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धारा-118 पर बवाल: कप में उठा तूफान या गंभीर मामला

हिमाचल में धारा118 फिर विवाद में है। तीन महीने पहले सत्ता में आने वाली भाजपा सरकार इसमें बदलाव करके इसके सरलीकरण की तैयारी कर रही है। इसी धारा में कुछ छूट के तहत भाजपा की पिछली सरकार के वक्त बाबा रामदेव को ज़मीन दी गयी थी। जिसे कांग्रेस की वीरभद्र सिंह सरकार ने सत्ता में आते ही बदल दिया था। यही नहीं धारा 118 में विशेष प्रावधान (सुरक्षा) के तहत भाजपा सरकार ने ही कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी की पुत्री प्रियंका गांधी वाड्रा को शिमला के पास छराबड़ा में ज़मीन खरीदने की मंजूरी दी थी, यहां प्रियंका का पहाड़ी शैली का मकान अब निर्माणाधीन है।

दरअसल प्रदेश में लोग धारा-118 के प्रावधानों को लेकर दो खेमों में बंटे हुए हैं। बहुतों का कहना है कि इस धारा के नियम प्रदेश के स्थाई निवासियों तक के लिए भी मुसीबत का कारण हैं क्योंकि ताकतवर लोग तो छूट के प्रावधानों का लाभ उठाकर ज़मीन हासिल कर लेते हैं, आम जन को ज़मीन खरीदने के लिए दर दर भटकना पड़ता है। मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर का कहना है कि उनकी सरकार इस धारा का सरलीकरण करना चाहती है जबकि विपक्षी कांग्रेस आरोप लगा रही है कि सरकार गैर हिमाचलियों को प्रदेश बेचने पर उतारू है और ऐसा आरएसएस के दबाव में किया जा रहा है।

इस समय जेल में सजा काट रहे डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह से लेकर आसाराम बापू और श्री श्री रविशंकर जैसे संतों और अन्य धार्मिक संगठनों के आश्रम यहां चल रहे हैं और उन्हें ज़मीन भी मिली हैं। इन बाबाओं और धार्मिक संगठनों को ज़मीनें भाजपा और कांग्रेस दोनों सरकारों के समय मिलीं। इनमें से कइयों के आश्रम कई कई जगह चल रहे हैं।

यह अलग बात है कि धारा-118 पर हिमाचल के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल जमकर राजनीति करते हैं। जांच का विषय है की आखिर बाबाओं को ज़मीनें खुले दिल से बांटने में हर राजनीतिक दल की रुचि क्यों रहती है। कुछ महीने पहले हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भूमि मुजारा कानून की धारा 118 में तीन माह में संशोधन करने के आदेश जारी किए थे। उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता सतपाल सैनी की याचिका पर सुनवाई करते हुए धारा 118 में तीन माह में संशोधन करने को कहा था। दिलचस्प यह कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया था। गौरतलब है कि 1972 के भूमि मुजारा कानून की धारा 118 के प्रावधानों के तहत कोई भी गैर कृषक अथवा गैरहिमाचली प्रदेश में ज़मीन नहीं खरीद सकता। हिमाचली स्थायी प्रमाणपत्र रखने वाले भी सरकार की अनुमति से शहरों में ही आवास बनाने अथवा कारोबार के लिए सीमित भूमि खरीद सकते हैं।

हिमाचल सरकार के रिकार्ड के मुताबिक 2018 के आखिर तक हिमाचल में धार्मिक बाबाओं और धार्मिक ट्रस्टों के नाम ज़मीन दर्ज करने के 1787 मामले थे।

हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार के समय यह कानून लाया गया था। परमार से कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी थी और बाद में वे उन्हीं लोगों के यहां नौकर बन गए थे। इसलिए हिमाचल प्रदेश टेनंसी ऐंड लैंड रिफॉर्म्स ऐक्ट 1972 में एक विशेष प्रावधान किया गया ताकि हिमाचलियों के हित सुरक्षित रहें। इस ऐक्ट के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंडÓ में आने वाली धारा 118 के तहत ‘गैर-कृषकों को ज़मीन हस्तांतरित करने पर रोकÓ है।

इस बार धारा-118 पर विधानसभा के बजट सत्र में भी खूब हंगामा हुआ। विपक्षी कांग्रेस ने दो बार इस मसले पर वाकआउट किया जबकि सरकार का कहना था कि कांग्रेस इस मसले पर सिर्फ राजनीति कर रही है। बजट सत्र शुरू होने से पहले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा था कि सरकार चाहती है कि नियमों को थोड़ा सरल किया जाए ताकि हिमाचल में निवेश बढ़ सके। कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया और कहा कि धारा 118 से छेड़छाड़ प्रदेश के लिए नुकसानदेह है और इस कारण उसने सदन से वॉकआउट भी किया।

सवाल यह है कि जिन हिमाचलियों के पास कृषि ज़मीन नहीं क्या उनका कोई अधिकार ही नहीं और जो ताकतवर हैं, चाहे गैर हिमाचली ही, वो मर्जी से ज़मीनें ले सकते हैं। ऐसे लोगों को जिनमें बाबा और धार्मिक ट्रस्ट बड़ी संख्या में शामिल हैं, उन्हें धारा 118 के तहत छूट देकर ज़मीनों बतौर रेबडिय़ाँ दे देते हैं लीज के नाम पर। इस मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारें मेहरबान हैं।

छानबीन से जाहिर होता है कि बाबा या ट्रस्ट किसी हिमाचली कृषक के नाम पर हिमाचल में ही ट्रस्ट बनाते हैं। बाद में वे अपने संपर्कों का लाभ लेकर ज़मीन को ट्रस्ट के नाम करवा लेते हैं। वीरभद्र सरकार ने 2017 में एक फैसला किया जिसमें इन धार्मिक ट्रस्टों को ज़मीन बेचने का अधिकार ही दे दिया। इसके लिए सरकार ने बाकायदा मंत्रिमंडल की बैठक में सीलिंग ऑन लैंड होल्डिंग अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दी। सरकार धर्मशाला के चुनिंदा चाय बागान मालिकों को लैंड सीलिंग एक्ट में छूट देकर ज़मीन बेचने की इजाजत पहले ही दे चुकी है।

धार्मिक संस्थाओं को ज़मीन बेचने की इजाजत भले सशर्त है लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। संशोधन से धार्मिक संस्थाओं और डेरों को अपनी ज़मीन बेचने, गिरवी रखने या किसी को तोहफे में देने की छूट मिलती है। शर्त यह रखी गई थी जिसे ज़मीन मिले, वह धारा 118 के तहत बताई गई परिभाषा में आने वाला किसान हो। दिलचस्प यह है कि पहले यह मामला विरोध के चलते खारिज हो चुका था। मीडिया में इस तरह की रिपोर्ट आई थी कि कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में डेरा स्वामी सत्संग व्यास के लिए लैंड सीलिंग ऐक्ट बदलने की मंजूरी दी। यह भी कहा गया था कि डेरा कांगड़ा में अपनी ज़मीन कथित तौर पर फाइव स्टार रिजॉर्ट बनाने के लिए बेचना चाहता है। इससे जाहिर हो जाता है कि धार्मिक ट्रस्टों को ज़मीनें देने के पीछे सरकारों की मंशा आशंका के घेरे में रही है।

इस मसले पर कांग्रेस विधायक दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री ने प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। उन्होंने धारा-118 में संशोधन को लेकर दो टूक कहा कि अगर प्रदेश सरकार ने ऐसा किया तो इसका पुरजोर विरोध होगा। इसे किसी भी सूरत में लागू नहीं होने दिया जाएगा। यहां पत्रकारों से बातचीत करते हुए सीएलपी लीडर मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि बीजेपी सत्ता में आते ही अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों में लगातार परिवर्तन करती आई है।

उन्होंने कहा कि पहले बीजेपी नेता कह रहे थे कि हिमाचल को बिकने नहीं दिया जाएगा और अब खुद ही वह धारा 118 में फेरबदल करने जा रही है, जिस से साबित होता है कि बीजेपी की कथनी और करनी में कितना फर्क है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि धारा-118 प्रदेश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसे प्रदेश निर्माता यशवंत सिंह परमार ने बहुत ही जद्दोजहद के बाद लागू कराया था, जिसकी वजह से प्रदेश की सुंदरता आज भी जि़ंदा है। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि प्रदेश सरकार को आज बने महज 60 दिन हुए। वह सत्ता में आते ही न जाने क्यों धारा-118 में संशोधन करना चाहती है।

रेबडिय़ों का सिलसिला

सरकारी रेकार्ड के मुताबिक पिछली सरकार के समय पहली जनवरी से मार्च 2017 तक आठ धार्मिक ट्रस्टों को ज़मीन दी गयी। इस के मुताबिक पदम संभाव गोंपा कमेटी, भुंतर को पहली जनवरी, 2015 को कुल्लू में, हरियाणा राधा स्वामी सत्संग एसोसिएशन को 09 मार्च, 2015 को काँगड़ा जिला के नगरोटा बगवां में, भगवान श्रीलक्ष्मी नारायण धाम ट्रस्ट को 31 मार्च, 2015 को मंडी जिले के बल्ह, चौतन्य ट्रस्ट, सोनीपत (हरियाणा) को 28 अप्रैल, 2015 को, ओशो समर्थक जीवन ट्रस्ट, जींद को 15मई, 2015, रुहानी सत्संग प्रेम समाज को 05 दिसंबर, 2016, ऊना वैष्णों भजन मंडली ट्रस्ट को 22 जनवरी, 2016 को ऊना में, धाकपो शेद्रूप मोनेस्ट्री को 14 मार्च 2017 को कुल्लू में लीज़ पर जमीन दी गयी। इससे पहले भाजपा और कांग्रेस राज में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को काँगड़ा जिले के पालमपुर के पास चचियां में, सुधांशुजी महाराज को कुल्लू, बाबा अमरदेव को सोलन, बाबा रामेदव को सोलन और चायल के बीच साधुपुल में, राधा स्वामी सत्संग डेरा ब्यास को प्रदेश हरेक जिले में, आसाराम बापू को हमीरपुर जिले के कलूर (नदौन), धार्मिक नेता और राजनीतिक सतपाल महाराज को शिमला जिले के संजौली, निरंकारी भवन और श्रीश्री रवि शंकर को प्रदेश के विभिन्न जिलों में जमीनें दी गयी हैं।

प्रदेश को बेचने की कोशिश: वीरभद्र सिंह

हिमाचल प्रदेश भूमि सुधार कानून की धारा -118 को लेकर हिमाचल में छिड़ी सियासी जंग को लेकर पूर्व सीएम वीरभद्र सिंह ने जयराम सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। वीरभद्र सिंह ने दो टूक कहा कि प्रदेश में बीजेपी को आए अभी दो महीने हुए हैं और वह प्रदेश की जमीनों को बेचने पर उतारू हैं। कांग्रेस की सरकारों ने लंबे समय से प्रदेश की जमीनों को रक्षा की है और आगे भी इसका ख्याल रखा जाएगा। उनहोंने कहा कि धारा -1118 में किसी तरह का संशोधन नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि बीजेपी सरकार सिर्फ पूंजीपतियों को फायदा पहुंचने में लगी हुई है। धारा 118 लागू नहीं होती है तो प्रदेश के लोग भूमिविहिन हो जाएंगे, उनके पास अपनी जमीनें नहीं रहेगी।श्श् वीरभद्र सिंह ने कहा कि हिमाचलियों की भूमि बाहर के लोग खरीदे यह कभी भी बर्दाश्त नहीं होगा। बहरहाल, अब बीजेपी के मंसूबों को कांग्रेस किसी भी हाल में पूरा नहीं होने देगी।

