज में दहेज के कारण ठुकराई जा रही हैं, गरीबी-बेरोजगारी और असंगठित क्षेत्र की शोषणकारी व्यवस्था की मजदूरी में पिस रही हैं. मुजफ्फरनगर, अहमदाबाद और सूरत दंगों में सामूहिक बलात्कार की शिकार महिलाएं सामाजिक पुनर्वास की बाट जोह रही हैं. तीन तलाक की तलवार उनकी गर्दन पर लटकती रहती है, कश्मीर की एक लाख से ज्यादा बेटियां ‘हाफ-विडो’ यानी अर्द्ध-विधवा होकर जिंदा लाश बना दी गई हैं. जब पड़ोस में तालिबान अपनी नाफरमान बेटी-बीवी को बीच चौराहे गोली से उड़ा रहा हो, जब आईएसआईएस यौन-गुलामी की पुनर्स्थापना इस्लाम के नाम पर कर रहा हो- ऐसे में वे कौन लोग हैं जो मुस्लिम महिलाओं को पंडावादी लूट, अराजकता, गंदगी और अंधविश्वास के केंद्र- मजार और दरगाह के ‘गर्भ-गृह’ में प्रवेश की लड़ाई को सशक्तिकरण और नारीवाद का नाम देकर असली लड़ाइयों से ध्यान हटा रहे हैं? 

भारतीय मुस्लिम समाज में अकीदे यानी आस्था के नाम पर चल रहे गोरखधंधे का सबसे विद्रुप, शोषणकारी रूप हैं दरगाहें, जहां परेशानहाल, गरीब, बीमार, कर्ज में दबे हुए, डरे हुए लाचार मन्नत मांगने आते हैं और अपना पेट काटकर धन चढ़ाते हैं ताकि उनकी मुराद पूरी हो सके. तीसरी दुनिया के देशों में जहां भ्रष्ट सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक सुरक्षा जैसे अपने बुनियादी फर्ज पूरा करने में आपराधिक तौर पर नाकाम रही हैं वहीं परेशान हाल अवाम भाग्यवादी, अंधविश्वासी होकर जादू-टोना-झाड़-फूंक, मन्नतवादी होकर पंडों, ओझा, जादूगर, बाबा-स्वामी, और मजारों के सज्जादानशीं-गद्दीनशीं-खादिम के चक्करों में पड़कर शोषण का शिकार होती है. ऐसे में मनौती का केंद्र ये मजारें और दरगाह के खादिम और सज्जादानशीं मुंहमांगी रकम ऐंठते हैं. अगर कोई श्रद्धालु प्रतिवाद करे तो घेरकर दबाव बनाते हैं, जबरदस्ती करते हैं, वरना बेइज्जत करके चढ़ावा वापस कर देते हैं. जियारत कराने, चादर चढ़ाने और तबर्रुख (प्रसाद) दिलाने की व्यवस्था करवाने वाले को खादिम कहते हैं, जिसका एक रेट या मानदेय होता है. अजमेर जैसी नामी-गिरामी दरगाह में खादिमों के अलग-अलग दर्जे भी हैं, यानी अगर आप उस खादिम की सेवा लेते हैं जो कैटरीना कैफ, सलमान खान जैसे ग्लैमरस सितारों की जियारत करवाते हैं तो आपको मोटी रकम देनी होगी. 

अजमेर दरगाह के आंगन में दर्जनों गद्दीनशीं अपना-अपना ‘तकिया’ सजाए बैठे हैं जिन पर नाम और पीर के सिलसिले की छोटी-छोटी तख्ती भी लगी हैं. यहां पीर लोग अपने मुरीद बनाते हैं. पीरी-मुरीदी यूं तो गुरु द्वारा सूफीवाद में दीक्षित करना होता है लेकिन असल में ये एक तरह की अंधभक्ति है जिसमे पीर अपने मुरीद का किसी भी तरह का दोहन-शोषण करता है. मुरीद जिस भी शहर या गांव का है वो वहां अपने प्रभाव-क्षेत्र में अपने पीर को स्थापित करने में लग जाता है. उनके लिए चंदा जमा करता है, उनके पधारने पर आलिशान दावतें करता है, तोहफे देता है, खर्च उठाता है.  

मुरीदों की संख्या ही पीर की शान और रुतबा तय करती है. पीर पर मुरीदों द्वारा धन-दौलत लुटाने की तमाम कहानियां किवदंती बन चुकी हैं. जिस पीर के जितने धनी मुरीद उसकी साख और लाइफस्टाइल उतनी ही शानदार. दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह के सज्जादानशीं ख़्वाजा हसन सानी निजामी (उनसे पारिवारिक संबंध रहे हैं) ने यूं ही फरमाया था, ‘अगर मैं बता दूं कि मेरे मुरीद कितना रुपया भेजते हैं तो आंखें चुधिया जाएंगी.’ मुरीद हाथ का बोसा लेते हैं और हर बोसे पर हथेली में नोटों की तह दबा देते हैं. कहते हैं की ख्वाजा हसन सानी निजामी के पिता अपने शुरुआती दिनों में दरगाह के बाहर सड़क पर कपड़ा बिछाकर मामूली किताबें बेचा करते थे. फिर उन्हें दरगाह के अंदर की व्यवस्था में दाखिला मिल गया, और वो सज्जादानशीं बन गए, कहा जाता है कि जब वे मरे तो 30 से ज्यादा जायदादों की रजिस्ट्री छोड़ गए और निजामुद्दीन औलिया के साथ-साथ उनके भी सालाना दो-दो उर्स होने लगे, जिनमें उनके मुरीद चढ़ावा चढ़ाते हैं. ये सिर्फ एक सज्जादानशीन की मिसाल है. हर दरगाह में दर्जनों सज्जादानशीन होते हैं. आपस में चढ़ावा बांटने के लिए उनके दिन तय होते हैं. ये ‘कमाई’ सीधे उनकी जेब में जाती है. ये इतना लाभकारी धंधा है कि इसके लिए कत्ल भी हो जाते हैं.

21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ? मर्दों से बराबरी के नाम पर समाज में गैरवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और शोषण को विस्तार देना नारी-सशक्तिकरण कैसे हुआ?

मुंबई की हाजी अली दरगाह एक फिल्मी दरगाह है जिसकी ख्याति अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली से और भी बढ़ गई थी, यहां फिल्मों की शूटिंग आम बात है. पिछले कुछ सालों से वहां के मुतवल्ली (कर्ता-धर्ता) और सज्जादनशीनों ने महिलाओं को कब्र वाले हुजरे में न आने देने का फैसला किया है. उनका तर्क है, ‘कब्र में दफ्न बुजुर्ग को मजार पर आने वाली महिलाएं निर्वस्त्र नजर आती हैं, लिहाजा महिलाएं कब्र की जगह तक नहीं जाएंगी, कमरे के बाहर से ही जाली पर मन्नत का धागा बांध सकती हैं.’ जबकि भारत के शहरों में कब्रिस्तान बस्तियों के बीच ही हैं और वहां महिलाओं की आवाजाही आम बात है. अकबर, हुमायूं, जहांगीर, सफदरजंग, लोधी, चिश्ती, और गालिब तक की मजारों/मकबरों में महिलाएं बेरोक-टोक जाती हैं. दिल्ली की निजामुद्दीन औलिया की मजार पर भी जाती हैं और उत्तर भारत में स्थित सैकड़ों दरगाहों पर भी जाती हैं. सिर्फ हाजी अली दरगाह पर इस हालिया पाबंदी को वहां के कर्ता-धर्ता अब व्यवस्था बनाए रखने का मामला भी बता रहे हैं. कुल मिलाकर एक भी ढंग का तर्क सामने नहीं आया है. 

ऐसे में सवाल पैदा होता है कि असल समस्याओं से जूझती मुस्लिम महिलाओं को इस नकली समस्या में क्यों घसीटा जा रहा है? वो कौन लोग हैं जिन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तीन-तलाक, भगोड़े पति, पति की दूसरी शादी से उत्पन्न अभाव, परिवार नियोजन का अभाव, जात-पात, दहेज, दंगों में सामूहिक बलात्कार जैसी भयानक समस्याओं के निराकरण के बजाए हाजी अली दरगाह के गर्भ-गृह में दाखिले को मुस्लिम महिलाओं का राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की सूझी है? इस मुहिम के कानूनी खर्च जो महिला एनजीओ उठा रहे हैं उनकी फंडिंग कहां से होती है? तीसरी दुनिया के देशों में जमीन से जुड़े जन आंदोलनों को एनजीओ द्वारा आर्थिक लाभ देकर भ्रष्ट करने के कई मामले जगजाहिर हैं. क्या अब भारतीय मुसलमान भी इनकी निगाहों में चढ़ चुका है?

कुछ मंदिरों में स्त्री-प्रवेश का संघर्ष हिंदू-महिलाएं कर रही हैं इसलिए नकल करना जरूरी हो गया चाहें ये कितना भी आत्मघाती, पोंगापंथी और वाहियात क्यों न हो? क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में मौजूद ऐसी बुराइयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ने के बजाय उन्हें बढ़ावा देंगी? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जिस संविधान से मुस्लिम महिलाएं बराबरी के हक के नाम पर ये पोंगापंथ को अपनाने का आग्रह कर रही हैं, उन्हीं आंबेडकर ने मंदिर प्रवेश के संघर्ष को बेकार बताते हुए मंदिर-पुजारी व्यवस्था से किनारा करने की बात कही थी और बेहतर शिक्षा और आर्थिक खुशहाली पर बल दिया था 

21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ? मर्दों से बराबरी के नाम पर समाज में गैरवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और शोषण को विस्तार देना नारी-सशक्तिकरण कैसे हुआ? दरगाहों पर श्रद्धालु बनकर खुद का शोषण करवाने की होड़ बताती है कि एनजीओ सेक्टर में सक्रिय ये मुस्लिम महिलाएं असली और छद्म मुद्दों में फ‌र्क भी नहीं जानती हैं? क्योंकि कुछ मंदिरों में स्त्री-प्रवेश का संघर्ष हिंदू-महिलाएं कर रही हैं इसलिए नकल करना जरूरी हो गया चाहें ये कितना भी आत्मघाती, पोंगापंथी और वाहियात क्यों न हो? क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में मौजूद ऐसी बुराइयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ने के बजाय उन्हें बढ़ावा देंगी? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जिस संविधान से मुस्लिम महिलाएं बराबरी के हक के नाम पर ये पोंगापंथ को अपनाने का आग्रह कर रही हैं, उन्हीं आंबेडकर ने मंदिर प्रवेश के संघर्ष को बेकार बताते हुए मंदिर-पुजारी व्यवस्था से किनारा करने की बात कही थी और बेहतर शिक्षा और आर्थिक खुशहाली पर बल दिया था जिससे व्यक्ति समाज में सम्मानीय स्थान पाता है.

