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तीन तलाक विवाद : नाइंसाफी नाकुबूल

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Photo : Tehelka Archives

पिछले साल अक्टूबर में उत्तराखंड के देहरादून की 35 साल की एक शायरा बानो की दुनिया उजड़ गई. उनके पति इलाहाबाद में रहते हैं. वे उत्तराखंड में अपने माता-पिता के घर इलाज के लिए गई थीं, तब उन्हें पति का तलाकनामा मिला, जिसमें लिखा था कि वे उनसे तलाक ले रहे हैं. अपने पति से मिलने की उनकी कोशिश नाकाम रही थी. तहलका से बातचीत में उन्होंने बताया, ‘तलाक भेजने के बाद रिज़वान ने अपना फोन बंद कर रखा था. मेरे पास उनसे संपर्क करने का कोई रास्ता नहीं था. मैं अपने बच्चों को लेकर चिंतित हूं. उनकी जिंदगी बर्बाद हो गई है. कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया.’

शायरा बानो को उनके शौहर ने एक पत्र के जरिए सूचित किया कि उसने उन्हें तलाक दे दिया है. यह पत्र 10 अक्टूबर, 2015 को लिखा गया था. उन्हें उनके पति ने फोन पर बताया कि कुछ जरूरी कागज भेज रहा हूं. मगर जब शायरा ने इन कागजात को खोलकर देखा तो यह तलाकनामा था. इस दो पन्ने के पत्र में कई बातों के अलावा यह साफ-साफ लिखा था, ‘शरीयत की रोशनी में यह कहते हुए कि मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, इस तरह तिहरा तलाक देते हुए मैं मुकिर आपको अपनी जैजियत से खारिज करता हूं. आज से आप और मेरे दरमियान बीवी और शौहर का रिश्ता खत्म. आज के बाद आप मेरे लिए हराम और मैं आपके लिए नामहरम हो चुका हूं.’

इन सबसे निराश शायरा बानो ने फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. इसमें उन्होंने तीन बार तलाक बोलकर तलाक देने की प्रक्रिया पर पूरी तरह से रोक लगाने की मांग की. उनका कहना है, ‘जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं? मौजूदा हलाला की व्यवस्था औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ है, बहुविवाह के जरिए यह बताया जाता है कि मर्द के लिए औरत कितनी मामूली-सी चीज है.’ सुप्रीम कोर्ट में 23 फरवरी, 2016 को दायर याचिका में शायरा ने गुहार लगाई है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी)  के तहत दिए जाने वाले तलाक-ए-बिद्दत यानी तिहरे तलाक, हलाला और बहुविवाह को गैर-कानूनी और असंवैधानिक घोषित किया जाए. गौरतलब है कि शरीयत कानून में तिहरे तलाक को मान्यता दी गई है. इसमें एक ही बार में शौहर अपनी पत्नी को तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक दे देता है. 

कुछ ऐसा ही किस्सा 28 साल की रहमान आफरीन के साथ हुआ. आफरीन उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं. बचपन में ही आफरीन के अब्बू का इंतकाल हो चुका था. उनके बड़े भाई की भी मौत हो चुकी है. पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने वाली आफरीन ने एमबीए करने के बाद एक वैवाहिक वेबसाइट के जरिए इंदौर के एडवोकेट से निकाह किया था. शादी के एक साल बाद ही उनकी अम्मी का भी इंतकाल हो गया. इसके बाद काशीपुर में उनका घर छूट गया. घर में किसी के न होने की वजह से जयपुर स्थित मामा का घर ही उनका मायका बन गया. मां की मौत के बाद जयपुर अपने मायके आईं आफरीन के पैरों तले जमीन तब खिसक गई जब उन्हें शौहर का भेजा हुआ स्पीड पोस्ट मिला. उसमें लिखा था कि मैं तुम्हें तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहता हूं क्योंकि तुम मेरे घरवालों से ज्यादा खुद के घरवालों का ख्याल रखती हो और मुझे शौहर होने का सुख नहीं देती. अब आफरीन ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर तलाक देने के पति के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई है.

आफरीन का आरोप है कि शादी के बाद से ही उनको दहेज के लिए ताने दिए जाते थे जो बाद में मारपीट में बदल गया. आफरीन की शादी 24 अगस्त 2014 को इंदौर के सैयद असार अली वारसी से हुई थी. 17 जनवरी, 2016 को शौहर ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर भेज दिया. शायरा बानो के बाद आफरीन देश की दूसरी मुस्लिम महिला हैं जो इस तरह तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकार, महिला आयोग समेत सभी पक्षों को इस मामले में नोटिस भेजकर जवाब मांगा है.

‘जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं? मौजूदा हलाला की व्यवस्था औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ है’

उत्तराखंड की शायरा बानो और जयपुर की आफरीन का यह किस्सा केवल उनका नहीं बल्कि न जाने कितनी और उन मुस्लिम औरतों का दर्द बयां करता है जो तिहरे तलाक या हलाला का सामना कर चुकी हैं. तमिलनाडु के त्रिची की रहने वाली मरियम को उनके शौहर ने वॉट्सऐप के जरिए तलाक दे दिया. शरीयत में मर्द को दिए जुबानी तिहरे तलाक को आधार बनाकर इसे मंजूरी भी मिल गई. मरियम को न तो मेहर की रकम मिली और न ही किसी तरह का हर्जाना मिला. जबकि उनके निकाह में मेहर की रकम सिर्फ एक हजार रुपये थी. उनकी उम्र 29 साल है.

ऐसा ही कुछ तमिलनाडु के डिंडीगुल की एक मुस्लिम औरत फौजिया (बदला हुआ नाम) के साथ हुआ जिन्हें काजी के जरिए तलाकनामा भेज दिया गया. मेहर की करीब 550 रुपये की मामूली रकम भी उन्हें नहीं दी गई. किसी अन्य हर्जाने का तो जिक्र भी नहीं हुआ. मध्य प्रदेश के भोपाल जिले की 20 साल की शाइस्ता को भी जुबानी तलाक दे दिया गया. उन्हें भी मेहर की रकम और मेंटीनेंस नहीं मिला. गौर करने वाली बात यह है कि उनके पति खुद काजी थे. महाराष्ट्र की आर. अंसारी को भी एक दिन अचानक तलाक-तलाक-तलाक कहकर मेहर की 786 रुपये की मामूली रकम देकर उनके पति ने छोड़ दिया. तीन तलाक के दुरुपयोग के ये कुछ नमूने भर हैं. सूची और कहानी बहुत लंबी है. 

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व्यथा कथा : 1

‘जुबानी और एकतरफा तलाक जाहिलियत है जिस पर मौलाना-मौलवी भी मुहर लगाते हैं’

शारिब, रामपुर, उत्तर प्रदेश 

­­मैं दिल्ली में सरकारी नौकरी करता हूं. हम एक पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं. छोटा भाई भी इंजीनियर है और बहन फातिमा भी एमए, बीएड है और एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी. 2013 में फातिमा के लिए गांव के ही एक परिवार से रिश्ता आया. याकूब नाम का ये लड़का नोएडा में काम करता था. उसके पिता भी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. हमें परिवार पढ़ा-लिखा लगा तो हमने भी रिश्ता पक्का कर दिया. हम सभी शिक्षित थे तो दहेज या लेन-देन की कोई बात नहीं हुई. पर मंगनी चढ़ाने पर जोर देने से उनका लालच दिखने लग गया. उन्होंने दबे स्वर में कुछ मांग भी की पर हमने उस पर गौर करना जरूरी नहीं समझा. हम दहेज के पक्षधर नहीं हैं पर फिर भी हमने अपने सामर्थ्य के अनुसार घर का सारा सामान फातिमा को शादी में दिया. पर बाद में पता चला कि वो दहेज में कार चाहते थे. हम सब ठीक-ठाक ही कमाते हैं, पर शादी में 8-10 लाख रुपये का खर्च हुआ था, जिसके बाद हम कार नहीं अफोर्ड कर सकते थे. बहरहाल, फातिमा ससुराल पहुंची. याकूब नोएडा में ही रहता था और सिर्फ वीकेंड पर घर आया करता था. उसकी गैरमौजूदगी में फातिमा को उसकी सास और ननद परेशान किया करती थीं. दहेज के लिए बातें सुनाई जाती थीं. याकूब को उसके खिलाफ भड़काती थीं जिसके बाद वो फातिमा से झगड़ा करता था. हमने फातिमा को समझाया कि अभी रिश्ता नया है, कुछ समय दो. पर ऐसा चलता रहा. बहस से बात गाली-गलौज तक पहुंची और फिर शारीरिक हिंसा शुरू हुई. याकूब फातिमा से मारपीट करता था. इस बीच फातिमा को बेटा भी हो गया. वो कई बार गुस्सा होकर मायके आ जाती और फिर खुद ही चली जाती. याकूब कभी उसकी नाराजगी देखकर भी उसे मनाकर ले जाने नहीं आया. इस बीच अच्छी बात बस यही थी कि फातिमा ने नौकरी नहीं छोड़ी और अपने और बच्चे का खर्च खुद उठाती रही. पर फिर याकूब ने उसके स्कूल में जाकर भी उसे परेशान किया. इज्जत की परवाह के चलते फातिमा को नौकरी छोड़नी पड़ी. इनसे परेशान होकर हम सब घरवालों और बिरादरी के लोगों ने साथ बैठकर ये हल निकाला कि याकूब फातिमा को अपने साथ नोएडा ले जाए, हो सकता है कि साथ रहने से वो एक-दूसरे को समझने लगें.

इस बीच फातिमा कई बार इन लोगों की गाली-गलौज और बदतमीजी को अपने फोन में रिकॉर्ड कर लिया करती थी तो उन लोगों ने फातिमा का फोन भी छीन लिया. सामने वे दिखा रहे थे कि फातिमा को याकूब के साथ नोएडा रहने भेजेंगे पर पीछे से उन्होंने झूठे आरोप लगाकर फातिमा के खिलाफ महिला थाने में शिकायत दर्ज करवा दी कि ये घर अपने नाम करवाने के लिए षड्यंत्र कर रही है. पर थाने में भी लोग समझते हैं कि कौन किसे प्रताड़ित करता है तो उन्होंने याकूब के घरवालों को ही धमकाया और एसपी ऑफिस में समाधान केंद्र पर जाने को कहा. वहां समाधान दिवस पर एक सीओ लेवल अफसर बैठता है, जो दोनों पक्षों में सुलह करवाता है. ये सितंबर 2015 की बात है जब ये लोग वहां गए. पर वहां अधिकारी ने लड़के वालों को ही समझाया, जिस बौखलाहट में याकूब का परिवार बीच से ही वहां से चला आया और आकर घर पर ताला लगा दिया. उनके पड़ोसियों से हमें पता चला कि याकूब फातिमा के घर आने का इंतजार कर रहा है और मोहल्ले वालों के सामने उसे जलील करके तलाक देने की सोच रहा है. ये जानकर हमने फातिमा को वहां नहीं भेजा और उसे घर ले आए. कुछ दिनों बाद फातिमा के नाम से एक चिट्ठी घर पहुंची, ये याकूब की तरफ से थी. हम समझ गए कि उसने तलाक भेजा है पर हमने ये डाक रिसीव नहीं की. इस बीच हमने याकूब पर दहेज प्रताड़ना के लिए धारा 498 के तहत नोएडा में शिकायत भी दर्ज करवा दी, जिसमें उसे हिरासत में लिया गया. बाद में वो जमानत पर बाहर आ गया. फातिमा तब से अपने बेटे के साथ मायके में ही रह रही हैं. हमने इस एकतरफा तलाक को नहीं माना है. हमने इस मामले को कड़कड़डूमा कोर्ट में दायर किया है. वहीं मैंने सुप्रीम कोर्ट में जुबानी और एकतरफा तलाक, बहुविवाह जैसी कुप्रथाओं को खत्म करने के लिए याचिका दायर की. इस तरह औरतों की बेइज्जती पर रोक लगनी चाहिए. ऐसा बताया जाता है जैसे मर्द कुदरत का कोई बेजोड़ नमूना है और औरत कोई दोयम दर्जे की चीज. मर्द उससे खिलौने की तरह खेलकर नहीं छोड़ सकता. औरतों के साथ ऐसा व्यवहार बंद होना चाहिए. ये जाहिलियत है जिस पर मौलाना-मौलवी भी मुहर लगाते हैं.

(सभी नाम परिवर्तित)[/symple_box]

भारत में लगभग 18 करोड़ मुसलमान रहते हैं. उनकी शादी और तलाक के मामले मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक तय होते हैं, जो जाहिर तौर पर शरिया कानून पर आधारित होते हैं. शायरा बानो ने अपनी याचिका में केवल तिहरे तलाक नहीं बल्कि हलाला और बहुविवाह जैसी व्यवस्था को भी चुनौती दी है. शरीयत कानून में हलाला एक तरह से तीन तलाक देने के बाद शौहर के लिए हराम हो चुकी उसी बीवी को दोबारा हासिल करने का तरीका है. यानी तीन तलाक देने के बाद अगर फिर शौहर का मन करे कि वह अपनी बीवी को वापस अपने साथ रखे तो पहले उस औरत का निकाह किसी दूसरे मर्द से करवाया जाता है. एक रात गुजारने के बाद औरत का दूसरा शौहर उसे तलाक दे देता है और फिर वह औरत अपने पहले शौहर के साथ निकाह कर लेती है. इस पूरी प्रक्रिया को हलाला कहते हैं.

इसके अलावा शरीयत कानून मुस्लिम पुरुष को चार निकाह की इजाजत देता है. हालांकि इसमें पति को अपनी पहली पत्नी से दूसरे निकाह की अनुमति लेनी होती है. शायरा बानो ने भारतीय संविधान में नागरिकों को दिए गए मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक से कोई भेदभाव न किया जाए) और अनुच्छेद 21 (जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार) और अनुच्छेद 25 को आधार बनाते हुए कहा है कि भारतीय नागरिक होने के नाते मुस्लिम महिलाओं को भी ये अधिकार मिले हैं लेकिन उनके इन अधिकारों का हनन लगातार हो रहा है. लोकतांत्रिक देश में रहते हुए भी मुस्लिम महिलाएं दुर्व्यवहार और लैंगिक गैरबराबरी का सामना कर रही हैं.

ओडिशा की नगमा को उनके पति ने नशे में तलाक दे दिया. सुबह होश आया कि उसने गलती कर दी है. मगर धार्मिक गुरुओं ने उन्हें साथ रहने की इजाजत नहीं दी

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में शायरा के वकील बालाजी श्रीनिवासन का कहना है, ‘इस याचिका में शरीयत के दकियानूसी कानूनों को चुनौती दी गई है. इसलिए हंगामा हो रहा है. हमने याचिका में कुछ ठोस कानूनी मामलों का जिक्र किया है जिससे यह साबित होता है कि तिहरा तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह किस तरह से मुस्लिम औरतों को गुलाम बनाए रखने के तरीके हैं. साथ ही इस तरह के मामलों में आए कुछ मिसाल बने फैसलों का भी जिक्र किया है जो शायरा के केस में मददगार साबित हो सकते हैं. कुछ ऐसे विशेषज्ञों की टिप्पणियों और चर्चित सर्वे को भी दर्ज किया है जो इस ओर इशारा करते हैं कि इस तरह की प्रथाएं मुस्लिम औरतों पर एक तरह से हिंसा करने का एक जरिया बनी हुई हैं.’

गौरतलब है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बहुविवाह को एक कुरीति माना गया है. हालांकि यहां यह सिर्फ मुसलमानों के लिए कानूनन जायज है. दुर्भाग्य से इक्कीसवीं सदी में भी ऐसी प्रथा को कानूनी मान्यता मिली हुई है जिससे मुस्लिम महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, शारीरिक और भावनात्मक खतरा होता है. इमाम और मौलवी अपने पद का दुरुपयोग करके तलाक-ए-बिद्दत, हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं को न सिर्फ समर्थन देते हैं बल्कि फैलाते भी हैं.

ऐसे मामले में अगर हम बाकी समुदायों की चर्चा करें तो सरला मुद्गल बनाम केंद्र सरकार मामले में यह बात प्रकाश में आई कि ईसाइयों में दो विवाह को क्रििश्चयन मैरिज ऐक्ट 1872 के तहत दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था, पारसियों में पारसी मैरिज ऐंड डिवोर्स ऐक्ट 1936 के तहत और हिंदू, बौद्ध, सिख व जैन धर्म में हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 के तहत इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया लेकिन मुस्लिमों में इस कुप्रथा को खत्म नहीं किया गया. इसके चलते भारत में दूसरे धर्म की महिलाओं के मूलाधिकार तो सुरक्षित किए गए मगर भारतीय मुस्लिम औरतें इस कुप्रथा को आज तक झेलने को मजबूर हैं.

इसके अलावा भारत सरकार की एक उच्चस्तरीय कमेटी ने वर्ष 2015 में इस मामले पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट का शीर्षक ‘वूमेन ऐंड द लॉ- एन असेसमेंट ऑफ फैमिलीज लॉ विद फोकस ऑन लॉ रिलेटिंग टू मैरिज, डिवोर्स, कस्टडी इनहैरिटेंस ऐंड सक्सेशन’ था. इस रिपोर्ट में मुस्लिम महिलाओं की बदहाल स्थिति का हवाला देते हुए तिहरे तलाक और बहुविवाह पर रोक लगाने की बात कही गई थी.

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व्यथा कथा : 2

‘मैं कोर्ट से सिर्फ  गुजारा-भत्ता नहीं बल्कि इस्लाम के मर्दवादी कानूनों में बदलाव चाहती हूं’

शायरा बानो, काशीपुर, उत्तराखंड

रिज़वान और शायरा के निकाह की तस्वीर
रिज़वान और शायरा के निकाह की तस्वीर

हम काशीपुर के साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं. 2002 में मेरी शादी इलाहाबाद के रिज़वान से हुई, जो प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करते थे. पापा ने गहने, घर का सामान वगैरह मिलाकर लगभग तीन-चार लाख रुपये का दहेज दिया था. मेहर, जो कहा जाता है कि लड़की और उसके घरवालों की रजामंदी से तय होती है, उसे बिना हमसे पूछे तय कर दिया गया. बहरहाल, मैं ससुराल पहुंची पर निकाह के बाद से ही कम दहेज लाने को लेकर तानाकशी शुरू हो गई. घर में मेरी जेठानी भी थीं, जिन्हें भी कम दहेज के लिए परेशान किया जाता था पर क्योंकि वो मेरी सास की रिश्तेदार की बेटी थीं तो उन्हें कम परेशान किया जाता था. जैसे-तैसे दिन कट रहे थे. फिर परिवार में हुए एक घरेलू झगड़े के बाद रिज़वान मुझे लेकर अलग रहने लगे. इस दौरान मेरे दो बच्चे, एक बेटा और बेटी ही हो चुके थे. अलग रहने के बाद तो घर में झगड़े बढ़ते ही चले गए. वो बात-बेबात मुझ पर हाथ उठाते. इस बीच मुझे करीब 6-7 बार गर्भ ठहरा, पर उन्होंने गर्भपात करा दिया. और इसके लिए हम किसी डॉक्टर के यहां नहीं गए. रिज़वान कोई गोली लाकर खिला देते थे. इसके बाद से मेरी सेहत लगातार गिरने लगी और रिज़वान का मुझ पर गुस्सा बढ़ता गया. मेरी खराब सेहत का जिम्मेदार वो मुझे ही बताते, मुझे जरा-सी बात पर भी मारते-पीटते. बात ही बात में मुझे छोड़ने की धमकी देते. मैं भी हर मुस्लिम औरत की तरह तलाक की तलवार के साये में डर-डरकर जीती थी. मैंने आस-पास के कई घर ऐसे ही टूटते देखे थे. मायके वालों को भी इसी डर से ये सब नहीं बताया कि पता चलने पर न जाने रिज़वान क्या करें. मैं इसे अल्लाह की मर्जी समझ कर सब कुछ सहती रही. फिर हमारे समाज में किसी तलाकशुदा औरत को कैसे देखा जाता है, इससे हम सब वाकिफ हैं.

अप्रैल 2015 में उन्होंने मुझे इलाज करने के लिए मायके ले जाने को कहा पर फिर काशीपुर से पहले मुरादाबाद स्टेशन पर ही हमें छोड़कर चले गए. वहां से पापा हमें घर ले आए. फिर कुछ दिनों तक तो उनसे फोन पर बात हुई पर फिर उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया. कभी उठाते भी तो झिड़कते रहते. बच्चों के स्कूल शुरू होने थे सो पापा उन्हें इलाहाबाद छोड़ आए. मेरा इलाज उस वक्त तक चल ही रहा था तो मैं यहीं रह गई. बच्चों के वहां पहुंच जाने के बाद तो रिज़वान ने कोई खैर-खबर लेना, फोन उठाना सब ही छोड़ दिया. और फिर अक्टूबर में मेरे नाम से एक चिट्ठी घर पहुंची. जिस डर में मैं शादी के इतने साल घुट-घुटकर जीती रही थी, वही हुआ. रिज़वान ने डाक से तलाकनामा भिजवाया था. मेरी इतने सालों की चुप्पी भी हमारे रिश्ते को नहीं बचा पाई. मैं बुरी तरह टूट गई.

फिर भाई और पापा ने हिम्मत बंधाई और मैंने इंसाफ और मुस्लिम औरतों की इज्जत के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की ठानी. कैसी अजीब दुनिया है, कैसे अजीब नजरिये…औरत न हो गई पांव की जूती हो गई, जब तक काम दिया तो ठीक, फिर निकालकर फेंक दिया. मैं एमए तक पढ़ी हूं. मैं नौकरी भी करना चाहती थी पर रिज़वान को घर की औरतों का बाहर जाकर नौकरी करना गवारा नहीं था. सोचती हूं अगर अपने पैरों पर खड़ी होती तो शायद ये विरोध पहले कर पाती. जिंदगी के इतने साल किसी गुलाम की  तरह निकाल दिए. रिज़वान ने तलाक के बाद मेहर के 15 हजार रुपये भी भिजवाए पर क्या डर और दर्द में बीते मेरे उन 13 सालों की कोई कीमत लगाई जा सकती है?

वैसे इस तलाक ने मुझे उस डर से आजाद कर दिया है. मैं खुद पर हुए जुल्मों के खिलाफ लड़ने के लिए आजाद हूं. मैं कोर्ट से सिर्फ अपने बच्चे, अपना दहेज या गुजारा-भत्ता नहीं चाहती बल्कि इस्लाम के मर्दवादी कानूनों में भी बदलाव चाहती हूं. ये कैसा कानून है जहां निकाह औरत-मर्द दोनों की हामी से होगा पर तलाक सिर्फ शौहर की मर्जी से? शौहर तलाक भी दे फिर शरीयत की दुहाई देकर हलाला के लिए भी कहे. क्या ये औरतों की बेइज्जती नहीं है? कानून एकतरफा क्यों है? पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग खुद को हमारा रहनुमा बताते हैं पर औरतों के हक के लिए कभी सामने नहीं आते. वहां की कुछ महिला मेंबरान ने तीन तलाक को जायज ठहराया है. मैं उनसे बस यही कहना चाहूंगी कि दूसरे के बारे में ऐसा बोलना आसान है, खुद पर गुजरे तब ही इस दर्द का एहसास होता है. मैं बस चाहती हूं कि मुस्लिम औरतों को भी इज्जत और बराबरी से जीने का हक दिया जाए.[/symple_box]

भारत में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत का इस्तेमाल बहुत ही खतरनाक तरीके से हो रहा है. तकनीक के विकास के साथ-साथ यह भी हो गया कि मुस्लिम पति फोन, ईमेल या पत्र के जरिए भी अपनी पत्नियों को तलाक देने लगे हैं. इस संदर्भ में ओडिशा में नगमा बीवी का मामला चर्चित हुआ था. नगमा को उनके शौहर ने नशे की हालत में तलाक दे दिया था. सुबह उसे होश आया कि उसने गलती कर दी है. मगर मुस्लिम धार्मिक गुरुओं ने उन दोनों को साथ रहने की इजाजत नहीं दी. औरत को निकाह हलाला के लिए भेज दिया गया था. वैसे भी मुस्लिम पुरुष तलाक के बाद सिर्फ तीन महीने तक अपनी तलाकशुदा पत्नियों को गुजारा भत्ता देते हैं. उसके बाद वह भी बंद हो जाता है. शाहबानो ने इस गुजारा भत्ते के लिए ही केस लड़ा था जिसमें सुप्रीम कोर्ट में उनकी जीत हो गई थी. लेकिन मुस्लिम समुदाय के एक तबके के जबर्दस्त विरोध के सामने राजीव गांधी सरकार ने घुटने टेक दिए और द मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स ) ऐक्ट, 1986 लाकर कानून ही बदल डाला.

