सुप्रीम कोर्ट ने दुष्कर्म की शिकार महिलाओं की सहायता व पुनर्वास के लिए बने निर्भया फंड का इस्तेमाल नहीं होने पर केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगाई है. कोर्ट ने इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है. न्यायमूर्ति पीसी पंत और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की अवकाशकालीन पीठ ने कहा कि अलग-अलग राज्यों में इसे लेकर अलग-अलग योजनाएं हैं. बलात्कार पीड़िताओं को कितना मुआवजा मिलना चाहिए, इसे लेकर कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है. निर्भया फंड पर्याप्त नहीं है. पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यौन अपराध पीड़ितों को पर्याप्त सहायता मिले. पीठ ने केंद्र और सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को नोटिस जारी करते हुए सीआरपीसी की धारा 357(ए) के प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन को लेकर जवाब दाखिल करने के लिए कहा है. पीठ ने सभी से यह भी पूछा है कि पीड़ितों को मुआवजा देने संबंधी योजनाओं की स्थिति क्या है और कितने पीड़ितों को मुआवजा दिया गया है. अदालत ने कहा कि कुछ राज्य तो महज एफआईआर दर्ज होने पर ही पीड़ितों को मुआवजा देते है. पीठ ने कहा कि दिल्ली में अलग योजना हैं, उत्तर प्रदेश में अलग जबकि इसे लेकर एक राष्ट्रीय योजना होनी चाहिए.
देश भर के जलाशयों में बचा महज 17 फीसदी पानी
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर के 91 बड़े जलाशयों में केवल 17 फीसदी पानी शेष है. रिपोर्ट के मुताबिक 26 मई को खत्म हुए सप्ताह में इन जलाशयों में सिर्फ 268.16 लाख घन मीटर पानी उपलब्ध था. इन जलाशयों की कुल क्षमता 1577.99 लाख घन मीटर पानी की है. मंत्रालय के अनुसार, पानी का यह भंडार पिछले साल की तुलना में 45 फीसदी कम है. पिछले 10 साल के औसत भंडार से भी यह 21 फीसदी कम है. हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल की स्थिति ज्यादा खराब है. इन राज्यों में पिछले साल इसी अवधि की तुलना में कम पानी बचा हुआ है. सिर्फ आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा और राजस्थान में पिछले साल से ज्यादा पानी उपलब्ध होने की रिपोर्ट है.
नीट पर विवाद खत्म
क्या है विवाद?
डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए पूरे देश में एक ही प्रवेश परीक्षा को लेकर हुआ विवाद अब खत्म हो गया है. राष्ट्रपति ने इस आशय की अधिसूचना पर हस्ताक्षर करके राष्ट्रीय पात्रता एवं प्रवेश परीक्षा (नीट) को एक साल तक लागू न करने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को मान्यता दे दी. नीट को लेकर सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की वजह से विवाद गहरा गया था जिसमें अदालत ने देश भर में निजी और सरकारी सभी मेडिकल काॅलेजों में एक ही प्रवेश परीक्षा कराने का आदेश दिया था. नीट का 15 राज्यों ने विरोध करके केंद्र सरकार को इसे तत्काल प्रभाव से लागू करने पर रोक लगाने के लिए विवश कर दिया. अध्यादेश के मुताबिक 24 जुलाई, 2016 तक नीट प्रभावहीन माना जाएगा. इस अवधि में सभी राज्यों को यहां तक कि निजी मेडिकल कॉलेजों को अगले सत्र के लिए दाखिला प्रक्रिया पूरी करनी होगी.
क्यों है राज्यों का विरोध?
दरअसल राज्यों का विरोध अगले सत्र के लिए होने वाली परीक्षा को नीट में शामिल करने को लेकर था. उनका कहना है कि परीक्षा को लेकर सारी तैयारियां हो गई हैं. नीट लागू करने का सीधा असर सत्र को शुरू करने पर पड़ेगा. केंद्र की मोदी सरकार ने नीट को तत्काल प्रभाव से लागू करने पर अगला सत्र देर से शुरू होने की समस्या को व्यावहारिक मानते हुए इसे अगले साल से लागू करने का फैसला किया. हालांकि दिल्ली सहित कुछ राज्य इसे तत्काल प्रभाव से लागू करने की वकालत कर रहे हैं. दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने तो इसे शिक्षा माफिया से जोड़कर राष्ट्रपति से अध्यादेश पर दस्तखत नहीं करने तक की अपील कर डाली. इनकी दलील है कि मेडिकल परीक्षा को लेकर देश भर के निजी मेडिकल कॉलेज भारी-भरकम डोनेशन लेकर सीटें भरते हैं. इसके अलावा शिक्षा माफिया सिर्फ निजी कॉलेजों में ही नहीं, राज्य सरकारों द्वारा आयोजित मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पेपर लीक कराने से लेकर फर्जी दाखिला कराने तक अपना प्रभावी दखल रखते हैं.
क्यों पड़ी नीट की जरूरत?
मेडिकल कॉलेजों में पैसे के बल पर अयोग्य छात्रों की पहुंच बढ़ने की शिकायतों को सही पाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने सभी मेडिकल कॉलेजों के लिए एक ही मेडिकल प्रवेश परीक्षा आयोजित कराने की व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से लागू करने का आदेश दिया. नई व्यवस्था के तहत राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा की तर्ज पर एक केंद्रीय एजेंसी को सभी कालेजों को अपनी सीटों की संख्या बतानी होगी. केंद्र व राज्य सरकारों और निजी मेडिकल कॉलेजों की कुल सीटों के लिए वह एजेंसी देशव्यापी स्तर पर परीक्षा कराएगी.
फ्रांस में नए श्रम कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन
फ्रांस में नए श्रम कानूनों को देशव्यापी विरोध का सामना करना पड़ रहा है. इस दौरान पेरिस में पुलिस तथा नकाबपोश युवकों के बीच संघर्ष की घटनाएं भी सामने आई हैं. तेल रिफाइनरियों, परमाणु बिजलीघरों, बंदरगाहों और परिवहन केंद्रों के कर्मचारियों के हड़ताल में शामिल होने से स्थिति और खराब हो गई है. कर्मचारी यूनियनों के अनुसार, नए श्रम कानूनों के अंतर्गत कंपनियों को अपनी मर्जी से नौकरी देने और निकालने का अधिकार होगा. कंपनियां काम के घंटे प्रति सप्ताह 35 से बढ़ाकर 46 घंटे तक कर सकती हैं. कंपनियों को वेतन कम करने की भी अधिक आजादी देने का प्रावधान है. सार्वजनिक व कानूनी छुट्टियों में कर्मचारियों की सहमति से कटौती के भी अधिकार देने की बात है. फ्रांस यूरो फुटबॉल चैंपियनशिप, 2016 का आयोजक है. ऐसे में फ्रांसीसी सरकार अत्यधिक दबाव के बावजूद नए श्रम कानून को लागू करने पर अड़ी है.
भारत-ईरान के बीच चाबहार समझौता
भारत और ईरान के बीच रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह को विकसित करने को लेकर समझौता हो गया है. भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की रेल कंपनी इरकॉन ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान तक 500 किलोमीटर लंबी रेल लाइन बिछाएगी जिस पर 1.6 अरब डॉलर की लागत आने का अनुमान है. यह रेल लाइन ईरान के दक्षिणी तटीय इलाके से अफगानिस्तान के जाहेदान तक बिछाई जाएगी. हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली ईरान यात्रा के दौरान इन समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए. भारत-ईरान के बीच यह करार ईरान के दक्षिणी तट पर चाबहार बंदरगाह के पहले चरण के विकास के बारे में है. इसे भारत के साथ एक संयुक्त उद्यम के जरिए विकसित किया जाएगा. इसमें चाबहार बंदरगाह के दो टर्मिनलों और पांच गोदी का 10 साल तक विकास एवं संचालन किया जाएगा. इसके लिए एक्जिम बैंक और ईरान के पोर्ट्स एेंड मैरीटाइम आॅर्गेइजेशन के बीच 15 करोड़ डॉलर के ऋण के लिए एमओयू समझौता भी शामिल है. एक्जिम बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ ईरान के बीच एक स्वीकृति वक्तव्य पर भी हस्ताक्षर किए गए जिसमें स्टील रेलों के आयात और चाबहार बंदरगाह के क्रियान्वयन के लिए 3000 करोड़ रुपये तक की ऋण उपलब्धता के लिए स्वीकृति दी गई है. सार्वजनिक क्षेत्र की नाल्को ने चाबहार मुक्त व्यापार क्षेत्र में 5 लाख टन क्षमता का एल्युमीनियम स्मेल्टर लगाने की संभावना के लिए एमओयू पर दस्तखत किए हैं.