हमारे पति, भाई, बेटे, बॉयफ्रेंड और सहकर्मी हमारे जीवन का हिस्सा हैं और पॉर्न उनके जीवन का, दूसरी तरफ ‘देसी बॉयज’ भी हैं, स्वीकार कीजिए

3सनी लियोन परिघटना का फायदा अगर उनसे ज्यादा किसी को हुआ है तो वो है भारतीय मीडिया. जो नैतिकता, आत्मसंयम और ‘चारित्रिक विकास’ बेचने वाली दुकानों से भी कमाता है, साथ ही इन्हीं मूल्यों की कमर तोड़ने वाली अराजक मनोरंजन की दुनिया से और भी ज्यादा कमाई करता है.

भारतीय मीडिया इतना बे-किरदार है कि ‘बिग-बॉस’ जैसे कार्यक्रम में सनी लियोन को लाकर सुपर-डुपर कमाई करता है, फिर उस कार्यक्रम की उत्तेजक झलकियों को ‘खबर’ बताकर अगले दिन खबरिया चैनल पर टीआरपी बटोरता है, फिर एसएमएस द्वारा महंगी दरों पर वोटिंग करवाकर सीधे दर्शकों को लूटता है और सनी लियोन को हर तरह के कार्यक्रम में फिट कर जब इस पूरी प्रक्रिया का दोहन सम्पूर्ण हो जाता है तो नैतिकता, पश्चाताप और व्याभिचार के सवालों से, अकेली सनी लियोन को छलनी कर अपने परम-पावन कर्तव्य की इतिश्री से भी रेटिंग बटोर लेता है. सनी लियोन के उपभोक्ता, उसकी पॉर्न फिल्मों के निर्माता-विक्रेता, ये सब कभी नहीं धिक्कारे जाते, हालांकि इनके बिना ‘सनी लियोन’ होना मुमकिन नहीं.

इस रीढ़विहीन मीडिया और उसके जातिवादी मर्द संपादकों की जुर्रत नहीं कि वह ‘कलर्स’ चैनल के मालिकों से पूछें कि ये ‘बिग-बॉस’ जैसा विकृत कार्यक्रम क्यों चला रहे हो तुम? इस मीडिया की जुर्रत नहीं कि बिग-बॉस के निर्माताओं से पूछें कि एक पॉर्न अभिनेत्री को घर-घर के ड्रॉइंग रूम में किसलिए पहुंचाया गया?

भारतीय मीडिया के लिए सनी लियोन एटीएम जैसा सुख है क्योंकि चाहे उसको सराहें या फिर दुरदुराएं, दोनों ही सूरत में टीआरपी यकीनन मिलेगी

इस मीडिया की ये भी जुर्रत नहीं कि सनी लियोन वाले बिग-बॉस सीजन-5 के विज्ञापन को ही नकार दे, लेकिन इसी मीडिया को अकेली सनी लियोन को घेरकर उसकी आलोचना करने जैसा पराक्रमी काम करना आता है. सनी लियोन की पॉर्न-फिल्म, बॉलीवुड-फिल्म, रियलिटी शो, और आइटम नंबर के भारत में करोड़ों दर्शक हैं, ये एक तथ्य है. लेकिन हमारे मीडिया बहादुरों की ये भी जुर्रत नहीं कि उन करोड़ों में से बीस-पच्चीस का ही एक सैंपल सर्वे कर ये पूछें कि  ‘भाई आप इस असांस्कृतिक मनोरंजन को देखते क्यों हो? आपके देखने के चलते ही ये बनाया जाता है, जिससे मुनाफा पैदा होता है, जिससे समाज परेशान हो रहा है?’ वैसे भारतीय फिल्म और मनोरंजन जगत में आने के बाद सनी लियोन वही कर रही हैं जो बाकी लड़कियां कर रही हैं. तो सनी लियोन में आखिर ऐसी क्या बात है कि उन्होंने इतना कौतूहल जगा दिया भारतीय समाज में? आखिरी बार ऐसी जिज्ञासा कब पैदा हुई थी मीडिया और फिल्म इंडस्ट्री में?

ये तब हुआ था जब बागी फूलन देवी हथियार डालकर वापस लौटी थीं समाज में. फूलन देवी के साथ हुए अपराधों को निर्देशक शेखर कपूर ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) नामक फिल्म बनाकर उसका बाजारू दोहन किया था और फूलन देवी को महज एक बलात्कार-दर-बलात्कार पीड़िता के तौर पर पेशकर वाहवाही और दौलत कमाई थी. बलात्कारियों को बीच चौराहे सजा-ए-मौत की वकालत करने वाले भारतीय समाज में भी फूलन देवी के प्रति जो रवैया था वो उस महिला के प्रति सम्मान का नहीं था जिसने कानून की पकड़ से छूट गए अपने बलात्कारियों को सजा देकर एक मिसाल कायम की, बल्कि समाज की दिलचस्पी ये देखने में थी कि सामूहिक बलात्कार कैसा होता है और इसकी शिकार महिला कैसे रहती-सहती है? और ये भी सच है कि किसी भी महिला का अपनी यौनिकता पर अधिकार, उसका प्रदर्शन, उसके प्रति सहजता हमारे समाज को असहज कर जाती है. भारतीय फिल्म उद्योग इसकी जीती जागती मिसाल है. हालिया सालों में मल्लिका सहरावत, राखी सावंत, पूनम पांडेय और अब सनी लियोन का बिंदास रवैया उनके फिल्म करिअर की सबसे बड़ी बैसाखी इसी कारण बना.

इसलिए सनी लियोन के साथ हम भारतीयों का रिश्ता सरप्राइज-फैक्टर के साथ शुरू हुआ, बिग बॉस में सिर्फ भागीदार ही नहीं बल्कि पूरा दर्शक समाज अचंभित था कि निर्लज्ज-नग्न-यौन अनुभवों की दुनिया का एक बाशिंदा दिन-दहाड़े हमारे बीच कैसे? वो भी खुद को भारतीय मूल का घोषित करते हुए? विदेशों में बसे भारतीय मूल वालों की हर कामयाबी को ‘भारतीय संस्कार की कामयाबी’ का ठप्पा लगाने वालों के लिए ये एक भयानक भारतीयता थी. ये भारतीय मूल के सबीर ‘हॉटमेल’ भाटिया से कई गुना हॉट-फीमेल का मामला था. दुनियाभर में सॉफ्टवेयर क्रांति करने वाले भारतीय, इस भारतीय मूल की ‘साॅफ्वेयर’ के साथ डील कर पाने में नाकाम थे. कुछ चिर-सरपरस्त टाइप मर्दों की दिक्कत थी कि अपनी इस कामयाब ‘बेटी’ का क्या करें? कुछ का मसला था कि अपने पति/बॉयफ्रेंड के समक्ष कैसे प्रासंगिक बनी रहें, कुछ का मानना था कि हमारी उम्र तो गुजर गई बौराने की लेकिन बेटों को कैसे बचाएं? कुछ को व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने भी परेशान किया. कुल मिलाकर भारतीय मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय को छोड़ दें तो दिक्कत सबको थी. भारतीय मीडिया के लिए सनी लियोन एटीएम जैसा सुख है क्योंकि चाहे उसको सराहें या दुरदुराएं, टीआरपी यकीनन मिलेगी, लिहाजा उत्कंठ नारीवादी कोण हो या भारतीय संस्कृतिवादी, खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर.

Photo- Tehelka Archives

दो शब्द अश्लीलता के सवाल पर भी- कि पॉर्न या अर्द्धपॉर्न (मस्तीजादे) फिल्में भी जटिल निर्माण प्रक्रिया से बनती हैं, ऐसे में फाइनेंसर, निर्माता, निर्देशक, संपादक, तकनीक विशेषज्ञ, संगीत निर्देशक, हीरो, वितरक आदि को इल्जाम के दायरे से बाहर रख सिर्फ महिला पॉर्न स्टार को अश्लीलता के सवाल पर घेरना ही अश्लीलता है. पॉर्न से मुनाफा कमाकर, उसी पॉर्न स्टार से पश्चाताप करवाने की हेकड़ी ही अश्लीलता है. मीडिया जगत में होने वाले यौन-उत्पीड़न, यौन अपराधों पर कभी स्टोरी न करना, पीड़ित महिला-सहकर्मी को लाचार, बेसहारा और बेरोजगार छोड़ आततायी संपादक-चैनल हेड की जी-हुजूरी करना ही अश्लीलता है.

विश्व में अब कुछ देशों में ‘पॉर्न वेबसाइट प्रति व्यक्ति’ के हिसाब से हैं, मतलब ये कि प्रति हजार व्यक्तियों पर लगभग हजार ही पॉर्न साइट्स हैं. इस मामले में मानवता के विकास की कहानी अद्भुत है, यानी पीने का पानी नहीं पहुंचा पाए हैं लेकिन विकसित दुनिया ने सबके लिए पॉर्न मुहैया करवा दिया है. अब ये साम्यवादी समझ कि ‘रोजगार के तौर पर स्त्री-शरीर का उपयोग उसे एक वस्तु में तब्दील कर रहा है, निर्मम बाजार और पूंजीवाद सेक्स को गैरमानवीय आयाम दे रहे हैं’, बुनियादी तो है लेकिन काफी नहीं. सेक्स-रेवेन्यू से अब देशों की अर्थव्यवस्थाएं चल रही हैं. राष्ट्रीय सरकारें सेक्स के बाजार से कमाया गया मुनाफा सामाजिक-सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्च कर रही हैं. इसलिए सेक्स-उद्योग अब प्रतिदिन की सच्चाई है, जिसे हम आत्मसात कर ही लेंगे. देसी सनी लियोन के प्रकट होने में जितनी देर लगेगी उतनी ही देर तक आधी-विदेशी सनी लियोन का सिक्का चलता रहेगा, और वही इस यात्रा का अगला पड़ाव होगा, फिर सब सामान्य हो जाएगा.

