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भगत सिंह, शहादत और संघ

 

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बीते 23 मार्च को क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत की 85वीं वर्षगांठ थी, जिन्हें अंग्रेज सरकार ने लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ाया था. अंग्रेज हुक्मरानों को लगा था कि क्रांतिकारियों को मार देने से उनके, भारत को एक आजाद धर्मनिरपेक्ष और समतावादी देश बनाने के विचार और सपनों का भी अंत हो जाएगा. हालांकि ऐसा सोचना साफ तौर पर उनकी गलती थी क्योंकि आज भी ये क्रांतिकारी और उनके आदर्श इस देश के लोगों के जेहन में जिंदा हैं.

हालांकि, उनकी 85वीं बरसी पर हमें ये भी देखना चाहिए कि भले ही उन्हें फांसी ब्रिटिश हुकूमत ने दी थी पर आजादी के पहले के कुछ ऐसे संगठन जैसे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग भी थे जो न इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से कोई इत्तेफाक रखते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी चुप्पी साधे रहे. पर दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है जो दावा करता है कि आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव रहा था. एनडीए के शासन काल में जब संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी देश चला रहे थे तब एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था. (देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार : राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)

2007 में इतिहास में पहली बार संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में भगत सिंह पर विशेष अंक निकाला गया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि विभाजन के पूर्व छपे आरएसएस के किसी भी साहित्य में हमें इन शहीदों का कोई जिक्र नहीं मिलता जबकि संघ की किताबों में ऐसी कई कहानियां हैं जो उनके भगत सिंह जैसे इन क्रांतिकारियों के प्रति बेपरवाह रवैये को दिखाती हैं. मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख, जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता है, ने तो एक ऐसी घटना का जिक्र भी किया है, जहां हेडगेवार ने उन्हें और उनके अन्य साथियों को भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों के रास्ते पर चलने से बचाया था. यहां भी दिलचस्प बात यह है कि संघ ने खुद ही इस घटना को प्रकाशित किया था: ‘कॉलेज की पढ़ाई के समय हम (युवा) सामान्यत: भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के आदर्शों से प्रभावित थे. कई बार मन में आता कि भगत सिंह का अनुकरण करते हुए हमें भी कोई न कोई बहादुरी का काम करना चाहिए. हम आरएसएस की तरफ कम ही आकर्षित थे क्योंकि वर्तमान राजनीति, क्रांति जैसी जो बातें युवाओं को आकर्षित करती हैं, पर संघ में कम ही चर्चा की जाती है. जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी.

हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.’ (देखें- स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48) इसके अलावा भी आरएसएस के ही दस्तावेजों में ही कई प्रमाण हैं जो बताते हैं कि आरएसएस भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके क्रांतिकारी साथियों के आंदोलनों की आलोचना किया करता था. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ (गोलवलकर के भाषण और लेखों का संकलन, जिसे संघ में पवित्र ग्रंथ माना जाता है) के कई अंश हैं जहां उन्होंने शहादत की परंपरा की निंदा की है.

‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है. वे औसतव्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं. पर फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता. हम उनकी शहादत को महानता के उस चरम बिंदु के रूप में नहीं देख सकते, जिससे लोगों को प्रेरित होना चाहिए. क्योंकि वे अपने आदर्शों को पाने में विफल रहे और इस विफलता में उनका बड़ा दोष है.’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 283)

गोलवलकर आरएसएस कैडर को यह बताते हैं कि केवल उन व्यक्तियों का सम्मान होना चाहिए जो अपने जीवन में सफल रहे हैं: ‘यह तो स्पष्ट है कि जो लोग अपने जीवन में विफल रहे हैं, उनमें कोई गंभीर खोट होगा. तो कोई ऐसा जो खुद हारा हुआ है, दूसरों को रास्ता दिखाते हुए सफलता के रास्ते पर कैसे ले जा सकता है?’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282) गोलवलकर की इस किताब में ‘वरशिपर्स ऑफ विक्ट्री’ (विजय के पूजक) शीर्षक से एक अध्याय है जिसमें वे खुलकर स्वीकारते हैं कि आरएसएस केवल उन्हें पूजता है जो विजयी रहे हैं.

‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है. वे औसत व्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं. पर फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता’

‘अब हम देखते हैं कि इस धरती पर अब तक किस तरह के महान व्यक्तियों को पूजा गया है. क्या हमने किसी ऐसे को अपना आदर्श चुना है जो खुद ही अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में असफल रहा हो? नहीं, कभी नहीं. हमारी परंपरा हमें सिर्फ उनकी प्रशंसा और पूजा करना सिखाती है जो अपने जीवन उद्देश्य में पूर्णत: सफल रहे हैं. परिस्थितियों के गुलाम कभी हमारे आदर्श नहीं रहे. वह नायक जो परिस्थितियों को अपने वश में कर ले, अपनी क्षमताओं और चरित्र के सहारे उन्हें बदल दे, अपने जीवन की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफल हो, ही हमारा आदर्श रहा है. ऐसे महान लोग, जिन्होंने अपनी आत्मदीप्ति से आसपास के निराशा के अंधेरे को दूर किया, कुंठित हो चुके हृदयों को आत्मविश्वास से भरा, बेजान हो चुके जीवन में जीवट का संचार किया, सफलता और प्रेरणा के मानक को ऊपर उठाए रखा, हमारी संस्कृति हमें उन्हीं को पूजने की आज्ञा देती है.’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282)

गोलवलकर ने कहीं भगत सिंह का नाम नहीं लिया पर उनके जीवन-दर्शन के अनुसार चूंकि भगत सिंह और उनके साथी अपने जीवन का उद्देश्य पाने में सफल नहीं रहे इसलिए वे किसी सम्मान के अधिकारी नहीं हैं. उनके अनुसार ब्रिटिश हुक्मरान ही स्वाभाविक रूप से पूजा के योग्य थे क्योंकि वे भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मारने में सफल रहे.

भारत की आजादी की लड़ाई के शहीदों के लिए इससे ज्यादा घटिया और कलंकित करने वाली बात सुनना मुश्किल है. किसी भी भारतीय, जो स्वतंत्रता संग्राम के इन शहीदों को प्रेम करता है, उनका सम्मान करता है उसके लिए डॉ. हेडगेवार और आरएसएस के, अंग्रेजों से लड़ने वाले इन क्रांतिकारियों के बारे में विचार सुनना बहुत चौंकाने वाला होगा. आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार, ‘ देशभक्ति केवल जेल जाना नहीं है. ऐसी सतही देशभक्ति से प्रभावित होना सही नहीं है. वे अनुरोध किया करते थे कि जब मौका मिलते ही लोग देश के लिए मरने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए जीवन जीने की इच्छा का होना बहुत जरूरी है.’ (देखें- संघ-वृक्ष के बीज- डॉ. केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पेज- 21)

आरएसएस नेतृत्व के अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले शहीदों के प्रति रवैये के लिए ‘शर्मनाक’ शब्द भी नाकाफी है. 1857 में भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली प्रतीक बनकर उभरे थे. उनका मजाक बनाते हुए गोलवलकर कहते हैं: ‘1857 में भारत के तथाकथित आखिरी बादशाह ने युद्ध का बिगुल बजाते हुए कहा था, गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की. पर आखिरकार क्या हुआ? ये तो हम जानते हैं.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 121)

गोलवलकर के अगले कथन से यह और साफ हो जाता है कि वे देश पर सब कुछ कुर्बान करने वाले के बारे में क्या सोचते थे. अपनी मातृभूमि पर जान देने की इच्छा रखने वाले क्रांतिकारियों से यह सवाल पूछना मानो जैसे अंग्रेजों के ही प्रतिनिधि हों, उनके दुस्साहस को ही दिखाता है: ‘पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सबकुछ राष्ट्र के नाम कुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है. अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 61-62)

शायद यही कारण है कि शहीद तो दूर आजादी की लड़ाई में आरएसएस ने एक भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं दिया. यह दुर्भाग्य ही है कि 1925 से लेकर 1947 तक लिखे आरएसएस के पूरे साहित्य में कहीं भी अंग्रेजों को चुनौती देती, उनकी आलोचना करती या उनके भारतीय जनता के साथ किए गए अमानवीय बर्ताव के विरोध में एक लाइन तक नहीं लिखी गई है. ऐसे में वे लोग जो हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई के गौरवशाली इतिहास और इन शहीदों की कुर्बानी से वाकिफ हैं, उन्हें हिंदुत्व कैंप, जिसने इस लड़ाई में धोखा दिया था, द्वारा हमारे इन नायकों की छवि के इस तरह से दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. हम ब्रिटिश शासकों की इन सांप्रदायिक कठपुतलियों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फिर से नहीं मरने दे सकते.

भगत सिंह वही न जो भारतीय फिल्मों में एक्टिंग करता है !

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अगर आप पाकिस्तान में किसी से शहीद भगत सिंह के बारे में पूछेंगे तो बड़े अजीबोगरीब जवाब मिलेंगे. शायद आटे में नमक के बराबर लोग भगत सिंह को जानते हैं या यह कि वे क्यों, कब और कैसे शहीद हुए. भगत सिंह को न जानने की सबसे बड़ी वजह यह है कि वे मुसलमान नहीं थे. उनका जन्म एक सिख परिवार में हुआ था इसलिए उनसे दूरी बनाना यहां का सामाजिक मसला है. पाकिस्तान में कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने इस मुल्क के लिए बलिदान दिया और इसकी तरक्की में अपनी भूमिका अदा की है. वे इस मुल्क के हीरो या रोल मॉडल इसलिए नहीं हैं कि उनका संबंध अल्पसंख्यक समुदाय से है.

पाकिस्तान में किसी को पता नहीं है कि एसपी सिंघा कौन थे. विभाजन से पहले पंजाब प्रांत की विधानसभा में केवल एसपी सिंघा थे जिन्होंने नए मुल्क पाकिस्तान को बनाने के पक्ष में मत दिया था. बदकिस्मती से उनको इस मुल्क में पहचान इसलिए नहीं मिल सकी है कि उनका संबंध अल्पसंख्यक समुदाय से था. सेसिल चौधरी पाकिस्तानी वायुसेना में फाइटर पायलट थे और बड़ी बहादुरी के साथ हर कदम पर देश की रक्षा की लेकिन वे भी हमारे हीरो  नहीं हैं क्योंकि उनका संबंध भी अल्पसंख्यक समुदाय से है.

इस तरह के बेशुमार लोग हैं जो इस मुल्क की तरक्की और खुशहाली के लिए अपनी भूमिका निभा रहे हैं. डॉ. अब्दुस सलाम को फिजिक्स में नोबेल पुरस्कार मिला और यह पाकिस्तान के लिए सबसे बड़े गर्व की बात होनी चाहिए लेकिन उनका यहां तो कोई नाम लेना भी पसंद नहीं करता है क्योंकि वे अहमदी समुदाय से थे. तो शहीद भगत सिंह को भी इसी दर्जे में रखा गया है और उनका दोष यही है कि उनका जन्म एक सिख परिवार में हुआ था.

भगत सिंह इस धरती के बेटे थे और उनका जन्म फैसलाबाद के करीब स्थित बंगा नाम के गांव में हुआ था. उन्होंने इस धरती और इसके लोगों के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी. दो साल पहले लाहौर में एक बहादुर सरकारी अफसर नूर उल अमीन मेंगल ने उस चौक को भगत सिंह का नाम दिया जहां अंग्रेजों ने उनको फांसी दी थी. सरकारी तौर पर नोटिफिकेशन भी जारी हुआ लेकिन रातोंरात सरकार को वह फैसला वापस लेना पड़ा क्योंकि कुछ धार्मिक गुटों ने सरकार के उस फैसले का कड़ा विरोध किया. पिछले साल कुछ उदारवादी लोगों ने शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर उसी चौक पर दीये जलाने और भगत सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करने की कोशिश की थी लेकिन कुछ धार्मिक गुटों ने उन लोगों से मारपीट की. इस दफा भी 23 मार्च को कुछ लोगों ने हिम्मत कर ऐसी कोशिश की और उस चौक पर जाकर भगत सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित की.

लाहौर के एक वकील इम्तियाज रशीद कुरैशी ने अदालत में एक ऐतिहासिक याचिका दायर की है जिसमें उन्होंने कहा है कि भगत सिंह निर्दोष थे और उनको अंग्रेज सरकार ने गैरकानूनी तौर पर फांसी दी थी. खुशी की बात यह है कि लाहौर हाई कोर्ट ने इस याचिका को सुनने की हिम्मत की और अभी इस याचिका पर सुनवाई चल रही है.

यही नहीं, पाकिस्तान में वामदलों की सबसे बड़ी पार्टी अवामी वर्कर्स पार्टी ने फैसलाबाद के करीब भगत सिंह के घर पर एक सभा का आयोजन किया. उस सभा का उद्देश्य शहीद-ए-आजम भगत सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करना था और आम लोगों को यह भी बताना था कि भगत सिंह ने इस देश के लिए बलिदान दिया था. अवामी वर्कर्स पार्टी के कार्यकर्ता इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए जब भगत सिंह के घर पहुंचे तो माहौल काफी भावुक था. पार्टी कार्यकर्ताओं ने गांववालों के साथ मिलकर उस कमरे की चौखट पर दीये जलाए जिस कमरे में उनका जन्म हुआ था. मैं भी उस कार्यक्रम में शामिल था.

एक बार भगत सिंह पर एक रिपोर्ट तैयार करने के सिलसिले में कायदे-आजम यूनिवर्सिटी जाना हुआ और वहां विद्यार्थियों से पूछा कि आपको पता है कि भगत सिंह कौन थे. तो एक छात्र ने जवाब दिया कि भगत सिंह वही न जो भारतीय फिल्मों में एक्टिंग करता है. यही हमारे देश की विडंबना है. हम अपने असली नायकों को भूल चुके हैं और अपनी आने वाली पीढ़ी को ऐसे लोगों के बारे में बता रहे हैं जिनका इस धरती से कोई संबंध ही नहीं है.

‘हम मुकदमा जीत गए तो भी मस्जिद निर्माण तब तक नहीं करेंगे, जब तक हिंदू बहुसंख्यक हमारे साथ नहीं आते’

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अयोध्या में हाशिम अंसारी को ढूंढना सबसे आसान काम है. किसी भी चौराहे पर खड़े होकर अगर आप उनके घर का पता पूछेंगे तो लोग आपको उनके घर पहुंचा देंगे. कोई उन्हें जिद्दी कहता है तो कोई कहता है बहुत बूढ़े हो गए हैं आराम से बतियाना, लेकिन सारे लोग इस बात से सहमत नजर आते हैं कि वे दिल के बहुत नेक इंसान हैं. ज्यादातर लोग बड़ी इज्जत से उनका नाम लेते हैं और घर का पता बताते हुए कहते हैं कि जैसे ही गली के अंदर जाएंगे उनका मैकेनिक बेटा इकबाल गाड़ी ठीक करते हुए मिल जाएगा और वह हाशिम से आपकी बात करा देगा. गौरतलब है कि अयोध्या के मूल निवासी मोहम्मद हाशिम अंसारी बाबरी मस्जिद विवाद के मुकदमे के सबसे पुराने पक्षकार हैं. वे दिसंबर, 1949 से इस मामले से जुड़े हैं जब तत्कालीन बाबरी मस्जिद के अंदर राम जन्मस्थल बताकर भगवान राम की मूर्तियां रख दी गई थीं.

हाशिम को वर्ष 1954 में प्रतिबंध के बावजूद बाबरी मस्जिद में अजान देने के आरोप में फैजाबाद की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई थी. वर्ष 1961 में हाशिम और छह अन्य लोगों ने सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की तरफ से फैजाबाद दीवानी अदालत में दायर मुकदमे में बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का दावा किया था. अब हाशिम उनमें से एकमात्र जीवित पक्षकार हैं. 1975 में लगे आपातकाल के समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और आठ महीने तक बरेली सेंट्रल जेल में रखा गया.

हाशिम का परिवार कई पीढ़ियों से अयोध्या में रह रहा है. वे 1921 में पैदा हुए, जब वे 11 साल थे तब सन 1932 में पिता का देहांत हो गया. उन्होंने दर्जा दो तक पढ़ाई की. फिर सिलाई यानी दर्जी का काम करने लगे. यहीं पड़ोस में (फैजाबाद) उनकी शादी हुई. एक बेटा और एक बेटी है. छह दिसंबर, 1992 में बाहर से आए दंगाइयों ने उनका घर जला दिया तब अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचाया. इस दौरान मिले मुआवजे से उन्होंने अपने छोटे-से घर को दोबारा बनवाया. उनका परिवार आज भी इस घर में बेहद सादगी से रहता है. उन्हें इस बात का गर्व है कि अयोध्या में कोई भी यह नहीं कहता है कि उन्होंने इस मामले से कोई भी आर्थिक या राजनीतिक फायदा उठाया है.

हाशिम कहते हैं, ‘मैंने इतने दिनों तक इस मामले की पैरवी की लेकिन चंदे के पैसे से घर में एक वक्त का खाना भी नहीं बना है. जब भी मामले की सुनवाई पर जाता था तो अपने पैसे की चाय पीता था. पूरे अयोध्या में आप पूछ लीजिए, अगर कोई यह कह दे कि हमने इस मसले पर किसी का एक रुपया भी लिया हो. मुझे पता है इस मसले से बहुत सारे लोगों को फायदा हुआ है. चंदे के पैसे से लोगों ने बड़ी-बड़ी कोठियां बना लीं. देश में सरकार भी इस मसले पर बनती-बिगड़ती रही है लेकिन मेरी इच्छा इस चंदे के पैसे की नहीं रही. मुझे बस इज्जत कमानी थी. आज अयोध्या का हर शख्स चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान मेरी इज्जत करता है. यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी कमाई रही है.’

अब्बा द्वारा ढेरों पैसे न बनाने का मलाल बेटे इकबाल को भी नहीं है. वे कहते हैं, ‘हमारे परिवार को चंदे का पैसा रास नहीं आता है. हम मेहनतकश लोग हैं. जब कमाकर परिवार का पेट भर सकते हैं तो चंदे का पैसा क्यों खाएं. मेरे पिता ने अपनी वसीयत बनाकर सारे मामले मुझे सौंप दिए हैं अब मैं इस बात का ख्याल रखूंगा जैसे उन्होंने कभी इस मामले को लेकर किसी भी तरह का राजनीतिक और आर्थिक फायदा नहीं उठाया उसी तरह से मैं भी किसी भी तरह का फायदा न उठाऊं. अयोध्या में रहते हुए हमारे लिए हमारी इज्जत ही सब कुछ है. हमारे लिए सबसे बड़ी बात यही है. मुझे यह पता है कि इस मामले को लेकर बहुत सारे मुसलमान भाइयों ने बड़ी-बड़ी कोठियां बना ली हैं लेकिन यह कमाई उन्हीं को मुबारक हो. हमें यह कभी रास नहीं आएगी.’

मैंने इतने दिनों तक इस मामले की पैरवी की लेकिन चंदे के पैसे से घर में एक वक्त का खाना भी नहीं बना है. जब भी मामले की सुनवाई पर जाता था तो अपने पैसे की चाय पीता था. पूरे अयोध्या में आप पूछ लीजिए, अगर कोई यह कह दे कि हमने इस मसले पर किसी का एक रुपया भी लिया हो. मुझे पता है इस मसले से बहुत सारे लोगों को फायदा हुआ है. चंदे के पैसे से लोगों ने बड़ी-बड़ी कोठियां बना लीं. देश में सरकार भी इस मसले पर बनती-बिगड़ती रही है लेकिन मेरी इच्छा इस चंदे के पैसे की नहीं रही. मुझे बस इज्जत कमानी थी. आज अयोध्या का हर शख्स चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान मेरी इज्जत करता है. यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी कमाई रही है

Photo : Tehelka Archives
Photo : Tehelka Archives

हाशिम अंसारी के घर के बाहर एक तंबू में दो पुलिसवाले बैठे रहते हैं. घर दो-तीन कमरों वाला है. किसी भी मिलने आने वाले के लिए अलग से कोई कमरा नहीं है. अक्सर बीमार रहने वाले हाशिम एक छोटे-से कमरे में तख्त पर कथरी बिछाकर लेटे रहते हैं. उसके बगल में एक प्लास्टिक की कुर्सी रखी रहती है जिस पर उनसे मिलने वाला बैठकर बातें करता है क्योंकि उन्हें सुनने में थोड़ी तकलीफ होती है. गर्म होते जा रहे मौसम में भी वे सिर्फ एक पंखे के सहारे रहते हैं क्योंकि कूलर या एसी में उनकी तबीयत खराब हो जाती है. जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो वे बनियान और जांघिया पहने लेटे हुए थे और उसी तरह बातचीत करने के लिए राजी हो गए. बातचीत शुरू होने के साथ ही वे कहते हैं, ‘देखो, मंदिर-मस्जिद की बात मत करना. इस मामले पर बातचीत करनी हो तो जाकर बड़े लोगों से करो जो इस मसले का समाधान नहीं चाहते हैं. हम बहुत छोटे लोग हैं. हम अयोध्या में रहने वाले लोग इस मसले से ऊब चुके हैं और इसका समाधान चाहते हैं लेकिन कुछ लोगों का इसमें स्वार्थ है जो नहीं चाहते हैं कि मामला हल हो. अगर आपको ऐसी कोई बातचीत करनी हो तो आप उन्हीं से करें.’ इतना कहकर वे चुप हो जाते हैं.

उनके बेटे इकबाल कहते हैं, ‘अब्बा इस मामले का हल न निकल पाने के चलते बहुत नाउम्मीद हो गए हैं. इस मामले के दूसरे पक्षकारों निर्मोही अखाड़ा के राम केवल दास, दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र परमहंस और भगवान सिंह विशारद जैसे लोगों के गुजरने के बाद से वे ज्यादा ही परेशान रहने लगे हैं. वे अक्सर कहते हैं कि बड़े लोग अपने राजनीतिक फायदे के लिए इसका हल नहीं निकलने दे रहे हैं. वे अदालत के फैसले को भी नहीं मान रहे हैं. हमने तो अदालत के उस फैसले को भी मान लिया था जिसमें जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया गया था लेकिन वे लोग इसे बड़ी अदालत में लेकर गए. अब देखना यही है कि यह अदालती लड़ाई कब तक चलती है.’

