Home Blog Page 1266

आर्थिक सलाहकार परिषद फिर बनी आर्थिक सुझावों पर अब और ध्यान

vivek

देश में आर्थिक सलाहकार परिषद फिर सक्रिय कर दी गई। आर्थिक विकास दर बढ़ाने के इरादे से प्रधानमंत्री ने यह पहल की है। इस साल की पहली तिमाही में यह महज 5.2 फीसद रही। परिषद की कमान बिबेक देब रॉय संभालेंगे। सरकार ने सोमवार 25 सितंबर को यह घोषणा की। प्रधानमंत्री से इस आर्थिक सलाहकार परिषद का उसी तरह जुड़ाव रहेगा। जिस तरह कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार में अर्थशास्त्री सी रंगराजन का था। सरकार का प्रयास इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछली सरकार के पद से हटने के बाद यह सक्रिय नहीं था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन साल बाद आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन कर उसी राह को अपनाया जिस पर सरकारें पहले भरोसा कर रही थी। संसाधनों की कमी और

अर्थव्यवस्था का ढुलकना लगातार यह बता रहा था कि सरकार इस मोर्च पर असफल हो रही है। बहरहाल तीन अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला, रथीन रॉय, और असीमा गोयल इस परिषद के अंशकालिक सदस्य हैं। पूर्व वित्त सचिव रतन वाटल सदस्य सचिव होंगे। अभी वे नीति आयोग में प्रमुख सलाहकार हैं। देबरॉय और वाटल नीति आयोग में अपने पद पर बने रहेंगे।

यह फैसला तब लिया गया जब वित्तीय वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में विकास दर 5.7 फीसद पर ठहर गई। यह दर पिछले साल में सबसे कम है। देश में चालू खाते का घाटा बढ़ कर चार साल ऊँचा यानी 2017 की पहली तिमाही में पिछले साल की तुलना में 0.6 फीसद से बढ़ कर 2.4 फीसद कुल सकल उत्पाद की दर पर था। सरकार इस कोशिश में है कि किसी तरह अर्थव्यवस्था की गति तेज की जाए जिससे नौकरियों की तादाद बढ़े। क्योंकि केंद्र का वित्तीय घाटा वित्तीय वर्ष 2018 के बजट अनुमानों से पहले ही 92 फीसद पर पहुंच गया है।

ऐसा माना जा रहा है कि देबरॉय की टीम प्रधानमंत्री को अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में विभिन्न नए इरादे दे सकती है। देबरॉय का प्रधानमंत्री से सीधा संपर्क होगा। नीति आयोग का सदस्य रहते हुए उन्होंने ही प्रधानमंत्री को भारतीय रेल में आमूलचूल बदलाव की सलाह दी थी। उनकी ही सलाह पर रेल के बजट को देश के आम बजट का हिस्सा बनाया गया था। यह उनकी ही सलाह थी कि वित्तीय वर्ष अप्रैल-मार्च की बजाए जनवरी-दिसंबर रखा जाए।

बेहतर समन्वय,सुशासन और चुस्ती के लिहाज से देबरॉय यह चाहते रहे हैं कि सरकारी विभागों की तादाद कम की जाए। लेकिन अब आर्थिक सलाहकार परिषद के गठन से आसार हैं कि हालात में सुधार हो। यह उम्मीद है कि आर्थिक सलाहकार परिषद विकास को बढ़ावा देने के लिए ढ़ांचागत सुधारों के लिए खर्च की गुणात्मकता में भी सुझाव देगी।

देश के करोड़ों घरों में अब रातों में भी उजाला

वंशवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ  मुहिम

W

 

अर्से से लोगों को इंतजार था कि प्रधानमंत्री देश की आर्थिक विकास दर दुरुस्त करने के लिए ऐसी योजनाएं पेश करेंगे जिससे रोजगार दर बढ़े और शहरी और ग्रामीण इलाकों में विकास हो। प्रधानमंत्री ने भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक के दिन 25 सितंबर को पूरे देश में 31 दिसंबर 2018 तक चार करोड़ घरों में बिजली कनेक्शन मुहैया कराने की पेशकश की। देश की आज़ादी के 70 साल बाद भी देश में चार करोड़ घरों में उजियारा करने की घोषणा पर अमल पर जोर देना खासा महत्वपूर्ण है। इससे गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के चेहरों पर मुस्कान आएगी साथ ही वे देश की मुख्य धारा में शामिल हो सकेंगे। लेकिन इसके साथ ही ज़रूरी है कि सड़क मार्गों, रेलवे, सिंचाई और स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में वित्तीय मदद दी जाए। इससे रोजगार की दर बढ़ेगी और देश की विकास दर भी। प्रधानमंत्री का आर्थिक सलाहकार परिषद फिर सक्रिय करने और उससे सलाह लेने का फैसला बेहतर है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उम्मीद थी कि वे सत्ता में तीन साल होने पर भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पंडित दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर एक बड़े पैकेज की घोषणा करेंगे। इससे देश के शहरी और ग्रामीण इलाकों में उम्मीदें बढ़ेंगी। पार्टी और मजबूत होगी।

भारतीय जनता के बड़े नेताओं को भी उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आर्थिक विकास बढ़ाने के लिए शहरी और ग्रामीण इलाकों के लिए बड़ी परियोजनाओं की घोषणा करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । इसकी बजाए प्रधानमंत्री ने वंशवाद और भ्रष्टाचार पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा ।

देश को आज़ाद हुए 70 साल हो जाने पर भी अभी चार करोड़ से ज़्यादा परिवार हैं जो रात के अंधेरे में गुजर-बसर करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में बिजलीकरण और सौर ऊर्जा के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल पर जोर दिया। उन्होंने ऊर्जा विभाग से इस काम को दिसंबर 2018तक पूरा करने का निर्देश दिया । प्रधानमंत्री सहज बिजली, हर घर योजना ‘सौभाग्यÓ के तहत तमाम शहरी और ग्रामीण इलाकों के 40 करोड़ परिवारों को बिजनी कनेक्शन मुफ्त मिल जाएगा।

केंद्र सरकार के अनुसार इस योजना के तहत पूरे देश में बिजलीकरण का काम 31 दिसंबर 2018 तक पूरा कर ही लेना है। इसके तहत उन्हें लाभ मिलेगा जिनका पंजीकरण सामाजिक – आर्थिक जाति सर्वे 2011 में हो चुका है। जो घर इस सर्वे में शामिल नहीं किए जा सके। उन्हें भी महज 500 रुपए मात्र पर कनेक्शन दे दिया जाएगा। जिसे बाद में बिजली वितरण कंपनियां दस किस्तों में वसूल लेंगी। रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कारपोरेशन के सुपुर्द यह पूरा काम है।

देश में हाल फिलहाल ग्रामीण बिजलीकरण है लेकिन ऐसे परिवार जो गरीबी की रेखा (बीपीएल) के नीचे रह रहे हैं उन्हें राज्य सरकारें बिजली कनेक्शन देती हैं। पिछले तीन साल में केंद्र सरकार सभी को चौबीस घंटे, सातों दिन के आधार पर लगातार बिजली मुहैया कराने पर राय मशविरा करती रही हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा, ‘यह दुखद है कि देश में इतनी बड़ी संख्या में आज भी घर हैं जहां शाम होने से पहले ही खाना बन जाता है क्योंकि घर में बिजली नहीं है। ऐसे घरों में आज भी लोग लालटेन और मोमबत्तियों का इस्तेमाल रात में उजालेे के लिए करते हैं। बच्चों को पढ़ाई में भी काफी परेशानी होती है। क्योंकि, उन्हें पढऩे के लिए लालटेन की रोशनी पर ही निर्भर रहना होता है। यह अफसोस की बात है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी चार करोड़ घरों में रोशनी नहीं पहुंच पाई।Ó

हालांकि केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार देश के ज़्यादातर गांवों यानी लगभग 99.5 फीसद घरों में बिजली पहुंच गई है। राज्यों से मिले आंकड़ों के तहत देश के उन्तीस राज्यों में एक करोड़ बहत्तर लाख ग्रामीण घरों में बिजली नहीं है। इसकी अहम वजह यह है कि नियमों में ही अफसरशाही उलझी रही। नियमों में यह साफ नहीं है कि बिजली कनेक्शन किन घरों को किस आधार पर उपलब्ध कराना है।

तहलका ब्यूरो

 

 

‘सौभाग्यÓ योजना पूरी तौर पर मुफ्त नहीं है। इसके तहत, ‘इस्तेमाल पहले, पैसा बाद में,Ó प्रणाली रखी गई है जिससे अंधेरे में डूबे घरों में मुफ्त में बिजली कनेक्शन पहुंचे बाद में बिजली प्रसार देखने वाली निजी कंपनियां आसान किश्तों पर बिजली के इस्तेमाल में होने वाले खर्च को वसूलती रहेंगी। राज्यों में विभिन्न नगरों में कटियां डाल कर बिजली का अवैध इस्तेमाल करने वालों पर कुछ रोक लगेगी। आमतौर पर इसे राज्य का विषय मान कर अफसरशाही ध्यान नहीं देती थी। साथ ही हर पार्टी बिजली-पानी को मुद्दा बना कर वोट बैंक की तलाश किया करती थी।

अब मोदी के इस फैसले को यदि ईमानदारी से अफसरशाही अमल में लाती है तो हर गरीब -दलित- आदिवासी परिवार के बेहद करीब होगी भारतीय जनता पार्टी जो दूसरी तमाम राजनीतिक पार्टियों की तुलना में। उधर गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले और समाज के निचले तबकों में बिजली की ज़रूरत के अनुरूप उपयोग और उसके बिल को अदा करने की नीयत बना सकेगी।

देश में कोयला और लिग्नाइट के बिजली उत्पादन केंद्रों में उत्पादन को बढ़ाने और सप्लाई। का सिलसिला भी दुरूस्त करना चाहिए जिससे उत्पादन बर्बाद न हो। यदि आंकड़ों की बात करें तो 2016-17 में 59.88 फीसद ही उत्पादन रहा जबकि 2009-10 में यह 77.5 फीसद था। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी का यह आंकड़ा गौर करने लायक है। यह कमी राज्य वितरण कंपनियों की मांग कम होते जाने के कारण हुई है। दो साल पहले उज्जवल डिस्कॉम एशोएरेंस योजना (उदय) शुरू हुई थी। इसे बनाने का इरादा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य बिजली वितरण एजेंसियों पर बढ़ती देनदारी कम हो। चूंंिक वितरण एजेंसियां अपनी ओर से लाभ की गुंजायश नहीं रख सकतीं इसलिए वे भी खासे आर्थिक दबाव में हैंैै। पार्टी कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में वंशवाद और भ्रष्टाचार से बचने और जनता के बीच सक्रिय होने का मंत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया। उन्होंने इनसे होने वाली परेशानियों के प्रति भी आगाह किया और लगभग चेतावनी देते हुए यह भी याद दिलाया कि खुद उनके पास परिवार नहीं है। हालांकि यह कठिन ही है कि भाई- भतीजावाद, जातिवाद, वंशवाद और भ्रष्टाचार के जरिए लाभ कमाने में कमी आए। हालांकि देश की जनता में अब खासी निराशा दिखने लगी हैं।

प्रधानमंत्री ने बिजली की समस्या के समाधान हेतु समय के अंदर काम करने का प्रण लिया है वह चुनौतीपूर्ण है। केंद्र मेें आई तमाम सरकारें दूरदराज के गांवों, दलितों कें यहां बिजली का कनेक्शन देने और उत्पादित बिजली में कमी होने पर सौर ऊर्जा के भरपूर उपयोग का प्लान बनाती रही हैं। लेकिन यह कभी कामयाब नहीं दिखता। हालांकि इस बार प्रधानमंत्री ने खुद कमर कसी है। वे चाहते हैं कि प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना या’सौभाग्यÓ योजनाओं के तहत दिसंबर 2018 तक हर दलित – आदिवासी घर में बिजली का कनेक्शन हो और रात में वहां हमेशा रोशनी जले। इस योजना के लिए रुपए16 हजार करोड़ मात्र से कुछ ज़्यादा राशि लग सकती है लेकिन बिना खर्च के बिजली घर-घर होगी।

यह योजना 2015 में शुरू हुई पंडित दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना और राजीव गांधी ग्रामीण बिजलीकरण योजना पर आधारित है जो 2005 में शुरू हुई थी। इन दोनों ही योजनाओं के तहत गरीब को मुफ्त बिजली दी जाती थी। अब शायद उन योजनाओं पर ध्यान देते हुए उन गांवों में बिजली कनेक्शन पहुंचा दिया जाए जहां सत्तर साल में बिजली का तार और खंभे तो हैं लेकिन न बिजली आती है और न बिजली कनेक्शन ही हैं।

बाबा को बीस साल का कारावास

सिरसा के डेरा प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह को आखिर कार अपने गुनाहों की सजा मिल ही गई। दो साध्वियों का यौन शौषण करने के दो अलग-अलग मामलों में गुरमीत सिंह को सीबीआई की विशेष अदालत ने 10-10 साल की कैद और 15-15 लाख रुपए जुर्माने की सज़ा सुनाई है। इन 15-15 लाख में से 14-14 लाख रुपए उन साध्वियों को मिलेंगे जिनका यौन शोषण डेरा प्रमुख ने किया था। ये दोनों सजाएं अलग-अलग चलेंगी। एक पूरी होने के बाद दूसरी शुरू होगी। इस तरह उसे कुल 20 साल जेल में रहना होगा।

यह फैसला आने में 15 साल का समय लग गया। घटना के समय डेरा प्रमुख का इतना प्रभाव था कि साध्वियों को एक गुमनाम पत्र देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाज़पेयी को लिखना पड़ा। उनमें इतना साहस नहीं था कि वे उसमें अपनी पहचान लिख पाती। उनका यह भय सही भी साबित हुआ जब उस पत्र को अपने अखबार ‘पूरा सचÓ में छापने वाले सिरसा के साहसी पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या डेरे के लोगों ने कर दी। छत्रपति को उसके घर के बाहर गोली का निशाना बनाया गया। गोली लगने के लगभग 28-29 दिन तक छत्रपति जि़दा रहा लेकिन पुलिस ने उसका बयान तक दर्ज नहीं किया । पुलिस में दर्ज एफआईआर में छत्रपति के बेटे और खुद छत्रपति ने गुरमीत सिंह का नाम लिखवाया पर पुलिस ने नहीं लिखा। यह मामला आज भी अदालत में चल रहा है। बलात्कार की शिकार दो साध्वियों को तो 15 साल बाद इंसाफ मिल गया, पर आज 16 साल बाद भी छत्रपति के परिवार को न्याय का इंतजार है। छत्रपति हत्या मामले की अगली सुनवाई अब 16 सितंबर को होनी है।

इस बीच गुरमीत सिंह की माता नसीब कौर ने अपने पौत्र जसमीत सिंह को डेरे का प्रमुख मनोनीत कर दिया है। रामरहीम के सभी बच्चों में से जसमीत सबसे बड़ा है। उसका विवाह कांग्रेस के पूर्व विधायक हरमिंदर जस्सी की बेटी हुस्नप्रीत इंसा से हुआ है। जसमीत के अलावा गुरमीत सिंह की दो बेटियां चरणप्रीत और अमनप्रीत भी हैं। ये दोनों शादीशुदा हैं। हालांकि नसीब कौर ने जसमीत को मनोनीत किया है पर आशंका यह है कि गुरमीत के बाकी बच्चे और दामाद भी इस गद्दी पद अपना दावा पेश कर सकते हैं।

गुरमीत सिंह को अब सज़ा हो चुकी है पर जिस दिन उसे दोषी करार दिया गया उस दिन हरियाणा और पंजाब में जो कुछ हुआ वह निंदनीय है । ऐसे समय में भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने जिस तरह का बयान दिया वह भी निंदनीय है। उस दिन गुरमीत की पेशी पंचकूला की अदालत में थी। किसी अप्रिय घटना को रोकने के लिए धारा-144 लगा दी गई थी। पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान चप्पे-चप्पे पर नजऱ रखे थे। शिमला की ओर से आने वाली गडिय़ों को चंडीगढ़ में प्रवेश नहीं दिया जा रहा था। उन्हें जीरकपुर या फिर पंचकूला के बीच से हो कर आने को मजबूर किया जा रहा था। लेकिन डेरे के लोग तीन दिन पहले से ही सड़कों के किनारे जमा हो रहे थे।

पहले यह कहा कि किसी तरह की संभावित अराजकता को रोकने के लिए लगाई गयी धारा -144 इन अनुयाइयों पर लागू नहीं होगी और जब यौन शोषक बाबा को साध्वियों से दुष्कर्म का दोषी करार दिया तो उसके अराजक अनुयायियों ने सड़कों पर तांडव मचा दिया।

देश के इतिहास में हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार को वैसी ही कमजोर सरकार मानी जाएगी जैसी 1984 में इंदिरा गांधी के हत्या के बाद हजारों सिखों की हत्या के दौरान राजीव गांधी सरकार कमजोर दिखी थी। राजीव सरकार और कांग्रेस के लोगों पर उन दंगों को शह देने का गंभीर आरोप लगा था और मनोहर लाल खट्टर सरकार पर भी दरियादिली दिखाने का आरोप लगा है। दोनों ही मौकों पर सत्ता में विराजमान लोगों ने उस जनता को आराजकता से बचाने के लिए, जिसके प्रति वह जिम्मेवार और जवाबदेह थी, तब कदम उठाये जब बहुत कुछ तबाह हो चुका था। यदि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने सख्ती नहीं दिखाई होती तो हालात क्या रहे होते, समझा जा सकता है। यह खट्टर सरकार की नाकामी का ही सबूत है कि न्यायालय को दखल देकर जनता और सम्पति की सुरक्षा के लिए सख्त निर्देश जारी करने पड़े।

पूरे देश में चर्चा थी कि गुरमीत राम रहीम को सजा मिलने की स्थिति में उस के लाखों की संख्या में पंचकूला में जमा हो रहे डेरा समर्थक अराजकता फैला सकते हैं। धारा 144 लगे होने के बावजूद ये समर्थक हाथों में लाठियां, पत्थर लेकर आ रहे थे। हैरानी की बात यह कि सरकार ने धारा 144 लगाने के लिए जो अधिसूचना जारी की उसमें कहीं भी यह जिक्र नहीं किया कि एक जगह पांच लोग इक्कठे नहीं हो सकते। कोर्ट में खट्टर सरकार की इस कोताही का जब खुलासा हुआ तो सरकार को फटकार सुननी पडी लेकिन तब तक तबाही हो चुकी थी।

इस मामले में तो खट्टर सरकार की पुलिस रक्षात्मक दिखी। उपद्रवियों ने बार बार उसे पीछे खदेड़ा और कई बार तो पुलिस के लोग जान बचाते दिखे। पंचकूला की उपायुक्त को भी जान बचाने किए लिए लोहे की कांटेदार बाड़ फलांगनी पड़ी। मीडिया के लोगों पर भी हमले हुए। तीन टीवी चैनलों की ओबी वैन और पत्रकारों की दो मोटरसाइकिल सड़क पर पलटा कर जला दी गईं और करीब 150 सरकारी-निजी कारों और मोटर साइकिल को आग के हवाले कर दिया गया। कम से काम आध दर्जन पत्रकार इन हमलों में घायल हुए। इसके अलावा कुछ सरकारी और अर्धसरकारी भवन भी आग की भेंट चढ़ा दिए गए।