दरअसल पॉर्न की कामयाबी का राज यह है कि ये नितांत एकांगी और गैर लज्जाजनक अनुभव है. ये उपभोक्ता को गुमनाम रख सिर्फ प्रस्तुतकर्ता पर केंद्रित रहता है और उपभोक्ता समाज अपनी नाक सिकोड़े, त्योरियां चढ़ाए नैतिकता का आग्रह भी कर लेता है. दुनिया के सबसे बड़े पॉर्न-आसक्त भारतीय समाज को अगर सनी लियोन ये चुनौती दे दे कि ‘है कोई माई का लाल-संस्कारी पुरुष जो समाज में खुलकर आए और बताए कि सनी लियोन उसकी फंतासी की मलिका है’, तो आपको क्या लगता है कि कितने मर्द ईमानदारी से आगे बढ़कर आ सकेंगे? हमारे पति, भाई, बेटे, बॉयफ्रेंड और सहकर्मी हमारे जीवन का हिस्सा हैं और पॉर्न उनके जीवन का, दूसरी तरफ ‘देसी बॉयज’ भी हैं, स्वीकार कीजिए.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

‘किसी महिला के लिए अपने मन की बात रखना आसान नहीं होता’

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‘खूबसूरती आपके मन में होती है, फिर इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आपके बाल सुंदर हैं या कपड़े-जूते या मेकअप परफेक्ट है.’

महिला हों या पुरुष, आपके बारे में सब यह बात जरूर मानते हैं कि आप बेहद खूबसूरत हैं. क्या आपको लगता है कि खूबसूरती ही आपकी सबसे बड़ी खूबी है?

खूबसूरती आपके आत्मविश्वास में होती है या कह सकते हैं आप जैसे बात करते हैं, उठते बैठते हैं, वह खूबसूरती को परिभाषित करता है. कई बार ऐसा होता है कि आप किसी खूबसूरत चेहरे वाली महिला या पुरुष से मिलते हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व या बात करने का ढंग खूबसूरत नहीं होता. बातचीत से आपके व्यक्तित्व के बारे में खुद पता चलता है. मेरे लिए ये बातें बहुत ही अहम हैं. आत्मविश्वासी होना और अच्छा दिखना मेरे लिए अहम है.

 क्या निजी तौर पर खूबसूरती की इसी परिभाषा के अनुसार जीती हैं?

(हंसते हुए) अरे! मैं इस तरह कभी नहीं सोचती! मुझे नहीं पता दूसरे लोग या महिलाएं इस सवाल का जवाब कैसे देते हैं. शायद मेरे पति इस सवाल का जवाब बेहतर तरीके से दे सकें. मेरे ख्याल से, ये आपके आत्मविश्वास में झलकता है, आप खुद के बारे में क्या महसूस करते हैं, उसमें दिखता है. खूबसूरती आपके मन में होती है. फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके बाल सुंदर हैं, कपड़े-जूते या मेकअप परफेक्ट है! खूबसूरती का अर्थ आत्मविश्वास से है, आप स्वयं को कितनी गंभीरता से लेते हैं, ये भी आपकी सुंदरता को दिखाता है.

 आपके ढेरों प्रशंसक हैं, बावजूद इसके लोग आपको एक पोर्न स्टार के रूप में ही देखते हैं. लोगों के इस संकीर्ण नजरिये और लगातार होती टिप्पणियों से आप खुद को  कैसे अप्रभावित रख पाती हैं?

मैं खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में देखती हूं, जिसे नीचा नहीं दिखाया जा सकता, मजबूत होना ही उसकी जरूरत है. मैं जानती हूं करिअर के रूप में मैंने क्या विकल्प चुने थे. जो मैंने चुना, वो दूसरे लोग नहीं चुन सकते. मैं यह अच्छी तरह समझती हूं कि मेरा वह चुनाव किसी भी तरह से साधारण नहीं था. लेकिन मैं यह भी समझती हूं कि मैंने जो फैसला लिया है, मुझे उसी के अनुसार चलना चाहिए. साथ ही, कभी खुद को यह महसूस नहीं होने देना चाहिए कि मैंने कुछ गलत किया है.

‘कुछ लोगों के लिए हो सकता है कि ‘मस्तीजादे’ उनकी लिस्ट में सबसे ऊपर न हो लेकिन मेरे लिए है. यह एक फन मूवी है. वयस्क लोग मस्ती भरा वक्त बिता सकते हैं तो एडल्ट कॉमेडी क्यों नहीं हो सकती! सब कुछ इतना गंभीर क्यों होना चाहिए! चीजें गंभीर न हों इसीलिए तो कॉमेडी है’

क्या आप अपनी नारी शक्ति में विश्वास रखती हैं?

अगर इसका मतलब नारी शक्ति से है तो बता दूं कि मैंने अपने लिए यह शब्द पहले कभी भी इस्तेमाल नहीं किया है. मैं खुद को नारीवाद के उस क्षेत्र में कभी नहीं देखती. मैं जानती हूं एक महिला के लिए, विशेषकर मनोरंजन जगत या सत्ता के क्षेत्र में सक्रिय महिला के लिए अपने मन की बात रखना कभी आसान नहीं होता.

 तो खुद को दूसरों से अलग होने की आजादी कैसे दे पाती हैं?

मैं सचमुच इस बारे में ज्यादा नहीं सोचती कि मैं क्या करती हूं. बहुत से ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि लोग क्या सोचेंगे या उन्हें कैसे देखा जाएगा, लोग उन्हें कैसे लेंगे. ऐसा होना भी सही है. यह कोई बुरी बात नहीं है. आपको यह समझना होगा कि मैं एक बिल्कुल अलग दुनिया से आई हूं, जहां मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में आऊंगी. मैं इसके आसपास भी नहीं थी. मैंने तो सोचा था कि लॉस एंजिल्स में कोई बिजनेस शुरू करूंगी और बहुत सी अलग चीजें करूंगी.

बिग बॉस ने निश्चय ही आपकी किस्मत बदल दी लेकिन बॉलीवुड को क्यों चुना,  जबकि पिछले करिअर चुनाव के साथ आप काफी सहज रही हैं?

बिग बॉस के बाद पीछे मुड़ना मुमकिन नहीं था. मुझे आगे बढ़ना ही था. मुझे यहां अपने सपने पूरे करने का मौका मिल रहा था, फिल्म इंडस्ट्री में आने का, फिल्में करने का और वो सब कुछ करने का मौका मिल रहा था, जो हमेशा से करना चाहती थी. बिग बॉस में आने के पहले ही मैंने उस इंडस्ट्री (पॉर्न) को अलविदा कह दिया था. बिग बॉस में आने के बाद जो कुछ भी हुआ वह सपने के सच होने जैसा ही था. ऐसा सिर्फ सपनों में ही होता है. जिंदगी में ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता. जिस इंडस्ट्री से मैं आई हूं, वहां से आने वाली लड़कियों को ऐसा मौका नहीं मिलता है. जब तक हो सकेगा, मैं इस मौके को संभाले रखूंगी.

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सामाजिक मानदंडों में कैद रहने की बजाय आप स्वतंत्र निर्णय लेने में विश्वास रखती हैं. क्या लगता है कि आपका यह दृष्टिकोण आपके बॉलीवुड फिल्मों के चयन में भी दिखेगा?

मैं जो फिल्म करना चाहती हूं, मुझे उसे चुनने की आजादी मिलनी ही चाहिए. लोगों को मुझे किसी खांचे में बांधकर नहीं देखना चाहिए. लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं, इससे मुझे जरा भी फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ये मेरी जिंदगी है और मैं इसे वैसे ही जिऊंगी, जैसा मैं चाहती हूं. जैसा कि ज्यादातर लोग मेरे बारे में जानते हैं कि मैं किसी एक ढर्रे पर नहीं जीती, लेकिन हमेशा वो करती हूं,  जो मैं चाहती हूं. मुझे लगता है छिप-छिपाकर या हिचक के साथ ही सही पर हम वो सब करते हैं, जिसके बारे में लोग सोचते हैं कि यह नहीं करना चाहिए.

बॉलीवुड में आने के इतने समय बाद एडल्ट कॉमेडी करना क्या एक योजनाबद्ध कदम है?

पहली एडल्ट कॉमेडी का प्रस्ताव मुझे ‘मस्तीजादे’ के रूप में ही मिला था और मैंने इसे हां कह दिया. इस बारे में कोई योजना नहीं थी. जब मैंने स्क्रिप्ट सुनी तो मुझे नहीं लगा कि ओह! यह मेरे लिए कुछ ज्यादा ही है. फिल्म में वह सब है, जो बड़े होने के दौरान मैंने टीवी या फिल्मों में देखा है. कुछ लोगों के लिए हो सकता है कि ‘मस्तीजादे’ उनकी लिस्ट में सबसे ऊपर न हो लेकिन मेरे लिए है और इसकी वजह यही है कि यह एक फन मूवी है. वयस्क लोग मस्ती भरा वक्त बिता सकते हैं तो एडल्ट कॉमेडी क्यों नहीं हो सकती! सब कुछ इतना गंभीर क्यों होना चाहिए! चीजें गंभीर न हों इसीलिए तो कॉमेडी है.

जब मैं जेनिफर एनिस्टन की फिल्म ‘वी आर द मिलर्स’ के बारे में सोचती हूं तो मैं ये नहीं सोचती कि ओह! जेनिफर ने यह फिल्म की! या कि वह फिल्म में कितनी आकर्षक डांसर की तरह उभरी है या फिल्म में उन्होंने कितना पागलपन किया! मैं इस सबके बारे उतना नहीं सोचती, केवल फिल्म के बारे में सोचती हूं. मैं जेनिफर को केवल फिल्म के संदर्भ या उस पात्र विशेष के बतौर नहीं देखती. मेरे लिए ‘मस्तीजादे’ भी ऐसी ही फिल्म है.

तो क्या आपको लगता है कि वयस्क श्रेणी की फिल्में बदलाव ला सकती हैं?