इस तरह के मामलों को लेकर नवंबर, 2015 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) नाम की संस्था ने एक सर्वे जारी किया. सर्वे में देश के दस राज्यों की तलाकशुदा करीब पांच हजार औरतों से बात की गई. सर्वे में तलाक के तरीके, उनके साथ हुई शारीरिक-मानसिक हिंसा, मेहर की रकम, निकाहनामा, बहुविवाह जैसे कई मुद्दों पर खुलकर बात हुई. जो नतीजे आए, वे बेहद चौंकाने वाले थे. रिपोर्ट में कहा गया कि 92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या एकतरफा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की. वहीं 91.7 फीसदी महिलाएं बहुविवाह के खिलाफ हैं. 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ में सुधार करने की जरूरत है.

तीन तलाक को लेकर शायरा बानो के सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद देश में भी तीन तलाक की व्यवस्था को खत्म करने की आवाज तेज होने लगी है. इसके खिलाफ एक ऑनलाइन याचिका पर करीब 50,000 मुस्लिम महिलाओं ने हस्ताक्षर किए हैं. हस्ताक्षर करने वाले लोगों में बड़ी संख्या में मुस्लिम पुरुष भी शामिल थे. याचिकाकर्ता बीएमएमए चाहता है कि राष्ट्रीय महिला आयोग इसमें हस्तक्षेप करे. बीएमएमए ने महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम को लिखे पत्र में कहा कि उसने अपने अभियान के पक्ष में 50,000 से अधिक हस्ताक्षर लिए हैं. हमने यह पाया है कि महिलाएं जुबानी-एकतरफा तलाक की व्यवस्था पर पाबंदी चाहती हैं. ‘सीकिंग जस्टिस विदिन फैमिली’ नामक हमारे अध्ययन में पाया गया कि 92 फीसदी मुस्लिम महिलाएं तलाक की इस व्यवस्था पर पाबंदी चाहती हैं. इस मामले में ललिता कुमारमंगलम का कहना है कि आयोग सुप्रीम कोर्ट में शायरा बानो के मुकदमे का समर्थन करेगा. उनका कहना है, ‘राष्ट्रीय महिला आयोग पहले से ही इस मुकदमे का हिस्सा है. हम इस महीने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल करेंगे. इस मांग का 200 फीसदी समर्थन करते हैं. जो भी बन पड़ेगा, हम करेंगे.’

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बीएमएमए ने इसे लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी खत लिखा है. अपने खत में बीएमएमए ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए या तो शरीयत एप्लीकेशन लॉ, 1937 और मुस्लिम मैरिज ऐक्ट, 1939 में संशोधन किए जाए या फिर मुस्लिम पर्सनल कानूनों का एक नया स्वरूप लाया जाए. बीएमएमए ने मुस्लिम महिलाओं, वकीलों, धर्म के जानकारों से बातचीत और कुरान के सिद्धांतों के आधार पर मुस्लिम फैमिली लॉ का एक ड्राफ्ट तैयार किया है. इसमें कहा गया है कि निकाह के लिए लड़के और लड़की की आयु 21 और 18 वर्ष तय हो, मेहर की रकम लड़के की वार्षिक आय के बराबर हो, जुबानी तलाक खत्म हो, तलाक देने के लिए तीन महीने का समय तय हो यानी एक बार में तीन तलाक देना बंद हो, तलाक एकतरफा न हो, तलाक के बाद जरूरी तौर पर शौहर बीवी के भरण पोषण की जिम्मेदारी ले, हलाला व बहुविवाह को गैर-कानूनी घोषित किया जाए और तलाक के बाद गुजारा भत्ता मुस्लिम वूमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स ऐक्ट, 1986 के अनुसार दिया जाए.

भारतीय अदालतों ने भी तीन तलाक को खत्म करने की दिशा में कुछ अहम फैसले सुनाए हैं. 2008 के एक मामले में फैसला देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज बदर दुरेज अहमद ने कहा था कि भारत में तीन तलाक को एक तलाक (जो वापस लिया जा सकता है) समझा जाना चाहिए. इसी तरह से गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जियाउद्दीन बनाम अनवरा बेगम मामले में कहा था कि तलाक के लिए पर्याप्त आधार होने चाहिए और सुलह की कोशिशों के बाद ही तलाक होना चाहिए. इस साल मई में सेना के एक जवान की ओर से पत्नी को बोले गए ‘तीन तलाक’ को कोर्ट ने खारिज कर दिया. मिलिट्री ट्रिब्यूनल ने कहा कि कोई भी व्यक्ति पर्सनल लॉ की आड़ में देश के संविधान के खिलाफ नहीं जा सकता है, जो सभी धर्म की महिलाओं के हक की सुरक्षा की बात करता है.

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आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल की लखनऊ बेंच ने कहा कि पर्सनल लॉ या भारत का संविधान भी किसी भी पति को यह हक नहीं देता कि वह अपनी बीवी को जुबानी, नोटिस भेजकर या मनमानी तरीके से बिना उसकी अनुमति के तलाक दे दे. बेंच ने कहा कि शादी महिला और पुरुष की स्वीकृति पर आधारित होती है. जब तक दो लोग सहमत नहीं होते हैं, तब तक कोई निकाह नहीं हो सकता. शादी एक तरह का कॉन्ट्रैक्ट है, जिसे एकतरफा तौर पर खत्म नहीं किया जा सकता.

वैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) तीन तलाक की प्रथा में किसी भी फेरबदल के खिलाफ अब भी अड़ा हुआ है. भारत में शरई कानूनों की हिफाजत के लिए बोर्ड ने लड़ाई का ऐलान किया है. पांच जून, 2016 को लखनऊ के मशहूर मदरसे नदवातुल उलूम में हुई बोर्ड की बैठक में हैदराबाद के सांसद मौलाना असदुद्दीन औवेसी भी शामिल हुए. बोर्ड ने एक साथ तीन तलाक को शरई एतबार से जायज करार दिया है. इसके अलावा तलाक, गुजारा भत्ता, चार शादियां आदि मामले में शरीयत कानून के खिलाफ आ रहे अदालती फैसलों को बोर्ड ने पर्सनल लॉ में दखलअंदाजी माना है. इस दौरान बोर्ड ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके कहा कि इस मामले में प्रधानमंत्री से भी संपर्क करके कहा जाएगा कि शरई मामलों में दखल देने की कोशिशों पर विराम लगाया जाए. साथ ही बोर्ड ने भारत में शरई अदालतों (दारुल कजा) की तादाद में इजाफे का भी फैसला किया है. बोर्ड ने कहा कि यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि मुस्लिम औरतों की स्थिति ठीक नहीं है, जबकि वास्तविकता इसके एकदम उलट है. गौरतलब है कि शायरा बानो द्वारा दायर की गई याचिका में एआईएमपीएलबी भी पक्षकार है.

पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत तकरीबन 22 मुस्लिम देशों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तीन तलाक की प्रथा खत्म कर दी है. इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं

हालांकि इस मसले पर दुनिया जिस तरफ आगे बढ़ रही है, एआईएमपीएलबी का रुख उसके बिल्कुल उलट है. जानने वाली बात यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत तकरीबन 22 मुस्लिम देशों ने अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर दी है. इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया है. ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है. ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है.

हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में तकरीबन 10 फीसदी मुस्लिम आबादी है. वहां का कानून तुरंत तलाक वाले किसी नियम को मान्यता नहीं देता. मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में कानून-25 के जरिए घोषणा की कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है. 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया. आज ज्यादातर मुस्लिम देश- ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर इस विचार को स्वीकार कर लिया है.

पाकिस्तान में भी तीन तलाक की प्रथा नहीं है. वहां कोई भी व्यक्ति ‘किसी भी रूप में तलाक’ कहता है तो उसे यूनियन काउंसिल (स्थानी निकाय) के चेयरमैन को इस बारे में जानकारी देते हुए एक नोटिस देना होगा और इसकी कॉपी अपनी बीवी को देनी होगी. यदि कोई व्यक्ति ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे एक साल की सजा हो सकती है. 5000 रुपये का जुर्माना देना पड़ सकता है. चेयरमैन को नोटिस देने के 90 दिन बाद ही तलाक प्रभावी माना जाएगा. नोटिस पाने के 30 दिन के भीतर चेयरमैन को एक पंच परिषद बनानी होगी जो तलाक के पहले सुलह करवाने की कोशिश करेगी. यदि महिला गर्भवती है तो तलाक 90 दिन या प्रसव, जिसकी समयावधि ज्यादा हो, के बाद ही प्रभावी होगा. संबंधित महिला तलाक होने के बाद भी अपने पूर्व पति से शादी कर सकती है और इसके लिए उसे बीच में किसी तीसरे व्यक्ति से शादी करने की जरूरत नहीं है. बांग्लादेश में भी यही कानून लागू है.

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व्यथा कथा : 3

‘पांच साल से इंसाफ के लिए धक्के खा रही हूं; अफसरों, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री तक से गुहार लगा चुकी हूं’

अर्शिया इस्माइल, बरेली, उत्तर प्रदेश

बात 1999 की है. मैं शादी के एक बुरे अनुभव से गुजरकर तलाक ले चुकी थी. एक बेटी थी, जिसे मायके में रहकर ही पढ़ा रही थी. इसी बीच बच्ची के स्कूल के जरिए मेरी असरार (परिवर्तित नाम) से मुलाकात हुई जो कि एयरफोर्स के एक विंग कमांडर (हेलिकॉप्टर पायलट) थे और उस समय बरेली में ही पोस्टेड थे. असरार भी तलाकशुदा थे और हमारी बच्चियां साथ पढ़ती थीं. कुछ समय बाद हमने शादी करने का फैसला किया. 2000 में मेरा निकाह असरार से हुआ. मैं गैर-इस्लामिक धर्म से आती हूं, इसलिए मैंने धर्म परिवर्तन करके शादी की थी. बच्चियां आपस में दोस्त थीं तो जिंदगी की पटरी पर हमारी गाड़ी आराम से दौड़ रही थी.

18 अप्रैल, 2011 तक सब सही चल रहा था कि एक दिन असरार ने मुझसे कहा कि उन्होंने मुझे तलाक दे दिया है… मैं हैरान रह गई. मुझे पता चला कि असरार का कहीं अफेयर चल रहा है. उस समय उनकी पोस्टिंग हैदराबाद में थी. कुछ ही महीनों पहले एक दुर्घटना में मेरी बेटी की रीढ़ में गहरी चोट आई थी और वो बिस्तर पर थी. तलाक और असरार के अफेयर के बारे में जानकर मेरी परेशानी और बढ़ गई. हमने इस पर बात करने की कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ. मैंने उन्हें साफ मना कर दिया कि वो मुझे तलाक नहीं दे सकते वो भी ऐसे वक्त में. मैं अपनी ऐसी हालत में अपनी बेटी को लेकर कहां जाऊंगी. एक दिन असरार का फोन घर पर ही छूट गया और मैंने उनकी उस महिला दोस्त का कॉल रिसीव कर लिया और कहा कि उनकी वजह से ही हमारी जिंदगी में इतनी मुश्किलें हो रही हैं. तब तक असरार आ गए और उन्होंने मुझे बहुत मारा. मेरी बीमार बेटी ने ये देख लिया और जैसे-तैसे फोन करके उनके कमांडेंट की पत्नी को घर बुला लिया. वो भागते हुए हमारे यहां आईं. जब तक वे आईं तब तक मेरे चेहरे और शरीर पर काफी चोटें आ चुकी थीं. ये बात फिर उन्होंने अपने पति को बताई और कमांडेंट ने असरार को धमकी दी कि आगे कभी ऐसा हुआ तो वे इस मामले को सिविल कोर्ट में ले जाएंगे. उसके बाद असरार ने कहा कि वो ये तलाक वापस ले लेंगे. ये 26 अप्रैल का दिन था. उन्होंने अहले हदीस के एक स्थानीय इमाम से पूछा और वापस आकर साथ रहने लगे. कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं दिमागी रूप से अब भी परेशान हूं तो क्यों न तुम कुछ वक्त बाहर कहीं रहो. दो-तीन महीने में मैं तुम्हें वापस बुला लूंगा. उन्होंने मुझे किराये के घर के लिए खर्च आदि देने की भी बात कही. मैं उस समय बस अपना घर टूटने से बचाना चाहती थी सो मैं इस पर भी राजी हो गई. मैं तीन महीने किराये के घर में रही और फिर उन्हें फोन किया पर उनका कोई जवाब नहीं मिला. इसी बीच मेरे भाई का इंतकाल हो गया और मैं बरेली आ गई. यहां से वापस पहुंची पर उन्होंने मुझे वापस अपने घर नहीं बुलाया.

नवंबर में एक दिन उन्होंने मुझे फोन करके कहा कि 18 अप्रैल को उनका दिया गया तलाक जायज है. उन्होंने जामिया निजामिया (एक मुस्लिम संस्था) से तलाक का एक फतवा बनवाकर एयरफोर्स अथॉरिटी में जमा करवा दिया है जिससे उनके रिकॉर्ड्स में अब मैं असरार की पत्नी नहीं हूं और इसलिए एयर फोर्स रेजीडेंसी में भी नहीं रह सकती. ये सरासर धोखा था. जाहिर है जामिया निजामिया का ये फतवा असरार ने गलत जानकरी देकर बनवाया था. मैंने उन इमाम साहब से बात की. उन्होंने मुझे वो कागज दिए जिस पर असरार ने तलाक वापस लेने की बात लिखी थी. पर एयरफोर्स ने उसे नहीं माना. मैंने एयरफोर्स के चीफ को चिट्ठी लिखी. उनके आदेश पर एक क्रिमिनल केस फाइल किया गया, पुलिस आई, सीआईडी ने जांच भी की और मेरे दावों को सही बताया. पर इसके बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ.

असरार ने सोचा तक नहीं कि एक बीमार बच्ची को लेकर मैं हैदराबाद जैसे इतने बड़े शहर में बिना किसी नौकरी के कैसे गुजारा करूंगी. मैंने कोर्ट में अर्जी डाली और बेबस होकर बरेली लौट आई. जनवरी 2015 में मैंने एयरफोर्स की एक महिला अधिकारी जिन्हें मैं पहले से जानती थी, उनसे संपर्क किया. उन्हें सारे कागज दिखाए और उन्होंने मेरी बात मानकर पूरा केस वहां खुलवाया. उन्हें अपने द्वारा की गई भूल का एहसास तो था पर वो इसे मानें कैसे? उन्होंने मुझसे कोर्ट से निर्णय लाकर देने को कहा. मेरे ये कहने पर कि असरार से कोर्ट के कागज क्यों नहीं मांगे थे जब उन्होंने कहा कि मुझे तलाक दे दिया है. इस पर उन्होंने मुझसे कहा कि आप ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लिखवाकर लाइए तो हम आपको असरार की पत्नी मानकर वहां रहने की इजाजत दे देंगे. मैंने जैसे-तैसे भागदौड़ करके ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक जनरल सेक्रेटरी से मुलाकात की जिन्होंने बताया कि शरीयत के हिसाब से भी ये तलाक नाजायज है और मैं अब भी असरार की पत्नी हूं. उन्होंने ये बात लिखकर भी दी. इसे मैंने एयरफोर्स अथॉरिटी में जमा भी करवा दिया और उन्होंने आगे इस पर जांच करने की बात कही. इस बात को दस महीने हो चुके हैं पर अब तक उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है. मैं सोचती हूं असरार ने इन झूठे कागजों से सिर्फ मुझे ही धोखा नहीं दिया है बल्कि जिस संस्थान में वो नौकरी करते हैं, यह उसके साथ भी धोखा है. इस सबके दौरान जब असरार से बात हुई तो उन्होंने कहा कि वो मुझे पत्नी नहीं मानते और मुझे गुजारे-भत्ते के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं देंगे. ये वो शख्स कह रहा था जिसे मैंने अपनी जिंदगी के 11 साल दिए थे.

आज पांच साल से मैं इंसाफ के लिए धक्के खा रही हूं, पर कोई फायदा नहीं हुआ. बड़े-बड़े अधिकारियों से लेकर रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री तक को लिखकर न्याय की गुहार लगा चुकी हूं. बरेली में भी कब तक रह सकती थी इसलिए दिल्ली में रहकर एक स्कूल में नौकरी करके बेटी को पढ़ाया है. ये दौर मेरी बेटी के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, इसके बारे में कोई नहीं सोचता. हैदराबाद में कोर्ट में हमारे केस की सुनवाई चल रही है. अभी रीकंसीलिएशन (सुलह) का वक्त है. उन्हें यह एहसास हो चुका है कि वो गलत हैं. पिछली सुनवाई पर जब मैं वहां गई थी तब केस कमजोर पड़ता देख असरार ने मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया. उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मैंने केस वापस नहीं लिया और फैसला उनके पक्ष में नहीं गया तो वो खुद को गोली मार लेंगे. वो जानते हैं कि अब भी मैं उनकी परवाह करती हूं पर क्या उन्होंने बीते सालों में कभी हमारी परवाह की?[/symple_box]

इस्लाम में तलाक के तीन तरीके ज्यादा प्रचलन में हैं. इनमें से एक है तलाक-ए-अहसन. जानकारों के मुताबिक तलाक-ए-अहसन में शौहर बीवी को तब तलाक दे सकता है जब उसका मासिक चक्र न चल रहा हो (तूहरा की समयावधि). इसके बाद तकरीबन तीन महीने की समयावधि जिसे इद्दत कहा जाता है, में वह तलाक वापस ले सकता है. यदि ऐसा नहीं होता तो इद्दत के बाद तलाक को स्थायी मान लिया जाता है. लेकिन इसके बाद भी यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है और इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है.

   दूसरे प्रकार के तलाक को तलाक-ए-हसन कहा जाता है. इसकी प्रक्रिया की तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता (जब बीवी का मासिक चक्र न चल रहा हो) है. यहां शौहर को अनुमति होती है कि वह इद्दत की समयावधि खत्म होने के पहले तलाक वापस ले सकता है. यह तलाकशुदा जोड़ा चाहे तो भविष्य में फिर से शादी कर सकता है. इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है. तलाकशुदा जोड़ा फिर से शादी तब ही कर सकता है जब बीवी किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ले और उसे तलाक दे. इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है.

तीन तलाक पर मुस्लिम समाज बंटा हुआ है. बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है

 तीसरे प्रकार को तलाक-ए-बिद्दत कहा जाता है. इसमें तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है. तलाक-ए-बिद्दत के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’ को तीन बार दोहरा देता है. इसके बाद शादी तुरंत टूट जाती है. इस तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता. तलाकशुदा जोड़ा फिर हलाला के बाद ही शादी कर सकता है.

इस्लामी जानकार कहते हैं कि तलाक-ए-बिद्दत या एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने के लिए शुरू की गई थी कि जहां जोड़े के बीच कभी न सुधरने की हद तक संबंध खराब चुके हैं या दोनों का साथ रहना बिल्कुल मुमकिन नहीं हैं वहां तुरंत तलाक हो जाए. इस्लाम में प्रचलित चारों सुन्नी विचारधाराएं- हनफी, मलिकी, हंबली और शाफेई इस प्रक्रिया पर सहमति जताती हैं.

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तीन तलाक पर एआईएमपीएलबी और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद मुस्लिम समाज बंटता नजर आ रहा है. बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो दूसरी ओर महिलाओं और समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है.

लखनऊ में ही हुई एआईएमपीएलबी की बैठक को संबोधित करते हुए बोर्ड की पदाधिकारी अस्मा जेहरा ने कहा, ‘इस्लाम में महिलाओं और पुरुषों को बराबरी का हक दिया गया है. तलाक की समस्या बड़े शहरों में आ रही है. छोटे कस्बों में इस तरह की परेशानी नहीं है. जहां तक वॉट्सऐप और मैसेज के जरिए तलाक देने की बात है तो इसके बाद मुस्लिम महिलाओं के पास एक ऐसा साक्ष्य तो होता है कि वे तलाकशुदा हैं. इससे वह अपनी आगे की जिंदगी आसानी से शुरू कर सकती हैं. दूसरे समुदायों की महिलाओं को लंबे समय तक छोड़ दिया जाता है और उसके पास इस बात का कोई प्रमाण भी नहीं होता है. हमें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि दूसरे देशों में क्या हो रहा है. भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां सभी धर्मों को बराबर अधिकार मिले हैं.’

अस्मा जेहरा के अनुसार, भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं इस तरह के कानूनों का पालन करना चाहती हैं. उन्होंने कहा, ‘99 फीसदी महिलाएं कुरान में उल्लिखित नियम और कानून का पालन करने की पक्षधर हैं. निकाह में सबसे पहले वधू की रजामंदी स्वीकार की जाती है. इसी तरह पुरुष तीन बार तलाक बोलकर अपने वैवाहिक संबंध समाप्त कर सकता है. महिलाओं को भी इस तरह का अधिकार दिया गया है. वे खुला या फसख-ए-निकाह बोलकर शादीशुदा जिंदगी से किनारा कर सकती हैं.’

इस दौरान बोर्ड की एक अन्य महिला सदस्य साफिया नसीम ने कहा, ‘मुस्लिम महिलाएं शरीयत कानून में किसी भी तरह की दखलंदाजी को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगी. शरीयत कानून पर गैरजरूरी सवाल उठाए जा रहे हैं जो अफसोसजनक हैं. संदिग्ध सर्वेक्षणों के जरिए मुस्लिम समाज को लेकर भ्रांति का माहौल खड़ा करने की साजिश रची जा रही है.’

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वहीं बोर्ड के सदस्य और ईदगाह के इमाम मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने कहा, ‘इस्लाम में तीन तलाक की व्यवस्था को जायज ठहराया गया है. कुरान शरीफ के अनुसार यह पद्धति न्यायसंगत है. बोर्ड की महिला सदस्यों ने भी तीन बार तलाक बोले जाने की प्रथा का समर्थन किया है. बोर्ड जल्द ही केंद्र सरकार से मांग करेगा कि वह भी पहले की सरकारों की तरह पर्सनल लॉ में दखलंदाजी न करे.’ 

‘कुरान के नाम पर डरा-धमकाकर पितृसत्ता को बढ़ावा दिया गया. उसमें ऐसा कुछ नहीं लिखा है. कुरान के गलत अर्थ निकालकर उसमें चालाकी से हेर-फेर किया गया है’

बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज़ कहती है, ‘तीन बार तलाक कहने से तलाक होने से बहुत सारी महिलाएं परेशान हैं. फोन पर तलाक हो रहे हैं, वॉट्सऐप पर हो रहे हैं और जुबानी तो हो ही रहे हैं. एक पल में महिला की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. यहां एक विधि सम्मत कानून की जरूरत है. जो कानून हैं, उनमें सुधारों की जरूरत है.’

