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बिना बहस के बजट पास कराने का नुस्खा

यह शायद ही कभी सुना गया कि सरकारें संसद में बिना बहस के बजट पास करा लेती हैं। लेकिन इसी महीने यह भारत की लोकसभा में हुआ। विधायिका का सबसे महत्वपूर्ण कागजात वित्तीय विधेयक होता है जिसमें पूरे साल भर देश की वित्तीय मार्गदर्शिका होती है जो बिना किसी बहस के लोकसभा में पास हो गई। किसी ने भी ‘डोंटÓ का न तो तकिया कलाम सुना और न ही इसके लिए तय ढर्रों और नजीरों को ही पलटा गया।

अभी हाल लोकसभा ने बिना किसी बहस के वित्तीय विधेयक 2018 को दोनों सदनों से पास करा लिया। इसी दौरान पहली अप्रैल से शुरू हो रहे अगले वित्त वर्ष में 89.25 लाख करोड़ के खर्च की योजना भी बहुमत से पास करा ली गई। न विपक्ष था, न कोई बहस। यह सब महज 25 मिनट में निपट गया। इस विधेयक के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से थे 2018-19 के कर प्रस्ताव वे भी बहुमत से पास हो गए। इसी तरह एप्रोप्रिशन बिल भी जिसमें 99 सरकारी मंत्रालयों और विभागों के खर्च का पूरा ब्यौरा था वह भी पास हो गया। तकनीकी तौर पर बजट पास तो हो गया लेकिन हाल के वर्षों में यह पहली बार ही हुआ है जब लोकसभा में उस पर न कोई चर्चा हुई और न मतदान। किसी एक मंत्रालय के लिए और ज़्यादा पैसों की मांग की भी कही कोई सुनवाई नहीं हुई।

राज्यसभा ने भी सारे एप्रोप्रिएशन बिल पास कर दिए। कई कट मोशन ज़रूर विपक्षी दलों से आए थे। उन्हें खारिज करते हुए ये पास हुए।

यह सब उस दौरान हुआ जब विपक्ष पंजाब नेशनल बैंक और दूसरे सरकारी बैंकों में हुए सबसे बड़े बैंक घोटालों के आरोपियों को देश से बाहर सुरक्षित तौर पर निकल भागने के आरोपों पर बहस के लिए ज़ोर दे रहा था। कावेरी जल विवाद और आंध्र प्रदेश को ‘स्पेशल पैकेजÓ की मांग भी विपक्ष ने उठा रखी थी लेकिन इसी दौरान सरकार ने बजट पेश करने का फैसला लिया और उसे बिना बहस मंजूर करा लिया। इसी के जरिए सांसदों, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के वेतन भी खासे बढ़ाने पर मंजूरी भी हासिल कर ली गई। संसद सत्र अभी छह अप्रैल तक चलना है लेकिन संसद ठप्प हैं । विपक्ष चलने नहीं दे रहा। यह कहना है तीन चौथाई बहुमत पाने वाले दल के नेताओं का।

मुख्य विपक्षी दलों में कांग्रेस, एनसीपी, टीएमसी, सदन में वाकआउट करते हैं जबकि टीडीपी, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस सदन के वेल में नारेबाजी करते हैं। लेकिन इन बातों का कोई असर वित्त विधेयक की मंजूरी पर लोकसभा में नहीं पड़ा जहां वित्त विधेयक बहुमत से पास हो गया। रिकार्ड के लिए यह हो गया कि 85,315 करोड़ रुपया उन राज्यों को मिलेगा जिन्हें जीएसटी लागू करने से नुकसान हुआ है।

भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सत्ता चला रही एनडीए का लोकसभा में पूर्ण बहुमत हैं। वित्त बिल और एप्रोप्रिएशन बिल के पास होने से बजट को मंजूर करने की प्रक्रिया पूरी हो गई। नियमों के अनुसार दोनों ही विधेयकों को राज्यसभा के हवाले कर दिया गया। चूंकि ये मनी बिल हैं यदि राज्य सभा इसे चौदह दिन में वापस नही करती तो से पास माने जाएंगे। बजट पर संसद की मुहर का लगना संवैधानिक दायित्व हैं जिसके बिना सरकार अपने कामकाज में एक भी पैसा खर्च नहीं कर सकती। इस कारण इस पर बहस होती है और आम राय से इसे पास किया जाता है लेकिन उस पूरी प्रक्रिया को इस बार नज़रअंदाज किया गया। बजट पास मान लिया गया।

मोदी सरकार का तर्क है कि जब विपक्ष सदन में हल्ला हंगामे में जुटा था तो कैसे बजट पर बहस कराई जाती। इसी कारण तय प्रक्रिया का अनुगमन नहीं किया गया। लेकिन सरकार के इस तर्क को कोई मानने को तैयार नहीं है सिवा सत्ता चला रही पार्टी के। अनुशासनहीनता की बातें तो संसद के गलियारे में दशकों से सुनाई देती रही हैं। लेकिन इस तरह बजट पास कराने की बात आम तौर पर सुनाई नहीं देती,ऐतिहासिक तौर पर सरकारें संसद के अधिकारों को सर्वोच्च मानती हैं और आम राय बनाने की कोशिश करती हैं। ऐसा शायद ही कभी हुआ है जैसा इस साल संसद में दिखा।

ज़रूरत है कि भाजपा सरकार लोगों का भरोसा संसद में जगाए । विधायिका के प्रति अविश्वास न बढ़ाए जैसा कि बजट को बिना बहस पास करा कर किया। सरकार को साथ लेते हुए अपनी भूमिका जतानी चाहिए थी।

विपक्षी दलों ने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को एक कड़ा पत्र भेजा जिसमें पूछा गया कि सरकार ने विपक्ष को बिना पूर्व सूचना दिए बगैर केंद्रीय बजट पर मतदान कैसे करा लिया। विपक्ष की मुख्य पार्टी कांग्रेस के अनुसार टीडीपी और एआईडी एमके का विरोध प्रदर्शन तो सरकार की ओर से कराया जाता रहा है। क्योंकि वे एनडीए में भी हैं। ऐसा इसलिए किया गया जिससे नीरव मोदी घोटाले पर से लोगों का ध्यान बांटा जा सके। यह पत्र सुमित्रा महाजन को सौंपा सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने जिसमें मल्लिकार्जुन खडगे, ज्योतिरादित्य सिंधिया, माकपा सांसद मोहम्मद सलीम, आर जेडी सांसद जेपी यादव आदि थे। विपक्षी एकता में दरार तब दिखी जब तृणमूल के सांसदों ने इस पत्र पर दस्तखत नहीं किए।

विपक्षी नेताओं का आरोप था कि पिछली बिजिनेस एडवाईजरी कमेटी की बैठक में सरकार ने छह मंत्रालयों जिनमें कृषि भी था उस पर बहस के लिए समय नियत करने की बात कही थी लेकिन बजट पर मतदान करने के लिए तारीख और समय तय नहीं हुआ था। इससे पता चलता है कि सरकार में कितना अंहकार और अहं है जिसके चलते तमाम वित्तीय मामलों पर संसद में बहस कराने की बजाए उससे बचने की कोशिश होती है।

विपक्षी दलों ने अध्यक्ष को यह भी याद दिलाया कि वे अभी हाल हुए नीरव मोदी द्वारा किए गए बैंकों में वित्तीय घोटालों पर बहस की मांग कर रहे हैं। सरकार इस मामले पर आगे नहीं आ रही है जिससे सदन की कार्रवाई सामान्य तौर पर चल सके। दूसरी ओर सरकार इस बात पर आमादा है कि पूरा बिल (केंंद्रीय बजट) बिना बहस के पास हो जाए।

लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे ने कहा कि टीडीपी और अन्नाद्रमुक, एआईए, डीएमके के विरोध प्रदर्शन तो एनडीए सरकार की ओर से चलाए जा रहे प्रदर्शन हैं जिससे बहस इस मुद्दे पर न हो कि कैसे नीरव मोदी ने सरकारी पंजाब नेशनल बैंक को 12,000 करोड़ से भी ज़्यादा का चूना लगा दिया। आखिर फिर  संसद सत्र बुलाने की वजह ही क्या है जब बिना बहस मुबाहिसे के केंद्रीय बजट बहुमत से ही पास कराना है। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वह देश को गुमराह कर रही है कि विपक्ष ही सदन नहीं चलने दे रहा।

खडग़े ने कहा जब टीडीपी सांसद प्लेकार्ड लेकर आते हैं तो मिनटों में सदन स्थगित हो जाता है जबकि सस्पेंड होना चाहिए। प्रधानमंत्री भी कतई कोई दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यह संसदीय मामलों के मंत्री की जिम्मेदारी है कि वह भाजपा के सहयोगियों, भविष्य में बनने वाले सहयोगियों और समर्थकों को लेकर सदन सुचारू रूप से चलाएं।

लगभग इसी मुद्दे को आगे बढ़ाते हुए माकपा सांसद मोहम्मद सलीम ने कहा, नियंत्रित लोकतंत्र का उदाहरण संसद होता है। बजट के लिए एक छोटा रास्ता अपनाना वर्तमान शासन की एक महत्वपूर्ण नजीर है।

