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क्या पंजाब से उखड़ सकेंगी मादक पदार्थों की गहरी जड़ें

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प्ंाजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने पंजाब में मादक पदार्थों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है फिर भी न जाने क्यों मादक पदार्थों पर रोक नहीं लग पा रही है। यहां राज्य में पहले शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी के तालमेल की सरकार थी। तब कहा जाता था कि मादक पदार्थों की जड़ें राज्य में बहुत गहरी हैं। इन्हें उखाड़ा नहीं जा सकता। उस समय एक कैबिनेट मंत्री पर आरोप भी लगाा था कि वह इस माफिया व्यापारी को संरक्षण दे रहा हैं। राज्य के पुलिस महानिदेशक का कहना है कि राज्य में मादक पदार्थों के व्यापार में कहीं कोई बड़ी हस्ती नहीं है। यानी पुलिस की कड़ी कार्रवाई के चलते ये लोग हाल-फिलहाल राज्य से बाहर हैं।
मादक पदार्थों का मामला सर्वव्यापी है, क्योंकि इसका पूरा मायाजाल है। इस कारण मादक पदार्थों का प्रसार होता है। इस बात पर आम सहमति है कि सीमा पार बड़ी तादात में महिलाएं मादक पादर्थों की तस्करी में भी लगी हैं। यह माना हुआ सच है कि कोई अवैध व्यापार भले ही वह मादक पदार्थों का हो बिना संरक्षण के पनप नहीं सकता। यह संरक्षण लोगों के इसमें शिरकत करने, राजनीतिक नेताओं के वरदहस्त और भ्रष्ट अधिकारियों के बिना चल नहीं सकता।
एक बेहद चुस्त और सतर्क प्रशासन जो लालच और घमकियों में न आए उसकी ज़रूरत है जो अपने काम को ईमानदारी से कर सके। मादक पदार्थों का मुद्दा काफी जटिल है इसे दुरुस्त करने के लिए एक उचित तरीका अपनाने की ज़रूरत हैं।
मौजूदा सरकार ने ज़रूर कुछ कड़े कदम उठाए हैं लेकिन उसका सही असर नही दिख रहा है। सरकार हमेशा मादक पदार्थो की ‘सप्लाई चेनÓ पर हमला करती है। मादक पदार्थ हमेशा मांग आधारित व्यापार से जुड़े हैं। इसे हल किया जाना चाहिए। इसका तुरंत समाधान भी होना चाहिए और जो लोग ज़मीनी हकीकत जानते हैं उन्हें अपनी राय बताने की आज़ादी मिलनी ही चाहिए। यदि वे चुने हुए जनप्रतिनिधि हों तो और भी अच्छा।
यदि पंजाब में मादक पदार्थों की समस्या पाकिस्तान के कारण है तो इसके फैलाव की बात सिर्फ पिछले दशक में ही क्यों उठी। विभिन्न सर्वे बताते है कि पंजाब की गा्रमीण जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा अफीम खाता है। अफीम खाने की यह आदत ग्रामीण जनसंख्या में वैसी ही है जैसे शहरों में पूरे दिन कीे मेहनत के बाद शराब के दो घंूट। पांरपरिक तौर पर काफी कम तादाद में पंजाब में अफीम का उत्पादन होता हैं।
प्ंाजाब को अपनी ज़रूरत सीमाई राजस्थान से पूरी करनी होती है। सरकार ने अफीम की छोटी-छोटी खपत पर रोक लगाने के लिए पंजाव के अफीम उत्पादक क्षेत्रों को नष्ट किया और राजस्थान से आ रही अफीम को रोका। यह फैसला 1980 के दशक में लिया गया। जबकि सन 2000 में इस पर पाबंदी लगी। राजस्थान की राह बंद हो जाने से मादक पदार्थो में हुई कमी को पूरा करने के लिए फार्मेसी की दवाएं और हेरोइन जोड़ दी गई। अफीम की तुलना में हेरोइन तीन गुना ज़्यादा प्रभावी हैं।
सिर्फ बिगड़े हुए रईस बच्चे या रॉक स्टार ही पंजाब में मादक पदार्थ नहीं लेते जैसा पंजाब की फिल्में बताती हैं। एम्स के नेशनत ड्रग डिपेंडेस ट्रीटमेंट सेंटर की ओर से पंजाब ओपिड डिपेंडेसी सर्वे कराया गया। इसमें पाया गया कि ज़्यादातर अफीमची आर्थिक तौर पर कमज़ोर आय वर्ग के हैं। जिनकी शिक्षा ज़्यादा नहीं होती है और नौकरी भी छोटी मोटी ही होती है। ज़्यादातर नशेबाज छोटे किस्म के ही लोग होते है।
राजस्थान सरकार ने तय किया है कि अफीम की तमाम दुकानें पहली अप्रैल 2016 से बंद कर दी जाएंगी। अभी राजस्थान में डोडा के 264 ठेके हैं। इन्हें भी स्टेट एक्साइज विभाग से ही लाइसेंस मिलता है। राजस्थान सरकार डोडा बेचने के लिए 19 हजार लाइसेंस जारी करती है। इसी दौरान सरकार को यह पता लगा कि पंजाब में मादक पदार्थ उसी तरह सप्लाई समस्या के शिकार नहीं है जैसे अमूमन दुनिया में सभी जगह है। यानी सप्लाई की समस्या नहीं बल्कि मांग की है। सप्लाई को कम करने से मांग कभी नहीं घटती।
अलग-अलग सर्वे से लोग और भी कन्फयूज हुए। पिछली सरकार का दावा था कि पंजाब में मादक पदार्थों का मसला उतना खराब नहीं जितना यह नजऱ आता है। महज 0.06फीसद लोग ही मादक पदार्थों के शिकार थे। ‘राज्य की 2.77 करोड़ की जनसंख्या में सिर्फ 0.06 फीसद लोग ही इसके शौकीन थे। पूरे देश में यह सब से कम फीसद हैÓ। सरकार ने 2015 का एक अध्ययन पेश किया। एम्स ने पंजाब के एक लाख लोगों में अफीम पर निर्भर होने की बात अपने सर्वे में मानी 837 लोग ही अफीम पर निर्भर थे। यानी राज्य के 280 लाख की आबादी में 0.84 फीसद ही। यह तादाद अकेले तमाम तरह के मादक पदार्थ का शौक रखने वालों से तीन गुना ज़्यादा है। सामाजिक न्याय और सशाक्तिकरण के अनुमानों के अनुसार पूरे देश में 30 लाख लोग मादक द्रव्यों पर आश्रित हैं। यानी प्रति एक लाख पर ढाई सौ यानी भारतीय आबादी का कुल 0.25 फीसद।
यह तथ्य जताता है कि पंजाब में मादक पदार्थों का प्रचलन किस हद तक था। पंजाब में अफीम आश्रित लोगों की तादाद देश में दूसरी तमाम तरह के मादक पदार्थों का इस्तेमाल करने वालों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा थी। इस साल 18 जनवरी को प्ंाजाब में 1.78 करोड़ की हेरोइन और अफीम बरामद की गई थी। गोवा में जो मादक पदार्थ मिला था वह 16.72 लाख था जबकि इतना ही लगभग माणिपुर में पकड़ा गया था जिसकी लागत सात लाख थी।
राज्य के सामाजिक सुरक्षा, महिला और बाल विकास विभाग के सचिव हरजीत सिंह ने अपने एक एफीडेविट में एक विभागीय सर्वे का उदाहरण कुछ मादक पदार्थ पुनर्वास केद्रों की ओर से दायर याचिका के प्रतिवाद में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में मई 2009 में दिया था। उसमें कहा गया था कि पंजाब की आबादी का 16 फीसद ‘हाईड्रगÓ की चपेट में है। दूसरी ओर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जनवरी की शुरूआत में ही कहा था। बादल आज मेरा मजाक उड़ा रहे हैं। लेकिन पूरा पंजाब आज वही कर रहा है जो मैं कह रहा था। डाटा आधारित ब्यौरे के अनुसार पंजाव में 18 से 35 साल की उम्र के 76 फीसद लोग अफीम का शौक रखते हैं। रपट के अनुसार 70 फीसद लोग राज्य में अफीम का शौक रखते है। जबकि पूरी आबादी में पंजाब का लत फीसद दस से 15 फीसद ही हैं।
जनवरी में राजनाथ सिंह ने कहा था कि हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान निश्चय की इस मुद्दे पर गड़बड़ कर रहा है। गृहमंत्री ने राज्य में ड्रग मीनेस के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया। यह बात सच है कि पंजाब में मादक पदार्थ पाकिस्तान से आता है। पाकिस्तान के मादक पदार्थों में सरताज लोगों ने गरीब लोगों को इस काम में लगा लिया है। जो स्मगलरों के साथ सीमा में बतौर कूरियर यह काम करते हंै। यहां तक कि मालगाड़ी जो सीमेंट लेकर पाकिस्तान से अटारी-बाघा रूटस से भारत आती है तो उसमें हेरोइन भी आ जाती है। हर साल पाकिस्तानी और भारतीय तस्करों को पुलिस गिरफ्तार करती है हालांकि यह बात ज़रूर गृहमंत्री ने बताना पसंद नही ंकिया।

भूख से हुईं न जाने कितनी मौतें; सरकार बेखबर

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झारखंड में भूख से हुई दूसरी मौत ने सरकार के विकास की पोल खोल दी है। एक महीने के भीतर झारखंड में भूख से दम तोडऩे वाले दूसरे व्यक्ति का नाम है वैद्यनाथ रविदास। काले हीरे की खान कहे जाने वाला धनबाद का रहने वाला वैद्यनाथ रविदास रिक्शा चालक था। वह कई दिनों से बीमार भी था। वैद्यनाथ रविदास रिक्शा चला कर अपने पांच बच्चों सहित अपने परिवार का लालन पालन करता था। रिक्शा से ही कभी कभी एक टाइम के खाने का प्रबंध हो पाता था। कभी कुछ नहीं। मौत के दो दिन पहले से रविदास के घर में खाने को कुछ नही था। उसके बच्चे भी भूख से बिलक रहे थे। रविदास की मौत के बाद ही लोगों का सहयोग मिलने के बाद उनके बच्चों को भोजन नसीब हो पाया। अगर बाबूओं ने रविदास के नाम का राशन कार्ड बनाने में उनका सहयोग कर दिया होता तो आज रविदास की मौत नही होती।
मृतक वैद्यनाथ रविदास के भाई जागो रविदास के नाम से पहले राशन कार्ड था, जिससे परिवार को राशन मिल जाता था। पर चार साल पहले जागो रविदास की मौत हो गयी। जागो रविदास के मौत के बाद उनके परिवार को राशन मिलना बंद हो गया। जागो रविदास की मौत के बाद मृतक वैद्यनाथ रविदास ने भी अपने नाम से राशन कार्ड बनवाने (ट्रांसफर) की पूरी कोशिश की। स्थानीय जनप्रतिनिधि अैर ब्लॉक के बाबुओं के खूब चक्कर लगाए। पर उसकी सारी कोशिशें नाकाम रहीं। राशन कार्ड में नाम न होने की बजह से बीपीएल में उनका सालों पुराना नाम भी हटा दिया गया। इस कारण उसे सरकार से बीपीएल के नाम से मिलने वाली सारी सुविधाओं से वंचित होना पडा़। निश्चित तौर पर यह जांच का विषय है कि रविदास का राशन कार्ड किन कारणों से नहीं बना और इसके लिए कौन कौन से लोग दोषी हैं। पर सरकार दिनों दिन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरी करने वाले सिस्टम को, जिस तरह से अैर मुश्किल बनाते जा रही है उस हिसाब से इस प्रकार की मौतें झारखंड में अैर भी देखने को मिल सकती है।
सिमडेगा जिले में 28 सितंबर को ही 11 साल की बच्ची संतोषी की मौत हो गयी थी। मौत की वजह स्पष्ठ थी। संतोषी की मौत की वजह भूख थी। उस बच्ची ने चार दिन से कुछ नहीं खाया था। फिर पेट में मरोड़ उठा और दर्द से उसकी मौत हो गयी। संतोषी भी बचती अगर उसकी मां को राशन कार्ड से अनाज मिल पाता। संतोषी की मां कई दिनों से डीलर के चक्कर काटती रही पर आधार से उसका राशन कार्ड लिंक नही होने के कारण उसे राशन नहीं मिला। और संतोषी को भोजन नही मिल पाया अैर उसकी मौत हो गयी। संतोषी की मौत के बाद सरकार हरकत में तो ज़रूर आई। संतोषी की मां को पचास हजार रुपये की मदद भी की गई। पर संतोषी की मां कोयली देवी ने सच बोल कर बड़ी गलती कर दी। गांव की मुखिया सुनीता डांग ने कोयली को डराया धमकाया अैर घर तोड़ देने की धमकी दी। ऐसा इसलिए उसने किया क्योंकि कोयली ने बेटी संतोषी के मौत के बाद स्थानीय जनप्रतिनिधि सहित डीलर की पोल खोल दी थी। सुनीता का आरोप है कि कोयली ने भूख से हुई संतोषी की मौत बता कर पूरे गाव को बदनाम किया है। सुनीता का कहना है कि संतोषी की मौत भूख से नही बल्कि बीमारी से हुई है। सुनीता और गांव के ऐसे ही कुछ दबंग लोगों के डर से कोयली को गांव छोड़ कर जाना पड़ा। न प्रशासन आगे आया न सरकार। सरकार ने उसकी बेटी संतोषी की मौत के बाद उस पर नजर बनायी हुई है क्योंकि विपक्ष इसे अब बडा़ मुद्दा बनाकर सड़कों पर धरना प्रदर्शन कर रहा। अभी कोयली को अब भी राशन व सुरक्षा भी उपलब्ध नहीं करायी गयी है जिससे की गांव वाले उसे हानि न पहुंचा सके। संतोषी और वैद्यनाथ रविदास की मौत की खबर के बाद इस प्रकार के घटनाओं का पर्दाफाश हो पाता है। पर बिचौलियों और कमीशनखोरों को आधार और अन्य नियम कायदे से ज़रूरतमंद को उनकी ज़रूरत से वंचित रखने का अच्छा कारण मिल गया। जिससे सरकार और उनके नुमांइदे बेखबर हैं और विचौलिये इसका भरपूर लाभ उठा रहे हैं। सरकार के विभिन्न स्तर के कर्मचारी अैर वार्ड स्तर के जनप्रतिनिधि के असहयोग के कारण भूख से मौंतों की घटनाएं भले ही घट रही हों पर यह साफ है कि सरकार की पकड़ रुट लेवल पर बिल्कुल भी नहीं है। आधार से राशन कार्ड को जोडऩे के बाद झारखंड के कई ऐसे गांव हैं जिन्हे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जब तक उनके अंगूठे को स्कैन नही किया जाता तब तक उन्हें राशन नही दिया जाता।
नेटवर्क का प्रोब्लम हमेशा ऐसे कई गांवों में बना रहता है कि पूरे गांव को अंगूठा स्कैन कराने के लिए गांव के पहाड़ पर चढऩा होता है पहाड़ पर भी नेटवर्क मिला तो राशन मिल पाता है वरना अगले दिन दुबारा पूरा गांव पहाड़ पर चढ़ता है। इसमे बूढ़े बुर्जुग लेगोंं को काफी दिक्कतें होती हैं। वैसे भूख से मौत के बाद खाद्य आपूर्ति मंत्री सरयू राय ने सभी राशन दुकानों पर अपवाद पुस्तिका रख कर उन्हें भी राशन देने का निर्देश दिया है जिनका आधार कार्ड नहीं बना पाया है या राशन कार्ड आधार से लिंक नही है। मगर भात भात मांगते मांगते बच्ची संतोषी की मौत तो हो चुकी है। उसे तो बाबुओं की ऊपरी कमाई की आस ने मारा।