सरलीकरण का समर्थन

बीबीएन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेंद्र गुलेरिया के नेतृत्व में संघ का एक प्रतिनिधिमंडल उपनिदेशक उद्योग विभाग तिलकराज शर्मा से मिला। इस मौके पर औद्योगिक संस्थाओं के पदाधिकारियों ने प्रदेश की नई बन रही औद्योगिक पॉलिसी को लेकर सुझाव दिए। जिससे प्रदेश में और ज़्यादा औद्योगिक निवेश हो सके। गुलेरिया और महासचिव यशवंत गुलेरिया ने सरकार से पर्याप्त मात्रा में लैंड बैंक बनाने और धारा 118 को सरलीकरण करने की बात रखी। बीबीएनआईए के संगठन सचिव अश्विनी शर्मा ने उपनिदेशक तिलकराज शर्मा से कहा कि एक विशेष एरिया में नए औद्योगिक कलस्टर बनाकर उसको विकसित किया जाए और विभिन्न प्रकार के बैरियरों को हटाकर फ्री ट्रेड पालिसी के बारे में चर्चा हुई। सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों को प्रदूषण क्लीयरेंस के दायरे से मुक्त रखने और कंसैट टू आपरेट नवीनीकरण की सीमा 90 दिन में तय करने की मांग रखी गई। बीबीएनआईए के प्रवक्ता संजय खुराना और बिजली समिति के चेयरमैन शैलेष अग्रवाल ने सिंगल विंडो प्रणाली को सशक्त करने का सुझाव दिया और धारा 118 को 45 दिन और पूरा प्रोजेक्ट 90 दिनों में क्लीयर करने की समय सीमा निर्धारित की जाने की मांग रखी। वहीं गत्ता उद्योग संघ के प्रदेशाध्यक्ष मुकेश जैन ने राज्य के भीतर ही बनने वाले गत्ता पेटी पर पांच फीसदी टैक्स को हटाने की बात कही। उपनिदेशक तिलक राज शर्मा ने संघ के पदाधिकारियों से सुझाव सरकार तक पहुंचाने का आश्वासन दिया।

हिमाचली हितों से समझौता नहीं : जयराम

धारा-118 को लेकर सीएम जयराम ने स्पष्ट किया है कि सबसे पहले हिमाचली हित देखे जाएंगे, इसे हटाने की कोई बात नहीं है। उनका कहना था कि बात इसके सरलीकरण की है और विषय अभी पूरी तरह से खुला है। उन्होंने कहा कि 118 में संशोधन सबसे ज्यादा छह बार कांग्रेस ने किए हैं। वहीं कांग्रेस के खिलाफ भाजपा की सौंपी गई चार्जशीट को लेकर पूछे गए सवाल पर सीएम ने कहा कि चार्जशीट सरकार के पास है और उस पर समय पर जांच होगी। अदानी को मिले बिजली प्रोजेक्ट से संबंधित अपफ्रंट प्रिमियम पर कानून के मुताबिक कार्रवाई होगी। कांग्रेस यह मामला केबिनेट में लाई थी और फिर वापस किया था। उन्होंने विधानसभा में भी इस मसले पर अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि एचपी टेंनेंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट1972 की धारा 118 के तहत एक तय भूमि की सीमा के भीतर प्रदेश सरकार द्वारा निजी भूमि क्रय करने की स्वीकृति भी प्रदान की जाएगी। राजस्व और उद्योग विबाग इस दिशा में शीघ्र आवश्यक दिशा-निर्देश तैयार करेंगे. इसी प्रकार उद्योग विभाग, राज्य औद्योगिक विकास निगम द्वार विकसित औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक इकाई स्थापित करने को भूमि आवंटन के लिए एचपी टेंनेंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट की धारा 118 के तहत उद्योग विभाग अधिकृत होगा। जयराम ठाकुर ने भू-राजस्व अधिनियम की धारा-118 में संशोधन को लेकर विपक्षी कांग्रेस द्वारा उठाए जा रहे मामले को ओछी राजनीति करार दिया।

तांडव गायों का, रक्षकों का उन्माद!

राजस्थान में लगातार होतीं गायों की हिंसक घटनाएं ऐसी हैं जिस पर सरकारों की गुलेलबाजी साफ नजर आ रही है, कि ‘अच्छा! ऐसा कब हो गया? गाय चिढ़ गई होगी?ÓÓ निर्लज्जता का कवच पहने मेयर की यह खुंदकी तर्जुमानी उस बर्बर घटना पर थी, जिसमें राह चलती एक महिला पर गाय ने हमला कर उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया। बाद में चीख-पुकार के बीच भी काफी देर तक वह उसे रौंदती रही। असल में ये घटनाएं ऐसे समय हो रही हैं जब गोरक्षा के नए बाजीगर अपना हुनर दिखाने पर आमादा हैं।

विवाद के ये दोनों केन्द्र राजनीति और धर्म की भेडिय़ा धसान के प्रतीक हैं और दोनों के रंग गहरे और तीखे हैं! एक की छाया निरापद आवागमन को स्याह करना चाहती है तो दूसरी साम्प्रदायिक सदभाव को डसने पर आमादा है और इन सबके बीच फंसी है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आशंका कि ‘लोगों ने गोरक्षकों के नाम पर दुकानें खोल ली हैं। गोरक्षकों के वेश में गुंडागर्दी की जा रही है।Ó भाजपा को ऐसे लोगों से खास सावधान रहना होगा।ÓÓ

राजस्थान में पिछले छह महीनों में सड़कों पर मटरगश्ती करती गायों की गुर्राहट में फंसकर दो दर्जन लोग जान गंवा चुके हैं और सैकड़ों उनके खुरों की ठोकरों से जख्मी होकर अस्पताल में पड़े रहने का दर्द भोग रहे हैं। इन घटनाओं की जड़ें नाकारा नगरीय सरकार की गफलत में खोजी जा सकती हैं जिसका मुखिया कहता है, ‘लोग खुद सावधान रहें, हमारे पास इसका कोई इलाज नहीं है। उधर गोरक्षा और ‘स्वच्छ भारतÓ अभियान के सन्निपात में राजस्थान की उन्मादी भीड़ ने दो जनों की निर्मम हत्या कर दी, एक को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया और लंबा इलाज भुगतने की यंत्रणा दे दी। एक व्यक्ति को इसलिए मौत की खंदक में धकेल दिया गया कि वो फरागत के लिए खुले में शौच पर बैठा था। यह दरिन्दगी उन पालिका अधिकारियों ने दिखाई जिनका उत्तरदायित्व था कि वे शौचालय बनाकर देते? लेकिन ऐसा नहीं करके पता नहीं कौन से शौचालय में जाने का खुंदकी दबाव बनाए हुए थे? नतीजतन आहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक बार फिर दोहराना पड़ा कि ‘हम कैसे लोग हैं जो आपा खो रहे है। गायों के नाम पर लोगों को मार रहे हैं? इंसान को मारना कौन सी गोरक्षा है? इन घटनाओं पर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि, ‘बड़े फलक पर तो हम सेकुलर हैं लेकिन देश के छोटे-छोटे हिस्सों में पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?ÓÓ

आवारा गायों की हिंसा से बुरी तरह हिला हुआ राजस्थान का नाद नगरीय सरकारों की संवेदनशीलता को क्यों नहीं जगा पाता? तो इसलिए कि हंगामी हालात के बावजूद वे अनभिज्ञता के रोग से जकड़े हुए हैं। क्या नगरीय सरकार के मुखिया की कुर्सी पर ऐसे शख्स को बैठना चाहिए जो ‘मुझे पता नहीं, की बीमारी में जकड़ा हुआ हो?ÓÓ उनका यह नज़रिया उस बर्बर घटना पर था जिसमें पगलाई गायों ने सड़क पर जाने वाली एक महिला मधु कंवर को उठाकर फेंका और दस मिनिट तक अपने नुकीले खुरों से उसे रौंदती रही। वरिष्ठ पत्रकार बिजेन्द्र सिंह शेखावत का कहना है, ‘कोटा में चलना मौत के कुएं में बाइक चलाने से ज्यादा खतरनाक हो गया है।Ó शेखावत तंज कसते हैं कि, ‘क्या सड़कें सांडों और मटरगश्ती करने वाले आवारा पशुओं के लिए बनाई गई है? शहर के जागरूक लोगों का कहना है कि, ‘एक तरफ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की बात की जा रही है। दूसरी तरफ सड़कों पर साक्षात यमराज बेरोक-टोक विचरण कर रहे हैं। महिला पर गायों के हमले के प्रत्यक्षदर्शी निखिल गैरा का आंखों देखा हाल जिस्म में झुरझुरी पैदा करता है कि, ‘जिस तरह शादियों में घोड़ी डांस करती है, उसी तरह गुर्राती गाय महिला पर खुरों के बल पर नाच रही थी।ÓÓ आपराधिक घटनाओं के विश्लेषक कहते हैं, ‘यह साक्षात मौत का नाच था।ÓÓइन विध्वंसक घटनाओं का सबसे दुखद पहलू रहा कि नगरीय सरकारों के मेयर से लेकर अफसर तक ‘गायÓ को ‘गायÓ कहने से कतराते रहे। इसके पीछे राजनीतिक विवशता साफ नजर आ रही थी। झिंझोड़कर जगाने के बाद भी चलते-फिरते ‘आतंकÓका तात्कालिक हल तलाशने की बजाय कोटा के मेयर महेश विजय कह रहे हैं कि, ‘सर्वे कराकर करेंगे काम…..ÓÓ जिस दिन मेयर यह अपाहिज प्रतिक्रिया दे रहे थे, ठीक उसी दिन उनके अपने वार्ड में बेकाबू सांड ने एक व्यक्ति को चलती बाइक से धकेलकर बुरी तरह घायल कर दिया। इन मामलों में मेयर ही खतावार नहीं है बल्कि अफसर भी जुमलेबाजी के जाल में फंसे हुए हैं। कोटा नगर निगम के आयुक्त की बेबसी फिल्मी गीत,’मुहब्बत कर तो लें लेकिन मुहब्बत रास आए तो…..Ó के अंदाज में बिसूरती हुई बयां होती है कि आवारा पशुओं को पकड़ तो लें, लेकिन रखें कहां?ÓÓ निगम के समानान्तर संकाय ‘न्यासÓ ने गोशाला बनाकर देने की अर्जी यह कहते हुए दफ्तर दाखिल कर दी कि, ‘जमीन दे सकते हैं, गौशाला बनाकर क्यों दें? अब इन मामलों में जो ताजा तरक्की समझे तो,’सड़कों पर स्वच्छंद विचरते गाय- सांड बेधड़क घरों में घुसने लगे हैं। एक मकान के बाथरूम में घुसे पगलाए सांड को निकालना कितना भारी पड़ा ‘कहने की जरूरत नहीं?

