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क्या घाटी में आईएस के झंडे लहराना आतंक की नई आहट है?

सभी फोटोः फैज़ल खान
सभी फोटोः फैज़ल खान
सभी फोटोः फैज़ल खान

20 साल का अंडरग्रैजुएट छात्र शबीर आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) का झंडा नहीं फहराता पर वह मास्क पहने हुए उस समूह का हिस्सा है जिसने श्रीनगर की बड़ी मस्जिद के बाहर सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाए थे. वह सड़क के दूसरी ओर खड़े आईएस के झंडे लहराने वाले युवकों की ओर प्रशंसा और समर्थन भरी नजरों से देखता है. साफ नजर आता है कि अगर मौका मिले तो शबीर भी इस तरह से झंडों को लहराना चाहेगा.

शबीर दुनिया को कश्मीर के अलगाववादी हलके की विचारधारा के माध्यम से देखता है जो उसके आसपास के सामाजिक दायरे में भी प्रचलित है. वह आईएस के बारे में कुछ मोटी-मोटी बातें जानता है. जैसे- बड़ी ताकतों के खिलाफ आईएस का पुरजोर संघर्ष और किसी से कोई समझौता न करने वाला उनका विचारधारात्मक रुझान. लेकिन आईएस के क्रूर व्यवहार के बारे में शबीर काफी कम जानता है और जो कुछ जानता है वह उसे इस्लाम का नाम बदनाम करने के लिए झूठे प्रचार के रूप में देखता है. लंबे और पतली कद-काठी वाले शबीर का कहना है, ‘जो लोग अल्लाह में ऐतबार के लिए अपनी जान दे सकते हैं, वे बुरे नहीं हो सकते हैं. सच्चा मुसलमान इस दुनिया और यहां की भौतिक सुविधाओं से प्यार नहीं करता.’ शबीर के भीतर भले ही आईएस के झंडे लहराने की इच्छा दबी हो लेकिन वह आतंकवादी नहीं बनना चाहता. उसका मानना है कि पत्थर फेंककर विरोध का तरीका बंदूक उठाने की अपेक्षा ज्यादा कारगर है. वह कहता है, ‘पत्थर फेंककर आप कश्मीर की समस्याओं की ओर तुरंत ध्यान खींचते हैं और ऐसा करने के लिए आपको भूमिगत भी नहीं होना पड़ता. लेकिन मैं बंदूक और बंदूक उठाने वालों की कद्र करता हूं. वे भी कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं.’

श्रीनगर के घनी बसावट वाले मुख्य इलाके में रहने वाले शबीर की उम्र के युवा कैसा सोचते हैं यह शबीर का नजरिया उसी का प्रतिबिंब है. 90 के दशक में शहर की गलियों में दिल दहलाने वाली हिंसा देखते हुए बड़ी हुई इस पीढ़ी के दिल में नई दिल्ली (भारत) के प्रति स्वाभाविक रूप से अलगाव का भाव है. इनके लिए भारत महज कोई दूसरा देश नहीं है, बल्कि उनके ऊपर मंडराता एक खतरा है. साथ ही कश्मीर में जो कुछ भी गलत हुआ है, इसके लिए ये युवा स्वाभाविक रूप से भारत को जिम्मेदार मानते हैं. पिछले 25 सालों से कश्मीर की तनावपूर्ण स्थिति जिसमें व्यापक पैमाने पर सेना की मौजूदगी, कश्मीरियों के साथ हर रोज होने वाली ज्यादतियां और आजादी की उनकी मांग की अनदेखी शामिल है, इन सबके लिए वे भारत को जिम्मेदार ठहराते हैं. वर्तमान स्थिति को लेकर भी युवाओं में गहरा असंतोष व्याप्त है. अपने दिलोदिमाग में वे इस असंतोष को ‘कश्मीर समस्या’ के तहत परिभाषित करते हैं.

वर्ष 2008-10 के दौरान फैले असंतोष में सुहैल अहमद ने 19 साल की उम्र में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले 12 लोगों के एक समूह का नेतृत्व किया था. सुहैल के अनुसार, ‘इस साल 26 जनवरी को जो कुछ भी हुआ वो सबके सामने है. श्रीनगर में कर्फ्यू लगा और इंटरनेट-फोन बंद कर दिए गए थे. क्या इस सबसे लगता है कि हम भारत का हिस्सा हैं?’ सुहैल को 2009 और 2010 में गिरफ्तार किया गया. उसके खिलाफ पुलिस ने तीन अलग-अलग थानों में एफआईआर दर्ज कराई थी. बकौल सुहैल, ‘ऐसा इसलिए किया गया ताकि मुझे जेल में अधिक समय तक रखा जा सके.’ बारामूला के खानयार इलाके के सुहैल बताता है कि इसी तरह उसके तमाम साथियों के खिलाफ थानों में केस दर्ज किए गए हैं.

श्रीनगर के मुख्य इलाके और दक्षिणी व उत्तरी कश्मीर के गांवों के युवाओं की प्राथमिकताओं में काफी अंतर है. इन गांवों के युवाओं में आतंकवाद की ओर रुझान बढ़ रहा है 

2010 में जब सुहैल कक्षा 12 में पढ़ता था तो पुलिस की ज्यादतियों के कारण और जूतों की दुकान में अपने पिता की मदद करने के लिए उसे स्कूल छोड़ना पड़ा. वह बताता है कि इन सबके बावजूद उसने कश्मीर के सवाल को नहीं छोड़ा. उसके शब्दों में, ‘श्रीनगर के मुख्य इलाके के युवा आजादी की जंग के स्वाभाविक योद्धा हैं. पत्थर फेंकने वाले समूह फिर से मजबूत हो गए हैं और हमें जो भूमिका मिली है, हम उसकी अनदेखी नहीं कर सकते.’

श्रीनगर में पत्थर फेंककर विरोध जताने का इतिहास पुराना है. कश्मीरियों ने पत्थर फेंकने का यह तरीका 1940 में तत्कालीन डोगरा राजवंश के अत्याचारों के खिलाफ शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में भी अपनाया था. 1947 में कश्मीरियों ने एक बार फिर से विरोध का यह तरीका तब अपनाया जब भारत और पाकिस्तान दोनों देश इस हिमालयी राज्य पर अपना-अपना दावा करने लगे. बाद के दशकों में कश्मीर के सवाल को लेकर जब-तब होने वाले राजनीतिक उबाल के समय या फिर भारत सरकार के खिलाफ उठने वाले असंतोष को जाहिर करने के लिए प्रदर्शनकारियों के लिए पत्थर सबसे मुफीद हथियार बन गए.

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90 के दशक में पत्थरों की जगह कहीं अधिक खतरनाक हथियार बंदूकों ने ले ली. चार लाख की आबादी वाले श्रीनगर में लगभग 12,000 आतंकवादी उठ खड़े हुए जो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ), हिजबुल मुजाहिदीन (एचएम), लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े थे. पिछले डेढ़ दशक के दौरान इनमें से अधिकांश आतंकवादियों को मारा जा चुका है और बाकियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा. इससे कश्मीर में हिंसा का ग्राफ बिल्कुल नीचे आ चुका है. 2010 तक श्रीनगर में आतंकवाद घटकर फिरदौस अबद बतमालू में रह रहे एक आतंकी सजाद अहमद खान तक सिमट गया. उसी साल जम्मू के राजौरी में यह आतंकी एक एनकाउंटर में मारा गया और इसी के साथ श्रीनगर को आतंकवाद मुक्त घोषित कर दिया गया. साथ ही बड़गाम और गांदरबल सहित श्रीनगर में अाफ्स्पा को बनाए रखने पर बल दिया गया. लेकिन आतंकवाद के गिरते ग्राफ से खाली हुई जगह फिर से पत्थर फेंकने वाले समूह ले रहे हैं ताकि स्थिति सामान्य न हो सके और ‘संघर्ष जारी’ रहे. श्रीनगर में आए दिन नकाबपोश युवाओं के कुछ समूहों की ओर से विरोध प्रदर्शन या बंद का आह्वान कर दिया जाता है. इन प्रदर्शनों के बीच पुुलिस और पैरामिलिट्री पर पत्थर फेंका जाता है.

2010 के बाद लगातार तीन गर्मियों के मौसम में पत्थर फेंकने का चलन व्यापक तौर पर बढ़ता ही गया. श्रीनगर के मुख्य इलाके से निकलकर यह दक्षिणी और उत्तरी कश्मीर के शहरी क्षेत्रों के साथ ही गांवों तक भी फैल गया. पत्थर फेंकने वाले इन प्रदर्शनों की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2011 में पत्थर फेंकने के जुर्म में पकड़े 1800 युवाओं को राज्य सरकार की एमनेस्टी योजना के तहत छोड़ा गया. पड़ोसी देश और बाकी दुनिया में बदलती जेहादी प्रवृत्तियों के प्रभाव में आकर कभी-कभी युवा लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान और अलकायदा के झंडे भी लहराते हैं. प्रदर्शनों के दौरान पत्थरबाजी फिर से शुरू होने से पहले विरोध करने वाली भीड़ से कुछ देर के लिए बाहर निकलकर कुछ युवा आईएस के झंडे मीडिया के सामने लहराते हैं और वापस उसी भीड़ में कहीं गुम हो जाते हैं. 25 साल के जाहिद रसूल के अनुसार, ‘आईएस के झंडे हम इस संगठन के समर्थन में नहीं लहराते बल्कि भारत को परेशान करने के लिए लहराते हैं. हमें वो सब कुछ पसंद है जिससे भारत नफरत करता है, ठीक वैसे ही जैसे हमारी आजादी से भारत नफरत करता है.’

बहरहाल, श्रीनगर के मुख्य इलाके और दक्षिणी व उत्तरी कश्मीर के गांवों के युवाओं की प्राथमिकताओं में काफी अंतर है. दक्षिणी कश्मीर के गांवों में युवाओं में आतंकवाद में शामिल होने के लिए रुझान बढ़ रहा है. पुलिस के अनुमान के अनुसार, 2015 में 100 से अधिक युवा आतंकी संगठनों में शामिल हुए. इन युवाओं में से अधिकांश दक्षिणी कश्मीर के त्राल, शोपियां और पुलवामा इलाकों से थे. इतना ही नहीं, पिछले एक दशक में पहली बार विदेशियों की तुलना में स्थानीय आतंकवादियों की संख्या बढ़ी है. पिछले साल अक्टूबर तक सक्रिय 142 सक्रिय आतंकियों में से 88 कश्मीरी थे, बाकी के आतंकी पाकिस्तान या फिर पाक अधिकृत कश्मीर से थे. 

दूसरी ओर, पिछले 25 सालों से उत्तरी कश्मीर का सोपोर इलाका हमेशा से आतंकवाद के लिहाज से संवेदनशील रहा है लेकिन पिछले साल उत्तरी कश्मीर के इलाकों में आतंकवादी अभियानाें को बड़ा झटका तब लगा जब हिजबुल मुजाहिदीन के लिए काम करने वाले आतंकी समूहों में विघटन हो गया. हिजबुल मुजाहिदीन में लंबे वक्त से कमांडर रहे अब्दुल कयूम नजर को संगठन से निकाल देना इसका बड़ा कारण रहा. दरअसल कयूम ने पाक अधिकृत कश्मीर के अपने आकाओं के आदेश की नाफरमानी करते हुए एक के बाद एक चार पूर्व आतंकियों और अलगाववादियों से हमदर्दी रखने वाले लोगों की हत्या करवा दी थी.

उधर, श्रीनगर के मुख्य इलाके में अब बंदूक के प्रति आकर्षण कम हो रहा है. इसे लेकर कुछ लोग काफी विश्वसनीय तर्क देते हैं. अगर शबीर की बात पर यकीन करें तो यह कदम काफी सोच-समझ कर उठाया जा रहा है. ‘हम लोगों ने हिंसक विरोध से शांतिपूर्ण विरोध तक की एक यात्रा पूरी की है. हम भारत के इस प्रचार को नकार देना चाहते हैं कि हम आतंकी हैं.’ हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं द्वारा बंदूक उठाने के फैसले का भी वो समर्थन भी करता है. बकौल शबीर, ‘आतंकवाद का पूरी तरह सफाया भी ठीक नहीं होगा. आजादी के आंदोलन को बनाए रखने के लिए कुछ मात्रा में आतंकवादी जरूरी है.’