देश के युवाओं की बदल रही है सोच

Allahabad university

पिछले दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी को समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन के मुकाबले करारी हार का सामना करना पड़ा है। जिस उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 में से 73 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके सहयोगी दलों का कब्जा है और जहां चंद महीनों पहले ही विधानसभा के चुनाव में भाजपा ने विशाल बहुमत से ऐतिहासिक जीत हासिल कर सरकार बनाई है, उसी उत्तर प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े विश्वविद्यालय में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन की हार अपने आप में काफी मायने रखती है। इस चुनाव के साथ ही पिछले कुछ महीनों के दौरान देश के दूसरे प्रमुख विश्वविद्यालयों में हुए छात्रसंघ चुनाव के नतीजों को भी अगर देश का राजनीतिक मिजाज मापने का पैमाना माना जाए तो संकेत साफ है कि देश के छात्र और युवा वर्ग में बेचौनी है और वह बदलाव चाहता है।
यह संकेत केंद्र सहित देश के आधे से ज्यादा राज्यों में सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए चेतावनी है। यह संकेत है कि छात्रों और नौजवानों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकर्षण की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है। लगभग साढे तीन साल पहले हुए आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को जो ऐतिहासिक जीत हासिल हुई थी उसमें छात्रों और नौजवानों की अहम भूमिका थी, लेकिन पिछले दिनों में विभिन्न राज्यों में हुए विश्वविद्यालय और महाविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में एबीवीपी की हार इस बात का संकेत है कि छात्र समुदाय का प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से मोहभंग हो रहा है।
वैसे कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि महज कुछ विश्वविद्यालयों में कुछ हजार छात्रों के बीच होने वाले चुनाव के नतीजों से सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश के राजनीतिक का मिजाज को कैसे भांपा जा सकता है? तर्क के लिहाज यह प्रश्न अपनी जगह सही हो सकता है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की राजनीति में छात्र आंदोलन का हमेशा ही महत्व रहा है। स्वाधीनता संग्राम के दौर में भी और देश आजाद होने के बाद भी हमारे राष्ट्रीय जीवन में ऐसे कई मौके आए जब छात्रों ने निर्णायक भूमिका निभाई है। आजादी के बाद 1973-74 के दौरान गुजरात और बिहार के छात्र आंदोलन को कौन भूल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप देश में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन और लोकतंत्र बहाल हुआ था। इस सिलसिले में असम के छात्र आंदोलन को भी याद किया जा सकता है और 1989 तथा 2014 के आम चुनाव में हुए सत्ता परिवर्तन को भी, जो कि छात्रों की अहम भागीदारी से ही संभव हुआ था।
बहरहाल, छात्रों के राजनीतिक रुझान में आ रहे ताजा बदलाव की बात करें तो पिछले कुछ महीनों के दौरान दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) और दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के अलावा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, असम, त्रिपुरा आदि राज्यों के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव के नतीजे एक बार फिर देश की राजनीतिक फिजां में बदलाव का संकेत दे रहे हैं। हालांकि इन चुनावों में किसी एक राजनीतिक दल से संबद्ध छात्र संगठन की ही जीत नहीं हुई है, कहीं वाम दलों से जुडे छात्र संगठनों को तो कहीं कांग्रेस से, कहीं आम आदमी पार्टी से और कहीं दलित आंदोलनों से जुडें छात्र संगठनों ने जीत हासिल की ह,ै लेकिन सभी जगह हार का स्वाद एबीवीपी को ही चखना पड़ा है।
जिन राज्यों में छात्र संघ चुनाव हुए हैं उनमें से दिल्ली और त्रिपुरा जैसे छोटे राज्यों के अलावा सभी जगह भाजपा की सरकारें हैं, लिहाजा कहा जा सकता है कि उन सरकारों ने छात्रों को और उनके अभिभावकों को अपनी पार्टी से जोड़े रखने के लिए या छात्रों में उनके भविष्य के प्रति उम्मीद जगाने जैसा कोई काम नहीं किया है।
इस सिलसिले में इस तथ्य को भी नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि देश भर में शिक्षा का बाजारीकरण हो चुका है जिसके चलते शिक्षा लगातार महंगी हो रही है। नए सरकारी शिक्षण संस्थान खुल नहीं रहे हैं और निजी शिक्षण संस्थान कुकरमुत्ते की तरह लगातार पनप रहे हैं। हालांकि इस इस स्थिति के लिए अकेले केंद्र या राज्यों की भाजपा सरकारों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। शिक्षा को मुनाफाखोरी का माध्यम बनाने के पापकर्म को बढ़ावा देने में दूसरी पार्टियों की तुलना में कांग्रेस का योगदान कहीं ज्य़ादा है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की हैसियत से नरेंद्र मोदी ने अपनी कई चुनावी सभाओं में और उनकी पार्टी ने अपने संकल्प पत्र में शिक्षा को मुनाफाखोरों के चंगुल से मुक्त कराने और उसे सस्ती तथा सर्व सुलभ बनाने का वादा किया था लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा की सरकारों ने इस मामले में कुछ करना तो दूर, सोचा तक नहीं है। ऐसे में अगर छात्रों और उनके अभिभावकों का भाजपा से मोहभंग होता है तो यह स्वाभाविक ही है।
भाजपा से छात्र और युवा वर्ग के मोहभंग की एक वजह बढ़ती बेरोजगारी भी है। भाजपा ने 2014 के चुनाव में वादा किया था कि वह सत्ता में आने पर हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोज़गार देगी। लेकिन हकीकत यह है कि सरकार न सिर्फ रोज़गार के नए अवसर पैदा करने में नाकाम रही है बल्कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर उसके अनर्थकारी फैसलों के चलते करोडों लोगों को नौकरियों व रोज़गारों से हाथ धोने पड़े हैं। ऐसे में छात्रों का अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भविष्य के लिए चिंतित और मौजूदा सरकार से असंतुष्ट होना लाजिमी है।
अगले कुछ दिनों में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में और अगले साल मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इस संदर्भ में छात्र संघ चुनावों के नतीजे भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। इन नतीजों से विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस बेहद उत्साहित है और वह इसमें ‘मोदी लहर के अंत की शुरुआतÓ देख रही है। उसका यह उत्साह अपनी जगह लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि शहरी युवाओं में एक अरसे से कांग्रेस से दूरी और नरेंद्र मोदी के प्रति आकर्षण के जो भाव कायम थे, उसमें अब कमी आने के लक्षण साफ दिखने लगे हैं। 2014 के बाद दिल्ली और बिहार के अलावा लगभग सभी विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजों पर मोदी के प्रति युवाओं में आकर्षण का असर दिख रहा था। यहां तक कि छात्र राजनीति को प्रभावित करने वाले मुद्दों और बहसों में भी इस आकर्षण की भूमिका स्पष्ट थी। एबीवीपी इस स्थिति का फायदा अपने आधार को व्यापक बनाने में उठा सकती थी लेकिन उसकी दिलचस्पी छात्रों का भरोसा जीतने में कम और सत्ता की धौंस दिखाने में ज्य़ादा नजर आई। उसके कई क्रिया-कलाप तो गुज़रे जमाने की युवक कांग्रेस की यादें ताजा कराने वाले रहे। चाहे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला से जुड़ा विवाद हो या जेएनयू में कथित राष्ट्रवाद को लेकर चली बहस हो या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में खड़ा किया गया हंगामा हो। लगभग हर मौके पर एबीवीपी के नेता अपने सत्ता-संपर्कों के दम पर विरोधी छात्र संगठनों को ध्वस्त करने की कोशिश और उसे ऐसा करने से रोकने पर विश्वविद्यालय प्रशासन और शिक्षकों से बदतमीजी करते दिखे। इस सिलसिले में पिछले दिनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लड़कियों के साथ गुंडागर्दी करने के मामले तो विद्यार्थी परिषद के लडकों बेहयाई की सारी सीमाओं को ही लांघ दिया। स्वाभाविक रूप से छात्रों को उसका इस तरह का आचरण पसंद नहीं आया। उनकी यह नाराज़गी छात्र संघ चुनावों के नतीजों में तो झलकी ही है, आने वाले विधानसभा चुनावों पर भी अपनी छाप छोड़ सकती है।