आंकड़ों के आधार पर बात की जाए तो ‘ग्रैंड मस्ती’ इस बात का उदाहरण है कि एडल्ट फिल्म किस तरह अच्छी चल सकती हैं और लोग उसका मजा ले सकते हैं. अगर लोगों ने फिल्म को पसंद न किया होता तो आंकड़े इस तरह के नहीं होते. फिल्म देखकर लोग भौंचक रह गए हों या फिर वे यह कहते हुए सिनेमा हॉल से बाहर निकले हों कि कुछ हद तक फिल्म उन्हें पसंद आई, मुझे लगता है अगर इस शैली की फिल्में बनती रहीं तो धीरे-धीरे लोग सहज हो जाएंगे.

 क्या बॉलीवुड में खुद को एक  ‘चेंजमेकर’  के रूप में देखती हैं?

मैं बॉलीवुड को बदलने वाली कौन होती हूं! मैं बस वो करती हूं, जो मुझे अच्छा लगता है.

खेसारी दाल : मिलावटी कारोबार को आबाद करने का औजार

 

khesari-dalwebपिछले दिनों केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का एक बयान टीवी पर देखा-सुना. उन्होंने कहा कि खेसारी की दाल बहुत स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है. साथ में उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि वे उसका सेवन 15 सालों से कर रहे हैं और सेहतमंद हैं. पासवान को सुनते-देखते हुए मैं कोई 35 साल पहले 1982-83 के समय में चला गया. उनका संसद का वह भाषण याद आया, जिसमें उन्होंने खेसारी की खेती का जमकर विरोध करते हुए उसे पूरी तरह से प्रतिबंधित करने की बात कही थी.

पासवान का भाषण इतना बेजोड़, तर्कों और तथ्यों से भरा था कि हम उन्हें दिल्ली बधाई देने गए थे. रामविलास पासवान कब से खेसारी प्रेम करने लगे, नहीं मालूम लेकिन खेसारी पर फिर से बात शुरू हुई है तो 1979 से शुरू होकर 1983 तक हम लोगों द्वारा चलाया गया एक अभियान याद आ रहा है. विंध्य पर्वत के इलाके यथा सतना, जबलपुर आदि के क्षेत्रों में हम साथियों ने तब बंधुआ मजदूरी के खिलाफ एक अभियान की शुरुआत की थी, जब बंधुआ मजदूरों की स्थिति पर काम करने गए तो वहां उनसे जुड़ी दूसरी कहानी सामने आई. वह कहानी खेसारी की थी. हमने देखा कि जो मजदूर काम करते हैं, उन्हें मजदूरी के रूप में खेसारी ही दिया जाता है. दाल, रोटी से लेकर सत्तू… सब रूप में वे खेसारी का सेवन करते थे. उन मजदूर परिवारों में भारी संख्या में लंगड़े लोगों की संख्या देखने को मिली. हमने खेसारी के पेंच को समझने की शुरुआत की. वैज्ञानिक तथ्यों को जुटाना शुरू किया. मालूम हुआ कि खेसारी में तीन से लेकर 6.5 प्रतिशत तक जहरीले तत्व होते हैं, इसलिए यह बीमारी हो रही है. फिर वैज्ञानिकों ने बताया कि अगर इसे उबाल लिया जाए, उसे सुखा दिया जाए यानी पूरी प्रोसेसिंग की जाए तो यह खाने लायक हो जाता है, इसके विष कम हो जाते हैं. मजदूरों को बोला गया कि जो मजूरी मिलती है, उस दाल को प्रोसेस कर इस्तेमाल में लाया करो. भला मजदूरों के पास आग, पानी, समय आदि कहां था. उन्होंने मना नहीं किया लेकिन हमें यह मालूम हो गया कि इनसे संभव नहीं होगा.

तब हम लोगों की ओर से एक प्रस्ताव था कि एक प्रोसेसिंग यूनिट लगाते हैं, वहां खेसारी दाल को प्रोसेस करते हैं और फिर मजदूरों से खेसारी दाल लेकर उससे उतनी ही मात्रा में अदला-बदली किया करेंगे ताकि उन्हें विषमुक्त दाल मिल सके. लेकिन यह भी व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं था. हम लोग सुप्रीम कोर्ट गए. उसी समय में एक जनहित याचिका दायर की कि खेसारी दाल की खेती बंद की जाए. दुनिया भर से वैज्ञानिक तथ्य हम लोग जुटा चुके थे. योजना आयोग का भी दरवाजा खटखटाया. बहुत खेल हुआ कोर्ट में मामला पहुंचने पर लेकिन योजना आयोग ने पहल और मदद की. तब मध्य प्रदेश की सरकार ने तय किया कि वह पारंपरिक दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देगी. उस समय खेसारी दाल की खेती बंद होने की स्थिति बनी कि तभी दिल्ली स्थित पूसा संस्थान ‘पूसा 24’ नाम से एक नए किस्म का खेसारी बीज लाया. बताया गया कि इस बीज के प्रयोग से उपजाई गई दाल खाने लायक होगी. इस खेसारी बीज का नाम ‘पूसा-24’ इसलिए रखा गया क्योंकि एक तो इसे पूसा में तैयार किया गया था और दूसरा यह कि इसमें जहरीले तत्व की मात्रा मात्र 0.24 प्रतिशत ही होती थी. इस खेसारी को खेतों में उतारने की तैयारी हुई, तब हम लोगों ने मालूम किया तो पता चला कि पूसा ने इस बीज को लेकर प्रायोगिक खेती कर कई जगहों पर देखा और यह पाया कि तीसरी फसल आते-आते तक फिर इसमें जहरीले तत्वों की मात्रा तीन से 6.5 प्रतिशत तक पहंुच जाती है. बीज के विज्ञान को देखेंगे तो ऐसा ही होता भी है. कुछ फसल के बाद वह उत्पादन के क्रम में अपने मौलिक गुण के साथ आने लगता है. तब हाल यह जानिए कि सिर्फ मध्य प्रदेश में ही 10 लाख टन से अधिक खेसारी का उत्पादन होता था. पूरे देश का आंकड़ा न जाने कितना होगा! खेसारी की खेती पर प्रतिबंध की बात हुई लेकिन वह खेल चलता रहा. पारंपरिक दालों की खेती में कमी आती गई. खेसारी मजदूरी के रूप में सस्ता भुगतान का विकल्प होने के बाद मिलावट के बाजार में पहुंचने लगी. अरहर-चना आदि दालों में उसे मिलाया जाने लगा. मैं आज भी दावे के साथ कहता हूं कि बाजार में जो बेसन मिलते हैं, उनमें 80 प्रतिशत बेसन ऐसे होते हैं, जिनमें 50 प्रतिशत से अधिक खेसारी की मिलावट होती है.

खेसारी का विरोध करते-करते रामविलास पासवान इसके समर्थक कैसे बन गए, जबकि 35 साल पहले संसद में उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगाने को कहा था

अब एक बार फिर आईसीएआर का ही हवाला देकर कहा जा रहा है कि दाल की किल्लत से निजात पाने के लिए आईसीएआर ने खेसारी की ऐसी किस्म विकसित की है, जिसका सेवन किया जाए तो उससे नुकसान नहीं होगा. यह भी बताया जा रहा है कि उसमें प्रोटीन से लेकर पोषक तत्व तक सब मौजूद रहेंगे. चलिए मान लिया, लेकिन दो सवालों का जवाब तो वैज्ञानिकों को पहले ही दे देना चाहिए. एक तो यह कि इसकी गारंटी कौन देगा कि खेसारी की इस उन्नत किस्म की जब खेती होगी तो उस खेसारी की खेती नहीं होगी, जिसमें जहरीले तत्व की भरपूर मात्रा होती है? क्या दोनों खेसारी के स्वाद में कोई अंतर होगा? दोनों खेसारी को मिला देने से कैसे पता चलेगा कि मिलावट हो गई है? उन्नत किस्म का जो बीज मिलेगा, वह महंगा होगा, उसकी खेती कम की जाएगी और फिर उस नाम पर साधारण खेसारी की अधिक खेती कर उसमें मिलाने का नया खेल चलेगा, सामान्य बुद्धि से यह जान लेने की जरूरत है. और एक महत्वपूर्ण सवाल और है. खेसारी के बारे में यह सर्वज्ञात वैज्ञानिक तथ्य है कि वह टिप्सिन एलिवेटर होता है. टिप्सिन एक किस्म का एंजाइम होता है. वह शरीर में मौजूद होता है. उसका काम प्रोटीन को पचाना उसके जरिये शरीर में पोषक तत्वों का निर्माण करना है. खेसारी में लाख प्रोटीन रहे लेकिन चूंकि यह गुण से टिप्सिन एलिवेटर होता है इसलिए इसके प्रोटीन का शरीर में कोई उपयोग नहीं हो सकता. जो होगा, वह शौच के रूप में बाहर निकल जाएगा. उसका कोई फायदा नहीं होगा. अब ऐसे खेसारी का क्या फायदा होगा, यह भी तो कोई बताए. खेसारी पर बातें बहुत सारी हैं. खेसारी हमेशा से खेल का जरिया रहा है. एक समय में मजदूरों को सताने का जरिया था, अब मिलावट के कारोबार को आबाद करने का जरिया.

लेखक चिकित्सक हैं 

(निराला से बातचीत पर आधारित)

इस दाल में कुछ काला है

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देश से पोलियो की बीमारी तो जड़ से खत्म हो गई है लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार एक ऐसा फैसला करने जा रही है जिससे कोई भी स्वस्थ व्यक्ति लकवे का शिकार हो सकता है. 55 साल पहले 1961 में एक दाल पर प्रतिबंध लगाया गया था जिसका नाम था खेसारी. दिखने में यह अरहर दाल के समान ही होती है. तब कई चिकित्सा विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि इंसान और जानवर दोनों के लिए यह समान रूप से खतरनाक है. इसके सेवन से शरीर के निचले भाग में लकवा मार सकता है. अब यह दाल फिर से सुर्खियों में है क्योंकि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इसके उत्पादन पर लगा प्रतिबंध हटा दिया है. अरहर दाल की आसमान छूती कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने शायद इस दिशा में कदम बढ़ाया है, लेकिन आईसीएमआर के इस कदम की कई कृषि और चिकित्सा विशेषज्ञों ने आलोचना की है. इनका कहना है कि सरकार अगर प्रतिबंध हटाती है तो इसके सेवन से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कैसे रोका जाएगा?

