Home Blog Page 118

बाबा रामदेव की मुश्किलें बढ़ीं, झूठे विज्ञापन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भेजा अवमानना का नोटिस

सुप्रीम कोर्ट ने बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को अवमानना का नोटिस जारी करते हुए दो सप्ताह बाद कोर्ट में हाजिर होने का आदेश दिया है। कोर्ट ने पतंजलि आयुर्वेद के कथित भ्रामक विज्ञापन को लेकर यह आदेश सुनाया है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी योगगुरु रामदेव को नोटिस जारी कर कोर्ट में बुलाया था। कोर्ट ने तीन सप्ताह के भीतर पतंजलि आयुर्वेद के मैनेजिंग डायरेक्टर बालकृष्ण और योगगुरु रामदेव से जवाब मांगा था। इसके अलावा सुपरीम कोर्ट ने संस्था के विज्ञापन प्रकाशित करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।

बिहार में एनडीए ने किया सीट शेयरिंग का ऐलान

बिहार: प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए एनडीए में सीटों का बंटवारा हो गया है। चिराग पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी (रामविलास) पांच सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि बीजेपी 17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और जेडीयू 16 सीटों पर। इसमें अन्य दलों को भी सीटें दी गई हैं। इसके साथ ही, पशुपति पारस की लोकजन शक्ति पार्टी को कोई सीट नहीं मिली है।
बीजेपी इन सीटों पर चुनाव लड़ेगी: पश्चिम चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, औरंगाबाद, मधुबनी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, महाराजगंज, सारण, उजियारपुर, बेगुसराय, नवादा, पटना साहिब, पाटलिपुत्र, आरा, बक्सूर, सासाराम और अररिया।

पुतिन फिर बने रूस के राष्ट्रपति,चुनाव में रिकॉर्ड जीत हासिल की

रुस:तीन दिन की चुनावी प्रक्रिया के बाद आखिरकार व्लादिमीर पुतिन रूस के राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यह पहले से तय माना जा रहा था कि पुतिन ही आसानी से 5वीं बार यह इलेक्शन जीत जाएंगे। उन्होंने रविवार को हुए चुनाव में रिकॉर्ड जीत हासिल की। हालांकि बड़ी संख्या में विरोधियों ने विरोध प्रदर्शन भी किया। अमेरिका ने भी रूस में हुए प्रेसिडेंट इलेक्शन को लेकर कहा कि रूस में वोटिंग निष्पक्ष नहीं थी। हालांकि पुतिन ने दुनिया को एक बार फिर जता दिया कि रूस में वे कितने ताकतवर नेता हैं। जा​नते हैं उनके सियासी सफर के बारे में। यह भी जानेंगे कि आखिर ऐसी कौनसी लोकप्रियता है कि वे लगातार राष्ट्रपति चुनते आ रहे हैं।

1999 में पहली बार सत्ता में आए थे पुतिन, और अब 2024 में पांचवी बार सत्ता में वापस सिरमौर बनकर दुनिया को बता दिया कि चाहे जंग हो या शांति पुतिन और रूस एकदूसरे के पर्याय हैं। ऐसा 2030 तक कायम रहेगा। 71 वर्षीय पुतिन आसानी से अब एक बार फिर अपना छह साल का नया कार्यकाल सुरक्षित कर लेंगे। इसके साथ ही वे नया रिकॉर्ड भी कायम कर लेंगे। वे रूस के सर्वकालिक रूप से महान नेता जोसेफ स्टालिन से आगे निकल जाएंगे और 200 से अधिक वर्षों तक रूस के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले नेता बन जाएंगे।

पुतिन को मिले 87 फीसदी से ज्यादा वोट
पोलस्टर पब्लिक ओपिनियन फाउंडेशन (एफओएम) के एक एग्जिट पोल के अनुसार, पुतिन ने 87.8% वोट हासिल किए, जो रूस के सोवियत इतिहास के बाद का सबसे बड़ा परिणाम है। रशियन पब्लिक ओपिनियन रिसर्च सेंटर (वीसीआईओएम) ने पुतिन को 87% पर रखा है। पहले आधिकारिक नतीजों ने संकेत दिया कि चुनाव सटीक थे।

