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मुद्राराक्षस : एक योद्धा लेखक का चले जाना…

मुद्राराक्षस (21 जून, 1933 - 13 जून, 2016), फोटो साभार : पत्रिका
मुद्राराक्षस (21 जून, 1933 - 13 जून, 2016), फोटो साभार : पत्रिका
मुद्राराक्षस (21 जून, 1933 – 13 जून, 2016), फोटो साभार : पत्रिका

प्रख्यात नाटककार, कथाकार, जाने-माने संस्कृतिकर्मी और चिंतक मुद्राराक्षस का बीते 13 जून को लखनऊ में देहावसान आज के इस आक्रांता समय में हिंदी समाज के एक बुलंद प्रतिरोधी स्वर का मौन हो जाना है. दरअसल मुद्राराक्षस मात्र एक लेखक न होकर एक ऐसे सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे जो हाशिये के समाज के मुद्दों, मुहिम और संघर्षों के सक्रिय सहभागी थे. मार्क्सवाद, लोहियावाद और आंबेडकरवाद से अपनी वैचारिक मनोभूमि निर्मित करते हुए उन्होंने अंततः अपने व्यक्तित्व को ‘आॅर्गेनिक इंटलेक्चुअल’ की जिस भूमिका में ढाला था वह उनका अपना चयन था. यह करते हुए बिना किसी बड़े ओहदे और कुलीन विरासत के मुद्रा जी ने हिंदी के वृहत्तर समाज में अपनी जो गहरी पैठ बनाई थी वह विरल है. विवाद, आमने-सामने की मुठभेड़, महानताओं का मर्दन, सत्ता-प्रतिष्ठान का प्रतिपक्षी होना उनके व्यक्तित्व की कुछ खास विशेषताएं थीं. अज्ञेय, दिनकर से लेकर धर्मवीर भारती और नामवर सिंह तक से वैचारिक समर करते हुए उन्होंने कुलीन संस्कृति और सुखासीन समाज का जो प्रतिपक्ष रचा वह उनकी मौलिकता थी. आज से 55 वर्ष पूर्व 1961 में जब मुद्रा जी मात्र 27 वर्ष के युवा थे तब डॉ. नामवर सिंह ने अपने एक पत्र में उन्हें लिखा था, ‘आपमें ‘प्रतिभा’ है, इसे कई लोग मानते हैं, लेकिन ‘प्रतिभा’ की अपनी व्याधियां भी होती हैं. भुवनेश्वर भी तो ‘जीनियस’ थे. उग्र भी किसी समय ‘जीनियस’ कहे जाते थे. इसलिए जब किसी को ‘जीनियस’ कहलाते देखता हूं तो अंदर ही अंदर आत्मा कांप उठती है. किसी युवक की कलम से उग्रता और तीक्षणता देखकर प्रायः लोग उसे ‘जीनियस’ की संज्ञा प्रदान करते हैं ताकि जल्द ही उस तेज धार पर वह स्वयं कट मरे. एक मित्र के नाते मेरा आपसे अनुरोध है कि आप हमेशा के लिए नहीं तो कुछ दिनों के लिए ही सही सामाजिक विकृतियों के उद्घाटन का मसीहाई बाना उतार दीजिए. कलकत्ता आप छोड़ेंगे नहीं, मैं कहूंगा भी नहीं… लेकिन ऐसा लगता है कि कलकत्ते की ही कुछ खूबी है जो हिंदी के सशक्त लेखकों को ‘जीनियस’ बना देता है.’ यहां डॉ. नामवर सिंह के पत्र के अंतर्निहित संकेत मुद्रा जी के व्यक्तित्व को समझने की कुंजी है.

मुद्राराक्षस के ‘जीनियस’ होने का जो संकेत डॉ. नामवर सिंह के इस पत्र में संकेतित है वह उस दौर के कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर लक्षित है जो उन दिनों राजकमल-मलयराय चौधरी की मंडली के प्रतिष्ठान विरोधी और नकारवादी आंदोलनों का गर्भगृह थी. अपनी चर्चित कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ में राजकमल चौधरी ने मुद्रा जी को संदर्भित भी किया है. हालांकि लखनऊ छोड़ने के पूर्व ही मुद्रा जी ने अपने साहित्यिक जीवन के पहले ही लेख द्वारा अज्ञेय के ‘तारसप्तक’ को अमेरिकी प्रयोगवादी कवियों के संग्रह ‘एक्सपेरिमेंटल राइटिंग इन अमेरिका’ की नकल सिद्ध करके जिस तरह से ध्वस्त किया था उससे उनके ‘जीनियस’ होने का प्रमाण समूचे हिंदी जगत को मिल गया था. मुद्राराक्षस के शिक्षक उस दौर के प्रख्यात आलोचक व दर्शनशास्त्रवेत्ता डॉ. देवराज ने अपनी पत्रिका ‘युगचेतना’ में उस लेख को मुद्रा जी के वास्तविक नाम सुभाष चंद्र आर्य के नाम से न प्रकाशित करके छद्मनाम ‘मुद्राराक्षस’ के साथ प्रकाशित किया. यह लेख इतना चर्चित और विवादित हुआ था कि डॉ. देवराज द्वारा प्रदत्त छद्मनाम ही ‘मुद्राराक्षस’ के वास्तविक नाम के रूप में स्वीकृत हो गया. कलकत्ता में ‘ज्ञानोदय’ में सहायक संपादक की नौकरी के बाद जब वे साठ के दशक के अंतिम वर्षों में आकाशवाणी की नौकरी के सिलसिले में दिल्ली बसे तो ‘नकारवादी’ मुहावरे के बावजूद उनकी वैचारिकता सकारात्मक मूल्य चेतना से युक्त हो चुकी थी. अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी वियतनामी संघर्ष और नक्सलवादी संघर्ष चेतना से स्वयं को संबद्ध करते हुए उन्होंने जो सत्ता विरोधी राह चुनी उसकी अंतिम परिणति हाशिये के समाज की जिस उग्र पक्षधरता में हुई वह उनका व्यक्तित्वांतरण सरीखा था. दलित समाज और बुद्धिजीवियों के बीच उनकी जो स्वीकार्यता और लोकप्रियता थी वह अभूतपूर्व थी. यद्यपि वे स्वयं जन्मना दलित नहीं थे लेकिन दलित और आंबेडकरवादी संगठनों ने उन्हें ‘शूद्राचार्य’ और ‘आंबेडकर रत्न’ की उपाधि और सम्मान से विभूषित किया था.

मुद्रा जी जिस नैतिक आभा और स्वाभिमान के साथ जिए वह हिंदी समाज में विरल है. वे जैसे थे अद्वितीय थे. नाम के छद्म के अतिरिक्त उनका समूचा जीवन एक खुली किताब था

लखनऊ में उनकी शवयात्रा के दौरान ‘जय भीम’, ‘लाल सलाम’ और ब्राह्मणवाद-साम्राज्यवाद विरोधी नारे जिस ओज और बुलंदी के साथ लगे वह किसी गैर-दलित लेखक के लिए संभवतः पहली बार था. मुद्राराक्षस के व्यक्तित्व में मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद का जो सम्मिश्रण था उसकी भरपूर बानगी इस अवसर को यादगार बना रही थी. यह दृश्य मगहर में कबीर की भी याद दिला रहा था क्योंकि जहां मुद्रा जी के मार्क्सवादी मित्र और प्रशंसक उनकी नास्तिकता के अनुकूल बिना किसी कर्मकांड के उन्हें अंतिम विदा देना चाहते थे वहीं कुछ दलित बुद्ध अनुयायी बौद्ध रीति का भी निर्वहन करना चाहते थे और उन्होंने किया भी. इस तरह अपने अंतिम प्रयाण में भी ‘लाल सलाम’ और ‘जय भीम’ के नारों के बीच मुद्रा जी लाल और नीले की एकता का सूत्र पिरोकर गए.

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दलित समाज और संगठन मुद्राराक्षस को अपने अघोषित बौद्धिक प्रवक्ता के रूप में मानते थे. ‘हिन्दू धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ उन्होंने जिस बेबाकी और नए तर्कों के साथ किया वह उनके गहन अध्ययन और बौद्धिक मेधा का परिचायक था. समाज के सर्वाधिक शोषित मुसहर समुदाय पर केंद्रित उनका उपन्यास ‘दंडविधान’ तब प्रकाशित हुआ था जब हिंदी में दलित विमर्श शुरू भी नहीं हुआ था. उग्र हिंदू सांप्रदायिकता पर डेढ़ दशक पूर्व लिखित उनकी कहानी ‘दिव्यदाह’ तो जैसे आज की स्थितियों का पूर्वकथन ही हो. अपने विपुल वैचारिक और साहित्यिक लेखन के माध्यम से मुद्रा जी ने हिंदी की मुख्यधारा के वैचारिक और साहित्यिक चिंतन की रिक्तियों की जो भरपाई की वह उनका अप्रतिम योगदान है.

अपने समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व में मुद्राराक्षस वाद-विवाद-संवाद के ज्वलंत उदाहरण थे. वामपंथी होने के बावजूद वे वामपंथ की सीमाओं को उजागर करने और उस पर बहस करने में कभी संकोच नहीं करते थे. अपने अंतिम उपन्यास ‘अर्धवृत्त’ में जहां उन्होंने उग्र हिंदू सांप्रदायिकता को ‘हिंदू कसाईबाड़े’ के रूप में प्रस्तुत किया है वहीं वामपंथ की दलित ‘दृष्टिबाधा’ को भी लक्षित किया है. कई बार वे बौद्धिक अतिवाद को भी अपनी तर्क पद्धति में अपनाने से पीछे न रहते थे. जब दलित लेखकों के एक वर्ग ने प्रेमचंद को खारिज करने का अभियान शुरू किया तब मुद्रा जी ने प्रेमचंद के विरुद्ध जो तर्क दिए उससे प्रगतिशील लेखकों का बड़ा समूह उनसे अप्रसन्न हुआ, लेकिन मुद्रा जी इससे बेपरवाह अपने तर्कों पर अंत तक कायम रहे. मुद्रा जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी किक वे बौद्धिक असहमति का सम्मान करते थे. उनसे कटुता की सीमा तक असहमत होते हुए भी मैत्रीपूर्ण संबंध रखे जा सकते थे. वर्ष 2005 में जब उन्होंने प्रेमचंद की 125वीं जयंती के अवसर पर एक दलित लेखक संगठन द्वारा ‘रंगभूमि’ को जलाने और प्रेमचंद को दलित विरोधी सिद्ध करने के अभियान का समर्थन किया तो मेरी उनसे तीव्र असहमति हुई. मैंने उन दिनों ‘कुपाठ और विरोध के शोर में प्रेमचंद’ और ‘प्रेमचंद के निंदक’ शीर्षक दो लंबे लेख लिखे जो मुद्रा जी के तर्कों की काट ही नहीं करते थे बल्कि ध्वस्तकारी भी थे. मेरे उस लेख से मुद्रा जी आहत तो अवश्य हुए थे लेकिन जब उनकी 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक पत्रिका ने अपना अंक केंद्रित किया तो उन्होंने शर्त रखी कि पत्रिका में मेरे द्वारा लिखित वह ध्वस्तकारी लेख जरूर शामिल किया जाए. मुद्रा जी द्वारा असहमति और विरोध का यह सम्मान सचमुच विरल था.

वीपी सिंह की मौजूदगी वाले एक जलसे में सुरक्षा जांच किए जाने के बाद नाराज मुद्रा जी ने कहा, ‘जिस दल के नेता को मुझसे ही सुरक्षा का खतरा है, उस दल में रहने का क्या अर्थ!’

मुद्राराक्षस के लिए आपातकाल उनकी रचनात्मकता का ही नहीं बल्कि जीवन का भी नया प्रस्थानबिंदु था. उन्हें अपने व्यवस्था विरोधी विचारों के चलते आकाशवाणी की नौकरी के साथ-साथ दिल्ली भी छोड़नी पड़ी थी. लखनऊ में उनकी घरवापसी एक लेखक और संस्कृतिकर्मी के रूप में उनका पुनरोदय भी थी. ‘मरजीवा’, ‘तिलचट्टा’ और ‘तेंदुआ’ सरीखे पश्चिम की ‘एब्सर्ड’ नाट्य-विधा और ‘मेरा नाम तेरा नाम’ सरीखे उपन्यास के आक्रामक हवाई मुहावरे को तिलांजलि देकर यह उनके नए रचनाकार व्यक्तित्व के पुनराविष्कार का वह समय था जब उन्होंने ‘हम सब मंसाराम’, ‘शांतिभंग’ और ‘दंडविधान’ सरीखे उपन्यास लिखे और विपुल वैचारिक लेखन किया. आपातकाल की पृष्ठभूमि पर केंद्रित उनका उपन्यास ‘शांतिभंग’ सत्ता के निरंकुश स्वरूप को बेपर्दा करने के साथ-साथ सामान्यजन की जिजीविषा और संघर्ष चेतना को भी लक्षित करता है. यह अनायास नहीं है कि उत्तर आपातकाल के ही इस दौर में उन्होंने दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक के मुद्दों को अभियान की हद तक वैचारिक और रचनात्मक स्वर प्रदान किए. उन्होंने अपने इस दौर के लेखन में हिंदी साहित्य की प्रभुत्वशाली धारा और समृद्ध समाज को हाशिये के लोगों की निगाह से देखने का जो जतन किया उसने जहां दलित समाज के बौद्धिकों और सामान्य पाठकों के बीच उन्हें चर्चित और लोकप्रिय बनाया वहीं सत्ता प्रतिष्ठान, अभिजन समाज और प्रभुत्वशाली लेखकों के कोपभाजन के भी वे शिकार हुए. इस सबसे आह्लादित और विचलित हुए बिना साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, सामंतवाद और अभिजनवाद का सतत विरोध एवं उसके बरक्स परिवर्तनकामी प्रगतिशील मूल्य चेतना उनके समूचे वैचारिक चिंतन का मूल आधार रही. उन्होंने अपनी वैचारिक निष्पत्तियों द्वारा धर्म, पूंजी, साम्राज्यवाद और वर्णाश्रमी-जातिश्रेष्ठता के अंतर्संबंधों का खुलासा जिस सहज पदावली में किया उससे उनकी सामान्य पाठकों में गहरी पैठ बनी. अखबारों-पत्रिकाओं में उनके लेखों और स्तंभों का बड़ा पाठक वर्ग था. समसामयिक मुद्दों पर वे जिस तीखे, बेलाग और प्रहारात्मक शैली में लिखते थे उससे उनकी जो जनपक्षधर, निडर, साहसिक और सत्ता विरोध की बौद्धिक छवि बनी वह उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान थी.

संभवतः मुद्राराक्षस हिंदी के उन गिने-चुने लेखकों में थे जिनका देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से एक साथ संवाद रहा था. आकाशवाणी की ट्रेड यूनियन के गठन और नेतृत्व के दौरान वे शीर्ष कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे के संपर्क में आए तो डॉ. राममनोहर लोहिया का सानिध्य उन्हें दिल्ली के काफी हाउस व गुरुद्वारा रकाबगंज के नजदीक लोहियाजी के निवास की बैठकी और समाजवादी पत्रिकाओं  ‘जन’ और ‘मैनकाइंड’ में लेखन के दौरान मिला. उत्तर आपातकाल के जनता दल के शासन के दौरान वे पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के संपर्क में आए और कुछ समय तक स्थानीय जनता दल के अध्यक्ष भी रहे. लेकिन एक बार हुआ यह कि लखनऊ में जनता दल के एक जलसे में विश्वनाथ प्रताप सिंह आए हुए थे, मुद्राराक्षस को आयोजन की अध्यक्षता करनी थी.  पूर्व प्रधानमंत्री की उपस्थिति के चलते आयोजन में शिरकत करने वालों को मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना था. मुद्रा जी ने सुरक्षाकर्मियों को बताया कि उन्हें ही जलसे की अध्यक्षता करनी है लेकिन फिर भी उन्हें मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना पड़ा. सुरक्षा जांच के बाद मुद्रा जी ने कहा, ‘हो गई, सुरक्षा जांच. अब मैं वापस जा रहा हूं. जिस दल के नेता को मुझसे ही सुरक्षा का खतरा है, उस दल में रहने का क्या अर्थ!’ वापस होते मुद्रा जी पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की भी निगाह पड़ी. लोग उन्हें रोकने के लिए दौड़े, लेकिन मुद्रा जी थे कि यह जा, वह जा और ओझल हो गए. उसके बाद जनता दल से भी उन्होंने मुक्ति पा ली. वे दो बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़े एक बार लोकसभा का और दूसरी बार विधानसभा का. दोनों चुनावों में उनकी जमानत जरूर जब्त हुई लेकिन बाबा नागार्जुन, डॉ. नामवर सिंह से लेकर कुंवर नारायण तक उनके इस अभियान में शामिल हुए थे. जितना प्रचार प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को मिला था, उससे कुछ कम मुद्रा जी के हिस्से में नहीं आया था. हम सब उनके इस अभियान के सहभागी थे.

साहित्य, रंगमंच से लेकर राजनीति तक विस्तृत मुद्राराक्षस का वैविध्यपूर्ण व्यक्तित्व समय-समय पर विवादों और बहसों का केंद्र रहा, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने व्यक्तित्व को उपेंद्रनाथ अश्क की तर्ज पर परचून की दुकान खोलने की नाटकीयता के साथ दयनीय नहीं बनाया. वे न कभी अपनी किताबों की सरकारी खरीद के लिए प्रयत्नशील हुए और न कभी पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार के लिए सरकार के मुखापेक्षी ही हुए, जबकि आजीविका का एकमात्र साधन स्वतंत्र लेखन होने के चलते उनकी स्थिति ‘रोज कुआं खोदने और पानी पीने’ सरीखी थी. सही अर्थों में उनके जीवन का प्रेरणा सूत्र ‘न दैन्यं न पलायन’ था. मुद्रा जी जिस नैतिक आभा और स्वाभिमान के साथ जिए वह हिंदी समाज में विरल है. स्वीकार करना होगा कि वे जैसे थे एकमात्र और अद्वितीय थे. नाम के छद्म के अतिरिक्त उनका समूचा जीवन एक खुली किताब था. उनकी अनुपस्थिति को समूचा हिंदी समाज लंबे समय तक महसूस करेगा. वे सचमुच योद्धा लेखक थे. उन्हें अंतिम सलाम!