उधर राजस्थान के अलवर जिले के निकटवर्ती कस्बे बहरोड़ मे ंपहलू खां की मौत की घटना तो आज भी सवालों के अंगारों में दहक रही है। हरियाणा से सटे मेवात का पहलू खां अपने साथियों के साथ जयपुर से गायें खरीद कर एक ट्रक से उन्हें मेवात ले जा रहा था। लेकिन कथित ‘गौरक्षकोंÓ ने उन्हें थाम लिया और तस्करी का आरोप लगाते हुए इस कदर पीटा कि उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहलू खां की मौत गंभीर चोटों के कारण हुई जबकि हिंसक’गोरक्षकोंÓ का कहना है कि ‘पहलू खां की मौत दहशत के कारण हुई।Ó प्रदेश के विहिप और बजरंगदल के बड़े पदाधिकारियें का कहना है, ‘हम कभी हिंसा को प्रोत्साहित नहीं करते….।ÓÓ वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक का कहना है कि, ‘…..तो फिर ड्राइवर को क्यों छोड़ा? क्या हिन्दू ड्राइवर को पता नहीं था कि ट्रक में गायें भरी हुई है। अगर उसे शक होता कि गायें बूचडख़ाने ले जाई जा रही है तो उसने ट्रक को थाने पर ले जाकर क्यों नहीं खड़ा किया? अभी इस घटना का कफन-दफन नहीं हुआ था कि एक और घटना घटित हो गई। राजस्थान के गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया कह कर रह गए कि, ‘दोनों पक्ष दोषी हैं। संसद में केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास ने जो कहा, हैरान करता है कि, ‘इस तरह की घटना जमीन पर हुई ही नहीं।ÓÓ अलबत्ता केन्द्रीय गृहमंत्री राजस्थान सिंह का कथन संतोषजनक था कि, ‘राजस्थान सरकार भी इस मामले की जांच कर रही है और केन्द्र सरकार भी न्याय संगत कार्रवाई करेगी।ÓÓ इस मामले में न्याय संगत कार्रवाई आज तक भी क्यों नहीं हुई?

सघन हो रहे हैं अंधेरे

गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा और उत्पात को लेकर वरिष्ठ पत्रकार वेदव्यास का सुलगता सवाल चौंकाता है कि, ‘आखिर हम 1947 की आजादी को 2022 में 75 साल पूरे होने पर कहां, किस ओर ले जाना चाहते हैं? एक देश और एक कर से बाजार तो एक हो सकता है लेकिन जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय विविधताओं को केवल गाय, गंगा और गीता के नाम पर हिंसा फैलाकर लोकतंत्र नहीं बचाया जा सकता। वरिष्ठ पत्रकार मनोज मोहन एक अलग विषय पर सामयिक संदर्भ पर सटीक टिप्पणी करते नजर आते हैं,’कई बार लगता है कि सारी चकाचौंध के बावजूद हमारे समय और समाज में दरअसल अंधेरा, एक नहीं बल्कि कई तरह के अंधेरे बढ़ रहे हैं। वे इतने और इस कदर सघन और एक-दूसरे से इतने अटूट हैं कि इन्हें अलग कर देना मुश्किल है। वरिष्ठ पत्रकार दीनबंधु चौधरी कहते हैं,’सवाल उठता है कि क्या ये नृशंस उत्पात चुनाव की सन्निकटता के मद्देनजर एक खास समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने और किसी अन्य समुदाय में ध्रुवीकरण करने की कोशिश का हिस्सा है? इस साल कर्नाटक में चुनाव है तो संयोगवश राजस्थान में भी इस साल चुनाव है। यह एक संयोग है कि ऐसी घटनाएं चुनावों के आस-पास ही घटित होती हैं। दादरी में अखलाक अहमद की हत्या बिहार चुनाव के पूर्व ही हुई थी। हकीकत का तो पता नहीं लेकिन उत्पात मचाने वाले तत्वों को राजनीतिक संरक्षण मिलने वाले बयानों से संदेह को मजबूती मिलती है।

कुटिल होती संवेदना

नगरीय सरकारों के मुखिया को ‘क्रिएटिवÓ ओर ‘फोकस्डÓ होना चाहिए। लेकिन उनके पास तो वह ‘आंखÓ ही नहीं है जो सियासत के पार जाकर यथार्थ देख सके? अन्यथा उनकी सूखी हुई संवेदना इतनी कुटिल नहीं हेती कि, ‘हमारे पास समय ही नहीं है कि आवारा पशुओं को पकडऩे के लिए अभियान चला सकें।ÓÓ गायों की हिंसक घटनाओं को लेकर जो आवेग और बेचैनी आम होनी चाहिए थी, वो अंश मात्र भी उनमें नहीं है। शहरों में गुर्राती गायों और बर्बर सांडों की चहलकदमी, उन आदेशों की संकर पैदाइश है, जिनके मुताबिक ‘नाकामÓ होते इन पशुओं को ‘खरीद बिक्रीÓ से दरकिनार कर ‘छुट्टाÓ छोड़ देने को कहा गया है। नतीजतन छुटटा छूटा ‘अपराधीÓ या ‘सांडÓ क्या गुल खिला सकते है। इसका मकान शहरी सरकारों को रहा होता तो कुछ करते? इस अहम मुद्दे को लेकर पिछले दिनों जागरूक नागरिको ंको मुख्यमंत्री का आश्वासन भी फूंक में उड़ता नजर आता है कि, ‘अगले आठ दिनों में उन्हें इस ‘आफतÓ से निजात मिल जाएगी?Ó लेकिन निजात तो मिलती जब मेयर के फुरसत होती? गैर की छोड़ें तो कोटा मेयर को तो अपने वार्ड में टहलते ‘आतंकÓ की ही परवाह नहीं है तो उन्हें क्या कहा जाए? बहरहाल शहरों का फ्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा है कि उसकी बात शहर का खलीफा ही नहीं सुन रहा है? लोगों में किस कदर दहशत है कि, मुहल्लों में खेलते बच्चे अब कहीं नजर नहीं आते, लोग सुबह की सेहतमंद सैर और शाम को टहलने का कार्यक्रम टाल चुके हैं, लेकिन कब तक? लोगों का तंज बहुत कुछ कह जाता है कि ‘किसी की मौत से नगरीय सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता?

चुनाव प्रचार में ‘स्पेशल पैकेज’ पर उठा सवाल

बिहार में आंध्रप्रदेश की ही तरह उस ‘स्पेशल पैकेज’ की मांग पर जोर देने के लिए ‘सुशासन बाबूÓ यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर खासा दबाव है। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री जब बिहार आए थे तो उन्होंने एक लाख पच्चीस हज़ार करोड़ का स्पेशल पैकेज बिहार को देने की घोषणा की थी। इस मुद्दे को विपक्ष ने खूब बढ़ाया है। साथ ही आंध्र से सीख लेने की नसीहत भी दी है। उधर पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मोझी एनडीए से अलग होकर आरजेडी में आ गए हैं। सुखदेव पासवान भी भाजपा छोड़ कर आरजेडी में आ गए हैं। इस उप चुनाव मेें मुकाबला दिलचस्प है।

लोकसभा के लिए 11 मार्च को बिहार के आररिया और जहांनाबाद और भभुआ विधानसभा सीटों पर मतदान हुए। विपक्ष इस उपचुनाव को त्रिपुरा और उत्तरपूर्वी प्रदेशों में भाजपा की विजय पताका को लहराते देख कर भी अपनी जीत को जुदा दिखा। उधर भाजपा को पूरी उम्मीद है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यू) के साथ हुए गठबंधन में उसकी जीत तो पक्की ही है।

बिहार की आररिया लोकसभा सीट से आरजेडी के सांसद रहे मोहम्मद तस्लीमुद्दीन, जहाआबाद विधानसभा से आरजेडी विधायक मुंद्रिका सिंह यादव और विधानसभा के बाद ये चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में इस बार फिर प्रदीपकुमार सिंह मैदान में हैं। वे 2014 में मोदी की हवा के बावजूद आरजेडी के तस्लयुद्दीन के बेटे हैं। पहले आलम जेडीयू से विधायक थे। अब वे सुशासन बाबू का साथ छोड़ चुके हैं।

हालांकि नीतीश के पिछले एनडीए राज मेें आररिया सीट पर 2004 और 2009 की सीटों पर भाजपा ही जीती थी। लेकिन जब 2014 में भाजपा से अलग हुए तो तस्लीमुद्दीन भारी मतों से जीते थे। आरजेडी उम्मीदवार सरफराज आलस ओबीसी, दलित-मुसलिम-यादव समीकरण से अपनी जीत के प्रति आश्वस्त है। जबकि भाजपा के प्रत्याशी प्रदीपकुमार सिंह को पिछले चुनावों में भाजपा और जेडीयू के मिले वोटों के औसत से अपनी जीत का तस मान रहे हैं।

बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू यादव फिलहाल जेल में है और राज्य में पूर्व मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। यह उप चुनाव जहां मुख्यमंत्री सुशासन बाबू के लिए चुनौती है वहीं तेजस्वी के लिए राजनीति मे अपनी कामयाबी को मजबूती देने के लिहाज एक सुनहरा मौका है। उधर एनडीए के केंद्रीय मंत्रिमंडल से तेलुगु देशम का स्पेशल पैकेज न मिलने से अलग होने के मुद्दे ने भी बिहार में स्पेशल पैकेज की पुरानी मांग को फिदर ताजा कर दिया है।

वोट फीसद में थोड़ा भी बदलाव बदल देता है नक्शा

त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में माकपा को 46 फीसद वोट मिले हैं। यानी 2013 की तुलना में सात फीसद कम। जबकि भाजपा को 2013 में दो फीसद से कम वोट मिले थे। लेकिन आज त्रिपुरा में भाजपा सत्ता में है क्योंकि इसने एक मोर्चा बनाया जिसे कुल 51 फीसद वोट मिले। वोट हिस्सेदारी में पांच फीसद का अंतर सीटों के अनुपात में जबरदस्त उछाल दिखाता है जिसमें भाजपा को 43 और माकपा सिर्फ 16 सीटों पर सिमट जाती है।

भारतीय चुनावी व्यवस्था में मतदान में थोड़ी भी उछाल से एक पार्टी तो जीत जाती है और दूसरी बर्बाद हो जाती है। पश्चिम बंगाल में करीब 32 साल राज करने वाला वाम मोर्चा हमेशा पचास फीसद वोट पाता रहा। बकाया पचास फीसदी मतों का विभाजन दूसरी पार्टियों में होता रहा। लेकिन 2011 मेें इसकी वोट हिस्सेदारी 42 फीसद रही और तृणमूल और सहयोगी पार्टियों पचास फीसद वोट भी हासिल किए तो भी वाम मोर्चा को 294 में 60 सीटें मिलीं। मोर्चा तब भी ज्य़ादा वोट पाने का गान गाता रहा। लेकिन हुआ यह था कि मतों की भागीदारी और सीटों की हिस्सेदारी काफी कम हो गई। त्रिपुरा में भी पश्चिम बंगाल की ही तरह माकपा का सफाया हुआ।

भाजपा ने त्रिपुरा मेें कांग्रेस का एकदम सफाया कर दिया हालांकि मतप्रतिशतता में यह माकपा से एक प्वांइट कम है। भाजपा ने नौकरशाही, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक यानी हर तरह के हथकंडे अपनाते हुए त्रिपुरा के लाल दुर्ग में अंदर तक घुस कर माकपा को नष्ट कर दिया है। माकपा नेता और कार्यकर्ता अभी भी अपने घावों को सहला ही रहे हैं।