सद्भाव : फैजाबाद में हिंदू धर्मगुरुओं के साथ हाशिम अंसारी  (फाइल फोटो)
सद्भाव : फैजाबाद में हिंदू धर्मगुरुओं के साथ हाशिम अंसारी (फाइल फोटो)

20वीं सदी के अंतिम दशक के शुरुआती बरस ऐसी घटनाओं के साक्षी रहें जिन्होंने देश को दोराहे पर खड़ा कर दिया. एक तरफ जहां उदारीकरण को अपनाकर देश को अंतरराष्ट्रीय आर्थिक शक्ति बनाने की तरफ कदम बढ़ाया गया वहीं अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की घटना ने हमारी सबसे बड़ी पहचान धर्मनिरपेक्षता पर सवाल भी खड़े कर दिए. जरूरी बात यह है कि इन घटनाओं के करीब-करीब 25 बरस बाद भी हमारा देश उसी दोराहे पर खड़ा है जहां विकास और धर्मनिरपेक्ष छवि के बीच सामंजस्य बनाना है या यूं कहें कि आज हालत और बदतर हुए हैं.

सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी धर्मनिरपेक्ष पहचान पर जिस अयोध्या ने सबसे बड़ा घाव दिया है वही देश की गंगा-जमुनी तहजीब का सबसे बड़ा केंद्र भी है. हाशिम कहते हैं, ‘पिछले कई दशकों से मैं इस मामले की पैरवी कर रहा हूं, लेकिन आज तक अयोध्या में किसी हिंदू ने मुझे और मेरे परिवार के लोगों को एक भी गलत शब्द नहीं कहा है. हमारा उनसे भाईचारा है. आप मेरे पड़ोस को देख लीजिए. अगल-बगल सारे घर हिंदुओं के हैं. वे अपने त्योहारों और शादी-ब्याह के मौके पर हमें दावत देते हैं. मैं उनके यहां सपरिवार दावत खाने जाता हूं. वे लोग हमारी दावतों में शामिल होते हैं, किसी को कोई परेशानी नहीं है लेकिन अगर यह बात सबके सामने आ जाएगी तो राजनीतिक दलों को फायदा मिलना बंद हो जाएगा. वे लोग जानबूझकर ऐसा माहौल बनाए हुए हैं जिससे लगे कि अयोध्या में माहौल ठीक नहीं है.’

हाशिम की इस बात की पुष्टि बाहर तंबू में बैठे ज्यादातर लोगों का धर्म जानने से हो भी जाती है. जब मैं उनके घर मिलने पहुंचा था तो दो पुलिसवालों समेत तकरीबन 15 लोग बैठे हुए थे. इनमें से 12 लोग हिंदू थे. इस दौरान ज्यादातर हिंदू युवक बातचीत में उन्हें चचा-चचा कहते हुए नजर आए. इतना ही नहीं, जब मैंने यह पूछा कि अयोध्या में सांप्रदायिक सौहार्द कैसा है तो हाशिम की सुरक्षा में तैनात एक पुलिसवाले ने कहा, ‘जाकर अयोध्या और रामजन्मभूमि थानों का रिकॉर्ड चेक कर लीजिए. यहां का सांप्रदायिक माहौल हमेशा ही बेहतर रहा है. आपको हिंदू-मुसलमान के बीच ऐसी किसी भी घटना की शिकायत दर्ज नहीं मिलेगी. बाहर बैठे लोगों को लगता है कि अयोध्या का माहौल खराब है. मैं यहां पिछले तीन सालों से तैनात हूं. मुझे ऐसी कोई भी घटना नजर नहीं आई. अभी तीन दिन पहले ही सामने खाली पड़े मैदान में किसी हिंदू का कार्यक्रम था. दोपहर में धूप होने के चलते सब इसी तंबू में आकर सब्जियां काट रहे थे और पानी भी चचा के घर से मंगाकर पी रहे थे. होली के दिन किसी हिंदू के घर जितने लोग मिलने नहीं आते हैं उससे ज्यादा तो यहां हाशिम अंसारी से मिलने लोग आए थे.’

इस बात से इकबाल भी सहमत नजर आते हैं. वे कहते हैं, ‘बाहर के लोगों ने आकर अयोध्या की छवि को खराब कर रखा है. 1992 में भी जितने कारसेवक आए थे वे बाहरी थे. इसमें शामिल स्थानीय लोगों की संख्या नगण्य थी. ऐसा नहीं है कि उन्होंने सिर्फ मुसलमानों को नुकसान पहुंचाया था बल्कि उस दौरान हिंदू परिवार भी परेशान हुए थे. अयोध्या में कोई नहीं चाहता है कि मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में बाहर के लोग आएं. अयोध्या में हिंदू-मुसलमान ईद और नवरात्र साथ में मनाते रहे हैं. अब्बा जब तक चलने लायक थे तो अक्सर शाम को घूमते हुए मंदिरों में साधु-संतों से मुलाकात करने चले जाते थे. वहां उन्हें बड़ी इज्जत के साथ बैठाया जाता था. वहां वे बड़ी देर तक बतियाते रहते थे. आप हमारे घर मिलने आने वाले लोगों से इसका अनुमान लगा सकते हैं. अब्बा से मिलने जितने मुसलमान आते हैं उससे कहीं ज्यादा हिंदू आते हैं. वे अक्सर कहा करते हैं कि अगर हम मुकदमा जीत गए तो भी मस्जिद निर्माण तब तक नहीं शुरू करेंगे, जब तक हिंदू बहुसंख्यक हमारे साथ नहीं आ जाते. मंदिर-मस्जिद से बड़ी बात आपस में अमन-चैन है.’

पिछले कई दशकों से मैं इस मामले की पैरवी कर रहा हूं, लेकिन आज तक अयोध्या में किसी हिंदू ने मुझे और मेरे परिवार के लोगों को एक भी गलत शब्द नहीं कहा है. हमारा उनसे भाईचारा है. आप मेरे पड़ोस को देख लीजिए. अगल-बगल सारे घर हिंदुओं के हैं. वे अपने त्योहारों और शादी-ब्याह के मौके पर हमें दावत देते हैं. मैं उनके यहां सपरिवार दावत खाने जाता हूं. वे लोग हमारी दावतों में शामिल होते हैं, किसी को कोई परेशानी नहीं है लेकिन अगर यह बात सबके सामने आ जाएगी तो राजनीतिक दलों को फायदा मिलना बंद हो जाएगा. वे लोग जानबूझकर ऐसा माहौल बनाए हुए हैं जिससे लगे कि अयोध्या में माहौल ठीक नहीं है

95 साल से ज्यादा की उम्र होने के बावजूद हाशिम अंसारी की याददाश्त दुरुस्त है और वे खबरों के जरिए खुद को बहुत अपडेट भी रखते हैं. जब उनसे यह पूछा गया कि मंदिर-मस्जिद की लड़ाई से अयोध्या को क्या मिला, तो वे हंसते हुए कहते हैं, ‘कुछ भी नहीं मिला. यहां तो ढंग से विकास भी नहीं हो पाया. मस्जिद-मंदिर की लड़ाई का कुछ फायदा भाजपा को मिला और वह सत्ता में आई. लेकिन ऐसा नहीं है कि फायदा सिर्फ उन्होंने उठाया. बाकी राजनीतिक दल भी इसमें पीछे नहीं रहे. विवादित ढांचा गिराने के लिए जितनी जिम्मेदार भाजपा और उसके सहयोगी संगठन थे, उतनी ही जिम्मेदार कांग्रेस थी क्योंकि उस वक्त केंद्र की सत्ता में कांग्रेस की सरकार थी और उसने भी इसे बचाने की कोशिश नहीं की.’

इस सवाल पर उनके बेटे इकबाल कहते हैं, ‘अयोध्या में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ है. अभी देख लीजिए रामनवमी आने वाली है तो सफाई व्यवस्था जोरों पर है, जैसे ही वह बीत जाएगी फिर किसी को अयोध्या की परवाह नहीं रहेगी. फिर चाहे चारों तरफ गंदगी ही क्यों न फैली रहे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है. आपको ऐसे वक्त में आकर अयोध्या घूमना चाहिए. आपको समझ में आ जाएगा कि हमें क्या मिला. वैसे थोड़े तल्ख शब्दों में कहें तो इस विवाद से अयोध्या के लोगों को सिर्फ परेशानी मिली है.’

हाशिम अंसारी की उम्र 95 साल से ज्यादा है. उनकी देखरेख उनके बेटे इकबाल अंसारी (नीले स्वेटर में) करते हैं. (फाइल फोटो)
हाशिम अंसारी की उम्र 95 साल से ज्यादा है. उनकी देखरेख उनके बेटे इकबाल अंसारी (नीले स्वेटर में) करते हैं.
(फाइल फोटो)

 

उत्तर प्रदेश में अगले साल 2017 में विधानसभा चुनाव होने हैं. इस दौरान फिर से अयोध्या मसले को गरमाए जाने की आशंका है. विधानसभा चुनावों के दरमियान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके अपने वोट बैंक को बढ़ाने का प्रयास भी राजनीतिक दलों द्वारा किया जाएगा, लेकिन अगर बात मुस्लिमों के विकास की हो तो सभी दल इस पर बात करने से कतराते हैं. हाशिम कहते हैं, ‘मुस्लिमों के विकास की बात कोई भी दल नहीं करता है. मुस्लिमों को तो सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस ने पहुंचाया है. उनका कोई विकास नहीं करता है. सब चाहते हैं कि वे ऐसे ही मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में उलझे रहें.’

हाल में बढ़ी असहिष्णुता की घटनाओं और भारत माता की जय के नारे बोले जाने पर इकबाल कहते हैं, ‘अब ओवैसी भारत माता की जय का नारा नहीं लगाते हैं तो न लगाएं उससे क्या फर्क पड़ता है. वे पूरे देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते हैं. मीडिया वाले भी बेकार में उनके बयान को दिखाते रहते हैं. ऐसा नहीं है कि आप भारत माता की जय का नारा नहीं लगाएंगे तो आप अपने देश को प्यार नहीं करते हैं. हम पैदा इसी अयोध्या में हुए हैं और मरेंगे भी इसी अयोध्या में. हमें अपने देश से बहुत प्यार है. वैसे भी असहिष्णुता की घटनाएं जहां हुई होंगी वहां का तो मुझे नहीं पता पर मुझे अयोध्या में ऐसा कुछ भी नहीं लगता है. हम पहले भी बहुत प्रेम से रह रहे थे और आज भी वह प्रेम हमें यहां के लोगों से मिलता रहता है.’

वैसे हाशिम अंसारी के पास कहने के लिए बहुत कुछ है लेकिन बढ़ती उम्र इसके आड़े आ जाती है. हमारे पास उनसे बतियाने के लिए बहुत कुछ होता है लेकिन इतना बोलने में ही वे बहुत थक जाते हैं. उनसे मिलने आए स्थानीय निवासी वंशगोपाल तिवारी कहते हैं, ‘हाशिम चचा पिछले छह-सात दशकों से अपने धर्म व बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और कानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं. जहां समाज का उच्च वर्ग अपने ड्रॉइंगरूम में बैठकर सिस्टम का रोना रोता है वहीं हाशिम ने हर स्तर पर सरकारी और न्यायिक व्यवस्था को झेलकर अपनी बात कहना सीखा है. अपनी बेबाक बातचीत के चलते कई बार उन्हें अपने समुदाय समेत दूसरे लोगों से परेशानी का सामना करना पड़ा है, लेकिन इससे वे परेशान नजर नहीं आते हैं.’          

मै नास्तिक क्यों हूं?

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एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है. क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूं? मेरे कुछ दोस्त- शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूं- मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्यादा आगे जा रहा हूं और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिए उकसाया है. मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूं. मैं एक मनुष्य हूं, और इससे अधिक कुछ नहीं. कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता. यह कमजोरी मेरे अंदर भी है. अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है. अपने कॉमरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था. यहां तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे. कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निंदा भी की गई. कुछ दोस्तों को शिकायत है और गंभीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूं और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूं. यह बात कुछ हद तक सही है. इससे मैं इनकार नहीं करता. इसे अहंकार कहा जा सकता है. जहां तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है, मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है. लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है. ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता. घमंड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है. क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?

मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूं कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है. किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूं- यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूं या मेरे अंदर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिए आवश्यक हैं. यहां तक तो समझ में आता है. लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बंद कर दे? दो ही रास्ते संभव हैं. या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे. इन दोनों ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता. पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है. दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है. मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूं. यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया. मैं न तो एक प्रतिद्वंद्वी हूं, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा. इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिए आइए तथ्यों पर गौर करें. मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूं.

मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है. मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था. कम से कम एक काॅलेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाए. यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था. पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा. अहंकार जैसी भावना में फंसने का कोई मौका ही न मिल सका. मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी. मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं. एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता. अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डीएवी स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा. वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था. उन दिनों मैं पूरा भक्त था. बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया. जहां तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं. उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतंत्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली. किंतु वे नास्तिक नहीं हैं. उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है. वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे. इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ. असहयोग आंदोलन के दिनों में राष्ट्रीय काॅलेज में प्रवेश लिया. यहां आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं- यहांं तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया. पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था. उस समय तक मैं अपने लंबे बाल रखता था. यद्यपि मुझे कभी भी सिख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्वास न हो सका था. किंतु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी.

प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डीएवी स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल छात्रावास में रहा. वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था. उन दिनों मैं पूरा भक्त था. बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया. जहां तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं. उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतंत्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली. किंतु वे नास्तिक नहीं हैं

बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा. वहां जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे. ईश्वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो.’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है. दूसरे नेता, जिनके मैं संपर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय काॅमरेड शचींद्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं. उनकी पुस्तक ‘बंदी जीवन’ ईश्वर की महिमा का जोर-शोर से गान है. उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदांत के कारण बरसाए हैं.

28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रांतिकारी) पर्चा बांटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है. उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गई है. मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था. काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे. राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे. समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके. मैंने उन सब में सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है.’ वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है. परंतु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की.

इस समय तक मैं केवल एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी था. अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे. अब अपने कंधों पर जिम्मेदारी उठाने का समय आया था. यह मेरे क्रांतिकारी जीवन का एक निर्णायक बिंदु था. ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूंज रही थी- विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो. अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो. मैंने पढ़ना शुरू कर दिया. इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए. रोमांस की जगह गंभीर विचारों ने ली ली. न और अधिक रहस्यवाद, न ही अंधविश्वास. यथार्थवाद हमारा आधार बना. मुझे विश्वक्रांति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला. मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किंतु अधिक लेनिन, त्रात्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे. ये सभी नास्तिक थे. बाद में मुझे निरलंब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली. इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी. 1926 के अंत तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है. मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया. मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की. मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था.

मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ्तार हुआ. रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा. पुलिस अफसरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहां काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किए थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिए भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रांतिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूं, तो मुझे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किए बगैर रिहा कर दिया जाएगा और इनाम दिया जाएगा. मैं इस प्रस्ताव पर हंसा. यह सब बेकार की बात थी. हम लोगों की भांति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते.

एक दिन सुबह सीआईडी के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो वे मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षड्यंत्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिए मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और उनके पास मुझे सजा दिलाने व फांसी पर लटकवाने के लिए उचित प्रमाण हैं. उसी दिन से कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे नियम से दोनों समय ईश्वर की स्तुति करने के लिए फुसलाना शुरू किया. पर अब मैं एक नास्तिक था. मैं स्वयं के लिए यह बात तय करना चाहता था कि क्या शांति और आनंद के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दंभ भरता हूं या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धांतों पर अडिग रह सकता हूं.

कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किंतु अधिक लेनिन, त्रात्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे. ये सभी नास्तिक थे. मुझे निरलंब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली. इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी. 1926 के अंत तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड का सृजन, दिग्दर्शन व संचालन किया, एक कोरी बकवास है. मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था

बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता. नहीं, मैंने एक क्षण के लिए भी नहीं की. यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा. अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूं. इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था. ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है. यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है. ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सांत्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है. उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर रहना पड़ता है. तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है. परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बनकर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता. यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ अहंकार नहीं वरन कोई अन्य शक्ति है. आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है. निर्णय का पूरा-पूरा पता है. एक सप्ताह के अंदर  ही यह घोषित हो जाएगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूं. इस विचार के अतिरिक्त और क्या सांत्वना हो सकती है?

ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिंदू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है. एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिए पुरस्कार की कल्पना कर सकता है. किंतु मैं क्या आशा करूं? मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा- वह अंतिम क्षण होगा. मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएगी. आगे कुछ न रहेगा. एक छोटी सी जूझती हुई जिंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी- यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो. बिना किसी स्वार्थ के यहां या यहां के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था. जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा. वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्प्रेरित होंगे. इस लिए नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है- यहां या अगले जन्म में या मृत्योपरांत स्वर्ग में. उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शांति स्थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा.

क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिए खतरनाक किंतु उनकी महान आत्मा के लिए एकमात्र कल्पनीय रास्ता है? क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जाएगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त. हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता. उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है. उसकी आंखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमजोर हो गई हैं. स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है. यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?

जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा. वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्प्रेरित होंगे. इसलिए नहीं कि उन्हें राजा बनना है. उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और शांति स्थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा

आलोचना और स्वतंत्र विचार एक क्रांतिकारी के दोनों अनिवार्य गुण हैं. क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था. अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास की सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जाएगा. यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खंडन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखाकर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कहकर निंदा की जाएगी कि वह वृथाभिमानी है. यह मेरा अहंकार नहीं था जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया. मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं. मैं जानता हूं कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता. उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यंत शुष्क बना दिया है. थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है. किंतु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए. मैं यथार्थवादी हूं. मैं अंतःप्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं. इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूं. प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है. सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है. कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा. जहां सीधा प्रमाण नहीं है, वहां दर्शन शास्त्र का महत्व है. जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहां से, को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढंग से हल किया. यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अंतर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है. न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्द्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अंतर है. पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिंदू धर्म में जरा भी अनुरूपता नहीं है. भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग हैं, जिसमें स्वयं आर्य समाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाए जाते हैं. पुराने समय का एक स्वतंत्र विचारक चार्वाक है. उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी. हर व्यक्ति अपने को सही मानता है. दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख-पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं.

सिर्फ विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी. प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ंेगे. तब नए दर्शन की स्थापना के लिए उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निर्माण करना. मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के संबंध में आश्वस्त हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है. हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आंदोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिए प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं. इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है. हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं.

यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया- असंख्य दुखों के शाश्वत अनंत गठबंधनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतुष्ट नहीं है. कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है. वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है. कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है. नीरो ने बस एक रोम जलाया था. उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिए. और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. पन्ने उसकी निंदा के वाक्यों से काले पुते हैं, भर्त्सना करते हैं- नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट. एक चंगेज खां ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं. तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घंटे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है. फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खां से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है? ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगाएगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहां तक उचित करते थे कि एक भूखे खूंखार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूं कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनंद लूटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?

पुराने समय का एक स्वतंत्र विचारक चार्वाक है. उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी. हर व्यक्ति अपने को सही मानता है. दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख-पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं

तुम मुसलमानों और ईसाइयों! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिंदुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल हैं. मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व की उत्पत्ति के लिए छह दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज. उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो. हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है. कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक, भूख से तड़पते लाखों इंसानों से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे- सब कुछ ठीक है! क्यों और कहां से? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो. ठीक है, तो मैं आगे चलता हूं.

और तुम हिंदुओं, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं. मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे. उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है. न्यायशास्त्र के अनुसार दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं- प्रतिकार, भय तथा सुधार. आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वहीं है. सुधार करने का सिद्धांत ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिए अनिवार्य है. इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है. किंतु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो. मैं पूछता हूं कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधे के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है. यह एक दंड है. मैं पूछता हूं कि दंड प्रक्रिया की कहां तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहां पैदा होने पर इंसान का क्या भाग्य होगा? चूंकि वह गरीब है, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता. वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊंची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊंचा समझते हैं. उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं. यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दंभी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों- वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धांतों के आधार पर सही ठहराते हैं.

अप्टन सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी संपत्ति लूट लो. वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों अौर सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फांसी, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.

मैं पूछता हूं तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह लागू करे. जहां तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं. वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं. परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे.

अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं. वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे. यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध- एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण- सफलतापूर्वक कर रहे हैं. कहां है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूं? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूं. चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसे पढ़ो. यह एक प्रकृति की घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी. कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना से जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर में मानव. डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो. और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ. यह इस घटना की संभवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है.

मुसलमानों और ईसाइयों! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिंदुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः  निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल हैं. मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व की उत्पत्ति के लिए छह दिन तक क्यों परिश्रम किया? बुलाओ उसे आज. उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो. हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है 

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लंगड़ा पैदा होता है. क्या यह उसके पूर्वजन्म में किए गए कार्यों का फल नहीं है? जीव विज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है. अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो. यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है. जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे. अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यंत विकसित. इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे. सभी धर्म, संप्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अंत में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं. राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव पाप ही रहा है.

मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिए उत्साहित करने, सभी खतरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने के लिए ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई. अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया. जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है. ताकि कोई मनुष्य समाज के लिए खतरा न बन जाए. जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है. जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यंत क्लेश में हो, तब उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है. वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था.

पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है. समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा. मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियां उसे पटक सकती हैं. यही आज मेरी स्थिति है. यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. ईश्वर में विश्वास और रोज-ब-रोज की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिए सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूं. मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया. अतः मैं भी एक पुरुष की भांति फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं.

हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूं. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा. जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बताई तो उसने कहा, ‘अपने अंतिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा. मैं इसे अपने लिए अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझता हूं. स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूंगा.’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूं.    

ग्वालियर : कागजों में बसा सपनों का शहर

काउंटर मैग्नेट सिटी में बना शॉपिंग कॉम्पलेक्स जो निर्माण के बाद से ही खाली पड़ा है
काउंटर मैग्नेट सिटी में बना शॉपिंग कॉम्पलेक्स जो निर्माण के बाद से ही खाली पड़ा है
काउंटर मैग्नेट सिटी में बना शॉपिंग कॉम्पलेक्स जो निर्माण के बाद से ही खाली पड़ा है

स्लम में रहने वालों को शंघाई में बसाने के सपने दिखाना भारत में कोई नई बात नहीं है. इन सपनों को संज्ञा दी जाती है विकास की. विकास के नाम पर देश में कई योजनाएं आईं, राजनीतिक नेतृत्व ने कई वादे किए. कभी पटना को पट्टाया बनाने की बात चली तो कभी जयपुर को सिंगापुर की तर्ज पर विकसित करने की. इसी कड़ी का ताजा सब्जबाग स्मार्ट सिटी परियोजना है, जहां विकास की अपार संभावनाएं खुद में समेटे शहरों का चयन करके उन्हें स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा. लेकिन यहां हम बात करने जा रहे हैं ऐसी ही एक अन्य परियोजना की, जिसमें विकास के दावे बढ़-चढ़कर किए गए थे, एक ऐसे शहर की जिसमें विकास की अपार संभावनाएं देखी गई थीं और उस शहर के लोगों के उन सपनों की जो उन्होंने भविष्य के लिए पाल रखे थे. स्मार्ट सिटी की तरह उस परियोजना में भी शहरों का चयन किया गया था, बस अंतर इतना था कि वह परियोजना शहरों के अंदर खाली जगह में नए शहर बनाने की बात करती थी. 

तीन दशक पहले 1985 में जब देश की राजधानी दिल्ली से आबादी का दबाव कम करने की योजना बनी तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की अवधारणा ने जन्म लिया. 1989 में राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र योजना बोर्ड (एनसीआरपीबी) ने अपनी क्षेत्रीय योजना 2001 के तहत दिल्ली से 400 किलोमीटर के दायरे में पांच राज्यों के पांच शहरों को चिह्नित किया. ये वे शहर थे जो सामरिक, धार्मिक और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील नहीं थे और अपने अंदर विकास की अपार संभावनाएं समेटे हुए थे. इन शहरों से लगी खाली जमीन पर नए शहर बसाने की योजना बनाई गई. प्रस्तावना थी कि इन शहरों में शिक्षा के लिए बड़े शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय हों, रोजगार के लिए उद्योग-धंधों के साथ-साथ विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) का विकास करके वहां बड़ा निवेश लाया जाए, उच्चस्तरीय यातायात सुविधाएं हों और दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की तर्ज पर इन शहरों का विकास हो ताकि इन शहरों के आसपास से दिल्ली पलायन करने वाली आबादी को वहीं रोका जा सके और दिल्ली को भविष्य में पड़ने वाले जनसंख्या के भारी दबाव से बचाया जा सके. मध्य प्रदेश से ग्वालियर, हरियाणा से हिसार, राजस्थान से कोटा, पंजाब से पटियाला और उत्तर प्रदेश से बरेली को चुना गया.
ग्वालियर को इन शहरों में विशेष रूप से तरजीह दी गई. कारण- एक तो ग्वालियर की भौगोलिक स्थिति और यहां राष्ट्रीय महत्व के कई संस्थानों का होना और दूसरा दिग्गज कांग्रेसी नेता माधवराव सिंधिया और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का ग्वालियर से जुड़ाव. इस पूरी कवायद को ‘काउंटर मैग्नेट सिटी परियोजना’ नाम दिया गया. उस समय इस सरकारी कवायद को लेकर ग्वालियरवासियों में कुछ-कुछ वैसा ही उत्साह था जैसा वर्तमान में स्मार्ट सिटी को लेकर है. 

‘1992 से 2003 तक का समय तो आप निकाल दीजिए. फंड की कोई व्यवस्था नहीं थी. 1993 में भाजपा की जगह कांग्रेस सरकार आ गई. कांग्रेस के समय कोई काम नहीं हुआ. 2003 में जब भाजपा सरकार आई तब काम शुरू हुआ’ 

1992 में मध्य प्रदेश सरकार ने विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण (साडा) का गठन किया और उसे काउंटर मैग्नेट सिटी के सपने को साकार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. जल्द ही ग्वालियर के पश्चिमी क्षेत्र में 30,000 हेक्टेयर भूमि चिह्नित कर ली गई, जहां नए शहर का विकास करना था. इसमें वनक्षेत्र, कृषि भूमि और सरकारी भूमि शामिल थे. प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने जोर-शोर से योजना का शुभारंभ किया. लोगों ने भी वहां जमीन खरीदने में रुचि दिखाई और किसानों ने भी नए शहर के विकास की राह में बाधक न बनते हुए स्वेच्छा से अपनी जमीन साडा को सौंप दी. राजेश बाबू ने भी इसी काउंटर मैग्नेट सिटी में जमीन का एक टुकड़ा खरीदा था. इस आधुनिक शहर में रहने का सपना संजाेने वाले राजेश बाबू बताते हैं, ‘नए शहर में होटल, मॉल, रिसॉर्ट, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ गोल्फ कोर्स और एयरपोर्ट जैसी ढेरों आधुनिक सुविधाएं होंगी, कई राष्ट्रीय स्तर के सरकारी दफ्तरों को भी यहीं स्थानांतरित किया जाएगा, दिल्ली की तर्ज पर इसका विकास होगा, इस सबसे रीझकर मैंने यहां जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया. सोचा था कि दिल्ली की तर्ज पर विकसित किए जा रहे नए शहर में रहना सुखद होगा.’ 

लेकिन आज 24 साल बाद भी ग्वालियर के इस पश्चिमी क्षेत्र में नए शहर के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा तक विकसित नहीं हो सका है. जो इलाका विकास के नए प्रतिमान गढ़ राजधानी दिल्ली का विकल्प बनने वाला था, वहां विकास के नाम पर दूर-दूर तक बस जंगल फैले हुए हैं. इस पूरी अवधि में अगर कोई अंतर आया है तो बस इतना कि इन जंगलों में पेड़ों की जगह अब बिजली के खंभे और ट्रांसफॉर्मर दिखाई देते हैं.
साडा के मुख्य कार्यपालन अधिकारी (सीईओ) तरुण भटनागर इस बात को नकारते हैं कि विकास नहीं हुआ. वे कहते हैं, ‘200 करोड़ रुपये की लागत से हमने यहां आवासीय कालोनियां विकसित की हैं जिनमें 3000 फ्लैट और डुप्लेक्स हर श्रेणी के नागरिकों के लिए हैं. वहीं दुकानें भी बनाई गई हैं. बिजली के खंभे और ट्रांसफॉर्मर गाड़े गए हैं. सीवर और पानी की लाइन बिछाई गई है, जिन पर अभी भी काम चल रहा है. इसके अलावा सड़कों का निर्माण भी किया गया है.’ पर जब ग्वालियर काउंटर मैग्नेट सिटी की पूरी योजना तैयार की जा रही थी तब अनुमान था कि यहां शुरुआती दौर में 1,74,000 लोगों को बसाया जाएगा और 2010 तक ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी. साथ ही हर साल 2000 आशियाने बनाने का लक्ष्य भी रखा गया था. परियोजना पर जब काम शुरू हुआ तब 30,000 हेक्टेयर भूमि साडा ने इसके विकास के लिए चिह्नित की थी लेकिन वर्तमान में 78,000 हेक्टेयर भूमि को अधिसूचित कर रखा है. अगर अनुमान लगाया जाए तो इतने क्षेत्रफल में चंडीगढ़ जैसे 13 शहर बसाए जा सकते हैं जो पांच से छह करोड़ की आबादी के लिए पर्याप्त होंगे. सवाल उठता है कि इतने बड़े क्षेत्रफल में इतनी लंबी अवधि में कुछ आवासीय परिसरों में 3000 फ्लैट और डुप्लेक्स बना देना क्या समुद्र में कंकड़ फेंकने जैसा नहीं.

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ये योजना ही फर्जी है :  देवसहायम

पूर्व आईएएस एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘आपको चंडीगढ़ में ऊंची इमारतें बहुत कम देखने को मिलेंगी. शिवालिक हिल होने के कारण दो-तीन मंजिल से ऊपर आप बना नहीं सकते. वहां ओपन एरिया ज्यादा है. पार्क हैं, हरियाली है. जमीन 15 हजार एकड़ में फैली है और आबादी 12 लाख की है. जनसंख्या घनत्व कम है. जब साठ साल पहले चंडीगढ़ बनाने की योजना बनी तो लक्ष्य रखा गया था कि पांच से 10 लाख की आबादी के लिए एक शहर बसाया जाए. आपके पास तो 75 हजार एकड़ जमीन थी, तब भी आप दो लाख की आबादी बसाने की बात कर रहे थे और अब आपके पास 1 लाख 95 हजार एकड़ जमीन है पर कितनी आबादी बसाओगे, ये आंकड़ा आपके पास नहीं है. इतना बड़ा शहर बसाना तो केवल सपने में ही संभव है. इससे साफ पता चलता है कि ये योजना ही फर्जी है. यह तो जमीन हड़पने का हथकंडा जान पड़ता है. वरना दो लाख की आबादी के लिए ज्यादा से ज्यादा 500 एकड़ जमीन पर्याप्त है.’[/symple_box]

इस पर साडा अध्यक्ष राकेश जादौन कहते हैं, ‘1992 से 2003 तक का समय तो आप निकाल ही दीजिए. फंड वगैरह की कोई व्यवस्था नहीं थी. 1992 में जब इसकी आधारशिला रखी गई तब प्रदेश में भाजपा की सरकार थी. अगले साल सरकार बदल गई. कांग्रेस के कार्यकाल में कोई काम नहीं हुआ. 2003 में जब भाजपा वापस आई तब काम शुरू हुआ. कहने को तो 24 साल हैं पर गिनना नहीं चाहिए. बीच के 11 सालों में कोई विशेष काम नहीं हुआ. बस खानापूरी हुई.’ यह बात सही है कि ग्वालियर काउंटर मैग्नेट सिटी की जमीनी शुरुआत 2002 में हुई. उसके बाद ही निर्माण कार्य शुरू हुए. पर बीच के इन दस सालों को भी गिना जाना जरूरी है. आखिर उन दस सालों में साडा ने क्या काम किया? अगर राज्य सरकार का समर्थन प्राप्त नहीं था तो फिर साडा का बड़ा स्टाफ इन सालों में क्या करता रहा? तरुण भटनागर उन दस सालों का हिसाब देते हुए कहते हैं, ‘एक शहर बनाने से पहले उसकी योजना बनानी पड़ती है. इसमें समय लगता है. शहर बसाने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करना पड़ता है. कितनी जमीन की जरूरत होगी, वह जमीन कैसे मिलेगी? कितने लोगों के लिए वह शहर होगा? उस शहर में क्या होना चाहिए? कैसे वह दूसरों से अलग हो, जिससे लोगों को वहां आने के लिए रिझाया जा सके, ये सब पहलू देखने पड़ते हैं. दस साल साडा ने यही योजना बनाई.’ भविष्य में मैग्नेट सिटी को कितनी आबादी का भार उठाने लायक बनाया जा रहा है, इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘ऐसा कुछ निर्धारित नहीं किया है. यह तो समय के हिसाब से चलने वाली विकास की एक प्रक्रिया है, जैसे-जैसे क्षेत्र का विकास होता है लोग वहां आकर्षित होने लगते हैं. हमारा सबसे पहला प्रयास है कि हम वहां सार्वजनिक सुविधाएं लोगों को दे सकें.’
नए शहर का निर्माण कैसे होता है, इस पर पूर्व आईएएस और चंडीगढ़ बसने के दौरान डिप्टी कमिश्नर रहे एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘आप जब एक छोटा मकान भी बनाते हैं तब भी सोचते हैं कि कितना बड़ा, कहां, कैसा और कितने व्यक्तियों के लिए बनाना है. उससे पहले देखा जाता है कि इसकी जरूरत है भी या नहीं. उसी तरह किसी भी नए शहर का विकास करने से पहले सबसे पहले तो सोचना पड़ता है कि कितना बड़ा शहर बनाना है? अधिकतम कितनी आबादी का भार सहने की उसमें क्षमता हो? वह कैसा होना चाहिए? दूसरा, नए शहर का भविष्य वहां पैदा की गई आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर करता है. नए शहर में लोगों के बसने का कारण यही गतिविधियां बनती हैं. तीन किस्म की गतिविधियां जरूरी हैं, उद्योग, व्यापार और सरकार. जब एक नए शहर में उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, व्यापार पनपेगा और सरकारी कार्यालय होंगे तभी लोग वहां आकर बसेंगे. आर्थिक एवं वाणिज्यिक गतिविधियों और रोजगार व व्यापार के अवसरों की तलाश करके ही आपको शहर बसाने के लिए जरूरी जमीन के बारे में सोचना चाहिए. और कम से कम क्षेत्रफल में शहर बनाने की योजना बनानी चाहिए.’
पर ग्वालियर काउंटर मैग्नेट सिटी के मामले में ठीक उल्टा हुआ. यहां जमीन का चयन पहले हुआ, फिर रिहायशी परिसर बनाए गए जिसमें कई दशकों का समय लग गया. आर्थिक गतिविधियां पैदा करने की ओर न तो साडा ने रुचि दिखाई और न ही राज्य सरकार ने. राजेश बाबू भी इस पर मुहर लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘वहां सबसे बड़ी खामी सुरक्षा की है. पुलिस थाना तक नहीं है. जो सड़कें उस इलाके को शहर से जोड़ती हैं, वहां सूरज ढलते ही मीलों तक रोशनी की किरण नहीं दिखाई देती. पानी-सीवर की व्यवस्था भी ठीक नहीं है. लोग कैसे जाएं रहने जब उन्हें वहां कोई सुविधा ही नहीं दिख रही. अगर कुछ सरकारी महकमे के दफ्तर वहां पहुंचे, उद्योग-धंधे पनपे तो लोगों का आना-जाना होगा, जिससे अन्य सुविधाएं बढ़ेंगी. अभी उस अंधियारे जंगल में खुद की हिफाजत ही सबसे बड़ी चुनौती है. सरकारी इच्छाशक्ति का अभाव साफ दिख रहा है, बस कागज पर योजना बना दी गई है.’ यही कारण था कि जब ‘तहलका’ ने पूरे क्षेत्र का दौरा किया तो पाया कि पूरे क्षेत्र में 50 ढांचे भी तैयार नहीं हुए हैं. निर्माण कार्य हुए भी हैं तो वहां कोई रहने नहीं आ रहा. इससे साडा के उस दावे पर प्रश्नचिह्न लगता है जिसमें वह कहता है कि दस साल तक उसने एक नए शहर को बसाने की योजना पर मशक्कत की. तरुण कहते हैं, ‘लोगों का न रहने जाना ही सबसे बड़ी चुनौती है. इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं. सार्वजनिक सुविधाएं बढ़ा रहे हैं. कई लोग निवेश के लिए आगे आ रहे हैं. कुछ सरकारी कार्यालयों ने भी हमसे वहां जमीन मांगी है.’ राकेश का कहना है कि शासकीय कार्यालय वहां शिफ्ट हों इसके लिए प्रयास कर रहे हैं. रोजगार के लिए उद्योग विभाग को वहां उद्योग स्थापित करने के लिए 72 एकड़ भूमि दी गई है. अप्रैल में आने वाले नए मास्टर प्लान में हम सेज का मसौदा रख रहे हैं. फिलहाल हमारा जो सबसे बड़ा काम अधूरा है, वो एयरपोर्ट का निर्माण है. टेक्सटाइल पार्क भी प्रस्तावित है. हालांकि निवेशक इन्हें सिर्फ घोषणा मानते हैं. उनका कहना है कि लंबे समय से ऐसा सुनते आ रहे हैं पर ये बातें कभी धरातल पर साकार नहीं हुईं और न ही आने वाले दो-तीन दशक तक ऐसा होने की संभावना दिख रही है.

कुछ सालों पहले एनसीआरपीबी ग्वालियर से मैग्नेट सिटी का दर्जा वापस लेने पर विचार कर रहा था. कारण यहां विकास की गति का धीमा होना था. ज्योतिरादित्य सिंधिया के हस्तक्षेप से दर्जा बचा था. तब वे केंद्र में मंत्री थे 

अपनी उपलब्धियां बताने के लिए शासन-प्रशासन के पास बस इलाके में चल रहे 4-5 स्कूलों और कॉलेजों के नाम हैं. लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि इससे पहले वहां खुले कई स्कूलों और कॉलेजों पर ताले भी जड़ चुके हैं. सोमानी स्कूल भी उनमें से एक था. इसके मालिक विजय सोमानी वहां निवेश करने को घाटे का सौदा मानते हैं. वहीं एक कॉलेज के प्रबंधन से जुड़े व्यक्ति नाम न छापने की शर्त पर वहां चल रहे कॉलेजों का सच बताते हुए कहते हैं, ‘ये सब डमी ढांचे हैं. यहां कक्षाएं नहीं चलतीं. बस फर्जीवाड़े के लिए इमारतें खड़ी कर दी गई हैं.’

विकास का इंतजार ग्वालियर में दिल्ली बसाने के लिए जमीन तो नजर आती है पर निर्माण कम दिखता है
विकास का इंतजार ग्वालियर में दिल्ली बसाने के लिए जमीन तो नजर आती है पर निर्माण कम दिखता है

वहीं इस पूरी अवधि में अगर कहीं वृद्धि हुई तो वह बस नए शहर को बसाने के क्षेत्रफल में, जो 30,000 हेक्टेयर जमीन से बढ़कर 78,000 हेक्टेयर हो गया और पुरानी जमीन पर कोई विकास कार्य नहीं हुआ. इस कारण देवसहायम इस योजना को ही ‘जालसाजी’ करार देते हैं. (देखें बॉक्स)
ऐसा भी सुनने में आता है कि कुछ सालों पहले एनसीआरपीबी ग्वालियर से मैग्नेट सिटी का दर्जा वापस लेने पर विचार कर रहा था. कारण यहां विकास की गति का धीमा होना था. ग्वालियर जिला कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. दर्शन सिंह बताते हैं, ‘ग्वालियर से काउंटर मैग्नेट सिटी का दर्जा छिनने की बात चली थी, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के हस्तक्षेप से दर्जा बचा था. वे केंद्र में मंत्री थे. माधवराव सिंधिया के प्रयासों से ग्वालियर को काउंटर मैग्नेट सिटी का दर्जा मिला था. उसी को बचाने के लिए उनके पुत्र ने प्रयास किए.’ इस प्रकरण में वे मध्य प्रदेश सरकार पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘काउंटर मैग्नेट सिटी को प्रदेश की भाजपा सरकार कहीं और स्थानांतरित करना चाहती थी, जिसके कारण यहां पर ऐसे कई किसान बर्बाद हो जाते. जिनकी जमीनें इस योजना की भेंट चढ़ चुकी हैं. जो भविष्य में होने वाले विकास से उम्मीदें लगाए बैठे हैं. वहीं एक अन्य कारण यह भी है कि यह नया शहर माधवराव सिंधिया के नाम पर प्रस्तावित है और भाजपा की नीति है कि जिन नामों में कांग्रेस जिंदा है उन नामों को खत्म किया जाए. वरना अगर इनकी नीयत में खोट नहीं होता तो नगर निगम और प्रदेश में दशक भर से इनकी सरकार है और अब केंद्र में भी है. ये काफी कुछ कर सकते थे.’ आरटीआई र्कायकर्ता राकेश सिंह कुशवाह विकास की इस धीमी रफ्तार के लिए भ्रष्टाचार को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘सड़क निर्माण में यहां करोड़ों का घोटाला हुआ है. जो सड़क 78 लाख रुपये में बननी थी, उसमें छह करोड़ रुपये फूंक दिए गए. मैंने इसका खुलासा किया तो मुझे जान से मारने की धमकी दी गई. यह तो महज एक घोटाले का पर्दाफाश हुआ है. अगर जांच कराई जाए तो सामने आएगा कि दशकों से यह कवायद कुछ लोगों के लिए अपनी जेबें भरने का माध्यम बनी रही है. विकास बस इसलिए नहीं हुआ कि पैसा जहां लगना था वहां नहीं लगा. अगर साडा से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी भी मांगी जाए तो ये लोग जानकारी तक नहीं देते. इस तरह शहर कैसे बसेगा?’