बहरहाल, इन स्थितियों को लेकर सुरक्षा तंत्र का जो नजरिया है वह श्रीनगर के युवाओं से उलट है. मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत न होने का हवाला देते हुए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम जाहिर न किए जाने की शर्त पर बताते हैं, ‘इस स्थिति के दो पहलू हैं. पहला, जब से श्रीनगर में सुरक्षा बलों का दखल बढ़ा है तब से शहर में आतंकवाद का बने रहना मुश्किल हो गया है. दूसरा, बेशक युवाओं के एक वर्ग में बंदूक के प्रति आकर्षण बढ़ा है, लेकिन उनके लिए हथियार उपलब्ध ही नहीं हैं. ऐसा कुछ हद तक नियंत्रण रेखा पर बाड़बंदी और कुछ हद तक  पाकिस्तान की दिलचस्पी घटने के कारण हुआ है. इसलिए कश्मीर में अब पहले जैसे आक्रामक जेहाद की संभावना बहुत कम है.’ हालांकि इसी के साथ ये अधिकारी चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘ये स्थिति किसी भी वक्त बदल सकती है. जमीन तैयार है और कोई भी यहां नए सिरे से जेहादी गतिविधियों की नई  फसल तैयार कर सकता है.’

इसमें दो राय नहीं कि श्रीनगर के मुख्य या पुराने इलाके में भारत के प्रति विरक्ति का भाव बहुत गहरा है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि शहर ने खुद को शुरू से ही मुख्यधारा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखा है. क्लाशनिकोव राइफलों के साये में वर्षों बिताने के बाद यह शहर अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने के मिजाज में नहीं है. संभवतः ऐसा इसलिए कि गांवों की अपेक्षा शहरों में लोगों की याददाश्त ज्यादा समय तक जीवित रहती है. एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में आजादी और लोकतांत्रिक भागीदारी साथ-साथ चलती रही हैं वहीं श्रीनगर हमेशा से अलगाववादियों के लिए चुनाव-दर-चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बहिष्कार के लिए झंडाबरदार की भूमिका में रहा है. तमाम राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद श्रीनगर मुख्यधारा में कभी शामिल नहीं हुआ, लेकिन इसके बावजूद यहां के युवाओं ने विकल्प के तौर पर अनिवार्य  रूप से बंदूक को नहीं अपनाया. फिर भी युवा वर्ग को बंदूक के आकर्षण से मुक्त नहीं कहा जा सकता. आतंक को महिमामंडित करते तमाम फेसबुक पेजों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि बंदूक के प्रति आकर्षण किस कदर युवाओं को अपनी ओर खींच रहा है.

‘हम आईएस के झंडे समर्थन में नहीं लहराते बल्कि भारत को परेशान करने के लिए लहराते हैं. वो सब कुछ हमें पसंद है जिससे भारत नफरत करता है’

दक्षिणी कश्मीर के त्राल से हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर 22 वर्षीय बुरहान मुजफ्फर वानी के नाम पर दर्जन भर फेसबुक पेज हैं. वी लव बुरहान, बुरहान काॅलेज, त्रालः द लैंड आॅफ मार्टियर्स जैसे नामों से खुले इन पेजों पर जंगल में बुरहान केे गुप्त ठिकानों की तस्वीरें और वीडियो अपलोड किए जाते हैं. विभिन्न तस्वीरों में बुरहान को क्लाशनिकोव राइफल टांगे दिखाया गया है. तमाम वीडियो में भी उसे हथियारों से लैस अपने साथियों के साथ दिखाया गया है. अपलोड होने के साथ ही ऐसी तस्वीरों पर सैकड़ों लाइक्स और इन युवाओं के साहस की तारीफ करती टिप्पणियों की झड़ी लग जाती है. 2010 में सड़क के किनारे बने एक सुरक्षा कैंप में कथित रूप से सुरक्षा बलों द्वारा बुरहान को पीटने के बाद से उसके द्वारा बंदूक उठाने और कश्मीर में आतंकवाद को फिर से जीवित करने के लिए लोग उसकी तारीफ करते हैं.

बुरहान के प्रति युवा वर्ग की यह दीवानगी बढ़ती दिखाई दे रही है. ‘बुरहान काॅलेज’ पेज पर एक टिप्पणी के अनुसार, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं बुरहान. मैं तुम्हारा काॅलेज जॉइन करना चाहता हूं और मैं तुम जैसा बनना चाहता हूं’. सबसे ताजा पोस्ट ‘जिहाद के बारे में हमेशा सकारात्मक सोच रखो’ है. इसे अपलोड किए जाने के एक घंटे के भीतर इसे 300 लाइक और 62 टिप्पणियां मिल जाती हैं. इसी तरह बुरहान के नाम से चलाए जा रहे एक अन्य अकाउंट पर बुरहान की ओर से अपने पिता के लिए संदेश लिखा गया है, ‘चिंता मत कीजिए पापा आपका बेटा सही राह पर है. मैं इस्लाम के लिए लड़ रहा हूं. मैं खिलाफत के लिए लड़ रहा हूं. हम सारी दुनिया पर राज करेंगे. हम खिलाफत लाएंगे.’ इस पोस्ट में एक ओर बुरहान के पिता की तस्वीर लगी है जिसके नीचे लिखा है, ‘मैं आपसे प्यार करता हूं पापा. मैं एक मुजाहिद हूं जो इस्लाम के लिए मरने के लिए पैदा हुआ है.’

फेसबुक के साथ-साथ बुरहान के आक्रामक सार्वजनिक संवाद का दायरा वाॅट्स एेप और शहर की गलियों की दीवारों पर चित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है. त्राल में एक दुकान की शटर पर लिखा है, ‘बुरहान वापस आ रहा है.’ इसी तरह श्रीनगर के बाहरी इलाके पम्पोर में विभिन्न गलियों की दीवारों पर ‘त्राल, बुरहान जिंदाबाद’ लिखा हुआ मिल जाता है. बहरहाल, यह अति सक्रिय आॅनलाइन जेहादी आंदोलन अब तक श्रीनगर के युवाओं को ललचा नहीं सका है.

90 के दशक में आतंकवाद श्रीनगर के बाहर भी फैल गया था. अब श्रीनगर के सीमांत इलाकों में आतंकवाद फिर से अपना फन फैला रहा है. हालांकि अब तक यह श्रीनगर के भीतर प्रवेश नहीं पा सका है. लेकिन उत्तरी और दक्षिणी कश्मीर में उन हजारों लोगों को लंबे वक्त तक अनदेखा करना मुश्किल होगा जो आतंकवादियों के जनाजे में शामिल होते हैं और मातम मनाते हैं. यह स्थिति लोगों में नए सिरे से आतंकवाद के प्रति लगाव की ओर इशारा करती है. अपने आॅनलाइन अभियानों से आतंकवादी इस तरह की भावनाओं को बल देते हैं.

कुछ समय पहले पुलवामा के बाटापोरा में शकीर अहमद नाम के एक आतंकवादी के जनाजे में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए. इसमें तीन आतंकी भी थे और इस जनाजे का वीडियो वायरल हो गया था. इसके बाद जदूरा के एक कब्रिस्तान में कुछ आतंकियों ने अपने साथी मुफीद बशीर उर्फ रकीब की कब्र पर 21 बंदूकों से सलामी दी. उत्तरी कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियानों का हिस्सा रहे­­­ एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘घाटी में आईएस के झंडों के लहराने का मतलब तत्काल रूप से आतंकवाद भले ही न हो, लेकिन हम इसे पूरी तरह से नकार नहीं सकते. तालिबान और आईएस जैसे जेहादी आतंकी संगठनों की कुछ मोर्चों पर हुई जीत के कारण भू-राजनीतिक स्थितियों में आतंकवाद के अनुकूल स्थितियों में बदलाव आया है. इसलिए तस्वीर किसी भी समय बदल सकती है.’

(पहचान छिपाने के लिए सभी युवाओं के नाम बदले गए हैं)

केन मेरे लिए केदारनाथ की कविताओं की तरह थी, लेकिन उस दिन इस नदी से जुड़े सारे ‘भ्रम’ टूट गए

Tarangire_River_Tanzania_in_July_(Dry_season)

इस बार दिल्ली में ठंड सिर्फ नाम के लिए आई. फरवरी आते-आते गायब. उस रात हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से ट्रेन पकड़ते वक्त भी ठंड का एहसास नहीं हुआ. यह बुंदेलखंड की मेरी पहली यात्रा थी, जिसका पहला पड़ाव बांदा था. आम तौर पर ट्रेन में घुसते ही मुझे नींद आ जाती थी, लेकिन उस रात ऐसा नहीं हुआ. 10 से 11 घंटे की यात्रा में अधिकांश समय टकटकी में गुजर गया. सिर्फ चार घंटे ही सो पाई और वह नींद भी किस्तों में नसीब हुई. ऐसा शायद बांदा पहुंचने की उत्सुकता की वजह से हुआ था. खैर, सुबह-सुबह संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बांदा स्टेशन पहुंच चुकी थी.
सफर पर निकलने से पहले ही दोस्तों और परिचितों ने घूमने-फिरने की एक लंबी लिस्ट पकड़ा दी थी, ‘देखो! बांदा जा रही हो तो कालिंजर का किला जरूर देखना, भूरागढ़ का किला भी, वहां पहाड़ों के ऊपर एक मंदिर बना है, वहां जरूर जाना. जामा मस्जिद देख आना और हां, अगर समय हो तो केन नदी भी देख आना और केदारनाथ अग्रवाल ने जो लाइब्रेरी बनाई है, वो भी.’

गंगा किनारे की लड़की होने के नाते बचपन से ही नदियों से एक स्वाभाविक प्रेम रहा है. इसलिए स्टेशन से बाहर निकलते ही रिक्शा वाले भइया से केन नदी ले जाने को कहा. केन यमुना का अभिन्न अंग है. केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की कविताओं में केन के बारे में बहुत पढ़ा था. दूर से ही नदी की छोटी पहाड़ियां दिखने लगी थीं. सोचने लगी शायद केन भी नर्मदा जैसी ही पहाड़ियों के ऊपर से बहती होगी. मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी. धीरे-धीरे रिक्शे की गति कम हो रही थी और फिर रिक्शा रुक जाता है. मैं रेलवे लाइन पार कर केवटों के एक छोटे-से मोहल्ले से होते हुए केन किनारे पहुंच गई. किनारे पर पहुंचते ही मानो आंखों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया. इस नदी से जुड़े कई भ्रम टूट चुके थे. ‘नहीं-नहीं! ये केन नहीं हो सकती.’

आपत्तियों के बावजूद यमुना किनारे हुए एक कार्यक्रम में शीर्ष नेताओं का पहुंचना बताता है कि वे नदियों को लेकर कितने सजग हैं

दरअसल केन मेरे लिए केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की तरह थी. बांदा जिले के कमासिन में जन्मे केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविता में लिखते हैं, ‘मैं घूमूंगा केन किनारे/यों ही जैसे आज घूमता/लहर-लहर के साथ झूमता/संध्या के प्रिय अधर चूमता/दुनिया के दुख-द्वंद्व बिसारे/मैं घूमूंगा केन किनारे.’ लेकिन केन किनारे ऐसा कुछ नहीं था जहां घूमा जा सके, जिसे निहारा जा सका. यहां न तो पेड़ दिख रहे थे, न ही नदी की धार. नजर आ रहे थे तो सिर्फ बालू के पहाड़ जो केन का सीना खोदकर निकाले जा रहे थे. नदी का पाट गंदगी से भरा था. पास में ही एक व्यक्ति फावड़ा लिए नदी से बालू निकाल रहा था. उसे टोकने पर वह सिर्फ इतना बताता है कि वह लोगों के हित के लिए काम कर रहा है. इसके आगे कुछ भी बताने से वह इनकार कर देता है और वापस बालू खोदने के अपने काम में लग जाता है. नदियों से बालू का अवैध खनन आम बात है. बांदा से दिल्ली लौटने के बाद अक्सर केन की हालत आंखों के सामने नजर आने लगती है.

