अभी साल भर ही हुआ। विमुद्रीकरण का नफा-नुकसान अब नज़र आने लगा है। इसकी खासियत जानने के लिए एक साल की मियाद काफी होती है। विमुद्रीकरण का एक असर जो दिखा है वह है डिजिटल पेमेंट में क्रेडिट कार्ड का बेइंतहा इस्तेमाल। खास तौर पर विमुद्रीकरण के बाद। इस साल सितंबर के अंत तक क्रेडिट कार्ड रखने वालों ने बैंकों को साठ हजार करोड़ से भी ज़्यादा की देनदारी में डाल दिया है। यह मामला इसलिए बेहद खास है क्यांकि एक ही साल में यह 39 फीसद की उछाल है । निश्चय ही क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल अभी हाल इतनी तेजी से इसलिए हुआ क्योंकि ई-कामर्स में ऑनलाइन शॉपिंग का धूम-धड़ाका मचा रहा।
ऐसा लगता है कि बैंकों ने भी नकदी पर लगी पाबंदी का लाभ उठाया जिससे कार्ड का इस्तेमाल और बढ़े। क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने वालों में ज़्यादातर को यह अनुमान नहीं था कि वे खुद को क्रेडिट कार्ड के कर्ज के ऐसे जाल में फंसा रहे हैं जिसमें कर्जदार के भुगतान से नागा करने पर चालीस फीसद का ब्याज भी मूलधन पर लग सकता है। यह ब्याज दर क्रेडिट कार्ड पर औसतन दैनिक बैलेंस के आधार पर लगता है।
बैंक अब महसूस कर रहे हैं कि किसान कार्ड, क्रेडिट कार्ड भी कहीं नॉन परफार्मिंग एसेट (एनपीए) तो नहीं हो रहे। बैंक यों भी एनपीए के चलते चकरघिन्नी खा ही रहे हैं।
पिछले ही महीने केंद्र सरकार ने अगले दो साल के लिए पब्लिक सैक्टर बैंक (पीएसबी) को 2.11 लाख करोड़ की पूंजी मुहैया कराई जो ऊंचे नॉन परफार्मिंग एसेट (एनपीए) से परेशान थे। धीमी हो रही अर्थव्यवस्था में यह पहल खासी महत्वपूर्ण है। क्योंकि ‘ट्विन-बैलेंसशीट प्राब्लेमÓ के चलते निजी पूंजी निवेश नहीं होता और कारपोरेट भारत और पब्लिक सेक्टर बैंकों में बैंक क्रेडिट की विकास दर कम होती है।
कई अर्थशास्त्रियों को यह मानना है कि बैंकों में फिर पूंजी बढ़ाना आलोचना का विषय हो सकता है देश के विकास के लिहाज से जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार दिख रहा हो।
बैंकों को पूंजी देने के लिए बजट में 18.139 करोड़ की व्यवस्था की जाएगी। इसके लिए 1.35 लाख करोड़ के रीकैपिटैलाइजेशन बांड की बिक्री की जाएगी। जो कमी रह जाएगी उसे बैंक खुद ही सरकार के इक्विटी शेयर को डाइल्यूट करके पूरा करेंगे। इस मुद्दे की गंभीरता को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि वित्तमंत्री अरूण जेटली ने बैंकों को सहूलियत देते हुए माना कि बैंकों ने पहले जो कर्ज बेहिसाब बांटें उससे एनपीए का स्तर ऊंचा हुआ और इस एनपीए को दरों के नीचे छिपा दिया गया। आज ये सामने इसलिए आए क्योंकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने ‘एसेट क्वालिटी रिव्यूÓ के जरिए छानबीन की।
विमुद्रीकरण के बाद सरकार ने घोषणा की कि इसका विशेष ध्यान डिजिटल पेमेंट पर होगा और क्रेडिट कार्ड आधुनिक तौर पर पेमेंट का एक तरीका है। यह बुरी चीज नहीं है बशर्ते इसका उपयोग सही तरीके से किया जाए। आपात स्थितियों मसलन अस्पताल में भरती होने या अचानक यात्रा की स्थिति में। इसका हर कहीं इस्तेमाल करने से एक व्यक्ति का अपना बजट बिगड़ जाता है और बैंक का एनपीए बढ़ जाता है। जबकि समझदार व्यक्ति इससे तमाम लाभ भी उठाता है जिसमें डिस्काउंट, कांप्लीमेंटरी इंश्योरेंस, रिवार्ड प्वांइट और स्पेशल प्रिविलेज हैं जो हर कार्ड से जुड़े होती है। बहरहाल, ज़्यादातर के लिए ‘आज खरीद लो और बाद में भुगतान करोÓ के चलते कम खर्च और ज़्यादा क्रेडिट कार्ड रखने और भुगतान करने की स्थिति न होने पर भी खरीदने की चाहत के चलते परेशानी बढ़ती है।
बैंक पहले से ही एनपीए की समस्याओं से जूझ रहे हैं। अब वे एक अलग तरह के टाइम बम के निशाने पर हैं। दूसरा मुद्दा यह है कि कार्ड व्यापार ठीक तरह से न तो नियंत्रित है और न ही बैंक उसके लिए कोई जागरूकता कार्यक्रम चलाते हैं जिससे क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने वाले इसके इस्तेमाल और नुकसान को समझ सकें।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की यह जिम्मेदारी है कि वह बैंकों द्वारा क्रेडिट कार्ड पर वसूली जा रहे ब्याज की दर पर नज़र रखें और जागरूकता कार्यक्रम भी चलाएं। यह ज़रूर सुना है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने बैंकों को सलाह दी है कि वे उस तारीख का ज़रूर ध्यान रखें जब ग्राहक से उम्मीद की जाती है कि वह क्रेडिट कार्ड पर अपनी न्यूनतम राशि ज़रूर जमा कर दें। उसके बाद नब्बे दिन की अवधि का हिसाब किताब लगाएं। क्योंकि इसके बाद ग्राहक यदि भुगतान नहीं करता तो उसे एनपीए श्रेणी में मान लिया जाए। क्रेडिट डिसिप्लिन के लिए ज़रूरी है कि क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने वाले लोगों के लिए थोड़ी उदारता भी बरती जाए। यह ज़रूर तय हो गया है कि इस सर्कुलर की तारीख के बाद क्रेडिट कार्ड के खाते का नंबर एसेट क्लासिफिकेशन के लिए रख दिया जाए जिसमें अमुक तारीख तक के भुगतान का ब्यौरा मासिक क्रेडिट कार्ड के बयान में हो। सेंट्रल बैंक ने अपने एक नोटिफिकेशन में यह बात कही है । पहले बैंकों का नियम था कि वे दूसरे बिलिंग स्टेटमेंट की तारीख को ध्यान में रख कर वे नब्बे दिन की अवधि का हिसाब-किताब लगाते थे। यानी एक महीने में दो क्रेडिट कार्ड के ब्याज। फिर आरोपों के तहत जुर्माने। बैंक अपनी उस नीति पर चलते रह सकते हैं यदि ग्राहक तय तारीख के तीन दिन पहले तक भुगतान करने में नाकाम रहता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का कहना है कि इस बदलाव से ग्राहकों में क्रेडिट कार्ड डिसिप्लिन आ सकता है।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार बैंकों ने कुल 1,78000 क्रेडिट कार्ड अप्रैल में जारी किए। आउट स्टैंडिंग क्रेडिट कार्ड जो जारी हुए वे 2.12 करोड़ हो गए। मई के अंत में क्रेडिट कार्ड की आउट स्टैडिंग रुपए 32400 करोड़ पहुंच गई। यानी यह साल दर साल 23 फीसद की बढ़ोतरी है। रिजर्व बैंक का कहना है कि क्रेडिट कार्ड के खाते को नान परफार्मिंग एसेट (एनपीए) बतौर ही गिना जाए यदि न्यूनतम राशि जो मिल जानी चाहिए थी वह पूरी तौर पर नब्बे दिनों में नहीं मिलती कार्ड के ब्याज में दी गई तारीख तक। यह फैसला सेंट्रल बैंक की पहले की नीति से थोड़ी अलग है जिसमें क्रेडिट कार्ड खाते के एनपीए की श्रेणी में डालने की बात है यदि न्यूनतम राशि बीती हुई तारीख के 120 दिन के अंदर नहीं दे दी जाती।
चालू नोटिफिकेशन में बैंकिंग रेगुलेटर ने यह भी कहा है कि कोई भी क्रेडिट कार्ड खाता ‘पास्ट डयू स्टेटसÓ में आ जाएगा यदि बैंक के खाते में क्रेडिट कार्ड के बयान के दर्ज हैं। इन कदमों का इरादा है कि ‘क्रेडिट डिसिप्लिनÓ को क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने वालों में बढ़ावा दिया जाए। साथ ही कार्ड का इस्तेमाल करने वाले के लिए ‘ऑपरेशनल उदारताÓ भी दिखे। यह बात साफ है कि देश की आर्थिक प्रगति और इसके बैंकिंग सेक्टर का विकास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। बैंकों का एक सामाजिक दायित्व होता है जिसके तहत वे कर्ज देते हैं। बैंक की शाखाओं का फैलाव करते हैं और नौकरियां देते हैं। एसेट की गुणवत्ता को बनाए रखने और लाभ की खातिर बैंक के चलते रहने और विकास के लिए ज़रूरी है। इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए बैंकों की राह में एनपीए एक बड़ी अड़चन है। क्रेडिट कार्ड रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की नई पहलकदमी से सही दिशा में एक शुरूआत हुई है। इससे न केवल बैंक एनपीए बढ़ाने में रोक लगा सकेंगे और क्रेडिट कार्ड के उपभोक्ताओं को कर्ज के जाल से बचा भी सकेंगे।
क्रेडिट कार्ड के बढ़े इस्तेमाल से बैकों को धीरे से लगेगा बड़ा झटका?