दिखने लगे सरदार सरोवर बांध के बुरे नतीजे

Sardar Sarovar Dam

अन्तत: अत्याचार का परिणाम और कुछ नहीं 
केवल अव्यवस्था ही होती है।-महात्मा गाँधी
नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध की वजह से आ रही डूब से प्रभावित मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के प्रभावितों की समस्या का निराकरण तो हो नहीं पा रहा पर इस बांध के दुष्प्रभाव गुजरात में भी साफ नज़र आने लगे हैं। इसका व्यापक विरोध भी वहां प्रारंभ हो चुका है। बांध स्थल के नजदीक केवडिय़ा से लेकर नर्मदा भड़ूच में जहां अरब सागर में मिलती ‘थीÓ (”थीÓÓ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।) वहां तक पूरा गुजरात दिनों दिन संकटग्रस्त होता जा रहा है। गुजरात की राजनीति में नर्मदा नदी और सरदार सरोवर बांध दोनों ही हमेशा केंद्र में रहे हैं। परंतु तात्कालिक लाभ पाने के लिए भविष्य मेें होने वाली स्थायी हानि की लगातार जानबूझ कर अनदेखी की गई है। जो भी इस पर चर्चा करने का प्रयास करता है उसे पहले विकास विरोधी, फिर राष्ट्रविरोधी ठहराने का बीड़ा उठा लिया जाता है। सरदार सरोवर बांध से मिलने वाले लाभ असल में दवाई के रूप में प्रयोग में आगे वाले स्टेरॉयड जैसे हैं, जिनसे तत्कालीन लाभ होना तो दिखाई देता है, परन्तु आखिर में वह शरीर को खोखला कर देता है। सरदार सरोवर से भी यही हासिल होना है। इसके अलावा और कुछ मिल पाना शायद संभव नहीं है।
इस बीच गुजरात में नौ और 14 दिसंबर को विधानसभा चुनाव हैं। प्रधानमंत्री पिछले 30 दिनों यानी एक महीने में तीन बार और दो महीनों में पांच बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं। तकरीबन सभी दौरे सरदार सरोवर बांध और नर्मदा के गुणगान से सराबोर रहे। वहीं दूसरी ओर भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार ज्योति ने गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा न करके भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसा अध्याय जोड़ दिया है, जिसे शायद कोई पढऩा न चाहे। परन्तु हम अपने समय की वास्तविकता की अनदेखी भी नहीं कर सकते। विकास और विनाश का सम्मिलन शायद इतना स्पष्ट कहीं नहीं दिखा जितना इस बार गुजरात में दिखा। मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि सरदार सरोवर बांध की नर्मदा मुख्य नहर के टूटने से केवल मकान ही नहीं टूटे है बल्कि ग्राम पंचायत, तालुका पंचायत और जि़ला वर्ग की सड़कें भी नष्ट हुई हैं। उत्तरी गुजरात के सात जिले बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। यहां नहर पर 17 बड़े पुल भी हैं। इस नहर से सिर्फ सिंचाई का ही नहीं पीने का पानी भी जाता है। जुलाई-अगस्त में बाढ़ का प्रकोप रहा ऐसे में चुनाव तैयारी आदि जिसमें प्रशिक्षण भी शामिल है मेें कर्मचारियों की अनिवार्य उपस्थिति से राहत कार्यों निर्माण कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। यहां सवाल यही उठता है कि क्या राहत कार्यों को आदर्श आचार संहिता से छूट नहीं दी जा सकती? परन्तु तर्क अब भारतीय लोकतंत्र का आधार नहीं है, अब तो निर्णय आ जाता है, जो कि पूर्णतया बाध्यकारी होता है।
बहरहाल सरदार सरोवर बांध का विरोध अब धीरे-धीरे गुजरात की अनिवार्यता बनती जा रही है। गुजरात में 60 हज़ार करोड़ रुपए की लागत से बनने वाली कल्पसार योजना को ही लें इसके अंतर्गत खंभात की खाड़ी में 30 किलोमीटर का बांध बनाने के साथ ही साथ समुद्र में मीठे जल का सबसे बड़ा जलाशय बनाने का प्रावधान भी है। इसके फलस्वरूप 3000 करोड़ रुपए की लागत से भडूच जिले में नर्मदा किनारे स्थित भाड़भूत गांव के नजदीक एक बैराज का निर्माण प्रस्तावित है। आठ अक्टूबर को जब प्रधानमंत्री भड़ूच के गोल्डन ब्रिज पर कार्यक्रम में भाग ले रहे थे, तो करीब 250 मछुआरों ने 40 नौकाओं पर काले झंडे लगाकर उनका विरोध किया। उन्हें और अन्य कई प्रभावितों को गिरफ्तार भी किया गया। इस बैराज के कारण समुद्र का पानी आना बंद होने से बेशकीमती हिलसा मछली का उत्पादन कमोवेश बंद हो जाएगा। इसके अलावा मछलियों की करीब 80 अन्य प्रजातियों पर भी जबरदस्त विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इतना ही नहीं इसका विपरीत प्रभाव 100 किलोमीटर तक पड़ेगा और 15000 परिवार प्रभावित होंगे।
इस इलाके से सालाना करीब 500 करोड़
रु पए की मछली बाहर भेजी जाती है जो बैराज के बन जाने के बाद 25 प्रतिशत ही रह पाएगी। परन्तु न देश के प्रधानमंत्री और न गुजरात के मुख्यमंत्री इसे लेकर चिंतित हैं। इतना ही नहीं गुजरात सरकार ने दावा किया है कि उसे इस बैराज निर्माण के लिए जबरदस्त संरक्षण मिला है। 54 लिखित आवेदनों में से 32 इसके पक्ष में थे। इन 32 मेें अधिकांश या कमोवेश सभी उद्योगों के प्रतिनिधि ही थे। पर्यावरण प्रभाव आकलन को लेकर सक्रिय कार्यकर्ताओं की आपत्तियों की अनदेखी की गई। मछुआरों और किसानों की आजीविका को होने वाले प्रभावों की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया। वैसे मछुआरे 2016 में बैराज का काम रोकने की धमकी दे चुके हैं।
इस सारी प्रक्रिया में प्रभावितों के पुनर्वास का कोई ध्यान नहीं रखा गया। जबकि
परिस्थितियां तो सरदार सरोवर बांध के निर्माण के बाद से ही बदतर होने लगीं थीं। वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि भाड़भूत बैराज के बन जाने के बाद क्षारीयता का प्रभाव कम होगा और नर्मदा से स्थानीय लोगों और किसानों की पानी की आपूर्ति बेहतर होगी। परन्तु मुख्य प्रश्न यह है कि सरदार सरोवर बांध के बनने से पहले तो ऐसी (खारेपन की) कोई समस्या नहीं थी। तो फिर अब समुद्र अंदर क्यों घुस रहा है? पहले समस्या खड़ी कीजिए और फिर समस्या का समाधान कीजिए। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले 90 हज़ार करोड़ रु पए की लागत से सरदार सरोवर बांध बनाइये और फिर इसके दुष्प्रभाव रोकने के लिए 60 हज़ार करोड़
रु पए की कल्पसार योजना बनाइए। आखिरकार दोनों ही अपने-अपने स्तर पर विनाशकारी ही सिद्ध होंगी, परन्तु विकास की इस अंधी दौड़ में सिर्फ तात्कालिक लाभ और धन निवेश को ध्यान में रखा जा रहा है। जबकि इसका सबसे आसान समाधान यह था कि सरदार सरोवर बांध से लगातार व ज्य़ादा मात्रा में पानी छोड़ दिया जाए इससे खारे पानी की समस्या ही नहीं होगी। हमारे योजनाकत्र्ताओं ने नर्मदा जैसी सदानीरा नदी को मौसमी नदी में बदल डाला और इस मानव निर्मित समस्या ने हज़ारों नागरिकों की जीविका के साथ ही साथ लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि को क्षरीय बनाना शुरू कर दिया है।
उधर दूसरी ओर एक आधुनिक धर्मगुरू जग्गी वासुदेव अपनी रैली ‘फार रीवरÓ को लेकर भारत को नाप डाल रहे हैं। उनके इस अनूठे प्रयास को देखकर एक बहुत पुरानी उक्ति याद आ रही है, जिसमें कहा गया था कि, ‘मेरा कार्य इतना गुप्त है कि मैं खुद नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ।Ó वह जानते ही नहीं हंै कि नदी क्या होती है और वह कैसे प्रवाहित बनी रहे? बड़े-बड़े प्रायोजकों के सहारे हो रहा यह आयोजन अपने आयोजकों की गतिविधियों से ही चर्चा में है। इन पर पर्यावरण कानूनों की अनदेखी, अतिक्रमण के साथ ही साथ आपराधिक मामले दर्ज हैं। परन्तु आंख मंूदे बैठा समाज सिर्फ जयकारे लगाना जानता है और असलियत सामने आने पर गाली देना। वह चेतावनी को नकारता है और इसी का परिणाम भुगत भी रहा है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि आखिरकार नीयत ही हमारी नियति का निर्धारण करती है। इसीलिए साध्य के लिए गांधी साधन की पवित्रता पर सर्वाधिक ज़ोर देते थे।
मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा नदी पर बने इंदिरा सागर बांध के किनारे हनुवंतैया में 80 दिन का नदी महोत्सव मना रही है। इस बांध से विस्थापित समुदाय अभी भी भटक रहा है। सरदार सरोवर बांध प्रभावित अभी तक डटे हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन और उसकी नेता मेधापाटकर वहां संबल बनी हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय समाज अपने भविष्य की आहट को समझे। स्टेरॉयड की बजाए थोड़े दिन कड़वी मगर असरदार दवाई का सेवन करे। इसी में सब का भला है।