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न बची जमीन  न हुआ विकास

नया शहर बसाने के लिए शुरुआती दौर में 36 गांवों की जमीन अधिगृहीत व अधिसूचित की गई थी. जिन लोगों की जमीन अधिगृहीत की गई थी, उनमें से कुछ को अब तक मुआवजा नहीं मिला है. वहीं अधिसूचित जमीन के संबंध में कई ऐसी शर्तें थोप दी गई हैं जिससे किसानों में रोष है

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शुरुआती दौर में जिस 30 हजार हेक्टेयर जमीन पर काउंटर मैग्नेट सिटी बनाने की बात की गई थी, उसमें से सरकारी जमीन महज 6500 हेक्टेयर थी. 14,500 हेक्टेयर वनक्षेत्र था, बाकी 9000 हेक्टेयर जमीन क्षेत्र से लगे 36 गांवों की थी, जिनका मालिकाना हक ग्रामीणों के पास था. वे इस जमीन पर खेती करते थे. इसमें से कुछ जमीन का सरकार ने अधिग्रहण कर लिया और सड़कें बिछा दीं, बाकी जमीन को अधिसूचित कर दिया गया. जो जमीन अधिसूचित की गई, उस जमीन को किसान बिना साडा की अनुमति लिए बेच नहीं सकते हैं. वहीं ग्रामीणों के अनुसार कुछ जमीन बंधक भी बना ली गई है. यह जमीन साडा की अनुमति के बगैर न तो बेची जा सकती है, न इस पर बैंक कर्ज देता है.
पंजाबीपुरा गांव के निवासी कुलजीत सिंह बताते हैं, ‘हमारी 650 बीघा जमीन बंधक है. सरकारी कागजात में हमारे नाम हैं पर लिखा आता है कि साडा की संपत्ति है. न उसे बेच सकते हैं, न कर्ज ले सकते हैं. बेचना भी है तो साडा की अनुमति लो पर वह अनुमति देता नहीं है, चक्कर लगवाता है. जमीन खरीदने का कोई इच्छुक उनसे पूछताछ करने जाए तो उसे कह दिया जाता है कि ले लो, जब हम चाहेंगे छीन लेंगे.’ एक अन्य ग्रामीण गुलजार सिंह कहते हैं, ‘जमीन हमारे पास है. हम खेती कर रहे हैं. पर मालिक तो एक तरह से वही हैं. सरकारी कामों में जमीनी कागजात मान्य नहीं होते. खाद तक नहीं मिलता. खेती-किसानी का सामान छूट या लोन पर लेने का भी लाभ नहीं मिलता. 36 गांवों को यहां ग्रहण लग गया है. अपनी ही जमीन में मकान बनाया तो नोटिस थमा दिया कि साडा से एनओसी ली या नहीं.’ खेरिया के निवासी रामनरेश सिंह यादव की भी 20 बीघा जमीन पर साडा की नजर है. उनकी जमीन बंधक नहीं है पर फिर भी वह बेच नहीं सकते. वे बताते हैं, ‘साडा का एक मास्टर प्लान है. हर क्षेत्र एक तय गतिविधि के लिए आरक्षित है. आप वहां उसके अतिरिक्त कुछ और नहीं कर सकते. मान लीजिए जो क्षेत्र शिक्षा के लिए आरक्षित है, वहां आप स्कूल-काॅलेज ही खोल सकते हैं. बेचना चाहें तो ऐसे व्यक्ति को ही बेच सकते हैं जो वहां स्कूल-काॅलेज खोले या फिर किसानी करे.’ पर एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘ऐसा तो कोई कानून नहीं है कि आप किसी जमीन का अधिग्रहण किए बिना ही उसके संबंध में गाइडलाइन जारी कर दें. अगर ऐसा हो रहा है तो पूरी तरह से वहां के किसानों के अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है.’

वहीं जिन लोगों की जमीन का अधिग्रहण किया गया है उनकी शिकायत है कि उन्हें अब तक उनकी जमीन का पूरा मुआवजा तक नहीं मिला. भयपुरा गांव के निवासी करण सिंह कुशवाह का कहना है, ‘क्षेत्र में सड़क डालने के लिए हमारी छह बीघा जमीन का अधिग्रहण किया गया था. 59,000 रुपये बीघा के हिसाब से हमारा भुगतान होना था लेकिन हमें 50,000 रुपये बीघा का भुगतान किया और बाकी का भुगतान बाद में करने का आश्वासन दिया. जो अब तक नहीं हुआ है.’
खेरिया के बेताल सिंह यादव की कुलैथ में दस बीघा जमीन है. इसका दस साल पहले अधिग्रहण कर लिया गया और उन्हें 62,000 रुपये बीघा के हिसाब से चेक भेज दिया गया. इस कीमत पर उन्होंने अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया. बाद में उन्हें ढाई लाख रुपये बीघा का चेक दिया गया. उन्होंने वह भी लेने से इनकार कर दिया. वर्तमान में वे मुकदमा लड़ रहे हैं. वे बताते हैं, ‘जबरन जमीन पर कब्जा किया जा रहा है. कह रहे हैं कि प्लॉट काटेंगे पर हम नहीं देंगे. उन्होंने हमारी जमीन के कागजों में हमारा नाम हटाकर अपना नाम चढ़ा लिया है. ढाई लाख रुपये बीघा के हिसाब से चेक हमें भेज दिए थे. इस रेट में तो कोई उस जमीन पर खड़ा भी नहीं होने देगा. आज 15-16 लाख रुपये बीघा कीमत है. वैसे तो ये लोग दोगुना मुआवजा देने की बात करते हैं. हम तो कहते हैं, गाइडलाइन का ही दे दो.’ कुलजीत कहते हैं, ‘विकास नहीं हो पा रहा तो हमारी जमीन क्यों ले रखी है, इसे हमें वापस करो.’ वहीं भयपुरा गांव के रहने वाले गुरुनाथ सिंह की व्यथा यह है कि उन्हें बिना नोटिस दिए ही साडा ने उनकी जमीन के कागजात में अपना नाम चढ़ा लिया.

‘किसान मरे नहीं तो क्या करे, खड़ी फसल मौसम से बर्बाद हो जाती है और सरकारें नए-नए कानूनों की गाज उन पर गिराती जाती हैं’

साडा अध्यक्ष राकेश जादौन मुआवजा न मिलने की बात से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘अधिग्रहण और अधिसूचना दो अलग मामले हैं. जिनकी जमीन अधिगृहीत हुई है, हम उन सबको मुआवजा दे चुके है. अगर कोई अपवाद है तो वो हमारे पास आएं. जहां तक जमीनों को अधिसूचित करने का सवाल है तो यह विभिन्न परियोजनाओं को ध्यान में रखकर किया गया है. जब तक हम उनकी जमीन का अधिग्रहण नहीं करेंगे, वे खेती करते रहें. बस उन्हें बेचने के संबंध में कुछ बाध्यताएं जरूर लगाई हैं.’ लेकिन आरटीआई कार्यकर्ता राकेश सिंह कुशवाह दावा करते हैं, ‘मुआवजे के नाम पर फर्जीवाड़ा हुआ है. जिनकी जमीनें ली गईं, उन्हें तो मुआवजा मिला ही नहीं बल्कि उनके नाम के फर्जी दस्तावेज बनाकर अपने चहेतों को मुआवजे की राशि के चेक थमा दिए गए हैं.’
ग्रामीण बताते हैं कि बीस सालों में यहां कोई विकास नहीं हुआ, उल्टा इन बाध्यताओं के कारण वे लोग पिछड़ गए हैं. इससे उनके सामने एक नई ही प्रकार की समस्या खड़ी हो गई है. उनके बच्चों के रिश्ते नहीं हो पा रहे हैं. गुलजार सिंह बताते हैं, ‘पानी, बिजली और मौसम की मार के कारण फसल हो नहीं रही. साडा जमीन छीन लेगा तो हमारे पास बचा क्या? तो कोई क्यों तय करेगा रिश्ता?’ कुलजीत कहते हैं, ‘ग्रामीण जमीन बेचता है तब उसके घर में शहनाई बजती है. वो भी बेच नहीं पा रहा. किसान क्रेडिट कार्ड तक नहीं बन रहे.’
इसलिए ग्रामीणों का कहना है कि काउंटर मैग्नेट सिटी में जो जमीन सरकार की है पहले उस पर तो विकास करो, तब हमारी जमीन पर नजर गड़ाओ. बेताल कहते हैं, ‘पहले बनाते-बनाते आगे तो बढ़ो, अगर कमी पड़े तो किसानों से जमीन लो. वहां कुछ हुआ नहीं है, तब तक किसानों को परेशान कर रहे हो.’
वहीं इस पूरी कवायद ने मैग्नेट सिटी के दायरे में आ रहे सभी गांवों में जमीन के दाम बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं. जिगसौली गांव की जमीन गाइडलाइन में 12 लाख रुपये बीघा है. वहीं उससे जुड़ा खेरिया गांव जो नगर निगम के दायरे में आता है, वहां जमीन की कीमत साठ लाख रुपये बीघा है. रामनरेश यादव कहते हैं, ‘खेत से खेत लगे हुए हैं, तब भी इतना अंतर. क्योंकि जिगसौली पर साडा का ग्रहण जो लगा है. जमीन की कीमत इतनी कम हो गई है कि बेचने का फायदा ही नहीं दिखता.’ वहीं पंजाबीपुरा के ग्रामीणों का कहना है, ‘अगर यह परियोजना यहां से हट जाए तो हमारी जमीनें करोड़ों की हों. तीन किलोमीटर की दूरी पर जमीन डेढ़ करोड़ रुपये बीघा है और हमारे यहां महज 15 लाख रुपये एक बीघा की कीमत है. मुआवजा अगर गाइडलाइन का दोगुना भी देते हैं तब भी हम नुकसान मंे ही रहेंगे.’ एक अन्य ग्रामीण कुलवंत सिंह कहते हैं, ‘हम तो चाहते हैं कि ये सब बंद हो. ये परियोजना यहां से हटे तो विकास के नाम पर हमारी बलि चढ़ना बंद हो.’ कुलजीत कहते हैं, ‘साडा हटेगा तो विकास जल्दी होगा क्योंकि यहां जलस्तर अच्छा है. साडा ने यहां के विकास की संभावनाओं का कत्ल कर दिया है और खुद विकास करने में अक्षम साबित हुआ है.’
बेताल कहते हैं, ‘पहले हम खेती में बहुत बचत कर लेते थे और अब हाल ये है कि खेती तो कर पा रहे हैं पर एक रुपया भी नहीं बचा पा रहे. उल्टा कर्जदार बन रहे हैं.’ जाते-जाते करण हमें रोककर पूछते हैं, ‘किसान मर रहे हैं, खुदकुशी कर रहे हैं, उन्हें कुछ तो दिक्कत होगी जो मर रहे हैं? किसान मरे नहीं तो क्या करे, खड़ी फसल मौसम से बर्बाद हो जाती है और सरकारें उन पर नए-नए कानूनों की गाज गिराती जाती हैं.’ [/symple_box]

वहीं प्राइवेट बिल्डर भी यहां निवेश करके खासे नुकसान में रहे हैं. यही कारण रहा है कि उन्होंने यहां निर्माण कार्य पूरी तरह रोक दिया. 107 एकड़ में फैली ‘सहारा सिटी’ और 375 एकड़ में फैली ‘मंत्री सिटी’ के नाममात्र के बने ढांचे में सिवा सुरक्षा गार्ड के कोई नहीं रहता. वहीं क्षेत्र को विकसित देखने की चाह में अपनी जमीन साडा को देने वाले ग्रामीण बताते हैं कि उन्हें बोला गया था कि एक दूसरा नोएडा यहां भी बसेगा. पानी-सड़क-बिजली-शिक्षा-रोजगार घर बैठे मिलेगा. यही सोचकर उन्होंने अपनी जमीन साडा को दे दी. सोचा कि जब शहर बसेगा तो गांववालों को भी लाभ होगा. पर आज सालों बीत गए लेकिन कुछ नहीं हुआ, उल्टा उनकी जमीन उनसेे छिन गई और अब तक पूरा मुआवजा भी नहीं मिला है. खेरिया निवासी गुप्त सिंह यादव कहते हैं, ‘जमीन अधिग्रहण कर सड़कें बना दी गईं, उसके बाद से यहां कोई विकास कार्य नहीं हुआ. बीस साल से सुन रहे हैं कि यहां शहर बसेगा पर लगता नहीं कि अगले बीस-तीस साल भी यहां कुछ होना है.’ क्षेत्र में लगने वाले तिघरा थाना में पदस्थ काॅन्स्टेबल त्रिभुवन सिंह बताते हैं, ‘इस जंगल में कौन रहने आएगा! कम से कम बीस-पच्चीस साल तो कोई उम्मीद ही छोड़ दो. इसी रफ्तार से चले तो वो भी कम हैं.’ इस सबके बीच एनसीआरपीबी की कार्यशैली पर भी प्रश्न उठते हैं. वह इस योजना को दिल्ली में होने वाले पलायन को रोकने के उद्देश्य से लाया था. लेकिन दिल्ली की तरफ लोगों का रोजगार और शिक्षा के लिए पलायन लगातार बढ़ता जा रहा है. काउंटर मैग्नेट सिटी के लिए जो शहर चुने गए थे, वे इस पलायन को खुद में समेटने में नाकाम रहे हैं. सवाल उठता है कि एनसीआरपीबी इन शहरों को फंड तो लगातार जारी करता रहा है पर क्या ये शहर अपने उद्देश्य में सफल हो सके. इसके उलट वह कई और नए शहरों को काउंटर मैग्नेट सिटी का दर्जा बांटे जा रहा है.
बहरहाल इस पूरी कवायद में यह तो तय है कि सरकारें आती हैं, योजनाएं लाती हैं. सरकारें बदल जाती हैं, योजनाएं ठप हो जाती हैं. हर योजना सुनहरे सपने दिखाती है लेकिन वे सपने कभी जमीनी धरातल पर नहीं उतर पाते. नेता आश्वासन देते रहते हैं और नौकरशाही योजनाओं में पलीता लगाती रहती है. सपने आम जनता के टूटते हैं जो इन योजनाओं की सफलता से अपने लिए कुछ उम्मीद पाल लेती है. काउंटर मैग्नेट सिटी की तरह ही अब स्मार्ट सिटी का शिगूफा छेड़ा गया है, देखना रोचक होगा कि यह नई कवायद क्या करवट लेती है. जिस तरह आज काउंटर मैग्नेट सिटी के विकास की धीमी रफ्तार पर राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप मढ़ रहे हैं, संभव है स्मार्ट सिटी के मामले में भी आने वाले सालों में हमें यही देखने को मिले. ग्वालियर भी स्मार्ट सिटी की इस अंधी दौड़ में शामिल है, वह देश की वैकल्पिक राजधानी तो नहीं बन सका, अब स्मार्ट सिटी बनाने का सपना उसे दिखाया जा रहा है. इस सपने का हश्र भी काउंटर मैग्नेट सिटी के पुराने सपने की तरह हो, तो कोई आश्चर्य नहीं.

‘हम चाहते हैं कि दुनिया देखे कि पाकिस्तानी तंगनजर नहीं हैं, वे हीरो का एहतराम करते हैं, चाहे वह किसी भी मजहब से क्यों न हो’

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लाहौर का शादमान चौक जहां भगत सिंह को फांसी हुई थी, का नाम बदलकर शहीद भगत सिंह चौक करने की मांग की जा रही है.
फोटो साभार : न्यूयॉर्क टाइम्स

भगत सिंह को निर्दोष साबित करने का विचार कहां से आया? इसकी शुरुआत कैसे हुई?

देखिए, भगत सिंह निर्विवाद रूप से आजादी के सबसे बड़े हीरो हैं. मेरे पूर्वजों ने भी आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी. वे आपके हरियाणा के सिरसा में रहते थे. वहां हमारे पूर्वज बाबा गुलाब शाह का मजार है. हिंदू और मुसलमान उन्हें बड़ा मानते हैं. इस मामले में हमारे परिवार का माहौल बहुत ही अच्छा है. वालिद और दादा अक्सर आजादी के दीवानों की कहानियां सुनाया करते थे. ऐसे ही एक दिन भगत सिंह का जिक्र आया. तभी हमने फैसला किया कि भगत सिंह की फांसी का सच पता लगाएंगे. इसके बाद हमने पीआईएल लगाने का फैसला किया. मेरे वालिद एडवोकेट हैं. मैंने अर्जी लगाई, उन्होंने पैरवी की. पहली सुनवाई 24 मई, 2013 को हुई.

advocate, Imtiaz Rashid Qureshi
इम्तियाज राशिद कुरैशी

भगत सिंह को आप किस तरह का इंसाफ दिलाना चाहते हैं? आपका मकसद क्या है?

अदालत में हमें शुरुआती तौर पर सफलता मिली है. 2014 में हम वो एफआईआर निकाल लाए, जिस केस में भगत सिंह को फांसी दी गई थी. पता चला कि उस एफआईआर में तो भगत सिंह का नाम ही नहीं था. और तो और, रजिस्ट्रार के फैसले पर ही फांसी दे दी गई. जबकि रजिस्ट्रार के पास ऐसा कोई अधिकार होता ही नहीं है. हमने अपने केस में यही दलीलें दी हैं. वैसे भी भगत सिंह की न्यायिक हत्या की गई थी. हम चाहते हैं कि ब्रितानी हुकूमत इसके लिए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के परिवार से माफी मांगे व इसके लिए हर्जाना दे. वह भारत और पाकिस्तान से भी माफी मांगे. जैसे महारानी विक्टोरिया ने जलियांवाला बाग के लिए माफी मांगी थी. वैसे ही इनसे भी मांगें. इसके अलावा दोनों देशों को ब्रिटिश हुकूमत हर्जाना भी दे. हम चाहते हैं कि दुनिया देखे कि पाकिस्तान में लोकतंत्र है. यहां भी न्यायिक प्रक्रिया बेहतर ढंग से चल रही है और यहां की अदालतें भी इंसाफ करती हैं. इसके अलावा दुनिया यह भी देखे कि पाकिस्तानी तंगनजर नहीं हैं. वे हीरो का एहतराम करते हैं, फिर चाहे वह हीरो किसी भी मजहब से ताल्लुक क्यों न रखता हो.

पाकिस्तान में भगत सिंह के लिए इंसाफ की यह लड़ाई कितनी आसान रही?

यह लड़ाई हमारे लिए काफी मुश्किलों भरी रही है. सबसे पहले हमने जब मुकदमा दायर किया तो हमारे ही लोग सामने आए. उन्होंने धमकियां दीं. हमे गोलियों से भून देने की बात कही. हालांकि हम इससे नहीं डरे. हमने भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन बनाया और पूरे पाकिस्तान में रैलियां कीं. जब लोगों को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने हमारे काम की सराहना शुरू की. देश और दुनिया भर से बहुत-से लोगों ने इसकी तारीफ की. केस दाखिल करने के बाद मैं दो बार भारत गया. भगत सिंह के परिवार से मिला. उन्होंने भी हमारे काम की तारीफ की है.

बिहार पंचायत चुनाव : बदलाव की बयार

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बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले की बड़गांव पंचायत. पूरे बिहार की तरह वहां भी इन दिनों पंचायत चुनाव की सरगर्मी है. उस पंचायत से तीन बड़े नामदार ठाकुर उम्मीदवार मुखिया पद के लिए मैदान में उतरे हैं. इन तीनों मजबूत उम्मीदवारों के सामने शंभू डोम नाम का एक मामूली हैसियत वाला उम्मीदवार मजबूती से चुनौती दे रहा है. बड़गांव से ही कुछ दूरी पर एक और पंचायत है सलहा बरियरवा. सलहा बरियरवा पंचायत की कहानी और भी दिलचस्प है. आजादी के बाद से उस पंचायत का मुखिया मारकंडेश्वर सिंह के परिवार से होता आया है. इस बार भी उस परिवार का मुखिया एक बार फिर चुनाव मैदान में है जिसे पिछले 25 सालों से 224 एकड़ जमीन पर हकदारों को कब्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे सोहन राम चुनौती दे रहे हैं. सोहन चर्चा में हैं. मारकंडेश्वर सिंह के परिवार को पहली बार मजबूत चुनौती मिल रही है.
जिन दोनों पंचायतों की बात की जा रही है वहां की सीट सामान्य है. यानी अनारक्षित लेकिन दोनों ही सीटों पर महादलित परिवार से आने वाले उम्मीदवार दिग्गजों को चुनौती दे रहे हैं. पश्चिमी चंपारण के ही बगहा इलाके से एक और कहानी है. बगहा इलाके में रहने वाले थारू आदिवासियों ने चुनाव के पहले ही मुखिया-सरपंच आदि का चयन चुनाव के पहले ही सर्वसम्मति से कर लिया है. इसी पश्चिमी चंपारण इलाके में कुछ और छोटे-छोटे किस्से सुनने को मिलते हैं. बताया जाता है कि इस बार बगहा, जोगापट्टी, गवनाहा, नवतन जैसे कई इलाकों में शराबबंदी का अभियान चल रहा है और पंचायत चुनाव में शराब और पैसे का इस्तेमाल न हो, इसके लिए लगातार आंदोलन भी हो रहे हैं. इस इलाके में सक्रिय लोक संघर्ष समिति के सदस्य व सामाजिक कार्यकर्ता पंकज बताते हैं, ‘इस बार महिलाएं कई इलाकों में नारे लगा रही हैं और उन नारों का असर भी हो रहा है. एक नारा है- जो बांटे चुनाव में दारू, उसको बहनो मारो झाड़ू… चुनाव में जो बांटे दारू-नोट, उसको कभी न देना वोट… वोट के नाम पर कभी नोट न लेना, जो बांटे उसे कभी वोट न देना…’
चंपारण से निकलते हैं. कुछ और जगहों पर बात होती है. तरह-तरह की सूचनाएं मिलती हैं. जानकारी मिलती है कि चंपारण के सोहन राम और शंभू डोम की तरह दर्जनों दलित नौजवान इस बार चुनावी मैदान में दमखम और रणनीति के साथ मैदान में हैं. अांबेडकर युवा मंच के बैनर तले राज्य के अलग-अलग हिस्सों से 25 महादलित युवाओं के चुनाव लड़ने की जानकारी मिलती है. अमूमन सभी स्नातक हैं. दलितों से इतर दूसरे समुदाय के नौजवानों के बारे में जानकारी मिलती है. खुसरूपुर के हैवतपुर पंचायत से सूचना मिलती है कि टाटा कंपनी के लेबर सुपरवाइजर पद पर काम करने वाले 27 वर्षीय नौजवान दिलीप कुमार वहां से चुनाव के मैदान में हैं. वे अपनी नौकरी छोड़ पंचायत चुनाव लड़ने आए हैं.

