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समय से पहले ही 2018 में होंगे आम चुनाव?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह इस हुनर में माहिर हैं कि हमेशा वे विपक्ष को नींद से जगाते रहे हैं। ऐसी संभावना है कि लोकसभा चुनाव जो 2019 मेेेें होने हैं उन्हें 2018 समाप्त होने के पहले ही कराने का संदेश ये दोनों महारथी दे दें। इसी की गहरी छानबीन कर रहे हंै चरणजीत आहुजा और रिद्धिमा मल्होत्रा

 

सत्ता के गलियारों में यह फुसफुसाहट अब तेज हो गई है कि भाजपा लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करा ले। पार्टी को फिर विधानसभा चुनावों में और ज़्यादा कामयाबी मिलेगी। पार्टी के नेताओं की राय है कि यदि विधानसभा और आम सभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो राज्य के मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दों का दबाव पड़ेगा और पार्टी चुनावों में अच्छे नतीजे ला सकेगी। लोगों पर यह नज़रिया प्रभावी पड़ रहा है कि इससे एंटी-इन्कंबैंसी पर भी असर पड़ेगा जो कई राज्यों में दिख भी रहा है। भाजपा के लिए यह सबसे अच्छी बात है कि विपक्ष के पास कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है जिसके चलते यह भाजपा पर हावी हो सके। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभाओं में चुनाव नवंबर-दिसंबर 2018 में होने भी हैं और ये राज्य आम चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश कर सकते हैं। यदि आम चुनाव समय से पूर्व यानी 2018 में करने पर सहमति बन जाती है।

मुख्यमंत्री मिले मोदी और शाह से

भाजपा सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार भाजपा शासित राज्यों के तेरह मुख्यमंत्री और छह उप-मुख्यमंत्रियों ने अभी हाल में मोदी और अमित शाह से मुलाकात की थी। इस बैठक में यह बात ज़रूर निर्विवाद तौर पर साफ हुई कि मोदी के मुकाबले में पार्टी में कोई नेता नहीं है और उनकी लोकप्रियता बदस्तूर कायम है। दूसरा नज़रिया जो इस बैठक में साफ हुआ कि पार्टी को निर्धारित तारीख तक यानी 2019 तक दस-बारह महीनों तक बने रहने का मोह त्यागना चाहिए और पांच साल के नए दौर को हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। इसी संदर्भ में यह भी देखा जा रहा है कि अमित शाह पार्टी को ज़मीनी स्तर पर जोडऩे में जुटे दिखाई दे रहे हैं। इससे भी यह साफ होता है कि आम चुनाव जल्दी ही होंगे।

आयकर शून्य

राजनीतिक टिप्पणीकार यह मानते है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा के जीतने की वजह विमुद्रीकरण है। इस नीति को पार्टी ने बड़ी खूबी से पूरे राज्य में फैलाया जिसके चलते राज्य में पार्टी को जीत हासिल हुई। पार्टी को अस्सी में से 73 सीटें मिली। इस बार पार्टी को उम्मीद है कि विपक्ष को और ज़्यादा झटका लगेगा। सूत्रों का मानना है कि भाजपा इस प्रस्ताव पर भी विचार कर रही है कि आयकर खत्म कर दिया जाए। उसकी बजाए बैंकिंग ट्रांजैक्शन टैक्स (बीटीटी) लगाया जाए।

भले ही लोगों को यह आश्चर्यजनक लगे लेकिन यह सच है कि ऐसे कई देश इस दुनिया में हैं जहां आयकर नहीं लगता। इन देशों में हैं युनाइटेड अरब अमीरात, कतर, ओमान, कुवैत, के मैन द्वीप समूह, बाहरेन, बरमुडा, बहामा, ब्रुनेई दारस्सलम आदि। यही नहीं, इन देशों की संख्या 114 की है। इनमें से कई देशों में सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था भी है। इन देशों में कई ने तो प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके सरकारी खर्च अदा करने की व्यवस्था की है।

आयकर का शून्य होना भले ही चमत्कृत करे लेकिन इससे भाजपा को चुनाव में गजब की कामयाबी मिल सकती है। यह वैसी ही कामयाबी है जो उत्तरप्रदेश में पार्टी को विमुद्रीकरण के चलते हासिल हुई। इसकी बजाए सरकार खपत कर या खर्चकर लगा सकती है। यह भी आयकर जैसा ही होगा। अंतर सिर्फ यही होगा कि टैक्स तो खर्च पर लगता है आमदनी पर नहीं। इस पर नज़रिया यह है कि इससे खपत बढ़ती है।

हमारे देश में आयकर वह टैक्स है जो खर्च पर लगता है आमदनी पर नहीं। इसका नजरिया है कि इससे खपत को बढ़ावा मिलता है। फिर यह मध्यम वर्ग के वेतन पर लगता है। गरीब लोग तो आय कर देते ही नहीं। वित्तमंत्री अरूण जेटली ने अपने पिछले बजट भाषण में कहा था कि महज 42,800 लोगों ने ही अपनी सालाना आमदनी यानी रुपए एक करोड़ मात्र से ज़्यादा मानी। यह बात इसलिए अचंभे में डालती है कि देश की कुल आबादी तो 120 करोड़ लोगों की है लेकिन आयकर देने वालों की संख्या बहुत कम है। इसी कारण देश की अफसरशाही और पार्टी के नेताओं को यह एक मजबूत मामला बनता नज़र आ रहा है जिससे आयकर से निजात देशवासियों को दिलाई जा सकती है। आखिर कुछ ही लोगों को आयकर देने के लिए क्यों दबाव डाला जाए? भाजपा के नीति-निर्माताओं का भी यही मानना है और पार्टी इस प्रस्ताव पर गंभीरता से सोच रही है।

यूबीआई से आएगा बदलाव

चुनाव घोषित होने के पहले ही यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) वास्तविकता हो सकती है। इसकी वजह यह है कि आधुनिक सभ्य समाज में यह नहीं माना जा सकता कि एक व्यक्ति अपनी निजी ज़रूरतों को इसलिए पूरा नहीं कर पा रहा है क्योंकि उसके पास नौकरी नहीं है। इस योजना के तहत गरीबी और असमानता पर हल्ला बोला जाएगा। एक बेसिक आय जो गरीबी से जूझने के लिए पर्याप्त हो वह समय पर गरीब के खाते में भेजी जाती रहे। इससे एक बारगी 37 करोड़ पचास लाख गरीब भारतीयों को गरीबी की रेखा से ऊपर किया जा सकेगा। यूबीआई से होने वाले लाभ अनेक हैं और यह भ्रष्टाचार से निपटने की सरकारी घोषणा से मेल भी खाते हैं और न्यूनतम सरकार और सबसे ज़्यादा सुशासन के उपयुक्त भी हैं। इस मुद्दे पर काफी बहस- मुबाहिसा होता रहा है और किस तरह सरकार इस योजना पर पैसा लगा सकती है।

गरीब के लिए ढेरों योजनाएं

मध्यम वर्ग, किसानों, गरीबों और समाज के बेहद गरीब लोगों के लिए भाजपा नई योजनाएं ला रही है। गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) 27 वस्तुओं पर जीएसटी करों में कटौती इसलिए भी की गई जिससे सरकार की आलोचना करने वालों को खामोश किया जा सके। ऐसा माना जाता है कि वित्त मंत्रालय ने सभी सरकारी विभागों को मसविदा भेजने को कह रखा है जिससे गरीबों के लिए समाज-कल्याण की योजनाएं अमल में लाई जा सकें। तकरीबन रुपए सोलह हज़ार करोड़ की ‘सौभाग्यÓ योजना पूरे देश के लोगों के लिए है जो इस योजना के तहत सब को मिलेगी। इसके तहत गरीबों को मुफ्त में बिजली के कनेक्शन दिए जाएंगे।

प्रधानमंत्री के तहत ‘सहज बिजली- हर घर योजनाÓ में देश के हर गरीब घर को बिजली का एक कनेक्शन मिलेगा। इस कनेक्शन के लिए गरीब से एक भी पैसा नहीं लिया जाएगा। यह घोषणा प्रधानमंत्री ने 25 सितंबर को की थी। उन्होंने कहा कि सरकार रुपए 16हजार करोड़ मात्र के खर्च से देश के चार करोड़ घरों में बिजली कनेक्शन देकर उजाला करेगी। प्रधानमंत्री ने इस बात पर दुख जताया कि ‘इन घरों में बिजली आज भी नहीं है। इन्होंने बिजली का जलता हुआ बल्ब तक नहीं देखा है। मशहूर वैज्ञानिक टॉमस अल्वा एडीसन ने बल्ब का आविष्कार किया। उन्होंने ने कहा था,’ हम बिजली इतनी सस्ती बनाएंगे कि सिर्फ रईस ही जलाया करेंगे मोमबत्तियां।Ó प्रधानमंत्री ने तकलीफ के साथ कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई घरों में आज भी लालटेन, ढिबरी और मोमबत्तियां ही जलती दिखती हैं। आप सुविधा की बात छोडि़ए। महिलाओं को आज भी अंधेरे में ही भोजन बनाना पड़ता है और वे कोशिश करती हैं कि सूरज डूबने के पहले ही वे रसोई का काम पूरा कर लें। प्रधानमंत्री मोदी दीन दयाल ऊर्जा भवन का उद्घाटन करते हुए यह कह रहे थे। यह नया हरित भवन है जिसे सार्वजनिक तेल कंपनी ओएनजीसी ने देश की राजधानी में बनाया है।

कुछ ही लोगों ने यह सोचा होगा कि सरकार तीस करोड़ गरीब लोगों को बैंक खाते प्रदान करेगी। नब्बे पैसे प्रतिदिन के हिसाब से पंद्रह करोड़ लोगों का बीमा कराएगी। स्टेंट ओर नी-रिप्लेसमंट की कीमतें कम करेगी। प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘गरीबों का सपना, सरकार का अपना सपना है।Ó क्या कभी किसी ने सोचा था कि सरकार रसोईघर में धुंए-धक्कड़ में खाना पका रही महिला को उससे आज़ादी देगी। क्या वे सोच सकते हैं कि सरकार उन लोगों को एअरोप्लेन(हवाई जहाज) में चढऩे की सुविधा देगी जो हवाई चप्पल पहनते हैं। उन्होंने कहा कि यह मेरी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि गरीब रोज-ब-रोज जो समस्याएं झेलते हैं उन्हें कम करने में पूरा सहयोग करे।

प्रधानमंत्री की बातों पर सहमति जताते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि सरकार के प्रयास से उन्हें भी मदद मिल सकी जिन्हें मिलती नहीं थी। पौने आठ करोड़ व्यवसाइयों को 3.17 लाख करोड़ के बंैक कजऱ् दिए गए। इनमें 70 फीसद महिलाओं को लाभ मिला। मुद्रा योजना के तहत रुपए 50 हजार मात्र तक का कजऱ् ‘शिशु Ó योजना के तहत दिया जाता है। इसी तरह रुपए 50 हजार मात्र से रुपए पांच लाख तक की राशि ‘किशोरÓ को और पांच लाख से दस लाख तक की राशि ‘तरूणÓ को दी जाती है। बैंकों ने 22 हजार आवेदन पत्रों पर रुपए चार हजार छह सौ निन्यानवे करोड़ रुपए ‘स्टैंड अप इंडियाÓ में दिए हैं

चुनाव आयोग तैयार है

चुनाव आयोग ने पिछले ही सप्ताह कहा था कि यह राज्य विधानसभाओं और लोकसभा में सितंबर 2018 तक एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। केंद्रीय चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने यह बात तब कही जब वे ईआरओ नेट साफ्टवेयर के जारी होने के समारोह में भोपाल गए हुए थे। इस साफ्टवेयर की खूबी है कि मतदाताओं की सूची में से गलतियों और दुहराव को यह फौरन छांट देता है। चुनाव आयोग ने सरकार को यह सूचित किया है कि रुपए 3,400 करोड़ और रुपए 12 हजार करोड़ मात्र की ज़रूरत होगी आवश्यक ईवीएम और वीवीपीएटी मशीनों को खरीदने में जिनकी ज़रूरत पड़ेगी। उन्होंने बताया कि दो सरकारी उपक्रमों को संबंधित आदेश दे दिए गए हंै और मशीनों का आना भी शुरू हो गया है। यह उम्मीद है कि सितंबर 2018 तक ये मशीनें आ जाएंगी उसके बाद ही चुनाव आयोग विधानसभाओं और लोकसभाओं में चुनाव करा सकेगा।

एक साथ चुनाव की संभावना

भाजपा जब से तीन साल पहले सत्ता में आई है यह राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं की बात करती रही है। पार्टी का तर्क है कि इससे देश के संसाधनों का विनाश रोका जा सकेगा। साथ ही साथ चुनाव कराने पर पहली बार जोर दिया था पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने। अब वे पार्टी के ‘मार्ग दर्शक मंडलÓ में हैं। नीति आयोग में भी अगस्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संभावना पर जोर दिया था । उन्होंने यह भी कहा था कि 2024 तक देश में राज्य और केंद्र के चुनाव एक साथ होने लगेंगे। यह देश के ‘राष्ट्रीय हितÓ में हैं। इससे देश के संसाधनों का नुकसान थमेगा। इस बात का उपराष्ट्रपति वेंकैयानायडू ने भी समर्थन किया है।

यह सही है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का भीषण खर्च देश पर पड़ेगा। लगभग तमाम पार्टियां चुनाव में जो खर्च करती हैं उसमें काफी कुछ सच्चाई नहीं नज़र आती। उधर सत्ता में रही पार्टियां ऐसे जनोपयोगी कल्याणकारी योजनाओं की घोषणाएं करती हैं जिससे भावी चुनाव में उनकी विजय तय ही हो। एक बार जब चुनावी आचार संहिता जारी हो जाती है तो तमाम अर्थव्यवस्था ठहर सी जाती है। इतना ही नहीं, चुनाव करने-कराने में बड़ी तादाद में सुरक्षा दस्तों और चुनाव अधिकारियों की ज़रूरत होगी। 

मोदी सावधानी से चलें, किसानों और छोटे उद्योगों का रखें ध्यान: भागवत

mohan bhagwat

भारतीय जनता पार्टी की मार्गदर्शक, मित्र और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने अपना स्थापना दिवस विजयादशमी पर मनाया। लोकसभा में जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ऐतिहासिक जीत विधान सभाओं में भी हासिल की। इस बात के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की। उन्होंने उनसे यह भी कहा कि वे किसानों और छोटे उद्योगों को भी ध्यान रखें। उन्होंने कहा कि छोटे और मझोले उद्योगों, स्वरोज़गार मुहैया करने वाले कुटीर उद्योग और खेती -किसानी को नुकसान न पहुंचे।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने ‘संवेदनशीलता और चुस्ती दिखाने पर जोर देने की प्रशासन को सलाह दी। उन्होंने कहा कि प्रशासन को खुद ही आखिरी आदमी तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि पिछले तीन साल में अर्थव्यवस्था में खासा सुधार हुआ है। उन्होंने कहा कि ऐसा मॉडल बनाया जाना चाहिए जो भारत के सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक हालात पर केंद्रित हो। रोज़गार का मतलब होता है हर हाथ को काम और बदले में मेहनताना।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने विजयादशमी के पर्व पर कहा कि इन्ही कुटीर उद्योगों मसलन हस्तशिल्प, छोटे और मझोले उद्योगों यानी कढ़ाई बुनाई दरी-कालीन,सूत रंगाई, साड़ी आदि बनाने वालों छोटे उद्योगों से जुड़े लोगों ने सर्वाधिक योगदान किया है। इन क्षेत्रों में करोड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ है, और जो लोग समाज में आखिरी कतार में खड़े हैं वे भी इन्ही क्षेत्रों के हैं।