लेकिन विजयी होंगे नरेंद्र भाई ही

भाजपा की उपचुनावों में हार, एनडीए गठबंधन में टूट, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की रैलियों में भीड़ के बावजूद ऐसा अंदेशा है कि 2019 में भाजपा शायद ही हारे। इसकी वजह यही है कि विपक्ष अभी एकजुट नहीं है। वजह अभी भी नरेंद्र दामोदर दास मोदी तमाम विपक्षी दलों के नेताओं के बरक्स काफी ताकतवर हैं, मन से, धन से, और प्रभाव से। यह अनुमान है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के नेताओं का। इन नेताओं का कहना है कि भारत के विपक्षी दलों में भाजपा को हराने के लिए जो एकता ज़रूरी है वह नहीं बन पा रही है।
इस साल या फिर अगले साल होने वाले आम चुनाव में भाजपा को परास्त करने में विपक्ष कामयाब नहीं होगा। वजह यह है लोकसभा चुनावों में राज्यवार तरीके से जब तक भाजपा विरोधी मतों को इक_ा नहीं किया जाता तब तक 2019 में जीत की उम्मीद पालना बेकार है। विपक्ष के बड़े नेताओं की यह आलोचना भले ही विपक्षी एकता की बात कर रहे नेताओं और बुद्धिजीवियों को नागवार लगे लेकिन इसमें दम है। अमेरिकी संवाद एजेंसी ब्लूमबर्ग का तो कहना है कि यदि विपक्ष का ऐसा हाल रहा तो 2029 तक भाजपा राज करेगी।
अभी पिछले दिनों त्रिपुरा में पराजय के बाद नई दिल्ली में माकपा की पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी की बैठक हुई। इस बैठक में भी शामिल माकपा के बड़े नेताओं ने देश की हालत और विपक्षी पार्टियों का पूरा रवैया जाना-परखा। हालांकि पार्टी ने कोई प्रेस बयान नहीं जारी किया। प्रेस कांफ्रेंस भी नहीं की। लेकिन पार्टी मुख्यपत्र, ‘पीपुल्स डेमोक्रेसीÓ के संपादकीय से यह जान पड़ता है कि पार्टी में महासचिव सीता राम येचुरी अब एक किनारे हो गए हैं। वे पहले यह मानते थे कि भाजपा को परास्त करने के लिए कांग्रेस के साथ न्यूनतम कार्यक्रम पर तालमेल रखा जा सकता है। त्रिपुरा में हुई करारी हार भी बदलाव एक वजह हो सकती है।
माकपा का यह कहना है कि टीडीपी, टीआरएस, और बीजेडी भी कांग्रेस के नेत्तृव में आपसी तालमेल नहीं चाहती। खुद माकपा भी कांग्रेस के साथ भाजपा विरोधी एकता के पक्ष में नहीं रही है। केरल में कांग्रेस और माकपा का सीधा-सीधा मुकाबला रहा है। यानी क्षेत्रीय पार्टियों का जहां कांग्रेस से मुकाबला है वे कतई सीटों पर तालमेल या कांग्रेस से तालमेल नहीं रखेंगी। हालांकि तृणमूल का नाम नहीं लिया गया है। फिर भी पश्चिम बंगाल में तो टीएमसी की प्रमुख प्रतिद्वंदी माकपा-कांग्रेस ही है। जाहिर है ममता बनर्जी ऐसा कभी नहीं चाहेंगी। इसलिए वे भाजपा- कांग्रेस के बिना वैकल्पिक मोर्चे के पक्ष में उत्साहित भी दिखती हैं।
तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में वैकल्पिक मोर्चा पर भी माकपा खासे संदेह में है। वजह साफ है कि ममता ऐसा मोर्चा चाहती है जिसमें कांगे्रस न हो (सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों के नेताओं को भोजन पर बुलाया था उसमें वे शामिल भी नहीं हुई थीं)। भाजपा विरोधी वोट जुटाने में राजद और द्रमुक पार्टियां ज़रूर कामयाब होंगी क्योंकि वे कांग्रेस विरोधी हमेशा रही हैं। इनकी राजनीति भी बड़ी साफ है।
माकपा का मानना है कि मोदी विरोधी वोटों के लिए ज़रूरी है कि राज्यवार एका पर जोर गंभीरता से हो। उत्तरप्रदेश में सपा -बसपा तालमेल एक बेहतर नमूना है भाजपा को पलटी देने में। अगर उत्तरप्रदेश में ज़्यादातर सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की हार होती है तो सदन में उनका बहुमत नहीं हो सकता। लेकिन दिन बीतने के साथ पार्टियों के आपसी अंतर्विरोध बढ़ेगें। इन्हें तेज करने में तमाम ताकतों की मदद ली जाएगी और भाजपा कामयाब होगी अंतविरोधों की आंच पर अपनी रोटियां पकाने और खाने में। यादव अखिलेश-मायावती तालमेल भी टूट जाएगा। उत्तरप्रदेश में 80 सीटें हैं। सपा-बसपा में जातिवादी और वर्गवादी भेद परंपरा से बहुत गहरे हैं। सपा के यादवों के ओबीसी एलायंस और बसपा के दलितों में गठबंधन को कभी भी टिकाऊ न होने देने में भाजपा और कांग्रेस के जातिवादी नेता हमेशा अड़ेंगे लगाएंगे। इसकी वजह जनता का पढ़ा-लिखा न होना और गंगा जमुनी तहजीब को अनिवार्य न मानना है। भाजपा ने चार साल मे जो गलतियां सुशासन के तौर पर की हैं और पूरे देश में असंतोष फैलाया है। उससे जनता केा गुमराह करने में भाजपा और संघ परिवार तमाम राज्यों में लगातार सक्रिय है।
लगभग ऐसी ही समस्या बिहार में राजद और जद(यू) के साथ है। पहले एक महा-गठबंधन बना था लेकिन भाजपा-संघ परिवार के नेताओं का प्रयास कामयाब नहीं रहा।
यह सही लगता है कि कांग्रेस भाजपा को कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की कुल 65 सीटों पर जोरदार टक्कर दे। इन राज्यों में कांग्रेस का लगभग सीधा मुकाबला है। लेकिन इन राज्यों की जनता के बीच अन्य विपक्षी दलों ने कभी ज़मीनी स्तर पर न संपर्क बनाए हैं और न उनकी दिलचस्पी ही रही। इन सभी प्रदेशों में मोदी के पुराने भाषणों से ही काम चल जाएगा। जमीनी स्तर पर संघ परिवार लंबे समय से सक्रिय है ही।
विपक्ष में आज भी नेताओं में परस्पर ईगो जनता के बीच निष्क्रियता, और क्षेत्रीय किस्म के दबावों और जातिवादी उन्मादों का असर ज़्यादा है। इसके चलते भाजपा और संघ परिवार की सक्रियता के चलते 2019 में भी मोदी -शाह की जोड़ी कामयाब रहेगी।

भाजपा का राज्यसभा में अब बहुमत 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का अब लोकसभा ही नहीं, राज्यसभा में भी अच्छा खासा बहुमत है। उत्तर भारत और उत्तर पूर्व में भाजपा की ऐतिहासिक विजय के चलते भाजपा सदन में बहुत अच्छी स्थिति मेें है। राज्यसभा में यह अब बड़ी पार्टी है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेतली, भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिंह राव, सपा की जया बच्चन (सभी उत्तरप्रदेश से), कांगे्रस के नेता अभिषेक मल्ल सिंघवी (पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांगेे्रस के समर्थन से) और राजीव चंद्रशेखर (कर्नाटक से)विजयी हुए। माकपा के नेतृत्व वाले एलडीएफ के वीरेंद्र कुमार जो जनतादल (यू) की केरल इकाई के अध्यक्ष हैं वे कांग्रेस को हराकर जीते।
उत्तरप्रदेश में राज्यसभा की दस सीटों में से आठ तो भाजपा को मिलनी ही थीं। नौंवी सीट पर विधायकों के दिल शायद नहीं मिले इसलिए बसपा के ही विधायक ने पार्टी ह्विप का उल्लंघन किया और भाजपा को अपना वोट दिया। निर्दलीय राजा भैया पहले शायद इस गठबंधन के हक मेें थे लेकिन बाद में उन्होंने मतदान में भाग ही नहीं लिया। लाभ भाजपा को हुआ। व्यक्तिगत नफा नुकसान और बदलती राजनीति के गुणाभाग में भाजपा को उत्तरप्रदेश से राज्यसभा में एक और सीट पर कामयाबी हासिल हुई।
भाजपा के प्रत्याशी अनिल अग्रवाल ने बसपा उम्मीदवार भीमाराव अंबेडकर को हराया। इस एक सीट को पाने के लिए सपा-बसपा-कांग्रेस  गठबंधन और भाजपा व समर्थकों के बीच क्रासवोटिंग और दूसरे प्रबंधन प्रयास भरपूर हुए लेकिन जीत भाजपा प्रत्याशी की ही हुई।

सवालों को लांघती राजनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण के बाद कहा था कि,Óतेलंगाना को पृथक राज्य बनाने की मंजूरी देकर कांग्रेस ने अपना चुनावी स्वार्थ साधा और जल्दी की। यह मोदी का कहना आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू द्वारा ‘भाजपाÓ से गठबंधन तोड़ लेने की धमकी के परिपेक्ष्य में तुष्टीकरण का ही वाक्य था।

नरेंद्र मोदी जैसे दूरदर्शी प्रधानमंत्री ने इस बीज़ वाक्य के जरिए भारतीय जनता पार्टी की तेलंगाना की लंबी राजनीति परंपरा को समर्थन देने की बात नकार दी। जिसके तहत भाजपा के सत्ता में आते ही सौ दिनों के भीतर तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने की आडवाणी -घोषणा अमल में लाने की बात कही। उधर सुषमा स्वराज ने संसद में तेलंगाना के उग्र छात्र आंदोलन को खुला समर्थन दिया।

‘तेलंगानाÓ जनता का आंदोलन था। इंदिरा गांधी के ज़माने में बंदूक के बल पर इसे दबा दिया गया था। हाल ही में तेलंगाना आंदोलन के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में नई चुनौतियों को स्वीकार कर आग के मैदान में उतरा था, और सफल हुआ। आज के चंद्रशेखर राव तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं।

उन्हें पता था कि चंद्रबाबू के मोह में मोदी तेलंगाना जन आंदोलन के इतिहास को नकार कर उसकी स्थापना में कांग्रेस की दया को आज आधार बना रहे हैं। यही आक्रोश और वजह राव ने अपने भाषण में जताया भी था। जिस पर भाजपा ने हंगामा किया। दरअसल तेलुगु भाषा में करीम नगर में जहां वे बोल रहे थे वहां ‘वाडूÓ (वो) ईडू (मे) वाडू यानी मोदी के प्रति संबोधन में प्रयुक्त शब्द और ईडू अर्थात कांग्रेस के प्रति उदबोधन शब्द केसीआर के मुख से जन सभा में निकले।

मुख्यमंत्री राव का कहना था कि तेलंगाना के लिए ‘वोÓ क्या कर देगा और ये क्या करेंगी? भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपने दिल पर पत्थर रख कर मुद्दा बनाया, हालांकि मोदी के तेलंगाना नकार के बाद भीतरी रूप से बगारू,दत्तात्रेय, किशन रेड्डी, राजा सिंह, लक्ष्मण राव आदि भाजपा नेता नाराज़ थे।

केसीआर को तेलंगाना जनता का आज समर्थन प्राप्त है। वे जनता की ओर से ही बोल रहे थे। ऐसा टीआरएस का कहना था। लेकिन नलगोडा में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह द्वारा पार्टी के हित में आगामी चुनावी सेंध लगाने के बाद टीआरएस में हलचल का पैदा होना स्वाभविक है क्योंकि टीआरएस ने स्थानीय एमआईएम पार्टी के सहयोग से यह स्वप्न पाल रखा है कि ज्योति बसु की तजऱ् पर केसीआर का राज 25 वर्षों तक अडिग़ और अचल रहेगा और असदुद्दीन ओवैसी से आपसी सहयोग भी जारी रहेगा ।

के चंद्रशेखर राव ने ‘उने इने अरे तूरेÓ की राजनीति के चलते भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री मोदी का अपमान किए जाने की माफी की मांग पर अपनी पार्टी द्वारा जवाबी हमले जारी रखें। मुख्यमंत्री के पुत्र केटीआर द्वारा गलती-स्वीकार की स्थिति के बावजूद यह मुद्दा छाया रहा।

दरअसल आज संसद से लेकर जन सभाओं तक राजनीतिक भाषणों की भाषा मर्यादा की सीढिय़ों से उतर रही है चाहे प्रधानमंत्री द्वारा रेणुका चौधरी के प्रति व्यक्त टिप्पणी हो, या केसीआर द्वारा व्यक्त अपने शब्द। कुल मिलाकर यह विवाद सिमट गया है किंतु इसके गर्भ से जो मतभेद उभरे हैं उससे आज के चंद्रशेखर राव वैकल्पिक तीसरे मोर्चे की संभावना से जुड़े हैं। असदुद्दीन ओवैसी द्वारा आनन फानन में तीसरे मोर्चे की बात छेडऩे और केसीआर को उसके अध्यक्ष की पेशकश करने से राजनीति गर्मा गई है। ममता और अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने भी अपना समर्थन के चंद्रशेखर राव को देने का ऐलान किया है।

