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गऱीब की पहुंच से दूर होती अच्छी शिक्षा

भारत 29 वर्ष की औसत आयु के साथ दुनिया का सबसे युवा देश बन गया है। 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमारी युवा आबादी के सही प्रशिक्षण और शिक्षा के साथ इस जनसांख्यिकीय लांभाश का लाभ उठाया जा सकता है।

वर्तमान एनडीए सरकार के तहत शिक्षा की समग्र गुणवत्ता में कमी आई है। केंद्र सरकार द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक और उच्च शिक्षा के बजटीय आवंटन में कमी, उच्च स्तरीय शिक्षा में योग्य शिक्षकों की कमी, पूरे बुनियादी ढांचे में कमी, तर्क, बहस और विचारशीलता के केंद्रों के प्रति असंतोष (संघ परिवार कर विचारधारा का उत्थान) के कारण शिक्षा की श्रेष्ठता पर प्रहार हुआ है जिसके के कारण हमारे स्नातक रोजग़ार की क्षमता 10 फीसद से घटकर पांच फीसद हो गई है।

2015-16 में समग्र शिक्षा बजट 82,771 करोड़ रुपए से घटकर 69,074 करोड़ हो गया। यूपीए सरकार के दौरान 2012-13 में योजना आवंटन में 18 फीसद की वृद्धि हुई और 2013-14 में 8.03 फीसद की बढ़ोतरी हुई परंतु एनडीए सरकार नें 2015-16 में योजना आवंटन में 24.68 फीसद की कमी कर दी। यहां बोर्ड में भारी कटौती हुई। सर्व शिक्षा अभियान में 22.14 फीसद की कमी, मिड डे मील योजना में 16.14 फीसद, सेकेण्डरी शिक्षा के माध्यमिक शिक्षा अभियान में 28.7 फीसद और राज्य के कॉलेजों को समर्थन देने वाले राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान में 48 फीसद की कमी की गई। एसएसए जैसी महत्वपूर्ण संस्था जो कि देश भर के स्कूलों को फंड देती है को 2015-16 के बजट में 50,000 करोड़ रुपए की मांग के बदले में सिर्फ 22,000 करोड़ रुपए मिले।

शैक्षिक आवंटन से पता चलता है कि भविष्य में उच्च शिक्षा की मजबूती में निवेश करने के बजाए 2017-18 का बजट 3.71 फीसद पर स्थिर था और केवल 1.5 फीसद ही उच्च शिक्षा के लिए आवंटित किया गया था, भले ही बढ़ती आबादी के साथ ज़रूरत साल दर साल बढ़ती जा रही है और मुद्रा स्फीति इस राशि का मूल्य हर साल कम कर रही है। आईआईएम, आईआईटी और एनआईटी की मौजूदा स्थिति बताती है कि आईआईएम में शिक्षकों के 26 फीसद पद और आईआईटी में 35 फीसद स्थान और एनआईटी में 50 फीसद पद खाली हैं। दूसरी ओर ज़्यादा से ज़्यादा संस्थान खोलने की होड़ चल रही है। यह देश की उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की कमी का संकेत है। छात्रों को शिक्षा प्रदान करने के लिए आधे-अधूरे बने कालेज परिसर में धकेला जा रहा है जहां शिक्षकों की भारी कमी है। इससे यह परिदृश्य काफी निराश करने वाला है।

इसके साथ ही एसएसए में छह लाख शिक्षकों की कमी है, केंद्रीय विद्यालय में कुल 42,640 में से 9,749 शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। इसके साथ ही शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में 50 फीसद पद खाली हंै। जस्टिस वर्मा आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश शिक्षण प्रशिक्षण कालेज इतनी खराब स्थिति में हैं कि उन्हें बंद करने की ज़रूरत है। यूजीसी का सर्वेक्षण बताता है कि 73 फीसद कालेज और 68 फीसद विश्वविद्यालय मध्यम और निम्न गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा शत प्रतिशत शिक्षकों की नियुक्तियों के लिए ठेकों के आधार पर बिना नौकरी की सुरक्षा और भ्रष्ट तरीके से बड़ी अदायगी के शिक्षा मित्रों की नियुक्ति यह स्पष्ट करती है कि शिक्षा की गुणवत्ता से किस तरह समझौता किया गया है।