गुजरात चुनाव: धक्का मारो मौका है
गुजरात विधानसभा चुनाव का डंका बज गया है। आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला बदस्तूर जारी है। नतीजा जो भी आए, परंतु बहुत समय बाद भाजपा की पेशानी पर पसीनें की बूंदें दिख रही हैं। गुजरात को भारत का पर्याय बना देने के प्रयास में, हम यह भुला देना चाहते हैं कि गुजरात (विकास) मॉडल किसी सफलता की गांरटी नहीं है। यह औपनिवेशिक युग की लोकतांत्रिक प्रस्तुति की तरह है।
उपनिवेश पूर्व के काल में भारत नामक कोई एक राजनीतिक इकाई नहीं थी। ब्रिटिश शासनकाल में भी भारत कोई एक अकेली राजनीतिक इकाई नहीं रही। उसके दो भाग थे। एक प्रेसिडेंसी कहलाता था, जिस पर अंग्रेज़ों का सीधा राज चलता था और दूसरा था लगभग 600 देशी रियासतें। ‘इनमें राजा महाराजाओं का करीब-करीब अपना शासन चलता था। पर बाहरी मामलों में वे अंग्रेजों का आधिपत्य मानते थे। पिछले तीन वर्षों से दिल्ली से जिस तरह से शासन किया जा रहा है वह कमोबेश दर्शा रहा है कि सत्ता के शिखर पर लोकतांत्रिक पद्धति से बैठा व्यक्ति भी अपने ‘राज्य मोहÓ से उबर नहीं पा रहा है। आखिर में यह दिखाई देने लगा है कि अब गुजरात बनाम बाकी भारत जैसा माहौल बनाया जा रहा है। इसके सुखद व दुखद परिणामों पर चिंता करना शायद बेमानी होगा क्योंकि विचार तो भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की निष्पक्षता पर होना चाहिए।
शुरूआत में ही गुजरात मॉडल की उपलब्धियों को बिना किसी टीका टिप्पणी के समझ लेना चाहिए। मानव विकास सूचकांक संबंधित एक रिपोर्ट के अनुसार यदि राज्यवार गणना करें तो हम पाते हैं कि गरीबी के मामले में गुजरात देश में 10 वें स्थान पर, सुरक्षा के मामले में 24वें, शिक्षा में 15 वें, स्वास्थ्य में 16 वें और लैंगिक समानता के मामले में 16 वें स्थान पर है। सत्ता के इस चक्र ने एक ही राष्ट्र के भीतर रह रहे नागरिकों को आमने सामने खड़ा कर दिया है। गुजरात चुनाव में नर्मदा पर बनने वाला सरदार सरोवर बांध प्रमुख मुद्दा बन गया है। ध्यान रहे कि सरदार सरोवर बांध का शिलान्यास पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। यह शिलान्यास सरदार पटेल के निधन के करीब दस साल बाद हुआ और कथित तौर पर पटेल विरोधी कहे जाने के बावजूद पंडित नेहरू ने इस बांध का नाम महात्मा गांधी नही सरदार पटेल के नाम पर रखा। जबकि दोनों ही गुजरात से थे। परंतु एक अपूर्ण बांध का उद्घाटन करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेहरू का जिक्र न कर, पद की गरिमा को धक्का ही पहुंचाया है। चुनाव जीतने और सिर्फ गुजरात के विशिष्ट वर्ग को लाभ पहुंचाने की नीयत से भाजपा की सरकार ने अपने गठन के 17वें दिन बांध के गेट बंद करने का एक तरफा निर्णय ले लिया। इसमें मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र ही नहीं गुजरात के भी बांध प्रभावितों और विस्थापितों की पूरी तरह से अनदेखी की गई। वे लोग आज भी भटक रहे हैं। अभी तीन नवंबर को नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मेधा पाटकर के नेतृत्व में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिलने का समय मांगा, जिससे कि वे पुनर्वास में आ रही समस्याओं पर बात कर सकें और उनके सामने अपना पक्ष रख सकें। लेकिन पिछले 13 वर्षों की तरह किसान पुत्र मुख्यमंत्री ने समय नहीं दिया।
गुजरात चुनाव के मद्देनज़र जीएसटी में जब ‘खाखराÓ पर कर कम किया तो उसका विशेष उल्लेख किया गया। घाटे का रेलमार्ग और 40 प्रतिशत से अधिक क्षमता खाली रहने के बावजूद बुलेट ट्रेन अहमदाबाद व मुंबई के मध्य ही चलेगी। भले ही अंत में मुफ्त में मिले 1,50,000 करोड़ से 10 गुणा ज़्यादा भारत को जापान को वापस करने होंगे। क्यों और कैसे यह चिंता का विषय है। गुजरात के प्रदूषण फैलाने वाले कारखाने मध्यप्रदेश की सीमावर्तीं जि़लों में स्थानांतरित हो रहे हैं, और मध्यप्रदेश शासन-प्रशासन आंखों पर पट्टी बांधे पड़ा है। उसमें हिम्मत ही नहीं है कि वह गुजरात के उद्यमियों का विरोध कर सके। सरदार सरोवर बांध से नर्मदा नदी के प्रवाह में आई रुकावट से मछुआरों की दुर्दशा और भड़ूच जि़ले में बड़े पैमाने पर उपजाऊ भूमि का क्षारीय होते जाना भी भाजपा व सरकार की आंख खोल पाने में असमर्थ है। जीत हार या व्यक्तिगत उच्चकांक्षा के लिए, देश-प्रदेश का भविष्य दांव पर लगाना कोई समझदारी की बात नहीं है। परंतु यदि राष्ट्राध्यक्ष भी तात्कालिकता के वशीभूत होकर कार्य करेंगे तो राजनीति का भविष्य अधिक अंधकारमय होता चला जाएगा।
गुजरात चुनाव में सामने आ रही कटुता की परिणति क्या होगी। इसका अनुमान आज लगा पाना कठिन है। परंतु एक किस्म की निष्ठुरता के चलते कोई यह नहीं सोच पा रहा है, कि इस विध्वंसकारी प्रचार के बाद संबंधों को सामान्य कैसे बनाएंगे। सरदार सरोवर बांध से विस्थापित समुदाय को उम्मीद थी कि चुनाव में उनकी दुर्दशा पर या उनके जख्मों पर मरहम लगाने का कोई तो उपाय सुझाया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
आज़ादी के तुरंत बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों पर काबू न पाने की अवस्था में महात्मा गांधी से दिल्ली आने का आग्रह किया गया था। वे दिल्ली आए। तब प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी उनसे मिले और कहा कि ‘आपने इस राष्ट्र को बनाया है। आपको इसे आगे बढ़ाना चाहिएÓ। लंबी चर्चा के बाद गांधी ने कहा,’ मैं जो कहता हूं, वही करना चाहता हूं। मुझमें धीरज है, परंतु मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मेरा धीरज तेजी से टूट रहा हैÓ। आज देश एक बार फिर उसी दौर जैसी परिस्थितियों में प्रवेश कर सकता है। बढ़ती आर्थिक असमानता, सांप्रदायिकता, आंचलिकता और जातिवाद में आए उछाल को यदि काबू में लाने का प्रयास नहीं किया गया तो स्थितियां बेकाबू हो सकती हैं।
विकास के उपकरणों -सड़क,बिजली, पानी को विकास बताकर जो नुकसान हम कर रहे हैं, वह वास्तव में अनूठा है। गुजरात यदि अपने नागरिकों को स्वास्थ्य, शिक्षा व सुरक्षा, लैगिंक भेदभाव जैसे मामलों में तसल्ली नहीं दे पा रहा है, तो वह किसका व किस तरह का विकास कर रहा है? स्वास्थ्य के मामले में तो गुजरात मध्यप्रदेश से भी पीछे है। मानव विकास सूचकांक में हम पिछले वर्ष 130वें स्थान से 131 वें स्थान पर आ गए। लेकिन गुजरात चुनाव में मनुष्य-मनुष्यता और गरिमा चुनाव के विषय नहीं हैं। सिर्फ आर्थिक बतौलेबाजी ही एकमात्र ध्येय बन कर रह गया है।
सम्पन्नता यदि एकमात्र पैमाना है, तो गुजरात मॉडल हो भी सकता है। परंतु यदि राष्ट्र विकास पैमाना है तो सम्पन्नता बिना समता के अर्थहीन ही है। पूंजी के संग्रहण के समानांतर यदि उसका वितरण न्यायोचित नहीं होगा तो एक स्वतंत्र और औपनिवेशिक राष्ट्र के मध्य का अंतर भी अर्थहीन हो जाएगा।
यह साल विश्व बैंक के भारत में आगमन का 50 वां साल है और नक्सलवादी आंदोलन की शुरूआत का भी। विकास के यह दोनों पैमाने हमारे यहां की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। विकल्प वही है जो गांधी ने सुझाया था और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे समूह पिछले तीन दशकों से उसकी उपयोगिता और औचित्य को सही सिद्ध कर रहे हैं। विश्व बैंक के सपनों का भारत तो बेरोज़गारी का नरक ही लाएगा। गुजरात विकास माडल उसकी का एक सजीव प्रदर्शन है। पूरे चुनाव में गुजरात की शिक्षा, स्वास्थ्य प्रणाली पर कोई गंभीर बहस या विकल्प का सुझाव सामने नहीं आ रहा है। वहां के आदिवासियों के साथ हो रहें अत्याचार अब भी सुर्खी नहीं बटोर पा रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि समाज में मौजूद उदासीनता के वातावरण को समाप्त किया जाए।
डा. लोहिया कहा करते थे कि,’ हर स्कूली बच्चे को यह मालूम होना चाहिए कि राजाओं की फूट के कारण नहीं,बल्कि लोगों की उदासीनता के कारण हमलावरों को कामयाबी मिली, इसलिए लोगों की दिलचस्पी सबसे अधिक महत्व की बात हैÓ। हमें भी लोकतंत्र के प्रति भारतीय जनमानस में बढ़ती उदासीनता को समाप्त करना होगा जिससे कि वे फैसला लेने की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभा सके।
नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे समूहों ने हमें बता दिया है कि अच्छे अधिकारों के प्रति सचेत रहने से किस तरह अत्याचार से टकराया जा सकता है।
गुजरात में शिवसेना का दांव! बीजेपी के खिलाफ भड़ास या चेतावनी
गुजरात विधानसभा के चुनाव दो चरणों यानी नौ और चौदह दिसंबर को हैं। भाजपा ने इस चुनाव में विजयी होने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। पार्टी के कई केंद्रीय मंत्री वहां अर्से से लगातार जमे हुए हैं। संघ परिवारों के कार्यकर्ता भी घर-घर प्रचार में जुटे हैं। उधर विपक्ष में कांग्रेस ने इस बार चुनौती स्वीकार की है। अशोक गहलोत के निर्देशन में पार्टी ने अपना आधार मज़बूत किया है। गुजरात सरकार के खिलाफ राज्य में विभिन्न समुदायों में आंदोलन चला रहे युवा नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी के समर्थन पर अब भी ऊहापोह है। उधर भाजपा की अपनी सहयोगी पार्टी शिवसेना ने गुजरात में पचास से पचहत्तर उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने का मन बनाया है। इस पूरे मामले पर मनमोहन सिंह नौला ने अच्छी जानकारी बटोरी है।
केंद्र और महाराष्ट्र में सरकार की सहयोगी होने के बावजूद शिवसेना का रवैया हमेशा विपक्ष की भूमिका जैसा रहा है। शिवसेना ने लगभग सारे पैंतरे इस्तेमाल कर लिए हैं जिनके चलते उसे उम्मीद थी कि बीजेपी उसे ‘बड़े भाईÓ के तौर पर स्वीकार करे, लेकिन केन्द्र और महाराष्ट्र में अपने आपको मज़बूत कर चुकी बीजेपी के लिए शिवसेना की कोई विशेष औकात नहीं रही है। हालांकि बीजेपी को महाराष्ट्र में जमीन तैयार करने में मदद शिवसेना ने ही की थी। और बीजेपी ने खुद को छोटा भाई मानते हुए अपनी जड़ों को मजबूत बनाने की कोशिश शुरू की थी। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के कद को बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी,अटल बिहारी वाजपेई और प्रमोद महाजन जैसे तेज़ तर्रार युवा नेता समझते थे। बदलती स्थितियों में शिवसेना का कद घट कर रह गया है हालांकि वह अपने आपको मजबूत बनाने लगी है फिर भी सरकार में रहते हुए भी विशेष दर्जा नहीं मिल पाने का दर्द और फ्रस्ट्रेशन की उपज है यह क़दम।Ó कहना है वरिष्ठ पत्रकार डीके जोशी का। बीजेपी को सबक सिखाने के लिए शिवसेना गुजरात विधानसभा चुनाव में अपनी खास रणनीति के साथ चुनावी अखाड़े में उतरी है। सरकार की आलोचना करने वाली शिवसेना अब मोदी सरकार को उनके ही गढ़ में टक्कर देने की तैयारी कर रही है।
शिवसेना के साथ शरद पवार की पार्टी एनसीपी भी गुजरात चुनाव में बीजेपी को घेरने की रणनीति बना चुकी है। गुजरात विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां बीजेपी के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरेंगी। शिवसेना ने ऐलान कर दिया है कि वह गुजरात विधानसभा चुनाव में 50 से 75 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने जा रही है, वहीं एनसीपी चीफ शरद पवार ने कहा कि वे गुजरात में बीजेपी का नहीं, कांग्रेस का साथ देंगे।
गुजरात में जहां एक तरफ बीजेपी कांग्रेस के साथ-साथ पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवानी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर से चुनौती का सामना कर रही है, वहीं, अब इस महायुद्ध में बीजेपी को टक्कर देने के लिए शिवसेना भी शामिल होने जा रही है। अगर शिवसेना बीजेपी के वोट काटने में कामयाब रही तो बीजेपी के लिए बड़ा झटका साबित हो सकता है।
शिवसेना के गुजरात प्रभारी राजुल पटेल का कहना है, ‘शिवसेना ने सूरत और राजकोट की सीटों पर प्रत्याशियों को उतारने का फैसला लिया है। इसके अलावा सूरत और अमदाबाद के बीच के क्षेत्रों में जहां बड़ी तादाद में मराठी मूल के लोगों का दबदबा है, उन इलाकों में शिवसेना अपने उम्मीदवार खड़े करेगी।Ó
राजुल पटेल के मुताबिक चुनाव में शिवसेना का एजेंडा हिंदुत्व ही रहेगा। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि ‘शिवसेना किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी, लेकिन फिर भी अगर कोई ऐसी स्थिति आती है तो उस पर आखिरी फैसला पार्टी सुप्रीमो उद्धव ठाकरे लेंगे।Ó
गुजरात में बीजेपी की गले की हड्डी बन चुके पाटीदार नेता हार्दिक पटेल शिवसेना के साथ लंबे समय से संपर्क में हैं और मातोश्री में उद्धव ठाकरे से मिल चुके हैं। कयास लगाए जा रहे हैं हार्दिक पटेल से शिवसेना की ‘दोस्तीÓ बीजेपी को भारी नुकसान भी पहुंचा सकती है। हालांकि हार्दिक का कहना है कि इस बार कांटे टक्कर की है और यह सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही है। हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना का लडऩा कोई ज्य़ादा मायने नहीं रखेगा।
ऐसा नहीं कि शिवसेना पहली बार गुजरात में चुनाव लडऩे जा रही है। शिवसेना ने 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में करीब 40 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन राज्य में अपना खाता नहीं खोल पाई थी। इसे गुजरी बात कहते हुए शिवसेना के एक वरिष्ठ नेता का मानना है कि इस बार गुजरात की तस्वीर बदल गई है बीजेपी से मोहभंग होने लगा है। ‘सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ शिवसेना की भूमिका अहम रही है हम वही कर रहे हैं।बीजेपी को यहां सत्ता में काबिज़ हुए दो दशक से ज्य़ादा का वक्त हो गया है लोग बदलाव चाहते हैं।Ó
गुजरात में विधानसभा की 182 सीटों पर नौ और 14 दिसंबर को वोटिंग होगी और नतीजे 18 दिसंबर को घोषित किये जायेंगे। बीजेपी के लिए गुजरात चुनावों के नतीजे कितने महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बीजेपी ने अपनी सारी ताकत झोंक दी है। महाराष्ट्र सरकार की कैबिनेट में किए जाने वाले फेरबदल की तस्वीर गुजरात चुनावी नतीजों पर निर्भर करेगी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने दीपावली के अवसर पर कैबिनेट फेरबदल और कांग्रेस छोड़ कर आए नारायण राणे के कैबिनेट में शामिल होने की बात कही थी लेकिन अब यह गुजरात के नतीजों तक टल गया है। सूत्रों के मुताबिक यदि बीजेपी अच्छे मार्जिन से जीतकर आती है तो कैबिनेट फेरबदल में ज्यादा बदलाव नहीं किया जाएगा लेकिन यदि नतीजे बेहतर नहीं आए तो व्यापक स्तर पर बदलाव किए जाएंगे। शिवसेना नारायण राणे को बीजेपी में शामिल करने का विरोध कर रही थी। राणे एक जमाने में शिवसेना के खास नेता हुआ करते थे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। उद्धव ठाकरे को मुखिया बनाए जाने के खिलाफ शिवसेना से बगावत कर वे कांग्रेस में शामिल हुए थे। मज़ेदार बात यह है कि राणे को हरी झंडी दिखाकर ज़हां बीजेपी शिवसेना को ‘जलाÓ रही है वहीं शिवसेना नोटबंदी, किसानों की कर्ज माफी में विफलता व जीएसटी के मुद्दे पर बीजेपी को अपने मुखपत्र ‘सामनाÓ में पानी पी पी कर कोस रही है और राहुल गांधी के कसीदे पढ़ रही है।
यही वजह है कि मुंबई से बीजेपी के सांसद किरीट सोमैया को लग रहा है कि गुजरात में शिवसेना और कांग्रेस के बीच गुप्त समझौता हो गया है और कांग्रेस के कहने पर ही शिवसेना अपने उम्मीदवार उतार रही है, क्योंकि इससे पहले उद्धव ठाकरे के बाएं हाथ माने जाने वाले शिवसेना सांसद संजय राउत गुजरात में शिवसेना के चुनाव न लडऩे की बात कह चुके थे।
सांसद सोमैया के बयान को कांग्रेस नेता भाई जगताप ने हास्यास्पद करार दिया है, परन्तु शिवसेना रहस्यमय ढंग से चुप्पी साधे है। उल्टे उसने गुजरात चुनाव से पहले जीएसटी की दरों में किए गए बदलाव को लेकर बीजेपी पर ‘बिलो द बेल्टÓ टिप्पणी करते हुए पार्टी के मुखपत्र में लिखा है ‘गुजरात में $फटी, तो जीएसटी घटी।Ó यह इस बात का संकेत है कि महाराष्ट्र में चुनाव चाहे समय पर हों या समय से पहले शिवसेना भाजपा को हर कीमत पर गुजरात में कमजोर देखना चाहती है, ताकि राज्य में जब भी चुनाव हो वह भाजपा के खिलाफ मराठी अस्मिता को उकसा सके।
अगर गुजरात में भाजपा कमजोर रही तो उसका बड़ा असर महाराष्ट्र में पडऩा स्वाभाविक है, क्योंकि महाराष्ट्र में भी भाजपा की जीत में गुजराती वोटरों की बड़ी भूमिका रही है। महाराष्ट्र में जो ताजा कोशिश भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने की है। शिवसेना इसका प्रत्यक्ष हिस्सा होगी या नहीं यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना परस्पर एक दूसरे के प्रभाव वाली सीटों पर कमजोर उम्मीदवार देकर मदद का ब्लूप्रिंट तैयार कर रहे हों तो आश्चर्य नहीं होगा। बहरहाल सभी की प्राथमिकता गुजरात के नतीजों को मनमाफिक प्रभावित करने की है।
‘बड़ा गोलमाल कर सकती है भाजपा’
गुजरात विधानसभा चुनाव में पटेल समुदाय बीजेपी के लिए गले की हड्डी बन गया है। बीजेपी के तमाम पैंतरों और रणनीतियों को 23 साल के हार्दिक पटेल बैकफुट पर धकेलते दिखाई दे रहे हैं। राज्य में अगले महीने 9 और 14 दिसंबर को मतदान होंगे और नतीजा 18 दिसंबर को आ जायेगा। बीजेपी से खफा हार्दिक पटेल की अगुवाई वाली पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पास) ने गुजरात विधानसभा चुनाव में पाटीदार समुदाय का समर्थन कांग्रेस को देने के लिए शर्त रखी है कि पार्टी ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर पहले अपना रुख साफ करे। पाटीदार समाज के युवा नेता हार्दिक पटेल से चुनाव में उनकी भूमिका और कांग्रेस को समर्थन संबंधित कई मुद्दों पर मनमोहन सिंह नौला ने खास बातचीत की।
कहा जा रहा है कि हार्दिक पटेल की पकड़ गुजरात में बीजेपी के आगे कमज़ोर पड़ती जा रही है?