पंचायत चुनाव तमाम बुराइयों के बावजूद बिहार को बड़े स्तर पर बदल रहा है. दलित-वंचित अपने राजनीतिक हक के लिए आगे आ रहे हैं

एक ऐसी ही जानकारी भतुहा के मामिनपुर पंचायत से मिलती है. उस पंचायत से 27 वर्षीय दिनेश कुमार मैदान में हैं. दिनेश आईसीआईसीआई बैंक में अधिकारी थे. नौकरी को छोड़कर वे पंचायत चुनाव लड़ रहे हैं.
मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके की एक पंचायत में मुखिया पद के लिए 40 पुरुषों ने नामांकन करवाया तो रणनीति बनाकर 39 महिलाओं ने भी मुखिया पद के लिए नामांकन कर दिया, जबकि यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित नहीं है. जहानाबाद से सूचना मिलती है कि वहां की कई पंचायतों में, जहां सीटें अनारक्षित हैं, स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाएं गोलबंद होकर एक-एक पद के लिए चुनाव लड़ रही हैं.

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हालांकि उत्तर बिहार से दक्षिण और मध्य बिहार तक आते-आते सूचनाएं बदलने लगती हैं. परिदृश्य बदलने लगते हैं. मध्य बिहार के औरंगाबाद जिले में माहौल इतना खुशनुमा कहीं नहीं दिखता. इस इलाके में एक अप्रैल से शराबबंदी सबसे बड़ी चिंता की बात है और यहां बंदी से पहले शराब का स्टाॅक जमा कर लेने या होली में ही पंचायत चुनाव के कोटे की शराब बांट देने की होड़ मची हुई थी. भोजपुर के सासाराम इलाके में होली के अवसर पर पंचायत चुनाव में उतरे प्रत्याशियों द्वारा घर-घर शराब पहुंचा देने की सूचना मिलती है. आरा, बक्सर, सासाराम, गया जैसे कई इलाकों से शराब के साथ-साथ जाति के उन्माद में चुनाव के डूब जाने की सूचना मिलती है.
पंकज बताते हैं, ‘पूरे बिहार में ऐसी ही स्थिति है लेकिन कुछ इलाकों में, जहां लोग जागरूक हैं, वहां इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश भी हो रही है. इस बार यह हल्ला मच गया है कि केंद्र की सरकार अब सीधे पंचायतों को पैसा देगी, बीच में राज्य सरकार नहीं होगी. यह हवा फैल जाने से जो चुनाव लड़ रहे हैं, वे जान रहे हैं कि इस बार जो मुखिया बनेगा वह करोड़ों का खेल करेगा और यह बात जनता तक भी फैल गई है, इसलिए जनता भी जान रही है कि मुखिया बन जाने के बाद तो प्रत्याशी पकड़ में आएंगे नहीं इसलिए जो वसूल किया जा सकता है उसे अभी से ही वसूलने की कोशिश कर रहे हैं.’ वे बताते हैं, ‘मैंने पहली बार देखा कि होली में मुखिया पद के प्रत्याशियों द्वारा अंग्रेजी शराब और पांच-पांच सौ रुपये का नोट घर-घर भिजवाया गया.’ समाजशास्त्री प्रो. एस. नारायण कहते हैं, ‘बिहार में पंचायती राज व्यवस्था ने हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और जनप्रतिनिधियों की लगातार हत्याएं हुई हैं, यह चलन खतरनाक है.’ लोगों को भी पता है कि जब 2001 में पंचायत चुनाव शुरू हुआ था तो करीब पांच दर्जन प्रत्याशियों की हत्या चुनाव के पहले ही हो गई थी और दहशत का माहौल बन गया था.
बिहार में 24 अप्रैल से पंचायत के चुनाव होने वाले है. 10 चरणों में चुनाव होना हैं. हर चरण में 53 प्रखंडों में चुनाव होंगे. कुल दो लाख 58 हजार 772 पदों के लिए यह चुनाव होने वाला है. बिहार में 1978 के बाद से पंचायत चुनाव रुक गए थे. 2001 से फिर से चुनाव का सिलसिला शुरू हुआ. उसके बाद से यह चौथा चुनाव होने वाला है. तीन चुनाव से बिहार में बहुत कुछ बदला है.

‘द हंगर प्रोजेक्ट’ की कार्यक्रम अधिकारी शाहीना परवीन कहती हैं, ‘आपको पिछले तीन चुनाव काे देखना हो तो यही देखिए कि नीतीश कुमार लगातार मुख्यमंत्री बन रहे हैं. नीतीश जान गए थे कि पंचायत चुनाव सिर्फ कोरम पूरा करने से नहीं होगा, इसलिए उन्होंने महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया, पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों को अलग से आरक्षण दिया और उसका ही नतीजा निकला कि सामाजिक स्तर पर राजनीति में कई बदलाव हुए और नीतीश कुमार खुद को लंबी पारी के लिए तैयार कर पाए.’
शाहीना जो बात कहती हैं उसका असर पूरे बिहार में देखा जा सकता है. पिछले कुछ दशकों मंे दो चीजों ने ही बिहार की राजनीति और समाज को पूरी तरह से बदला है. एक 90 के दशक के आरंभ में मंडल राजनीति का उभार और दूसरा 2001 के बाद शुरू हुआ पंचायत चुनाव. मंडल की राजनीति ने लालू प्रसाद यादव को बड़े नेता के तौर पर स्थापित किया. इस वजह से कई लोग लालू को परिस्थितियों की देन वाला नेता भी मानते हैं लेकिन उसके बाद 2001 में जब पंचायत चुनाव शुरू हुआ और 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री चुने गए तो उन्होंने इसका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया. नीतीश कुमार ने पंचायत की राजनीति को राज्य की राजनीति को बदलने वाले तत्व की तरह विकसित किया और नतीजा यह हुआ कि अतिपिछड़ों, महादलितों के साथ महिलाएं एक अलग और स्वतंत्र समूह के तौर पर उभरीं और वे नीतीश के खास वोटबैंक में बदल गईं.

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पंचायत चुनावों का कोई मतलब नहीं, इसने बिहार की संस्कृति का क्षरण किया है:  डाॅ. विजय

Vijay-fFwebदेश में जो व्यवस्था है उसमें पंचायत चुनावों को और उससे बनने वाली व्यवस्था को तीसरी सरकार के रूप में देखा गया. लेकिन बिहार में होने वाले पंचायत चुनाव में तीसरी सरकार की जो मूल अवधारणा है उसकी ही कमी दिखती है. बिहार में पंचायत चुनाव में सबसे मजबूत सवाल स्वायत्तता का है. न पंचायत की सरकार को अब तक अपनी योजना बनाने का अधिकार मिल सका है, न उसके अपने कर्मचारी हैं, न अपना भवन है. तो तीसरी सरकार जैसी अवधारणा कहां कारगर हो पा रही है. मैं तो यह मानता हूं कि संविधान में 73वां संशोधन हुआ, वही एक बड़ी भूल जैसा था या कहिए कि बेईमानी की गई थी. पंचायत और नगर निगम को लिस्टेड ही नहीं किया गया. संविधान के नीति निर्देशक तत्व में जो 40 क है, उसके अनुसार पंचायतों को या इस तीसरी सरकार को राज्य के भरोसे छोड़ दिया गया. इसलिए गौर कीजिए कि 23 सालों के बाद जब 2001 में बिहार में फिर से पंचायत चुनाव शुरू हुआ तो उसमें उत्साह दिखा. सामाजिक न्याय का नजरिया भी दिखा लेकिन उसके बाद पंचायत की व्यवस्था और उसके चुने हुए प्रतिनिधि सिर्फ राज्य सरकार के एजेंसी भर बनकर रह गए और ब्यूरोक्रेसी ने इसे चंगुल में ले लिया. नतीजा यह हुआ कि पंचायत के प्रतिनिधि दलाल हो गए और वे उसी तर्ज पर चुनाव लड़ने लगे, जिस तरह से लोकसभा-विधानसभा के चुनाव लड़े जाते हैं. जो लोग लोकसभा-विधानसभा मंे चुकते गए, वे पंचायत चुनाव में मुखिया बनने के लिए लड़ने लगे. लोकसभा या विधानसभा सदस्य बनकर लूट सकने की संभावना खत्म हुई तो मुखिया बनकर लूटने लगे. और राज्य सरकारों ने भी मुखियाओं को पैसे में उलझा दिया क्योंकि पैसे में अगर नहीं उलझाया जाता तो फिर पंचायतें अपने अधिकार की मांग करतीं और पंचायतों को अधिकार देने को और स्वायत्त करने को कोई तैयार नहीं है. मुखिया राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए वोट मैनेज करने का टूल बन गए, इसे आप बिहार में सभी जगह देख सकते हैं और यह भी देख सकते हैं कि कैसे अधिकाधिक पैसे खर्च कर चुनाव लड़े जा रहे हैं. मैं तो साफ मानता हूं कि बिहार में पंचायत चुनावों ने राज्य की संस्कृति का क्षरण किया है और इस तरह से चुनाव कराने का कोई खास फायदा नहीं.

( लेखक गांधीवादी विचारक हैं )
(निराला से बातचीत पर आधारित) [/symple_box]

शाहीना बताती हैं, ‘लड़कियों को साइकिल देने वाली योजना और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा, नीतीश कुमार के ये दो काम ही ऐसे रहे जिससे वे जाति की राजनीति को पार कर समूह की राजनीति करने वाले नेता बन गए और बड़ी से बड़ी चुनौतियों से पार पाकर तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए.’ जन जागरण शक्ति संगठन के प्रमुख आशीष रंजन कहते हैं, ‘बिहार पंचायत चुनाव में आपको तमाम बुराइयां दिखेंगी. सरकार की मंशा मंे भी खोट दिखेगा. कहने को पिछले तीन बार से पंचायत चुनाव हो गए हैं. मुखिया करोड़पति हो गए हैं. लाखों में अब कोई बात नहीं करता. कहीं पर पंचायत सरकार का काम फंक्शनल नहीं दिखेगा. कायदे का पंचायत भवन नहीं दिखेगा. टेक्निकल स्टाफ नहीं दिखेंगे. ऐसी तमाम शिकायतें आप कर सकते हैं लेकिन इन तमाम शिकायतों को अभी परे कर सकते हैं, क्योंकि यह पंचायत चुनाव तमाम बुराइयों के बावजूद बिहार को बड़े स्तर पर बदल रहा है. दलित-वंचित अपने राजनीतिक हक के लिए आगे आ रहे हैं. वे चुनाव लड़ रहे हैं, जीत रहे हैं और फिर राजनीति में आगे बढ़कर अपनी हिस्सेदारी पाने के लिए बेताब हैं. आप कह सकते हैं कि मुखियापति और सरपंचपति का जमाना है, महिलाएं सिर्फ मोहरा रहती हैं लेकिन उसका दूसरा पहलू यह देखिए कि इस पंचायत चुनाव के पहले बिहार में स्थिति ऐसी भी नहीं थी. यह तो तय है न कि जो महिला पंचायत चुनाव लड़ेगी उसे स्टूडियो जाकर कटआउट के लिए अपनी तस्वीर खिंचवानी होगी. उसे गलियों में घूमना होगा. सभाओं में कभी-कभार ही सही जाना होगा. यह क्या कम है. बिहार के एक बड़े हिस्से में यह होना भी तो असंभव-सा ही दिखता था.’
शाहीना और आशीष रंजन की तरह ही तमाम लोगों की यही राय है कि पंचायत चुनाव बिहार को बदल रहा है. उसका काला पक्ष है लेकिन उस काले पक्ष पर संभावनाएं भी हावी दिखती हैं. इस बात को बिहार के मुखिया नीतीश कुमार भी अपने तरीके से कहते हैं. 30 मार्च को जब वे शराबबंदी की पुनर्घोषणा करके आदेश दे रहे होते हैं तो खुलकर कहते हैं, ‘यह कड़ा फैसला है लेकिन यह फैसला हमने महिलाओं के कहने पर लिया है. उन महिलाओं के कहने पर जो अब राजनीति और समाज को समझने लगी हैं. उन महिलाओं ने ही हमसे कहा था कि शराब बंद करवा दीजिए. हमने उनकी बात मानकर चुनाव के पहले ही घोषणा कर दी कि अगर सरकार में आए तो शराब बंद करवा देंगे.’ सरकार में आने के बाद उन्होंने पहला फैसला शराबबंदी का ही लिया. नीतीश कुमार यह कहकर बता रहे होते हैं कि बिहार की राजनीति में महिलाओं का क्या महत्व है. और बिहार में महिलाओं का राजनीतिक महत्व बढ़ाने में इस पंचायत चुनाव की भूमिका क्या रही है, यह सब जानते हैं.

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कोई कैसे भी देखे इस चुनाव को, सच ये है कि महिलाओं की स्थिति और बिहार के हाल को पंचायत चुनावों ने ही बदला है : शाहीना परवीन

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पिछली बार जब पंचायत चुनाव हुआ था तो महिलाओं ने आरक्षित सीटों से ज्यादा पर अपनी जीत दर्ज की थी. 50 प्रतिशत सीटें उनके लिए आरक्षित हैं, इससे ज्यादा प्रतिशत सीटों पर महिलाओं की जीत हुई थी लेकिन उस जीत में एक और बात हुई थी. मुखिया की सीट पर महिलाएं करीब उतनी ही जीत पाई थीं, जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित थीं. इसके अलावा एक या दो प्रतिशत के करीब सामान्य सीट पर महिलाएं मुखिया के लिए चुनी जा सकी थीं. ऐसा इसलिए हुआ था कि पुरुष बाकी पदों को तो महिलाओं के हवाले कर देने को तैयार भी हैं लेकिन मुखिया पद को अब भी नहीं देना चाहते. ऐसा इसलिए कि यह पद सीधे-सीधे आर्थिक मसले से जुड़ा हुआ है.
जो महिलाएं आरक्षित पद होने के कारण मुखिया पद के लिए चुन भी ली गईं, उनमें से भी कई को पांचों साल तक कई किस्म की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ा. अध्ययन के दौरान कई केस ऐसे आए जिससे यह साफ हुआ. मुखिया बनने के बावजूद कई महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा. अधिकांश मामले साइन करने को लेकर हुए. पुरुषों का एक हिस्सा चाहता है कि उनके घर की महिलाएं आरक्षण का लाभ लेकर मुखिया तो बनें लेकिन वे सिर्फ मुखिया ही बनी रहें. इसके अलावा अपने दिमाग या विवेक का इस्तेमाल न करें लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि कई जगहों से ये खबरें आ रही हैं कि महिलाएं गोलबंद होकर चुनाव लड़ रही हैं. इस गोलबंदी का रूप-स्वरूप ऐसा है कि कई महिलाएं आपस में तय कर रही हैं कि उनमें से कौन महिला पंचायत समिति सदस्य के लिए चुनाव लड़ेगी, कौन सरपंच के लिए और कौन दूसरे पदों के लिए. इतना ही नहीं, कौन उपमुखिया बनेगी, यह तक इस बार कई जगहों पर तय कर रही हैं.
मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके से खबर आई कि वहां एक सीट पर 40 पुरुषों और तकरीबन 39 महिलाओं ने मुखिया पद के लिए नामांकन कर दिया है, जबकि वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित भी नहीं है. यह गोलबंदी का ही असर है. ऐसा कर वे आपस में सहमति बना रही हैं. महिलाएं अब पुरुषों की तरह दांव-पेंच अपना रही हैं. यह सीमित क्षेत्र में ही है लेकिन यह एक बेहतर संकेत है. आने वाले दिनों में इसका असर दिखेगा और यह बिहार जैसे राज्य के लिए बेहतर ही होगा. यह क्यों अच्छा होगा, इसे इस रूप में देख-समझ सकते हैं.
महिलाएं जिन पदों के लिए चुनी गईं, उसका असर पूरे बिहार में व्यापक रूप में देखा गया. महिलाएं वार्ड सदस्य के लिए चुनी गईं, सरपंच पद के लिए चुनी गईं और उन पदों पर रहते हुए खुलकर काम किया. वार्ड सदस्यों को ही देखें. वार्ड सदस्य चुनकर जब महिलाएं आईं तो उसका असर यह हुआ कि बिहार में कई ऐसे मसले उठने लगे जो कभी उठते ही नहीं थे और यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूं कि वे मसले पुरुष प्रतिनिधि कभी उतनी शिद्दत से नहीं उठाते. आंगनबाड़ी चल रहा है या नहीं, मध्याह्न भोजन सही समय और सही क्वालिटी के साथ मिल रहा है या नहीं, सैनिटरी नैपकिन का बंटवारा सही से हो रहा है या नहीं, स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय है या नहीं, इन सभी मसलों को पिछले 15 साल में वार्ड और पंचायत स्तर पर महिला प्रतिनिधियों ने ही उठाया है.

(लेखिका द हंगर प्रोजेक्ट में कार्यक्रम अधिकारी हैं )

(निराला से बातचीत पर आधारित) [/symple_box]

‘लोगों को बरगलाने के लिए कहा जा रहा है कि भगत सिंह हमारे हैं’

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लोगों को बरगलाने के लिए मुखौटे डालकर हर तरफ से यह कहा जा रहा है कि भगत सिंह हमारे हैं और हम भी उन्हीं के जैसे हैं. भगत सिंह के होने का मतलब वह है जो कुछ उन्होंने असेंबली में बम फेंकने के बाद कहा था. जो भगत सिंह के विचारों के एकदम उलट काम कर रहे हैं, वे भी भगत सिंह पर दावा पेश कर रहे हैं. यहां तक कि भाजपा भी उनको अपना बता रही है. भगत सिंह को पगड़ी पहना दें, ये नारे लगा दें, वो नारे लगा दें, यही हाे रहा है. सेंट्रल असेंबली में जाने का निर्णय भगत सिंह ने जान-बूझकर लिया था जिसका कुछ उद्देश्य था. वह यह था कि अगर उनका एक नारा लोग समझ जाएंगे, तो इस व्यवस्था को पूरी तरह गरीबी और गुलामी से मुक्ति मिलेगी. उनके दो नारे थे, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’. यह जो द्वंद्वात्मक रिश्ता है शोषण और शोषक के बीच, जिसे गदर पार्टी ने स्पष्ट किया था, भगत सिंह सिर्फ यह चाहते थे कि लोग इसे समझें. कांग्रेस जब पूर्ण स्वराज की बात कर रही थी तब उसके पहले ही भगत सिंह कह रहे थे कि वैयक्तिक स्वतंत्रता मिले बिना पूर्ण स्वराज कैसे संभव है. वे यह चाहते थे कि लोग निजी स्तर पर अपनी आवाज उठा सकें और उन्हें बुनियादी नागरिक अधिकार प्राप्त हों, जो अंतरराष्ट्रीय नागरिक अधिकारों के तहत आते हैं.

भगत सिंह कहते थे कि हमारी लड़ाई दो चीजों को लेकर है- गुलामी और गरीबी. उस समय लोगों पर देशद्रोह के आरोप लगाने का जो षड्यंत्र चल रहा था, भगत सिंह उसके खिलाफ आवाज उठा र​हे थे. आज जब लोग अपने मुद्दे उठा रहे हैं तो उन पर कार्रवाई करके सरकार अपना फर्ज पूरा नहीं कर रही है. भगत सिंह ने शोषण, गरीबी, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद आदि के खिलाफ युद्ध छेड़ा था. आज उनके सब मुद्दे गायब हैं. पार्टियां अभी जो कर रही हैं वह लोगों को मूर्ख बनाने के लिए कर रही हैं. एक तरफ नेशनल हाइवे बन रहे हैं तो उसी के ठीक बगल में घोर गरीबी में रह रहे अविकसित इलाके हैं. आप उस पर ध्यान नहीं दे रहे. मतलब आप सिर्फ और सिर्फ लोगों को मूर्ख बना रहे हैं. आप लोगों के लिए नौकरियों का सृजन नहीं कर रहे, जो कि सरकारों का कर्तव्य है. यह संविधान के ​नीति निर्देशक तत्वों में निहित है. वे कह रहे हैं कि पहले आप झंडा लगाइए. पहले आप संविधान की प्रस्तावना पढ़िए. और अगर झंडे की बात है तो अभी भी आरएसएस के आॅफिस पर झंडा नहीं है. 26 जनवरी और 15 अगस्त के अलावा वहां झंडा नहीं होता. अगर आप चाहते हैं कि हर जगह झंडा हो, तो पहले वहां आप झंडे को लेकर बात करें. लेकिन आप वह भी नहीं करेंगे.

आप अब तक जितनी बातें करते हैं उसमें हमारे तीन आदर्श- संविधान की प्रस्तावना, तिरंगा झंडा और नेशनल एंथम का अपमान ही करते हैं. और आप देशभक्त बन रहे हैं और राष्ट्रवाद की बात करते हैं. नौजवान भारत सभा के पर्चे में एक बात कही गई थी कि हम देश के 98 प्रतिशत लोगों के लिए स्वराज चाहते हैं. आज भी आप देखिए कि इस आजादी में 20 प्रतिशत लोग ही शामिल हैं. 80 प्रतिशत तो बाहर हैं. अभी-अभी आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की रिपोर्ट आई है कि भारत में 36 करोड़ लोग कंगाल हैं. उसकी कोई बात नहीं करता. इसीलिए मैं कहता हूं कि जल, जंगल, जमीन और संसाधनों को बचाना हमारा मूल कर्तव्य है. मूल कर्तव्यों को निबाहना राष्ट्रवाद है. और आज क्या है कि जो लोग देश को नष्ट कर रहे हैं, वही देशभक्त बने हैं.

नौजवान भारत सभा के पर्चे में एक बात कही गई थी कि हम देश के 98 प्रतिशत लोगों के लिए स्वराज चाहते हैं. आज इस आजादी में 20 प्रतिशत लोग ही शामिल हैं. 80 प्रतिशत तो अब भी बाहर हैं. भारत में 36 करोड़ लोग कंगाल हैं. उनकी कोई बात नहीं करता

भगत सिंह के अलावा सुभाष चंद्र बोस के साथ इन लोगों ने क्या किया. उनका इतिहास खोद रहे हैं ​लेकिन उनके विचारों पर कौन बात करता है. उनके विचार को तो हमने नहीं माना. उन्होंने रांची कांग्रेस में एक रिजोल्युशन पारित किया था कि साम्राज्यवाद से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. अगर हमने साम्राज्यवाद से समझौता किया तो कई दशकों तक हमें दर्द झेलना पड़ेगा. वो दर्द हमने 1947 में सहा और आज तक सह रहे हैं.