इधर इस बात के तूल पकडऩे पर अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों और सभ्रांत जातियों के प्रतिनिधियों ने ‘प्रगति भवनÓ मे जाकर हज़ारों की संख्या में मुख्यमंत्री राव से भेंट की और उन्हें अपना समर्थन बिना शर्त देने की घोषणा की।

इधर भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं में यह उम्मीद थोड़ी-थोड़ी नज़र आने लगी है कि त्रिपुरा के चुनाव परिणामों की तजऱ् पर उनके भाग्य की झोली में 2019 के चुनाव में तेलंगाना आ सकता है।

भारतीय जनता पार्टी के प्रादेशिक और स्थानीय नेताओं से बातचीत करने पर भान होता है कि दक्षिण में ‘भाग्यवादÓ पर टिकी भाजपा अब भविष्य के सपने देख रही है। उसके पास विरोध में उठाने के लिए तेलंगाना में न मुद्दे ही हैं न कोई चुनावी रणनीति। सबके सब बिखरे पड़े हैं और अमित शाह के चमत्कार के फेर में उलझे है।

कुछ का कहना है कि बंडारू दतात्रेय को मोदी ने सत्ता से निष्कासित कर दिया है। इसके चलते वे अब खामोश हो गए हैं। मोदी द्वारा मेट्रो रेल के उद्घाटन पर भी वे समारोह में नहीं आए थे। ऐसी स्थिति में सिर्फ विधायक किशन रेड्डी का चेहरा मुख्य रूप से भाजपा की ओर से 2019 के चुनाव में आगे रहेगा। मोदी और अमित शाह दोनों तेलंगाना में युवा नेतृत्व ही चाहते हैं।

इधर तेलंगाना सरकार की फाँस बने हैं कोदण्ड राम रेड्डी जो तेलंगाना संयुक्त कार्य समिति के नेता हैं और इन दिनों तेलंगाना सरकार के खिलाफ बड़े स्तर पर आंदोलन छेड़ रहे हैं। उनकी लड़ाई के मूल में केसीआर द्वारा छात्रों की अवहेलना और उन्हें रोज़गार देने के मामले में अधिकारों से वंचित रखा जाना बताया जाता है। हाल ही में पुलिस दमन का एक उदाहरण तेलंगाना में देखने में आया है और वह है कोदण्ड राम के मिलियन मार्च को कुचल देने वाला। ऐसे में कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी भी केसीआर के पीछे हाथ धोकर पड़ी है।

इन सब के चलते टीआरएस की रातों की नींद उड़ गई हैं क्योंकि चुनावी बदलाव की चिंगारियां, भावी राजनीति का विकास करती हैं। तेलंगाना में कौन सी खिचड़ी पक रही है, सब जानते हैं। विशेष कर अमित शाह के आगमन के बाद बस्ती-बस्ती में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय खुल रह हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं का समर्थन उन्हें पृष्ठभूमि में प्राप्त हो रहा है।

फिलहाल एमआईएम के समर्थन से केसीआर ने राज्य सभा के चुनाव में अपने भांजे संतोष कुमार, लिंगैया यादव और बी प्रकाश को मैदान में उतारा है। ऐसे में अपने दम पर कांग्रेस के राज्य सभा उम्मीदवार जीतने के स्थिति में नहीं है। टीआरएस की तीसरी सीट पर असदुद्दीन ओवैसी का पूरा दखल है। यह मामला आपसी तौर पर सुलझ जाएगा।

फिलहाल तेलंगाना विधानसभा और विधानपरिषद में बजट सत्र चल रहा है जिसमें किसानों के अलावा जन कल्याण की योजनाओं, विकास के कार्यक्रमों को बल दिया गया है।

इस त्रिशंकुवादी राजनीतिक हलचलों में भारतीय जनता पार्टी का हस्तक्षेपी चेहरा सबसे ताकतवर नज़र आ रहा है, क्योंकि यह एक ऐसा मोड़ है जिसमें इतिहास को एक बार और खंगाला जाएगा । अमित शाह ने अपनी पिछली यात्रा में रज़ाकार (देश द्रोही) आंदोलन में मरने वालों और निज़ाम के विरुद्ध रहे सेनानियों से मिलकर हिंदू मतों के एकीकरण का प्रतिमान गढ़ा था। देखना है वह के चंद्रशेखर राव के मुस्लिम समर्थित तेलंगाना के भविष्य को कितना सुरक्षित कर पाएगा। इस सवाल के पीछे वर्तमान बोलता है और जीत की संभावना के द्वार तक तीसरे हाथ के पहुंचने से भी इंकार नहीं कर सकता है। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की कूटनीति अपनी पार्टी का भविष्य गढऩे में औरों की अपेक्षा अधिक सक्रिय दिखाई देती है। जहां उनके पास इतिहास की आग भी है और वर्तमान की साख भी है।

स्वार्णिम तेलंगाना के सपने स्थानीय जनता उन्हें लेकर ही देख रही है क्योंकि शांतिपूर्वक हिन्दू मुस्लिम एकता वादी जीवन की मिसाल सिर्फ चंद्रशेखर राव ही कायम कर सकते हैं।

भाजपा-कांग्रेस से दूर वैकल्पिक मोर्चे की पहल

भाजपा-कांग्रेस से दूर वैकल्पिक मोर्चो बन रहा है पर क्षेत्रीय पार्टियों में महत्वपूर्ण माकपा इसमें फिलहाल नहीं है।  हालांकि इसकी तुलना में कम अनुभवी दक्षिण भारत के राजनीतिक दल इस बार वैकल्पिक मोर्चा बना रहे हैं लेकिन इसमें अभी माकपा की कहीं कोई चर्चा भी नहीं है। जबकि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस वैकल्पिक मोर्चे का स्वागत किया है।
अभी पिछले दिनों कोलकाता में भारतीय संघ में शामिल सबसे नए प्रदेश (29वें) तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने 19 मार्च को बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी से मुलाकात की। दोनों ही नेताओं ने भाजपा और कांग्रेस विरोधी दलों को एकजुट करने और देश में तालमेल और गठजोड़ की नई दिशा तलाशने की संभावनाओं पर राय-मश्विरा किया। दोनों नेताओं ने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए वैकल्पिक मोर्चे पर बातचीत हुई।
इस वैकल्पिक मोर्चे की केंद्रबिंदु ममता बनर्जी इसलिए हैं क्योंकि वे 10 साल से भी ज्य़ादा समय राष्ट्रीय राजनीति में और केद्र सरकार की विभिन्न सरकारों में बतौर केंद्रमंत्री काम कर चुकी हंै। उनके अनुभवों का लाभ वैकल्पिक मोर्चे में शामिल होने वाले दल उठाएंगे। इस महीने के अंत में एक बैठक चंद्रबाबू नायडू के साथ भी होगी। यह चकित करने वाली स्थिति है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बंगाल सरकार में शामिल रहीं वाम पार्टियां राजनीतिक तौर पर माकपा को और मजबूत करने के लिए उसके साथ टिके रहने को हाल-फिलहाल महत्व नहीं दे रही हैं। उधर यूपीए के साथ बेहद महत्वपूर्ण गठबंधन बनाए रखने वाली वामपार्टियों ने 2008 में यूपीए से अपना नाता तोड़ा। उसके बाद वे लगातार कमज़ोर होती गई।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री जहां इस बात को लेकर बहुत साफ थे कि वैकल्पिक मोर्चाे  गैर भाजपा-गैर कांगेस दलों का मोर्चा होगा वहीं ममता बनर्जी ने सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया और मोर्च में कांगे्रस को शामिल करने या ने करने पर कोई साफ बात कहने से भी बचीं। देश में एक वैकल्पिक कार्यसूची और वैकल्पिक राजनीतिक ताकत की ज़रूरत पर दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि हम देश के लिए एक वास्तविक संघीय मोर्चा बना रहे है जिसमें वे नेता शामिल होंगे जो वैसा ही सोचते हैं। जब सभी नेता एकजुट होंगे तभी बातें और साफ होंगी। ममता ने कहा कि यह एक अच्छी शुरूआत है। यदि राज्य मजबूत होंगे तो देश मजबूत होगा।
हमने अभी संवाद शुरू किया है। हमें कोई जल्दबाजी नहीं है। जो राजनीतिक पार्टी देश पर राज करती है उन्हें यह नहीं मानना चाहिए कि वे जैसा चाहेंगे, राज करेंगे। सभी दलों को अपना नज़रिया रखने का अधिकार है। राव जो कुछ कह रहे हैंं। उससे मैं सहमत हूं। उन्होंने अपनी राय दी। इसमें नुकसान क्या है? राहुल ने कल अपनी राय दी थी उन्होंने हमसे कुछ पूछा थोड़े ही था।
यह पूछने पर कि प्रस्तावित मोर्चे का कौन नेतृत्व करेगा। राव ने कहा कि संगठित और संघीय नेतृत्व होगा। हालात से नेता सीधे बनते हैं। देश को बदलना ही होगा इसे लंबी कूद लेनी होगी।