संघ प्रमुख ने लगभग चेतावनी देते हुए कहा कि यह सही है कि कुछ अस्थिरता और कंपन होंगे लेकिन दिमाग में हमेशा यह बात ध्यान मेेें रहनी चाहिए कि इन क्षेत्रों को कम से कम नुकसान हो और इन लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा मजबूती हासिल हो।

उन्होंने कहा कि कृषि उपज की कीमत उत्पाद में लगने वाली कीमत पर आधारित होनी चाहिए। इससे किसान प्रकृति की नाराजगी और बाज़ार में कीमतों के उतार-चढ़ाव को भी झेल लेगा। उन्होंने कहा कि सभी को इन कीमतों को बिना किसी विरोध के स्वीकार करना चाहिए।

भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि डोकलाम जैसे सीमाई मुद्दों पर जो मजबूत रुख रखा गया उससे भारत की छवि सुधरी है। कश्मीर मुद्दे पर उन्होंने कहा ‘ऐसी नई व्यवस्थाएं की जाएं कि घाटी के लोग भारत के साथ अपनापन महसूस कर सकें। अलगाववादियों के साथ मजबूती से पेश आने और उन्हें मिलने वाली धन राशि के आने पर सख्ती की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर के लोगों का दिलो-दिमाग भी शेेष भारत के लोगों से मेल खाना चाहिए। यदि ज़रूरत हो तो इसके लिए कुछ पुरानी व्यवस्थाएं बदली जाएं और नई अमल में लाएं। यह तभी हो सकेगा जब सरकार, प्रशासन और समाज एक साथ मिल कर काम करें। कश्मीर समस्या बहुत जल्दी हल होगी।

स्ंाघ प्रमुख ने इस बात पर अफसोस जताया कि अब तक कश्मीरी पंडितों को पुनर्वास नहीं हो सका है और जम्मू,कश्मीर और लद्दाख के तीनों क्षेत्रों में बराबरी का विकास भी नहीं हुआ है।

उन्होंने रोहिंग्या शरणार्थियों को शरण देने की मांग का जमकर विरोध किया। उन्हें म्यांमार से उनके हिंसक अपराधिक रवैए के कारण हटाया गया। उनके ताल्लुकात आतंकवादी संगठनों से रहे हैं। यदि उन्हें शरण दी तो यह बात भी दिमाग में रखनी चाहिए कि वे आगे भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं।

गाय की सुरक्षा और देखरेख पर जोर देते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि यह बात देश के संविधान में भी लिखी हुई हैं। उन्होंने कहा जो शब्दों से खिलवाड़ कर रहे हैं मसलन गौरक्षक दल वगैरह-वगैरह जिसके चलते गौ संरक्षण कीे कोशिश राक्षसी रूप लेती नज़र आती है। यह गलत है। कुछ लोग इसे भाषा में विवादी रूप बना देते हैं। यह भी गलत है कि गौरक्षकों या गौ सुरक्षा की सारी गतिविधि को हिंसक घटनाओं या सांप्रदायिक सोच से जोड़ कर देखा जाए। गौ रक्षकों को जो इस काम में पूरी पवित्रता से जुड़े हैं उन्हें सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के बयानों से अपना काम छोडऩे की ज़रूरत नहीं है। उन्हें सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों से भी घबराना नहीं चाहिए। उन्होंने कहा बहुत से गौ सेवक जो शांति से गौ रक्षा के काम में लगे थे उन पर हमले किए गए और उन्हें मार डाला गया। इस मुद्दे की न तो छानबीन हो रही है और न कोई बातचीत।

संघ प्रमुख ने मांग की कि सैनिकों को ज़्यादा से ज़्यादा आधुनिक हथियार दिए जाएं। उन्होंने देशवासियों से अपील की कि ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को भारतीय सेनाओं में भेजें।

शरद यादव करेंगे पार्टी का विस्तार

Sharad

भले ही अभी गुजरात विधान सभा चुनाव को लेकर चुनावों की तारीखों का ऐलान नहीं हुआ है पर शरद यादव गुट जदयू पूरी से तरह से गुजरात में चुनावी ताल ठोंकने को तैयार है।

दीपावली यानी 19 अक्टूबर के बाद शरद यादव अपने समर्थकों के साथ प्रदेश और केन्द्र की मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में सम्मेलन करेगें। यह सम्मेलन गुजरात के अहमदाबाद और द्वारका में आयोजित होगें। इस सम्मेलन में सांझी विरासत में शामिल हुए दल के नेता भाग लेगे और प्रदेश के स्थानीय नेताओं से बात चल रही है जो भाजपानीत सरकार की नीतियों के विरोध में है। शरद गुट समर्थक नेताओं का कहना है कि गुजरात में अब मोदी लहर का कोई जादू चलने वाला नहीं है क्योंकि अभी वहां पर पंचायत और नगर पालिका के चुनाव में भाजपा की हार हुई है।

शरद यादव गुट चाहता है कि जब गुजरात में पहले ही उनकी ही पार्टी चुनाव जीतती रही है और वर्तमान में पार्टी का एक विधायक भी छोटू भाई बसावा है तो क्यों ना पार्टी को विस्तार किया जाये। गुजरात चुनाव के रास्ते आर्थिक मुद्दे पर आगामी लोकसभा चुनाव 2019 लड़ाई का शंखनाद दीपावली के बाद होगा।

जदयू नेता शरद यादव का कहना है कि अगला चुनाव पूरी तरह से आर्थिक मुद्दों पर लड़ा जाएगा क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी से देश की अर्थ व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई है और छोटे – छोटे कल- कारखानों के बंद होने के दो -से पांच करोड़ लोग बेरोजगार हुए है। गांवों की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से लडख़ड़ा गई है। उनका कहना है कि जीएसटी में जो कुछ भी छूट मोदी सरकार ने दी गई है वो जनता का ध्यान भटकाने के लिये है। जीएसटी प्रणाली लागू होने के बाद इंस्पेक्टर राज बढ़ा है जो उन्होंने अपने जीवन में कभी भी ऐसा इंस्पेक्टर राज नहीं देखा है। क्योंकि देश में लगभग 22 करोड़ लोग व्यापार से जुड़े है इनमें से 15 से 17करोड़ छोटे व्यापारी है। जिन्हें छोटी – छोटी गलती के लिये दंडित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि इन्हीं तमाम मुद्दों को लेकर देशव्यापी आंदोलन की तैयारी की जा रही है।

जदयू शरद यादव गुट के महासचिव अरूण कुमार श्रीवास्तव ने बताया कि अभी तक देश में मंहगाई ,भ्रष्टाचार ,धर्म और जाति के आधार पर चुनाव लड़े गये पर अबकी बार आर्थिक आधार पर पूरी तरह से चुनाव लड़ा जाएगा क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी के बाद देश में जिस तरीके से अर्थव्यवस्था चौपट हुई है उससे देश में मंदी का माहौल है चारों ओर बेरोजगारी का माहौल देखने को मिल रहा है। व्यापारी से लेकर किसान और मजदूर तक बेहाल है। मोदी सरकार सिर्फ व सिर्फ आश्वासन दे रही है। अब जिस-जिस राज्य में चुनाव होंगे वो मोदी सरकार के विरोध में गलत आर्थिक नीतियों के विरोध में लड़े जाएंगे। इसके लिए कांग्रेस के साथ साथ उन नेताओं से बात चल रही है जो सांझी विरासत में शामिल हुए थे। उन्होंने बताया कि गुजरात के किसानों ने मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में शरद यादव को अहमदाबाद और द्वारका में पिछड़ी जातियों के संगठन से जुड़े नेताओं ने न्यौता है। ये दोनों सम्मेलन दीपावली के बाद आयोजित किये जाएंगे जिसमें लाखों लोगों के पहुचने की उम्मीद है।

 

अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए मोदी सरकार ने कमर कसी

Arun Jaitley at India Today conclave in ND

 

लगता है केंद्र सरकार को यह अहसास है कि वह जल्द से जल्द सुधार लाकर विकास को एक ऊंचाई दे। हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर काले बादल छाए हुए दिखते हैं। फिर भी हालात बहुत खराब नहीं हैं। बता रहे हैं चरणजीत आहुजा

अभी हाल आर्थिक सलाहकार परिषद तब बनी जब यह पाया गया कि पिछले कुछ महीनों से भारत दुनिया की सबसे तेज बढऩे वाली अर्थव्यवस्था का दर्जा खो रहा है। भाजपा के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य और दो बार वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने

पिछले दिनों अपने एक लेख में लिखा कि अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है और इसके लिए उन्होंने विमुद्रीकरण को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि इसकी रूपरेखा बहुत खराब बनाई गई थी और बेहद खराब तरीके से इस पर अमल किया गया। गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) के अमल में आने के बाद तो व्यापार ही चौपट हो गए।

इसके बाद तो जो हुआ वह और भी रोचक है। सिन्हा के पुत्र जयंत जो भाजपा सरकार में मंत्री हैं वे फौरन सरकार के समर्थन में आगे आए। उन्होंने तर्क दिया कि लंबे काल में लाभ पाने के लिए अल्पकालिक तकलीफ बर्दाशत करना ज़रूरी है। एक बेटे का पिता के खिलाफ मोर्चा खोलना सोशल मीडिया में ज़रूर चर्चा में रहा। वित्तमंत्री अरूण जेटली ने फिर यशंवत सिन्हा पर हमला बोला। उन्हें याद दिलाया कि 1998-2002 में बैंकों में नान परफार्मिंग एसेट्स का अनुपात कुल पेशगी का पंद्रह फीसद हो गया था। जब उन्होंने कार्यालय छोड़ा तो विदेशी मुद्रा कोष घट कर चार बिलियन डालर रह गया था।

भारत में अर्थव्यवस्था में मंदी तब दिख रही है जबकि ज़्यादातर बेहतर अर्थव्यवस्थाएं जो कमज़ोर थीं अब दुरूस्त हो रही हैं। सरकार का निश्चय ही इस बात पर चिंतित होना स्वाभाविक है जब अर्थशास़्ित्रयों ने विमुद्रीकरण और गुड्स और सर्विस टैक्स के अमल होने पर आलोचना शुरू कर दी। डीजल और पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी और नौकरियों के अभाव से सोशल मीडिया में काफी शोर-शराबा शुरू हो गया। विकास की दर ज़रूर बढ़ सकती है जब दो इंजन इसे चलाएं यानी सरकार का खर्च और उपभोक्ता की खरीद दोनों साथ-साथ चलें। एक बेहद ज़रूरी बात है जिसके तहत सार्वजनिक और निजी तौर पर करों में कटौती हो जिससे चीजों की खरीद हो, वेतन का भुगतान हो और छोटे, लघु-मझोले व्यापार चलें। लेकिन मांग और नौकरियां गिरनी ही हैं।

अभी हाल में गठित आर्थिक सलाहकार परिषद में प्रधानमंत्री किसी भी मुद्दे का विवेचन कर सकते हैं। आर्थिक या फिर और कोई। जिसे प्रधानमंत्री ने उन्हें भेजा हो या फिर उस पर राय दी हो। यह मैक्रोनॉमिक महत्व के मुद्दों पर भी प्रधानमंत्री को सलाह दे सकती है। यह एक स्वतंत्र इकाई होगी जो भारत सरकार को संबंधित मुद्दों पर सलाह दे सकती है। पहले भी इस तरह की परिषद थी लेकिन जब यूपीए सरकार ने 2014 में कार्यालय छोड़ा तो यह निष्क्रिय हो गई।

इस परिषद का इस समय गठन यह संभावना ज़रूर जताता है कि यह अर्थव्यवस्था को दुरूस्त करने में एक भूमिका अदा कर सकता है। पिछली कुछ तिमाही से विकास में ठहराव है। इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में विकास 5.7 फीसद था। जो पिछले साल की विकास दर 7.9 फीसद से काफी कम है। ऐसा लगता है कि कमजोर आर्थिक दरों के चलते सरकार बाध्य हुई है। कुछ करने के लिए। घरेलू सकल उत्पाद दर 2017-18 में 5.7 फीसद रही और औद्यौगिक विकास लक्ष्य जुलाई में 1.2 फीसद घटा जबकि एक साल पहले इसी अवस्था में 4.5 फीसद थी। इसके अलावा रिटेल कीमत में महंगाई बढ़ कर पांच महीने ऊंची यानी3.36 फीसद अगस्त में हुई जो जुलाई में 2.36 फीसद थी।

इस बात में अपवाद कम ही हैं कि सरकार एक ऐसी स्थिति में आ गई है जबकि वित्तीय खर्च से अल्पकालिक राहत ही संभव है एक कमजोर अर्थव्यवस्था में। तथ्य यह है कि वित्तीय घाटे में और ज़्यादा कमी होने से वैश्विक निवेशकों पर असर पड़ता है। वित्तीय ढीलापन का रिस्क यह है कि ज़्यादातर राज्य सरकारों ने कजऱ् माफी की घोषणाएं की हैं। इससे ब्याज की दरें बढ़ सकती हैं और ताजा लेनदेन हो सकता है। वर्तमान मंदी को थामने का तरीका बहुत साफ है। देश में ज़्यादा पूंजी निवेश हो भी नहीं रहा है और जो कजऱ् है बाज़ार में दिखता भी है।

एक ज़रूरत यह भी महसूस की जा रही है कि मोदी सरकार चुनौतियों का मुकाबला करे और ऐसे मजबूत ढांचागत सुधार करे। प्रधानमंत्री का आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इसी दिशा में एक कदम है। आज़ादी के बाद भारत का सबसे बड़ा कर सुधार जीएसटी ही है। हालांकि इससे वे नतीजे नहीं निकले जिनकी सरकार को उम्मीद थी। घोषणा के सौ दिन पूरे होने पर भी जीएसटी नेटवर्क को अभी भी देश के लाखों इनवॉएस और रिटर्न से जूझने में मशक्कत हो रही है। क्या जीएसटी नेटवर्क को शुरू करने से पहले उसकी जांच-पड़ताल नहीं की गई थी। जीएसटी पर बने जीएसटी परिषद के मंत्री समूह ने बताया कि 85 लाख कर अदा करने वालों को यह भरोसा मिला है कि जीएसटी संबंधित मसलों को अक्तूबर के अंत तक हल कर दिया जाएगा। पर ज़रूरत है कि दो टैक्स स्लैब रखे जाएं। एक ही टैक्स फाइलिंग हो। ढेर सारे पंजीकरण और ढेर सारे रिटर्न की फाइलिंग न हों। जीएसटी का लक्ष्य एक बाज़ार और एक टैक्स हो।

अर्थव्यवस्था की मंदी में इन बाधाओं का असर रहा और सार्वजनिक तौर पर ऊहापोह भी दिखा। डीजल और पेट्रोल की कीमत तीन साल की तुलना में ऊंचाई छू रही थी और मांग हो रही थी कि तेल पर से टैक्स हटाए जाएं। सारी दुनिया में कीमतें गिर रही थीं। देश में तेल की ऊंची कीमतों को एक मुद्दा माना जा रहा था और ज़्यादातर को लग रहा था कि अर्थव्यवस्था दूसरी मंदी की ओर है। इस बार वजह है तेल की कीमतों में कमी न होना। साल 2011 से 2014 के बीच कच्चे तेल की कीमत सौ अमेरिकी डालर प्रति बैरेल थी। जबकि 2015 में यह कीमत प्रति बैरेल 50 डालर ही थी।

पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने दैनिक आधार पर तेल कंपनियों की कीमतों को तय करने में कोई दखल देने से इंकार कर दिया है। विपक्षी दलों का आरोप है कि डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी से किसानों का नुकसान हुआ है। चूंकि 2014 से कच्चे तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में नीचे आई हैं इसलिए इसके लाभ किसानों को मिलना चाहिए। नतीजा यह है कि मार्केटिंग कंपनियों को बढ़ा लाभ मिला और उसकी हिस्सेदारी सरकार को मिली। राज्यों और केंद्र को कैसे लाभ मिला इसे इस तथ्य से जाना जा सकता है कि इसमें तीन सौ फीसद बढ़ोतरी हुई। केंद्र और राज्य के टैक्स ही काफी थे। डीजल पर 112फीसद टैक्स बढा जबकि 2014 से पेट्रोल पर बढ़ा।

पिछले महीने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने अपने औद्यौगिक आउट लुक सर्वे में लिखा कि आकलनों से लगता है कि दूसरी तिमाही में ऐसे हालात हो सकते हैं जिनसे परिमाण का पूरा इस्तेमाल हो, लाभांश बढ़े और रोज़गार भी। सन 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से निर्यात पर खासा असर पड़ा था। वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ था और ज़्यादातर एशियाई देशों से निर्यात बढ़ा। बहरहाल भारत से अभी निर्यात में बढ़ोतरी की संभावना है।

हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर काले बादल गहरा रहे हैं लेकिन हालात ऐसे नहीं है कि बदले नहीं जा सकें। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने भी आशावाद जगाया और उम्मीद की है कि देश की अर्थव्यवस्था कई और तिमाहियों की अवधि में सुधर जाएगी। योजनाएं मेज से उतर रही हैं और कई मूलभूत परियोजनाएं भी शुरू होने को हैं। विकास एक या दो तिहाई में होना चाहिए। एसबीआई की पूर्व अध्यक्ष अरूंधती भटृटाचार्य ने कहा, ‘सरकार अब चाहती है कि कुछ बड़े कदम उठाए जाएं। सड़कों और खादों के मामलें में कुछ तो काम हुआ है। अर्थव्यवस्था में विकास के लिए काफी कुछ करने के कार्यक्रम पर

राय-मश्विरा हो रहा है। केंद्र सरकार संतुलित फैलाव और वित्तीय सहयोग पर विचार

कर रही है। सेवा के क्षेत्र में हालात में सुधार की गुंजायश दिखने लगी है। तिमाही तौर पर जो ग्रॉस वैल्यू एडीशन हास्पीटैलिटी, ट्रांसपोर्ट, कम्युनिकेशन और ब्रांड कॉस्टिग सेवाओं में चौथी तिमाही में 6.5 फीसद से 11.1 फीसद होने के आसार बने हैं। इसी तरह सिविल एविएशन में यात्रियों की संख्या में 15.6 फीसद बढ़ोतरी दिख रही है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में दूसरी ज़रूरत है सरकारी खर्च जिससे हालात सुधर सकें। मूलभूत संसाधन के क्षेत्र में ग्रामीण बिजलीकरण परियोजनाओं, सिंचाई और बेसिक शोध जैसे मामले हैं। मूलभूत संसाधनों के क्षेत्र में इंतजार की अवधि खासी लंबी होती है। निजी निवेशक पैसा लगाने से बचते हैं। यह क्षेत्र वह है जहां सरकार को आगे बढ़कर पूंजी निवेश करके इसे पूरा करना चाहिए। इससे विदेश से सीधा निवेश होगा और घरेलू लोगों में भी उत्साह होगा कि वे निचले दर्जे पर जा रही अर्थव्यवस्था को पलट दें।

कविता पर कुछ सवाल और समकालीन कविता

harsh bala sharma

हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं में जो काम हुआ है वह दूसरी भाषाओं की तुलना में खासा विस्तृत,विविध और विद्वतापूर्ण है। यह इसलिए भी हुआ क्योंकि हिंदी भाषा का निर्माण लगातार लोक भाषाओं के विकास के साथ हुआ। आज की हिंदी में इनके शब्द और तेवर भी हैं। साथ ही नई मुहावरेदानी तैयार करने की क्षमता भी। उर्दू का हिंदी में मेल इसकी सरलता, सहजता और संप्रेषणीयता और बढ़ाने के लिहाज से होता रहा है। बोलचाल की भाषा हिंदी का साहित्य भी काफी विलक्षण हैै। इसकी समीक्षा समय-समय पर होती रही है। एक अर्से से युवाओं को आधुनिक हिंदी साहित्य का संक्षिप्त परिचय देने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी। चर्चित कहानीकार और हिंदी भाषा साहित्य की अनुभवी प्राध्यापक डा. हर्षबाला शर्मा इस दिशा में  एक शुरूआत हिंदी कविता से कर रही हैं।

 

‘ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है

इच्छा क्यों पूरी हो मन की

एक दूसरे से मिल न सके

यही विडम्बना है जीवन की।Ó

 

जीवन की विडम्बनाएं वास्तव में बहुत अधिक हैं। यह कहने का जोखिम सिर्फ कविता ही उठाती है और जीने का सूत्र भी प्रदान करती है। कविता क्या है? इस विषय पर युगों-युगों से विचार चल रहा है। कविता मानवीय भावों के सहज प्रवाह का सहज उच्छलन है अथवा, समाज बोध की पीड़ा से उत्पन्न सम्वेदना! इस विषय पर मंथन सदैव ही किया जाता रहा। काव्यशास्त्रीय नियमों में ‘कविता-कविता के लिएÓ अथवा ‘कविता समाज के लिएÓ जैसे विषय भी चर्चा का विषय बनते रहे। संस्कृत आचार्यों ने ‘काव्य यश अथ कृते व्यवहारविदे शिवेतर रक्षयेÓ का सूत्र देकर अर्थ से अधिक वरीयता यश को दी गई वहीं अंग्रेजी में ताकतवर अनुभव का निर्झर प्रवाह कह कर भाव पर बल दिया गया। ध्यान से देखें तो साहित्य के सफर में कविता अनेक रूप धारण कर चुकी है – दरबारी कविता, आध्यात्मिक कविता, राष्ट्रीय कविता, सांस्कृतिक कविता,सुधार कविता, निज कविता आदि। किसी ने कवि को वियोगी कहकर कविता का सूत्रपात ‘आहÓ से माना तो किसी ने तुलसी बाबा की पंक्तियों का सहारा लेकर ‘सत्य कहूँ, लिखी कागद कोरेÓ कहकर काव्य को विनम्रता पूर्वक निज से परे ठेल दिया। आचार्य शुक्ल ह्रदय की मुक्तावस्था से कविता का सम्बन्ध जोड़ते हैं – ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार ह्रदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कवता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।Ó

कविता ने अपने युग धर्म को धारण किया और निभाया भी युग से प्रभावित भी हुई। युग को प्रभावित भी किया। भक्तिकाल और रीतिकाल की कविता इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। भक्तिकाल में संस्कृत के विद्वानों के समक्ष रामचरितमानस को ‘वन्दे वाणी विनायका….Ó पंक्ति से आरंभ करके नम्रतापूर्वक शिष्ट भाषा के ज्ञान का परिचय देकर तुलसीदास ‘जनभाखाÓ को काव्य रचना के लिए चुनते हैं। राम का राजा के रूप में एक सम्पूर्ण रूपक, भक्ति के माध्यम से रच देते हैं जहां ‘कोई दरिद्र न दुखी न दीना।Ó की पुकार लगाकर वे यूटोपिया नहीं रचते बल्कि तत्कालीन शासक की आँख में उंगली डालकर अपनी अपेक्षा कविता के प्रारू में जता देते हैं। कबीर जैसा क्रांतिकारी धर्मों को उस आवरण पर सीधे चोट करने का साहस करता हैं- कविता के माध्यम से-जिस पर चोट का साहस समस्त आधुनिक चेतना से लैस कवि भी नहीं कर सके। कविता दुनिया नहीं बदलती पर दुनिया को बदलाव की ज़रूरत और क्षमता समझाती है। प्लेटो के आदर्श राज्य में कवि के लिए कोई स्थान नहीं था जबकि उसी के शिष्य अरस्तू ने माना कि कवि ही उस सत्य को देख सकता है जिसे कोई नहीं देख पाता।

कविता की विकास यात्रा से हुई पड़ताल से पहले दो प्रश्नों पर विचार आवश्यक है। पहला यह कि कविता लम्बे समय तक साहित्य के इतिहास के नज़रिये से एक केन्द्रीय स्वर का प्रतिनिधित्व करती रही। 1940-45 तक यदि – भारतेंदु युग, द्बिवेदी युग, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता। एक ही काल की चर्चा करंे तो कविता कथ्य अथवा शिल्प के स्तर पर कई महत्वपूर्ण प्रवृतियों का निर्वाह करती हैं। इसका एक कारण आधुनिक उस काल और युग की एक समान माँग, आज़ादी को माना जा सकता है पर यह सरलीकरण ही होगा। प्रयोगवादी कविता भी आज़ादी के स्वर से उस तरह नहीं जूझती जिस तरह प्रगतिवादी कविता। इसके अतिरिक्त एक ”अन्डर करंटÓÓ की तरह एक युग निजता तो दूसरा युग सामाजिकता को केन्द्रीय स्वर के रूप में चीन्हता भी दीखता है।

पर 1950 के बाद की कविता बहुत तेजी से बदलती हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आज़ादी के कुछ ही वर्षों के भीतर मोहभंग की कविता दिखने लगती है – क्या आज़ादी का स्वप्न इतना क्षणिक था कि प्राप्ति के कुछ ही वर्षों के भीतर इस जद्दोजहद के भीतर से व्यर्थता बोध उभरा? स्वतंत्रता के साथ ही विभाजन ने कवि को बेचैन किया और कविता उत्सवधर्मिता के भीतर छिपी हजारों लोगों के बेघर होने की स्थिति का उत्सव न मना सकी। जिस कविता में आज़ादी का स्वप्न दिख रहा था, उसी के अगले चरण में व्यर्थता बोध भी स्पष्ट नज़र आने लगा।

हर युग और काल का जिस प्रकार केन्द्रीय स्वर था ठीक उसी तरह हर काल में कुछ व्यक्तियों के माध्यम से कविता की पहचान भी होती रही है जैसे – भक्तिकाल में तुलसी, कबीर या जायसी और आधुनिक काल में कवि भारतेंदु के नाम पर युग का नामकरण ही हैं, पर निराला, प्रसाद, अज्ञेय के बाद किसी युग विशेष का प्रतिनिधित्व कवि अथवा कवि समूह द्वारा दिखाई नहीं देता। यह प्रश्न आमतौर पर उपेक्षित ही रहा है पर यदि युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखा जाए तो 1950 के बाद की प्रवृतियों को निम्न रूपों में बाँटा जा सकता है – मोहभंग की कविता, निषेध की कविता, मिथकों की पुनप्र्रयोग की कविता, नवगीत (इसका स्वर-कथ्य और शिल्प भी भिन्न है) 1980 के बाद बढ़ते बाजारवाद के बाद प्रभाव स्वरूप (उपभोक्ता बन जाने की पीड़ा की कविता, पूंजीवाद के भयावह हमले की कविता, आपातकाल के सन्दर्भ में कविता, बाजारीकरण के कारण संवेदना के ह्रास की कविता, विस्थापितों की कविता, जंगल-जमीन छीने जाने पर विस्थापन और विद्रोह की कविता, नक्सलबाड़ी स्वर) विमर्शवादी कविता (स्त्री कविता, दलित कविता, आदिवासी कविता आदि) बाल मन की कविता।

यहां चिंता की बात है कि इतने भिन्न स्वरों का प्रतिनिधित्व करने वाली कविता को किसी एक व्यक्तित्व के जरिए पहचान पाना भी संभव नहीं हैं। ऊपर जिन विषयों को मात्र आधार के रूप में चुना गया, उनके अतिरिक्त आने वाले स्वरों की और लम्बी सूची बनाई जा सकती है। कई स्वर मद्धम हुए और फिर तीव्र। यही कारण है किसी व्यक्तित्व की अपेक्षा कविता अपनी संवेदना की तीखी धार से ज्य़ादा पहचानी जा सकती है।

यही कारण हैं कि समकालीन कविता के लिए किसी तयशुदा नाम का अभाव भी दिखता है। जगदीश गुप्त ने लगभग 44 आंदोलनों की सूची बनाई जो नई-कविता के साथ ही आरम्भ हुए थे परन्तु उनके विकास के कोई निश्चित चिह्न नहीं मिलते। समकालीन कविता कभी सही आदमी के तलाश की कविता कही जाती है तो कभी विसंगति और विद्रोह की। एक ओर अश्लीलता और विदू्रपता इस काव्य में नज़र आती है तो दूसरी और प्रेम तथा प्रकृति बोध।

डॉ. विशम्भर नाथ उपाध्याय लिखते हैं – ”समकालीन कविता अपने समय के मुख्य अंतर-विरोधी और द्वंद्वों की कविता है, समकालीन कविता में जो हो रहा है (बिकमिंग) का सीधा खुलासा है। इसे पढ़कर वर्तमान कला का बोध हो सकता है क्योंकि उसमें जीते, संघर्ष करते, लड़ते, बौखलाते, तड़पते, गरज़ते तथा ठोकर खाकर सोचते हुए वास्तविक आदमी का परि²श्य है।ÓÓ

समकालीन कविता के महत्वपूर्ण रचनाकारों में है – केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, लीलाधर जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, श्रीकांत वर्मा, चंद्रकांत देवताले से लेकर नीलाक्षी सिंह, अनामिका, मंगलेश डबराल,अरुण कमल, वीरेन्द्र डंगवाल, ओम प्रकाश वाल्मीकि आदि कविता के लिए 1962,1965, 1971, 1984, 1990के दशक महत्वपूर्ण रहे हैं। कविता के बदलाव की पृष्ठभूमि के रूप में इन कालों के इतिहास को खंगाला जा सकता है। इनमें विषयों के मध्य भी दो स्वर केन्द्रीय प्रवृति की तरह दिखाई देते हैं – व्यवस्था के प्रति विरोध का स्वर तथा सामान्य जन के प्रति संवेदना का स्वर जिसे जनवादी स्वर भी कहा जा सकता है। एक अन्य स्वर – आस्था का है कई बार जिसका उपहास बनाया जाता। यह समझ भी ज़रूरी है कि आस्था एक शक्ति है जो काव्य ही नहीं, मनुष्य को भी जीवित रखती हैं। आस्था के इस केन्द्र में कोई भी हो सकता है, पर यहां मनुष्य है – केवल मनुष्य।