अभी भी माकपा राजनीतिक तौर पर मुकाबले में तैयार होती नजर नहीं आती। कांग्रेस के तमाम मतदाताओं का भाजपा की ओर जाना बताता है कि दोनों ही पार्टियों का चाल, चेहरा और चरित्र एक सा ही हैं। जब 1977 में चुनाव हुए तो वोटों की कांगे्रसी हिस्सेदारी 18 फीसद के नीचे चली गई। कांग्रेस ने 30 फीसद का अपना वोट बैंक बरकरार रखा (2013 में यह 37 फीसद हो गया)। लेकिन कांग्रेस का अब 1.5 फीसद पर पहुंच जाना कांग्रेस की कमजोरी और माकपा की राजनीति को साफ करता है।

त्रिपुरा में कानून-व्यवस्था हमेशा दूसरे राज्यों की तुलना में बेहतर रही। यहां की वामपंथी सरकार ने आदिवासी और गैर आदिवासी मसलों को कल्याणकारी कदम उठा कर हल किया मसलन भूमि देना, पुनर्वास और सामाजिक नीतियों मसलन आहार सुरक्षा, रोजगार गारंटी, और सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य को जन-जन तक पहुंचाया। इसके कारण यहां सामाजिक आर्थिक विकास हुआ लेकिन आदिवासी आकांक्षाएं और चाहत वामपंथी सरकार के पतन का कारण भी बना। त्रिपुरा में शिक्षा की उपलब्धि केरल के काफी करीब थीं। शिक्षा के फैलाव के साथ बेहतर रोजगार की आकांक्षा भी बढ़ी हालांकि वामपंथी राज में यह मुमकिन नहीं था इसलिए सरकार व पार्टी ने उस ओर सोचा भी नहीं।

नगालैंड

नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ-एनपीपी गठबंधन को मिलीं 29 सीटें। जबकि एनडीपीपी-भाजपा की हैं 27 सीटेें। लेकिन कांगे्रस को इस बार कोई सीट नहीं मिली जबकि 2013 में इसे यहीं आठ सीटें हासिल हुई थीं।

नगा पीपुल्स फं्रट और नए बने नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और भाजपा गठबंधन को 27 सीटें और इसकी सहयोगी नेशनल पीपुल्स पार्टी को दो सीटें मिली हैं।

भाजपा-एनडीपीपी मोर्चा को 11 सीटें और दो सीटें मिली हैं। शनिवार तीन मार्च को आए नतीजों के अनुसार चुनाव आयोग ने जनता दल (युनाइटेड) के एक विधायक और एक निर्दलीय को जिसे भाजपा-एनडीपीपी मोर्चा का समर्थन हासिल था उसे जीत का प्रमाणपत्र दिया। इससे कुल संख्या 29 तो हो जाती है लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए ज़रूरत 31 सीटों की है।

फिलहाल नगा पीपुल्स फ्रंट सबसे बड़ी पार्टी है। एनडीपीपी पंद्रह निर्वाचन क्षेत्रों में जीती जबकि इसकी सहयोगी भाजपा 11 पर। चुनावों के पहले भाजपा ने अपना पंद्रह साल पहले का नगा पीपुल्स फं्रंट के साथ चला आ रहा समझौता तोड़ दिया था और एनडीपीपी का साथ ले लिया था। जिसका नेतृत्व नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री कर रहे थे। इस मोर्चे से उन्हें अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी घोषित किया था।

कांग्रेस को 2013 की विधानसभा में आठ सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार उसे एक भी सीट नहीं मिली। किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है फिर भी भाजपा-एनडीपीपी मोर्चाे ने दो उम्मीदवारों जनता दल (युनाइटेड) के एक जीते उम्मीदवार और निर्दलीय उम्मीदवार तोंग्पोंड ओजुकुम को अपनी सूची में गिन लिया है।

नगालैंड की 39.1 फीसद मतदाताओं ने नगा पीपुल्स फं्रट के पक्ष में मतदान किया। एनडीपीपी का वोट हिस्सेदारी 25.5 फीसद जबकि भाजपा को मात्र 14.4 फीसद वोट हासिल हुए। कांग्रेस का मत फीसद सिर्फ 2.1 फीसद रहा।

मेघालय

मेघालय में कांग्रेस की ज्य़ादा सीटें हैं। लेकिन चुनाव बाद की रणनीतिक चालें खासी चलीं। कांग्रेस के बड़े नेता अहमद पटेल, कमल नाथ, मुकुल वासनिक और उत्तरपूर्व के ईंचार्ज व कांग्रेस के महासचिव सीपी जोशी शिलांग में शनिवार दोपहर से ही जमा रहे। उधर भाजपा ने भी अपने उत्तरपूर्व विशेषज्ञ हेमंत विश्वशर्मा को शिलांग भेजा है जिससे कांग्रेस की सरकार न बन सके। इस काम में सफलता भाजपा को ही मिली हालांकि कांग्रेस को इस बार 21 सीटें मिली हैं यानी बहुमत से दस कम हैं। कोनराड संगम की नेशनल पीपुल्स पार्टी 19 सीटों के इंतजाम में जुटी है। उन्होंने कांग्रेस और एनपीपी जैसी छोटी पार्टियों और निर्दलीयों को जोड़ लिया।

एनपीपी नेता संगमा को उम्मीद है कि वे अगली सरकार बना ले जाएंगे। मेघालय जनता कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार से ऊब चुकी थी इसलिए बदलाव की राह ली। भाजपा ने यहां 47 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ दो सीटें ही जीत सकी। मणिपुर और गोवा में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर विजयी हुई थी लेकिन वहां भी सरकारें भाजपा की ही बनीं।

एनपीपी और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा हालांकि एनपीपी केंद्र में और मणिपुर में भाजपा के साथ है। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी को छह सीटें मिली है यह भी भाजपा की उत्तर पूर्व नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलाएंस में है। एनपीपी की ही तरह यूडीपी ने चुनाव अपने दम पर लड़ा और हिलस्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से सहयोग रखा जिसे दो सीटों पर जीत मिलीं। यदि ये एनपीपी के साथ हो तीं तो विधायकों की कुल संख्या 29 हो जाती है।

एक और पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फं्रट है जिसे चार सीटें मिली है। यह पार्टी पिछले साल ही बनी थी जिसे कांग्रेस के पूर्व विधायक पिन्शेन्गेन एन सिएम ने बनाया था। मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे सीएम बहुत कम अंतर से मासिनराम सीट पर हारे। कांगे्रस छोडऩे के बाद वे मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के तगड़े आलोचक हो गए थे। उनकी पार्टी शायद ही संगमा को समर्थन दे। कांग्रेस का किसी भी पार्टी से चुनाव से पहले कोई तालमेल नहीं था।

मुख्यमंत्री संगमा ने आरपति और सांगसांक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था। हालांकि नतीजे उनकी आशा के अनुरूप नहीं थे। उनकी पत्नी डिकोची डी शिरा महेंद्रगंज सीट से जीतीं। मेघालय विधानसभा के अध्यक्ष और कांग्रेस उम्मीदवार अब बाहर मंडल हार गए। इसी तरह गृहमंत्री एचडीकुपट आर लिंग्दोह और शहरी मामलों के मंत्री रोमी वी लिंग्दोह भी पराजित हुए।

कोनराड संगमा के भाई और एनपीपी प्रवक्ता जेम्स के संगमा दादे नग्रे सीट पर जीते। एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष सप्लेंगए संगमा भी गाम्बेगे्र सीट से जीते जबकि एडेलबर्ट नानग्रम जो खुन हैनीट्रैप नेशनल अवेकनिंग मूवमेंट (केएचएनएएम) के हैं वे उत्तरी शिलांग से विजयी रहे। भाजपा को जीत दिलाने वाला प्रचारक मराठी सुनील देवधर पूर्वोन्तर में भाजपा था वह चेहरा है जिससे न कभी खबरों में खुद को रखा और न चुनाव ही लड़ा। लेकिन संगठन की रणनीति, चुनाव-प्रचार,कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता को बनाए रखने में उन्होंने खासी कूटनीति अपनाई।

विधानसभा 2013 में माकपा की 49 सीटें आई थीं। दस सीटों के साथ कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल थी। माकपा को एक सीट मिली थी। देवधर न सिर्फ मेघालय और त्रिपुरा बल्कि सभी राज्यों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में सक्रिय रहे। वे मेघालय में खासी और गारों जनजाति के लोगों से उन्हीं की भाषा में और बंगालियों से बांग्ला में बात करते हैं।

देवधर ने पिछले पांच साल में वाम दलों, तृणमूल कांगे्रस और कांग्रेस से पहले भाजपा कई नेताओं और विधायकों को चुनाव के पहले भाजपा में शामिल कराया। इनके साथ ही निचले स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ताओं को जोड़ा और बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत किया। देवधर ने वामदलों की ही तरह अपने कैडर बनाए।

कांगे्रस के ऐसे अच्छे नेताओं को उन्होंने भाजपा से जोड़ा जो वाममोर्चे के चुनौती देते रहे। फिर माक्र्सवादी और असंतुष्ट लेकिन मंजे हुए नेताओं को भी संगठन से जोड़ा। उन्होंने कार्यकर्ताओं को उचित प्रशिक्षण दिया और उन्हेें संतुष्ट रखा।

क्या है तिपरालैंड विवाद?

 

देश 1947 में आजाद हुआ। त्रिपुरा का संघ गणराज्य में नौ सितंबर 1949 मेे विलय हुआ। इससे पहल यह एक रियासत थी। इसे यूनियन टेरिटरी का दर्जा 1963 में दिया गया फिर 21 जनवरी 1972 मेें त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।

त्रिपुरा के पड़ोस में पूर्व पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) था। वहां से बंगाली हिंंदू त्रिपुरा आ रहे थे। यह बात त्रिपुरा के लोगों को नहीं भा रही थी। वहां भी छिटपुट संघर्ष होता रहा। वामपंथियों के राज में हिंसा पर रोक लगी।

जनगणना के अनुसार 2001 में पाया गया कि त्रिपुरा में 70 फीसद बंगाली हैं यानी आदिवासी सिर्फ तीस फीसद। एक लंबे आंदोलन के बाद देश का 29वां राज्य तेलंगाना दो जून 2014 में बना। तबसे यहां तिपरालैंड की आवाज ने फिर जोर पकड़ा। भाजपा ने यहां के आदिवासियों में लोकप्रिय संगठन इंडीजीनिय पीपुल्स फं्रट ऑफ त्रिपुरा के साथ तालमेल किया। इस फ्रंट ने नौ सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें आठ पर विजय पाई। अब उनका कहना है कि 35 सीटों को पाने वाला भाजपा पहले उनकी मांग स्वीकार करे या तो राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाए या फिर अलग तिपरालैंड की घोषणा करें। हालांकि अब राज्य में भाजपा सरकार है पर विवाद पर बहस जारी है। एनसी देव वर्मा ने कहा कि भाजपा को आदिवासियों के वोटों की बदौलत जीत हासिल हुई। वे सभी एसटी सीटों पर जीते हैं। ऐसे में एसटी सीट से जीते प्रत्याशी को ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए।

कांग्रेस

देश में वामपंथ को बचाए रखने के लिए कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल बहुत ज़रूरी नहीं है।

केरल में वाम मोर्चा के साथ दूसरे दल भी गठबंधन में हैं। इसे लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट कहत हैं। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में एक मोर्चा है जिसे युनाइटेठ डेमोक्रेटिक फ्रंट कहते हैं। यहां बड़े मोर्च की संभावना ही नहीं है।