मणिपुर में हिंसा जारी
मणिपुर में पिछले साल अगस्त में पारित हुए तीन विधेयकों को लेकर हो रही हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है. अब इनर लाइन परमिट सिस्टम के लिए गठित संयुक्त समिति (जेसीआईएलपीएस) की ओर से बुलाई गई हड़ताल से मणिपुर का आम जनजीवन प्रभावित हो रहा है. जेसीआईएलपीएस ने तीन विधेयकों पर कानून बनाने के दबाव के लिए आंदोलन का आह्वान किया है. पिछले साल 31 अगस्त को इन विधेयकों को मणिपुर राज्य विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया था. जेसीआईएलपीएस के संयोजक रतन ने बताया कि ये विधेयक राज्य में इनर लाइन परमिट सिस्टम के क्रियान्वयन से संबंधित हैं. इसमें राज्य की मूल आबादी को बाहरी राज्यों और म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों से आने वाले लोगों से संरक्षण का प्रावधान किया गया है. गौरतलब है कि पिछले साल सितंबर में मणिपुर विधानसभा द्वारा पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध प्रदर्शन ने उग्र रूप धारण कर लिया था. उस दौरान भड़की हिंसा में पुलिस फायरिंग के दौरान नौ लोगों की मौत हो गई जबकि 35 से अधिक लोग घायल हो गए थे.
अब मेघालय में कांग्रेसी असंतुष्ट!
अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बगावत का सामना करने के बाद कांग्रेस के सामने अब मेघालय में चुनौती आ खड़ी हुई है. कांग्रेस के कुछ विधायक और मंत्री मुख्यमंत्री मुकुल संगमा को हटाने की मांग कर रहे हैं. असंतुष्ट विधायकों का आरोप है कि संगमा तानाशाह के रूप में काम कर रहे हैं और बिना पूछे फैसले ले रहे हैं. हाल ही में तुरा लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद मामला और गंभीर हो गया. इस उपचुनाव में मुकुल संगमा की पत्नी दिकांची डी शिरा कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरी थीं. लेकिन उन्हें पूर्व लोकसभा स्पीकर पीएम संगमा के बेटे कोनराड के संगमा ने 1.92 लाख वोटों से हरा दिया. राज्य में यह जीत का सबसे बड़ा अंतर है. सूत्रों का कहना है कि पार्टी आलाकमान बगावत को लेकर गंभीर है. 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के पास 30 सीटें हैं. साथ ही उसे राकांपा के दो और 11 निर्दलीयों का समर्थन है. विपक्ष में मेघालय पीपल्स फ्रंट के 12, यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी के आठ, नेशनल पीपल्स पार्टी के दो और दो निर्दलीय विधायक हैं. इनके अलावा हिल्स स्टेट पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के चार और एनईएसडीपी का एक विधायक है.
लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होतीं तो अनुराग ठाकुर कभी बीसीसीआई के अध्यक्ष नहीं बन पाते : आदित्य वर्मा
आदित्य वर्मा के बारे में शायद कम ही लोग जानते हों लेकिन यही वे शख्स हैं जो पिछले लगभग दो साल से भारतीय क्रिकेट में मची हलचल का कारण रहे. सुप्रीम कोर्ट में लगाई इनकी ही याचिका के बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) से एन. श्रीनिवासन की छुट्टी हुई जिनके सामने बोर्ड में मौजूद हर व्यक्ति का कद बौना नजर आता था. जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की वह रिपोर्ट जिसने बीसीसीआई को जड़ों तक हिला डाला है, आदित्य वर्मा द्वारा सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई एक याचिका का ही परिणाम है. बीसीसीआई के साथ आदित्य वर्मा की अदावत पुरानी है, वे 2007 से ही बिहार में क्रिकेट को बेहतर दर्जा दिलाने के लिए बोर्ड के साथ मुकदमे लड़ रहे हैं. अपनी इस लड़ाई को वे उस मुकाम तक ले गए जिसने सिर्फ बोर्ड की अंदरूनी राजनीति का ही नजारा नहीं बदला बल्कि भारतीय क्रिकेट में एक नए युग की शुरुआत की नींव भी रख दी है. इंतजार है तो बस सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के आने का जहां वह जस्टिस लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर अपना रुख स्पष्ट करेगा. लोढ़ा समिति की सिफारिशों, उन्हें लागू करने में बोर्ड की आनाकानी, बोर्ड की कार्यप्रणाली, अंदरूनी राजनीति, देश में क्रिकेट के विकास और बिहार में क्रिकेट के हालातों को लेकर क्रिकेट एसोसिएशन आॅफ बिहार (कैब) के सचिव आदित्य वर्मा से बातचीत.
लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए सख्त रवैये के बीच नवनिर्वाचित बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर का बयान आया है कि ये सिफारिशें व्यावहारिक नहीं हैं?
उन्हें कहने दीजिए, सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है. जल्द ही फैसला हो जाएगा. उन्हें लगता है कि व्यावहारिक नहीं हैं और हम कहते हैं कि भारतीय क्रिकेट में फैले प्रशासनिक भ्रष्टाचार को दूर करने, खेल की लोकप्रियता देश के हर कोने तक पहुंचाने और क्रिकेट में सुधार लाने के लिए लोढ़ा समिति की सिफारिशों को मानना आवश्यक है. भारतीय क्रिकेट पर पिछले कुछ समय में लगे दागों से भद्रजनों के इस खेल की जो भद्द पिटी है, उससे उबरना है तो इन सिफारिशों को लागू करना ही होगा.
बोर्ड के वे कौन प्रभावशाली लोग हैं जिनके हित लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू करने में आड़े आ रहे हैं?
लोढ़ा समिति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश रिपोर्ट में कुछ अति महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जैसे- किसी भी बोर्ड पदाधिकारी की उम्र 70 साल से अधिक न हो, सरकार में मंत्री या सरकारी अधिकारी बोर्ड में कोई भी पद ग्रहण नहीं कर सकते, एक व्यक्ति एक ही पद पर रह सकता है यानी कि वह या तो अपने राज्य क्रिकेट संघ का प्रतिनिधित्व कर सकता है या फिर बोर्ड का. और सबसे बड़ी बात, अगर कोई व्यक्ति किसी भी पैनल के तहत किसी भी कोर्ट में चार्जशीटेड है, उसके बोर्ड में दखल पर पाबंदी है.
अब जरा समझिए बोर्ड के कामकाज का वर्तमान तरीका. अनुराग ठाकुर जो हाल ही में बोर्ड अध्यक्ष बने हैं, भारतीय ओलंपिक संघ के भी उपाध्यक्ष हैं, हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ (एचपीसीए) के भी अध्यक्ष हैं और एचपीसीए स्टेडियम निर्माण घोटाले में उन पर अदालत में चार्जशीट भी दाखिल हो चुकी है. लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होतीं तो अनुराग कभी बोर्ड अध्यक्ष नहीं बन पाते. ऐसे ही कई ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ वाले लोग बोर्ड में विभिन्न पदों पर बैठे हुए हैं. लोढ़ा समिति की सिफारिशें उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देंगी.
ऐसा माना जाता है कि बीसीसीआई में फैसले बंद कमरे में होते हैं. आप बोर्ड पदाधिकारियों के करीब रहे हैं, आपको इसमें कितनी सच्चाई जान पड़ती है?
दस मई को लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट में बहस हुई और शाम को शशांक मनोहर ने इस्तीफा दे दिया. कोर्ट को सूचित भी नहीं किया. ठीक 11 दिन बाद अनुराग ठाकुर अध्यक्ष पद पर विराजमान हो गए. यह सब बंद कमरे में नहीं तो कहां हुआ? बीसीसीआई कहने को तो विश्व का सबसे अधिक प्रभावशाली क्रिकेट बोर्ड है. लेकिन उसका कामकाज चंद लोगों की मुट्ठी में है. महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण फैसला बंद कमरे में हो जाता है, जिसमें न कोई पारदर्शिता होती है और न जवाबदेही. शशांक मनोहर ने अध्यक्ष बनते समय बोर्ड के कार्यों में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचारमुक्त माहौल बनाने की बातें कही थीं. पर ऐसी पारदर्शिता लाए कि बिना किसी जवाबदेही के आईसीसी निकल लिए, बीसीसीआई को मंझधार में छोड़कर. क्योंकि सिफारिशें उनके गले की फांस भी बन सकती थीं तो उन्होंने सेफ जोन में रहना चुना. सचिव अनुराग ठाकुर ने स्पेशल जनरल मीटिंग (एसजीएम) बुलाई और खुद अध्यक्ष बनकर बैठ गए. एसजीएम से पहले नियमानुसार उन्होंने बोर्ड मेंबर के साथ एक मीटिंग लेना भी जरूरी नहीं समझा.