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उन्होंने कहा, ‘कुरान के नाम पर, धर्म के नाम पर डरा-धमकाकर पितृसत्ता को और बढ़ावा दिया गया. कानूनी मसलों पर कुरान में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. कुरान के गलत अर्थ निकाले गए हैं, उसमें चालाकी से हेर-फेर किया गया. दरअसल जिस भाषा में कुरान लिखी गई उसे लोग नहीं जानते थे तो इसका तर्जुमा किया गया और अपने हिसाब से अर्थ निकाले गए. हमने कुरान पढ़ा है और ये काफी प्रगतिशील है. उसमें कहीं बहुविवाह, जुबानी तलाक या हलाला की बात नहीं कही गई है.’

उत्तर प्रदेश की पहली महिला काजी हिना जहीर नकवी ने भी तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है. उन्होंने कहा, ‘मैं तीन तलाक की कड़े शब्दों में निंदा करती हूं. यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए. यह कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना है. इसने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है.’

ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर भी तीन तलाक का खुलकर विरोध करती हैं. वे कहती हैं, ‘तीन तलाक कुरान शरीफ के कानूनों के खिलाफ है. कुरान शरीफ में एक ही बार में तीन तलाक की बात नहीं कही गई है. ऐसा तरीका जो कुरान के हिसाब से जायज नहीं है उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा. जहां तक मामले के सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात है, तो हमें देश की सर्वोच्च अदालत पर पूरा भरोसा है. यहां पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को ध्यान में रखते हुए फैसले दिए जाते हैं.’

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एआईएमपीएलबी द्वारा तीन तलाक को जायज ठहराए जाने और खासकर उसकी महिला सदस्यों द्वारा इसकी पैरवी किए जाने के मामले पर शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘एआईएमपीएलबी के सदस्य जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं हैं. हम पिछले कई सालों से इस मसले पर काम कर रहे हैं. हमें पता है कि वास्तविकता क्या है. बोर्ड में जो महिला सदस्य हैं उनके पास जमीनी हकीकत की कितनी जानकारी है इस पर सर्वे करने की जरूरत है. वैसे एआईएमपीएलबी से हमारी कोई लड़ाई नहीं है. हमारा मानना है कि जो भी कुरान शरीफ की गलत व्याख्या करेगा या उसका पालन नहीं करेगा, हम उसके खिलाफ हैं. फिर चाहे वो एआईएमपीएलबी ही क्यों न हो.’

जामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रा लुबना सिद्दीकी का कहना है, ‘हमारे देश में एक साथ तीन तलाक की जो व्यवस्था है और पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिसे मान्यता दी है वो पूरी तरह कुरान व इस्लाम के मुताबिक नहीं है. कुरान में तीन महीने में तलाक की व्यवस्था की गई है. पुरुषवादी समाज ने तलाक की पूरी व्यवस्था को अपनी सहूलियत के हिसाब से बना दिया है. इसमें कुरान के मुताबिक संशोधन की सख्त जरूरत है.’

हालांकि मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के चलते राजनीतिक पार्टियों के नेता तीन तलाक के खात्मे के पक्षधर होने के बावजूद सीधी टिप्पणी करने से बचते हैं. कांग्रेस नेता मीम अफजल कहते हैं, ‘कुरान में तलाक की जो व्याख्या की गई है वह तीन तलाक से मेल नहीं खाती है. कुरान में साफ कहा गया है कि तलाक तीन महीने में होना चाहिए.

तीन तलाक को लेकर मुस्लिम महिलाओं को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. मेरा मानना है कि अब वक्त आ गया है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य इस पर बैठकर विचार करें और ऐसा फैसला लें जो सभी के हित में हो.’

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भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय प्रभारी फारूक खान का कहना है, ‘इस मसले पर पार्टी की राय मैं नहीं बता सकता, लेकिन मेरा अपना मानना है कि तीन तलाक प्रथा पूरी तरह से गैरइस्लामी है और इसका खात्मा होना चाहिए.’

वहीं अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला का कहना है, ‘इस्लाम में तलाक की इजाजत है पर यह जरूरी नहीं है. ऐसी बहुत सी इजाजते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि उनका उपयोग किया ही जाए. तलाक को पैगंबर ने भी अच्छा नहीं माना है. उन्होंने इसे नजरअंदाज करने को कहा है. वैसे भी एक बार में तीन तलाक का जिक्र कुरान में नहीं है. तो यह अपने आप खारिज हो जाता है.’

नीतीश कुमार : आधी छोड़, पूरी को धावे

फोटोः तहलका अार्काइव
फोटोः तहलका अार्काइव
फोटोः तहलका अार्काइव

 

पटना कुछ मायने में जानदार शहर है. जानदार होने का एक नमूना इस शहर में लगने वाली चौपालों में जाकर समझ सकते हैं. रोजाना बारहों मास यहां कई चौपालें लगती हैं. रोजाना गपबाजी पसंद करने वाले लोग बतकही के अड्डों पर जाना कभी भी नहीं भूलते. बतकही का विषय किसी न किसी रूप में राजनीति ही होता है लेकिन उसमें विषय रोजाना बदल जाता है. इन चौपालों में होने वाली बतकही की एक और खासियत होती है. ओसामा, ओबामा से लेकर किसी के मामा तक की भी बात होती है तो उसका बिहारी कनेक्शन जरूर निकाला जाता है और फिर घूम-फिरकर बात बिहार पर खत्म होती है. व्यस्त सड़क किनारे खड़े होकर घंटे भर में एक कप चाय सुड़कने वाले लोगों की चौपाल भी लगती है. इन चौपालों में जाकर लगेगा कि राजनीति कैसे यहां रग-रग में समाकर एक धर्म की तरह है. पिछले दिनों इनकम टैक्स गोलंबर वाली बतकही की चौपाल का हिस्सा बना. बातचीत नीतीश पर ही हो इसलिए एक साथी से बतकही की शुरुआत करवा दी और उसके बाद तो फिर अखाड़ा-सा ही सज गया. जिसने भी बात की शुरुआत की उसने बस इतना कहा, ‘बाप रे बाप. नीतीश कुमार का फिर से पीएम वाला रिकॉर्ड  बजना शुरू हुआ है. अभी उन्हें बिहार पर ध्यान देना चाहिए तो बिहार को भगवान भरोसे छोड़कर दिन-रात एक कर देश की राजनीति कर रहे हैं. शराबबंदी का पाठ गायत्री मंत्र बार-बार दोहरा रहे हैं.’

उन्हें पलटकर तुरंत जवाब मिला, ‘कहां बिहार को भगवान भरोसे छोड़ दिया है. नीतीश बिहार को भगवान भरोसे छोड़ने वाले नेता होते तो लोग फिर से इतना भरोसा न जताते. क्या नहीं कर रहे हैं. बिहार में शराबबंदी करवाना कोई मामूली काम था क्या? इसका असर नहीं दिख रहा है क्या? अपराध कम हुआ है, गरीब कमाई जमाकर आगे बढ़ रहे हैं और शांति बहाल हुई है.’ इसके तुरंत बाद पहले साथी सवाल उठा देते हैं, ‘सहिये कह रहे हैं आप. दो महीने में ही शराबबंदी का फायदा ये हो गया है कि गरीबों के पास पैसा बलबलाने लगा है. अरे यार, क्या फालतू बात कर रहे हो. शराबबंदी-शराबबंदी ही तो रट रहे हैं. जैसे कांग्रेस के राज में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का राग छेड़े हुए थे. अब तो विशेष राज्य का नाम एक बार भी नहीं ले रहे हैं. ऐसे ही एक बार रट्टा लगा रहे थे- बस एक पेड़ लगाओ, जदयू की सदस्यता पाओ. यह राग भी बंद कर दिया. शराबबंदी वाला राग भी उन्हें रोकना पड़ेगा नहीं तो कल से सवाल पूछा जाएगा कि क्या शराबबंदी ही सब समस्या का समाधान है. और अगर यह तरक्की का रास्ता खोलता है तो फिर गुजरात के विकास मॉडल और आंकड़े का क्यों विरोध करते हैं. गुजरात में तो वर्षों से शराब बंद है तो फिर यह क्यों नहीं मानना चाहिए कि वहां सब फीलगुड-फीलगुड होगा? फिर तो नीतीश कुमार को यह भी बताना पड़ेगा कि बिहार में अब तक वे भूमि सुधार नहीं लागू करा सके हैं तो क्या उसके लिए भी केंद्र सरकार ही बाधा रही? कॉमन स्कूल सिस्टम पर बात करके चुप्पी साध ली तो क्या उसमें भी बाधक शराब ही है? कई सवालों के जवाब देने होंगे उन्हें, मुश्किल हो जाएगी.’ इस बात का झल्लाहट के साथ जवाब मिलता है, ‘मतलब क्या कहना चाह रहे हो, शराबबंदी नहीं होनी चाहिए थी. नीतीश कुमार ने गलत कर दिया है. क्या शराबबंदी का फायदा नहीं हो रहा?’ बहस आगे बढ़ती जाती है. एक-दूसरे की बातों को काटते हुए न जाने कितनी बातें एक-दूसरे से टकराने लगती हैं. तर्क ऐसे होते हैं कि बड़े-बड़े विश्लेषक भी पानी मांग लें. आखिर में यह बहस कई सवाल छोड़ जाती है. सबसे अहम मुद्दा यही होता है कि इस बार नीतीश कुमार ने जब से सत्ता संभाली है वे अपने को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने में इतनी ऊर्जा लगा रहे हैं कि बिहार उनसे कहीं पीछे छूटता जा रहा है और यहां की समस्याएं-चुनौतियां दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं. चौपाल में  यह बात जब छेड़ी जाती है तो तथ्यों के बजाय तर्कों का सहारा लिया जाता है. ऐसा भी नहीं कि यह बात सिर्फ उस दिन की चौपाल में उठती है.

नीतीश उलझ गए हैं. उन्हें चुपचाप राज्य की ओर ध्यान देना चाहिए. बिहार ही नहीं संभाल पाएंगे तो उन्हें देश संभालने का मौका कौन देगा? उन्हें फिर किसी ने पढ़ा दिया है कि वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे लेकिन स्थितियां उसकी इजाजत नहीं देतीं

बिहार में इन दिनों दो-तीन मुद्दे ही गांव-कस्बे की चौपालों से लेकर शहरों तक छाए रहते हैं. पहला  यह कि इस बार नीतीश लालू के साथ सत्ता में जब से आए हैं, तब से बिहार फिर से पुराने रास्ते पर आ गया है. दूसरा यह कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीति में जाना चाहते हैं तो वे जा पाएंगे या नहीं. इन सवालों का जवाब तलाशना इतना आसान नहीं होता. तर्क कुछ और बताते हैं, तथ्य कुछ और होते हैं. हम इन सवालों का जवाब एक-एक कर तलाशने की कोशिश करते हैं. अब पहले सवाल की टोह लेते हैं. बिहार में क्या वाकई अपराध अभूतपूर्व तरीके से बढ़ गया है और यह सब इसलिए हुआ है कि लालू सत्ता में उनके साथ हैं और अपराधियों का मनोबल बढ़ गया है? इसे जायज ठहराने के पक्ष में तर्क चाहे जितने दिए जाएं, तथ्य उसका इस तरह से समर्थन नहीं करते. बिहार में इस बार नीतीश कुमार की सरकार बनने के बाद अपराध का चर्चित मामला दरभंगा में इंजीनियरों की हत्या के बाद सामना आया. उसके बाद एक से बढ़कर एक कांड होते गए. भाजपा नेताओं ने कहना शुरू किया कि बिहार में जंगलराज आ गया है जबकि आंकड़ों में जाते हैं तो मालूम होता है कि यह अपराध कोई एक दिन में नहीं बढ़ा बल्कि पिछले कई सालों से यह लगातार बढ़ रहा था. सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 2010 में अपहरण का जो आंकड़ा था वह पांच साल में बढ़कर करीब दो गुना हुआ. 2010 में अपहरण के 3,602 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2015 में 7,127 मामले दर्ज हुए. इसी तरह 2010 से 2015 आते-आते दोषसिद्धि की दर में 68 प्रतिशत की गिरावट हुई. यानी 2010 में 14,311 मामलों में दोषसिद्धि हुई जो 2015 आते-आते 4,513 पर आकर सिमट जाता है. इसी अवधि में अपराध दर में 42 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई लेकिन हत्या जैसे अपराध को देखें तो 2012 से 2015 के बीच 12 प्रतिशत की गिरावट हुई. 2010 से 2015 के बीच दंगे में 73 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई.

भाजपा नेता सुशील मोदी कहते हैं, ‘अब जब आंकड़े ही बता रहे हैं तो इसमें अपनी ओर से क्या बोलने की जरूरत है. सब साफ है कि जब से लालू यादव साथ हुए हैं, राज्य में अपराधियों का मनोबल बढ़ा है और बिहार अराजकता की ओर बढ़ा है.’ मोदी के जवाब में जदयू नेता चंद्रभूषण राय कहते हैं, ‘सुुशील मोदी जी को तो जो बोलना होता है बोल देते हैं लेकिन उन्हें यह देखना चाहिए कि मध्य प्रदेश में उनकी ही पार्टी का शासन वर्षों से है. बिहार की आबादी मध्य प्रदेश से 44 फीसदी ज्यादा है लेकिन अपराध यहां 35 फीसदी कम हैं.’ भाजपा हो या जदयू के नेता, सबके पास अपने तथ्य हैं और तर्क. सवाल यह है कि जब बिहार में दूसरे भाजपा शासित राज्यों की तुलना में अपराध ज्यादा है ही नहीं, बिहार में जब अपराध एकबारगी से इतना बढ़ा ही नहीं है तो फिर राज्य भर में यह बात अचानक फैली कैसे! अपराध विशेषज्ञ ज्ञानेश्वर वात्स्यायन कहते हैं, ‘अपराध का आंकड़ा क्या है यह महत्वपूर्ण नहीं है, जिस तरह से बिहार में सरेआम अपराध बढ़े हैं, उससे यह बात फैली है कि नीतीश कुमार की इस पारी में सब कुछ ठीक से नियंत्रित नहीं हो रहा और अगर ऐसा नहीं हो रहा तो फिर कोई न कोई गड़बड़ी अचानक तो हुई है.’ राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘बिहार में क्या अपराध ऐसा हो रहा है कि जो कहीं नहीं होता या हुआ हो. यह किसी के बस की बात नहीं कि वह अपराध को पूरी तरह से रोक दे. इसके सामाजिक कारण होते हैं. असल में यह देखना होगा कि अपराध के बाद नीतीश कुमार एक्शन ले रहे हैं या नहीं. मैं तो यही कहूंगा नीतीश कुमार तुरंत एक्शन ले रहे हैं और एक सीएम यही कर सकता है.’ मणि की बातों का विस्तार करके देखें तो यह सच भी दिखता है. यह सच है कि बिहार में इन दिनों ऐसे कई चर्चित कांड हुए और विचित्र किस्म की घटनाएं घटीं जिससे नीतीश की साख को बट्टा लगा. दरभंगा में सरेआम इंजीनियरों की हत्या, भोजपुर में भाजपा नेता विशेश्वर ओझा की हत्या, मुजफ्फरपुर में व्यवसायी की हत्या, समस्तीपुर में डॉक्टर के घर पर गोलीबारी समेत तमाम ऐसी घटनाओं को छोड़ भी दें तो कई ऐसी घटनाएं और घटीं, जिनके कारण नीतीश कुमार की ज्यादा किरकिरी हुई.

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नीतीश, चौपाल और चर्चा

  • काहे नहीं देखेंगे पीएम का ख्वाब! क्या कमी है जी! तीन-तीन बार सीएम हुए, केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, पूरे देश में प्रतिष्ठा है ही, नरेंद्र मोदी के अश्वमेधी घोड़ा को बिहार में रोककर साबित कर ही दिए कि उनमें दमखम है भाजपा का विरोध करने का और उससे लड़ने का भी तो फिर काहे नहीं पीएम का ख्वाब देखें और काहे नहीं बन सकते हैं!
  •  बकलोले हो का रे भाई. कौन कह रहा है कि ख्वाब नहीं पालना चाहिए और कौन कह रहा है कि वे नहीं बन सकते… अरे बनें, बनेंगे तो बढि़ए लगेगा न, कोई पीएम तो बना इहां का. बाकि हमरा कहना यह है कि नीतीश देश के पीएम तब न बनेंगे जब पहले अपना बिहार में अकेले दमखम दिखा देते, चाहे बिहार के पड़ोस में अपना जलवा दिखा देते. एक बार लोकसभा में अकेले मैदान में उतरे तो सिमट गए. बाकी तो लालू जी के साथ सफर शुरू किए, फिर वामपंथियों के साथ गए, फिर बात बनती न दिखी तो भाजपा के साथ हुए, भाजपा से अलग हुए तो अकेले ट्रायल किए, सिमट गए तो फिर लालू जी के साथ हो गए. और फिर ताकत का मतलब सीधे-सीधे संख्या बल से होता है. नीतीश को तो नंबर गेम में पिछड़ जाना पड़ेगा.
  •  अरे क्या तुमसे तर्क करें. तुम्हारा स्तरे तर्क करे लायक नहीं. बीपी सिंह का अकेले जनता दल का उतना सीट लाए थे कि देश में सरकार बना लेते बाकी जब मैदान में उतरे तो भाजपा से लेकर वामपंथी तक, सब एके घाट पर आके पानी पीया था कि नहीं. समर्थन देके बीपी सिंह को पीएम बनाया था कि नहीं. पूरा देश में प्रभाव की बात कर रहे हो तो देवगौड़ा और गुजराल का नामो तक जानता था आदमी, पीएम बन गए थे कि नहीं. चंद्रशेखरे के पास इतना नंबर गेम था कि बन गए थे पीएम. राजनीति में नंबर महत्वपूर्ण होता है बाकी सब नहीं होता है. रहा बात पड़ोसी इलाका में प्रभाव जमाने का तो करिए रहे हैं न कोशिश.
  • करें कोशिश, करें. तुम चाणक्य बूझ रहे हो अपना को तो बताओ जो पूछ रहे हैं. नीतीश कुमार जब खुद को राष्ट्रीय राजनीति का सिरमौर बनाने के लिए कोशिश करेंगे तो पहिला सवाल ईहे कि कौन उनका नेतृत्व उतना आसानी से स्वीकार कर लेगा. का ममता बनर्जी? उ तो खुदे कह चुकी हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में जिम्मेवारी मिले, निभाने के लिए तैयार हैं और उ तो साबित कर दीं खुद को कि कैसे वाम को उसके सबसे बड़े गढ़ में जड़ से खत्म कर सकती हैं. क्या जयललिता? वे कोई क्या कम बड़ी नेता हैं. नवीन पटनायक खुदे अपने को तीसमार खां समझते हैं. समझे भी काहे नहीं. जब पूरा देश में मोदी का आंधी था, तबो नवीन उड़ीसा में बीजू जनता दल का खंभा उखड़ने नहीं दिए. अब जरा ई भी तो बताओ कि भाजपा मुक्त भारत चाहे संघ मुक्त भारत का नारा तो बढि़या है नीतीश जी का लेकिन इसके नाम पर तो कोई एके साथ आएगा और हर जगह दुई खेमा है. तमिलनाडु में अगर जयललिता आएंगी तो करुणानिधि साथ नहीं रहेंगे. अगर वामपंथी साथ रहेंगे तो बंगाल से ममता नहीं रहेंगी साथ में. कांग्रेस अगर साथी बनती है तो नवीन जैसे नेता साइड रहेंगे. उत्तर प्रदेश में मायावती मुलायम में से कोई एक्के होगा, बताओ तो जरा चाणक्य बने हो तो.
  • अरे छोड़ो भइया. सब संगे आ जाएगा. एके साथ न आ गया था कांग्रेस के रोके के नाम पर कम्युनिस्ट और भाजपा. आ न गए नीतीश और लालू साथे, कोई विश्वास कर सकता था.  राजनीति में रणनीति परिस्थितियों का दास होती है. यही जानते हो नीतीश को. उनसे ज्यादा एडजस्टेबल कोई है क्या? उ हर बार एक नया वोट बैंक बना लेते हैं. पिछड़ा को अतिपिछड़ा किए, दलित को महादलित फिर महादलित-दलित एक हो गया, मुसलमानों में पसमांदा अलग किए. नीतीश जानते हैं कि उन्हें क्या करना है. पहिलका बारी आए तो लड़कियों को साइकिल बांट महिलाओं के दिल में जगह बनाए और अब शराबबंदी करवा के जात-पात का बंधन तोड़ सर्वमान्य रूप से महिलाओं का नेता बन गए हैं. बताओ का अइसा रणनीति बनाने वाला कोई नेता है. अरे, नीतीश को जानते कितना हो.[/symple_box] 

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इसमें एक बड़ा और चर्चित मामला तो जदयू की विधायक बीमा भारती के चर्चित पति अवधेश मंडल के पूर्णिया के मरंगा थाने से भाग जाने वाला मामला रहा, जिसमें यह आरोप लगा कि बीमा भारती ने ही भगाने में मदद की. हालांकि 48 घंटे में ही अवधेश फिर पुलिस की गिरफ्त में भी आ गए थे. नवादा के विधायक राजवल्लभ यादव का मामला भी उतना ही चर्चित हुआ, जिन पर एक नाबालिग लड़की के यौन शोषण का आरोप लगा और एक माह तक फरार रहने के बाद उन्होंने समर्पण किया. जदयू के विधायक सरफराज आलम का मामला कोई कम चर्चित नहीं रहा. उन पर बेटिकट यात्रा के साथ ही राजधानी एक्सप्रेस में एक महिला से छेड़खानी का आरोप लगा. उन्हें जदयू से निलंबित किया गया. जदयू से ही निलंबित एमएलसी मनोरमा देवी के बेटे रॉकी यादव का मामला तो देश भर में चर्चित रहा. रॉकी मनोरमा देवी और गया के चर्चित बिंदी यादव के बेटे हैं. पिछले दिनों उन्होंने आदित्य सचदेवा नाम के व्यक्ति की हत्या कर दी थी. बाद में मनोरमा देवी के यहां शराब भी बरामद हुई. इसके अलावा नीतीश कुमार के अपने विधायकों ने जितनी किरकिरी नहीं करवाई, उससे ज्यादा उनके सहयोगी दलों के नेताओं ने किरकिरी करवाई. राजद नेता शहाबुद्दीन का प्रकरण हालिया दिनों में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद चर्चित रहा और सबने देखा कि कैसे शहाबुद्दीन जेल में ही दरबार लगा रहे थे. राजद नेता और मंत्री अब्दुल गफूर ने शहाबुद्दीन से जेल में जाकर मुलाकात करके सरकार की और किरकिरी करवाई. भाजपा के वरिष्ठ नेता और बिहार में नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि शहाबुद्दीन सीवान में कैसे और किस तरह का राज चला रहे हैं. वे जेल में जनता दरबार लगा रहे हैं तो यह बात सरकार को नहीं मालूम होगी, यह कैसे कहा जा सकता है. सरकार को सब मालूम है लेकिन सरकार मजबूर है.’ अपराध को लेकर बिहार के पुलिस महानिदेशक तक कह चुके हैं, ‘अपराध कब नहीं था, कहां नहीं है, रामराज्य में भी अपराध था.’ पुलिस महानिदेशक की यह बात कहीं न कहीं से नीतीश की ही किरकिरी कराने वाली होती है. राजद के नेता तसलीमुद्दीन अपनी पुरानी बात ही दोहराते हैं और जोर देकर कहते हैं, ‘हमने जो बात कही थी वह हवा में नहीं कही थी. नीतीश कुमार के इस बार के राज में जंगलराज ही नहीं महाजंगलराज हो गया है और अगर वे सत्ता नहीं संभाल पा रहे तो फिर उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए.’ तसलीमुद्दीन जैसे वरिष्ठ राजद नेता भी ऐसे बयान देकर नीतीश की ही किरकिरी करवाते हैं. हम नेताओं की बात छोड़कर दूसरे लोगों से बात करते हैं. राजनीतिक संस्था ‘बागडोर’ के समन्वयक इंजीनियर संतोष यादव कहते हैं, ‘सवाल यह नहीं कि अपराध कितना बढ़ा, उसके आंकड़े क्या कह रहे हैं. अपराध आंकड़ों के जाल में उलझकर रह जाता है लेकिन बिहार के सामाजिक न्याय के साथ जो दूसरे पहलू जुड़े हुए हैं उस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए. जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी सवाल हैं.’ संतोष का इशारा बोर्ड के रिजल्ट में टॉपरों के हाल की ओर है, जिससे सरकार की देश भर में किरकिरी हुई. राजनीतिक विश्लेषक प्रो. नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार पीएम-पीएम के शोर में उलझ गए हैं. इधर, बिहार का नुकसान हो रहा है. उन्हें चुपचाप राज्य की ओर ध्यान देना चाहिए. बिहार ही नहीं संभाल पाएंगे तो उन्हें देश संभालने का मौका कौन देगा? नीतीश कुमार को फिर से किसी ने भ्रम का पाठ पढ़ा दिया है कि वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे लेकिन स्थितियां उसकी इजाजत नहीं देतीं. नीतीश खूब अच्छे से जानते हैं कि अभी लालू अपने बच्चों को सेटल कराने में लगे हुए हैं, इसलिए चुप हैं लेकिन वे जब सक्रिय होंगे तो फिर नीतीश के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब को वही चकनाचूर करे देंगे. पूरा बिहार गंवाकर किसी तरह कांग्रेस के सहयोग से चौधरी चरण सिंह या चंद्रशेखर जैसा प्रधानमंत्री बनकर ही अगर नीतीश को अपना ख्वाब पूरा करना है तो करें, लगा दंे बिहार को दांव पर, रोका किसने है.’ प्रो चौधरी बिहार में बढ़ते अपराध से लेकर दूसरी किस्म की समस्याओं के लिए नीतीश कुमार के राष्ट्रीय राजनीति वाले अभियान को कसूरवार ठहराते हैं.