यह सब भारतीय जनता पार्टी के फैलाये जा रहे झूठ की साजि़श का हिस्सा है। दरअसल सच्चाई यह है कि बीजेपी बुरी तरह से डर गई है । अपने टूटते तिलस्म से बौखलाई हुई है। वह भूल गयी है कि साम दाम दण्ड भेद के प्रयोग का खामियाजा भुगतना ही पड़ता है। गुजरात सरकार आंदोलनकारियों को प्रताडि़त कर रही है, लेकिन पाटीदार समाज इतना कमज़ोर नहीं है। पिछले कुछ वक्त से सरकार यहां बैकफुट पर हो गयी है और फ्रंटफुट पर आने की कोशिश कर रही है। बीजेपी जितना हमें दबाने की कोशिश करेगी उतना ही हम मज़बूत होंगे….. मजबूत बन रहे हैं। मजबूत बनकर हम इन्हें इनकी जगह दिखा देंगे।
क्या वाकई बीजेपी खरीद फरोख्त कर रही है? आपके कार्यकर्ता बिकाऊ कैसे बन गए हैं, कितनी सच्चाई है?
देखिए पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। लेकिन सभी कमजोर नहीं होते। मैंने कहा न कि बीजेपी अब आने वाले समय के नतीजों से डरी हुई है। वह नैतिक मूल्यों को भूलकर सब कुछ कर गुजरने को तैयार है। उसने हमारे दो अच्छे आंदोलनकारियों को खरीद लिया है। आज वो लोग उनकी गोद में जाकर बैठे हंै। पटेल समाज के दोनों अच्छे आंदोलनकारी वरुण और रेशमा पटेल आज बीजेपी का दामन थाम चुके हैं, दोनों ही अच्छे लीडर थे। मुझे भी बीजेपी की तरफ से ऑफर किया गया था लेकिन मैंने ‘नÓ बोल दिया। मुझसे कहा गया था कि आपको वरुण और रेशमा से ज़्यादा दिया जायेगा। हमारे एक सहयोगी को एक करोड़ का ऑफर हुआ और तो और 10 लाख अपने आप उसके अकाउंट में जमा कर दिए गए। बीजेपी चुनाव में हर संभव पैंतरे
अपना रही है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी मानसिक स्थिति क्या है।
आप लोगों का आरोप है कि बीजेपी आंदोलनकारियों पर जानलेवा हमला कर रही है, अगर यह सच है तो आप इन हमलों की बाबत पुलिस कंप्लेंट क्यों नहीं करते ?
सवाल आपका सही है ….. लेकिन बात भरोसे की है। पुलिस पर क्या भरोसा करें। कुछ दिनों पहले मेरे सहयोगियों पर जानलेवा हमला किया गया, मेरे ऊपर भी कई बार हमला किया जा चुका है। पुलिस तंत्र पर हमे खास भरोसा नहीं, वे लोग आज कुछ भी कर सकते हैं। हमारे लोगों पर मुकदमा लगा दिया जाता है, केस बनाया जाता है 307 का। हमें तो हर पुलिस स्टेशन के चक्कर काटने पड़ते हैं। मेरा तो पासपोर्ट भी जमा है। बीजेपी ने ज़बरदस्ती आरोप बनाया है हम पर। पूरे गुजरात में हमारे आंदोलन के दौरान केस लगाए गए हंै। एक केस में 39 लोगों पर 307 का मुकदमा दर्ज किया है। हम लोग किसी का नाम बोलकर पाटीदार समाज के लोगों पर जान का खतरा नहीं ला सकते, हमारी चुप्पी ही हमारा जवाब है। और देखिएगा यह चुप्पी क्या रंग लाती है। तूफान के पहले की खामोशी है यह।
बीजेपी के खिलाफ अपनी रणनीति में कोई बदलाव किया है आपने ?
नहीं, बीजेपी को हराना हमारा मकसद नहीं। हमारा पहला मकसद ये है कि हमें आरक्षण मिले। बीतें कुछ समय में बीजेपी ने हमारे साथ जो बुरा व्यवहार किया है, हमारे आंदोलन और विरोध को दबाने की कोशिश की है उसका करारा जवाब भी देना है। जैसे हम लोग को सभा करने और अनशन की अनुमति नहीं दी जाती, शांतिपूर्ण आंदोलन में हमारे लोगों को गिरफ्तार कर उन पर केस बना दिया जाता है। हार तय है उनकी। चुनाव से पहले बड़े बड़े वादे किये गए, हमारी पांच मुख्य मांगों को सरकार ने पूरा करने का वाद किया। 27 महीनों में 12 बार हमें मीटिंग के लिए बड़े बड़े मिनिस्टरों ने बुलाया। लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया। चुनाव डिक्लेयर होने के बाद मिले जुले लोगों को सरकार ने 20-20 लाख का चेक थमा दिया। जाना तो निश्चित ही है इस सरकार का।
आपको इतना भरोसा ?
हमारे भरोसे की वजह है … क्योंकि इस सरकार पर लोगों का भरोसा नहीं है।..इस सरकार पर किसी को भरोसा नहीं रहा, इसलिए हम लोग बीजेपी को गुजरात से उखाड़ फेंकेंगे, 2012 के चुनाव में बीजेपी ने 182 सीटों में से 120 हासिल की थी लेकिन इस बार पाटीदार समाज बीजेपी को 70 के नीचे तक सीमित कर देंगे। हमारे साथ सिर्फ पाटीदार समाज नहीं जुड़ा है बल्कि किसानों का एक बड़ा तबका हमारे साथ है। जिन्हें न पानी मिलता है न बिजली, सरकार किसानों को उनकी जायज़ मजदूरी तक नहीं देती। मूंगफली और कपास की खरीद का उचित दाम भी नहीं दिया जाता। इस बार पाटीदार समाज जो 70 फीसदी खेती पर आधारित है वो लोग सरकार से नाराज़ है। हर बात की कोई न कोई सीमा तो होती ही है। सीमा टूट गई है।
माना जाता है कि पाटीदार और पटेल समाज पहले से ही अमीर है, तो उन्हें आरक्षण की ज़रूरत नहीं है…
मैं एक गलतफहमी दूर करना चाहता हूं। पाटीदार समाज अगर इतना ही अमीर होता तो भला वह आरक्षण की मांग क्यों करता? 80 फीसदी लोग खेती पर जीवन यापन करते हैं, रोज़गार की तलाश में लोग गांव से माइग्रेट हो रहे हैैं। पाटीदार अब सूरत और अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में पलायन कर रहे हैैं, जहां रोज़गार की तलाश में वे अब शहर में हीरे की मजदूरी करते हैं जिसकी कमाई हर मौसम एक सी नहीं होती है, गांव के मुकाबले शहरों में जीवन जीना ज्य़ादा कठिन है। वहां महंगी शिक्षा और घर मकान मिलना कठिन है। ज्य़ादा पैसा कमाने वाला 15 फीसदी ही अमीर है, जिनके पास ज्वेलरी आदि का बिज़नेस है। अब इस आंकड़े के मुताबिक क्या सभी को अमीर मान लेना चाहिए?
अब कांग्रेस को भी आप लोगों ने आरक्षण के मामले को लेकर, शर्तें थोप दी हैं। इससे कांग्रेस और आपके बीच खटास आ सकती है ?
खटास आने का सवाल कहां उठता है? कोई नाजायज मांग तो है नहीं।हम लोग अगर आपको समर्थन दे रहे हैं तो यह हमारा अधिकार बनता है कि हम अपने हितों की बात बिल्कुल करें।…. देखिए पिछले कई सालों से गुजरात के पास बस दो ही विकल्प रहे हैैं। कांग्रेस और बीजेपी। 1995 से लगातार बीजेपी का ही इस राज्य में कब्ज़ा रहा है, उससे पहले कांग्रेस थी। गुजरात के लोग विचारशील हैं। बीजेपी को यहां 20 साल से ज़्यादा हो गए। हम लोगों ने पार्टी पर विश्वास रखा। तभी आज राज्य का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बन गया है। गुजरात के उद्योगपतियों ने पैसा देकर आज प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचा दिया है लेकिन प्रधानमंत्री ने हमें नहीं देखा, हमारे पास दूसरा विकल्प कांग्रेस ही है। बाकि आम आदमी पार्टी, एनसीपी अभी डेवलेप हो रही है। उन्हें वक्त लगेगा, हमारे पास विकल्प नहीं है…..। लेकिन आज युवाओं की सोच में बड़ा बदलाव आया है।
यह वह युवा वर्ग है जो आंख बंद कर किसी पर विश्वास नहीं करता। गुजरात के युवा अब मोदी की माया जाल में फंसने वाले नहीं है। आज का युवा ये देख रहा है कि पिछले 20 सालों में गुजरात मे क्या विकास हुआ है? गुजरात का यह युवा अब ये देख रहा है, समझ रहा है कि गुजरात में नदियों पर डैम किसने बनाये, यूनिवर्सिटी, सरकारी हॉस्पिटल और रोड किसने विकसित किए। क्या ये सब 20 साल पहले ही विकसित हो चुके थे?… या अभी बनाई गयी है। आज का युवा इतिहास देख रहा है। हर छोटी बड़ी बात की बारीकी देख रहा है। निरीक्षण कर रहा है। कांग्रेस के शासन में क्या विकास हुआ? बीजेपी ने क्या दिया गुजरात को? सिर्फ अहमदाबाद और वडोदरा की तस्वीर से पूरे गुजरात का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। दूर दराज के गांवों में, इलाकों में, क्षेत्रों में तस्वीरें बिल्कुल अलग है।..
दरअसल सच्चाई यह है कि मोदी ने अपने प्रचार और प्रसार के जरिए गुजराती समाज को अपनी तरफ लुभाया था। मोदी जी ने 2012 में कपास और मूंगफली की खरीद से संबंधित कई वादे किये थे….. इसी विश्वास पर लोगों ने एक बार फिर उन्हें चुना लेकिन वे अपने वादे भूल गए इसलिए किसान समाज भी बीजेपी से नाराज़ है।
कांग्रेस आपकी शर्ते मानेगी? और अगर कांग्रेस अपनी शर्तों को नहीं मानती है तो आप क्या करेंगे?