लोढ़ा समिति की सिफारिशों को अगर सुप्रीम कोर्ट हरी झंडी दिखाती है तो क्या अनुराग ठाकुर के लिए अध्यक्ष पद पर बने रहना मुश्किल होगा?
बिल्कुल मुश्किल होगा. उनका निर्वाचन संकट में आ सकता है. सबसे पहले तो यह कि वो चार्जशीटेड हैं और बोर्ड ने सिफारिशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जो अपना जवाब पेश किया है उसमें हर सिफारिश का विरोध किया है लेकिन चार्जशीट वाले मसले पर चुप्पी साध ली है. कानूनी भाषा में इसे ऐसे देखा जाता है कि अगर आप किसी चीज पर एेतराज नहीं जता रहे तो मतलब आप उसे स्वीकार कर रहे हैं. एक तरह से देखा जाए तो बोर्ड ने इस सिफारिश का समर्थन किया. जब आप समर्थन करते हैं तो फिर आप अध्यक्ष कैसे बन गए? सवाल यह भी है.
सीधी-सी बात है कि अभी भी बोर्ड पदाधिकारियों द्वारा नियमों को तोड़-मरोड़ कर अपने हित में प्रयोग किया जाता है?
हां, मतलब जिस ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ के चलते इतना बवाल मचा, वो हालात अभी भी बोर्ड में कायम हैं. अपने फायदे के लिए लोग काम कर रहे हैं.
एक बात यह भी निकलकर आती है कि बोर्ड 70-75 फीसदी सिफारिशों को मानने के लिए तैयार है. कह सकते हैं कि ये वही सिफारिशें होंगी जिनसे पदाधिकारियों के हित प्रभावित न हों?
वो क्या-क्या चाहते हैं, उससे हमको लेना-देना नहीं है. हम चाहते हैं कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें पूरी तरह से लागू हों. इसके लिए हम सुप्रीम कोर्ट में मुस्तैद हैं. हमारे वकील इसी पर बहस करेंगे.
आपकी लड़ाई बिहार क्रिकेट को उसका हक दिलाने की मांग से शुरू हुई, बताएंगे कि बिहार क्रिकेट का पूरा विवाद क्या है?
1935 से बिहार क्रिकेट एसोसिएशन बीसीसीआई का पूर्ण सदस्य था. 1975-76 में बिहार की टीम ने रणजी ट्राॅफी का फाइनल भी खेला था. सुब्रतो बनर्जी, रमेश सक्सेना, रणधीर सिंह, सबा करीम बिहार से खेलकर ही भारतीय टीम का हिस्सा बने थे. बिहार के पटना में मोइन-उल-हक स्टेडियम है, 1996 विश्वकप के मैच यहां भी हुए थे. लेकिन दुर्भाग्यवश 2000 में राज्य का विभाजन हुआ और झारखंड राज्य बना.
अगर मुझसे पूछिए तो मैं ललित मोदी को दोषी नहीं मानता. अगर वे दोषी हैं तो उनके साथ 2004 से लेकर 2010 तक बोर्ड में जितने भी लोगों ने काम किया है, वे सारे लोग दोषी हैं
इसके बाद बिहार क्रिकेट एसोसिएशन का नाम बदलकर झारखंड राज्य क्रिकेट संघ कर दिया गया. 13 जिलों वाले झारखंड को बोर्ड की पूर्ण सदस्यता दे दी गई. बिना किसी नियम और कानून के जनसंख्या के लिहाज से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य बिहार को बाहर कर दिया गया. जबकि विभाजन उस समय उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का भी हुआ था. वे आज भी बोर्ड के पूर्ण सदस्य हैं, बस बीसीसीआई के दोमुंहे चरित्र के कारण बिहार के साथ पक्षपात किया गया. 6 करोड़ की आबादी वाले गुजरात में 3 रणजी टीमें हैं. महाराष्ट्र में चार पूर्ण सदस्य हैं, तीन रणजी टीम हैं. वहीं बिहार में एक भी रणजी टीम नहीं है.
अब रहा सवाल बिहार में कई एसोसिएशन होने का तो एसोसिएशन ऑफ बिहार क्रिकेट कीर्ति आजाद ने बनाया. राज्य विभाजन के बाद बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन बनाया गया. 2007 में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के ही हम कुछ सदस्यों ने मिलकर बिहार क्रिकेट को उसका हक दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (कैब) का गठन किया. कैब के प्रतिनिधि के तौर पर मैंने पूरी लड़ाई लड़ी. फिर चाहे फुल मेंबरशिप का मसला हो या फिर आईपीएल में फैले भ्रष्टाचार और घोटालों का मामला हो.
मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि बिहार के बच्चे जो हिंदुस्तान के इस सबसे लोकप्रिय खेल से कोसों दूर हैं, उन्हें भी इस खेल में अपना भविष्य संवारने का मौका मिले. उनका क्या गुनाह है? बिहार में वो पैदा हुए हैं, क्या यही गुनाह है? अगर वो बिहार में पैदा हुए भी हैं तो क्या उन्हें उनके राज्य और देश से खेलकर क्रिकेट में भविष्य तराशने का हक नहीं है? ये तो संवैधानिक अधिकारों का हनन है. जब बिहार के सांसद भारत सरकार की कैबिनेट में मंत्री हो सकते हैं तो क्या बिहार के बच्चे रणजी ट्राॅफी, आईपीएल और भारत के लिए नहीं खेल सकते? ये बोर्ड का दोहरा मापदंड है और मुझे देश की न्यायिक प्रणाली से पूरी उम्मीद है कि बिहार के साथ न्याय होगा और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद खेल के साथ हो रहे खिलवाड़ का अंत पूरी दुनिया देखेगी.
बीसीसीआई की बात करें तो वह पूरे देश में क्रिकेट के विकास की बात करता है लेकिन जैसा आपने बताया कि बिहार पूरी तरह विकास से वंचित है, उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. ये कैसा विकास है?
देश में 31 राज्य हैं लेकिन बीसीसीआई के नक्शे पर भारत 20 राज्यों में ही बसता है. वहां के बच्चे ही घरेलू क्रिकेट खेलकर भारतीय टीम का हिस्सा बनते हैं. पूछे कोई इनसे कि बाकी राज्य क्या पाकिस्तान और श्रीलंका में जाकर क्रिकेट खेलेंगे? बोर्ड भारत की टीम बनाता है तो उसकी जवाबदेही है कि देश के हर राज्य के बच्चों को बराबर मौका दे.
मत भूलिए कि भारत को ओलंपिक में मेडल दिलाने वाली मैरीकॉम और सरिता देवी उत्तर-पूर्वी राज्यों से ही हैं. अगर वो भी बीसीसीआई के अंग रहते तो आज आप उनका नाम नहीं सुनते क्योंकि बीसीसीआई के लिए ये राज्य अछूत हैं, उन्हें लगता है कि राज्य देश के बाहर हैं.
बोर्ड के इन 11 राज्यों से कटे होने के पीछे आपको क्या कारण जान पड़ता है? आर्थिक कारण हैं, भौगोलिक कारण हैं या फिर स्थानीय कारण हैं?
पैसे का कारण है. पैसा ज्यादा बंटने लगेगा न. इन्हें डर है कि इनकी तिजोरी खाली हो जाएगी और इन राज्यों से राजस्व कम मिलेगा. लेकिन अब ज्यादा दिन ऐसा नहीं चलेगा. राज्यों को क्रिकेट विकास के नाम पर बोर्ड जो पैसा देता है उस पर अब सुप्रीम कोर्ट की नजर है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पिछले पांच साल में 2200 करोड़ रुपये राज्यों को दिए गए. अब वो इसका हिसाब मांग रहा है कि ये पैसा कैसे और कहां खर्च हुआ. कितना क्रिकेट के विकास पर खर्च हुआ और कितना खुद के विकास पर. इनकी रातों की नींद उड़ गई है. एक राज्य को साल में 30-35 करोड़ रुपये क्रिकेट विकास के नाम पर बोर्ड देता है. उसमें क्या पारदर्शिता बरतता है और क्या उसकी जवाबदेही है? सुप्रीम कोर्ट इस पर सवाल खड़े कर चुकी है. इसलिए इंतजार कीजिए जुलाई में फैसला आने का. जब देश की गर्मी उतरेगी और बरसात का सुहाना मौसम शुरू होगा तब बीसीसीआई में भी एक सुहाना मौसम शुरू होगा और बीसीसीआई की गर्मी को सुप्रीम कोर्ट किस तरह ठंडा करती है ये देखिएगा जुलाई में.
आईपीएल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में आपके द्वारा लगाई गई याचिका में आपकी मुख्य मांगें क्या थीं?