नीतीश कुमार संघ मुक्त भारत का नारा भी लगा रहे हैं. लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि संघ परिवार के लिए भी उत्तर भारत बहुत खास इलाका है और वह इतनी आसानी से इस इलाके को अपने से मुक्त नहीं होने देगा

बात फिर घूम-फिरकर नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने वाले ख्वाब तक आ जाती है और फिर एक साथ कई सवाल सामने खड़े हो जाते हैं.  इस राह को मजबूत बनाने के लिए वे दो मुद्दों को भुनाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं. पहला बिहार में शराबबंदी और दूसरा संघ मुक्त भारत. हालांकि राज्य के राजनीतिक विश्लेषक इन दोनों ही मुद्दों से उन्हें बहुत ज्यादा फायदा मिलने की उम्मीद नहीं देख रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘नीतीश कुमार पर शराबबंदी का नशा चढ़ा हुआ है और साथ ही वे संघ मुक्त भारत का नारा भी लगा रहे हैं. संघ मुक्त भारत एक प्रमुख नारा हो सकता है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि संघ परिवार के लिए भी उत्तर भारत बहुत खास इलाका है और वह इतनी आसानी से अपने से इस इलाके को मुक्त नहीं होने देगा. संघ को मालूम है कि बिहार और उत्तर प्रदेश, सिर्फ ये दोनों राज्य 120 सांसद की हैसियत रखते हैं. संघ मुक्त भारत के जरिए नीतीश कुमार अगर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ बनाएंगे तो यह आसानी होगी लेकिन संघ की काट सामाजिक न्याय की राजनीति को परवान चढ़ाकर की जा सकती है, जिसमें नीतीश कुमार अपेक्षा की कसौटी पर खरे नहीं उतरे रहे. सामाजिक न्याय के एजेंडे को उन्हें सबसे पहले बिहार में ही सही तरीके से लागू करके दिखाना होगा और पूरे देश में उसे मॉडल की तरह पेश करना होगा लेकिन नीतीश कुमार ऐसा करते हुए नहीं दिखते. हिंदू जातियों में जो विभाजन है, वही भाजपा या संघ परिवार के लिए ताकत भी है और कमजोरी भी. नीतीश को अगर कहीं से गठजोड़ बनाने की शुरुआत करनी है तो उन्हें अपने बिहार में ही करनी चाहिए. रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी जैसे तीन प्रमुख नेता अभी भाजपा के पाले में हैं. सामाजिक न्याय की ताकतों को साथ लाने की कोशिश नीतीश कुमार को करनी चाहिए. भाजपा के खिलाफ अटैक करना हो तो सामाजिक न्याय के मसले पर करना ज्यादा आसान होगा, क्योंकि भाजपा बुनियादी तौर पर सामाजिक न्याय के विरोध की पार्टी है. लेकिन नीतीश कुमार देश भर में इस पर नहीं बोल पाते. उनसे ज्यादा लालू प्रसाद यादव बोल लेते हैं. इसलिए जब संघ मुक्त भारत की बात सामने आएगी तो लालू प्रसाद खड़े होंगे तो उनमें चैंपियन बनने की संभावना ज्यादा है, यह बात अलग है कि लालू प्रसाद अब राष्ट्रीय राजनीति में वह भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं दिख रहे.’

फोटो साभार : पटना व्यू डॉट ब्लॉगस्पॉट
फोटो साभार : पटना व्यू डॉट ब्लॉगस्पॉट

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार की ओर से बिहार के नेतृत्व और खुद के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब का घालमेल करना ठीक नहीं. बिहार विकल्पहीन है और सक्षम विकल्प नहीं होने के कारण जनता ने उन्हें फिर से सीएम बनने का अवसर दिया. लेकिन वे बिहार से बाहर अपने विस्तार के लिए जिस तरह से शराबबंदी को सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार बना रहे हैं, वह उनका नुकसान ही करेगा. संघ मुक्त भारत तक का अभियान तो फिर भी एक राजनीतिक एजेंडे की तरह लगता है लेकिन वे पूरे देश में शराबबंदी के मॉडल को अपनाने के लिए रोज-रोज बात कर अति करके रहे हैं और यह अति अब उनके लिए हानिकारक होने वाली है.’ नीतीश कुमार इन दिनों जितने जोर-शोर से शराबबंदी को राजनीतिक हथियार बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह उनका अब नुकसान करने वाला साबित हो रहा है. भाजपा लचर विपक्ष की भूमिका में है वरना शराबबंदी के इस अभियान को राजनीतिक एजेंडे की तरह पेश करने पर ढेरों सवाल उठते हैं.

महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतीश कुमार 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में एक मजबूत दावेदार की तरह होंगे. भाजपा विरोध की राजनीति में देश भर में तीन चेहरे प्रमुख हैं. एक राहुल गांधी, दूसरे अरविंद केजरीवाल और तीसरे नीतीश कुमार. इसमें नीतीश कुमार ज्यादा दमदार और भरोसेमंद लगते हैं लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है. अभी तो बहुत कुछ देखा जाना बाकी है. नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ बनाने का प्रयास लगातार कर रहे हैं लेकिन अभी तक संगी-साथी के तौर पर झारखंड से बाबूलाल मरांडी मिल सके हैं. राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार का कद कितना बढ़ेगा, यह उत्तर प्रदेश के चुनाव पर निर्भर करेगा. मायावती अगर जीत हासिल करती हैं तो उनकी राह अलग होगी. अगर मुलायम सिंह की पार्टी जीत हासिल करती है तो फिर मुलायम अपनी आकांक्षा-इच्छा जाहिर कर चुके हैं और इसीलिए वे नीतीश-लालू से मेल-मिलाप के लिए तमाम वादे करके बीच में ही हट भी गए थे. रही बात नीतीश कुमार के संघ मुक्त भारत और शराब मुक्त भारत वाले नारे की तो यह सब नारा तब काम करेगा जब नीतीश कुमार पहले अपने घर यानी बिहार को मजबूत करेंगे. शराब मुक्त भारत का नारा देकर नीतीश कुमार देश भर में इसे बिहार मॉडल के तौर पर स्थापित करने में ऊर्जा लगाए हुए हैं. उनकी यह ऊर्जा व्यर्थ जा रही है. एक तो यह पहले से ही कई राज्यों में लागू है. दूसरा यह कि यह सभी राज्यों को ही सूट नहीं करेगा लेकिन क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है िक वे अपने सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाते. नीतीश कुमार भी उसी सम्मोहन के शिकार हैं. उन्हें लगता है कि शराबबंदी का एेलान करके और कुछ कानून बनाकर उन्होंने अभूतपूर्व काम किए हैं. सच यही है कि अगर दूसरे राज्यों में ज्यादा वे इस विषय पर बोलेंगे तो इन्हें सहयोगी मिलना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि क्षेत्रीय क्षत्रप जो दूसरे राज्यों के सीएम हैं, उनके पास अपने मॉडल हैं और अगर उनके राज्य में जाकर नीतीश कुमार बिहार मॉडल-बिहार मॉडल की बात करेंगे तो उनमें से कोई भी नीतीश के करीब आना पसंद नहीं करेगा.’            

गुलबर्ग मामले में 11 को उम्रकैद

एक विशेष एसआईटी अदालत ने गुलबर्ग सोसाइटी कत्लेआम मामले में 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. वहीं 12 दोषियों को सात साल जबकि एक अन्य को 10 साल की सजा सुनाई गई. 2002 के गुजरात दंगों में गुलबर्ग सोसाइटी में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी समेत 69 लोगों की हत्या कर दी गई थी. इससे पहले दो जून को विशेष अदालत ने हत्या और अन्य अपराधों के लिए 11 लोगों को दोषी ठहराया था जबकि विहिप नेता अतुल वैद्य सहित 13 अन्य हल्के अपराधों के तहत दोषी ठहराए गए थे. अदालत ने मामले में 36 अन्य को बरी कर दिया था. बड़े अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए लोगों में मुख्य आरोपियों में से एक कैलाश धोबी भी शामिल है, जिसने 13 जून को अदालत में आत्मसमर्पण किया. उसे 2002 में गिरफ्तार किया गया था. इस साल वह फरवरी में अस्थायी जमानत पर रिहा होने के बाद फरार हो गया था. गुलबर्ग सोसाइटी दंगा 28 फरवरी, 2002 को हुआ था. उस वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. इसने पूरे देश को दहला दिया था क्योंकि तकरीबन 400 लोगों की भीड़ ने अहमदाबाद के केंद्र में स्थित सोसाइटी पर हमला किया था और जाफरी समेत अन्य निवासियों की हत्या कर दी थी.

पाक-बांग्लादेश के हिंदू बनेंगे भारतीय!

मोदी सरकार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से पलायन करके भारत आने वाले हिंदुओं की नागरिकता संबंधी अपने चुनावी वादे को पूरा करने जा रही है. इन लोगों को जल्द ही भारतीय नागरिकता मिल सकती है. गृह मंत्रालय ने भारतीय नागरिकता कानून, 1955 में प्रस्तावित संशोधन का मसौदा तैयार कर लिया है. मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक, जल्द ही इसे कैबिनेट से मंजूरी मिल जाएगी. यह विधेयक इसी मानसून सत्र में संसद में पेश किया जा सकता है. इसमें भारत आने वाले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू नागरिकों को अवैध आप्रवासी नहीं कहा जाएगा. नए कानून से इन देशों के दो लाख से ज्यादा हिंदुओं को लाभ होगा. पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदुओं की अक्सर यह शिकायत होती है कि उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाता है. उनके साथ हिंसा की भी आशंका बनी रहती है. वे अक्सर ईशनिंदा कानून के जाल में भी फंस जाते हैं. केंद्र सरकार ने एक ओर जहां हिंदू अल्पसंख्यकों की मदद करने का फैसला लिया है तो दूसरी ओर आर्थिक वजहों से बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले मुस्लिम प्रवासियों को हतोत्साहित किया जा रहा है.

आज के समय में बैंडिट क्वीन बन ही नहीं पाती : गोविंद नामदेव

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फिल्म  ‘सोलर एक्लिप्स’  से आपने भी हॉलीवुड की ओर कदम बढ़ा दिया है. इन दिनों हॉलीवुड जाने की होड़ मची हुई है. एक भारतीय कलाकार के लिए हॉलीवुड की फिल्म करना बड़ी बात क्यों है?

ये बिल्कुल वैसे है जैसे कोई छोटे शहर से बड़े शहर जाना चाहता है. हॉलीवुड फिल्म निर्माण का मक्का है. हिंदुस्तान में बहुत अच्छी-अच्छी फिल्में बन रही हैं, लेकिन हॉलीवुड वालों ने जिस तरह का काम अपने अतीत में किया है और अभी कर रहे हैं उन्होंने साबित किया है कि वे और लोगों से बहुत बेहतर हैं. सो हर एक की इच्छा होती है चाहे वो एक्टर हो, डायरेक्टर हो, टेक्निशियन हो कि वहां जाकर काम करे और उनका काम पूरी दुनिया देखे. उसी के तहत मैंने हॉलीवुड की फिल्म ‘सोलर एक्लिप्स’ चुनी. 

इस फिल्म की क्या कहानी है? आपने ये फिल्म क्यों चुनी?

फिल्म ‘सोलर एक्लिप्स’ हॉलीवुड और बॉलीवुड दोनों का प्रोजेक्ट है. पंकज सहगल भारतीय हैं, दुबई की एक कंपनी इसकी प्रोड्यूसर है और शूटिंग श्रीलंका में हुई है. तकरीबन 70 प्रतिशत एक्टर और टेक्निशियन हॉलीवुड से और 30 प्रतिशत भारतीय हैं. ये फिल्म उस कालखंड की कहानी है जब गांधी जी की हत्या करने की कोशिश की जा रही थी और 1948 में उनकी हत्या कर दी गई थी. महाराष्ट्र उस समय बॉम्बे स्टेट था और वहां साजिश रची गई. मोरारजी देसाई जो उस समय वहां के गृहमंत्री थे उनका किरदार मैं निभा रहा हूं. चूंकि यह एक हॉलीवुड प्रोजेक्ट था और दूसरा मोरारजी देसाई का ऐतिहासिक किरदार था इसलिए मुझे ये फिल्म करनी ही थी.

गांधी, रामानुजन, बाल गंगाधर तिलक पर फिल्में भी हॉलीवुड की ओर से आ रही हैं. आपको नहीं लगता कि हमारे ऐतिहासिक नायकों पर बॉलीवुड से ज्यादा हॉलीवुड में काम हो रहा है. इसकी क्या वजह देखते हैं?

जैसा मैंने बताया कि हॉलीवुड में जो भी विषय चुना जाता है, वह बहुत ही रिसर्च के बाद दर्शकों के सामने रखा जाता है. उनकी तैयारी बहुत बड़े स्तर पर होती है. कहानी, किरदार, सीन, उसका प्रभाव आदि पर खूब चर्चा और शोध किया जाता है. इसमें कभी-कभी कई सालों का वक्त लग जाता है. उनका टेबल वर्क बहुत अच्छा होता है. उसके बाद वे फिल्म बनाना शुरू करते हैं. इस दौरान भी वे बहुत ही पेशेवर तरीके से काम करते हैं. ऐसे माहौल में काम करने का एक अलग मजा होता है. ऐसे में एक कलाकार जिम्मेदारी महसूस करने लगता है और पूरा फोकस उसका काम पर होता है. बॉलीवुड में भी ये हो रहा है. अभी संजय लीला भंसाली ने फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ बनाई जो विश्व स्तर की है. इस तरह के प्रयास बॉलीवुड में होने शुरू हो गए हैं. लोगों का ध्यान इस ओर गया है. अब ऐसे विषयों और किरदारों को खंगाला जा रहा है. मैंने एक नाटक लिखा था, ‘मधुकर शाह बुंदेला’. मुझसे उनके बारे में पूछा गया. माना जाता है कि पहला गदर 1857 में हुआ लेकिन उससे पहले 1842 में एक विद्रोह हमारे बुंदेलखंड में सागर के आसपास हुआ था. अंग्रेजों के खिलाफ पूरा ठाकुर समुदाय खड़ा हो गया था. एक बड़ा विद्रोह हुआ. इसके नायक मधुकर शाह बुंदेला थे. इस विद्रोह को उन लोगों ने बुरी तरह से दबा दिया और दूसरों को इसकी कानोंकान खबर भी नहीं हुई. मधुकर शाह को सागर जेल में ही फांसी दे दी गई थी. पूछा गया मुझसे कि क्या इस पर फिल्म बन सकती है. ये आपके ही सवाल का जवाब है कि बॉलीवुड में भी लोग ऐसे विषयों, कहानियों और किरदारों में रुचि लेने लगे हैं. हर एक का अपना स्तर है काम करने और फिल्म बनाने का.

अब हीरो के ऊपर वैसा दबाव नहीं होता कि वो खलनायक बनेगा तो उसकी छवि खराब हो जाएगी. अभी अक्षय कुमार ‘रोबोट 2’ में खलनायक बनकर आ रहे हैं. तो समय बदल गया है. उनके पास अपनी प्रोडक्शन कंपनी है तो वे जैसे चाहें चीजों को घुमा सकते हैं

फिल्मों में निभाए गए नकारात्मक चरित्रों में आप ज्यादातर भ्रष्ट नेता या फिर पुलिसकर्मी के किरदार में नजर आते हैं, कोई  खास वजह?

नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है. फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में मैं डकैत बना हूं. उसके बाद फिल्म ‘प्रेमग्रंथ’ का खलनायक अलग तरह का है. फिर ‘विरासत’ आई, फिर ‘सरफरोश’, ‘सत्या’, ‘गॉडमदर’, ‘लावारिस’ आईं. ये सभी किरदार अलग तरह के हैं. आज समाज में खलनायक कौन है? या तो राजनेता हैं या फिर पुलिस. अब खलनायक राजनेता है तो मैं राजनेता का रोल करूंगा ही, खाकीवाले हैं तो पुलिसवाला बनूंगा ही.

भारतीय सिनेमा सौ साल का हो चुका है. क्या आपको लगता कि समय के साथ सिनेमा में परिपक्वता आई है?

फिल्म निर्माण में बहुत सारा पैसा लगता है. कोई अच्छा विषय ले आता है तो फिल्म से जुड़े कई लोग यही सलाह देते हैं कि इसमें गाने डाल दो, ग्लैमर डाल दो. इस वजह से वो पूरा विषय ही मर जाता है. हॉलीवुड की तरह बॉलीवुड अभी परिपक्व नहीं हुआ है. हॉलीवुड में जितना पैसा लोगों के पास है उतना यहां नहीं है. यहां पर अभी कुछ ही लोग ऐसे हैं जिनका उद्देश्य है कि उन्हें अर्थपूर्ण फिल्में ही बनानी हैं. लोगों के सामने कुछ अच्छे मुद्दे लाने हैं. हालांकि इसकी भी अपनी सीमाएं हैं. मुझे लगता है कि अभी दस फीसदी ऐसे हैं जो अपने रिस्क पर फिल्मों का निर्माण करते हैं ताकि लोगों में गंभीर सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूकता फैलाई जा सके. अब जैसे प्रकाश झा हैं, वे मुद्दा आधारित फिल्में बनाते हैं. उनके पहले महेश भट्ट भी ऐसी ही फिल्में बनाने के लिए जाने जाते थे. वहीं बाकी के लोग इस नजरिये से फिल्में बनाते हैं कि लोगों का मनोरंजन भी हो जाए और मुनाफा भी. ये है कि बॉलीवुड में अभी भी करोड़ों रुपये दांव पर लगाने वाले कम हैं. कुछ निर्देशक हैं जैसे कि संजय लीला भंसाली, राजकुमार हिरानी और विशाल भारद्वाज जो खास विषयों के साथ आते हैं और विश्व स्तर का सिनेमा बनाते हैं.

Govind-Namdevआजकल की फिल्मों में खलनायकों की जगह बहुत सीमित हो गई है. आज नायक ही खलनायक हैं. आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

हर दशक में बदलाव हुए हैं. नायक का ही खलनायक बन जाना, ये भी एक तरह का बदलाव है. उद्देश्य ये होता है कि लोगों के सामने अलग तरह से कहानी को रखा जाए. क्या शाहरुख कर सकते हैं खलनायक का किरदार? अभी अक्षय कुमार रजनीकांत की फिल्म ‘रोबोट 2’ में खलनायक बनकर आ रहे हैं. तो समय बदल गया है, अब हीरो के ऊपर वैसा दबाव नहीं होता कि वो खलनायक बनेगा तो उसकी छवि खराब हो जाएगी. बड़े कलाकारों के पास अपनी प्रोडक्शन कंपनी है तो वे जैसे चाहें चीजों को घुमा सकते हैं. ये जरूर है कि जो सिर्फ खलनायक का किरदार निभाते आ रहे थे उनके पास अब ज्यादा काम नहीं है. मेरे लिए तो स्थिति उस तरह की नहीं है क्योंकि मैं बीच-बीच में सकारात्मक किरदार भी निभाता चला आ रहा हूं.

अभी तक आपने जो भी किरदार निभाए उसमें आपका पसंदीदा कौन-सा है? ऐसा कौन-सा किरदार रहा जो चुनौतीपूर्ण था?

ऐसे पसंदीदा एक-दो किरदार हैं. जैसे फिल्म ‘विरासत’ का खलनायक एक लकवाग्रस्त व्यक्ति है. उसे करते हुए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी और फिल्म में निरंतरता बनाए रखने के लिए खूब अभ्यास भी करना पड़ा. इस किरदार की लोगों ने बहुत तारीफ की थी. ‘बैंडिट क्वीन’ के बाद ‘प्रेमग्रंथ’ आई और उसके बाद ‘दिल है तुम्हारा’ का खलनायक एक पहाड़ी व्यक्ति है. ‘ओह माई गॉड’ का किरदार, ये सब मेरे लिए पसंदीदा और हमेशा के लिए यादगार किरदार हैं. ‘बैंडिट क्वीन’ का किरदार इतना दबंग, निर्दयी और क्रूर है. ऐसा मैंने देखा नहीं था. एक छोटा-सा संदर्भ है. जब हम इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो फूलन देवी ग्वालियर की जेल में बंद थीं. जो भी शूटिंग होती थी उसके बारे में फूलन देवी को बताने के लिए हमारी टीम हर 10 से 15 दिन में जेल जाती थी. एक बार मेरी मित्र कलाकार और फैशन डिजाइनर डॉली अहलूवालिया जो कि फिल्म की कॉस्ट्यूम डिजाइनर थीं, वे भी हमारे साथ गईं.

फूलन देवी ने डांटते हुए कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है. बाकी बताऊं.’ ऐसा बोलकर उन्होंने ब्लाउज खोलकर छाती दिखाई जहां जख्म से बने हुए गड्ढे थे और बताया कि ये ठाकुरों ने मुझे रेप करते हुए नोचा है. ये क्रूरता जब डॉली ने मुझे सुनाई तो मैं सिहर गया

उन्होंने फूलन देवी से पूछ लिया कि क्या हुआ था और कैसे हुआ था. तकरीबन 45 मिनट तक फूलन ने अपनी कहानी सुनाई तो डॉली रोने लगीं. इस पर फूलन देवी ने डांटते हुए कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है. बाकी बताऊं.’ ऐसा बोलकर उन्होंने अपना ब्लाउज खोलकर अपनी छाती दिखाई जहां जख्म से बने हुए गड्ढे थे और बताया कि ये ठाकुरों ने मुझे रेप करते हुए नोचा है. ये क्रूरता जब डॉली ने मुझे सुनाई तो मैं सिहर गया. मैंने सोचा कि परदे पर वो किरदार उतना ही निर्दयी और क्रूर दिखाई देना चाहिए कि लोग उसके ऊपर थू-थू करें. ये कुछ किरदार हैं जिन्हें करके मुझे बहुत संतुष्टि हुई. आने वाली पीढ़ी जब हमारे काम को देखेगी तो लगेगा उनको कि कुछ ढंग का काम किया गया.