पंचकूला का आसमान काले धुएं के बादलों से भर चुका था और आसपास के सेक्टरों में घरों में रह रहे लोग खौफ में थे। घटना स्थल पर इस बबंडर को कवर कर रहे निजी टीवी चैनल एबीपी के संवाददाता जगविंदर पटियाल ने बताया कि उन्होंने साफ देखा कि पुलिस और सुरक्षा बलों का आतताइयों के सामने बस नहीं चल रहा था। उपद्रवी उन्हें बार बार पीछे धकेल दे रहे थे। दरअसल उपद्रवियों की तादाद पुलिस से तीस गुना से भी ज्यादा थी। आखिर जब पुलिस नाकाम रही तो सेना को मोर्चा संभालना पड़ा। सेना ने मोर्चा सँभालते ही लाऊड स्पीकर पर चेतावनी दी कि जो कोइ भी उपद्रव करता दिखेगा उसे गोली मार दी जाएगी। इसके बाद जाकर कहीं तांडव पर लगाम लग सकी। हालांकि तब तक बहुत नुक्सान हो चुका था। कुल 38 लोगों की जान चली गयी और 204 के करीब अस्पताल पहुँच गए। इनमें से कई अभी भी इलाज करवा रहे हैं।

इस बलात्कार केस में फैसला आने के बाद हुई हिंसा को लेकर नई जानकारियां सामने आ रही हैं। चैंकाने वाला खुलासा सीआईडी की रिपोर्ट कर रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक इतनी बड़ी तादाद में बाबा के समर्थक इसलिए जुटे क्योंकि उन्हें बताया गया था कि बाबा की फिल्म की शूटिंग हो रही है। मिली जानकारी के मुताबिक पंचकूला में पूरी स्ट्रैटजी के तहत बाबा ने अपनी टीम तैयार कर रखी थी। टीम में पांच लोग थे। आदित्य इंसा, धीमान इंसा, दिलावर इंसा, पवन इंसा और मोहिंदर इंसा। इन पांच लोगों को तय करना था कि बाबा बरी हुए तो क्या करना है, दोषी पाए गए तो क्या हंगामा करना है। इस संवाददाता के पास एक ऑडियो रेकार्डिंग है जिसमें डेरा के दो समर्थक बातचीत कर रहे हैं कैसे उपद्रव फैलाना है। यह भी कहा जा रहा कि कोइ डेरा अनुयाई पुलिस या पत्रकारों से यह नहीं कहेगा कि उसे यहाँ आने के लिए ऊपर से कोइ आदेश है। यही कहना है कि अपनी मर्जी से आये हैं।

रेप केस के आरोपी बाबा को सजा के बाद मचे बबाल में जमकर उत्पात मचा । उस के 6 सुरक्षा गार्ड और 2 डेरा समर्थकों के खिलाफ देशद्रोह का केस दर्ज किया गया । इन सभी पर कोर्ट में सुनवाई के दौरान आईजी को थप्पड़ मारने का आरोप है। यह भी आरोप है कि जैमर कोर्ट के परिसर में ले जाया गया जिसमें हरियाणा पुलिस के बाबा की सुरक्षा में लगे गार्ड थे। उनके पास ए के 47 थी जबकि यह हथियार पुलिस के पास नहीं होता। कृष्णा नगर में मौजूद डेरे की भी पुलिस ने तलाशी ली। दिल्ली के डेरे में भी कई महंगी बाइकें, गाडिय़ां खड़ी हैं। हरियाणा में राम रहीम के 36 आश्रमों के सील किया गया है, जिनमें करनाल, अंबाला, कैथल और कुरुक्षेत्र के आश्रम शामिल हैं।

कोर्ट की फटकार

हरियाणा पंजाब हाई कोर्ट ने सरकार को फटकार लगते हुए कहा कि सरकार ने राजनीतिक फायदे के लिए शहर को जलने दिया। कोर्ट ने कहा कि ऐसा लग रहा है कि सरकार ने सरेंडर कर दिया है। इससे पहले कोर्ट ने पूछा था कि पुलिस आखिर क्या कर रही है, जब धारा 144 लागू है तो कैसे लाखों की तादाद में समर्थक डेरा सच्चा सौदा आश्रम पर जुट रहे हैं?

आरएसएस ने बचाया खट्टर को?

राम रहीम मामले में पूरी तरह फेल रही हरियाणा में भाजपा की सरकार के मुखिया मनोहर लाल खट्टर की कुर्सी इतने सामाजिक और मीडिया के दवाब के बावजूद नहीं गयी तो इसलिए कि आरएसएस ने उन्हें हटाने के खिलाफ सख्त स्टैंड ले लिया। भाजपा सूत्रों ने बताया कि पार्टी में कुछ नेता चाहते थे कि खट्टर की छट्टी कर दी जाए पर आरएसएस ने प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को साफ सन्देश भेज दिया कि खट्टर को छूने की भी कोशिश न की जाये। ऐसा ही हुआ और खट्टर अभी भी शान से अपनी कुर्सी पर जमे हैं।

200 साध्वियां गायब

पता चला है कि जैसे ही पंचकूला में बाबा को दोषी करार दिया गया, उनके सिरसा डेरे से अगले 30 घंटे में करीब 200 साध्वियां गायब हो गईं। आरोप है कि बाबा ने इन्हें अपने प्रयोग के लिए रखा था। इस तरह के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। उसके खिलाफ कोर्ट में गए एक पूर्व डेरा साधु ने तो यह भी दावा किया था कि बाबा अपना जन्म स्थान राजस्थान बताता है लेकिन वो वास्तव में पंजाब के अबोहर में पैदा हुआ है।

 

 

 

हाईकोर्ट ने कहा आप हैं जिम्मेवार

क्या डीसीपी ही जिम्मेदार है?

प्ंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा, आप (राज्य सरकार) हमें गुमराह कर रहे हंै। प्रशासन और राजनीतिक फैसलों में भारी अंतर है। प्रशासनिक फैसले इसलिए अमल में नहीं आते क्योंकि उन पर राजनीतिक फैसलों का दबाव रहता है। आपने एक डीसीपी को सस्पेंड कर दिया। क्या यह अकेला इस बात के लिए जिम्मेदार था? क्या यही आप हमें बताना चाहते हैं?

पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश सुरिंदर सिंह सरांव ने बहुत सही सवाल किया है। हालांकि कुछ ही दिन बाद सरांव सेवामुक्त हो जाएंगे। हाईकोर्ट ने हरियाणा सरकार पर डेरा सच्चा सौदा को संरक्षण देने का आरोप लगाया है। साथ ही पंचकूला में हुई हिंसा के लिए भी जिम्मेदार ठहराया है।

हाईकोर्ट ने राज्य के एड़वोकेट जनरल बलदेव राज महाजन की दलीलें खारिज करते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री को ही डेरा सच्चा सौदा को संरक्षण देने की बात कही। मुख्यमंत्री ही गृहमंत्री हैं। क्यों आपने सात दिनों से लोगों को इक_ा होने दिया। सीबीआई कोर्ट नेे डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को बलात्कार के आरोप में दोषी पाया। इसके बाद हजारों की तादाद में डेरा समर्थकों ने जो पंचकूला में इक_े हुए थे, आगजनी और लूट की। पुलिस की गाडिय़ां, मीडिया की ओबी वैन सरकारी इमारतें, रेलवे स्टेशन फूंके। 30 लोग पंचकूला, सिरसा में मारे गए। कई घायल हुए।

 

 

सेना ने ही सब कुछ करना है तो पुलिस किस लिए है?

प्रशासन अपनी जीत के भरोसे था जबकि आम आदमी समझ रहा था कि हालात भयंकर हो सकते हैं। पंजाब और हरियाणा की हाई कोर्ट ने राज्य सरकार की खिंचाई की कि वे डेरा पे्रमियों की बढ़ती भीड़ को रोक नहीं पाए जबकि धारा 144 लगी हुई थी। बाकायदा बैरीकेड लगे हुए थे जिससे लोग अदालत परिसर की ओर न जा सकें। लेकिन हथियार भी ले जाए गए और डीजल-पेट्रोल भी। जिससे आगजनी जमकर हुई।

प्रशासन का पूरा ध्यान अदालत परिसर को सील रखने का था। जिससे आरोपी को बिना किसी डर के सुरक्षित लाया जा सके। प्रेमियों पर लगभग कोई ध्यान नहीं था और उनकी तादाद बढ़ती जा रहीं थी। उन्हें रोकने का कोई प्रयास पुलिस लगभग नहीं कर रही थी।

अलग-अलग शहरों और प्रदेशों से आए भक्तों ने पंचकूला को अपना बड़ा अड्डा बना लिया। पुलिस की लापरवाही के चलते इनके पास माचिस, लाठी,और दूसरे हथियार भी इक_े होते रहे। अदालती फैसले के बाद ही भीड़ के संयोजकों के इशारों पर व्यापक हिंसा फैलाई गई। सब ने पाया पुलिस कतई चाक-चैबंद नहीं थी।

उधर हरियाणा सरकार के मंत्रियों में गुरमीत सिंह के सच्चा डेरे मे इस कदर आस्था रही कि वे भक्तो के जमावड़े की हिंसा की बजाए उसमें श्रद्धा और शांति देख रहे थे। इन्होने उस हिंसा की जिम्मेदारी भीड़ में घुस आए असामाजिक तत्वों के जिम्मे मढ़ दी और चुप हो गए। बाबा के भक्तों ने मीडिया से जुड़े तमाम लोगों की गाडियों, निजी गाडिय़ों और सरकारी इमारतों , आयकर विभाग और लाइफ इश्योरेंस कारपोरेशन की इमारतों में आग लगा दी।

यह सब हो रहा था । पुलिस फोर्स में बढ़ावा नहीं हुआ। आरोपी को हेलिकॉप्टर से रोहतक ले जाया गया। फिर कहीं पुलिस की कार्रवाई कुछ तेज हुई।

सवाल यह है कि क्या न्यायालय ने 23 अगस्त को पुलिस – प्रशासन की खिंचाई नहीं की होती तो क्या और हिंसा होती, संपत्ति नष्ट होती, और लोगों की जि़ंदगी और संपत्ति के साथ खिलवाड़ होता। पंजाब और हरियाणा की हाईकोर्ट के जजों ने समय पर कार्रवाई की। अन्यथा वोट की राजनीति की आड़ में हरियाणा के मंत्रियों और राजनीतिक नेताओं ने तो पुलिस को यह इशारा ही कर दिया था कि वे इसे गंभीरता से न लें।

दूसरी बात है कि उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक और निजता के मौलिक अधिकारों पर महत्वपूर्ण फैसले लिए। तब कहीं कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दिखी।

सबसे बड़ा सवाल है कि क्या सेना को बिना बुलाए पुलिस प्रशासन हालात पर काबू नहीं पा सकता। केंद्रीय हथियारबंद पुलिस दल भी तो पूरी तौर पर प्रशिक्षित किए जाते हैं पर उसे ऐसे हालात पर काबू क्यों पाने नहीं दिया जाता। सेना को ही क्यों बुलाया जाता है। जबकि इन्हें भी लगातार वेतन बढ़ोतरी दी जाती है।

पुलिस प्रशासन अब अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने लग गया है। यह रवैया राजनीतिक नेताओं के चलते हुआ जिनकी नाकामी के चलते जाट आंदोलन भी कभी हिंसक हुआ।

पूर्व लेफ्टी0 जनरल विजय ओबराय

साभार: फेसबुक

 

 

सरकारी समर्थन से कृतज्ञ पर कोप से भयभीत

अष्ट भुजा शुक्ल

 

नाम- राम रहीम यानी गंगा जमुनी वाला मामला। सिख समुदाय में दोनों की समान स्वीकृति। काम भक्तो का बेड़ा पार। बखिया उधड़ गई तो गैंगवार। निरंकुश, गुंडई, सरकारी तंत्र के समर्थन से कृतज्ञ और कोप से भयभीत।

अपना देश और समाज वाकई कितना अकिंचन, भीरू और अंधभक्ति का शिकार है। भोली-भाली जनता चमत्कार प्राफिल्य है- नाचे गावे तूरे तान तेकर दुनिया राखै मान- यह मुहावरा मेरी अइया कहा करती थी। इसी चमत्कार प्रियता का उदाहरण तब दिखा जब गुरमीत की अनुयायी ज़्यादातर महिलाएं इससे बेजार थी कि उनके पूज्य भगवान को कारागार की हवा खानी पड़ेगी।

हमारे समय का है यह दुर्भाग्य कि ज्ञान,अध्यात्म और भक्ति के निरंतर उद्दण्ड प्रदर्शन में बदल जाने के नाते तमाम मायावी और लीला करने वाले संप्रदायों की पौ बारह हो गई है। ये तुलसी,कबीर,तुकाराम और नानक को भुनाते हुए देवताओं की स्तुतिगान करने वाली भजनवालियों का संगीतमय कलेवा करते हुए भक्तों पर कृपा बरसाते रहते हैं और खुद को साधकों और यहां तक कि भगवान के आसन तक पहुंचा लेते हैं।

हमारे समय की गिद्ध राजनीति ऐसी मदहोश करने वाली भक्ति को बढ़ावा देकर आग में घी डालती रहती है। विश्वगुरू का फेंटा बांध देश को ये छोटे मोटे जाति-धर्म वाले गुरू खूब भुनाना सीख गए हैं। पंचमकार एक किस्म के साधक और साधना की दार्शनिक शब्दावली रही है जिसे इन्होंनें निजता के अधिकार में शामिल कर लिया है।

इन नए बाबाओं, भगवानों, गुरूओं और जाति धर्म रक्षकों में गुंडई और वर्चस्व का एक और तत्व जुड़ गया है अवैध तौर पर अस्त्र-शस्त्र संग्रह। इन्हें ढोने वाले बहुत से किराए के टट्टू सहज ही मिल जाते हैं और प्रसिद्धि के कसीदे काढऩे वाले महत्वाकांक्षी चेले- चेलियां भी। इस तरह के सांप्रदायिक कारेबार को पहले पखंडवाद कहा गया है। दुर्भाग्य से लगातर हो रहे पाखंड की राजनीति से पाख्ंाड के अध्यात्म को खूब बढ़ावा मिला है। जिससे इस संश्लिष्ट तंत्र से पार पाना काफी मुश्किल है। बरहाल वहां की भुक्त भोगी कुछ साध्वियों का निर्भीक ज़मीर उठ खड़ा हुआ। यह लगातार भीरू और आत्मकेंद्रित हो रहे समाज में आशा की उजली किरण जैसा है। तमाम राजनीति करने वाले राजनेता और मर्द साधु ऐसे ढोंगी महात्माओं के समर्थन में गला फाड़ रहे हंै। ईश्वर करे कि राजनीति करने वाली साध्वियों की सोच इनसे भिन्न और पीडि़ताओं के समर्थन में हो।

फिलहाल ज्ञान, अध्यात्म और भक्ति के नाम पर लगातार फैलती इस महामारी से भोली-भाली जनता के लिए बचाव ही इलाज का सूत्र ज़्यादा कारगर होगा। तथाकथित अनुयायियों के भीतर सब कुछ फूंक डालने का बेलगाम हौसला और कानून को हाथ में लेने की हिम्मत कहां से आती है? गरीब गुरबों और अमन पसंद सीधे-साधे लोगों पर रोब गालिब करने वाला पुलिस प्रशासन क्यों अपराधियों के प्रति इतना मिमियाने लगता है? फिलहाल ऐसे लोगों को कड़ी सजा मिले। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि एक सामान्य

कैदी की तरह पेश आया जाए जिससे इनकी नसें ढीली हो सकें।

प्रोफेसर संस्कृत,कवि,लेखक

साभार-फेसबुक

 

 

वह अधिकारी, जिसने शहर बचाया!

निमरत कौर

 

और वह एक महिला थी। उसके ग्यारह महीने का एक शिशु भी है। उसने ढेरों अधिकारियों की तुलना में ज़्यादा हिम्मत दिखाई।

अगस्त की 25 तारीख को जब पंचकूला में डेरा भक्त हिंसा और आगजनी कर रहे थे तो इस महिला ने हिम्मत दिखाई। इसकी हिम्मत पर हरियाणा की खट्टर सरकार और केंद्र की सरकार खामोश ही रहेगी लेकिन इसकी हिम्मत और मेहनत को देश के नागारिकों को तारीफ करनी चाहिए। यह महिला उस दिन खासी व्यस्त रही। लोगों की मदद करते हुए वह दूसरी सुबह भोर में तीन बजे के बाद ही घर लौटी।

सोचिए, यह वह समय था जब हरियाणा के पंचकूला में तैनात सिपाही, हिंसक भीड़ से डर कर दौड़ रहे थे। तब यह महिला एक बहादुर योद्धा की तरह सामने आई। इसने जो कोशिश की उससे पंचकूला में खून-खराबा नहीं हुआ, संपत्ति का नुकसान कम से कम हुआ।

यह महिला है पंचकूला की डिप्टी कमिश्नर गौरी पाराशर जोशी। पहले यह पत्रकार थी। बाद में यह डिप्टी कमिश्नर बनी। इसने अपने शिशु की चिंता छोड़ कर उस दिन लोहा लिया, अपनी चोटों और फट गए कपड़ों की परवाह किए बिना।

उस शाम जब सब कहीं हिंसा, आगजनी हो रही थी उसने अपने अकेले सहायक पीएसओ के साथ दफ्तर जाने का फैसला लिया और आदेश दिया कि हालात खराब हैं और इसे सेना के हवाले किया। इससे हालात और ज़्यादा बिगडऩे से बचे।

इसके बाद वह उस जगह पहुंची जहां उपद्रवी भीड़ पथराव और आगजनी में लगी हुई थी। उसके मन में शहर की सुरक्षा थी। वह शहर के हर उस सेक्टर में पहुंची जहां आगजनी हो रही थी, पथराव हो रहा था। मारपीट हो रहीं थी और गोलियां चल रही थी। घायल लोग सड़क पर थे। जब वह घर लौटी थी तो घर के सभी सदस्य सन्न रह गए खून से सने उसके कपड़ों को देखकर।

अंग्रजी साहित्य से दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज की स्नातकोत्तर गौरी, खुद घायल हो गई थी लेकिन वह अस्पताल जाने के लिए इसलिए तैयार नहीं हुई क्योंकि अस्पतालों में लगातार बढ़ रहे घायलों कीे देखरेख ज़्यादा ज़रूरी थी। उसने अपनी चोटों को कम गंभीर माना। यह जानकारी दी अजित बालाजी जोशी ने जो चंडीगढ़ के डिप्टी कमिश्नर हैं

सच तो यह है कि यदि इस महिला ने जागरूकता न दिखाई होती तो पूरा अंदेशा था कि पंचकूला में भी 2016 के जाट आंदोलन सा हिंसा का फैलाव होता।

साभार: फेसबुक

 

 

और भी बाबा रहे हैं दुष्कर्म के अपराधी

राम रहीम के मामले की ही तरह ही संत रामपाल का भी मामला है। उन्हें सितंबर 2014 में पंचकूला अदालत में पहुंचना था। उनके भक्तों की ऐतिहासिक तौर पर उपद्रव करने के लिए प्रसिद्धि है। उनके अनुयायी भी हजारों की तादाद में वहां पहुंचे थे।

रामपाल को हत्या के एक मामले में सम्मन भेजा गया था। जुलाई 2014 में उनके हजारों अनुयायियों ने हिसार अदालत में हो रही सुनवाई में दखल दिया और कार्रवाई को नहीं चलने दी

रामपाल ने खुद को 42 बार इसी तरीके से गिरफ्तार होने से बचाया। उसके अनुयायी हंगामे करते और गिरफ्तारी नहीं हो पाती। आखिर 19 नवंबर 2014 को उसे गिरफ्तार किया गया। इसमें भी उसके अनुयायियों ने दो सप्ताह की देर करा दी। वे मानव जंजीर बनाते, रेल पर लेट जाते जिससे हिसार के सतलोक आश्रम में पुलिस न घुस पाए।