बैंड, बाजा और भजन से राजनीति

Diggi
अपनी राजनीतिक बयानबाजी की वजह से कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह हमेशा सुर्खियों में रहे हैं। अपने गुरु अर्जुन सिंह की तरह उनका भी प्रिय शगल है संघ परिवार पर गाहे-बगाहे निशाना साधना। आश्चर्य नहीं कि वे हमेशा भगवा ताकतों के निशाने पर रहे हैं। उनकी छवि हमेशा हिन्दू विरोधी नेता की है।
पर बहुत कम लोगों को मालूम है कि वास्तविक जीवन में वे एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति हैं, कर्मकांडी और पूजा-पाठी हिन्दू। जब वे दस वर्षों तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो अक्सर उनके बारे में मजाक चलता था कि मध्य प्रदेश की समस्त स्त्रियाँ मिलकर भी उतने उपवास नहीं रख सकतीं जितना अकेले दिग्विजय सिंह रखते हैं। मुन्नू को (यह घर में उनके दुलार का नाम था) धार्मिक संस्कार विरासत में उन्हें अपनी मां से मिले थे। उनके एक रिश्तेदार बताते हैं, ‘ब्रह्म मुहूर्त में तड़के उठाकर अपने राघोगढ़ किले में वे भजन प्रारम्भ कर देती थीं।Ó
विधि-विधान में जितने उपवास बताए गए हैं, लगभग सब के सब वे रखते हैं। लगभग हर साल वे वृन्दावन में गोवर्धन परिक्रमा करते हैं। मुख्यमंत्री रहते तो एक दफा वे पूरे मंत्रिमंडल को अपने साथ गोवर्धन परिक्रमा पर ले गए थे। 24 किलोमीटर पैदल चलने के बाद उनके कई सहयोगी पाँव में छालों की वजह से कई दिन तक लंगड़ाते रहे थे। छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ स्थित बमलेश्वरी मंदिर सहित ज्य़ादा से ज्य़ादा प्रमुख देवी मंदिरों तक नवरात्रि के दौरान पहुँचने की वे कोशिश करते हैं। वे अक्सर महाराष्ट्र के पंढरपुर की तीर्थ यात्रा पर जाया करते हैं।
30 सितम्बर को दशहरे के दिन से दिग्विजय सिंह एक और तीर्थ यात्रा पर निकले हैं। वे पैदल चलते हुए नर्मदा परिक्रमा कर रहे हैं, नदी के दोनों किनारों की 3,800 किलोमीटर की पदयात्रा।. सत्तर साल के दिग्विजय के लिए शायद उनके जीवन की यह सबसे विकट और विवादास्पद तीर्थयात्रा है। इस यात्रा के लिए उन्होंने राघोगढ़ किले में अपने खानदान का पारंपरिक दशहरा पूजन भी इस साल, शायद पहली दफा, नहीं किया। दिग्विजय राजपूत जागीरदार ठिकाने से आते हैं और इसके पहले अपने किले की पारंपरिक शस्त्र पूजा उन्होंने शायद ही कभी छोड़ी हो। इस यात्रा के लिए उन्होंने कांग्रेस के महासचिव पद से बाकायदा छह महीनों की लम्बी छुट्टी ली है। साथ में चल रही हैं, उनकी 45-वर्षीय पत्नी अमृता राय, जिन्होंने यात्रा पर जाने के लिए टीवी पत्रकार की अपनी नौकरी छोड़ दी।
राजा साहेब, जैसा कि उनके समर्थक उन्हें संबोधित करते हैं, इस बात से इंकार करते हैं कि इस बहुचर्चित तीर्थ यात्रा के पीछे कोई राजनीतिक मकसद है। वे इसे नितांत आध्यात्मिक और धार्मिक यात्रा बताते हैं। पर लोग इसे मानने को तैयार नहीं। ‘यह विशुध्द राजनीतिक यात्रा है,Ó पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने कहा। बीजेपी में होने के बावजूद गौर राजा साहेब के मित्रों में शुमार किये जाते हैं।
अध्यात्म एक व्यक्तिगत और निजी मामला है, पर दिग्विजय की यात्रा न व्यक्तिगत है, न ही निजी। उनके साथ अच्छी-खासी भीड़ चल रही है। बड़े-छोटे कांग्रेसी नेता जगह-जगह पर यात्रा में शामिल होकर उनका उत्साह बढ़ा रहे हैं। रास्ते में पडऩे वाले गांव-कस्बों और शहरों में उनका स्वागत हो रहा है।. पोस्टर और बैनर लगाये जा रहे हैं। वंदनवार सज रहे हैं। रंगोली बन रही है। औरतें आरती की थाली और सिर पर मंगलकलश लेकर स्वागत में खड़ी रहती हैं। कई जगह बैंड-बाजा और भजन पार्टियाँ साथ चलती हैं। खाने-पीने का इंतजाम रहता है।
स्वागत और हौसला अफजाई के लिए आ रही इस भीड़ में खासी तादाद कांग्रेसियों की है क्योंकि सफर पर निकलने के पहले दिग्विजय सिंह ने नर्मदा अंचल में अपने संपर्क सूत्रों को खबर की थी। जाहिर है उनमें से ज्य़ादातर कांग्रेसी थे। साल भर बाद मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। स्वागत के लिए आने वालों की भीड़ में काफी टिकटार्थी भी अपने समर्थकों के साथ शामिल हो रहे हैं।
दिग्विजय राजनीतिक सवालों पर चुप्पी ओढ़े रहते हैं। लेकिन खेत-खलिहानों और गांव-जवारों में मिलने वाले लोगों से, खासकर खेतिहर मजदूरों और किसानों से वे सुख-दु:ख की बातें करते हैं। कच्ची सड़कों, पगडंडियों और अक्सर घुटने-घुटने पानी से गुजरते हुए यह यात्रा उन इलाकों तक भी पहुँच रही है जहाँ नेता केवल वोट मांगते वक्त पहुँचते हैं। कई लोग उन्हें अपनी व्यक्तिगत या इलाके से सम्बंधित समस्याओं के बारे में दरखास्त थमाते देखे जा सकते हैं।
साथ में चल रही एक टीम मिनटों में यात्रा के फोटो और विडियो इन्टरनेट पर अपडेट करते रहती है। यह टीम इलाके की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी रिकॉर्ड इकठ्ठा कर रही है। मध्य प्रदेश के 110 और गुजरात के 20 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरते हुई यह यात्रा छह महीने बाद जब समाप्त होगी तो इस इलाके की अंदरूनी राजनीतिक स्थिति का पूरा खाका दिग्विजय सिंह के दिमाग में होगा। एक दिलचस्प पहलू यह है कि जब तक यह यात्रा गुजरात में प्रवेश करेगी, वहां चुनाव प्रचार शबाब पर होगा।
इस तीर्थ यात्रा के असली मकसद में झाँकने के लिए हमें राजनीति को खंगालना होगा। जिस वक्त दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस महासचिव के पद से छुट्टी के लिए दरखास्त दी थी, वह उनके जीवन के कठिनतम समयों में से एक था। उनका सितार अस्त हो रहा था। गोवा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद पार्टी वहां सरकार नहीं बना पाई थी। राज्य के पार्टी प्रभारी के नाते उनकी थू-थू हो रही थी। सारे दुश्मन हावी होने लगे थे। उनके मित्रों को भी उनका राजनीतिक अस्त सामने दिख रहा था।
नर्मदा मैय्या ने उस हालत में से दिग्गी राजा को उबार लिया है।
यात्रा का एक और राजनीतिक पहलू है ….. नर्मदा के किनारे जन्मे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की हाल में संपन्न हुई 145-दिवसीय नर्मदा सेवा यात्रा। हालाँकि चौहान हेलीकाप्टर पर सवार होकर नर्मदा यात्रा पर निकले थे, पर उनकी यात्रा का मकसद भी राजनीतिक ही ज्य़ादा था। मध्य प्रदेश सरकार ने उस यात्रा पर 40 करोड़ रूपये खर्च किये। उस उत्सवधर्मी यात्रा में शिरकत कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दलाई लामा से लेकर पीनाज मसानी और अनूप जलोटा जैसी तमाम हस्तियों ने उसे रंगारंग बनाया था। बाबूलाल गौर ने उसे ‘शाही यात्राÓ करार दिया था।
मध्य प्रदेश सरकार अपने 52 शहरों का मलजल अभी भी नर्मदा में बहा रही है, नदी का प्रदूषण वैसे ही है, बालू लूटा जा रहा है, अतिक्रमण से कैचमेंट सिकुड़ रहा है और पेड़ वैसे ही कट रहे हैं. पर नमामि देवी नर्मदे अभियान प्रारंभ कर शिवराज सिंह ने नर्मदा पुत्र होने की वाह-वाही जरूर लूट ली।
राजनीतिक विश्लेषकों का ख्याल है कि दिग्विजय सिंह की यात्रा ने सरकारी नर्मदा यात्रा का रंग फीका कर दिया है। इलाके के लोग कह रहे हैं कि किसान पुत्र शिवराज तो हेलीकाप्टर से उड़कर आये थे पर राजा साहब अपनी रानी के साथ पाँव-पाँव चलकर आ रहे है। चौहान के सलाहकार इस बात को नोट कर रहे हैं कि दिग्विजय की यात्रा उन्ही देहाती इलाकों से गुजर रही है जो शिवराज सिंह का वोट बैंक समझे जाते हैं। सरकार में बैठे लोग इस यात्रा को दिलचस्पी से देख रहे हैं क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि दिग्विजय सिंह पूरे राज्य में प्रभाव रखने वाले एकमात्र कांग्रेसी नेता हैं।
दिग्विजय की यात्रा का हौवा इस कदर छा गया है कि राज्य सरकार कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती। दो उदाहरण- दिग्विजय सिंह ने अपनी यात्रा के दौरान मांग की कि परिक्रमा के रास्ते में यात्री विश्रामालय बनाये जाने चाहिए। राज्य कैबिनेट ने अगली मीटिंग में ही 92 विश्रामालय और 190 घाट बनने की घोषणा कर दी। उदहारण, दो- शिवराज सिंह ने अपनी नमामी देवी नर्मदे पर फिल्मकार प्रकाश झा से एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनवाई थी। दो करोड़ रुपये की लागत से बनवाई गयी 45 मिनट की यह फिल्म अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में रिलीज होनी थी। उसका प्रेस नोट भी तैयार हो गया था, पर ऐन मौके पर फिल्म को इसलिए वापस डिब्बे में बंद कर दिया गया क्योंकिं मुख्यमंत्री के सलाहकारों का ख्याल था कि अभी रिलीज होने से दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा को और पब्लिसिटी मिल जाएगी। अब यह फिल्म देखने के लिए शायद अगले साल अप्रैल तक इन्तजार करना पड़े।
द्यद्गह्लह्लद्गह्म्ह्यञ्चह्लद्गद्धद्गद्यद्मड्ड.ष्शद्व

जिसके दर्शन मात्र से पाप कटते हैं
श्रद्धा और आस्था से ओत-प्रोत हजारों व्यक्ति हर साल नर्मदा जी की कठिन यात्रा पर निकलते हैं। वही नर्मदा जिसके बारे में हिन्दुओं में मान्यता है कि उसके दर्शन मात्र से पाप कट जाते हैं। नर्मदा परिक्रमा के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहलू को समझना हो तो साहित्यकार अमृतलाल वेगड़ को पढि़ए। 90 साल के वेगड़ 1977 से कई दफा नदी की परिक्रमा कर चुके हैं और इस विषय पर उन्होंने गुजराती और हिंदी में कई सुन्दर किताबें लिखी हैं। अपनी जिन्दगी का लगभग एक-चौथाई समय उन्होंने इसके किनारे की उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर पैदल चलते हुए गुज़ारा हैं।
अगर वेगड़ के यात्रा वृतांत को पढने का आपके पास समय नहीं, तो कोई बात नहीं। आप यह छोटा सा किस्सा पढ़ लें। सचमुच का किस्सा।
मध्य प्रदेश के मालवा में कुछ जगहों के नाम इतने संगीतात्मक हैं कि मन में सितार की तरह बज उठते हैं…….. गंधर्वपुरी, तराना, ताल, सोनकच्छ। इन्ही में से एक है क्षिप्रा, इंदौर के पास का एक कस्बा। उस कस्बे के पास से गुजरते हुए पिछले दिनों एक पत्रकार मित्र को एक अनोखा नर्मदा यात्री मिला। भगवा कपड़े पहने उस यात्री की उम्र का अंदाज लगाना मुश्किल था। उसने एक टूटी साइकिल पर 2,600 किलोमीटर लम्बी परिक्रमा करने की ठानी थी। नितांत अकेले। उसकी सारी जमा-पूँजी के साथ-साथ उस साइकिल पर सवार था एक रोबीला जर्मन शेफर्ड कुत्ता। तमाम सामान से लदी फदी उस साइकिल को पैडल मारने में वह अनोखा तीर्थ यात्री भरी दोपहरी में हांफ रहा था। पर उसे यह गंवारा नहीं था कि अपने खास मित्र को वह पैदल चलने कहे।
नर्मदा की पवित्र यात्रा पर कुत्ता क्यों? ‘मेरे पीछे घर पर कौन उसे देखेगा,Ó उसका मासूम जवाब था।
इन दो अनोखे तीर्थ यात्रियों के किस्से से मालूम पड़ता है कि नर्मदा के किनारे बसने वाले लोगों के जीवन में इस नदी का और उसकी परिक्रमा का क्या महत्व हैं। वह कुत्ता और उसका मालिक घर-परिवार से दूर महीनों नर्मदा के किनारे गुजारेंगे। मांग कर खाएंगे। उपले और जलावन इकठ्ठा कर अपना खाना खुद पकाएंगे। जहाँ आश्रय मिला, सो जायेंगे और अगर जगह नहीं मिली तो तारों की छाँव है ही। और साथ में करेंगे नर्मदा मैय्या की पूजा।
नर्मदा की महत्ता इस इलाके में इसलिए है क्योंकि इसके आँचल में पलने वाले लाखों लोगों के लिए यह नदी सदियों से भरण-पोषण का जरिया रही है। इस इलाके की यह एकमात्र नदी है जो कभी सूखती नहीं है। मध्य प्रदेश में अमरकंटक की पहाडिय़ों से निकल कर 1,300 किलोमीटर का सफर तय कर नर्मदा जी जब भरुच (गुजरात) के पास अरब सागर में मिलती हैं तो रास्ते में जीवन बांटते चलती हैं। इसका पानी न केवल मनुष्यों और पशु-पक्षियों के पीने के काम आता है, बल्कि खेतों को सींचता है, कल-कारखाने चलाता है और बिजली पैदा करता है। हजारों मछुआरों के परिवार इसी नदी के सहारे पलते हैं। पूरे इलाके के असंख्य नदी-नाले, तालाब, कुंए और टूयुबवेल इसीकी बदौलत जिंदा रहते हैं।