आपने एनएसडी से प्रशिक्षण लिया और फिर 12-13 साल तक इसी से जुड़े रहे? इस दौरान आपने किस तरह का काम किया? आम तौर पर एनएसडी के बाद लोग सीधे मुंबई भागते है. आपने इतना समय दिल्ली में ही क्यों बिताया?

1975 से 1978 तक मैंने एनएसडी में कोर्स किया. 1978 में एनएसडी की रेपर्टरी कंपनी की ओर से एक साल की फेलोशिप मिल गई. इसमें पेशेवर कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिलता है. यह कंपनी अच्छे नाटक तैयार करती है. यह देश भर में थियेटर को बढ़ावा देने का काम करती है. कोर्स खत्म करने के बाद सवाल था कि मैं अब कहां जाऊं. सतीश कौशिक और अनुपम खेर मेरे साथ के लोग हैं. अनुपम खेर ने तय किया कि वे लखनऊ जाएंगे और एक साल वहां थियेटर के बारे में सिखाएंगे. कुछ लोग सीधे मुंबई चले आए. मुझे लगा कि अभी मेरे अभिनय में उतनी परिपक्वता नहीं आई है. इसलिए मैंने वो फेलोशिप ले ली. इसके बाद काम करते-करते मुझे समझ में आया कि अभी तो अपने अभिनय पर बहुत काम करने की जरूरत है. फिर अपने वरिष्ठों के बारे में पता चला कि फलां ने आठ साल थियेटर किया, किसी ने 10 साल. इसे देख मैंने भी निर्णय किया कि मैं भी आठ से 10 साल थियेटर करूंगा. मन में ये था कि जब मैं ऋषि कपूर या किसी ऐसे ही बड़े कलाकार के सामने परफॉर्म करूं तो उसे देखकर मुझे और दो-चार काम मिल जाएं. उस स्तर की परिपक्वता मुझे अपने अभिनय में चाहिए थी. काम करते-करते मुझे रेपर्टरी कंपनी में रेगुलर कर दिया गया और तकरीबन 11 साल थियेटर से जुड़ा रहा. जर्मनी, पोलैंड और लंदन जाकर हमने शो किए. बहुत कुछ हासिल किया, सीखा. ये मेरा गोल्डन टाइम था और आज भी मुझे रोमांचित करता है. 1990 में लगा कि अब मुंबई जा सकता हूं. मेरा नाम मेरे पहुंचने से पहले ही मुंबई पहुंच गया था इसलिए मुझे ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी साहब जैसे निर्देशक मुझे पहले से जानते थे.

आपने थियेटर, धारावाहिक व फिल्म में काम किया है. तीनों में क्या अंतर पाया?

इन तीनों विधाओं की अपनी-अपनी चुनौतियां हैं. किसी के बारे में ये नहीं कह सकते कि ये बेस्ट है. थियेटर में आप गड़बड़ी नहीं कर सकते हैं और अगर गड़बड़ी की तो परफॉर्म करने के दौरान ही उसे ठीक करना होता है. फिल्मों के लिए अभिनय करते हुए आपको 100 फीसदी नेचुरल व वास्तविक रहना होता है और साथ-साथ अपना 100 फीसदी इमोशन भी देना होता है. अब इमोशन को लाना और वास्तविक रहना, ये फिल्मों की चुनौती है. फिल्में आपको अमर कर देती हैं. 100 साल बाद भी आपको देखा जा सकता है. फिल्मों में जाने का एक मोह भी था. इसी तरह टीवी गांव-गांव में देखा जाता है. यहां हर कोई सिनेमा देखने हॉल में नहीं जाता है. इसलिए तीनों विधाओं की अपनी चुनौतियां हैं और अपने फायदे हैं.

हाल ही में आप फिल्म  ‘प्रोजेक्ट मराठवाड़ा’  में नजर आए. किसानों की समस्याओं पर बनी फिल्में किस हद तक उनके लिए मददगार साबित होती हैं?

इस तरह की फिल्में अगर अच्छे ढंग से रिलीज हो जाएं और लोगों तक पहुंच जाएं तो निश्चित रूप से इसका असर पड़ता है. आजकल लोगों को पता ही है कि किसान किस तरह की जिंदगी बसर करते हैं. फिल्म ‘प्रोजेक्ट मराठवाड़ा’ एक किसान की जिंदगी की व्यथा को बहुत ही सशक्त ढंग से रखती है. किसान जो देश भर को रोटी देता है उसी के घर में खाने को नहीं है. नीति निर्धारकों ने ये कैसी व्यवस्था दी है? ऐसे नीति निर्धारकों को धिक्कार है. फिल्म देखकर ऐसा महसूस किया जा सकता है. लोगों तक अगर आपकी फिल्म पहुंचती है तो उसका असर होता ही है और ऐसे विषयों पर फिल्में बननी भी चाहिए.

किसानों की आत्महत्या के विरोध में फिल्म इंडस्ट्री से जिस तरह से नाना पाटेकर सामने आए हैं, महाराष्ट्र का बड़ा मुद्दा होने के बावजूद दूसरे कलाकार उस तरह से सामने नहीं आए.

नहीं, कई लोग मदद के लिए आगे आए हैं. आमिर खान ने एक गांव को गोद लिया है. जिनके हाथ में जो है वे वैसा कर रहे हैं. हां, बड़े संगठन सामने नहीं आ रहे हैं. जैसे- प्रोड्यूसर्स गिल्ड है, आर्टिस्ट एसोसिएशन है, ये सामने नहीं आ रहे हैं. समाज में एक तरह का स्वार्थ घर कर गया है, जिसमें सिर्फ अपनी जेब भरने की मानसिकता है. इसमें राजनेता, नौकरशाह जैसे तमाम लोग शामिल हैं. भ्रष्टाचार सिस्टम का हिस्सा बन गया है. इस वजह से किसान आत्महत्या कर रहे हैं. उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता है. इन स्थितियों काे देखकर बहुत दुख होता है.

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आपने  ‘बैंडिट क्वीन’  जैसी फिल्म की है और अभी सेंसर बोर्ड की जो स्थिति है कि उसे तकरीबन हर फिल्म से आपत्ति है. फिल्म  ‘उड़ता पंजाब’ विवादों में है. आपको क्या लगता है आज के समय में ‘बैंडिट क्वीन’  रिलीज हो पाती?

नहीं हो पाती… बिल्कुल भी नहीं हो पाती. अगर बनती तो रिलीज नहीं हो पाती. उसकी तो शुरुआत ही गाली से होती है. ये सनसनी फैलाने के लिए नहीं किया गया था. एक औरत के साथ पूरा गांव रेप करता है. आप इसे देख हैरान होते हो, गुस्से से भर उठते हो. सेंसर बोर्ड को थोड़ा उदार होना पड़ेगा. ये एक रचनात्मक काम है. अगर हम बुराई दिखा रहे हैं तो इसलिए दिखा रहे हैं ताकि लोगों में इस बात की चेतना जगे कि ये बुराई मुझमें नहीं आनी चाहिए, मेरे समाज और शहर में नहीं आनी चाहिए. सेंसर बोर्ड को उस उद्देश्य के बारे में सोचना चाहिए कि फिल्म में कोई सीन या संवाद किसलिए रखा गया है. ‘उड़ता पंजाब’ में कट की बात करें तो आपको बताना चाहिए कि आप ये क्यों कर रहे हैं. वो दूसरे की संपत्ति है. पंजाब में इतना सब कुछ हो रहा है तो सामने आना चाहिए. यहां का युवा नशाखोर हो गया है! अगर ये बात ही फिल्म से हटा दी जाएगी तो फिल्म बनाने का उद्देश्य खत्म हो जाएगा. अगर शीर्षक से ‘पंजाब’ हटा दिया जाए तो किसकी बात हो रही है कैसे पता चलेगा. ये स्थितियां दुखद हैं.

‘वर्ष 1896 में पूना में जब प्लेग फैला था तो अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों का दमन शुरू कर दिया था. होता ये था कि जिस घर में प्लेग होता था उस घर को अंग्रेज खाली कराकर कब्जा कर लेते थे, यह दावा करते हुए कि इससे प्लेग आगे नहीं फैलेगा’

आप अपनी आने वाली फिल्म- ‘चापेकर बंधु’  और अन्ना हजारे पर एक फिल्म में राजनीतिक और ऐतिहासिक किरदारों में नजर आएंगे. इनके बारे में कुछ बताइए.

मेरी एक फिल्म आ रही है ‘चापेकर बंधु’ जिसमें मैं बाल गंगाधर तिलक का किरदार निभा रहा हूं. वर्ष 1896 में भारत में जब प्लेग फैला था तो अंग्रेजों ने लोगों का दमन शुरू कर दिया था. होता ये था कि जिस घर में प्लेग होता था उस घर को अंग्रेज खाली कराकर कब्जा कर लेते थे, यह दावा करते हुए कि इससे प्लेग आगे नहीं फैलेगा. अंग्रेजों की ओर से ये भारतीयों की संपत्तियां हड़पने की एक साजिश थी. उस वक्त ऐसा हो गया था कि जिस घर में प्लेग हो जाता था भारतीय डर के मारे बताते भी नहीं थे. इसके खिलाफ भारतीय क्रांतिकारी एकजुट हुए. तीन भाइयों- दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर और वासुदेव हरि चापेकर ने एक दल बनाया और पूना के प्लेग कमिश्नर डब्ल्यूसी रैंड की हत्या की साजिश रची गई. तीनों भाइयों ने मिलकर रैंड की हत्या कर दी. उसके बाद अंग्रेजों ने इन तीनों भाइयों को एक-एक कर फांसी दे दी. ये तीनों भाई अनसंग हीरो हैं, जिनके बारे में महाराष्ट्र तक में लोगों को कम जानकारी है. इस दृष्टिकोण से भी ये फिल्म बनाई गई है ताकि लोगों को चापेकर बंधुओं के बारे में पता चल सके. एक फिल्म ‘दशहरा’ आ रही है, जो बिहार के एक भ्रष्ट राजनेता की कहानी है. रावण का अंत दशहरा पर हुआ था. इसलिए इसे ये नाम दिया गया.

आपकी पृष्ठभूमि और अभिनय से जुड़ाव की कहानी क्या है?

मैं सागर में सातवीं कक्षा तक पढ़ा. मन में हमेशा ये रहा कि मुझे बड़ा आदमी बनना है इसलिए बड़े शहर में रहना और पढ़ना है. यही विचार मुझे दिल्ली ले आया. यहां आठवीं से स्नातक तक एक रिश्तेदार के यहां रहकर पढ़ाई की. इस दौरान सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहा. तो लोगों की तारीफें मिलनी शुरू हो गईं. लोग कहने लगे तुम्हें मुंबई जाना चाहिए, अभिनय करना चाहिए. जहां पढ़ाई करता था, उसके बगल में ही नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा स्थित था. इससे भी माहौल बना. थियेटर की ओर झुकाव होने लगा और मैंने एनएसडी का फॉर्म भर दिया. इसके बाद  मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

सागर से ही आशुतोष राणा और मुकेश तिवारी भी हैं. वे भी खलनायक के रूप में ही प्रसिद्ध हैं. सागर की मिट्टी में कुछ खास है क्या?

ये लोग मेरे बाद सागर से यहां आए. मुंबई पहुंचने तक मेरी तरह इनकी भी हीरो बनने की उम्र निकल चुकी थी. इसलिए इन्हें भी खलनायक का रोल ही मिला होगा. सागर की बात करें तो हम लोग बुंदेलखंडी हैं. वहां के पानी में जोश तो है. एक योद्धा होने की सोच हमेशा जेहन में रहती है. खलनायकों की तरह दादागीरी की बात नहीं है, ये स्वाभिमान की बात होती है. ये तो हमारे अंदर है. थोड़ा एक्स्ट्रा स्वाभिमान जिनके अंदर होता है तो वो दादागीरी में आ जाता है (हंसते हुए) तो जो दादागीरी कर रहा है वो है विलेन.

बातचीत के दौरान वर पक्ष को जब ये पता चला कि हमारा कोई बेटा नहीं तो उन्होंने फोन उठाना ही बंद कर दिया…

aapbitiIllustrationweb एक साथ दो तरह की दुनिया में जीने के लिए मैं अभिशप्त हूं. एक विवाह से पहले की दुनिया, जहां मेरा जन्म हुआ, पढ़ाई-लिखाई के साथ मेरा बचपन बीता और दूसरी यानी विवाह के बाद की दुनिया. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के एक छोटे-से कस्बे बहेड़ी में एक सुखी-संपन्न और समृद्ध व्यापारी परिवार में हुआ था, जहां मुझे हर सुख-सुविधा मिली हुई थी. मैं पढ़-लिख रही थी लेकिन पढ़ाई-लिखाई को लेकर परिवार का दृष्टिकोण बहुत पुरातन और संकीर्ण था. लड़काें को ज्यादा क्या पढ़ाना-लिखाना क्योंकि उन्हें तो विरासत में मिले व्यवसाय को संभालना है और लड़कियों को बस इतना पढ़ाना चाहिए कि किसी अच्छे घर में उनकी शादी हो जाए. यानी दोनों के लिए मैट्रिक या ग्रैजुएशन की शिक्षा के आगे कोई गुंजाइश नहीं थी. तब के समाज में पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन करना कम से कम किसी लड़की के लिए भारी पड़ सकता था. मैं पढ़ने-लिखने में न सिर्फ बहुत अच्छी थी बल्कि बहुत महत्वाकांक्षी भी थी. पढ़ाई ही मेरा सपना था. पारिवारिक विरोध के बावजूद मैंने एमए की पढ़ाई प्रथम श्रेणी में पूरी की. एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास होने के बाद परिवार के वे लोग जिन्होंने मेेरी उच्च शिक्षा का विरोध किया था वही गर्व के साथ पूरे कस्बे के लोगों को यह बात बता रहे थे. मैं थोड़ी जिद्दी भी थी और अपनी महत्वाकांक्षा को परवान चढ़ाने के लिए मैं यूपीएससी की परीक्षा में बैठ गई वह भी बिना किसी तैयारी के. परिवार के लोगों ने मेरा मजाक बनाते कहा- अब यह कलेक्टर-कमिश्नर बनकर रहेगी. होना-जाना कुछ नहीं था क्योंकि मेरी तो कोई तैयारी ही नहीं थी.

समाज के एक वर्ग की सोच मध्यकाल की है. ऐसी स्थिति में अगर कोई लड़की कुंवारी ही रहना पसंद करे तो हैरानी नहीं होगी

खैर, इसके बाद मेरी शादी करवाने को लेकर परिवार में बहस शुरू होने लगी. उच्च शिक्षा के लिए बेशक मैंने अपने परिवार से विद्रोह किया लेकिन शादी के लिए नहीं क्योंकि तब के परिवार और समाज में कुछ पारंपरिक मर्यादा के मूल्य बचे हुए थे. माता-पिता ही अपने बच्चों की शादी का निर्णय लिया करते थे, उनके भविष्य को ध्यान में रखते हुए मैंने शादी के लिए ‘हां’ कर दी. फिर अल्मोड़ा में मेरी शादी तय हुई और पहली दुनिया की मान-मर्यादा, गरिमा और सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए मैं शादी के बाद मैदान से एक पहाड़ी इलाके में पहुंच गई. सुखी-संपन्न घर-परिवार और अच्छा पति मिला. ससुराल में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. इसके बाद अपनी दोनों बेटियाें- मानसी और सांची को हमने खूब पढ़ाया-लिखाया ही नहीं बल्कि उन्हें इस काबिल भी बनाया कि हमें उन पर गर्व है. बड़ी बेटी मानसी दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस से बीएससी आॅनर्स और सेंट स्टीफेंस से एमएससी करने के बाद आईआईटी दिल्ली से भौतिक विज्ञान में पीएचडी कर रही है तो छोटी बेटी सांची अभी बीए एलएलबी आॅनर्स. अब मेरे सामने दूसरी दुनिया का भयावह चेहरा सामने आने वाला था, जिसे देखने के बाद मैं हैरान रह गई थी. पिछले कुछ दिनों से मैं मानसी की शादी के लिए कोशिश कर रही हूं. मेट्रिमोनियल कॉलम के अलावा कड़ी मशक्कत के बाद कई जगह बात हुई. पिछले दिनों एक वर पक्ष के माता-पिता ने जब मुझसे पूछा- ‘क्या आपका कोई बेटा नहीं है?’ मेरे ‘न’ कहने पर उन्होंने फिर बातचीत ही नहीं की. यही नहीं, उन लोगों ने अपना फोन तक बंद कर दिया. मुझे तब और हैरानी हुई जब एक प्रतिष्ठित अखबार के वैवाहिक कॉलम में देखा कि एक वर पक्ष ने यह शर्त रखी है कि लड़की का भाई होना जरूरी है.’ यह सीधे-सीधे हमारे संविधान पर हमला था. यह सोचकर मैं परेशान हूं कि अब जो दुनिया मेरे सामने है उसकी मानसिकता तेजी से किस तरह बदल गई है. यह दूसरी दुनिया का एक डरावना सच है, जिससे मेरा सामना हुआ. क्या केवल बेटियों की मां होना गुनाह है? इस पर तो किसी का वश नहीं, यह तो प्रकृति का नियम है. यह स्थिति चिंताजनक है. सिर्फ मेरे लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए क्योंकि इसमें वर्ग या वर्ण के भीतर भी एक संकीर्ण और कुंठित ऐसा समाज है जिसकी मानसिकता में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. वे उसे परिवार में लड़का होने के वजन पर तौलते हैं. क्या यह बताने की जरूरत है कि 21वीं सदी के एक वर्ग की मानसिकता मध्यकाल की है? मुझे हैरानी नहीं होगी अगर कोई लड़की ऐसी स्थिति में आजीवन कुंवारी ही रहना पसंद करे. 

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कॉलेज में प्रोफेसर हैं)

इस क्रिकेट के साथ खेल क्यों ?

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वर्ष 2012 में भारत और पाकिस्तान के बीच बंगलुरु में पहले ब्लाइंड टी-20 विश्वकप का फाइनल खेला जा रहा था. पहले बल्लेबाजी करते हुए भारत के तीन बल्लेबाज 42 रन तक पैवेलियन लौट चुके थे. यहां से केतनभाई पटेल ने भारतीय पारी को संभाला और 43 गेंदों पर 98 रन की पारी खेलकर टीम के स्कोर को 258 रन तक पहुंचाया. यह मैच भारत ने जीता और विश्वकप पर कब्जा जमा लिया.

उस समय तक ब्लाइंड क्रिकेट में पाकिस्तान को अजेय माना जाता था. लेकिन इसके बाद से भारत ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया. दो साल बाद 2014 में एकदिवसीय विश्वकप के फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को हराकर पहली बार  यह खिताब भी अपने नाम कर लिया. इसके बाद एशिया कप भी जीता. भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट टीम विश्व की एकमात्र टीम बन गई जिसने ब्लाइंड क्रिकेट के तीनों बड़े खिताब अपनी झोली में डाले. इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने के बाद भी आज भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट विषम आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहा है. पैसे और संसाधनों के अभाव में खिलाड़ी प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे हैं. प्रैक्टिस करना तो दूर कई खिलाड़ियों के पास घर चलाने तक के पैसे नहीं हैं.

टी-20 विश्वकप में जीत के हीरो केतनभाई पटेल 2006 से भारतीय टीम में ‘बी1’ श्रेणी के खिलाड़ी हैं. तीनों ही बड़ी जीतों के समय वे टीम का हिस्सा थे. गुजरात के वलसाड जिले के रहने वाले केतनभाई कुछ समय पहले तक एक स्थानीय कंपनी में पैकिंग का काम किया करते थे. उन्हें महज 50 रुपये प्रतिदिन का मेहनताना मिलता था. दिसंबर 2014 में जब भारतीय टीम एकदिवसीय विश्वकप खेलने दक्षिण अफ्रीका गई तब उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी थी. केतन बताते हैं, ‘विश्वकप जीतकर जब हम वापस लौटे तो हमारी उपलब्धि को देश भर में सराहा गया. भारत सरकार के खेल मंत्रालय ने पांच लाख रुपये और सामाजिक न्याय मंत्रालय ने दो लाख रुपये का इनाम दिया. वहीं गुजरात सरकार ने भी अपने राज्य के खिलाड़ियों को 10 लाख रुपये नकद और सरकारी नौकरी देने की घोषणा की. लेकिन गुजरात सरकार से अब तक हमें न तो कोई राशि मिली और न नौकरी. हम अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं, कम से कम नौकरी तो मिल जाए. अगर नौकरी न मिली तो फिर से वही पैकिंग वाला काम करना पड़ेगा.’ कुछ ऐसे ही हालात केतनभाई के साथी खिलाड़ी गुजरात के ही गणेश मुंडकर के हैं. वे भी दिहाड़ी मजदूर हैं.

इनके विपरीत मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के सोनू गोलकर इंडियन ओवरसीज बैंक में काम करते हैं. लगभग डेढ़ दशक तक जोनल क्रिकेट खेलने के बाद पिछले वर्ष इंग्लैंड दौरे के लिए पहली बार उनका भारतीय टीम में चयन हुआ. वे बताते हैं, ‘क्रिकेट से कोई आय नहीं होती बल्कि जेब से निवेश ही हो जाता है. हमारे लिए न बुनियादी सुविधाएं हैं, न संसाधन और न हमें आर्थिक सहयोग मिलता है. हमें अपनी क्रिकेट किट खरीदनी होती है और सारे संसाधन खुद ही जुटाने पड़ते हैं. जब कुछ बड़े टूर्नामेंट होते हैं तभी बोर्ड अफोर्ड कर पाता है. वरना अगर हम जोनल स्तर पर खेल रहे हैं तो आना-जाना सब हमें ही इंतजाम करना होता है. रोजमर्रा के खर्चों में कटौती कर पैसा बचाकर रखते हैं यह सोचकर कि क्रिकेट खेल रहे हैं तो जरूरत पड़ने पर लगाना पड़ेगा.’

ब्लाइंड क्रिकेटरों को मिलने वाले मेहनताने की बात की जाए तो जब उनकी टीम कोई प्रतिस्पर्धा जीतती है तो उसमें मिलने वाली इनामी राशि ही उनका मेहनताना होती है जिसे वे आपस में बांट लेते हैं. जबकि कुछ समय पहले तक तो जीतने वाली टीम को कोई राशि नहीं मिलती थी

कुछ ऐसा ही हाल है टीम के कप्तान आंध्र प्रदेश के रहने वाले अजय रेड्डी का, जो स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद में काम करते हैं, वे बमुश्किल इतनी पगार पाते हैं कि अपने बीवी-बच्चों का पेट पाल सकें. वे बताते हैं, ‘हम पेशेवर क्रिकेटर नहीं हैं. खेल से हमको कोई कमाई नहीं होती. उल्टा हमें जेब से लगाना पड़ता है. मेरे एक बैट का खर्च 15 हजार रुपये आता है और जूतों का 8 से 10 हजार रुपये. इतनी मेरी तनख्वाह भी नहीं है. कम से कम छह महीने तक घर खर्च में कटौती करते हैं तब जाकर इतने पैसों का इंतजाम हो पाता है. बावजूद इसके क्रिकेट खेल रहा हूं तो सिर्फ इसलिए कि इस खेल से मुझे प्यार है, क्रिकेट के लिए जुनून है, देश गर्व कर सके ऐसा कुछ करने की इच्छा है.’