केन नदी को लेकर मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक हो गई थी, तभी उसकी हालत देखकर इतना धक्का लगा था. हमारे देश में अधिकांश नदियों की हालत कमोबेश ऐसी ही है. केन की हालत देखकर यमुना की याद आ गई. हाल यह है कि नदियों के नाम पर हमारी याद सिर्फ गंगा-यमुना पर आकर टिक जाती है. दूसरी नदियों की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता. बीते मार्च में यमुना के खादर में आयोजित विश्व स्तर के एक कार्यक्रम ने इस बात की ओर ध्यान खींचा कि नदियां अब हमारी प्राथमिकता में नहीं हैं. नदियों को लेकर हमारे राजनीतिज्ञ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. बड़ी योजनाएं चलाते हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है. तमाम आपत्तियों और जुर्माना लगाने के बावजूद वह कार्यक्रम यमुना किनारे होता है और हमारे शीर्ष नेता इसमें शामिल होकर इस बात का सबूत पेश करते हैं कि नदियों की हालत सुधारने को लेकर वे कितने सजग हैं.

(लेखिका पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं)

‘मित्रो’ को आज अपनी सेक्सुअल डिजायर व्यक्त करने का अधिकार है और इसे उसने अर्जित किया है…

सभी फोटोः विजय पांडेय
सभी फोटोः विजय पांडेय
सभी फोटोः विजय पांडेय

‘मित्रो मरजानी’  के 50 साल पूरे हुए हैं, आज मित्रो को कहां पाती हैं?

अब मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही, समय के साथ-साथ वह एक व्यक्तित्व में बदल गई है. वह अब एक संयुक्त परिवार की स्त्री नहीं है जो हर बात में पीछे रखी जाती है. उसे अपनी सेक्सुअल डिजायर व्यक्त करने का भी अधिकार है और ये अधिकार उसने अर्जित किया है. और यह एक विस्मयकारी बात भी है कि एक इतना चुलबुलाहट पैदा करने वाला नाम अब इतनी गंभीरता से लिया जा रहा है. पिछली सदी की जो दस बड़ी किताबें हैं उनमें मित्रो मरजानी आती है और ये मैं जानती हूं कि ये लेखक का काम नहीं है. ये उसका अपना व्यक्तित्व था, जिसे उसने खुद तैयार किया.

मित्रो को आए आधी सदी बीत चुकी है. इस काल खंड में स्त्री स्वतंत्रता और समानता के अधिकार पर ढेरों बहसें हुईं. इन बहस-मुबाहिसों के बीच क्या मित्रो अब भी कहीं खड़ी है?

देखिए, मित्रो इसी दुनिया का हिस्सा है और अब दुनिया बदल रही है. अब हमारे एक छोटे-से गांव की लड़की को भी जागृति है कि मैं वह नहीं जो मैं हुआ करती थी. और वह इस बात को खुद में ही नहीं टटोलती बल्कि दुनिया में भी देखती है. तब उसे वो शब्द याद आते हैं जो उसने तब कहे थे जब वो शिक्षित भी नहीं थी. अगर ऐसा न होता कि उसकी उलझनों के पीछे वह गंभीरता न होती जिसका संबंध सिर्फ आजादी से नहीं था, शिक्षा से भी नहीं था पर उसका संबंध सेक्स से भी है, जिसे ये मान लिया गया है कि उस पर महिलाओं का कोई अधिकार नहीं है. उस पर सिर्फ पुरुषों का अधिकार है. ये भी अजीब बात है कि इस वक्त पूरी दुनिया में इस बात का एहसास तीखा होकर उभर रहा है कि स्त्री, जिसे इस पूरे लोक को कायम रखने की ताकत दी गई, उसे हम नीचे कुचल रहे हैं. इसके पीछे कई कारण भी हैं. हमारे यहां संयुक्त परिवार ने कई बातों का अपने रूप में अनुवाद करके स्त्री पर थोपा हुआ है. पर अब शिक्षा के साथ, आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ये बदलेंगी.

50 साल पहले की मित्रो अपनी सेक्सुअल डिजायर को लेकर जिस आजादी की बात करती है वह वर्तमान में भी नहीं दिखती. शिक्षा, समानता और आर्थिक अधिकारों की बात होती है पर स्त्री अपनी यौन इच्छाओं को जाहिर नहीं कर सकती. इसे  ‘नैतिकता’  के परदे में डाल दिया गया है.

ये दुनिया बहुत बड़ी है. इसमें कई तरह के आवरण हैं. आज जो लड़कियां शिक्षित हैं, पढ़ रही  हैं उन्हें इस बात का एहसास है. हमारे समाज में इन बातों को लेकर नैतिकता का जो कोड है वो बहुत सख्त रहा है. पर अब ये बदलेगा क्योंकि अब वह सिर्फ घर में नहीं है, परिवार में नहीं बाहर भी है. वह अपनी जीविका कमा रही है. मेरा तो यह कहना है कि जब तक कोई व्यक्ति अपनी जीविका नहीं कमाता वह पूरा नागरिक ही नहीं है. वो भी इस समाज में, जहां संयुक्त परिवार हैं. संयुक्त परिवार में जितनी भी खूबियां हों, यह आपको और स्त्रियों को कितनी भी सुरक्षा देता हो, पर उनके आत्मबल, आत्मविश्वास को कम कर देता है.

तो ये कह सकते हैं कि कहीं न कहीं संयुक्त परिवार स्त्रियों को पीछे खींचता रहा है?

जी, बिल्कुल खींचता रहा है और अब जो परिवर्तन हो रहा है वो सिर्फ इसलिए कि बेटियां बाहर निकल रही हैं, बेटे देश से बाहर जा रहे हैं. परिवार का जो पहला स्वरूप था वो छिन्न-भिन्न हो रहा है. ये तो समाजशास्त्री भी मानेंगे.

पर समाजशास्त्रियों का ये भी कहना है कि एक समाज के बतौर इन संयुक्त परिवारों का टूटना नकारात्मक है. पर अगर स्त्रियों की बात करें तो संयुक्त परिवार से निकल कर ही वे कुछ कर पाती हैं.

बिल्कुल. मैं खुद संयुक्त परिवार से हूं पर मेरी अपनी आजादी का एक हिस्सा है जो सभी संयुक्त परिवारों में नहीं मिलता. वहां आपको सुरक्षा मिलती है यानी अगर आप नहीं भी कमा रहे हैं तब भी आराम से रह सकते हैं. लोग इन्हीं बातों पर समझौते करते हैं. इसके अलावा एक व्यक्ति के रूप में अकेले रहकर अर्जित की हुई खूबियां नहीं आ सकतीं. संयुक्त परिवार में अपना अलग अस्तित्व बना पाना बहुत मुश्किल है.

आज जब स्त्री मुद्दों पर बात होती है तब उसे स्त्री विमर्श का नाम दिया जाता है. इस स्त्री विमर्श पर क्या कहेंगी?

ये जो शब्द है ये भी एक खास किस्म की इंटेलेक्चुअल धोखाधड़ी है. इस तरह की बातों से आप एक तरह से उन्हें गलत रास्ते पर जाने के लिए लगातार प्रोत्साहित कर रहे हैं कि तुम्हारी सुरक्षा का प्रश्न है तो इतना तो चलेगा. और इसके साथ हमारी नैतिकता भी चलेगी. आप किसे कह रहे हैं नैतिकता! आज की तारीख में चीजें बदल गई हैं. अब पुरानी चीजें नहीं चलेंगी. अब ये एक स्वतंत्र लोकतंत्र है. लोकतंत्र होने की कुछ शर्तें होती हैं, उसकी एक जलवायु होती है. अगर आप अपने समाज के एक हिस्से को लगातार दबाए रहेंगे तो ये मानकर चलिए कि आपकी अगली पीढ़ियां वैसी नहीं होंगी जैसा उन्हें होना चाहिए.

सालों पहले मित्रो जिस तरह अपनी शारीरिक इच्छाओं को लेकर आजादी की बात करती है, अब तक कहीं चर्चा का हिस्सा नहीं है.

हमें ये कहने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि हम कुछ चीजों पर अटक जाते हैं. उनसे जुड़े रहना चाहते हैं. हम दिखाना चाहते हैं कि हम बदल रहे हैं पर हम इतना ही बदल रहे हैं जितनी हमारी सहूलियत है.

पहले तो स्त्रियां लिखती नहीं थीं, न साहित्य का हिस्सा ही होती थीं, अब वे बहुत संघर्ष के बाद वहां पहुंची हैं. तो अभी इस नई मिली आजादी को महसूस कर रही हैं. वे बदलाव की तरफ अग्रसर तो हैं

साहित्य में महिलाएं कहां हैं? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो स्त्री प्रेम और त्याग में ही अटकी हुई है.

साहित्य की बात कुछ बदलकर करनी होगी. हमारे यहां समाज के बदलने की रफ्तार जरा धीमी है. पर चीजें बदलती हैं. तो ये बातें अपने आप आती हैं. आप किसी पर थोप नहीं सकते कि तुम्हें क्या करना चाहिए. पहले तो स्त्रियां लिखती भी नहीं थीं, न साहित्य का हिस्सा ही होती थीं, अब वे बहुत संघर्ष के बाद वहां पहुंची हैं. तो अभी इस नई मिली आजादी को महसूस कर रही हैं. वे बदलाव की तरफ अग्रसर तो हैं.

पर जिस तरह समाज बदला है उस बदलाव को साहित्य में उतनी जगह नहीं मिली है.

ये वो देश है जहां नागार्जुन ने कहीं लिखा है कि घर में भी मेरी और मेरी पत्नी की बात नहीं होती थी तो हमने सोचा कहीं भाग चलते हैं. तो जिस तरह का दबाव समाज में है वो साहित्य में भी है. वैसे कुछ लेखिकाओं के लेखन में आपको नयापन मिलेगा.

कृष्णा सोबती का नाम उन कुछ हिंदी साहित्यकारों में शुमार है जिनकी किताबों के अंग्रेजी अनुवादों को भी खासा सराहा गया. मित्रो मरजानी के अलावा डार से बिछुड़ी, ऐ लड़की, सूरजमुखी के घेरे और समय सरगम को अंग्रेजी में अनूदित किया गया
कृष्णा सोबती का नाम उन कुछ हिंदी साहित्यकारों में शुमार है जिनकी किताबों के अंग्रेजी अनुवादों को भी खासा सराहा गया. मित्रो मरजानी के अलावा डार से बिछुड़ी, ऐ लड़की, सूरजमुखी के घेरे और समय सरगम को अंग्रेजी में अनूदित किया गया

2010 में आपने पद्म सम्मान लेने से मना किया. तब आपने कहा था कि लेखक को शासक वर्ग से दूर होना चाहिए. वजह?

मैं अब भी ऐसा ही सोचती हूं. अगर शासक और राजनीतिक दलों द्वारा अपने फायदे के लिए ऐसे सम्मान मिलते हैं तो उससे आप बड़े नहीं हो जाते. इसके बिना आपके पास ये अधिकार रहता है कि अगर आपको कोई बात गलत लग रही है तो आप उस पर बोल सकते हैं.

तो क्या ये समझें कि ये पुरस्कार इसलिए दिए जाते हैं ताकि आप शासन का पक्ष लें?

प्रबुद्ध वर्ग का विरोध का अपना तरीका होता है. जैसे कुछ समय पहले पुरस्कार वापस किए गए. मेरे हिसाब से ये विरोध जताने का सबसे विनम्र तरीका था पर जब आप इसे भी गालियां दे रहे हैं तो ये गलत है. ये समझना चाहिए कि ये एक ऐसा मुल्क है जहां कोई साधारण लेखक हो या बड़ा, उसके पास ये अधिकार तो है कि वो जो सही समझता है उसे कह सके.