महाराष्ट्र में है ‘क्लीन चिट’ सरकार

fadnavis

देवेंद्र फडणवीस एक अच्छे इंसान हैं। वह एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे मंत्रियों को किसी भी तरह बचा ले जाने में, माहिर माने जाते हैं। यह बात अलग है कि विपक्ष के कड़े रुख के चलते उन्हें इस दफा जांच का आदेश देना पड़ा, लेकिन जांच के नतीजों के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है।Ó यह कहना है महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण का।
महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की देवेंद्र फडणवीस सरकार तीन साल पूरे करने जा रही है। लेकिन भ्रष्टाचार को खत्म करने के मुद्दे को लेकर बनी इस सरकार पर आए दिन भ्रष्टाचार के नए नए आरोप लग रहे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में विपक्ष में बैठी कांग्रेस-एनसीपी एक जुट होकर सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार की पोल खोल रही है।
जहां एकनाथ खडसे पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा था। वहीं, इस साल हाउसिंग मंत्री प्रकाश मेहता और सुभाष देसाई पर लगे आरोपों की जांच चल रही है, लेकिन दोनों की अपने अपने पदों पर बने हुए हैं। फडनवीस ने साफ कर दिया है कि ‘एसआरए प्लान्सÓ में घोटाले के आरोप में फंसे मेहता की जांच लोकायुक्त करेंगे। लेकिन सवाल है कि आखिर मेहता के मामले में बरती जा रही नरमी के पीछे राज क्या है।
भ्रष्टाचार के आरोपों की फेहरिस्त के चलते मुख्यमंत्री को मंत्रियों सहित विधायकों और सांसदों को भ्रष्टाचार से दूर रहने की नसीहत देनी पड़ी। साथ ही यह भी चेतावनी दी है कि वह भ्रष्टाचार से दूर नहीं होते हैं तो उन्हें अगली बार चुनावों से दूर कर दिया जायेगा। वैसे, मुख्यमंत्री के इन प्रयासों से उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बरकरार है।
राज्य के हाउसिंग मंत्री प्रकाश मेहता पर आरोप है कि उन्होंने दक्षिण मुंबई के ताड़देव इलाके में मौजूद एमपी मिल्स कंपाउंड की करीब एक लाख वर्ग फुट की जमीन बिल्डर को दी, जिससे मेहता को कथित तौर पर 500 से 800 करोड़ का फायदा हुआ। दरअसल, दक्षिण मुंबई की यह जमीन (स्लम रिहैबिलिटेशन अथॉरिटी) परियोजना के तहत झुग्गी में रहने वालों के लिए मंजूर हुई थी। आरोप है कि मुख्यमंत्री की जानकारी के बिना मेहता ने एक बिल्डर को फायदा पहुंचाने के लिए एमपी मिल्स कंपाउंड की फाइल आगे बढ़ाई।
अफसरों ने जब इस बारे में मेहता से पूछा तो उन्होंने न सिर्फ झूठ बोला बल्कि मुख्यमंत्री को भी इस बारे में पता होने की बात कही, मेहता ने फाइल पर लिख दिया कि उनकी मुख्यमंत्री से बात हो गई है और उन्होंने मंजूरी दे दी। लेकिन जब फडणवीस ने इस बारे में कोई भी जानकारी होने से इंकार किया तो मेहता ने दावा किया कि उन्होंने कई फाइलें फडनवीस को दी थी वहीं, उन्हें पता ही नहीं था कि उन्होंने इस विशेष मामले का जिक्र मुख्यमंत्री से नहीं किया था। वैसे, विपक्ष के दबाव के बावजूद फडनवीस ने मेहता की दलीलों को कबूल कर लिया और संतुष्टि के लिए मेहता पर लगे आरोपों की जांच को लोकायुक्त से कराये जाने की बात कही।
असंतुष्ट कांग्रेस-एनसीपी ने मेहता की मुसीबत और बढ़ा दी और उनके द्वारा किए गए एक और घोटाले को उजागर किया। यहां पर आरोप है कि घाटकोपर पश्चिम स्थित निर्मल होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड (एनएचपीएल) के एक प्राइवेट बिल्डर को फायदा पहुंचाया गया था। 1999 में महाराष्ट्र हाउसिंग एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (म्हाडा) एनएचपीएल को ट्रांजिट शिविर का निर्माण करने के लिए 18,902 वर्ग मीटर की जमीन दी थी लेकिन एनएचपीएल के पूरा काम न करने पर म्हाडा ने ‘अलॉटमेंट 2006 में रद्द कर दिया था। आरोप के मुताबिक मेहता ने म्हाडा के साथ जमीन के अलॉटमेंट को लेकर हस्तक्षेप किया, लेकिन साल 2012 में इसे निरस्त कर दिया गया था। कांग्रेस और एनसीपी के अनुसार कि मेहता ने फिर से एनएचजीएल को जमींन अलॉट कर दी। बकौल पूर्व मुख्यमंत्री चौहान, ‘प्रकाश मेहता पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह के करीबी हैं, इसीलिए फडणवीस कोई सख्त फैसला लेने से बच रहे हैं। कल तक विपक्ष में बैठ कर सत्ताधारी के आरोपों की जांच करवाने वाली सरकार आज खुद सत्ता में बैठ कर चुप क्यों है?Ó
फडणवीस का ड्रीम प्रोजेक्ट गले की फांस!
एक और मामले में फडनवीस को अपने ड्रीम प्रोजेक्ट नागपुर-मुंबई समृद्धि एक्सप्रेसवे के इंचार्ज बनाये गए सीनियर नौकरशाह राधेश्याम मोपलवार को सस्पेंड करना पड़ा। मोपलवार की एक दलाल के साथ हो रही बातचीत की सीडी सामने आने के बाद राज्य की बीजेपी सरकार पर शिवसेना समेत विपक्षी पार्टियों ने सवाल खड़े किए थे। जिसके बाद मुख्यमंत्री को ये कड़ा फैसला लेना पड़ा। इस सीडी में करोड़ों रुपये का भूखंड एक बिल्डर को देने के लिए सौदेबाजी की रिकॉर्डिंग थी।
एक्सप्रेसवे का चार्ज संभालने के बाद मोपलवार ने इगतपुरी और सिन्नर तालुका के दौरे के दौरान एक गलत बयान देते हुए सरकार की छवि भी खराब करने की कोशिश की थी। दरअसल, उन्होंने कहा था कि मुख्यमंत्री एक्सप्रेसवे का निर्माण एसपीवी (स्पेशल पर्पस वेहिकल) द्वारा कराएंगे। इस दौरान जब फडणवीस से इस बार में पूछा गया तो मुख्य सचिव सुमित मलिक ने साफ किया कि एमएसआरडीसी खुद एसपीवी है, मोपलवार को समृद्धि के लिए एसपीवी क्यों चाहिए? हालाकिं, मोपलवार पर लगे इन आरोपों की जांच हुई लेकिन तब तक वह करोड़ों रुपये बना चुके थे।
एनपीसी के प्रवक्ता नवाब मलिक सवाल पूछते हैं, ‘क्यों मेहता और अकेले मोपलवार को दोषी ठहराया जाए? इन सबके लिए सीएम भी उतने ही जिम्मेदार हैं। कैबिनेट में ज्यादातर वे लोग आज मिनिस्टर बने बैठे हैं, जो भ्रष्ट है जिनके ऊपर हत्या से लेकर बैंकिंग धोखाधड़ी और भूमि अधिग्रहण सहित कई आरोप लगे हुए हैं। जिनको अनदेखा करते हुए सरकार अपनी साफ छवि होने का दिखावा कर रही है। इसलिए समृद्धी प्रोजेक्ट की न्यायिक जांच होनी चाहिए। इससे पता चल जाएगा कि सरकार के कैसे किसानों से सस्ते दामों में उनकी जमीन खरीदी और न बेचने पर उन पर दबाव बना उन्हें मजबूर किया गया है।Ó
एकनाथ खडसे को क्लीनचिट, लेकिन कैबिनेट में नहीं हुई वापसी
पिछले साल फडणवीस सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते अपने एक ऐसे मंत्री को हटाया था, जिसे एक वक्त पर मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी माना जाता था। जी हां, हम बात कर रहे है फडणवीस सरकार में राजस्व मंत्री रहे एकनाथ खडसे की जिन्हें लैंड डील समेत कई विवादों में नाम आने के बाद जून 2016 में त्यागपत्र देना पड़ा था। दरअसल, खडसे पर एमआईडीसी की जमीन को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर खरीदने का आरोप लगा था। इस आरोप में खडसे की पत्नी मंदाकिनी और दामाद गिरीश चौधरी को भी जांच के दायरे में रखा गया।
आरोप था कि तीनों ने अप्रैल 2016 में पुणे में तीन एकड़ जमीन खरीदी थी और 3.75 करोड़ रुपए का भुगतान किया था। इसके लिए 1.37 करोड़ रुपये स्टाम्प ड्यूटी के तौर पर चुकाए गए थे। असलियत यह है कि इतनी ड्यूटी 31.01 करोड़ की डील पर चुकाई जाती है। इस पर सवाल यह उठा कि आखिर खडसे ने इतनी ज्यादा स्टाम्प ड्यूटी क्यों दी? इसी की जांच के लिए संयुक्त आयोग बनाया गया, और साल भर बाद अब खडसे को इस मामले ‘क्लीन चिटÓ भी हासिल हो गई है। वैसे, आरोप साबित नहीं होने के बावजूद, फिलहाल खडसे को कैबिनेट से दूर रखा गया हैं।
यह बात जुदा है कि मुख्यमंत्री यह कबूलने को तैयार नहीं हैं कि उनके कैबिनेट का हिस्सा बने लोग भ्रष्ट हैं और यही वजह है कि आरोपों के बाद भी मिनिस्टरों के क्लीन चिट दे दी जाती है। जैसे, राज्य की महिला व शिशु कल्याण मंत्री पंकजा मुंडे द्वारा चिक्की घोटाले का मामला हो या नोटबंदी के दौरान मंत्री सुभाष देशमुख की कार से 91 लाख रुपये नकदी का पकड़ा जाना हो। इन दोनों मामलों को हवा तो खूब मिली लेकिन सरकार ने इन पर कार्रवाई करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सुभाष देसाई शिवसेना के वरिष्ठ नेता हैं, शिवसेना भाजपा सरकार में सहयोगी दलों के तौर पर शामिल है।
विनोद तावड़े जो शिक्षा मंत्री जैसे सम्मानित पद हैं, वे भी विपक्ष के निशाने पर हैं। तावड़े पर अपनी शैक्षिक योग्यता गलत बताये जाने के मामले में उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं किए जाने पर भी विपक्ष फडऩवीस को माफ करने तैयार नहीं है।
भले ही लोकायुक्त जांच के बाद रविंद्र वायकर को क्लीन चिट मिल गई है लेकिन, विपक्ष के गले फैसला नहीं उतर रहा है। कांग्रेस के संजय निरुपम ने वायकर ट्रस्ट की जमीन के नाम पर गैऱकानूनी विकास का आरोप लगाया था। हालाकिं, अब मामले में वायकर को करीब करीब क्लीनचिट मिलने के बाद वह निरुपम पर 10 करोड़ रूपये की मानहानि का दावा ठोकने की तैयारी में है।
जून 2015में कैबिनेट मिनिस्टर पंकजा मुंडे पर आदिवासी बच्चों के स्कूल के लिए चक्की, कालीन, बर्तन, किताबें, नोटबुक्स, वॉटर फिल्टर और अन्य सामानों की खरीदी में, करीब 206 करोड़ रुपए का ठेका नियमों को नजरअंदाज कर जारी करने का आरोप था। यह स्कूल को राज्य सरकार चलाती है। खैर, घोटाले में एसीबी द्वारा मुंडे को क्लीन चिट दे दी गई थी। हालांकि विपक्ष ने इस रिपोर्ट को लीपापोती करार दिया था।
कांग्रेस ने क्लीनचिट को खतरनाक बताया
कांग्रेस मुंबई अध्यक्ष और संजय निरुपम कहते हैं, ‘इस तरह के चयनात्मक भ्रष्टाचार और क्लीन चिट्स भी खतरनाक हैं।Ó
निरुपम का आरोप लगाया कि फडनवीस और महाराष्ट्र सरकार दोनों इस मोपलवार के बारे में जानते थे और इसके बावजूद कठोर कार्रवाई करने में विफल रहे।
नवाब मलिक कहते हैं, ‘इस सरकार में बहुत भ्रष्टाचार है क्योंकि वहां इसे रोकने के लिए कोई राजनीतिक इच्छा नहीं है और फडऩवीस खुद इन आरोपों का बचाव करना चाहते है।Ó मलिक मुख्यमंत्री पर निशाना साधते हुए दावा करते हैं कि अगर मोपलवार का ऑडियो टेप के लीक होकर वायरल न हुआ होता तो सीएम उस पर भी कोई कार्रवाई नहीं करते।
विपक्ष में कमान संभाले धनंजय मुंडे फडनवीस को एक कमजोर मुख्यमंत्री मानते हैं। मुंडे कहते हैं ‘महाराष्ट्र के सीएम देवेंद्र फडणवीस जो पिछली सरकार में आरोपों का सामना कर रहे मंत्रियों के इस्तीफे की मांग करते थे, वहीं अब अपनी सरकार में आरोपों में फंसे मिनिस्टरों का बचाव करते दिख रहे है।Ó
अक्टूबर 2014 में जब बीजेपी महाराष्ट्र में सत्ता में आई, तब सीएम ने स्वच्छ प्रशासन का वादा किया था। लेकिन अब पार्टी और सरकार के मंत्री, अनैतिकता और भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे हैं।
सोचने वाली बात यह है कि कुछ दिनों पहले ही राज्य कैबिनेट के चार मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कराए गए हैं और एक को तो पुलिस ने गिरफ्तार भी किया, जिसे बाद में जमानत पर रिहा कर दिया गया। ये वही मंत्री है जिसे केंद्र और राज्य में बीजेपी की सहयोगी पार्टी के चीफ उद्धव ठाकरे ने मंत्री बनाये जाने की सिफारिश की थी। हैरत की बात है कि सिंचाई घोटाले में पूर्व डिप्टी सीएम और एनसीपी सांसद की गिरफ्तारी की मांग करने वाले फडणवीस इन मामलों में दोहरी नीति क्यों अपना रहे हैं।
आरोपों में फंसे लोगों के तारनहार फडनवीस
संभाजी पाटिल निलंगेकर, जो कांग्रेस के एक पूर्व मुख्यमंत्री शिवाजीराव पाटिल निलंगेकर के पोते हैं, उन्हें फडऩवीस का करीब माना जाता है। संभाजी को एक मराठा चेहरे के रूप में पिछले साल कैबिनेट में शामिल किया गया। उन्हें बीजेपी के राज्य अध्यक्ष रावसाहेब दानवे को चुनौती देने वाला माना जा रहा है। संभाजी का नाम एक कंपनी जिसपर तीन बैंकों के साथ धोखाधड़ी करके 40 करोड़ रुपया हथियाने का आरोप है, में शामिल है। इस मामले में सीबीआई की दायर एफआईआर में संभाजी का नाम भी है। इसके अलावा एक और मंत्री जयकुमार रावल के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से सरकारी जमीन को हथियाने का मामला दर्ज है।
बहरहाल, फडणवीस की कैबिनेट पर विपक्ष आरोपों की बौछार कर रहा है, लेकिन लगता है उन्हें इस बात में अब जरा भी दिलचस्पी नहीं है कि कौन क्या बोलता है। यही वजह है कि आरोपों के बाद मंत्रियों को आसानी से क्लीनचिट मिल जाती है और फडणवीस इस बात का दावा करते हैं कि हमने जांच कराई और आरोप गलत निकले।
भले ही मुख्यमंत्री अपने कैबिनेट का दामन पाक-साफ होने का दावा कर रहे हैं लेकिन आरोपों के बौछारों के चलते उनकी साफ छवि को हो सकने वाले नुकसान से वह परेशान नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता। जानकारी के मुताबिक, सरकार मंत्रियों के आये दिनों सामने आ रहे घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों के चलते ही फडणवीस अपनी कैबिनेट में फेरबदल करने मूड में हैं। अब इसे विपक्ष का दबाव कहे या आने वाले 2019 के चुनाव में अपनी सरकार की साफ छवि जनता को दिखाने की तैयारी।
‘वाकई यह एक क्लीन चिट सरकार है। मजेदार बात यह है कि फडणवीस ने अपने मंत्रियों से लेकर विधायकों तक को चेतावनी दे रहे हैं कि भ्रष्टाचार से दूर रहें। उनकी ये हिदायतें संकेत है कि उन्हें भनक है कि इन घोटालों और आरोपों का असर आने वाले चुनाव में वोट पर पड़ सकता है। देखते हैं कि मुख्यमंत्री कब तक अपने मंत्रियों को क्लीनचिट देकर सरकार की साफ छवि होने का दावा करते हैं।आम जनता इतनी भोली भाली भी नहीं है।सही गलत सब जानती है। 2019 के चुनावी नतीजे यह साफ दिखा देंगे। बड़े आत्मविश्वास के साथ कहती हैं ‘आपÓ से अलग हुईं अंजलि दमानिया। सामाजिक कार्यकर्त्ता अंजलि दमानिया का आरोप है कि उन्हें पाकिस्तान के कराची से एक धमकी भरा फोन आया था जिसमें उन्हें खडसे के खिलाफ उठाए मामलों को वापस लेने कहा गया। उनका कहना है कि छान बीन से पता चला है कि वह फोन नंबर महज़बीं के नाम है जो कि दाउद इब्राहिम की बीवी है।