(लेखक साहित्यकार आैैर आलोचक हैं)

‘दुर्भाग्य से हमारे पास इतनी पावर नहीं है कि हम किसी की गिरफ्तारी की सिफारिश कर सकें या किसी को नोटिस भेजकर यहां आने पर मजबूर कर सकें’

LalithaKumarmangalmWeb

सोशल मीडिया पर प्रतिष्ठित महिलाओं के साथ गाली-गलौज की जाती है, मारने या बलात्कार करने की धमकियां दी जाती हैं. क्या महिला आयोग इस पर संज्ञान लेकर कोई कार्रवाई कर रहा है?

यह महिलाओं की गरिमा का अपमान है. कार्रवाई तो हम कुछ नहीं कर सकते. स्वत: संज्ञान भी हम कहां से लें? कैसे लें? हाल ही में जो कविता कृष्णन के साथ हुआ, उस मामले में कानूनी तौर पर हम क्या कर सकते हैं? अगर हम कुछ कहें तो ‘फ्रीडम आॅफ स्पीच’ की बात आ जाती है. संविधान में फ्रीडम आॅफ स्पीच है, लेकिन संविधान में ये भी लिखा है कि महिला के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए. अब कोर्ट तो हम नहीं जा सकते, लेकिन अगर कविता जाना चाहती हैं तो हम उनका सपोर्ट करेंगे. लेकिन एक मसला यह भी है कि अगर कोई मसला कोर्ट में विचाराधीन है तो हम हस्तक्षेप ही नहीं कर सकते. हमें इसकी इजाजत नहीं है. कोर्ट में जो मामला है, वह सिर्फ कोर्ट ही देखती है. हमने ऐसी घटनाओं की निंदा की है, उससे ज्यादा क्या कर सकते हैं?

मुझे नहीं पता कि महिलाएं इतना क्यों बर्दाश्त करती हैं. उनको कोर्ट जाना चाहिए. कविता से मैंने इस बारे में बात तो नहीं की है, लेकिन कल तक मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं मिली कि वे कोर्ट गईं या नहीं. अगर वे कोर्ट जाना चाहती हैं तो हमारा सपोर्ट रहेगा. दुर्भाग्य से हमारे देश में किसी भी मामले में तुरंत मानवाधिकार, फ्रीडम आॅफ स्पीच वगैरह आ जाता है. तथाकथित उदारवादी बनाम अनुदारवादियों का मामला बन जाता है. मुद्दों के राजनीतिकरण से मूल मुद्दा कमजोर हो जाता है और राजनीति शुरू हो जाती है.

लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसे मामले में मानवाधिकार या फ्रीडम आॅफ स्पीच का मुद्दा उठेगा. गाली देना तो कोई आजादी नहीं है? सागरिका घोष और प्रियंका चतुर्वेदी को बलात्कार करने की धमकी दी जाती है. यह तो साफ तौर पर अपराध है?

हां, यह अपराध है और उनको शिकायत करनी चाहिए. वे शिकायत करें तो फिर हम कुछ जरूर करेंगे. समस्या ये हो जाती है कि अगर मैं खुद से उनके पास जाती हूं तो वाम बनाम दक्षिण बनाम ये बनाम वो… हम ये भूल जाते हैं कि ये मसला कितना गंभीर है. मैं बार-बार यही कहती हूं कि कृपया इस मसले पर राजनीति न करें. आप किसी पार्टी से, किसी भी विचारधारा से हों, पर हम सब हैं तो महिलाएं ही. अगर इतनी बड़ी-बड़ी महिलाएं सागरिका जी या कविता जी वगैरह असुरक्षित हैं तो इस देश में सुरक्षित कौन है? अगर हम सब एक साथ जुड़ते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. जब तक मैं महिला आयोग में हूं, मैं निश्चिंत कर दूं कि मैं राजनीति नहीं कर सकती हूं, खास तौर से ऐसे मुद्दों पर. राजनीति छोड़कर सारी महिलाओं को एकजुट हो जाना चाहिए, जैसे निर्भया के बाद किसी ने राजनीति नहीं देखी क्योंकि जनता का दबाव आ गया था. इसलिए मेरी निजी राय है कि जनता की ओर से दबाव उत्पन्न कीजिए, इस हद तक कि कोई भी ऐसा करने से डरे. अभी वे ऐसा इसलिए करते हैं कि वे जानते हैं कि बच जाएंगे. 

मैं मानती हूं कि सोशल मीडिया पर महिलाओं को गाली-गलौज, धमकी और यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, असहिष्णुता भी है. मैं अगर कहूं कि आप जो कह रहे हैं वह गलत है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको धमकी दूं या बुरे-बुरे शब्द इस्तेमाल करूं.

क्या महिला आयोग इस मसले पर अपनी तरफ से कोई पहल कर सकता है? स्वत: संज्ञान ले सकता है? कार्रवाई कर सकता है? या फिर सरकार को कोई मशविरा भेज सकता है कि इस चलन को रोकने की कोशिश की जाए?

नहीं. देखिए, सिर्फ कानून इस मामले में कुछ कर सकता है और कानून की बहुत लंबी प्रक्रिया है. हमने पहले भी इनडीसेंट रिप्रेजेंटेशन आॅफ वूमेन (प्राेहिबिशन) ऐक्ट को लेकर बहुत सारी टिप्पणियां की हैं. अध्ययन किया है. सरकार को भेजा भी है. कंसल्टेशन वगैरह की भी कोशिश की है. अभी न्यू ड्राफ्ट वूमेन पॉलिसी में भी ये मुद्दा आया है. तो यह विचार-विमर्श में तो है. हम महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को भी अपनी टिप्पणी भेज रहे हैं. हम सूचना प्रसारण मंत्रालय के भी पास जाएंगे. अब मसला ये है कि विभिन्न मंत्रालयों का झंझट  है. मंत्रालयों को सिर्फ नेता नहीं चलाते, नौकरशाह चलाते हैं. फाइल में कोई कुछ लिख देगा, तो क्या करेंगे? जैसे निर्भया फंड के मामले में असली कहानी यह है कि किसी ने उसकी फाइल पर लिख दिया कि सीसीटीवी कैमरे जेंडर सेंसिटिव होने चाहिए. अब आप बताइए कि कैमरा कभी जेंडर सेंसिटिव हो सकता है? कैमरा लगाने का मतलब ये है कि लोगों के मन में डर पैदा हो कि महिला के साथ कुछ करते हैं तो वह रिकॉर्ड हो जाएगा. अब ऐसे कारणों से फाइल रुक जाती है और यह किसी मंत्री ने नहीं लिखा है. लेकिन आरोप मंत्री पर आएगा फिर राजनीति शुरू हो जाएगी. महिला आयोग किसी भी पीड़ित महिला को सपोर्ट करने का इच्छुक है, लेकिन पहल उनको करनी होगी.

असहमति के नाम पर किसी को सार्वजनिक मंच पर गाली देने से खराब कुछ हो नहीं सकता. इसे कैसे रोका जा सकता है?

मैं मानती हूं कि मैं किसी से असहमत हो सकती हूं लेकिन गाली-गलौज नहीं होनी चाहिए. लेकिन अब इसका क्या करें? अब जो हो सकता है वह कानून की मदद से या फिर संसद में कानून बनाया जा सकता है. लेकिन कानून बनाने की लंबी प्रक्रिया है. तब तक क्या करें? चुप रहने से तो कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि जहां तक मुझे मालूम है, यह सब और बढ़ रहा है. हम एक मीटिंग बुलाकर लोगों के साथ इस पर चर्चा भी करेंगे कि क्या किया जा सकता है. प्रतिष्ठित महिलाओं और आम महिलाओं को साथ लेकर एक दबाव समूह तैयार किया जा सकता है जो ऐसा करने वालों पर दबाव डाले, जो सरकार के मंत्रियों से जाकर मिले, उनसे कहे कि सर आप ऐसा कर सकते हैं और कीजिए, यह जरूरी है. ऐसा करने पर जरूर कुछ होगा.

दुर्भाग्य से हमारे पास इतना पावर नहीं है कि हम किसी की गिरफ्तारी की सिफारिश कर सकें या किसी को नोटिस भेजकर यहां आने पर मजबूर कर सकें. अगर हम किसी आरोपी को एक दफा सार्वजनिक तौर पर बुला पाएं तो भी उन पर दबाव बनेगा. महिला आयोग ने मांग रखी है कि हमें कम से कम उतना अधिकार दे दीजिए, जितना मानवाधिकार आयोग को है कि हम किसी की गिरफ्तारी की सिफारिश कर सकें. महिला आयोग महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए जो कुछ हो सकता है, वह जरूर करेगा.

मानसिक अस्पतालः अपनों का इंतजार

सभी फोटोः प्रतीक गोयल
सभी फोटोः प्रतीक गोयल
सभी फोटोः प्रतीक गोयल

बीस महीने पहले पश्चिम बंगाल के बर्धमान की रहने वाली 24 वर्षीय सोहिनी जब सपनों के शहर मुंबई कुछ कर गुजरने के लिए पहुंची थीं तो उनकी जिंदगी में सब ठीक-ठाक चल रहा था. वे एक बीमा कंपनी में काम कर रही थीं और हॉस्टल में रहा करती थीं, लेकिन उनकी कम तनख्वाह उनकी परेशानियों का सबब बनती चली गई. मुंबई में गुजर-बसर करना मुश्किल होता चला गया. इन मुश्किलों को वे झेल नहीं पाईं और मानसिक अस्पताल जा पहुंचीं. तकरीबन डेढ़ साल इलाज चलने के बाद अब वे ठीक हैं लेकिन त्रासदी यह है कि उनकी मां उन्हें अपनाना नहीं चाहतीं और उन्हें अस्पताल में ही रखने की पैरवी करती हैं.

किसी भी तरह की मानसिक बीमारी के शिकार लोग अक्सर ऐसी त्रासदी झेलने को मजबूर होते हैं, जिसमें उनके परिवारवाले उनसे किनारा कर लेते हैं. ऐसे लोग अस्पताल में इस आस से दिन गुजारते हैं कि एक दिन परिवारवाले उन्हें अपने साथ घर ले जाएंगे. ‘तहलका’ ने मुंबई के नजदीक ठाणे स्थित प्रादेशिक मानसिक अस्पताल में छोटी-बड़ी उम्र के ऐसे कई लोगों से बातचीत की जो कई सालों से इस आस में हैं कि एक न एक दिन उनके परिवारवाले उन्हें फिर से अपना लेंगे.

70 एकड़ में फैले 115 साल पुराने इस मानसिक अस्पताल में जब हम पहुंचे तो दिन का तकरीबन एक बज रहा था. महिला वार्ड की सभी रहवासी नीली वर्दी पहने दोपहर का भोजन कर रही थीं. इसी वार्ड में रहने वाली नीता सिंघानिया (बदला हुआ नाम) बड़ी कुशलता से दूसरों को भोजन परोस रही हैं. नीता यहां तीन साल पहले आई थीं, वे अपना मानसिक संतुलन खोने के बाद सड़क पर भटकते हुए पाई गई थीं. आज नीता पूरी तरह से स्वस्थ हैं लेकिन उनके घरवाले उन्हें अपनाना नहीं चाहते. वे कहती हैं, ‘मैं अपने पिता जी के साथ उल्हासनगर में रहती थी. उनकी मृत्यु के बाद मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठी और सड़कों पर रहने लगी थी. इलाज के बाद मैं अब पूरी तरह से ठीक हूं लेकिन घरवालों ने नहीं अपनाया. अफसोस होता है कि पिछले तीन सालों में मेरी दोनों बहनें एक दफा भी मुझसे मिलने नहीं आईं.’ नीता को अस्पताल में पुलिस ने भर्ती करवाया था. वे कहती हैं, ‘मेरा उल्हासनगर में एक कमरा है, वहां रहकर मैं पापड़ बेचने का व्यवसाय कर अपना गुजारा कर सकती हूं. अस्पतालवालों ने मेरी बहनों को बहुत समझाया कि वे मुझे अपने साथ ले जाएं लेकिन मानसिक रोग होने के बाद दोनों में से कोई भी मुझसे संबंध नहीं रखना चाहता.’

हमारे समाज में मानसिक रोग एक कलंक के रूप में देखा जाता है और यह किसी जाति, समुदाय, मत विशेष तक सीमित नहीं है बल्कि इस रोग के प्रति नकारात्मक दृष्टि रखने में या इसे एक कलंक समझने में सभी लोग एक हो जाते हैं. पूरा समाज इस रोग से ग्रसित व्यक्ति का बहिष्कार करने एकजुट-सा नजर आता है. 34 साल की सुरैया अख्तर (बदला हुआ नाम) अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी आश्रयों या सुधारगृहों में गुजार चुकी हैं. पैसों की कमी के चलते उनके माता-पिता उनका पालन-पोषण नहीं कर पा रहे थे और कुछ मानसिक समस्याओं के कारण महज 12 साल की उम्र में ही उन्होंने सुरैया को डोंगरी स्थित सुधार गृह में भेज दिया था. गुजरते वक्त के साथ सुरैया मुंबई, सोलापुर, हैदराबाद जैसे शहरों के सुधार गृहों में रहीं और साल 2008 में कर्जत स्थित गवर्नमेंट रिसेप्शन सेंटर द्वारा ठाणे के मानसिक अस्पताल में भर्ती कराई गई. अस्पताल के दस्तावेजों में सुरैया के परिवार का कोई अता-पता नहीं है. उनसे आज तक कोई मिलने-जुलने भी नहीं आया है. सुरैया को आज भी लगता है कि उनके माता-पिता उन्हें अपनाएंगे. वे कहती हैं, ‘मैं अपने माता-पिता के पास जाना चाहती हूं, वे मुंबई में रहते हैं. उनका पता सोलापुर के सुधार गृह के रजिस्टर में लिखा हुआ है.’

मुंबई के विक्रोली इलाके की रहने वाली 44 साल की कविता मुले (बदला हुआ नाम) मराठी में कहती हैं, ‘मला घरी जायचा आहे (मैं घर जाना चाहती हूं).’ कविता को जुलाई 2015 में एक स्थानीय गैर-सरकारी संस्था ने मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया था. उनकी दिमागी हालत अब पूरी तरह से ठीक है, लेकिन उनके दोनों बेटे उन्हें अपने साथ घर नहीं ले जाना चाहते. उन्होंने अपना पता भी बदल लिया है ताकि कविता उनसे किसी भी तरह का संपर्क न साध पाएं. कविता कहती हैं, ‘मैं किसी गैर-सरकारी संस्था के सुधार गृह में नहीं जाना चाहती हूं, मैं सिर्फ अपने घर जाना चाहती हूं. मेरे बेटे देखने में तो अच्छेे हैं लेकिन किसी काम के नहीं हैं वे अपनी मां को घर वापस नहीं ले जाना चाहते.’

ठाणे के इस अस्पताल में चंद लोग ऐसे भी हैं जो ठीक होने के बावजूद घर नहीं जाना चाहते. उन्हीं में से एक हैं मध्य प्रदेश  के खंडवा की रहने वाली भानुमति बाई (बदला हुआ नाम) जो एचआईवी संक्रमित हैं. वे कहती हैं, ‘मैं घर नहीं जाना चाहती, मुझे यहीं रहना हैं.’ हालांकि भानुमति का परिवार उनसे कभी-कभार मिलने आता है. सिर्फ गरीब परिवारों में ही नहीं, पढ़े-लिखे और अमीर परिवारों में भी मानसिक रोग से पीड़ित रहे लोगों को ठीक होने के बावजूद अपनाया नहीं जाता.

कोलकाता के श्याम बाजार इलाके की निलांबन स्ट्रीट की रहने वाली शोमा रे (बदला हुआ नाम) ठाणे मानसिक अस्पताल में पिछले एक साल से रह रही हैं. उनके दो बच्चे हैं जो तलाक के बाद उनके पति के साथ रहते हैं. एक नाकाम संबंध के चलते शोमा ने कोलकाता से मुंबई की ओर रुख किया था. वे एक समाजसेविका को मुंबई के रेड लाइट इलाके कमाठीपुरा की सड़कों पर असामान्य हालत में भटकती हुई मिली थीं, जिसके बाद उन्हें मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया गया था. शोमा फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं. वे कहती हैं, ‘मैं अपने घर जाना चाहती हूं लेकिन मेरी मां मुझे वापस घर ले जाना नहीं चाहती हैं. मेरी मदद कीजिए घर जाने में.’ अस्पताल की ओर से कई बार दरख्वास्त करने पर भी शोमा की मां उनको वापस अपनाना नहीं चाहतीं. उनकी मां के अनुसार वह शोमा का खर्च नहीं उठा सकतीं और चाहती हैं कि वे मानसिक अस्पताल में ही रहें. 

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मानसिक रूप से ठीक हो चुके पुरुष वार्ड के मरीजों की कहानी भी महिला वार्ड से अलग नहीं है. वृद्ध पुरुषों के वार्ड में रहने वाले 62 साल के एन. प्रभाकर (बदला हुआ नाम) सिकंदराबाद के रहने वाले हैं और एक जमाने में कामयाब व्यवसायी रहे हैं. इस उम्र में भी उनकी याददाश्त तेज है और वे फर्राटे से अपने रिश्तेदारों के नाम, पते और टेलीफोन नंबर बताते हैं. 25 साल पहले प्रभाकर को उनकी पत्नी और बच्चे छोड़कर चले गए थे. उसके बाद अपने जीवन के 23 साल उन्होंने हैदराबाद के दिलसुखनगर इलाके के वेंकटाद्री सिनेमाहॉल के प्रांगण में गुजारे. दो साल पहले शिर्डी जाते समय वे मुंबई में उतर गए थे और रेलवे स्टेशन पर भटकते हुए मिले थे, जिसके बाद उन्हें मानसिक अस्पताल लाया गया था. प्रभाकर की हालत अब ठीक है लेकिन उनके रिश्तेदार उन्हें अपनाना नहीं चाहते. प्रभाकर एक रईस परिवार से आते हैं. उनकी सात बहनें और एक भाई हैं, जो अब उनसे किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहते. प्रभाकर बताते हैं कि वे व्यापारी थे और उनका मूंगफली और मिट्टी के तेल का कारोबार था. सिकंदराबाद में एक पेट्रोल पंप भी था.