बंगाल में वाम मोर्चा हाल ही में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ चुका है। उसमें उसे बड़ा नुकसान हुआ और कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। वहां तृणमूल से गठबंधन की संभावना नहीं है।

त्रिपुरा में कांग्रेस और तृणमूल का पूरा संगटन और नेतृत्व भाजपा में जा चुका था। वहां कोई भी गुंजायश नहीं थी।

आंध्र में राजशेखर रेड्डी के समय में कांग्रेस के साथ रणनीतिक समझदारी बनी थी। वाम मोर्चे ने वहां कांग्रेस के साथ तत्कालीन सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाया। इसका चुनावी लाभ भी हुआ। जीत के बाद कांग्रेस की सरकार अपने एजेंडे पर चलने लगी। घाटा वाम मोर्चे को हुआ। इसका ज़मीनी संघर्ष कमज़ोर हो गया।

बिहार में वामपंथी दलों को लालू प्रसाद ने खत्म कर दिया। पहले उन्होंने माले फिर माकपा के विधायकों को साथ लिया फिर माकपा पर डोरे डाले और उसकी धार कुंद कर दी। वाम मोर्चे ने सामाजिक न्याय की सियासत के आगे अपने एजंडे को भुला दिया। वहां अब माले और माकपा के थोड़े बहुत अवशेष बचे हैं।

उत्तरप्रदेश में अब छिटपुट वामपंथी हैं। जहां समर्थन विरोध का कोई मतलब नहीं। सामाजिक न्याय के एजंडे पर सक्रिय दलों से वामपंथी न्यूनतम कार्यक्रम आधारित साझेदारी रख सकते हैं।

उत्तर-पूर्व केसरिया हुआ पर उत्तर प्रदेश, बिहार में झटका

उत्तर-पूर्व में जीत का जो उन्माद भाजपा में भरा था, वह उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों में मिली पराजय से उतर गया। गोरखपुर की सम्मान का प्रतीक बनी सीट के हारने से भाजपा को खासा धक्का लगा है। ध्यान रहे कि गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे से खाली हुई थी। वे इस सीट से पांच बार चुने गए थे। इसके साथ फूलपुर की सीट भी उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या के पास थी। समाजवादी पार्टी ने ये दोनों सीटें मायावती के सहयोग से आसानी से जीत लीं। मौर्या ने स्वयं कहा कि बसपा ने बड़ी सफलता से अपने वोट समाजवादी पार्टी को दिलवा दिए।

इस जीत का अनुभव अगले लोकसभा चुनावों में एक बड़े गठबंधन का आधार बन सकता है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल आरजेडी ने अररिया संसदीय सीट और जहानाबाद की विधानसभा सीटों पर कब्जा कर लिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एकदम ट्वीट कर लालू प्रसाद यादव को बधाई दी। इससे भविष्य में अच्छे गठबंधन के संकेत मिलते हैं।

केसरिया झंडे का अब त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में लहराना भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) की ऐतिहासिक जीत है। इससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस पार्टी किस तरह सिमट रही है और भारतीय जनता पार्टी लगातार कितनी तेजी से विकास कर रही है। उत्तरपूर्व के तीनों राज्यों में भाजपा की जो विजयगाथा लिखी गई है वह अविस्मरणीय है। पूरे देश के 29 राज्यों में से 22 राज्यों पर पार्टी या उसके सहयोगियों का सीधा नियंत्रण है। इसका राजनीतिक संदेश बहुत साफ है कि कांग्रेस का हाथ त्रिपुरा और नगालैंड में ज़ीरो रह गया है।

जबकि 2013 में त्रिपुरा में कांग्रेस को दस सीटें मिली थीं और नगालैंड में 2013 में आठ सीटें मिली थी। भाजपा अब खुद को उत्तर भारत की पार्टी नहीं अखिल भारतीय पार्टी होने का दावा कर सकती है। अब भाजपा की निगाहें कर्नाटक, ओडिसा,बंगाल पर हैं साथ ही राजस्थान और मध्यप्रदेश में एंटी इकंबैंसी का कामयाबी से मुकाबला करने पर।

पारंपरिक तौर पर उत्तरपूर्वी राज्य केंद्र में राज कर रही पार्टी की ही ओर झुकते हैं क्योंकि उन राज्यों की ज़रूरत ‘ग्रांटÓ और ‘फंडÓ की रहती है। लेकिन भाजपा ने उत्तरपूर्वी राज्यों में अपना जो सिक्का जमाया है वह इस सोच से बिलकुल अलग इसलिए है क्योंकि इन राज्यों के मतदाताओं ने खुद केसरिया को मत देकर अपनी पसंद जताई है। यानी यह पार्टी न केवल हिंदी इलाकों में बल्कि असम, मणिपुर, नगालैंड, अरूणाचल और अब त्रिपुरा के लोगों की पसंदीदा पार्टी है। दरअसल जब से ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में माकपा को परास्त किया तब से वामपंथी बेहद अलग-थलग पड़ गए हैं। उधर उत्तरपूर्व में भाजपा का प्रदर्शन कम से कम वाम राज की त्रिपुरा से विदाई को बताता है। इसने 59 सीटों में से 43 पर जीत हासिल की है। त्रिपुरा में जीत का महत्व इसलिए भी ज़्यादा है क्योंकि त्रिपुरा में वामपंथी मोर्चा 25 साल से लगातार राज कर रहा था।

‘चलो पल्टाई’ ने खींचा ध्यान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई और देखरेख में पार्टी की चुनावी मशीनरी सक्रिय रही। इसे 2013 में जहां शून्य मिला था वहीं आज इसकी सरकार बनी है। वाकई ‘चलो पल्टाईÓ और विकास के वादे का मतदाताओं पर असर पड़ा और उन्होंने उखाड़ फैंकी सरकार वह भी माणिक सरकार की। आंकड़ों के अनुसार त्रिपुरा में पूरे देश की तुलना में सबसे ज़्यादा बेरोजगारी है। लेकिन माकपा आज भी वामपंथियों की पुरानी पड़ गई विचारधारा जिसमें समान अधिकारों की क्रांति का ही राग अलापती है। जबकि भाजपा विकास और बदलाव की रणनीति का वादा करती है। त्रिपुरा में 25 साल से चला आ रहा वामपंथी राज अब धसक चुका है। भाजपा को 60 सदस्यों वाली विधानसभा में दो तिहाई का बहुमत मिल गया है। इस तरह माणिक सरकार का चार बार मुख्यमंत्री बने रहने का सिलसिला भी टूट गया है।

सत्ता संभाल रही माकपा को आंकड़ों के खेल में हराया। सत्ता में रही माकपा को 42.6 फीसद वोट तो मिले लेकिन वाम मोर्चा को आंकड़ों के खेल में पराजय मिली। यह 50 से घट कर 16 सीट पर आ गई। कांग्रेस तो पूरी तौर पर हवा हो गई। इसका 2013 में 36.53 फीसद वोटों की हिस्सेदारी थी लेकिन इस बार उसका खाता ही नहीं खुला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, ‘शून्य से शिखर तक की यात्रा इसलिए ही कामयाब हो पाई क्योंकि विकास का मज़बूत एजेंडा है और हमारा संगठन मज़बूत रहा है।Ó

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा उनकी पार्टी की प्रभावशाली विजय से यह संकेत मिलता है कि अगले कुछ और चुनाव जो आगे होने हैं उनमें भी ऐसा ही होगा। पार्टी के कार्यकर्ताओं में जबरदस्त उत्साह है। वे 2019 के चुनावों की तैयारी में अभी से लगे हुए हैं।

वहीं माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि भाजपा ने त्रिपुरा में धन और बाहुबल का इस्तेमाल किया।

कुछ आसार बनते दिखते हैं पर

यह साफ है कि त्रिपुरा और नगालैंड में भाजपा को लाभ हुआ है। कांग्रेस ने हमेशा अपने को कमज़ोर करते हुए भाजपा को बढ़ाया। गुजरात में ज़रूर कांग्रेस के जीवंत होने के आसार दिखे भी। राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की उपचुनावों में जीत हुई है। राहुल गांधी के नए अवतार से यह शोर भी मचा है कि मोदी का जादू अब खत्म हो रहा है। लेकिन अब उसमें खासा ठहराव आ गया है। यों भी राहुल गांधी की जो तस्वीर तब बनी थी वह उत्तरपूर्वी राज्यों के नतीजों के आने के बाद खत्म हो गई। यह उम्मीद बंधी कि भाजपा काफी मज़बूत है।

जब 2013 के विधानसभा चुनावों में इसकी सिर्फ 1.6 फीसद मतों की हिस्सेदारी थी और एक भी सीट नहीं मिल सकी थी लेकिन अपने दम पर आज इसका मत फीसद 43 फीसद है जो अमूल्य है। भाजपा न केवल अगरतला के शहरी इलाकों में जीती बल्कि दक्षिण, मध्य और पूर्वी त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में भी जीती।

यह सिलसिला नगालैंड में भी चला जहां इसे 12 सीटें और मत फीसद 15.3(जो 1.8 फीसद से बढ़ा) मिला। नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी से हुआ गठबंधन जिस में 16 सीटों पर जीत हासिल हुई। इससे जाहिर हुआ कि पार्टी की कितनी सधी हुई रणनीति है। मेघालय में किसी पार्टी को बहुमत 1976 से ही नहीं मिला। इसे राज्य में भी भाजपा को मत फीसद 1.3 से बढ़कर 9.6 फीसद हुआ।

उत्तरपूर्वी राज्यों की लोकसभा में 25 सीटें हैं। भाजपा ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और दूसरी जगहों पर हुए नुकसान की भरपाई इस इलाके में कर ली। पार्टी ने छोटे राज्यों को नज़रअंदाज न कर एक उदाहरण भी पेश किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस के किसी भी नेता की तुलना में यहां सबसे ज़्यादा चुनाव रैलियां की। इसके पहले कोई कांग्रेसी नेता और वर्तमान में कभी यहां रैलियां करने के लिए सक्रिय नहीं दिखा बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ट्वीट करके यह चिढ़ाया भी गया कि ‘चुनाव शायद इटली में हो रहे हैं। कांग्रेस के प्रमुख लोगों का इटली में ‘नानी’ को देखने जाने पर यह चकल्लस हुई।

रोशनी में हिरण

कांग्रेस का हाल वैसा ही दिखा मानो तेज रोशनी में हिरण दिखे। मेघालय में जहां कभी कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बतौर उभरी थी। वहां अब कोनराड संगमा के नेतृत्व में भाजपा की साझादारी में सरकार ने शपथ ली। मेघालय में 28 सीटें इसे मिली ज़रूर। यानी सबसे बड़ी पार्टी होने का मौका भी मिला। लेकिन सतर्क भाजपा बाजी मार ले गई। उसने ज़्यादा मत पाने वाली पार्टी को समर्थन दिया। लगभग ऐसा ही वाकया गोवा विधानसभा चुनाव में हुआ था जहां कांग्रेस को 17 सीटें,भाजपा को 13 सीटें मिली थी। लेकिन भाजपा ने इच्छुक विधायकों को अपने साथ लेते हुए वहां सरकार बना ली। भाजपा अब सरकार बनाते हुए इस कला में पटु हो गई है।