छठी कक्षा तक अजय की आंखें सामान्य थीं फिर उन्हें दिखना बंद हो गया तो ब्लाइंड स्कूल में उनका दाखिला करा दिया गया. वे क्रिकेट को बहुत पसंद करते थे और देश के लिए खेलना चाहते थे लेकिन दुर्भाग्य कि वे अपनी आंखें खो चुके थे. स्कूल में उन्होंने ब्लाइंड क्रिकेट के बारे में जाना. ऐसा सुना कि पाकिस्तान इस खेल का चैंपियन है. दो बार से वही विश्वकप जीत रहा है. यहां से उन्होंने यह ठानकर ब्लाइंड क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया कि भारत के लिए विश्वकप लाना है. ‘बी 2’ श्रेणी के खिलाड़ी अजय बताते हैं, ‘विश्वकप जीतकर बचपन का सपना तो पूरा कर लिया पर हमें कभी भी वो सम्मान नहीं मिला जिसके हम हकदार हैं. एक ओर जहां सामान्य क्रिकेटरों को खेलने के एवज में करोड़ों रुपये मिलते हैं तो वहीं हम खुद से पैसा लगाकर खेलते हैं. हमारे क्रिकेट में सामान्य क्रिकेट से ज्यादा एकाग्रता की जरूरत होती है. इसके अलावा संसाधनों का इतना अभाव है कि हम किसी भी बड़े टूर्नामेंट से पहले सिर्फ 15-20 दिन प्रैक्टिस कर पाते हैं. वहीं पाकिस्तान तीन महीने तक प्रैक्टिस कर मैदान में उतरता है. वहां ब्लाइंड क्रिकेट को बहुत समर्थन मिलता है. उनके लिए क्रिकेट अकादमी हैं. खिलाड़ियों को पगार भी दी जाती है. सरकार और मुख्य क्रिकेट बोर्ड पीसीबी का उन्हें पूरा समर्थन है. पर हमें न तो सरकार से मदद मिलती है और न बीसीसीआई हमें मान्यता दे रहा है.’

ओडिशा के जफर इकबाल भी इन सबसे जुदा नहीं हैं. वे 2006 से भारतीय टीम का हिस्सा हैं. ‘बी 1’ श्रेणी के खिलाड़ी जफर बताते हैं, ‘रोज प्रैक्टिस का मौका नहीं मिलता यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है क्योंकि ब्लाइंड क्रिकेट में कोई क्रिकेट अकादमी नहीं है. एक अकादमी अभी खुली है जो केरल में है तो मैं केरल तो जा नहीं सकता. अगर प्रैक्टिस करनी हो तो 500 रुपये एक दिन का खर्च करना पड़ता है वो भी तब जब ग्राउंड खाली मिल जाए. पहले ग्राउंड के लिए आग्रह करो फिर अकेले तो प्रैक्टिस कर नहीं सकता इसलिए लड़के जुटाने पड़ते हैं, उन्हें काॅलेज से लाओ और वापस पहुंचाओ. इसलिए जब कोई जरूरी सीरीज खेलनी होती है तभी प्रैक्टिस करते हैं. सबसे बड़ी समस्या यही है कि सभी राज्यों में कम से कम एक ब्लाइंड क्रिकेट अकादमी होनी चाहिए, जिससे इस क्रिकेट को बढ़ावा मिले. आप सामान्य क्रिकेट देखो, जगह-जगह अकादमी हैं. पर ब्लाइंड क्रिकेट में क्रिकेट क्लब और अकादमी कहीं नहीं हैं. जिससे हम भी प्रैक्टिस कर सकें. जब प्रैक्टिस ही नहीं होगी तो नए लड़के कैसे निकलेंगे?’

साथ ही वे बताते हैं कि उनके क्रिकेट को इतना बढ़ावा नहीं है कि वे इसे अपना पेशा बना सकें. जफर कहते हैं, ‘जब पेशा समझूंगा तभी रोज प्रैक्टिस कर सकूंगा. अभी तो स्थिति यह है कि जब क्रिकेट के टूर पर कहीं जाते हैं तो नौकरी से छुट्टी का पैसा कट जाता है. ऐसी परिस्थितियों में आखिर कब तक हम खेल पाएंगे और नई प्रतिभाएं कैसे सामने आएंगी?’ अगर ब्लाइंड क्रिकेटरों को मिलने वाले मेहनताने की बात की जाए तो जब उनकी टीम कोई प्रतिस्पर्धा में जीतती है तो उसमें मिलने वाली इनामी राशि ही उनका मेहनताना होती है जिसे वे आपस में बांट लेते हैं. लेकिन यह राशि भी बेहद मामूली होती है. जबकि कुछ समय पहले तक तो जीतने वाली टीम को कोई राशि मिलती भी नहीं थी.

विश्वकप विजेता टीम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुलाकात की थी. बावजूद इसके ब्लाइंड क्रिकेट के आर्थिक हालात में कोई सुधार नहीं आया
विश्वकप विजेता टीम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुलाकात की थी. बावजूद इसके ब्लाइंड क्रिकेट के आर्थिक हालात में कोई सुधार नहीं आया

देश में ब्लाइंड क्रिकेट का संचालन करने वाला बंगलुरु स्थित क्रिकेट एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड इन इंडिया (कैबी) भी आर्थिक रूप से उतना सक्षम नहीं है कि खिलड़ियों को खेलने के एवज में कोई आर्थिक राशि दे सके और न ही उसके पास इतने संसाधन हैं कि वह खिलाड़ियों की प्रैक्टिस के लिए सुविधाएं जुता सके. वह स्वयं उस ‘समर्थनम ट्रस्ट’ के सहयोग से चल रहा है जो दान पर आश्रित है. वह इतना भी मुश्किल से जुटा पाता है कि टीम को विदेशी दौरों पर भेज सके और देश भर में टीम चयन की प्रक्रिया चला सके.

कैबी के कोषाध्यक्ष ई. जॉन डेविड बताते हैं, ‘सभी खिलाड़ी सामान्य पृष्ठभूमि के हैं. कोई छात्र है तो किसी की बैंक में नौकरी है तो कोई खेती करता है तो कोई मजदूर है. क्रिकेट खेलकर इन्हें एक रुपया भी हासिल नहीं होता. हम उन्हें पैसा नहीं दे पाते, वे बस खेल के प्रति अपने जुनून और देशप्रेम की खातिर खेलते हैं. अगर उन्हें कुछ पैसा मिलता भी है तो वो बोनस मान लीजिए. वहीं इन लोगों को काम से छुट्टी मुश्किल से ही मिल पाती है, इसलिए हमें चयन का ट्रायल भी उस हिसाब से रखना पड़ता है कि ये लोग आ सकें. विश्वकप के समय ही खिलाड़ियों को लगभग 35 दिन देने पड़े थे. इतनी विषमताओं के बावजूद उनका प्रदर्शन विश्वस्तरीय से भी ऊंचा है.’ खिलाड़ी ही नहीं टीम के कोच सजु कुमार भी टीम को निःशुल्क प्रशिक्षण देते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा भुगतान यही है कि खिलाड़ी देश के लिए खेलकर सम्मान ला सकें और मैं उसमें भागीदार बन सकूं. हमें किसी की मदद नहीं मिलती. तब भी हम अपना सब कुछ खेल में झोंक देते हैं. मैदान पर अपना 100 नहीं 150 प्रतिशत देते हैं और आगे भी देते रहेंगे. देश के सम्मान के लिए खेलते रहेंगे और बार-बार जश्न के मौके लेकर आएंगे, फिर आर्थिक हालात साथ दें या न दें.’

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जानिए ब्लाइंड क्रिकेट के बारे में

टीम संयोजन

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ब्लाइंड क्रिकेट में खिलाड़ियों की तीन श्रेणियां होती हैं;

  • बी1 – वे खिलाड़ी जो बिल्कुल नहीं देख सकते.
  • बी2 – वे खिलाड़ी जो 3 मीटर तक देख सकते हैं.
  • बी3 – वे खिलाड़ी जो 6 मीटर तक देख सकते हैं.

ऐसा नियम है कि 11 खिलाड़ियों की एक टीम में कम से कम 4 बी 1 श्रेणी के खिलाड़ी अनिवार्य हैं, 3 खिलाड़ी बी2 श्रेणी से होने चाहिए और बी3 श्रेणी के अधिकतम 4 खिलाड़ी हो सकते हैं.

खेल के नियम

  • खिलाड़ियों की  पहचान उनकी दाहिनी कलाई पर पहने गए बैंड से की जाती है. ‘बी1’ श्रेणी के खिलाड़ी मैदान पर सफेद रिस्ट बैंड पहनकर उतरते हैं, वहीं बी2 लाल और बी3 नीला. साथ ही बी1 खिलाड़ी काला चश्मा पहनकर उतरते हैं जो पूरी तरह से अपारदर्शी होता है. नियमानुसार इसे अंपायर की अनुमति के बगैर छुआ भी नहीं जा सकता.
  • ब्लाइंड क्रिकेट में बारहवें खिलाड़ी के तौर पर हर श्रेणी का एक खिलाड़ी रखा जाता है. मतलब तीन खिलाड़ी बारहवें खिलाड़ी के तौर पर खेलते हैं. कुछ इस तरह समझिए कि अगर कोई बी3 श्रेणी का खिलाड़ी मैदान के बाहर जाता है या बी1 श्रेणी का मैदान के बाहर जाता है तो समान श्रेणी का खिलाड़ी मैदान में उसकी जगह लेता है.
  • खेल में दो अंपायर और एक मैच रेफरी का प्रावधान है.
  • बी1 खिलाड़ी को बल्लेबाजी के दौरान रनर उपलब्ध कराया जाता है जबकि बी2 खिलाड़ी के पास विकल्प होता है कि वह चाहे तो रनर ले ले. लेकिन जो खिलाड़ी एक बार रनर ले लेता है तो वह किसी और के लिए रनर नहीं बन सकता.
  • रनर के नाम अंपायर को मैच शुरू होने से पहले देने होते हैं.
  • बी1 बल्लेबाज द्वारा बनाए गए हर रन को 2 रन के बराबर गिना जाता है.
  • क्षेत्ररक्षण के दौरान बी1 द्वारा एक बाउंस पर पकड़ी गई गेंद को कैच माना जाता है और बल्लेबाज आउट हो जाता है.
  • बॉलिंग अंडरआर्म की जाती है.
  • गेंद का बल्लेबाज तक पहुंचने से पहले पिच के बीच एक बाउंस लेना अनिवार्य है, अगर ऐसा नहीं होता तो वह नो बॉल मानी जाती है.
  • गेंद करने से पहले गेंदबाज बल्लेबाज से पूछता है ‘रेडी’, जब बल्लेबाज कहता है ‘यस’ तब वह ‘प्ले’ कहकर गेंद बल्लेबाज की ओर फेंक देता है.
  • गेंदबाजी के दौरान गेंदबाज को नॉन-स्ट्राइकर एंड का स्टंप छूने की इजाजत होती है ताकि वह अंदाजा लगा सके कि उसी लाइन में दूसरे स्टंप पर गेंदबाजी करनी है.
  • गेंद कठोर प्लास्टिक की बनी होती है जिसके अंदर छर्रे भरे होते हैं जिससे गेंद आवाज करती है. उसी आवाज के सहारे कानों से यह खेल खेला जाता है.
  • स्टंप के ऊपर गिल्लियां नहीं होतीं. जबकि स्टंप धातु के बनाए जाते हैं ताकि गेंद टकराने पर वे भी आवाज करें.
  • विकेटकीपर बी2 या बी3 श्रेणी का होता है. विकेटकीपर का सबसे अहम रोल होता है. गेंदबाजी के पहले वह बी1 खिलाड़ी को ताली देकर बताता है कि उसे किस लाइन में गेंदबाजी करनी है. वहीं बल्लेबाज द्वारा शॉट खेले जाने पर विकेटकीपर क्षेत्ररक्षण कर रहे खिलाड़ियों को बताता है कि शॉट किस दिशा में खेला गया है. उसके बाद खिलाड़ी गेंद की आवाज के सहारे उसे पकड़ लेते हैं.
  • पिच 22 यार्ड लंबी और 3 यार्ड चौड़ी ही होती है.
  • बाउंड्री विकेट से कम से कम 45 यार्ड और अधिकतम 50 यार्ड की होती है.
  • कुल ओवरों का 40 प्रतिशत बी1 गेंदबाजों से कराया जाना अनिवार्य होता है.
  • बाकी सभी वही नियम लागू होते हैं जो क्रिकेट के लिए एमसीसी द्वारा बनाए गए हैं.[/symple_box]

वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल, जिसका गठन 1996 में भारत में ही हुआ था, वह भी इतना आर्थिक सक्षम नहीं कि अपने सदस्य देशों की आर्थिक मदद कर सके. सच तो यह है कि जो भी देश मेजबानी करता है वही विजेता को दी जाने वाली इनामी राशि का इंतजाम भी करता है. भारत में ब्लाइंड क्रिकेट के ये हालात हाल ही में पैदा हुए हों ऐसा भी नहीं है. इसके ढाई दशक पुराने इतिहास पर गौर करें तो यह शुरू से ही उपेक्षा का शिकार रहा है. 90 के दशक के शुरुआती सालों में देश में यह खेल चलन में आया. 1990 में पहला नेशनल ब्लाइंड टूर्नामेंट खेला गया. 1998 में भारतीय टीम ने पहला अंतरराष्ट्रीय मैच खेला. उस समय देश में ब्लाइंड क्रिकेट को संभालने वाली संस्था दिल्ली स्थित एसोसिएशन फॉर क्रिकेट फॉर द ब्लाइंड इन इंडिया (एसीबीआई) हुआ करती थी. कहीं से कोई आर्थिक मदद न मिलने के कारण 2008 आते-आते ब्लाइंड किक्रेट अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगा.

समर्थनम ट्रस्ट के फाउंडर मैनेजिंग ट्रस्टी और कैबी के सचिव महांतेश जी. बताते हैं, ‘तब ब्लाइंड क्रिकेट मृतावस्था में था. इंग्लैंड से भारतीय टीम को खेलने बुलावा आया था पर एसीबीआई की हालत ऐसी नहीं थी कि वह टीम भेज सके. उस समय हमारे पास देश के दक्षिणी राज्यों के ब्लाइंड क्रिकेट की बागडोर थी. उन्होंने देश भर में ब्लाइंड क्रिकेट को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी भी हमें सौंप दी. हमने टीम भेजी और 2010 में कैबी का गठन किया. हम तभी से प्रयासरत हैं कि ब्लाइंड क्रिकेट को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला सकें और खिलाड़ियों के लिए जरूरी संसाधन जुटाकर उन्हें खेलने का माहौल प्रदान कर सकें. फंड की समस्या तो अभी भी है. समर्थनम पैरेंट बॉडी है, जब तक कैबी आत्मनिर्भर नहीं होता है, तब तक समर्थनम सहायता कर रहा है और टूर्नामेंट प्रायोजित कर रहा है. पिछली बार जब दक्षिण अफ्रीका गए तब जरूर सरकारी मदद मिल गई थी वरना बहुत दिक्कत होती. लेकिन यह मदद स्थायी नहीं है. अभी बहुत सहयोग चाहिए. विशेषकर खिलाड़ियों के लिए आर्थिक सहयोग. वे बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में खेलते हैं.’

ऐसी ही एक कहानी वेंकटेश की भी है जिन्होंने अपने क्रिकेट के जुनून के चलते पढ़ाई को कुर्बान कर दिया और आज महज पांच हजार रुपये मासिक तनख्वाह पर ठेका कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे हैं. इंटर के बाद उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए एक प्रवेश परीक्षा देनी थी लेकिन परीक्षा और राष्ट्रीय टीम में चयन की तारीख एक ही दिन पड़ गई. ऐसे में उन्होंने क्रिकेट को चुना. बाद में उनके पिता की तबीयत बिगड़ गई और परिवार बिखर गया. फिर वे आगे की पढ़ाई के बारे में सोच भी नहीं सके और घर-परिवार की जिम्मेदारी उठाने में लग गए. पांच हजार रुपये की मामूली तनख्वाह में वे अपना घर चलाते है और जब क्रिकेट खेलने जाते हैं तो इस तनख्वाह से भी हाथ धोना पड़ता है.

पिछले दिनों कैबी को एक चंदा जुटाने वाली वेबसाइट पर विश्वकप की तैयारियों के लिए चंदा मांगते देखा गया. कैबी ने देश भर में चयन प्रक्रिया चलाने, खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म, किट आदि के लिए पचास लाख रुपये चंदे की मांग की. लेकिन बस ढाई लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हो सका

टीम के कप्तान अजय बताते हैं, ‘टीम का लगभग हर खिलाड़ी ऐसे ही बुरे हालात में है. केतन और गणेश दिहाड़ी पर काम करते हैं. रोज कमाते हैं तब घर चलता है. एक दिन न कमाएं तो पेट भरना भी मुश्किल हो जाता है. पर क्रिकेट खेलने के लिए वे एक महीना घर छोड़कर आते हैं, वो भी पैसा उधार लेकर. हमारा खेल कानों से खेला जाता है, इसलिए मानसिक एकाग्रता की बहुत जरूरत होती है. लेकिन हर वक्त दिमाग में यही रहता है कि घर पर लोग कैसे होंगे. खाना भी खा रहे होंगे या नहीं? बस जब मैदान में उतरते हैं तो यह सोचकर कि बाहर का बिल्कुल न सोचें, बाहर का सोचा तो खेल नहीं पाएंगे. मैच के बाद शाम को जब खाली समय मिलता है तब परिवार का हाल जानते हैं. बहुत मानसिक दबाव होता है हम पर जो हमारा ध्यान खेल से भटकाता है. लेकिन तब भी हम जब मैदान पर उतरते हैं तो ट्राफी लेकर ही आते हैं.’ वे पूछते हैं, ‘सामान्य क्रिकेटरों को इतना पैसा क्यों दिया जाता है? सिर्फ इसलिए कि वे चिंतामुक्त होकर पूरी एकाग्रता से खेल सकें. वो हम जैसे हालात का सामना नहीं करते. हमें ज्यादा नहीं बस खेल कोटे से एक नौकरी दे दी जाए और एक घर तो हम पूरा ध्यान खेल पर लगाकर और भी अच्छा कर सकेंगे और ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वह खेलों को आगे बढ़ाए.’

इस सबके बीच केंद्र में नई सरकार का गठन ब्लाइंड क्रिकेट के लिए उम्मीद की एक नई किरण लेकर आया. टीम जब विश्वकप खेलने दक्षिण अफ्रीका जा रही थी तो भारत सरकार के सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा कैबी को 25 लाख रुपये की सहायता राशि स्वीकृत की गई. साथ ही टीम के विजेता बनकर वापस लौटने पर देश के प्रधानमंत्री ने टीम के साथ मुलाकात की और भारत सरकार के खेल मंत्रालय व सामाजिक न्याय मंत्रालय की ओर से विजेता टीम के हर खिलाड़ी को सात लाख रुपये की इनामी राशि दी गई. हालांकि यह राशि भी ब्लाइंड क्रिकेट की तस्वीर बदलने के लिए काफी नहीं है. महांतेश के अनुसार कैबी कम से कम भी खर्च करता है तो उसका साल भर का बजट डेढ़ से दो करोड़ रुपये बैठता है. इसमें भी खिलाड़ियों की फीस शामिल नहीं है. वहीं एक अन्य समस्या यह भी है कि सरकार से प्राप्त सहायता राशि न तो स्थायी है और न तुरंत मिलती है.

डेविड बताते हैं, ‘पहले हमें प्रस्ताव मंत्रालय भेजना पड़ता है. वहां से स्वीकृति मिलने के बाद यह राशि हमें केंद्रीय बजट के बाद मिलती है. तब तक हमें यहां-वहां से फंड जुटाकर या उधार लेकर काम चलाना पड़ता है.’ एक वाकया बताते हुए वे कहते हैं, ‘हमने नवंबर 2014 में विश्वकप में शामिल होने के लिए सहायता राशि का प्रस्ताव बनाकर सामाजिक न्याय मंत्रालय को भेजा था. 70 लाख का प्रस्ताव था, पर स्वीकृत 25 लाख रुपये हुए. पर यह पैसा तत्काल नहीं मिला. इसलिए टीम जब दक्षिण अफ्रीका जा रही थी तब हमारे पास एजेंट से अपने टिकट और पासपोर्ट लेने तक के पैसे नहीं थे. तब हमने और कुछ दोस्तों ने अपने-अपने क्रेडिट कार्डों से भुगतान किया और अफ्रीका पहुंचे. जून में हमें मंत्रालय से स्वीकृत सहायता राशि प्राप्त हुई. अगर हमें सरकार से मान्यता मिल जाए तो हमारे लिए बजट में एक स्थायी प्रावधान हो जाएगा. हमें इस तरह भटकना नहीं पड़ेगा और समय पर पैसा मिलता रहेगा.’ इन्हीं सब कारणों के चलते पिछले दिनों कैबी को एक चंदा जुटाने वाली वेबसाइट पर इसी साल दिसंबर में भारत में प्रस्तावित टी-20 विश्वकप की तैयारियों के लिए चंदा मांगते देखा गया. लगभग चार महीने चले इस अभियान में कैबी ने देश की जनता से खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म, किट, यात्रा, क्रिकेट कैंप लगाने और देश भर में चयन प्रक्रिया चलाने के लिए 50,40,000 रुपये चंदे की मांग की थी. लेकिन बस 2,51,717 रुपये का चंदा जमा हो सका.

हालांकि 2014 की विश्वकप जीत के बाद ब्लाइंड क्रिकेट टीम को मिली प्रसिद्धी से परिस्थितियां थोड़ी सुधरी हैं लेकिन बदली नहीं हैं. सरकार से मिली सात लाख रुपये इनामी राशि से कई खिलाड़ियों को काफी मदद मिली है. वहीं डेविड बताते हैं, ‘इनामी राशि पाने वाले ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिनके पास खाने के लिए तो दूर चाय पीने तक के पैसे नहीं थे. कई आंशिक अंधे थे और मजदूरी करते थे. ऐसे ही एक खिलाड़ी फरहान को केरल सरकार ने नौकरी और घर दिया है. जब फरहान को इनामी राशि मिली, उस समय उनकी बहन की शादी नजदीक थी और उनके पास शादी कराने तक के पैसे नहीं थे. लेकिन उनके लिए दोहरी खुशी की बात यह रही कि पूरे समुदाय ने तब उनकी मदद की और वे बहन की शादी धूमधाम से  करा सके. वहीं कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य के हर खिलाड़ी को दस लाख रुपये दिए हैं. झारखंड सरकार ने भी हाल ही में गोलू कुमार को एक लाख रुपये की राशि दी है और भविष्य में खेल कोटे के तहत नौकरी देने का आश्वासन दिया है. वह अभी इंटर का छात्र है. इससे पता चल रहा है कि ब्लाइंड क्रिकेट को भी पहचान मिल रही है.’

वेंकटेश ने क्रिकेट के जुनून के चलते पढ़ाई कुर्बान कर दी. पढ़ाई के लिए एक प्रवेश परीक्षा देनी थी लेकिन परीक्षा और राष्ट्रीय टीम में चयन की तारीख एक ही दिन पड़ गई. ऐसे में उन्होंने क्रिकेट को चुना. बाद में उनके पिता की तबीयत बिगड़ गई और वे आगे की पढ़ाई के बारे में सोच भी नहीं सके 

दूसरी ओर विभिन्न राज्य क्रिकेट एसोसिएशनों से भी कैबी को थोड़ी-बहुत सहायता मिलने लगी है. कैबी के अनुसार कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन  ने खेलने के लिए स्टेडियम दे दिया. केरल क्रिकेट एसोसिएशन ने भी मैदान एक हफ्ते के लिए दे दिया था, जिसका कोई शुल्क भी नहीं लिया. उस मैदान का एक दिन का किराया पांच लाख रुपये है. कोलकाता बोर्ड से भी हमें मदद मिली. वहीं आंध्र प्रदेश क्रिकेट बोर्ड ने टीम के इंग्लैंड दौरे का हवाई किराया दिया. ओडिशा क्रिकेट एसोसिएशन ने भी स्टेडियम दिया.