नित्यानंद एक स्वयंभू बाबा हंै। वे तब विवाद में घिरे जब कन्नड़ के एक टीवी चैनेल में अभिनेत्री आरती राव ने बातचीत में यह माना कि उनके साथ नित्यानंद ने अवैध संबंध बनाए और उसे किसी को न बताने के लिए भी कहा। चैनेल पर हुए प्रसारण के बाद नित्यानंद के कई अनुयायी आगे आए और उन्होंने बताया कि उनके साथ भी बाबा ने ऐसा किया। तब कर्नाटक केे तत्कालीन मुख्यमंत्री सदानंद गौडा ने गिरफ्तारी के आदेश दिए। आश्रम मेें हालात तब बेकाबू हो गए जब एक पत्रकार को उनके अनुयायियों ने पीट कर आश्रम से बाहर निकाल दिया।

आसाराम बापू की गिरफ्तारी एक सितंबर 2013 को हुई। जोधपुर आश्रम के बाहर पुलिस और पत्रकारों के साथ उनके शिष्यों ने बाकायदा लोहा लिया। इस हिंसा के सिलसिले में तेरह लोग गिरफ्तार किए गए। बापू पर आरोप था कि उन्होंने सोलह साल की किशोरी के साथ अपने आश्रम में बलात्कार किया। उसने उनके खिलाफ 20 अगस्त 2013 को पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी।

हिंसा पर उतारू भीड़ ने पत्रकारों के साथ हुई मारपीट के दौरान माइक और कैमरे छीन लिए और कई पत्रकारों को खासा पीटा जो कवरेज के लिए आए थे।

आशुतोष महाराज, दिव्य ज्योति जागृति संस्था के संस्थापक हैं। उन सिखों के साथ उनकी हमेशा मारपीट होती थी जो उनके प्रवचनों और धार्मिक भावनाओं का विरोध करते थे। दिसंबर 2009 में सिख विरोधियों और पुलिस के बीच लुधियाना में महाराज के सम्मेलन में खासी हिंसा हुई जिसमें एक की मौत हो गई। पुलिस ने गोलियां चलाईं उन विरोधियों पर जो लाठियों और तलवारों के साथ सम्मेलन स्थल पर पहुंचे थे। हिंसा के बाद कफ्र्यू दो दिनों के लिए पांच पुलिस स्थानों पर लगा दिया गया। महाराज की 20 जनवरी 2014 को मौत हुई।

सारथी बाबा ओडीसा के स्वयंभू बाबा हंै। एक टीवी चैनेल ने एक रिपोर्ट जारी की चार अगस्त 2015 को जिसमें उन्हें जीन्स और टी शर्ट पहन कर हैदराबाद के एक होटल की लॉबी में एक लड़की के साथ जाते हुए देखा गया। पांच अगस्त को सारथी बाबा के समर्थकों ने भुवनेश्वर में बाबा के पक्ष में संवाददाता सम्मेलन किया और कहा कि टीवी चैनेल पर जो फोटो प्रसारित हुए हैं वे उनके भले हो पर उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया।

Photo: Prabhjot Gill

यात्रा रोकने की कोशिश भी नाकाम

अमरनाथ यात्रा रोकने की कोशिश पिफर नाकाम रही। ‘यह बाबा की कृपा थी कि गोलियां चल रही थी और तीर्थयात्रियों की बस दौड़ती रही।’ तीर्थयात्रियों की बस मंे घायल उषा ने अपने कानों को हाथ देते हुए, आंखें बंद कर हाथ जोड़ कर कहा ‘अगर कहीं बस रूक जाती तो शायद मैं भी नहीं होती’, अपनी सिसकियों के बीच उसने कहा।
रात साढ़े आठ बजे अमरनाथ से लौटते हुए तीर्थयात्रियों पर चली गोलियों की सूचना मिलते ही जम्मू-कश्मीर की महिला मुख्यमंत्राी मुफ्रती देर रात अनंतनाग के उस अस्पताल में पहुंची जहां घायल श्र(ालु तीर्थयात्राी भरती थे। इस बस में ज़्यादातर श्र(ालु महिलाएं थी जो बाबा अमरनाथ की यात्रा के बाद लौट रही थीं। अपनी श्र(ा निवेदित करके लौट रही इन
महिला तीर्थयात्रियों के पास कोई हरबा-हथियार भी नहीं था। पिफर भी आतंकवादियों ने इन्हें अपने निशाने पर लिया।
मुख्यमंत्राी मुफ्रती ने कहा, ‘पूरे कश्मीर में ही नही,ं पूरे देश में इस घृणित हमले की निंदा हो रही है। कश्मीर की जनता इस घटना का
विरोध करती है । सोमवार की रात ही अनंतनाग मैं पहंुची। दिल हिला देने वाली यह घटना थी। जो यात्राी मारे गए उनमें ज़्यादातर महिलाएं ही थीं। ये घर चलाती थीं। मुझे यह देख कर जो तकलीपफ हुई है उसे बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हंै। ये यहां बपर्फानी बाबा को अपनी श्र(ा निवेदित करने आई थी। आज ये ताबूतो में लौट रही हंै।
जम्मू-कश्मीर के आई.जी. मुनीर खान ;कश्मीरद्ध का मानना है कि तीर्थयात्रियों पर सोमवार को हुआ हमला लश्कर-तोएबा की ही कारस्तानी है। अनंतनाग पुलिस के अपने सूत्रों के अनुसार एक विदेशी जिसका नाम इस्माइल है वह लगभग 25-30 साल का है उस पर पुलिस की नज़र थी। उसके बाद ही अमरनाथ यात्रा पर जून माह के लिए सतर्कता नोटिस
पुलिस ने जारी की थी। अब इस वारदात के बाद हिजबुल मुजाहिदीन की भूमिका पर भी सुरक्षा अपफसर जांच-पड़ताल कर रहे हंै। इससे अलग हुए गुट के अध्यक्ष हैं जाकिर मूसा।
आरंभिक जांच पड़ताल से पता चलता है कि कई समूह इस घटना में शरीक थे। इन्होंने
तीन स्थानों से गोलियां चलाई। तीर्थयात्रियों की बस पर रात 8.20 और 8.40 के बीच दो किलोमीटर की दूरी में गोलियां चलीं। नई दिल्ली के खुपिफया अधिकारी यह नहीं मानते कि यह वारदात एलईटी ने की क्योंकि उसमें ज़्यादातर आत्महत्या कर लेने वाले पिफदायिन समूह हैं जिनका मकसद मारना और मरना है। वे भागते नहीं और ज़्यादा से ज़्यादा नुकसान करते हैं। ये स्थानीय आतंकवादी दस्ते भी हो सकते हैं।
एलईटी के प्रवक्ता अब्दुल्ला गजनवी ने इस हमले की निंदा की। साथ ही कहा कि इस्लाम किसी धर्म के खिलापफ हिंसा की अनुमति नहीं देता। दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है सुरक्षा दस्तों और आतंकवादियों में गोलियां चल रही थीं इस बीच दौड़ती बस आई। भारत कश्मीर के यु( को उलझा रहा है।
सूत्रों का अनुमान है कि सुरक्षा एजेंसियां संयुक्त तौर पर तालमेल कर दक्षिण कश्मीर में आतंकवादियों के नेतृत्व को खत्म करने की सोच रही हंै जहां दो सौ आतंकवादी सक्रिय हैं। इस साल अब तक 80 मारे जा चुके हैं।
मंगलवार को सेनाध्यक्ष विपिन रावत भी श्रीनगर पहुंचे। उन्होंने सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लिया। राज्यपाल एन एन वोहरा, श्री अमरनाथ मंदिर बोर्ड के अध्यक्ष हंै। उन्होंने एक आपात बैठक भी सुरक्षा मुद्दे पर की। उधर कश्मीर में तीर्थयात्रियों के नए दस्तों का आना भी जारी है। वोहरा घायलों से मिले। ज़़्यादातर घायल अनंतनाग और श्रीनगर के अस्पतालों में हंै।
जम्मू-कश्मीर की कैबिनेट बैठक में इस बात की सराहना की गई कि इस हमलेे केे बाद भी कश्मीरियत पर आंच नहीं आई। अनंतनाग के स्थानीय लोगों ने जिस भी तरह संभव हुआ घायलों को तुरंत अस्पताल में दाखिल करवाया और उन्हें राहत दी। जम्मू-कश्मीर सरकार ने मारे गए परिवारों के लोगों को छह लाख रुपए और गंभीर रूप से घायल को तीन लाख और मामूली घायल को एक लाख रुपए दिए हैं। बस तेजी से भगा कर ज़्यादातर तीर्थयात्रियों को मरने से बचाने वाले उस सलीम शेख का नाम गुजरात के मुख्यमंत्राी ने बहादुरों की राष्ट्रीय तालिका में भेजने को कहा है।
बस ड्राइवर सलीम शेख ने वलसाड से बताया कि वह पिछले बारह साल से लक्जरी बसें चलाता रहा है। पिछले सप्ताह तक आठ बार तीर्थयात्रियों को लाया और ले गया है। लेकिन उसे अब नहीं मालूम कि वह नौंवी बार कब तीर्थयात्रियों को लेकर जाएगा। सोमवार की रात वह इस बस का ड्राइवर था जब आतंकवादियों ने बस को गोलियों से छेद दिया। इसमें सात लोग मारे गए और उन्नीस से ज्यादा घायल हो गए।
‘लेकिन अब जाने से थोड़ी घबराहट होती है। मेरी बीवी और बच्चे इसके लिए शायद ही तैयार हांे।’ शेख ने कहा। यों तो महाराष्ट्र में जलगांव के ये लोग रहने वाले हंै। लेकिन बचपन में ही वह गुजरात आकर बसा था। मंगलवार को सलीम शेख परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के साथ खुली जीप में बैठ कर वलसाड के घर आया। उसका स्वागत पत्नी साजिदा शेख, दोनों बच्चों और बेटी ने किया। जैसे ही जीप से सलीम उतरा, रोती हुई साजिदा ने उसे बाहों में ले लिया और उसके माथे को चूमा। उसने बताया कि ‘मुझे खुशी है कि वह घर लौटा। पहले तो यह जाना ही नहीं चाहता था क्योंकि हमारे सबसे बड़े बच्चे के कान का आॅपरेशन होना है। हमारी आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं है इसलिए वह दो जुलाई को तीर्थयात्रियों की बस लेकर चला। मुझे खुशी है कि उन्होंने इतने लोगों की जान बचाई।’
सोमवार को हुए हमले को याद करते हुए सलीम ने बताया कि तीर्थयात्रियों ने यात्रा पूरी कर ली थी। हमारी योजना थी कि हम वैष्णों देवी जाएंगे। हम कटरा के पास थे। हमारी बस भी एक कारवां का हिस्सा बन गई । तभी कुछ देर बाद एक टायर पंचर हो गया। हम रुक गए। टायर दुरुस्त कर हम चले लेकिन कारवां तो कहीं आगे निकल चुका था।
‘हमने हिम्मत की । पूरे रास्ते हर कहीं अंधेरा था। अचानक हमें पीेछे से आवाजें सुनाई दी। पटाखों के बजने की कोई वजह तो नहीं थी। ये आवाज गोलियों की थी। मुझे लगा कि शायद आतंकवादियों ने हम पर हमला कर दिया है। अब गोलियां बस के अंदर आने लगी थी। इस बार ड्राइवर की ओर, बोनट पर और बस के दूसरे हिस्सों पर। उधर तीर्थयात्राी शोर कर रहे थे। चीख-पुकार बस में मची थी। मैं बस को तेजी से भगाता रहा। तकरीबन दो-ढाई किलोमीटर आगे तक। हमें मिलिट्री का एक शिविर दिखा। वहीं हमने बस रोक दी।’
एक गोली लगी थी हर्ष देसाई को। हर्ष बेटे हैं जवाहर देसाई के जो ओम ट्रेवेल्स चलाते हंै। वे ही इस बस के मालिक भी हैं। हर्ष मेरे बगल में बैठा था। उसे गोली लगी । मैंने सारी घटना सेना के अधिकारियों को सुनाई। सभी यात्राी बस से निकाले गए और अस्पताल पहंुचाए गए। सेना के अधिकारियों ने तेजी से बस भगाने की मेरी कला की सराहना की और कहा कि अन्यथा सभी मारे जाते।
आतंकवादियों ने निशाने पर लिया था शेख को । ‘लेकिन बेहद झुक कर हमने जिस तरह ड्राइविंग की वह गजब की थी।’ शेख ने कहा,‘ मैं इसलिए बच गया क्योंकि उसकी पत्नी, बच्चे हमेशा प्रार्थना करते हैं।’
कश्मीर सरकार ने विशेष जांच कमेटी नियुक्त की है। वह जांच करेगी कि हमला क्यों हुआ और कैसे हुआ। पुलिस का कहना है कि इस घटना में लश्कर की भागीदारी है। हम चाहते हैं कि विस्तृत छानबीन करके एक बड़ी रपट बनाई जाए। छोटे से छोटा मुद्दा भी न छूटने पाए। हमें तमाम छोटे-बड़े साक्ष्य सुरक्षित रखने होंगे जिससे यह पता लग सके कि इस नृशंस वारदात के पीछे कौन लोग हंै। भविष्य के लिहाज से भी यह बेहतर होगा।
यह भी जांच कराई जाएगी कि बस कैसे सड़क पर चलती रही और उसे किसी सुरक्षा नाके पर क्यों नहीं रोका गया । जबकि शाम ढलने के बाद आवाजाही पर रोक है। जब तीर्थयात्रियों की गाड़ी चलती है तो उसके साथ सुरक्षा गाड़ियां भी होती हंै। यह भी चेक किया जाएगा कि यह बस सुरक्षा दस्तों के पास रजिस्टर्ड क्यों नहीं थी।
मुख्यमंत्राी महबूबा मुफ्रती ने कहा कि इस जघन्य घटना पर उन्होंने केंद्रीय गृहमंत्राी
राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी से बातचीत भी की। इसके अलावा उन्होंने सेना प्रमुख से भी मुलाकात की थी। प्रधानमंत्राी कार्यालय में राज्य मंत्राी और उधमपुर के सांसद जीतेंद्र सिंह से भी बातचीत की। केंद्रीय नेताओं ने इस कठिन समय में राज्य को अच्छा सहयोग दिया है।
ड्राइवर – क्लीनर ने बचाया
गुजरात के बलसाड जिले के वडोली गांव के रमेश पटेल ने बताया कि ज़्यादातर तीर्थयात्रियों को मारे जाने से बचाने में बस ड्राइवर सलीम शेख और क्लीनर की बड़ी भूमिका थी। ड्राइवर ने गोली की आवाज़ जैसे सुनी उसने गाड़ी को दस-पंद्रह मिनट भगाते हुए आर्मी कैंप पर ही जाकर रोका। एक
आतंकवादी ने गोलियों की आवाज़ के दौरान ही बस का दरवाजा खोलकर बस में घुसने की कोशिश की तो क्लीनर में उसे धक्का दिया। चलती बस में क्लीनर के धक्का देने से वह बस में नहीं चढ़ पाया।

भारत को बिना नकदी स्वर्ग बनाने की कवायद

cover-story1

काला धन और आतंकवाद को बड़ी चोट देने के इरादे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय करंसी के रु. पांच सौ और हजार रुपए के नोटों को चलन से बाहर करने की घोषणा की। यह अर्थ अनुशासन पर्व आठ नवंबर से 30 दिसंबर तक यानी पचास दिन चला। इस बड़े पर्व में बहुत बड़ी राशि खर्च जरूर हुई लेकिन बैंकिंग, आतंकवाद, विभिन्न व्यवसाय में सक्रिय ढेरों ऐसे ‘लूप होल’ सरकार के पास हैं जिन पर अब नजर रखते हुए अगली बड़ी कार्रवाई हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने तकलीफ और तमाम परेशानियां झेलते हुए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पहल की प्रशंसा की। जानकार और विद्वान लेखक हरचरण बैंस ने देश की प्राचीन आर्थिक परंपरा के तहत पूरे देश में बड़ी कीमत वाले नोटों पर पाबंदी लगाने का जायजा लिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बगैर किसी संदेह के ‘अनिच्छुक’ भारत को मुद्रा के मामले में संयमी बनाने के लिए बिना नगदी के लेनदेन के स्वर्ग बनाने का बीड़ा उठाया। इसकी चर्चा हमारे शास्त्रों यहां तक कि मौद््रिक शास्त्रों में रही है। पिछले महीने जब प्रधानमंत्री ने अपने बैंकिंग बम का धमाका किया, बहुत कम लोगों को इस बात का अनुमान था कि  दरअसल यह देश की प्राचीन धार्मिक और आर्थिक परंपराओं की ओर वापसी थी जब देशवासी रुपए को सिर्फ ‘माया’ बतौर ही जानता था और इसके चरित्र को बेहद चंचल और विश्वासघातक तक माना जाता था। नए माहौल में तो धर्मराज को भी कंप्यूटर का जानकार होना है जिससे वे नर्क में भी हमारा लेखा-जोखा कर सकें। हमारे धर्मों में हमेशा माया की प्रकृति को चपल चपला ही बताया गया है। मोदी ने अपने एक मास्टर स्ट्रोक में ही इसे कम चपल और ज्यादा भरोसे लायक और छानबीन वाली स्थिति मंे पहुंचा दिया है। साइबर ने शास्त्र की जगह ले ली है और दोनों ही बराबरी के स्तर पर महत्वपूर्ण हैं भले वास्तव में न हों।

मोदी दरअसल धर्म की दार्शनिक गवेषणाओं की बजाए, जबर्दस्त मौद्रिक वास्तविकताओं से प्रेरित हुए। बिना नगदी समाज आधुनिक पश्चिमी समाज की देन है। इसकी भाषा भी मसलन ‘प्लास्टिक मनी’ या इससे भी ऊंचे स्तर पर ‘डिजिटल मनी’ ऐसे  कुलीन आवरण हैं जो दूसरी ताकत को छिपाए हुए है यानी अपरोक्ष ताैर पर तकनॉलाॅजी के इस्तेमाल से बिन नगदी के लेन-देन को काबू में रखती है। इस तरह तकनॉलॉजी जिसे माना जाता था कि सूचना को हर कहीं प्रसारित करके ताकत का लोकतांत्रिकरण करेगी उसने अब हमारी निजी जिंदगी पर नए तानाशाह बिठा दिए हैं।

यह सच भी है कि हर राजनीतिक प्रणाली में सरकारें अपने नागरिकों की जेबों पर हाथ मारती हैं। अब तक सरकारों ने इतने ज्यादा हाथ रखे हुए थे कि वे सरकारी हाथों की तुलना में कहीं ज्यादा थे। इतने कि उनकी गिनती नहीं थी। पेपर करेंसी (कागजी नोट) सरकारी नियंत्रण का एक माध्यम है जो नागरिक के धन पर नियंत्रण करता है। न केवल उसके खर्च के अंदाज बल्कि ‘दूसरी’ आदतों पर भी।

लेकिन इस अनुशासन को अमल में लाने के लिए सरकार को फिस्कल मानीटरिंग (वित्तीय अनुशासन) की जरूरत पड़ती है। यह आसान काम नहीं है। एक बार ‘पेपर कैश’ सरकारी प्रिंटरी से बाहर आती है तो उसके बाद उसका अपना ही दिमाग होता है और वह अपने ठिकाने और राहें ढूंढ़ लेता है। यानी सरकारें जिसे खुद पैदा करती हैं यानी कैश करेंसी उन पर से ही नियंत्रण खो बैठती हैं। टकसाल से हर कागजी नोट के बाहर आने के बाद उसका हिसाब-किताब रखना बेहद कठिन काम है।