आसां नहीं डगर कर्नाटक की

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एक रैली में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या को सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री बताने के चक्कर में गलती से अपने ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार येदियुरप्पा का नाम ले बैठे। हालांकि बगल वालों ने उन्हें उनकी गलती का अहसास करवा दिया। इस पर अपनी गलती को सुधारने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इतने समय से येदियुरप्पा जी उनके साथ हैं। कर्नाटक में 12 मई को चुनाव होने को हैं। प्रदेश में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में है लेकिन चुनाव मैदान में जेडी(एस) और दूसरी पार्टियां भी हैं।
कर्नाटक क/े मुख्यमंत्री सिद्धारामैया ज़मीनी स्तर पर मतदाताओं को कांग्रेस के साथ जोडऩे में सिद्धहस्त हैं लेकिन उनका मुकाबला उस पार्टी से है जो कम सीटें पाकर भी अपनी सरकार बनाने में सक्षम है। यह पार्टी बूथ स्तर से ही अपने कार्यकर्ताओं को संगठित करने और हार को जीत की हवा में तब्दील करने में माहिर है लेकिन मुख्यमंत्री ने राज्य के 17 फीसद लिंगायत समुदाय को साथ लेने के लिए हिंदुओं से अलग धर्म और अलग झंडा (19 मार्च) को देने की घोषणा की है वह केंद्र के पाले में है। अल्पसंख्यक की जो घोषणा है उसका अच्छा लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। हालांकि खुद येदियुरप्पा भी लिंगायत हैं लेकिन कई मुद्दों पर लिंगायत आज उनसे असहमत भी हैं। खुद उन्होंने ही लिंगायत को अल्पसंख्यक दर्जा देने की मांग 2013 में की थी। उस समय केंद्र में यूपीए सरकार थी। अब सिद्धारमैय्या ने फैसला लेकर एनडीए में शासित केंद्र के पाले में गेंद डाल दी है।
भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में एनडीए की सरकार है। कर्नाटक में अर्से से भाजपा के केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और पीयूष गोयल ने कमान संभाल रखी है। इनका हाथ बंटाने के लिए राजीव प्रताप रूडी और स्मृति ईरानी प्रदेश की जनता में अपनी छाप छोड़ते रहे हैं। जानकारों के अनुसार येदियुरप्पा भाजपा के प्रस्तावित मुख्यमंत्री ज़रूर हैं लेकिन सरकार बनाने की स्थिति में यह जिम्मेदारी किसी युवा नेता को भाजपा आलाकमान दे सकता है।
यह अंदेशा अभी हाल हिमाचल में दिखा था। भाजपा के कद्दावर नेता प्रेम कुमार धूमल के नाम पर राज्य में चुनाव लड़ा गया। धूमल खुद चुनाव हार गए और मौका मिला एक युवा नेता जयराम ठाकुर को । यों भी येदियुरप्पा को अपने खास प्रत्याशी चुनाव में उतारने का मौका नहीं दिया गया है।
इसके ठीक विपरीत कांग्रेस ने मुख्यमंत्री सिद्धारामैया पर पूरा यकीन किया है और उन्हें ही राज्य में चुनाव रणनीति बनाने की जिम्मेदारी भी सौंपी है। अपने पूरे कार्यकाल में सिद्धारामैया ने कांग्रेस चुनाव घोषणा पत्र के 90 फीसद कार्यों को अमली जामा पहनाया है। कृषि से लेकर पोषक आहार और शहरों में साफ-सफाई और विकास में उनकी मुहर दिखती है। इसके ठीक विपरीत येदियुरप्पा की तस्वीर एक किसान की तो है लेकिन उन पर भ्रष्टाचार के ढेरों आरोप भी रहे हैं। सिद्धारामैया ने कर्नाटक के दूर-दराज गांवों में ‘अन्न-भाग्यÓ आहार सुरक्षा योजना चलाई जिसे जनता ने बहुत पसंद किया। उन इलाकों में भाजपा समर्थक भी इस योजना को बहुत पसंद करते हैं।
कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक में चुनाव की घोषणा के पहले तीन बार दौरे किए। उनके दौरों में जनता की खासी भीड़ रही। भाजपा जहां प्रदेश में मतदाता को धर्म और जातियों में अलग कर वोट इक_ा करने की रणनीति में जुटी है, वहीं राहुल गांधी मंदिरों में जा रहे हैं। साथ ही वे मस्जिद , गिरजाघर वगैरह में भी जा रहे हैं। उन्होंने प्रचार अभियान में अपनी गंभीरता बनाए रखते हुए भाजपा की नीतियों की आलोचना करते हुए जनता का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के पक्ष में किया है।
कांग्रेस ने कर्नाटक में स्थानीय मुद्दों और पार्टी के अच्छे काम को जनता के सामने सबूत के तौर पर रखा हैं जबकि भाजपा का प्रचार में खासा आक्रामक रुख है। चुनावी रणनीतिकार मानते हैं कि जद (एस) का भाजपा के साथ अंदरूनी तालमेल है। हालांकि कर्नाटक के कई शहरों और गांवों में बिहार-बंगाल में अभी हाल में हुई हिंसा की घटनाओं से बेचैनी भी है।
भाजपा और संघ परिवार के लोग राज्य में बिगड़ती कानून-व्यवस्था को मुद्दा बना रहे हैं। वे मानते है कि धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण से जीत के आसार बढ़ेंगे। जबकि कांग्रेस का जोर सांप्रदायिक शांति और विकास पर है। काफी समय से विभिन्न पार्टियों के चुनाव प्रचार से कर्नाटक में मतदाता ने अपना मन लगभग बना लिया है। मई महीने में ही 18 तारीख को नतीजों के आने पर पता चलेगा कि कौन जीत की ओर है।

बिहार में आ ही गई नई मुसीबत

बिहार ने 23 मार्च को अपने अस्तित्व में आने के 106 साल पूरे होने के अवसर पर जोर-शोर से बिहार-दिवस मनाया। लेकिन ठीक इसी समय, राज्य के कई शहरों में सांप्रदायिकता की आग भड़क उठी है। वे दंगों की स्थिति का सामना कर रहे हैं। क्या बिहार के पास दंगों और उपद्रव का कोई नया दौर देखने का समय बचा है? क्या इसे इन चीजों में वक्त गंवाना चाहिए। जातिवाद से झुलस रहे इस राज्य में मज़हबी जनून इसे और भी पीछे ले जाएगा।

वैसे तो राज्य की सरकार ने बिहार दिवस के अवसर पर राज्य के विकास का ख्ूब ढिंढोरा पीटा है और विकास दर, व्यापार की सहूलियत और सड़क से लेकर इनफ्रास्ट्रक्चर के विकास वे सारे दावे किए जो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के प्रचलित जुमले हैं।

बिहार की बदहाली को जानने के लिए सबसे पहले वहां की शिक्षा व्यवस्था पर नजर डालनी चाहिए। कालेज और विश्वविद्यालयों की हालत काफी खराब है। विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षक की नियुक्ति की बात जाने दीजिए, काम कर रहे शिक्षकों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है। रिक्तियों की संख्या काफी बढ गई है और उनके भरने के कोई आसार नहीं हैं। सत्र भी दो से तीन साल की देरी से चल रहे हैं।

अगर बिहार के विकास की असली तस्वीर देखनी हो तो आप रेलगाडिय़ों और प्लेटफार्मो पर खड़ी रहने वाली भीड़ को देख सकते हैं। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, आपको टिकट खिड़की पर एक न एक बिहारी मिल जाएगा। कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक किसी भी बड़े या मंझोले शहर में रिक्शा-ठेला खींचने वाले, सब्जी-भाजी और पान की दुकान चलाने वालों में उत्तरप्रदेश और अब बिहारियों की एक बड़ी संख्या है।

इस यात्रा में सिर्फ यहां का निम्नवर्ग शामिल नहीं है। यहां के मध्य और उच्च वर्ग के लोग भी जीवन भर चलते रहने वाले यात्री बन कर ही रह गए हैं। नौकरी के लिए उन्हें बाहर जाना ही पड़ता है। स्कूल-कालेजों की बुरी हालत के कारण पढाई के लिए भी उन्हें, अपने बच्चे देश के दूसरे इलाके भेजने पड़ते हैं। कोटा में चल रहे कोचिंग संस्थान हों या महाराष्ट्र, कर्नाटक या दूसरे किसी राज्य, उनके इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कालेजों की कमाई बिहारी छात्रों के जरिए होती है। पहले लोग इस पर बहस भी करते थे। प्रतिभा तथा श्रम का पलायन बिहारी समाज को परेशान करता था। लेकिन अब इसे सामान्य मान लिया गया है।

मानव विकास सूचकांक पर यह राज्य वर्षों से अंतिम पायदान पर है। बाल विकास दर में भी राज्य बहुत नीचे है। साक्षरता के मामले में भी यह लंबे समय से राष्ट्रीय औसत से नीचे के स्तर पर बना हुआ है। पिछले साल पब्लिक अफेयर्स इंडेक्स बताने वाली रिपोर्ट आई थी जिसमें वित्तीय प्रबंधन से लेकर कानून-व्यवस्था तक के दस मानकों के आधार पर राज्यों की स्थिति का मूल्यांकन किया गया था और उन्हें उस हिसाब से दर्जा दिया गया था। इसकी रिपोर्ट में केरल को पहला और बिहार को आखिरी स्थान दिया गया था। इससे बिहार के सुशासन के बारे में कई सालों से किए जा रहे दावों का खुलासा हो जाता है।

बिहार जैसे राज्य में सांप्रदायिक हिंसा किस तरह की स्थिति ला सकती है इसका अंदाजा अस्सी के दशक के अंत (1989) में हुए भागलपुर के दंगों में हज़ार से ज्यादा मारे गए मुसलमानों व हिन्दुओं को हुई जानमाल की हानि से लगाया जा सकता है।

अब यह साफ दिखाई देता है कि जाति तथा वर्ण के पेंच को सुलझाने में यहां का समाज असमर्थ साबित हुआ है और इसने इसे बदहाली में पहुंचाने में खासी भूमिका निभाई है। औपनिवेशिक शोषण का माकूल जवाब देने में यह राज्य इसलिए असमर्थ रहा कि जाति तथा वर्ण ने उसके पैरों में भारी जंजीर डाल रखी है। यह सिलसिला आज़ादी के बाद भी कायम रहा। अतीत में बुद्ध से लेकर कबीर तक के संघर्ष के बाद भी जाति की सीढी टूटी नहीं। वर्तमान में गांधी, लोहिया, आंबेडकर और मार्क्स-लेनिन के विचारों की मजबूत उपस्थिति के बाद भी सामाजिक विषमता अभी भी कायम है। कई बार जाति की पकड़ ढीली होती दिखाई देती है, लेकिन यह फिर से प्रभावी हो जाती है और शोषण के नए रूप लेकर आ जाती है।

अंग्रेज़ों की लूट के बाद गरीब हुए बिहार को फिर से उठकर खड़ा होने का मौका ही नहीं मिल रहा है। अंगं्रेजों के आने के पहले परंपरागत कारीगरी पर आधारित इन व्यवसायों में पिछड़ों तथा दलितों का बड़ा हिस्सा शामिल था। संपन्न खेती, खूबसूरत जंगलों तथा नदियों की चंचल धाराओं ने बिहार को दुनिया के सर्वाधिक संपन्न इलाकों में बदल रखा था। भारत प्राचीन और मध्य काल में अगर कभी पहले तो कभी दूसरे नंबर (चीन तथा भारत में पहले नंबर के लिए प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी) की अर्थव्यवस्था थी तो इसमें बिहार का महत्वपूर्ण योगदान था इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि मगध में शक्तिशाली साम्राज्य पैदा हुए।

बिहार का इतिहास संघर्षों से भरा है। बंगाल में जब नवजागरण चल रहा था तो बिहार के किसान जमींदारी में पिस रहे थे और इससे मुक्ति के लिए छटपटा रहे थे। सन् 1912 में बिहार को बंगाल से अलग करने के समय बिहार एक गरीब राज्य बन चुका था। एक समय कारीगरी तथा हुनर से लैस बिहार के लोग मज़दूर बन चुके थे। पलायन का न थमने वाला सिलसिला शुरू हो चुका था। बिहार के लोकगीतों में कलकत्ते के लचकते पुल से लेकर वहां की हर सड़क और सोनागाछी जैसे सेक्स के बाजार का इतना जीवंत चित्रण है कि साहित्य में इसे रख ले।

बिहार बनने के ठीक पांच साल बाद यहां के पीडि़त किसान महात्मा गांधी को ढूंढ ले आए। उनकी खोज चंपारण तक ही नहीं थमी, नए विचारों को अपनाने का बिहार का यह प्रयास जारी रहा। साम्यवादी तथा समाजवादी विचारों को भी राज्य ने खुले दिल से अपनाया। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन और फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, इस समाज ने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। आज़ादी के बाद भी यह खोज जारी रही। डा लोहिया, जयप्रकाश नारायण, बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर चारू मजुमदार तक इस समाज को प्रेरित करने वालों की लंबी सूची है। सभी विचारधाराओं का प्रयोग-क्षेत्र रहा है बिहार।

कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की ताकतों का उदय हुआ और फिर लालू प्रसाद ने पिछड़े-दलितों की सम्मानजनक राजनीति शुरू की तो लगा कि अब सामाजिक जकडऩ कमजोर हो जाएगी। उन्होंने हिंदुत्व की उभरती ताकत को मात देने लायक सामाजिक समीकरण भी बनाया, लेकिन परिवारवाद और अवसरवाद के दलदल में वे फंस गए। वे सभी पिछड़ों की आंकांक्षा पूरी करने में भी सफल नहीं हो पाए। पिछड़े-दलितों को साथ रखने में विफलता के कारण ही समता पार्टी और फिर जद(यू) जैसे दल उभर कर आए और नीतीश कुमार-भाजपा का गंठजोड़़ सामने आया।

नीतीश कुमार का महागठबंधन छोड़ कर फिर से भाजपा के साथ आने और हिंदुत्व की शक्तियों को देशव्यापी उभार के कारण बिहार में इन शक्तियों को नई ताकत मिली है। राज्य साप्रदायिक हिंसा की चुनौती का सामना कर रहा है। औरंगाबाद, समस्तीपुर, भागलपुर तथा मुंगेर में स्थिति विस्फोटक बनती जा रही है। रामनवमी के अवसर पर औरगांबाद में बड़े पैमाने पर आगजनी और हिंसा भी हुई है। बाकी जब जगहों पर झड़प हुई और हिंसा हुई। भागलपुर में एक बड़े भाजपा नेता के बेटे की उपस्थिति से मामला और भी पेंचीदा हो चुका है।

केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अरिजीत शाश्वत के खिलाफ प्राथमिकी होने के बाद भी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका। वह कानूनी दांचपेंच का सहारा ले रहे हैं और केंद्र व राज्य की पुलिस लाचार दिखाई दे रही है। लोगों को लग रहा है कि नौकरशाही पहले की तरह काम नहीं कर रही है। राज्य के नए राजनीतिक समीकरण उसके कामकाज पर असर डाल रहे हैं। इससे अल्पसंख्यगकों के बीच असुरक्षा बढती जा रही है।

बिहार में आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने रामनवमी के अवसर का इस्तेमाल आक्रामक हिंदुत्व को आगे बढ़ाने के लिए किया। हथियारों के साथ जुलूस निकालने का सुनियोजित कार्यक्रम अपनाया गया। इन जुलूसों में भड़काने वाले नारे लगाए गए और उन्हें अल्पसंख्यकों के इलाके से ले जाया गया।

जाति के संघर्ष के कारण बिहार अपने पिछड़ेपन को दूर करने में विफल रहा है। यह उसे विपन्नता और बदहाली से निकलने नहीं देती है। नक्सलवाद और लोहियावाद के लंबे संघर्षो के बाद भी बिहार जिस तरह के जातिभेद, स्वार्थ और शोषण में फंसा है उसकी तुलना किसी भी राज्य की सामाजिक बनावट से नहीं हो सकती है। इसने दलितों पर अत्याचार के ऐसे कारनामे किए हैं जिसे इतिहास में शायद ही कभी भुलाया जा सके।

कोढ़ में खुजली की तरह सांप्रदायिकता भी अब इसमें घुस आई है। देश की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। शोषण और बेरोजगारी, गरीबी तथा बीमारी से ध्यान हटाने का इससे अच्छा उपाय अभी की सरकार को नज़र नहीं आ रहा है।

ठेकेदारी और भ्रष्ट तंत्र के सहारे पैसा कमाने वाला वर्ग इसका नेतृत्व कर रहा है। वह जातिवादी है और सांप्रदायिक भी। इसे राजनीति और नौकरशाही का संरक्षण मिला हुआ है। यह अपनी सुविधा से कभी जेडीयू, कभी आरजेडी और कभी बीजेपी में चला जाता है। हिंदुत्व इन्हीं शक्तियों को इक_ा कर रहा है।

बिहार में आज नई चुनौतियां हैं। सांप्रदायकिता से नीतीश लड़ते हैं या हथियार डालते हैं, यह देखना है। वे बिहार को विशेष दर्जा दिला पाते हैं या नहीं वे राज्य की आर्थिक स्थिति सुधार पाते हैं या नहीं। अपने नेताओं के नेतृत्व में बिहार सालों पीछे जा रहा है।

 

दिल्ली लाए गए लालू

राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को पुलिस पहरे में ट्रेन से नई दिल्ली के आल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज में विशेष इलाज के लिए 28 मार्च को एडमिट किया गया।

लालू इस समय 71 साल के हैं और 23 दिसंबर से बिरसा मुंडा जेल में हैं। उनके स्वस्थ्य की समुचित देखभाल के लिए उन्हें रांची में राजेंद्र इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज में 17 मार्च को दाखिल किया गया था। लालू डायबिटीज, ब्लडप्रेशर किडनी इंफेक्शन और हाई क्रिएटिनिनि लेवेल की शिकायत है।

लालू प्रसाद पर मुख्यमंत्री रहते हुए चारा घोटाला कांड के आरोप रहे हैं। उन्हें चारा घोटाले के चार मामलों में 2013 से सीबीआई की विशेष अदालत ने सजाएं दी हैं। अभी हाल उन्हेंं 14 साल की सजा दुमका टेजरी मामले पर सुनाई गईं थी। हालांक अदालत ने कहा है कि उन्होंने पैसे नहीं लिए। उनकी जमानत याचिका पर झारखंड हाईकोर्ट को छह अप्रैल को सुनवाई करनी है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमों के बीच पहले बिहार चुनाव के समय महागठबंधन बना था। मुख्यमंत्री के उस गठबंधन को तोड़ कर भाजपा के साथ जाने से लालू प्रसाद यादव की मुश्किलें अब बढ़ गई हैं। उनके परिवार के हर सदस्य पर केस हैं और उनकी पत्नी और बच्चों को सरकारी एजंसियां बुला कर पूछताछ करती रहती हैं। लालू प्रसाद हमेशा बहुजनों में एकता और सामाजिक न्याय की बात करते रहे हैं।

सुशासन बाबू नीतीश में भी बेरूखी!

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अब एनडीए में सहयोगी की बजाए बेरूखी पर उतर गए हैं। उन्होंने शुक्रवार (22 मार्च) को सांप्रदायिक शांति किसी भी कीमत पर बनाने के मुद्दे रखने पर भाजपा की खिलाफत की।

राज्य में अभी हाल ही हुई पराजय के बाद से भाजपा के नेता सांप्रदायिक हिंसा छेड़ रहे हैं। तमाम प्रयासों के बाद उप चुनावों मेें तीन सीट पर हुए मुकाबले में राजग (एनडीए)केवल एक ही सीट पर जीत सका। इसके बाद से अररिया, दरभंगा और भागलपुर जिलों में सांप्रदायिक तनाव घिनौना रूप ले रहा है। प्रशासन की चुस्ती के चलते पूरे मामले को किसी तरह संभाला जा सका लेकिन तनाव तो है ही।

राष्ट्रीय जनता दल ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधा है। मुख्यमंत्री उत्तेजित होकर साफ कहते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ में जिस तरह खड़ा हूं उसी तरह मैं सांप्रदायिक हिंसा नहीं फैलने दूंगा। उन्होंने पटना में हुए एक जलसे में भाजपा को झिड़काते हुए कहा, हम सहयोगी पार्टी हैं और मैं इस सरकार का नेतृत्व करता हूं।

उन्होंने एक ही दिन पहले केंद्रीय मंत्री और एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान के इस बयान का समर्थन किया था जिसमें पासवान ने मांग की थी कि भाजपा मुसलिम विरोधी अपनी छवि को छोड़े। नीतीश ने कहा, पासवान छोटे नेता नहीं है जो भी उन्होंने कहा है। मैं उनका समर्थन करता हेू। वे मुझसे मिले और हमने कई मुद्दों पर बातचीत की। हम एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करते हैं।

पासवान केंद्र में एनडीए सरकार में उपभोक्ता मामले, आहार और जन विरतण के केंद्रीय मंत्री है। उन्होंने रविवार को कहा था कि भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार का मूलमंत्र (एजंडा) है सबका साथ, सबका विकास, लेकिन जब अल्पसंख्यकों की बात आती है वहां मूलमंत्र पीछे रह जाता है। कहीं बेहतर होगा कि यह मुसलिम विरोधी छवि खत्म करे क्योंकि 2019 के चुनाव में एनडीए के लिए यही ठीक रहेगा।

उन्होंने गोरखपुर और फूलपुर मेें भाजपा की हार पर मन की बात की। नीतीश कुमार ने कहा कि वे मोर्चो में हैं लेकिन ऐसी कारगुजारी में साथ नहीं हैं। मैं कभी अल्पसंख्यकों के  मुद्दे पर समझौता नहीं कर सकता। मैंने हमेशा अपनी शर्तों पर राजनीति की है। देश प्यार, सहनशीलता और आपसी

सहयोग पर ही बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि भाजपा ने बहुत जोर दिया तभी हम इस उपचुनाव में उतरे। हम तो लडऩा ही नहीं चाहते थे। जद(यू) कभी किसी जनप्रतिनिधि के निधन से खाली हुई सीट पर चुनाव नहीं लडऩा चाहती। लेकिन भाजपा का दबाव था। हमें नतीजों का पूर्वाभास था इसलिए हम इन सीटों पर नहीं लडऩा चाहते थे।

कांग्रेस का भविष्य अब युवा सबको साथ लेकर चलेंगे

सात साल बाद आयोजित कांग्रेस के महाधिवेशन में पहली बार बतौर अध्यक्ष मुखातिब राहुल गांधी पूरी तरह मोदी सरकार पर हमलावर रहे। उन्होंने 2019 के चुनाव को रूपक की तरह गढ़ते हुए ‘धर्मयुद्ध’ की संज्ञा दी। खुशदिल श्रोताओं को बड़ी बेबाकी से इत्मीनान दिलाते हुए राहुल ने कहा कि ‘देश अब झूठी उम्मीदों पर नहीं जिएगा?’ नवविहान की किस्सागोई शैली में उन्होंने कहा,’सारा दारोमदार नई टीम पर होगा जो सबको साथ लेकर चलेगी…. अंतर्विरोधों को खारिज करते हुए उन्होंने शिद्दत से अहसास दिलाया कि,’अब कांग्रेस का भविष्य युवा है….’