वे हंसते हुए कहते हैं, ‘मैंने 17 साल तक व्यवसाय किया लेकिन जब मेरी मानसिक हालत बिगड़ी तो सबने मुझे छोड़ दिया, यहां तक कि मेरी बीवी-बच्चों ने भी. मैं सिनेमा हॉल के प्रांगण में और उसके आसपास भटकता रहता था और कुछ लोग-बाग जो भी खाने को दे देते थे, खा लेता था. पिछले दो सालों से में यहां रह रहा हूं. इतने सालों में आज तक मेरे परिवार से कोई भी मुझसे मिलने नहीं आया.’ ठाणे मानसिक अस्पताल में बतौर मनोचिकित्सक कार्यरत सुरेखा वाठोरे कहती हैं, ‘प्रभाकर एक अच्छे परिवार से आते हैं, लेकिन उनका कोई भी रिश्तेदार उनकी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहता. उनकी पत्नी और बच्चों का तो हम पता नहीं लगा पाए लेकिन उनके एक भांजे से हमारा संपर्क हुआ है, लेकिन वह भी उनकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता.’

बिहार के अररिया जिले के तीरा खर्डा गांव के रहने वाले 35 वर्षीय दलजीत कुमार (बदला हुआ नाम) पिछले डेढ़ साल से ठाणे मानसिक अस्पताल में रह रहे हैं. दलजीत मजदूरी करने के लिए अपने गांव से हरियाणा जाने का विचार कर रहे थे. उस वक्त उनकी मानसिक हालत ठीक नहीं थी लेकिन उन्होंने हरियाणा जाने की योजना नहीं बदली, जिसके बाद से उनकी जिंदगी बदल गई. उन्हें जिस ट्रेन से हरियाणा जाना था उसकी जगह कोई दूसरी ट्रेन पकड़ ली और मुंबई पहुंच गए. वे स्टेशन पर असामान्य हालत में भटकते हुए मिले थे. दलजीत कहते हैं, ‘मैं अपने बीवी-बच्चों को अपने ससुराल नेपाल छोड़ने के बाद मजदूरी करने हरियाणा के जाखल मंडी जाने वाला था. लेकिन गलत ट्रेन में चढ़ गया था. मेरे चाचा से अस्पतालवालों ने संपर्क साधा लेकिन अब तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया है.’

दलजीत का इलाज कर रहे मनोचिकित्सक गोपाल घोड़के कहते हैं, ‘दलजीत कुछ ही महीनों में ठीक हो गया था लेकिन फिर भी वह यहीं है. उसके घर से भी आज तक यहां कोई नहीं आया. उसके पिता की मृत्यु के बाद उसकी मां ने किसी और से विवाह कर लिया था और हरियाणा चली गई थीं, इसीलिए उनसे भी हमारा संपर्क नहीं हो पाया था. हालांकि उसके चाचा से हमारा संपर्क हो चुका है, जिनसे हमने कहा है कि गांव के सरपंच का एक पत्र हमें भेज दे जिसमें लिखा हो कि दलजीत उनके गांव का है. लेकिन अब तक वहां से कोई संदेश नहीं आया.’

‘मैंने 17 साल तक व्यवसाय किया लेकिन जब मेरी मानसिक दशा बिगड़ी तो सबने मुझे छोड़ दिया, यहां तक कि मेरी बीवी-बच्चों ने भी. मैं एक सिनेमा हॉल के प्रांगण के आसपास भटकता रहता था. लोग-बाग जो दे देते थे उसे खा लेता था’ 

‘तहलका’ ने कुछ मरीजों के परिवारों से भी संपर्क साधा और यह जानना चाहा कि आखिर क्यों वे अपने ही लोगों को नहीं अपना रहे. सोहिनी की मां कहती हैं, ‘मेरी तबीयत अब ठीक नहीं रहती, मुझे आंखों से भी कम दिखता है, मैं कैसे उसका ख्याल रखूंगी? अस्पतालवालों को उसे वहीं रखना चाहिए और वहीं-कहीं उसे नौकरी दिलवा देनी चाहिए.’ सोहिनी के चाचा की भी राय उनकी मां से मेल खाती है. वे कहते हैं, ‘उसकी मां बहुत गरीब है और बीमार रहती है. मैंने अस्पताल के लोगों से गुजारिश की है कि वे उसे मुंबई में ही कोई काम दिलवा दें. हम गरीब लोग हैं. हम उसे वापस नहीं बुला सकते, उसे वहीं काम करना चाहिए.’ एन. प्रभाकर के भांजे, जो उन्हें हैदराबाद में कुछ पैसे देकर मदद करते थे, कहते हैं, ‘उनकी मानसिक बीमारी के चलते उनकी पत्नी ने उन्हें तलाक दे दिया था और छोड़ गई थीं. उनके भाई ने उनकी पूरी जायदाद पर कब्जा कर लिया है और अब वह उनसे कोई संपर्क नहीं रखता है. मैं तो बस एक रिश्तेदार हूं. जब उनके सगे ही उनका ध्यान नहीं रख रहे, तो मैं कैसे उनका ध्यान रखूं.’   

ठाणे के इस मानसिक अस्पताल में 1500 मरीज हैं जिनमें से 290 दिमागी रूप से ठीक हो चुके हैं और अपने परिवारों के पास जा सकते हैं. मनोचिकित्सक-समाजसेविका सुरेखा वाठोरे पिछले 30 साल से यहां काम कर रही हैं और अब तक तकरीबन 1000 मरीजों को सकुशल उनके घर पहुंचा चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘मानसिक अस्पताल में लोग सबसे अंत में पीड़ित व्यक्ति को लेकर आते हैं. सबसे पहले वे उन्हें जादू-टोने से ठीक करने की कोशिश करते हैं, फिर निजी मनोचिकित्सक और अंत में हमारे पास लाते हैं. इस प्रक्रिया में कई वर्ष गुजर जाते हैं और इस देर के कारण बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ जाती है.’ सुरेखा आगे बताती हैं, ‘हमारे समाज में पागलपन के मरीजों के प्रति एक नकारात्मक रवैया है, उन्हें एक कलंक के रूप में देखा जाता है. अगर कोई व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है या फिर मानसिक अस्पताल में है तो उसके घरवाले यह बात सबसे छिपाने की कोशिश करते हैं. उन्हें हमेशा डर बन रहता है कि अगर यह बात उजागर हो गई तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी, उनके परिवार से कोई रिश्ता नहीं बनाएगा. इन्हीं कारणों के चलते लोग पूरी तरह से ठीक हो जाने के बावजूद इन मरीजों को नहीं अपनाते. हमारे पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं के मुकाबले मानसिक रोगी रहे पुरुषों को ज्यादा अपनाया जाता है. एक बात यह भी गौर करने वाली है कि गरीब परिवार मानसिक रोग से पीड़ित सदस्यों को आसानी से अपना लेते हैं लेकिन यह बात मध्यमवर्गीय और अमीर परिवारों में देखने को नहीं मिलती.’

साल 2011 में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने ठाणे के इस मानसिक अस्पताल में रह रहे मरीजों के पुनर्वासन के लिए ‘तराशा’ नाम से एक परियोजना चलाई है. इस मुहिम के तहत 15 महिलाओं का पुनर्वासन करने की कोशिश की गई थी. इस परियोजना की संचालक अश्विनी सुरवासे कहती हैं, ‘पुनर्वासन के लिए चुनी गई 15 लड़कियों में से 11 प्रिंटिंग प्रेस और रिटेल के व्यवसाय में काम कर रही हैं, दो अपने परिवार के साथ हैं और दो को वापस अस्पताल भेज दिया गया है क्योंकि उनको अभी और इलाज की जरूरत है.’ वे आगे कहती हैं, ‘हम मानसिक अस्पताल जाकर मरीजों से समूह में और अकेले मिलते हैं. उनसे बात करते हैं, उनका आकलन करते हैं. इसके बाद मनोचिकित्सक और व्यावसायिक डॉक्टरों की राय लेते हैं और फिर लड़कियों को अस्पताल से निकाल लेते हैं. इस प्रक्रिया के बाद उन्हें संस्था से जुड़े वर्किंग वुमन हॉस्टल में रखा जाता है और चार महीनों का साइकोसोशल रिकवरी (मनोसामाजिक पुनःप्राप्ति) का कोर्स करवाया जाता है जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़े. इसके बाद उन्हें चार महीनों की अवधि का ही एक वोकेशनल ट्रेनिंग कोर्स कराया जाता है जिसके बाद उन्हें नौकरी दी जाती है.’

ठाणे मानसिक अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट राजेंद्र शिरसाठ कहते हैं, ‘मरीजों के परिवार उनके पूर्व में किए हुए व्यवहार से घबराकर और समाज में मानसिक रोगियों के प्रति हीन दृष्टिकोण के चलते उन्हें अपनाने से कतराते हैं. मानसिक रोग और उससे जूझते लोगों के प्रति सामाजिक जागरूकता लाना बहुत जरूरी है. जब तक समाज में इनके प्रति सकारात्मक रवैया नहीं बनेगा तब तक इन्हें कोई नहीं अपनाएगा.’          

बीमारी की तरह फैल रहा है सोशल मीडिया का दुरुपयोग : ओम थानवी

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जब नई तकनीकें आती हैं, तो वे अपने साथ वरदान भी लेकर आती हैं और अभिशाप भी. आपको उसके फायदे नजर आते हैं और नुकसान भी. यहां तक कि लोकतंत्र के भी अपने फायदे और नुकसान हैं और तानाशाही के भी अपने फायदे-नुकसान हैं. ये होता है कि तानाशाही में नुकसान बहुत ज्यादा होते हैं और लोकतंत्र में फायदे बहुत ज्यादा होते हैं. लेकिन ऐसा कहना कि तानाशाही में फायदे नहीं होंगे, एक तरह का अनुशासन तो आ ही जाता है, लोकतंत्र में नुकसान है कि एक तरह की अराजकता आ ही जाती है.

सोशल मीडिया की जो तकनीक आई है ​ये अपने साथ बहुत अच्छाई लेकर आई है. संचार तुरंत होने लगा है- ज्ञान का, जानकारी का. लोग संचार माध्यमों- अखबार और टीवी के भरोसे नहीं हैं. सोशल मीडिया के ​जरिए आपको बारिश तक की जानकारी तुरंत मिलती है. अखबारों और टीवी चैनलों के भी पोर्टल बने हुए हैं जिनके जरिए तुरंत जानकारियां मिलती हैं. पर यह तकनीक जो अभिशाप लेकर आई है, वह है कि आप उसका इस्तेमाल देश में आग लगाने के लिए भी कर सकते हैं, दंगे भड़काने के लिए भी कर सकते हैं, चरित्र हनन के लिए भी कर सकते हैं. ये इसका अभिशाप है. इसे शत-प्रतिशत तो काबू नहीं कर सकते हैं, लेकिन बिल्कुल काबू नहीं कर सकते, ऐसा भी नहीं है. इसकी कोशिश भी हमारे यहां बहुत अधिक नहीं हुई है. एक कानून बन गया, लेकिन हमारे यहां लोग आम तौर पर कानूनी झमेले में पड़ते नहीं हैं. लेकिन कभी भी किसी की भी टोपी उछाली जा सकती है, कभी भी दंगे भड़काने की कोशिश की जा सकती है. संगठित तौर पर जो राजनीतिक दल हैं, हम जानते हैं कि चुनाव लड़ने के लिए मोदी जी ने सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया. जाहिर है ​यह अमेरिकी कंपनी की सलाह होगी जो उन्होंने हायर की थी. बड़ी तादाद में लोगों को हायर किया गया जो बाकायदा फौज की तरह उनके लिए लड़ने का काम कर रहे हैं. और जैसा कहा जाता है कि प्यार और युद्ध में सब जायज है तो लड़ाई में दुश्मनों पर हमला, झूठी तस्वीरें बनाकर प्रचार करना, उनके बारे में झूठी जानकारियों का प्रसार करना, ये सारा शुरू हुआ है. मोदी जी के चुनाव में यह सिलसिला शुरू हुआ, उसके बाद यह एक आदत में तब्दील हो रहा है. दूसरे दल भी कर रहे हैं. अगर आप कहें कि दूसरे दल नहीं कर रहे हैं तो यह भूल होगी.

सोशल मीडिया पर लिखने को पत्रकारिता मैं नहीं मानता. यहां तथ्य चेक करने का प्रावधान नहीं है. पत्रकारों की ट्रेनिंग होती है कि वे सूचनाओं को चेक करें

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आपको जिस तरह की अफवाहें गांधी और नेहरू के बारे में मिलेंगी, तस्वीरें जिस तरह से तोड़-मरोड़कर बनाई हुई मिलती हैं, जिसमें गांधी जी आपको कैबरे करते हुए मिल जाएंगे. नेहरू जी स्वीमिंग पूल में सुंदरियों के साथ नहाते हुए मिल जाएंगे. जाहिर ​है कि ये नकली तस्वीरें हैं. इस तरह से दीनदयाल उपाध्याय के बारे में ऐसी जानकारियां, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में, गोलवलकर के बारे में आपको मिल जाएंगी. ये चीजें सोशल मीडिया के प्रसार के साथ एक बीमारी या बुराई की तरह फैल रही हैं.

एक सीमा तक तो आप कह सकते हैं कि कोई भी मान नहीं सकता कि गांधी जी कैबरे करते थे या कोई मान नहीं सकता कि नाथूराम गोडसे पुण्यपुरुष था. इस तरह की चीजों को तो आप चाहकर भी स्थापित नहीं कर सकते. ऐसी चीजों को लोग समझ जाते हैं और उन्हें नजरअंदाज करते हैं. लेकिन जैसा मुजफ्फरनगर में हुआ, दंगे भड़काने के लिए जिस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल हुआ, ऐसी चीजें चिंताजनक हैं. चरित्र हनन के लिए जो लोग इस दुनिया में नहीं हैं, उनको छोड़ें, पर जो लोग मौजूद हैं, उनके बारे में गैरजिम्मेदारी के साथ कुछ उछाल दिया जाता है. ये उम्मीद करना कि हमने तो कानून बना रखा है, वह आदमी अदालत जा सकता है, इतना ही समस्या का निराकरण नहीं है. इससे अधिक इसकी निगरानी की व्यवस्था होनी चाहिए. अब क्या निगरानी हो सकती है, तकनीकी जानकारी रखने वाले लोग इसका रास्ता निकालेंगे.

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फेसबुक पर आजकल मैं नहीं हूं क्योंकि समय बहुत जाता है. गाली वहां बहुत पड़ती रही, उसकी मैंने कभी परवाह नहीं की. आपने सबके सामने खड़े होकर एक संवाद शुरू किया है तो इस तरह का भी काम होता है. उनकी मंशा ये होती है कि वो आपको बदनाम करें, डराएं ताकि आप उनके बारे में ऐसी टिप्पणियां करना बंद कर दें जिससे उनको लगता है कि नुकसान है क्योंकि आपकी साख ज्यादा है. वह उनकी लड़ाई का एक हिस्सा है. उसे मैंने कभी सफल नहीं होने दिया. मैं कम से कम विचलित नहीं हुआ हूं. हां, एक मर्यादा के बाद गाली-गलौज पर लोगों को ब्लॉक जरूर कर दिया है. लेकिन ऐसे लोगों की तादाद बहुत अधिक है. ब्लॉक करने पर यह कहा गया कि यह व्यक्ति तो ब्लॉक कर देता है, लेकिन आपको यह अधिकार हासिल है कि किसी को अपने घर में आने दें. आप अपनी वॉल पर बात करते हैं, कोई सुने या न सुने. यह सब मुझे बुरा नहीं लगा.

अफवाह फैलाने की घटना का एक उदाहरण है. डॉ. नामवर सिंह के जन्मदिन के वक्त मैं एक कार्यक्रम में गया था. वहां दो वरिष्ठ संपादक थे विष्णु नागर और पंकज बिष्ट, दो कवि थे, बड़े कथाकार थे. उनके बीच कोई भी अफवाह फैलाना लगभग असंभव बात है. लेकिन अफवाह फैला दी गई कि मेरे साथ झगड़ा हो गया और मारपीट की गई. सबसे अजीब बात ये थी कि जिम्मेदार लोग जिनसे आप जिम्मेदारी की अपेक्षा करते हैं, टीवी या अखबारों के संपादक उन्होंने ऐसा किया. जी न्यूज के संपादक हैं सुधीर चौधरी. उन्होंने भी ट्वीट किया कि संपादक ने कोई हल्की बात की, इसलिए उनकी पिटाई हो गई. अगर ऐसा है तो बुरी बात है. ‘अगर ऐसा है’ कहकर संपादक बात कर रहा है. अरे भाई, फोन करके मुझसे पूछ लीजिए. चार लोग वहां मौजूद हैं, उनसे पूछ लीजिए कि वो क्या कहते हैं. बाद में समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट ने एक लंबा लेख लिखा कि सोशल मीडिया मूर्खों का अड्डा बन गया है जिसमें संपादक के बारे में एक चीज चल गई. जबकि वहां कई लोग मौजूद हैं, लेकिन वह बात चल गई तो कई लोग लिख रहे हैं. इस अफवाह में दूसरा नाम था दूरदर्शन के एक अधिकारी कृष्ण कल्पित. हालांकि बाद में यह मसला ठंडा इसलिए पड़ गया ​कि जो लोग वहां मौजूद थे, उन्होंने इससे इनकार किया कि वहां कुछ ऐसा हुआ. लेकिन लोगों ने इस तरह चरित्र हनन की कोशिश की. बहरहाल वह बात ज्यादा नहीं चल पाई क्योंकि झूठ ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता. अब देखिए कि एक कवि और दूसरा चैनल का संपादक, अगर वही ऐसी अफवाह फैलाता है, चरित्र हनन की कोशिश करता है तो आप मानिए कि इस तरह की अफवाहों में बड़े लोग भी शामिल हैं. आप सिर्फ यह नहीं कह सकते कि बीजेपी या कांग्रेस ने कुछ ऐसे लोग हायर कर रखे हैं जो अफवाहें फैलाने का काम करते हैं. जिम्मेदार लोग भी ऐसा कर रहे हैं. जबकि पत्रकारों की ट्रेनिंग ही यही होती है कि सूचनाओं को चेक करें. यह पत्रकार को सिखाया जाता है. इसलिए मैं सोशल मीडिया पर लिखने को पत्रकारिता नहीं मानता. सोशल मीडिया में तथ्य चेक करने का कोई प्रावधान नहीं है. दूसरी बात, जो लिखता है वही उसको प्रसारित कर देता है, जबकि पत्रकारिता में एक दूसरा व्यक्ति होता है, जिसे आप संपादक कह सकते हैं, जो उसको जांचता है. वह नैतिक रूप से, कानूनी रूप से उसका जिम्मेदार होता है. अखबार में छपा होता है कि कानूनी रूप से संपादक खबरों के चयन के लिए जिम्मेदार है. लिखने वाला जिम्मेदार नहीं है. सोशल मीडिया में तो कोई संपादक है नहीं, वह खुद ही लेखक है, खुद ही संपादक है. ऐसे में उस माध्यम के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है. लेकिन ऐसे मामलों में जब जिम्मेदार लोग उसका दुरुपयोग करते हैं, किसी पर हमला करने के लिए, दुष्प्रचार के लिए, किसी से दुश्मनी निकालने के लिए, तब मानना चाहिए कि सोशल मीडिया जो ज्ञान, सूचना, समझ और जानकारियों को साझा करने के लिए बेहतर माध्यम बन सकता है, वह माध्यम बन जाता है बुराइयों के संप्रेषण का. इसको कैसे चेक किया जाए, सरकार को इस पर सोचना चाहिए. समाज को भी सोचना चाहिए ताकि मिलकर कोई रास्ता निकले.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(बातचीत पर आधारित)  

उपभोक्ता फोरम : ग्राहकों का मरहम

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एस्कार्ट हार्ट इंस्टिट्यूट ऐंड रिसर्च सेंटर (हॉस्पिटल) देश के नामचीन अस्पतालों में शुमार है. यहां एक महिला के पैर में खून का प्रवाह रुकने पर उसके दिल का ऑपरेशन किया गया. बावजूद इसके महिला के पैर का दर्द कम होने के बजाय बढ़ता ही गया. तबीयत बिगड़ने पर उनके इलाज के लिए होम्योपैथी का सहारा लिया गया लेकिन हालत नहीं सुधरी और महिला को अपना एक पैर गंवाना पड़ा. इसी बीच वर्ष 2010 में महिला की मौत हो गई.