ऐसा इसलिए है क्योंकि हर करेंसी नोट की अपनी ‘खुली इच्छा’ होती है अपनी राह खुद तय करने की। इसलिए सरकारों की जरूरत होती है अपनी कर-प्रणाली बनाने की। हर स्तर पर सरकारी अफसरों, कर्मचारियों के फौज-फाटे की। जैसे ही कैश करेंसी टकसाल से या बैंक से बाजार में आती है तो यह पूरी प्रणाली से अपनी आजादी की मुनादी करती है। नकदी करेंसी अपनी सार्वभौमिकता में कोई दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करती। अपनी शर्तों पर यह नकदी करेंसी जीवित रहना चाहती है। आखिरी जगह जहां सिक्का या नकदी रुपया जाना चाहता है वह है सरकारी खजाना या बैंक का स्ट्रांग रूम। करेंसी की प्रकृति हमेशा ‘करेंट’  सी होती है – जिंदगी के साथ हमेशा अपना ‘कांट्रैक्ट’ नया करते हुए।

l2016120494337

अमूमन नकदी करेंसी पूंजीवादी समाज में ज्यादा खुशहाल हाेती है क्योंकि इस अर्थव्यवस्था  में ‘खर्च’ पर जोर ज्यादा होता है बनिस्बत ‘बचत’ के। हालांकि यह सच नहीं है। दरअसल पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कभी अपनी करेंसी को वह आजादी नहीं देती जो वामपंथी, समाजवादी और नियंत्रित अर्थव्यवस्था इसे मुहैया कराती हैं। क्योंकि एक-एक पैसे से पूरी करंसी सामाजिक कल्याण में लगी रहती है जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इसका अपना एक नकली अग्निकुंड होता है जहां यह ‘वैधानिक टेंडर’ यानी जो  रुपए को जमाखोरों के खजाने में दबाए रखती है। ये भूमिगत स्थान बहुत अंधेरे भरे, ज्यादा धमकी भरे अंधेरे वाले होते हैं करंसी के लिए। एक बार जब कोई सिक्का इन अग्निकुंडों में गिरता है तो बहुत कम ही ऐसे मौके आते हैं जब यह वास्तविक बाजार की अर्थव्यवस्था की ताजी हवा में सांस ले पाता है।

आज वामपंथी अर्थनीतियों के नए मालिकों (जारों) को कतई न भूलिए जिनकी जेबें जनसाधारण की पूरी नकदी से ठसाठस भरी होती हैं। ये मालिकान (जार) अपने खजानों में करंसी की गोलाइयाें को  अपने खजाने के अंधेरों में सराहते हैं। टिन पॉट (लोहे के डिब्बे) वाली ‘जनसाधारण तानाशाही’ मशहूर है। करेंसी को संभाले रखने आैर अंधेरे भरे कमरों में बिना हिसाब-किताब के नकदी के सौंदर्य को छिपाने में।

भारत जैसे लोकतंत्र में कोई भी यह अनुमान नहीं लगाएगा कि यहां कोई  ऐसी चीज मसलन ‘वित्तीय तानाशाही वाली अर्थव्यवस्था’ नहीं होगी। क्योंकि ज्यादातर नीतियों और हर सिक्का जो जारी होता है उस पर हुए दस्तखत पर सरकारों के उन जन-प्रतिनिधियों से मंजूरी ली जाती है जो चुनाव में जीत कर आते हैं। लिखित परंपरा तो यही है। लेकिन जमीनी वास्तविकता कुछ और है। संसदीय सत्रों को आर्थिक सेमिनार नहीं बनने दिया जाना चाहिए जहां विशेषज्ञ सिर्फ नीतियों के ब्यौरे पर बहस करते हैं जिनके तहत सरकारें टैक्स में रुपए इकट्ठे करती हैं और आए हुए धन को खर्च करती हैं। तथ्य यह कि  ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों मंे संसद में बैठे लोगों का हाल यह रहा है कि संसद मंे बैठे लोग ज्यादातर ‘गूंगे और कोई रुचि न लेने वाली’ तस्वीरों वाली जनता जैसे ही होते हैं। ज्यादातर ऐसे नजर आते हैं जैसे वे पांच साल के लिए जमी हुई स्थानीय तस्वीर की तरह तभी जागते हैं जब जिंदगी और सक्रियता की छवि दिखानी होती है।

तथ्य यह है कि सांसद (किसी भी लोकतांत्रिक देश में) शायद अपने विस्तृत आर्थिक एजंडे के आधार पर जीतते हों। इस कारण ज्यादातर यह भी नहीं जानते कि जिसके लिए जनता ने उन्हें चुना है उनसे वह आर्थिक नीति पर क्या उम्मीद करती है। जनता तो उनसे कम जानती है और कोई परवाह नहीं करती। कुल मिलाकर ‘आर्थिक नीति’ एक किस्म की नारेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं होती जो आम ताैर पर वे लोग तैयार करते हैं जिनकी अर्थशास्त्र में अरुचि थी और न समझ पाने के कारण ही आज उन्हें वह स्थान मिला। कम योग्यता के ही कारण वे लोकप्रिय नेता बन जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा वे एक चेहरा या एक राजनीतिक दल की आवाज बन जाते हैं जिसके सदस्य यह जानते हैं किस बात से उनके मतदाता ज्यादा दिग्भ्रमित होंगे और इस गड़बड़झाले से वे जीतते भी रहेंगे।

ऐसी स्थिति में अपने राजनीतिक नेताओं को राजनीति की बजाए अर्थ पर तवज्जुह देना, वाकई बेहद रोचक लगता है।

हमारे नेता बहुत ही मनोरंजक हैं वे रुपए को ज्यादा समझा पाते हैं पर अर्थशास्त्र कम समझते हैं। यह ऐसा रोचक मामला है जो सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में ही संभव है। जो हमारे पास है वह गोपनीय है, अलिखित है लेकिन साफ तौर पर उसे समझा जा सकता है। यह समझौता लोगों और राजनीतिकों के बीच है। किसी को भी अपनी रुपयों की चाहत के लिए अर्थशास्त्र की क्या जरूरत। सरकारें कभी इस बात के लिए न तो बनती हैं और न भंग होती हैं कि उनके फैसलों से अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा। लोग उन्हें चुनते हैं जो लोगों को खुश न करने में अर्थव्यवस्था का सहारा नहीं लेते। ‘खजाने में रुपया नहीं है’ यह बात कभी ‘वेतन न देने’ का आधार भी नहीं बनती। ऐसे तर्क सिर्फ किताबों में ही होते हैं। वास्तविक दुनिया, जो लोगों और राजनीतिकों की है। सरकारें आमतौर पर जानती हैं कि कम पैसा होते हुए भी ज्यादा पैसा खर्च करना कोई जादू नहीं है। यह पूरी दुनिया में सरकारी तौर-तरीका है। एक वित्त मंत्री जो खाली जेब घोषणाएं करता है उसे जादुई वित्त मंत्री कहा जाता है। जबकि जनता को कोई बताता है कि  सोच तो यह है। वह जनता से अपील करता है कि  वह इसे मंजूर कर लें क्योंकि यह देश के त्याग है। देश के लिए एक दीर्घकालिक व्यवस्था है ‘मूर्खतापूर्ण, निराशादायक और असफलता।’ एक कामयाब वित्त मंत्री वही है जो अपनी खोज से न जाने कितने रुपए छाप लेता है।

यह जादूगरी होती है कैसे? ज्यादातर लोग जो नहीं जानते वह है कि  मैक्रो और माइक्रो अर्थव्यवस्था  दो अलग चीजें ही नहीं बल्कि  एक-दूसरे के ठीक विपरीत भी हैं। एक परिवार के बजट और एक राज्य के बजट में अंतर यह है कि पहले के लिए पैसा जरूरी है फिर उसे खर्च किया जाना है जबकि दूसरे मंे आपको खर्च पहले करना है जिससे पैसा मिले। दूसरे, एक पारिवारिक खर्च से बचत कर पाना गुण है जबकि राज्य के अर्थशास्त्र में खर्च न करना बर्बादी है। एक वित्त मंत्री ने वित्त वर्ष के अंत में धन काफी छोड़ दिया यानी उसने अपना काम ठीक से किया ही नहीं।

‘खजाने में रुपया नहीं है’ यह बात कभी ‘वेतन न देने’ का आधार भी नहीं बनती। ऐसे तर्क सिर्फ किताबों में ही होते हैं। वास्तविक दुनिया, जो लोगों और राजनीतिकों की है। सरकारें आमतौर पर जानती हैं कि कम पैसा होते हुए भी ज्यादा पैसा खर्च करना कोई जादू नहीं है।

एक सरकार को तो वह सब खर्च कर डालना चाहिहए मसलन भवन-निर्माण, रोजगार बढ़ाने के लिए अवसर बढ़ाने में, जन-कल्याण योजनाओं और करोड़ाें – खास तौर पर दूसरी करोड़ाें योजनाओं पर। सरकार के लिए एक भी पैसा बचाना यानी उस पैसे को ठीक तरह से न खर्च करना। फिर सरकार को पैसा बचाना ही क्यों चाहिए? क्या उसे बेटियों की शादी करनी है? क्या उसे बीमार पड़ने पर डाक्टर को पैसे देने हैं? क्या इसे अपने बच्चों के बड़े होने तक के लिए बचत करना है नहीं। एक अच्छी सरकार को ज्यादा से ज्यादा पैसा लोगों को कमाने पर लगाना चाहिए। एक सरकार की सही बचत वह हुनर है जो इसने देश के लिए ‘टैलेंट बैंक’ बना कर किया।

तो सरकार को भी क्या नकद चाहिए? सरकारी बजट में नकद के बारे में नहीं सिर्फ गुणा-भाग की ही चर्चा  होती है – यह किताब में सही उल्लेख बतौर होती है। यदि सरकारी बजट नकद के बारे में हो ताे हर बार बजट भाषण के पहले पूरी संसद भवन और साउथ और नॉर्थ ब्लॉक और इसके साथ के तमाम इलाकों को खाली कराकर वहां नकदी रखनी होगी। किताबी तौर पर यह संभव है कि कोई सरकार किसी राजा की तरह अपनी उंगलियों में हजार रुपए के नोट थामे रहे – या फिर कभी इस पर ध्यान न दे कि टकसाल से जो रुपए आए हैं वे क्या हैं। सरकारी वित्तीय जमा खर्च नकद के बारे में नहीं बल्कि सिर्फ किताबी ही होते हैं।

फिर करंसी की आखिर क्या जरूरत? दरअसल जितना बढ़िया सवाल उतना ही अच्छा जवाब। आपको करंसी क्यों चाहिए? यदि आप मानवीय आर्थिक क्रियाकलाप को तीन भाग में बांटे – पिछला, वर्तमान और भविष्य तो एक चीज उभरती है हार्ड कैश या हार्ड करंसी। जो तीन मंे से एक धारा से जुड़ती है। वह है वर्तमान। प्राचीन काल में लोग उपलब्ध नकदी के बिना भी निर्वाह करते थे। एक व्यक्ति का आर्थिक जीवनयापन एक व्यक्ति, एक गांव, एक छोटा समाज और एक देश में होता था और आपस में इनमंे बड़ा अच्छा और अनोखा तालमेल था। इसे अर्थशास्त्र में ‘बार्टर सिस्टम’ कहते हैं। आपके पास दूध है। मेरे पास गेहूं है। उसके पास कपड़े हैं, अमुक के पास दवा है। अब मुझे दूध चाहिए, आपका गेहूं चाहिए, उसे कपड़े चाहिए, उसे दवा चाहिए। यह प्रणाली अच्छी चली। डिमांड-सप्लाई नेटवर्किंग अच्छी रही।

मुझे कपड़ा चाहिए और मैं आपसे परिचित हूं। लेकिन आपके पास सिर्फ दूध है। फिर हम क्या करेंगे। हम बाहर जाएंगे। किसी को तलाशेंगे जिसे जरूरत हो, ले जाए जो मेरे पास है। और वह दूसरा जो चाहे आपकी चीज। तो सिलसिला, थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे होता चलता रहता है।

लेकिन परेशानी तब होती है जब हम पाते हैं कि किसी के पास जगह है कुछ समय के लिए तो एक से ज्यादा चीजें रखने की क्षमता भी है। वह फिर ‘इक्विटेबल एक्सचेंज और नेटवर्किंग सेंटर’ बतौर काम करता है। इसी से बना ‘बनिया’, बाद में दूकानदार और फिर मल्टीप्लेक्स। आज का मल्टीप्लेक्स आसानी से नेटवर्किंग कैशलेस एक्सचेंज के रूप में काम करता है जहां छोटी प्रोसेसिंग टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल होता रहता है।

पुराने जमाने में इस तरह काम चलता था। हर चीज का अपना एक इक्विटेबल एक्सचेंज या बार्टर सिस्टम था। यह तब तक चला जब तक सुविधाजनक नकद करंसी का चलन नहीं हो गया। इस कैस करंसी में इतनी व्यापकता थी कि हाथी, घोड़े, कार, विमान, इमारतें, पानी और गेहूं सब कुछ जादू की तरह एक ही जेब में समा गए। यह हमारा वर्तमान है!

कई देश पहले ही भविष्य की ओर चले गए हैं। उन्होंने बार्टर प्रणाली के पक्ष में नकदी डाल दी है लेकिन उन्होंने अलादीन के चिराग का आधुनिक रूप का आविष्कार भी किया है। यानी डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड और फोन बैंकिंग प्रणाली। उन्होंने एक सच्ची बात मान कर ऐसा किया कि करंसी कुछ नहीं है सिवाय वादा नोट के और इसका महत्व सीधे हस्ताक्षर करने वाले के महत्व पर है। सौ रुपए का नोट कुछ नहीं है सिवा इसके कि यह एक लिखित वायदा है। आपसे जो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर ने व्यक्तिगत तौर पर किया है। मुझे नहीं पता कि क्यों मुझे उसके शब्द पर भरोसा करना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे क्यों इतने ढेर सारे लोगों के साथ वायदा ही करना चाहिए। यदि उसके पास तहखाने में उतने रुपए न होंे फिर उसने देश के इतने ढेर सारे लोगों से जो वायदा किया है तो क्या हो। यदि उसके पास रुपए न हों तो क्या वे अपना वायदा पूरा कर सकेंगे जो उन्होंने देश या विदेश में कर रखे हैं। तो क्या हो। मान लीजिए एक सुबह, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खाने की मेज पर हों और हम सभी उसके दरवाजे पर पहुंचें – सभी एक साथ – मांग करें कि वे वह रकम वापस कर दें जिस पर उन्होंने लिखकर हमसे वायदा कर रखा है वह भी अपने निजी हस्ताक्षरों के साथ। क्या अपने तहखाने में उन्होंने इतना धन रखा होगा जिसकी एवज में उन्होंने देश में इतने लोगों के प्रति अपनी प्रतिबद्घता जता रखी है!

लेकिन इस पूरे मामले का मुख्य केंद्र और सारे वाद-विवाद का यही लुब्बोलबाब यही है कि इस विमुद्रीकरण के एक नायक उर्जित पटेल मूर्ख आदमी नहीं हैं। बल्कि वे बेहद तेज-तर्रार हैं। वे बेहद चालाक हैं। उन्होंने ये तमाम गलत वायदे जानते-बूझते हुए किए हैं जो गलत हैं। इन्हें पता है कि हम सारे लोग कभी भी उसके दरवाजे पर नहीं, अचानक एक समूह में नहीं पहुंचेंगे। इसी तरीके का वे इस्तेमाल करते हैं जिसके बल पर बैंक हमें ज्यादा कर्ज देने की बात भी करते हैं।

उर्जित पटेल के पीछे उसे सहयोग दे रहे हैं एक और गुजराती सज्जन। उनका नाम है नरेंद्र मोदी। एक शाम जब मैं अपने बेटे की शादी के लिए खरीदारी कर रहा था तो मोदी आए पटेल के घर और उसे एक अजीबोगरीब विचार दिया, ‘लोगों से कहें कि आप अपने वायदे पर कायम हों। बशर्ते वे सभी नोट आज या अगले छह हफ्ते में नहीं जमा करते जिन पर तुम्हारे दस्तखत हैं। उनसे कहें कि आप अपने नए वायदे के साथ नए नोट जारी कर रहे हो जिसकी कीमत कम हो। हर वायदे की कीमत वह ढाई लाख है जो उनसे वापस मिलेंगे। तुम उनसे सिर्फ रु. चौबीस सौ वापस करने को कहो! बाद में तुम इस वायदे की राशि को 2400 से बढ़ाकर 4000 रुपए प्रति सप्ताह कर दो। कितनी धूर्तता है! है न?

सारी बातें अब साफ हैं। प्रत्येक निजी या सामाजिक लेन-देन का सौदा इन्हीं दोनें से होता है, कहते हैं सुप्रीम कोर्ट के वकील अरुण जेटली। इनसे बेहतर आदमी कोई मिल नहीं सकता जो इतने प्यार से बात करता है और हमें चमत्कृत भी करता है। हमें उसके शब्दों से खुशी मिलती है। उसके व्यक्तित्व से हम प्रभावित होते हैं लेकिन इस प्रक्रिया में यह भूल जाते हैं कि हमारी जेबों में कोई पैसा नहीं है जिसे हम उसकी प्रस्तुति पर दे सकें। धन्यवाद, वह शुल्क नहीं लेता। लेकिन इससे छिपा हुआ एक क्रूर तथ्य सामने आया कि जो कुछ हम करें वह या ताे उनके पास से आए, या एक चेक से या फिर क्रेडिट या डेबिट कार्ड या फोन बैंक मसलन पेटीएम। इसके पहले भी  मोदी, जेटली और पटेल यह कभी पता नहीं कर सके थे कि कब आपने और मैंने करंसी नोटों की अदला-बदली की। इसी तरह हम भारी-भरकम माल अपने घर से आपके घर भेजते रहे। लेकिन अब नहीं। माल की अदला-बदली आज भी होती है – मगर एक अलग तरह से।

इससे हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर असर पड़ा है। एक तो हमारा यह फैसला कि मोदी अगले पांच साल यह नौकरी कर पाएंगे या नहीं, चुनाव हैं।

और तो और अगले ही साल शुरू मंे पंजाब में चुनाव होने हैं, फिर उत्तर प्रदेश, गोवा आदि में। यदि आप चुनाव लड़ रहे हैं या मतदान कर रहे हैं और यदि पिछले दिनों नकद के लिए चुनावी बातचीत करते हैं तो निश्चय ही यह समय है आपके लिए कि आप सोचें कैसे इस पवित्र लोकतांत्रिक संस्कार को पूरा करें। पुराने नियम बदल गए हैं और नए अभी लागू होने हैं। इसलिए आप नए नियमों के साथ ही नए हथियार ढूंढें।

अंसल भी क्या माल्या की राह पर?

ansal--Cover-story-New2

नरेंद्र मोदी की सरकार ने हिम्मत के साथ काले धन के खिलाफ एक बड़ी मुहिम छेड़ी है। प्रधानमंत्री के अनुसार यह महज शुरुआत है। सरकार जल्दी ही संपत्तियों के दूसरे रूपों को (जिनमें रियल एस्टेट भी है) अपने दायरे में लेगी। जिसमें लोग काला धन इस्तेमाल करते हैं और उसे जीएसटी पर अमल से जोड़ते हैं। इससे काले धन की पैदाइश पर रोक लगेगी। हम कल्पना ही कर सकते हैं कि एक सरकार है जो िहम्मत करके देश की 86 फीसद नकदी को बदलने का फैसला लेती है। यह काला धन खत्म करने में किसी भी हद तक जा सकती है। जिससे सरकारी खजाने में कमाई बढ़े और कर अदायगी से बचने के तरीकों पर रोक लगे, अवैध वित्तीय लेनदेन रोका जा सके और आतंकवाद खत्म किया जा सके। ‘तहलका’ अपने पंद्रह साल के शोर भरे सालों में एक निर्भीक, सही और निडर मीडिया हाउस के रूप में उभरा है। इसका जनहित की पत्रकारिता में भरोसा रहा है। काले धन के खिलाफ भारत की लड़ाई में शामिल होकर एक विशाल रियल एस्टेट के खिलाफ हम पेश कर रहे हैं अपनी पहली पेशकश।