इस बार पुरस्कार वापसी पर भी लेखकों का विरोध हुआ. कहा गया कि ये मोदी विरोधी लेखक हैं जो ऐसा कर रहे हैं.

इस तरह की भाषा और अभिव्यक्ति का ये रूप सही नहीं है. एक लोकतंत्र को ऐसे तरीकों की जरूरत नहीं है. कितने संघर्ष के बाद हमें आजादी मिली, संविधान मिला है, हमें इसे कीमती समझते हुए इसकी सुरक्षा करनी चाहिए. पर इन सबके बीच मैं इन बातों के लिए खुश हूं कि इतनी गलत बातों के बीच भी हमारे राष्ट्रपति ऐसी बातें कह देते हैं जिन पर नागरिकों और राजनीतिक दलों को भी गौर करना बहुत जरूरी है.

कुछ समय पहले पुरस्कार वापस किए गए. मेरे हिसाब से ये विरोध जताने का सबसे विनम्र तरीका था. ये एक ऐसा मुल्क है जहां लेखक के पास ये अधिकार तो है कि वो जो सही समझता है उसे कह सके

वर्तमान सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वह असहमति के अधिकार को छीन रही है.

हां पर ये बिल्कुल गलत है. ये अच्छी बात नहीं है. हम इस देश के नागरिक हैं, हमारे भी कुछ अधिकार हैं. आप उन्हें नहीं छीन सकते.

बुद्धिजीवियों का एक तबका बार-बार कह रहा है कि ये फासीवाद के लक्षण हैं. क्या ये हिंदू पाकिस्तान बनाने की राह पर हैं?

हमारे पास पॉलिटिकल आइडेंटिटी बनने का एक पूरा इतिहास है. हमने पाकिस्तान बनते देखा है. मैं कह सकती हूं कि जिस रास्ते पर ये चल रहे हैं और टुकड़े हो जाएंगे. जब आप लोगों में इतनी नफरत पैदा करेंगे तो इसका नतीजा क्या होगा! आप जो कर रहे हैं वो गलत है, आप इसमें कामयाब नहीं होंगे. और अगर हो भी गए तो इससे आपका ही नुकसान होगा.

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विश्वविद्यालयों में भी प्रतिरोध के स्वर लगातार उठ रहे हैं. देश के कई नामी विश्वविद्यालय चाहे हैदराबाद हो, जेएनयू या इलाहाबाद विश्वविद्यालय विवादों में हैं. राजनीति के इस तरह से विश्वविद्यालयों में पहुंच जाने पर क्या कहेंगी?

आप हर चीज को अपनी विचारधारा के अनुरूप नहीं बना सकते जबकि असल में वो कोई विचारधारा भी नहीं है. आपकी विचारधारा कुछ नहीं है. देश के लोग प्रबुद्ध हैं. वे सब समझते हैं. एक किसान चाहे पढ़ा-लिखा न हो पर वो भी अपना अच्छा-बुरा सब समझता है. हमारी पीढ़ी के लिए ये देखना बेहद तनाव भरा है. आप उर्दू लेखकों से लिखवाते हैं कि आप सरकार के खिलाफ नहीं लिखेंगे! आप बिना क्रिटिकल हुए तो खुद को बेहतर नहीं बना सकते तो क्या सरकार बिना आलोचना के खुद को बेहतर बना सकती है!

नई पीढ़ी क्या करना चाहती है, वो हमसे कितनी आगे है ये पता होना चाहिए, तभी आप आगे बढ़ पाएंगे. पिछले दिनों एक कार्यक्रम में कन्हैया कुमार और उनके साथियों से मिलना हुआ. वे लोग कितने स्पष्ट हैं कि उन्हें क्या चाहिए, उन्हें क्या करना है. मुझे उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा. और ऐसा इसलिए है कि वे बहुत कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं, वे हिंदी पढ़ते हैं. वे लोग हमारी तरह नहीं हैं जो ब्रिटिश समय में पढ़े हैं. सरकार को सोचना चाहिए कि वो इस पीढ़ी के साथ क्या कर रही है! नयी पीढ़ी के पास ऊर्जा है, ख्याल हैं, ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं फिर भी वे आगे बढ़ रहे हैं. आपका मुल्क उनसे आगे बढ़ेगा.

समाज में धर्म अौर जाति के आधार पर भेदभाव बढ़ रहा है. किसी भी तरह का विवाद हो उसे हिंदू-मुस्लिम रंग दे दिया जाता है.

इसके पीछे बस एक रणनीति है हिंदू राष्ट्र, जिसमें ये कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. और ऐसा कभी देखा नहीं होगा कि हिंदुओं की मेजॉरिटी के बावजूद आप मुस्लिमों से डर रहे हैं! क्यों? और आप देश, समाज में उनका योगदान भूल रहे हैं. हर क्षेत्र में चाहे कला हो, संगीत या साहित्य. पर अब जो बच्चे बड़े हो रहे हैं वो बिल्कुल अलग हैं. कुछ समय पहले एक टीचर कुछ बच्चों को मुझसे मिलवाने लाई थीं. उनमें से कुछ थोड़े कमजोर तबके के भी थे. एक बच्चे ने बताया कि उसके पिता कबाड़ का काम करते हैं. ये बात कई बच्चों को हतोत्साहित कर सकती है पर उस बच्चे में वो आत्मविश्वास था. कोई भेदभाव नहीं, कोई गिला नहीं. ये आजाद मुल्क है. तो जब ये बच्चे बड़े होंगे तो मैं नहीं समझती ये किसी भेदभाव में विश्वास करेंगे.

हिंदू राष्ट्र बनने के सपने का कोई भविष्य है?

नहीं. यह कभी सफल ही नहीं हो सकता. विश्व में कितने मुस्लिम राष्ट्र हैं तो क्या इस समय उनकी भाग-दौड़, वहां हो रही हलचल हम नहीं देख पा रहे हैं! आप क्या सोचते हैं कि आप क्या नया करेंगे किसी एक धर्म विशेष के आधार पर राष्ट्र बनाकर!

लेखक, बुद्धिजीवी और विद्यार्थी अपनी राय जाहिर करने पर विरोध का सामना कर रहे हैं. क्या असहमति को दबाना इस तरह लोकतंत्र के खिलाफ है?

बिल्कुल है. इतनी सदियों बाद देश में लोकतंत्र आया है और जिस तरह से ये शासन कर रहे हैं, ये सबूत है कि इतनी बुरी तरह से तो बाहर के लोगों ने भी हम पर शासन नहीं किया. विरोध करना कोई बुरी बात नहीं है, इससे आप विकास करते हैं.

आपने विभाजन से पहले का संघर्ष भी देखा है. उस वक्त भी शासक वर्ग के प्रति असंतोष था. क्या आज के हालात वैसे ही हैं?

आज माहौल उससे बहुत ज्यादा खस्ता है. उस समय बात राजनीतिक पहचान की थी जो अब नहीं है.

उनकी बस एक रणनीति है हिंदू राष्ट्र, जिसमें ये कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. और ऐसा कभी देखा नहीं होगा कि हिंदुओं की मेजॉरिटी के बावजूद आप मुस्लिमों से डर रहे हैं! क्यों?

यदि मित्रो 2016 में लिखी जा रही होती तो…

इस पर मुझे एक बात याद आती है. मित्रो मरजानी में एक जगह मित्रो की सास वंश बढ़ाने के बारे में कहती है, तो मित्रो जवाब देती है कि ये तुरत-फुरत का खेल नहीं है कि एक ही मिनट में जिंद बोलने लगे. जब इसका मंचन हो रहा था तो ख्याल ये था कि लोग हंसेंगे पर हम सब चकित रह गए जब कोई हंसा नहीं. तो इस तरह की कंडीशनिंग है. लोग खुद भी जानते हैं कि कैसे उन्होंने स्त्री को दबाकर रखा है.

मित्रो मरजानी में एक जगह मित्रो कहती है  ‘जिंद जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म!’  जिस तरह की सेक्सुअल लिबर्टी की बात मित्रो कर रही है, हिंदुस्तान के मुख्यधारा के साहित्य में ऐसा कभी नहीं देखा गया था. एक पितृसत्तात्मक समाज में लिख पाने की प्रेरणा कैसे मिली?

देखिए, साफ कहूं तो लेखक बहुत कुछ नहीं कर सकता, ये उनकी गलतफहमी होती है. हड्डी पात्र की मजबूत होती है और उसी की जरूरत होती है. मैं उस वक्त राजस्थान में थी. वहां कुछ मजदूर काम कर रहे थे. वहां एक ठेकेदार और औरत थे. औरत ने लहंगा पहना हुआ था और छोटा-सा घूंघट भी निकाल रखा था. ठेकेदार ने उसे अपने पास बुलाने के लिए एकदम तपी हुई आवाज में पुकारा, ‘आजा री’ और वो औरत जोर से हंसी और बोली, ‘इस लहंगे की मांद में आ गए तो गए काम से!’ मैंने बस ये सुना. मैंने यही सोचा कि ये इन शब्दों से ज्यादा कुछ है. राजस्थानी मुझे ज्यादा नहीं आती पर उसमें बहुत ज्यादा टीस है. और फिर पात्रों को रचने का तरीका होता है. अगर आपने एक कोरे कागज पर कोई एक लाइन खिंची देखी है तो लिखते समय आप तीन जगह अपनी ताकत बांटते हैं…पहली उस लाइन की जो आपने देखी है, दूसरी लेखक की अपनी ताकत और फिर पात्र की. अगर पात्र में जान न हो तो आप क्या करेंगे? और अगर आप पात्र को पहचानते नहीं हैं फिर क्या! और एक बात, लेखक को न तो पात्र को अपने से नजदीक रखना है न बहुत दूर रखना है. तब आप किरदारों को नियंत्रित कर सकते है. मैं ये कह सकती हूं कि भाषा के तारतम्य से ही ये किरदार निकला.

आपके स्त्री किरदार बहुत स्वतंत्र हैं, जो जिस दौर में वे लिखे गए, उस समय की सच्चाई से बिल्कुल उलट हैं. ये कैसे हुआ?

मेरी परवरिश संयुक्त परिवार में हुई है पर हमें बहुत आजादी मिली साथ ही अनुशासन भी था. तो शायद इसी का प्रतिबिंब इन किरदारों पर है.

आपकी अधिकतर किताबों के अंग्रेजी अनुवाद हुए हैं, हिंदी के कम ही लेखकों के काम को ऐसी सराहना मिली.

(हंसते हुए) मैं तो बोर हो जाती हूं. एक बार किताब प्रकाशित हो जाती है फिर मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं सोचती.

बच्चों को हथियार बनाते माओवादी!

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Illustration- Tehelka Archives

तीन मार्च को झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के जमदी और कटिया गांवों से एक खबर आती है. भाकपा माओवादी ने दोनों गांवों से बच्चों की मांग की है. इसे न मानने पर जंगल से जलावन के लिए लकड़ी काटने और पशुओं को चराने पर रोक लगा देने की बात कही गई है. यह खबर जंगल में आग की तरह पूरे इलाके में फैल चुकी है लेकिन कोई इस आदेश की पुष्टि करने को तैयार नहीं होता. कुछ लोग दबी जुबान यही बताते हैं कि ऐसा हुआ है.

माओवादी कमांडर नकुल यादव ने 28 फरवरी को गांव में बैठक की थी. बैठक के बाद धमकी दी गई है कि जिन घरों में बच्चों की संख्या दो से ज्यादा है वे अपने बच्चों को माओवादी दस्ते में शामिल करने के लिए सौंप दें. यह काम 15 दिन के अंदर हो जाना चाहिए. गांववाले इस बात की पुष्टि नहीं करते, लेकिन पुलिस की गतिविधियों से इस चेतावनी की पुष्टि होती है. बैठक के बाद एक मार्च को इन दोनों गांवों में पुलिस ने विशेष अभियान चलाया. यह अभियान इसलिए था ताकि ग्रामीणों को नक्सलियों के खौफ से बेखौफ बनाया जा सके. अभियान का नेतृत्व खुद जिले के एसपी ने किया.