काले कानून ने कराई किरकिरी?

jaipur vidhan sabha & jyoti nager t point pe kala kanoon ko lekar protest (38)

भ्रष्ट लोक सेवकों को बचाने और मीडिया पर पाबंदी लगाने वाला दंड (राजस्थान संशोधन) विधेयक-2017 को लेकर जबरदस्त जनविरोध के आगे वसुंधरा सरकार के पैर कांप गए हैं। जनता के जेहादी रुख से घबराई सरकार ने शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार करते हुए ‘काला कानूनÓ से अभिशप्त हुए अध्यादेश को ‘ठंडे बस्तेÓ में डालते हुए पुर्नविचार के लिए प्रवर समिति को सोंप दिया है। बैकफुट पर आई सरकार के संसदीय कार्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़ की खिसियाहट इन शब्दों में प्रतिध्वनित हुई कि ‘अध्यादेश के बाद सत्र आ गया था, इसलिए विधेयक पेश करना आवश्यक था। अध्यादेश सत्र शुरू होने से 42 दिन तक अस्तित्व में रहेगा।Ó इस मामले में संवैधानिक प्रावधानों को समझे ंतो,’अध्यादेश सत्र शुरू होने के 6 सप्ताह तक वैध रहता है। इस दौरान सदन बुलाकर विधेयक पास कराना जरूरी है। ऐसा नहीं करने पर वह स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। अध्यादेश को पिछले 6 सितम्बर को मंजूरी मिली और अधिसूचना 7 सितम्बर को जारी हुई। बयालीस दिन की गणना 23अक्टूबर को सदन बुलाने के दिन से होगी। अत: 3 दिसमबर को अध्यादेश स्वत: ही खत्म हो हो जाएगा। यदि सरकार इससे पहले सत्र बुलाकर विधेयक पास कराती है या दोबारा अध्यादेश लाती है तभी ‘काला कानूनÓ बन सकेगा। ऐसा कानून लाने की कवायद को ‘अजूबाÓकरार देती हुई राजस्थान विधानसभा की पूर्व अध्यक्ष सुमित्रा सिंह कहती है ‘ऐसे कानून की आवश्यकता ही क्या है?ÓÓ उनका कहना था,’राज्य में संभवत’ पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि अध्यादेश लाया गया और बाद में विधेयक लाने पर सरकार को उसे प्रवर समिति को भेजना पड़ा हो? ”उन्होंने कहा,’अब जबकि विधेयक प्रवर समिति को भेजा गया है तो उम्मीद की जा सकती है कि, नाम,पहचान उजागर करने की सजा का प्रावधान हटाया जा सकता है या फिर अभियोजन स्वीकृति के लिए 180 दिन की समय सीमा घटाई जा सकती है। कैसा भी बदलाव हो? लेकिन इस कानून से तो भ्रष्ट लोक सेवकों को संरक्षण ही मिलेगा।ÓÓ

वरिष्ठ पत्रकार गोविंद चतुर्वेदी इसे आधी-अधूरी जीत बताते हैं। चतुर्वेदी कहते हैं, ‘बैकफुटÓ के इस फैसले में जनता का सम्मान कहां प्रतिध्वनित होता है? विधेयक को प्रवर समिति को भेजने की कवायद में तो ”नाक का सवालÓ ही नजर आता है। चतुर्वेदी कहते हैं, सरकार के आचरण में लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं बल्कि जनता की आंखों में धूल झोकने की नाटकीयता परिलक्षित होती है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि,’भ्रष्टाचार के संरक्षण का यह विराट दर्शन वसुंधरा राजे के प्रादेशिक सत्ता के सर्वोच्च पद पर पदार्पण से राजनीति के नैतिक मूल्यों के लिए भूचाल सिद्ध हुआ है। भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने का परिणाम कई गुना भ्रष्टाचार पैदा होने की जमीन तैयार करने की बुनियाद को सींचने का काम करेगा। अध्यादेश को प्रवर समिति को सौंपे जाने की कवायद पर गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया ने खुलासा करते हुए मीडिया से कहा कि,’प्रवर समिति को विचारार्थ भेजे जाने के कारण अध्यादेश 42 दिन तक लागू रहेगा और इसके बाद खत्म हो जाएगा। इस बाबत विधेयक पर मीडिया और विधायकों की आपत्ति के बाद समिति खासतौर से दो बिन्दुओं पर अधिक विचार करेगी जिसमें मीडिया के खबर प्रकाशित करने का मामला और शिकायत की पड़ताल के लिए 180 दिन के समय को घटाकर 90 दिन कराने के सुझाव पर विचार कर सकती है। कटारिया ने कहा,’राजस्थान में धारा 156 (37) के तहत सबसे ज्यादा इस्तगासे दर्ज हो रहे हैं और इनमें 75फीसदी पर फाइनल रिपोर्ट लगाई गई।

गृहमंत्री कटारिया ने चाहे अनमने मन से ही सही, लेकिन इस बात को माना है कि महाराष्ट्र की तुलना में हमारे यहां बनाए गए कानून में दो बड़ी खामियां हैं। महाराष्ट्र में अभियोजन स्वीकृति की मियाद 90 दिन है जबकि हमारे यहां 180 दिन। महाराष्ट्र के कानून में मीडिया में नाम उजागर करने पर सजा का प्रावधान नहीं है। हमाने कानून में इसे जोड़ा गया है। लेकिन कटारिया का यह रहस्योदघाटन स्तब्ध कर देने वाला था कि, ‘इन दो महत्वपूर्ण बातों की मुख्यमंत्री को जानकारी तक नहीं थी? उधर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट का कहना है कि, ‘कांग्रेस ने लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए संघर्ष किया,जिसका नतीजा यह रहा कि सरकार ने ‘काले कानूनÓ वाले विधेयक को प्रवर समिति को भेज दिया। लेकिन पायलट कहते हैं कि, ‘अहम जरूरत तो इसे निरस्त करने की है।

प्रसंगवश विधेयक लाने के दौरान सरकार का यह दावा भी सवालों के घेरे में है कि, 73 प्रतिशत मामले झूठे दर्ज कराए जाते हैं। जबकि लोकसेवकों की प्रतिष्ठा को धूमिल होने से बचाना ही विधेयक का मकसद है? तो फिर इस्तगासों के जरिए इन मामलों को दर्ज करवाने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं हेती? आईपीसी की धारा 193 में इस्तगासे के लिए झूठा शपथ पत्र देने पर सात साल की सजा और असीमित जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन आखिर क्यों सरकार ने झूठे मामलों में एक भी व्यक्ति को सजा नहीं दिलवाई? सरकार की ओर से लोकसेवकों को बचाने के लिए लाया गया विधेयक चौतरफा विरोध के बाद भले ही प्रवर समिति को सौंप दिया गया है। लेकिन इस विधेयक के दो पहलू सामने आ रहे हैं। सोमवार के जब गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया ने यह विधेयक सदन में रखा तो बताया था कि अफसर, नेताओं पर दर्ज होने वाले 73 फीसदी मामले झूठे होते हैं। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने आंकड़े भी पेश किए, लेकिन बुधवार 25 अक्टूबर को गृहमंत्री सदन में बोले,’भ्रष्टाचार को लेकर तीन साल में 60 आईएएस-आरएएस पर भ्रष्टाचार की कार्रवाई की गई। राजस्थान अफसरों के खिलाफ मामले दर्ज करने में अव्वल है। लेकिन यह सच और भी चौंकाने वाला है कि आरटीआई के तहत मांगी गई एक जानकारी में खुलासा हुआ है कि एसीबी को दो साल में अफसर-नेताओं के खिलाफ 16,278 भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली। एसीबी ने इनमें से सिर्फ 51 मामले ही दर्ज किए। इसके अलावा प्रारंभिक जांच के लिए 89 मामले स्वीकार किए। यह जानकारी एक जनवरी 2014 से एक मार्च 2016 तक दर्ज हुए मामलों की है।

वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी का कहना है कि,’क्या कोई राज्य सरकार न्यायालय को आदेश दे सकती है कि उसे किस मामले में सुनवाई करनी चाहिए और कब करनी चाहिए? क्या पुलिस जांच के बाद भी सुनवाई करने के लिए न्यायालय को सरकार से स्वीकृति लेना जरूरी है?क्या एसीबी अथवा अन्य जांच एजेंसियों द्वारा पकड़े गए आरोपियों के नाम प्रकाशित नहीं करने से संविधान की धारा 19 (1) में प्रदत्त’स्वतंत्रता की अभिव्यक्तिÓ का क्या मंतव्य रह जाएगा? तब क्या जरूरत है मतदान की, चुनाव की और संविधान की? सरकार ने परोक्ष रूप से घोषणा कर दी है कि उसको भी जनहित और जनतंत्र में विश्वास नहीं है। कोठारी कहते हैं कि,’एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष वसुंधरा सरकार के इन कदमों से बेखबर है?

क्या है अध्यादेश

पिछले सितंबर में दागी लोकसेवकों को संरक्षण देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में अध्यादेश के जरिए संशोधन कर चुकी राज्य सरकार इसे स्थायी बनाने के लिए सोमवार 23 अक्टूबर को शुरू हुए विधानसभा सत्र में विधेयक लाने की पूरी तैयारिंया कर चुकी थी। इसे संशोधन में आईपीसी की धारा 228 में 228 बी जोड़कर प्रावधान किया गया कि, सीआरपीसी की धारा 156 (3) और धारा 190 (1) (सी) के विपरीत कार्य किया गया तो दो साल का कारावास और असीमित जुर्माने की सजा दी जा सकती है। न्यायाधीश मजिस्ट्रेट व लोकसेवक के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति मिलने से पहले उनका नाम तथा अन्य जानकारी का प्रकाशन और प्रसारण नहीं हो सकेगा। इसमें यह भी जोड़ा गया है कि 6 माह में अभियोजन स्वीकृति पर निर्णय करना होगा, अन्यथा स्वत: स्वीकृति मान ली जाएगी। अभियोजन स्वीकृति मिलने तक ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जा सेकगा। इस विधेयक के मुताबिक सीआरपीसी की धारा 156 (3) और 190 के तहत मजिस्ट्रेट अभियोजन स्वीकृति से पहले ना तो जांच का आदेश दे पाएंगे और ना ही प्रसंज्ञान ले पाएंगे।

‘लाभ का पद’ बचाया?