आईसीएमआर ने खेसारी दाल की जिन तीन किस्मों को मंजूरी दी है उनको कानपुर स्थित भारतीय दाल अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है. ये तीन किस्में हैं- ‘महातेवड़ा’, ‘रत्तन’ और ‘प्रतीक’. इन वैज्ञानिकों का दावा है कि इन किस्मों में खेसारी दाल में पाया जाने वाला नॉन प्रोटीन अमीनो एसिड ‘ओडीएपी’ नामक खतरनाक केमिकल मौजूद नहीं होता. लेकिन विशेषज्ञ इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि किसानों तक सिर्फ यही तीन किस्में पहुंचेंगी और वे इन्हीं बीजों से खेसारी दाल का उत्पादन करेंगे. इस पर निगरानी रखना बहुत कठिन काम है. प्रतिबंध हटने के बाद विषैले ओडीएपी युक्त खेसारी दाल का भी उत्पादन किसान करेंगे और इतने बड़े पैमाने पर उन पर निगरानी रखना संभव नहीं हो सकेगा.

1961 से ही प्रतिबंधित होने के बावजूद भारत के कई राज्यों में खेसारी दाल का उत्पादन हो रहा है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसका उत्पादन धड़ल्ले से जारी है. बांग्लादेश में भी इस दाल का उत्पादन होता है. इसी के चलते कई बार खबरें आती हैं कि व्यापारी इस दाल की तस्करी कर रहे हैं. स्थानीय व्यापारी ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अरहर की दाल में इसकी मिलावट करते हैं क्योंकि यह दाल दिखने में अरहर दाल के समान ही होती है.

1961 से ही प्रतिबंधित होने के बावजूद भारत के कई राज्यों में खेसारी दाल का उत्पादन हो रहा है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसका उत्पादन धड़ल्ले से जारी है

केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह इस बात को स्वीकार करते हैं. बकौल  सिंह, ‘खेसारी दाल का 4 से 5 लाख हेक्टेयर में उत्पादन हो रहा है.’ कृषि मंत्रालय के पास इसके उत्पादन से संबंधित आंकड़े भी मौजूद हैं. लेकिन यहां सवाल उठता है कि अगर कृषि मंत्रालय को इस प्रतिबंधित दाल के उत्पादन की जानकारी है तो इसका उत्पादन रोकने के लिए कदम क्यों नहीं उठाए गए? खेसारी दाल की कई खासियतें भी हैं जैसे- इसकी फसल में कम पानी का इस्तेमाल होता है और यह फसल तैयार होने में भी दूसरी दालों के मुकाबले कम समय लेती है.

खेसारी दाल गरीबों की दाल कही जाती है क्योंकि इसकी कीमत भी अन्य दालों के मुकाबले कम होती है. इस दाल पर 1907 से लेकर अब तक कई बार प्रतिबंध लगाया जा चुका है. चिकित्सा अनुसंधान में भी यह बात सामने आ चुकी है कि इसको खाने से जानवरों को भी नुकसान पहुंचता है. खेसारी दाल से प्रतिबंध हटाने को लेकर अब तर्क दिया जा रहा है कि इससे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या को रोका जा सकता है.

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खेसारी दाल के इतिहास पर एक नजर

  • मेडिकल अनुसंधान के मुताबिक खेसारी दाल में नॉन प्रोटीन अमीनो एसिड ‘ओडीएपी’ मौजूद होता है, जिसके सेवन से शरीर के निचले भाग में लकवा मार सकता है. रीढ़ की हड्डी भी सुन्न पड़ सकती है.
  • लखोली दाल के नाम से भी जाने जानी वाली इस दाल का इस्तेमाल पशुओं के चारे के तौर पर भी किया जाता था. लेकिन बाद में सरकारी एजेंसियों की रिपोर्ट में इसके नुकसानदायक होने का पता चलने के बाद किसानों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया.
  • 1907 में सूखे के चलते रीवा के महाराजा ने इस दाल के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया था.
  • 70 के दशक में प्रतिबंध के दौरान खेसारी दाल उगाने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाती थी और सरकारी अधिकारियों को खड़ी फसल को आग लगाने की अनुमति होती थी. किसानों के बैलों को भी जब्त कर लिया जाता था.
  • पश्चिम बंगाल के अलावा सभी राज्यों ने 1961 में वैज्ञानिकों की राय के बाद इसके उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया था. सन 2000 में अस्तित्व में आए राज्य छत्तीसगढ़ ने इसके उत्पादन पर प्रतिबंध नहीं लगाया.
  • ‘न्यू साइंटिस्ट’ मैगजीन की अगस्त 1984 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के उन इलाकों में जिनमें इसका उत्पादन ज्यादा होता था वहां पर इस दाल का इस्तेमाल भुगतान के लिए भी किया जाता था.
  • प्रतिबंध के बावजूद भी खेसारी की दाल बाजार में मौजूद है और दूसरी दालों में मिलावट के साथ यह लोगों तक पहुंच रही है.
  • अरहर दाल की कीमत 200 रुपये पर पहुंचने के चलते पिछले साल व्यापारियों ने इसमें खेसारी दाल की मिलावट की थी क्योंकि दिखने में यह अरहर दाल के समान ही होती है. इसके चलते दामों में गिरावट भी देखी गई थी.
  • 2008 में माइक्रोबायोलॉजिस्ट शांतिलाल कोठारी के भूख हड़ताल पर बैठने के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इसके उत्पादन, उपभोग और बिक्री पर से प्रतिबंध हटा लिया था. 

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प्रतिबंध हटाने की चर्चा के बीच इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी सवाल उठाए हैं. मेडिकल एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल केके अग्रवाल ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा, ‘यह मामला लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है और इस मामले पर आगे बढ़ने से पहले सरकार को एसोसिएशन के प्रतिनिधियों से चर्चा करनी चाहिए. तीनों किस्मों पर जो परीक्षण किए गए हैं उस पर जल्द से जल्द एक श्वेत पत्र लाना चाहिए और लोगों से सलाह मशविरा करना चाहिए.’ केके अग्रवाल ने आगे कहा, ‘बिना डॉक्टरों की सलाह लिए इस प्रतिबंध को हटाना उचित नहीं होगा. ऐसे फैसलों में विशेषज्ञों की राय बेहद जरूरी होती है. सरकार यह बताए कि इसमें खतरा शून्य है या कम है. अगर मरीज हमारे पास आएंगे तब हम उन्हें इस दाल के सेवन से मना करेंगे. इस मामले में आईएमए भी एक पक्ष है जिसके साथ सरकार को चर्चा करनी चाहिए. हम आईसीएमआर और स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को पत्र लिखेंगे और जल्द से जल्द इस पूरे मामले पर श्वेत पत्र की मांग करेंगे.’

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ये कैसे सुनिश्चित होगा कि किसान सिर्फ इन्हीं तीन किस्मों का उत्पादन करें, इस पर केके अग्रवाल ने कहा, ‘सबसे बड़ी चिंता इसी बात की है कि आप ये कैसे सुनिश्चित करेंगे कि कम विषैली खेसारी दाल का ही उत्पादन हो? क्या ये खुले बाजार में सरकारी दुकानों पर भी बिक्री के लिए उपलब्ध होगी? महाराष्ट्र में मैंने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां इस दाल के सेवन से लाइलाज बीमारी हुई है. ऐसी स्थिति में हमने उनको इस दाल का सेवन करने से मना किया है.’

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की राय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के दावे के बिल्कुल उलट है जिसमें कहा गया था कि खेसारी दाल की नई किस्मों में ओडीएपी नामक खतरनाक केमिकल न के बराबर पाया गया. कृषि मंत्रालय ने बयान जारी किया, जिसमें कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के हवाले से कहा गया, ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कम ओडीएपी युक्त खेसारी दाल की तीन उन्नत किस्में विकसित की हैं. इन किस्मों में ओडीएपी की मात्रा 0.07 से 0.1 प्रतिशत के बीच है जो कि मानवीय उपभोग के लिए सुरक्षित है.’

देश के जाने-माने कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा आईसीएमआर के फैसले को पूरी तरह गलत मानते हैं. ‘तहलका’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘दालों की कीमत नियंत्रित न कर पाने की सरकार की छटपटाहट बिल्कुल स्पष्ट है. इसीलिए विषैली खेसारी दाल पर से प्रतिबंध हटाने की योजना बनाई जा रही है. ‘न्यू साइंटिस्ट’ पत्रिका (23 अगस्त, 1984) की रिपोर्ट के मुताबिक इस दाल के सेवन से होने वाली बीमारी के दो रूप हैं- अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष. अप्रत्यक्ष रूप में इस बीमारी के होने पर हल्का पीठ दर्द और चाल में बदलाव आता है, जिससे चलने-दौड़ने में परेशानी होती है. आधे से ज्यादा मामलों में यह बीमारी इससे ज्यादा गंभीर नहीं हुई. लेकिन प्रत्यक्ष रूप में इस बीमारी के सामने आने पर व्यक्ति के अंग काम करना बंद कर देते हैं और वह  लकवे का शिकार हो जाता है.’

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सरकार को इस मामले पर आगे बढ़ने से पहले आगाह करते हुए जेडीयू के महासचिव केसी त्यागी ने स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को पत्र लिखा है. उनका मानना है कि इससे समाज में दालों के उपभोग को लेकर गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ेगी जिसका नतीजा वर्ग विभेद के रूप में सामने आएगा. केसी त्यागी ने अपने पत्र में लिखा है, ‘खेसारी दाल से प्रतिबंध हटाने के निर्णय पर पुनर्विचार जरूरी है. मुझे आशंका है कि इस दाल के सेवन से लोगों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ सकता है, जिसका परिणाम लकवे के रूप में भी सामने आ सकता है. इससे समाज में दालों के उपभोग को लेकर वर्ग विभेद भी तेज हो जाएगा. अमीर लोग तो खेसारी की दाल की बजाय अरहर या तुअर दाल का सेवन करेंगे, वहीं गरीबों की थाली में विषैली खेसारी दाल ही परोसी जाएगी. पहले से बीमार और कुपोषित भारत जैसे देश के लिए खेसारी दाल से प्रतिबंध हटाना बिल्कुल सही नहीं है.’