भाजपा ने जनता को रिझाने वाला एक नारा ‘कांग्रेस मुक्त भारतÓ खूब प्रचारित किया है। इससे लगता है कि किसी गैर भाजपा शासित पार्टियों के राज में यह कठिन ही होगा कि केंद्र में राज चला रही पार्टी के खिलाफ वे मुहिम चला सकें। भाजपा का इरादा ‘विपक्ष मुक्त भारतÓ का रहा है और उसे वे हासिल भी करते जा रहे हैं। धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक पार्टियों का किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम में एकजुट होना शायद ही कामयाब हो। यह बात उत्तरपूर्व में केसरिया के फैलाव से अब जगजाहिर है। यह देखना भी रोचक होगा उत्तरपूर्वी राज्यों में केसरिया पताका के फहराने के बाद विभिन्न राज्यों में राजनीति क्या रूप लेती है।

उत्तर प्रदेश, बिहार उपचुनाव में भाजपा को झटका

उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोक सभा सीटों के उपचुनाव के नतीजे भाजपा को तगड़ा झटका दे गए हैं। तीनों सीटों पर भाजपा हार गयी। सबसे बड़ी हार भाजपा को गोरखपुर में झेलनी पडी जो मुख्यमंत्री योगी का गृह क्षेत्र है। फूलपुर में भी भाजपा हार गयी जो उपमुख्यमंत्री का गृह क्षेत्र है। इस तरह बिहार के अररिया में लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के सरफ़राज़ आलम जीत गए। बिहार में विधानसभा की दो सीटों के उपचुनाव में से एक आरजेडी जबकि एक भाजपा ने जीता।
दक्षिण पूर्व में जीत और जोड़तोड़ से सरकार बनाने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश और बिहार में लोक सभा के उपचुनाव नतीजों ने तगड़ा झटका दिया है। उपचुनावों के नतीजे जो संकेत दे रहे हैं वह यह है कि जहाँ-जहाँ भाजपा का शासन है वहां जनता उसे अस्वीकार करने लगी है। साल २०१९ के लोक सभा के चुनाव के लिए यह तथ्य भाजपा और उसकी नैया के मुख्या करणधार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों के लिए बहुत चिंता का सबब हैं। एक साल में ही उत्तर प्रदेश में मोदी और योगी दोनों का करिश्मा इस तरह उतर जाना भाजपा के लिए निश्चित ही खतरनाक राजनितिक संकेत है। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के १३ मार्च के विपक्षी दलों की डिनर डिप्लोमेसी के बीच यह नतीजे देश में विपक्षी दलों के साझे मोर्चे के गठन का रास्ता खोलेंगे।
उत्तर प्रदेश और बिहार में उपचुनाव के नतीजों के दौरान भाजपा के एक बड़े नेता ने इस संवाददाता से मजाक में कहा कि मोदी-शाह ने अपने लिए चुनौती दिख रहे योगी को इन उपचुनावों के जरिये ”निबटा” दिया। लेकिन मजाक से परे देखें तो भी यह नतीजे मोदी-शाह-योगी तीनों के लिए खतरे की बड़ी घंटी बजा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने सपा-भाजपा गठजोड़ को समर्थन दे दिया होता तो वह भी इस जीत की सहभागी बन जाती। लेकिन कांग्रेस खेमे से यही खबर है की वह २०१९ में उत्तर प्रदेश में महागठबंधन से इंकार नहीं करती।
मध्य प्रदेश और राजस्थान के हाल के उपचुनाव में भी भाजपा बुरी तरह पिटी थी। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा में सत्ता का केन्द्रीयकरण उसे अब भारी पड़ने लगा है। सारी सत्ता मोदी और शाह के आसपास घूमती है और आम कार्यकर्ता अलग-थलग पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के लोक सभा की जिन दो उपचुनाव सीटों पर भाजपा हारी है उसमें से गोरखपुर मुख्यमंत्री का गढ़ है जबकि फूलपुर उपमुख्यमंत्री का घर है। इस लिहाज से भाजपा के लिए यह हार ज्यादा कष्ट देने वाली है।
बिहार की अररिया सीट पर लालू प्रसाद की पार्टी की जीत से लालू के बेटे तेज प्रताप को राजनीतिक
मजबूती मिली है जो पिता लालू के जेल में के बाद पार्टी अभियान का जिम्मा पूरी ताकत से संभाले हुए हैं। वहां जहानाबाद मही लालू की पार्टी आरजेडी जीती है हालाँकि भाजपा को मरहम भभुआ सीट पर जीत से मिली है। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव के लिए काम मतदान भी इस बात का संकेत है कि लोग भाजपा की सरकार से ज्यादा खुश नहीं। एक चेहरे के नाम पर चुनाव लड़ने का नुक्सान यह भी है कि कार्यकर्ता ज्यादा सक्रिय नहीं हो पाते। ऊपर से सपा-बसपा के गठबंधन से बोटों का बटबारा नहीं हुआ और भाजपा हार गयी।
अब सबकी नजर इस पर रहेगी कि जीत के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा से मुकाबले के लिए किस तरह का गठबंधन सामने आता है। क्या २०१९ में लोकसभा चुनाव में भी सपा, बसपा, कांग्रेस आदि क्या साथ आते है ?

नेपाल विमान हादसे में ५० की मौत

बांग्लादेश का एक निजी एयरलाइन यूएस-बांग्ला विमान सोमवार दोपहर काठमांडू एयरपोर्ट पर दुर्घटना का शिकार हो गया। मिली जानकारी के मुताबिक इस हादसे में चार दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी है।  अभी तक की ख़बरों के मुताबिक विमान के मलबे से 50 शव बरामद किए जा चुके हैं, जबकि 25 लोगों को अब तक बचाया जा चुका है। जानकारी के मुताबिक विमान में करीब 71 यात्री मौजूद थे। हादसे में जान गंवाने वाले अधिकतर यात्री बांग्लादेशी नागरिक बताए जा रहे हैं जबकि 33 यात्री नेपाली मूल के थे।
मिली जानकारी के मुताबिक हादसा उस वक्त हुआ जब काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरते वक्त विमान संतुलन खो बैठा। दुर्घटना के बाद विमान में आग लग गई। विमान को रनवे के दक्षिण की ओर से लैंडिंग की इजाजत दी गई थी, जबकि विमान उत्तर की ओर से लैंड कर गया। दुर्घटनाग्रस्त हुआ विमान बांग्लादेशी निजी एयरलाइन यूएस-बांग्ला का था, जिसकी स्थापना अमेरिका और बांग्लादेश के बीच संयुक्त रूप से हुए करार के बाद ज्वाइंट वेंचर के तहत 2013 में की गई थी।
बतायदुर्घटनाग्रस्त गया है कि विमान ढाका से नेपाल रूट पर था। बहरहाल, सभी घायलों को अस्पताल भेजा गया है। त्रिभुवन एयरपोर्ट पर आने वाले सभी विमानों को कोलकाता और लखनऊ डायवर्ट कर दिया गया है। दुर्घटनास्थल पर राहत व बटाव कार्य युद्धस्तर पर जारी है।

दबंगों के दबाव में रोती ‘रुदालियां

जहां अंधविश्वास का पाखंड सिर चढ़कर बोल रहा हो, वहां ना लागू हो पाने वाले कानून का राज हो जाता है। राजस्थान के आदिवासी जिले, बांसवाड़ा, चित्तौडग़ढ़, उदयपुर,भीलवाड़ा,डूंगरपुर, सिरेही और जालोर गणतंत्र की सत्तरवीं सालगिरह पर भी इस अभिशाप से मुक्त नहीं है। डायन, मौताणा और रुदाली सरीखी विकृतियों की कू्ररता ने जल, जंगल ओर जमीन के स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों की जिन्दगी की चूलें हिला दी है। सरकार की बेरूखी और ठिकानेदारों के पाखंड के दो पाटों में पिसते हुए आदिवासी दबंगों की ऐसी प्रताडऩा सह रहे हैं उनकी कल्पना भी सिहरा देने वाली है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों के मुताबिक कबीलाई हिंसक प्रथाओं और दबंगों की प्रताडऩों को भुगतने के मामले में राजस्थान देश में अव्वल नंबर पर है और इस निर्ममता की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हो रही है। आदिवासी इलाकों में कानून का राज ओझल रहा है तो दबंगों के तेवर जन प्रतिनिधियों को भी चुप्पी की चादर ओढऩे को विवश कर रहे हैं। आदिवासियों को पाखंड की निर्ममता से मुक्ति दिलाना इस शताब्दी का सर्वोच्च सामाजिक सुधार होना चाहिए था, लेकिन सियासी रिश्तों का कवच पहने रजवाड़ों का बाल भी बांका नहीं होता। राजनेता यह कह कर निर्मम घटनाओं से छुटकारा पा लेते हैं कि, आदिवासियों में काला जादू का अंधश्विस काफी गहरा है। ऐसा है भी तो राजस्थान हाईकोर्ट के जोधपुर खंडपीठ के न्यायाधीश गोपालकृष्ण व्यास के उन निर्देशों का क्या हुआ, जिसमें उन्होंनें राज्य सरकार को फटकार लगाई थी कि, महिलाओं को कोई डायन कैसे बता सकता है? लेकिन राज्य सरकार तो आज भी इस सवाल पर चुप्पी साधे बैठी है कि, ‘डायन प्रताडऩा के मामले रुक क्यों नहीं रहे? फिर राज्य सरकार के उस खटराग का क्या मतलब हुआ जिसमें दुहाई दी जा रही है कि,’नारी का सशक्तिकरण ही समाज का सशक्तिकरण है?ÓÓ राजस्थान के विशिष्ट सामंती ढांचे की बदोलत सामाजिक टकराव आदिवासियों ओर जनजातियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के रूप में दिखाई पड़ रहा है। जमीनी पड़ताल इस बात को पुख्ता करती है कि आदिवासियों की संपत्ति हड़पने के लिए उन्हें डायन करार देना, अप्राकृतिक मौतों पर मोताणें की कुरीति के जरिए धन वसूली करना और अपने परिजनों की मौत पर’रूदालीÓ सरीखी प्रथा की आड़ में आदिवासी औरतों को रोने के लिए विवश करना तो सीधे-सीधे सामाजिक ढांचे को जकड़बंदी में रखना है। इसका सीधा संबंध वर्चस्ववादी संस्कृति को बढ़ावा देना है।

सिरोही और जालोर के आदिवासी इलाकों में पराए लोगों की मौत पर रोने को अभिशप्त रुदालियों का क्रन्दन तो झुरझुरी पैदा करता है, जिनके आंसू कभी नहीं सूखते। वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं,’अपनों के लिए तो सभी आंसू बहाते हैं लेकिन ये वो महिलाएं हैं जो गैरों की मौत पर छाती-माता कूटती हई विलाप करती है। ‘रूदालीÓ के नाम से अभिशप्त पेशेवर रोने वालियां को गांव ढाणियों के दबंगों की मौत पर रोने के लिए जाना पड़ता है। दहाड़े मारकर रोने वालियों का विलाप बारह दिन तक चलता है और इसकी एवज में उन्हें खाने को मिलता है प्याज और बचे-खुचे रोटियों के टुकड़े! मीडिया से जुड़े लोगों ने सिराही जिले के रेवदार विधायक जगसीराम कोली से इस अमानवीय रिवाज के बारे में पूछा तो वे औपचारिक जवाब देकर खिसक लिए कि,’अच्छा! अगर ऐसा है तो हम रुकवाएंगे?ÓÓ दबंगों से जनप्रतिनिधि कितने डरे हुए हैं? इस बाबत जिले के गंवई इलाकों के सरपंचों से पूछताछ की तो उन्हांने कुछ भी कहने-सुनने से इन्कार कर दिया।