मुझे लगता है, और मैं अब तक 900 गांव में सभा और सम्मेलन कर चुका हूँ। वहां मैं लोगो से मिलता हूँ, दलित से लेकर रघुमति समाज मुझे अपनी सभाओं में बुलाते हंै। मैंने पाया की ज्य़ादतर लोग सरकार से खुश नहीं है। मैंने दलित से लेकर हर तबके के लोगों से मुलाकात की। उनसे मिलकर यह पता चला कि सिर्फ पाटीदार समाज ही नहीं बल्कि कई और समाज भी है जो अब बीजेपी के खिलाफ हैं। आज ओबीसी, पाटीदार, रघुमति और दलित सब यही चाहते है कि अब बस बीजेपी को गुजरात से निकालना है। कांग्रेस का मकसद भी बीजेपी को हटाना हैं। हमारे साथ मिलकर उनके लिए यह आसान हो जाएगा….यह उन्हें भी पता है।
कांग्रेस ने 20 साल पहले हमारे पाटीदारों को नाराज़ किया नतीजा आपके सामने है। आज 20 साल से ज्य़ादा का वक्त हो गया है, कांग्रेस गुजरात में सत्ता से दूर है, अब वही काम बीजेपी कर रही है। इसलिए बीजेपी के सामने भी इसका नतीजा आ जायेगा, और कांग्रेस अगर सत्ता में आई और उसने हमारी मांगों को अनदेखा किया तो फिर पाटीदार इतना तो काबिल है कि 14 फीसदी लोग इन्हें फिर से सत्ता से दूर कर दें।
कांग्रेस का मानना है कि राहुल गांधी के आने से गुजरात चुनाव समर की तस्वीर बदल गई है…कुछ फर्क पड़ा है?
फरक तो पड़ा है….जैसे, गुजरात में हार्दिक पटेल, दलित लीडर जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी लीडर अल्पेश ठाकुर गांव गांव में घूमते हैं और जनता के बीच जाते हैं तो जनता को लगता है कि हम लोग उनकी आवाज हैं, वैसे ही अब जनता को लग रहा है कि राहुल उनकी आवाज़ है जो आज उनके बीच आये हैं। और जो ये भीड़ इकठ्ठी होती है वो रियल होती है इन्हें हार्दिक और राहुल को आदेश देकर बुलाना नहीं पड़ता। लोग अपने दिल की आवाज़ सुनकर राहुल और हार्दिक की सभाओं और रैलियों में आते हैं, न की संतों का आदेश का पालन समझते हुए। जैसे की मोदी जी की अक्षरधाम सभा में संतों ने सभा में भक्तों को आने का आदेश दिया था। आज गुजरात के लोगों को यह यकीन हो गया है कि राहुल गांधी उनके लिए अच्छा करेंगे और यहां क्रांति आएगी।
बीजेपी ने हिंदुत्व कार्ड खेला था, और गुजरात के लोगों ने उनका साथ दिया लेकिन कांग्रेस में तो हिंदुत्व का सवाल ही नहीं उठाती?
मेरे ख्याल से हिंदुत्व अब कोई मुद्दा नहीं रहा है। बीजेपी इसे खामखा राजनीतिक मुद्दा बना रही है । आज गुजरात का युवा इतिहास देख रहा है,आज लोगों में जागरूकता आ गई है। 2002 के दंगे आज भी लोगों के ज़ेहन में है। आज पाटीदार समाज भी उस दंगे के ज़ख्म को झेल रहा है। लेकिन अब लोगों को ये साफ पता चल गया है कि कैसे हमे बीजेपी ने हथकंडा बनाया और सत्ता हासिल की। अब कोई समाज बंधा हुआ नहीं रहना चाहता और न ही किसी के बहकावे में आएगा। लेकिन अब गुजरात की जनता जाग गई है। हमको बैसाखी बनाकर मोदी जी एवरेस्ट पर चढ़ गए। लेकिन आज हम सच देख सकते है और इसमें सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। जिसने सच्चाई को जनता के सामने लाने में अहम भूमिका निभाई है। आज लोग हिंदू-मुस्लिम से ऊपर उठकर सोच रहे हंै, अब सबके सामने सच्चाई आ गई है। आज बीजेपी गो हत्या और हिंदुत्व के नाम पर लोगों को लड़ा रही है। यह कोई जायज़ तरीका है सत्ता में आने का?
विकल्प के तौर पर गुजरात में कोई तीसरी पार्टी क्यों नहीं उभरती? कांग्रेस, बीजेपी के अलावा कोई सरकार क्यों नहीं बन सकती?
ऐसा नहीं कि इस विषय पर सोचा नहीं गया है। लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं हो सका। पिछले कई वर्षों से यहां अभी दो पार्टी ही मज़बूत है, हालंाकि, एक बार तीसरी पार्टी पर विचार हुआ था। लेकिन समस्या ये है कि हमने आंदोलन के लिए सोचा लेकिन कभी राजनीति में जाने का विचार नहीं किया। गुजरात के लोग की विचारधारा है कि यहां दो पार्टियां ही रह सकती है बाकी कोई आई तो उसे समर्थन दिया जायेगा।
बात तो इस तरह की भी सुनाई दे रही है कि अगर हार्दिक पटेल आरक्षण छोड़ राजनीति करने लगे तो उन्हें पाटीदारों का समर्थन मुश्किल है।
यह सब ग़लत बात फैलाई जा रही हैं , जनता खुद बोलती है कि हार्दिक तुम राजनीति में आ जाओ, लेकिन मैंने अपना स्टैंड क्लियर कर दिया है कि कम से कम ढाई साल तक तो मैं राजनीति में आने की सोच भी नहीं सकता, क्योंकि अभी मेरी उमर नहीं है। हार्दिक फिलहाल पाटीदार समाज के लिए ही लड़ेगा। बीजेपी का सोशल मीडिया ये सारी अफवाहें उड़ाता है। मैं राजनीति में आऊंगा तो ज़रूर वह भी डंके की चोट पर आऊंगा।
हार्दिक की इस बात का क्या अर्थ लगाया जाय कि चोर और महाचोर में से महाचोर को हटाना है…. कांग्रेस और बीजेपी?
बात बिल्कुल सरल और साफ है , बिलकुल दोनों पार्टियां ही चोर हैं, लेकिन हमें महाचोर को खदेडऩे के लिए चोर का सहारा लेना ही पड़ेगा। हमें किसी एक चोर को चुनना पड़ेगा। हमें बड़े चोर को चुनना नहीं है इसलिए हम छोटे चोर को चुनेंगें।
ख़बर है कि शिवसेना भी 40 से अधिक सीटों पर चुनाव लडने की तैयारी में है… शिवसेना के इस कदम से क्या फर्क पड़ेगा?
आप पिछले 70 सालों का इतिहास देखें तो पाएंगे कि गुजरात में तीसरी पार्टी के लिए कोई जगह नहीं है। शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर लडऩे की घोषणा करेगी। हिन्दू मुस्लिम के नाम पर यहां कोई कार्ड नहीं खेल सकता है। आर पार की लड़ाई है गुजरात में। कांग्रेस या बीजेपी। और बीजेपी को हटाना चाहती है जनता यहां की। वह शिवसेना को क्यों वोट देगी?
वीवीपीएटी मशीनों पर भी सवाल उठाया है….
उठाना लाजमी है। क्योंकि लेवल टेस्ट में ही चुनाव आयोग की 3,500 मशीनें फेल साबित हुई हैं। यही वजह है कि गुजरात चुनाव में वीवीपीएटी मशीनें काम नहीं करेगी और इस बार भी बीजेपी बड़ा गोलमाल कर सकती है।
संवैधानिक बाधा नहीं आरक्षण में : हार्दिक
‘मुद्दे बीजेपी ने हरामाओ चे, अनामत नो नाथी’
गुजरात की सत्ता पार्टी के खिलाफ अपने कड़े रूख को कायम रखते हुए हार्दिक पटेल ने यह बात कहीं। पटेल समुदाय के लोगों के बीच बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘आरक्षण देने में कोई संवैधानिक बाधा नहीं है। मैंने सात दिन संविधान पढ़ा। मुझे ऐसी चीज़ कहीं भी नहीं मिली जिससे यह पता लगे कि पचास फीसद से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। उन्होंने पाटीदारों से उसी तरह एक होने को कहा जैसे दलित हैं।’11 नवंबर को प्रेस से बातचीत करते हुए उन्होंने यह कहा। वहां मौजूद पटेल समुदाय ने इस पर ‘हार्दिक हार्दिक’ के नारे लगाए।
जब पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति (पीएएएस) के इस युवा नेता से पूछा गया कि क्या वे किसी पार्टी में शामिल होने को हैं? उन्होंने उस पर कोई जवाब नहीं दिया। यह पूछने पर कि क्या उन्हें लगता है कि कांग्रेस का इरादा आरक्षण देने का है। उन्होंने कहा, यदि इरादा आरक्षण नहीं देने का होता तो वे बातचीत ही क्यों करते और संभावना नहीं तलाशते। हार्दिक ने कहा, वे मुझसे रात में बारह बजे मिले। हमने तीन घंटे बातचीत की। अगर इरादा नहीं होता तो वे इतनी देर तक बात क्यों करते।
उन्होंने कहा उनसे अभी बातचीत और होनी है। इसके बाद ही घोषणा हो जाएगी। लेकिन यह तय है कि जो फैसला लिया जाएगा। वह समुदाय से पूरी रात बात करके ही होगा। गुजरात के किसानों के बारे में उन्होंने कहा कि राज्य सरकार उनके लिए कुछ नहीं करती दिखती। उनके साथ मिल कर आवाज उठाई जाएगी। उन्होंने कहा, वे खुद उनके बीच कुछ दिन रहेंगे और उनकी समस्याएं सुनेंगे। उन्होंने कहा कि पाटीदार ओबीसी के कतई खिलाफ नहीं हैं ।
पाटीदारों के लिए गुजरात में आरक्षण आंदोलन छेडऩे वाले युवा नेता हार्दिक पटेल ने पाटीदारों को सलाह दी कि वे ऐसे उपयुक्त उम्मीदवार को ही वोट दें जो अगले पांच साल तक उनकी शिकायतों पर ध्यान दे सकें। हार्दिक छोटा उदयपुर जिले के सांखेदा नालुक के गांव टिंबा में पाटीदारों के बीच बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि पाटीदारों के समाज को दलितों की तरह ही एकजुट होना चाहिए।
पटेल की उम्र अभी चुनाव लडऩे लायक नहीं हुई है लेकिन जिस तरह उन्होंने पटेलों को संगठित किया वह बेजोड़ है। उनका पाटीदार समाज में व्यापक समर्थन के साथ ही कुछ विरोध भी है। उस विरोध को निशाना बनाते हुए उन्होंने कहा छोटा उदयपुर में तीस हज़ार से कुछ ही ज्य़ादा पटेल होंगे। जब वे आ रहे थे तो सात-आठ लोग सड़क पर काले झंडे लिए दिखे। ये मेरे आने से खुश नहीं थे।
उधर गुजरात के सूरत में पाटीदारों और भाजपा के कार्यकर्ताओं में झड़पों की खबर है। छह नकाबपोश लोगों ने सूरत के वराच्छा इलाके में एक पाटीदार को बुरी तरह घायल कर दिया। सूरत के पुनगाम इलाके में डोर-टू-डोर प्रचार कार्यक्रम में भाजपा विधायक जनक बागडिया को जब पाटीदारों में चुनाव प्रचार से रोका तो इसने झगड़े का रूप ले लिया। पिछले कई दिनों से वराचछा, करान्ज और कारमेज निर्वाचन क्षेत्रों में पाटीदार भाजपा के नेताओं का विरोध कर रहे हैं। स्थानीय पुलिस ने पाटीदारों के दो युवकों को हिरासत में लिया है।
सूरत में ‘पासÓ के नेता धार्मिक मालवीय का कहना है कि जब पाटीदार पहले ही भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं से कह चुके हैं कि वे पाटीदारों के इलाकों में कोई कार्यक्रम न रखें। पर वे मानते नहीं। हम जबकि इसका लगातार विरोध करते रहे हैं। भाजपा नेता अब पुलिस की मदद ले रहे हैं जो हमारे कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करती है।
पाटीदार बहुल इलाकों में चुनाव प्रचार के लिए भाजपा नेताओं के लिए कठिन हो गया है। वे पुलिस बंदोबस्त में ही जाते हैं और लौटते हैं। भाजपा विधायक मुकेश पटेल और सूरत शहर के मेयर अश्मिताबेन शिरोया को भी पाटीदारों के विरोध का सामना करना पड़ा। यही हाल सूरत के पूर्व म्युनीसिपल कारपोरेटर अरविंद गोयानी को सरथना में नाराज़ पाटीदारों की नाराज़गी झेलनी पड़ी।
जबकि वाराच्छा इलाके के करंज, वरच्छ और कामरेज विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा विधायक तीनों ही इलाकों में विजयी हुए थे।
पाटीदारों के युवा नेता हार्दिक पटेल के एक सहायक नरेंद्र पटेल ने दस नवंबर का बताया कि उसे सत्ता पार्टी भाजपा में शामिल होने के लिए एक करोड़ रुपए की राशि देने का लालच दिया गया है। यह पेशकश उससे अमित शाह ने खुद की। नरेंद्र ने कहा कि ज़रूरत पडऩे पर कथित पेशकश संबंधी सबूत वे अदालत में भी पेश करेंगे। जब तमाम प्रत्याशी अपने नामांकन दाखिल कर देंगे। मैंने वरुण पटेल (पहले ‘पासÓ में थे अब भाजपा में हैं), राज्य भाजपा प्रमुख जीतू वाधानी से संबंधित एक धमाका पहले किया था अब दूसरा धमाका जल्दी ही करूंगा जिससे अमित शाह के लिए गुजरात में मुश्किल हो जाएगी।Ó नरेंद्र पटेल अमदाबाद के थक्करबाया नगर में बोल रहे थे। ‘पासÓ की इस रैली में हार्दिक पटेल मुख्य वक्ता थे।
केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी का कहना है कि सूरत के छोटे व्यापारियों को कांग्रेस भड़का रही है। कांग्रेस जीएसटी के बहाने उन्हें भाजपा सरकार के खिलाफ उकसा रही है। ईरानी की यह प्रतिक्रिया कांग्रेस नेता राहुल गांधी की सूरत यात्रा और विमुद्रीकरण और जीएसटी पर उनका भाषण था। उन्होंने कहा कि उनका मंत्रालय व्यापारियों की तमाम मुश्किलें हल करने में जुटी है। सूरत के व्यापारी चाहे वे बड़े हों या फिर छोटे। वे सभी मेरे संपर्क में हैं और कर की नई प्रणाली से सहयोग कर रहे है।
उन्होंने कहा कि राहुल गांधी अपने निर्वाचन क्षेत्र में तो जीत नहीं पाते और गुजरात में वे यह सपना लेकर आए हैं कि वे जीत जाएंगे। उनका सपना कभी कामयाब नहीं होगा।