भारत दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है और देश की आज़ादी के बाद से संस्थानों की संख्या और नामांकन ने एक अच्छे विकास को प्रदर्शित करते हुए छात्र नामांकन में दूसरे स्थान पर है। अब यहां 864 विश्पविद्यालय और 40,026 कॉलेज हैं लेकिन केवल कुछ ही आईआईटी जैसे विश्वस्तरीय संस्थान हैं। भारत के गंभीर शैक्षिक परिदृश्य में औसत दर्ज को दर्शाया गया है जो कि भारत के भविष्य के लिए बुरा है। परिदृश्य में क्या बुराई है जिसमें सरकार शिक्षा प्रणाली में सुधार करने के बजाए हमारे विश्वविद्यालयों और संस्थानों का भगवाकरण करने पर आमादा है। कई संस्थानों के अध्यक्षों को हटाकर उनकी जगह संघ परिवार की विचारधारा वाले लोगों को लगाया गया है।

शिक्षा बजट में भारी कमी जिसमें अनुसंधान और विकास के लिए बजट, मेधावी छात्रों को छात्रवृति और निजीकरण और व्यवासायीकरण पर ज़ोर, हमारे लोकतांत्रिक शासन में शिक्षा को गरीब और पिछड़े समुदाय की पहुंच से दूर कर रहे हैं। जहां लोग बहुमत वाली सरकार चुनते है जो लोगों के प्रति जवाबदेह होती है। शिक्षा बजट में कटौती को जनविरोधी और गरीब विरोधी कदम के रूप में देखा जा रहा है और इस प्रक्रिया को राष्ट्रहित में खत्म किया जाना चाहिए।

सावधान घूम रहे हैं असहिष्णु दस्ते

देश के अंदर बैठे शत्रुओं की तलाश’ मुहिम में जुटे अपरिचित-अनजान तीन लोगों का एक दस्ता सांप्रदायिक सौहार्द्र और शांति की बातें करने वाले प्रोफेसर राम पुनियानी के घर नौ मार्च को पहुंच गया। इन लोगों ने अपने को सीआईडी से आया बताया लेकिन किसी ने भी अपना परिचय पत्र नहीं दिखाया।

उनका कहना था कि वे पासपोर्ट के संबंध में जानकारी लेने आए हैं। जबकि असलियत यह है कि न तो राम ने और न उनके परिवार में ही किसी ने कभी पासपोर्ट के लिए आवेदन नहीं किया। अब यह सच जाने लेने के बाद इन लोगों को अपनी भूल स्वीकार करके लौट जाना चाहिए था। लेकिन वे काफी देर बड़े इत्मीनान से बैठे रहे और राम और उनके परिवार के लोगों से पूछताछ करते रहे। आईआईटी में प्रोफेसर रहे 73 साल के राम पुनियानी से उनके घर जाकर बेमतलब के सवाल जवाब करने के लिए इन्हें किसने कहा यह एक बड़ा सवाल राम पुनियानी और उनके परिवार के सामने है।

वाचन के विशेषज्ञ प्रोफेसर एमएन कलबुर्गी के यहां ऐसे ही तीन लोग पहुंचे। कलबुर्गी ने खुद ही दरवाजा खोला और उन्हें प्वाइंट ब्लैंक रेंज से निशाना बना दिया गया। साढ़े चार साल उनकी हत्या को हो चुके हैं लेकिन न तो हत्या करने वाला पकड़ा गया, न उनके सहयोगी और न साजिश रचने वाल ही।

ऐसी ही हत्या एक नौजवान वकील शहिद आजमी की हुई जो अकेले ही आतंकवादी होने के संदेह में पकड़े गए लोगों के मामले देखते थे। उन्हें हमेशा धमकियां मिलती और वे एक सुबह मारे गए। राम पुनियानी के घर पर हुई ऐसी हरकत का विभिन्न बुद्धिजीवियों ने विरोध किया है। देश के जाने-माने विद्वान प्रोफेसर राम पुनियानी समाज में सांप्रदायिकता और अलगाववादी ताकतों से सजग रहने के लिए युवाओं की वर्कशाप करते रहे हैं। लेकिन इस तरह अनजान-अपरिचित लोगों का उनके घर पर धमक जाना निश्चय ही सराहनीय नहीं कहा जाएगा।