पुतिन के फिर राष्ट्रपति बनने से पश्चिमी देशों को लगा झटका
अमेरिका और पश्चिमी देशों को पुतिन की ताजपोशी से लगा झटका लगा है। यूक्रेन को लगातार सैन्य और आर्थिक मदद करने वाले पश्चिमी देशों को लग रहा थ कि रूस में पुतिन को लगातार जंग का खामियाजा जनता के गुस्से के रूप में देखना पड़ेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसी बीच अमेरिका ने रूस में चुनाव की निष्पक्षता पर प्रश्न खड़ा कर दिया। व्हाइट हाउस की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता ने कहा, “चुनाव स्पष्ट रूप से स्वतंत्र या निष्पक्ष नहीं हैं, क्योंकि पुतिन ने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया है और दूसरों को उनके खिलाफ लड़ने से रोका है।

लगातार 5वीं जीत, पुतिन ने रच दिया इतिहास, स्टालिन से आगे निकले
इस जीत के साथ पुतिन ने साल 2030 तक के लिए नया कार्यकाल सुरक्षित कर लिया है। इसके साथ ही पुतिन रूस की सत्ता में बनने रहने के मामले में जोसेफ स्टालिन से भी आगे निकल गए हैं। स्टालिन रूस के 200 साल के इतिहास में सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में बने रहने वाले लीडर थे, लेकिन अब पुतिन ने उनको पीछे छोड़ दिया है और नया रिकॉर्ड कायम करने जा रहे हैं।

इलेक्शन कमीशन की बड़ी कार्रवाई, पश्चिम बंगाल के डीजीपी व बीएमसी के कमिश्नर हटाए जाएं

नई दिल्ली: आगामी लोकसभा चुनावों से पहले भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने सोमवार को पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक राजीव कुमार और बृहन्मुंबई नगर निगम के आयुक्त इकबाल चहल के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के कुछ अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को हटाने के आदेश जारी किया है।
बता दें कि संदेशखाली के पीड़ितों को न्याय देने में कथित निष्क्रियता के लिए भाजपा और अन्य विपक्षी दलों द्वारा बंगाल पुलिस की आलोचना किए जाने के बाद डीजीपी सुर्खियों में आए थे। महिला प्रदर्शनकारियों द्वारा तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेता शेख शाहजहां और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए कथित अत्याचारों के खिलाफ न्याय की मांग करने के बाद संदेशखाली क्षेत्र में अशांति देखी गई थी।इस बीच, चुनाव आयोग ने सभी राज्य सरकारों को यह भी निर्देश दिया कि वे चुनाव संबंधी कार्यों से जुड़े उन अधिकारियों का तबादला करें, जिन्होंने तीन साल पूरे कर लिए हैं या अपने गृह जिलों में हैं।महाराष्ट्र ने कुछ नगर आयुक्तों और कुछ अतिरिक्त/उप नगर आयुक्तों के संबंध में निर्देशों का अनुपालन नहीं किया था।आयोग ने मुख्य सचिव को नाराजगी जताते हुए बृहन्मुंबई नगर निगम आयुक्त और अतिरिक्त/उपायुक्तों को आज शाम 6 बजे तक रिपोर्ट करने के निर्देश के साथ स्थानांतरण करने का निर्देश दिया।
मुख्य सचिव को महाराष्ट्र में समान रूप से पदस्थापित सभी नगर निगम आयुक्तों और अन्य निगमों के अतिरिक्त/उप नगर आयुक्तों को स्थानांतरित करने का निर्देश दिया गया। यह कदम समान अवसर बनाए रखने और चुनावी प्रक्रिया की अखंडता सुनिश्चित करने के आयोग के संकल्प और प्रतिबद्धता के हिस्से के रूप में आता है, जिस पर सीईसी राजीव कुमार ने बार-बार और हाल ही में सामान्य कार्यक्रम की घोषणा के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जोर दिया है।