केंद्र सरकार को अंसल एपीआई ग्रुप के चेयरमैन और वाइस चेयरमैन के खिलाफ खरबों का धन उगाहने और उसे विदेश में लगाने की शिकायत मिली है। शिकायत में आरोप है कि पिता और पुत्र दोनों ही­ देश से भाग निकलने की काेशिश में हैं। शिकायतकर्ताओं ने मांग की है कि सरकार अपनी तमाम एजंसियों मसलन इनकम टैक्स डिपार्टमेंट, सेंट्रल विजिलेंस कमीशन, एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट, सिक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया, रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, कंप्टीशन कमीशन ऑफ इंडिया को  निर्देश दे जिससे इनका काला धन सामने आए जिसे सालाें से वे बिना टैक्स चुकाए कमाते आ रहे हैं।

तहलका संवाददाताओं की टीम ने इस मामले में अपनी तहकीकात की। इसमें यह जानकारी मिली कि बहुत बड़े पैमाने पर मनी लांड्रिंग और हवाला कारोबार में अंसल एपीआई के चेयरमैन, वाइस चेयरमैन, एमडी और सीईओ लिप्त हैं। हमने 7 नवंबर और 15 नवंबर को उनके  दफ्तर 115, अंसल में अपने प्रश्नों के दो सेट उन्हें भेजे और चाहा कि उनकी प्रतिक्रिया मिले। उनके कार्यालय ने उन्हें प्राप्त भी किया लेकिन चुप्पी बरकरार रखी।

हमारे पास जो दस्तावेज हैं उनसे यह पता चलता है कि ग्रुप में अपनी स्थिति का इन्होंने बेजा इस्तेमाल किया। इन लोगों ने विभिन्न कॉलाेनियों में प्लाट (रेजिडेंशियल और कॉमर्शियल), विकसित किए और बेचे।

ऐसी ही बिक्री का एक उदाहरण है पायोनियर इंडस्ट्रियल पार्क मानेसर, गुडगांव जिसका नाम सरकार ने बाद में बदल कर गुरुग्राम कर दिया। यहां औद्योगिक भूखंड बेचे गए। इसकी घोषित कीमत रुपए 12 हजार प्रति स्क्वायर यार्ड  थी। चेक में जो कीमत वसूली गई वह थी रुपए 2500 प्रति स्क्वायर यार्ड से रुपए 5390 प्रति स्क्वायर यार्ड। बाकी राशि नगद जमा करने का निर्देश था। इसमें राेचक बात यह है कि लेनदेन के इन सभी कागजात पर संबंधित जनरल मैनेजर और चेयरमैन सुशील अंसल के ही दस्तखत हैं।

यह ग्रुप इस समय बिक्री में लगा हुआ है इससे इन आरोपों को बल मिलता है कि चेयरमैन आैर उनके सुपुत्र और वाइस चेयरमैन देश से भागने की फिराक में हैं। अभी इन लोगों ने बड़ी संख्या में संपत्ति मसलन स्कूल, शिक्षा संस्थान, कम्यूनिटी क्लब अादि बेचे भी हैं।

2

इस साल अप्रैल/मई में अंसल ने चिरंजीव स्कूल साथ ही 5.5 एकड़ की पालम विहार, गुड़गांव में एक संपत्ति प्ले स्कूल, दूसरा पालम विहार में एक एकड़ में है और दूसरा स्कूल सुशांत लोक गुड़गांव में है। यह सारा कुछ, कुल दो सौ करोड़ के सौदे में बिका। हालांकि सिर्फ रुपए 72 करोड़ का भुगतान चेक में और बाकी 128 करोड़ रुपए नकद लिए गए। मजेदार बात यह है कि यहां का सर्किल रेट (न्यूनतम दर जिसे रजिस्ट्रेशन का कलेक्टर तय करता है) रुपए 30 हजार प्रति स्क्वायर यार्ड है। यानी जमीन की ही कीमत रुपए 150 करोड़ रुपए होती और तीन लाख फीट का कुल कवर्ड क्षेत्र यदि कम से कम तीन लाख रुपए फीट भी हो जमीन की कीमत रुपए 1200 करोड़ प्रति स्क्वायर फीट की दर पर पहुंचेगी आैर इससे कम से कम रुपए 36 करोड़ का सौदा बैठता। इतना ही नहीं, प्रीमियम स्कूल काफी माना हुआ स्कूल है। यहां चार हजार छात्र पढ़ते हैं। इसकी भी कीमत अलग बनती।

छानबीन से पता लगा कि जेम्स इंटरनेशनल पालम विहार और लखनऊ सुशांत गोल्फ सिटी इस समय बिक्री के लिए हैं। इनकी तय कीमत 32 करोड़ और 25 करोड़ क्रमशः है। पिछले साल एक दूसरे परिवार के मालिकाने मंे  एक दूसरे परिवार के पास 4.83 एकड़ का फार्म हाउस नं. ए 1, पुष्पांजलि, दिल्ली है। जिसकी माप 1.13 एकड़ है। यह जूलियन इंफ्राकन प्राइवेट लिमिटेड (मालिक अवधेश गाेयल) को रु. 22 करोड़ में बेची गई लेकिन इसकी रजिस्ट्री सिर्फ रु. पांच करोड़ मात्र की ही कराई गई। फार्म का बाकी हिस्सा 3.70 करोड़ पर बेचा गया लेकिन रजिस्ट्री रुपए छह करोड़ पर हुई और बाकी रुपए 64 करोड़ कथित तौर पर नकद लिए गए।

पूछताछ से पता लगा कि सुशील अंसल और उसके पुत्र प्रणव अंसल इस नकदी को  टैक्स फ्री यूके और सिंगापुर के अपने विदेशी खातों में जमा कर रहे हैं। वे सिंगापुर, यूके और दुबई में संपत्तियां खरीद भी रहे हैं। इनमें एक होटल है दुबई में शेख जईद रोड पर, और यूके की सबसे ऊंची आवासीय इमारत ‘एसएनएआरडी’ में पचास करोड़ का एपार्टमेंट है। पिता अाैर पुत्र आए दिन सिंगापुर और दुबई आते-जाते रहते हैं। जिससे सवाल उठता है कि क्या वे अवैध रूप से वहां कमाया धन तो वहां नहीं रख रहे हैं। पूछताछ से पता चला कि अंसल परिवार ने काफी बड़ी रकम सुशील अंसल के पोते – प्रणव अंसल के बच्चों बेटे आयुष अंसल और बेटी अनुष्का अंसल के भी नाम विदेशी बैंकों मसलन एचएसबीसी, बार्कलेज बैंक, नैटवेस्ट, स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंकों की सिंगापुर, दुबई आैर यूके की शाखाओं में उनके खातों में डाल रखी है और अब तो इन्हें एनआरआई (नॉन रेसिडेंट इंडियन) का दर्जा भी हासिल है।

ऐसी भी जानकारी है कि कंपनी के एमडी और सीईओ कथित तौर पर राष्ट्रीय राजमार्ग-24 पर पांच सौ एकड़ से ज्यादा जमीन हाई-टेक टाउनशिप विकसित करने में अवैध नकदी का उपयोग कर रहे हैं जिसकी कीमत 15 सौ करोड़ से भी ज्यादा होगी।

अंसल एपीआई पब्लिक लिस्टेड कंपनी है। कंपनी ने एक ओर तो विभिन्न कंपनियों के साथ एकतरफा समझौते किए हैं। मसलन सुशील अंसल के संबंधी जैसे विपिन लूथरा (दामाद) जो वेस्टबरी हॉस्पिटैलिटी और उत्तम गालवा के मिगलानी (प्रणव अंसल के ससुर)। लेन-देन के इन समझाैतों से अंसल एपीआई को करोड़ाें का घाटा उठाना पड़ा। ऐसे ही एक समझौते में सुशांत गोल्फ सिटी, लखनऊ में 15 गोल्फ विला की बिक्री काफी कम कीमत में हुई। साथ ही विभिन्न सब्सिडियरी और पारिवारिक मालिकाने की कंपनियों ने विपिन लूथरा की कंपनी मंे निवेश भी किया आैर दस रुपए कीमत के 4,40,000 शेयर भी वेस्टबरी होटल्स प्राइवेट लिमिटेड में लिए जिसे बाद में दिल्ली टावर्स  एंड एस्टेट्स प्राइवेट लिमिटेड ने ले लिया।

द ग्रुप अंसल एपीआई ने बैंकों से लिए गए कर्जों का भी खूब गोलमाल किया है। उदाहरण के लिए एचडीएफसी बैंक से 239.54 करोड़ के धन के साथ भी काफी गड़बड़ियां हुईं। विभिन्न बैंकों के खातों पर यदि नजर डाली जाए तो पंजाब नेशनल बैंक, जम्मू एंड कश्मीर बैंक, यस बैंक, फेडरल बैंक और तमिलनाडु बैंक से जानकारी मिलती है कि किस तरह एक ही संपत्ति को विभिन्न बैंकों में गिरवी रख कर कर्ज लिया गया। कई संपत्तियां जिन पर कर्ज लिए गए थे वे जाली सेल डीड बनाकर निवेशकों को बेच दी गईं। अंसल एपीआई की ढेरों सब्सिडियरी कंपनियों के शेयर बेहद ऊंची प्रीमियम पर बिके जबकि कंपनियां घाटे में थीं। कोलकाता और दिल्ली में बनाई गई कई ‘शेल’ कंपनियों के जरिए करोड़ाें रुपयों का वारान्यारा हुआ।

कोलकाता और दिल्ली में ऐसी बोगस कंपनियों के खातों में करोड़ाें रुपए जमा कराए गए जिनकी कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं थी। कोलकाता की कंपनियों से दिल्ली की बोगस कंपनियों में चेक जाता था। इन कंपनियों के मालिक सुशील अंसल और प्रणव अंसल की पत्नियां कुसुम अंसल और शीतल अंसल क्रमशः थीं।

बोगस या बेनामी कंपनियां थीं प्राइम मैक्सी प्रमोशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड, आर्चिड रियलटेक प्राइवेट लिमिटेड, एम्बिएंस हॉस्पिटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड, पैलेस हाेस्टेल (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, बजरंग रिएल्टर्स, प्रा. लि., चंडी साफ्टवेयर प्रा. लि., प्लाजा साफ्टवेयर प्रा. लि., प्राइम गोल्फ हैकिंग्स प्रा. लि., सिंगा रियल एस्टेट प्रा. लि., स्टार ऑननेट, कॉम प्रा. लि., जूलियन इंफ्राकान प्रा. लि., ग्रीन पैक्स एस्टेट प्रा. लि., अंबा-भवानी प्रापर्टीज लि., बिजीव डेवलपर्स एंड प्रमोटर्स प्रा. लि., ब्लूबेल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रा. लि., बीजी एग्रीटेक, चिरंजीव इंवेस्टमेंट प्रा. लि., अनुपम थिएटर्स  एंड एक्जहीबिटर्स प्रा. लि., एमकेआर बिल्डवेल प्रा. लि., चंडी प्रोजेक्ट्स प्रा. लि., कैलिबर प्रापर्टीज प्रा. लि., मिड एड प्रोपर्टीज प्रा. लि., मिड एअर प्रापर्टीज प्रा. लि., बद्रीनाथ प्रापर्टीज प्रा. लि., अाार स्थिर हाउसिंग एंड कंस्ट्रक्शन प्रा. लि.।

शेयरधारकों के साथ भी अंसल परिवार धोखाधड़ी करता रहा है। बड़ी तादाद में शेयर अंसल एपीआई के पास हैं जो पब्लिकली लिस्टेड है। अब ये अंसल एपीआई सब्सिडियरी कंपनियों के अधीन हो रही हैं। इन्हें कुसुम अंसल (सुशील अंसल की पत्नी) और शीतल अंसल (प्रणव अंसल की पत्नी) ही चला रही हैं साथ ही बेनामी कंपनियां भी। इन गतिविधियों की जानकारी सेबी को भी नहीं दी गई है और जो रुपए आए वे सुशील और प्रणव अंसल को बतौर कर्ज उनकी कंपनियों को दिए गए हैं।

छानबीन के दौरान ही पता चला कि व्यापारिक लेनदेन और धोखाधड़ी कथित तौर पर अंसल ही करते हैं। जबकि हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी डायरेक्टर होते हैं जो उन्हें किसी कानूनी पचड़े में पड़ने से बचाते हैं। अंसल एपीआई के दो वरिष्ठ अधिकारी निदेशक होते हैं समूह से जुड़ी कम से कम एक दर्जन कंपनियाें के।

पूरे देश में कई सौ एफआईआर, अंसल एपीआई या इसकी सब्सिडियरी कंपनियों के खिलाफ दर्ज हैं लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। एफआईआर मुख्यतः प्लाट बेचने, भूमि, अपार्टमेंट खरीददार को अधिकार न देने के विरोध में हैं। पालम कारपोरेट में 160 आवासीय यूनिट एक वाणिज्यिक लाइसेंस के तहत बेच दिया गया। मल्बरी होम्स में 17 आवासीय प्लाट बिके जबकि वहां कंपनी की आज की तारीख में भी जमीन नहीं है।

कैसे अंसल एपीआई शेयरहोल्डर्स और आयकर अधिकारियों को धोखा देते हैं उसका एक उदाहरण यूपी प्रोजेक्ट्स 2011-12 का एक मामला है। इसमें 11.24 करोड़ रुपए बतौर लाभ लिए बताए गए थे जबकि वास्तविक लाभ 125.62 करोड़ था। इसमंे 65.34 करोड़ का घाटा सुशांत गोल्फ सिटी प्रोजेक्ट में दिखाया गया जबकि 46.07 करोड़ का घाटा इसकी पुरानी कंपनी के नाम प्लाटों पर दिखाया गया। इसी तरह रुपए 13.76 करोड़ का घाटा पैरेंट सिटी में  बनी इकाइयों में दिखाया गया और रुपए 5.53 करोड़ का घाटा सेलेब्रिटी गार्डेंस कांप्लेक्स में बताया गया।

पड़ताल मंे ही पता चला है कि सौ करोड़ से भी ज्यादा की राशि धोखाधड़ी का एक और नमूना है जो चिरंजीव चैरिटेबिल ट्रस्ट, सुशील अंसल फाउंडेशन और कुसुमांजलि फाउंडेशन में दिखा दी गई।

उप्र सरकार से हुए करार के अनुसार पंाच हजार इकाइयाें को एफोर्डेबल हाउसिंग योजना के तहत आर्थिक ताैर पर कमजोर वर्गों के लिए लखनऊ में और ऐसी ही दो हजार इकाइयां अंसल एपीआई के अपने प्रोजेक्ट के तहत दादरी, आगरा, मेरठ और गाजियाबाद में बनानी थीं। सरकार की नीति के अनुसार दस फीसद (312 इकाइयां) और निम्न आय वर्ग के लिए दस फीसद (330 इकाइयां) बननी तय पाई थीं जो लखनऊ प्रोजेक्ट के तहत बिकीं भी। लेकिन इनमें एक भी खरीदार एक भी इकाई को अपना नहीं बताता क्योंकि यह पूरी धोखाधड़ी थी जो सरकार और पूंजी-निवेशकों की ओर से की गई।

गुड़गांव के वन क्षेत्र में अरावली फार्म्स हैं। अंसल एपीआई ने गैरकानूनी तौर पर सौ से ज्यादा फार्म वहां बेच लिए। सौ से ज्यादा एफआईआर दर्ज हैं लेकिन पुलिस ही जानती है कि वह अंसल पर कार्रवाई क्यों नहीं करती।

बेनामी संपत्ति मसलन जंतर मंतर रोड धवनदीप और हेली रोड पर उपासना की बेनामी संपत्तियों में हैं। यहां नकद में हुए लेन-देन के कागजात हैं।

गुड़गांव के वन क्षेत्र में अरावली फार्म्स हैं। अंसल एपीआई ने गैरकानूनी तौर पर सौ से ज्यादा फार्म वहां बेच लिए। सौ से ज्यादा एफआईआर दर्ज हैं लेकिन पुलिस ही जानती है कि वह अंसल पर कार्रवाई क्यों नहीं करती।

सरकार के पास इस मामले की पड़ताल के लिए शिकायतें हैं। वह अपनी विभिन्न एजेंसियों को जांच के लिए हरी झंडी दिखा सकती है। यह प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के लिए भी एक ऐसा महत्वपूर्ण मामला होगा जिसकी जांच काले धन की परतों को काफी कम करेगी।

letters@tehelka.com

‘टैलेंट हंट’ में धोखा खाने के बाद गीतकार बनने का सपना धरा रह गया और हम पत्रकार बन गए…

Illustration : Tehelka Archives
Illustration : Tehelka Archives
Illustration : Tehelka Archive

अपने गांव से 2003 में इलाहाबाद पहुंचा तो सोचा कि गाने और लिखने के अपने शौक को ही अपना पेशा बनाऊंगा. मेरे बड़े भाई पहले से वहां रहते थे. उनके सपोर्ट के बाद मैंने प्रयाग संगीत समिति में एडमिशन ले लिया और संगीत सीखने में लग गया. हालांकि, जब मेरे पिता जी को पता चला कि मैं संगीत सीख रहा हूं तो उनकी प्रतिक्रिया थी, ‘अब यही बचा है! पढ़ना-लिखना है नहीं, अब नाचना-गाना ही बचा है!’ इसके बावजूद मैंने संगीत सीखना जारी रखा.

लोगों की प्रतिक्रियाएं इतनी उत्साहजनक थीं कि मुझे लगता था कि मैं एक संपूर्ण कलाकार बन सकता हूं जो अच्छा संगीत रच सकता है, गाने लिख सकता है, साथ में गा भी सकता है. इस दौरान मैंने कई गाने लिखे और उनकी मौलिक धुन तैयार की. उन्हीं दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में एक सीनियर वसीम अकरम से मुलाकात हुई. एक दिन वसीम भाई ने अखबार में एक फिल्म बनाने वाली कंपनी का विज्ञापन देखा. उस विज्ञापन के मुताबिक कंपनी को स्क्रिप्ट राइटर, गीतकार, गायक, संगीतकार और एक्टर की बड़ी संख्या में जरूरत थी. कंपनी युवाओं को मौका देना चाहती थी. हम लोग उत्साहित हो गए. कंपनी ने इस ‘टैलेंट हंट’ के लिए प्रत्येक प्रतिभागी को 450 रुपये के साथ निश्चित तारीख को बुलाया था.

यह साल 2005 के दिसंबर की बात है जब इलाहाबाद में पढ़ने वाले छात्र को एक से डेढ़ हजार रुपये घर से मिलते थे. उन दिनों 450 रुपये की रकम बहुत बड़ी होती थी. सिविल लाइंस के एक होटल में प्रतिभागियों के चुनाव का कार्यक्रम रखा गया था. हम दोनों ने पैसे की जैसे-तैसे व्यवस्था की और वहां पहुंच गए. अपना रजिस्ट्रेशन कराया और अपनी बारी का इंतजार करने लगे.