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केसी त्यागी ने आरोप लगाया, ‘खेसारी दाल को मंजूरी देने के लिए जो तर्क सरकार पेश कर रही है वे सही नहीं हैं. शोध संस्थान खेसारी से प्रतिबंध हटाने के पीछे गरीबों को प्रोटीन मुहैया कराने का तर्क दे रहे हैं. इस तरह की सिफारिश के पीछे उपभोक्ता मंत्रालय और शोध संस्थानों के निहित स्वार्थ काम कर रहे हैं.’ प्रतिबंध हटाने की मंजूरी का मामला अब स्वास्थ्य मंत्रालय के पास है इसीलिए केसी त्यागी और बाकी लोग इस फैसले को रोकने के लिए स्वास्थ्य मंत्री से मांग कर रहे हैं.

 

‘तहलका’ से बातचीत में केसी त्यागी ने कहा, ‘सरकार को देश में मौजूद विभिन्न एजेंसियों से इन नई किस्मों की जांच करानी चाहिए. सरकार सिर्फ गरीबों की जान से खिलवाड़ कर रही है. ये सरकार अमीरों के हितों को ध्यान में रखकर ही अपनी योजनाएं बनाने में व्यस्त है. इस मामले को आने वाले बजट सत्र में उठाएंगे. लेकिन अगर फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) नई किस्मों को मंजूरी देता है तो हमें कोई समस्या नहीं है लेकिन इनका कड़ाई से परीक्षण किए जाने की जरूरत है.’ केसी त्यागी ने इस मामले में उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान पर भी मिलीभगत का आरोप लगाया है.

खेसारी दाल में खतरनाक केमिकल मौजूद होने की पुष्टि करते हुए कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘कुछ अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि खाने का तेल खेसारी दाल में मौजूद खतरनाक केमिकल ओडीएपी को 72 से 100 प्रतिशत तक खत्म कर देता है. इससे स्पष्ट है कि दाल में वह केमिकल मौजूद है. इसीलिए इसे खत्म करने की जरूरत पड़ती है. ऐसे में इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि आम आदमी इन उपायों को अपनाकर इस दाल को सुरक्षित बनाए. आईसीएमआर ने किस आधार पर प्रतिबंध हटाने का फैसला लिया है यह जानना बेहद जरूरी है क्योंकि लोग पूरी तरह संतुष्ट होने के लिए विस्तृत जानकारी चाहेंगे ही. इसी तरह एफएसएसएआई को भी इस दाल की नई किस्मों को सार्वजनिक तौर पर कड़े परीक्षण से गुजारना चाहिए ताकि किसी निश्चित परिणाम तक पहुंचा जा सके.’

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पिछले साल देश में अरहर की दाल लोगों की थाली से गायब हो गई थी. दालों की बढ़ती कीमतों ने भाजपा सरकार के सामने मुश्किल चुनौती पेश की थी. सरकार पर आरोप लगा था कि मोदी सरकार दालों की बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने में असफल रही है. इसी बीच अब खेसारी दाल को मंजूरी देने की बात चल पड़ी है. देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘देश में दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए विषैली खेसारी दाल के उत्पादन को मंजूरी देने को न्यायोचित नहीं ठहाराया जा सकता. अगर इसके उत्पादन को मंजूरी मिल भी जाती है तब भी इससे दालों के भंडारण पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इसीलिए इस तरह का खतरनाक फैसला नहीं करना चाहिए. इसके विपरीत भारत सरकार को चाहिए कि देश में ही दालों के घरेलू उत्पादन में बढ़ोत्तरी की दिशा में कदम बढ़ाया जाए. सरकार सिर्फ देश की भोली-भाली जनता को उल्लू बनाने का काम कर रही है. आम आदमी को इसके दुष्परिणामों के बारे में कोई जानकारी नहीं है इसीलिए वह कभी सवाल नहीं उठाता.’

नागपुर में रहने वाले माइक्रोबायोलॉजिस्ट और पोषण विशेषज्ञ शांतिलाल कोठारी खेसारी दाल पर लगे प्रतिबंध हटाने के लिए संघर्षरत हैं. पिछले 30 साल से कोठारी इस प्रतिबंध के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए हैं. कोठारी का कहना है, ‘अगर किसानों को खेसारी दाल का उत्पादन करने दिया जाए तो बहुत हद तक हमारे देश में किसानों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.’

प्रतिबंध को हटाने की मांग को लेकर कोठारी 2008 में भूख हड़ताल पर बैठ गए थे जिसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने इसके उत्पादन, उपभोग और बिक्री से प्रतिबंध हटा लिया था. लेकिन कोठारी यहीं नहीं रुके. उन्होंने पूरे देश से यह प्रतिबंध हटाने के लिए अभियान चलाया. पिछले साल दिसंबर में सरकार ने कोठारी को प्रतिबंध हटाने के बारे में सूचना दी. यह सूचना प्राप्त होने के बाद कोठारी ने नागपुर के कुही क्षेत्र में 15 जनवरी को किसानों की एक बैठक बुलाई. इस बैठक में करीब 15 हजार किसानों ने हिस्सा लिया था.

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देवेंद्र शर्मा आगे कहते हैं, ‘ये दावा किया जा रहा है कि इससे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या में कमी आई है. यह बिल्कुल झूठ है. राज्य में आज भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इस दाल को सरकार क्यों बाजार में लाना चाहती है, समझ से परे है. इसके बजाय सरकार को चाहिए कि कनाडा में पशुओं के चारे में इस्तेमाल होने वाली पीली मटर का आयात कर अरहर के विकल्प के रूप में बाजार में उतारे.’

खेसारी दाल का मामला फिलहाल एफएसएसएआई के पास पहुंच गया है. वहां के वैज्ञानिक अब इन तीन नई किस्मों का कड़ाई से परीक्षण करेंगे जिसके बाद इस प्रतिबंध को हटाने पर फैसला लिया जाएगा. अगर यह प्रतिबंध हटा भी लिया जाए तब भी यह कितना कारगर होगा इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता. 

35 साल बाद 50 साल का आरोपी नाबालिग करार

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घड़ी में सुबह के साढ़े 10 बजे थे. उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात इलाके के रमाबाई नगर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय के कमरा संख्या चार से एक आवाज गूंजती है, कोशा..!

हालांकि इस आवाज का कोई जवाब नहीं मिल पाता. न तो कोशा के वकील, न ही अभियोजन (प्रतिपक्ष) के वकील की ओर से और न ही खुद कोशा की कोई आवाज आई. इनमें से कोई भी वहां मौजूद नहीं था. कोशा 1981 के बेहमई सामूहिक नरसंहार कांड के आरोपियों में से एक है.

इसके एक घंटे बाद एक अन्य आरोपी विश्वनाथ हाजिर हुआ. लंबा कद, सांवला रंग, गहरे स्लेटी रंग की शर्ट-पैंट और हरे रंग का स्वेटर पहने विश्वनाथ उर्फ कृष्ण स्वरूप हाथों में ढेर सारी फाइलें लिए अपने वकील के साथ अदालत पहुंचा था. उसके चेहरे की उलझन साफ देखी जा सकती थी. 23 नवंबर, 2015 को एक फैसले में उसे इस अपराध के समय नाबालिग घोषित कर दिया गया. उसके बाद से यह कथित डाकू इस मामले का जल्द से जल्द निपटारा चाहता है.

‘बैंडिट क्वीन’ और ‘लेडी रॉबिनहुड’ के नाम से जानी जाने वाली फूलन देवी ने तकरीबन 35 साल पहले 14 फरवरी 1981 को राजपूत प्रभुत्व वाले गांव बेहमई में 22 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. कुछ लोगों ने इस नरसंहार को सवर्ण जातियों के विरुद्ध खड़े होने के प्रयास के रूप में देखा और इसी के बाद फूलन उस दौर की ‘आराध्य’ डकैत के रूप में देखी जाने लगीं.  

1983 में फूलन देवी के आत्मसमर्पण करने से पहले जब इस सामूहिक नरसंहार की खबरें राजनीतिक गलियारों में हलचल मचाने लगीं तो मामले को काबू में दिखाने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस ने कुछ एनकाउंटर और गिरफ्तारियां कीं. कानपुर  में जिन 16 आरोपियों के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल किए गए, उनमें विश्वनाथ का भी नाम था. इसी सूची में फूलन देवी का भी नाम था लेकिन वे कभी अदालत में पेश नहीं हुईं क्योंकि आत्मसमर्पण के वक्त उन्होंने खुद को मध्य प्रदेश की जेल में रखने की शर्त रखी थी. फूलन देवी ने 11 वर्ष से अधिक समय मध्य प्रदेश की जेल में बिताया जबकि उनके गिरोह के दूसरे सदस्यों की सुनवाई कानपुर में ही हुई. अपने एक साक्षात्कार में फूलन देवी ने कहा था, ‘मेरे आदेश के खिलाफ गिरोह के दूसरे साथी सुनवाई के लिए उत्तर प्रदेश चले गए.’

आज, इस घटना के तीन दशक और मामले में पहला बयान दर्ज होने के चार साल बाद इस बहुचर्चित मामले में पांच जीवित और दो फरार लोगों के खिलाफ सुनवाई जारी है. पांच में से एक ही जेल में है, जिसके देखने की क्षमता लगभग खत्म हो चुकी है. बाकी बचे चार लोग जमानत पर बाहर हैं.

अदालत में विश्वनाथ से जब उसकी उम्र के बारे में पूछा गया तो उसने जवाब दिया, ‘मेरा जन्म एक जुलाई, 1965 को हुआ है. इससे आप ही हिसाब लगा लीजिए.’ विश्वनाथ का कहना है कि वह अदालत में अपनी उम्र के बारे में साल 2008 से बार-बार बता रहा है. इसी साल उसके वकील ने अपराध के समय उसके नाबालिग होने के बारे में अदालत में प्रार्थना पत्र दाखिल किया था. हाईस्कूल की मार्कशीट और प्रमाण-पत्र के आधार पर विश्वनाथ के वकील को उसकी उम्र के इस तथ्य को साबित करने में 8 साल का वक्त लग गया.   दिलचस्प यह है कि अगर बेहमई नरसंहार कांड के अंतिम फैसले में विश्वनाथ को दोषी ठहराया जाता है तो उसके नाबालिग होने का तथ्य उसकी सजा कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. किशोर न्याय (बाल देखभाल और सुरक्षा) अधिनियम 2000 के तहत उसका केस किशोर न्याय बोर्ड को सौंपा जाएगा.