यह एक ऐसा करारा जवाब था जो बेशक बेहिसाब सवालों की झड़ी लगा रहा था कि, ‘साल 2019 का लोकसभा चुनाव हम जीतेंगे….!’ आंतरिक शक्ति के साथ खड़े राहुल गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू के इस शाश्वत कथन को तरोताजा कर रहे थे कि,’इतिहास में ऐसे क्षण दुर्लभ होते हैं, जब हम पुराने से नए में जाते हैं। जब एक युग का अंत होता है और लंबे समय से दमित सोच को नई अभिव्यक्ति मिलती है।ÓÓ कांग्रेस के महाधिवेशन में सवालों को समेटने के लिए राहुल गांधी ने उस उत्कंठा को चुनने की पहल की कि,’…..मंच को खाली क्यों रखा गया है?’ उन्होंने इसे युवाओं के लिए’नज़रानाÓ परिभाषित करते हुए कहा,’यह मंच नौजवानों के लिए खाली रखा गया है ….’ उन्होंने तथ्यों और तर्कों के ज़रिए कहा, हम युवा और बुजुर्गों का तालमेल कर अपनी पूंजी बनाएंगे और साल 2019 में बताएंगे कि चुनाव कैसे जीते जाते हैं?ÓÓ उनके आह्वान में चुटीली खनक खासा तंज कसने वाली थी कि,’देश झूठी उम्मीदों पर जियेगा या सच का सामना करने वालों का साथ देगा?’ पार्टी पुरोधाओं का चित्रविहीन मंच साफ तौर से कांग्रेस में युग परिवर्तन के मंसूबों पर मुहर लगाने वाला था कि,’कांग्रेस अपना युवा भविष्य गढऩे को तत्पर है…’

‘वक्त है बदलाव काÓ थीम पर आधारित इस महाधिवेशन में राहुल गांधी ने भाजपा की परिकल्पना कौरवों और कांग्रेस की पांडवों से करते हुए अपने सुरों को तीखा किया ‘लोकसभा चुनाव सत्य और असत्य का महासंग्राम होगा जिसमें एक तरफ कौरवों की तरह अहंकार के मद में चूर भाजपा है तो दूसरी ओर सब कुछ हारे हुए पांडव हैं जिनके पास विनम्रता, साहस और शौर्य है।

हालांकि राहुल गांधी का भाषण अपनी नई टीम के गठन, सबको संग-साथ लेकर चलने की रूपरेखा और राजनैतिक मुद्दों के इर्द-गिर्द ज्यादा सिमटा रहा लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर राहुल पूरी तरह हमलावर रहे। कार्यकर्ताओं की नेताओं पर नकारात्मक निर्भरता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, ‘हम बीच की इस दीवार को तोड़ देंगे। अमित शाह का नाम लिए बिना उन्होंने हमलावर तेवर दिखाए कि, ‘वे ऐसे शख्स को अपना अध्यक्ष स्वीकार कर सकते हैं, जिनके ऊपर हत्या का आरोप है। लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि यह सच का संगठन है। राहुल ने नीरव मोदी और ललित मोदी के उपनामों को लेकर तंज कसते हुए कहा कि,’मोदी नाम भ्रष्टाचार का प्रतीक बन गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर मुद्दा बदलकर समस्याओं से ध्यान हटाने का आरोप लगाते हुए कहा कि, ‘क्या आप प्रधानमंत्री से ऐसी अपेक्षा कर सकते हैं, जो मरते हुए किसानों को छोड़कर योग करने के लिए इंडिया गेट चलने को कहते हों? उनके भाषण का एक महत्वपूर्ण पहलू संघ पर लक्षित यह विश्लेषण था कि,’आदिवासियों,मुस्लिमों और तमिलों पर उनकी जीवन शैली और भिन्नताओं को लेकर मीन मेख तथा भेदभाव क्यों? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं कि वे अपने तरीके से भरपूर जीवन जी सकें? उन्होंने पार्टी की अतीत की गलतियों को स्वीकार कर अपनी तरफ से लोगों को खुश कर दिया। उन्होंने कहा, ‘हमने लोगों की भावनाओं का सम्मान नहीं किया जिसकी सजा हमें बदस्तूर मिली।

उनकी दलील थी कि,’कांग्रेस का हाथ का निशान देश को जोड़कर रख सकता है। जीवन मूल्यों के प्रति भाजपा के नकारात्मक भाव पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा,’देश में गुस्सा फैलाया जा रहा है, लोगों को बांटा जा रहा है।Ó वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदों की जड़ें जमाने की कोशिश में अपनी मंशा को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा, ‘हम प्यार और भाईचारे का प्रसार करेंगे। कांग्रेस बनाम भाजपा के संदर्भ में उन्होंने कहा,’प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश थका हुआ महसूस कर रहा है। राहुल ने मोदी को प्रधानमंत्रित्व और पूंजीपतियों के बीच सांठ-गांठ एवं भ्रष्टाचार का प्रतीक बताया।

बतौर अध्यक्ष अपने 53 मिनट के भावनात्मक भाषण में राहुल गांधी ने ज़ज्बाती होते हुए यूपीए सरकार की तमाम खामियां गिनाईं और बड़ी हिम्मत से जता दिया कि,’हमसे गलतियां हुई, लोगों की भावनाओं को हम समझ नहीं पाए। नतीजतन हमें सजा दी गई और नकार दिया गया। कांग्रेस की नई पहलकदमी का खाका खींचते हुए राहुल युवाओं का दिल जीतने की कोशिश में नजर आए कि,’हम काबिल नौजवानों को आगे लाएंगे। उन्होंने रूपक गढ़ते हुए बड़े पेचीदा ढंग से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि मोदी का नाम क्रोनी कैपिटलिज़्म और पीएम के बीच सांठ-गांठ का प्रतीक है।ÓÓ उनका सवालिया अंदाज तंज भरा था कि,’मोदी ने मोदी को आपके तीस हजार करोड़ रुपए दे दिए। बदले में मोदी ने मोदी को मोदी की मार्केटिंग और चुनाव लडऩे के लिए पैसे दिए….इस पैसे से मोदी ने चुनाव जीता। मोदी पर आक्रामक होते हुए राहुल के शब्द पैनी धार में सने दिखाई दिए कि,’आपने मोदीजी के चेहरे में बदलाव देखा? अब वे सूट नहीं पहनते। उन्हें लग रहा है, गुजरात तो निकल गया, लेकिन 2019 फंस जाएगा? राहुल के तेवर बहुत तीखे थे और लोग ऐसे तालियां पीट रहे थे जैसे उन्होंने कोई नया राहुल देख लिया जो शब्दों से गेंदबाजी के हुनर तराश रहा हो?

राहुल करेंगे कार्यसमिति का चयन

इस महाधिवेशन में राहुल गांधी में नई टीम के विचार को भी आकार लेते देखा गया। कार्यसमिति को अधिक प्रभावी बनाने के लिए इस बात पर सहमति बनी कि,’अब कार्यसमिति में 24 सदस्यों का चयन राहुल गांधी ही करेंगे। अब तक 12 सदस्य मनोनीत किए जाते थे और बाकी 12 सदस्य चुनकर आते थे। कांग्रेस में कार्यसमिति अहम फैसले लेने वाला शीर्ष निकाय है। इस नई व्यवस्था के क्या कारण रहे? सूत्रों का कहना था, ‘पार्टी को राहुल के नेतृत्व में एकजुट होकर मोदी का सामना करना है, ऐसी स्थिति में 12 सीटों के लिए चुनाव तर्कसंगत नहीं होगा। राहुल गांधी ने मोदी सरकार की विदेश नीति की कड़ी आलोचना की। इस संदर्भ में लिए गए एक प्रस्ताव में कहा गया कि,’सरकार ने ऐसे हालात पैदा कर लिए हैं कि चीन को घुसपैठ का मौका मिल गया है। महाधिवेशन में कई पत्रिकाएं भी बांटी गई जो सीधे तौर पर मोदी पर हमलों से भरी थी। ऐसी ही एक पत्रिका का शीर्षक था, ‘सूट-बूट और लूट की छूट? राहुल ने कांग्रेस संस्कृति में यह कहते हुए नई परम्परा की आधारशिला रखी कि,’पार्टी पैराशूट नेताओं को नहीं बल्कि जमीनी कार्यकर्ताओं को टिकट देगी।

गहलोत को लेकर दस्तक

राहुल गांधी की इस पटकथा में महाधिवेशन के दौरान दिग्गजों की पहली कतार में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सशक्त उपस्थिति, राजस्थान की सियासी पृष्ठभूमि में उन्हें खेवनहार की तरह उकेरती रही। गहलोत दिग्गजों की पहली पांत में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निकट खड़े हैं, जबकि मनमोहन सिंह सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ नजर आ रहे हैं। राजनीतिक रणनीतिकार इस जुगलबंदी को तटस्थ नजरिए से देखने की बजाए राजस्थान में नेतृत्व से जुड़े अंर्तसंबंधों के रूपक की तरह देख रहे हैं। इस सिनेरियो पर नीम चुप्पी साधने की अपेक्षा रणनीतिकार अनकही कड़ी की तरह संभावनाओं पर मुहर लगाते नजर आते हैं कि, ‘प्रदेश की रेतीले राजनीति में कांग्रेस के नेतृत्व की अटकलें चौखट लांघ चुकी है। रणनीतिकार कहते हैं कि,’नेतृत्व को लेकर अंदर ही अंदर बहती धारा पूरी तरह गहलोत को मुख्यमंत्री पेश करने के पक्ष में है जो जन आकांक्षाओं को पूरे आवेग से प्रतिध्वनित कर रही है। महाधिवेशन में आखिरी छोर तक बैठे लोगों ने इस सिनेरियो को संतुलित उम्मीदों के साथ देखा।

सोनिया का ‘अहंकार पर वार’

बेशक प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा सरकार की सर्वाधिक कटु आलोचना उनके अहंकार को लेकर थी। सोनिया गांधी ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा,’हम अहंकारी सरकार के भ्रष्टाचार का सबूतों के साथ खुलासा कर रहे हैं। कांग्रेस के 84वें महाधिवेशन में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मिशन 2019 का आगाज करते हुए कहा, ‘अहंकारी मोदी सरकार ने कांग्रेस को मिटाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी लेकिन हमें मिटाया नहीं जा सकता। उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा,’लोग समझ गए हैं कि, ‘ना खाऊंगा और ना खाने दूंगाÓ सरीखे वादे सिर्फ ड्रामेबाजी, वोट और कुर्सी हथियाने की चाल थी। साम-दाम,,दंड-भेद का खुला खेल चल रहा है। लेकिन कांग्रेस न झुकी है और न झुकेगी? यह कहते हुए उनके उत्साह को सीमा में नहीं बांधा जा सकता था कि,’हम प्रतिशोध, पक्षपात और अहंकार मुक्त भारत बनाने के लिए संघर्ष करेंगे। उन्होंने कहा, मोदी जी, मीडिया को नजरअंदाज करने का माद्दा रखते हैं, यहां तक कि यूपीए सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं को भी, लेकिन हम 2019 में उन्हें सबक सिखाकर रहेंगे।

सोनिया गांधी ने खासकर इस सवाल पर कि साल 2019 के चुनाव में कांग्रेस के मुद्दे क्या होंगे? उन्होंने बीते दिनों मुंबई में एक निजी कार्यक्रम में दिए गए जवाब ही दोहराए कि ‘भाजपा के वादे बेशक जनता को हसीन सपने दिखाते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत तो पूरी तरह जुदा है। लोग आज भी अच्छे दिनों की बाट जोह रहे हैं। लेकिन भाजपा के अच्छे दिनों का हश्र तो वाजपेयी के कार्यकाल के ‘शाइनिंग इंडियाÓ सरीखा ही होगा।