गुमला की यह खबर दब जाती है. जिले के ग्रामीण इलाकों में इस पर चर्चा होकर रह जाती है और राजधानी रांची तक तो यह खबर कायदे से पहुंच भी नहीं पाती. ऐसा इसलिए होता है कि ऐसी घटनाओं को गुमला जैसे जिले की नियति जैसा मान लिया गया है. पिछले साल भी ऐसी ही खबर गुमला से आई थी. 22 अप्रैल, 2015 को यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी थी कि गुमला के ग्रामीण क्षेत्र से 35 बच्चों को उठाकर नक्सली ले गए हैं. यह खबर तब इतनी बड़ी थी कि हाई कोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय समेत झारखंड और छत्तीसगढ़ की पुलिस से पूछा था कि अखबारों में बच्चों को नक्सलियों द्वारा उठा लिए जाने की खबर पर सरकार क्या कर रही है. तब केंद्रीय गृह मंत्रालय और छत्तीसगढ़ सरकार ने क्या कहा था, हाई कोर्ट की बातों को कितनी गंभीरता से लिया था इसकी तो जानकारी नहीं है, लेकिन झारखंड सरकार ने मई, 2015 में हाई कोर्ट में कहा था कि तीन प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं, बच्चों को बरामद करेंगे. बाद में राज्य के डीजीपी डीके पांडेय ने कहा कि बच्चों को मुक्त कराने तक अभियान जारी रहेगा. न बच्चे रिहा हुए, न बाद में उन्हें रिहा कराने का कोई अभियान चला. इसकी सूचना या खबर आई जो गुमला से निकलकर रांची हाई कोर्ट तक का सफर तय करके वहीं खत्म हो गई.

गुमला से तो बच्चों की रिहाई की कोई खबर नहीं आई लेकिन मार्च के पहले हफ्ते में ही गोमिया से एक खबर आई. गोमिया गुमला से ठीक दूसरे छोर पर बोकारो के पास स्थित है. खबर आई कि माओवादियों के बाल दस्ते में शामिल गोलू और गप्पू नाम के दो बच्चे पुलिस की गिरफ्त में आए हैं. आठ साल के गोलू ने पुलिस को बताया कि उसे माओवादी जंगल में ले गए थे. उस समय वह पहली क्लास का छात्र था. उस दिन वह घर में अकेला था. उसके एक परिजन घर पर आए. पूछा कि घर में कोई नहीं है क्या. उसने बताया, नहीं. फिर उसके परिजन जिनके साथ माओवादी भी थे, उसे उठाकर ले गए. वह जब माओवादियों के दस्ते में गया तो उससे खाना बनवाया जाने लगा. हथियार ढोने को कहा गया. वह ऐसा करने भी लगा. रात में उससे पहरेदारी का काम भी लिया जाता था. लेकिन इस सबसे अहम यह था कि माओवादी-पुलिस की मुठभेड़ में गोलू और उसके जैसे बच्चों को ढाल के तौर पर आगे कर दिया जाता था.

समाजशास्त्री और मानवाधिकारों के विशेषज्ञ प्रो. सचिंद्र नारायण कहते हैं, ‘बच्चों को भय के साथ बाल दस्ते या किसी दूसरे दस्ते में शामिल करके माओवादी अपना ही नुकसान कर रहे हैं. यह पूरा का पूरा काम ही उनके मूल सिद्धांतों के खिलाफ है. कोई बच्चा बड़ा होगा तब वह तय करेगा कि उसे यह आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक नीति ठीक लग रही है या नहीं! अगर उसे ठीक नहीं लगेगा तो वह अपने तरीके से अपने विचारों के आधार पर रास्ते को अपनाएगा. संभव है वह माओवादी भी बने लेकिन यह फैसला उसका खुद का होना चाहिए, अगर उसे जबर्दस्ती माओवादी बना रहे हैं तो इसे माओवादियों का हताश कदम माना जाएगा.’

ऐसा नहीं कि यह कहानी पहली बार गोलू के जरिए ही सामने आई है कि बाल दस्ते में शामिल बच्चे क्या करते हैं. इसके पहले भी कई बार कई बच्चे ऐसी कहानियां सामने ला चुके हैं. जब-जब ऐसी बातें सामने आती हैं कुछ लोग चिंतित भाव से, कुछ रोमांच के साथ किस्से-कहानियों की तरह इन्हें पढ़ते हैं, जानते हैं, सुनते हैं और बात फिर खत्म हो जाती है. पुलिस पर सवाल उठाए जाते हैं. पुलिस पर सवाल उठाना लाजिमी भी है लेकिन माओवादियों को लेकर झारखंड पुलिस से सवाल पूछने का अब बहुत मतलब नहीं बनता. राज्य बनने के 15 साल बाद अब तक झारखंड सरकार माओवादियों के नाम पर कई योजनाएं चलाती रही है. आम आदमी से लेकर पुलिसवाले उन्हीं योजनाओं की तरह तेज रफ्तार से मारे भी जाते रहे हैं.

पहले की बात छोड़ भी दें तो जिस मार्च महीने में गुमला से गोमिया तक ऐसी खबरें आ रही थीं उसी मार्च के पहले हफ्ते में पुलिस और माओवादियों के बीच जुड़ी दूसरी खबर भी आ रही थी. खबर यह आई कि कोल्हान प्रमंडल के चाईबासा जिले के गुवा थाना क्षेत्र के बांका और रोआम गांवों में माओवादियों ने बैठक की. एक बार नहीं, कई बार. नक्सलियों से लड़ने के लिए झारखंड में राज्य पुलिस के जवानों के साथ ही जिला पुलिस बल, इंडियन रिजर्व बटालियन और झारखंड जगुआर के अलावा अर्धसैनिक बलों की 120 कंपनियां तैनात हैं. इन 120 में से 34 कंपनियां कोल्हान प्रमंडल में ही तैनात हैं, फिर भी जनवरी और फरवरी माह में यहां माओवादियों ने लगातार बैठक की.

‘नक्सल आंदोलन की जड़ें अब धीरे-धीरे खोखली होती जा रही है. उनका जन समर्थन कम हो रहा है. विचारधारा भी पहले से ज्यादा विकृत हो गई है’

माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘यह सब सरकारी तंत्र की फैलाई हुई अफवाह है. माओवादी किसी बच्चे को अपने दस्ते में जबर्दस्ती शामिल नहीं कर रहे. सरकार के स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती, खाने को भोजन नहीं मिलता. इस व्यवस्था से निजात पाने के लिए अभिभावक खुद माओवादियों से आग्रह करते हैं कि वे उनके बच्चे को अपने दस्ते में शामिल कर लें ताकि वह बड़ा होकर व्यवस्था को बदलने में सहयोग करे. पुलिस और मीडिया के लोग आपस में मिलकर यह अफवाह फैलाते हैं कि माओवादियों ने बच्चों को जबर्दस्ती उठाने की धमकी दी.

इन घटनाओं के बाबत कई पुलिस अधिकारियों की राय जानने की कोशिश करते हैं. चार मार्च को ‘नेचर एेंड डायमेंशन ऑफ माओइस्ट एक्सट्रीमिज्म इन झारखंड’ विषय पर हुए एक सेमिनार में पहुंचे कई अधिकारियों से बातचीत होती है. झारखंड पुलिस के एडीजीपी एसएन प्रधान कहते हैं, ‘नक्सल आंदोलन की जड़ें अब धीरे-धीरे खोखली होती जा रही है. उनका जन समर्थन कम हो रहा है. विचारधारा भी पहले से ज्यादा विकृत हो गई है.’ आईजी प्रोविजन आरके मलिक कहते हैं, ‘राजनीतिक दल सामान्य लोगों को प्रभावित करने में नाकाम दिखते हैं वहीं नक्सल अपनी बात मनवाने में लगे रहते हैं. नक्सल आंदोलन अब पैसे का खेल हो गया है. अब पैसा उगाहने के लिए ही हिंसा का खेल होता है.’ सीआईडी आईजी संपत मीणा कहती हैं, ‘सरकारी कर्मचारी सुदूर गांवों में जाने से कतराते हैं, जिससे नक्सल आंदोलन गांवों तक फैला है और वे तरह-तरह की गतिविधियों को बढ़ाने में सफल हो रहे हैं.’

महिलाओं और किशोरियों का नक्सलियों द्वारा शोषण हुआ है, सरकार अब यह बात जनता को बताकर लोगों को नक्सलियों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर रही है. सभी पुलिस अधिकारी सही ही बात कहते हैं. नक्सल आंदोलन की धारा पहले से विकृत हुई है. झारखंड जैसे राज्य में सिर्फ वैचारिक स्तर पर नहीं बल्कि दूसरे रूपों में भी कई निकृष्टतम गतिविधियां दिखती हैं. जैसे-बच्चों को उठाकर ले जाने या उठा ले जाने की धमकी देने से लेकर बच्चियों को उठा ले जाने की घटना तक होती है. ऐसी घटनाएं सूचना के तौर पर भी सामने नहीं आ पातीं. जानकार बताते हैं कि अगर पीएलएफआई जैसे संगठन यह सब करते हैं तो बात समझ में भी आती है क्योंकि वे माओवादी संगठन तो हैं भी नहीं. उनका तो एकसूत्रीय काम भयादोहन करके अपने साम्राज्य का विस्तार करना है ताकि अधिक से अधिक पैसा बनाया जा सके. लेकिन भाकपा माओवादी के लोग जब ऐसा करते हैं तब उनके पतन के गर्त में जाने की कहानी सामने आती है. भाकपा माओवादियों के भी इस तरह के कृत्य में शामिल होने की वजह दूसरी बताई जा रही है. बताया जा रहा है कि पिछले कुछ सालों में झारखंड में करीब 76 अलग-अलग संगठन खड़े हो गए हैं. सभी लगातार माओवादियों का ही नुकसान कर रहे हैं और उन्हें कमजोर कर रहे हैं. ऐसे में भाकपा माओवादी भी अपने घटते दायरे को बढ़ाने और अपनी साख बचाने के लिए ऐसे-वैसे रास्ते अपना रही है.    

दबंग- 3 पर टॉपलेस तस्वीर का साया!

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सलमान खान की फिल्म ‘दबंग’ के तीसरे संस्करण पर ‘टॉपलेस’ प्रजाति की कुछ तस्वीरों का साया पड़ने से बॉलीवुड में बवाल-सा मचा हुआ है. जी हां, ध्यान लगाकर और कान खोलकर सुन लीजिए. ये खबर बिल्कुल पक्की है. इस बात को गौर से समझना है तो होश में आ जाइए. एक मॉडल की कुछ टॉपलेस तस्वीरें लीक हुई हैं. बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी लेकिन रायता तब फैल गया जब पर्ल राह नाम की इस माॅडल ने दावा किया कि उन्हें फिल्म ‘दबंग-3’ में बतौर अभिनेत्री सलमान के अपोजिट साइन किया गया है. अब गर्मी के दिनों में ये बात सुनकर सलमान से जुड़े सूत्र बेहोश हो गए! उन पर पानी मारकर जब उन्हें होश में लाया गया तो उन्होंने बताया कि ये पब्लिसिटी स्टंट का मामला है, जो सही भी लग रहा है क्योंकि फिल्म प्रमोशन के लिए सलमान की ओर से कभी इस तरह के हथकंडे नहीं अपनाए गए. किसी भी फिल्म के प्रमोशन के लिए उनका नाम ही काफी होता है. बहरहाल जो होना था वो तो हो गया लेकिन इस वाकये से लंदन बेस्ड इस मॉडल ने पर्याप्त सुर्खियां जरूर बटोर ली हैं.