मुख्य बात है कि व्यवस्था को आप बदलेंगे नहीं, जबकि भगत सिंह तो कोई बदला लेने वाले थे नहीं, वे तो व्यवस्था को बदलने की बात कर रहे थे. यही बात उन्होंने अपने कोर्ट के बयान में भी कही थी. जबकि हमने उनके साथ प्रचारित किया कि उन्होंने सांडर्स ​की हत्या की. उन्होंने तो मांग की थी कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और गोली से उड़ा दिया जाए.

भगत सिंह ने हमेशा शोषण के सवाल को उठाया. आज बस्तर में जो हो रहा है, जेएनयू जिससे अलग नहीं है, वहां जो हो रहा है, उसका मतलब आप यह नहीं चाहते कि लोगों को यह पता चले कि मोदी का एडवाइजर जो है, एप्को का वे हेनरी किसिंजर है. अमेरिकी कंपनी मोदी की एडवाइजर है और उसका एक रणनीतिकार हेनरी किसिंजर है. हेनरी किसिंजर ने इंडो​नेशियाई राष्ट्रपति सुहार्तो को यही कहा था कि पूर्वी तिमोर में लोगों को मरवा दीजिए, हम लोगों को पता नहीं चलने देंगे कि क्या हुआ है. इस तरह के लोग इनके सलाहकार हैं. इसीलिए सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय काम करता है, बाकी मंत्रियों के पास काम ही नहीं है. उनको अपनी छुट्टी भी प्रधानमंत्री कार्यालय से लेनी पड़ती है.

उसके साथ जो हरियाणा में हुआ, वह सबसे खराब रहा. कोई नहीं जानता कि वहां क्या हो रहा है. पीएम के साथ मीटिंग के बाद जाटों का प्रदर्शन शुरू होता है. 23 दिसंबर को एक बड़ी मीटिंग थी जंतर मंतर पर और कहा जाता है कि नवजवानों को बुलाइए क्योंकि हमें नवजवानों का साथ मिला है. अब पूरा हरियाणा जलाकर के जातीय बैरियर खड़ा कर दिया गया. बात करते हैं सौहार्द की और पूरा राजनीतिक तंत्र ही सौहार्द बिगाड़ने में लगा है. भगत सिंह इन मसलों बहुत स्पष्ट मत रखते थे, जिन पर आज कोई अमल नहीं हो रहा है.

(लेखक भगत सिंह के भतीजे हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

भगत के सियासी भगत

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‘मां, मुझे कोई शंका नहीं है कि मेरा मुल्क एक दिन आजाद हो जाएगा, पर मुझे डर है कि गोरे साहब जिन कुर्सियों को छोड़कर जाएंगे, उन पर भूरे साहबों का कब्जा हो जाएगा.’ आजादी के तमाम नायकों में से एक शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह ने अपनी मां को लिखी चिट्ठी में यह बात कही थी. उन्हीं भगत सिंह ने शहीद होने से पहले अपनी जेल डायरी में लिखा था, ‘सरकार जेलों और राजमहलों, या कंगाली और शान-शौकत के बीच किसी समझौते के रूप में नहीं होती. यह इसलिए गठित नहीं की जाती कि जरूरतमंद से उसकी दमड़ी भी लूट ली जाए और खस्ताहालों की दुर्दशा और बढ़ा दी जाए.’ उसी डायरी में वे एक जगह लिखते हैं, ‘शासक के लिए यही उचित है कि उसके शासन में कोई भी आदमी ठंड और भूख से पीड़ित न रहे. आदमी के पास जब जीने के मामूली साधन भी नहीं रहते, तो वह अपने नैतिक स्तर को बनाए नहीं रख सकता.’ किसी के भूखे न रहने का सपना देखने वाला यह शहीद देश के शासक वर्ग के लिए सबसे लोकलुभावन हीरो है, जबकि इस देश के सरकारी आंकड़ों में इस वक्त करीब 30 करोड़ लोग भूखे सोते हैं. सवाल उठता है कि भगत सिंह तो सबके हैं लेकिन उनके विचार किसके हैं.

‘जब तक कोई निचला वर्ग है, मैं उसमें ही हूं. जब तक कोई अपराधी तत्व है, मैं उसमें ही हूं. जब तक कोई जेल में कैद है, मैं आजाद नहीं हूं.’ भगत सिंह की जेल डायरी में दर्ज ऐसी तमाम पंक्तियां उनके क्रांतिकारी सपनों का आईना हैं, जिन पर वक्त के साथ उपेक्षाओं की धूल भरी मोटी चादर बिछा दी गई है. भगत सिंह के नाम का नारा लगाने वाले ज्यादातर राजनीतिज्ञ इन सपनों के बारे में शायद ही कोई बात करते हों. अगर भगत सिंह हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं तो भूख से मर रहे लोगों, कर्ज से आत्महत्या करते किसानों और जेलों में सड़ रही लाखों जिंदगियों में क्या भगत सिंह जीवित नहीं हैं, जैसा कि उक्त पंक्तियों में दर्ज है? फिर हमारी सियासत इस बात पर क्यों उलझ गई कि कन्हैया कुमार नामक युवक में भगत सिंह है कि नहीं? भगत सिंह के दस्तावेज गवाह हैं कि उनका सपना मजदूर, किसान, वंचित, दलित और हर उस व्यक्ति के लिए लड़ना रहा जो पीड़ित है. क्या देश की कुर्सी पर ‘भूरे साहबों के कब्जे’ को लेकर भगत सिंह का डर सच साबित हुआ? अगर यह सच न होता तो भगत सिंह की राजनीतिक विरासत और उनके सपनों के हिंदुस्तान पर बहस होती, न कि इस बात पर कि भगत सिंह ‘भारत माता की जय’ बोलकर फांसी पर चढ़ने वाले ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ थे, या भगवा रंग की पगड़ी पहनने वाले सरदार? क्या भगत सिंह का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि उनके लिखे को स्वीकारते हुए उन्हें नास्तिकता, तर्कवाद और वैज्ञानिकता का झंडा बुलंद करने वाला क्रांतिकारी माना जाए और जब तक एक भी व्यक्ति शोषित है, तब तक व्यवस्था बदलने का सतत प्रयास होता रहे?

शहीद भगत सिंह इस देश की राजनीति के लिए अचानक महत्वपूर्ण हो उठे हैं. हर राजनीतिक दल उन्हें अपना साबित करने के लिए बेकरार है. सवाल उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि अचानक सियासतदानों को उनकी याद आ गई. इतिहास के पन्ने जिन लोगों को वैचारिक या राजनीतिक तौर पर भगत सिंह के खिलाफ खड़ा करते हैं, वे लोग अब उनकी विरासत के सबसे बड़े झंडाबरदार बनकर खड़े हैं. जिन लोगों ने उनके समय में उनसे दूरी बनाकर रखी, सबसे पहला दावा आज उन्हीं का है. वैचारिक निकटता या अंगीकार के चलते कोई भगत सिंह को अपना कहे तो भी गनीमत है, लेकिन भगत सिंह के सपनों की हत्या करने वाले लोग भी अगर भगत सिंह को अपना कहें तो यह भगत सिंह समेत पूरे क्रांतिकारी आंदोलन का अपमान है जो आजादी के साथ समता, बंधुता और मानव मुक्ति के उद्देश्यों के साथ लड़ा गया.

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अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कॉन्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कॉन्फ्रेंस हुई. दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई. उनमें से एक सवाल धर्म का भी था. प्रांतीय कॉन्फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफर अली साहब के पांच-सात बार खुदा-खुदा करने पर अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि इस मंच पर आकर खुदा-खुदा न कहें. आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता का प्रचारक हूं.

यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शांति में कोई विघ्न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज उठाने की जरूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आंदोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आजादी दे दी गई. यहां तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मंत्र पढ़े जाने लगे. उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था. फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी. जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतंत्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गए हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं.

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुंचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गुलामी का नाम देते हैं. वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमजोर बनाना है. उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है. लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नजर आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है. मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों. उनमें पूंजीपतियों के ऊंच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे. लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है. बीसवीं सदी में भी पंडित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इनकारी है. यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा.

(1928 में ‘किरती’ में छपे भगत सिंह के लेख ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’ से)[/symple_box]

आजादी के नायकों में से दो विभूतियों को सबसे ज्यादा सेलिब्रेट किया जाता है एक गांधी और दूसरे भगत सिंह. गांधी के साथ वामपंथ और दक्षिणपंथ की घोर असहमतियां रही हैं, जो अब भी बरकरार हैं, लेकिन भगत सिंह की सभी खुले स्वर में प्रशंसा करते हैं और सभी उन्हें अपना साबित करने की कोशिश करते हैं. वामपंथी भगत सिंह को वामपंथी कहकर उनके सपनों के भारत की बात करते हैं, जबकि संघ परिवार उन्हें कट्टर राष्ट्रवादी और देश के लिए प्राणों की बलि देने वाला देशभक्त बताकर उनका महिमामंडन करता है. लेकिन भगत सिंह को लेकर मची इस छीना-झपटी में असली भगत सिंह कहां हैं? देश को लेकर उनके क्या विचार थे? वे कैसा भारत चाहते थे? वे कैसी राजनीति चाहते थे? आज के राजनीतिक दलों और उनके विचारों का भगत सिंह से कितना साम्य है? आज भगत सिंह होते तो मौजूदा राजनीति में किस तरह से हस्तक्षेप करते? इन सारे सवालों का जवाब उन लेखों और दस्तावेजों में मिल सकता है जो उन्होंने खुद लिखे हैं या जो उनसे संबंधित हैं.

राजनीतिक दलों के बीच भगत सिंह को अपनाने की इस कदर होड़ क्यों मची है, इसके जवाब में पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘जीते-जी जिस भगत सिंह की राजनीतिक दलों ने अवहेलना की, उसे अब सब अपना कहने पर आमादा हैं. भगत सिंह जब अंग्रेज सरकार के हाथ लगे तो अखबारों ने रिपोर्ट में लिखा कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ्तार हुआ है. पर भारत के वामपंथी आम तौर पर भगत सिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे. आखिर भगत सिंह वामपंथी पार्टी के सदस्य जो नहीं थे. वामपंथियों की तुलना में, कम से कम आज, भारत में कांग्रेस और भाजपा में होड़ लगी है कि किसी तरह भगत सिंह को अपना लें. जिहाद के जाल में फंसे पाकिस्तान में भी कुछ लोग भगत सिंह की याद को ताजा करने में लगे हैं. आखिर भगत सिंह की कर्म भूमि भी तो वह जमीन थी जो आज पाकिस्तान है.’

इन्हीं सवालों को लेकर लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘अपने सीमित राजनीतिक जीवन में भगत सिंह ने जो भविष्यवाणी की थी, आज खुलकर उसे सामने देख रहे हैं. आजादी के बाद कुछ चीजों को लेकर भले ही भ्रम रहा हो, लेकिन अब चाहे सांप्रदायिकता के मसले को देखें, जाति के मसले को देखें या काले अंग्रेज-भूरे अंग्रेज की उनकी जो समझदारी थी, मेरे ख्याल से वो खुलकर सामने आ रहा है. एक तो उनकी भविष्यवाणी सामने आ रही है. इसके अलावा मुझे लगता है कि जो भी संकट दिख रहा है, एक तरफ तो सांप्रदायिक ताकतें हैं, दूसरी तरफ विकल्प के तौर पर जो शक्तियां हैं वे भी संकट में हैं. वामपंथी पार्टियां और आंदोलन खुद संकट में है. ऐसे समय में समाज अपने नायकों को याद करता है. बढ़े हुए संकट के दौर में भगत सिंह लोगों को अपने करीब लगने लगे हैं.’

भगत सिंह को लेकर महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘कट्टरपंथी राष्ट्रवाद के अभियान का यह चरम है कि भगत सिंह के बारे में ज्ञात तथ्यों को भी झुठलाया जा रहा है. शशि थरूर ने कन्हैया कुमार की तुलना भगत सिंह से की तो प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता ने यह झूठ बोलकर भगत सिंह के प्रति शिष्टाचार की सारी हदें पार कर दीं कि ‘भगत सिंह भारत माता की जय बोलकर फांसी पर चढ़े थे.’ सारी दुनिया अब तक यही जानती है कि 23 मार्च, 1931 को फांसी के दौरान भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए थे. उन्होंने ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाना भी गाया था और चेहरे पर काला कपड़ा पहनने से इनकार कर दिया था. अब फर्जी राष्ट्रवादी, जिनकी पार्टी और पूर्वजों का राष्ट्र निर्माण और स्वतंत्रता संघर्ष में कोई भूमिका नहीं रही है, इतिहास को गोएबल्स की स्टाइल में उलट-पलट रहे हैं, जैसा कि हिटलर के समय किया गया था.’

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इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘कई सालों तक गांधी जी भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों को गौण और असंगत बताते रहे. स्वतंत्रता के बाद के काल में देश अपनी ही समस्याओं में कुछ इस तरह उलझ गया कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों को भूल ही गया. बस वे ही याद रहे जिनकी याद सरकार को रही. स्वतंत्रता के उत्साह में देश तेजी से प्रगति भी कर रहा था. ऐसे माहौल में भगत सिंह की याद कम ही लोगों को आई. पर इसके बाद के समय में भी राजनीतिक दलों ने भगत सिंह को अपने से दूर ही रखा. सरकार द्वारा कभी-कभी भगत सिंह के नाम की दुहाई जरूर दी जाती रही पर उनके विचारों को समझने या लोगों तक पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं की गई. भगत सिंह को याद करना महज 26 जनवरी और 15 अगस्त को फिल्म ‘शहीद’ के गाने सुनने तक ही रह गया. जैसे-जैसे निजी रेडियो और टीवी स्टेशनों का जाल देश पर फैला, यह थोड़ी-सी याद भी खत्म कर दी गई. इसके बाद 1997 में भगत सिंह की याद आई कम्युनिस्टों को , देश की आजादी की 50वीं सालगिरह पर. कम्युनिस्टों को लगा कि देश की आजादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है.’

वे आगे कहते हैं, ‘इतिहासकार प्रोफेसर बिपन चंद्र 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए. इसके बाद कम्युनिस्टों ने भगत सिंह को अपना बताते हुए इक्के-दुक्के बयान दिए, भगत सिंह केे कुछ पर्चों के नए संस्करण छापे गए. फिर शांति छा गई. दस साल बाद, नई शताब्दी में दक्षिणपंथियों ने भगत सिंह पर अपना हक जताया. किसी ने उनको पगड़ी पहना दी. हालांकि अभी तक भगत सिंह की सबसे ज्यादा दिखने वाली तस्वीर में वे टोपी पहने दिखाए जाते रहे थे. किसी ने उन पर गेरुआ वस्त्र डाल दिए, तो किसी ने उन्हें भारत की सभ्यता का संरक्षक बना डाला.’

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bhagat Headभारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है. जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि इस तरह के धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे.

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो.

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है.

(जून, 1928 में ‘किरती’ में छपे भगत सिंह के लेख ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ का अंश)

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भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों पर महत्वपूर्ण किताबें लिखने वाले सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘शहीद भगत सिंह पर दावेदारी कोई नई बात नहीं है. यह काफी समय से जारी है. खास तौर से जब भगत सिंह की जन्म शताब्दी आई. इस वर्ष उनके सिर पर पगड़ी पहनाने का प्रयास हुआ. ये सब इसलिए ताकि भगत सिंह को जाति और धर्म के खांचे में धकेल दिया जाए ताकि उनका जो पैनापन है, जो विचार उनके पास हैं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी जो छवि उभरती है उसे खत्म किया जा सके.’ भगत सिंह की प्रतीकात्मक पहचान और विचारधारा से छेड़छाड़ पर चिंता जताते हुए विद्यार्थी कहते हैं, ‘जिस व्यक्ति ने खुद कहा हो कि अभी तो मैंने केवल बाल कटवाए हैं, मैं धर्मनिरपेक्ष होने और दिखने के लिए अपने शरीर से सिखी का एक-एक नक्श मिटा देना चाहता हूं, आप उसके सिर पर फिर पगड़ी रख रहे हैं. आप यही तो बताना चाह रहे हैं कि भगत सिंह इसलिए बहादुर थे कि सिख थे. तब कहना पड़ेगा कि राम प्रसाद बिस्मिल इसलिए बहादुर थे कि ब्राह्मण थे, रोशन सिंह इसलिए बहादुर थे कि ठाकुर थे, अशफाक उल्ला इसलिए बहादुर थे कि पठान थे. आप कितना भी प्रयास कर लें भगत सिंह के सिर पर पगड़ी रखने का, लेकिन 23 साल का वह युवा क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी अब फिट नहीं हो सकती.’

भगत सिंह को लेकर आजकल ज्यादा शोर इसलिए सुनाई दे रहा है कि भगत सिंह को अपनाने की होड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल हो गया है. संघ पर यह भी आरोप लगता है कि उसके प्रयासों से भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर उन्हें धार्मिक दिखाने की कोशिश की गई. सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘आरएसएस इस मामले में दिलचस्प है. जिस गांधी की हत्या में उनका या उनकी विचारधारा का हाथ था, जब उन पर दावा कर सकती है, तो और क्या कहा जाए. आंबेडकर जिनके विचारों से उनकी ताउम्र दुश्मनी रही, आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई, ब्राह्मणवाद का विरोध किया, आरएसएस उनको भी क्लेम करता है. आरएसएस को इसमें सलाहियत हासिल है. बस एक ही व्यक्ति बचते हैैं वो हैं नेहरू, क्योंकि उनकी जगह वह सरदार पटेल को अपनाता है. दूसरा, क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर आम जनमानस में जो एक छवि है कि वे पिस्तौल और बम वाले लोग थे, बड़े बहादुर थे, उसके साथ जोड़कर खुद को पेश करते हैं. वे भगत सिंह की टोपी वाली इमेज नहीं दिखाते हैं, उनको सरदार टाइप दिखाते हैं. पगड़ी पहनाकर. आरएसएस और भाजपा आंबेडकर व भगत सिंह को चुनिंदा ढंग से अपनाते हैं. इसमें प्रगतिशील लोगों की कमजोरी है कि आरएसएस नायकों को अपनाने की कोशिश कर पा रहा है.’

इतिहासकार राजीव लोचन कुछ नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं, ‘जब भगत सिंह सक्रिय थे, उस समय राजनीतिक दल उनसे बिल्कुल परे हट कर रहते थे. भगत सिंह का जो सीधा संवाद होता था, वो गांधी के साथ होता था. बाकी हमारे जितने नेतागण थे, भगत सिंह की जब मौत हुई तो फट से पल्ला झाड़ा और उसके बाद उन्हें कभी याद नहीं किया. 1980 के बाद भगत सिंह की याद सबको आनी शुरू हुई, जब नेताओं की एनिवर्सरीज आनी शुरू हुईं. अगर आपको याद हो तो 80 और 90 के दशक में रेडियो और टीवी पर जो गाने भगत सिंह को लेकर हुआ करते थे, वे गाने बजने बंद हो गए. उस वक्त कुछ टीवी वालों ने चर्चा में मुझसे कहा था कि अब इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता, इसलिए अब इसकी कोई जरूरत नहीं है. एनिवर्सरीज नजदीक आईं तो लोगों को भगत सिंह की याद आई. एक तो याद आई हमारे कम्युनिस्ट साथियों को जो कि उस वक्त भगत सिंह का पूरी तरह विरोध करते थे. अभी तो कहने भी लगे हैं कि भगत सिंह हमारे हैं, लेकिन उस वक्त सख्त खिलाफ थे. ये बेचारे इसलिए भी याद करने लगे क्योंकि 60 साल से जूते पड़ रहे थे कि तुम तो गद्दार हो, 1942 में अंग्रेजों का साथ दिया. तो उनको अचानक समझ में आया कि भगत सिंह को इस्तेमाल करके हम भी अपने को राष्ट्रवादी साबित कर सकते हैं. कम्युनिस्ट इस्तेमाल करने लगे तो जो बाकी लोग थे वे भी भगत सिंह पर टूट पड़े और भगत सिंह को सर आंखों पर उठाया. इस पूरे माहौल में बीजेपी एक पार्टी थी जो कि पीछे रही क्योंकि बीजेपी का भगत सिंह के साथ कोई भी संबंध नहीं है. अब बीजेपी ने उनको याद करना शुरू किया और बीजेपी ने जिस तरह याद किया वो हमें दिख ही रहा है.’

भगत सिंह पर असली दावेदारी किसकी है, इस सवाल पर प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘भगत सिंह भारत के कामगार, मजदूर, किसान, दलित और निचले वर्ग के साथ थे. 1929 से 1931 के दौरान जब भगत सिंह के केस का ट्रायल चल रहा था, उस वक्त सभी अखबार वामपंथी और ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ लिख रहे थे. 24 जनवरी, 1930 को वे कोर्ट में ‘लाल स्कार्फ’ पहनकर पहुंचे थे और जज से अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए सोवियत यूनियन को शुभकामना भेजने का अनुरोध किया था.’

वे आगे कहते हैं, ‘एक वक्त पर भगत सिंह, चंद्रशेखर और उनके साथियों ने ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाया था, लेकिन सितंबर, 1928 में अपने संगठन के नाम में सोशलिस्ट शब्द जोड़ने के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे को अपनाया. 2 फरवरी, 1931 को लिखे उनके ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पत्र’ में स्पष्ट रूप से ‘समाजवादी सिद्धांत’ को भारतीय स्वतंत्रता का रास्ता बताया है. कोई भी व्यक्ति जिसने ऐतिहासिक दस्तावेज पढ़े हैं, वह भगत सिंह के मार्क्सवादी सिद्धांत पर आधारित ‘समाजवादी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी’ होने से इनकार नहीं कर सकता.’