समकालीन कविता का आरम्भ कब से माना जाए – अशोक वाजपेयी 1980 को कविता की वापसी का वर्ष घोषित करते हैं। इस वर्ष अनेक कविता संगृह प्रकाशित हुए। ‘पूर्वग्रहÓ पत्रिका में अशोक वाजपेयी ने सन67-68 का वर्ष पत्रिकाओं के प्रकाशन का काल घोषित किया और इसी आधार पर 1980 को कविता की वापसी का वर्ष माना। क्या इसे स्वीकार किया जाए? अथवा मैनेजर पाण्डेय की इस बात से सहमति जताई जाए जहां वह कहते हैं – ‘कविता की वापसी का नारा समानांतर कहानी के नारे से भी अधिक निरर्थक हैÓमें हिन्दी कविता के सन्दर्भ में रचनाशीलता के स्तर पर ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ, जिसके आधार पर1980 के वर्ष को कविता के वापसी का वर्ष कहा जा सकेÓ।

वास्तव मेें यह अत्यंत दुष्कर कार्य है और विद्वानों में इस विषय पर कहीं सहमति दिखाई नहीं देती। अनेक विद्वान रघुवीर सहाय के ”लोग भूल गए हैंÓÓ नामक काव्य संग्रह

(1982) से समकालीन कविता के आरम्भ की प्रस्तावना देते हैं रघुवीर सहाय जिसकी भूमिका में कविता के चारों ओर बिखरे होने की चर्चा करते हैं।

वहीं धूमिल अपनी कविता में घोषणा करते हैं-

चंद खेत हथकड़ी पहने खड़े हैं। और विपक्ष में सिर्फ/कविता है…

जगदीश गुप्त लघु मानव की पीड़ा को काव्य में स्वर देते हैं। चंद्रकांत देवताले आदिवासी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार से तिलमिलाते हैं और कविता को हथियार मानते हैं- बदलाव का। मानवीयता के क्षरित होने से उनमें क्रोध और आक्रोश दीखता है। वे लिखते हैं – ”आग हर चीज मेें बताई गई थी। पानी, पत्थर, अन्न/घोड़ों तक में/…. मनुष्यों में आग होती ही है और होनी ही थी पर आज आग का पता नहीं चल रहा है जीवित आत्माएँ, बुझी हुई राख।ÓÓ

इस त्रासदी से आधुनिक कवि गुज़रता है। मध्यकाल तक अनास्था के वातावरण में भी ईश्वर एक शक्ति की तरह मौजूद था। कवि अपनी समस्त भावनाओं तथा पीड़ा के लिए भी उसी को सर्वस्व समर्पित करता था। यहां तक कि 1960 के दशक तक भी ‘आस्था तुम लेते हो, लेगा अनास्था कौनÓ कहकर आस्था और अनास्था दोनों ही ईश्वर को समर्पित कर दी गई (त्वमेव वस्तु गोविन्दम् , त्वमेव समर्पयते) पर आधुनिक कवि तो यह कार्य भी नहीं कर सकता।

आधुनिक होने की शर्त आँख-कान खुले रखना भर ही नहीं, बल्कि कथनी और करनी दोनों में समन्वय भी है।

आज का कवि जनता का कवि है। नागार्जुन जिस जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति के नारे का समर्थन करते हैं, कविता के माध्यम से उसे ‘खिचड़ी विप्लवÓ की संज्ञा भी देते हैं। असल में भक्ति, दरबार और राजतन्त्र के समानांतर और विरोध में लिखी कविता के बाद कविता स्वप्न भंग और मोहभंग की त्रासदी से गुज़रती है। ‘दुखरन मास्टरÓ ने जिन आदम के सांचों को गढ़ा, वे साँचें ही रह गए। न तो दुखरन मास्टर को रोटी मिली, न ही उन आदमकद सांचों को। कवि ही नहीं हम सब भी सोचने के लिए विवश हो गए कि ‘गोरे साहब गए और ब्राउन साहब आ गएÓ क्या साहबों की इस अदला-बदली भर के लिए ये सारी लड़ाई लड़ी गई थी? जब रामराज्य का स्वप्न टूटा तो कविता भला कैसे वही बनी रहती? धूमिल की ‘पटकथाÓ और मुक्तिबोध की ‘अंधरे मेंÓ इस युग की बड़ी कविताएं हैं जो आज़ादी के रंगों की आँतों के काले धब्बे मेें बदलने का पूरा चित्र और चरित्र दिखाती हैं साथ ही उस आदर्शवादी मन के मरने और विक्षप्त होते जाने की भयावक यातना को दर्शाती है, जो उसकी तय नियति है। बिना विराम के इतनी लम्बी कविता की ही टेक है – ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन… अब तक क्या किया/जीवन क्या जिया।Ó राजेश जोशी लिखते हैं – ‘अंधेरे में केवल स्वाधीनता के बाद के समय या नेहरू युग की ही आलोचना नहीं है, वह जैसी अनतांत्रिक संरचना हमने रची है या प्राप्त की है उसके मूल अंतविरोधों और खतरों का एक आख्यान भी है।Ó

इस आख्यान मेें बदलने के लिए कविता अभिशप्त हैं। कवि कैसे स्वप्न गीत गाए जब स्वप्न बचे ही नहीं। निजता से उठकर कविता अब जन की कविता बनती है। सुन्दर कविता की नहीं। सही कविता की तलाश कवि कर रहा हैं। रघुवीर सहाय की चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी। इसलिए नहीं कि वे आधुनिक कवि हैं बल्कि इसलिए क्योंकि उनके संग्रह से ही समकालीन कविता के बदलते मुहावरे को जोड़ा जाता है। जनतांत्रिक मूल्यों के हनन के खिलाफ वे आवाज उठाते हैं। लोकतंत्र के दमन को स्वीकार नहीं करते और आपातकाल की यातना को व्यक्त करते हैं। आपातकाल की ठंडी क्रूरता उनकी कविता में स्पष्ट दिखती है। एक पत्रकार के रूप में वे ‘आपकी हँसीÓ लिखते हैं जो सत्ता की हँसी है और उस हँसी के मायने अनेक हैं। मुक्तिबोध की भूलगलती के सामने ही उनकी कविता राजा के जिरह बख्तर को पहचान लेती हैं जो प्रजा के पक्ष में कभी खड़ा नहीं होगा-

मैं आया हूँ पूरा राज्य घूमकर/प्रजा के दु:ख का वर्णन करूँगा नहीं/राजा ने प्रजा को बरसों से देखा नहीं।

इस सही कविता की तलाश के क्रम में कविता कई बार भ्रम का शिकार होती है। अकविता के क्रम में नकार और विरोध इनता प्रबल हो उठा कि कविता अपने स्वरूप को खो बैठी। नकारात्मकता अराजकता की वाहक भी बनी। सौमित्र मोहन ने अपनी कविता ‘यहां पेशाब करना मना हैÓ में पेशाब करने को सिगरेट कुचलने से बेहतर मानकर आक्रोश का अच्छा तरीका माना। पर नग्नता को आक्रोश का वाहक कविता में लम्बे समय तक नहीं माना जा सकता। ऐसे में अकविता की यात्रा से कविता आगे बढ़ी और 21वीं सदी तक लम्बी यात्रा सम्पन्न हुई।

‘वागर्थÓ पत्रिका ने ‘लॉन्ग नाइंटीजÓ नाम से एक बहस शुरू की जो कविता की ऐतिहासिक यात्रा को सूचित करती है। यहां Ó90 के दशक के रचनाकारों के अवदान की चर्चा की गई। सबाल्टर्न की पक्षधरता और स्वर के उभरते और विकसित होने के सन्दर्भ में Ó90 के दशक के अवदान को महत्व दिया गया।

इस लिहाज से तीन बड़े रूपों में समकालीन कविता समझी जा सकती है-

1. विरोध और जन समर्थन की कविता

2. समानांतर काव्य संसार का सृजन

3. दलित एवं स्त्री कविता

उदाहरण के रूप में आलोक धन्वा की कविता व्यवस्था के विरोध में स्वर बुलंद करती है। उनके लिए कविता-कविता नहीं ‘गोली दागने की तमीज है।Ó आलोक धन्वा सामाजिक और मानवीय प्रतिबद्धता का जि़क्र करते हुए वाल्ट ह्विटमैन, टॉलस्टॉय, गोर्की, कामू से लेकर त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदारनाथ अग्रवाल का उल्लेख करते हैं। वे कविता को ‘एक बिलकुल नई बन्दूक की तरहÓ याद करते हैं जो शब्दों के फेफड़ों में नए मुहावरों का ऑक्सीजन भरती है-

 

अब मेरी कविता एकली रही जन की तरह बुलाती है,

भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में उस गर्भवती औरत के साथ-

जिसकी नाभि में सिर्फ इसलिए गोली मार दी गई-

कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए।

 

अरु ण कमल व्यक्ति और समाज दोनों को अभिन्न मानते हैं। नए इलाके में वे लिखते हैं– ‘कविता निर्बलों का बल है। कविता उसका पक्ष है जिसका कोई नहीं, जो सबसे कमज़ोर और सबसे आशय है, जिस पर बाकी सबका बोझ है।Ó जीवन के छोटे छोटे उदाहरण लेकर साधारण आदमी के जीवन में होने वाले कष्टों और निर्बल के बलहीन होने की त्रासद कथा को वे कविता के माध्यम से दिखाते हैं। जीवन की विवशता को वे सपाटबयानी से दिखाते हैं-

‘कहते हैं एक चोर सेंधमार घर में घुसा/इधर उधर टो-टा किया और जब कुछ न मिला/तब चुहानी में रक्खा बासी भात और साग खा/थाल वहीं छोड़ भाग गया/वो तो पकड़ा ही जाता यदि दबा न ली होती डकार।Ó

दूसरी ओर पर्यावरणीय सरोकार, प्रेम की इच्छा और बच्चों के प्रति चिंता भी इस कविता के केंद्र में है। पिता के प्रेम और माँ को पत्र न लिख पाने की पीड़ा भी मौजूद है। मंगलेश डबराल की कविता में ‘पहाड़Ó का दर्द मौजूद है, ठेठ स्थानीयता भी। राजेश जोशी वृक्षों का प्रार्थना गीत सुनते हैं, चाँद की आदतों की बात करते हैं,नन्ही मुनिया की गुनगुनाहट पर कविता लिखते हैं। कामगार बच्चों पर लिखी उनकी कविता का दर्द हर जगह बयां हुआ है-

कितना भयानक होता, अगर ऐसा होता/भयानक है लेकिन इससे भी ज्यादा यह/कि सारी चीज़ें है हस्बेमामूल/पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए/बच्चे, बहुत छोटे बच्चे, कम पर जा रहे हैं।

असल में दुनिया चाह कर भी सरोकारों से अलग नहीं हो सकती। कभी कभी कविता ‘पानी की प्रार्थनाÓ भी सुनती है और बाबूजी का दर्द भी पर उसके मूल में भी मानवीय संवेदना ही है। केदारनाथ सिंह की कविता में पानी स्वयं को पृथ्वी का सबसे प्राचीन नागरिक बताते हुए बाज़ार में बिकने की पीड़ा को व्यक्त करता हैं और उस पर भी तकलीफ यह कि दुनिया से पानी लुप्त होने और सिर्फ बाज़ार में मिलने में ईश्वर की सहमति है—

‘पर अपराध क्षमा हो प्रभु/और यदि मैं झूठ बोलूँ /तो जलकर राख हो जाऊँ/कहते है इसमें—/आपकी भी सहमति हैं।Ó

स्त्री कविता ने घर की देहरी के भीतर छिपे दर्द को कविता के भीतर उकेरा। निर्मला पुतुल ‘अखबार बेचती लड़कीÓ या ‘गजरे बेचती लड़कीÓ के माध्यम से लड़की के बिकने की तकलीफ बयाँ करती हैं-

 

वह इस बात से अंजान है कि वह अखबार नहीं

अपने आप को बेच रही है

क्योंकि अखबार में उस जैसी

कई लड़कियों की तस्वीर छपी है

जिससे उसका चेहरा मिलता है!

 

अनामिका ‘चौकाÓ के बहाने औरत के गुँथ जाने और आटे के भीतर खुद को सानते जाने की भावना को स्वर देती हैं। रजनी तिलक स्त्री और दलित स्त्री के बीच के फर्क को भी कविता का विषय बनाती है- जहाँ वह मानती है और बताती है कि एक जाति की स्त्री पायलट बनती है तो दूसरी शिक्षा से भी वंचित है…

बंटी वह भी जातियों में/औरत औरत मेें अंतर है…

असल में समकालीन कविता के विषयों में बहुत अधिक वैविध्य है। रघुवीर सहाय की कविता का ठंडा क्रोध समकालीन है तो मुक्तिबोध की परम अभिव्यक्ति की खोज भी। राजकमल चौधरी का ‘मुक्ति प्रसंगÓसमकालीन है और राजेश जोशी की आठवें दशक की कविता भी। नौवें दशक की बाजार से संघर्ष की कविता भी समकालीन है और दलित कविता और स्त्री कविता भी। कुंवर नारायण की ‘प्रेम का रोगÓ कविता भी समकालिक है जहां कवि किसी धर्म से नफरत नहीं कर पाता क्योंकि कहीं से गालिब याद आते हैं तो कहीं शेक्सपियर…. कविता अपने युग धर्म का निर्वाह लगातार कर रही है और दायरों का विस्तार भी। अब महाकाव्य भले ही नहीं लिखे जा रहे, कविताओं की प्रकृति बदली है। कविताएँ लघु भी हुई और सपाटबयानी से युक्त भी, पर यह समझना होगा कि कविता जन के और अधिक निकट आ गई है। अब यह मुक्तिपथ नहीं दिखाती, स्वयं अपना मुक्ति दाता बनना सिखाती है। कविता ‘हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागीÓ से आगे बढ़कर ‘मोचीरामÓ से गुज़र कर ‘नए इलाके मेंÓ प्रवेश कर चुकी है जहां देहरी लांघें की कविताएं भी हैं,बदलाव और प्रतिबद्धता भी है, नए और अछूते विषय भी हैं और बाजारवाद के विरोध में कविता की उर्वरता भी है। कविता की इस लम्बी यात्रा को एक लेख में समेटना मुश्किल है पर अनेक संकेत यहां उसकी एक झलक प्रस्तुत करते हैं।

दर दर भटकते रोहिंग्या शरणार्थी

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मानवीयता के आधार पर दुनिया म्यांमार के रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ है। भारत में भाजपा सांसद वरूण गांधी ने भी उन्हें सहयोग देने की बात की है। हालांकि भारत सरकार अब भी उन्हें शरण देने से हिचक रही है। बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या चार लाख से भी कहीं ज्यादा है। रोहिंग्या लोगों की हिफाजत का दावा करने वाले उनके छापामार संगठनों की हिंसा का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं लेकिन भूख, बीमारी और बेघर बूढ़े-बच्चे-लड़कियां बेहद लाचार और परेशान हैं।

तकरीबन 10 लाख रोहिंग्या म्यांमार में रहते थे,लेकिन वहां की सरकार ने उनके साथ भेदभाव की नीति अपनाई। उनके ऊपर ढेरों पाबंदियां लगाई। जिसके विरोध में रोहिंग्या लोगों ने अपना एक भूमिगत संगठन भी बनाया। लेकिन हथियारबंद सेनाओं के सामने वह टिका नहीं। इस दमन में सबसे ज़्यादा तकलीफें बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को हुई। गरीब रोहिंग्या इस दमन का शिकार होने लगे। वे सीमा पार कर बांग्लादेश और भारत में आने लगे।