 

वाणी-रणवीर हुए बेफिकरे

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फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ के तीन साल बाद अभिनेत्री वाणी कपूर की वाणी सिनेमाघरों में गूंजेगी. अगर आप ‘शुद्ध देसी रोमांस’ देख चुके होंगे तो आपको याद होगा कि फिल्म की दोनों हीरोइनों ने अभिनय के नाम पर इसमें सिर्फ हीरो को किस किया था! अब वाणी की दूसरी फिल्म ‘बेफिकरे’ रिलीज होने वाली है. हाल ही में इस फिल्म का पहला पोस्टर लॉन्च किया गया है और यकीन मानिए वाणी कपूर आपको इस बार भी निराश होने का मौका नहीं देंगी. इस फिल्म में आपको पर्याप्त मसाला मिलेगा. पोस्टर में रणवीर सिंह और वाणी कपूर एक-दूसरे काे किस करते नजर आ रहे हैं. अब और क्या आप दर्शकों को बताया जाए… लिफाफा देखकर आप खत का मजमून तो समझ ही गए होंगे.

 

कैरोल का कमाल

Carol 1 copyजिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा… ये लाइनें शायद आपने सुनी होंगी और नहीं सुनीं तो जनाब हम इन लाइनों से जुड़ी एक कहानी आपको सुना देते हैं. साल 2006 में जब ‘बिग बॉस’ के पहले सीजन ने छोटे पर्दे पर दस्तक दी थी तब एक खांटी अंग्रेजीदां गोवन कैथलिक लड़की ने भोजपुरी की ये लाइनें बोलकर दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचा था. इस मॉडल का नाम है- कैरोल ग्रेशियस. इस जुड़ाव का एक कारण भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता रवि किशन भी थे जिन्होंने कैरोल को ये लाइनें रटा दी थीं. बहरहाल काफी सालों बाद कैरोल ने एक बार फिर ध्यान खींचा है. बीते दिनों एक फैशन शो में वे बेबी बंप के साथ रैंप वॉक करती नजर आईं. विदेशों में ये चलन आम है, लेकिन भारत में यह चलन अपनी तरह का पहला और अनूठा था, जिसने मॉडलिंग से जुड़े कई पारंपरिक मिथकों को तोड़ा. हरी-गुलाबी साड़ी में कैरोल कमाल की नजर आ रही थीं. तो है न ये कमाल की बात?

 

 

पनामा पेपर्स लीक

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क्या है मामला?

दुनिया में सबसे ज्यादा गोपनीय ढंग से काम करने वाली कंपनियों में से एक पनामा की मोसाक फोंसेका के एक करोड़ 10 लाख गोपनीय दस्तावेज लीक हुए हैं. इन दस्तावेजों में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के करीबियों से लेकर मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक समेत दुनिया के कई बड़े नेताओं के नाम हैं. इन पर आरोप है कि इन्होंने टैक्स हैवन देशों में अकूत संपत्ति जमा की. इनमें करीब 500 भारतीयों के भी नाम हैं. इन गोपनीय दस्तावेजों से पता चला है कि अमीर व शक्तिशाली लोग किस तरह अपने पैसे को बचाने के लिए टैक्स की चोरी करते हैं या उन तरीकों का प्रयोग करते हैं जिनसे उन्हें कम टैक्स भरना पड़े. इससे पता चलता है कि मोसाक फोंसेका ने किस तरह अपने ग्राहकों के काले धन को वैध बनाने, प्रतिबंधों से बचने और कर चोरी में मदद की.

कैसे हुआ खुलासा?

इस खोजबीन में दुनिया के 78 देशों के 107 मीडिया संस्थानों के 350 से ज्यादा पत्रकार शामिल रहे. पत्रकारों ने पनामा पेपर्स मामले से जुड़े दस्तावेजों का एक साल तक अध्ययन किया उसके बाद यह खुलासा हुआ. इस टीम में भारत की ओर से ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार के भी तीन पत्रकार शामिल थे. इन्होंने इंटरनेशनल कॉन्सोर्टियम ऑफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) के साथ मिलकर काम किया. आईसीआईजे के निदेशक गेरार्ड राइल का कहना है कि इन दस्तावेजों में मोसाक फोंसेका की हर दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों का ब्योरा दर्ज है. वहीं कंपनी का कहना है कि वह लगभग 40 साल से बिना किसी लांछन के काम कर रही है. उस पर कुछ गलत करने का आरोप कभी नहीं लगा. इस खुलासे में नाम आने के बाद आइसलैंड के प्रधानमंत्री डेविड गुनलाउगसन ने इस्तीफा दे दिया है. 

कौन-कौन से भारतीय हैं शामिल?

इन दस्तावेजों में फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, उनकी बहू ऐश्वर्या राय बच्चन, डीएलएफ के मालिक केपी सिंह, गौतम अडाणी के बड़े भाई विनोद अडाणी और इंडिया बुल्स के समीर गहलोत समेत 500 बड़े लोगों के नाम शामिल हैं. बहरहाल इन लोगों को आयकर विभाग ने नोटिस भी भेज दिया है. इसमें एक नाम इकबाल मिर्ची का भी है जो अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम का खास मददगार माना जाता था. हालांकि उसकी मौत तीन साल पहले हो गई थी. इन खुलासों के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जांच के लिए ‘मल्टी एजेंसी ग्रुप’ बना दिया है. वहीं, काला धन वापस लाने के लिए बनी एसआईटी ने कहा है कि वह मामले की विस्तार से जांच करेगी.

महाराष्ट्र में सामाजिक बहिष्कार किया तो जाएंगे जेल

महाराष्ट्र विधानसभा ने सर्वसम्मति से सामाजिक बहिष्कार (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2016 पारित कर दिया है. इसके तहत अगर कोई भी व्यक्ति किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का सामाजिक बहिष्कार करता है तो उसे तीन साल की जेल की सजा हो सकती है. इसके साथ ही उस पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है और यह जुर्माना पीड़ित व्यक्ति को दिया जाएगा. इसी के साथ महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार को अपराध मानते हुए कानून लाने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है. सभा के सामने बिल पेश किए जाने से पहले मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने बताया कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार साल भर में जाति से बहिष्कृत करने के 46 मामले दर्ज किए गए. अकेले रायगढ़ में 633 लोग सामाजिक बहिष्कार झेल रहे हैं. उन्होंने कहा कि इस अधिनियम के आने के बाद इस मध्यकालीन परंपरा को रोकने में मदद मिलेगी. अधिनियम के मुताबिक सामाजिक बहिष्कार झेलने वाला व्यक्ति खुद या उसके परिवार का कोई भी सदस्य पुलिस या सीधे जज के सामने शिकायत दर्ज करा सकता है. अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि चार्जशीट दाखिल होने के बाद छह महीने के भीतर सुनवाई पूरी हो जानी चाहिए ताकि दोषियों को सजा मिल सके.

सात करोड़ बच्चे ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर

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नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के एक सर्वे ने देश की स्कूली शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी है. सरकार की ओर से कराए गए इस सर्वे के अनुसार बगैर ट्यूशन पढ़े बच्चों का पास होना मुश्किल होता जा रहा है. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि स्कूल में पढ़ाई का स्तर गिरने के कारण देश भर में सात करोड़ से ज्यादा छात्र ट्यूशन पढ़ने को मजबूर हैं. यह संख्या देश में छात्रों की कुल संख्या का 26 फीसदी है. इनमें से 4.1 करोड़ लड़के और तीन करोड़ लड़कियां हैं. रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया है कि परिवार के कुल खर्च का 11 से 12 फीसदी प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन पर खर्च करना लोगों की मजबूरी बनता जा रहा है. उम्मीद के उलट समाज के गरीब तबके भी प्राइवेट कोचिंग का उतना ही सहारा लेते हैं जितना धनी परिवार के बच्चे. 2014 की पहली छमाही में एनएसएसओ ने 66,000 घरों का सर्वे किया था जिसके आधार पर भारत में शिक्षा पर एनएसएसओ ने हाल में यह रिपोर्ट जारी की है.

हुआ यूं था : जब कनाडा से बैरंग लौटे सिखों पर की थी ब्रिटिश सेना ने फायरिंग

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हाल ही में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडू ने कनाडा सरकार के पूर्व में लिए गए एक फैसले के संबंध में सिख परिवारों से माफी मांगने की बात कही तो इतिहास की एक घटना की याद जेहन में ताजा हो उठी. अगले महीने इस घटना काे 102 साल पूरे हो जाएंगे. यह घटना 23 मई, 1914 की है और कोमागाता मारु उस जापानी जहाज का नाम था जिस पर सवार होकर 376 भारतीय को कनाडा के वैंकूवर बंदरगाह पहुंचे थे लेकिन सरकार ने उन्हें बंदरगाह पर उतरने की अनुमति नहीं दी. 340 सिखों के अलावा इनमें 24 मुसलमान और 12 हिंदू शामिल थे. बहरहाल जस्टिन ट्रूडू अगले महीने की 18 तारीख को ‘हाउस ऑफ कॉमंस’ में इस फैसले के लिए माफी मांगेंगे. 

20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों से ही भारतीयों का एक वर्ग खास तौर से पंजाब के लोग बेहतर अवसरों की तलाश में पश्चिमी देशों खास तौर से कनाडा में काम करने और वहां बसने के इच्छुक थे. वहीं कनाडा में भारतीयों की बढ़ती संख्या ने वहां की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार में असंतोष पैदा कर दिया था जिसके कारण सरकार ने अनेक आव्रजन कानून पारित कर दिए जिसने वहां भारतीयों के प्रवेश को मुश्किल बना दिया था. ऐसे में सिंगापुर में रह रहे सिख व्यवसायी बाबा गुरदीत सिंह ने भारतीयों का एक ऐसा बड़ा नेटवर्क तैयार करने के लिए कनाडा जाने का फैसला किया जो भारत और विदेशों में भारतीयों की मदद कर सके. इस सफर की शुरुआत हांगकांग से हुई जहां से 4 अप्रैल, 1914 को 165 भारतीयों को लेकर कोमागाता मारु रवाना हुआ. आठ अप्रैल को शंघाई पहुंचने पर जहाज में कुछ और यात्री सवार हुए. 14 अप्रैल को जहाज जापान के योकोहामा पहुंचता है आैैर तीन मई को यहां से रवाना होते-होते इसमें कुल 376 यात्री सवार हो चुके होते हैं. 23 मई को यह जहाज वैंकूवर पहुंचा था. यहां कनाडा सरकार ने यात्रियों को उतरने की अनुमति ही नहीं दी. इससे यात्रियों के साथ ही कनाडा और अमेरिका में रह रहे दूसरे भारतीयों में रोष पैदा हो गया.

यात्रियों को बंदरगाह पर उतारने की रणनीति पर विचार-विमर्श शुरू हुआ. एक तरफ कनाडा और अमेरिका के कई शहरों में रह रहे भारतीय लगातार विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे तो वैंकूवर में एक ‘तट समिति’ का गठन किया गया. समिति ने कानूनी लड़ाई शुरू की लेकिन उसी साल छह जुलाई को मामले की सुनवाई करते हुई ब्रिटिश कोलंबिया की अदालत ने सर्वसम्मति से यह आदेश पारित कर दिया कि कोई भी सरकारी प्राधिकरण आव्रजन और औपनिवेशीकरण विभाग के काम में दखल देने का अधिकारी नहीं है. इससे पहले जहाज के 20 यात्रियों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति मिल गई लेकिन बाकी के यात्रियों को जहाज सहित 23 जुलाई को कनाडाई सेना की निगरानी में भारत के लिए रवाना कर दिया गया. 27 सितंबर, 1914 को कोमागाता मारु जहाज कलकत्ता पहुंचा तो यहां भी यात्रियों की समस्या खत्म नहीं हुई. भारत की ब्रिटिश सरकार ने कोमागाता मारु की यात्रा को नियमों के खिलाफ और यात्रियों को शासन विरोधी करार दे दिया. सरकार ने कोलकाता के बज-बज बंदरगाह पर जहाज को रोका और गुरदीत सिंह समेत 20 लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया. तब गुरदीत सिंह ने गिरफ्तारी का विरोध किया और उनके एक साथी ने एक पुलिसवाले पर हमला बोल दिया जिसके बाद ब्रिटिश सेना ने फायरिंग शुरू कर दी. इसमें 19 लोगों की मौत हो गई थी. इस दौरान गुरदीत सिंह भागने में सफल रहे और 1922 तक छिपकर रहे. फिर महात्मा गांधी ने एक सच्चे देशभक्त के तौर पर उनसे समर्पण करने की बात कही. गुरदीत ने यही किया और उन्हें पांच साल की सजा मिली. 