अजमेर में मालगाड़ी से टकराई साबरमती-आगरा सुपरफास्ट एक्सप्रेस

राजस्थान:अजमेर में सोमवार की अहले सुबह अजमेर के मदार रेलवे स्टेशन के पास बड़ा रेल हादसा हो गया। ट्रेन नंबर- 12548 साबरमती-आगरा सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेन के इंजन समेत 4 डिब्बे पटरी से उतरे गए हैं। एक ही ट्रैक पर मालगाडी और पैसेंजर ट्रेन के बीच टक्कर हो गई।
गनीमत ये रही है कि हादसे में किसी तरह की जनहानि नहीं हुई है। और करीब 8-9 घंटे की मशक्कत के बाद रेलवे ट्रैक को दुरुस्त कर दिया गया है। रेल संचालन शुरू हो गया है। अजमेर रेलवे स्टेशन और मदार स्टेशन के बीच ये हादसा हुआ है।
जानकारी के मुताबिक 12:50 बजे अजमेर रेलवे स्टेशन से साबरमती सुपरफास्ट ट्रेन रवाना हुई थी और कुछ किलोमीटर चलने के दौरान ही हादसा हो गया। रेल प्रशासन ने एक हेल्प डेस्क नंबर 01452429642 जारी किए हैं। रेलवे प्रशासन ने मामले की जांच शुरू कर दिया है।

इंद्रधनुषी पत्रकारिता के पांच साल

अगर हिंदी के किसी मीडिया संस्थान को निष्पक्ष पत्रकारिता करते हुए अपने पाठकों में वैसा ही विश्वास भी जमाना हो तो उसे कम से कम दो छवियों से जूझना पड़ेगा. आज समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह समूची पत्रकारिता पर ही अविश्वास करने वालों की कमी नहीं और दूसरा हिंदी पत्रकारिता, खुद को रसातल में पहुंचाने के लिए लगातार की गई कोशिशों के चलते खास तौर पर सवालों के घेरे में है.

तहलका की हिंदी पत्रिका के सामने संकट इससे कहीं बड़े थे. एक संस्थान के रूप में तहलका को कई लोग सिर्फ छुपे हुए कैमरों के जरिये लोगों को फंसाने की पत्रकारिता करने वाला मानते थे तो कई बार उस पर एक पार्टी और एक धर्म से जुड़े लोगों के प्रति सहानुभूति रखने के भी आरोप लगाए जाते रहे. कुछ समय से, हमेशा अपना बिलकुल अलग अस्तित्व रखने के बावजूद हिंदी पत्रिका को कुछ और भी अवांछित छवियों से मुठभेड़ करने के लिए विवश होना पड़ रहा है.

तहलका की हिंदी पत्रिका की शुरुआत अंग्रेजी पत्रिका के अनुवाद के तौर पर हुई थी. लेकिन ऐसे में भी शुरुआत से ही हमने किताबों में पढ़ी पत्रकारिता की परिभाषा के मुताबिक काम करने की कोशिशें शुरू कर दीं. हमने पत्रकारिता और हिंदी की जरूरतों की अपनी समझ की कसौटी पर अच्छी तरह से कसने के बाद ही अंग्रेजी पत्रिका में से समाचार-कथाओं को अपनी पत्रिका में लिया.

धीरे-धीरे हिंदी तहलका इसकी सामग्री और पहचान के मामले में अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद कुलांचें भरने लगी. पिछले दो सालों में कुछ ऐसा हुआ जो पहले शायद हुआ नहीं था. तहलका की हिंदी पत्रिका में अंग्रेजी से अनुवादित कथाओं का लिया जाना लगभग बंद हो गया और पत्रिका की गुणवत्ता के चलते इसका उलटा (यानी हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद होना) एक वृहद स्तर पर शुरू हो गया. इसके अलावा पिछले एक साल में तहलका की हिंदी पत्रिका को जितने और जैसे देश-विदेश के पुरस्कार मिले उतने और वैसे इससे दसियों गुना बड़े भी किसी संस्थान को शायद नहीं मिले.

लेकिन तहलका की हिंदी पत्रिका की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने अपनी कोशिशों से एक आम पाठक के मन में समूची पत्रिकारिता के प्रति विश्वास को गहरा करने का काम किया. हम गर्व से कह सकते हैं कि अपने पांच साल के इतिहास में हमने कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिससे हमारी नीयत पर उंगली उठाई जा सके.