अगर दूसरे देशों की बात करें तो वहां ब्लाइंड क्रिकेट को उनके देश के मुख्य क्रिकेट बोर्ड से पूरा समर्थन मिलता है. पर भारत में बीसीसीआई से कैबी को किसी भी प्रकार की कोई सहायता नहीं मिलती. इस पर महांतेश कहते हैं, ‘2012 में विश्वकप जीतने के बाद हमारी मुलाकात तत्कालीन बोर्ड अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन से हुई थी. तब उन्होंने हमें मान्यता देने का आश्वासन दिया था. इसके बाद 2014 विश्वकप के बाद अनुराग ठाकुर भी हमसे मिले, उन्होंने हमारी उपलब्धियां जानीं और हमारी मदद करने का यकीन दिलाया. जब वे बीसीसीआई में सचिव के पद पर थे तब उन्होंने बोर्ड की वर्किंग कमेटी में भी यह मुद्दा उठाया था, पर तत्कालीन बोर्ड अध्यक्ष जगमोहन डालमिया ने इसे बेतुका बताकर खारिज कर दिया. आज अनुराग ठाकुर अध्यक्ष हैं तो हमें पूरी उम्मीद है कि वे हमारे लिए कुछ करेंगे.’ समर्थनम के जनसंपर्क अधिकारी सतीश के. कहते हैं, ‘हमें बीसीसीआई से कोई बड़ी रकम नहीं चाहिए. हमारा गुजारा तो उतने पैसों में ही हो जाएगा जितना कि शायद आईपीएल की एक पार्टी में खर्च हो जाता है या फिर बोर्ड की एक एजीएम में.’ डेविड कहते हैं, ‘जैसे राज्य क्रिकेट एसोसिएशन हमारी मदद कर रहे हैं वैसे ही मान्यता न मिलने तक अगर कोई छोटी-मोटी मदद बोर्ड से मिल जाए तो काफी राहत मिले. पर बोर्ड अधिकारियों का कहना है कि उन्हें हमें दस करोड़ की राशि देने में भी कोई आपत्ति नहीं है, पर वे बोर्ड के संविधान और नियमावली से बंधे हुए हैं.’

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महांतेश कहते हैं, ‘अगर हमें बोर्ड का लोगो मिलता है तो हमारी बहुत-सी समस्याएं हल हो सकती हैं. सालाना अनुदान मिलने के साथ-साथ खेलने के लिए हमें मैदान उपलब्ध होंगे तो वहीं बीसीसीआई का नाम हमें स्पाॅन्सरशिप दिलाने में भी मदद करेगा. इस तरह हम आत्मनिर्भर बन सकेंगे. अपने खिलाड़ियों को भी आर्थिक मदद दे सकेंगे. आज स्पाॅन्सरशिप के लिए जाते हैं तो पहले यही पूछा जाता है कि बीसीसीआई से क्या आपको मान्यता प्राप्त है.’ वहीं सरकारी रुख पर उनका कहना है, ‘खेल मंत्री सर्वानंद सोनोवाल का रवैया हमेशा हमारे प्रति सहयोगात्मक रहा, वरना पिछली सरकार के खेल मंत्री अजय माकन ने तो कभी हमसे मिलने तक का समय नहीं निकाला था. सारी गड़बड़ी नौकरशाही के स्तर पर है. लालफीताशाही के चलते हमारी फाइल ही आगे नहीं बढ़ाई जाती. बार-बार नई शर्तें जोड़कर हमें चक्कर कटवाए जाते हैं. कभी हमसे कहा जाता है कि हम सबडिसेबल पैरास्पोर्ट से जुड़कर आएं तो कभी कहा जाता है कि क्रिकेट पैरास्पोर्ट का हिस्सा नहीं है.’

कैबी के पदाधिकारियों के अनुसार जरूर बीसीसीआई और वर्तमान सरकार का रुख अब तक ब्लाइंड क्रिकेट को लेकर सकारात्मक रहा हो लेकिन देखा जाए तो बावजूद इसके अब तक परिणाम नहीं आए हैं. सोचने वाली बात यह है कि जो बीसीसीआई अपने संविधान को अपनी सहूलियत के अनुसार वक्त-बेवक्त बदलता रहा है, उसके पदाधिकारी ब्लाइंड क्रिकेट की मदद करने में संविधान की दुहाई दे रहे हैं. वहीं विश्वविजेता टीम के साथ फोटो खिंचाने वाले और ‘मन की बात’ में ब्लाइंड क्रिकेटरों के कसीदे पढ़ने वाले देश के प्रधानमंत्री, जो अक्सर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, उनके कानों में इस बात का न पहुंचना कि विश्वविजेता टीम को अगला विश्वकप खेलने के लिए चंदा इकट्ठा करना पड़ रहा है, आश्चर्यचकित करता है. जफर कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने हमें बुलाया, हमसे मिले, ‘मन की बात’ में हमारा जिक्र किया, अच्छा तो लगा. लेकिन इतने से या सात लाख रुपये देने से सारा मसला हल नहीं होता. मुझे सात लाख दे दिए पर मैं हमेशा तो टीम में नहीं खेलता रहूंगा न. जब तक प्रदर्शन कर रहा हूं टीम में हूं. पर जो आने वाली पीढ़ी है वो कैसे आएगी? उसे तो कोई सुविधा ही नहीं है. वे हर दिन खेलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हमारी तरह उन्हें तब कुछ मिलेगा जब टीम में जाएंगे. लेकिन जाएंगे कैसे! उनके पास तो जाने के लिए न कोई सुविधा है और न संसाधन. इस बारे में प्रधानमंत्री को सोचना चाहिए.’

‘हम बिन पैसों के देश का झंडा ऊंचा रखने के लिए खेल रहे हैं. देश के लिए इतना कर रहे हैं लेकिन देश हमारे लिए कुछ नहीं कर रहा. फिर यह सोचकर कि जी तो देश में ही रहे हैं इसलिए अपनी इस कमी के बावजूद देश के लिए कुछ करना हमारा दायित्व बनता है’

बहरहाल कानों से खेले जाने वाले इस खेल  और देश के प्रति खिलाड़ियों का समर्पण देखते बनता है. यही कारण है कि जफर कहते हैं, ‘अगर पैसों के लिए खेलते तो इसे कब का छोड़ चुके होते. कोई हमें सामान्य क्रिकेटरों से भले ही कमतर आंके पर हम स्वयं को परफेक्ट मानते हैं और सोचते हैं कि हम भी देश के लिए खेलकर उसे गर्व का मौका दे सकते हैं. हमारे लिए सबसे बड़ी बात है कि हम भारत के लिए खेलते हैं. बस यह बात सालती है कि जब हम जीतकर आते हैं तो आप कहते हैं भारत जीता ये नहीं कहते कि जफर या अजय जीत गया. फिर भी हम वंचित क्यों हैं?’ वे आगे कहते हैं, ‘हमारी सबसे बड़ी ख्वाहिश यही है कि अगर सरकार और बीसीसीआई मदद दे तो हम पेशेवर के तौर पर खेल सकें. ज्यादा नहीं तो अगर खिलाड़ियों को एक सम्मानजनक नौकरी ही दे दी जाए या जो नौकरी कर रहे हैं उनकी नौकरी खेल कोटे में ले ली जाए तो हमें प्रैक्टिस के लिए मौका मिल जाएगा और खेलने के लिए छुट्टी का मसला नहीं रहेगा. वहीं इनामी राशि तो कभी भी खत्म हो सकती है.’ अजय कहते हैं, ‘कभी-कभी मन में ख्याल आता है कि हम बिन पैसों के देश का झंडा बुलंद रखने के लिए खेल रहे हैं, देश के लिए इतना कर रहे हैं लेकिन देश हमारे लिए कुछ नहीं कर रहा. फिर यह सोचकर कि जी तो देश में ही रहे हैं इसलिए अपनी इस कमी के बावजूद देश के लिए कुछ करना हमारा दायित्व बनता है. हम आस लगाते हैं कि देश हमारी प्रतिभा को पहचाने पर ऐसा होता नहीं है. हां, मीडिया ने हमें थोड़ी-बहुत पहचान जरूर दिलाई है लेकिन अब भगवान भरोसे हैं कि बोर्ड या सरकार कोई सुन ले. लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तब भी हम इसी जुनून के साथ खेलते रहेंगे.’

इस बीच देश में ब्लाइंड क्रिकेट के लिए उम्मीद की किरण यह भी हो सकती है कि जस्टिस लोढ़ा समिति द्वारा बीसीसीआई में सुधार के लिए दिए गए सुझावों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. इनमें एक सुझाव यह भी है कि बीसीसीआई देश में चल रहे हर प्रकार के क्रिकेट को समर्थन प्रदान करे. अगर सुप्रीम कोर्ट बीसीसीआई को सुझावों को मानने के लिए आदेश देता है तो ब्लाइंड क्रिकेट को स्वत: बीसीसीआई का साथ मिल जाएगा. बहरहाल ऊंट किस करवट बैठता है, यह तो भविष्य ही निर्धारित करेगा. 

किसी मुसलमान को यह हक नहीं है कि वह गलत काम करे और मजहब की आड़ में इसे छिपाए : नजमा हेपतुल्ला

फोटोः कृष्णकांत
फोटोः कृष्णकांत
फोटोः कृष्णकांत

अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री के रूप में आपके दो साल पूरे हो गए हैं. इस दौरान मंत्रालय की क्या खास उपलब्धियां रहीं?

पिछले दो सालों के दरमियान हमारे मंत्रालय को जितना बजट मिला है, हमने उसमें से 99 प्रतिशत पैसों को आवंटित कर दिया है. हमारे यहां अल्पसंख्यकों के छह समुदाय हैं. इन सबकी समस्याएं भी अलग-अलग हैं. हमने इन सभी के कल्याण के लिए अलग-अलग कार्यक्रम बनाए हैं. इसका कारण यह है कि एक ही कार्यक्रम सभी पर लागू नहीं किया जा सकता था. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के घोषणापत्र में शिक्षा पर सबसे अधिक जोर दिया गया है. इसका पालन करते हुए हमारे मंत्रालय ने अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों की शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक मदद और प्रोत्साहन की प्रक्रिया शुरू की है. इसमें हमें पर्याप्त सफलता भी मिली है. हमारा जोर सबका खासकर मुसलमानों का विकास करना है. इसका कारण यह है कि मुसलमानों में शिक्षा का अभाव है. इसके चलते वे विकास की दौड़ में शामिल नहीं हो पाते हैं. इसलिए अलग-थलग पड़ रहे हैं. उन्हें शिक्षा मुहैया कराकर हम मुख्यधारा में शामिल कर लेंगे.

मैं पार्टी के लोगों के साथ-साथ देशवासियों से भी यह कहना चाहती हूं कि अगर वे देश को आगे बढ़ाने में मदद नहीं कर पा रहे हैं तो कम से कम अड़चनें न पैदा करें. जो लोग आपत्तिजनक बयान दे रहे हैं, वे एक तरह से मोदी के विकास के एजेंडे में रुकावट ही पैदा कर रहे हैं

लाखों की तादाद में हम अल्पसंख्यक छात्रों को छात्रवृत्ति और फेलोशिप मुहैया करा रहे हैं. इसमें करीब 46 प्रतिशत महिलाओं की संख्या है. हमने 10वीं और 12वीं की मुस्लिम छात्राओं को मौलाना आजाद फेलोशिप के तहत छात्रवृत्ति दी है, ताकि उनकी पढ़ाई में किसी तरह की अड़चन न आए. अगला लक्ष्य कौशल विकास है. इसके लिए मौलाना आजाद नेशनल एकेडमी फॉर स्किल्स डेवलपमेंट के तहत विभिन्न कौशलों को बढ़ावा देने की प्रक्रिया शुरू की गई है. इससे बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों और मुसलमानों के बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं. मदरसों में स्किल डेवलपमेंट के लिए हमने ‘नई मंजिल’ कार्यक्रम की शुरुआत की है. यह कार्यक्रम विश्व बैंक को बहुत ही पसंद आया है. उसने इस कार्यक्रम के लिए हमें लोन भी दिया है. साथ ही वह इसे अफ्रीकी देशों में लागू करने की योजना भी बना रहा है. इसके अलावा प्रधानमंत्री का नया पंद्रह सूत्री कार्यक्रम अल्पसंख्यकों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

मोदी सरकार पर मुसलमानों की उपेक्षा करने का आरोप लगता रहा है. अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री होने के नाते आप इन आरोपों से किस हद तक सहमत और असहमत हैं?

यह आरोप बिल्कुल गलत है. लोकसभा चुनाव के दौरान ही विपक्ष यहां तक आरोप लगाता रहा कि यदि मोदी सरकार आ गई तो मुसलमानों का कत्लेआम हो जाएगा. अल्पसंख्यक मंत्रालय खत्म कर दिया जाएगा. मुसलमानों पर ज्यादती होगी, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा. लेकिन क्या ऐसा हुआ है? मोदी सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय को खत्म करने के बजाय इस साल के बजट में 90 करोड़ रुपये बढ़ा दिए हैं. इसके अलावा पिछली सरकारों द्वारा नेशनल माइनॉरिटीज डेवलपमेंट ऐंड फाइनेंस कॉरपोरेशन को आवंटित 1500 करोड़ का बजट भी खत्म हो गया था. पिछली सरकार के मंत्री जो आज हमारी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं उन्होंने कुछ भी नहीं किया. वे सिर्फ मोदी के नाम पर डराते रहे. हमने मंत्रिमंडल में इस प्रस्ताव को रखा और मंत्रिमंडल ने न सिर्फ इसके लिए फंड आवंटित किया बल्कि बजट बढ़ाकर 3000 करोड़ कर दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया है. हमारी सरकार समाज के सभी वर्गों के साथ बराबरी का रवैया अपनाए जाने के अपने वादे पर बखूबी काम कर रही है. जहां तक बात मुसलमानों के पिछड़ेपन की है तो वे आजादी के बाद से ही कांग्रेसी सरकारों की नीतियों की वजह से अलग-थलग पड़ गए थे. पिछली सरकारों ने उन्हें आर्थिक और शैक्षिक क्षेत्र में पीछे छोड़ दिया था, इसलिए अभी वे पिछड़े हैं लेकिन अब ऐसी स्थिति नहीं रहेगी. अब अन्य सभी वर्गों के साथ उन्हें भी समान अवसर प्रदान किए जा रहे हैं.

भाजपा के कुछ नेता अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ लगातार उल्टे-सीधे बयान देते रहते हैं, उन्हें पाकिस्तान भेजे जाने की बात करते हैं. इसे लेकर कोई खास कार्रवाई उन पर नहीं होती है. इसका क्या कारण है?

देखिए, अभी इस तरह के बयान देने वाले नेताओं ने चुप्पी साध रखी है. हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आचरण से ऐसे नेताओं की बोलती बंद कर दी है. जो ऐसा बयान दे रहे थे वे अब जान गए हैं कि उनकी सोच गलत थी और हमारे प्रधानमंत्री की सोच इससे अलग है. प्रधानमंत्री की सोच सबका साथ, सबका विकास है. वैसे भी हमारे देश की आबादी एक अरब से ज्यादा है. इसमें सब तरह के लोग होते हैं. ऐसे आलतू-फालतू बयान देने वाले लोगों को तवज्जो देने की जरूरत नहीं है. वैसे भी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से सांप्रदायिक दंगों की संख्या में भारी कमी आई है. मैं पूरे विश्वास के साथ यह कहना चाहूंगी कि मोदी सरकार के इन दो सालों में मुसलमानों में विश्वास पैदा हुआ है. मोदी सरकार के प्रति चिंता और भय की जो भावनाएं थीं वे अब दूर हुई हैं  

हाल में दादरी में हुए गोमांस विवाद के बाद भी भाजपा नेताओं ने आपत्तिजनक बयान दिए. इस मामले की रिपोर्ट आ जाने के बाद भी यह जारी है. इस पर आपका क्या कहना है?

यह मामला कोर्ट के सामने है. मुझे इस बात पर फख्र है कि हमारी अदालतें ऐसी किसी भी बात से प्रभावित नहीं होती हैं. जो उसका फैसला आएगा, वह सब मानेंगे. अदालत के मामले में हमारा कुछ बोलना उचित नहीं है. जो लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं, उनके लिए मेरा सिर्फ यही कहना है कि वे न तो देश का भला कर रहे हैं और न ही पार्टी का. अगर हमें देश को आगे बढ़ाना है तो हमें उस नेता का साथ देना होगा जो सबका साथ और सबका विकास के नारे के साथ देश को आगे ले जा रहा है. हमारे प्रधानमंत्री लगातार बिना थके इस काम में लगे हुए हैं. ऊपरवाले ने उन्हें बहुत ताकत दी है. मैं पार्टी के लोगों के साथ देशवासियों से कहना चाहती हूं कि अगर वे देश को आगे बढ़ाने में मदद नहीं कर पा रहे हैं तो कम से कम अड़चनें न पैदा करें. जो लोग आपत्तिजनक बयान दे रहे हैं, वे एक तरह से मोदी के विकास के एजेंडे में रुकावट ही पैदा कर रहे हैं. उन्हें सोचना चाहिए कि वे जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं.

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सबसे पहली बात यह है कि बड़ी संख्या में ऐसे युवक जब गिरफ्तार किए गए थे तब सरकार किसकी थी. उस समय उनकी सरकार थी जो आज मोदी और सरकार को सांप्रदायिक बताते हैं. उन लोगों ने बिना किसी सबूत के ऐसे लड़कों को गिरफ्तार किया जिनका जुर्म सिर्फ इतना था कि वे मुस्लिम थे

तीन तलाक को लेकर इन दिनों मुस्लिम समुदाय में खूब बहस हो रही है. बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं इसके विरोध में क्यों हैं? 

ये पुरुष प्रधान दुनिया है. हर मर्द अपने नजरिये से सोचता है. अगर धर्म और कानून को अलग रखकर भी हम बात करें तो एक मानवीय पक्ष भी होता है. अगर आपने किसी से शादी की है तो आप उसे ऐसे निकालकर फेंक देंगे. ये सोचने वाली बात है. इस्लाम में तलाक की इजाजत है पर यह जरूरी नहीं है और ऐसी बहुत सारी इजाजतें हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि उनका इस्तेमाल ही किया जाय. पैगंबर ने उनको अच्छा नहीं माना है. वैसे भी एक बार में तीन तलाक की व्यवस्था नहीं है. तलाक देने की पूरी प्रक्रिया को तीन महीने में पूरा होना है. अब अगर आप एक बार में तीन तलाक दे देते हैं और बाद में पता चलता है कि महिला गर्भवती है तब क्या होगा? इसलिए यह व्यवस्था की गई है कि तीन महीने तक इंतजार किया जाए. हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं. हमें समाज को देखकर बदलाव लाना होगा. किसी मुसलमान को यह हक नहीं है कि वह गलत काम करे और मजहब की आड़ में इसे छिपाए. कोई बुरा आदमी है और वह कत्ल करता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए. अगर वह इसे धर्म की आड़ में छिपाना चाहता है तो यह गलत है. किसी धर्म में गलत बातों की इजाजत नहीं है. धर्म को इससे बाहर रखना चाहिए. दरअसल लोगों के लिए यह आसान होता है कि वे अपनी गलती छिपाने के लिए धर्म की चादर ओढ़ लेते हैं. ये जो हो रहा है इसके खिलाफ समाज में से ही आवाज उठेगी. अभी लड़कियां अपने हक के लिए आवाज उठा रही हैं. कुछ दिन में लड़के भी शिक्षित और समझदार हो जाएंगें और वे भी इसे मानने से इनकार कर देंगे.    

आतंकवाद के नाम पर बड़ी संख्या में फर्जी तरीके से गिरफ्तार किए गए मुस्लिम युवकों को कोर्ट ने रिहा कर दिया है. इन युवकों के कई कीमती साल बिना किसी जुर्म के जेल में बर्बाद हो गए. ऐसे युवकों के लिए मंत्रालय क्या कर रहा है?

सबसे पहली बात यह है कि बड़ी संख्या में ऐसे युवक जब गिरफ्तार किए गए थे तब सरकार किसकी थी. उस समय उनकी सरकार थी जो आज नरेंद्र मोदी और हमारी सरकार को सांप्रदायिक बताते हैं. उन लोगों ने बिना किसी सबूत के ऐसे लड़कों को गिरफ्तार किया जिनका जुर्म सिर्फ इतना था कि वे मुस्लिम थे. अब अदालत से सब साफ बरी हो रहे हैं.

अभी हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अमेरिका में साफ-साफ कहा कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है. जहां तक मंत्रालय के काम का सवाल है तो हमारी इसमें कोई खास भूमिका नहीं है. हम कोई हर्जाना वगैरह तो दे नहीं सकते हैं. अगर ऐसे युवक अपने जीवन-यापन के लिए कोई स्किल सीखना चाहते हैं तो हम उन्हें प्राथमिकता देंगे. अगर वे कारोबार करना चाहते हैं तो हम उन्हें मंत्रालय से लोन दिलाएंगे. हमें उनके बेहतर भविष्य की चिंता है.

‘हां, मैं चाहती हूं कि चुनाव प्रचार की कमान कैप्टन अमरिंदर सिंह ही संभाले’

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आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत की क्या संभावनाएं देखती हैं?

कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने के लिए तैयार है. जीत के लिए अच्छी संभावनाएं दिख रही हैं. पिछले चुनावों में भी करीब 20 विधानसभा क्षेत्रों में जीत का मार्जिन बहुत कम था. हम पंजाब चुनावों के इतिहास में सबसे सशक्त विपक्ष के रूप में सामने आए हैं. नौ साल तक सही से शासन न चलाने से अकाली दल की पोल खुल चुकी है. जनता उनसे निराश हो चुकी है. वे कृषि, बेरोजगारी, ड्रग्स और सबसे जरूरी कानून और व्यवस्था से जुड़े मुद्दों पर कुछ नहीं कर पाए. अनाज की खरीद-फरोख्त तो दूसरा मसला है.

कांग्रेस किसानों के लिए और उनके साथ हमेशा खड़ी रही है, वहीं जो लोग (बादल परिवार) किसानों का हितैषी होने का दावा करते थे, 1200 करोड़ रुपये के अनाज घोटाले के बाद उनकी भी असलियत सामने आ चुकी है. शिरोमणि अकाली दल व्यवस्थाओं में सुधार करने के बजाय अपनी सफाई पेश करने के लिए विज्ञापनों में फिजूलखर्च कर रहा है. वे क्या साबित करना चाहते हैं? क्या इतनी मात्रा में अनाज के गायब होने के बारे में रिजर्व बैंक झूठ बोल रहा है? या भारतीय स्टेट बैंक का पंजाब सरकार को दिए गए लोन को नॉन-परफॉर्मिंग एसेट की श्रेणी में डालना गलत है? सरकार किसे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रही है? उन्हें समझना होगा कि जनता समझदार हो रही है और पहले की तरह वो इनके जाल में नहीं फंसेगी. पंजाब में परिवर्तन का एकमात्र विकल्प कांग्रेस है.

क्या आप मानती हैं कि अन्य राज्यों के चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन का पंजाब में कोई असर होगा?

पंजाब एक सीमावर्ती राज्य है और यहां मुद्दे बाकी राज्यों से काफी अलग हैं. हमारी यहां अच्छी पकड़ है. इसका अंदाजा हमारी रैलियों को मिलने वाली प्रतिक्रियाओं से लगाया जा सकता है. बल्कि अगर मैं कहूं कि पंजाब के परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव लाएंगे, वो सही होगा. पंजाब चुनाव कांग्रेस के लिए गेम चेंजर साबित होंगे.

बड़ी चुनौती कौन है, अकाली दल या आम आदमी पार्टी?