‘23 साल का वह क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी फिट नहीं हो सकती’

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भगत सिंह पर दावेदारी कोई नई बात नहीं है. यह काफी समय से जारी है. खास तौर पर जब से भगत सिंह की जन्म शताब्दी आई. जन्म शताब्दी वर्ष यानी 2007 में, पूरे वर्ष भगत सिंह के सिर पर पगड़ी पहनाने का प्रयास हुआ. पहले कभी-कभार हुआ करता था, फिर खुलेआम होने लगा. इसमें जाने-अनजाने वे लोग भी शामिल हुए जो भगत सिंह को क्रांतिकारी चेतना के वाहक और पूरे क्रांतिकारी आंदोलन के प्रवक्ता के रूप में देखते हैं. ये सब इसलिए ताकि भगत सिंह को जाति और धर्म के खांचे में धकेल दिया जाए ताकि उनका जो पैनापन है, जो विचार उनके पास हैं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह की जो छवि उभरती है उसे खत्म किया जा सके.

जब कट्टरपंथी लोग भगत सिंह पर दावेदारी करते हैं तो भगत सिंह समेत पूरी क्रांतिकारी चेतना का नुकसान होता है. एक उदाहरण देता हूं. करीब दो साल पहले मेरे पास बरेली से एक पूर्व मंत्री का फोन आया, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय के हरेंद्र श्रीवास्तव हैं, जिन्होंने सावरकर पर पीएचडी की है, उनका व्याख्यान चल रहा है. आप जरूर आइए.’ हम गए तो नहीं लेकिन जो रिपोर्ट आई उसमें हरेंद्र श्रीवास्तव ने कहा, ‘भगत सिंह जब पांच वर्ष के थे तब उन्हें गांव के विद्यालय में दाखिला कराने के लिए ले जाया गया. वहां उनसे दाखिले का फॉर्म भरवाया गया जिसमें मां के नाम के खाने में उन्होंने स्वयं ही अपनीे पांच मांओं के नाम दर्ज किए- धरती माता, भारत माता, गंगा माता, गौ माता और अपनी माता विद्यावती.’ अब बताइए इस पर आप क्या कहेंगे कि भगत सिंह जन्म से ही आरएसएस की दीक्षा में दीक्षित थे और पहले दर्जे में जाने से पहले ही इतने पढ़े-लिखे थे कि मां के नाम के खाने में अपने हाथ से पांच नाम अंकित कर सकें? उनके व्याख्यान की भरी सभा में कोई यह भी पूछने की हिमाकत नहीं कर सका कि पांच वर्ष की उम्र होने पर 1912 में जब भगत सिंह को विद्यालय में दाखिल कराने के लिए ले जाया गया, तब दाखिले के लिए न तो फॉर्म होते थे और न ही मां के नाम की कोई जगह उन दिनों निर्धारित हुई थी. मां के नाम का कॉलम हमारे बच्चों के समय आया. दुष्यंत कुमार का वह शेर है कि ‘यहां पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं, खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा.’ उस सभा में विद्वान, लेखक, छात्र, अध्यापक, पत्रकार सब रहे होंगे पर किसी ने सवाल नहीं किया.

भगत सिंह के नाम पर तमाम झूठ फैलाया जा रहा है. भाजपा ने भगत सिंह के भतीजे यादवेंद्र सिंह संधू के मुंह से कहलवाया कि भगत सिंह आस्तिक थे. वे कहते हैं कि भगत सिंह की डायरी में दो शेर लिखे हुए हैं जिसमें एक शेर में परवरदिगार शब्द आया है इसलिए भगत सिंह आस्तिक हैं. इस तरह की हास्यास्पद बातें लगातार फैलाई जा रही हैं

इस तरह भगत सिंह के नाम पर तमाम झूठ फैलाया जा रहा है. अब से तीन-चार पहले भाजपा भगत सिंह के भतीजे यादवेंद्र सिंह संधू को लिए घूम रही थी और कई जगह उनके मुंह से कहलवाया कि भगत सिंह आस्तिक थे. जबकि भगत सिंह का पर्चा ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ कितने वैज्ञानिक ढंग से लिखा गया है. वे कहते हैं कि भगत सिंह की डायरी में दो शेर लिखे हुए हैं जिसमें एक शेर में परवरदिगार शब्द आया है इसलिए भगत सिंह आस्तिक हैं. इस तरह की हास्यास्पद बातें लगातार फैलाई जा रही हैं.

भगत सिंह को इस तरह एक शब्द पकड़कर नहीं समझा जा सकता. भगत सिंह को देखना होगा तो भगत सिंह के विकास के साथ देखना पड़ेगा. भगत सिंह आर्यसमाजी परिवार में पैदा होते हैं, फिर अराजकतावादी होते हैं, फिर राष्ट्रवादी होते हैं. उनका जो रूपांतरण होता है वह बहुत कम समय में हुआ बहुत गजब का रूपांतरण है. जो लोग यह मानते हैं कि भगत सिंह अकेले ऐसे थे, मैं मानता हूं कि 70 साल लंबा क्रांतिकारी आंदोलन विकसित होकर, अपने पूर्ण विकास के बाद भगत सिंह के रूप में बोलता है. भगत सिंह के पहले जो जमीन बनाई है, वे अशफाक उल्ला खां ने बनाई है. जब वो अपनी डायरी में मजदूरों का पक्ष लेते हैं, किसानों का पक्ष लेते हैं, उनकी ताकत को पहचानते हैं और वे खुलकर कहते हैं कि इन विचारों के लिए मुझे कम्युनिस्ट कहा जाए तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है. यह भी विकास है कि पहले उनकी पार्टी का नाम हिंदुस्तान प्रजातंत्र था, जो बाद में हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र रखा जाता है. जिस समय तक कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव तक पारित नहीं कर पाई थी, तब वे हिंदुस्तानी प्रजातंत्र की बात कर रहे थे.

भगत सिंह और आंबेडकर को अपनाने की कोशिश में संघ परिवार के लोग खुद भ्रमित हैं. संघ भले कितना कहता रहे कि हम एक सांस्कृतिक संगठन हैं, अंतत: वह पूरी तरह से एक राजनीतिक संगठन है और किसी भी हद तक उतर सकता है, भले ही महापुरुषों के विचारों की हत्या करनी पड़े. अब ये सारे लोग आंबेडकर को भी अपनाने की कोशिश कर रहे हैं. अरविंद केजरीवाल भी आंबेडकर को अपनाने की कोशिश में हैं. अब पंजाब का चुनाव यह सब करने पर मजबूर कर रहा है. भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर सिख बना देने का क्या मतलब है? आप भगत सिंह को पगड़ी क्यों पहना रहे हैं? जिस व्यक्ति ने खुद कहा हो कि अभी तो मैंने केवल बाल कटवाए हैं, मैं धर्मनिरपेक्ष होने और दिखने के लिए अपने शरीर से सिखी का एक-एक नक्श मिटा देना चाहता हूं, आप उसके सिर पर फिर पगड़ी रख रहे हैं. आप यही तो बताना चाह रहे हैं कि भगत सिंह इसलिए बहादुर थे कि सिख थे. तब आप मेरे सवाल का जवाब दीजिए कि क्या राम प्रसाद बिस्मिल इसलिए बहादुर थे कि ब्राह्मण थे, रोशन सिंह इसलिए बहादुर थे कि ठाकुर थे, अशफाक उल्ला इसलिए बहादुर थे कि पठान थे? अगर इस बात का जवाब हां में दे देंगे तो हम मान लेंगे कि भगत सिंह सिख थे इसलिए बहादुर थे. आप कितना भी प्रयास कर लें भगत सिंह के सिर पर पगड़ी रखने का, लेकिन 23 साल का वह नौजवान क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी अब फिट नहीं हो सकती. यह सब तो चुनावी हथकंडे हैं कि भगत सिंह को सिख बना दो तो वहां से वोट मिल जाए, आंबेडकर को अपना लो तो दलित जातियों का वोट मिल जाए.

यह प्रगतिशील तबके की विफलता है कि आज भगत सिंह पर वही लोग दावा कर रहे हैं जिनके विरोध में भगत सिंह खड़े थे. एक अहम बात यह है कि अगर हम अपने प्रगतिशील नायकों को छोड़ते चले जाएंगे तो उनको कोई न कोई अपना ही लेगा. मेरे ख्याल से वामपंथी पार्टियों और प्रगतिशील लोगों का पतन है कि वह भगत सिंह के जन्मदिन पर पंजाब में लंगर का आयोजन करती है. यह भगत सिंह की चेतना का अपमान है.

हमारा मानना है कि भगत सिंह अकेले नहीं थे. आप देखिए कि भगत सिंह के नाम से जो दस्तावेज प्रकाशित हैं, उसमें बहुत सारे दूसरे साथियों के भी दस्तावेज हैं. उन्हें भगत सिंह के नाम पर प्रकाशित कर दिया जाता है. सब कुछ भगत सिंह के खाते में डालकर उन्हें इतना ऊंचा बना दिया है कि हम उन्हंे देख न सकें, छू न सकें. भगत सिंह ने जो भी काम किए, सांडर्स को मारा या असेंबली में बम फेंका, वह अकेले नहीं किया. संयुक्त रूप से किया. दूसरे, क्रांतिकारी आंदोलन के ज्यादा महत्वपूर्ण दस्तावेज भगवती चरण वोहरा के लिखे हुए हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण दस्तावेज उनके लिखे हुए हैं तो सब सिर्फ भगत सिंह के खाते में क्यों डाला जा रहा है?

कितने लोगों ने भगवती चरण वोहरा, विनय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर को याद किया? आज भगत सिंह की बात करने वाले, चाहे वे प्रगतिशील हों, वामपंथी या दक्षिणपंथी, कल तक भगत सिंह के जो साथी जीवित थे वे किस तरीके से मर रहे थे, किस तरह से उपेक्षित जीवन जी रहे थे, उनकी तरफ आंख उठाकर इन लोगों ने देखा तक नहीं

दूसरा सवाल यह भी है कि कितने लोगों ने भगत सिंह के अलावा भगवती चरण वोहरा को याद किया. कितने लोगों ने विनय कुमार सिन्हा को याद किया? कितने लोगों ने जयदेव कपूर को याद किया? आज भगत सिंह की बात करने वाले, वे प्रगतिशील हों, वामपंथी या दक्षिणपंथी, कल तक भगत सिंह के जो साथी जीवित थे वे किस तरीके से मर रहे थे, किस तरह से उपेक्षित जीवन जी रहे थे, उनकी तरफ आंख उठाकर इन लोगों ने देखा तक नहीं. केवल भगत सिंह को याद करना और उनका बिल्ला लगाना प्रगतिशील क्रांतिकारी आंदोलन का ही अपमान है.