अगर उस कंपनी ने 500 उत्साहित बच्चों से 450-450 रुपये वसूले होंगे तो कुल मिलाकर सवा दो लाख का जुगाड़ हो गया होगा

करीब डेढ़ घंटे बाद मेरा नंबर आया. मुझे एक कमरे में ले जाया गया. कमरे की दीवार पर एक बड़ी-सी स्क्रीन लगी थी जिसमें चार चेहरे दिख रहे थे. स्क्रीन से आवाज आई, ‘आप क्या करेंगे?’ मैंने जवाब दिया, ‘मैं गाने लिखता हूं और गाता हूं.’ उन्होंने कहा, ‘अपना लिखा कोई गाना सुनाओ.’ मैंने अपना लिखा और कंपोज किया हुआ एक गाना उनको सुनाया. गाने का मुखड़ा और एक अंतरा खत्म होते ही स्क्रीन पर दिख रहे चार लोगों में से एक मोटा आदमी जोर से बोला, ‘ओके, वेलडन! हमने अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी के लिए आपको गीतकार चुन लिया है. आप हमारे लिए गाने लिखेंगे.’ मैंने खुश होकर उन्हें थैंक यू बोला और उछलता हुआ बाहर आ गया. वसीम भाई को भी मेरी तरह गायक चुन लिया गया था. हमें बताया गया था कि वे हमें कॉल करेंगे. कुछ दिन तक हम दोनों के पांव जमीन पर नहीं थे. 

असली खेला तो गुरु इसके बाद हुआ. एक महीना बीता लेकिन कॉल नहीं आई. अब हम लोग जमीन पर आने लगे थे. देखते-देखते दो महीने बीते. फिर तीन, चार, पांच महीने बीत गए. हम लोगों ने फोन पर संपर्क करना शुरू किया लेकिन कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. गर्मियों की छुट्टी में मैं इस ‘टैलेंट हंट’ कंपनी की खोज में लखनऊ गया. विज्ञापन में दिए पते पर पहुंचा तो पता चला कि कोई अरविंद गौड़ हैं जिन्होंने टैलेंट हंट के जरिए अपना सपना पूरा किया था. मैं अंतत: गौड़ साहब को खोजने में कामयाब हो गया. उन्होंने मुझे टाइम दिया और मिलने बुलाया. मिलते ही उन्होंने आश्वासन दिया कि काम चल रहा है. अभी हमने प्रेमचंद की कहानी पर एक फिल्म बनाई है. उसके बाद उस प्रोजेक्ट पर काम शुरू होगा. मेरी कल्पना ने फिर से उड़ान भरी और लगा कि अभी उम्मीद जिंदा है. उन्होंने मुझसे अपने कुछ और गाने वहां जमा करने को कहा जो कि मैंने कर दिए.

उसके बाद आज दस साल बीत गए हैं. उस तथाकथित कंपनी और उस  डायरेक्टर का कुछ अता-पता नहीं. वसीम भाई ने अपना गायक बनने का शौक एक भोजपुरी एलबम रिकॉर्ड करवाकर पूरा किया. हमने अपने गीत डायरी में बंद कर दिए, फिर अपनी पढ़ाई पूरी की और दोनों ही कलमघसीट पत्रकार बन गए. अगर उस कंपनी ने 500 उत्साहित बच्चों से 450 रुपये वसूले होंगे तो कुल मिलाकर सवा दो लाख का जुगाड़ हो गया होगा. पत्रकार बनने के बाद अब युवाओं को मूर्ख बनाने के इस तरह के तमाम किस्से हम सुनते रहते हैं और हर बार हमारे साथ हुई उस सिनेमाई ठगी पर हंसी भी आती है और गुस्सा भी. 

(लेखक पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

‘भूले-भटके’ तिवारी : जिन्होंने कुंभ में बिछड़े लाखों लोगों को उनके अपनों से मिलवाया

RajaramTiwariWEB

कुंभ के मेले में लोगों के मिलने और बिछड़ने की घटनाओं ने बॉलीवुड को बहुत-सी कहानियों से नवाजा है. इन कहानियों पर आधारित तमाम फिल्में जहां एक तरफ सुपरहिट हुईं वहीं दूसरी ओर कई सुपरस्टारों ने जन्म लिया. लेकिन हम आपको किसी फिल्मी कहानी या फिल्मी नायक के बारे में नहीं बताने जा रहे, बल्कि एक ऐसे नायक के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन कुंभ में बिछड़े हुए लोगों को उनके अपनों से मिलाने में न्योछावर कर दिया. इस अजीम इंसान का नाम राजाराम तिवारी है, जिन्होंने अगस्त महीने की 20 तारीख को इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

1946 में 18 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले से राजाराम अपने कुछ दोस्तों के साथ इलाहाबाद में माघ मेला देखने आए थे. मेले में उन्हें एक रोता हुआ बच्चा मिला. उसके परिजन उससे बिछड़ चुके थे. राजाराम ने उसके परिजन की खोज शुरू कर दी. दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को बच्चे की जानकारी देनी शुरू कर दी. उस दौर में लाउडस्पीकर की कोई व्यवस्था नहीं होती थी, इसलिए उन्होंने टीन के डब्बे को काटकर भोंपू बनाया और उससे अनाउंस करने लगे. कुछ घंटों की मशक्कत के बाद उस बच्चे के माता-पिता मिल गए.

इस घटना ने राजाराम को जिंदगी का मकसद दे दिया और उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कुंभ मेले में बिछड़ों को उनके अपनों से मिलाने में गुजार दी. यह घटना एक संगठन के निर्माण का भी सबब बनी जिसे आज भारत सेवा दल के नाम से जाना जाता है. उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर शालिक राम जायसवाल के नेतृत्व में इस दल का गठन किया था. दल की वेबसाइट के मुताबिक 1946 में राजाराम और उनके नौ दोस्तों ने 870 लोगों को मिलवाया था. दल के आंकड़ों के पर गौर करें तो यह अब तक तकरीबन 14 लाख लोगों को मिलवा चुका है. इतना ही नहीं, राजाराम के इस सेवा भाव की वजह से उनका असली नाम भी लोगों ने भुला दिया. अब लोग उन्हें राजाराम तिवारी नहीं बल्कि ‘भूले-भटके’ तिवारी के नाम से ही जानते हैं.

एक घटना ने राजाराम को जिंदगी का मकसद दे दिया और उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कुंभ मेले में बिछड़ों को उनके अपनों से मिलाने में गुजार दी और भारत सेवा दल का गठन हुआ

‘एक बच्चा जो अपना नाम ‘किशन’ बताता है. वह मेले में अपने परिजनों से बिछड़ गया है. वह सफेद रंग की शर्ट आैैर स्लेटी रंग की पैंट पहने हुए है. उसने नीले रंग की हवाई चप्पल पहन रखी है. यह बच्चा जिस किसी सज्जन का हो वह मेले में लगे भूले-भटके शिविर में टिवड़ी बांध के नीचे आकर बच्चे को ले जाने का कष्ट करे.’ ऐसी पंक्तियों को दोहराते हुए राजाराम के पोते अमित तिवारी अपने बाबा को याद करते हैं.  ये वे पंक्तियां हैं जिन्हें राजाराम मेले में किसी के बिछड़ने पर उनके बारे में जानकारी देने के लिए बार-बार दोहराया करते थे.  अमित बताते हैं, ‘बाबा 88 साल के हो चुके थे. इसके बावजूद उनका माघ मेले से मोहभंग नहीं हुआ था. चाहे कैसी भी तबीयत होती थी वे माघ मेले में लगे भूले-भटके शिविर में जरूर रहते थे. हमारा दल अब तक तकरीबन 14 लाख लोगों को उनके परिजनों से मिला चुका है.’ बुजुर्ग होने की वजह से राजाराम ने कुछ साल पहले अपने सबसे छोटे बेटे उमेश चंद्र तिवारी को दल का अध्यक्ष बना दिया था.

राजाराम के चार बेटे हैं. सबसे बड़े बेटे और अमित के पिता लालजी तिवारी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. उनके दूसरे बेटे प्रकाश चंद्र तिवारी दिल्ली में अपना कारोबार करते हैं, तीसरे बेटे रमेश चंद्र तिवारी वकालत करते हैं और सबसे छोटे बेटे उमेश चंद्र तिवारी शिक्षक हैं. राजाराम का जन्म 10 अगस्त, 1928 को प्रतापगढ़ जिले में रानीगंज तहसील के गौरा नंदू का पुरा नाम के गांव में हुआ था. एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद कुछ समय तक वकालत में भी हाथ आजमाया था, लेकिन वकालत में उनका मन कभी नहीं रमा. 1948 में उनकी शादी शांति देवी से हो गई, जो उनकी हमसफर बनने के साथ बिछड़ों को उनके परिजनों से मिलाने के उनके मिशन की हमकदम भी बन गईं. अपने पीछे पत्नी के अलावा वे 28 सदस्यों का परिवार छोड़कर गए हैं, जिसमें चार बेटे और चार बहुओं के अलावा नौ पोते, पांच पोतियां, तीन परपोते और तीन परपोतियां शामिल हैं. अब उनका परिवार इलाहाबाद में सलोरी इलाके के ओम गायत्री नगर में रहता है.

RajaramTiwari2WEB

उमेश बताते हैं, ‘भरोसा नहीं हो रहा है कि अब पिता जी हमारे बीच नहीं हैं. उन्हें गुजरे हुए एक हफ्ते से ज्यादा का समय हो चुका है, लेकिन लगता है कि यहीं कहीं होंगे और कुछ देर में घर वापस लौट आएंगे. 1946 के बाद इस साल जनवरी के माघ मेले में बिछड़ों को मिलाने की सेवा करते हुए पिता जी ने 71 साल पूरे कर लिए थे. शुरू में मेले में भूले-भटके शिविर लगाने के साथ पिता जी सारी व्यवस्थाएं देखा करते थे. बाद में इसमें प्रशासन भी अपना सहयोग देने लगा था.’ इस सेवा भाव के लिए राजाराम तिवारी को कई सम्मान और प्रशस्ति पत्र मिल चुके हैं. इसके अलावा पिछले साल 25 अक्टूबर को वे अमिताभ बच्चन और अजय देवगन के साथ नजर आए. उन्हें ‘आज की रात है जिंदगी’ नाम के टीवी शो के लिए खास तौर से मुंबई बुलाया गया था. इस शो में ऐसे लोगों से मिलवाया जाता था जो अपने कार्यों के चलते समाज के लिए प्रेरणास्रोत बनकर उभरे थे. इस कार्यक्रम की मेजबानी महानायक अमिताभ बच्चन किया करते थे. कार्यक्रम में अमिताभ ने राजाराम को सम्मानित करने के साथ ही उन्हें प्रशस्ति पत्र दिया था.

उमेश के अनुसार, लोग उनके पिता पर भरोसा करने के साथ ही उन्हें काफी सम्मान भी दिया करते थे. इस भरोसे की बानगी देते हुए वे दो घटनाओं का जिक्र करना नहीं भूलते. पहला वाकया साल 2006 का है. वे बताते हैं, ‘कटरा की रहने वाली लीलावती देवी और उनके पति मेले में रामघाट पर चाय की दुकान लगाते हैं. दुकान पर उनका बेटा भी हाथ बंटाता था. शादी के काफी साल बाद उन्हें बेटा हुआ था. उस साल उनका बेटा मेले में डुबकी लगाने गया तो फिर वापस नहीं लौटा. वह डूब गया या फिर उसे कोई लेकर चला गया ये आज तक पता नहीं चल सका लेकिन उसकी मां को आज भी यकीन है कि एक न एक दिन उनका बेटा वापस लौट आएगा. इसी यकीन के कारण वे हर साल मेले में लगे हमारे शिविर में आकर अपने बेटे के बारे में जानकारी जरूर लेती हैं.’ दूसरा वाकया साल 2013 के कुंभ मेले का है. वे बताते हैं, ‘बिहार के जहानाबाद जिले से एक महिला अपने पति और बेटे के साथ मेले में आई हुई थीं. उनका बेटा गूंगा था. मेले में स्नान-ध्यान के बाद उनका बेटा उनसे बिछड़ गया और आज तक नहीं मिला. इलाहाबाद शहर और आसपास के कई जिलों में उसकी खोज की गई, लेकिन उसका कुछ पता नहीं चल सका. बेटे से मिलने की आस में वे भी हर साल मेले में लगे हमारे शिविर में आती हैं.’

उमेश के भतीजे अमित अपने बाबा से जुड़ी एक पुरानी घटना बताते हैं, जो उनके दादा ने उन्हें सुनाई थी. वे कहते हैं, ‘एक बार एक गूंगी महिला मेले में अपने पति से बिछड़ गई थी. किसी तरह वे शिविर में पहुंचीं. गूंगी होने की वजह से वे इशारे से अपनी बात समझाने की कोशिश कर रही थीं. बाबा ने उनसे उनके पति का नाम पूछा तो वह पेड़ की ओर इशारा करने लगीं. लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वे कहना क्या चाह रही थीं. कुछ समय बाद बाबा को ये समझ में आ गया कि वे दरअसल पेड़ नहीं बल्कि उसकी पत्तियों की ओर इशारा कर रही थीं. उनके पति का नाम हरि था, इसलिए वे पत्तियों की ओर इशारा कर रही थीं. बात समझते ही उनके पति का नाम लेकर अनाउंसमेंट होने लगी और कुछ घंटों के बाद उनके पति उन्हें लेने शिविर पहुंच गए.’

अमित के अनुसार, दादा 1954 में लगे कुंभ मेले के भगदड़ को कभी भुला नहीं सके थे. अक्सर उसका जिक्र किया करते थे. वे बताते हैं, ‘तब मेले में ज्यादा सुविधाएं नहीं हुआ करती थीं. बाबा बताते थे कि तब मेले में ज्यादातर बुजुर्ग ही आया करते थे. मेले में भगदड़ की जांच के लिए एक न्यायिक कमीशन का गठन किया गया था जिसने अपनी रिपोर्ट में मेले की व्यवस्थाएं सुचारू रूप से संचालित करने के लिए एक योजना दी थी. आज मेले का जो स्वरूप है वह उसी योजना का व्यापक रूप है. भगदड़ में हमारे दल ने काफी लोगों की जान बचाने के साथ बिछड़ों को अपनों से मिलवाया था.’

पिछले साल वह अमिताभ बच्चन और अजय देवगन के साथ एक टीवी शो में नजर आए. ‘आज की रात है जिंदगी’ नाम के इस शो में अमिताभ बच्चन ने उन्हें सम्मानित किया था

तमाम ऐसे भी लोग होते हैं जो मेले में कभी परिवार से मिल ही नहीं पाते. सबसे ज्यादा दिक्कत बच्चों के साथ होती है. साल 2001 में ‘आउटलुक’ (अंग्रेजी) मैगजीन को दिए गए इंटरव्यू में राजाराम तिवारी इस बात को स्वीकारते भी हैं कि बच्चों के मामले में काफी दिक्कतें पेश आती हैं. इस साक्षात्कार में वे अपनी पत्नी शांति देवी का जिक्र करते हुए बताते हैं, ‘मेरे काम में मेरी पत्नी का हमेशा सहयोग रहा. बच्चों की देखरेख में वे हमेशा मदद के लिए तैयार रहती हैं.’

भारत सेवा दल में सहयोग देने वाले उमेश के मित्र इलाहाबाद के कारोबारी हंसराज तिवारी बताते हैं, ‘88 साल की उम्र में कोई इतना सक्रिय नहीं होता है जितना वे रहा करते थे. मेले में बिछड़कर शिविर पहुंचे लोगों में कौन खाया, कौन नहीं खाया, इसकी चिंता वे ही किया करते थे. मेले में उनका ध्यान एकदम बगुले की तरह रहता था, ये देखने के लिए कि कहीं कोई बिछड़ तो नहीं गया. इस तरह का काम हमारी पीढ़ी को तो छोड़ दीजिए हमारे पिता जी की पीढ़ी के लोग भी नहीं कर सकते थे. वे आम लोगों से एकदम अलग थे. एक बात और, ये सब वे कर पाए इसमें सबसे बड़ा योगदान उनकी पत्नी का है. शिविर में आने वाले लोगों के लिए खाना तैयार करना, कपड़े और दूसरी सुविधाएं मुहैया करना, इसके अलावा बच्चों की देखरेख करना उन्हीं की जिम्मेदारी थी. मुख्य प्रेरणा वही थीं. उनके बिना तो ये सब संभव ही नहीं हो पाता.’

अगले साल जनवरी में जब माघ मेला लगेगा तो राजाराम उर्फ भूले-भटके तिवारी मेले में बिछड़े हुए लोगों का नाम अनाउंस करते नजर नहीं आएंगे लेकिन भारत सेवा दल की ओर से लगने वाला उनका भूले-भटके शिविर उनके प्रतीक के रूप में जरूर लगा रहेगा. अब वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका काम और सेवा भाव हमेशा हमारे बीच रहेगा और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा.

पंजाब की राजनीति का ‘गुरु’ फैक्टर

फोटो : तहलका आर्काइव
फोटो : तहलका आर्काइव
फोटो : तहलका आर्काइव

दुनिया भर के गेंदबाजों की नाक में दम करने वाले क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू राजनीति की पिच पर अपने खेल से सबको चौंका रहे हैं. अपनी कंमेंट्री, अपने हंसने के अंदाज और चुटीले संवाद के लिए मशहूर पूर्व सलामी बल्लेबाज सिद्धू का गेम प्लान विश्लेषकों की समझ में नहीं आ रहा है. 18 जुलाई को सिद्धू ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद से सिद्धू चुप हैं और अटकलों का बाजार गरम है. विश्लेषक इस इस्तीफे को अलग तरीके से देख रहे हैं तो भाजपा समेत पंजाब में सक्रिय दूसरे बड़े दल इसे अपने तरीके से देख रहे हैं. भाजपा जहां यह बता रही है कि सिद्घू ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया है और अभी वे पार्टी में शामिल हैं तो आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सिद्धू के आप में शामिल होने की अफवाह को कमजोर नहीं होने दे रहे हैं. हाल ही में (19 अगस्त को) केजरीवाल ने इस संदर्भ में कई ट्वीट के जरिए बताया, ‘नवजोत सिद्धू के आप में शामिल होने को लेकर कई अफवाहें चल रही हैं. ये मेरी जिम्मेदारी है कि मैं अपना पक्ष सामने रखूं. इस दिग्गज क्रिकेटर के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है. वे पिछले हफ्ते मुझसे मिले थे. कोई पूर्व शर्त नहीं रखी. उन्हें सोचने के लिए कुछ वक्त चाहिए. उनके इस फैसले का सम्मान होना चाहिए. वे बहुत अच्छे इंसान और क्रिकेटर हैं. मेरा सम्मान उनके प्रति कायम रहेगा भले ही वे हमारी पार्टी में शामिल हों या नहीं.’ इतना ही नहीं, सिद्धू के राज्यसभा से इस्तीफे के बाद केजरीवाल ने ट्वीट करके सिद्धू की प्रशंसा की थी. अपने ट्वीट में केजरीवाल ने लिखा, ‘लोग राज्यसभा की सीट के लिए क्या नहीं करते. लेकिन क्या कभी अपने राज्य को बचाने के लिए किसी राज्यसभा के सदस्य को इस्तीफा देते देखा था? मैं सिद्धू के साहस के लिए उनको सैल्यूट करता हूं.’ इसके अलावा कांग्रेस के तमाम नेता उन्हें पार्टी जॉइन करने का न्योता दे रहे हैं. जहां पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन्हें याद दिलाया कि सिद्धू के पिताजी भगवंत सिंह सिद्धू पटियाला जिला कांग्रेस के कार्यालय प्रभारी रह चुके हैं, वहीं हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुए राज्य के पूर्व वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल कहते हैं कि पार्टी में सिद्धू के स्वागत के लिए वे नंगे पैर उनके पास जाने को तैयार हैं.