मेरा मांग तो सिर्फ ये थी कि आईपीएल में जो गड़बड़ी हुई है, उसको दबाया जा रहा है. श्रीनिवासन अपने दामाद को बचा रहे हैं, टीमों को बचा रहे हैं. यहां सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उसने श्रीनिवासन युग का तो अंत किया ही, फिर जब देखा कि बोर्ड में कितनी गंदगी भरी है तो इसके लिए लोढ़ा समिति का गठन कर इनके ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’, फंड, फंक्शन, कार्यप्रणाली सबकी विस्तृत जांच करवाई.
मतलब सुप्रीम कोर्ट से आपने जो उम्मीद जताई थी उससे ज्यादा आपको मिला?
मुझे मिला कुछ नहीं है, बस एक आशा की किरण दिखाई पड़ी है. और मुझे व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं मिलेगा. मिलेगा तो 11 राज्यों के उन वंचित बच्चों को जो चाहते हुए भी अपने राज्य या देश के लिए क्रिकेट नहीं खेल पा रहे हैं. जन्म से ही क्रिकेट टीवी में देखते हुए बड़े होते हैं और स्कूल, गली-मोहल्लों में खेलकर उनका क्रिकेट खत्म हो जाता है. क्योंकि बोर्ड कहता है कि इन राज्यों में क्रिकेट संस्कृति नहीं है और हम क्रिकेट नहीं कराएंगे. अब ये सब चीजें ठीक हो जाएंगी.
जब ललित मोदी पर खुलासा हुआ तो ऐसा माना गया कि भारतीय क्रिकेट की सारी समस्याओं की जड़ में वही थे, अब सब कुछ ठीक हो गया है. लेकिन आज हम देखते हैं कि चीजें तब से ज्यादा बिगड़ती जा रही हैं?
अगर मुझसे पूछिए तो मैं ललित मोदी को दोषी नहीं मानता. अगर वे दोषी हैं तो उनके साथ 2004 से लेकर 2010 तक बोर्ड में जितने भी लोगों ने काम किया है, वे सारे लोग दोषी हैं. वैसे भी ललित मोदी कभी भी बीसीसीआई के किसी बहुत ताकतवर पद पर नहीं थे. वे दो साल आईपीएल गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन जरूर रहे लेकिन अगर वे दोषी हैं तो गवर्निंग काउंसिल में उस समय उनके साथ काम करने वाले तमाम सदस्य भी दोषी हैं. आप ललित मोदी पर निशाना साधकर ईमानदारी की चादर ओढ़ लीजिएगा, ये चीज अब चलने वाली नहीं है. सबको दिख रहा है कि बीसीसीआई की असली दुर्दशा तो ललित मोदी के जाने के बाद ही हुई है.
क्या आप कहना चाहते हैं कि उस समय जितनी भी समस्याएं थीं उन्हें तात्कालिक तौर पर ललित मोदी के सिर पर थोपकर दिखाया गया कि सब कुछ सही है?
जी, ऐसा ही हुआ था.
टीवी पर विज्ञापन दिखाने को लेकर बीसीसीआई बिल्कुल अड़ गया है. वह लोढ़ा समिति की इस सिफारिश को मानने के लिए कतई तैयार नहीं कि मैच के दौरान केवल इंटरवल में विज्ञापन दिखाया जाए. बोर्ड का तर्क है कि वह ब्राॅडकास्टिंग अधिकारों के जरिए अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा पाता है, जिसे क्रिकेट के विकास पर खर्च करता है. अगर विज्ञापन दिखाना बंद किया जाता है तो इससे राजस्व की कमी होगी और भारतीय क्रिकेट का विकास प्रभावित होगा.
वे लोग गलत तर्क दे रहे हैं. विज्ञापन स्लॉट बेचता कौन है? बोर्ड अपने हिसाब से स्लॉट बेचता है. क्रिकेट की लोकप्रियता को देखते हुए बोर्ड जो स्लॉट निर्धारित करेगा उस स्लॉट पर बिक्री होगी. इससे बीसीसीआई को कोई घाटा नहीं होगा. देखिए बाजार में जब आलू-प्याज गायब हो जाता है तो बीस रुपये किलो बिकने वाला आलू सौ रुपये किलो में बिकने लगता है. इसलिए स्लॉटिंग समय घटेगा तो दूसरे एंगल से समय मिलेगा. उसको आप मुंह मांगे दामों पर बेचिए. मान लीजिए तीन सौ करोड़ रुपये सालाना बेच रहे हैं तो 1000 करोड़ का भी बेचेंगे तब भी लोग कूद-कूदकर अपना टेंडर भरेंगे. ये सब धोखे में रखने का हथकंडा है. घाटे की बात तर्कहीन है.
आईपीएल को तो इस सिफारिश से बाहर रखा गया है, बोर्ड चाहे तो आईपीएल के ब्रॉडकास्टिंग अधिकार अपने हिसाब से बेचकर राजस्व की उगाही कर सकता है.
इनको पैसे की लत लग गई है. इनके मुंह में खून लग चुका है और इनका एकमात्र उद्देश्य रह गया है कि किसी तरह मार्केटिंग करो, अपनी जेब भरो, तिजोरी भरो. आईपीएल तो अभी फिर से भारत के बाहर सितंबर में ही कराने जा रहे हैं. आईसीसी के कैलेंडर में 28 दिन तक कोई भी मैच नहीं है. बाकी राज्यों में क्रिकेट का विकास हो या नहीं हो, कोई मतलब नहीं है लेकिन अब इस बात की खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट इनके प्रशासनिक ढांचे में दखल दे चुका है इसलिए अब इनकी जो हेकड़ी है वो ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली.
राज्य क्रिकेट संघों द्वारा लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर आपत्ति जताने के पीछे क्या कारण दिखाई देता है?
उनको जताने दीजिए न. जिनका पैसा जाएगा, जो लोग दशकों से राज्य क्रिकेट संघों में जमे हुए हैं, उनकी तो दुकान बंद हो रही है तो क्यों नहीं आपत्ति जताएंगे? मेरे पूछने का मतलब है कि वे एक तरफ तो बोर्ड को सोसाइटी बताते हैं और दूसरी तरफ उसको अपनी दुकान की तरह चला रहे हैं. हिंदुस्तान में अच्छे लोगों की कमी नहीं है जो बीसीसीआई को अच्छे ढंग से चला सकें. इंतजार कीजिए ये लोग जाएं, अभी बहुत अच्छे-अच्छे लोग तैयार बैठे हैं बीसीसीआई को और ऊंचाई तक ले जाने के लिए.
बार-बार बीसीसीआई खुद के सोसाइटी होने की दुहाई देकर सिफारिशों को लागू करने से बचने का रास्ता ढूंढ़ता है, उसका तर्क कहां तक सही है?
जब हमारी लगाई याचिका से बोर्ड मुंबई में हारा, तभी से ये लोग यह बात कह रहे हैं. अगर ऐसा ही होता तो एक निर्वाचित अध्यक्ष श्रीनिवासन को सुप्रीम कोर्ट ने कैसे बाहर का रास्ता दिखा दिया! उनको जो कहना है कहने दीजिए, बाकी इंतजार कीजिए अगले आदेश का. बोर्ड किसी की निजी संपत्ति या दुकान नहीं है. अब वे कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट वाले लोग कितने ही बहाने बनाएं, जल्द ही पतली गली से अपने घर निकलेंगे.
देश में जब यूपीए की सरकार थी तब खेल मंत्री अजय माकन ने भी बोर्ड की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाने और उसे आरटीआई के दायरे में लाने की वकालत अपने ‘खेल बिल’ में की थी, तब भी बोर्ड के बड़े प्रशासनिक खिलाड़ियों ने इसका जमकर विरोध किया था. बात तो ये लोग करते हैं कि बोर्ड में सब ठीक चल रहा है, जब सब ठीक है तो फिर इन्हें आरटीआई से क्या समस्या है?
आरटीआई और कैग से समस्या इसलिए है कि बोर्ड की प्रशासनिक गतिविधियों में पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव है. पैसे के लेन-देन में हेर-फेर है. मुंह मांगा पैसा दिया जाता है, कोई हिसाब-किताब नहीं है कि पैसा सही जगह पर जाता है या किसी की जेब में जाता है, तिजोरी में जाता है या फिर बैंक लॉकर में जाता है. तो जब इस सबकी जानकारी बाहर आएगी तो बहुतों की रातों की नींद उड़ जाएगी, बहुतों को जेल की भी हवा खानी पड़ेगी.
ऐसा कहा जाता है कि बोर्ड की राजनीति में दखल रखने वालों ने श्रीनिवासन को अपने रास्ते से हटाने के लिए आपको मोहरा बनाकर इस्तेमाल किया?