उस समय भगत सिंह से वामपंथियों का कोई वास्ता नहीं था. उनके मरने के बाद उनको पूरी तरह भुला दिया गया. अभी कुछ समय पहले जयदेव कपूर मरे हैं. मैंने उनकी जीवनी पूरी की है. आज भी मुझे ध्यान आता है कि एक बार उन्होंने मुझे पत्र लिखकर बुलाया. वे अपने घर में न होकर अपने दूसरे बेटे के घर में थे. चलने से पहले मुझसे बड़ी कातर निगाहों से बोले कि मुझे तीन दिन से खाना नहीं मिला है. भगत सिंह से कम योगदान नहीं है बटुकेश्वर दत्त का. कोई फांसी चढ़ गया और किसी ने कारागार के भीतर जिंदगी जी, जो ज्यादा कष्टदायी थी. वही बटुकेश्वर दत्त, जिन्हें अपने गुजारे के लिए डबल रोटी की फैक्टरी में मैदा सप्लाई करना पड़ता था. बटुकेश्वर दत्त के हाथ में बड़े-बड़े बाल थे. उनके हाथों के बाल झुलस गए थे भट्ठी की आंच से. वे मैदे की बोरियां खींचकर ले जाते थे. इतने बड़े क्रांतिकारी से हमने क्या काम लिया? दो सेर आटा और लकड़ियों के जुगाड़ के लिए बटुकेश्वर पटना की सड़कों पर जर्जर साइकिल पर निकलते थे. किसी ने दो पल रुककर नहीं देखा कि यह व्यक्ति बटुकेश्वर दत्त है, जिसने उस समय अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाई थी. आज उसी पटना की सड़क पर आमिर खान खड़े होते हैं तो पटना में ट्रैफिक रुक जाता है उनको देखने के लिए. बटुकेश्वर को किसी ने नहीं देखा.

1925 में बने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो आजादी की लड़ाई में कोई भी योगदान नहीं है. हमारा सवाल उनसे है जो भगत सिंह के करीब हैं और वैचारिक रूप से उनके निकट हैं, उनकी संघ के बजाय ज्यादा जिम्मेदारी है, उनसे ज्यादा सवाल हैं. उन्होंने इन क्रांतिकारियों के लिए क्या किया? किसी से पूछिए कि डॉ. गया प्रसाद वह क्रांतिकारी थे जिनकी जेल के भीतर सर्वाधिक पिटाई होती थी. जेल अधिकारी गुस्से में उनको मारते थे जो थोड़े मजबूत किस्म के होते थे. वे छोटे कद के, थोड़ा स्थूल शरीर के थे. ये था कि पिटाई से मरेंगे नहीं. वे काला पानी भी गए. इतने सीधे-सादे व्यक्ति डॉ. गया प्रसाद कानपुर के निकट जगदीशपुर गांव में कब मरे, किसी को नहीं पता. किसी प्रगतिशील संगठन  किसी राजनीतिक या किसी वामपंथी पार्टी ने इन लोगों के मरने पर एक शोकसभा तक नहीं की. इसलिए ये ज्यादा जिम्मेदार हैं.

जिन लोगों ने आजादी के लिए इतनी कुर्बानियां दीं, वे क्या सोचते हुए मरे होंगे? वे जिस अभाव में जिए, उनके घरवाले क्या सोचते होंगे? जयदेव कपूर या बटुकेश्वर दत्त बनकर कौन मरना चाहेगा इस देश में? भगत सिंह के आंदोलन में शामिल होने के समय वामपंथी पार्टी बन चुकी थी. बावजूद इसके भगत सिंह ने पार्टी से कोई संबंध नहीं रखा. समानांतर कार्रवाइयां चलती थीं. इन क्रांतिकारियों का मानना था कि जेल जाकर हमारा कार्य समाप्त नहीं हो गया है. बल्कि उनका कहना था कि जब हम जेल में आ गए तो हमारे हथियार दूसरे हो गए हैं. हमें जेल के भीतर भी शांत नहीं बैठना है. अनशन को गांधीवादियों का हथियार माना जाता है. गांधी सहित किसी गांधीवादी ने कभी अनशन करते हुए जान नहीं दी लेकिन अनशन करके जान देने वालों की लंबी सूची क्रांतिकारियों की है. भगत सिंह के पास अनशन का लंबा रिकॉर्ड है. भगत जब फांसी चढ़े तब उनका सबसे बड़ा सरोकार अहिंसा था. पूरे क्रांतिकारी आंदोलन पर जो आतंक का आरोप लगता था, उस घेरे से आंदोलन को निकालने का काम भगत सिंह ने किया.

भगत कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने. यह अलग बात है कि बाकी  कुछ साथी बाद में जेल में रहने के दौरान चिंतन-मनन के आधार पर वामपंथ की ओर झुके और बाहर आकर पार्टी जॉइन की. शिव वर्मा की बहुत महत्वपूर्ण कृति है ‘संस्मृतियां’. सीपीएम ने बहुत वर्षों तक उन्हें अपने शहीद साथियों पर लिखने की अनुमति नहीं दी. यह कम्युनिस्ट पार्टियों का दोष है. यह रवैया है इनका. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्हें किताब लिखने की अनुमति मिली.

अब देखिए कि भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर कोई बात नहीं करता. अगर शशि थरूर ने कन्हैया को भगत सिंह बता दिया, तो इससे पहले भी कितने ऐसे प्रसंग आए होंगे जब किसी को भगत सिंह कहा गया होगा. अभी पिछले अगस्त में मैंने एक लेख लिखा. 9 अगस्त ‘काकोरी दिवस’ से करीब एक महीने पहले संजय गुप्ता नाम के एक व्यक्ति का मेरे पास फोन आया कि वे इस तिथि को शाहजहांपुर में ‘काकोरी शहीद दिवस’ मनाना चाहते हैं. उन्होंने काकोरी शहीदों के लिए शासन से की जाने वाली मांगों की चर्चा की और मुझसे कार्यक्रम में शामिल होने को कहा. आयोजन से सप्ताह भर पहले उन्होंने मेरे भाई के जरिए पत्रक भेजे. उसमें रामप्रसाद बिस्मिल का जो चित्र छापा गया था उसमें उन्हें भगत सिंह वाला हैट और भगत सिंह की लंबे काॅलर वाली कमीज पहनाई गई थी. पूछने पर उस व्यक्ति ने बताया कि इसी हैट को लगाकर बिस्मिल डकैतियां डालने जाते थे और अंतिम समय बिस्मिल अपना यही हैट भगत सिंह को दे गए थे. अब कोई पूछे कि हैट लगाकर डकैती डालने वाली बात कितनी विश्वसनीय है. मैंने कहा कि यह चित्र तो मैंने पहली बार देखा है. 1925 में बिस्मिल जेल चले गए थे और तब तक भगत सिंह परिदृश्य में कहीं नहीं थे, भगत सिंह से उनकी कोई मुलाकात नहीं हुई. संजय गुप्ता के पास इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था और न ही उन बातों का जिन्हें अपने दो-तीन पत्रकों में उन्होंने छापा था. मजेदार यह था कि उन्होंने ‘सरफरोशी की तमन्ना’ और ‘मिट गया जब मिटने वाला’ के अलावा फिल्म ‘उमराव जान’ में शहरयार की मशहूर रचना ‘दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए’ को भी रामप्रसाद बिस्मिल की लिखी कविता बताया है. जबकि ‘सरफरोशी की तमन्ना’ शीर्षक गजल बिस्मिल अजीमाबादी की और ‘मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या’ दिल शाहजहांपुरी की रचना है.

उन्होंने यह झूठ भी गढ़ा कि लखनऊ जेल से अदालत जाते समय बसंत पंचमी के दिन बिस्मिल और दूसरे क्रांतिकारी साथी उनके कहने से गले में पीले रूमाल और सिर पर पीली टोपी पहन कर गए थे और उसी दिन के लिए बिस्मिल ने अपने साथियों के कहने पर ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ की रचना की. यह पीले रूमाल की बात उस बात की नकल में गढ़ी गई है कि लेनिन दिवस पर भगत सिंह जेल में लाल रूमाल बांधकर गए थे. अपने पत्रक में उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को सशस्त्र क्रांति का सैनिक बताया और यह भी लिखा कि रामप्रसाद बिस्मिल के डेथ वारंट में स्पष्ट लिखा गया था- टू बी हैंग्ड टिल डेथ, क्योंकि अंग्रेज यह बात भली-भांति जानते थे कि रामप्रसाद बिस्मिल जेल में प्रतिदिन योगाभ्यास करते हैं अतः एक झटके में उनके प्राण निकलने वाले नहीं. इसके पीछे पूरा संघ परिवार है. उस पर्चे में इतना झूठ छापा गया. हमने उनसे पूछा कि क्या अशफाक के बारे में यही नहीं लिखा गया था. उसी केस के रोशन सिंह के बारे में नहीं लिखा गया था? राजेंद्र नाथ लाहिड़ी के बारे में नहीं लिखा गया था? या इससे पहले और वारंट में यही नहीं लिखा गया? अपने इसी कुतर्क के आधार पर उन्होंने शाहजहांपुर में एक ‘राम प्रसाद बिस्मिल योग-आयुर्वेद संस्थान’ खोलने की मांग प्रस्तुत करने के साथ ही 50 हजार गायों की एक गौशाला बनाए जाने का भी प्रस्ताव किया.

तो मैं कहना चाहता हूं कि यह षड्यंत्र कोई नया नहीं है. अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है. वर्ष 1997 में प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली से काकोरी कांड के शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की रचनाओं का संचयन ‘सरफरोशी की तमन्ना’ शीर्षक से पांच खंडों में प्रकाशित हुआ. इसका संकलन, शोध एवं संपादन मदनलाल वर्मा ‘क्रान्त’ ने किया था और प्रस्तावना ‘आशीर्वचन’ के रूप में प्रो. राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भइया, सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लिखी. जबकि उन दिनों मन्मथनाथ गुप्त, विष्णु शरण दुबलिश, रामकृष्ण खत्री, प्रेमकिशन खन्ना और शिव वर्मा सरीखे बिस्मिल के क्रांतिकारी साथी जीवित थे पर इनमें से किसी को भी संपादक ने अपनी पुस्तक की भूमिका लिखने के योग्य न समझा. संपादक ने यह भी लिखा कि हमें बिस्मिल की कुछ रचनाएं अधूरी मिलीं, जो पूरी कर दीं. पता नहीं उसे यह अधिकार किसने दे दिया. अब यह नहीं समझ में आ रहा है कि उन रचनाओं में कितना बिस्मिल का है और कितना इन्होंने पूरा कर दिया है.

इसी किताब का रहस्य यह है कि संपादक लिखते हैं, ‘आज बिस्मिल की कौम से वाकिफ लोगों की एक अच्छी-खासी जमात हमारे मुल्क में खड़ी है. यह दीगर बात है कि अभी उस जमात का जमाना नहीं आया. शायद आने वाले कल में उन्हें कोई पहचानने वाला हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों में बिस्मिल की रूह की झलक आपको मिल सकती है.’

संपादक महोदय एक जगह और लिखते हैं जो और हैरत में डालने वाला है, ‘मेरा जन्म बिस्मिल की मृत्यु के ठीक बीस वर्ष बाद 20 दिसंबर 47 को शाहजहांपुर में हुआ, तो क्या उनकी (बिस्मिल की) आत्मा पूरे बीस वर्ष तक भटकती रही. इसका उत्तर कोई त्रिकालदर्शी ही दे सकता है. बहरहाल मेरी पीठ पर अभी भी नीला निशान है. लोग कहते हैं कि यह निशान तो उसी बच्चे का होता है जिसका पुनर्जन्म हुआ हो.’ अर्थात स्पष्ट है कि इस पुस्तक के संपादक के रूप में बिस्मिल का पुनर्जन्म हुआ है और ऐसी स्थिति में शहादत से पहले बिस्मिल की अधूरी रही रचनाओं को पूर्ण करने का दायित्व उन्हें स्वतः ही हासिल हो जाता है. पूरी पुस्तक अवैज्ञानिक तर्कों से भरी है जिसमें वे कभी गणेश शंकर विद्यार्थी को वकील लिखते हैं तो कहीं किसी दूसरे की रचना को रामप्रसाद बिस्मिल की बताकर उसका उल्लेख करने से नहीं हिचकते. इन हरकतों से, क्रांतिकारियों के बारे में ऐसा गप्प फैलाने से ऐतिहासिक दस्तावेजों की असली पहचान खो जाएगी.

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)