इस विशेषांक में तहलका हिंदी द्वारा समय-समय पर की गईं उत्कृष्ट कथाओं में से कुछ हैं. हमारे ज्यादातर पाठक इनमें से कुछ को पढ़ चुके होंगे, कुछ ने हो सकता है इनमें से सभी को अलग-अलग अंकों में पढ़ा हो. लेकिन अपने संपादित स्वरूप में इतनी सारी उत्कृष्ट समाचार-कथाओं को एक साथ पढ़ना भी एक अनुभव है, ऐसा इन्हें संकलित करते हुए हमें लगा है और विश्वास है कि इन्हें पढ़ने के बाद आप भी ऐसा अनुभव करेंगे. इन्हें पढ़कर आपका और हमारा भी हममें विश्वास थोड़ा और मजबूत होगा, इस विश्वास के साथ आपके लिए ही समय-समय पर की गईं कथाओं का यह अंक आपको समर्पित है.

साहित्य और संस्कृति विशेष: पठन-पाठन2

संस्मरण:कितने कमलेश्वर
मन्नू भंडारी | वरिष्ठ कहानीकार और उपन्यासकार

सृष्टि पर पहरा

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते

 

2. विद्रोह

आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूं

उधर कुर्सी और मेज़ का
एक संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह ज़िंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है आपने

उधर आलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थीं
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुंबन से

पर सबसे अधिक नाराज़ थी वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था
बोली- साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह की क़ैद में
लपेटे हुए हैं मुझे

उधर टी.वी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे वे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन लीजिए
इन बूंदों की आवाज़-
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं-
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था.

(कविता संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य)

विरासत के वारिस और उनकी विरासत

imgतहलका के इस विशेषांक को ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक और इसमें किए सर्वेक्षण को थोड़ा लीक से हटकर बनाना था. इसके लिए सबसे पहले हमने तहलका में लगातार विज्ञापन प्रकाशित किए और पाठकों से उनके प्रिय युवा एवं वरिष्ठ कवियों और कथाकारों के नाम भेजने का अनुरोध किया. आलोचकों से भी उनके पसंदीदा युवा एवं वरिष्ठ रचनाकारों की सूची मांगी गई. इस प्रक्रिया में लेखकों की भी भागीदारी सुनिश्चित की गई लेकिन थोड़ा अलग अंदाज में. सबसे पहले वरिष्ठ कवियों और कथाकारों से उनकी पसंद के 10-10 युवा कवियों और कथाकारों की सूची आमंत्रित की गई. इन सूचियों के आधार पर जिन 10 युवा कवियों और कथाकारों के नाम उभरे उनसे हमने उनकी पसंद के 10 वरिष्ठ कवियों एवं कथाकारों के नामों का चयन करने का अनुरोध किया. इन सभी के योग से चार श्रेणी के जो चालीस सबसे लोकप्रिय रचनाकारों के नाम सामने आए वे इस प्रकार हैं:

[box]

युवा कवि– अनुज लुगुन, अशोक कुमार पांडेय, नीलेश रघुवंशी, निशांत, मनोज झा, गीत चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, अच्युतानंद मिश्र, सुशीला पुरी और हरेप्रकाश उपाध्याय

युवा कथाकार– योगेंद्र आहूजा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, कुणाल सिंह, चंदन पांडेय, अल्पना मिश्र, पंकज मित्र, कैलाश वनवासी, नीलाक्षी सिंह, मोहम्मद आरिफ और मनोज रूपड़ा

वरिष्ठ कवि– विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, नरेश सक्सेना, वीरेन डंगवाल, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे और कुंवर नारायण

वरिष्ठ कथाकार– उदय प्रकाश, ज्ञानरंजन, ममता कालिया, अमरकांत, चित्रा मुद्गल, शिवमूर्ति, असगर वजाहत, दूधनाथ सिह, काशीनाथ सिंह और स्वयं प्रकाश

[/box]

आगे के पन्नों में जो विभिन्न रचनाएं शामिल हैं वे इन्हीं चयनित वरिष्ठ और युवा रचनाकारों में से कुछ की हैं.