इस मामले में अब दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग ने डॉक्टरों द्वारा इलाज के दौरान अपनाए गए तरीके को जानलेवा लापरवाही माना है. आयोग ने एस्काॅर्ट अस्पताल पर ब्याज सहित एक करोड़ 15 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है. इलाज में लापरवाही पर दिल्ली के इस अस्पताल पर लगा यह सबसे बड़ा जुर्माना है. आयोग ने एक करोड़ 15 लाख रुपये की रकम में से 75 लाख रुपये उपभोक्ता कल्याण फंड में जमा कराने के निर्देश अस्पताल को दिए हैं. जबकि ब्याज समेत 40 लाख रुपये मृतक महिला के पति और मामले के शिकायतकर्ता केसी मल्होत्रा को देने के आदेश दिए गए हैं. इतना ही नहीं, वर्ष 2008 से अब तक इस मुकदमे पर शिकायतकर्ता द्वारा खर्च किए गए 50 हजार रुपये का भुगतान भी अस्पताल को करना होगा.

इस मामले में आयोग ने एक और बात को स्पष्ट किया. दरअसल अस्पताल प्रशासन की तरफ से कहा गया था कि पीड़ित महिला की मौत हो चुकी है. ऐसे में मुआवजे की मांग अनुचित है. हालांकि आयोग ने साफ किया कि उपभोक्ता के कानूनी वारिस अथवा प्रतिनिधि भी मुआवजा मांगने के हकदार होते हैं. इसलिए इस मामले में पीड़ित महिला के पति की मांग जायज है.

उपभोक्ताओं के हितों से संबंधित एक ऐसा ही मामला दिल्ली विकास प्राधिकरण से जुड़ा है. दरअसल 30 साल पहले हजारों लोगों ने घर का सपना देखा था. लेकिन दिल्ली विकास प्राधिकरण (स्लम एवं जेजेआर विभाग) और दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड की लापरवाही की वजह से उनका सपना अब तक पूरा नहीं हुआ है. इन लोगों ने वर्ष 1985 में निकाली गई एक आवासीय योजना के तहत अपनी मेहनत की कमाई घर की कीमत के तौर पर डीडीए को जमा करा दी थी. तीन दशक बीत जाने के बाद भी 12 हजार से ज्यादा लोगों को घर नहीं मिला है. ये सभी बोर्ड की प्रतीक्षा सूची के तहत मकान पाने का इंतजार कर रहे हैं. दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग ने डीडीए और बोर्ड के इस रवैये को उनकी सेवा में कोताही माना है. अब आयोग ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड पर करीब एक करोड़ रुपये का जुर्माना किया है.

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इस मामले में दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग के न्यायिक सदस्य एनपी कौशिक की पीठ ने कहा कि वर्ष 1985 में मकान की कीमत चुकाकर घर का सपना देख रहे हजारों लोगों में से महज 2,650 लोगों को अब तक मकान मिल पाया है. जबकि उपभोक्ता आयोग में शिकायत दाखिल करने वाले सुंदरनगरी निवासी देशराज का नाम प्रतीक्षा सूची में 12,929 नंबर पर है. आयोग के समक्ष बोर्ड के अधिकारी ने खुद यह बात कबूली है. आयोग ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि अगर घर देने की यही रफ्तार रही तो शिकायतकर्ता देशराज को 150 साल और इंतजार करना होगा.

इसी तरह के एक और मामले में उपभोक्ता आयोग ने ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण व एसबीआई पर 65 लाख रुपये जुर्माना लगाया है. दरअसल प्राधिकरण ने फ्लैट वापस करने पर तीन आवंटियों की बयाना राशि की 50 फीसदी रकम जब्त कर  ली थी. मामले में आयोग ने कहा है कि प्राधिकरण व बैंक ने बड़ी चालाकी से आवंटियों को धोखे में रखा. उन्होंने आवंटियों को सोचने-विचारने का मौका ही नहीं दिया और जबरन उनकी 50 फीसदी रकम काट ली. इसके लिए प्राधिकरण व बैंक पूरी तरह जिम्मेदार हैं.

दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग ने ग्राहकों में अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता का जिक्र करते हुए अपने एक आदेश में कहा है कि देश भर के आंकड़े बताते हैं कि महज 0.3% लोग अपने अधिकारों के लिए उपभोक्ता अदालत पहुंचते हैं

मामला यह था कि ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने 8 नवंबर, 2010 को ग्रेटर नोएडा के विभिन्न सेक्टरों में फ्लैट आवंटन योजना निकाली थी. इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक ने सौ फीसदी का ब्याज देने का विज्ञापन अखबारों में दिया. पूर्वी दिल्ली निवासी तीन आवेदकों राजीव सिंह, मनोज कुमार शर्मा और सुमन लता ने स्टेट बैंक से बयाना रकम 3 लाख 90 हजार रुपये ब्याज पर लेकर फाॅर्म भरा.  24 जनवरी, 2011 को ड्रॉ निकाला. इस ड्रॉ में ये तीनों आवेदक सफल रहे. 11 फरवरी, 2011 को प्राधिकरण ने स्टेट बैंक को इन आवेदकों का आवंटन पत्र भेज दिया. लेकिन बैंक ने इसकी जानकारी इन आवेदकों को दो महीने बाद दी. आवंटन पत्र में लिखा था कि 30 दिन के भीतर फ्लैट को लेने अथवा वापस करने का समय है. बैंक से अप्रैल 2011 में आवंटन पत्र के बारे में सूचना मिलने के बाद इन तीनों आवेदकों ने पहले दूसरे बैंकों से अलग-अलग बयाना रकम ब्याज पर उठाई और स्टेट बैंक को चुकता करके आवंटन पत्र ले लिए. इसके बाद इन आवेदकों ने प्राधिकरण को लिखित में सूचना दी कि वे यह फ्लैट नहीं लेना चाहते. प्राधिकरण ने उनकी तीन लाख 90 हजार रुपये की राशि में से उन्हें सिर्फ एक लाख 95 हजार रुपये लौटाए. ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण का तर्क था कि उन्होंने एक महीने का तय समय गुजर जाने के बाद फ्लैट वापस किए हैं. इसलिए उनकी 50 फीसदी रकम काटी गई है.

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कोचिंग पर तीन लाख जुुर्माना

मुंबई के एक कोचिंग सेंटर पर एक उपभोक्ता अदालत ने 3.64 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है. अदालत ने माना कि कोचिंग सेंटर 2013 में एक 12वीं की छात्रा को वादे के मुताबिक सेवाएं देने में नाकाम रहा. मीडिया में आई खबरों के मुताबिक, इस महीने की शुरुआत में जज एमवाई मनकर और एसआर संदीप ने अंधेरी के लोखंडवाला कॉम्प्लेक्स स्थित कोचिंग सेंटर ऑक्सफोर्ड ट्यूटर्स अकादमी को निर्देश दिया कि वे छात्रा को न केवल फीस के 54 हजार रुपये लौटाएं, बल्कि  लड़की और उसके परिवार के मानसिक उत्पीड़न के लिए 3 लाख रुपये का मुआवजा दें. इसके अलावा, अदालती प्रक्रिया में हुए खर्च के लिए भी दस हजार रुपये चुकाएं. बता दें कि ऑक्सफोर्ड ट्यूटर्स अकादमी- एसएससी, एचएससी, सीबीएसई और आईसीएसई के छात्रों को घर पर कोचिंग की सेवा देती है. रिपोर्ट के अनुसार, विज्ञान की छात्रा अभिव्यक्ति वर्मा अपनी एचएससी परीक्षाओं की तैयारियां कर रही थीं. 2013 में उन्होंने गणित और रसायन के लिए कोचिंग ली.

ऑक्सफोर्ड ट्यूटर्स अकादमी यह दावा करती है कि उसके पास अनुभवी शिक्षकों की फैकल्टी है. उसे अभिव्यक्ति के घर ट्यूटर भेजने थे, लेकिन एक महीना बीतने के बावजूद वे केमिस्ट्री का टीचर मुहैया कराने में नाकाम रहे. इसके अलावा, गणित का भी शिक्षक हिंदी माध्यम का था, जो अभिव्यक्ति को इंग्लिश मीडियम में पढ़ा नहीं पाया. अभिव्यक्ति की मां नीना एक वकील हैं. उन्होंने कोचिंग सेंटर से कई बार एक केमिस्ट्री टीचर भेजने की मांग की. कोचिंग सेंटर ने जिस टीचर को भेजा, वह आईसीएसई में आठवीं दर्जे के छात्रों को पढ़ाता था. नीना को डर था कि उनकी बेटी पढ़ाई में पिछड़ जाएगी. उन्होंने एक बार फिर कोचिंग सेंटर से बीते साल नवंबर में संपर्क किया.

  तब सेंटर ने एक आईआईटी स्टूडेंट को भेजा, जिसने क्वेश्चन पेपर बैंक सॉल्व करने में मदद की. हालांकि, वह भी अभिव्यक्ति की मदद करने में नाकाम रहा. इस दबाव में एसएससी में 83 प्रतिशत नंबर पाने वाली अभिव्यक्ति फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स में मिलाकर 60 प्रतिशत अंक लाने में नाकाम रही. दरअसल, वे हैदराबाद के एक कॉलेज में दाखिला लेना चाहती थीं, जहां मेरिट के आधार पर एडमिशन मिलता है. हालांकि बाद में मैनेजमेंट से बातचीत के बाद उन्हें कॉलेज में एक सीट मिल ही गई. अभिव्यक्ति का कहना है कि वे कोचिंग सेंटर की ओर से की गई देरी की वजह से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर सकीं. नीना ने 2015 में ऑक्सफोर्ड ट्यूटर्स अकादमी के खिलाफ कोर्ट में केस किया और खुद अपने मामले की पैरवी की. कोचिंग सेंटर ने कोर्ट के नोटिस पर जवाब नहीं दिया.[/symple_box]

ऐसा नहीं है कि आयोग सिर्फ बड़े मामलों में ही उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करता है. हम लोग हर दिन कुछ न कुछ सामान दुकानों से खरीदते रहते हैं. ऐसे में अगर हमारे पास उसका पक्का बिल है और हमारे सामान में कुछ गड़बड़ी है तो भी हम उपभोक्ता अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं. आयोग ने हाल ही में एक ऐसे मामले में जहां ‘बिग बाजार’ ने ग्राहक से सिर्फ 90 रुपये ज्यादा वसूली की थी अपना फैसला सुनाया है. पूर्वी दिल्ली में रहने वाली सरिता नारायण 13 जून, 2012 को किराने का सामान खरीदने बिग बाजार गई थीं. उन्होंने 3,512 रुपये का सामान खरीदा. घर जाकर बिल देखा तो पाया कि 500 ग्राम के बाबा रामदेव की पतंजलि कंपनी के हल्दी पाउडर पर एमआरपी (तय अधिकतम कीमत) 90 रुपये अंकित था. जबकि बिल में इसकी कीमत 160 रुपये वसूली गई थी. वहीं बृज देव एसएनडीएल साबुन पर एमआरपी 30 रुपये अंकित था और दो साबुन के एवज में 80 रुपये वसूले गए थे. महिला के बिल में कुल 90 रुपये की गड़बड़ की गई थी. महिला ने इसके खिलाफ उपभोक्ता अदालत में शिकायत की.

इस पर पूर्वी दिल्ली के सैनी एनक्लेव स्थित उपभोक्ता विवाद एवं निपटारा फोरम के अध्यक्ष एनए जैदी एवं सदस्य पूनम मल्होत्रा की पीठ ने शिकायतकर्ता सरिता नारायण के पक्ष में फैसला सुनाते हुए महिला को उनकी रकम 12 फीसदी ब्याज सहित लौटाने के आदेश दिए हैं. इतना ही नहीं, अदालत ने आयकर विभाग और कारोबार एवं कर विभाग को कंपनी के खातों की जांच करने को कहा है ताकि इस कंपनी द्वारा उपभोक्ताओं को पहुंचाए जा रहे नुकसान का विवरण मिल सके. साथ ही कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी की जा सके.

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उपभोक्ता अदालतों द्वारा सुनाए गए ऐसे फैसले ग्राहकों के हितों को लेकर एक उम्मीद जगाते हैं लेकिन बड़ी संख्या में अब भी लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए हैं. दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग ने उपभोक्ताओं में अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता का जिक्र करते हुए हाल ही में अपने एक आदेश में कहा है कि देश भर के आंकड़े बताते हैं कि महज 0.3% लोग अपने अधिकारों के लिए उपभोक्ता अदालत पहुंचते हैं.

गौरतलब है कि देश में उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए कानून को आए हुए तीन दशक से ज्यादा बीत चुके हैं. इसके लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था की गई है. देश में एक राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग है. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग का गठन किया गया है. इस आयोग में एक अध्यक्ष (जो  सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस होते हैं) और 11 सदस्य मनोनीत किए जाते हैं. आयोग में देश भर से उपभोक्ताओं द्वारा राज्य उपभोक्ता आयोग के निर्णयों पर पुनर्विचार व आदेश में संशोधन के लिए आवेदन किया जाता है.

इसके अलावा प्रत्येक राज्य में एक उपभोक्ता आयोग होता है. राज्य उपभोक्ता आयोग में एक अध्यक्ष (जो हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज होते हैं) व चार मनोनीत सदस्य होते हैं. यह आयोग संबंधित राज्य के उपभोक्ता के हक संबंधी मामलों पर सीधे सुनवाई अथवा जिला उपभोक्ता आयोग के निर्णयों पर पुनर्विचार अथवा आदेश में संशोधन के मसलों पर सुनवाई करता है.

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वहीं हर राज्य के हर जिले में एक उपभोक्ता विवाद निपटारा फोरम होता है. यह फोरम संबंधी जिले के लोगों की शिकायतों पर सुनवाई करता है. फोरम में एक अध्यक्ष व दो सदस्य होते हैं. अध्यक्ष सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश अथवा उच्च पद पर आसीन रह चुके अधिकारी हो सकते हैं. इसके अलावा अन्य सदस्य भी सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश होते हैं. उपभोक्ता फोरम में ग्राहक अपने सामान में खामी को लेकर शिकायत करता है. प्राथमिक स्तर पर पहले ग्राहक के मामले की सुनवाई उपभोक्ता फोरम में ही होती है.

उपभोक्ता अदालतें दीवानी अदालत की तरह होती हैं. किसी भी पक्षकार को समन कर तलब करना अथवा जुर्माना आदि करने का अधिकार इन अदालतों को है लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत इन अदालतों को एक विशेष प्रावधान के तहत पक्षकार के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया अपनाने का अधिकार है. जैसे कि प्रतिवादी द्वारा उपभोक्ता अदालत द्वारा दिए गए निर्णयों को नहीं मानने पर उसकी गिरफ्तारी के आदेश उपभोक्ता अदालत दे सकती है. तब तक उक्त प्रतिवादी एवं पक्षकार को जेल से रिहाई नहीं मिल सकती, जब तक वह उपभोक्ता अदालत के निर्णय का पालन नहीं कर लेता.

हालांकि ऐसा नहीं है कि देश भर में उपभोक्ता अदालतें बहुत ही बेहतर तरीके से काम कर रही हैं. प्रावधानों के मुताबिक उपभोक्ता आयोग को तीन महीने के भीतर मामले का निपटारा करना होता है पर कई बार ऐसा नहीं हो पाता है. आईटी सेक्टर में काम करने वाले दीपक चौबे ऐसी ही एक समस्या से जूझ रहे हैं. वे कहते हैं, ‘एक शोरूम से लिए गए मोबाइल में परेशानी आने के बाद उन्होंने उपभोक्ता फोरम में शिकायत की थी पर तीन महीने से ज्यादा का वक्त बीत जाने पर भी मामले का निपटारा नहीं हो पाया है. अक्सर स्टाफ की कमी की शिकायत की जाती है.’