जो भी उपहास उड़ाए,मुकाबला ज़रूरी

पिछले दिनों देश के प्रधानमंत्री ने कुछ स्कूली बच्चों के बात की। इनमें डिस्लेकसिया से प्रभावित बच्चे भी थे। इनमें से कुछ छात्रों के साथ बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिस्लेकसिया और उससे पीडित लोगों का जिस तरह उपहास किया उसे समाज में सराहना नहीं मिल सकी। उस बातचीत के दौरान एक छात्र ने कहा था कि वह डिस्लेकसिया से पीडि़त बच्चों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार को रोकना चाहती है और उनके लिए काम करने चाहती है। देश में साढ़े तीन करोड़ बच्चे इस अक्षमता के शिकार हैं। प्रधानमंत्री ने इस पर कहा कि क्या बड़ी उम्र के लोग भी ठीक हो सकते हैं। उनका इशारा राजनीतिक था। उन्होंने कहा फिर मां बहुत खुश होगी।

मां-बेठी की टीम ने प्रधानमंत्री को सलाह भेजी है कि हमारे प्रिय प्रधानमंत्री मोदी जी, डिस्लेकसिया कतई न तो उपहास लायक है और न ही इसमें शरमाना ही चाहिए। डा. गीत ओबेराय विशेष प्रशिक्षक है जो विभिन्न तरह की अक्षमताओं का अध्ययन करती हैं और उनसे प्रभावित लोगों को स्वस्थ रहने और समाज में जीना सिखाती है। उनकी 14 साल की बेटी इंडिया ओबेराय को डिस्लेकसिया है। लेकिन इसके बावजूद वह पढऩे में तेज हैं। मैं एक एडल्ट हूं जिसे डिस्लेकसिया है। मेरी बेटी डिस्लेकसिया है। इसमें जागरूकता काफी कम होती है। यदि हम कोई मजाक करं या इस अक्षमता पर कोई उपहास करे तो यह अक्षमता दूर नहीं होगी। इससे बात बनेगी नहीं। कहती है डा. ओबेराय। यह एक ऐसी अक्षमता है जिसमें बच्चे को पढऩे और लिखने में परेशानी होती है। तकरीबन साढ़े तीन करोड़ बच्चे इस अक्षमता के शिकार हैं।

इसका यह अर्थ न निकाला जाए कि डायलेक्सिक बच्चे बुद्धिमान नहीं होते। कई ऐसे भी मामले देखे गए हैं जहां डिस्लेकसिया के बच्चों का आईक्यू बहुत ही जबरदस्त है। वे दूसरे बच्चों की तुलना में कहीं ज़्यादा योग्य होते हैं। इनमें प्रमुख हैं प्रसिद्ध वैज्ञानिक एलबर्ट आइनसटाइल, चित्रकार पबालो पिकासो, अभिनेता टाम क्रूज़ औरहेनरी विंकलर, फिल्म स्टीवन स्पीलबर्ग।

डाक्टर गीत ने बताया कि उनकी बेटी इंडिया को भी बहुत परिश्रम करके डिस्लेकसिया पर हावी होना पड़ा। यदि एक अच्छा माहौल दिया जाए तो उसके जैसे ढेरों बच्चे अपनी अक्षमता पर काबू पा सकते हैं।

इंडिया ने बताया कि अपने स्कूल की फुटबाल टीम की मैं कैप्टन हूं। मैं पिछले दस साल से घुड़सवारी सीखती रही हूं। मुझे कई मेडल भी मिले हैं। दूसरे बच्चों की तरह मैं एक जगह बैठकर लिख नहीं सकती। लेकिन मौखिक तौर पर मैं सारे सवालों का जवाब जानती हूं। बताती है इंडिया जिसे अटेंशन -डिफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएडी) भी है।

बच्चों को यदि यह सिखाया जाए कि वे कैसे अपनी मनोयोग से अपनी ताकत और बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए समस्या पर काबू पा सकते हैं तो वे जीवन में भी सफल हो सकते हैं। यह सरकार और व्यवस्था पर है कि स्कूलों में सभी बच्चों की उचित तरीके से छानबीन की जाए। उनकी कमियों को जाना समझा जाए और उनकी समस्याओं का निदान किया जाए। सब की तरह ही दिखने वाले बच्चों में भी पढऩे और सीखने का तौर तरीका कुछ बच्चें का काफी अलग होता हैं। उनका उपहास नहीं उड़ाना चाहिए। बल्कि अध्यापकों को इस तरह प्रशिक्षित किया जाए कि वे उन बच्चों को उस तरह से पढ़ाए-सिखाएं कि वे ठीक से पढ़-लिख और तेज हो। कहती हैं डा. गीत।