ठगा हुआ सा खड़ा मुसलमां

img1आतंकवाद की आग के साथ इस्लाम और मुसलमान का नाम कुछ इस तरह जुड़ गया है कि इसकी आंच से भारतीय मुसलमान भी सुरक्षित नहीं हैं. उनके लिए स्वयं को अलग कर पाना उस समय और भी मुश्किल हो जाता है, जब भारत को अपना तीसरा शत्रु मानने वाला ओसामा बिन लादेन – ओसामा के दूसरे दो शत्रु अमेरिका और इस्राइल हैं – मुसलमानों का नायक बन जाता है. यह वह आतंकवादी है जिसने इस्लाम धर्म के जेहाद की शब्दावली को ही बदल डाला है और जो कई मौकों पर काफिर भारत को मटियामेट कर देने की कसम खा चुका है. ऐसी परिस्थिति में मुसलमान विरोधी प्रचार करने वालों को एक ठोस दलील मिल जाती है. फिर शुरू होता है संघ परिवार का वह मुस्लिम विरोधी प्रचार जिसकी जड़ें उस राष्ट्रीयता से जुड़ी हुई हैं जो इस्लाम धर्म ही को भारत माता के लिए एक अभिशाप समझता है. संघ ने बड़ी चतुराई से मुसलमानों के खिलाफ यह दुष्प्रचार किया है कि मुसलमान भारत के मूल निवासी नहीं हैं. इनके पूर्वज आक्रमणकारी थे. मुसलमानों के खिलाफ जिस बात को सबसे ज्यादा प्रचारित किया गया है, वह है उनकी असहिष्णुता. इसके लिए उन इस्लामी देशों का खासतौर पर जिक्र किया जाता है, जहां गैर मुसलमानों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा बर्ताव किया जाता है. मुसलमानों के बारे में यह धारणा भी आम है कि सरकार नाजायज रियायतें देकर उनका तुष्टिकरण करती है.

मुसलमानों के बारे में यह तो दूसरों की प्रचलित धारणाएं थीं, लेकिन स्वयं मुसलमानों की भी खुद को लेकर कुछ धारणाएं हैं. मसलन आम ही नहीं प्रबुद्ध मुसलमान भी यही मानते हैं कि इस देश में उनके साथ सरासर अन्याय हो रहा है और उनके लिए इस देश की न्याय व्यवस्था तक ईमानदार नहीं रही. उनका प्रबल मत है कि 12 मार्च, 1993 को मुंबई के बम विस्फोटों के अतिरिक्त देश भर में जितने भी बम विस्फोट हुए हैं उनमें एक भी मुसलमान लिप्त नहीं है, बल्कि एक बड़ी साज़िश के तहत मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है. स्वतंत्रता के बाद से नौकरियों में उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. बार-बार दंगे इसलिए करवाए जाते हैं ताकि मुसलमान कभी भी स्वाश्रित न हो सकें. आम मुसलमानों का सबसे बड़ा दुख है कि उनकी राष्ट्रीयता पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है.

मुसलमानों पर किए जाने वाले संदेहों और उनके भीतर से उठने वाले सवालों में ही कहीं निहित हैं वे उत्तर, जिन तक पहुंचने में न उन्हें कोई दिलचस्पी है जो यह प्रश्न उठाते रहे हैं और न ही उन्हें जो इन प्रश्नों से आहत हैं.

उर्दू अखबारों की यह नीति रही है कि जिस व्यक्ति या संगठन के साथ इस्लाम शब्द जुड़ा हो उसकी आलोचना में एक भी शब्द प्रकाशित नहीं किया जाएगा, वह चाहे संपादक के नाम पाठक का कोई पत्र ही क्यों न हो

स्वतंत्रता के बाद से इतना वक्त बीत चुका है कि भारतीय मुसलमानों के भविष्य पर नए दृष्टिकोण से विचार करना होगा. वह नस्ल अब नहीं रही जिसने आजादी के बाद ‘मुसलमानों के यूटोपिया’ पाकिस्तान पर अपनी जन्मभूमि को तरजीह दी थी. अब वह नस्ल भी बूढ़ी हो चुकी है जो 1962 के भारत-पाक युद्ध के दिनों में छिप कर धीमी आवाज में पाकिस्तान रेडियो सुना करती थी. आज उस नस्ल पर भी उम्र का भारी साया पड़ चुका है जो पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के जीतने पर अपनी गलियों में पटाखे छोड़ती थी. 1977 मेंं केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना के चमत्कार के बाद मुसलमानों की सोच में कुछ तब्दीली आई . 1980 के बाद खाड़ी के देशों में जाने वाले भारतीय मुसलमानों ने अपनी कौम के पाकिस्तानी भाइयों को करीब से देखा तो उन्हें पहली बार अनुभव हुआ कि पाकिस्तानियों के लिए वे उनके ‘मुसलमान भाई’ नहीं बल्कि ऐसे भारतीय मुसलमान हैं जिनका ईमान मुकम्मल नहीं है और जो काफिरों में रहते हुए काफिरों जैसे हो गए हैं. यहीं से शुरू हुआ था उनका पाकिस्तान से मोहभंग.