एसपी डी डब्ल्यू नेगी शिमला बलात्कार-हत्या मामले में गिरफ्तार
गुजरात में चुनावी माहौल गरमाया, हिंसा भी
गुजरात में 182 सीटों की विधानसभा के लिए चुनावी सरगर्मी ज़ोरों पर है। भाजपा कार्यकर्ताओं और पाटीदार (पास) के बीच राज्य में कई जगह झगड़े-फसाद और गिरफ्तारियों की सूचना मिली है। भाजपा के कई राष्ट्रीय नेता और केंद्रीय मंत्री गुजरात चुनावों के प्रचार कार्य में अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं। केंद्रीय रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण तो नरेंद्र मोदी की पूर्व विधानसभा सीट में चुनाव प्रचार में खासी जुटी हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात में चौथे चरण के चुनाव प्रचार में सक्रिय हैं। आप पार्टी ने गुजरात में दस विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। गुजरात में शिवसेना भी पचास से पचहत्तर सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है।
केंद्रीय रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार (11 नवंबर) को मणिनगर में विधानसभा क्षेत्र में तमिल बहुल इलाकों में चुनाव प्रचार किया। यह सीट नरेंद्र मोदी की थी जो उनके प्रधानमंत्री होने के बाद खाली हुई थी। खोखरा सर्किल पर भगत सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने के बाद उन्होंने अपने चुनाव प्रचार का श्रीगणेश किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि ‘भाजपा के प्रत्येक कार्यकर्ता की यह जिम्मेदारी है कि वह इस तरह चुनाव प्रचार करे कि पार्टी भावी चुनावों में बहुमत से जीते। खुद मोदी जी मणिनगर से लगातार तीन बार चुनावों में काफी अंतर से जीतते रहे हैं।Ó
उधर कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात में चुनाव प्रचार के चौथे चरण में अपनी नवसर्जन गुजरात यात्रा की शुरूआत की गांधीनगर में अक्षरधाम मंदिर में दर्शन करके। अपने चुनावी भाषण में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह पांच सौ और हज़ार के नोटों को रात आठ बजे बंद होने की बात कहते हुए कहा कि चार घंटे बाद ये सिर्फ कागज़ के टुकड़े रह जाएंगे। उसी तरह उन्होंने ‘एक देश, एक करÓ के बहाने जीएसटी रात बारह बजे धूम-धड़ाके से लागू किया। लोग रु पए बंद किए जाने के कारण बैंकों के बातर कतारों में खड़े रहे लेकिन रईस लोग बैंक के पीछे के दरवाज़े से अपने नोट गुलाबी करते गए। गरीब कतार में ही लगा रहा। कई मरे भी। जीएसटी लागू होने के बाद युवाओं के रोज़गार खत्म हुए। छोटे-छोटे कल कारखाने बंद हो गए। मज़दूरों की छुट्टी कर दी गई।
भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खामोश रहते हैं अमितशाह के बेटे की कंपनी और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी के बारे में जिन पर शेयरों मेें गड़बड़ी करने पर सेबी ने जुर्माना लगाया।
राहुल गांधी ने कहा कि जीएसटी का विरोध होने पर कुछ चीज़ों पर कर की प्रतिशतता कम हुई लेकिन अभी भी यह सहज नहीं हुआ। यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो पांच दरों वाले जीएसटी को एक साधारण टैक्स में बदलेगी। उत्तर गुजरात के कस्बों और गांवों से गुजरते हुए राहुल गांधी का हर कहीं स्वागत दिखा। चंद्राला गांव में राहुल चाय के लिए रुके और गांव वालों से उन्होंने चाय पर चर्चा की। साबरकंठा जिले का प्रांतिज निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस की पांरपरिक सीट है। यहां ये कांग्रेस विधायक महेंद्र सिंह बरैया ने आरोप लगाया कि उन्हें भाजपा ने पार्टी छोडऩे के लिए पच्चीस करोड़ रु पए देने का प्रस्ताव किया था।
उधर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने राजकोट में कहा, वे (राहुल गांधी)बस में घूमते हुए लोगों तक जाते हैं। जबकि हम गुजराती लोगों के दिलों में बैठे हैं। उन्होंने भरोसा जताया कि गुजरात विधानसभा में भाजपा को बहुमत मिलेगा।
विमुद्रीकरण: क्या और गहराएगा विरोध?
पिछले 8 नवंबर को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंाच सौ और हज़ार रु पए के नोटों की वैधता खत्म करने की घोषणा की तो देश के बहुत सारे गरीब लोगों को लगा था कि अमीरों के पास बोरियों में भरे नोट बेकार हो जाएंगे। मोदी उनसे भी आगे बढ़ गए थे। उन्होंने कहा था कि यह सिर्फ काला धन नहीं बल्कि आतंकवाद और नक्सलवादी हिंसा को खत्म करने में मदद करेगा। उसके बाद पूरे देश बैंक और एटीएम के सामने लगी कतारों में खड़ा नज़र आया। एटीएम में पैसे नहीं होते थे और बैंक से पैसा नहीं निकलता था।
लोगों ने इन सारी तकलीफों को झेल लिया कि काला धन समाप्त हो जाएगा। क्या यह अर्थव्यवस्था की सरलीकृत समझ का परिणाम था, और काला धन को समाप्त करने की जिद थी या इसके पीछे कोई और भक्ति काम कर रही थी? इस बारे में कुछ भी साफ नहीं हो पाया है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस और विपक्ष ने मुद्दे को इस तरह क्यों लपक लिया है और इसका साल भर होते ही वे सड़क पर उतर आए हैं। वैसे तो विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी के परिणामों पर कोई गहरा अध्ययन सामने नहीं आया है, लेकिन जो भी तथ्य सामने आए हैं वे इसी की ओर इशारा करते हैं कि बैंकों की कतार में लोगों का खड़ा होना तस्वीर का सिर्फ एक हिस्सा है। नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र को इस तरह उजाड़ दिया कि वह अभी तक पटरी पर नहीं आ पाया है।
छोटे-छोटे कारोबार में लोगों की अर्थव्यवस्था टूट कर बिखर चुकी है। भिवंडी के करघा चालक हों या मुरादाबाद के बर्तन-निर्माता सभी का धंधा चौपट हो चुका है। असंगठित क्षेत्र के कारोबार की जगह किसने ली? इस बारे में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमदाबाद के भाषण में एक आंकड़े का जिक्र किया जो बताता है कि देशी कारोबार चौपट होने के कारण चीन से आने वाले सामान की तादाद बढ़ गई है। उन्होंने जो आंकड़े दिए उसके मुताबिक,चीन से होने वाला आयात 2016-17 की पहली छमाही के एक लाख 96 हज़ार करोड़ रु पए से 2017-18 में दो लाख 41 हज़ार
रु पए का हो गया। रोज़गार के नुकसान पर भी एक आंकड़ा आया है जिसके अनुसार 2017 में जनवरी से अप्रैल तक 15 लाख नौकरियां चली गईं। इनमें से ज्य़ादातर असंगठित क्षेत्र की थी।
जाहिर है लोगों की बढ़ती तकलीफों को देखकर राजनीतिक पार्टियों में इसे मुद्दा बनाया और आठ नवंबर 2017 को काला दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया।
हालांकि सरकार अभी भी अपने इस विचार पर कायम है कि नोटबंदी जिन उद्देश्यों के लिए की गई थी वे पूरे हुए हैं। उसका कहना है कि आतंकवादी गतिविधियों में कमी हुई है। उसने आठ नवंबर में एक वर्ष होने पर तमाम अखबारों को पूरे पेज का विज्ञापन दिया जिसमें नोटबंदी से हुए फायदे गिनाए गए हैं। अपने आंकड़ों में उसने कहा है कि कश्मीर में पत्थर फेंकने की घटनाएं 75 प्रतिशत कम हो गईं और नक्सली हिंसा में भी 20 प्रतिशत की कमी आई है। काले धन पर प्रहार को लेकर उसने आंकड़े दिए जिसमें कहा गया है कि फर्जी कंपनियों को बंद करने से 17 हज़ार करोड़ रु पए का काला धन बाहर निकला है।
सरकार ने चालाकी से अपना बयान बदल लिया है। आठ नवंबर, 2016 को अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पांच सौ और हज़ार के नोटों को बंद कर देेने से लोगों के पास जमा काला धन बेकार हो जाएगा। अब इस बयान को पलट दिया गया है क्योंकि चलन के 99 प्रतिशत नोट बैंकों में वापस आ गए हैं। एक प्रतिशत बचे नोट का हिसाब-किताब भी साफ होने की उम्मीद है। नोटों की इस पैमाने पर वापसी का नतीजा यह हुआ है कि सरकार को अपने कहे शब्द पलटने पड़े हैं। अब काले धन के रूप में जमा नोटों को बेकार होने की बात को छोड़कर सरकार यह दावा कर रही है कि काला धन बैंकों में आ गया है और इसे जमा करने वालों से हिसाब लिया जाएगा और कार्रवाई की जाएगी। कार्रवाई का मतलब है कि तीस प्रतिशत दंड देकर लोग अपना काला धन सफेद कर सकते हैं। कुछ कार्रवाई भी होगी तो जिस तीन-चार लाख करोड़ रु पए के काले धन को खत्म करने की बात कही जा रही थी, उसके पूरे होने की दूर-दूर तक संभावना नहीं है।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी इस राय पर कायम हैं कि नोटबंदी एक ”संगठित लूट और कानूनी डाकाÓÓ था। एक साल बाद अमदाबाद में व्यापारियों को संबोधित करते हुए उन्होंने अपनी राय दोहराई और कहा कि इससे छोटे उद्योगों का भारी नुकसान हुआ है और अर्थव्यवस्था पटरी पर से उतर गई। उनकी राय में सरकार ने लाभ-हानि का कोई आकलन नहीं किया था। उसे अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए।
कांग्रेस समेत ज्य़ादातर पार्टियों का मानना है कि यह एक ”गलतीÓÓ थी और ”सही नियोजन करने में विफलताÓÓ थी। विपक्ष की इस नरमी का परिणाम है कि वित्त मंत्री अरूण जेटली यह दावा कर रहे हैं कि यह एक नैतिक कदम था। वे यह दावा इसके बावजूद कर रहे हैं कि डेढ़ सौ से ज्य़ादा लोगों ने अपनी कमाई का पैसा निकालने की कोशिश में बंैक की लाइन में अपनी जान गंवा दी और लाखों लोगों का कारोबार तथा रोज़गार छिन गया।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी इसे गलती नहीं मानती हैं। उनका कहना है कि यह एक बड़ा घोटाला था और इसकी जांच होनी चाहिए। उनकी राय को धीरे-धीरे दूसरे राजनीतिक खेमों का समर्थन भी मिलने लगा है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने नोटबंदी के पीछे की मंशा का पता लगाने के लिए संयुक्त संसदीय समिति की जांच की ज़रूरत बताई है। उन्होंने एक राष्ट्रीय अखबार में लिखे अपने लेख में कहा है कि यह अमेरिका के इशारे पर उठाया गया कदम है। अपने लेख में उन्होंने विस्तार से बताया है कि मास्टर और वीजा कार्ड की कंपनियों और खुदरा व्यापार की श्रृंखला के जरिए होने वाले आनलाइन लेन-देन में उपभोक्ताओं को होने वाले नुकसान को बंद करने के खिलाफ अमेरिकी कांग्रेस ने जब कानून पारित किया तो इन कंपनियों को खरबों का घाटा उठाना पड़ा। इस घाटे को कम करने के लिए इन कंपनियों ने विकासशील देशों की ओर रूख किया। इस काम में उन्हें अमेरिकी सरकार का भी समर्थन मिला है। इसके लिए उनके संगठन में सरकारी एजेंसियां भी शामिल हैं। नकदी विहीन लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए ये संगठन अंतराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है। चव्हाण का मानना है कि इसी के इशारे पर नोटबंदी का कदम उठाया गया है। इससे इन कंपनियों का फायदा होने वाला है। पृथ्वीराज चव्हाण की इस राय को कांग्रेस में कितना समर्थन है यह अंदाजा लगाना मुश्किल है। लेकिन वे राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं, इसलिए उनकी राय का महत्व है। इससे लगता है कि कांग्रेस की नीतियां आगे आक्रामक हो सकती हैं।
नोटबंदी के साथ रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का मामला जुड़ा हुआ है। विपक्ष इस मुद्दे को भी उठा रहा है। कई नेताओं का कहना है कि रिजर्व बैंक के फैसले और कैबिनेट की चर्चा आदि सार्वजनिक किए जाएं। विपक्षी नेताओं की राय मेें यह फैसला निरंकुश तरीके से लिया गया और रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का उल्लघंन किया गया। उधर प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के लिए यह शिगूफा छोड़ दिया है कि अगर इंदिरा गांधी ने बड़े नोटों का चलन रोक दिया होता तो उन्हें इसका सहारा नहीं लेना पड़ता। हालांकि उनकी इस बात को लोग सिरे से खारिज करते हैं। उनका कहना है कि मोरारजी सरकार ने यह कदम उठाया था और बड़े नोटों को बंद कर दिए थे। बाद में अटल बिहारी बाजपेयी सरकार हज़ार के नोट का चलन वापस लाई। दस्तावेज बताते हैं कि बांग्लादेश युद्ध के बाद यशवंत राव चव्हाण ने नोटबंदी की सलाह दी थी। लेकिन देश के हालात को देखकर इंदिरा गांधी ने ऐसा करने से मना कर दिया था।