राज्य सरकार लोकसेवकों को संरक्षण की आड़ में जनता की आवाज दबाने में तो कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन विधायकों के लिए ‘लाभ का पदÓ बचा लिया है। सरकार ने राजस्थान विधानसभा सदस्य (निरर्हता-निवारण) विधेयक 2017 पारित करवा लिया। इसके तहत संसदीय सचिव, बोर्ड, निगम, समिति प्राधिकरण के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या निदेशक के पद पर बैठा विधायक लाभ के पद के आधार पर अयोग्य नहीं होगा। भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने कहा,’विधेयक के रूप में यह चोर दरवाजे से मंत्री बनने का रास्ता है। दिल्ली या असम के मुख्यमंत्री संसदीय सचिव नियुक्त नहीं कर सकते तो हमारी ‘सीएमÓ के कौन से तारे लगे हुए हैं? तिवाड़ी ने कहा कि, ‘पिछली 26 जुलाई को ही सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताया था। उन्होंने कहा,’मुख्यमंत्री को विधायकों में से संसदीय सचिव, या बोर्ड-निगम का अध्यक्ष बनाने का अधिकार नहीं है। देश के आठ हाईकोर्ट भी इस तरह का निर्णय दे चुके हैं।Ó जवाब में संसदीय मंत्री राजेन्द्र राठौड़ का कहना था कि यह विधेयक संसदीय सचिव पद पर नियुक्ति के लिए नहीं है। यह केवल घोषित करता है कि, ‘कोई विधायक संसदीय सचिव, नियुक्त हो जाता है तो वह अयोग्य नहीं हो जाता है। उन्होंने कहा, सरकार की मंशा पुराने विधेयकों को एक करने की थी जो किया है।

 तिवाड़ी ने कहा,’थूक कर चाट लिया’!

भ्रष्ट लोकसेवकों को बचाने के भाजपा सरकार के दांव-पेच के धुर्रे उड़ाने के घमासान में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और भाजपा के तेज तर्रार विधायक घनश्याम तिवाड़ी पूरी तरह एक दूसरे के निशाने पर रहे। विधेयक को लेकर बेकफुट पर आई सरकार पर करारे तंज कसने में तिवाड़ी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कटारिया और तिवाड़ी के बीच करीब 15 मिनट तक चली शाब्दिक तीरंदाजी में तिवाड़ी ने तो यहां तक कह डाला कि,’पहले थूका क्यों? और अब थूक कर चाटा क्यों? तिवाड़ी को दूसरे दिन भी विधेयक पर बोलने का मौका नहीं दिया, इसी दौरान गृहमंत्री कटारिया बोल रहे थे तो तिवाड़ी भी तीखे अंदाज में बोलते रहे। कटारिया का कहना था कि,’मैं भी तेज बोल सकता हूं, मेरे फेफड़ों में भी काफी दम है।ÓÓ सदन से बाहर तिवाड़ी का कहना था,’बिना सदन में चर्चा के विधेयक प्रवर समिति को कैसे भेजा गया? गृहमंत्री से हुई तनातनी को लेकर तिवाड़ी बोले, ‘तेज बोलने का अंदाज पुलिसिया ढंग से गालिब कर रहे थे।ÓÓ तिवाड़ी ने कहा,’उन्हें पता होना चाहिए कि गृहमंत्री धमकाने के लिए नहीं जनता की रक्षा करने के लिए होता है। तिवाड़ी ने सदन से दो बार वाकआउट किया। इसके बाद भी उन्हें नहीं सुना गया तो उन्होंने कहा,’सदन में धरने पर बैठ जाऊंगा।ÓÓ विधेयक पर विधायको ंका चौंकाने वाला सच भी उजागर हुआ। 74 प्रतिशत विधायकों को तो यह भी पता नहीं था कि आखिर विधेयक में था क्या? कई विधायक तो यह कह कर रह गए कि पार्टी का फैसला सर्वोपरि है।ÓÓ इससे एक दिन पहले तिवाड़ी पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत के जन्म दिवस पर सुंदर सिंह भंडारी चेरिटिबल ट्रस्ट की ओर से आयोजित सम्मान समारोह का यह कह कर बहिष्कार कर चुके थे कि,’काले कानून का विरोध करूंगा, पुरस्कार नहीं लूंगा।

विवादित विधेयक के विरोध प्रदर्शन में भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी भी साथ थे। गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया और संसदीय मंत्री राजेन्द्र राठौड़ ने भरोसा दिलाया कि चर्चा के दौरान शंकाओं का समाधान होगा। इसके बावजूद कांग्रेस, नेशनल पीपुल्स पार्टी और भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने वाक आउट कर दिया। तिवाड़ी ने दो बार वाकआउट किया। कांग्रेस ने विधेयक के विरोध में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट और नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की अगुवाई में पैदल मार्च निकाल कर विरोध प्रदर्शन किया।

बाबा केदार कु आशीर्वाद सभी पर

kedarnath

‘केदार घाटी 2013 की अचानक आई बाढ़ में खासी तबाह हो गई थी। दोनों का नुकसान हुआ। लोग मरे और संपत्ति भी नष्ट हुई। यह बड़ी विपदा थी। मैं यहां आया था। गुजरात में तब मैं मुख्यमंत्री थाÓ अपने भाषण में कहा प्रधानमंत्री ने। मैंने उत्तराखंड में तब मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा (अब भाजपा में) को प्रस्ताव दिया कि इस पूरे क्षेत्र में हम पुननिर्माण के लिए तैयार हैं। पहले तो उत्तराखंड सरकार ने हामी भरी लेकिन बाद में केंद्र में राज कर रही यूपीए सरकार के कहने पर प्रस्ताव खारिज कर दिया।

‘लेकिन अब हम इस हैसियत में है कि केदार घाटी में पुननिर्माण का काम करें। अब समय चक्र पूरा हो गया है। बाबा ने खुद बेटे को बुला कर पुननिर्माण कार्य पूरा करने को कहा है। अब केदार नाथ को आधुनिक मूल संसाधनों से लैस किया जाएगा लेकिन पारंपरिक भावना बनाए रखी जाएगी। यह एक आदर्श तीर्थस्थान बनेगा। पुजरियों और तीर्थयात्रियों को महत्व मिलेगा।Ó

इसी साल दूसरी बार केदारनाथ पहुंचे थे नरेंद्र मोदी। वे पिछली बार पहली मई को आए थे। तभी शीतकाल के बाद केदारनाथ धाम के फाटक खुले। यह बड़ी बात है कि साढ़े चार लाख तीर्थयात्री इस दौरान आए। मोदी की वापसी के बाद ही गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ धाम के कपाट शीतकालीन अवकाश के लिए बंद हो गए। बद्रीनाथ के कपाट 19 नवंबर से बंद होंगे।

प्रधानमंत्री ने कहा ‘हम आज़ादी के 75 साल 2022 में मनाएंगे। मुझे अपनी शपथ पूरी करनी है कि विकसित भारत का सपना तब तक पूरा हो।Ó केदारनाथ के पास ही गरुडचट्टी में उन्होंने अपनी धार्मिक खोज के शुरू के साल बिताए थे। उसी दौरान आज़ादी के 75 साल होने तक विकसित भारत बना पाने का तब प्रण किया था। ‘मेरा इरादा तो बाबा की सेवा करना था लेकिन उन्हांने शायद यही चाहा कि मै 125 करोड़ बाबाओं की सेवा करुं।Ó

उत्तराखंड सरकार के केदार घाटी में चल रहे काम की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि केदार पुननिर्माण में खासे बड़े फंड की ज़रूरत होगी। उन्होंने कारपोरेट घरानों से इस पुननिर्माण में सहयोग की अपील की। उन्होंने कहा कि कारपोरेट अपने कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी फंड से सहयोग करें। इस मौके पर जिंदल स्टील्स के सज्जन जिंदल प्रधानमंत्री के साथ इस यात्रा में रहे। प्रधानमंत्री ने कहा कि इस कारपोरेट ने कस्बे के निर्माण की जिम्मेदारी ली है। पुननिर्माण कार्यों के चलते नई केदारपुरी बनाई जा रही है।

केदारनाथ के कायाकल्प मे धन की कमी नहीं होगी। प्रधानमंत्री ने उत्तराखंड को पांच साल में आर्गेनिक राज्य बनाने की बात कही। उन्होंने700 करोड़ रुपए की लागत में आदि शकराचार्य का समाधिस्थल, मंदाकिनी-सरस्वती नदी पर बाढ़ सुरक्षा और घाट निर्माण, संग्रहालय,तीर्थपुरोहितों के भवन, योग और ध्यान केंद्र बनने हैं। उन्होंने कहा कि चार धाम विकास के लिए 12,000 करोड़ की राजमार्ग विकास योजना का शुभारंभ हो चुका है। खेल,एडवेंचर, जलस्त्रोत, जड़ी-बूटियों के उत्पादन से पर्यटन के नए क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर बनेंगे।

केदारनाथ से कांग्रेस विधायक मनोज रावत ने कहा यहां की जनता में प्रधानमंत्री की यात्रा को लेकर बहुत उल्लास था। लेकिन उनकी यात्रा सिर्फ राजनीतिक होकर रह गई। केंद्र सरकार ने केदारनाथ में आठ हजार करोड़ के पुननिर्माण की योजना मंजूर की थी लेकिन आज तक सिर्फ दो हजार करोड़ रुपए ही दिए गए। बाकी रकम के बारे में वे इस यात्रा में बोले भी नहीं।

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस बात पर अफसोस जताया कि जिन परियोजनाओं की शुरूआत उन्होंने की थी उन्ही का शिलान्यास फिर कर दिया है। उन्होंने बताया कि जिन पांच कामों का उल्लेख किया गया। इनमें नदी किनारे घाट बनाने का काम पहले से चल रहा है और बाढ़ सुरक्षा के काम भी जारी हैं। गौरीकुंड और केदारनाथ के बीच पैदल मार्ग निर्माण भी चल रहा है जो कांग्रेसी राज में शुरू हुआ था। मोदी ने उत्तराखंड के लोगों का बस मन बहलाया भर है।

अजय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा उत्तराखंड की अपनी यात्रा में प्रधानमंत्री ने केदारनाथ धाम, और उत्तराखंड के लिए बहुत अहम योजनाओं की घोषणा की और राज्य के विकास का नया मार्ग बताया। कांग्रेस के विरोध से जाहिर है कि वे विकास के पक्ष में नहीं हैं।

देख लो साकेत नगरी है यही स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही

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मिथक को अयोध्या में साकार किया मुख्यमंत्री ने। कहते हैं अयोध्या के साधु-संतों की नाराजगी के बाद भी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने सरयू नदी के तट पर राम, जानकी, लक्ष्मण के साथ भव्य छोटी दीपावली मनाई। राम का अयोध्या में आगमन दीपावली पर ही माना जाता है और कहते हैं राम ने इसी दिन राजकाज संभाला था।

त्रेतायुग में कितनी भव्यता से दीपों की रोशनी होती थी इसका कोई उल्लेख तो नहीं मिलता लेकिन कलयुग में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने त्रेतायुग के अनुरूप भव्य दीपोत्सव किया। घाट किनारे एक लाख 71 हज़ार दीपों से पूरा किनारा जगमगा उठा। सरयू के जल के किनारे के मंदिरों, घरों पर लगी रंग-बिरंगी रोशनी की झालरों की रोशनी की छाया जगमगा उठी।

कुछ लोगों का कहना है कि रामायण में उल्लेख है कि अयोध्या की सरयू नदी में ही पुरषोत्तम राम ने जलसमाधि ली थी। उस घटना का शोक सदियों से परंपरा में बदल गया। अयोध्यावासियों ने दीपावली पर सरयू नदी के तट पर दिया जलाना श्री राम के वियोग में बंद कर दिया था। सदी दर सदी अयोध्या में आक्रमणकारी आते रहे। वे मनमानी करते रहे लेकिन सदियों से सरयू नदी को दीपदान न करने की पंरपरा कायम रही।

सनातनी परंपराओं के विरोध में बने गोरख नाथ धाम के प्रमुख योगी आदित्यनाथ ने इस दीपावली को राम की अयोध्या वापसी और राम राज्य की स्थापना का अवसर मानते हुए घाट किनारे व्यापक रंगबिरंगी रोशनियों की झालरें और लख-लख दीपों की रोशनी से सरयू का किनारा जगमग कर दिया।

श्री राम, जानकी और लक्ष्मण के रूप मेें कलाकारों को मिथकीय पुष्पक विमान के जरिए अयोध्या के रामकथा पार्क में उतारा गया। वहां से वे मंच तक पहुंचे जहां योगी आदित्यनाथ ने उन्हेेंं उनका मस्तकाभिषेक किया। इस मौके पर एक दूसरे हैलिकॉप्टर से फूलों की वर्षा भी की जाती रही। दीपावली के मौके पर सरयू नदी के घाट भव्य दीप मालाओं से प्रकाशित थे। नदी के जल में और दूर पुल के खंभों तक रोशनी छिटक रही थी। पूरे प्रदेश के सक्रिय अफसरशाह और मंत्री मौके पर दर्शनार्थी बने। जो खुद की मौजूदगी के लिए साथ खड़ भी रहे थे। अयोध्या के पूर्व नरेश और उनका परिवार भी इस मौके पर नदी तट पर हो रहे भव्य समारोह में सजा बैठा था। इन सब का पूरे आयोजन की भव्यता बनाए रखने में योगदान था। एक तरह से रामराज्य के कर्ता-धर्ता सरयू नदी किनारे विराजमान थे।