बिपन चंद्र लिखते हैं, ‘वे मार्क्सवादी हो चले थे और इस बात में विश्वास करने लगे थे कि व्यापक जनांदोलन से ही क्रांति लाई जा सकती है. दूसरे शब्दों में जनता ही जनता के लिए क्रांति कर सकती है. अदालत में और अदालत के बाहर भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने जो बयान दिए, उनका सार यह है कि क्रांति का अर्थ है क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के शोषित, दलित व गरीब तबकों के जनांदोलन का विकास. भगत सिंह एक जागरूक, धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी होने के नाते राष्ट्र और राष्ट्रीय आंदोलन के सम्मुख मौजूद सांप्रदायिकता के खतरे को पहचानते थे. अपने साथियों, श्रोताओं से वे बराबर कहा करते थे कि सांप्रदायिकता उतनी ही खतरनाक है जितना उपनिवेशवाद. नौजवान भारत सभा के छह नियम, जिन्हें भगत सिंह ने तैयार करवाए थे, में से दो इस तरह थे- ‘ऐसी किसी भी संस्था, संगठन या पार्टी से किसी तरह का संपर्क न रखना जो सांप्रदायिकता का प्रचार करती हो’ और ‘धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते हुए जनता के बीच एक-दूसरे के प्रति सहनशीलता की भावना पैदा करना और इस पर दृढ़ता से काम करना.’ 

लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘भगत सिंह ने ‘वंदे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा दिया. जाहिर है वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सिर्फ इसलिए नहीं थे कि यह एक विदेशी हुकूमत थी. वे साम्राज्यवाद के खिलाफ थे और इसके विकल्प के रूप में समाजवाद के समर्थक. भगत सिंह निश्चित तौर पर भारत की आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों का हिस्सा नहीं थे, लेकिन अपने विचारों में वे वैज्ञानिक समाजवाद के बेहद करीब थे. आजाद हिंदुस्तान को लेकर उनके स्वप्न एक शोषण विहीन और समानता आधारित समाज के थे जिसमें सत्ता का संचालन कामगार वर्ग के हाथ में हो. वह लड़ाई उपनिवेशवाद की मुक्ति तक तो पहुंची लेकिन उसके आगे जाकर वंचित जनों के हाथ में सत्ता देकर एक समतावादी समाज की स्थापना अब भी एक स्वप्न ही है.’

भगत सिंह और उनके साथियों के उद्देश्यों को लेकर इतिहासकार बिपन चंद्र लिखते हैं, ‘भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने पहली बार क्रांतिकारियों के समक्ष एक क्रांतिकारी दर्शन रखा. उन्हें बताया कि क्रांति का लक्ष्य क्या होना चाहिए. 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के घोषणापत्र में कहा गया कि हमारा उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है. क्रांतिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन या विचारधारा की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, इस बात को जनता तक पहुंचाने के लिए भगत सिंह ने लाहौर कोर्ट के सामने कहा था, ‘क्रांति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से आती है.’

भगत सिंह आज कितने प्रासंगिक हैं, इस सवाल पर लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘हमने जो आर्थिक व्यवस्था चुनी वह समतावादी होने की जगह लगातार विषमता बढ़ाने वाली साबित हुई और आज आजादी के सात दशकों बाद भी हम अपनी जनता के बड़े हिस्से को जरूरी सुविधाएं भी मुहैया नहीं करा पा रहे. सामाजिक ताना-बाना भी बुरी तरह उलझा और ध्वस्त हुआ है. एक अपेक्षाकृत बराबरी वाला संविधान अपनाने के बावजूद समाज के भीतर जातीय, धार्मिक और इलाकाई भेदभाव लगातार बढ़ता गया है. दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत हुई हैं और धर्म का स्पेस राजनीति में घटने की जगह भयावह रूप से विस्तारित होता चला जा रहा है. कश्मीर और उत्तर-पूर्व में जिस तरह उत्पीिड़त राष्ट्रीयताओं का प्रतिरोध और दमन देखा जा रहा है वह देश के रूप में हमारी परिकल्पना को ही प्रश्नांकित कर रहा है. ऐसे में भगत सिंह को याद करना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की क्रांतिकारी तथा जनपक्षधर धारा को याद करना है.’

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[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-bhagat-singh-s-nephew-on-ongoing-debate-on-bhagat-singh/” style=”tick”]जानें भगत सिंह के भतीजे प्रो. जगमोहन सिंह के विचार[/ilink]

सबके अपने-अपने पक्ष हैं और सब पार्टियां और विचारक अपने तरीके से भगत को पेश करते हैं. राजीव लोचन कहते हैं, ‘पार्टियां ऐसा क्यों करती हैं? क्योंकि युवा वर्ग भगत सिंह से बहुत प्रभावित होता है. पंजाब में आप देखेंगे कि भिंडरावाले और भगत सिंह के पोस्टर एक साथ लगे. दोनों एक साथ लोगों का दिल जीतते हैं. युवाओं को लगता है बम और पिस्तौल लेकर सारी समस्या का हल खोज सकते हैं. बाकी लोग तो बेवकूफ की माफिक चर्चाएं कर रहे हैं, सॉल्यूशन तो बंदूक में है. उसे भगत सिंह भी अच्छा लग जाता है, भिंडरावाले भी अच्छा लग जाता है. भाजपा को लग रहा है कि अगर भगत सिंह उसके हो गए तो उसकी बल्ले-बल्ले. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा. भगत सिंह के सब दस्तावेज मौजूद हैं. उन्हें इंटरनेट पर भी कोई भी देख सकता है. जब आप कहते हैं कि भगत सिंह भारत माता की जय बोलता था, तब लोगों को इसकी हकीकत आसानी से पता चल सकती है. भाजपा के लिए सबसे अच्छा ये रहेगा कि वह पहले अपना रवैया बदले, फिर भगत सिंह का नारा लगाए.’

राजीव लोचन आगे कहते हैं, ‘भगत सिंह पूरी तरह वामपंथी थे. उस समय के लोगों का भी मानना था कि वे वामपंथी हैं. असेंबली में बम फेंकने के बाद अगले दिन की खबर में यह नहीं था कि भगत सिंह ने बम फोड़ा, अखबारों ने लिखा था सोशलिस्टों ने बम फोड़ा.’

भगत सिंह के सहयोगी रहे कॉमरेड शिव वर्मा ने ‘शहीद भगत सिंह की चुनी हुईं कृतियां’ शीर्षक से एक किताब संपादित की, जो 1987 में कानपुर से छपी. इसकी भूमिका में वे लिखते हैं, ‘आम जनता यह बात नहीं जानती कि भगत सिंह वास्तव में थे क्या. वह इतना ही जानती है कि वे एक बहादुर इंसान थे जिन्होंने सांडर्स को मारकर लाला जी की हत्या का बदला लिया और सेंट्रल असेंबली में बम फेंका. यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह एक उच्च कोटि के बुद्धिजीवी भी थे. इस कारण से स्वार्थी व्यक्तियों के लिए क्रांतिकारी आंदोलन और खासकर भगत सिंह के वैचारिक पक्ष को विकृ​त करना आसान हो जाता है.’

भगत सिंह और उनके साथियों को करीब से जानने वाले शिव वर्मा आगे लिखते हैं, ‘एक बुद्धिजीवी के रूप में भगत सिंह हम सबसे बहुत ऊंचे थे. जिस समय जल्लाद ने उनको जीवन के अधिकार से वंचित किया, वे मुश्किल से 23 साल के थे. इतनी कम आयु में उन्होंने बड़े अधिकार के साथ कई विषयों पर लिखा. राजनीति, ईश्वर, धर्म, भाषा, कला, साहित्य, संस्कृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्महत्या, फौरी समस्याओं और कई दूसरे विषयों पर उन्होंने विचार व्यक्त किए थे. क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का, उसके वैचारिक संघर्ष और विकास का गहरा अध्ययन-मनन उन्होंने किया था और उससे समुचित निष्कर्ष निकाले थे. इसलिए अगर हमें भगत सिंह को ठीक तरह से समझना है तो हमें उनकी इस पृष्ठभूमि की भी कुछ जानकारी होनी चाहिए.’

यह सच है कि राजनीतिक दावेदारी के शोर में भगत सिंह के सपनों की कोई चर्चा नहीं है. भगत सिंह के लेखों और पत्रों से गुजरते हुए आप पाएंगे कि भगत सिंह गरीब, मजदूर, शोषित, वंचित के पक्ष में साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और शोषण के विरुद्ध युद्ध की बार-बार घोषणा कर रहे थे. लाहौर षड्यंत्र केस के तीन अभियुक्तों को फांसी हुई तो इन अभियुक्तों ने मांग की कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फांसी न देकर गोली से उड़ा दिया जाए. उस समय युद्धबंदियों को गोली से उड़ाया जाता था. लाहौर षड्यंत्र केस के साथियों का साथ देते हुए भगत सिंह और उनके दोनों साथियों ने भी अंग्रेज सरकार से यही मांग रखते हुए पत्र लिखा. उस पत्र में लिखा गया, ‘हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों ने मेहनत-मजदूरी करने वाले भारतीयों और जनसाधारण के प्राकृतिक साधनों पर अपने स्वार्थसाधन के लिए अधिकार जमा रखा है. इस प्रकार से स्वार्थ साधने वाले चाहे अंग्रेज पूंजीपति हों, चाहे हिंदुस्तानी, उन्होंने आपस में मिलकर लूट जारी कर रखी हो या युद्ध, भारतीय पूंजी के द्वारा ही गरीब का खून चूसा जा रहा हो, इन बातों से अवस्था में कोई अंतर नहीं आता.’

भगत सिंह का नारा लगाकर उन पर दावा ठोंकने वाली सियासत ने इन प्रश्नों पर कब विचार किया है, जो भगत सिंह के लिए मौत के पहले के प्रश्न थे कि ‘मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों ने मेहनत-मजदूरी करने वाले भारतीयों और जनसाधारण के प्राकृतिक साधनों पर अपने स्वार्थसाधन के लिए अधिकार जमा रखा है.’

निचली अदालत में भगत सिंह से पूछा गया था कि क्रांति से उनका क्या मतलब है, इसके जवाब में भगत सिंह ने कहा था, ‘क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं हैं. और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है. वो बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन… मजदूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए तरस जाते हैं… यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है. यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती. स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है…’ भगत सिंह ने जिन सवालों को ताल ठोंककर अंग्रेज सरकार के सामने उठाया था, वही सवाल अब भारतीय संसद में तीन लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या के बाद भी नहीं उठते. क्या भगत सिंह का ‘व्यवस्था पर भूरे साहबों’ द्वारा कब्जा कर लेने से जुड़ा शक सही नहीं हो गया है?

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‘सरकार में बैठे लोग हर सूबे से चार भगत सिंह ढूंढें और फांसी चढ़ा दें’

जिस दिन गांधी जी ने यह कहा कि भगवान उनका मार्गदर्शन करता है, संसार को चलाने के लिए वर्णाश्रम एक श्रेष्ठ व्यवस्था है और जो कुछ होता है भगवान की इच्छा से होता है, उसी दिन हम इस निर्णय पर पहुंच गए थे कि गांधीवाद और ब्राह्मणवाद में कोई फर्क नहीं है. हमने यह भी निष्कर्ष निकाला था कि देश का भला तब तक नहीं हो सकता जब तक कांग्रेस पार्टी जो इस दर्शन और सिद्धांत पर चलती है, समाप्त न हो जाए. लेकिन अब यह तथ्य कम से कम कुछ लोग मानने लगे हैं, उनके पास ज्ञान और साहस आ गया है कि वे गांधीवाद के पतन के लिए प्रयास कर सकें. यह हमारे उद्देश्य की महान सफलता है. यदि भगत सिंह को फांसी न दी गई होती तो इतने लोकप्रिय ढंग इस विजय के आधार न होते. बल्कि हम तो यह बात कहने का जोखिम उठाते हैं कि यदि भगत सिंह को फांसी न हुई होती तो गांधीवाद को और जमीन मिली होती.

भगत सिंह बीमार पड़कर नहीं मरे, जैसा आम तौर पर लोगों के साथ होता है. उन्होंने न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को वास्तविक समानता और शांति का मार्ग दिखाने के महान उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. भगत सिंह एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं जहां सामान्यतया कोई नहीं पहुंच पाया. हमें उनकी शहादत पर हृदय से गर्व है. साथ ही साथ हम सरकार में बैठे लोगों से यह प्रार्थना करते हैं कि वे हर सूबे में चार भगत सिंह जैसे सच्चे आदमी ढूंढें और फांसी पर चढ़ा दें.

(भगत सिंह की फांसी के बाद रामास्वामी पेरियार द्वारा अपने अखबार ‘कुडई आरसु’ में लिखे संपादकीय का अंश)[/symple_box]

भगत सिंह के पास सिर्फ स्वप्न नहीं थे. उनकी निगाह में हिंसा एक ‘विवशता का हथियार’ भर थी. बाकी पूरी व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, इसका स्पष्ट दर्शन बार-बार वे पेश करते रहे. लेकिन उन्होंने शहादत इसलिए दी कि उनकी शहादत ‘युवाओं को मदहोश करेगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे.’ वे ‘बम और पिस्तौल का रास्ता’ अपनाकर खून बहाने की जगह युवाओं को सलाह देते हैं कि ‘करोड़ों लोगों को जागरूक करना’ हमारा कर्तव्य है. वे अदालत में स्वीकार करते हैं कि ‘हम मानव जीवन को अ​कथनीय पवित्रता प्रदान करते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के बजाय हम मानव-सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे.’ इंसानियत के बचाव और शोषण के विरुद्ध उनके बलिदान की चर्चाएं करने की जगह सिर्फ उनकी विरासत पर कब्जे की कोशिश क्या भगत सिंह को दोबारा फांसी देने के समान नहीं है?

भगत सिंह ने अपनी जेल डायरी में पृष्ठ 24 पर एक स्पेनी शिक्षक फ्रांसिस्को फेरेर, जिन्हें षड्यंत्र के तहत फांसी दी गई थी, की वसीयत लिखी. इसमें कहा गया है, ‘मैं अपने दोस्तों से यह भी कहना चाहूंगा कि वे मेरे बारे में कम से कम चर्चा करेंगे या बिल्कुल ही चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि जब आदमी की तारीफ होने लगती है तो उसे इंसान के बजाय देवप्रतिमा-सा बना दिया जाता है और यह मानव जाति के भविष्य के लिए बहुत बुरी बात है. सिर्फ कर्मों पर ही गौर करना चाहिए, उन्हीं की तारीफ या निंदा होनी चाहिए, चाहे वे किसी के द्वारा किए गए हों. अगर लोगों को इनसे सार्वजनिक हित के लिए प्रेरणा मिलती दिखाई दे तो वे इनकी तारीफ कर सकते हैं, लेकिन अगर ये सामान्य हित के लिए हानिकारक लगें तो वे इनकी निंदा भी कर सकते हैं, ताकि फिर इनकी पुनरावृत्ति न हो सके… मरे हुए के लिए खर्च किए जाने वाले समय का बेहतर इस्तेमाल उन लोगों की जीवन दशाओं को सुधारने में किया जा सकता है जिनमें से बहुतेरों को इसकी भारी आवश्यकता है.’ क्या भगत सिंह के नाम पर नारा लगाकर शोर मचाने वाले सत्ताधारी उनकी इस विरासत पर अमल करेंगे?

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bhagat Head30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र हो जाएगा! ये सवाल बीसवीं सदी में किए जा रहे हैं, जिन्हें कि सुनते ही शर्म आती है… हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इंकलाब की आवाज उठा रहा है. उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी. आज रूस ने भी हर प्रकार का भेदभाव मिटा कर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है. हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिंतित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता. अंग्रेजी शासन हमें अंग्रजों के समान नहीं समझता. लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?

जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए?

जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों-जैसा व्यवहार किया जाएगा. फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा.

समस्या यह थी कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गए, लेकिन लालाजी ने सबको सहमत कर दिया तथा यह दो बातें स्वीकृत कर हिंदू धर्म की लाज रख ली. वरना जरा सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है.

(1928 में ‘किरती’ में ‘अछूत का सवाल’ शीर्षक से छपे भगत सिंह के लेख का अंश)[/symple_box]

हम नास्तिक क्यों हैं…

सभी फोटो : अमित सिंह
सभी फोटो : अमित सिंह
सभी फोटो : अमित सिंह

‘देखिए भैया, हम बहुत मेहनत करके शाम की रोटी का जुगाड़ करते हैं. हमें ये पता है कि हम मेहनत नहीं करेंगे तो बच्चों के साथ भूखा ही सोना पड़ेगा. ऐसे में हम अपनी मेहनत का श्रेय भगवान को नहीं दे सकते. या कहिए कि हम भगवान को नहीं मानते हैं. आपको आपका भगवान रोटी देता होगा, आप मानिए. हमको रोटी हमारी मेहनत की मिलती है. हमको समाज में इज्जत हमारे कर्मों से मिलती है, तो हम इसे ही सबसे बेहतर मानते हैं.’ ये कहना है शांति देवी का. शांति देवी उत्तर प्रदेश के बरूर गांव (कानपुर देहात) की रहने वाली हैं और गांव की प्रधान भी रह चुकी हैं.

शांति ने बीए तक की पढ़ाई की है और लंबे समय तक अपने गांव की प्रधान भी रही हैं. हमारे देश में जहां धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं और उसकी रक्षा के नाम पर आतंकवाद से लेकर दंगे तक होते रहे हैं, वहां शांति देवी जैसे कुछ लोगों की ये बातें अजीब लगती हैं. बहरहाल ऐसा कहने वाली शांति अकेली नहीं हैं. हाल ही में जारी किए गए जनगणना 2011 के आंकड़ों में बताया गया है कि देश में 28 लाख से अधिक लोग छह प्रमुख धर्मों में से किसी का पालन नहीं करते हैं. वे नास्तिक हैं. इनमें से 5.82 लाख उत्तर प्रदेश में हैं. इसमें से एक बड़ा वर्ग अर्जक संघ से जुड़ा हुआ है.

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश में सक्रिय सबसे बड़ा नास्तिक समूह है. इसका प्रभाव कानपुर, बस्ती, फैजाबाद, वाराणसी, फतेहपुर, इलाहाबाद और प्रतापगढ़ के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में फैला हुआ है. साथ ही इस संघ से बिहार व झारखंड में भी लोग जुड़े हुए हैं. शांति इसी अर्जक संघ से जुड़ी हुई हैं. वे कहती हैं, ‘हम हमेशा से नास्तिक नहीं थे, लेकिन कई साल पहले जब हमारे पति ने ये बातें समझाईं तो लगा कि वह सही बोल रहे हैं. अगर हम थोड़ा सा भी दिमाग लगाएंगे तो पता चल जाएगा कि भगवान तो है ही नहीं, फिर हम क्यों फालतू में उनके चक्कर में परेशान होते हैं.’

‘आपके पास चढ़ावे के लिए पैसा है तो आपने पंडित जी, मौलवी जी को घूस दिया और आपके सारे कष्ट दूर. इससे बड़ा मजाक कुछ और हो नहीं सकता है. इस तरह तो आप भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं’

कुछ ऐसा ही मानना बरूर गांव के पूर्व प्रधान यशवंत सिंह का भी है. 65 वर्षीय यशवंत कहते हैं, ‘आपको आज का माहौल तो पता ही है. धर्म के नाम पर लोग इतने पागल हो गए हैं कि सिर्फ बीफ की अफवाह पर किसी की पीट-पीटकर हत्या कर दे रहे हैं. धर्म को बचाने के नाम पर जेहाद करते हैं. यहां तक कि धर्म की राजनीति करके सरकारें गिराई और बनाई जा रही हैं. अब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि ऐसा करके हम अपने समाज को किस तरफ ले जा रहे हैं. एक तरफ दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की उत्पत्ति वाले कण की खोज करने का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक और धार्मिक पिछड़ेपन के शिकार लोग आस्था के नाम पर अंधविश्वास के अंधे कुएं से बाहर नहीं आना चाहते.’ यशवंत से बातचीत करते हुए हम बरूर गांव की गलियों में घूमने लगते हैं.

आगे हमारी मुलाकात कुंती वर्मा से होती है. वे अपने घर के बाहर वाले चौखट पर बैठी होती हैं. कुंती कहती हैं, ‘हम भगवान की पूजा नहीं करते हैं, आप हमारे घर में आकर देख लीजिए, अगर आपको पूजा घर या भगवान के कैलेंडर मिल जाएं. यह हमारे घर का ही हाल नहीं है. आप इस गांव के ज्यादातर घरों में ऐसा ही पाएंगे. लेकिन आप यह न समझिए कि हम त्योहार नहीं मनाते. हमारे गांव में धार्मिक त्योहार से ज्यादा धूमधाम से राष्ट्रीय त्योहार मनाया जाता है.’ जब हमने उनसे पूछा कि क्या गांव में लोग पूजा-पाठ नहीं करते हैं तो उन्होंने कहा, ‘कुछ साल पहले तक गांव के ज्यादातर लोग पूजा-पाठ के चक्कर में नहीं फंसते थे, पर अब कुछ लोग पूजा-पाठ करने लगे हैं. उन्हें पता होता है कि हम भगवान में विश्वास नहीं करते हैं तो हमें नहीं बुलाते हैं. हां, कई बार प्रसाद वगैरह दे जाते हैं, कहते हैं मिठाई समझकर खा लीजिए.’ इसी बातचीत के दौरान यशवंत जी कहते हैं, ‘हमारे गांव में पिछले कई दशकों से किसी मंदिर का निर्माण नहीं किया गया है. जो लोग पूजा-पाठ करना चाहते हैं, उन्हें कोई रोकता नहीं है. जब मैं प्रधान था तो कई बार लोगों के ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों में जाना भी पड़ता था पर हम पर कोई दबाव नहीं डालता था.’ वह आगे कहते हैं, ‘देखिए, भगवान है या नहीं है इस विवाद में हम नहीं पड़ना चाहते हैं. हम मानववादी लोग हैं, अर्जक संघ भी मानव को श्रेष्ठ मानता है. अर्जक का अर्थ है वह समुदाय जो हाथ मजदूरी या श्रम के काम में लगा रहता है और यही कारण है कि जो लोग ब्राह्मण या सवर्ण जाति में जन्म लेते हैं उनके लिए इस संगठन की सदस्यता खुली हुई नहीं है. अर्जक संघ ब्राह्मणवाद, मूर्तिपूजा, भाग्य या किस्मत, पुनर्जन्म, आत्मा आदि का कट्टर विरोधी है.’ सवर्ण जातियों को संघ में शामिल न किए जाने का कारण पूछे जाने पर यशवंत कहते हैं, ‘दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों की तरह हिंदू धर्मग्रंथों को भी ईश्वर की इच्छा बताया जाता है. क्या यह ईश्वर की इच्छा है कि आप अपने कर्मों की वजह से नीच जाति में जन्म लेते हैं और ब्राह्मण सामाजिक व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर हैं. दरअसल यह एक पाखंड है. हम इसी पाखंड के विरोधी हैं.’