जीएसटी का मुद्दा भी नोटबंदी से जुड़ गया है क्योंकि इसका संबंध लेन-देन और टैक्स से है। जीएसटी की अवधारणा को लेकर राजनीतिक पार्टियों में कोई मत-भिन्नता नहीं है। लेकिन इसे लागू करने के तरीके तथा इसके तहत लिए जाने वाले करों की श्रेणियों को लेकर तीखे विवाद हैं। जीएसटी की भूमिका भी असंगठित क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने की है। टैक्स की कारगर व्यवस्था के नाम पर सरकार असंगठित क्षेत्र के कारोबार को भारी नुकसान पहुंचा रही है। हर चीज़ और हर कदम पर टैक्स वसूलने की कोशिश में यह एक जटिल व्यवस्था बन चुकी है।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस टैक्स को ”गब्बर सिंह टैक्सÓÓ का नाम दिया है तो ममता बनर्जी ने इसे ‘ग्रेट सेल्फिस टैक्सÓ का नाम दिया है। पूर्व वित्त मंत्री और पार्टी से बगावत पर उतर आए यशवंत सिन्हा का कहना है कि इसका स्वरूप ही खामी भरा है और इसमें सुधार संभव नहीं है।
विपक्ष ने नोटबंदी और जीएसटी को जोड़कर आर्थिक नीतियों के खिलाफ एक अप्रत्यक्ष मुहिम शुरू कर दी है। यह एक नई स्थिति है। अभी तक का यही हाल था कि देश की राजनीतिक पार्टियां खासकर भाजपा और कांग्रेस में आर्थिक नीतियों के मामलों में एक राय थीं। यह सहमति टूट चुकी है। सवाल यह उठता है कि यह असहमति विपक्ष को कितना आगे ले जाएगा।
बॉयलर फटा, मारे गए न जाने कितने मज़दूर
वह इसी साल नवंबर महीने का पहला ही दिन था। उत्तरप्रदेश के रायबरेली जिले के ऊंचाहार में है नेशनल पावर थर्मल प्लांट की फिरोज गांधी इकाई। बुधवार की दोपहर में इस थर्मल पावर प्लांट में भारी धमाका हुआ। कहते हैं चालीस से भी ज्य़ादा लोग मारे गए और सौ से ज्य़ादा घायल हुए। यह एक बड़ी औद्योगिक दुर्घटना थी। मरने वाले और घायल वे मज़दूर थे जो ठेके पर काम करने के लिए यहां लगाए गए थे। कांट्रैक्टर जो इन मज़दूरों को यहां लाया था उसे खरोंच तक नहीं आई। मज़दूरों का ब्यौरा भी उसके ही पास है। एनटीपीसी के पास नहीं।
बेहद सुरक्षित तरीके से काम का दावा करने वाले औद्योगिक संस्थानों में एनटीपीसी की भी तमाम इकाइयां गिनी जाती हैं। हालांकि एक अर्से से यहां भी सुरक्षा में ढील-पोल की खबरें आती रही हैं। हालांकि इन तमाम बातों से प्लांट के प्रवक्ता इंकार करते हैं। एनटीपीसी की ऊंचाहार इकाई में नई इकाई नंबर- छह में यह हादसा हुआ। इस इकाई में छह महीनों से ही काम होना शुरू हुआ है। इस प्लांट के प्रवक्ता के अनुसार गर्म गैंसों और धुंए के चलते यह दुर्घटना हुई। प्रभावित इकाई में बॉयलर में धमाका होने से यह हुआ। जब यह दुर्घटना हुई तो यूनिट- छह के दायरे में जो भी मज़दूर खड़े थे या आस पास काम कर रहे थे वे धमाके के असर में कई मीटर दूर जा गिरे। यह दुर्घटना दोपहर बाद साढ़े तीन बजे हुई।
प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस दुर्घटना पर अफसोस जताया। उन्होंने ग्यारह नवंबर को प्लांट का दौरा किया। उन्होंने कहा सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किए जाएंगे और परिसर में पौधारोपण भी किया। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपना गुजरात दौरा रोक कर दो नवंबर को ही प्लांट में घायल मज़दूरों से अस्पताल में जाकर मुलाकात की। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तरप्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि इस मामले की उच्च स्तरीय जांच कराई जाए और रपट दी जाए। केंद्रीय बिजली मंत्री आरके सिंह ने दुर्घटना स्थल का दौरा किया। मारे गए लोगों के परिवारों को बीस लाख रुपए का मुआवजा देने का ऐलान किया। एनटीपीसी के कार्यकारी निदेशक को पूरे मामले की जांच करने को कहा गया है। राज्य सरकार ने मारे गए लोगों को रुपए दो लाख और गंभीर तौर पर घायलों को पचास हजार और कुछ घायल लोगों को रुपए पच्चीस हजार का मुआवजा देने की घोषणा की है।
ऊंचाहार एनटीपीसी के प्लांट नंबर छह में हुई दुर्घटना में मारे गए मज़दूरों में कई अपने परिवारों में अकेले कमाने वाले थे। एनटीपीसी प्रशासन, उत्तरप्रदेश प्रशासन के अधिकारी और मज़दूरों के ठेकेदारों में अब मुआवजा राशि परिवारों को दिलाने के तौर-तरीके और प्रमाणों पर खासा हंगामा है। मजदूरों के परिवारों के सामने जीवन चलाने का संकट सिर पर आ पड़ा है। उघर राज्य श्रम मंत्रालय के अधिकारी रायबरेली से पहुंच कर ठेके पर काम कर रहे मजदूरों के परिवारों को सांत्वना देकर लौट भी चुके हैं। लेकिन मसला ज़्यों का त्यों है।
बिजली पैदा करने वाले ज्य़ादातर पावर संस्थानों में बॉयलर की सप्लाई का काम आटोमेटिक है। लेकिन ऊंचाहार की इकाई छह में कोयले के जलने से क्लिकर या लेप बन जाते हैं। इन्हें श्रमिक ही साफ करते हैं। इनकी समुचित सफाई न होने पर ये नीचे एश आउटलेट को बंद कर देते हैं जिससे बॉयलर पर दबाव बढ़ता है और बॉयलर के चारों ओर के पानी के वाल्व पिघलने लगते हैं। हॉट फ्ल्यू गैसों और ऊंचे तापमान की भाप इससे निकलती है। यह एश से मिलती हैं। उस समय तापमान दौ सौ डिग्री सेल्सियस होता है जिससे बहुत तेज धमाका होता है।
ठेके पर मज़दूरों को लगाना और उनका ब्यौरा अपने पास न रखना एक सरकारी उपक्रम का
बेहद ढीला-ढाला रवैया है । एक अधिकारी ने अफसोस जताते हुए कहा कि नहीं मालूम, छत्तीसगढ़ के किस गांव या जिले से ये मज़दूर लाए गए थे और उनका पूरा ब्यौरा क्या है। एनटीपीसी में फोटो लेने की मनाही है। जो मज़दूर मारे गए, उनके परिवारों को मुआवजा मिले इसे भी जानने परखने की जिम्मेदारी न तो अब एनटीपीसी ले रहा है न श्रम अधिकारी और न केंद्र और राज्य सरकारें। एनटीपीसी चैयरमैन और प्रबंध निदेशक बातचीत नहीं करते सिर्फ प्रेस रिलीज ज़रूर जारी होती है।
एनटीपीसी ऊंचाहार के ही कुछ अधिकारी अपना नाम न छापने के अनुरोध के साथ बताते हैं कि हादसे के बाद जब हम पहुंचे तो हमने शरीर के क्षत-विक्षत हिस्से देखे। छत पर जो तार थे उन पर भी शरीर के हिस्से थे। ऐसी दुर्घटना कभी न देखी और न सुनी। एक्जक्यूटिव इन मज़़दूरों के साथ सोलह घंटों से भी ज्य़ादा समय काम करते थे।
ऊंचाहार में मज़दूरों से ओवरटाइम कराना आम बात है। चार मज़दूरों का काम एक मज़दूर से कराया जाता है। इकाई के कंट्रोल रूम तक में एक मजदूर ही होता है।
सरकार की ओर से दबाव था एनटीपीसी की यह इकाई पचास हजार मेगावाट बिजली देने लगे। अब इस काम के पूरा होने में छह से आठ महीने की और देर हो जाएगी। यहां की एक इकाई पानी और कोयले के अभाव में अर्से से बंद पड़ी है।
सरकार ने संस्थान में जांच कमेटियां बना दी हैं। लेकिन जांच कमेटी की रपट पर शायद ही कभी अमल हो। शायद ही कभी कोई कमेटी दुर्घटना की वजहों की पड़ताल करते हुए उन मज़दूरों के नाम-पते-घर-परिवार का पता करे जिससे घोषित मुआवजा कम से कम उन तक पहुंच सके जो मारे गए पर जिनकी जानकारी किसी को नहीं है।
कयास की धुंध में जीत हार के दावे
अगले महीने की 18 तारीख को वोटिंग मशीनों से जब नतीजे निकलेंगे तब सूबे के पहाड़ों पर बर्फ की परत जम चुकी होगी। नतीजे इस ठण्ड को राजनीतिक गर्मी में बदल देंगे। मतदाता की खामोशी के बीच अभी तक के सबसे ज्यादा मतदान से कयास की ऐसी गहरी धुंध प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में फैला दी है कि राजनीति के धुरंधर भी जीत-हार की जुमलेबाजियों में गोते लगा रहे हैं। राजनीतिकों के लिए मतदाता का मूड भांपना उतना ही मुश्किल लग रहा है जैसे मेंढक को तराजू में तोलना।
भले दोनों प्रमुख दलों – भाजपा और कांग्रेस – ने अपनी अपनी जीत के दावे मतदान के बाद किए तो हैं, लेकिन दोनों के गुणा-भाग में भरोसा कम दावे की प्रतिध्वनि ज्य़ादा है। एक-एक सीट का आकलन दोनों दलों के बड़े नेताओं प्रेम कुमार धूमल और वीरभद्र सिंह के ड्राइंग रूमों में अपने $खास-उल-$खास लोगों के साथ हुआ है, लेकिन दोनों जगह से छनकर जो जानकारी आई है उसके मुताबिक दोनों ही दलों के अपने आकलन 31 से 37 सीटों की बीच फंसे हुए हैं। यदि यही स्थिति रही और आंकड़ों का गणित अटका तो निर्दलीय या माकपा आदि से जीतने वालों पर सरकार गठन का मसला आ अटकेगा। प्रदेश में 1998 के विधानसभा चुनाव में कुछ ऐसी ही स्थिति बनी थी। वैसे हिमाचल में 68 सदस्यों की विधानसभा में सरकार बनाने यानी साधारण बहुमत के लिए 35 सीटें चाहिए।
प्रदेश में इस बार कोई लहर नहीं दिख रही थी। न तो मोदी का कोई करिश्मा दिख रहा था न वीरभद्र सिंह सरकार के प्रति किसी तरह की ‘एंटी इंकम्बेंसीÓ। धूमल को भाजपा का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने के बाद ही भाजपा का चुनाव अभियान सघन हुआ। वोटर खामोश था। इस स्थिति ने सभी दलों के नेताओं को मजबूर किया कि वे अपने काडर को सक्रिय करें। राजनीति को समझने वालों का कहना है कि इसी कारण ज्यादा मतदान हुआ। इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। प्रदेश सरकार में सूचना विभाग के निर्देशक रहे और राजनीतिक विश्लेषक बीडी शर्मा ने कहा कि चुनाव आयोग और सामाजिक संगठनों की भागीदारी भी ज्यादा मतदान का एक कारण है।
अब बात आती है प्रदेश में हर बार सरकार बदल देने की मतदाता की फितरत की। पिछले सालों में ऐसा अधिकतर बार हुआ है। क्या इस बार भी मतदाता ने इतिहास को दोहराया है, इस यक्ष प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं हैं। अलबत्ता भाजपा को भरोसा है कि मतदाता ने इसी परंपरा को निभाते हुए भाजपा को वोट किया है। कांग्रेस का दावा है कि इस बार प्रदेश में वोट वीरभद्र सिंह के ”आखिरी चुनावÓÓ के कारण उन्हें पड़े हैं। जबकि भाजपा कह रही है कि कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार और माफिया की सक्रियता से तंग जनता ने भाजपा और धूमल को वोट किया है।
भाजपा ने चुनाव मैदान में अपने बड़े नेताओं को बहुत ज्यादा संख्या में बुलाया। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन बार हिमाचल आए और कुल नौ चुनाव सभाएं कीं। इसके विपरीत कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी एक ही बार हिमाचल आये और तीन चुनाव सभाएं उन्होंने कीं। इस तरह कहा जा सकता है कांग्रेस के चुनाव प्रचार का जिम्मा कमोवेश वीरभद्र सिंह ने ही उठाया।
मोदी के दौरों के बावजूद भाजपा के प्रचार का जिम्मा धूमल के इर्द गिर्द रहा। कहा जाता है कि केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा को आगे करने के बाद जब भाजपा आलाकमान ने मह्सूस किया कि वे पार्टी की नैया पार नहीं लगा पाएंगे तो चुनाव से महज आठ दिन पहले धूमल को आगे करने का फैसला पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को करना पड़ा। ‘तहलकाÓ के सूत्रों के मुताबिक इसके पीछे पीएमओ को अपनी एजेंसियों से मिले इनपुट के बाद किया गया जिसमें कहा गया था कि धूमल को आगे न किया गया तो कांग्रेस अंतिम क्षणों में भाजपा पर ”भारीÓÓ पड़ सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि धूमल को आगे करने के बाद भाजपा का चुनाव प्रचार ज़मीनी स्तर पर काफी मजबूत हो गया।