करीब दो सौ साल से चली आ रही, इस प्रथा के बारे में कहा जाता है कि, यह रजवाड़ों और ठिकानेदारों की देन है। रजवाड़ों में रोना-बिलखना ‘कायरताÓ माना जाता था, इसलिए जब भी उनके परिवार में किसी की मौत होती तो मातम करने के लिए बाहरी महिलाओं के बुलाया जाता था, जो या तो आदिवासी होती थी या दलित परिवारों से। वरिष्ठ पत्रकार रणजीत सिंह चारण सिरोही जिले के हाथल गांव की रुदाली सुखी का हवाला देते हैं जिसका कहना था अगर हम ठिकानेदारों के परिजनों की मौत पर रोने जाने से इंकार कर दे ंतो, हमें भारी खामियाजा उठाना पड़ता है यानी मारपीट से लेकर गांव बदर तक…! सुखी का कहना था,’जब जाना ही पड़ता है तो हील-हवाला करने से क्या फायदा?ÓÓ इस पाखंड पर समाजसेवी यतीन्द्र शास्त्री कहते हें, गजब है कि आज भी गांव-ढाणियों में रजवाड़ी जुल्म कायम है?ÓÓ आदिवासी महिलाएं मातम मनाती है तो, शोक मनाने के लिए दलित समुदाय के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को मुंडन करवाना पड़ता है। नागरीय अधिकारों के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एम.एम. लाठर का कहना है,’डायन प्रताडऩा निवारण की तरह इस प्रथा के खिलाफ कोई विशेष कानून नहीं है। इसलिए पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर पाती। इसके लिए तो समाज को ही पहल करनी पड़ेगी।ÓÓ

नौंवे दशक के उत्तरार्द्ध में ‘रुदालीÓ को केन्द्र में रखकर बालीवुड में एक फिल्म भी बनी थी, जिसकी नायिका डिम्पल कपाडिय़ा थी। सामाजिक बुराई पर ध्यान आकर्षित करने वाली इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था, लेकिन इस बुराई के उन्मूलन के लिए सामाजिक स्तर पर कोई पहल की हो? ऐसा कहीं भी संज्ञान में नहीं आया। फिल्म ‘रुदालीÓ में शनिचरी का पात्र निभाने वाली डिम्पल कपाडिय़ा का एक संवाद अत्यंत मार्मिक था,’ये आंसू हमारी जिन्दगी का हिस्सा है, ठीक वैसे ही जैसे हम फसल काटते है या खेत में हल चलाते हैं? हमें इन आंसुओं को संजोकर रखना होगा।Ó

आंसू बहाते हैं, पोंछते नहीं!

‘रूदालीÓ के नाम से अभिशप्त आदिवासी महिलाओं को गांवों के बीच रहने का हक नहीं होता। इनके घर गांव की सरहदों के बाहर बने होते हैं। ये पेशेवर औरतें होती है जो विलाप के दौरान मृतक के कार्यो का बखान करते हुए संवेदना का ऐसा माहौल रच देती है कि देखने सुनने वालों की आंखे बरसे ही बरसे। इनका क्रन्दन इतना आवेग भरा होता है कि लगता है मरने वाला इनका अपना ही कोई सगा-संबंधी था। यह एक प्रचलित परम्परा है कि गांवों के ठाकुरों और जमीदारों के परिवार में जब भी किसी की मृत्यु की खबर फैलती है हर कोई मृतक की हवेली परिसर में एकत्रित हो जाते हैं। परम्पराओं के मुताबिक मृतक के परिवार की महिलाएं बाहर नहीं निकलती, गांव के लोग ही ठाकुर की निगाह में चढऩे के लिए दाह संस्कार की व्यवस्था में जुट जाते हैं। किराए पर मातम करने वाली रुदालियां काले वस्त्र पहन लेती है और करुण विलाप के साथ छाती कूटती हुई जमीन पर लोट-पोट हो जाती है। रुदालियां ज्यादा से ज्यादा आंसू बहाने का प्रयास करती है लेकिन बहते हुए आंसूओं को पोंछने की कोशिश नहीं करती। रुदालियों द्वारा काले वस्त्र धारण करने के पीछे अवधारणा है कि काला रंग मृत्यु के देवता यमराज का पसंदीदा रंग है। इन महिलाओं को पारिवारिक जीवन जीने की इजाजत नहीं होती। क्योंकि खुशहाल पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाली महिलाएं भला कैसे किसी की मौत का मातम मना सकती है। उच्चकुल के ठाकुर और जमीदार परिवार की औरतों को अपने मर्तबे के मद्देनजर अपने परिजनों की मौत पर दूसरों के सामने आंसू बहाने की इजाजत नहीं होती। इस मातमपुर्सी के दौरान उन्हें हवेली के भीतर ही बना रहना होता है।

रुदालियों पर निधि दुगर कुंडालिया द्वारा लिखी गई पुस्तक में ठाकुर परिवार के एक मुखिया के हवाले से कहा गया है कि,’उच्चकुल की महिलाओं का आम लोगों के सामने आंसू बहाना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है। यदि उनके पति की मृत्यु भी हो जाए तो भी उन्हें अपने दुख को दबाए रखना पड़ता है। उनकी वेदना दर्शाने का काम रुदालियां करती है।

कंगना ने तोड़े बालीवुड में महिलाओं के भ्रम

कंगना रानौट पिछले साल करण जौहर के काफी कार्यक्रम में बुलाई गई थी। उसने करण जौहर को भाई भतीजावाद का झंडाबरदार कहा। इसे सुनकर वहां मौजूद सैफ अली खान देखते ही रह गए।

यह पहली बार नहीं था जब कंगना ने जोर से ऐसा कहा। बॉलीवुड में ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जो दशकों से ऐसा कहने की महज सोचते रहे हैं। लेकिन कंगना ने खुद को आज ‘फायर ब्रांडÓ बना लिया है। वे बालीवुड में बाहरी कलाकार के तौर पर खुद अपनी तस्वीर बना रही हैं। सवाल यह नहीं है कि उसने क्या कहा बल्कि यह है कि उसने ऐसा कहा कैसे। कितनी सहजता से उसने कहा था। कहीं कोई तनाव नहीं। उसे जो कहना था उसने साफ तौर पर कह दिया। स्टूडियों के कमरे में बैठे दोनों सिने कलाकार उसे क्षण भर अवाक देखते रहे।

उनकी प्रतिक्रिया से लग रहा था कि कंगना की टिप्पणी एक बड़ी वजह को लेकर है। वे सकपका से गए थे। एक के पास तो शब्द ही नहीं थे और दूसरे ने अपनी हथेलियां मुंह पर रख ली थी। दोनों खिसियाई हंसी हंसते दिखे क्योंकि वे जानते थे कि जो उसने कहा वह सच है। एक जमाने में दोनों ही उस भाई भतीजावाद के चलते ही कमाते भी रहे जिसके बारे में उसने कहा था। एक वाक्य जो उसने कहा वह पत्थर की लकीर बन कर सामने आ गया। सभी के सामने यह जग-जाहिर हो गया कि फिल्म उद्योग में कितने तरह के अन्याय होते रहे हैं। वह भी उन बड़े कलाकारों द्वारा। उसे बालीवुड के सबसे खराब महोत्सव में बुलाया गया था। जिसकी गूंज पूरे साल रही।

जब भी कंगना को मौका मिला उसने फिल्मी उद्योग के उन तमाम लोगों के नाम लिए उसी बिदांस तरीके से। इनमें अध्ययन सुमन, आदित्य पंचोली और ऋतिक रोशन थे। उसकी तुलना में इनका काफी अच्छा जुड़ाव फिल्म उद्योग में है। उसने खुल कर साक्षात्कारों में उनसे अपने संबंधों के बारे में बताया। कंगना ने खासे जोर-शोर से, गुस्से में और नाटकीय लहजे में अपनी दास्तां सुनाई। वह अपनी बातों से उन लोगों को प्रभावित नहीं कर रही थी जो उसके आसपास थे। लेकिन इस देश में जैसा हो रहा है लोगों ने उसे एक ऐसा कैनवस मान लिया जिस पर जहां फंतासियां ही फंतासियां है।

कंगना एक ऐसी युवती है जो अच्छा बुरा जानती समझती है और उसमें खुलकर बोलने की भी हिम्मत है। उसकी पहली प्रतिक्रिया तब सामने आई जब अंग्रेजी शब्दों कें उसके देसी उच्चारण और उसके बोलने के अंदाज और वरिष्ठों के प्रति आदर न दिखाने पर हुआ। उसकी आलोचना करने में वे महिला और पुरूष थे जिन्होंने चुप्पी और दमन की नशीली ऊँचाइयों से लाभ उठाया।

मज़ेदार बात तो यह है कि अपनें लहजे पर ध्यान देने की बात उसे उनसे सुननी पड़ी जिन्होंने अपने प्रतीकों के ज़रिए अपनी जिंदगी को और आरामदेह बना लिया। इन हालातों में वे उस जीवन से दूर नहीं होना चाहती। कंगना की पीड़ा पारिवारिक फिल्मी पृष्ठभूमि की वे युवतियां नहीं समझ सकतीं जिन्हें खुद-व-खुद इस क्षेत्र में कामयाब होने का विशेषाधिकार मिल जाता हे। वे सहजता से कंगना को खारिज कर सकती हैं।

अमूमन यह माना जाता है कि वे महिलाएं जो अपने गुस्से और नाराज़गी को दबाती हैं। ऐसे में यह फैसला करना कि उनकी यह नाराज़गी वैध है या नहीं। यह अलग मुद्दा है। लेकिन यह एक काबिलियत है जिसमें नाराज़गी सामने आती है। ऊब और थकी हुई और बात-बात में नाराज़ होने वाली महिलाओं को पहले तो हाथों-हाथ लिया जाता है। फिर उन्हें एक किनारे फेंक दिया जाता है।

अब कंगना ने अपनी एक राह ज़रूर बना ली है साथ ही एक ऐसा फोरम भी बना लिया है जहां बालीवुड की युवतियां अपना गुस्सा जता सकती हैं। एक साल से भी ज़्यादा समय उसे यह जताने में निकल गया कि वह टूटने को नहीं है। उसे यह अहसास भी हुआ।

फिल्म उद्योग में उसकी एक ऐसी तस्वीर बन गई है जो उससे भी कहीं बड़ी है। बालीवुड भले ही उसकी हिम्मत और चुनौती को देखते हुए उसे खतरा मान कर अपने दरवाजे भले ही बंद कर ले। लेकिन कंगना ने यह भ्रम ज़रूर तोड़ा कि बालीवुड में यह प्रचार गलत है कि औरतों को दिखने, बोलने, चलने की आज़ादी उतनी ही मिलती है जितनी वे देना चाहते हें। आज अभिनय में भी कंगना एक बड़ा ब्रांड है जो खासा नामी है। और संघर्ष करते हुए अपनी अभिनय क्षमता नित निखार रही है।

भयमुक्त है कंगना

कंगना रानौट के पास अब खोने के लिए कुछ भी ज़्यादा नहीं है। वह अपनी कहानी के संवाद भी खुद ही लिख रही थी। उसने उन चिंदियों को स्वीकार कर लिया था जो लोग उसे महिला कार्ड के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। बालीवुड में आज वह महिलाओं की झंडाबरदार ज़रूर है।