देखिए, जब हम अपने बिहार के क्रिकेट की लड़ाई लड़ते-लड़ते श्रीनिवासन के कनफ्लिक्ट आॅफ इंटरेस्ट तक आ गए, उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन के गिरफ्तार होते ही जैसे-जैसे लड़ाई हमारे पक्ष में होती गई तो शशांक मनोहर सहित वर्तमान में बीसीसीआई में जितने भी लोग हैं मेरे करीब आते गए. किसी ने मुझे समय पर पेपर मुहैया कराया तो किसी ने कानूनी सलाह देने में मेरी मदद की तो किसी ने बोर्ड से जुड़े अहम दस्तावेज मुझे मुहैया कराए. मुझे यहां तक कहा गया कि श्रीनिवासन के जाने के बाद कैब को बिहार में क्रिकेट के संचालन की कमान सौंप दी जाएगी. लेकिन हुआ ठीक उल्टा. श्रीनिवासन तो चले गए, इनका रास्ता साफ हो गया. लेकिन उसके बाद ये लोग मेरे पीछे लग गए. मुझे रास्ते से हटाने लगे. अपने हित साधकर मेरी पीठ में छुरा घोंपा.
बिहार क्रिकेट को उसका हक दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए कैब का गठन किया. मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि बिहार के बच्चे जो इस लोकप्रिय खेल से कोसों दूर हैं, उन्हें भी भविष्य संवारने का मौका मिले
मतलब इन लोगों ने आपके जरिए अपना रास्ता साफ कर लिया जब आप इनके किसी काम के नहीं रहे तो आपसे किनारा कर लिया?
अब ये उनकी सोच होगी. मेरी तो ऐसी सोच नहीं थी. लेकिन एक इंसान होने के कारण मुझे तो बुरा लगा न. मैंने सब कुछ दांव पर लगाकर ईमानदारी से लड़ाई लड़ी और बीसीसीआई को साफ करने का बीड़ा उठाया. जब इन लोगों के हाथ में सत्ता आई तो ये लोग मुझे ही बाहर करने की तरकीबें खोजने लगे. रत्नाकर शेट्टी, जो बोर्ड कार्यालय के प्रशासनिक इंचार्ज हैं, उनके द्वारा मेरे कार्यालय में दाखिल होने पर पाबंदी लगा दी गई. फिर समझ आया कि श्रीनिवासन को हटाने में इनके हितों में टकराव हो रहा था. उनके रहते ये लोग खुलकर सांस भी लेना चाहें तो नहीं ले सकते थे. अब वो तो चले गए. उनके जाने का जरिया भगवान ने मुझे और देश की शीर्ष अदालत को बनाया. अब इन लोगों ने मुझे बाहर बैठाने का मन बना लिया.
उन्हें आपसे ऐसा क्या डर हो गया?
ये तो बेहतर वही बताएंगे. उनको लगता होगा कि जो इंसान घोटाले-भ्रष्टाचार में इतनी ईमानदारी से लड़ सकता है, अगर हमारे साथ रहेगा तो कभी हमारे खिलाफ मामला उजागर होने पर हमें भी नहीं छोड़ेगा. बाहर रहकर इतना सब कुछ किया, जब बोर्ड के अंदर साथ रहेगा तो सब सामने देखेगा कि क्या गड़बड़झाला चल रहा है, रोज लड़ाई करेगा. इसको अंदर नहीं आने दो और अंदर न आने देने का एक ही जरिया था कि कैब को मान्यता न देना.
बोर्ड में श्रीनिवासन के प्रभाव के चलते किसी पदाधिकारी की हिम्मत नहीं थी कि वह उनके विरोध में एक शब्द भी बोल सके फिर आप क्या सोचकर उनके खिलाफ मैदान में ताल ठोक बैठे?
मैंने श्रीनिवासन से ये सोचकर लड़ाई लड़ी कि उनके हटने के बाद से बोर्ड में एक व्यापक सुधार आ जाएगा. लेकिन ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. जिस तरह रावण के दस सिर थे न, उसी तरह बीसीसीआई में लोग श्रीनिवासन से भी बड़े-बड़े कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट रखने वाले भरे पड़े हैं. एक श्रीनिवासन गया है, कई बाकी हैं. लेकिन मुझे उम्मीद है कि जिस तरह से रावण का अंत हुआ है उसी तरह से बीसीसीआई में व्याप्त भ्रष्टाचार का भी अंत होगा.
यदि लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होती हैं तो देश में क्रिकेट में क्या बदलाव आने की आप अपेक्षा करते हैं?
पहला तो यह कि क्रिकेट वास्तव में भद्रजनों का खेल बनकर निकलेगा. दूसरा, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीब बच्चों को भी एक उचित प्लेटफॉर्म मिलेगा अपना हुनर दिखाने का. तीसरा, बीसीसीआई के नक्शे पर जो हिंदुस्तान 20 ही राज्यों में बसा है वो 31 राज्यों में बस जाएगा, जिससे देश का सबसे प्यारा खेल क्रिकेट वहां के बच्चे खेल पाएंगे और सचिन और कोहली बनने का अपना सपना पूरा कर सकेंगे.
सरकार को चाहिए कि आहत भावनाओं का एक आयोग बनाए- नाकोहस यानी नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स! : पुरुषोत्तम अग्रवाल
आपके उपन्यास नाकोहस (नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स) की खूब चर्चा हुई. मौजूदा परिवेश में बात कहते ही आहत होती भावनाओं से व्याप्त डर और अराजक माहौल के चलते उपन्यास शायद ज्यादा प्रासंगिक हो गया है. आपका क्या अनुभव रहा?
यह सही है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के चलते उपन्यास को उसी संदर्भ में पढ़ा गया, लेकिन उसमें और भी बहुत चीजें थीं जिस पर लोगों का ध्यान कम गया. उपन्यास में प्रेम है, जीवन है, अंतर्विरोध है तो दुख और भय भी है.
उपन्यास बुद्धिजीवी समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं पर भी चुटकियां लेता है. बुद्धिजीवी वर्ग का अंतर्विरोध बार-बार उसमें सामने आया है. उसमें एक प्रसंग है कि आजकल प्रगतिशील लोगों की थाली में भी दो-चार राष्ट्रवादी आइटम जरूर पाए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि यह बुद्धिजीवियों के अधिकार और आत्माभिमान का ही घोषणा पत्र है. उपन्यास में बुद्धिजीवी का मतलब वो है जो किसी न किसी रूप में धरातल पर जाकर समाज से जुड़े. उपन्यास जहां से शुरू होता है, एक पात्र सुकेत की यादें जहां से शुरू होती हैं, वह सब आपको नेल्ली (असम) तक ले जाता है कि उत्तर-पूर्व आपकी सोच में भी कहीं नहीं है. किसी को पता तक नहीं है कि 1983 में नेल्ली में क्या हुआ था. नेल्ली के बाद 1984 का सिख विरोधी दंगा, हाशिमपुरा और मलियाना का संदर्भ है.
यह उपन्यास किसी समाज में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका को रेखांकित करता है, समाज में टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट का जो आतंक है और पढ़ने-लिखने का मतलब वही समझ लिया जाता है, ये उस पर बात करता है. मैं मानता हूं कि यह उपन्यास आपको याद दिलाता है कि अगर आप साहित्य, संस्कृति, इतिहास आदि की उपेक्षा करेंगे और इन पर स्पष्ट बोलने वालों को लगभग गाली की तरह बुद्धिजीवी कहने लगेंगे तो अंतत: आप अपना ही नुकसान करेंगे. क्योंकि ऐसा समाज अनिवार्य रूप से नाकोहस की तरह है. जैसा कि नाकोहस का प्रवक्ता गिरगिट कहता है बुद्धिजीवियों के सम्मान का नाटक बहुत हो चुका. ये नहीं कि आप कुछ भी बकते रहें और हमारी भावनाएं आहत हों. उपन्यास तीनों चरित्रों की मानवीयता को भी रेखांकित करने की कोशिश करता है. उपन्यास तीन बुद्धिजीवियों का एक रात का अनुभव मात्र नहीं है.
आपकी पहचान मुख्य रूप से आलोचक की रही है फिर आपको उपन्यास लिखने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
मैं आलोचना लिखता रहा हूं लेकिन नियमित रूप से कविता भी लिखता हूं. ये बात और है कि उसे प्रकाशित नहीं कराता. यहां तक कि सुमन जी (अपनी पत्नी) को भी नहीं पढ़ाता. कभी मन हुआ तो ठीक-ठाक करके कहीं भेजा, वरना लिखकर रख लेता हूं. फिक्शन में मेरी रुचि शुरू से थी. कॉलेज के दिनों में दो-तीन कहानियां लिखी थीं, पुरस्कृत भी हुईं. बाद में आलोचना लिखने लगा. लोगों को लगने लगा कि ये आलोचना अच्छी लिखते हैं. चर्चा होने लगी. तत्काल की जो स्थितियां बन जाती हैं, वही पहचान बन जाती है. लेकिन परिवार और निजी मित्रों को मालूम है कि मैं 25 साल से ये धमकी देता रहा हूं कि मैं उपन्यास लिखूंगा. इसका कारण मैं ये मानता हूं कि कविता और तमाम दूसरी विधाओं के प्रति सम्मान के साथ, जीवन को उसकी समग्रता में अगर साहित्य की कोई विधा व्यक्त कर सकती है तो वह उपन्यास है.