आयोजन को जनता ने भूरि-भूरि सराहा जब घाट किनारे सीढिय़ों पर एक लाख 71 हज़ार दीप जगमगा उठे। इनके दिव्य आलोक में विशेष साउंड इफेक्ट के साथ 22 मिनट का लेजर शो हुआ। इस दौरान वहां मौजूद हर दर्शनार्थी रोमांच का अनुभव कर रहा था।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस मौके पर अपने उद्बोधन में कहा कि रामराज्य का मतलब होता है। कोई गरीब न हो, कोई दुखदर्द न हो,सबके सिर पर छत हो और कोई भेदभाव न हो। जय श्री राम और भारत माता की जय के उद्घोष के दौरान उन्होंने उन आलोचकों की भत्र्सना की जो उनकी निंदा में ही जुटे रहते हैं। वे यह भी नहीं जानना चाहते कि आखिर वे ऐसा क्या और क्यों कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मंदिरों के शहर अयोध्या के विकास के लिए यह पहल की गई। उन्होंने कहा कि रामराज्य का अर्थ होता है – बिजली, रसोई गैस का सिलिंडर और मकान।

अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर उन्होंने कहा कि यदि मैं अयोध्या न आऊं तो उन्हें तकलीफ होती है। वे कहते हैं कि अयोध्या नहीं आए वे और जब आ जाऊं तो कहते हैं देखिए क्या किया। उन्होंने कहा हम जाति, धर्म और वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करते। पिछले ‘रावण राजÓ में परिवारवाद, जातिवाद और दूसरी चीजें ज़रूर कही जाती थी। यह मेरे गौरव के अनुरूप नहीं है यदि मैं विपक्ष के आरोपों पर ही बात करूं। अयोध्या ने मानवतावाद के लिए बहुत कुछ किया है। यहीं रामराज्य की अवधारणा बनी जिसमें न गरीबी हो, न दुखदर्द हो और न तकलीफ हो। कोई भेदभाव न हो। यहां दीपावली के अवसर पर 18 अक्तूबर को जो कार्यक्रम हुआ वह दुनिया के सामने सही तस्वीर रखने की मंशा से किया गया।

अयोध्या के विकास के लिए मुख्यमंत्री ने 133 करोड़ रु पए की योजनाओं का ऐलान भी किया। उन्होंने कहा अयोध्या जल्दी ही पर्यटन का अंतरराष्ट्रीय केंद्र बनेगा। अयोध्या को अभी तक कोई आधुनिक बस अड्डा नहीं मिला। रेलवे स्टेशन भी बदतर हालत में है। यहां दैनिक ज़रूरीयात पूरी करने तक की समुचित व्यवस्था नहीं है।

अयोध्या में इस बार छोटी दीपावली ही बड़ी दिखी। घाटों पर दीपमालिका में इस्तेमाल किए गए दीप के तेल को बर्तनों में दूसरी सुबह इक_ा करने उमड़ा दिखा लोगों का हजूम। इस तेल से इनके घर शायद दिवाली की रात रोशन हो गए हो।

देखते हैं किस करवट बैठता है बुंदेलखंड में ऊंट

Chitrakoot

उत्तर प्रदेश में नगर निकाय के चुनाव को लेकर पूरा प्रदेश चुनावी रंग में रंगा हुआ है। लेकिन यह रंग और भी गाढ़ा तब हो गया जब उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड में 22 अक्टूबर को महोबा, हमीरपुर और चित्रकूट में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने करोड़ों रु पये की योजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण कर कहा कि बुंदेलखंड को विकसित करने में सरकार कोई कसर नहीं छोड़ेगी। प्रदेश और केन्द्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं ऐसे में मुख्यमंत्री के भाषण के बाद से स्थानीय नेताओं के चेहरे खिले हुए हैं भाजपा में आम कार्यकर्ता से लेकर भाजपा का स्थानीय स्तर का नेता अब हर हाल में पार्टी का टिकट पाने के लिये दावेदारी और ज़ोर आजमाइश कर रहा है कि अगर उसको पार्टी का टिकट मिलता है तो वह निश्चित तौर पर पार्षद, नगर पालिका चेयरमैन और निगम का मेयर बन सकता है।

बुंदेलखंड के हिस्से वाले उत्तर प्रदेश में चारों लोक सभा सीटों पर और 19 विधानसभा सीटों पर भाजपा के ही सांसद और विधायकों का कब्जा है। ऐसे में पार्टी चाहती है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव की तरह नगर निकाय चुनाव में रुतबा व जलवा कायम रहे। मतदाताओं में पकड़ बनी रहे पर मौजूदा हालात में बुंदेलखंड की स्थिति सामान्य नहीं है, क्योंकि कि बुंदेलखंड में सूखा होने के कारण आमजन तो परेशान है ही साथ ही किसान की सूखा पडऩे के कारण माली हालत पूरी तरह से चरमराई हुई है। उनके खेतों में बुवाई तक नहीं हो पा रही है और तो और उनकी बुवाई की लागत तक नहीं निकल पा रही है।

ऐसे वक्त में नगर निकाय चुनाव कहीं भाजपा का समीकरण न बिगाड़ दें जिसको लेकर सांसद और विधायक साफ सुथरी छवि के नेता की तलाश में रात दिन एक किये हुये हैं, जि़ला स्तर के नेताओं से संपर्क कर चुनाव जिताऊ प्रत्याशी की बात कर रहे हैं भाजपा के नेता व संघ के पदाधिकारी ज़मीनी स्तर पर चुनावी समीकरण साधने में लगे हैं।

बुंदेलखंड में समाजवादी पार्टी भले ही दूसरे नम्बर की पार्टी है पर इस बार निकाय चुनाव से कांग्रेस और बसपा खोए हुये जनाधार को वापिस पाना चाहती हैं। ऐसे में सपा, कांग्रेस और बसपा के नेता स्थानीय स्तर पर ही सही जमकर केन्द्र और प्रदेश की सरकार पर हमला बोल रहे हैं कि चुनावी वादों को पूरा करने में सरकार असफल रही है। वोट बंदी कर अर्थ व्यवस्था को चौपट किया था अब जीएसटी कानून को लाकर व्यापार का बेढ़ा गर्क कर दिया है। अपराध इस कदर बढ़ा है कि पुलिस वालों तक की पिटाई हो रही है। ललितपुर और झांसी में अक्तूबर में कई जगह ऐसी घटनायें हुई हैं जिसके कारण अपराधियों के हौसले को देखते हुये आम नागरिकों में काफी भय का माहौल है।

यहां के स्थानीय कांग्रेस नेता संजीव और बसपा के नेता सुधीर सिंह का कहना है कि बुंदेलखंड का किसान आत्महत्या कर रहा है बेरोज़गार पलायन कर रहे हैं और व्यापारी परेशान हैं। अपना व्यापार सही तरीके से नहीं कर पा रहे हैं। उस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है। अब नगर निकाय चुनाव में भाजपा की पतली हालत को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी अघोषित चुनावी सभा महोबा, हमीरपुर और चित्रकुट में कर जनता को योजनाओं और विकास का लॉलीपॉप दिखा रहे हैं पर जनता भाजपा की बातों में आने वाली नहीं है चुनाव में सबक सिखाया जाएगा।

हमीरपुर से भाजपा सांसद पुष्पेन्द्र चंदेल का कहना है कि मुख्यमंत्री ने हमीरपुर में 188.96 करोड़ की 11 योजनाओं का शिलान्यास व लोकर्पण किया है और महोबा में 80.89 करोड़ की 78 परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास किया है। इससे यहां पर विकास निश्चित होगा और बुंदेलखंड में खुशहाली आएगी।

प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने चुनाव को देखते ही सही पर जनता की भावनाओं और नब्ज को समझा और जाना। उनकी उन समस्याओं को पकड़ा है जिस कारण प्रदेश की जनता में काफी आक्रोश है। सरकार ने किसानों की कर्ज माफी, खनन में माफिया राज जिससे खनिज संपत्ति के आसमान छूते भाव,बुंदेलखंड में बारिश न होने के कारण पानी का संकट, अन्ना प्रथा सहित तमाम मुद्दों का समाधान कर जनता को खुश करने का प्रयास किया है।

मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार केन-बेतवा के साथ अर्जुन सहायक परियोजनाओं को पूरा करेगी, खनन के पट्टे किये जा रहे हैं इससे खनिज के दाम काफी कम होंगे और लोगों को अपने मकान को बनवाने में सहूलियत होगी। उन्होंने कहा कि पानी और अन्ना प्रथा का समाधान करने के लिये प्रदेश की सरकार कटिबद्ध है। बुंदेलखंड की धरती को प्यासा नहीं रहने दिया जाएगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि पिछली सरकारों की नीतियों की वजह से बुन्देलखण्ड उपेक्षित व पिछड़ा रहा है लेकिन अब गांव, $गरीब, नौजवान और किसान का हम विकास करेंगे।

बुंदेलखंड के ललितपुर, झांसी, जालौन और बांदा के लोगों का कहना है कि जब केन्द्र और प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है तो किसानों की मांगों और उनके कर्ज को क्यों माफ नहीं किया जा रहा और जो माफ किये जा रहे है उनके क्रियान्वयन विलम्ब क्यों हो रहा है। जब हमीरपुर में मुख्यमंत्री लोकार्पण और शिलान्यास कर रहे थे तभी कबरई के किसानों ने बताया कि जब भी देश में प्रदेश में और स्थानीय स्तर पर चुनाव आते है तभी नेताओं की दौरे और लुभावने भाषण सुनाई देते हंै पर इससे कुछ होता नहीं है।

किसान बृजकिशोर ने बताया कि जब प्रदेश में पूर्ण बहुमत की योगी सरकार बनी थी तब लगा था कि किसानों और गरीबों की सुनवाई होगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ काम करने का वही तरीका जो पहली की सरकारों में रहा है। ललितपुर के किसान व सामाजिक कार्यकर्ता प्रकाश गोसाई का कहना है कि माना कि सब कुछ सरकार नहीं कर पाती पर वह तो कर सकती है जो वह चुनाव के दौरान वोट बटोरने के लिये बोलती है। पर इस सरकार ने तो अभी तक कोशिश भी नहीं की है। दीपावली के दिन कई कस्बों और मुहल्लों में बिजली तक नहीं थी।

बांदा के युवा भाजपा नेता व बुंदेलखंड डिग्री कॉलेज के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष राजेश श्ुाक्ला का कहना कि बुंदेलखंड सहित पूरे उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव में भाजपा का परचम लहराएगा क्योंकि जिस तरीके से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जनहित वाली योजनाओं को प्रदेश के मुख्यमंत्री योग आदित्य नाथ एक क्रमबद्ध तरीके से चला रहे हैं उससे प्रदेश में काफी विकास हो रहा है। उन्होंने कहा कि सपा और बसपा के दिन लद गये हैं कांग्रेस तो चुनाव अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये ही चुनाव लड़ रही है।

चिरगांव निवासी पूरन लाल का कहना है नगर निकाय का चुनाव स्थानीय स्तर पर होता है जिसमें लोकल मुद्दे और समस्यायें होती हैं, इस लिहाज से इस चुनाव में समाज का प्रतिष्ठित नागरिक हर चुनाव जीतता है जो जन सरोकार में सदैव भागीदारी रखता हो। रहा सवाल राजनीतिक पार्टियों का उसका उतना महत्व नहीं होता जितना कि स्थानीय स्तर के लोकप्रिय लोगों का होता है और जनता उसका ही समर्थन करती है।

समाजवादी पार्टी के नेता राज किशोर का कहना है कि सात महीने की योगी सरकार में छह महीनों तक अधिकारियों का इस कदर बोलबाला रहा कि विधायकों तक की नहीं सुनी गई जिससे अधिकारियों ने जमकर जनता को लूटा है अब चुनाव पास देखकर विधायकों का अधिकार दिये गये है तो जनता समझ चुकी है सब दिखावा और जनता को गुमराह रकने वाली बात सरकार कर रही है भाजपा के नेता विनोद कुमार का कहना है कि भाजपा की स्थिति में सुधार तब होगा जब वह ज़मीन से जुड़े ईमानदार नेता को टिकट दें। उन्होंने कहा कि बसपा, सपा और कांग्रेस पार्टी के पास इस समय चुनाव में जीतने के लिये मुद्दे तक नहीं है वह जातीय आधार पर चुनाव लड़ेगी जिससे कुछ होना वाला नहीं है। चुनाव नवंबर में और मतगणना दिसम्बर में होनी है।

उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड पिछड़ता ही क्यों जा रहा इस पर न सियासतदान कोई ध्यान दे रहे हैं और न ही नौकरशाही। बस बात अटक कर रह जाती है। चुनाव के दौरान बुंदेलखंडवासी देखते रह जाते हैं। राजनीतिक पार्टियों के जातीय, धार्मिक और आर्थिक समीकरण को। ऐसे में बचा रह जाता है वो संघर्ष जो दो दशक से ज्य़ादा समय से वे कर रहे हैं।