गरीबी हटाने का संकल्प फिर

अधिवेशन में वैचारिक मंथन के लिए गरीबी उन्मूलन, फसल बीमा और बेरोजगारी सरीखे मुद्दे थे। गरीबी उन्मूलन का संकल्प दोहराते हुए कहा गया कि, ‘इसके लिए गरीबी उन्मूलन कोष बनाया जाएगा और सबसे अमीर भारतीयों पर पांच प्रतिशत उपकर लगाया जाएगा। इस राशि से दलितों और अल्पसंख्यकों के बच्चों को छात्रवृति दी जा सकेगी। मोदी सरकार के ‘स्किल इंडियाÓ पर निशाना साधते हुए कहा गया कि,’इसके तहत सिर्फ दस फीसदी प्रशिक्षित युवाओं को ही रोजगार मिल सका है। पार्टी ने एक मजबूत तंत्र बचाने की बात करते हुए कहा कि,’रियल एस्टेट को पुनर्जीवित करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे। गरीबी उन्मूलन पर पारित प्रस्ताव में कहा गया कि,’सत्ता में आने पर पार्टी किसानों की कर्ज माफी योजना फिर से लाएगी। किसानों को जमीन की नीलामी से बचाने के लिए वसूली के वैकल्पिक तरीके तलाश किए जाएंगे। मछुआरों के लिए अलग से मंत्रालय का गठन किया जाएगा। महाधिवेशन में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि,’कांग्रेस 2019 के चुनाव में समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों से हाथ मिला सकती है। एक अन्य प्रस्ताव में भाजपा पर आरोप लगाया गया कि,’भाजपा सरकार ने हर साल दो करोड़ युवाओं को नौकरी देने का वादा तोड़ कर उनके साथ विश्वासघात किया है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों को साथ कराने को कपट की संज्ञा देते हुए अव्यावहारिक बताया गया। राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि, ‘चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता बहाल करने के लिए चुनाव आयोग को पुरानी परम्परा लागू रखने का आग्रह किया जाएगा। आरएसएस को निशाने पर लेते हुए कांग्रेस ने अपने संकल्प में कहा कि,’आरएसएस और भाजपा सत्ता हासिल करने के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काने के साथ धर्म की गलत व्याख्या कर रहे हैं। धर्म ओैर राजनीति का यह मिश्रण समावेशी राजनीति के लिए जबरदस्त खतरा पैदा कर रहा है।

महाधिवेशन में ‘सच की शक्तिÓ पैनल चर्चा में मीडिया पर व्यापारिक घरानों पर नियंत्रण तोडऩे की मांग भी उठी। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा,’जिनके आर्थिक व्यापारिक हित हैं, वे इन दिनों मीडिया हाउस चला रहे हैं। उन्हें सत्ताधारियों से भय सता रहा है कि ‘कहीं उनका नुकसान ना हो जाए?Ó नतीजतन प्रतिपक्ष चाहे भी तो उसका रहस्योद्घाटन नहीं हो सकेगा? ऐसे में हकीकत जनता के सामने आएगी भी तो कैसे? उन्होंने संकल्प करने का आह्वान किया कि,’कांग्रेस सत्ता में आएगी तो मीडिया ओैर व्यापार के गठबंधन को तोड़ देगी। चर्चा में शामिल पत्रकार मृणाल पांडे का सुझाव था कि,’राजनेता भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को महत्व देने का प्रयास करें।Ó

महाभारत ही है अगला आम चुनाव

कांग्रेस के पूर्ण सत्र में महाभारत के अंदेशे के बारे में राहुल गांधी ने बड़े साफ तौर पर इशारा किया था। उन्होंने भाजपा को कौरव और कांग्रेस को पांडव बताया। राहुल ने अगले चुनाव के लिए अपना कार्यक्रम भी तय किया। अगले चुनाव को महाभारत बताने से यह बात साफ हो गई कि आगामी आम चुनाव भी कौरवों और पांडवों के बीच महाकाव्य में हुए महाभारत की ही तरह होगा। पांडव संख्या में कम ज़रूर थे लेकिन वे सही दिशा में थे।

राहुल गांधी अपनी बात में आक्रामक थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में भाजपा की भूमिका पर व्यंग्य किया, कथित क्रोनी पूंजीवाद और हिंदू मिथकों के संदर्भों को याद करते हुए उन्होंने भाजपा के उन्मादी रवैए को कौरवों का और खुद को पांडव बताया।

आगे हैे जबरदस्त लड़ाई

इसी से यह साफ हुआ कि हम बेहद कठिन चुनावी लड़ाई की ओर बढ़ रहे हैं। इसके पहले सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं के लिए रखे भोज में मेजें सजाते हुए यह संकेत दिया था। इसमें वे तमाम बातें थी जो राहुल गांधी के नेत्तृव में कांग्रेस के पुनर्जीवन को बताती थीं। उन्होंने बताया कि ‘भारत के विचारÓ मुद्दे पर और वर्तमान सरकार की शैली पर यह जंग होगी। भारत क्या भय और धमकी की संस्कृति बर्दाश्त करेगा, हिंसा पर उतारू भीड़ को सहेगा और वैज्ञानिक चेतना का उपहास उड़ाना पसंद करेगा। उन्होंने उपचुनावों में भाजपा की परेशानी बढ़ाते हुए अभी हाल हुए उप चुनावों में उसकी हार का उल्लेख भी किया।

अब राहुल गांधी ने खुद को उनकी तरह ही सोचने वाली पार्टियों के समर्थन से प्रधानमंत्री को चुनौती देने वाला बना लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर निजी हमले करते हुए उन्होंने यह भी साफ किया कि कांग्रेस बिना थके प्रचार करेगी और मोदी सरकार को विभिन्न मुद्दों पर घेरेगी।

मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अजेयता

सभी यह मानते हैं कि इस साल कर्नाटक, राजस्थान में होने वाले और इसी साल के अंत में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में होने वाले चुनावी नतीजों पर ही निर्भर करता है आम चुनाव। भाजपा के अजेय रहने के मिथक पर उत्तरप्रदेश में अभी हाल हुए उपचुनाव से सवाल उठा है। कांग्रेस का पूर्ण सत्र तब हुआ जब भाजपा और कांग्रेस का विरोध कर रही पार्टियों ने आपस में तालमेल बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी। जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने गैर भाजपा औैर गैर कांग्रेसी मोर्चा बनाने का प्रस्ताव दिया और तत्काल उनके प्रस्ताव को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाथों-हाथ लिया। इसके साथ ही यह बात साफ हुई कि सभी दल इस मुद्दे पर एकमत नहीं है। हालांकि ममता की तृणमूल कांग्रेस और राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी ज़रूर भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ होने के अलावा कई मुद्दों पर एक जान पड़ती है। इससे कांग्रेस को भी भाजपा विरोधी तमाम पार्टियों से तालमेल करने और भाजपा के 2014 के ‘अच्छे दिनÓ के वादे की सच्चाई बताने का मौका मिलता है।

सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी अब वाकई उस दौर में आ गए हैं जहां से वे चुनौती दे सकें? या आज भी वे पार्टी की वंशवादी विरासत के ही प्रतीक हैं? या क्या वे ऐसे राजनेता के तौर पर विकसित हो गए हैं कि वे राजनीति में युवाओं को साथ लेकर चल सकते हैं। अभी हाल गुजरात में उनकी यानी एक व्यक्ति की मेहनत दिखी थी जिसके बाद ही कांग्रेस का पूर्ण सत्र हुआ था। इसमें उन्होंने कुलीन नेता होने की अपनी छवि बदल दी थी। वे एक कार्यकर्ता के रूप में दिख रहे थे।

हाल में उनके प्रयासों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 132 साल पुरानी कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी अब जनता की आकांक्षाओं को समझने लगे हैं और संभावित सहयोगियों की पहचान भी उन्हें होने लगी है। इस पूर्ण सत्र में वे अगले आम चुनावों में कांग्रेस की रणनीति को बड़े ही साफ तरीके से समझा सके और उन्होंने संयुक्त मोर्चे की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया। नए नेतृत्व की योजना है कि वे राजनीतिक सृजनात्मकता को और तेज़ करें। ‘डिजिटलÓ के लिहाज से सतर्क हों और पार्टी की आंतरिक मज़बूती को और अधिक बढ़ा सकें जिसे सभी देखें और परखें।

कांग्रेस पार्टी की चुनावी युद्ध की तैयारी से यह साफ है कि वे चाहते हैं कि वैचारिक मतभेदों को दरकिनार रखते हुए भाजपा के सहयोगियों के सीमित हो रहे आधार क्षेत्रों का उपयोग कर सकें। राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब था जब उन्होंने अपनी चुप्पी छोड़ दी और मां सोनिया गांधी की छाया से अलग हो गए। सोनिया ने उस पर कहा था ‘आज वे मेरे भी बॉस हैंÓ। इसे लेकर कहीं कोई ऊहापोह नहीं होना चाहिए। यह एक रणनीतिक बयान था जिसके जरिए पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह संदेश दिया गया कि वे राहुल गांधी को अपना समर्थन दें।

राहुल ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बयान दिया जिसमें उन्होंने यह माना कि कांग्रेस लोगों की उम्मीदों को समझ नहीं पाई और उससे गलतियां हुई। यह कहने के पीछे आशय था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को यह जता देना कि उन्हें नए सिपहसालार से अब चुनौती मिल रही है।

कांग्रेस ने आगे की चुनावी लड़ाई के लिए अपने कार्यकर्ताओं में खासी स्फूर्ति भरी। यह भी जताया कि यह पार्टी ही भाजपा का विकल्प है। साथ ही यह बात भी साफ हुई कि वह उन सभी पार्टियों के साथ सहयोग की इच्छुक है जो मोदी सरकार को2019 के लोकसभा चुनावों में सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं।

पार्टी कार्यकर्ताओं से राहुल गांधी ने वादा किया है कि उनकी शिकायतों पर ध्यान दिया जाएगा। चुनाव में टिकट देने के समय बहुधा वास्तविक समर्पित कार्यकर्ताओं की बजाए नेताओं को टिकट बांट दिए जाते हैं। इस प्रक्रिया पर अब रोक लगेगी। उन्होंने कहा कि पार्टी नेताओं से कार्यकर्ताओं का मिलना अब ज़्यादा सहज होगा और युवाओं को ज़्यादा टिकट दिए जाएंगे। यह भी सच्चाई है कि कई राज्य इकाइयों में कांग्रेस में ही खासी गुटबाजी है और वे पुराने ढर्रे पर ही चलना चाहते हैं। राहुल ने इस पर संकेत दिया कि वे अनुशासन चाहते है। जिससे पार्टी की जीत के आसार किसी भी तरह कम न हों। दूसरा बदलाव जो दिखा वह था कार्यकर्ता को केंद्र में रखा जाना। राहुल गांधी ने कहा कि उन्होंने मंच को इसीलिए खाली रखा है जिससे पार्टी के अंदर के और बाहर के नौजवान जिनमें योग्यता हैं, वे यहां आएं। मंच पर इस बार लोग बैठे नहीं थे। सिर्फ नेतागण भाषण देने आते और भाषण देकर लौट जाते।

तालमेल का प्रयास

राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव में सहयोग पर जोर है साथ ही न्यूनतम साझा कार्यक्रमों पर परस्पर सहयोग की बात है जिससे भाजपा-आरएसएस को अगले आम चुनाव में परास्त किया जा सके और भाजपा की आर्थिक नीतियों को बदला जाए।