आज हालात येे हंै कि तुर्की, ईरान, सऊदी अरब, खुल कर रोहिंग्या शरणार्थियों के पक्ष में आ गए हैं। वे बांग्लादेश सरकार की रसद, धन और अन्य वस्तुओं से सहयोग कर रहे हैं। भारत सरकार ने भी बांग्लादेश सरकार के अनुरोध पर एक विमान से रसद भिजवाई है। भारत सरकार ने फैसला लिया है कि अब रोहिंग्या शरणार्थियों को देश में नही आने देगें क्योंकि इससे देश की सुरक्षा को खतरा है। हालांकि देश में रह रहे मुसलिम नेता, संगठन बड़ी-बड़ी रैलियां निकाल कर सरकार से अनुरोध कर रहे हैं कि इन्हें शरण दी जाए। भारत सरकार को अंदेशा है कि शरणार्थियों में पाक घुसपैठिए और आईएसआई के एजेंट भी हो सकते हैं, इसलिए ऐसा जोखिम नहीं उठाया जा सकता । उधर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने भारत के इस रवैए की निंदा की है।

रोहिंग्या दुनिया भर में सबसे बड़ा जातीय समुदाय है जो मुसलमान बिरादरी की ही एक धारा है। हालांकि इनमें रोहिंग्या हिंदू परिवार भी हैं। उनकी तादाद कुछ कम है। म्यांमार में उन्हें बाग्लादेश से आए शरणार्थी कहा जाता है। तकरीबन दस लाख की आबादी वाले रोहिंग्या आज म्यांमार से बाहर किए जा रहे हैं। भारत उन्हें लेने को तैयार नहीं है। बांग्लादेश में ये चार लाख से ऊपर हो चुके हैं।

रोहिंग्या लोगों का दावा है कि 15 वीं शताब्दी में वे बर्मा (म्यांमार) के राखिन क्षेत्र मेें बसाए गए थे, लेकिन वहां का शासक वर्ग ( जो बौद्ध है) उन्हीं लोगों को नागरिक का दर्जा देता है जो अपनी नागरिकता का सबूत 1823 के पहले दे सकें। यह ऐसा नियम है जिसे शायद ही कोई प्रमाणित कर पाए। सन 1823 को म्यांमार का शासक वर्ग ‘कट ऑफÓ वर्ष मानता है जिसके पीछे तर्क है कि तभी से लोग ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के विस्तारवादी योजना में आए होंगे, क्योंकि इसके बाद तब के राजा से 1826 में युद्ध हुआ जिसमें उसकी हार हुई।

बौद्ध हमेशा रोहिंग्या लोगों को बाहर से आया हुआ ही मानते हंै। हालांकि वहां के समाज सुधारक राजनीतिकों ने कई बार यह कोशिश की इन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ा जाए। एक बार तो उन्हें प्रतिनिधित्व भी देने की कोशिश हुई थी जिससे देश में उनकी मौजूदगी को मान्यता मिले। लेकिन तभी 2012 में एक बौद्ध महिला के साथ दुष्कर्म की वारदात हो गई। इस मामले में बताया गया कि दुष्कर्म में कथित तौर पर रोंिहंग्या समुदाय के लोगों कर हाथ है। इस मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि तब हुई व्यापक हिंसा के चलते पांच लाख रोहिंग्या शरणर्थियों ने बांग्लादेश में शरण ली। कई भारतीय सीमाओं पर रहे। कई साल बाद ज़्यादातर रोहिंग्या वापस लौट गए। लेकिन कुछ टिके रहे।

इसके बाद फिर हिंसा का व्यापक दौर 2015 में शुरू हुआ जब उन्हें लोकतांत्रिक जनमत में हिस्सेदारी नहीं मिली । यह देश का पहला चुनाव था। इससे विस्थापन फिर शुरू हुआ और उनकी अंतरराष्ट्रीय समुदाय में ‘बोट पीपुलÓ के तौर पर पहचान बनी।

इस हिंसा में म्यांमार की सेना ने भी बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने इन लोगों पर अनेक तरह की बंदिशें लगाई और सताना शुरू किया। इनकी आबादी पर बम धमाके और शारीरिक – मानसिक तनाव रोजमर्रा का दस्तूर बन गया। यह सब उन्हें म्यांमार से भगाने के लिए ही किया गया। फर्जी खबरों और अफवाहों का जबरदस्त सहारा लिया गया। इस समुदाय के लोगों पर शादी,परिवार नियोजन, रोजगार, शिक्षा, धार्मिक सहिष्णुता और आने-जाने की आजादी छीन ली गई। ज़्यादातर रोहिंग्या बेहद दारिद्रय और बेहद बुरी हालत में रहते हैं।

इस दशा को देख कर रोहिंग्या समुदाय के ही कुछ युवाओं ने हथियार हाथ में लिए जिससे समुदास की रक्षा हो और हालात कुछ बेहतर हों। लेकिन युवाओं के इस सपने को आतंकवाद की श्रेणी में म्यांमार शासन ने माना और हथियारबंद बौद्ध संगठनों और सेना ने रोहिंग्या समुदाय पर हमला आगजनी घर पकड़ और यातनाओं के जरिए उनकी कमर तोड़ दी।

म्यांमार की नेता को शांति का नोबल पुरस्कार मिला है। विश्व समुदाय ने इस व्यापक बर्बर हत्या कांड पर मांग की कि उनसे शांति का नोबल पुरस्कार वापस ले लिया जाए क्योंकि सत्ता में आज उनकी भागीदारी है पर वे न तो बौद्धों को रोक पा रही हंै और न सेना को। बड़ी तादाद में रोंिहंग्या शरणार्थी दूसरे देशों की सीमाओं पर शरण लेने के लिए बाध्य हैं।

अभी पिछले ही दिनों अराका न रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (एआरएसए) ने पुलिस स्टेशन पर हमले किए और सेना के एक शिविर को अगस्त के आखिरी दिनों में उड़ा दिया । इसके बाद जो दमन चक्र म्यांमार की सैनिक टुकडिय़ों ने रोहिंग्या लोगों पर चलाया उसमें न जाने कितने मारे गए और तकरीबन तीन लाख लोगों ने देश छोड़ दिया। इस घटना पर तुर्की और ईरान ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और चेतावनी दी कि यदि यह मार-काट नहीं थमी तो सैनिक कार्रवाई भी हो सकती है।

भारत में तकरीबन 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी आ गए हंै। भारत सरकार ने साफ तौर पर कहा है कि इन शरणार्थियों को वापस जाना होगा क्योंकि इस से भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से खतरा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के बाद यांगून (रंगून) गए भी लेकिन इस मसले पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय और बांग्लादेश को भी इस मामले में भारत से सहयोग की उम्मीद थी, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर म्यांमार सरकार से कोई बातचीत नहीं की। भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से जारी संयुक्त विज्ञप्ति में भी इस मुद्दे पर खामोशी है।

स्ंायुक्त राष्ट्र संघ में मानवाधिकार के हाई कमिश्नर जेड रॉड अल हुसैन ने म्यांमार में हो रही हिंसा को ‘सामुदायिक सफाई मुहिम बताया और भारतीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिूज के बयान की निंदा की । उन्होंने जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के 36वें सत्र में बोलते हुए कहा कि भारत शरणार्थियों को ‘जबरन वापसÓ नहीं भेज सकता। जहां उन पर फिर यातनाओं का दौर शुरू होगा। म्यांमार सरकार को यह झूठ बोलने से बाज आना चाहिए कि रोहिंग्या ही अपने घरों में आग लगा रहे हैं और अपने गांव तबाह कर रहे हैं।

भारतीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने अपने बयान में कहा था भारत ने शरणार्थी सम्मेलन (रिफ्यूजी कन्वैशन) के कागजों पर दस्तखत नहीं किए हैं, इसलिए वह इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में ही नहीं आता। रिजिजू यह भूल गए कि भारत ने हमेशा शरणार्थियों को देश में शरण दी है चाहे वे तिब्बत के बौद्ध हो, खुद दलाई लामा हों, या फिर बांग्लादेश (पूर्व पाकिस्तान) से आए हजारों शरणार्थी रहे हों।

सबसे ज़्यादा दुखद है कि आंग सान सू की जिन्होंने खुद एक लंबा समय म्यांमार के सैनिक शासकों के खिलाफ आंदोलन चलाया और 15 साल तक का लंबा समंय नजऱबंदी में बिताया,को भी इन रोहिंग्या शरणार्थियों से कोई हमदर्दी नहीं है। उसी आंदोलन के चलते उन्हें शांति नोबल पुरस्कार भी मिला और सारी दुनिया में उनकी अपनी एक पहचान बनी। आज म्यांमार के शासन पर उनका प्रभाव है और उनके ही देश के नागरिक रोंिहंग्या शरणार्थी के तौर पर बांग्लादेश की सीमा पर ‘नो मेंस लैंडÓ में तकलीफ भरी जिंदगी जी रहे हैं और भारत की सीमा पर शरण की तख्ती लिए खड़े हैं।

पूरी दुनिया में रोहिंग्या शरणार्थियों की विपदा पर व्यापक चिंता है। कुछ संस्थाएं और देश तो इसे एक जाति विशेष के खिलाफ दमन भी कहते हैं। जर्मनी जहां सीरिया, मिस्र वगैरह देशों से आए शरणार्थियों को शरण मिली उसने म्यांमार को दी जा रही अपनी कई सहायक परियोजनाएं बंद कर दी हैं। तुर्की, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात , मलेशिया आदि ने इन रोहिंग्या शरणार्थियों के खिलाफ बौद्ध सेना और बौद्धों के सशस्त्र संगठनों द्वारा की जा रही हिंसक कार्रवाई की कड़े शब्दों में निंदा की हैं। भारत के विभिन्न नगरों में मुसलिम समुदाय ने भी रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ अपनी एकजुटता दिखाते हुए प्रदर्शन किए हैं। उधर इस पूरे मसले पर भारत सरकार के अस्पष्ट रुख से बांग्लादेश में भी खासी असहजता है। क्योंकि एक तरफ भारत ने बांग्ला देश के अनुरोध पर राहत सामग्री से लैंस विमान तो ढाका भेजा लेकिन यह भी कहा कि भारत शरणार्थियों को वापस भेजेगा।

पूरी दुनिया में म्यांमार शासन की हो रही निंदा के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय नेे जो बंयान जारी किया है उसमें कहा गया है कि म्यांमार राखिने (म्यामार का प्रांत) में हो रही घटनाओं पर भारत गंभीर रूप से चिंतित हैं । इन हालात को गंभीरता से सामान्य बनाने की कोशिश की जानी चाहिए जिससे नागारिकों की स्थिति सहज हो सके और सुरक्षा सेनाएं उनकी रक्षा कर सकें।

इसी बयान में कहा गया कि प्रधानमंत्री ने अभी हाल में यांगून की यात्रा की। उन्होंने सुरक्षा सेनाओं और निर्दोष लोगों के हताहत होने पर चिंता भी जताई । हमें उम्मीद है कि हिंसा जल्दी ही थमेगी और राज्य में शांति तेजी से वापस आएगी।

इस बयान से यह पता लगता है कि प्रधानमंत्री ने शांति, संप्रदायिक सौहार्द्रता ,न्याय, सम्मान और लोकतंात्रिक मूल्यों के तहत वहां की समस्याओं का समाधान चाहा है। इस बात पर दोनों देशों में सहमति बनी कि भारत राखिन राज्य विकास कार्यक्रम में म्यांमार सरकार के साथ सहयोग करना चाहेगा।

दरअसल बांग्लादेश में दिनों-दिन शरणार्थियों की तादाद बहुत बड़ी हो रही है। जिसे संभाल पाने में वहां की शासन-व्यवस्था के सामने तमाम तरह की परेशानियां हैं राहत सामग्री के वितरण में भी घनघोर अनियमितता है। पेयजल और इलाज की भी सुविधा लगभग नहीं है । बांग्लादेश किसी तरह शरणार्थियों को पनाह ज़रूर दे रहा है लेकिन आखिर में वहां अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को ही चीजों को संभालना होगा।

बुन्देलखण्ड में सूखे की मार, किसान बेहाल

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देश को आज़ादी मिले आज सात दशक से ज़्यादा का समय बीत गया पर बुन्देलखण्ड का हाल-बेहाल है। केन्द्र और राज्य में, सरकारें आती-जाती रही पर बुन्देलखण्ड की जन समस्याओं और किसानों की मुसीबतें बरकरार रहीं। केन्द्र की सरकारों ने भारी -भरकम पैकेज करोड़ो रुपयों में दिये जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गये। जिससे न तो यहां किसानों का भला हो सका और न ही लोगों को कोई सुविधायें मिल सकीं।

बुन्देलखण्ड के सात -जिले उत्तरप्रदेश से और छह जिले मध्यप्रदेश के हिस्से में आते है। यहां पर पर्याप्त आर्थिक संसाधन और खनन हैं फिर भी ये अत्यंत पिछड़ा है इसकी मुख्य वजह राजनीतिक उदासीनता। मौजूदा हालात में यहां के किसान आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हंै। यहां के लोग कई सालों से अलग बुन्देलखण्ड राज्य बनाए जाने की मांग भी कर रहे है। बुन्देलखण्ड के हिस्से वाले मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के लोगों व किसानों ने कई बार दिल्ली के जन्तर -मन्तर पर बुन्देलखण्ड राज्य की मांग को लेकर धरना- प्रदर्शन भी किए हैं।

दरअसल चुनाव के दौरान भाजपा और कांग्रेस अलग राज्य बनवाये जाने के लिए आश्वासन देती हैं और वोट बटोरती हंै पर सरकार बनने के बाद सब भूल जाती है। ऐसे में बुन्देलखण्डवासी अपने आप को ठगा सा महसूस करते हैं। अब केन्द्र सरकार ने बुन्देलखण्ड़ के विकास के लिये बुन्देलखण्ड के उत्तरप्रदेश वाले हिस्से झांसी -ललितपुर संसदीय क्षेत्र से उमा भारती को केन्द्रीय मंत्री बनाया है तो मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले से बीरेन्द्र सिंह को हाल ही में हुए मंत्रि मंडल विस्तार में मंत्री बनाया है।

अब बात करते हैं कि बुन्देलखण्ड के हिस्से वाले उत्तरप्रदेश के किसानों और लोग इस साल पडऩे वाले सूखे के कारण काफी परेशान हंै। आलम यह है कि किसानों की खरीफ की फसल तो खराब हो गई है।जिसके कारण उनके बुवाई की लागत तक नहीं निकल पा रही है। ऐसे में किसान बैकों और साहूकारों से कर्ज लेने को मजबूर है। झांसी जिले के धवाकर गांव के किसान सीपी सिंह ने बताया कि बारिश न होने और सरकार से सही समय पर मदद ना मिलने के कारण किसान बदहाल और भुखमरी की जिन्दगी जीने को मजबूर है। महोबा जिले के पडौरा गांव और ऐंचाना के किसान सीवेन्द्र और दिलीप कुमार ने बताया कि रबी की फसल इस बार सही हुई थी जिससे किसानों को काफी राहत मिली थी और उन्होंने अपना पुराना कर्जा भी उतारा था। लेकिन इस बार पूरा सावन का महीना सूखा चला गया जिससे किसानों की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो गयी जिसके कारण किसानों फिर से कर्ज लेना ही पड़ेगा। भरूआ सुमेर हमीरपुर जिले के किसान अनुपम ने बताया कि इस बार जुलाई शुरूआत में बारिश ठीक – ठाक हुई तो किसानों को लगा कि बुबाई की जाए जैसे ही बुवाई की तो वर्षा बिल्कुल नहीं हुई जिसके कारण किसानों की फसल नष्ट हो गई।