14 फरवरी 1981 को राजपूत प्रभुत्व वाले गांव बेहमई में 22 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. कुछ लोगों ने इस नरसंहार को सवर्ण जातियों के विरुद्ध खड़े होने के प्रयास के रूप में देखा और इसी के बाद फूलन उस दौर की ‘आराध्य’ डकैत के रूप में देखी जाने लगीं

हालांकि, अभियोजन पक्ष के अनुसार विश्वनाथ के साथ वयस्क कैदी के जैसा व्यवहार किया जाएगा. कानपुर देहात के अतिरिक्त जिला सरकारी वकील (अपराध) राजू पोरवाल साफ करते हैं, ‘विश्वनाथ की सजा अन्य आरोपियों से कम हो सकती है लेकिन सजा की यह अवधि उसे वयस्कों की जेल में पूरी करनी होगी.’ वहीं विश्वनाथ के वकील का कहना है, ‘विश्वनाथ को इसी नाम के किसी दूसरे व्यक्ति  की जगह गिरफ्तार किया गया था. जिन 16 आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए हैं, उस सूची में विश्वनाथ नाम के दो व्यक्ति थे. इनमें से एक विश्वनाथ उर्फ कृष्ण स्वरूप उर्फ पुतनी था और दूसरा विश्वनाथ उर्फ अशोक. हालांकि पोरवाल इसके खिलाफ तर्क देते हैं कि अगर कृष्ण स्वरूप को अशोक के स्थान पर पकड़ा गया है तो आरोप पत्र में कृष्ण स्वरूप का नाम होना ही नहीं चाहिए था. 

रिकॉर्ड के अनुसार, विश्वनाथ को इस नरसंहार के लगभग एक महीने बाद 21 मार्च 1981 को गिरफ्तार किया गया था. इसी साल 22 मई को  पहचान के लिए उसे गवाहों और मारे गए लोगों के परिवार के सामने पेश किया गया. तब गवाहों ने उसकी पहचान भी कर ली थी. आरोप पत्र दाखिल करते समय पुलिस ने विश्वनाथ की उम्र 21 वर्ष दर्ज की थी. यहां सवाल यह भी उठता है कि विश्वनाथ के वकील को उसके नाबालिग होने का तथ्य सामने लाने में इतना वक्त क्यों लगा? विश्वनाथ के वकील गिरीश नारायण दुबे का कहना है, ‘जब विश्वनाथ उर्फ कृष्ण स्वरूप ने अपनी शिक्षा के बारे में जिक्र किया और इस तथ्य पर हमारा ध्यान गया तो हमने इस बारे में आवेदन देने का फैसला लिया.’

2013 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए दुबे कहते हैं, ‘नाबालिग होने का दावा मामले की सुनवाई के समय कभी भी किया जा सकता है, यहां तक कि केस का अंतिम फैसला हो जाने के बाद भी. अदालत के फैसले के अनुसार देरी से याचिका दायर करने के कारण नाबालिग होने के दावे को खारिज नहीं किया जा सकता.’

नाबालिग होने के दावे वाली याचिका पहली बार 2008 में दायर की गई. उस समय अदालत ने विश्वनाथ से उसकी उम्र से संबंधित सभी दस्तावेज जमा करने के लिए कहा. लेकिन वह दस्तावेज जमा नहीं कर पाया.

पोरवाल का कहना है, ‘यह सुनवाई को टालते जाने के लिए अपनाया गया एक तरीका था. अंतत: जब 2012 में सुनवाई शुरू हुई तो विश्वनाथ कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर पाया. नाबालिग संबंधी याचिका वह 1981 में ही दायर कर सकता था, लेकिन उसके वकील ने 2008 तक का इंतजार किया, भला क्यों? यह सुनवाई को लंबा खींचने की योजना थी मतलब जब सभी रास्ते बंद हो जाएंगे तब यह मामला उठाकर सुनवाई को लंबा खींचा जाएगा.’

बहरहाल, यह साबित करने में 8 वर्ष लगे कि अपराध के समय विश्वनाथ की उम्र 16 वर्ष से कम थी. इसके लिए कानपुर देहात के उमरपुर प्राथमिक स्कूल के प्रधानाचार्य सुनील कुमार कटियार को अदालत में हाजिर होने का समन जारी किया गया था. इसी स्कूल में विश्वनाथ ने पांचवीं तक की पढ़ाई की थी, उस समय कटियार स्कूल के प्रधानाचार्य थे. कटियार ने अदालत में 1988 तक का स्टूडेंट रिकॉर्ड रजिस्टर पेश किया. रिकॉर्ड के अनुसार, विश्वनाथ ने उमरपुर प्राथमिक स्कूल में 24 अप्रैल 1976 को दाखिला लिया था. रजिस्टर में विश्वनाथ का जन्मदिन 1 जुलाई 1965 दर्ज था. विश्वनाथ ने पांचवीं पास करने के बाद स्कूल छोड़ दिया.

मामले में एक अहम मोड़ तब आया जब विश्वनाथ के वकील ने कानपुर के सिकंदरा स्थित सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज की ओर से वर्ष 1979 में जारी विश्वनाथ की हाईस्कूल की मार्कशीट अदालत में पेश की. विश्वनाथ इसमें फेल हो गया था लेकिन महत्वपूर्ण बात ये थी कि उनके जन्म की तारीख वही थी जो प्राथमिक स्कूल के रजिस्टर में दर्ज थी. अभियोजन पक्ष के वकील द्वारा आपत्ति करने के बाद उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद, इलाहाबाद की ओर से विश्वनाथ की मार्कशीट और प्रमाण पत्र समेत सभी दस्तावेजों की प्रामाणिकता की जांच की गई. बोर्ड के दस्तावेजों के अनुसार, अपराध के समय विश्वनाथ 15 वर्ष, सात माह और 13 दिन का था.      

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स्मृतिः सामूहिक नरसंहार में मारे गए लोगों की याद में स्मारक बनाया गया है जिसमें मारे गए लोगों की पूरी सूची है. उन्हें शहीद का दर्जा दिया गया है

हालांकि उम्र छिपाने के मुद्दे पर अभियोजन पक्ष के वकील बहुत ठोस तर्क नहीं रख पाए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में साफ कर दिया है कि मेडिकल परीक्षण से उम्र का ठीक-ठीक पता लगाना संभव नहीं है, ऐसे में अदालत अनावश्यक रूप से इस सामान्य राय से प्रभावित नहीं होगा कि अभिभावक भविष्य में कुछ लाभ उठाने की दृष्टि से बच्चों की उम्र एक-दो साल कम करके दर्ज करवाते हैं. अदालत के अनुसार इस मामले को प्रथमदृष्टया नजर आने वाले तथ्यों के आधार पर ही देखा जाना चाहिए.

आज विश्वनाथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत मजदूरी करते हैं.  विश्वनाथ ने कहा, ‘जब से केस शुरू हुआ है तब से मैं अपनी आठ एकड़ जमीन बेच चुका हूं. मेरी पांच बेटियां, दो बेटे हैं, मुझे उन सबकी देखभाल करनी है.’

पोरवाल बताते हैं, ‘विश्वनाथ भी फूलन की तरह मल्लाह जाति से है. उस समय इन डाकुओं को ‘बागी’ कहा जाता था. जब भी उन्हें किसी गांव पर हमला करना होता था या किसी का अपहरण करना होता था तब वे एक जगह इकट्ठा हो जाते और काम खत्म होने के बाद अपने-अपने गांवों में जाकर छिप जाते थे. उस वक्त हर गांव की चाहत होती थी कि उनका कोई न कोई सदस्य डाकुओं के गिरोह में हो ताकि उनका गांव ठाकुर जैसी सवर्ण जातियों की हिंसा से सुरक्षित रहे.’

‘नाबालिग होने का दावा मामले की सुनवाई के समय कभी भी किया जा सकता है, यहां तक कि केस का अंतिम फैसला हो जाने के बाद भी. अदालत के फैसले के अनुसार देरी से याचिका दायर करने के कारण नाबालिग होने के दावे को खारिज नहीं किया जा सकता’    

दिलचस्प यह है कि अभियोग चलाने का पहला चरण चार माह पहले ही शुरू हुआ है और मामले को हर दिन सुनवाई के लिए रखा गया है. 24 सितंबर,  2015 को 15 गवाहों को अदालत में पेश किया गया. इनमें से सात को उसी समय पेश किया गया था जब फूलन और उसके गिरोह ने बेहमई में 22 राजपूतों   को मारा था. फूलन देवी के डर और दहशत की वजह से उस समय एक भी गवाह सामने आकर गिरोह की पहचान करने के लिए तैयार नहीं था. लेकिन सुनवाई आगे बढ़ने के साथ गवाहों ने दोषियों की पहचान करनी शुरू की. हालांकि गवाहों के लगातार बदलते बयानों ने मामले को पेचीदा बना दिया था.

बहरहाल, इस मामले में अंतिम फैसला आना अभी बाकी है, लेकिन बेहमई सामूहिक नरसंहार कांड मामले के 35 साल बाद अदालत द्वारा 50 साल के विश्वनाथ को अपराध के समय ‘नाबालिग’ घोषित करना हैरान करता है. यह फैसला तब आया है जब 16 दिसंबर, 2012 के निर्भया कांड के मामले में नाबालिग की सजा को लेकर देशभर में चली बहस और नए कानून के तहत गंभीर अपराधों में शामिल नाबालिग की उम्र सीमा 18 से घटाकर 16 वर्ष कर दी गई.