चुनाव का गहराई से आकलन करने से जाहिर होता है कि 68 में से कम से कम एक दर्जन सीटें ऐसी हैं जहाँ कांटे का मुकाबला है। दोनों दलों के बागी खेल दिलचस्प बना रहे हैं। दिलचस्प यह भी है कि इनमें से आध दर्जन सीटों को भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने अपने आकलन में अपने पाले में रखा है। यही सीटें सरकार का रास्ता तय करने वाली हैं। कांगड़ा और मंडी जिले चुनाव में अहम रोल अदा करने वाले हैं। कांगड़ा में 2012 के चुनाव में भाजपा 15 में से सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई थी जबकि इस बार उसकी स्थिति बेहतर हुई है। मंडी में भी भाजपा भारी दिख रही है।
शिमला में आठ सीटें हैं और कांग्रेस यहाँ मजबूत दिख रही है जबकि एक सीट ठियोग पर माकपा विरोधियों को जबरदस्त टक्कर दे रही है। शिमला शहरी सीट भी दिलचस्प बनी हुई है जहाँ कांग्रेस के बागी निर्दलीय ने सभी की नींद हराम की है। इसके अलावा सिरमौर और सोलन में भी कांग्रेस वीरभद्र सिंह के अर्की से लडऩे के कारण फायदे में रह सकती है। धूमल के प्रभाव वाले हमीरपुर जिले में भाजपा कांग्रेस को पीछे धकेल सकती है। इसी जिले से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी लड़ रहे हैं। बिलासपुर, कुल्लू, ऊना और चम्बा में बराबर की टक्कर है जबकि तीन कबाइली सीटें भी दोनों में बंटने के आसार हैं। फैसला तीन जिलों काँगड़ा (15), मंडी (10) और शिमला (8) जिलों से होना है जहाँ कुल 68 सीटों में से 33 सीटें हैं।
दोनों दलों के आकलन के बावजूद कुछ चुनाव विश्लेषक मानते है कि ज्यादा मतदान किसी एक दल के पक्ष में हुआ भी हो सकता है। वैसे पिछले चुनाव कांग्रेस जीत के बावजूद 35 सीटें हासिल कर पाई थी जबकि 2007 में भाजपा ने 43 सीटें जीती थीं। वरिष्ठ पत्रकार और चुनाव विश्लेषक एसपी शर्मा का आकलन है कि कांग्रेस चुनाव में भाजपा को चौंका सकती है। इसके लिए वे तीन कारण गिनाते हैं। पहला यह कि मोदी सरकार के प्रति लोगों की महंगाई और जीएसटी के कारण नाराजगी, दूसरी वीरभद्र सिंह सरकार के प्रति एंटी इंकम्बेंसी न दिखना और तीसरे आखिरी चुनाव के कारण वीरभद्र सिंह के प्रति जनता की सहानभूति।
जबकि राजनीतिक विश्लेषक बीडी शर्मा मानते हैं कि निश्चित ही भाजपा का इस चुनाव में ”एजÓÓ था और यदि एक पक्षीय नतीजा हुआ तो यह भाजपा के पक्ष में होगा और वह 40 से 45 के बीच सीटें जीत सकती है। अपने दावे के लिए वे बताते हैं कि प्रदेश में सरकार हर बार बदल जाती है, दूसरे केंद्र में भाजपा सरकार होने से प्रदेश के लोगों को लगता है ज्यादा विकास योजनाएं सूबे में आएंगी और तीसरे धूमल को आगे करने से भाजपा को लाभ मिला।
स्ट्रांग रूम में ईवीएम
चुनाव के बाद अब जिम्मा 337 प्रत्याशियों के भविष्य की सुरक्षा का है। ऐसे में अर्ध सैनिक बालों ने कमर कस ली है। बहरहाल, प्रदेश के अलग-अलग जिलों में ईवीएम को सुरक्षा के बीच स्ट्रांग रूम तक पहुंचाया गया है। दूरदराज और कबायली इलाकों से मशीनों को हेलिकॉप्टर के माध्यम से सही जगह तक लाया जा रहा है। गौर रहे कि प्रदेश के हर विधानसभा क्षेत्र में अलग-अलग स्ट्रांग रूम बनाए गए हैं। स्ट्रांग रूम में ईवीएम के पहुंचने के बाद राजनीतिक दलों को स्क्रूटनी के लिए बुलाया गया। निर्वाचव आयोग के पर्यावेक्षक की मौजूदगी में मशीनों को चैक किया गया और फिर इन्हें स्ट्रांग रूम में कैद कर दिया गया। अब अगले 38 दिनों तक यह ईवीएम मशीनें कड़ी सुरक्षा के बीच रहेंगी। ईवीएम की सुरक्षा व्यवस्था के लिए पैरा मिलिट्री फोर्स के जवान तैनात किए गए हैं।
महिलाएं : वोट देने में आगे, जीतने में पीछे
चुनावों में मतदान करने में हमेशा आगे रहने वालीं हिमाचल की महिलाएं विधानसभा की दहलीज लांघने में हर बार पिछड़ जाती हैं। एक तो दोनों प्रमुख दल उन्हें टिकट कम देते हैं ऊपर से उनकी जीत का प्रतिशत भी कम रहता है। पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा इस बार कम महिलाएं चुनावी मैदान में उतरीं। चुनाव में 19 महिलाएं कूदी जबकि वर्ष 2012 में यह आंकड़ा 34 था। साल 2012 में 34 महिलाएं मैदान में उत्तरी थीं लेकिन महज तीन ही विधानसभा पहुँच पाईं। इस बार देखना है कि 19 में से कितनी महिलाएं विधानसभा की देहरी लांघ पाती हैं। कांग्रेस की तरफ से विद्या स्टोक्स, आशा कुमारी जबकि भाजपा की तरफ से सरवीन चौधरी ही विधायक बन पाईं थीं। वर्ष 2012 में कांग्रेस ने 4, भाजपा ने 7,
माकपा ने एक, एनसीपी ने एक, एसपी ने दो, एआईटीसी ने दो, बसपा ने तीन, एलजेपी ने दो, एचएसपी ने एक, एचएलपी ने दो महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा था और 9 निर्दलीय थीं। इनमें दो महिलाएं पांच हजार, सात 10 हजार, चार महिलाएं 20 हजार और चार ही 20 हजार से ज्यादा वोट ले पाई थीं। जाहिर है लोगों का समर्थन भी पुरुष उम्मीदवारों की तरफ रहा है। जहाँ तक इस बार के मतदान की बात है चुनाव में 37 लाख 21 हजार 647 वोट पड़े जिनमें 19,10,582 वोट महिलाओं और 18,11,061 वोट पुरुषों के हैं। यानी महिलाओं के ज्यादा। देखना है इस बार कितनी महिलाएं जीत कर विधानसभा पहुँचती हैं।
बात आंकड़ों की
एक तरफ जहां विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर रही, वहीं मतदान में भी मुकाबला कड़ा रहा है। इस बार 0.10 फीसदी से पिछला रिकार्ड टूटा है। अबकी बार सूबे में मत प्रतिशत 74.61 फीसदी रहा जबकि 2003 में यह 74.51 था। इस बार सबसे अधिक मतदान होने का साल 2003 का रिकार्ड टूट गया। 2007 में मतदान करीब तीन फीसदी कम होकर 71.61 फीसदी रहा था, लेकिन 2012 में फिर इसमें बढ़ोतरी हुई और यह बढ़कर 73.51 फीसदी दर्ज किया गया था। पर वर्ष 2003 का रिकॉर्ड पिछले विस चुनाव में भी टूट नहीं पाया है।
चुनाव आयोग के मुताबिक सिरमौर जिला मतदान में अव्वल रहा और यहां पर सर्वाधिक 81.05 फीसदी वोटिंग हुई है और सबसे कम हमीरपुर जिला में 70.19 फीसदी वोट दर्ज किए गए हैं। सोलन जिला की दून विधानसभा क्षेत्र में सबसे अधिक 88.95 फीसदी मतदान हुआ है और शिमला शहरी में सबसे कम 63.76 फीसद ने वोट डालें हैं। चंबा जिला की बात करें तो यहां पर73.21, कांगड़ा में 72.47, लाहौल स्पीति में 73.40, कुल्लू में 77.87, मंडी में 75.21, ऊना में 76.45, बिलासपुर में 82.04, सोलन में 77.44, शिमला में 72.68 व किन्नौर में 75.09फीसदी तक मतदान दर्ज किया गया है।
वर्ष 1971 में सबसे कम 49.45 फीसदी मतदान हुआ था और कांग्रेस सरकार सत्ता में आई थी। 1977 में 58.57 फीसदी मतदान दर्ज किया गया था और इस बार जनसंघ ने सरकार बनाई थी।1982 में प्रदेश में खूब वोट बरसे और 71.06 फीसदी लोगों ने मतदान का प्रयोग कर कांग्रेस सरकार को सत्ता सौंपी। इसके बाद 1985 में भी वोट प्रतिशतता 70 फीसदी से अधिक रही और एक बार फिर कांग्रेस सत्तासीन हुई। वर्ष 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ था और भाजपा सरकार बनी थी। इस वर्ष मतदान प्रतिशतता 67.06 ही रह गई। 1993 के चुनाव में एक बार फिर 70 से अधिक वोटिंग हुई और कांग्रेस सरकार सत्ता में आई। वीरभद्र सिंह एक बार फिर सीएम बने। 1998 में भी 71.23 फीसदी मतदान दर्ज हुआ और इस बार हिविका की मदद से भाजपा ने सरकार बनाई।
साल 2003 में हुए चुनाव में मतदान का पिछला रेकार्ड टूटा और 74.51 फीसदी मतदान उस साल हुआ। प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को एक बार फिर सत्ता की चाबी सौंपी। 2007 में मतदान करीब तीन फीसदी कम होकर 71.61 फीसदी रहा गया था और बीजेपी की सरकार प्रदेश में बनी थी। 2012 में एक बार फिर मतदान प्रतिशतता में इजाफा हुआ और कांग्रेस सत्तासीन हुई। इस बार भी बंपर वोटिंग प्रदेश में हुई है और देखना यह बाकि है कि इस बार जनता ने सत्ता किसे सौंपी है। इसके लिए 18 दिसंबर तक का इंजतार करना होगा।
भाजपा का सपना मुंगेरी लाल जैसा : वीरभद्र
मतदान के अगले दिन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह कांग्रेस की जीत के प्रति आश्वस्त दिखे। उन्होंने दावा किया की वे बड़े दावे नहीं करते लेकिन कांग्रेस सरकार बनाने लायक बहुमत ले लेगी। अपने निजी होली लॉज में तहलका से बातचीत में उन्होंने कि भाजपा 50 और 60 प्लस की बात कह रही है, ”लेकिन वह मुंगेरी लाल के हसीन सपने से ज्यादा और कुछ नहींÓÓ। उनका कहना था कि राज्य में कांग्रेस की सरकार बनेगी। कांग्रेस सत्ता में आएगी और अपने चुनाव घोषणा पत्र में की गई सभी घोषणाओं को पूरा करेगी। वीरभद्र सिंह ने कहा कि मतदान के बाद उन्हें थोड़ा आराम मिला है, लेकिन वे उनसे मिलने आ रहे लोगों से मुलाकात कर रहे हैं और उन्हें पूरा समय दे रहे हैं। वीरभद्र सिंह ने कहा कि राज्य के लोग उनके शुभचिंतक हैं और उन्हें मालूम था कि यह उनका आखिरी चुनाव है। इसलिए वे भारी संख्या में मतदान करने के लिए आगे आए हैं और भारी मतदान किया है। उन्होंने फिर दोहराया कि राज्य में कांग्रेस सरकार बनाएगी और वे राज्य की जनता को स्थाई सरकार देंगे। सिंह चुनाव में हुए मतदान से पूरी तरह आश्वस्त दिखते हैं। वे आज कल अपने आवास पर आने वालों से मुलाकात कर रहे हैं साथ ही राज्यभर से हर हलके की फीडबैक ले रहे हैं। कई स्थानीय नेता भी उनके पास आकर अपना आकलन उन्हें देते रहे। कई लोगों ने फोन पर भी सीएम से बात की। जिलों से मिले फीडबैक के बाद सीएम मतदान को लेकर संतुष्ट हैं और वे सरकार के रिपीट होने को लेकर आश्वस्त हैं। उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर कहा है कि चुनाव में मतदाताओं ने भारी संख्या में हिस्सा लिया, इसके लिए वे उनके आभारी हैं।
अगले महीने भाजपा की सरकार होगी : धूमल
भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल ने 74 फीसद से ज्यादा मतदान को भाजपा का पक्ष में बताया है। चुनाव के बाद तहलका से बातचीत में धूमल ने कहा कि 18 दिसंबर के बाद केंद्र और प्रदेश में भाजपा की सरकारें होंगी। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के भाजपा के 60 प्लस मिशन पर आए बयान पर पूछे जाने पर धूमल ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि हर किसी को अपना सपना सच्चा लगता है और दूसरों का सपना मुंगेरी लाल का। उन्होंने कहा कि वीरभद्र सिंह को आइना 18 दिसंबर को नज़र आ जाएगा। वीरभद्र सिंह ने बीजेपी के मिशन 60 प्लस को”मुंगेरी लाल का सपनाÓÓ बताया था। धूमल चुनावों के लिए दिन-रात एक करने के बाद अब समीरपुर स्थित अपने निवास पर दिनभर कार्यकर्ताओं से मुलाकात कर और उनसे चुनावों से संबंधित फीडबैक ले रहे हैं। धूमल ने प्रदेश की जनता का भाजपा के पक्ष में किए गए मतदान के लिए आभार जताया। भाजपा नेता ने कहा कि नदियों में अपना काला धन बहाने वालों या जिन के खिलाफ जांच चल रही है, उन लोगों को ही नोटबंदी से समस्या हुई है। धूमल ने कहा है कि मोदी सरकार के किये गए नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले को एक साल पूरा हो चूका है और इससे आम नागरिक को कोई समस्या नहीं हुई । उन्होंने कहा कि नोटबंदी को लेकर कांग्रेस कह रही है कि इसमें गड़बड़ हुई है, वास्तव में कांग्रेस को काला धन ठिकाने लगाने का मौका नहीं मिला, अब वह इस पर राजनीति कर रही है। धूमल ने कहा कि नोटबंदी के फैसले का कोई भी विपरीत असर हिमाचल प्रदेश में नहीं हुआ। न कोई एटीएम के आगे लाइनें लगी, न कोई अराजकता का माहौल फैला। ”सभी लोगों ने इस कड़े कदम का समर्थन किया और शांति से अपने पुराने नोट बदलवाए। नुकसान हुआ तो केवल कांग्रेस वालों का जिनका काला धन इसके नष्ट हो गया। आज नोटबंदी के एक साल बाद भी कांग्रेस अपनी कुंठा से उभर नहीं पाई है जबकि जनता का इनको बिलकुल भी समर्थन नहीं है।ÓÓ
चुनाव साथ क्यों नहीं ?