ललितपुुर जिले के महरौनी और सोजना के किसानों लखन रामू सिंह का कहना है कि सरकार किसानों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करती है। यहां का किसान कई सालों से सूखे की चपेट में है पर सरकार न तो उनके कर्जो को माफ करती है और न ही पानी की पर्याप्त मात्रा होने के बावजूद कोई ऐसे सुविधा देती है। ऐसे में छोटा किसान दिन व दिन गरीब होता जा रहा है। रहा सवाल बड़े किसान का तो उसके पास संसाधन और पैसा होता है वो अपनी खेती मजदूरों से करवा लेता है ऐसे में फिसता है तो बस गरीब व छोटा किसान।

बांदा जिले के नरैनी,करतल,गिरवां और अतर्रा के किसान अनूप, जोगेन्द्र, राजेश, राज पटेल का कहना है कि राज्य की योगी सरकार बुन्देलखण्ड के किसानो को हरित प्रदेश के किसानों की तरह देखती है जबकि सच्चाई ये है कि यहां की कुछ ज़मीन तो बंजर है पानी की सुविधायें नहीं है यहां का किसान एक ही फसल बड़ी मुश्किल से पैदा कर पाता है। इसलिए सरकार को बुन्देलखण्ड के किसानों के लिए अलग से कर्ज देना और माफ करना चाहिए तब जाकर यहां का किसान सुधर पाएगा। हरित प्रदेश की ज़मीन अच्छी है और तीन फसल भी पैदा करता है ऐसे में बुन्देलखण्ड और हरित प्रदेश के किसानों की तुलना ठीक नहीं है।

बुन्देलखण्ड के मूल निवासी 1994 बैच के मध्यप्रदेश कैडर के आईपीएस अधिकारी राजाबाबू सिंह जो समय-समय पर किसानों और बुन्देलखण्ड के लोगों के लिये कार्य करते रहते है का कहना है कि किसानों को भारतीय खेती को आधुनिक तरीके से बढ़ावा देना चाहिए और संतरा,मौसम्मी और नीबू की पैदावार ज़्यादा करनी चाहिए जिससे उनको लाभ होगा।

बांदा सदर से विधायक श्री प्रकाश द्विवेदी ने बताया कि उत्तरप्रदेश सरकार किसानों के कर्ज माफी से लेकर जो भी उनकी समस्याएं हैं उनके समाधान के लिए प्रयास कर रही है। किसानों को खेेती का पानी उनके खेत तक कैसे पहुंच सकें उसके लिये सिंचाई के पानी की व्यवस्था की जा रही है। किसानों का अनाज बिना बिचौलिये कि निर्धारित मूल्य के तहत खरीदा जा रहा है जो अब तक की पिछली सरकारों ने नहीं किया है। किसानों के कर्ज माफ किये गये और किये जा रहे है।

यहीं हाल मध्यप्रदेश के किसानों का है जहां पर सरकार ने तो जो हाल जून-जुलाई महीने में किसानों का किया था उससे तो किसानों का गुस्सा पूरा देश ने देखा था। छत्तरपुर जिले के बड़ा मलहेरा, महाराजपुर, नौगांव और बमीठा के किसानों अनुज, रोहित और रतन विरज और बेनी चौरसिया ने बताया कि छत्तरपुर जिले का इतिहास रहा है कि पानी की किल्लत लोगों को पीने के लिए करीब चालीस साल से है, उस पर इस बार सावन सूखे होने के कारण खेती में बुवाई सही नहीं हो पायी है ऐसे में सरकार को चाहिए कि खासकर बुन्देखखण्ड के किसानों के लिए सरकार कोई किसान बोर्ड का गठन करें। इन हालात में बुन्देलखण्ड के किसान पलायन करने लगे है। क्योंकि सूखा जैसी स्थिति होने के कारण अब किसानों की नई पीढ़ी खेती करने से बचने लगी है।

सागर जिले के बंडा ,रहेली और शाहपुर के किसान राजेन्द्र सोंलंकी और भारत सिंह का कहना है कि सरकार ही नहीं चाहती कि बुन्देलखण्ड का किसान तरक्की करे तभी तो यहां के तलाबों का जीर्णोधार और मरम्मत नहीं कराई गई है क्योंकि सरकार चुनाव के दौरान ही किसानों के कर्ज माफी और सुहावने सपने दिखाकर वोट बटोरती है फिर कोई सुनवाई तक नहीं करती है। यहीं हाल दतिया, दमोह, पन्ना और टीकमगढ़ का है जहां पर चन्देलों के समय से 100 ज़्यादा तलाब है जिसमें लबालव पानी भरा रहता था पर अवैध कब्जों की चपेट में है अगर सरकार यहां के तलाबों को चिन्हित कर अवैध कब्जों से मुक्त कराती है तो पीने के पानी तक ही नहीं बल्कि खेती के सिचाई के लिए भरपूर पानी मिल सकता है।

बुन्देलखण्ड राज्य के निर्माण को लेकर संघर्षरत् बुन्देलखण्ड संयुक्त मोर्चा के भानु सहाय व अशोक सक्सेना का कहना है कि राज्य के निर्माण को लेकर संघर्ष जारी है और अब सड़कों पर उतरने की बारी है। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास बुन्देलखण्ड के निर्माण को लेकर एक नक्शा पहुंचा दिया गया है जिसमें मध्यप्रदेश के छह जिले और उत्तरप्रदेश के सात जिलों का पूरा विधिवत नक्शा जनसंख्या सहित पहुचांया है। उन्होंने बताया कि राज्य निर्माण के मामले में बुन्देलखण्ड को लोगो और किसानों का जागरूक किया जा रहा है समय- समय पर आंदोलन और धरना प्रदर्शन किये जाते हैं जिससे उनकी मांगों की आवाज सरकार तक पहुंचायी जा सके जिले स्तर पर राज्य निर्माण को लेकर कमेटियां गठित कर ली गई है जो गांव-गांव में जाकर किसानों को जागरूक कर रही हंै।

मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री राजा पटैरिया का कहना है कि अब केन्द्र, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकारें है ऐसे मेें किसानों की अगर दुर्दशा यहां हो रही है तो उसके लिये सीधे तौर पर भाजपा की सरकार जिम्मेदार है। वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बच नहीं सकते है। उन्होंने कहा कि बुन्देलखण्ड का किसान और मजदूर आत्महत्यायें कर रहा है पर सरकारों इन सब घटनाओं को नजर अंदाज कर रही है। जिस प्रकार किसानों को गत जून -जुलाई के महीनों में सरकार के विरोध में जब अपनी आवाज उठाई तो सरकार ने जो तांडव किसानों पर किया वह पूरे देश को झंझकोर देने वाला रहा है। किसानों की हत्यायें तक की गई।

राजस्थान में किसानों की जीत आंदोलन में किसानों के साथ मज़दूर, व्यापारी और छात्र भी शामिल

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राजस्थान के सीकर क्षेत्र मेें किसान आंदोलन ने वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद भी किसी को नहीं थी। आज ऐसा समय है जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने का अवसर देने के लिए सरकारों के बीच जैसे होड़ लग गई है। मनमोहन सिंह की सरकार ने पूंजीपतियों के हक में जो कानून बनाए, कानूनों में परिवर्तन किए उन्हीं को मौजूदा भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार दुगनी गति से आगे बढ़ाने मेें लग गई है। लोग समझ नहीं पा रहे कि दोनों सरकारों में आर्थिक ‘फ्रंटÓ पर क्या अंतर है। इसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए देश में ‘ट्रेड यूनियनोंÓ को खत्म या नाकारा करने की मुहिम शुरू हो गई। ‘टे्रड यूनियनÓ कानून में कई बदलाव किए गए। मज़दूरों के कई अधिकार छीन लिए। देश में बढ़ रही बेरोज़गारी को और बढ़ाने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों ने कमर ही कस ली। मज़दूरों को समाज की नज़र में एक खलनायक के रूप में पेश करने में दोनों सरकारें लगी रही। बहुत स्थानों पर यूनियनों ने काम करना बंद कर दिया। लोग अपनी नौकरियां बचाने में लग गए।
अब बात किसानों की। सरकार ने किसानों का इस प्रकार शोषण शुरू किया कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए। उन्हें तरह-तरह से बदनाम किया जाने लगा। पूरी दुनिया का पेट भरने वाले किसान को किसी भी तरह से उस हद तक तंग किया जाने लगा कि वह खेती छोड़ कर कारखानों में नौकरी करने लग जाए। मकसद साफ है, कारखानेदारों को सस्ती दरों पर मज़दूर उपलब्ध करवाना। सरकार किसानों को गुमराह करने के लिए अपने लोग बीच में डाल कर उन्हें किसान नेता के रूप में उभारा और किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य से भटकाने में सफलता पा ली। पंजाब में किसानों के आंदोलन के नेता बने लोग सरकार की मेहरबानियों का मज़ा लेते रहते हैं। यही कारण है कि किसानों की मांगों पर विचार ही नहीं होता। किसानों को धर्म, जात और संप्रदाय के नाम पर लड़ा
कर सरकारें अपनी रोटियां सेंकती रही हैं। पर, राजस्थान में एक नई क्रांति उभर कर सामने आई है। यहां माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के टिकट पर चार बार विधायक रहे किसान नेता अमराराम के नेतृत्व में किसानों मज़दूरों और छोटे व्यापारियों ने 10 दिनों तक आंदोलन चला के राजस्थान सरकार को अपनी मांगे मानने पर मजबूर कर दिया।
पहली सितंबर से सीकर में पांच लाख किसान, मज़दूर और छोटे व्यापारी इकट्ठे हुए और उन्होंने बेहद अनुशासित तरीके से आंदोलन चलाया। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे आंदोलन में कहीं हिंसा नहीं हुई कोई अप्रिय घटना नहीं घटी और पुलिस को कुछ ज्य़ादा करने का अवसर ही नहीं मिला। इस आंदोलन मेें यह पहली बार देखने को मिला कि छोटे दुकानदार और व्यापारी भी इसमें शामिल हुए। वे केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों से बेहद परेशान थे। इनके अलावा छात्रों, आंगनवाड़ी वर्कर्स, बस यूनियनों, ऑटो रिक्शा यूनियन, पंप सेट वर्कर, यहां तक कि ‘डीजेÓ बजाने वाले भी किसानों के समर्थन में सड़कों पर उतर पड़े। हिंदू-मुसलमान का भेद वहां खत्म हो गया। हर रोज़ 10 से 20 हज़ार लोग किसानों के समर्थन में प्रदर्शन करते, दो-एक बार तो यह संख्या दो-दो लाख तक भी नज़र आई।
लोगों की एकता और दबाव के कारण सरकार को किसानों की मांगे माननी पड़ीं। उनकी मुख्य मांगे जो मानी गईं, इन प्रमुख हैं –
 किसानों का 50,000 रु पए तक का कजऱ् माफ कर दिया गया। एक समिति भी गठित की गई जो और राज्यों में कजऱ् माफी की प्रक्रिया को समझेगी।
 राज्य सरकार केंद्र को सिफारिश करेगी कि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू की जाए।
 बछड़ों की बिक्री पर लगा तीन साल का प्रतिबंध घटा कर दो साल कर दिया गया।
 किसानों को उनकी उपज के खर्च पर 50 फीसद बढ़ा कर समर्थन मूल्य मिलेगा। यह स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश भी है।
अखिल भारतीय किसान सभा ने फैसला किया है कि वह राज्य के 15 जि़लों में विजय जुलूस निकालेंगे।