‘आपको सरकारी ठेका दिलवा देंगे, धरना खत्म कर दीजिए’

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कौन

सुभाष कुमार मित्तल

कब

8 जुलाई 2015 से

कहां

उपायुक्त कार्यालय, जमशेदपुर, झारखंड

क्यों

जमशेदपुर प्रखंड के उत्तरी पूर्वी बागबेड़ा पंचायत क्षेत्र में मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत सड़क निर्माण कराया गया था. सूचनाधिकार कार्यकर्ता सुभाष कुमार मित्तल ने सूचना के अधिकार के तहत इस संबंध में संबंधित विभाग से जानकारी मांगी. प्राप्त जानकारी से उन्हें निर्मित सड़कों की मोटाई पर संशय हुआ. वह कहते हैं, ‘सड़कों की मोटाई छह इंच होनी चाहिए थी, लेकिन सड़क बनाने वाले ठेकेदार और सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से पैसा बचाने के लिए महज ढाई से तीन इंच मोटाई की सड़कें बनाई गईं. 8 से 10 साल चलने वाली सड़कें कुछ ही महीनों में उखड़ने लगीं. वहीं कागजों पर सड़क निर्माण पूरा हुआ दिखा दिया गया. ठेकेदारों को पूरी रकम दे दी गई, लेकिन वास्तव में सड़कें ही अधूरी बनी छोड़ दी गईं. इस पर मैंने जांच की मांग की.’ उनके अनुसार जांच हुई पर लीपापोती कर भ्रष्टाचारियों को बचाया गया, जिसके विरोध में उन्होंने पिछले साल अप्रैल माह में उपायुक्त कार्यालय के सामने धरना दिया. प्रशासन से मौखिक आश्वासन मिला कि महीने भर के अंदर कार्रवाई की जाएगी पर नतीजा शून्य रहा. पूछे जाने पर उन्हें बार-बार आश्वासन दिया जाता रहा. सुभाष मित्तल कहते हैं, ‘जून के आखिरी सप्ताह में मैं फिर धरने पर बैठा. प्रशासन ने दस दिन में कार्रवाई का आश्वासन देकर मुझसे धरना समाप्त कराया. लेकिन प्रशासन की मंशा कुछ और ही थी. मेरे खिलाफ षड्यंत्र रच मुझे जांच अधिकारी द्वारा जांच स्थल पर बुलाया गया. वहां सड़क बनाने वाले ठेकेदार ने मुझ पर जानलेवा हमला किया. थाने में मेरी शिकायत दर्ज नहीं की गई. तो मैं 8 जुलाई से सड़क घोटाले की निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गया.’

सात महीने से धरने पर बैठे सुभाष मित्तल अपनी मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी धरना दे चुके हैं. वह जिला प्रशासन से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक से मामले में जांच की गुहार लगा चुके हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय ने राज्य के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर कार्यवाई के आदेश भी दिए हैं. मित्तल कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री कार्यालय का आदेश आए तीन माह हो चुके लेकिन प्रशासन दोषियों को बचाने पर अड़ा है. पहले मुझे धमकाया गया लेकिन बात नहीं बनी तो मेरे ऊपर सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाने, रंगदारी मांगने, छेड़खानी और अनुसूचित जाति/जनजाति कानून के तहत पुलिस में मामले दर्ज करा दिए गए. पुलिस पर मुझे गिरफ्तार करने का दबाव बनाया गया. परंतु थाना प्रभारी द्वारा मेरा पक्ष लिया गया. जिस कारण उनका तबादला कर दिया गया. इन मामलों को वापस लेने के एवज में मुझे धरना समाप्त करने को कहा गया. प्रशासन के एक बड़े अधिकारी ने यहां तक कहा कि आपको कोई सरकारी ठेका दिलवा देंगे. बस धरना खत्म कर दीजिए.’

मित्तल के अनुसार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में जितनी भी सड़कें बनाई गई हैं उनमें से चालीस प्रतिशत सड़कें भी तय मानकों पर खरी नहीं उतरतीं. ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण में बहुत बड़ा घोटाला हुआ है, इसलिए मामले को दबाने का प्रयास किया जा रहा है.

 प्रधानमंत्री कार्यालय के आदेश के बाद पिछले ही दिनों एक बार फिर से पांच सदस्यीय प्रशासनिक टीम ने सड़कों की जांच की है लेकिन मित्तल का कहना है, ‘जांच के नाम पर खानापूर्ति हुई है. उसी टीम से जांच कराई गई है जिसने पहले क्लीन चिट दी थी. अगर अब भी कार्रवाई नहीं हुई तो संसद के सामने धरना देंगे.’ 

महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण

बिहार में सरकार बनाने के बाद नीतीश कुमार ने एक और चुनावी वादा पूरा किया है. 19 जनवरी को मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई. यह आरक्षण महिलाओं को पहले से मिल रहे तीन प्रतिशत आरक्षण से अलग होगा. आरक्षित और गैर आरक्षित श्रेणी में भी महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले साल बिहार दिवस के मौके पर राज्य में सिपाही से लेकर सब इंस्पेक्टर तक की भर्ती में महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी. बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश ने सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण का वादा किया था. बिहार में पंचायत-नगर निकायों में पहले से ही महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है.

 

सौर घोटाले में फंसे केरल के मुख्यमंत्री

सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट लगाने के मामले में रिश्वत लेने के आरोपी केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी पर त्रिशूर की विजिलेंस कोर्ट ने एफआईआर के आदेश दिए थे. लेकिन अगले दिन केरल हाईकोर्ट ने चांडी को राहत देते हुए दो महीने तक एफआईआर दर्ज करने पर रोक लगा दी है. चांडी पर 1 करोड़ 90 लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप है. ये आरोप घोटाले में मुख्य आरोपी सरिता एस. नायर ने 27 जनवरी को न्यायिक आयोग के सामने लगाए. गवाही में नायर ने कहा था कि मुख्यमंत्री के करीबी को 1.90 करोड़ रुपये और ऊर्जा मंत्री आर्यदन मोहम्मद को 40 लाख रुपये दिए गए. टीम सोलर रिन्यूएबल एनर्जी सॉल्युशंस के मामले में पीडी जोसेफ की जनहित याचिका पर विजिलेंस कोर्ट ने ये आदेश दिए हैं. नायर ने अपने लिव-इन-पार्टनर राधाकृष्णन के साथ मिलकर 2011 में ये कंपनी बनाई थी जिसके बाद निवेशकों से करोड़ों की धोखाधड़ी के चलते 2013 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. राधाकृष्णन ने दावा किया था कि मुख्यमंत्री को 5.5 करोड़ रुपये घूस में दिए गए.

 

सीतामढ़ी में ‘राम-लक्ष्मण’ पर केस

बिहार के सीतामढ़ी में पौराणिक चरित्र राम और उनके भाई लक्ष्मण पर महिला उत्पीड़न का केस दर्ज कराया गया है. सीजेएम की अदालत में वकील ठाकुर चंदन सिंह ने रामायण के आधार पर ये केस दर्ज करवाया है. चंदन सिंह ने तर्क रखते हुए कहा, ‘एक धोबी की बातों पर यकीन करके राम ने अपनी पत्नी सीता को घर से निकाल दिया. ये भी नहीं सोचा कि जंगल में अकेली महिला कैसे रहेगी? चंदन सिंह ने तर्क दिया, ‘महिला उत्पीड़न त्रेता युग में ही शुरू हो गया था. जब तक त्रेता युग की नारी को न्याय नहीं मिलेगा, तब तक कलयुग की महिला को भी न्याय नहीं मिल सकता. भगवान राम का विवेक सही था या नहीं इस पर बहस होनी चाहिए.’ मामले की एक फरवरी को सुनवाई करते हुए जज ने पूछा, ‘त्रेता युग की घटना को लेकर आपने केस क्यों किया है? मामले में किसको पकड़ा जाएगा? गवाही कौन देगा?’ सीजेएम ने ये भी कहा कि केस में यह भी नहीं बताया गया है कि सीता को किस दिन घर से निकाला गया. दलीलें सुनने के बाद सीजेएम ने बाद में फैसला करने की बात कही है.

 

‘जीका वायरस प्रभावित देशों में न जाएं गर्भवती महिलाएं’

मच्छर के काटने से फैलने वाले जीका वायरस को लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय ने  निगरानी के लिए दो समितियां गठित कर दी हैं. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भारतीयों के लिए एडवायजरी जारी कर कहा है, ‘गर्भवती महिलाएं उन देशों की यात्रा न करें, जहां जीका वायरस का प्रकोप है. जो महिलाएं ऐसे देश गई हैं, वे दो हफ्ते में इस वायरस की जांच करा लें.’ बताया जा रहा है कि इससे प्रभावित महिलाएं ऐसे बच्चों को जन्म दे रही हैं, जिनका मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाता है. वायरस से शिशुओं को माइक्रोसिफेली बीमारी होने का खतरा होता है, जिसके चलते मस्तिष्क का विकास पूरी तरह नहीं हो पाता. फिलहाल ब्राजील समेत दुनिया के करीब 22 देशों में जीका वायरस का प्रकोप बढ़ने का खतरा पैदा हो गया है. इसके चलते ब्राजील में करीब 4 हजार बच्चे छोटे सिर के साथ पैदा हुए हैं. इस वायरस से भारत भी अछूता नहीं है. कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार भारत में पाए जाने वाले डेंगू मच्छर इस वायरस को आसानी से फैला सकते हैं.

 

मणिपुर फर्जी एनकाउंटर को माना हत्या

मणिपुर फर्जी एनकाउंटर (2009) मामले में एक चौंकाने वाला खुलासा हुआ है. गैलेंटरी अवॉर्ड प्राप्त और मणिपुर पुलिस के पूर्व हेड कॉन्सटेबल हेरोजित सिंह ने संजीत का हत्या करना कबूल किया है. निलंबन के 6 साल बाद उन्होंने माना है कि एनकाउंटर के वक्त 22 साल का पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के कथित सदस्य चोंग्खम संजीत मेइतेई निहत्थे थे. एक अंग्रेजी दैनिक से हुई बातचीत में हेरोजीत सिंह ने कहा, ‘हां, मैंने ही संजीत को गोली मारी. उस वक्त उसके पास कोई हथियार नहीं था. मुझे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है. ये बस एक आदेश था, जिसका मैंने पालन किया.’ सिंह के अनुसार तत्कालीन पश्चिम इंफाल के एएसपी डॉ. अकोईजम झालाझित ने उन्हें संजीत को खत्म करने का आदेश दिया था. झालाझित वर्तमान में इसी जिले में बतौर एसपी तैनात हैं.