‘सिद्धू के लिए आप में शामिल होने का रास्ता भी आसान नहीं है. जैसे ही सिद्धू के आप में शामिल होने और पंजाब में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की अफवाहें उड़ीं, वैसे ही पार्टी में अंदरूनी खींचतान शुरू हो गई’

राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्टल भी कहती हैं, ‘सिद्धू कांग्रेस के लिए पूरी तरह उपयुक्त हैं. उनका भाजपा में शामिल होना सिर्फ एक प्रयोग था. कांग्रेस तो उनके खून में है.’ कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, ‘हम सब सिद्धू की इज्जत करते हैं. एक क्रिकेटर-कलाकार के तौर पर उनकी अपनी हैसियत है. हम भले अलग-अलग पार्टियों में रहे हों, राजनीतिक तौर पर हमारे विचार न मिलते हों, मगर मोदी ने उन्हें जिस तरह बेवकूफ बनाया और धोखा दिया, वैसा किसी के साथ भी नहीं किया जाना चाहिए. यह मेरी इच्छा है. साथ ही, मैं यह भी कहना चाहूंगा कि सिद्धू को आप या केजरीवाल से भी ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए.’ मजेदार बात यह है कि बोलने के लिए मशहूर सिद्धू को छोड़कर सब कुछ न कुछ बोल रहे हैं. इस पूरे मामले पर सिद्धू आखिरी बार राज्यसभा से इस्तीफा देने के बाद दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोले थे. उन्होंने कहा, ‘पंछी भी उड़ता है तो शाम को अपने घर वापस जाता है, चार चुनाव जीतने के बाद राज्यसभा देकर यह कहा जाता है कि सिद्धू पंजाब से दूर रहो, आखिर क्यों? मेरे लिए राष्ट्र धर्म से बड़ा कुछ भी नहीं, इसलिए पंजाब से मैं कैसे अलग हो सकता हूं, पंजाब की माटी मेरी मां है और कोई बच्चा अपनी मां से कैसे अलग हो सकता है.’ सिद्धू ने आगे कहा, ‘जब आंधी चली तब मुझे उठाया गया और जब लहर चली तब मुझे उसमें डुबोया गया, मैंने अटल जी के कहने पर चुनाव लड़ा और मोदी लहर ने मुझे डुबो दिया.’ इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद क्रिकेट कमेंट्री से लेकर कॉमेडी शो और राजनीति में भी लगातार सक्रिय सिद्धू ने पंजाब की राजनीति गर्मा दी. दिल्ली से लेकर पंजाब तक उनके आप की सदस्यता लेने की चर्चा जोरों पर रही. ऐसी अटकलें भी लगाई जा रही थीं कि आम आदमी पार्टी सिद्धू को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर देगी. राजनीति के जानकारों का कहना है कि आम आदमी पार्टी पंजाब में एक अदद मुख्यमंत्री पद के दावेदार की तलाश में है. आप पंजाब में अपने संगठन में कोई ऐसा चेहरा तलाश नहीं पा रही है, जिसे वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर आगे कर सके. पार्टी के दो सांसद पहले से पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल हैं. भगवंत मान का नाम लंबे समय तक चला पर पारिवारिक विवाद और दूसरे कारणों से उनका ग्राफ नीचे चला गया. जीत के लिए पार्टी सिद्धू जैसे चेहरे की तलाश में जुटी रही. SiddhuFamilyWeb बीते सालों में सिद्धू के पार्टी में शामिल होने की बात कई बार चली, पर मामला सिरे नहीं चढ़ पाया. उनकी पत्नी नवजोत कौर सिद्धू लगातार अकाली और भाजपा की आलोचना करती रहीं पर कभी आप को नहीं कोसा. उन्होंने एक बार आप की तारीफ करते हुए कहा, ‘सियासत को आम आदमी पार्टी ने नई राह दिखाई है. इस पर कई नेता और दल अब चलने की कोशिश करने लगे हैं. प्रमुख सियासी दलों को आप से राजनीति करना सीखना चाहिए.’ हालांकि इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पाया. न तो अभी तक सिद्धू आप में शामिल हुए न तो आप की तरफ से ऐसी किसी पेशकश की सूचना मीडिया के सामने आई.

‘आम आदमी पार्टी के पास पंजाब में कोई ईमानदार छवि वाला सिख चेहरा नहीं है, जिसकी सूबे में एक अलग पहचान हो.  ऐसे में नवजोत सिद्धू से बेहतर कोई चेहरा हो नहीं सकता. वे आप के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं’

विश्लेषक इस पूरे मामले को दूसरी तरह से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘सिद्धू के लिए आप में शामिल होने का रास्ता भी आसान नहीं है. जैसे ही सिद्धू के आप में शामिल होने और पंजाब में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की अफवाहें उड़ीं, वैसे ही राज्य में आप के लिए काम करने वाले स्थानीय नेताओं के कान खड़े हो गए. पार्टी में अंदरूनी खींचतान शुरू हो गई. इन नेताओं के भारी दबाव के चलते सिद्धू के साथ अरविंद केजरीवाल के साथ हुई कई गोपनीय बैठकों का नतीजा सिफर रहा.’ आम आदमी पार्टी पर नजर रखने वाले जानकार इसकी वजह आप का संविधान बताते हैं. गौरतलब है कि आप के संविधान के मुताबिक परिवार का एक ही व्यक्ति पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ सकता है अथवा कोई पद संभाल सकता है. उनका संविधान यह भी कहता है कि किसी सजायाफ्ता व्यक्ति को पार्टी टिकट नहीं देगी. सिद्धू के साथ ये दोनों दिक्कतें हैं. एक तो वे रोड रेज के एक मामले में गैर-इरादतन हत्या के दोषी साबित हो चुके हैं. यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है. दूसरे, वह अपने साथ-साथ पत्नी के लिए भी विधानसभा का टिकट चाहते हैं. अगर पत्नी को टिकट मिले तो आप के संविधान के मुताबिक सिद्धू को टिकट नहीं मिल पाएगा. ऐसे में जब विधानसभा चुनाव लड़ने का टिकट ही नहीं मिल सकता तो मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी अपने आप खत्म हो जाती है. हालांकि आप का एक धड़ा यह बात जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है कि सिद्धू की मुख्यमंत्री बनने की प्रबल इच्छा के चलते ही पार्टी के साथ उनकी हालिया बैठक निष्फल हुई है तो दूसरी तरफ पार्टी में एक सोच यह भी है कि अगर उसे पंजाब में सत्ता हासिल करनी है तो एक ऐसे सिख चेहरे की जरूरत है जो युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हो. अन्ना आंदोलन में सक्रिय रहे और अमृतसर के सामाजिक कार्यकर्ता हरजिंदर सिंह कहते हैं, ‘पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू और आम आदमी पार्टी दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है. आम आदमी पार्टी के पास अभी पंजाब में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसकी पूरे सूबे में अपनी एक अलग पहचान हो या जिसकी युवाओं के बीच भी अपील हो. वाक्पटुता और प्रभावी भाषण शैली वाला हो और सबसे बड़ी बात ईमानदार छवि वाला हो. साथ में सिख भी हो. ऐसे में नवजोत सिद्धू से बेहतर कोई चेहरा हो नहीं सकता. अगर वे आप की तरफ से बैटिंग करते हैं तो पार्टी की कई समस्याएं दूर हो सकती हैं. वे आप के लिए पंजाब में तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं. दूसरी तरफ इतनी खूबियां होने के बावजूद भाजपा ने जिस तरह का व्यवहार सिद्धू के साथ किया है, उनके लिए आप एक बेहतर विकल्प हो सकता है.’ गौरतलब है कि भाजपा से सिद्धू की नाराजगी तब खुलकर सामने आई जब 2014 के लोकसभा चुनाव में उनका टिकट काट दिया गया था. हालांकि पार्टी से कड़वाहट की खबरें पहले से आने लगी थीं. दरअसल कभी क्रिकेट की दुनिया में अपनी बल्लेबाजी से लोगों के दिलों पर छा जाने वाले सिद्धू जब सियासत में आए तो यहां भी उनका प्रदर्शन शानदार ही रहा. अमृतसर से 2004 से 2014 के बीच लगातार सांसद रहे. वे भाजपा के ऐसे सांसद रहे हैं जो अपने बयानों और जुमलों के कारण हमेशा विरोधियों पर भारी पड़ते रहे हैं. उनके बारे में एक कहानी यह भी है कि अमृतसर में कांग्रेस ने उन्हें बाहरी कहा तो पटियाला के मूल निवासी सिद्धू ने पटियाला न जाने की सौंगध उठा ली. उसके बाद वे पटियाला में दिखे भी नहीं. अब तो घर भी अमृतसर में ही बना लिया है. उसके बाद पत्नी भी अमृतसर से ही पंजाब विधानसभा की विधायक चुनी गईं, लेकिन यहीं से उनका अकाली दल से विवाद शुरू हो गया क्योंकि स्थानीय स्तर पर अकाली नेता नवजोत कौर से खुश नहीं थे. सिद्धू परिवार और भाजपा के बीच यहीं से दरार बढ़नी शुरू हुई. बाद में 2014 में जब उन्हें अरुण जेटली के लिए अमृतसर सीट खाली करने को कहा गया तो भाजपा से उनके मोहभंग की शुरुआत हो गई.

सिद्धू भाजपा में बने रहने के लिए मोल-भाव करना चाहते हैं, लेकिन अकालियों के साथ उनकी पुरानी दुश्मनी की वजह से यह स्पष्ट था कि भाजपा उन्हें पंजाब के मामलों में शामिल नहीं करेगी

हालांकि सिद्धू ने विरोध को झंडा बुलंद नहीं किया, लेकिन साफ दिखा कि वे खुश नहीं थे. वे जेटली के चुनाव प्रचार से गायब रहे. हालांकि इस चुनाव में कांग्रेस अपने दिग्गज कैप्टन अमरिंदर सिंह को ले आई और जेटली चुनाव बुरी तरह हार गए. सिद्धू ने उसके बाद भी अमृतसर में अधिक दिलचस्पी नहीं ली. लेकिन उनकी पत्नी नवजोत कौर ने अकाली सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. इसके अलावा सिद्धू इससे पहले भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल थे. वे नितिन गडकरी की टीम में पार्टी के राष्ट्रीय सचिव थे. लेकिन अमित शाह की टीम में उन्हें कोई जगह नहीं दी गई. उनके बजाय अमृतसर के ही तरुण चुघ को पार्टी का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया जो राजनीति में सिद्धू से काफी जूनियर हैं. हालांकि काफी सोच-विचार के बाद और विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए सिद्धू की नाराजगी दूर करने के लिए भाजपा ने तीन महीने पहले ही उन्हें राज्यसभा भेजा था. इस पूरे मसले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद हस्तक्षेप किया. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को भले ही सिद्धू ने राज्यसभा की सदस्यता और केंद्र में मंत्री पद के लिए मना कर दिया था, लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी ने सिद्धू को यह बताया कि सरकार उन्हें राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा भेज रही है तो सिद्धू उन्हें मना नहीं कर पाए. यह बात सिद्धू ने भी राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद स्वीकार की कि वे प्रधानमंत्री के आदेश पर राज्यसभा जाने को तैयार हुए थे. हालांकि मोदी ने भले ही सिद्धू को राज्यसभा भेजकर केंद्र में मंत्री बनाने की बात सीधे तौर पर नहीं कही हो, लेकिन जानकारों की मानें तो सिद्धू को इस बात की उम्मीद थी कि पांच जुलाई को हुए मंत्रिमंडल विस्तार में उन्हें मोदी सरकार में जगह मिलेगी. इस बात की चर्चा राजनीतिक गलियारे में भी थी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. मंत्रिमंडल विस्तार के दो हफ्ते के अंदर राज्यसभा से सिद्धू के इस्तीफे को उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं किए जाने की निराशा से भी जोड़कर देखा जा रहा है. SiddhuBJPWeb वैसे जब सिद्धू ने राज्यसभा से इस्तीफा दिया था तब भाजपा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था. हालांकि इसके बाद उनकी पत्नी नवजोत कौर सिद्धू ने बयान जारी किया था. उन्होंने कहा था, ‘राज्यसभा से सिद्धू के इस्तीफे को भाजपा से इस्तीफा भी मान लिया जाना चाहिए.’ हालांकि बाद में वे इससे थोड़ा हटती नजर आईं. एक तरफ वे यह संकेत देती रहीं कि वे भाजपा छोड़ सकती हैं. साथ ही वे भाजपा की तिंरगा यात्राओं में भी शामिल रहीं. सूत्रों का कहना है कि इस दौरान कई बार उनकी मुलाकात पंजाब भाजपा के अध्यक्ष विजय सांपला से भी हुई है. सापंला ने भी इस दौरान कहा कि सिद्धू ने भाजपा नहीं छोड़ी है इसलिए उनसे पार्टी में लौटने के लिए कहने का कोई मतलब ही नहीं है. जबकि, सिद्धू ने पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी. ‘तहलका’ ने भी जब इस मसले पर पंजाब भाजपा के प्रवक्ता दीवान अमित अरोड़ा से बातचीत की तो उन्होंने बताया, ‘नवजोत सिंह सिद्धू ने सिर्फ राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया है, पार्टी की सदस्यता से नहीं. वे अब भी पंजाब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में शामिल हैं और हमारे आदरणीय नेता हैं. आगामी विधानसभा चुनावों में उनकी भूमिका क्या रहेगी इसका जवाब भविष्य में आपको मिल जाएगा.’ जब उनसे यह पूछा गया कि राज्यसभा से इस्तीफे के बाद उनकी पत्नी नवजोत कौर ने कहा था कि राज्यसभा के इस्तीफे को ही पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा समझा जाए तो अरोड़ा ने कहा, ‘पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सिद्धू से बातचीत कर रहा है. वैसे भी कई बार पति-पत्नी अलग-अलग पार्टी में होते हैं. ऐसे में किसी की पत्नी के बयान को पति का इस्तीफा कैसे मान लिया जाए?’ हालांकि इससे यह संकेत मिला कि सिद्धू भी भाजपा में बने रहने के लिए मोल-भाव करना चाहते हैं. लेकिन अकालियों के साथ उनकी पुरानी दुश्मनी की वजह से यह स्पष्ट था कि भाजपा उन्हें पंजाब के मामलों में शामिल नहीं करेगी. सिद्धू यही नहीं चाहते हैं. यह बात उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता छोड़ते वक्त कही भी थी. जहां तक बात सिद्धू को पंजाब की राजनीति से दूर रखे जाने की है तो इसका सीधा-सा कारण है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व किसी भी कीमत पर अकाली दल के साथ गठबंधन रखने के पक्ष में है. जबकि सिद्धू और पत्नी इसके खिलाफ हैं. नवजोत कौर ने यहां तक कह रखा है कि अगर 2017 के चुनाव में अकाली दल से गठबंधन बना रहा तो वे भाजपा से चुनाव नहीं लड़ेंगी. अमृतसर के भाजपा कार्यकर्ता और सिद्धू के समर्थक बलविंदर सिंह कहते हैं, ‘पंजाब में पिछले नौ साल से भाजपा-अकाली की सरकार है. लेकिन इस कार्यकाल के दौरान जनता में अकाली दल की छवि बहुत ज्यादा खराब हुई है. भाजपा को लेकर लोगों में उस तरह का गुस्सा नहीं है. ऐसे में अगर भाजपा अकेले चुनावी मैदान में उतरती है तो उसे नुकसान होने के बजाय फायदा ही होगा. 2012 में भाजपा को गठबंधन में सिर्फ 23 सीटें मिली थीं जिनमें से पार्टी को 12 पर जीत हासिल हुई. अब यदि भाजपा नवजोत सिंह सिद्धू को अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करके राज्य की सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़े तो वह अपने बूते पर ही पहले से अधिक सीटें जीत सकती है. इससे कांग्रेस और आप दोनों को भारी नुकसान होगा.’ जानकारों का कहना है कि पंजाब भाजपा में भी एक ऐसा धड़ा है जो यह मानता है कि अगर भाजपा अकाली दल से अलग होकर चुनाव लड़े तो न सिर्फ कांग्रेस का खेल खराब हो सकता है बल्कि आप के पंजाब मिशन को झटका लग सकता है. इसका मानना है कि अगर सिद्धू के नेतृत्व में भाजपा चुनाव लड़ती है तो पहली बार पंजाब में चुनावी मुकाबला चतुष्कोणीय हो जाएगा बल्कि संभव है कि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत ही न मिले. ऐसे में भाजपा के लिए नए विकल्प खुलने की संभावना बन जाती है और इसी वजह से सिद्धू अभी तक आप में नहीं गए हैं. दोस्तों के बीच शेरी नाम से मशहूर सिद्धू का जीवन भी कम दिलचस्प नहीं हैं. उनकी जिंदगी में जहां जीत और हार के रंग हैं तो वहीं जेल का अंधेरा भी शामिल है. उन्होंने क्रिकेट में भले ही बल्लेबाजी का जलवा दिखाया हो लेकिन निजी जीवन में वे ऑल राउंडर है. अभी एक तरफ वे क्रिकेट की कमेंट्री करते हैं तो दूसरी तरफ द कपिल शर्मा शो में जज की भूमिका में आते हैं. राजनीति की पिच पर सफल हैं तो बिग बॉस जैसे टीवी सीरियल में भी हिस्सा ले चुके हैं. उनके हंसने के अंदाज, उनकी शायरी की चर्चा पूरे देश में होती हैं. इसके लिए एक शब्द सिद्धूइज्म बना है.

‘पंजाब में बीते नौ साल से भाजपा-अकाली सरकार है लेकिन इस कार्यकाल के दौरान जनता में अकाली दल की छवि बहुत खराब हुई है.  ऐसे में अगर भाजपा अकेले चुनावों में उतरती है तो उसे नुकसान के बजाय फायदा ही होगा’

पंजाब के पटियाला में 20 अक्टूबर, 1963 को एक जाट सिख परिवार में नवजोत सिंह सिद्धू का जन्म हुआ था. सिद्धू को पहली बार अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में हाथ आजमाने का मौका उस वक्त मिला जब 1983-84 में वेस्टइंडीज के खिलाफ उन्हें टीम इंडिया में शामिल किया गया. लेकिन अपने पहले टेस्ट मैच में सिद्धू महज 19 रन पर आउट हो गए. जिसके बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, लेकिन घरेलू क्रिकेट में शानदार प्रदर्शन के बूते उन्होंने एक बार फिर राष्ट्रीय टीम में वापसी की. और इस बार सिद्धू के बल्ले ने अपना जलवा दिखाया. 1987 के क्रिकेट वर्ल्ड कप में सिद्धू ने पांच मैचों में चार अर्धशतक जमाए थे. स्पिनरों की गेंद पर छक्कों की बरसात करने वाले सिद्धू क्रिकेट प्रेमियों के बीच सिक्सर सिद्धू के नाम से भी मशहूर हुए. जनवरी 1999 में अपना आखिरी टेस्ट खेलने वाले सिद्धू के खाते में 51 टेस्ट और 136 वनडे दर्ज हैं. सिद्धू ने वनडे में छह शतक और 33 अर्धशतक जड़ते हुए 37 की औसत से 4,413 रन बनाए हैं. इसके बाद वे क्रिकेट की कमेंट्री करने लगे. इस दौरान वे अपने खास अंदाज, शेरो शायरी और चुटीले जुमलों की वजह से भी काफी मशहूर हुए. SiddhuWEB क्रिकेट के मैदान से शुरू हुआ उनका ये सफर 2004 में राजनीति के मैदान तक पहुंच गया जब वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. अमृतसर से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे सिद्धू ने कांग्रेस के आर एल भाटिया को 90 हजार वोटों से धूल चटा दी थी. कांग्रेस सांसद रहे आर एल भाटिया ने ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद भी कांग्रेस के टिकट पर अमृतसर से जीत दर्ज की थी और यही वजह थी कि अमृतसर सीट से चुनाव जीतने के बाद बीजेपी और पंजाब की राजनीति में सिद्धू का कद अचानक काफी बड़ा हो गया था. हालांकि साल 2006 में उन्हें उस वक्त बड़ा झटका लगा जब हरियाणा और पंजाब हाई कोर्ट ने हत्या के एक केस में उन्हें सजा सुना दी. दरअसल यह पूरा मामला साल 1988 का है जब पटियाला में गुरुनाम सिंह नाम के शख्स के साथ सिद्धू का झगड़ा हुआ था. पुलिस ने इस मामले में सिद्धू के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का केस दर्ज किया था. इस केस में निचली अदालत से तो सिद्धू को राहत मिल गई थी लेकिन दिसंबर 2006 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने सिद्धू को दोषी करार देते हुए उन्हें तीन साल कैद और एक लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी जिसके बाद सिद्धू को कुछ दिन जेल की कालकोठरी में गुजारने पड़े थे. इस दौरान उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दे दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत देते हुए न सिर्फ हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी बल्कि उन्हें जमानत देकर चुनाव लड़ने की अनुमति भी दे दी. साल 2007 के उपचुनाव में वे एक बार फिर अमृतसर से चुनाव जीत गए. बाद में वे 2009 का आम चुनाव भी जीतने में सफल रहे. हालांकि 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने मोदी के दुलारे समझे जाने वाले सिद्धू का टिकट अमृतसर से काटकर अरुण जेटली को दे दिया. वैसे राजनीति हो या क्रिकेट, सिद्धू छक्के मारने के लिए जाने जाते हैं. इस बार भी उन्होंने गेंद हवा में उछाल दी है. पर गेंद सीमा रेखा के बाहर जाएगी या वे कैच आउट होंगे यह देखना दिलचस्प होगा.