कुछ ऐसी ही शिकायत मीडिया इंडस्ट्री में काम करने वाले प्रदीप कुमार की है. उनका कहना है कि तीन महीने में मामले का निपटारा हो जाना चाहिए था, लेकिन एक  चाइनीज मोबाइल कंपनी के खिलाफ पूर्वी दिल्ली के सैनी एनक्लेव स्थित उपभोक्ता विवाद एवं निपटारा फोरम में करीब चार महीने पहले की गई अपील पर अभी तक फैसला नहीं आ पाया है. इस मामले की पहली सुनवाई के बाद से ही स्टाफ की कमी का मामला सामने आ गया था. अभी तक चार बार मामले की  सुनवाई हो चुकी है पर कुछ भी हल नहीं निकल पाया है.

दिल्ली जैसे बड़े शहरों की बात छोड़ दी जाए तो छोटे शहरों में उपभोक्ता अदालतें बहुत ही बदतर स्थिति में हैं. इनके पास स्टाफ की समस्या के साथ-साथ संसाधनों की बेहद कमी है. इसके अलावा लोगों के कम जागरूक होने के चलते कम मामलों की सुनवाई भी होती है.

उपभोक्ता अधिकारों को लेकर काम कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता जेपी बंसल कहते हैं, ‘सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग जागरूक नहीं हैं. उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है. कई बार लोग कहते हैं कि पैसों की बात नहीं लेकिन अदालतों के चक्कर में कौन फंसे. अब जब लोग जागरूक नहीं हैं तो मामले कम संख्या में दायर होते हैं. ऐसे में सरकारें भी उदासीन हैं. उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा उसके एजेंडे में खास जगह नहीं पा रही है. अब दिल्ली के जिला उपभोक्ता फोरम में कई बार स्टाफ की समस्या रहती है. क्लर्क वगैरह बहुत कम हैं. संसाधन बहुत सीमित हैं. कई बार फोरम के अध्यक्ष का पद कई महीनों तक खाली रहता है. ऐसे में सुनवाई समय पर पूरी नहीं हो पाती है. यह दिल्ली का हाल है. बाकी बाहर तो हाल और भी बुरा है. छोटे-छोटे जिलों में तो महीनों स्टाफ ही नहीं रहता है. कुल मिलाकर मामला जागरूकता है. हम ही जागरूक नहीं है तो सरकार और ज्यादा उदासीन है.’

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दरअसल बढ़ते बाजारवाद के दौर में उपभोक्ता संस्कृति तो देखने को मिल रही है, लेकिन अब भी जागरूक उपभोक्ताओं की कमी है. आज हर व्यक्ति उपभोक्ता है, चाहे उसका व्यवसाय, आयु, लिंग, समुदाय तथा धार्मिक विचारधारा कोई भी हो. चाहे वह कोई वस्तु खरीद रहा हो या फिर किसी सेवा को प्राप्त कर रहा हो. वस्तुओं में मिलावट और निम्न गुणवत्ता की वजह से जहां उन्हें परेशानी होती है, वहीं सेवाओं में व्यवधान या पर्याप्त सेवा न मिलने से भी उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.

हालांकि भारत सरकार कहती है कि जब आप पूरी कीमत देते हैं तो आपको गुणवत्ता भी पूरी मिलनी चाहिए यह सुनिश्चित करने के लिए कानून है, लेकिन इसके बावजूद उपभोक्ताओं से पूरी कीमत वसूलने के बाद उन्हें सही वस्तुएं और वाजिब सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं. यह परेशानी की बात है.    

फांसी का समाजशास्त्र

ग्राफिक्स : प्रदीप कुमार
ग्राफिक्स : प्रदीप कुमार
ग्राफिक्स : प्रदीप कुमार

आम कहावत है कि कानून सिर्फ गरीबों के लिए होता है. दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की हालिया रिपोर्ट इस मामूली कहावत की तस्दीक करती है जिसमें कहा गया है कि मौत की सजा पाने वाले तीन चौथाई लोग वंचित, सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं. विश्वविद्यालय के ‘सेंटर ऑन डेथ पेनल्टी’ के शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि मौत की सजा पाने वाले तीन चौथाई से अधिक यानी 76 फीसदी दोषी आर्थिक, शैक्षिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े या धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मौत की सजा सुनाए गए 80 फीसदी से अधिक कैदियों को जेलों में ‘अमानवीय शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है.’ इस रिपोर्ट में उन 385 कैदियों का जिक्र है जो देश की विभिन्न जेलों में बंद हैं और जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई है. यह रिपोर्ट इन कैदियों से और उनके परिजनों से बातचीत के आधार पर तैयार की गई है. भारत सरकार के पास ऐसा कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है जिससे यह पता चल सके कि देश में कुल कितने लोग जेलों में बंद हैं जिन्हें फांसी की सजा मिल चुकी है. आजादी के बाद से कितने लोगों को फांसी की सजा हुई और माफ कर दी गई, इसका भी कोई रिकॉर्ड नहीं है.

अध्ययनकर्ताओं ने 385 ऐसे कैदियों की पहचान की जिन्हें फांसी की सजा मिल चुकी है और इनमें से 373 कैदियों और उनके परिजनों से परिजनों से बातचीत के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है. हाल ही में दो खंडों में जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि फांसी की सजा पाने वाले जितने कैदी जेलों में बंद हैं, उनमें से 80 प्रतिशत ने अपनी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं की और 18 साल की उम्र से पहले ही काम करने लगे थे. इनमें से 24.5 प्रतिशत आदिवासी और 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदाय से हैं. देश में 12 महिला कैदियों को भी मृत्युदंड की सजा सुनाई गई है और ये महिला कैदी भी सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखती हैं.

साल 2013 से 2015 के बीच किए इस अध्ययन के मुताबिक, 270 कैदियों में से 216 यानी करीब 80 फीसदी ने स्वीकार किया कि जेल में रहने के दौरान उन्हें बेहद अमानवीय किस्म की प्रताड़ना झेलनी पड़ी. इन कैदियों के साथ सिगरेट से जलाने, नाखूनों में सुई घुसाने, निर्वस्त्र रखने, गुप्तांगों में लोहे की छड़ें या कांच की बोतलें डालने, पेशाब पीने को मजबूर करने जैसे अमानवीय कृत्य किए गए. इसके अलावा पिटाई और अन्य कई निर्मम किस्म के व्यवहार उन्हें झेलने पड़े जो मानवीय गरिमा के विरुद्ध हैं.

अमीर और गरीब में एक खाई जरूर है क्योंकि अमीरों को ​बढ़िया वकील मिल जाते हैं और गरीबों को बहुत ही नौसिखिए वकील मिलते हैं. वकील नहीं मिलते, ऐसा नहीं है. लेकिन सक्षम वकील नहीं मिलते हैं. उनको नए वकील या कम सक्षम वकील मिल जाते हैं, जिनकी प्रैक्टिस उतनी अच्छी नहीं है, या कुछ अनुबंध वाले लोग चुन लिए जाते हैं

रिपोर्ट के अनुसार, फांसी की सजा पाने वाले 44 प्रतिशत दोषियों को यह भी नहीं मालूम है कि सुप्रीम कोर्ट में उनका मुकदमा लड़ने वाले वकील का नाम क्या है. कुल सजायाफ्ता कैदियों में से 54.5 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं जिनको फांसी की सजा सुनाने के लिए चली मुकदमे की कार्यवाही समझ में नहीं आई. 78.3 ने कहा कि उनसे ‘जबरदस्ती इकबालिया बयान’ लिया गया और उसी के आधार पर उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. 97 प्रतिशत का कहना है कि जब पुलिस ने उनसे पूछताछ की तो उनके साथ कोई वकील नहीं था.

इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद हमारी न्याय व्यवस्था की तमाम विसंगतियां सामने आई हैं. रिपोर्ट कहती है कि सन 2000 से 2015 के बीच निचली अदालतों ने जितनी भी फांसी की सजा दी, उनमें से पांच प्रतिशत से भी कम सजाओं को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा. मौत सजा के कुछ 1486 मामलों में से 73 ही सुप्रीम कोर्ट में टिक सके.

सर्वे के मुताबिक, 276 में 21 (7.6 प्रतिशत) कैदी ऐसे हैं जिनका पहले से कोई आपराधिक रिकॉर्ड रहा है. इनमें से 18 (5.8 प्रतिशत) कैदी ऐसे हैं जो अपराध के समय 18 वर्ष से कम उम्र के थे, जबकि 54 (17 प्रतिशत) ऐसे हैं जो अपराध के समय 18 से 21 वर्ष के बीच की उम्र के थे. हत्या एवं हत्या व बलात्कार के आरोप में 297 दोषियों को मौत की सजा मिली है जबकि आतंकवाद के आरोप में 31 को दोषी पाया गया है.

गुजरात में 79 प्रतिशत (12 प्रतिशत) फांसी की सजा पाए व्यक्ति अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, जबकि राज्य में उनकी कुल आबादी 12 प्रतिशत है. महाराष्ट्र में 50 (18 प्रतिशत) कैदियों को फांसी की सजा मिली है जो आदिवासी और दलित समुदाय से हैं. राज्य में इनकी कुल आबादी 20 प्रतिशत है. केरल में 93 प्रतिशत (14 कैदी) आर्थिक रूप से वंचित तब​के से हैं. 64 प्रतिशत कैदी प्राइवेट वकील करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचने तक यह आंकड़ा मात्र 30 प्रतिशत रह जाता है. 70 प्रतिशत दोषियों का मानना है कि निचली अदालतों में उनके वकील उनसे या परिवारवालों से केस के बारे में विस्तार से बातचीत नहीं करते. प्राइवेट वकील की सेवा लेने के चलते ज्यादातर अपनी जायदाद बेच देते हैं. हाई कोर्ट में केस के दौरान 68.4 प्रतिशत दोषियों के वकीलों ने उनसे कभी बात नहीं की. 90 प्रतिशत कैदियों ने माना कि जब वे पहली बार मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए गए तो उनके साथ कोई वकील नहीं था.

Infographics by : National Law University's Report
Infographics by : National Law University’s Report

रिपोर्ट जारी होने के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मदन बी. लोकुर ने कहा, ‘हमारी न्याय व्यवस्था में गंभीर खामिया हैं. इसमें न सिर्फ प्रक्रियात्मक, बल्कि आमूल सुधार की जरूरत है. कानूनी सहायता भारत में एक मजाक के सिवा और कुछ नहीं है. इसमें किसी का भरोसा नहीं है. अगर आरोपी अशिक्षित है तो उसके बचाव पर इसका प्रभाव पड़ता है.’

ज्यादातर गरीब और वंचित समुदाय के लोगों को फांसी क्यों होती है, इसे निठारी कांड पर निगाह डालकर समझा जा सकता है. निठारी कांड के मामले में जब सुरेंद्र कोली को फांसी हुई तो ​प्रमुख महिला संगठनों की कुछ महिलाओं ने राष्ट्रपति से अपील की कि कोली को फांसी को तब तक रोका जाए, जब तक अन्य आरोपियों की भूमिका साफ नहीं हो जाती. अपीलकर्ता महिलाओं में उमा चक्रवर्ती, कविता कृष्णन, वाणी सुब्रह्मण्यम, रेबेका जॉन, वृंदा ग्रोवर, मैरी ई. जॉन, आयशा किदवई, रोहिणी हेंसमैन, लक्ष्मी मूर्ति, अमृता नंदी आदि शामिल थीं.

इस अपील में कहा गया, ‘ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि कोली ही वास्तव में 18 औरतों व बच्चों का हत्यारा था. कोली की ‘आत्मस्वीकृति’- उसे दंडित करने का एकमात्र आधार- स्वयं ही घोषित करती है कि इसे मारपीट कर (टाॅर्चर) और पुलिस द्वारा रटा कर हासिल किया गया था. बच्चों के निठारी से असामान्य तौर पर गायब होने की परिघटना 2003 से ही जारी थी- कोली के पंढेर के घर में 2004 में घरेलू नौकर के तौर पर आने के पहले से. और वह परिघटना कोली के गिरफ्तार होने और दंडित किए जाने के बाद भी जारी है. ऑटोप्सी सर्जन, जिसने कि शवों का परिक्षण किए, ने नरभक्षण की बात को गलत बताया है और मानव अंगों के व्यापार को इन हत्याओं का कारण होने की ओर इशारा किया है. महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा नियुक्त कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में माना है कि पुलिस कोली को दोषी मान कर चली और उसने मानव अंगों के व्यापार की संभावना की जांच ही नहीं की. ऑटोप्सी सर्जन ने कमेटी के सामने कहा था कि मानव शरीरों को सर्जरी के औजारों से काटा गया है. वकीलों का कहना है कि पुलिस ने ऑटोप्सी सर्जन के साक्ष्य को ही दबा दिया. मुकदमे के दौरान उससे एक गवाह की तरह न तो कोई पूछताछ की गई न ही चार्जशीट में उसके मत को ही शामिल किया गया. एक डॉक्टर पर मानव अंगों के व्यापार का आरोप लगा था, उसकी पुलिस ने जांच ही नहीं की. कोली ने अपने कथित बयान में कहा था कि उसने अपने मालिक के ड्राॅइंग रूम में 16 व्यक्तियों की हत्या की लेकिन डीएनए के साक्ष्यों के हिसाब से 19 लोगों के शरीर के हिस्से वहां मिले. उनमें से 11 की शिनाख्त नहीं हो पाई. स्पष्ट है कि उन हत्याओं की कहानी में कई झोल हैं और कोली की आत्मस्वीकृति सारे तथ्यों के साथ मेल नहीं खाती है. इस ओर इशारा करना प्रासंगिक होगा कि कोली दलित व गरीब है और उसे बहुत ही सस्ती कानूनी मदद मिली. मीडिया और पुलिस द्वारा उसे नरभक्षी और हत्यारा बनाकर प्रस्तुत किया गया और उसे चुनौती देने के लायक ही नहीं छोड़ा. कोली का उदाहरण इस बात को रेखांकित करता है कि किस तरह से अधिकतर मामलों में आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोगों को मृत्युदंड मिलता है, क्योंकि वे जनमत को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होते.’

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अधिवक्ता मोहम्मद शोएब कहते हैं, ‘न्याय प्रणाली पर तो सवाल उठता ही है, इसके अलावा शासन व्यवस्था भी ऐसे लोगों को ही टारगेट करती है. विधायिका कानून ही ऐसे बनाती है, सारे कानून अमीरों और पूंजीपतियों की सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं. सवर्ण या अमीर लोग अपराध में शामिल होते हैं, दलितों से ज्यादा होते हैं. लेकिन हर स्तर पर- पुलिस में, शासन में उनकी पकड़ ज्यादा होती है, न्याय व्यवस्था में भी उनकी पकड़ ज्यादा होती है. वे असर डाल पाने की स्थिति में होते हैं, इसलिए उनको सजा नहीं हो पाती. ये भी है कि हर स्तर पर, चाहे शासन हो, पुलिस हो या न्याय व्यवस्था हो, सबमें वर्चस्व सवर्णों का ही रहता है. वहां पर जो दलित या पिछड़े जाते हैं, वे दबाव में काम करते हैं. जो दबाव समाज में बना हुआ है, वह वहां भी काम करता है. इसलिए वे भी न्याय सही तरीके से नहीं दे पाते. सवर्ण या अमीर लॉबी से टकराना बहुत कठिन हो, ऐसा नहीं है. यह आसान काम है, लेकिन हिम्मत चाहिए. दूसरे, दलित हमारे समाज में हर तरह से दलित है. उसे सामाजिक न्याय नहीं मिलता, आर्थिक न्याय नहीं मिलता, इसलिए उसे कानूनी न्याय भी नहीं मिलता.’

अधिवक्ता कमलेश जैन इससे ​थोड़ी अलग राय रखती हैं. वे कहती हैं, ‘यह बहुत ही जटिल मसला है. जैसा कहा जा रहा है वैसा भी नहीं होता. इन मामलों में बहुत सारे पहलू काम करते हैं. क्रिमिनल जस्टिल सिस्टम को आप गहराई से देखेंगे तो चीजें ज्यादा समझ में आएंगी. अमीर और गरीब में एक खाई जरूर है क्योंकि अमीरों को ​बढ़िया वकील मिल जाते हैं और गरीबों को बहुत ही नौसिखिए वकील मिलते हैं. वकील नहीं मिलते, ऐसा नहीं है. लेकिन सक्षम वकील नहीं मिलते हैं. उनको नए वकील या कम सक्षम वकील मिल जाते हैं, जिनकी प्रैक्टिस उतनी अच्छी नहीं है, या कुछ अनुबंध वाले लोग चुन लिए जाते हैं. दूसरी बात है कि कभी-कभी जजों में भी खामियां होती हैं. कौन से जज के ​यहां केस पहुंचता है. उसे क्रिमिनल लॉ की कितनी समझ है. तीसरी बात है कि इसके अलावा अमीर-गरीब के बीच मामला होने पर गवाह कितने टिक पाते हैं. जो दबंग लोग हैं वे धमकियां देते हैं. एक केस मैं देख रही हूं जिसमें सुनवाई के बाद कोर्ट के बाहर ही आरोपी ने धमकी दी. तो अपने देश में चीजें बहुत जटिल हैं. जाति या धर्म के आधार पर तो मैं नहीं कहूंगी, लेकिन जज के दिमाग में भी यह बात असर डालती है कि आरोपी कौन-सा काम करता है. अगर वह गार्ड है, घरेलू नौकर है, या कोई ऐसा काम करता है कि सुरक्षा ही उसकी ड्यूटी थी, लेकिन उसने उलट काम किया तो यह चीजें बुरा प्रभाव डालती हैं. धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी, वह गार्ड था. चीजें बहुत महीन ढंग से काम करती हैं.’