मंदसौर से सीकर तक फैला किसान आंदोलन
जिस समय पूरा राष्ट्रीय मीडिया सिरसा के बाबा गुरमीत राम रहीम के आश्रम और उसकी गुफा की तलाशी दिखाने में व्यस्त था, उस समय राजस्थान के सीकर, चुरू, बीकानेर, हनुमानगढ, श्रीगंगानगर, झुंझुनू, अलवर और नागौर जि़लों के किसान सड़कों पर उतर रहे थे। मांगे लगभग वही थी जिनके कारण जून के महीने में किसान आंदोलन उठा था। किसान चाहते थे उपज का उचित दाम, कजऱ् की माफी और समर्थन मूूल्य पर खरीद।
देखा जाए तो किसान चाहे तमिलनाडु के हों या मंदसौर के, उनकी मांगों में खास अंतर नहीं। इन्ही मांगों में है किसानों की आत्महत्या का हल। राजस्थान में चला यह किसान आंदोलन 14 जि़लों में फैला रहा। इस दौरान किसानों ने जि़ला मुख्यालयों पर महा पड़ाव डाला और जगह-जगह रास्ते जाम किए।
इस साल उभरे किसान आंदोलन कई कारणों से हैरान कर देने वाले हंै। सबसे पहले महाराष्ट्र, फिर मध्यप्रदेश में बिना संगठनों के किसानों का गुस्सा देखने को मिला। फसलों की कीमतों में भारी गिरावट ने किसानों को परेशान कर दिया। इसी को लेकर किसानों ने शहरों को जाने वाली दूध और सब्जियों की आपूर्ति ठप्प कर दी। यह उनका तरीका था आक्रोश दिखने का।
राजस्थान का किसान आंदोलन किसान सभा के झंडे तले चला। 13 दिन के इस आंदोलन ने एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की। पहली सितंबर से शुरू हुए इस संघर्ष के दौरान किसानों ने लाखों की गिनती में इक_ा हो कर विभिन्न जि़ला मुख्यालयों का घेराव किया। तीन दिन तक रास्ते भी रोके जिससे 20 जि़लों में जिं़दगी ठहर गई। इस दौरान केवल एंबुलेंस और जिं़दगी के लिए ज़रूरी वस्तुओं को ले जा रहे वाहनों को बिना रोकटोक के जाने दिया गया। असल में यह आंदोलन केवल किसानों का न रह कर आम लोगों का संघर्ष बन गया था। आखिर भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के टिकट पर चार बार विधायक रहे अमराराम के नेतृत्व में छोटे व्यापारियों से लेकर छात्र, टैंपू यूनियन वाले, बस यूनियन के लोग और आम जनमानस इस संघर्ष में कूद पड़ा। लोगों के इस दवाब के आगे आखिर में
राजस्थान में भाजपा की सरकार को झुकना पड़ा। इस बारे में चार बार, चार स्तरों पर बातचीत हुई। 12 सितंबर को दोपहर एक बजे शुरू हुई बातचीत में अंतिम फैसला 14 सितंबर 2017 को दोपहर एक बजे हुआ।
भाजपा सरकार को 50,000 तक की कजऱ् माफी कीे मांग माननी पड़ी। इससे आठ लाख किसानों को लाभ होगा। सरकार यह भी मान गई कि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए वह केंद्र सरकार से सिफारिश करेगी। साथ में मूंगफली, मूंग और उड़द की खरीद स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप समर्थन मूल्य पर सात दिन के भीतर करेगी।
यह खरीद सभी जि़ला मुख्यालयों पर की जाएगी। ‘ड्रिपÓ सिंचाई में खर्च होने वाली बिजली के रेट वापिस ले लिए जांएगे। अनुसूचित जातियों,जनजातियों और पिछड़े वर्गो को मिलने वाले वजीफों की जो राशि बकाया है वह शीघ्र दी जाएगी। पशु बेचने पर लगी रोक में ढील दी जाएगी। पेंशन की राशि 2000 रुपए प्रति माह करने पर भी सहमति बनी। नहर सिंचाई के बीमा की अदायगी पर भी बात हो गई। व्यापारियों के हाथों किसानों को होने वाली परेशानी से भी मुक्ति मिलेगी। इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद किसान सभा के अध्यक्ष अमराराम ने आंदोलन खत्म करने की घोषणा कर दी।
इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में देखें तो पांएगे कि इसकी शुरूआत 16 जून को ही हो गई थी जब अखिल भारतीय किसान सभा ने सीकर की कृषि उपज मंडी में किसानों की एक सभा बुलाई और राजस्थान के किसानों की समस्यायों पर विचार किया। यहीं उन्होंने अपनी भविष्य की योजना तैयार की। इसके आधार पर 17 जुलाई को ‘किसान कफ्र्यूÓ लगाया गया। यह कफ्र्यू सुबह आठ बजे से दोपहर तक जारी रहा।
इस बीच किसान सभा के अध्यक्ष अमराराम और एक नेता पेमाराम ने सीकर जि़ले के 1000 से ज़्यादा गावों और 343 पंचायतों का दौरा कर लोगों को संघर्ष के लिए तैयार किया। किसान ‘कफ्र्यू Ó को सफल बनाने के लिए 40 किसान चौकियां स्थापित की गई। यहीं किसान नेताओं ने सरकार को मांगों को मानने के लिए 10 दिन का समय दिया।
बाद में यह फैसला हुआ कि नौ अगस्त को किसान अपने-अपने जि़लों के मुख्यालयों पर गिरफ्तारियां देगें। इसे सफल बनाने के लिए 13 दिनों तक ज़ोरदार अभियान चला। नौ अगस्त को पूरे राज्य में किसान स्वेच्छा से गिरफ्तारी देने गए। पुलिस ने एक हज़ार से ज़्यादा किसानों को गिरफ्तार किया।
इसके बाद पहती सितंबर से इस आंदोलन को तेज़ करने का फैसला हुआ। इस दौरान किसान सभा के लोगों ने गावों में से पैसा और राशन इक_ा करना शुरू किया ताकि लंबे संघर्ष में कोई दिक्कत न आए। पहली सितंबर को 15000 से ज़्यादा किसानों ने अनुशासित तरीके से जा कर जि़ला कलेक्टर को अपना मांग पत्र दिया। यह मांग पत्र राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए था। मांग पत्र देने के बाद सभी लोग मंडी लौट आए और संघर्ष की तैयारी करते रहे।
दो सितंबर रात को 9 बजे फिर किसान जि़ला कलेक्टर के घर तक गए। इस मार्च को नाम दिया गया-‘प्रशासन की नींद हराम करने के लिएÓ। मार्च को बाधित करने के लिए पुलिस ने एंबुलेंस और दूसरे वाहन बीच में भेज दिए, हालांकि उनके जाने के लिए अलग रास्ता भी था। लेकिन अमराराम की एक आवाज पर 15,000 लोगों की भीड़ ने अपने बीच से रास्ता दे दिया और सभी वाहन आसानी से निकल गए। उनका कहना था कि वे प्रशासन को परेशान करेंगे, आम लोगों को नहीं।
तीन सितंबर को किसानों ने कवि सम्मेलन किया। इसी प्रकार लगातार कुछ दिन किसानों की गतिविधियां चलती रही। नौ सितंबर को तो ‘डीजेÓ वालों ने खूब समां बांधा। 10 सितंबर तक 50 और संगठन किसानों की मदद के लिए आ गए। अब सरकार के पास मांगे मानने के सिवा और कोई चारा न था।
पिछले लंबे समय में यह किसानों की सबसे बड़ी जीत मानी जाएगी।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र के किसान इस साल पहली जून से आंदोलन में कूद गए। यह पहला मौका था जब राज्य के किसानों ने यह कदम उठाया। उन्होंने दूध,फल,सब्जियां सड़कों पर फैंक दी और यह धमकी भी दी कि वे शहरी मंडिय़ों में कोई भी वस्तु नहीं जाने देंगे। मज़ेदार बात यह है कि इस आंदोलन का कोई नेता नहीं था। यह सिर्फ किसानों के लगातार हो रहे शोषण के कारण था। उनके आंदोलन ने सरकार और शहरी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। तब तक किसी को इस बात का अहसास भी नहीं था कि गावों में रहने वालों की स्थिति कैसी है। एक हफ्ते तक चले इस आंदोलन से किसानों को यह लाभ हुआ कि सरकार इस बात पर सहमत हो गई कि वह एक निश्चित समय से पहले किसानों के कजऱ् माफ कर देगी।
कजऱ् माफी के अलावा किसानों की मुख्य मांगों में स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू करना और उसके अनुरूप समर्थन मूल्य तय करना शामिल था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2014 में लोकसभा चुनावों में 10 साल पुरानी स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने का आश्वासन दिया था। किसानों की ये मांगें नई नहीं थी, पर इन्हें माना नहीं गया था।
तंगहाल किसानों की मुसीबतों को 2013 से 2015 तक के खराब मॉनसून ने और बढ़ा दिया। किसानों का गुस्सा उस समय चरम पर पंहुच गया जब 2016 में अच्छे मॉनसून के बावजूद ‘नोटबंदीÓ के कारण उन्हें अपनी फसल के उचित दाम नहीं मिले। ‘नोटबंदीÓ के कारण सहकारी बैंकों में पैसे की कमी हो गई और किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ा।
इसके अलावा किसानों ने प्रधानमंत्री के आह्वान पर दालों का अधिक उत्पादन कर दिया। कुछ किसानों ने उनमें भारी निवेश भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि मंडी में दालों का भंडार इक_ा हो गया। इस कारण व्यापरियों ने दालों की खरीद बहुत कम दामों पर कर ली। जब न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई, तब तक दालें व्यापरियों के हाथ आ चुकी थी और व्यापारी उसे ऊंचे दामों पर बेचने लगे थे। इसने किसानों के गुस्से को और बढ़ा दिया। किसानों का कहना है कि यदि सरकार को फसल के भारी मात्रा में पैदा होने का पुर्वानुमान नहीं था तो इसमें उसका क्या कसूर, उन्होंने तो प्रधानमंत्री के कहने पर दालों का उत्पादन किया था।
किसान संगठन यह मानते हैं कि कजऱ् माफी कोई पक्का हल नहीं है, लेकिन इससे कम से कम किसान को कुछ राहत तो मिलेगी। वे कजऱ्
व्यवस्था की एक धारा में तो आ ही जाएंगे।
दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि वह कजऱ् माफी के समर्थन में है और सही समय पर इसकी घोषणा कर देगी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस का कहना है कि उन्होंने अभी एक पैनल गठित किया है तो उत्तर प्रदेश में कर्ज़ माफी की प्रक्रिया का अध्ययन कर रहा है। सरकार ने यह भी कहा है कि वह एक ऐसा कानून बनाने जा रहीं है जिसके तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीद करने वालों को सज़ा हो सकेगी। बाकी मांगों को मानने की जिम्मेदारी उसने केंद्र पर डाल दी है।
मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन का दूसरा रूप नज़र आया। यहां व्यापरियों की दुकानें जली,किसानों के बच्चे मरे और पूरा वातावरण सहमा सा नज़र आया। पर किसान और व्यापारी दोनों ही इसके लिए ‘नोटबंदीÓ को जिम्मेदार ठहराते हैं। मंदसौर के व्यापारी कहते हैं कि ‘नोटबंदीÓ ने किसान और व्यपारियों के बीच के रिश्ते बर्बाद कर दिए। इससे सारी मंडी ही बर्बाद हो गई। दूसरी ओर किसानों का आरोप है कि व्यापारी हमारा शोषण करते हैं। उन्हें पता है कि किसान को तो नकदी पैसा चाहिए। पर मोदी सरकार ने तो पिछले साल नवंबर में 86 फीसद नकदी को चलन के बाहर कर सब कुछ बर्बाद कर दिया।
मंदसौर में चार दिन चली हिंसा में पांच किसान मारे गए, फसलें तबाह हो गई, दुकानें, ट्रक जला दिए गए। नोटबंदी के कारण सभी भुगतान चेक से होने लगे। पर एक चेक ‘क्लीयरÓ होने में 20 दिन ले लेता। इतना ही नहीं, ‘नोटबंदीÓ के कारण बैंकों के पास नगदी होती ही नहीं थी। इसका लाभ व्यापरियों ने उठाया वे नगद भुगतान में हर 100 रुपए पर दो रुपए काट लेते। इससे किसानों की समस्या और बढ़ गई।
एक किसान ने बताया कि फसल तैयार होते ही किसान उसे बेचने के लिए भागता है ताकि अपने कजऱ् उतार सके क्योंकि साहूकार उसके कजऱ् पर हर महीने दो फीसद ब्याज लेता। इस तरह साल भर में उसे 24 फीसद ब्याज देना पड़ता है। जो किसान कजऱ् वापिस नहीं कर पाता उसे अपनी ज़मीन बेच कर कजऱ् चुकाना पड़ता है। पर यहां भी ‘नोटबंदीÓ ने नुकसान कर दिया। जो ज़मीन पांच लाख रुपए बीघा थी उसकी कीमत ढाई लाख रुपए बीघा रह गई। क्योंकि किसी के पास ज़मीन खरीदने के लिए नगद रुपए नहीं बचे थे।
व्यापरियों का कहना है कि किसान उनसे नगद पैसे मांगते पर हमारे हाथ में नगदी थी ही कहां इसलिए भुगतान चैकों से किए गए। इनमें से कई चैक लफ्ज़ों की गलती के कारण ‘बाउंसÓ हो गए। इस पर किसानों ने समझा कि हम उनसे धोखा कर रहे है। इस तरह अनाज की बिक्री रुक सी गई और उसके भंडार जमा हो गए और उसकी कीमत बहुत नीचे आ गई। इससे किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ा।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय: गुंडों पर नहीं, छात्राओं पर लगती है रोक

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काशी हिंदू विश्वविद्यालय को जरूरत है ऐसे उपकुलपति की जिसके मन में छात्रों के प्रति चिंता हो। एक ऐसा प्रशासक जो छात्र-छात्राओं की जरूरतों को आधुनिक जीवन की चुनौतियों के लिहाज से समझता हो। देश में विकास रूप ले रहा है उसी लिहाज से छात्र-छात्राओं की अपनी मांगे भी हैं जिन पर बहुत ही मानवीयता से सोचने की जरूरत है।

उन पर उनकी अनसुनी, बल प्रयोग अनुचित है।

वाराणसी में अपने निर्वाचन क्षेत्र में प्रधानमंत्री गए थे। तब से काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में महिला छात्राएं असुरक्षा के माहौल में हैं और वहां का प्रशासन उसकी शिकायतों पर हाथ पर हाथ धरे बैठा है। उसका नमूना विरोध प्रदर्शन में सड़क पर दिखा। पुलिस ने नवरात्र के बावजूद उन पर लाठीचार्ज किया। जिस में कई अध्यापक, छात्र और पत्रकार घायल हुए। उपकुलपति के पास भी प्रदर्शनकारी छात्राओं से मिलने का समय नहीं था।

प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में काशी हिंदू विश्वविद्यालय मेें अब न तो पढ़ाई का माहौल है और न कोई कानून-व्यवस्था। देवी पूजन समारोह के दौरान आंदोलनकारी छात्राओं पर पुलिस बल ने अति उत्साह में जो ज्य़ादती हुई। उस पर प्रधानमंत्री ने भी दुख जताया। तब कार्रवाई थमी।

शनिवार को देर रात में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की कई छात्राओं को पुलिस ने पीटा। छात्राओं का आरोप था कि परिसर में छेड़छाड़ और बलात्कार अब परिसर में आम है। आंदोलनकारी छात्राएं कला संकाय की उस छात्रा की शिकायत पर सुनवाई के लिए दबाव डाल रही थी जिसके साथ गुरूवार की शाम मोटर साईकल पर सवार तीन लोगों ने छेड़छाड़ की। छात्रा अपने छात्रावास लौट रही थी तब उसके साथ यह हरकत हुई। वहां तैनात सुरक्षा गार्ड ने शिकायत सुन कर भी कुछ नहीं किया। उसने आरोपियों को भी नहीं रोका। विश्वविद्यालय उपकुलपति ने भी नहीं सुनी। विद्यालय के सुरक्षा प्राक्टर ने कहा्र रात में आई क्यों। छात्राएं इस पर भड़की।

विरोध प्रदर्शन तब हिंसक हो उठा जब परिसर की संपत्तियों की आगजनी होने लगी। पुलिस ने लाठीचार्ज कर विरोध प्रदर्शन कर रहे युवाओं को उपकुलपति आवास से खदेड़ा। छात्रों का कहना है जब यह हुआ तो वहां महिला पुलिस नहीं थी। कई वीडियों में पुलिस वाले छात्राओं पर लाठियां चलाते दिख भी रहे हैं। ‘हम बड़ी ही शांति से अपनी सुरक्षा के सुमचित प्रबंध का मांग करते हुए उपकुलपति आवास में बैठे थे। उपकुलपति ने आवास मेें होकर भी हमसे मिलने से इंकार कर दिया। पुलिस को आदेश दिया गया कि लाठियां चला कर आवास खाली कराओ,बताया, निवेदिता ने जो कला संकाय की छात्रा है।

उसने  बताया कि ‘पुलिस के पुरुष जवानों ने लाठियों से लड़कियों को मारा। कुछ को घसीटा भी। घायल पत्रकारों में मतेश श्रीवास्तव और आलोक पांडे हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विशाल परिसर में सेक्सुअल छेड़छाड़ आम बात है। क्योंकि कहीं भी मुस्तैद सुरक्षा गार्ड नहीं हैं। छात्राओं के इस मुद्दे पर प्रॉक्टर (सुरक्षा) और शासन से पूछताछ ऊँचे स्तर पर की जानी चाहिए थी। इसके विपरीत शिकायतकर्ताओं पर लाठियां बरसाई गई। उन्हें जमीन पर घसीटा गया। प्राक्टर (सुरक्षा) का तर्क हमेशा यही रहता कि आप छात्रावास देर रात में क्यों लौट रही थीं। और भी देर हो जाती तो क्या कुछ हो जाता?