पार्टी के राजनीतिक, आर्थिक, विदेशी मामलों और कृषि, बेरोजगारी और गरीबी के जरिए समाज के विभिन्न वर्गों की चिंताएं दूर करने की कोशिश की गई। पार्टी अध्यक्ष ने अपने समापन भाषण में युवाओं और किसानों के दो वर्गों को जो मोदी सरकार से काफी निराश हो चुके हैं और वे जनसंख्या के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, उनका भी आहवान किया।

ऐसा साफ दिखा कि राहुल गांधी पूरी तौर पर प्रभुत्व में हैं। उन्होंने अपनी नई टीम भी बनानी शुरू कर दी थी। पार्टी में इस्तीफा देने का दौर दौरा भी शुरू हो गया। ऐसी खबरें भी आई कि अभिनेता राजनीतिज्ञ राजबब्बर को अपने पद पर तब तक बने रहने को कहा गया है जब तक पार्टी राज्य इकाई का नया प्रमुख नहीं चुन लेती। राजबब्बर के उदाहरण से साफ है कि पार्टी पुराने सिपहसालारों में हताशा दिखती नज़र आ रही है जबसे राहुल ने कांग्रेस प्रमुख का पद संभाला है। अभी हाल गोरखपुर और फूलपुर में लोकसभा चुनाव हुए। गोरखपुर का प्रतिनिधित्व पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ करते थे और फूलपुर लोकसभा सीट पर उनके उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का प्रतिनिधित्व था। वहां चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के प्रदर्शन से कांग्रेस अध्यक्ष काफी निराश हैं। इसी तरह गुजरात कांग्रेस के प्रमुख भारत सिंह सोलंकी ने भी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अपना इस्तीफा सौंप दिया। रिपोर्ट है कि पार्टी के और भी कई बड़े नेता आने वाले दिनों में अपने इस्तीफे देंगे।

इसके पहले गोवा कांग्रेस के अध्यक्ष शांताराम नायक (71 वर्ष) ने कहा था कि वे राहुल गांधी के भाषण से बहुत प्रभावित हुए हैं। वे पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं जिन्होंने तब इस्तीफा दे दिया जब राहुल गांधी ने कहा कि वे चाहते हैं कि युवा पीढ़ी को आगे आने और पार्टी का नेतृत्व संभालने का मौका दिया जाना चाहिए। नायक ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को अपना इस्तीफा भेज कर गोवा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने आठ जुलाई 2017 को यह पद संभाला था। उन्होंने लुई जीनो फेलेरियो से शपथ ली थी। नायक 1984 में उत्तर गोवा लोकसभा सीट पर विजयी हुए थे। राज्यसभा में भी वे दो बार रहे थे।

राहुल गांधी को जब कांग्रेस कार्यसमिति में मनोनयन करने का मौका मिला तब कुछ ही दिनों में यह सिलसिला शुरू हो गया। ऐसा समझा जाता है कि अखिल भारत कांग्रेस समिति (एआईसीसी) के प्रतिनिधियों ने हाथ उठा कर गांधी से कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों का चुनाव करने को कहा था।

अब समझदार हैं राहुल

कांग्रेस का जब पूर्ण सत्र होने को था, उसके पहले से ही राहुल गांधी परिपक्व हो चले थे। उनके बेहद अच्छे पल बर्कले यूनिवर्सटी (2017-18) के थे। उन्होंने तब यह माना था कि घमंड के कुछ तत्व ज़रूर कांग्रेस में घुस आए हैं। यह दौर यूपीए दो का था। यूपीए सरकार जो 2004 में बनी थी उसका पूरा दौर दस साल का ही था। राहुल ने सोशल मीडिया के महत्व को माना और अपनी सोशल मीडिया टीम को यह निर्देश भी दिया कि ‘इन पोस्टÓ की और ‘ऑफिस ऑफ आर जीÓ की परवाह भी करें।

‘सूट-बूट की सरकारÓ कह कर उन्होंने यह जता दिया था कि वे प्रधानमंत्री के सूट पर कटाक्ष कर सकते हैं। ‘गब्बर सिंह टैक्सÓ जो जल्दबाजी में लिया गया केंद्र का फैसला था। उस पर व्यंग्य उन्होंने गुजरात चुनावों से ठीक पहले ही गढ़ा था। उनके कटाक्ष के बाद ही सरकार ने 200 मदों से जीएसटी दरें कम कर दीं और 50 फीसद मदों पर 28 फीसद टैक्स दरों में कांट-छांट भी कर दी। उन्होंने विपदाग्रस्त कृषि के दौरान विमुद्रीकरण के सरकारी फैसले की निंदा की थी। उन्होंने अपने दम पर चुनाव प्रचार किया और दूसरे गुटों के लोगों को साथ जोडऩे की कोशिश की। उनकी इस पहल का नतीजा हुआ कि भाजपा को अपने बड़े नेताओं को मैदान में उतारना पड़ा और उन्हें एहसास हुआ कि 22 साल पुराना किला इस बार धसक रहा है।

राहुल ने अचानक मंदिरों में जाने का फैसला लिया और बताया कि वे शिव के उपासक हैं। यह संदेश चारों तरफ फैला और गुजरात के हिंदू मतदाताओं पर उसका असर पड़ा। रणनीतिक तौर पर उन्होंने अपनी चुनावी रैलियों में मुसलमानों का नाम तक नहीं लिया क्योंकि उन्हें इस बात का अनुमान था कि वे कांग्रेस का समर्थन करेंगे। उनके इस कदम से यह भ्रम भी टूटा कि कांग्रेस ‘मुसलमानों का तुष्टिकरणÓ करती है। उन्होंने बहुत साफ तौर पर यह बात साफ कर दी कि वे किस तरह पार्टी को चलाते हैं जब खासे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘नीच किस्म का आदमीÓ कहा तो उनसे पार्टी की ‘प्राइमरी सदस्यता छीन ली गई।

राहुल गांधी जब आक्रामक रूप लेते है तो उनकी आवाज में तल्खी आ जाती है। जब वे भाजपा पर उसकी अलगाववादी नीतियों पर और प्रशासनिक मामलों पर आलोचना करते हैं तो संभलते हुए तीखा बोलते हैं। उन्होंने भाजपा की प्रतिबद्धता को पूरे देश के बजाए एक संगठन के प्रति बताते हुए उसकी आलोचना की है।

यदि आर्थिक प्रस्ताव में बीच की राह निकाल गई है तो राजनीतिक प्रस्ताव में यह अपील की गई है कि समान न्यूनतम कार्यक्रमों पर दूसरी पार्टियों के साथ काम किया जाएगा। राहुल गांधी भले ही बहुत अच्छे वक्ता न हो लेकिन वे न तो उत्तेजित होते हैं और न ही अभिनय करते हैं। वे साधारण तरीके से अपनी बात ज़रूर रख देते हैं। राहुल गांधी में ज़रूर अपनी बात साफ-साफ रखने की कुछ कमी ज़रूर है और मोदी की उस पर नज़र भी है। वे हमला बोलने की बजाए एक अच्छे भले इंसान की तरह अपनी बात रखते हैं। एक दौर था जब भाजपा ने तमाम सोशल मीडिया पर कब्जा कर लिया था और राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस नींद में थी लेकिन राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस आज सोशल मीडिया में भी पूरी आक्रामकता और तर्कों के साथ सक्रिय है।

राहुल गांधी अब न तो ‘पप्पूÓ हैं। जिसे कह कर मोदी और भाजपा मजाक उड़ाते थे और पूरे देश को बताते थे कि देखो वह है जोकर! आज राहुल एकदम बदले हुए व्यक्तित्व हैं। उनमें आत्मविश्वास है, वे मजाक भी करते हैं और उनका रवैया दोस्ताना है। उनके नेतृत्व को लेकर उनके विपक्षी अब पृष्ठभूमि में चले गए हैं।

भाजपा ने पूरी कोशिश की है कि आज़ादी की लड़ाई की विरासत को कांग्रेस से छीन ले लेकिन राहुल उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हुए और कामयाब भी हैं। राहुल हर बार अपनी आलोचना करते है। और हर बार एक नया और फुर्तीला राहुल सामने आता है। कांग्रेस को भविष्य की पार्टी बताते हुए उसे ही ताकतवर भाजपा से लोहा जो लेना है।

दिल्लीवासियों के लिये यात्रा दुर्लभ: पेट्रोल और डीज़ल के दाम रिकॉर्ड ऊंचाई पर

दिल्ली में पेट्रोल और डीज़ल के दाम रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गए हैं और इसी के साथ ही सरकार से इन पर एक्साइज़ टैक्स कम करने की मांग भी उठने लगी है।

रविवार को पेट्रोल 73.73 रुपये प्रति लीटर हो गया जो बीते चार सालों में सबसे महंगा है, और डीज़ल के दाम 64.58 रुपये प्रति लीटर यानी अब तक की सबसे ज़्यादा कीमत पर पहुँच गए हैं।

सरकारी तेल कंपनियां बीते साल जून के महीने से बाज़ार के दाम देखते हुए रोज़ाना पेट्रोल और डीज़ल के दाम तय करती हैं. दाम के संबंध में जारी सूचना के अनुसार रविवार को कंपनियों ने दिल्ली में पेट्रोल और डीज़ल के दाम 18 पैसे प्रति लीटर बढ़ा दिए।

इससे पहले 14 सितंबर 2014 को पेट्रोल सबसे महंगा था जब इसकी क़ीमत 76.06 रुपये प्रति लीटर थी. डीज़ल की कीमतों को देखें तो इससे पहले 7 फरवरी 2018 को डीज़ल सबसे महंगा था. तब कीमत 64.22 रुपये प्रति लीटर थी।

तेल मंत्रालय ने इस साल के शुरू में पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले एक्साइज़ ड्यूटी को कम किए जाने की मांग की थी, ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती तेल कीमतों से राहत मिल सके. लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी के अपने बजट में तेल मंत्रालय की इस मांग को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया.

पिछले साल अक्तूबर में केंद्र सरकार ने एक्साइज़ ड्यूटी में दो रुपये की कटौती की, उस वक्त पेट्रोल की कीमतें 70.88 रुपये प्रति लीटर थी और डीज़ल की कीमत 59.14 रुपये प्रति लीटर थी. एक्साइज़ ड्यूटी कम होने से ये दाम घटे- पेट्रोल 56.89 रुपये प्रति लीटर और डीज़ल 68.38 रुपये प्रति लीटर तक आ गए. लेकिन बाद में महीनों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से दिल्ली में भी तेल की कीमतें बढ़ गईं.

एक्साइज़ ड्यूटी में दो रुपये की कटौती के कारण सरकर को सालान राजस्व में 26,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई जबकि मौजूदा वित्त वर्ष में इस कारण 13,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई. नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गिरती तेल कीमतों का लाभ उठाने के लिए सरकार ने नौ बार पेट्रोल और डीज़ल की एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाई.

इन पंद्रह महीनों के भीतर पेट्रोल की कीमतें 11.77 रुपये प्रति लीटर बढ़ीं जबकि डीज़ल की कीमतें 13.47 रुपये प्रति लीटर तक बढ़ीं. इससे सरकार को वित्त वर्ष 2016-17 में 242,000 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2014-15 में 99,000 करोड़ रुपये का फायदा हुआ।