भारत निर्वाचन आयोग को और स्वतंत्रता देने और इसकी स्वायत्ता बनाए रखने को लेकर सवाल उठे हैं। आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों की तैनाती एक कमेटी के माध्यम से हो और आयोग में रहकर उन पर सवाल उठने के बाद उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जज की तर्ज पर हटाया जाए। इस पर सोशल वेलफेयर काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष राजेश्वर सिंह नेगी ने सवाल उठाए हैं। नेगी ने कहा कि उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है और जल्द ही वे सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका भी दायर करने वाले हैं। उन्होंने कहा कि आज जिस तरह से निर्वाचन आयोग में गतिविधियां चल रही हैं, उससे इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। उनका कहना था कि एक तरफ तो लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करने की बात की जा रही है, वहीं उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव सात चरणों में करवाए जाते हैं, यही नहीं, हिमाचल और गुजरात की विधानसभा की टर्म एक साथ समाप्त हो रही थी, लेकिन यहां चुनाव पहले करवाए जाते हैं और गुजरात में बाद में। नेगी ने कहा कि इससे निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठता है। इसके लिए ज़रूरी है कि आयोग में और सुधार कर लाए जाएं और इसमें की जाने वाली तैनाती में और पारदर्शिता लाई जाए। इसके लिए जरूरी है कि आयोग में नियुक्ति एक कमेटी के माध्यम से हो और इसमें सभी को विश्वास में लिया जाए जैसे अन्य आटोनॉमस संस्थाओं के मुखिया की तैनाती के लिए किए जाते हैं। उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयोग में कोई गलत करता है तो सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह उसे हटाने का प्रावधान होना चाहिए। उनका कहना था कि इस मामलों को लेकर पीएम मोदी को पत्र लिखा है और जल्द ही वे सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल भी दाखिल करने वाले हैं। उन्होंने नोटा को प्रभावी बनाने और आय के स्रोत को पारदर्शी बनाने की भी मांग की है।
पहला वोटर
किन्नौर जिले के श्याम शरण नेगी आम वोटर नहीं हैं। हिमाचल ही नहीं देश के लोग भी उन्हें जानते। वे हिमाचल के पहले वोटर हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में गूगल ने उनके ऊपर वीडियो बनाया। साल 1951 में श्याम शरण ने इतिहास बनाया जब उन्होंने हिमाचल के जिला किन्नौर के कल्पा मतदान केन्द्र पर मतदान किया तो वे स्वतंत्र भारत के पहले मतदाता बन गए। सरकारी स्कूल से शिक्षक के रूप में सेवा निवृत नेगी 100 साल के हैं। ब्रिटिश शासन के अंत के बाद वर्ष 1952 में चुनाव करवाने की घोषणा हुई । हिमाचल के उपरी इलाकों में बर्फबारी के कारण पांच महीने पहले ही चुनाव करवाने पड़े। दरअसल प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि देश के जनजातीय इलाके भी मतदान में हिस्सेदारी करें। इस कारण हिमाचल के उपरी इलाकों में पहले चुनाव करवाए गए। नेगी उसी इलाके के थे लिहाजा जब वे वोट देने कतार में सबसे आगे खड़े थे तो उन्हें भी मालूम नहीं था कि वे इतिहास बनाने जा रहे हैं। उन्होंने 1951 के आम चुनाव में मतदान किया। नेगी के परिवार में उनकी पत्नी, चार बेटे और पांच बेटियां हैं। खराब सेहत के बावजूद नेगी ने बूथ नंबर 51 पर वोट डाला। निर्वाचन विभाग ने देश के पहले वोटर के सम्मान के लिए रेड कारपेट बिछाया था। जनजातीय जिला किन्नौर के चिन्नी गांव में रहने वाले श्याम शरण नेगी सौ साल के हो चुके हैं। उन्होंने मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए वोट डालने का निश्चय किया था। पोलिंग बूथ पर पहुंचे श्याम शरण नेगी को फूलों का गुलदस्ता देकर एडीएम कल्पा अवनिंद्र कुमार ने उनका स्वागत किया। निर्वाचन अधिकारी और किन्नौर के डीसी एनके ल_ ने नेगी के पोलिंग बूथ तक पहुंचने का सारे इंतजाम किया था। इसके लिए एक खास टीम का गठन किया गया था। वोट डालने पहुंचे श्याम शरण नेगी ने एक बार फिर से वोट डालने का अवसर मिलने पर खुशी जताई। नेगी ने कहा कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए वोट डालना जरूरी है। सभी को इस अधिकार का प्रयोग करना चाहिए। गौरतलब है कि नेगी चुनाव आयोग के ब्रांड एंबेस्डर भी हैं। वे अपने जीवन में 29 बार वोट डाल चुके हैं।
नेताओं के बिगड़े बोल
विशेष संवाददाता
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के फरवरी 2017 के भाषण को याद करें। उन्होंने कहा था – मनमोहन सिंह (पूर्व प्रधानमंत्री) जानते हैं कि रेनकोट पहनकर स्नान कैसे करना है। अब नौ महीने बाद मोदी ने हिमाचल प्रदेश की एक चुनाव रैली में कहा- कांग्रेस शासन में ‘पाँच राक्षसÓ पैदा हो गए हैं। ये पांच राक्षस भविष्य की पीढ़ी को लूट रहे हैं। कांगड़ा जिले के रेहन में एक और रैली में उन्होंने कहा- ‘आपके बेटे कश्मीर में देश की हिफाजत करते हैं और उन्हें वहां पत्थर मारे जाते हैं। और हमारे कांग्रेस के नेता इन पत्थरबाजों का समर्थन करते हैं।
और राहुल गांधी ने रेहन रैली में कहा- यह गीता में लिखा है, ‘कर्म करो, फल की चिंता मत करोÓ, लेकिन मोदी का सिद्धांत है – फल खा जाओ और कर्म की चिंता मत करो। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मंडी रैली में कांग्रेस पर टिप्पणी में कहा – यह कुछ राजनेताओं की कहानी है जो संकीर्ण स्वार्थी सोच के लिए ‘मानव से दानवÓ बन रहे हैं।
पहाड़ी राज्य हिमाचल में चुनाव प्रचार के यह कुछ निम्न स्तर के भाषणों के उदाहरण हैं- उस प्रदेश में जिसे देव भूमि कहा जाता है। इस बार हिमाचल विधानसभा चुनाव में विभिन्न नेताओं के भाषणों में निम्न स्तर देखा गया। आम आदमी को भी यह आश्चर्यचकित करता है। कांगड़ा में लांबा गांव के एक 72 वर्षीय ग्रामीण कम्मा राम ने कहा यह चिंता की बात है कि खुद को नेता कहने वाले लोग ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने कहा, खराब बात तो यह है कि विकास की बात भी यह लोग विरोधियों पर छींटाकशी करके करते हैं जिसे स्वस्थ नहीं माना जा सकता।
इस विषय पर जब लोगों को टिप्पणी करने के लिए कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि आम तौर पर नेता कड़वे शब्दों का उपयोग करने लगे हैं। हमीरपुर जिले के सुजानपुर में स्थानीय नगर परिषद की एक स्वतंत्र सदस्य रहीं सोमा ने कहा कि ज्यादातर लोग नेताओंपर पर विश्वास नहीं करते हैं जब वे एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, विशेष रूप से चुनाव में। उनके अधिकांश आरोप सही नहीं होते और लोग इसके बारे में जानते हैं। ”लेकिन दिलचस्प यह है कि जब इन्हें बार-बार कहा जाता है तो वही लोग इस पर चर्चा करना शुरू करते हैं क्योंकि वे स्वयं भी पार्टी की राजनीति में शामिल हो जाते हैं।ÓÓ
जब मोदी ने रेहन की रैली में कांग्रेस को ‘हंसने वालों का क्लबÓ बताया, और बाद में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर व्यक्तिगत हमले में उन्हें जमानत पर चल रहे मुख्यमंत्री के रूप में वर्णित किया, तो सिंह ने ट्वीटर पर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल पर हमला किया। सिंह ने कहा – ‘धूमलजी, भाजपा के भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली लड़ाई पर आपकी टिप्पणी ने मुझे हंसा दिया। पिछली बार मैंने देखा था, आपके बेटे जमानत पर बाहर थे। अमित शाह और उनके बेटे की आमदनी में 16,000 गुना वृद्धि का चमत्कार भाजपा शासन में ही होता है।
कई लोग सोचते हैं कि मोदी की भाषा गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के उस पर बाद रहे दबाव का नतीजा है। जबकि कुछ अन्य लोगों का मानना है कि यह मोदी की शैली है। यह एक रोचक बात है कि इस पहाड़ी राज्य के दूर दराज ग्रामों में भी गुजरात चुनावों के बारे में चर्चा है। अपने ही राज्य में चुनाव होने के बावजूद, हिमाचल के लोग जानना चाहते थे कि गुजरात में क्या होगा। कुछ लोगों का मानना है कि कांग्रेस मजबूत हो जाएगी जबकि अन्य कहते हैं कि भाजपा जीतेगी। हालांकि इसका मार्जिन नीचे जा सकता है।
इस पहाड़ी राज्य में विधानसभा चुनावों में सोशल मीडिया ने भी इस बार बड़ी भूमिका निभाई। हिमाचल को केरल के बाद देश में उच्चतर शिक्षा दर वाला राज्य माना जाता है। दूर-दूर तक गांवों में मोबाइल फोन पहुंच गए हैं और लोगों को फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर चीजों को साझा करने में आनंद मिलता है। किन्नौर के आदिवासी जिले के रेकांग पियो में 34 वर्षीय रतन नेगी ने इस संवाददाता को बताया कि राष्ट्रीय नेताओं की रैलियों को मैदानी क्षेत्रों में ही आयोजित किया जाता है लिहाजा वे इंटरनेट पर मोदी और राहुल की रैलियों के भाषण देखते हैं। ”राजनीतिक दलों ने उन्हें वॉट्स पर भी साझा किया,ÓÓ उन्होंने कहा। नेताओं द्वारा भाषणों में सस्ते शब्दों के प्रयोग के बारे में पूछा जाने पर उन्होंने कहा कि कोई भी समझदार व्यक्ति इस बात को अस्वीकार करेगा। उन्होंने कहा नेताओं को गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
सरकारी स्कूल में शिक्षक चंपा नेगी ने हालांकि, राष्ट्रीय नेताओं द्वारा चुनाव रैलियों के लिए मुश्किल क्षेत्रों को नजरअंदाज करने पर चिंता व्यक्त की। ”यहां तक कि मोदी साहब अपने भाषणों में कहते हैं कि वह दूरतम गांव में रहने वाले व्यक्ति के दर्द को समझना चाहते है। लेकिन फिर क्यों वे चुनाव में हमारे पास नहीं आते, चंपा का सवाल था।
हालांकि, नेताओं का मानना है कि ज्यादातर समझदार नेताओं की भाषा संतुलित और सम्मानजनक होती है। हाँ कई बार लोगों को रिझाने के लिए चुटकलों की मदद नेता ले लेते हैं। ”जनता में बोलने के दौरान कांग्रेस नेता अधिक समझदार होते हैं लेकिन आप भाजपा नेताओं को सुनिए। यहां तक कि प्रधानमंत्री साहब उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं जिनका उपयोग उनके स्तर के किसी व्यक्ति द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। हमीरपुर में यह कहना था कांग्रेस के प्रवक्ता प्रेम कौशल का। उधर भाजपा मीडिया सेल के प्रभारी गणेश दत्त ने कांग्रेस नेताओं द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा पर सवाल उठाया। ”कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया जी के कहे मौत के सौदागर जैसे शब्दों को न भूलें। उधर शिमला के पूर्व महापौर और सीपीएम नेता संजय चौहान ने हालांकि आरोप लगाया कि आम जनता की समस्याओं के साथ कांग्रेस और भाजपा दोनों का कोई संबंध नहीं है। उन्होंने कहा, ‘यही कारण है कि वे ऐसे बेहूदा चीज़ों पर अधिक ध्यान देते हैं। उनका किसानों और गरीबों से संबंधित मुद्दों से कुछ सरोकार नहीं होता।