विरोध पर उतरे युवाओं की मांग थी कि सभी रास्तों पर अच्छी प्रकाश व्यवस्था हो। हर तरफ सीसीटीवी कैमरे लगे हों। छात्राओं पर शाम छह बजे छात्रावास लौटने पर से पाबंदी हटे। जो भी लोग परिसर में आते हैं उन पर नजर रखी जाए। छात्राओं का कहना है कि छह बजे शाम को ही छात्रावास लौटने की बाध्यता गलत है। यह कानून तो बाहरी लोगों के लिए होना चाहिए।

महिला महाविद्यालय (एमएमवी) छात्रावास की सह संयोजक नीलम अत्री ने कहा कि आंदोलन का रु ख बदला जा चुका है। प्रशासन नहीं सुन रहा है और छात्राओं की सुरक्षा पर कॉलेज प्रशासन मांग नहीं आ रहा है। छात्रावास की वार्डन के अनुसार रात ग्यारह बजे तो पुलिस ने छात्र-छात्राओं के पीछे लाठी मांजती हुई दौड़ी थी। लाठीचार्ज की चपेट में कुछ अध्यापक भी आ गए। कई छात्र-छात्राओं और अध्यापकों के सिर, बाहों, पीठ पर चोटें भी आई। पुलिस ने आंसू गैस भी छोड़ी।

उपकुलपति के पास छात्रों के लिए समय नहीं है। वे राजनीति में रु चि लेते हैं। एक बुजुर्ग लल्लन भैया ने बताया कि जब से वे आए है उसकी प्राथमिकता में प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री वगैरह ही रहते हैं। विश्वविद्यालय नहीं। एक अर्से से विश्वविद्यालय में गुंडागर्दी का बोलबाला है। प्राक्टर (सुरक्षा) भी कोई ध्यान नहीं दे पाते। यहां के तमाम सुरक्षा गार्ड बेहद निष्क्रय और सिफारिशी हैं। लड़के-लड़कियों को पुस्तकालय में कम से कम रात आठ बजे तक पढऩे का मौका देना चाहिए। लेकिन सूरज ढलते ही कमरे में लौटने का निर्देश क्या उचित हंै?

काशी में सदर के सर्किल अधिकारी निवेश कटियार ने बताया कि पुलिस ने रबड़ बुलेट्स भी चलाईं। वह भी रात साढ़े दस बजे। जब उपकुलपति आवास पर छात्रों ने धरना दिया। कुछ देर बाद ही पथराव शुरू हुआ पुलिस को निशाना बनाया गया। पुलिस की तीन गाडिय़ों को फंूक दिया गया और पंद्रह गाडिय़ां तोड़ी फोड़ी गई। सब इंस्पेक्टर महेश ने दावा किया कि छात्रों ने पंट्रोल बम भी फेंके।

उपकुलपति इस बात से इंकार करते हैं कि छात्र-छात्राओं पर लाठीचार्ज हुआ जबकि तमाम वीडियो में यह स्पष्ट दिखता है। अब विश्वविद्यालय दो अक्तूबर तक बंद कर दिया गया है। कुछ पुलिस कर्मियों पर कार्रवाई की गई है। पिछले साल आठ लड़कियों पर धरना देने के कारण विश्वविद्यालय ने रोक लगा दी थी।

इस विश्वविद्यालय के एकेडेमिक, प्रशासनिक लोगों पर जेंडर, रंग और जाति के आधार पर छात्र-छात्राओं ने उत्पीड़त की शिकायतें हैं। अजीबों गरीब नियम हैं जिसमें मांसाहार न करने की भी बात है, और इंटरनेट इस्तेमाल करने पर रोक है। इसके खिलाफ आठ लड़कियों ने सुप्रीम कोर्ट में शिकायत की और यहां के आतंक के माहौल के बारे में लिखा। नए नियमों के तहत छात्रावास के कमरों की बिजली रोक दी जाती है। रविवार को छात्र-छात्राओं ने पूरे शहर में जुलूस निकाल कर प्रदर्शन किया।

जीएसटी की मार: त्योहार में कमज़ोर रहा व्यापार

चिकित्सा, खेल और शिक्षा भी प्रभावित

वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) की चपेट में आज व्यापारी ही नहीं है, बल्कि उन लोगों पर खासी मार पड़ी है जो अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा,चिकित्सा और खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ाना चाहते हैं। पिछले साल नवम्बर में जब सरकार ने एक हजार और पांच सौ के नोट चलन से बाहर किए थे तब भी व्यापक असर पड़ा था। पर इस साल जुलाई में जीएसटी कानून को बिना तैयारी और परीक्षण के लागू कर सबको हैरानी और परेशानी में डाल दिया गया। जीएसटी

के लागू होने से सबसे ज्यादा अगर फायदा हो रहा है तो वह सीए और वकीलों को ,लेकिन आज भी ज़्यादात्तर ऐसे वकील और सीए है जिन्हें इस कानून की पूरी जानकारी नहीं है।

इन्हीं तमाम मुद्दों पर तहलका की विशेष पड़ताल-

राजीव दुबे

GSTसबसे पहले बात करते है जीएसटी की चपेट में आने से उन व्यापारियों की जिनका धंधा ही चौपट नहीं हुआ बल्कि उनको उन तमाम उलझनों में डाल दिया है जिनके वे आदि नहीं थे। ऐसे में कम पढ़े – लिखे व्यापारी सरकार को कोस रहे हैं कि सरकार देश में विकास के नाम पर व्यापार को बंद करने में लगी है। क्योंकि अभी तक सीधा-साधा व्यापार करने वाले छोटे दुकानदार टैक्स अदा करने के नाम पर गर्व महसूस करते थे, कि वे भी उन लोगो में शमिल हो गये हैं जो टैक्स दे रहे हैं उनको वकील या सीए के पास साल में एक ही बार जाना पड़ता था रिटर्न दाखिल के लिए। पर अब ऐसा नहीं है अब उनको एक महीने और तीन महीने में वकील और सीए के पास रिटर्न जमा के नाम पर जाना पड़ रहा है और महंगी फीस देनी पड़ रही है।

ऐसे में छोटे व्यापारियों का कहना है कि वह व्यापार करें कि टैक्स अदा करने लिए चक्कर लगायें।व्यापारियों ने बताया कि इन्हीं कारणों से व्यापार 30 से 70 प्रतिशत तक प्रभावित हुआ है। त्यौहारी सीजन नवरात्रि से लेकर दीपावली तक बाजारों में रौनक रहती थी और दुकानदारी अच्छी होती थी। इस साल बाजारों में सूनापन और सन्नाटा पसरा है। इसकी मुख्य वजह 28प्रतिशत टैक्स का इजाफा का होना।

सरोजनी नगर मार्किट एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक रंधावा का कहना है कि सरोजनी नगर मार्किट दिल्ली का सबसे सस्ता बाजार है यहां पर स्कूली बच्चों से लेकर छात्रों और शादी विवाह तक के कपड़े खरीदने के लिए दिल्ली के अलावा अन्य राज्यों से लोग आते हैं पर अब ऐसा नहीं है। जो छोटा व्यापारी है वह उपभोक्ताओं को जीएसटी का बिल देता है पर टैक्स में इजाफा होने की वजह से ग्राहक खरीददारी करने से बचने लगे हैं। ऐसी स्थिति में व्यापारी अपनी ही कमाई को कम करके ग्राहक को सामान बेचने को मजबूर है। उन्होंने बताया कि जब ग्राहक को किसी भी सामान का रेट बताया जाता है तो वह वही रेट देता नहीं है बल्कि मोलभाव करके कम करवाता है ऐसे में जीएसटी वाले बिल को कैसे वह स्वीकार कर सकता है। इन्ही कारणों से इस बाजार में 40 से 50 प्रतिशत की कमी ग्राहकों की आयी है। ऐसा ही हाल दिल्ली के चांदनी चौक के थोक व रिटेल व्यापार का है।

उनका कहना है कि सरकार ने बिना सोचे समझें जीएसटी को थोप दिया कि देश में कालाबाजारी और टैक्स की चोरी नहीं होगी बल्कि अब व्यापारी अब ज्यादा चतुर हुआ है। सरकार को ये मालूम नहीं कि व्यापार में प्रतिस्पर्धा का दौर रहा है ऐसे में अब व्यापारी ग्राहकों को कम लागत में अच्छी गुणवत्ता की वस्तु कैसे दे सकता है। यहां के व्यापारियों ने नाम न छापने पर सरकार को कोसते हुए व्यापारी विरोधी बताते हुये बताया कि जिस तरीके से जीएसटी थोपा तो गया पर उसके प्रैक्टिकल को नहीं समझा गया कि किस तरह छोटी -छोटी अड़चने तमाम दिक्कतें करती हैं।जैसे माल पैक करने से लेकर ढुलाई तक। देश के अन्य दूर-दराज राज्यों से यहां पर छोटे और बड़े व्यापारी खरीददारी को आते है लेकिन वे जीएसटी कानून के बारीकी से अनजान है ऐसे में वे बड़े हुए बिल के साथ सामान खरीदने से कतरा रहे है। जिसके कारण चांदनी चौक का ऐतिहासिक व्यापार अब सन्नाटा और सूनेपन की भेंट चढ़ रहा है। इलैक्ट्रानिक बाजार में आज भी ज़्यादातर दुकानदार वहीं पुराने रेट पर जीएसटी की परवाह किये बिना अपना सामान बेच रहे हैं और सरकार पर दोष मढ़ रहे हैं कि जब सरकार ही व्यापार और दुकानदारों की समस्याओं से अनजान है तो ऐेसे में वहीं पुराने रेट पर सामान बेंच कर अपनी दुकान को बंद कर किसी नए काम की तलाश में है। ऐसी परिस्थिति में दुकानों में लगे कर्मचारियों के सामने रोजगार का संकट मंडरा रहा है। लक्ष्मी नगर के टीवी,फ्रिज और एसी बेचने वाले लक्ष्मी प्रसाद और प्रदीप कुमार ने बताया कि उपभोक्ताओं की कमी के कारण बिक्री न होने से लगाई गई पूंजी नहीं निकल पा रही है। मजबूरन उनको सस्तें दरों पर सामान बेचना पड़ रहा है।

भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय महामंत्री विजय प्रकाश जैन का कहना है कि जीएसटी से 30 से 70 प्रतिशत व्यापार प्रभावित हुआ है। जिससे महंगाई बढ़ी है और बढ़ती ही जा रही है। अब 28 प्रतिशत टैक्स का उपभोक्ता विरोध कर रहा है। पहले पांच फिर 12 अब 28प्रतिशत टैक्स तो ऐसे में दुकानदार और ग्राहक दोनों परेशान क्योंकि जब शुरूआत में फाइनेंस कमीशन ने 12 से 13 प्रतिशत टैक्स की बात की थी तो अब 28 प्रतिशत टैक्स बहुत ना इंसाफी। उन्होंने बताया कि 1 हजार 56 आइटमों पर टैक्स लगाया गया है जबकि पहले साढ़े तीन सौ आइटमों पर वैट नहीं लगता था जो अब साढे तीन सौ से घट कर लगभग 90 के करीब आइटम रह गये है जो जीएसटी से दूर है। ऐसे हालात में व्यापार का बेड़ा गर्क होना कोई अंचंभा नहीं है।

अब बात करते हैं शिक्षा और खेल की। एक ओर तो सरकार शिक्षा और खेलो को बढ़ावा देने की बात करती है वहीं जीएसटी कानून से खेल और शिक्षा अछूते नहीं रहे हैं। दिल्ली में जितने भी डीडीए के स्र्पोट्स कॉम्पलैक्स है वहां पर जिन -जिन खेलों की कोचिंग चल रही है उन्होंने अपने छात्रों से फीस में जीएसटी जोड़ कर बिल देना शुरू कर दिया है इसके कारण मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों को अब कोंचिग लेना मुश्किल हो रहा है। सिरी फोर्ट में बैडमिडंन की कोंचिग लेनी वाली नौ साल की छात्रा के पिता अजय पाल सिंह ने बताया कि यहां पर तीन से पांच हजार रूपये महीने की फीस पर तमाम खेलों की कोंेिचग के लिये लगते हैं। लेकिन जीएसटी के नाम पर कम से कम 540 रुपये से बढाकर वसूले जा रहे हैं जो खेल प्रतिभाओं के साथ सरासर अन्याय है। उन्होंने बताया कि शीघ्र ही एक अभिभावकों का प्रतिनिधिमंडल खेल मंत्री राज्यवर्धन राठौर से मिलेगा और खेल को जीएसटी से दूर रखने की बात करेगा। अन्यथा कई अभिभावक ऐसे हंै जो अपने बच्चों को इन खेल कोंचिंग में भेजने से परहेज करेगे क्योंकि ज़्यादात्तर अभिभावकों की माली हालत ठीक नहीं है। उन्होंने बताया कि स्र्पोट्स के सामान पर भी जीएसटी की मार है।

यहीं हाल नामी -गिरामी शिक्षण संस्थानों का है जो छात्रों से एडमिशन और कोचिंग के नाम पर घोषित और अघोषित तौर पर मोटी फीस वसूलने में लगे हैं। सबसे दिलचस्प और गंभीर बात दरअसल यह है कि जीएसटी कानून तो बना पर कानून को अपने -अपने तरीके से तोड़ा भी जा रहा है। दिल्ली -एनसीआर में सीए और और अन्य कोर्सो में एडमिशन लेने वाले छात्रों से कई संस्थान तो खुले तौर पर जीएसटी सहित बिल दे रही है पर कुछ संस्थान लक्ष्मी नगर में से है जो छात्रों से फीस बढ़ा कर बिना जीएसटी के फीस वसूल रही है फिर अपने तरीके से बिल बनाकर रिकार्ड में एकत्रित कर रही है। अगर छात्रों को कोचिंग के तौर पर दिये जाने वाले बिल और रिकार्ड का मिलान किया जाये तो बहुत बड़ा घोटाला सामने आएगा।

सबसे दिलचस्प व गंभीर बात यह है कि देश का नागरिक कई बार पैसा के अभाव में किस तरह अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर जाता है इस बात का अंदाजा नोट बंदी और जीएसटी कानून के आने के बाद से लगाया जा सकता है। जब देश में 2016 नवम्बर माह मे नोट बंदी हुई थी तब उस समय दिल्ली -एनसीआर में डेंगू और चिकुनगुनिया का कहर और प्रकोप तेजी से फैला था लेकिन पांच सौ और एक हजार का नोट चलन में बंद था और सौ के नोटों की भारी कमी देखने को मिल रही थी ऐसे में कई मरीजों ने तो प्राइवेट डाक्टरों के पास ही जाना बंद कर दिया था, सरकारी अस्पतालों में धक्कों से बचने के लिए मेडिकल स्टोरों से दवा लेकर भगवान भरोसे उपचार करते रहे। भूपेन्द्र और राहुल ने बताया कि प्राईवेट अस्पताल में कम से कम फीस 400 से 600 सौ रुपये के बीच है ऐसे में उनके पास पुराने नोट पांच सौ और एक हजार के रूपये चलन में नहीं थे ऐसी स्थिति में उन्होंने खुद को भगवान पर छोड़कर मेडिकल स्टोरों से दवा खरीदकर 20 से 25 रुपए में अपने इलाज खुद कर लिया।नामी -गिरामी पंच सितारा अस्पताल में तो अमीर ही जाते है इसलिये वहां पर जीएसटी का विरोध सुनाई नहीं देता है।

ऑल इंडिया केमिस्ट एंड डिस्ट्रीब्यूटर फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष कैलाश गुप्ता ने बताया कि दवाओं पर पहले 5 प्रतिशत टैक्स लगता था पर अब जीएसटी लगने से 12 से 18 प्रतिशत तक लगने लगा है। उन्होंने बताया कि बड़ी दवा कंम्पनियों ने भी एमआरपी बढ़ा दी है इसके कारण दवाएं मंहगी हुई। उन्होंने सरकार से मांग की है कि दवाओं को जीएसटी से दूर रखना चाहिए अन्यथा कई मरीज ऐसे हैं जो सरकारी अस्पतालों मेे तो इलाज करा लेते हैं और सरकारी दवा जो मिल जाती है उसी से काम चला लेते है पर डाक्टरों द्वारा ही लिखी गई मंहगी दवाओं को खरीदने से बचते हैं। यह मरीजों के स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है।