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अर्जक संघ की स्थापना 1जून, 1968 को रामस्वरूप वर्मा ने की थी. आचार्य नरेंद्र देव और लोहिया के करीबी रहे वर्मा विधायक भी रहे हैं.

वे कहते हैं, ‘अर्जक संघ रामायण को ‘ब्राह्मण महिमा’ मानता है और 1978 में दयानतपुर गांव में उसके संस्थापक रामस्वरूप वर्मा ने रामायण की कॉपियों को जलाया था. उस दौरान करीब 80 लोगों को हिरासत में ले लिया गया था. इलाके में माहौल बहुत खराब हो गया था. आप समझ सकते हैं कि आज से करीब चार दशक पहले ऐसी बात करना कितना कठिन रहा होगा.’ 1978 में हुई गिरफ्तारी में दयानकपुर गांव के राम आधार कटियार भी शामिल थे. वह अभी समाजशास्त्र के प्रवक्ता पद से रिटायर हुए हैं. राम आधार उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘वह हमारे लिए बहुत बड़ा दिन था. हमने पहली बार उस व्यवस्था को खारिज किया था जिसके जरिए सदियों तक हमें गुलाम बनाया गया था. पहली बार वैज्ञानिक आधार और तार्किक ढंग से बात कही गई थी. इसका फल हमें मिला, हमें बराबरी का एहसास हुआ.’ यह पूछे जाने पर कि क्या उसके बाद गांव में हालात फिर पहले जैसे सामान्य हो पाए या सवर्णों और बाकी जातियों में तनाव बना रहा, राम आधार कहते हैं, ‘शुरुआत के कई सालों तक हमारे बीच में काफी तनाव रहा, लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य होता गया. दरअसल कई सदियों से शीर्ष पर कायम ब्राह्मणों को जब चुनौती मिली थी तो वह बौखला गए. गांव में बहुत तरह की बातें हुईं, पुरानी पीढ़ी ज्यादा कट्टर थी. पर अब सब सामान्य है.’

अर्जक संघ से जुड़ने का भी वे बड़ा मजेदार कारण सुनाते हैं. वे कहते हैं, ‘देखिए, विकास के कितने भी दावे कर लिए जाएं पर हकीकत आज भी वही है कि शिक्षा और ज्ञान की कमी से जूझ रहे लोगों में अंधविश्वास जड़ तक समाया हुआ है. इसके शिकार महिला और पुरुष दोनों बन रहे हैं. अब आप लोगों की समस्याएं सुनिए. किसी की नौकरी चली गई है, किसी को बेटा नहीं हो रहा है, किसी का पति शादी के बाद परदेस चला गया है, किसी की शादी में बार-बार रुकावटें आ रही हैं, किसी बेटे या मां को कोई बीमारी हो गई है. अब इसका उपाय यह है कि इसके लिए आप पंडे और मौलवी की शरण में चले जाएं. पूजा-पाठ, व्रत, उपवास रखने लगें. ये सारी बातें ठीक हो जाएंगी. मुझे लगता है कि आज के समय में ऐसे काम करने से बेहतर है कि आप अपने ऊपर भरोसा करें और अपने लोगों पर भरोसा करें जो आपको सही सलाह व मदद दे सकें.’

इस बात पर यशवंत कहते हैं, ‘आप अगर इन बातों को लेकर किसी पंडे या मौलवी के पास जा रहे हैं या भगवान को चढ़ावे चढ़ा रहे हैं तो एक तरह से आप भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं. आखिर आपके पास चढ़ावे के लिए पैसा है तो आपने पंडित जी, मौलवी जी को घूस दिया और आपके सारे कष्ट दूर. इससे बड़ा मजाक कुछ और हो नहीं सकता है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने हमारे समाज में भ्रष्टाचार को जन्म दिया और उसे बढ़ावा भी दिया है.’

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बहरहाल, तकनीक के इस दौर में अंधविश्वास के प्रति बढ़ रही आस्था वाकई हमारे समाज पर सवाल खड़ा कर रही है. जबकि पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने धारा 51 ए को लेकर अपना मसविदा संसद के सामने पेश किया था, जिस पर संसद ने मुहर लगाई थी. उन दिनों की संसद की बहसें बताती हैं कि सांसदों के विशाल बहुमत ने अंधश्रद्धा से मुक्त होकर स्वाधीन भारत की प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी. भारतीय संविधान की धारा 51 ए सभी नागरिकों का मूल कर्तव्य तय करते हुए सभी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने और तर्क की प्रवृत्ति विकसित करने पर जोर देती है. अर्थात भारतीय संविधान समाज में वैज्ञानिक सोच स्थापित करने पर जोर देता है. अर्जक संघ इसी को बढ़ावा देने के काम में लगा हुआ है.

जब आप कानपुर देहात में सिकंदरा के पटेल चौक से गुजरेंगे तो अर्जक संघ के कार्यालय पर आपकी नजर पड़ेगी. एक पुरानी-सी खस्ताहाल इमारत जिस पर लिखा हुआ है, ‘भगवान से यदि न्याय मिलता तो न्यायालय नहीं होते, सरस्वती से यदि विद्या मिलती तो विद्यालय नहीं होते.’ बाहर से देखने और इसके अंदर जाने पर भी आपको यह एक बेहद सामान्य-सा कार्यालय नजर आता है, लेकिन यह जो काम कर रहा है वह बड़े संगठनों को सीख देने लायक है.

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संघ के जिलाध्यक्ष सीताराम कटियार कहते हैं, ‘देखिए भगवान तो कल्पना की चीज है. इसमें भी लोग निश्चित नहीं कर पा रहे हैं कि कौन-सा बेहतर और कौन-सा बुरा है. ईसाई धर्म में उसकी परिभाषा अलग है, इस्लाम में अलग, हिंदू में अलग, बौद्ध धर्म में अलग है. अब जब किसी बात पर सब सहमत नहीं हैं तो इसका मतलब कि यह सिर्फ कोरी बकवास है. जैसे बच्चे को डराने के लिए हम कहते हैं कि देखो बिगवा आ जाएगा, वैसे ही इंसान को डराने के लिए भगवान का इस्तेमाल किया गया है.’ वे कहते हैं, ‘अर्जक संघ मानववादी संस्कृति का विकास करने का काम करता है. इसका मकसद मानव में समता का विकास करना, ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करना और सबकी उन्नति के लिए काम करना है. संघ 14 मानवतावादी त्योहार मनाता है. इनमें गणतंत्र दिवस, आंबेडकर जयंती, बुद्ध जयंती, स्वतंत्रता दिवस के अलावा बिरसा मुंडा और पेरियार रामास्वामी की पुण्यतिथियां भी शामिल हैं. अर्जक संघ के अनुयायी सनातन विचारधारा के उलट जीवन में सिर्फ दो संस्कार ही मानते हैं- विवाह और मृत्यु संस्कार. शादी के लिए परंपरागत रस्में नहीं निभाई जातीं. लड़का-लड़की संघ की पहले से तय प्रतिज्ञा को दोहराते हैं और एक-दूसरे को वरमाला पहनाकर शादी के बंधन में बंध जाते हैं. मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार मुखाग्नि या दफना-कर पूरा किया जाता है, लेकिन बाकी धार्मिक कर्मकांड इसमें नहीं होते. इसके 5 या 7 दिन बाद सिर्फ एक शोकसभा होती है. दरअसल हमारे हिंदू समाज में जन्म के आधार पर बहुत ही ज्यादा भेदभाव किया गया है. कोई पैदा होते ही ब्राह्मण, तो कोई वाल्मीकि होता है. ब्राह्मण समाज धर्मग्रंथों का सहारा लेकर सदियों से नीची जातियों का दमन करते आए हैं. हम ऐसी ही बातों का विरोध करते हैं.’ सीताराम कहते हैं, ‘1978 के आंदोलन के पहले तक लोग हमारी बातों पर ज्यादा गौर नहीं करते थे लेकिन उसके बाद लोगों ने हमारे संगठन पर ध्यान देना शुरू किया, वरना उससे पहले वे पंडितों पर ही विश्वास करते थे. लेकिन अब उनको मालूम है कि धर्मग्रंथ एक व्यक्ति की गप से ज्यादा कुछ नहीं है.’ 1978 में जेल जाने वाले लोगों में सीताराम कटियार भी शामिल थे.

भगवान को खारिज करने वालों में अर्जक संघ इकलौता संगठन नहीं है. इससे कई साल पहले तमिलनाडु के राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता ईरोड वेंकट रामास्वामी उर्फ पेरियार ने कहा, ‘ईश्वर नहीं है. जिसने ईश्वर को रचा वह बेवकूफ है, जो ईश्वर का प्रचार करता है वह दुष्ट है और जो ईश्वर की पूजा करता है वह बर्बर है.’ हालांकि इस बात से सब सहमत नहीं हैं. अर्जक संघ से जुड़े वीरेंद्र कहते हैं, ‘हमारे नास्तिक होने का खामियाजा कभी-कभी हमारे परिवार को भुगतना पड़ता है. दरअसल लोग अब भी अपने जीवन में तर्क को जगह नहीं दे रहे हैं. वैसे तो शादी-ब्याह हम अर्जक तौर-तरीकों से करते हैं, लेकिन बहुत सारे लोग इसके लिए तैयार नहीं होते. खासकर बहनों और बेटियों की शादी में. इसके चलते कई बार हमें मजबूरन उनकी बात माननी पड़ती है, कई बार इसी बात को लेकर रिश्ता टूट जाता है. हमें परेशानी का सामना करना पड़ता है.’

अर्जक संघ की स्थापना 1 जून, 1968 को रामस्वरूप वर्मा ने की थी. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के गौरीकरन नामक गांव में हुआ था. आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया के करीबी रहे रामस्वरूप वर्मा कई बार विधायक चुने गए थे. वे 1967 में चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्री रहने के दौरान उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री भी रहे. 

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उनके बारे में भाषाविद राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘रामस्वरूप वर्मा सिर्फ राजनेता नहीं थे, बल्कि एक उच्चकोटि के दार्शनिक, चिंतक और रचनाकार भी थे. उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की है. क्रांति क्यों और कैसे, मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद, मानववाद प्रश्नोत्तरी, ब्राह्मणवाद महिमा क्यों और कैसे, अछूतों की समस्या और समाधान, आंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली, निरादर कैसे मिटे, शोषित समाज दल का सिद्धांत, अर्जक संघ का सिद्धांत, वैवाहिक कुरीतियां और आदर्श विवाह पद्धति, आत्मा पुनर्जन्म मिथ्या, मानव समता कैसे, मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं.’ वे कहते हैं, ‘वर्मा की अधिकांश रचनाएं ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं. पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जात-पात, ऊंच-नीच का भेदभाव और चमत्कार सभी ब्राह्मणवाद के पंचांग हैं जो जाने-अनजाने ईसाई, इस्लामी, बौद्ध आदि मानववादी संस्कृतियों में प्रकारांतर से स्थान पा गए हैं. वे मानववाद के प्रबल समर्थक थे. वे मानते थे कि मानववाद वह विचारधारा है जो मानव मात्र के लिए समता, सुख और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है.’ रामस्वरूप ने आंबेडकर की पुस्तक जब्ती के खिलाफ आंदोलन भी किया था. डॉक्टर भगवान स्वरूप कटियार द्वारा संपादित किताब ‘रामस्वरूप वर्मा: व्यक्तित्व और विचार’ में उपेंद्र पथिक लिखते हैं, ‘जब उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक जाति भेद का उच्छेद और अछूत कौन पर प्रतिबंध लगा दिया तो रामस्वरूप ने अर्जक संघ के बैनर तले सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया, साथ ही अर्जक संघ के नेता ललई सिंह यादव के हवाले से इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया. वर्मा जी खुद कानून के अच्छे जानकार थे. अंतत: मुकदमे में जीत हुई और उन्होंने सरकार को आंबेडकर के साहित्य को सभी राजकीय पुस्तकालयों में रखने की मंजूरी दिलाई.’ रामस्वरूप वर्मा का निधन 19 अगस्त, 1998 को लखनऊ में हुआ. उन्हें याद करते हुए वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस कहते हैं, ‘यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतना मौलिक विचारक और नेता अधिक दिन जीवित नहीं रह सका, लेकिन इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि समाज को इतने क्रांतिकारी विचार देने वाले वर्मा को उत्तर भारत में लगभग पूरी तरह से भुला दिया गया.’ 

हालांकि इस आंदोलन को कुछ लोग दूसरे नजरिये से भी देखते हैं. वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल कहते हैं, ‘अर्जक का मतलब होता है जो अर्जन करके अपना जीवनयापन करें. यह कम्युनिस्टों का आंदोलन नहीं था, बल्कि समाजवादियों का आंदोलन था. हालांकि उस दौरान इसे अहीर, जाट, कुर्मी आंदोलन कहकर प्रचारित किया गया था. फिलहाल अब यह अपने अंतिम दौर में है. जब रामस्वरूप वर्मा जिंदा थे तब यह बहुत तेजी से फैला था. ये लोग कर्मकांड नहीं करते हैं. अपनी शादियों में पंडितों को नहीं बुलाते हैं. इसकी जगह इनके अपने सात वचन होते हैं. मरने पर भी तेरहवीं या भोज के आयोजन के बजाय शोकसभा का आयोजन करते हैं. यह खत्म इसलिए हो गया क्योंकि यह एक राजनीतिक आंदोलन था. रामस्वरूप इसमें कुर्मियों के अलावा बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ पाने में असफल रहे.’ कुछ ऐसा ही मानना वरिष्ठ लेखक कंवल भारती का भी है. वह कहते हैं, ‘अर्जक संघ ने एक दौर में बड़ी संख्या में लोगों को अपने साथ जोड़ा, लेकिन रामस्वरूप वर्मा के निधन के बाद इससे लोगों का जुड़ाव कम हो गया. यह उनकी सबसे बड़ी कमी रही कि वे आगे की पीढ़ी को इसके लिए प्रेरित नहीं कर पाए.’

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लोगों, खासकर युवा पीढ़ी के संघ से कम जुड़ने की बात पत्रकार और लेखिका प्रतिभा कटियार भी स्वीकार करती हैं, लेकिन वे इसका दूसरा कारण बताती हैं. वे कहती हैं, ‘1991 के बाद जब हमारे देश में बाजारवाद ने कदम रखा तो उसने धर्म को ग्लैमर बनाकर उसका उपयोग किया. फिल्मों में देखने के बाद बहुत सारे लोगों ने व्रत रखना शुरू कर दिया. करवाचौथ जैसा त्योहार पूरे देश में फैल गया. जिस गांव में कभी पंडित नहीं दिखते थे, पूजा नहीं होती थी, वहां दुर्गा के पंडाल लगने लगे. इसके बाद रही-सही कसर धार्मिक चैनलों ने पूरी कर दी. अब बाजार ने आपके लिए दिन भर प्रवचन की व्यवस्था कर दी है. दरअसल धर्म, आस्था के साथ बहुत बड़ा बाजार भी है. पूंजीवादी व्यवस्था में बाजार ही हर चीज तय करती है. ऐसे में कोई विचार कितना भी वैज्ञानिक, तर्कयुक्त और पाखंड से दूर हो, बाजार के लिए उपयोगी नहीं हो तो वह बचा नहीं रह पाएगा. अगर गौर से देखें तो आज का समाज पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा है. हमारी साक्षरता ज्यादा है. लोग तकनीक की दुनिया में जी रहे हैं. ज्यादा तर्कशील हैं. फिर भी बाजार के चलते पाखंड की चपेट में हैं. अर्जक संघ के विस्तार को रोकने में इसकी अहम भूमिका रही. लेकिन जैसे-जैसे लोगों के पास अर्जक संघ के विचार पहुंच रहे हैं, लोग इसे अपना रहे हैं.’ ऐसी ही राय लंबे समय से अर्जक संघ से जुड़े भगवान स्वरूप कटियार की भी है. वे कहते हैं, ‘धीरे-धीरे अर्जक संघ का विस्तार हो रहा है. यह अलग बात है कि अब यह एक आंदोलन नहीं रह गया है. बिहार के गया, नवादा समेत कई जिलों में इसका विस्तार हो गया है. बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ रहे हैं.’

इस पर सीताराम कटियार कहते हैं, ‘आप यह तो कह रहे हैं कि नए लोग अर्जक संघ से नहीं जुड़ रहे हैं, लेकिन आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि आप अपने बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं? उनकी किताबों में राम, कृष्ण की गप कथाएं हैं. बच्चे स्कूल से जब घर वापस आते हैं तो पूछते हैं कि क्या सच में भगवान होते हैं, क्या वे हमारी मदद करते हैं. हमें बच्चों को समझाना होता है कि आप अपनी मदद खुद कर सकते हैं, कोई फालतू में आपकी मदद करने नहीं आता है. अब जब हम बच्चों को तर्कशील बनाने की जगह उन्हें धार्मिक शिक्षा देंगे तो नए लोग कहां से अर्जक संघ से जुड़ेंगे. दरअसल अब जरूरत हमारे पाठ्यक्रम को ज्यादा तर्कशील और वैज्ञानिक बनाए जाने की है. हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं. हमें आगे बढ़ना है.’

तर्कवादी व मानव को श्रेष्ठ मानने वाले संगठन लगभग देश के हर राज्य में हैं और वे अंधविश्वास व सांप्रदायिकता से दो-दो हाथ भी कर रहे हैं. भले ही उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ रही हो. अंधश्रद्धा का विरोध करने वाले लेखकों नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे व एमएम कलबुर्गी आदि को इसके लिए अपनी जान गंवानी पड़ी है. बड़ी संख्या में ऐसे संगठनों और लोगों को अतिवादियों की धमकियों और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है. मतलब जहां एक ओर धार्मिक पाखंड व अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के खिलाफ वैज्ञानिक तर्क व मानवतावाद को प्रस्तुत किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर इस आवाज पर विराम लगाने का भी जोर-शोर से प्रयास जारी है.

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अर्जक साहित्य ने आलोचना के नए मानदंड स्थापित किए : राजेंद्र प्रसाद सिंह

अर्जक आंदोलन और अर्जक साहित्य का प्रकाशन साठोत्तरी हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण परिघटना है. हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इसे अभी तक दबाए रखा है. 1968 से जारी अर्जक आंदोलन से जुड़े कई प्रभावशाली साहित्यकार हुए हैं और न जाने कितनी रचनाएं रची गईं. पूरे हिंदी साहित्य के इतिहास में अर्जक साहित्य के आलोचकों ने पहली बार आलोचना के नए मानदंड स्थापित किए और नए औजारों से धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक गल्पों का पुनर्मूल्यांकन किया. मिसाल के तौर पर मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, रामायण की शव परीक्षा, गीता की शव परीक्षा आदि. अर्जक साहित्य ने भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ भी किया है. मिसाल के तौर पर भारत के आदि-निवासियों की सभ्यता, आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश, क्या कभी सतयुग था, हिंदू इतिहास या हारों की दास्तान आदि. संत साहित्य के बाद हिंदी साहित्य के इतिहास में पाखंड, ढोंग, अंधविश्वास जैसे सामाजिक-धार्मिक मुद्दों पर अर्जक साहित्य सर्वाधिक मुखर है. ईश्वर की खोज, पाप-पुण्य क्यों और कैसे, धर्म का धंधा, ब्राह्मणवाद की शव परीक्षा आदि पुस्तकें इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं. छायावाद के छद्म मानवतावाद को वास्तविक धरातल पर उतारने का श्रेय अर्जक साहित्य को है. रामस्वरूप वर्मा की पुस्तक ‘मानववाद प्रश्नोत्तरी’ पठनीय है. अर्जक साहित्यकारों ने अस्मितामूलक अनेक रचनाकारों की खोज की है जिसमें अछूतानंद जी हरिहर प्रमुख हैं. अर्जक साहित्य ने हाशिये के नायकों को अपने नाटकों का केंद्रीय चरित्र बनाया है. मिसाल के तौर पर ललई सिंह यादव कृत एकलव्य नाटक, शंबूक वध नाटक, वीर संत माया बलिदान नाटक आदि. अर्जक साहित्य की परंपरा में बुद्ध, फुले और आंबेडकर से लेकर जगदेव प्रसाद तक अनेक काव्यग्रंथ रचे गए हैं. मिसाल के तौर पर शहीद जगदेव महाकाव्य, अमर शहीद जगदेव प्रबंध काव्य आदि. चौधरी महाराज सिंह भारती का ग्रंथ ‘सृष्टि और प्रलय’ अर्जक साहित्य का प्रमुख ग्रंथ है जिसमें दर्ज है कि सृष्टि को ईश्वर ने नहीं बनाया है. रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, भदंत आनंद कौशिल्यायन और ललई सिंह यादव से लेकर सुरेंद्र अज्ञात तथा एलआर. बाली तक अर्जक आंदोलन से प्रभावित साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा है. अर्जक साप्ताहिक, भीम पत्रिका और शोषित साप्ताहिक जैसी पत्र-पत्रिकाओं ने अर्जक साहित्य को बल प्रदान किया है.

(लेखक भाषा विज्ञानी हैं )

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