मैं ये नहीं कह रहा कि सिर्फ उपन्यास ऐसा करता है. लेकिन उसी तरह जैसे भाषा का सबसे सघन और सर्जनात्मक उपयोग कविता में हो सकता है- ऐसा कहकर मैं दूसरी विधा का अपमान नहीं कर रहा, सिर्फ कविता की विशेषता बता रहा हूं- उसी तरह चाहे समाज हो, आपका अंतर्मन, आपकी अस्तित्वगत वेदना या चाहे आपकी ऐतिहासिक चिंता, उसका जिस समग्रता में अनुसंधान उपन्यास करता है, कोई दूसरी विधा नहीं कर सकती. उपन्यास में कई आवाजें होती हैं. गोदान में केवल होरी की आवाज नहीं है. गोदान में राय साहब, बदमाश अफसरों, थानेदार, झिगुरी, पंडित यानी होरी के शोषकों की भी आवाजें हैं. वह उपन्यास जो अपने पसंदीदा चरित्र के अलावा किसी और चरित्र को बोलने ही न दे या लेखक सिर्फ अपनी मर्जी की बात कहलवाए, वह काफी घटिया उपन्यास होगा. अच्छा उपन्यास वह होता है जिसमें ऐसे भी चरित्र हों जिन्हें आप लेखक के साथ जोड़कर देख सकते हैं. इसे देखते हुए मैं पिछले 25 साल से उपन्यास लिखने की बात सोच रहा था. एक वृहद उपन्यास पर काम करना बाकी है.
जब मैंने नाकोहस कहानी लिखी, जो 2014 में छपी, उस पर जिस तरह का विवाद या बहस हुई, वह बहुत रोचक था. जिन लोगों से मैं अपेक्षा करता था कि उसकी निंदा करेंगे, उन्होंने तो की ही, लेकिन बहुत सारे लोगों ने आलोचना की. यह ठीक भी है. लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि रघु नाम का पात्र ईसाई है, तो आप हिंदू नायकत्व का पीछा कर रहे हैं. या उसको हिंदू परंपरा की जानकारी है तो आप खुद हिंदू सांप्रदायिकता को शह दे रहे हैं. इस पर काउंटर भी किया गया. कहानी पर चर्चा दिलचस्प रही. इस पर मित्रों-परिजनों ने सलाह दी कि इसको उपन्यास में बदलिए. फिर मैंने इस पर सोचना शुरू किया उपन्यास के रूप में और लिखा.
जब कहानी छपी थी तो सवाल उठाए गए थे कि इसमें कहानीपन नहीं है. क्या कहेंगे आप?
मुझे कहानीपन की बात बिल्कुल समझ में नहीं आती. ठीक है कहानीपन एक बात है, लेकिन कहानीपन का कोई एक बुनियादी रूप नहीं है जिसके आधार पर आप एक कहानी को खारिज कर दें और एक को कहानी मान लें. अब मुझे नहीं पता कि कहानीपन या कथातत्व पर बात करते हुए ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को उपन्यास माना जाएगा या नहीं. या ‘नौकर की कमीज’ को उपन्यास मानेंगे या नहीं. लेकिन ठीक है यह सवाल उठाने वालों की राय है.
मेरी समझ के मुताबिक एक बुनियादी घटनाक्रम है, एक वैचारिक संघर्ष है, कोई कहानी इस वजह से कहानी नहीं रहती, ऐसा मैं नहीं मानता. जब उपन्यास के तौर पर मैंने इसको सोचा तब तक चीजें काफी साफ होने लगी थीं और समाज की जिस परेशानी से मैं गुजर रहा था, जिसे गोविंद निहलानी ने उपन्यास पर चर्चा करते हुए ‘डिस्टर्बिंग डिस्टोपिया’ कहा था, शायद उसकी कल्पना कर रहा था. डिस्टर्बिंग यानी जो बुरी तरह आपको परेशान करे या डरा दे, ये डर कम से कम मेरा निजी है. इस डर को एक फैंटेसी के रूप में रचा गया है. उपन्यास का पात्र टेलीविजन बंद करना चाह रहा है लेकिन वह बंद नहीं हो रहा है. वह रिमोट का बटन दबा रहा है, पीछे से पावर ऑफ कर रहा तब भी वह बंद नहीं हो रहा है. उसके कमरे की हर दीवार टेलीविजन स्क्रीन में बदल गई है. एक टेलीविजन तुम फोड़ भी दो तो भी फर्क नहीं पड़ेगा.
पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है. इस दौरान समाज में क्रोध का विस्तार होता चला गया, समझदारी की कमी होती गई, भाषा में सपाटपन आता चला गया
जेएनयू प्रसंग या अन्य हालिया प्रसंगों में भी कुछ टेलीविजन चैनल जिस तरह का माहौल बनाते हैं, उसमें जिन लोगों का नाम लेकर इंगित किया जाता है, आपको नहीं पता कि उनके साथ कब, कैसी अनहोनी घटित हो सकती है. क्या देश की राजधानी में यह एक अनोखी घटना नहीं है कि कोर्ट परिसर में एक लड़के पर जानलेवा हमला हो और पुलिस कुछ न कर पाए? बाद में भी कुछ नहीं हुआ. यह ‘लिंच मेंटालिटी’ है. आप लिंच मेंटालिटी (मारपीट या हत्या करने की मानसिकता) का निर्माण कर रहे हैं और यह उपन्यास यही याद दिलाता है.
उपन्यास में एक वाक्य आता है, ‘जिससे भय होता है उस पर करुणा नहीं होती.’ लोगों के मन में भय बैठाया जा रहा है कि यह आदमी देश के लिए खतरनाक है, समाज के लिए खतरनाक है, आपके परिवार, बहन, बेटी के लिए खतरनाक है. भले ही वह आदमी अपने आप में कितना निर्दोष हो. उसकी जान लेने में न आपको संकोच होगा, न कोई अपराधबोध. अगर आप सचमुच ऐसा समाज बनाना चाह रहे हैं, जिसमें किसी निर्दोष को भी मार देने में उसे संकोच न हो तो वह समाज कैसा होगा?
उपन्यास में जिस तकनीकी अतिक्रमण का जिक्र है कि टीवी चैनल बंद नहीं हो पा रहा, मोबाइल स्क्रीन मन की बात जान ले रहा है, यह लिखते समय आपके दिमाग में क्या था? व्यवस्था द्वारा किया जा रहा अतिक्रमण या संचार माध्यमों का पूंजीपन जो लोगों के जीवन में निर्बाध प्रवेश कर रहा है?
मैं सीधे कहूंगा कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में ये दोनों चीजें लागू होती हैं. खुद में यह व्यवस्था भी और पूंजीवाद भी. लेकिन मैं यह मानता हूं कि अगर आपके जीवन में एकांत का कोई पल न बचे तो यह आपकी मनुष्यता के समाप्त होने की हालत है. जब आपके पास अपने भी साथ होने का थोड़ा-सा समय नहीं है, जब आप किसी से बात न कर रहे हों, फेसबुक पर किसी से दंगल न कर रहे हों, कुछ देर आप चुपचाप बैठें, संगीत सुन रहे हों, या कुछ भी करें. अपने साथ रहें. एकांत में दो चीजें होती हैं. एक तो शांत चित्त से सोचने का वक्त मिलता है. दूसरा, एकांत में आप अपनी कल्पनाओं और स्मृतियों को थोड़ा-सा व्यवस्थित होते देखते हैं. इन दोनों स्थितियों से आपको लगातार वंचित रखा जा रहा है. मनुष्य के एकांत का अतिक्रमण राजसत्ता तो कर ही रही है, लेकिन ये इस पूंजीवादी व्यवस्था या कहिए खास तरह के पूंजीवाद की बड़ी स्वाभाविक विशेषता है. उसकी हर जगह दखलंदाजी है. आपका कोई क्षण ऐसा नहीं है जो आपका अपना हो. वह एडवर्टाइजिंग कल्चर का हिस्सा है, जब आपके बेडरूम से लेकर आपका कमोड तक विज्ञापन और उत्पाद की जद में है. इसलिए जरूरी है कि वह आपकी हर चीज तक पहुंचे. इस क्रम में आपका जो भी एकांत है, जिससे आपका व्यक्तित्व परिभाषित होता है, वो
खत्म हो जाता है. ये मुझे बहुत भयावह स्थिति लगती है. मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जहां घर में चार कमरे हैं तो चार टीवी हैं. वेे साथ खाना नहीं खाते. सब अपने-अपने कमरे में टीवी देखते हुए खाना खाते हैं.