बिहार : शराबबंदी की सनक?

pic-(3)WEB

‘मैं बर्बाद हो जाऊंगा मगर शराबबंदी से समझौता नहीं करूंगा. विपक्ष कहता है कि मैं शराबबंदी के नशे में हूं. हां, मुझ पर शराबबंदी का नशा है. जो पिए बिना नहीं रह सकते, वे कहीं और चले जाएं. क्योंकि अब बिहार में शराब पीने की गुंजाइश नहीं है. जिन्हें जितना मजाक उड़ाना है, उड़ा ले, हम पीछे हटने वाले नहीं हैं. हमेें मालूम है कि हमने बिरनी के छत्ते में हाथ डाला है. ताकतवर लाॅबी है शराब की, उसको उकसाया है लेकिन हमें परवाह नहीं है कुछ. हम जिस रास्ते चल पड़ते हैं फिर पीछे मुड़कर नहीं देखते. आरएसएस और पीएम नरेंद्र मोदी शराबबंदी पर अपना पक्ष बताएं. भाजपा हिंदुत्व की बात करती है तो बताए कि किस ग्रंथ में शराब पीने की बात कही गई है. भाजपा शराबबंदी की मुहिम को ध्वस्त करना चाहती है लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे. विधेयक को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं. भाजपा वाले असहयोग कर रहे हैं. हमने विधेयक बदला है. विधेयक में दंड के प्रावधान को कम किया है. किसी के घर से शराब मिलती है तो सिर्फ दोषी को ही दंड मिलेगा लेकिन घर में शराब है और घर में किसी को पता नहीं हो, ऐसा होता है क्या? तय होना चाहिए कि दोषी कौन है. घरवालों को बताना होगा कि शराब आखिर आई कहां से. यह हम पता करेंगे तो इसमें गलत क्या है? क्या किसी के घर में शराब है तो उसे कानून तोड़ने की छूट दे दी जाए?’

इसी महीने की एक तारीख को बिहार विधानसभा में बिहार मद्य निषेध एवं उत्पाद विधेयक, 2016 पर बहस के बाद नीतीश कुमार जब जवाब दे रहे थे तो न जाने ऐसी कितनी बातें एक सुर में बोलते चले गए.  नीतीश कहते हैं, ‘जाइए, जाकर गांवों में देखिए. केवल कहते मत रहिए कि शराब की होम डिलीवरी हो रही है. हो रही है तो कहां हो रही है, बताइए. नहीं बताइएगा तो समझेंगे कि आप भी इसमें शामिल हैं. आप लोग बात कर रहे हैं कि बेजा किसी को परेशान किया जाएगा. बेजा परेशान किया जाएगा तो उसके लिए कड़ा कानून बनाया गया है. जुर्माना-जेल दोनों होगा. जाइए गांवों में जाकर देखिए. वहां शांति है. संज्ञेय अपराध में 12.7 प्रतिशत की कमी आई है. महिलाएं खुश हैं. 1.19 करोड़ बच्चों के जरिए अभिभावकांे ने शराबबंदी का संकल्प लिया है. क्या यह सब बदलाव नहीं है. देखिएगा तब न!’

नीतीश कुमार उस दिन और भी बातें कहना चाहते थे लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता नंदकिशोर यादव ने ब्रेक लगा दिया और फिर बात ही बदल गई. नंदकिशोर यादव ने कहा, ‘आप हमारी पार्टी के साथ सत्ता में रहे हैं. हम लोग साथ-साथ सरकार चला चुके हैं. आपने कहा था कि थाना स्तर पर नियंत्रण करना सरकार के बस की बात नहीं है, वहां भ्रष्टाचार रोकना सरकार के बस की बात नहीं है तो बताइए कि यह जो नया वाला कानून है, उसको तो थाना स्तर से ही लागू करवाया जाना है और आप कह रहे कि उस स्तर पर नियंत्रण हो ही नहीं सकता तो फिर क्या होगा? फिर तो सब कुछ थाना ही तय करेगा न! और जब थाना तय करेगा तो समझ ही रहे हैं कि क्या होगा.’

‘शराब के संग ताड़ी पर भी बैन लगा देने से इसे बनाने वाले समुदाय के लोगों के सामने रोजगार का संकट आ गया है. इस पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं’ 

नंदकिशोर यादव की बातों का जवाब नीतीश कुमार और सत्ताधारी दल के विधायकों के पास था, लेकिन नंदकिशोर यादव की बात में एक लाइन ऐसी थी जिससे बात बदल गई. नंदकिशोर ने कह दिया था, ‘हम भेद खोल दें क्या?’ वह क्या भेद खोलना चाहते थे, यह बात उन्हीं तक रह गई. कोई जान नहीं सका. कोई जान भी नहीं पाएगा  क्योंकि अब नंदकिशोर यादव उस पर बात भी नहीं कर रहे हैं. वे दूसरी बातों पर ज्यादा जोर देते हैं. कहते हैं, ‘मैंने दो संशोधन के प्रस्ताव रखे थे लेकिन दोनों ही पास नहीं हो सके. जब राज्य में शराबबंदी है तो शराब बनाने वाले कारखानों के रिन्यूअल की बात क्यों है? और दूसरा यह कि घर में शराब मिलने पर सभी बालिगों को क्यों दोषी ठहराया जाएगा?’ जिस तरह से नीतीश कुमार शराबबंदी के नए कानून के पक्ष में देर तक प्रवाह में बोलते हैं वैसे ही नंदकिशोर यादव भी सदन में राज खोलने वाली बात छोड़कर बाकी ढेर सारी बातों को घंटों बताते हैं. नंदकिशोर यादव कहते हैं, ‘नीतीश कुमार डंडे के बल पर शराबबंदी करवाना चाह रहे हैं. पहले तो दस सालों तक लत लगवाए और अब उसे एक झटके में छुड़वाना चाह रहे हैं. घर में दारू मिलने पर बुजुर्ग भी जेल जाएंगे. बताइए ये कैसा कानून है. ये तो जंगलराज है. जमानत का भी प्रावधान नहीं किया गया है. जो भ्रष्टाचारी हैं वे सड़क पर घूमेंगे और जो निर्दोष होगा वह शराब के बहाने जेल में होगा. ये कैसा कानून है?’

शराबबंदी के लिए बिहार में महिलाओं ने एक लंबा आंदोलन चलाया था. शराबबंदी का फैसला आने के बाद बाद महिला संगठनों ने खुशी जताई  है.
शराबबंदी के लिए बिहार में महिलाओं ने एक लंबा आंदोलन चलाया था. शराबबंदी का फैसला आने के बाद बाद महिला संगठनों ने खुशी जताई है.

इसके इतर जिस दिन से बिहार में नया शराबबंदी कानून पेश हुआ और पारित हुआ, उस दिन से बिहार के तमाम विपक्ष के नेता सरकार को घेरने मंे लगे हुए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कहते हैं, ‘शराब के संग नीतीश कुमार ने तो ताड़ी पर भी बैन लगा दिया है. ताड़ी वाले समुदाय के लोगों के सामने रोजगार का संकट आ गया है. ताड़ी औषधि की तरह होता है. इस पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं.’ राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता ललन पासवान कहते हैं, ‘अगर किसी के घर  में शराब मिलने से किसी अभिभावक को भी सजा मिलनी है फिर तो विधानसभा परिसर में कोई भी शराब फेंककर चला जाएगा और विधानसभा अध्यक्ष और सचिव को सजा देनी होगी.’

ऐसे ही तर्क कई नेता रखते हैं. सभी विपक्षी नेताओं के पास अपने तर्क हैं, सभी सत्ताधारी दल के नेताओं के पास अपने तर्क. इन तर्कों के टकराव का अंजाम क्या होगा यह हर कोई बिहार में जान रहा है. बिहार में सरकार शराबबंदी का कानून ला चुकी है. कानून को लेकर सरकार सतर्क है और सख्त भी, यह दिखाने की लगातार कोशिश करेगी. सरकार ऐसा कर भी रही है. अब तक राज्य में 11 थानेदार इस आधार पर निलंबित हो चुके हैं कि वे अपने इलाके में पूर्ण शराबबंदी नहीं करवा सके हैं. हालांकि अभी उस पर किचकिच चल रही है. विरोध हो रहा है कि अगर शराबबंदी के आधार पर ही थाना प्रभारियों को निलंबित करना था तो फिर 11 को ही क्यों किया गया, अब तक तो 150 थानेदारों को निलंबित हो जाना चाहिए था, क्योंकि इतने इलाकों से शराब पकड़ी जा चुकी है.

दूसरी ओर, पुलिस एसोसिएशन का भी विरोध जारी है और एक सूचना के अनुसार 130 दारोगाओं और इंस्पेक्टरों ने एसोसिएशन में गुहार लगाई है कि उन्हें थानेदारी या इंस्पेक्टरी नहीं चाहिए, कहीं शंटिंग में पोस्टिंग दे दी जाए. शराबबंदी कानून का असर हो रहा है, यह दिखाने के लिए शासन के स्तर पर और भी कई तरह की कार्रवाइयां चल रही हैं. नालंदा में तो एक पूरे गांव पर ही जुर्माना लगा दिया गया है. उस गांव का नाम कैलाशपुर है, जो 50 घरों की बस्ती है और जुर्माने के तौर पर हर घर को पांच हजार रुपये देने को कहा गया है. बिहार शरीफ जिले के डीएम डाॅ. त्याग राजन कहते हैं, ‘गांव में पांच बार छापेमारी की गई, बार-बार चेतावनी दी गई लेकिन हर बार शराब बनाने के उपकरण बरामद होते रहे इसलिए आखिर में पूरे गांव पर जुुर्माना लगाने का निर्णय लिया गया.’

नालंदा के कैलाशपुर गांव पर ही जुर्माना लगा दिया गया है. यह 50 घरों की बस्ती है और जुर्माने के तौर पर हर घर को पांच हजार रुपये देने को कहा गया है

नालंदा से लेकर दूसरे जिले तक तरह-तरह की कार्रवाइयां चल रही हैं और उसे सरकारी स्तर पर प्रचारित-प्रसारित भी किया जा रहा है. दूसरी ओर, विपक्ष रोज-ब-रोज शराबबंदी को लेकर तमाम तरह के तर्क और तथ्य जुटाने में लगा हुआ है, जिससे सरकार को घेरा जा सके. पक्ष-विपक्ष की इस लड़ाई के बीच आश्चर्यजनक रूप से सत्ताधारी गठबंधन में शामिल लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद और कांग्रेस मुखर नहीं हैं. कुछ पूछे जाने पर दोनों ही पार्टी के नेता नीतीश कुमार के फैसले में ‘हां’ में ‘हां’ तो मिला रहे हैं लेकिन अपनी ओर से अलग से बिहार सरकार के इस सबसे महत्वाकांक्षी और प्रसिद्ध अभियान के लिए ऊर्जा नहीं लगा रहे. नाम न बताने की शर्त पर राजद के एक नेता कहते हैं, ‘शराबबंदी कानून को लेकर हम लोग लालू प्रसाद यादव के पास गए थे तो उन्होंने कहा है सब कुछ देखते रहो. ये भाजपा और जदयू का फ्रेंडली मैच है, नीतीश राष्ट्रीय राजनीति में जाने के लिए सियासी पासा खेल रहे हैं. शांत होकर देखते रहो. पहले भाजपा और नीतीश कुमार ने मिलकर दस साल में शराब को घर-घर पहुंचाया है और अब एक ही रात में सब बंद करवाना चाह रहे हैं. नीतीश से ऐसा नहीं होगा. देखना वे खुद अपने ही जाल में फंस जाएंगे.’

कार्रवाई बिहार में शराबबंदी को लेकर सख्त नजर आ रही सरकार की ओर से शराब की दुकानों को सील करने का सिलसिला लगातार जारी है.
कार्रवाई बिहार में शराबबंदी को लेकर सख्त नजर आ रही सरकार की ओर से शराब की दुकानों को सील करने का सिलसिला लगातार जारी है.

राजद के ये नेता यह बताते हुए  लालू का हवाला देते हैं और कहते हैं कि लालू ने उन्हें ऐसा कहा है और अभी शांत रहकर मौन व्रत धारण करने को कहा है. इसलिए वे चुप हैं. यह तो नहीं मालूम कि लालू ने अपने दल के नेताओं को ऐसी नसीहती घुट्टी पिलाई है या नहीं और ऐसा कहा है या नहीं कि नीतीश कुमार खुद इस जाल में फंस जाएंगे लेकिन लालू न भी कहें तो भी पूरे राज्य में ऐसा मानने वालों की संख्या खूब है जो यह कह रहे हैं कि बिहार में शराबबंदी का यह कानून न सिर्फ नए तरीके से भ्रष्टाचार और अपराध को बढ़ाएगा बल्कि सरकार के मूल एजेंडे सामाजिक न्याय को भी तार-तार करेगा.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘यह पाॅपुलर एजेंडा है, जिसमें नीतीश कुमार उलझ गए हैं और उसे रोज-ब-रोज दोहरा रहे हैं. शराबबंदी का माॅडल पूरे देश में पेश करना चाहते हैं लेकिन यह चल नहीं पाएगा. यह कानून एक तरीके से सामाजिक न्याय को धक्का भी पहुंचाएगा.’ सुमन जो बातें को कहते हैं उनका विस्तार बिहार के अलग-अलग इलाकों में घूमते हुए महसूस किया जा सकता है. बिहार के एक बड़े हिस्से से उत्तर प्रदेश की सीमा लगती है, जो छपरा, सीवान, कैमूर, मोतिहारी, बेतिया जैसे इलाकों को छूती है. बिहार के कुछ इलाके सीधे नेपाल से लगे हुए हैं. बिहार का एक बड़ा इलाका झारखंड से भी लगा हुआ है तो कुछ हिस्से बंगाल को भी छूते हैं. बिहार में शराबबंदी है लेकिन बिहार के पड़ोसी राज्यों में शराबबंदी नहीं है. मुश्किल यह है कि राजनीतिक एजेंडे के तहत नीतीश कुमार लगातार आरएसएस और प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहे हैं कि शराबबंदी पर क्या नीति है, बताइए. भाजपा शासित राज्यों में शराब बंद कीजिए लेकिन बिहार के सीमाई इलाके में झारखंड ही है, जहां भाजपा का शासन है, बाकी बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार है, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार है. नीतीश कुमार शराबबंदी अभियान के तहत झारखंड सरकार को ही बार-बार टारगेट पर रखते भी हैं. वे उत्तर प्रदेश की सरकार या बंगाल की सरकार पर ज्यादा कुछ नहीं बोलते. नीतीश कुमार का यह रवैया उनके इस सबसे बडे़ और महत्वाकांक्षी राजनीतिक और शासकीय अभियान को हल्का बना देता है. इससे एक साधारण व्यक्ति भी समझ जाता है कि शराब का खेल पूरी तरह से सियासत के पाले में जा चुका है. खैर यह तो फिर भी एक बात हुई. दूसरी और असल बात यह है कि शराबबंदी अभियान का पूरा दारोमदार पुलिसवालों पर आ गया है. पुलिसवाले बॉर्डर वाले इलाके से लेकर राज्य के अंदर तक रोज छापेमारी कर रहे हैं. इन इलाके में शराब की खपत बढ़ गई है. नई दुकानें तो खुली ही हैं, साथ ही वहां से बिहार में शराब लाने का स्थायी जुगाड़ भी विकसित होने लगा है. बताया जा रहा है कि बड़े लोगों के लिए यह एक नया धंधा विकसित हो रहा है. वे शराब को बाॅर्डर से लगे दूसरे राज्याें से बिहार में लाने के लिए एक नया चेन विकसित कर रहे हैं और इसकी शुरुआत भी हो चुकी है.

बिहार के प्रायः हर शहर में शराब महंगी कीमत पर उपलब्ध है. सीमाई क्षेत्रों में पुलिस और माफिया की मिलीभगत से एक चेन विकसित हो रही है

pic-(9)WEB

बिहार के प्रायः हर शहर में शराब महंगी कीमत पर उपलब्ध है. पुलिस और माफिया की मिलीभगत से यह चेन विकसित हो रहा है. यूपी बाॅर्डर, झारखंड बाॅर्डर से लेकर नेपाल बाॅर्डर तक इस धंधे की आहट सुनाई पड़ सकती है. हालांकि अभी चूंकि कानून नया है इसलिए सतर्कता बरती जा रही है. दूसरी ओर, जब से कानून में इस बात का प्रावधान हुआ है कि किसी के घर में शराब मिलने पर उस घर के सभी बालिगों को भी दोषी माना जाएगा और आरंभिक स्तर पर पूछताछ की जाएगी तब से कई लोग एक-दूसरे से दुश्मनी निकालने की योजना बना रहे हैं. बिहार में आपसी रंजिश में एक-दूसरे के घर में हथियार रखवा देने का इतिहास लोग जानते हैं. दो दशक पहले तक हथियार को एक-दूसरे के घर में रखकर लोग अपनी दुश्मनी साधते थे. शराब हथियार से ज्यादा आसान चीज है. राज्य के ताकतवर लोगों के लिए शराब आसानी से उपलब्ध है. कमजोर लोगों के लिए भी मेहनत करने पर शराब उपलब्ध है. चूंकि शराबबंदी का यह कानून पुलिसवालों पर निर्भर है, इसलिए यह मानकर चला जा रहा है कि आखिरकार ताकतवरों की ही चलेगी. अब किसी भी कमजोर को फंसाने के लिए उसके घर, अहाते में शराब रखवाने या फेंकने का काम चलेगा. शराब रखवाना और फिर पुलिस को इत्तला करके उन्हें फंसा देने का काम आसान हो जाएगा. जो बड़े लोग होंगे वे पुलिस को मैनेज करेंगे, जो कमजोर होंगे वे बड़े लोगों के गुलाम होंगे, क्योंकि अब पुलिस का इस्तेमाल करके किसी कमजोर को फंसाना पहले की तरह मुश्किल भी नहीं होगा. शराबबंदी का कानून कड़ा है. अब तक यह देखा भी जा रहा है कि शराबबंदी के फेर में जो भी पुलिस के हत्थे चढ़ रहे हैं वे गरीब और आर्थिक तौर पर कमजोर लोग ही हैं या वंचित समूह के लोग हैं. अभी यह आलम है तो ट्रायल फेज के बाद जब यह कानून थोड़ा पुराना हो जाएगा तो फिर इस प्रवृत्ति का और विस्तार ही होगा.