आजादी के बाद के 30 बरसों में एक पीढ़ी गुजर चुकी थी और एक पीढ़ी जवान हो गई थी कि 1984 में शाहबानो के तलाक के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मुसलमानों में हलचल मचा दी. हकीकत यह थी कि इस फैसले ने उन रुढ़िवादी मुसलमानों को विचलित कर दिया था जो मुस्लिम समाज पर अपनी पकड़ उसी तरह मजबूत रखना चाहते थे जिस प्रकार 17वीं शताब्दी तक ईसाइयों पर ही नहीं ईसाई बाहुल्य देशों पर भी चर्च का वर्चस्व कायम था. यह अजीब विडंबना है कि जिस इस्लाम में पोप जैसे किसी धर्म गुरू का कोई स्थान नहीं है, उसके मुल्लाओं में पोप जैसा धार्मिक रुतबा रखने की लालसा अब तक भरी है. शाहबानो के मुकदमे से खौफ खाए इन्हीं रूढ़िवादी मुल्लाओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ पूरे देश में बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया. आम हिंदू चकित था कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ छह प्रतिशत और गरीबी रेखा के नीचे 40 प्रतिशत जगह पाने वाले इन मुसलमानों ने अपनी आर्थिक मांगों को लेकर तो आज तक ऐसा कोई आंदोलन नहीं किया. तो फिर एक 70 वर्षीय तलाकशुदा बुढ़िया को केवल तीन सौ रुपए गुजारा देने के अदालती फैसले में ऐसा क्या है कि ये उसके खिलाफ जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे हैं? वोट बैंक खोने के डर से राजीव गांधी की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने संसद में एक अध्यादेश लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया.  यह भारत के इतिहास का वह टर्निंग प्वाइंट था, जहां से देश की राजनीति को धर्मांधता की उस अंधी सुरंग में प्रवेश करना था जिसका रास्ता   अयोध्या की बाबरी मस्जिद से होकर गुजरता था.

जिन हिंदुओं को शाहबानो के प्रति मुसलमानों की नफरत समझ में नहीं आ रही थी उनकी परेशानी को संघ ने इस विचित्र तर्क के साथ दूर कर दिया कि मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अगर मान लेते तो जिस आसानी से तलाक देकर वे तीन-चार शादियां कर लेते हैं वह संभव न होगी. ऐसे में वे हिंदुओं से अधिक आबादी बढ़ाने का अपना गुप्त मंसूबा पूरा नहीं कर सकेंगे और भारत पर फिर कब्जा करने का उनका मकसद पूरा नहीं होगा! सीधा सा यह गणित आम हिंदुओं को आसानी से समझ में आ गया पर मुसलमान ही नहीं समझ सके अपने इस कथित धार्मिक आंदोलन की उस प्रतिक्रिया को जो आठ वर्ष बाद राम जन्मभूमि मंदिर के भयावह आंदोलन के रूप में सामने आने वाली थी.

1971 में इरान में आयतुल्ला खुमैनी के इस्लामी इंकलाब ने भारत सहित बाकी दुनिया के तमाम    रूढ़िवादी मुसलमानों का हौसला बढ़ा दिया था. खुमैनी शिया संप्रदाय के धर्मगुरु थे. शिया और सुन्नी संप्रदाय में 1400 सालों से तनाव चला आ रहा है मगर खुमैनी शिया ही नहीं उन सुन्नियों के भी नायक बन गए थे जिनके मन में कहीं इस्लामी राष्ट्र के लिए नरम गोशा था. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अफगानिस्तान में कट्टर रूढ़िवादी तालिबान अमेरिका और पाकिस्तान की सहायता से अपना वर्चस्व स्थापित कर चुके थे. उनकी जीत को तमाम भारतीय  मुसलमानों ने भी, इस्लाम की जीत और राष्ट्रपति मुजीबुल्ला की पराजय और उनकी दर्दनाक हत्या को कम्युनिज्म की हार के तौर पर देखा था. 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भाजपा और संघ ने भी मुसलमानों के खिलाफ नफरत को पुख्ता करने में सफलता प्राप्त कर ली.

अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान का पिशाच धर्म का चोला पहन कर पहले पाकिस्तान में घुसा और फिर सिमी का पहचान पत्र हासिल करके इस्लामी राष्ट्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर गया. बाबरी मस्जिद विरोधी आंदोलन ने हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ दबे उस क्रोध को एक हिंसक दिशा दे दी, जो शाहबानो केस में संघ ने पैदा किया था. इस बार मुसलमानों की ओर से बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मान लेने का प्रस्ताव रखा गया तो संघ ने आस्था के नाम पर उसे स्वीकार करने से ठीक वैसे ही इंकार कर दिया जिस प्रकार शाहबानो के केस में मुसलमानों ने इंकार किया था! नतीजा बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में सामने आया था. इस के बाद हुए दंगों ने एकदम से पूरे देश का माहौल बदलकर मुसलमानों में ऐसा भय पैदा कर दिया जिसने समूची व्यवस्था पर से उनका विश्वास उठा दिया. अचानक ही 1977 में कायम की गई सिमी ने मुस्लिम युवकों में और 1926 से स्थापित ‘तबलीगी जमात’ ने आम मुसलमानों में वह जगह बना ली जो उन्हें अब तक नहीं मिली थी. आम मुसलमानोें में मजहब के नाम पर धर्मांधता, दाढ़ी और बुर्के  की शक्ल में फैलती चली गई. सबसे हैरत की बात थी कि उर्दू अखबारों ने सिमी की धर्मांधता और उसकी जेहादी गतिविधियों की कभी आलोचना नहीं की. उनकी यह नीति रही है कि जिस व्यक्ति या संगठन के साथ इस्लाम शब्द जुड़ा हो उसकी आलोचना में एक भी शब्द भी प्रकाशित नहीं किया जाएगा, वह चाहे संपादक के नाम पाठक का कोई पत्र ही क्यों न हो. जिस समाज में यह सूरते हाल पैदा कर दी जाए उसका मानस क्या होगा?

बाबरी मस्जिद की घटना का एक रौशन पहलू यह भी है कि असुरक्षा की जिस भावना ने उन्हें धर्मांध शक्तियों की ओर ढकेला था उसी ने उन्हें आत्मनिर्भर होने के लिए भी प्रेरित किया. मुसलमानों में शिक्षा का महत्व काफी बढ़ा. वह नौकरियों पर आश्रित न रह हर छोटे-मोटे कारोबारों में लग गए.

आज तक भारतीय मुसलमानों को किसी घटना ने इतना आहत और असुरक्षित महसूस नहीं कराया था जितना कि मुंबई और गुजरात के दंगों ने. व्यवस्था के अत्याचार और अन्याय के अहसास का नतीजा ये हुआ कि कभी उच्च शिक्षा का लक्ष्य रखने वाले मुस्लिम युवा सरहद पार करने लगे. इसकी जिम्मेदारी किसके सिर रखी जाएगी?

1878 में मुस्लिम सुधारवादी विचारक सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को उदारवादी बनाने के विचार से, मोहम्मडन कॉलेज के नाम से अलीगढ़ में भविष्य के सबसे बड़े मुस्लिम विश्वविद्यालय की जो नींव रखी थी. वह आज रूढ़िवादी आंदोलनों का गढ़ बन चुका है. स्वतंत्रता से पूर्व सरकारी उपक्रमों में मुसलमानों का अनुपात 18 प्रतिशत था. वह आज घट कर आठ प्रतिशत पर पहुंच गया है. मुसलमान आज वहीं ठगा हुआ सा खड़ा है जहां वह 60 साल पहले खड़ा था. लेकिन उसे अपने ठगे जाने का एहसास शायद आज भी नहीं है.

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009