नाकोहस की कल्पना कैसे की?
2003 या 2004 में आपको याद हो तो एक किताब छपी थी, ‘शिवाजी हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया’. उसके लेखक थे अमेरिकी विद्वान जेम्स लेन. वे पुणे में भंडारकर इंस्टिट्यूट में रिसर्च के लिए आए थे. इस दौरान महाराष्ट्र में घूमते हुए उन्हें शिवाजी के बारे में कुछ बातें मालूम हुईं, जिन पर उन्होंने किताब लिख दी. किताब में सहयोग के लिए संस्थान का आभार प्रकट किया गया था. इस पर ‘संभाजी ब्रिगेड’ नामक एक संगठन ने संस्थान में घुसकर तोड़-फोड़ की. उस समय गोपीनाथ मुंडे जी ने बयान दिया कि हमारी भावनाएं तो जवाहरलाल नेहरू की किताब से भी आहत होती हैं.
तब मैंने एक लेख लिखा कि भावनाएं बहुत आहत हो रही हैं. भावनाएं आहत होकर कूदकर सड़क पर आ जाती हैं. इससे राष्ट्रीय संपदा का नुकसान होता है तो सरकार को चाहिए कि आहत भावनाओं और आक्रांत अस्मिताओं का एक आयोग बनाए, नेशनल कमीशन आॅफ हर्ट सेंटिमेंट्स (नाकोहस). तो ये विचार दस-बारह साल पुराना है. इसका पिछले आम चुनाव के परिणाम से कोई संबंध नहीं है. पिछले पांच-छह साल में जैसा माहौल देश में बनता चला गया है, उसमें सुधारवाद और प्रतिक्रियावाद में कोई भेद नहीं है. पुणे में जब यह वाकया हुआ तब वहां कांग्रेस की सरकार थी. जब सलमान रुश्दी को भारत नहीं आने दिया तब कांग्रेस की सरकार थी. एक गांव की पंचायत आदेश दे देती है कि अब गांव की लड़कियां मोबाइल फोन नहीं रखेंगी, किसी लड़की के पास मोबाइल पाया जाता है तो मार-मारकर उसकी हालत खराब कर दी जाती है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कह देते हैं कि समाज के मामले में सरकार क्या कर सकती है. इन लोगों ने सरकार की धारणा ही तब्दील कर दी है. इन लोगों को आधुनिक राजसत्ता का बोध ही नहीं है. आधुनिक राजसत्ता समाज को केवल व्यवस्थित ही नहीं करती, बल्कि समाज को बदलने की कोशिश करती है. कोई आधुनिक राजसत्ता यह नहीं कह सकती कि स्त्रियों या दलितों की क्या हालत है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, यह तो सामाजिक मसला है.
उदाहरण से समझिए कि समस्या कहां होती है. एक सज्जन ने घोषणा की कि वे कन्हैया को मार देंगे तो उनको माला पहनाई गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक नेता जी ने घोषणा की कि वे सलमान रुश्दी को मारने वाले 51 लाख रुपये देंगे. बाद में वो बड़े-बड़े सेक्युलर नेताओं के साथ मंच पर दिखे. पिछले दस-बारह साल में जिस तरह की स्थितियां पैदा हुई हैं कि आहत भावनाओं का मामला एक तरह से किसी भी विमर्श की सर्वस्वीकार्य शर्त बन गया है. यानी विमर्श तब ही होगा अगर आपकी भावनाएं आहत हुई हैं.
आहत भावनाओं की राजनीति और 24 घंटे का मीडिया, इसने बहुत बुरी स्थिति पैदा की है. मैं इसे असहिष्णुता नहीं कहता, यह पर्याप्त शब्द नहीं है. पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है. इस दौरान समाज में क्रोध का विस्तार होता चला गया, समझदारी की कमी होती गई, भाषा में सपाटपन आता चला गया. मैंने जनवरी में फेसबुक पर शरारत के तौर पर लिखा, विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री जी मुख्य अतिथि होंगे. (ठहाका लगाते हुए) कुछ लोगों को पसंद नहीं आया तो उन्होंने निंदा की, कुछ ने गालियां दीं. लेकिन एक सज्जन ने बाकायदा मुझे कोसा कि आप बड़े भारी प्रोफेसर बनते हैं, बुद्धिजीवी बनते हैं, इतना भी नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री तो हर साल गणतंत्र दिवस पर होते ही हैं.
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उपन्यास के अंश
एक लेखक उसकी लिखी किताबों के साथ जिंदा जलाया जा रहा है. यह सैकड़ों साल पहले के यूरोप की बात है. एक कवि पर हाथी दौड़ाया जा रहा है, यह सैकड़ों साल पहले के भारत में हो रहा है. एक प्रोफेसर का दायां हाथ काट दिया गया है, उसके काॅलेज ने उसी को बर्खास्त कर दिया है. एक बुजुर्ग लेखक अपनी अप्रकाशित पांडुलिपि खुद ही जला रहा है; क्योंकि आहत भावनाओं के रणबांकुरे उसके साथी लेखक की देह को क्षत-विक्षत करके जा चुके हैं… यह कुछ ही बरस पहले, सुकेत के अपने देश-काल में हुआ है. चर्च धर्मद्रोही विद्वान की किताबें जला रहा है, वह विद्वान आत्महत्या कर रहा है. उसका दोस्त कह रहा है, मुझे भी फूंक डालो साथ में क्योंकि मुझे अपने दोस्त की सारी किताबें जबानी याद हैं… यह हजारों साल पहले की बात है. एक लेखक फेसबुक पर अपनी मौत की घोषणा कर रहा है, वह अपने बीवी-बच्चों के साथ आम आदमी की तरह जीना चाहता है, सो उसे लेखक के तौर पर मरना ही होगा… यह बस कल-परसों की बात है.
* * *
‘वेल’ गिरगिट इस बार, बिना जीभ लपलपाए, बिना आंख मारे, बिना रंग बदले बोल रहा था, ‘उम्मीद तो है कि आप तीनों अब सुधर जाएंगे… नहीं तो… आप जानें… वैसे, यू मस्ट एप्रिशिएट द फैक्ट कि आपके साथ नाकोहस ने कमाल की नरमी बरती है… बस जरा से दस्तखत, दस्तखत भी क्या, इनिशियल्स ही तो किए गए हैं, आप लोगों की बॉडीज पर… डू यू रियलाइज सर… कि जितना वक्त आपने नाकोहस के फ्रेंडली इंटरएक्शन में बिताया, जितना आपको वहां ले जाने, वापस पहुंचाने में लगा, यानी कुल मिलाकर आप तीनों जितनी देर इस किस्सा-ए-नाकोहस में रहे, बस उतने ही अरसे में एक जाने-माने बुजुर्ग इंटेलेक्चुअल भारत में भगवान को प्यारे हो गए, और एक अरब में अल्लाह मियां से मिलने भेज दिए गए…’[/symple_box]
ये जो सतत रूप से क्रुद्ध समाज तैयार हुआ है, ये कैसे संभव हुआ?
इसका सबसे बड़ा कारक है निर्बाध उपभोक्तावाद. मैं यह नहीं मानता कि आप प्रकृति की ओर लौट जाएं, लेकिन एक अर्थशास्त्री मित्र कहते हैं कि ओपन इकोनॉमी एक सीमा तो है ही और वह है धरती पर उपलब्ध संसाधन. उससे ज्यादा ओपन तो नहीं हो सकती.
अर्थशास्त्री ब्रह्मदेव जी एक बात कहा करते थे कि अगर आपको अमेरिका और यूरोप के वर्तमान जीवन स्तर पर पूरी दुनिया को ले जाना है तो यह एक ही तरीके से संभव है कि आपके पास आठ पृथ्वियां हों और उन आठों का वैसा ही दोहन हो जैसा पिछले 400 साल में हुआ. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं है. तो निर्बाध उपभोक्तावाद नहीं चल सकता. आप किसी एक सेक्टर के लिए बाकी को छोटा करेंगे. दिल्ली में आॅड इवेन करेंगे लेकिन आॅटोमोबाइल इंडस्ट्री पर लगाम नहीं लगाएंगे. एक परिवार में चार सदस्य हैं और बारह गाड़ियां हैं. आप निर्बाध उपभोग की स्थिति पैदा करेंगे तो जाहिर है कि समाज में अंतर्विरोध पैदा होगा.
तो एक तो इस अबाध, बेरोकटोक उपभोग की स्थिति ने समस्या पैदा की है. दूसरे, पूंजीवाद का सहज स्वभाव है कि यह मनुष्य को उपभोक्ता में बदलता है. यह उसके जिंदा रहने के लिए जरूरी है, इसलिए वह मनुष्य की मनुष्यता को कमतर करेगा. प्रतियोगिता को इस स्तर तक बढ़ाएगा कि वह गलाकाट प्रतिस्पर्धा में बदल जाएगी.