कंगना का महिला शक्ति के रूप में दिखना एक महागाथा है। इस कहानी के दो सिरे हैं- एक उसका अपना और दूसरा झूठे प्रचार का गलत का। वह अपने दुख भी खुद के पल्लू में रखती है। जब शबाना आजमी ने ऑनलाइल पेटीशन दीपिका पादुकोण के पक्ष में जारी की तो कंगना ने उस पर अपने दस्तखत तो नहीं किए लेकिन कहा कि निजी तौर पर वह पादुकोण के साथ है। उसने इस आरोप को भी कबूल लिया कि वह बाहरी है। उसने फड़कती हुई उस नस को दबा दिया था जिसके चलते उन लोगों में वह धीरज भी कम हो गया जो मशहूर लोगों के बच्चों और उनकी पहली प्रस्तुति होती है। वह भी बालीवुड में बदलाव के लिए ढेर सारी मार्केटिग के ज़रिए जिससे वे दुनिया में चमक सकें।

कंगना अपने आप में बदलाव खुद नहीं ला सकती। लेकिन उसकी आवाज़ की गूंज ज़रूर रहेगी। आज हॉलीवुड हार्वे वेन्स्टेन की कारगुजारियों की कहानियां बालीवुड में भी खूब गूंज रही हैं लेकिन उस गूंज से अब उम्मीद बनी है कि यह सिलसिला आगे बढेगा। आज कंगना खुद को ताकतवर भी मानती है।

‘हम साधारण लड़कियां लड़ रही हैं अधिकारों के लिए

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्राओं ने मूलभूत सुविधाओं और उनके साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। जब वे अपनी मांगों को लेकर विश्वविद्यालय के परिसर में विरोध प्रदर्शन कर रही थीं तो उन पर लाठीचार्ज किया गया। उस समय इस विरोध को दबा दिया गया। वे सभी विश्वविद्यालय के उपकुलपति को हटाने की मांग कर रही थी।  परन्तु इतना समय बीत जाने के पश्चात् भी स्थिति वैसी ही बनी हुई है। अभी तक न तो उपकुलपति को बदला गया और न उनकी दूसरी मांगों को पूरा किया गया।  विश्वविद्यालय परिसर में लाठीचार्ज क्यों हुआ इस पर अपने अनुभव मनीषा ने जो इसी विश्वविद्यालय में बीए प्रथम वर्ष की छात्रा है रिद्धिमा मलहोत्रा और मुदित माथुर को दिए साक्षात्कार में बताए।

आप छुट्टियों में वाराणसी में क्यों रही। घर क्यों नहीं गई?

सभी छात्राओं को बिना किसी नोटिस के अचानक हॉस्टल खाली करने को कह दिया गया था। प्रदर्शन के दौरान मैं लाठीचार्ज से बचने के लिए वहां से भागी। मैं बेहोश को गई और मेरे दोस्त मुझे उठाकर ‘आपातकालिकÓ कमरे में ले गए। वहां से ‘डिस्चार्जÓ हो कर जब मैं अपने हॉस्टल वापिस लौटी तो मुझे हॉस्टल के भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। सिर्फ उन लड़कियों को हॉस्टल से बाहर आने दिया जा रहा था जो अपना सामान लेकर घरों को जा रही थी। मैं नंगे पैर थी क्योंकि लाठीचार्ज के दौरान मेरी चप्पल कहीं छूट गई थी। मेरे सामान की बात तो छोड़ो उन्होंने मुझे मेरी चप्पल तक लेने कमरे में नहीं जाने दिया। इसलिए मैं वहीं अपनी एक मित्र केेे घर ठहर गई।

एक लड़की से छेडख़ानी के बाद इतना बड़ा विरोध प्रदर्शन क्यों हुआ?

बीएचयू में इस तरह की छेडख़ानी आम बात है। किसी लड़की से पूछा तो यह सभी के साथ होता है। इस बार एक लड़की के साथ जब्रदस्ती करने की कोशिश की गई। यह आम छेडख़ानी नहीं थी। उसे बाइक पर सवार युवकों ने हाथों से छूआ। जब उसने इसकी शिकायत की तो उलटा उसी पर आरोप लगाया गया कि वह छह बजे केे बाद बाहर क्यों घूम रही थी। इस पर लड़कियों मेें गुस्सा था। अब तो मामला अपनी हद पार कर गया था हमें कहा जा रहा था कि हम कपड़े ठीक नहीं पहनते और हम अपने लिए निर्धारित तथाकथित सीमाओं को पार करते हैं। हम अपने लिए एक सुरक्षित परिसर चाहते हैं जो हमें नहीं दिया गया।

     क्या आपने प्रशासन के साथ बातचीत कर इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की?

प्रशासन लड़कियों के लिए कुछ भी करना नहीं चाहता। यहां के अफसर नारी से नफरत करने वाले हैं। हम बहुत लंबे समय से अपने लिए कुछ मूल सुविधाओं की मांग कर रहे हंै, पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। मिसाल के तौर पर परिसर की सड़कों के कुछ हिस्सों में प्रकाश की व्यवस्था नहीं हैं,इसका लाभ उठा कर कुछ लड़के स्कूटरों और बाइक्स पर आते हैं और लड़कियों को ‘छूÓ कर छेडख़ानी कर भाग जाते हैं। अंधेरा इतना होता है कि उनकी गाडिय़ों के नंबर तक भी नहीं दिखते। पिछले सालों में ऐसी कई घटनाएं हो गई पर आज भी वहां सही रोशनी का इंतज़ाम नहीं हैं। हमने अपनी शिकायतें कई बाद अधिकारियों को की हैं, पर वे समस्या हल करने की बजाए हमें नैतिकता का पाठ पढ़ा कर वापिस भेज देते हैं।

     आप क्यों कहती हैं कि बीएचयू प्रशासन नारी विरोधी है?

इसके तो कई सबूत हैं यह जो सुविधाएं लड़कों के लिए हैं वे लड़कियों के लिए नहीं हैं। हमें लड़कों की तरह मांसाहारी भोजन नहीं दिया जाता। हमारे छात्रावासों में कफ्र्यू जैसी समयबद्धता है जबकि लड़कों पर कोई रोक नहीं। कई छात्रावासों में तो लड़कियां रात 10 बजे के बाद फोन पर बात भी नहीं कर सकतीं। कालेज प्रशासन को लगता है कि ‘वाई-फाईÓ और पुस्तकालयों की ज़रूरत केवल लड़कों को है, लड़कियों को नहीं। इस कारण ये दोनों सुविधाएं लड़कों के लिए हैं, लड़कियों के लिए नहीं। यदि लड़कियां घुटनों तक की निक्कर भी पहन लें तो वार्डन उन्हें प्रताडि़त करती है। एक बार हमारे उपकुलपति गिरीश त्रिपाठी(जो कि अब नही हैं) ने एक बैठक में कहा था कि भारतीय सभ्यता लड़कों नहीं, बल्कि लड़कियों के हाथ में है और एक आदर्श भारतीय लड़की वह है जो समझती है कि उसके भाई का भविष्य उसके अपने भविष्य से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। क्या आप इस बयान पर विश्वास कर सकते हैं।

     क्या बाकी शिक्षक भी ऐसी बातें करते हैं?

सभी तो नहीं पर उनमें से बहुत से करते हैं और कई तो अश्लील बातें भी कर लेते हैं। कई हॉस्टल वार्डन लड़कियों को उनके कपड़ों के लिए बेइज्जत करती हंै। हमारे पुरूष दोस्तों को तो प्रताडि़त किया जाता है उनको नहीं जो लड़कियों को परेशान करते हैं। एक बार हमारे एक शिक्षक ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर उन्हें अपन े शरीर पर हक चाहिए तो उन्हें नगें घूमना शुरू कर देना चाहिए। यहां का वातावरण लड़कियों के लिए घुटन भरा है।

     छात्र संगठन क्या कर रहे हैं, वे इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते?

बीएचयू में छात्र संगठन बनाने की इजाज़त नहीं हैं। यहां छात्र संगठन बनाने की मांग कई बार उठी है पर वे मान नहीं रहे।

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनके पास ऐसी रिपोर्टस हैं कि विरोध प्रदर्शनों के पीछे गैर सामाजिक तत्व थे। यह आरोप भी हैं कि कुछ छात्राएं दूसरे शहरों से भी आई थी।

इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं है। हर वह व्यक्ति जो इन विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुआ वह बीएचयू से ही था। क्या यह सम्भव है कि सैकड़ों छात्र बिना किसी की नज़र में आए, बीएचयू परिसर में पहुुंच जांए और छात्रावासों में रहें। यदि उनको विश्वास है कि प्रदर्शनकारी बाहर के थे तो बीएचयू केे 1000 छात्रों के खिलाफ एफआरआई क्यों दर्ज की गई है। इन विरोध प्रदर्शन की कई विडिय़ो बनी हैं, उन्हें देख लें। बहुत से छात्रों ने विडियो फिल्में बनाई है और वे सारी ‘सोशल मीडियाÓ पर उपलब्ध हैं। उन सभी की जांच की जाए और हर छात्र जो उनमें है उसकी फोटो बीएचयू रिकार्ड में उपलब्ध फोटो के साथ मिला कर देखी जा सकती है।

     छात्र हिंसक क्यों हुए?

छात्र बिलकुल भी हिंसक नहीं हुए। हम केवल नारे लगा रहे थे ता कि उपकुलपति आकर हमसे मिल लें और हमारी शिकयतों को सुन लें। हमने वहां से जाने से इंकार किया। ‘लाठीचार्जÓ बिना किसी उत्तेजना के किया गया। असल में प्रोक्टर ओएन सिंह ने ‘लाठीचार्जÓ का आदेश दिया। हालांकि अब उन्होंने त्यागपत्र दे दिया हैं। उन्होंने पुलिस से छात्रों को पीटने के लिए कहा था। जब छात्रों पर बेदर्दी से लाठियां चल रही थी, तब भी वह वहीं थे।

     क्या एक महिला को प्रोक्टर बनाने पर आप प्रसन्न हैं?उन्होंने छात्रों के पक्ष में कुछ बयान भी दिए हैं।

हां! अब इतनी बड़ी घटना हुई है, स्वाभाविक है कि कुछ सकारात्मक बयान तो आंएगे ही। मैं व्यक्तिगत तौर पर उन्हें नहीं जानती। यह तो समय ही बताएगा कि क्या वे छात्रों के फायदे के लिए कुछ करती हैं या नहीं।

     क्या लगता है कि जिस तरह से बीएचयू के मामले का राजनैतिक करण हुआ है उसका आपको लाभ होगा।

मैं आप को स्पष्ट रूप से बता दूूं कि हमारा आंदोलन राजनैतिक नहीं है। हम साधारण लड़कियां है जो एक सामान्य जीवन जीना चाहती हैं। हम केवल अपने अधिकारों और आज़ादी के लिए उठ खड़ी हुई हैं। हमने मुद्दे का राजनैतिककरण नहीं कया है। यदि उन्होंने हमारी बात पहले ही सुन ली होती तो इतना हंगामा होता ही नहीं। इस मामले को असली मुद्दों से भटकाने के लिए जानबूझ कर इसे राजनैतिक रंग दिया जा रहा है।