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दुनिया भर में फांसी की सजा में बढ़ाेतरी

दुनिया भर में फांसी की सजा में आई नाटकीय बढ़ोतरी के बीच यह भी बहस जारी है कि फांसी की सजा दी जाए या खत्म कर दी जाए. एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल दुनिया भर में मौत की सजा में खौफनाक इजाफा हुआ है. 2015 में ईरान, पाकिस्तान और सऊदी अरब में सबसे ज्यादा मौत की सजाएं दी गईं, जो वैश्विक आंकड़ों का 89 प्रतिशत है. 2014 में दुनिया भर में 1061 और 2015 में 1634 लोगों को फांसी दी गई. यह संख्या 1989 के बाद सबसे ज्यादा है. हालांकि, 2015 में ही फिजी, मेडागास्कर, रिपब्लिक ऑफ कांगो और सूरीनाम ने अपने यहां फांसी की सजा को समाप्त कर दिया है. अब तक दुनिया भर में 140 ऐसे देश हैं जहां पर फांसी की सजा या मृत्युदंड समाप्त कर दिया गया है, जबकि एशियाई देशों में फांसी की सजा में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक, चीन दुनिया भर में सबसे ज्यादा फांसी देने वाला देश है, लेकिन गोपनीयता के कारण आंकड़े सामने नहीं आते.[/symple_box]

दूसरी ओर अधिवक्ता पवन दुग्गल कहते हैं, ‘हमारा सिस्टम संविधान पर आधारित है और संविधान सभी को समानता का अधिकार देता है. लेकिन कहीं न कहीं आर्थिक स्थितियां असर डालती हैं. अगर आप निचले तबके आते हैं तो आपके जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान जैसे बुनियादी संघर्ष होते हैं. इसी के क्रम में कई बार आपराधिक घटनाएं भी होती हैं. अधिकांशत: लोगों के पास इतनी क्षमता भी नहीं होती कि वे अपने आपको कानूनी लड़ाई में बचा सकें, वे कानूनी सलाह नहीं ले पाते. निचले वर्ग में पैसे की कमी तो है ही, जागरूकता की भी कमी है. बहुत बार लोग ऐसे काम कर जाते हैं जो उन्हें लगता है कि ये तो साधारण बात है. बिना जानते हुए कि ये कानून का उल्लंघन है. हालांकि आप कानून से अनभिज्ञ हैं तो भी वह आप पर लागू होता है.’

न्यायपालिका के बारे में लोगों की धारणाएं भी कम समझ के आधार पर बन जाती हैं, इसे समझाते हुए कमलेश जैन कहती हैं, ‘अफजल गुरु के केस में इतना बड़ा जजमेंट मैंने बहुत बारीकी से पढ़ा तो पाया कि उसमें परिस्थितिजन्य साक्ष्य वगैरह बहुत पक्के थे. जबकि उसके सिर्फ एक पैराग्राफ को लेकर लोगों ने बड़ा बवाल मचाया. मेरा यह कहना है कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की जिसे अच्छे से पहचान है, वही इसे समझ सकता है. यह जरूर है कि हमारे समाज में कमजोर के प्रति, गरीबों के प्रति पूर्वाग्रह है. बाहर का पूरा समाज जैसा रहता है, पूरा न्यायिक तंत्र भी वैसे ही रहता है. तो मेरा कहना है कि गरीब या कमजोर होने का फर्क तो पड़ता है, लेकिन यह नहीं कह सकते कि पूरी तरह तंत्र खराब हो चुका है.’

फांसी की सजा के 95 प्रतिशत मामले सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिकने या उम्रकैद में तब्दील हो जाने को लेकर पवन दुग्गल कहते हैं, ‘फांसी अल्टीमेट सजा है. उच्चतम न्यायालय कहता है कि जब तक कोई मामला दुर्लभतम न हो, रेयरेस्ट आॅफ रेयर न हो, तब तक फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए. जिन मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि यहां फांसी की जगह आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है, तो वह देता है. सजा देने का उद्देश्य यह नहीं है कि आप ऐसी सजा दें कि दोषी का जीवन ही खत्म हो जाए. बल्कि ऐसी सजा दें कि उसे पश्चाताप हो और उसे सुधरने का मौका मिले. मरने के बाद यह संभावना खत्म हो जाती है. फांसी दुर्लभ से दुर्लभ मामलों में ही दी जा सकती है. दूसरी बात, सुप्रीम कोर्ट के पास जितने विशेषाधिकार हैं, वह दूसरी अदालतों के पास नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट अंतिम न्यायालय है. उसके बाद कोई न्यायालय नहीं है. सुप्रीम कोर्ट हर फैसले में इस बात का भी ध्यान रखता है. निचली अदालत कानून जैसा बोलता है, उसे ही फॉलो करती है, पर सुप्रीम कोर्ट उसकी समीक्षा भी करता है और नई व्याख्याएं भी देता है.’

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फांसी पाने वाले लोगों में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों की संख्या ज्यादा होने को लेकर समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार कहते हैं, ‘इसके सामाजिक पहलू हैं. वो ये कि बद अच्छा बदनाम बुरा, ये जो कलंकीकरण है समाज का, इसके चलते दलित-पिछड़े समुदाय के छोटे-मोटे अपराध को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. इसको सही ठहराने के लिए बहुत बार कहा जाता है कि अरे ये तो ऐसा है, ऐसा ही रहेगा. इस तरह एक समुदाय के कलंकीकरण को इस तरह सही भी ठहराया जाता है. दूसरी बात उनके पास अपने को बचाने का मैकेनिज्म नहीं है. आप सोचिए कि निठारी कांड में पंढेर कैसे बच जाता है जो कोली के माध्यम ये काम कर रहा था? कोली को सजा हुई लेकिन पंढेर बाहर हो गया. आपको मालूम है कि भंवरी देवी के केस में क्या हुआ था? जजों ने निर्णय दिया कि ऊपरी जाति के लोग अपने बच्चों के सामने रेप जैसा अपराध कर ही नहीं कर सकते.’

आर्थिक अपराध का उदाहरण देते हुए विवेक कुमार कहते हैं, ‘जो एनपीए यानी नॉन परफार्मिंग एेसेट्स एक लाख चौदह हजार करोड़ रुपये का है. इनमें से कौन दलित है? फिर आप कैसे कहते हैं कि दलित ही चोर होते हैं? भारतीय समाज में जजों की क्या ट्रेनिंग है? भारतीय समाज के अनुरूप कौन सा कोर्स है जिसको पढ़ाकर उनको संवेदनशील बनाया जाता हो? जब तक आप यह नहीं करेंगे तब तक कानून की सीरत और सूरत दोनों नहीं सुधरेगी. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह थ्योरी बहुत पुरानी है कि सफेदपोश अपराध को कभी अपराध नहीं माना जाता. ब्लू कॉलर वर्कर का अपराध हमेशा अपराध होता है.’

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने 1951 में स्पष्ट किया था कि मजिस्ट्रेट को अभियुक्त से ‘उचित’ पूछताछ के बाद ही उसके बयान को सबूत के तौर पर दर्ज करना चाहिए. तारा सिंह बनाम राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के धारा 313 का मूल मकसद ‘अभियुक्त को अपने ऊपर लगाए गए आरोपों की सफाई देने के लिए निष्पक्ष और उचित मौका उपलब्ध कराना है.’ हालांकि, कई मजिस्ट्रेट अभियुक्तों के इस बुनियादी अधिकार की अनेदखी करते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 1983 में अपने एक फैसले में कहा था कि सिर्फ दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ रेयर) मामलों में ही फांसी की सजा दी जा सकती है. क्रूरतम हत्या, हत्या के साथ डकैती, बच्चे को खुदकुशी के लिए उकसाने, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध भड़काने और सशस्त्र बल के किसी सदस्य द्वारा विद्रोह करने की स्थिति में भारत में फांसी दी जा सकती है. 1989 में इस नियम को बदला गया और इसमें नशीली दवाइयों का कारोबार करने वालों के लिए भी फांसी की सजा तय कर दी गई. कुछ समय पहले आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने वाले व्यक्तियों को भी फांसी की सजा देने का फैसला किया गया.

‘ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि कोली ही 18 औरतों व बच्चों का हत्यारा था. कोली की आत्मस्वीकृति- उसे दंडित करने का एकमात्र आधार- स्वयं ही घोषित करती है कि इसे टाॅर्चर और पुलिस द्वारा रटा कर हासिल किया गया था. बच्चों के निठारी से गायब होने की घटना 2003 से ही जारी थी- कोली के पंढेर के घर में 2004 में घरेलू नौकर के तौर पर आने के पहले से’

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो 2004 से 2013 के बीच भारत में 1,303 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन इस अवधि में सिर्फ तीन लोगों को ही फांसी दी गई. 14 अगस्त, 2004 को धनंजय चटर्जी, 21 नवंबर, 2012 को अजमल कसाब और 9 फरवरी, 2013 को अफजल गुरु को. इसके उलट इस दौरान 3751 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया. इसके बाद एकमात्र फांसी मुंबई सीरियल ब्लास्ट मामले में 30 जुलाई, 2015 को याकूब मेमन को दी गई. धनंजय चटर्जी से पहले 1995 में सीरियल किलर शंकर को सेलम में फांसी दी गई थी. इन दस सालों में सबसे ज्यादा 318 फांसी की सजा उत्तर प्रदेश में दी गई. महाराष्ट्र 108, कर्नाटक 107, बिहार 105 और मध्य प्रदेश में 104 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई. 57 प्रतिशत फांसी के मामले इन्हीं पांच राज्यों से थे. एमनेस्टी इंटरनेशल के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2007 में 100, 2006 में 40, 2005 में 77, 2002 में 23 और 2001 में 33 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन किसी भी दोषी को फांसी पर लटकाया नहीं गया. देश आजाद होने के बाद भारत में पहली फांसी नाथूराम गोडसे को दी गई थी. तबसे अब तक सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में कुल 57 लोगों को फांसी दी जा चुकी है. सबसे अंतिम फांसी याकूब मेमन को दी गई. भारत में फांसी की सजा पाने वाला याकूब 57वां अपराधी था.

फांसी की सजा को खत्म करने के लिए भारत में समय-समय पर आवाज उठती रही है. कई न्यायाधीश से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता इस बात के पक्षधर हैं कि फांसी की सजा को खत्म कर दिया जाना चाहिए ​क्योंकि इसके अब तक कोई सबूत नहीं हैं कि फांसी देने से अपराध में कमी आती है या अपराधियों की मानसिकता पर कोई फर्क पड़ता है. इसके उलट फांसी मानवीय गरिमा के खिलाफ है जो व्यक्ति से सुधरने या उसके जीवन के अधिकार को छीन लेती है.

पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर लिखते हैं, ‘फांसी की सजा वह उद्देश्य पूरा नहीं करती, जिसके लिए इस सजा का प्रावधान किया गया है. वैसे भी, सभ्य समाज में सजा की संकल्पना अपराधियों को सुधारने के लिए की गई है, उन्हें मौत की नींद सुलाने के लिए नहीं. अगर हम उनकी जान लेने लगे, तो एक राष्ट्र के तौर पर हममें और आतंकवादी में भला क्या अंतर रह जाएगा? मृत्युदंड का प्रावधान भारतीय दंड संहिता में साल 1861 में किया गया था. 1931 में बिहार विधानमंडल में एक विधायक ने इसकी समाप्ति को लेकर विधेयक पेश करने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो सके. अलबत्ता मृत्युदंड के पक्ष में आवाज दिनोंदिन मजबूत ही होती गई. आजादी के बाद जब केंद्र सरकार ने राज्यों से इस मामले में अपनी राय जाहिर करने को कहा, तब उनमें से ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस सजा का पक्ष लिया. इन्हीं सब कारणों से विधि आयोग ने 1967 में अपनी 35वीं रिपोर्ट में मौत की सजा को बरकरार रखा और माना कि यह अपराध को हतोत्साहित करने में कारगर होगा. मगर सच तो यह है कि ऐसे कोई ठोस आंकड़े नहीं हैं, जो यह साबित करते हों कि फांसी की सजा से वाकई अपराध के खिलाफ माहौल बनता है. अगर कोई व्यक्ति समाज के लिए खतरा है, तो उसे निश्चय ही सजा मिलनी चाहिए. मगर फांसी देने से बेहतर है कि उसे पूरी उम्र जेल में रखा जाए. आजीवन कारावास की सजा तो मौत से कहीं ज्यादा कष्टदायक होती है.’

लोग पत्रकारों को गाली दे रहे हैं, अगर समाज इसे मान्यता देता है तो मैं उसे माला पहनाना चाहता हूं: रवीश

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मेरा तो मानना है कि ये संगठित तरीका है और ये हर स्तर पर हो रहा है. देश में पार्टी के कार्यकर्ता कहीं भी हो सकते हैं, वहां से ये शुरू हो जाते हैं. तरह-तरह के वाट्स ऐप ग्रुप बने हुए हैं. वहां से इन बातों को फैलाया जाता है. मेरे ही बारे में इतनी सारी बातें घर तक पहुंचती हैं तो वे हैरान हो जाते हैं कि ये सब करता कब है. एक ग्रुप ने ये फैला दिया कि मेरे घर पर एक मीटिंग हुई है और मैंने विरोध की एक योजना बनाई है. तो घरवाले हैरान रह जाते हैं कि ये तो अपने घर में किसी को घुसने नहीं देता तो दूसरे को कैसे बुलाता है. हमारे रिश्तेदार तो इसी बात से दुखी रहते हैं कि ये किसी को घर में नहीं आने देता. मामला यहां तक पहुंच गया है कि गांव-देहात तक इन चीजों को फैला दिया गया है. जिन लोगों को अफवाहों पर विश्वास करना है, ये उनकी अपनी जिम्मेदारी है. वे अफवाहों पर खूब विश्वास करें. लेकिन ये एक रणनीति के तहत है कि आपको बदनाम कर दिया जाए. आपको गाली देकर आपका मनोबल तोड़ दिया जाए. पूरी एक टोली बनी हुई है और ये ‘​रीयल लोग’ हैं. ‘अनरीयल लोग’ नहीं हैं. ‘रीयल लोग’ में कोई भी हो सकता है. या तो आईटी सेल के लोग हो सकते हैं, या तो सपोर्टर हो सकते हैं. जो एक्टिव सपोर्टर हैं वो तो एक तरह से राजनीतिक व्यक्ति ही हो जाते हैं. पूरी कोशिश चल रही है कि जो विरोध है या जो भी लगता है कि वह सवाल कर सकता है तो उसको चुप करा दो.

मीडिया तो अब मीडिया रहा नहीं. टीवी मीडिया सोशल मीडिया का काउंटर हो गया है. वो बॉक्स आॅफिस काउंटर है. वहां से कुछ आ रहा है तो ये होता है कि फीड आ रही है, यही करो. वह जैसी भीड़ देखता है, वैसा ही करने लगता है. मीडिया तो जो कर रहा है, आप देख ही रहे हैं. कितने लोगों ने मुझे गाली दी कि नीतीश कुमार आपको राज्यसभा में भेज देंगे. मैं चाहता हूं कि और लोग राज्यसभा में जाएं ताकि मुझे गाली कम पड़े. मैं मनाता हूं कि एक नहीं, बीस पत्रकार राज्यसभा में भेज दिए जाएं ताकि जितने गाली देने वाले लोग हैं वो कन्फ्यूज हो जाएं कि अब किसको गाली देनी है. मैंने बाकायदा लेख भी लिखा है और जान-बूझकर लिखा है कि कुछ दिन के लिए गाली देने वालों का ध्यान तारीफ करने में चला जाए. जिनको राज्यसभा सीट मिल गई है आप उनकी तारीफ कीजिए. जिनको नहीं मिली, उनको कब तक गाली देंगे आप.

तो पूरी फौज खड़ी कर दी गई है जो एक खास तरह के लोग हैं और जो एक खास तरह के लोगों पर बोलते हैं. अब इसमें जनता को तय करना है कि उसे खराब मीडिया चाहिए तो उसे मुबारक हो. अगर जनता को चाटुकार मीडिया चाहिए, ये उसकी जिम्मेदारी है. हमारा कोई लोड नहीं है. पत्रकार जो बहुत दिनों से लोड लेकर घूम रहे हैं, उसे भी ये लोड नहीं लेना चाहिए. उससे पूछना चाहिए कि भाई जो तुम अखबार खरीदते हो, जो केबल खरीदते हो, अगर आपको लगता है कि इसमें सब जानकारी मिल रही है, एक ही तरह की जानकारी आपको हमेशा चाहिए तो मुबारक हो. फिर ये मत करो कि ताली कहीं और बजाओ और समस्या में फंस जाओ तो मुझे फोन करो कि ये वाली स्टोरी आपने उठाई नहीं तो कौन करेगा. समाज से भी पूछा जाना चाहिए.

अब जब कोई अफवाह फैलती है तो जब तक आप उसका खंडन करेंगे, तब तक वाट्स ऐप ग्रुप से लेकर फेसबुक तक इतना फैल चुका होता है, फिर वो कोई पढ़ता थोड़े ही है? जो खंडन वाला होता है उसको तो दो-चार स्टेकहोल्डर लोग, हमीं लोग पढ़ते हैं कि अरे ये खबर गलत है, चला दिया लोगों ने तो चला दिया. नहीं भी चलाया तो कोई बात नहीं.

क्या सचमुच ऐसा युग आ गया है कि आलोचना लायक कुछ बचा ही नहीं? अगर आलोचना नहीं हो तो वह सबसे नकारात्मक है. ये जो दुकानदारी चल रही है- निगेटिविटी पॉजिटिविटी की, ये वही है कि जो हम बता रहे वही सच है

All Images : naisadak.org
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ये अब रोज हो रहा है. इसका कारण है कि रिपोर्टिंग हो नहीं रही है. रिपोर्टर हैं नहीं. सोशल मीडिया रिपोर्टर का रिप्लेसमेंट हो गया है. रिपोर्टर होता है तो अपनी खबर लाता है. कम से कम भले ही उसकी खबर गलत हो, तो भी एक आदमी जिम्मेदारी लेता है कि हमने चलाई है. सोशल मीडिया में आप किसको पकड़ेंगे? बाकी लोगों ने सोशल मीडिया के कमेंट को, जानकारियों को मान लिया है कि यही हमारे नए रिपोर्टर हैं. उसका क्या किया जा सकता है. सबको पता है गलतियां हो रही हैं. तरह-तरह झूठ के फैलाए जा रहे हैं. जिससे फायदा होता है, उस पर आप नहीं बोलते. नुकसान होता है तो आप केस करने चले जाते हैं. राजनीतिक दलों को देखिए, दूसरों के खिलाफ कितना प्रपंच फैला रहे हैं. अपने खिलाफ कोई कुछ बोल देता है ​तो केस कर देते हैं. 