आपसे बात करते समय मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है
दूसरी समस्या है हमारे अपने समाज के संदर्भ में. हमारे लोकतंत्र का एक बुनियादी अंतर्विरोध दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है कि एक स्तर पर हम लोकतंत्र हैं, चुनाव से सरकार चुनी जाती है, जनता का शासन है. लेकिन रोजमर्रा की प्रैक्टिस में सामाजिक न्याय और कानून के राज का क्या हाल है? आप निजी तौर पर हत्या करें तो आपको सजा हो जाएगी, लेकिन किसी समुदाय के प्रतिनिधि बनकर हत्या कर दें तो आपको कुछ नहीं होगा, बल्कि आपका अभिनंदन होगा. आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं. ये हमारे अपने देश की समस्या है. एक तरह से कानून के राज की समाप्ति हो रही है. न्याय का बोध खत्म हो रहा है. तीसरी बात, पिछले 20 साल में नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद आप महसूस करते हैं कि पहले एक मध्यवर्गीय आदमी यह मानकर चलता था कि व्यापक समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी है, जो कुछ उसे मिलता है वह एक व्यापक वितरण हिस्सा है. आजकल एक बड़ा मजबूत बोध विकसित हुआ है कि हम टैक्सपेयर हैं. टैक्सपेयर मनी, ये मुहावरा बहुत झल्लाहट पैदा करता है कि सब कुछ टैक्सपेयर मनी से हो रहा है.
हमारे समाज में नई तरह की समस्या यह पैदा हुई है कि सरकार मैनेजर की भूमिका में है, संसाधनों का केंद्रीकरण हो रहा है. अमेरिका में जो बात बार-बार कही जाती है कि 99 फीसदी संसाधनों पर एक फीसदी लोगों का कब्जा है, ऐसा अमेरिका नहीं चल सकता. ऐसे समाज में गुस्सा बढ़ता है जो हिंसा या सांप्रदायिकता या दूसरे खतरनाक रूप में सामने आता है.
जिन वजहों से ऐसा समाज बनता है, जाहिर है कि वह आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था है. क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था है जिससे ऐसी स्थिति से बचा जा सके?
हां, बिल्कुल है. अार्थिक व्यवस्था से अगर आपका आशय है अर्थतंत्र तो उद्योग अनिवार्य है. अब लोग केवल प्रकृति के नहीं, बल्कि संस्कृति और प्रौद्योगिकी के नजदीक हैं. तो उद्योग होंगे, छोटे भी और बड़े भी. लोगों को वाकई अगर जीवन का एक स्तर चाहिए और विकास चाहिए तो उसके लिए एक जटिल समाज और अर्थतंत्र की जरूरत होगी. सवाल यह है कि उस अर्थतंत्र में संवेदनशीलता संभव है या नहीं. इसीलिए इस उपन्यास में बार-बार कहा गया है कि किसी भी तरह का अथॉरिटेरियन समाज, उसकी रंगत कुछ भी हो, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता.
मोटे तौर पर आप कह सकते हैं सोशल डेमोक्रेसी या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म. मैं निजी तौर पर मानता हूं कि नए तरह का नेहरू मॉडल हो सकता है जो अपने समय के अनुकूल हो, जो गलतियों से सीखा गया हो. मुझे अपने आपको नेहरूवादी कहने में कोई हिचक नहीं है. एक नवनिर्मित नेहरू मॉडल, एक मिश्रित अर्थव्यवस्था ही सबसे अनुकूल हो सकती है जिसका डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशन का सपना हो, डेमोक्रेटिक प्रैक्टिसेज का सपना हो. देश आजाद हुआ तो लोगों ने नेहरू से कहा कि तरह-तरह की समस्याएं हैं, ये प्रेस फ्रीडम संपन्न और फैंसी देशों की लक्जरी है, इसको फ्री मत छोड़ो वरना गैरजिम्मेदार हो जाएगा और आपको परेशान करेगा. इस पर नेहरू ने कहा, मैं प्रतिबंधित प्रेस की जगह गैरजिम्मेदार मगर फ्री प्रेस को तवज्जो दूंगा. नेहरू ने गलतियां भी कीं, लेकिन उन्होंने देश की नींव रखी. विज्ञान, कला, साहित्य, सिनेमा, उद्योग हर चीज की नींव रखी.
आपने लिखा है- ‘आज के दौर का लेखक भी उन बातों को दर्ज करने से दूर है जो सच तो है लेकिन कही नहीं जा रही है’, यह अपने समय और समाज पर गंभीर सवाल है.
इसके पीछे एक वाक्य है एक इतिहासकार का, नाम याद नहीं, जो दिखता है उसे लिखना तो जरूरी है ही, लेकिन ज्यादा जरूरी है उसे लिखना जो दिखता नहीं है लेकिन जिसे लिखा जाना चाहिए. मुझे लगता है कि इतिहासकार हों, साहित्यकार, या समाजशास्त्री, सभी की मूल प्रतिक्रिया यही है कि चीजों को समग्र रूप में देख सकें और जो चीजें कही जानी चाहिए उसे कहा जाए. जैसे मिसाल के तौर पर, नाकोहस को लीजिए. असल में नाकोहस नाम की कोई संस्था तो है नहीं. लेकिन जो पूरा माहौल आपने बना दिया है कि आपसे बात करते समय मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. क्या आज यह डर हमारे मन में नहीं है? यह बात मैं औपचारिक-अनौपचारिक, हर रूप में कहना चाहता हूं कि क्या ये सच नहीं है कि किसी भी चीज पर बात करते समय आज स्थिति ये हो गई है कि आप आसपास देख लेना चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं सुन रहा जिससे खतरा हो. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है. यह स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है, जहां आपको अपनी आवाज से डर लगे. चैनलों की इसमें अहम भूमिका है. बुद्धिजीवियों को आप अपराधी घोषित करके, उन्हें राक्षस बताकर आप जो कर रहे हैं, वो कितना खतरनाक है यह बात कोई नहीं कहता. इसीलिए दुख है कि जो कहा जाना चाहिए वो बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है. इसीलिए मैंने यह उपन्यास लिखा है. मुझे नहीं पता कि यह उपन्यास, उपन्यास की दृष्टि से कैसा है, लेकिन एक लेखक के तौर पर अनुभव करता हूं कि कहीं न कहीं लोगों ने उसे खुद से जुड़ा पाया है और वे सिर्फ इसलिए नहीं जुड़े रहे हैं कि वह डर का एक सपाट चित्र प्रस्तुत करता है, बल्कि इसलिए जुड़ाव महसूस करते हैं कि उपन्यास के उन तीन बुद्धिजीवी चरित्रों की मानवीयता, संवेदनशीलता, मन, उनके अंतर्विरोध ये सारी चीजें कहीं न कहीं लोगों से जुड़ती हैं. यह इसलिए भी कि जिस डर को उपन्यास फैंटेसी या कल्पना के रूप में रच रहा है, वह डर लोगों के मन में कहीं न कहीं मौजूद है.
इसी से जुड़ी एक और बात लेखकों की भूमिका को लेकर है कि पहले तीन बुद्धिजीवियों की हत्या, फिर कई को धमकी और हमले, जेएनयू व अन्य विश्वविद्यालयों की घटनाएं हुईं. ऐसे में क्या मानते हैं कि लेखक उस भूमिका में नहीं हैं जिसमें उन्हें होना चाहिए?
नहीं, ऐसा मैं नहीं मानता. लेखक की भूमिका यह नहीं है कि वह हर जगह सीधा हस्तक्षेप करेगा. कुल मिलाकर मुझे लगता है कि सभी भाषाओं के लेखकों ने अपनी बात कही. विरोधस्वरूप पुरस्कार भी लौटाए. जिन लेखकों ने पुरस्कार नहीं लौटाए, उनकी प्रतिबद्धता पर भी मैं संदेह नहीं करता. मिसाल के तौर पर राजेश जोशी और अरुण कमल ने नहीं लौटाया. काशीनाथ सिंह ने लौटाया, नामवर सिंह ने नहीं लौटाया, इससे नामवर सिंह और अरुण कमल कम लोकतांत्रिक नहीं हैं. न उनकी चिंताएं कम प्रामाणिक हैं. पिछले दो-तीन साल में बुद्धिजीवियों और लेखकों ने जैसी भूमिका निभाई है, वह उम्मीद की बड़ी किरण है. आप लेखक से ये उम्मीद मत कीजिए कि वह जाकर किसी पुलिस बंदोबस्त से टकराए, लाठी खाए और जेल जाए. लेखक का बतौर लेखक वह सब कहना मायने रखता है जो कहा जाना चाहिए.