मुझे तो कहीं भी कोई चुनौती नहीं दिखती. अगर शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन पंजाब में बेनकाब हो चुका है तो दिल्ली में आप की पोल खुल चुकी है. मुझे कोई एक सार्थक परिवर्तन बताइए जो आप सरकार दिल्ली में लाई हो. लोग इन्हें कभी माफ नहीं करेंगे कि ये कैसे अन्ना हजारे आंदोलन से एक राजनीतिक दल बनकर खड़े हुए थे और अब क्या कर रहे हैं. क्या अब भी इनकी वही विचारधारा है?

माना जाता है कि कांग्रेस में अंदरूनी कलह है.

यहां मैं ‘अंदरूनी कलह’ शब्द नहीं बल्कि ‘लोकतंत्र’ कहना चाहूंगी. ये किसी एक परिवार या एक व्यक्ति द्वारा चलाई जा रही पार्टी नहीं है जैसे अकाली दल में बादल हैं, आप में केजरीवाल या भाजपा में मोदी. हमारे पास बड़े नेता हैं जिन्होंने आड़े वक्त में खुद को साबित किया है. हम सबका अपना दृष्टिकोण है और यही लोकतंत्र है. अगर हमारे बीच कोई मतभेद रहा है, तो आपसी समझ से हम इसे समय-समय पर सुलझाते रहे हैं. इस समय पूरी पंजाब कांग्रेस एक साथ है और कहीं भी कोई मतभेद नहीं है. हमारा एकमात्र उद्देश्य राज्य से भ्रष्टाचार और वंशगत राजनीति को खत्म करना है.

पूर्व में आप कैप्टन अमरिंदर का विरोध कर चुकी हैं और इस बार आपने उनका पक्ष लिया.

हां, मैं चाहती हूं कि अमरिंदर सिंह ही इस बार प्रतिनिधित्व करें. वे पार्टी के बड़े नेता हैं उन्हें क्यों आगे नहीं आना चाहिए? जैसा मैंने आपसे पहले भी कहा कि विभिन्न मुद्दों पर हमारी राय अलग हो सकती है पर हम एक-दूसरे की बात का सम्मान करते हैं.

ऐसा भी सुना जाता है कि पार्टी हाईकमान के प्रभुत्व के चलते कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी स्वतंत्र रूप से फैसले लेने का अधिकार नहीं है.

कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल है. और ये तो सभी जानते हैं कि प्रदेश इकाइयां हमेशा हाईकमान के साथ मिलकर काम करती हैं. साथ ही, पार्टी हाईकमान यह भी सुनिश्चित करता है कि जिस भी व्यक्ति को जिम्मेदारियां दी जाएं, उसे रणनीतियों को लागू करने और अपने हिसाब से काम करने की आजादी भी मिले क्योंकि स्थानीय नेता ही राज्य और वोटरों की नब्ज जानता है. और फिर किसी महत्वपूर्ण फैसले में राष्ट्रीय नेतृत्व से मार्गदर्शन लेना तो प्रादेशिक इकाइयों के हित में भी होगा.

अकाली दल लंबी अवधि से सत्ता में है जिसका अर्थ है अकूत धन. पिछले कुछ सालों में उन्होंने हर तरफ से पैसा कमाया है. वे निश्चय ही सरकारी इकाइयों का अपने हित में इस्तेमाल करेंगे जैसा उन्होंने पहले भी किया है. यहां वोटरों को भी जागरूक होना पड़ेगा कि वे वादों और पैसों के लालच में न आएं

आगामी चुनावों के लिए बनी पार्टी की कार्यकारी समिति में 36 उपाध्यक्ष और 96 महासचिव हैं. क्या ये समिति छोटी नहीं होनी चाहिए थी?

मेरे ख्याल से ये फैसला पार्टी के हित को ध्यान में रखकर लिया गया है.

इस चुनावी अभियान में कांग्रेस का फोकस किस पर रहेगा, अकाली दल के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार पर या रोजगार उपलब्ध कराने और विकास की रफ्तार बढ़ाने पर?

हम सभी मुद्दों पर काम करेंगे पर प्रमुख एजेंडा विकास ही है. हालांकि जब भी चुनाव आते हैं, अकाली दल पंथ की बात करके समुदायों को बांटने की कोशिश करता है पर जनता इस बंटवारे की राजनीति से आजिज आ चुकी है. वैसे हमें अकालियों की सच्चाई उनके काले कारनामों के जरिए  सामने लानी होगी. बेरोजगारी भी एक बड़ा मुद्दा है जिससे राज्य जूझ रहा है. हम राज्य में निवेश लाकर रोजगार उत्पन्न करने के बारे में दृढ़ हैं.

चुनावों में  ‘एनआरआई’  फैक्टर कितना जरूरी है? क्या प्रवासी भारतीयों को लुभाने में समय और मेहनत लगाना सही है?

प्रवासियों को सिर्फ वोट बैंक के नजरिये से देखना सही नहीं है. वे इसी जमीन के बेटे-बेटियां हैं. इस जमीन से उनकी भावनाएं जुड़ी हैं, जो कभी नहीं बदलेंगी. उनके भी सरकार से जुड़े कुछ मुद्दे हैं और चुनावी प्रक्रिया में भाग लेकर प्रवासी भारतीय बदलाव ला सकते हैं.

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ऐसा कहा जा रहा है कि  ‘आप’  ने पंजाब के गांवों में अपनी पैठ बना ली है.

ये तो वक्त ही बताएगा. दिल्ली में आप के खराब शासन को तो हम देख ही रहे हैं. क्या आपको लगता है कि यहां लोग वैसी ही गलती दोहराना चाहेंगे?

पर  ‘आप’  का तो दावा है कि उन्होंने दिल्ली में बहुत कुछ किया है.

ऐसे खोखले दावों से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.

सत्तारूढ़ दल के खिलाफ आपकी क्या रणनीति रहेगी?

इसमें चुनाव आयोग की बड़ी भूमिका हो सकती है. अकाली दल लंबी अवधि से सत्ता में है जिसका अर्थ है अकूत धन. पिछले कुछ सालों में उन्होंने हर तरफ से सिर्फ पैसा कमाया है. वे निश्चय ही सरकारी इकाइयों का अपने हित में इस्तेमाल करेंगे जैसा उन्होंने पहले भी किया है. यहां वोटरों को भी जागरूक होना पड़ेगा कि वे वादों और पैसों के लालच में न आएं.

क्या चुनावों से छह महीने पहले ही उम्मीदवारों की घोषणा करना (जैसा अमरिंदर सिंह ने किया है) फायदेमंद होगा?

हां, जनता के सामने ये साफ रहेगा कि उनका प्रतिनिधि कौन होगा. बाकी पार्टियों जैसा नहीं जहां सिर्फ पैसा चलता है और आखिर तक कोई तस्वीर साफ नहीं होती. मैं अमरिंदर सिंह के इस कदम की तारीफ करती हूं.

क्या आपको लगता है कि कांग्रेस के लिए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन करना पार्टी के हित में होगा? बसपा को पिछली बार पांच फीसदी वोट मिले थे.

ये फैसला हम उचित समय आने पर करेंगे.

कैराना के मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की जा रही है : हुकुम सिंह

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आपने अपने क्षेत्र कैराना के बारे में यह मसला उठाया था कि वहां से पलायन हो रहा है. असलियत क्या है?

आपको मौका लगे तो कैराना विजिट कर लीजिए. कैराना अब किसी भले आदमी के रहने लायक रहा नहीं. परिस्थिति जैसी उभर कर आ रही है, मौके पर उससे ज्यादा गंभीर है. मैंने 346 लोगों की लिस्ट दी थी, जो मुझको मिल सकी. हर चीज की कुछ बातें होती हैं. मैंने लिस्ट दी थी 346 की. अब इतना तो संभव है नहीं कि उनका आईडी कार्ड भी लेता. मेरे सामने एक रिपोर्ट आई कि यहां से पलायन हो रहा है. पलायन तो मेरे सामने बहुत समय से हो रहा था. यहां गुंडागर्दी का, अपराधीकरण का मामला इतना बढ़ गया था कि किसी भी व्यापारी के लिए वहां रहना मुश्किल था. उनका मुख्य टारगेट वहां का व्यापारी था क्योंकि व्यापारी कभी भी लड़ना नहीं चाहता, न लड़ना उसके वश का है. और लोग समझते हैं कि व्यापारी है, जल्दी पैसा दे ही देगा. तो उन्हीं को टॉरगेट किया गया. किसी से दो लाख, किसी से पांच लाख, किसी से दस लाख मांगे गए. जिसने दे दिया तो उसकी रकम और बढ़ा दी गई. फिर ये हुआ कि किसी ने कहा कि साब मैं तो दो ही दे पाऊंगा तो उन्हें सबक सिखाने और संदेश देने के लिए कि जो मेरी बात नहीं मानेगा, हम उसका इलाज ये करते हैं. फिल्मी स्टाइल में आकर कहते थे कि क्या हमारी औकात एक लाख की है. हमने तो इतने पैसे मांगे थे. हम उसी का सबक सिखाने आए हैं और उसे वहीं पर मार दिया, फिर हथियार लहराते हुए पूरे बाजार में घूमते हुए चले गए. इससे पूरे बाजार में क्या मैसेज जाएगा? इसके चलते लोग वहां से पलायन कर गए. अब लोग कह रहे हैं कि मुस्लिमों का भी पलायन हुआ. मैं जिम्मेदारी के साथ कहता हूं कि मुसलमानों का पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां मुस्लिम व्यापारी नहीं थे. अगर रहे होते तो वे भी इसी तरह टारगेट बनते. सारा व्यवसाय वहां पर दो समाजों के लोग करते हैं, वैश्य समाज और जैन समाज. उन्हीं को निशाना बनाया गया. लोग वहां से गए और अभी और जाएंगे.

जब इस तरह सरेआम हत्या और फिरौती की घटनाएं हुईं तो ऐसे तत्वों को रोका क्यों नहीं गया? कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

हत्या हुई तो एफआईआर भी हुई. जहां तक पकड़े जाने की बात है तो मैं बता देता हूं कि कैराना में दो गैंग हैं. मुकीम और फुरकान. ये दो कुख्यात नाम हैं, जिन्होंने अपना माहौल बनाया. दोनों संयोग से मुस्लिम हैं इसलिए ये मामला सांप्रदायिक बनाया जा रहा है. मैं पहले दिन से कह रहा हूं कि यह सांप्रदायिक मामला नहीं है. हमें कम्युनल और क्रिमिनल में अंतर करना चाहिए. और ये भी मैं बता रहा हूं कि ये जो कम्युनल बनाने की साजिश है. इसमें एक तो मीडिया का हाथ है उसे छोड़ दीजिए, इसके पीछे का एक कारण ये भी है कि अगर कम्युनल बन गया तो इन दोनों गैंग्स को प्रोटेक्शन मिल जाएगा कि मुसलमान होने के नाते हमें फंसाया गया.

आपके प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ही मीडिया में खबरें छपीं और यह संदेश प्रसारित हुआ कि मुसलमानों के खौफ से हिंदुओं का पलायन हो रहा है.

नहीं-नहीं, ये कहीं नहीं लिखा गया. मैं असहमत होने की इजाजत चाहता हूं. मेरा स्टैंड शुरू से ही यही रहा है कि अपराधियों के खौफ से लोग गए हैं और अपराधी संयोग से मुस्लिम हैं. मैंने अपना स्टैंड कभी नहीं बदला.

लेकिन स्पष्ट सूचना के साथ खबरें छपीं कि हिंदुओं का पलायन हो रहा है. कश्मीर से तुलना की गई.

मैंने नाम सब दिए हैं और वे सब नाम हिंदू हैं. अब उसको हिंदू पलायन लिखूं या न लिखूं, क्या फर्क पड़ता है. वे सभी हिंदू हैं, उनके नाम दिए हैं, उनका पेशा दिया गया है, मैंने पते दिए हैं उनके. सब हिंदू हैं तो हिंदू हैं.

जब लोगों ने, पत्रकारों ने वहां जाकर चेक किया तो सूची में गड़बड़ियां पाई गईं. आप पर आरोप लगा कि आप झूठ बोल रहे हैं और माहौल खराब करने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि विधानसभा चुनाव आ रहा है.

अगर अपराधियों के खिलाफ या अपराधियों के बारे में बात करूंगा तो कम्युनल माहौल बनेगा, मुझे तो यह विश्वास नहीं है, न कभी बना है आज तक. और रही चुनाव की बात, तो कम से कम मैंने उन अपराधियों को चैलेंज तो किया. वो अपराधी कुछ लोगों के काम आते होंगे चुनाव में, मैं तो उनसे काम लेना चाहता नहीं. मैं उनका विरोध आज भी कर रहा हूं, कल भी करूंगा. परिणाम जो भी हो. मैं चुनाव में बाहुबल की चिंता नहीं करता.

आप सांसद हैं. आप ही खौफ में रहेंगे तो जनता का क्या होगा?

यही तो मैं कह रहा हूं. खैर, ऐसी कोई बात नहीं है. आप भी जानते होंगे कि सांसद और विधायक भी कुछ ऐसे होते होंगे, हमारी असेंबली में ऐसे विधायक आज भी हैं जो मूंछें तानकर चलते हैं, जिनसे लोग घबराते हैं. वे जेल में आते हैं हाजिरी लगाने के लिए.

हमारा जो मुख्य सवाल है वो ये है कि चाहे कैराना हो या मुजफ्फरनगर हो, या कहीं भी हो, कोई व्यक्ति उगाही करता है, लोगों को धमकाता है तो पहला काम ये होना चाहिए कि उस पर कार्रवाई हो. उस पर मुकदमा होना चाहिए. ये तो हुआ नहीं. बदमाश तो बेखौफ रहे.

नहीं, ये हुआ है. मैं स्पष्ट कर देता हूं. मुकीम का नाम आया. पहली बार मैंने जब इसका नाम सुना तो सहारनपुर में पेट्रोल पंप पर लूट की थी. पुलिस को जानकारी मिल गई. गाड़ी में बैठकर भागा और पुलिस ने उसका पीछा किया. थोड़ी देर के बाद जब इसकी गाड़ी मुड़ रही थी, एक बहादुर सिपाही ने उतरकर उसको पकड़ना चाहा. इस आदमी ने फुर्ती दिखाई और उसको गोली मार दी. उसकी गन वगैरह भी छीन ली जो आज तक मिली नहीं. आपने कहा उसको पकड़ा जाना चाहिए. उसने कैराना में तो कुछ लोग मारे ही, धीरे-धीरे अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाया. हरियाणा की पुलिस इसके पीछे पड़ गई. वह इसका एनकाउंटर करना चाहती थी. मेरा आरोप ये है कि पुलिस ने किसी नेता के कहने से, मैं नाम नहीं लूंगा, आप दबाव भी मत बनाइए, दबाव बनाकर इसके सरेंडर की नौटंकी की और इसे जेल भिजवा दिया ताकि ये सुरक्षित रहे. जेल में जाकर वह सुरक्षित हो गया और वसूली का काम और तेज कर दिया. मोबाइल पर वो फोन करता था और किसी की औकात नहीं थी कि उसका मोबाइल सुनने के बाद उसे रकम न पहुंचाए. उसने वसूली के लिए अपने एजेंट छोड़ रखे थे. बहुत दिन तक ये क्रम चला. मैंने खुद इस बात की कई बार शिकायत की कि वह तो जेल जाकर और खतरनाक हो गया. मेरे कहने पर उसे जेल से ट्रांसफर किया गया. लेकिन जहां ट्रांसफर किया गया, वहां से भी वही क्रम चलता रहा.

लेकिन आप सांसदों और विधायकों के कहने से भी अगर किसी अपराधी पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है तो यह तो बड़ी गंभीर स्थिति है.

केंद्र सरकार को इसका संज्ञान लेना चाहिए. हमारी लीडरशिप को इसकी जानकारी है. निर्णय उनको लेना है. हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष खुद इसका जिक्र कर चुके हैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी में. अब राष्ट्रीय नेतृत्व की जानकारी में तो सारी बात है ही.

प्रशासन की जांच में तो आपकी बात खारिज कर दी गई है?

देखिए, प्रशासन की जांच में वहीं सामने आएगा जो उनके लखनऊ वाले आका चाहेंगे. अगर आपको असली हालात देखना है तो मैं आपको एक नाम बताता हूं. उनका नाम है सूर्य प्रताप सिंह. वो मुजफ्फरनगर में जिलाधिकारी थे. कैराना तब मुजफ्फरनगर का हिस्सा होता था. उन्होंने स्टेटमेंट जारी किया है कि मैं जिलाधिकारी था मुजफ्फरनगर का और कैराना की हालत ऐसी है जहां पर रात में तो छोड़िए, दिन में भी पुलिस की घुसने की हिम्मत नहीं है. कैराना के हालात इतने खराब हैं जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. वे प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पद से अभी रिटायर हुए हैं. अब ये जो दो-दो महीने पहले आए हुए मजिस्ट्रेट हैं, इनकी जांच वह होगी जो इनको कहा जाएगा. हमने असेंबली में भी ये मुद्दा उठाया था, उसके बाद कुछ अधिकारी हटाए गए और जो अधिकारी आए उन्होंने कुछ करके भी दिखाया. जब तक वो रहे तो किसी की हिम्मत नहीं हुई वसूली करने की. लेकिन उनको एक-डेढ़ महीने में हटा दिया गया. अब इससे अधिकारी का मनोबल टूटेगा कि नहीं? स्थिति बड़ी गंभीर है. ऐसा नहीं है कि मेरे मन में कुछ है क्योंकि चुनाव आ रहा है. मैं 2013 से बराबर कह रहा हूं कि कैराना की हालत बहुत खराब है. कभी-कभी कार्रवाई भी हुई लेकिन ऐसा नहीं हो पाया कि हालत ठीक हो जाए.

लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया में इस तरह प्रसारित हो गया है कि यह सांप्रदायिक मसला है. इसका असर देश के दूसरे हिस्सों पर भी पड़ेगा.

मैं बता रहा हूं आपको. मैं अपनी बात ही बता सकता हूं. यह पहले दिन से ही शुरू हो गया था और यह तो होना ही था. बहरहाल, रिपोर्ट रोचक तो तभी बनेगी जब उसमें पैबंद लगाए जाएंगे. हेरफेर किया जाएगा. अगर मेरा सीधा बयान ये हो कि अपराधियों ने अपराध कर दिए और लोग चले गए तो मेरे ख्याल से आधे कॉलम की, चौथाई कॉलम की न्यूज बनकर खत्म हो जाएगी. इसलिए उसे रंग दिया गया सांप्रदायिकता का. मैं पहले दिन से ही कह रहा हूं कि यह सांप्रदायिक मामला नहीं है. ये खाली अपराधियों का मामला है. यह संयोग की बात है कि जितने इसमें पीड़ित हैं वे सारे हिंदू हैं और जो क्राइम करने वाले हैं वे मुस्लिम हैं, लेकिन वे मुस्लिम नाम से हैं. वे मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं. ये गुंडे-बदमाश, जिन्होंने जीना हराम कर दिया, वे समाज के प्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं? मैं पहले दिन से कह रहा हूं लेकिन इस बात में आनंद तो नहीं आने का. जब तक ये न कहूं कि हिंदू मामला है. मैंने जो  बयान पहले दिन दिया था, अपने स्टैंड पर कायम हूं. एक इंच इधर से उधर नहीं होऊंगा.

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तो इसे सांप्रदायिक रंग किसने दिया?

अपने आप हो गया सांप्रदायिक रंग. (लोग) जो पढ़ेंगे, देखेंगे कहीं. लोग क्या देखते हैं, टेलीविजन. लोग पढ़ते क्या हैं, अखबार. वे मेरी रिपोर्ट थोड़े पढ़ते हैं.

लेकिन रिपोर्ट तो उसी आधार पर बनती है जो आप बोलते हैं.

आधार… आधार जितना है वह तथ्यात्मक है. ये आदमी है पीड़ित और ये है अपराधी. मैंने इतना बता दिया. ये तथ्य हैं. लेकिन वह आकर्षक न्यूज नहीं है. फिर वो मुझसे सवाल करेंगे कि आप तो सारी घटना का सांप्रदायिकीकरण कर रहे हैं क्योंकि चुनाव आने वाले हैं. आपके राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा है कि हम मुद्दा बनाएंगे. उन्होंने जो कहा है वो ये कहा है कि कैराना और मथुरा में जो कानून व्यवस्था चौपट हुई है, उसको मुद्दा बनाएंगे. मथुरा में तो कोई सांप्रदायिकता नहीं थी न. लेकिन बात आगे तभी बढ़ेगी जब कहा जाएगा कि भाजपा ये कर रही है, वो कर रही है. भाजपा इसको भुनाना चाहती है.

मैं पूछता हूं कि जितने आप लोगों ने वेरीफाई कर लिए होंगे, दस परिवार भी किए होंगे, मेरा सवाल बस इतना है कि क्या उन दस परिवारों को वापस लाने का प्रयास किया और ये आश्वासन दिया कि हम आपको सुरक्षा देंगे? उस तरफ तो एक कदम नहीं बढ़ा. मेरी लिस्ट को कैसे छोटा करें, सारा प्रयास इस पर है.

क्या जिस इलाके में दंगा हो चुका है, हजारों लोग विस्थापित हो चुके हैं, ऐसे संवेदनशील इलाके में ऐसा मसला उठाते हुए सावधानी नहीं रखनी चाहिए?

अब इससे ज्यादा सावधानी क्या हो सकती है कि मैं पहले दिन से कह रहा हूं कि यह सांप्रदायिक मसला नहीं है? जो बात आपने कही, ये मेरे दिमाग में भी थी. मैंने बोलना यहीं से शुरू किया कि यह सांप्रदायिक मसला नहीं है. अभी तक सिर्फ एक मसला पता चला है जहां मुस्लिम परिवार से रंगदारी मांगी गई थी और उनको जाना पड़ा. बाकी कोई मुस्लिम परिवार नहीं गया. वहां पर ऐसा भी हो रहा है कि सारा जिला प्रशासन लगाकर फर्जी आदमी खड़े करके उनसे कहलवाया जा रहा है कि मैं तो यहीं हूं जी. मैं तो कहीं गया नहीं. मैं वहां पर सांसद हूं, लेकिन मैं वहां पर सरकार नहीं हूं. मैं किस-किसको झूठा साबित करूंगा. मैं तो बस ये उम्मीद कर रहा हूं कि सुरक्षा की व्यवस्था कर दीजिए. लेकिन यहां तो चुनाव का मामला है, कोई कुछ कह रहा है कोई कुछ. चल रहा है, ऐसे ही चलता रहेगा.

मैं ये जानना चाहता हूं कि आपके संसदीय क्षेत्र में अगर इस तरह अपराध बढ़ता है, प्रशासनिक समस्या आती है तो किस हद तक आप जा सकते हैं, कितना हस्तक्षेप कर सकते हैं?

पूरा हस्तक्षेप, जिस हद तक जाना उचित हो, उस हद तक जाऊंगा.

तो ये अभी तक कैसे चलता रहा कि लंबे समय से वहां गुंडे उगाही करते रहे?

हम उठाते रहे बात को. कुछ गंभीर घटनाएं भी हुईं जब महिलाओं को घर से खींचकर बलात्कार किया गया. गैंगरेप के बाद मर्डर किया गया. तब कोई विकल्प नहीं रह गया था सिवाय इस बात के कि खड़े हो जाओ, एक्सपोज करो. जो होगा देखा जाएगा. 

ये तो प्रशासनिक स्तर पर कोशिश करके आपको रुकवाना चाहिए था. आपने प्रयास किया, प्रशासन ने प्रयास किया लेकिन वह सब तो रुका नहीं और लोग वहां से जा रहे हैं.

प्रशासनिक स्तर पर सहयोग भी हमेशा देता हूं, खड़ा करने की कोशिश भी करता हूं लेकिन जब इतने कमजोर अधिकारी आ जाएंगे कि बदमाशों को सरेंडर कराएंगे तो क्या होगा.