अब आप बताइए कि गालियां देने वाले इतने लोग कहां से आ गए. क्या भारत में गालियों का प्रचलन बढ़ गया है अचानक? इतना विकास हो रहा है, इतनी अच्छी चीजें हो रही हैं, जैसा लोग बता रहे हैं तो गालियां क्यों बढ़ रही हैं? क्या बहुत अच्छी चीजें होंगी तो गालियां बढ़ जाएंगी? फिर तो वो अच्छी चीजें नहीं होनी चाहिए. हम तो डर गए हैं. इतनी सारी अच्छी चीजें हो रही हैं, लोग दावा कर रहे हैं तो गालियां क्यों बढ़ रही हैं? क्या मां-बाप बच्चों को सिखा रहे हैं कि आओ तुम गाली दो? मुझे भी दो, दूसरों को भी दो. क्या ऐसा बदल गया है हमारा समाज? मुझे मालूम नहीं कि समाज बदला है कि नहीं. ये संगठित रूप से है. आम तौर पर लोग ऐसी भाषा में बात नहीं करते. आपसे संतुष्ट नहीं होते, बहुत-सा काम पसंद नहीं आता. लेकिन कभी वो गलत भाषा में बात नहीं करता. तो निश्चित रूप से गाली देने वाला समर्थक होता है और सक्रिय समर्थक होता है जो अपने आपको आम आदमी बनाकर कुछ भी कर जाता है. जो रीयल आम आदमी है वो कभी भी ऐसी अभद्र भाषा में बात नहीं करता. वो किसके दम पर करेगा? वो किसी को जानता नहीं, वो मारपीट करेगा तो पता नहीं क्या होगा. ये नए तरह के बाहुबली हैं जो सोशल बाहुबली कहलाए जा रहे हैं.

मालदा में घटना हो गई. मैं छुट्टी पर था. मैंने न टीवी देखा था न अखबार देखा था. पता चला कि सोशल मीडिया पर फोटो लगाकर चलता है कि रवीश कुमार हंड्रेड परसेंट रंडी की औलाद है. इसका मतलब ये संगठित हैं न! क्या ये कहीं लिखा है कि भारत की सभी दिशाओं को मैं ही कवर करूंगा? तब तो मैं रोज एक हजार पेज का अखबार बनकर छपने लगंू! क्या संभव है ये? पूछते हैं कि आप वहां गए थे, यहां क्यों नहीं गए. अरे भाई, हम तो पहले से ही बहुत जगह नहीं जा रहे थे. जहां जा सकते हैं, वहीं जाते हैं. क्या एक पत्रकार सब जगह जा सकता है? हम हनुमान जी हैं कोई कि उड़कर हर जगह पहुंच जाएंगे? तो जब हमने देखा कि सब इस तरह गाली दे रहे हैं तो हमने लिखा कि मैं हंड्रेड परसेंट भारत माता की औलाद हूं. 

जो नौजवान किसी पार्टी के लिए ऐसा कर रहे हैं, कम से कम उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है. वे चाहे किसी दल के समर्थक हों. वो अपने दल के भीतर बदमाश के रूप में ही पहचाने जाएंगे. अगर वे इस छवि के साथ किसी राजनीतिक दल में अपना जीवन लगाना चाहते हैं तो मेरी शुभकामनाएं! लेकिन क्या जब वे पचास साल के हो जाएंगे तब भी गाली देने के काम में लगे रहेंगे? अभी नौजवान हैं तो गाली दे रहे हैं, पर क्या वे जीवन भर गाली ही देंगे? बच्चे पूछेंगे क्या करते हो तो कहेंगे कि मैं गाली देता हूं. दो-चार पत्रकार हैं उनको गाली देता रहता हूं! हम फलां पार्टी की ओर से उनको मां-बहन की गालियां देते रहते हैं. अगर यही लक्ष्य है तो अच्छी बात है, गालियां ही दीजिए.

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अब इसका क्या करें कि कभी छुट्टी पर हैं, घर पर हैं, अस्पताल में हैं. गाली देने लगते हैं लोग कि आप वहां नहीं गए. रवीश कुमार ने फलां स्टोरी नहीं की. बहुत जगह नहीं की. बहुत जगह संसाधन ही नहीं. बहुत जगह नहीं कर पाए. केरल आज तक नहीं जा पाए. हिमाचल नहीं गए. तो क्या हम, हम नहीं रहेंगे? क्या हम पूरा विश्व घूम आएंगे, स्टोरी कर लाएंगे तब हम पत्रकार कहलाएंगे? वह भी निष्पक्ष? और कहने वाले कौन लोग हैं? सबसे ज्यादा तटस्थ वही लोग हैं क्या? वे तो पार्टी के लिए ऐसा कर रहे हैं. ये जितने लोग पत्रकारों को गाली दे रहे हैं, उनको देखिए तो वे तटस्थ लोग थोड़े ही हैं! वे गुंडे लोग हैं. उनकी टाइमलाइन देखिए तो वे खास तरह की ही बात करते हैं और उसी के लिए गाली देते रहते हैं. अगर हमारा समाज ऐसी प्रवृत्ति को मान्यता देता है तो मैं इस समाज को माला पहनाना चाहता हूं. बस यही बताऊंगा कि किसी दिन यही भीड़ उसके खिलाफ भी आएगी. कई दफा आई भी है. आज उनको मजा आ रहा है कि इसको गाली पड़ रही है.

मैं देखना चाहता हूं कि जीडीपी की ग्रोथ इतनी बढ़ गई है तो गालियों की ग्रोथ इतनी कैसे बढ़ गई? सुबह से लेकर शाम तक खूब गाली दी जा रही है. मुझे लगता है ये भी ‘स्किल इंडिया’ का प्रोजेक्ट हो सकता है. वे गाली दे सकते हैं. बहुत सारे राजनीतिक दल के लोग समर्थकों से गाली दिलवा रहे हैं पैसा देकर. तो इसे एक स्किल का रूप दे दिया जाए.

मुझे पता नहीं है कि मीडिया का कोई सांस्थानिक स्वरूप है कि नहीं. मैं ऐसा नहीं मानता कि मीडिया का कोई सांस्थानिक स्वरूप होता है. बस चल रहा है तरल पदार्थ की तरह तो ठीक है. कोई सांस्थानिक स्वरूप नहीं मिलता. दो-चार लोगों का स्वरूप होता है वही अपने आप में संस्थान हो जाते हैं. मीडिया का कोई सांस्थानिक स्वरूप नहीं होता. हमने तो नहीं देखा.

विश्वसनीयता एक ऐसी चीज है कि जिस पर कभी असर नहीं पड़ता. इस पर असर पड़ने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. इतने अविश्वसनीय लोग हैं और जनता का समर्थन लेकर राज करते हैं, विश्वसनीयता ले लेते हैं. ये बड़ी सापेक्षिक चीज है. एक जगह गंवाकर आप दूसरी जगह हासिल कर सकते हैं. इसको भी आपको थोड़ा रिलेटिवली देखना पड़ेगा कि क्या है विश्व​सनीयता. क्या किसी के चले जाने से लोग टीवी देखना बंद कर देते हैं? अखबार पढ़ना बंद कर देते हैं? लोग जानते हैं कि फलां अखबार में किसी एक की आलोचना कभी नहीं छपती, फिर वे वह अखबार कैसे पढ़ लेते हैं? क्या सचमुच कोई ऐसा युग आ गया है कि आलोचना लायक कुछ बचा ही नहीं है? अगर किसी चीज की आलोचना नहीं हो, तो वह तो सबसे नकारात्मक है. आलोचना ही तो सबसे सकारात्मक चीज है. ये जो दुकानदारी चल रही है- निगेटिविटी और पॉजिटिविटी की, ये वही है कि जो हम बता रहे हैं उससे अलग मत सोचो. अस्पताल खुल जाएं, लोगों की सैलरी बढ़ जाए, पेंशन मिल जाए, सब कुछ हो जाए क्या उसके बाद कोई निगेटिव नहीं लिखेगा? तब भी बहुत-से लोग लिखेंगे. तब भी बहुत-सी चीजें होनी रह जाएंगी. नहीं तो अमेरिका और फ्रांस में सब बंद हो जाना चाहिए कि हमने सब पा लिया है. हम फिलहाल तो उन्हीं के जैसे हो रहे हैं और वे खुद ही स्ट्रगल कर रहे हैं.

इन सब बातों से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर इस समाज में आप जरा-सा खुद को ईमानदार घोषित करके जोर से बोलेंगे तो सौ लोग आ जाएंगे आपको बेईमान साबित करने के लिए. ये देखिए आप वहां गए थे. ये देखिए आपने रेड लाइट क्रॉस की, आप कहां ईमानदार हैं. इसमें लोग बहुत दिलचस्पी लेते हैं. और इसी ईमानदारी के नाम पर बहुत सारे ठग लूट रहे हैं जो अपने को ईमानदार बोलते हैं. उन पर कोई सवाल भी नहीं करता. इस समाज की नैतिकता को मैं खूब अच्छे से समझता हूं. यहां विश्वसनीयता जैसा कुछ नहीं है. मैंने देखा हुआ है कि आप कुछ भी करके आइए और आप भाषण दीजिए, लोग आपको पसंद कर लेते हैं. चाहे राजनीति में, चाहे सिनेमा में, चाहे पत्रकारिता में. इसलिए इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए.

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लेकिन 2013 के बाद इतनी गालियां दी जाने लगीं, ये समझ में नहीं आया कि क्या है ये? ये गाली देने वाले लोग कुछ भी करें, इनको कोई कुछ नहीं बोलता. फोटोशॉप वालों को कोई कुछ नहीं बोलता.

ये थोड़ी बहुत मात्रा में कर सब रहे हैं. लेकिन जो सत्ता पक्ष से जुड़ा पक्ष होता है, वह खतरनाक हो जाता है. यह हर कहीं खतरनाक हो जाता है. हमें मालूम नहीं दक्षिण भारत में या उड़ीसा में इसका क्या स्वरूप है. हम दिल्ली और आसपास देख रहे हैं. इंटरनेट कोई ग्लोबल चीज थोड़ी है. घटनाएं पता चलती हैं लेकिन क्या सारी घटनाएं पता चल जाती हैं? नहीं पता चलतीं. इंटरनेट के बहुत सारे लोकल फिनॉमेना हैं. हमें मालूम नहीं कि बंगाल-बिहार में इसका क्या स्वरूप है. जो हम देख रहे हैं, उसमें देख रहे हैं कि खास तरह का राजनीतिक दल जो सत्ता पक्ष में होता है, उसका बड़ा पावर होता है, और ये लोग उसी की तरफ से अफवाह फैलाते हैं और गाली देते हैं. कई बार मिनिस्टर लोग शामिल हो जाते हैं. दुखद है पर कोई बात नहीं. मीडिया के बिना अगर समाज रह सकता है तो अच्छा ही है.

लोकतंत्र में नागरिक होना आईआईटी के इम्तिहान की तैयारी से कमतर बात नहीं है. ये आपकी नागरिकता का फर्ज है कि आपको जानने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी. बिल्डर के जो सताए लोग हैं, हमारे सहयोगी अभिज्ञान ने उस पर पचासों शो किए हैं. इसका मतलब तब वे लोग कुछ और देख रहे थे. जब अभिज्ञान उनके लिए काम कर रहा था क्या वे लोग कुछ और देख रहे थे. अब हंगामा मचा. अब पूछिए कि क्या वे सताए हुए लोग जागरूक लोग हैं? बिल्कुल नहीं हैं. आज वे लड़ रहे हैं, पर आज तक वे कहां थे? तो अगर लोग नशे में हैं तो रहें. वरना उनको भी मेहनत करनी पड़ेगी, आपको भी और हमको भी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(बातचीत पर आधारित)

अगर आप मेरे विचार से सहमत नहीं हैं तो बहस कीजिए, गाली क्यों देते हैं : सागरिका घोष

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आप लगातार देख सकते हैं कि जो भी महिला जनता के बीच आ रही है, सवाल उठा रही है, जिसकी जनता के बीच कोई पहचान है, उसको निशाना बनाया जाता है. उसके खिलाफ अश्लील भाषा का इस्तेमाल करते हुए बेहद घटिया तरीके से उस पर हमले किए जाते हैं. मुझे तो लगता है कि आजकल के दिग्गज नेता हैं, उनकी ओर से भी ऐसे लोगों को बढ़ावा मिलता है. अभी हमने देखा कि बीजेपी के माननीय अध्यक्ष अमित शाह ने सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को ‘सोशल मीडिया के योद्धा’ कहा है. इनका भी समारोह हुआ है, इनको भी संबोधित किया गया है. ऐसे में उनको लगता है कि उन्हें सरकार का समर्थन हासिल है.

ऐसे बहुत-से अकाउंट हैं जो खूब गाली-गलौज करते हैं और उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जी भी फॉलो करते हैं. इससे शायद गाली देने वालों को सरकार की ओर से मनोवैज्ञानिक तौर पर बढ़ावा मिलता है. मुझे लगता है कि महिलाओं को लेकर समाज में एक तरह की घृणा है, जो बढ़ रही है. जहां भी महिलाएं आगे आ रही हैं, उन्हें लेकर एक तरह की आक्रामक प्रतिक्रिया हो रही है. इसके पीछे महिलाओं के प्रति घृणा दिखती है कि कैसे ये लोग आगे आ रही हैं. अजीब तरह का विरोधाभास है कि एक तरफ हम किरण बेदी, सानिया नेहवाल, सानिया मिर्जा और दूसरी तमाम महिलाओं की सफलता को सेलिब्रेट करते हैं, दूसरी तरफ तमाम महिलाओं के साथ गाली-गलौज और अभद्रता की जाती है. हमारा समाज पाखंडी समाज है जिसका महिलाओं को लेकर दोहरा रवैया है. एक तरफ हम बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ नारा लगा रहे हैं, महिला सशक्तीकरण की बात करते हैं और दूसरी तरफ जो महिलाएं आगे आ रही हैं, उन पर इस तरह का अत्याचार हो रहा है. मैं इसे अभद्रता नहीं मानती, यह हमला है. अगर महिलाओं के प्रति रंडी, रखैल, वेश्या आदि शब्द इस्तेमाल करेंगे तो यह हमला ही है. आप लगातार किसी के चरित्र हनन की कोशिश करते हैं. मेरे ख्याल से समाज में महिलाओं के खिलाफ आक्रामकता बढ़ रही है.

मुझे लगता है ये यौन-कुंठित लोग हैं जो पहचान छिपाकर ट्विटर पर बैठकर कुछ भी कह सकते हैं. ये एक तरह की यौन-कुंठा है. रवीश, राजदीप या दूसरे पुरुष पत्रकारों के साथ जो होता है, उनके साथ बहस भी होती है. लेकिन मेरे, बरखा दत्त औैर राना अयूब के साथ जो होता है, वो ज्यादातर गैंगरेप की श्रेणी में चला जाता है. रेप कर देंगे, गैंगरेप कर देंगे, स्लट, वेश्या, रंडी… ये जो यौन उत्पीड़न है ये महिला पत्रकार के साथ ही होता है. अगर आप मेरे विचार से सहमत नहीं हैं तो बहस कीजिए, गाली क्यों देते हैं? अच्छा रवीश और राजदीप के साथ भी बहस होगी, गालियां दी जाएंगी तो उनकी मां को, बहन को गालियां दी जाएंगी. मुझे और मेरी बेटी को गैंगरेप की धमकी दी गई. मैंने एफआईआर भी दर्ज कराई.

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यह इतना भयानक है कि देखिए कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी, भाजपा नेता अंगूरलता डेका, अरुण शौरी के बेटे जो शारीरिक रूप से अक्षम हैं, सबके साथ यही सब हुआ. विराट कोहली जितने मैच खेलता है उतनी बार अनुष्का की फोटो लगाकर घटिया कमेंट और जोक्स शेयर किए जाते हैं. हम वहां इसलिए हैं कि तर्क हो और उसका काउंटर हो. अगर मेरी पत्रकारिता में कमी है तो आप जरूर कहिए. आप कमेंट कीजिए, लेख लिखिए. पहले ऐसा ही होता था. लेकिन इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कभी नहीं होता था. मुझे लगता है यह सब प्रायोजित है. वरना इतनी संख्या में लोग बोले जा रहे हैं रंडी-रंडी-रंडी, राहुल गांधी की रखैल, अरविंद केजरीवाल की वेश्या, स्लट… ये सब एक ही समय में एक साथ कैसे कहा जा रहा है? मैं बहुत निराश हूं कि निर्भया के बाद इतना कुछ हुआ, हमने समाज बदलने की कोशिश की. कानून बनाए. लेकिन हमारा समाज कहां जा रहा है? सोशल मीडिया को देखें तो लगता है हम तो पीछे जा रहे हैं.

मैं बहुत बार प्रतिक्रिया देती हूं लेकिन नहीं जानती कि क्या करना चाहिए. इतनी बड़ी संख्या में लोग गाली-गलौज करेंगे तो उनको कौन रोकेगा? केस दर्ज कराइए तो कार्रवाई भी नहीं होती. अब यही उम्मीद कर सकते हैं कि अच्छी सोच चलन में आएगी और यह सब रुकेगा. या फिर पार्टी की तरफ से इस पर काबू किया जाए. अगर पार्टी की तरफ से इन्हें रोका जाए तो शायद यह रुक सकता है. हम यह नहीं कह सकते कि तर्क मत करो, हम भी तर्क ही कर रहे होते हैं, लेकिन गाली तो मत दो. धमकी तो मत दो कि मार देंगे, गैंगरेप कर देंगे.

अब अंगूरलता का मसला लीजिए, वो तो भाजपा की ही हैं. उनका अपराध क्या था? वह एक युवा महिला हैं, उन्होंने कुछ बोला नहीं, कुछ किया भी नहीं, मैं समझ नहीं पाई कि उसने किया क्या है! बस उसके पीछे लग गए और लगे हैं. ये सब कुंठित मर्द हैं. हमारे देश में लिंगानुपात कम होता जा रहा है, लड़कियों का प्रतिशत कम होता जा रहा है. ऐसे ही रहा तो धीरे-धीरे शादी करने के लिए लड़कियां नहीं मिलेंगी. इससे मर्दों की कुंठा बढ़ेगी. अभी भी यौन-कुंठित मर्दों की संख्या बहुत बड़ी है. हमारे यहां आॅनलाइन पॉर्न के सर्वाधिक उपभोक्ता हैं. मुझे तो यही लगता है कि मर्दों की यह गाली-गलौज यौनकुंठा का नतीजा है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(बातचीत पर आधारित)

सोशल मीडिया : यौन उत्पीड़न का नया अड्डा

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सोशल मीडिया पर अक्सर किसी महिला पत्रकार या नेता को विरोधस्वरूप हजारों की संख्या में गालियां दी जाती हैं. बरखा दत्त, सागरिका घोष, राना अयूब, कविता कृष्णन, अलका लांबा, स्मृति ईरानी, अंगूरलता डेका, यशोदा बेन आदि महिलाएं इस अभद्रता की भुक्तभोगी हैं. जो लोग किसी की बात-विचार या व्यक्तित्व को नापसंद करते हैं तो वे लोग इसका विरोध गंदी गालियों या चरित्र-हनन के रूप में करते हैं. हाल ही में बरखा दत्त के नाम के साथ गाली जोड़कर ट्विटर पर हैशटैग ट्रेंड कराया गया और यह पहली बार नहीं था.

केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह के बयान से चर्चा में आया ‘प्रेस्टीट्यूट’ शब्द का किसी भी महिला पत्रकार के लिए इस्तेमाल आम है. सागरिका घोष और उनकी बेटी का बलात्कार करने की धमकी दी गई. हाल ही में फेसबुक पर कविता कृष्णन ने कथित ‘फ्री सेक्स’ के बारे में विचार रखे तो उनके खिलाफ एक वरिष्ठ पत्रकार ने अभद्र टिप्पणी की. असम में नवनिर्वाचित भाजपा विधायक अंगूरलता डेका की फोटो शेयर करके अपमानजनक टिप्पणियां की गईं. अदाकारा अंगूरलता की इंटरनेट पर मौजूद उनकी एक्टिंग या मॉडलिंग से जुड़ी तस्वीरों को उनके चरित्र से जोड़कर पेश किया गया. राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली दमदार अभिनेत्री कंगना रनाैत भी सोशल मीडिया पर होने वाली अभद्रता का शिकार हुईं. ऋतिक रोशन के साथ विवाद, पासपोर्ट पर उम्र विवाद जैसी वजहों को लेकर कंगना पर विवाद छिड़ हुआ था. कुछ उनके पक्ष में लिख रहे थे, कुछ विपक्ष में. राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद कंगना के खिलाफ ट्विटर पर कैरेक्टरलेस कंगना, फेक फेमिनिज्म जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे. 17 से 19 मई तक फेक फेमिनिस्ट कंगना हैशटैग ट्रेंड करता रहा. इसके बाद 19 मई को एक बार फिर क्वीन ऑफ लाइफ हैशटैग ट्रेंड हुआ. 

इस बारे में कविता कृष्णन कहती हैं, ‘आॅनलाइन तो यह हो ही रहा है, लेकिन ऐसे भी नेता हैं जो मीडिया के जरिए सीधे तौर पर यही व्यवहार करते हैं. उदाहरण के तौर पर, फ्री सेक्स के नाम पर जेएनयू, जादवपुर विश्वविद्यालय और मेरे जैसे कार्यकर्ताओं को हजारों हजार गालियां पड़ती हैं. वही बात सुब्रमण्यम स्वामी टेलीविजन चैनल पर मुझसे कर लेते हैं. एंकर कुछ नहीं बोलते. बंगाल भाजपा नेता दिलीप घोष ने जादवपुर की लड़कियों को कहा कि आपके साथ तो कोई यौन उत्पीड़न करेगा ही क्योंकि आप बेहया हैं. वह यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा. मैंने कहा कि यह फ्री सेक्स कोई चीज नहीं होती. या तो सेक्स है या तो बलात्कार है. फ्री है तो मर्जी से ही है. फ्रीडम से क्यों डर रहे हैं. लेकिन यह कहने के बाद भाजपा समर्थक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे कहा, आप आइए इंडिया गेट पर, आप फ्री सेक्स की पैरोकार हैं, आपके साथ फ्री सेक्स किया जाए. इश्यू तो यौन उत्पीड़न है, लेकिन इश्यू बना दिया गया फ्री सेक्स को, जिसके लिए गाली दी जा रही है. मैंने जिस इंडिया गेट पर महिलाओं के आंदोलन का नेतृत्व किया, जब मेरे साथ ऐसा कर रहे हैं तो आम महिलाओं के साथ क्या करते होंगे?’

Monika-Bhardwaj

किसी भी मसले पर महिलाओं के चरित्र हनन की कोशिश समाज में आम है. लेकिन कविता कृष्णन कहती हैं, ‘समाज तो जैसा है वैसा है ही, लेकिन चिंता की बात ये है कि जो राजनीतिक गोलबंदी के तहत हो रहा है उसे आप समाज के कंधे पर नहीं धकेल सकते. अगर ये प्लान के तहत हो रहा है तो उसका आयोजक कौन है? ऐसा करने वालों का आत्मविश्वास यहां से आ रहा है कि प्रियंका चतुर्वेदी को बलात्कार की धमकी मिलती है तो भाजपा की मंत्री (स्मृति ईरानी) कह देती हैं कि तुम लोग तो अभी-अभी असम में हारे हो. तुम क्या शिकायत करोगी? सत्ता में जो लोग बैठे हैं, वो गोलबंदी के तहत ऐसा करा रहे हैं तो यह गंभीर मामला है. केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि इसके साथ जीना होगा.’

हाल ही में केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने गृह मंत्रालय को एक पत्र लिखकर ऑनलाइन अभद्रता की शिकार होने वाली महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए कदम उठाने की बात कही है. मेनका गांधी ने कहा, ‘महिलाओं को कई बार इंटरनेट पर क्रूरता का सामना करना पड़ता है. पहले इंटरनेट प्रदाता हमसे इस बाबत बात करने को तैयार नहीं थे लेकिन बाद में उन्होंने संबंधित विस्तृत जानकारी देने की बात मान ली.’ गांधी ने गृह मंत्रालय से कहा है कि सोशल मीडिया पर महिलाओं के साथ होने वाले बर्ताव को लेकर संहिता बनाई जाए.

हालांकि, पत्रकार प्रणव राय को दिए एक इंटरव्यू में केंद्रीय वित्त और सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने कहा, ‘आॅनलाइन गाली देने वालों का पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है. ऐसा लोग निजी स्तर पर करते हैं. मैं नहीं समझता इस पर किसी तरह की सेंसरशिप संभव है. मेरे ख्याल से हमें इसके साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए. हमें उनको नजरअंदाज करना सीखना है, हमें उनको बर्दाश्त करना सीखना है, हमारी रणनीति हमें निर्धारित करनी है.’ 

कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी को ट्विटर पर एक व्यक्ति ने कहा, ‘आपके साथ बलात्कार करके निर्भया की तरह क्रूरता से आपकी हत्या करनी चाहिए. आप राहुल गांधी की लिव इन पार्टनर क्यों नहीं बन जातीं…’ इस पर प्रियंका चतुर्वेदी ने केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को टैग करके कहा, ‘उनके पास तो जेड सिक्योरिटी है, लेकिन मैं बलात्कार और हत्या की धमकियां झेल रही हूं.’ इस पर स्मृति ईरानी और प्रियंका चतुर्वेदी में ट्विटर वॉर भी हुआ.

प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, ‘यह ट्रेंड बढ़ता जा रहा है. लग रहा था कि 2014 के चुनाव के बाद कम होगा. जो पार्टी सत्ता में आने की कोशिश कर रही थी, सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर ज्यादातर लोग इनके समर्थक थे. लग रहा था कि शायद सरकार बनने के बाद यह खत्म होगा, लेकिन यह बढ़ता ही जा रहा है. सारा संवाद जो ट्विटर पर होता है, वही अब चैनल पर होने लगा है. इससे सोशल मीडिया के ट्रॉल्स को और प्रोत्साहन मिलता है. वे देखते हैं कि किसी तरह की अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. केंद्रीय मंत्री आकर कह देते हैं कि हमें उनके साथ ही रहना है. इससे उनको और प्रोत्साहन मिलता है. यह ट्रेंड खत्म होते नहीं देख रही हूं. अगर सभी दल मिलकर राजनीति से ऊपर उठकर इसका निदान ढूंढ़ पाते हैं, अगर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री यह कहते कि हमें देखना है कि क्यों इस तरह से भाषा का स्तर गिर रहा है, क्यों बहसें नहीं हो पा रही हैं, हम इस पर ध्यान देंगे. लेकिन उन्होंने इसे नकार दिया. तो मैं तो इसे उनके लिए प्रोत्साहन ही समझूंगी जो ऐसी हरकतें करते हैं.’

Ravish-Kumar

प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, ‘हम तो 2014 से बोल रहे हैं कि भाषा का स्तर गिरता जा रहा है. महिलाओं पर अभद्र टिप्पणियां की जाती हैं. उनके साथ गाली-गलौज की जाती है. चरित्र हनन होता है. इस पर नियंत्रण जरूरी है. अब अगर सरकार निर्लज्ज-सी हो गई है, उनको लगता है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. हम इस मुद्दे को आगे भी उठाते रहेंगे. ऐसे प्लेटफाॅर्म पर भारत के संदर्भ में अलग से गाइडलाइन होनी चाहिए.’

सोशल मीडिया पर काफी अभद्रता और गाली-गलौज का सामना कर चुकीं आम आदमी पार्टी की नेता अलका लांबा कहती हैं, ‘यह ट्रेंड बहुत पुराना नहीं है. यह पिछले दो सालों से हो रहा है. इस बारे में मैंने साइबर क्राइम ब्रांच में करीब 40 एफआईआर करवाई हैं. मैंने स्क्रीन शॉट, फोटो सब दिए. इसे करीब दो साल होने जा रहा है, लेकिन साइबर क्राइम इस बारे में कार्रवाई करने में नाकाम रहा है. साइबर क्राइम ने हाथ खड़े कर दिए कि हम कुछ नहीं कर सकते. दो साल में चार्जशीट भी फाइल नहीं हुई. इससे लोगों के हौसले बढ़े हैं. कैसे ऐसे लोगों की पहचान की जो प्रधानमंत्री मोदी के लंच में शामिल हैं, उनसे हाथ मिलाते हुए फोटो है, वही लोग सोशल मीडिया पर गाली-गलौज कर रहे थे. उनकी पहचान होने के बाद भी भाजपा द्वारा उनके खिलाफ कार्रवाई न करना यह साबित करता है कि उन्हें खुली छूट दे दी गई है. हमारे फर्जी अकाउंट बनाकर भी ट्वीट किए गए. हमें बदनाम करने की कोशिश की गई. हमारे खिलाफ फैलाया गया कि मैं रैकेट चलाती हूं. ऐसे लोग हजारों की संख्या में हैं. सवाल उठता है कि अगर कोई व्यक्ति जिसकी पहचान हो जाती है, तब भी उस पर कार्रवाई क्यों नहीं होती.’

इंटरनेट पर इस तरह के तत्व मौजूद हैं और हर महिला ऐसे बुरे अनुभव झेल चुकी है. पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान कहती हैं, ‘औरतों को टारगेट करना बहुत आसान होता है. मेरे लिए किसी ने इसी तरह कमेंट किया तो मेरे पिता ने मुझे ही टोका कि तुम क्यों लिखती हो. आप किसी पुरुष के चरित्र पर बात करते हो तो फर्क नहीं पड़ता, लेकिन औरत के चरित्र पर उंगली उठा दो तो वह चुप हो जाएगी, डर जाएगी. रवीश कुमार के साथ भी गाली-गलौज होती है तो उनकी मां या बहन को गाली दी जाती है, उनकी पत्नी के लिए अपशब्द इस्तेमाल किया जाता है. महिला पत्रकारों को गालियां मिलती हैं, उनकी पत्रकारिता पर सवाल नहीं होते, उनके चरित्र पर सवाल होते हैं. इसने दो शादी की, उसने तीन शादी की, वह शराब पीती है. जबकि राजनीति पर लिखने वाली लड़कियां बहुत कम हैं. क्योंकि राजनीति पर बात करना बहुत कठिन है. हमारी परवरिश ऐसी है, कंडीशनिंग ऐसी है कि हम पर इस तरह हमले होते हैं तो हम बस चुप हो जाते हैं. दूसरी बात, नेता चैनल पर बैठकर भी अभद्रता कर जाते हैं तो कुछ नहीं होता. ऐसे में छिपी हुई पहचान और फेक आईडी पर कार्रवाई होनी तो और भी मुश्किल है. सब लोग इसके खिलाफ बोलेंगे तो शायद इस पर रोक लगे.’

Kavita

पत्रकार आशिमा का मानना है, ‘यह कोई अनोखी बात नहीं है. महान राजनेता बयान देते हैं कि हम हेमा मालिनी के गाल जैसी सड़क बनवाना चाहते हैं. हमारे समाज की संरचना में ये चीजें मौजूद हैं कि यह महिलाओं के प्रति अपमानजनक रवैया अपनाता है. हमें एक काउंटर समाज तैयार करना चाहिए. इसके खिलाफ भी लोग बोल रहे हैं. ऐसे लोग बढ़ेंगे तो यह व्यवहार कम होगा.’

साहित्यकार सुजाता तेवतिया कहती हैं, ‘आभासी दुनिया इसी दुनिया का हिस्सा है. स्त्री के लिए जितना विरोध और घृणा बाहर है उतनी ही यहां भी. फ्री सेक्स का ही मामला नहीं है औरत के लिए फ्री स्पीच और फ्री थिंकिंग को भी बर्दाश्त नहीं करता मर्दवादी समाज. स्त्री-देह पर प्रीमियम अपने आप साबित होता है जब आप सेक्स शब्द बोलते हुए भी स्त्री को बर्दाश्त नहीं कर सकते. भीड़ का हिस्सा होते ही कोई एक पत्थर उस औरत की तरफ मारने को उतावला है जो निडर, बेखौफ होकर अपनी बात सामने रख सकती है. विवेकशील और तार्किक होना स्त्री की बनावट के साथ नहीं जाता.’

सुजाता कहती हैं, ‘टेक्नीकली, यह हतोत्सहित करने का मामला है. स्पेस पर पहला दावा पुरुषवादी सत्ता अपना मानती है, आभासी स्पेस में भी स्त्री को औकात में रखने की कोशिशें होती हैं. भाषा पुराना हथियार रही है स्त्री के खिलाफ. वही स्त्री की भी ताकत है अब. भीड़ का हिस्सा होकर जितना आसान लगता है एक पत्थर औरत की तरफ फेंक देना वैसा है नहीं… सोशल मीडिया के पास अपनी तरह से निपटने के तरीके हैं. समाज आभासी ही सही… सिर्फ साक्षर नहीं पढ़ा-लिखा, यहां मौजूद है इसलिए ‘नेम एेंड शेम’ के जरिए, स्क्रीन शॉट्स लगाकर, स्त्री-विरोधी भाषाई व्यवहार के लिए पब्लिकली शर्मिंदा करना ज्यादा कारगर तरीके साबित होते हैं.’

स्त्रियां इन तरीकों से भले ही यौन हमलों से निपट लें, या बर्दाश्त कर लें, लेकिन फिलहाल सरकार या कोई राजनीतिक पार्टी इस असामाजिक प्रवृत्ति पर रोक लगाने की पहल करती नहीं दिख रही है. इंटरनेट पर सूचनाएं रोकी नहीं जा सकतीं, लेकिन क्या सामाजिक और भाषाई रूप से अभद्र, आक्रामक और महिला विरोधी होते जा रहे समाज पर भी नियंत्रण नामुमकिन है?

मुर्गे पे भरोसा है तो ये दांव लगा ले…

छत्तीसगढ़ के सुदूर गांवों में मुर्गा लड़ाई के प्रति रहवासियों में खासा उत्साह देखा जा सकता है. तकनीक और मनोरंजन के किसी अन्य साधन से दूर दंतेवाड़ा के इन आदिवासी इलाकों में मुर्गों की लड़ाई की परंपरा रही है. इन मुर्गों को लड़ने के लिहाज से ही तैयार किया जाता है. हफ्ते में किसी एक दिन आसपास के किसी भी गांव या कस्बे में इन मुर्गों को लड़ाया जाता है. यहां के लोगों में इस खेल को लेकर कितना जुनून है यह यहां उमड़े हुजूम को देखकर पता चलता है. यह नजारा दंतेवाड़ा के पास मौजूद गिदम गांव का है.
साप्ताहिक बाजार करने आए इन दर्शकों में अपने पसंदीदा मुर्गे की जीत पर शर्तें लगती हैं. सैकड़ों की भीड़ इकट्ठा होने की वजह से मनोरंजन के अलावा यह खेल ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए भी फायदेमंद होता है. नक्सल प्रभावित इस क्षेत्र में इस खेल को लेकर इतना जुनून है कि कभी-कभी नक्सली और पुलिसवाले दोनों यह खेल देखने पहुंचते हैं और मुर्गों की ये लड़ाई पुलिस-नक्सली मुठभेड़ में तब्दील हो जाती है. वैसे मुर्गों की इस लड़ाई के खेल का नियम सीधा है, या तो खेल में जीत मिलेगी या मौत.

सभी फोटो :  विजय पांडेय

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मुर्गा मालिक इन मुर्गों की विशेष देखभाल करते हैं
मुर्गा मालिक इन मुर्गों की विशेष देखभाल करते हैं

 

दांव उसी मुर्गे पर सबसे ज्यादा लगता है जो दमदार होता है
दांव उसी मुर्गे पर सबसे ज्यादा लगता है जो दमदार होता है

 

मुर्गा लड़ाई के दौरान दर्शकों के लिए महुआ से बनी शराब का भी इंतजाम रहता हैै
मुर्गा लड़ाई के दौरान दर्शकों के लिए महुआ से बनी शराब का भी इंतजाम रहता हैै

 

मालिक अपने-अपने मुर्गों को मैदान में उतारते हैं और लड़ाई शुरू होती है
मालिक अपने-अपने मुर्गों को मैदान में उतारते हैं और लड़ाई शुरू होती है

 

हर हाथ में नोट इस खेल के प्रति जुनून को दिखाता है
हर हाथ में नोट इस खेल के प्रति जुनून को दिखाता है

 

इन मुर्गों के पैर में एक ब्लेड लगा रहता है जो प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने में उनकी मदद करता है
इन मुर्गों के पैर में एक ब्लेड लगा रहता है जो प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने में उनकी मदद करता है

 

लड़ाई के बाद हारे मुर्गे को विजयी मुर्गे का मालिक ले जाता है और उसे पकाकर खाया जाता है
लड़ाई के बाद हारे मुर्गे को विजयी मुर्गे का मालिक ले जाता है और उसे पकाकर खाया जाता है