भारत को व्यापार सूची से अमेरिका ने हटाया तो खासा नुकसान

संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत और तुर्की को अपने देश की जेनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस (जीएसपी) की सूची से बाहर करने का अपना इरादा जता दिया है। जीएसपी की कार्य के तहत गरीब और विकासशील देशों को सीधे अमेरिकी बज़ारों तक अपने उत्पाद पहुंचाने मे कामयाबी मिलती रही है। अब ट्रंप प्रशासन ने भारत से व्यापार के मामले में 60 दिन का नोटिस दे दिया है।

अमेरिकी प्रशासन ने जेनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस के तहत (जीएसपी) भारत के मुनाफे पर रोक लगा दी है। असलियत तो यह है कि वर्तमान सुरक्षा माहौल में भारत को आज अमेरिका की हर पल ज़रूरत है। ऐसे समय में अमेरिका ने यह दांव चला है।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाउस ऑफ रिप्रजेंड टेटिव्स और सीनेट को एक चिट्ठी भेजी है, ‘मैं अपने इरादे से संबंधित नोटिस भेज रहा हूं। मेरा इरादा है कि भारत को ‘जेनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस’ के तहत लाभ कमाने वाले देशों की सूची से बाहर कर देना चाहिए।’ राष्ट्रपति ने जोड़ा कि ‘वे ऐसा इसलिए करने को बध्य हैं क्योंकि भारत ने अमेरिका को यह भरोसा नहीं दिया है कि यह उसे भी समान तौर पर भारतीय बाजारों में प्रवेश का मौका देगा।’

जीएसपी से तकरीबन दो हज़ार उत्पादों को ड्यूटी फ्री (कर-मुक्त) करना पड़ता है। ऐसे उत्पादों में वस्त्र और ऑटो के कलपुर्जे हैं। भारत इस कार्यक्रम से खासा लाभान्नित हुआ और अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के अनुसार इसने 2017 में इसने 5.7 बिलियन डालर का निर्यात अमेरिका को इस प्रणाली के तहत किया।

मुद्दा चीन का

विदेश मंत्रालय के विशेषज्ञों का कहना है कि मुख्य वजह यह है अमेरिका यह जताना चाहता है कि चीन को दरकिनार करने की ट्रंप की जो नीति हैं उसका अंधा अनुसरण नहीं रहा है इसलिए भारत को लाभ पहुंचाने की कोशिश भी नहीं हो रही है। इस के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को यह चेतावनी दी थी कि यदि यह व्यापार में गलत नीतियां बंद नहीं करेगा तो उसके निर्यात पर ड्यूटी बढ़ा दी जाएगी। अब तक अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर अमेरिकी डालर 250 बिलियन से कुछ ज्य़ादा कर लगाए हैं। साथ ही यह धमकी भी दी है कि अमेरिकी डालर 267 बिलियन का और आयात श्ुाल्क लगाया जा सकता है। बड़ी ताकतों के बीच छिड़े व्यापार युद्ध को इस तरीके से भी समझा जा सकता है कि चीन ने अमेरिकी उत्पादों पर अमेरिकी 110 बिलियन डालर का कर लगाया औ अब यह धमकी दे रहा है कि चीन में जो अमेरिकी व्यापार धंधा चल रहा है उस पर अंकुश लगा देगा।

फिलहाल न तो ट्रंप और न चीनीं राष्ट्रपति जी जिंग्पिंग झुकते नज़र आ रहे हैं। अमेरिकी-चीनी व्यापार में जो तनाव इन दिनों है उसमेें फैलाव हो रहा है। चीन के वाणिज्य मंत्रालय की चेतावनी है कि व्यापार को यह झगड़ा अर्थव्यवस्था के इतिहास में सबसे बड़ी व्यापारी लड़ाई साबित होगी। जानकारों के अनुसार  इस लड़ाई से चीन में विकास पर असर पड़ा है।

भारत ने सोवियत संघ और ईरान से रक्षा समझौते करके ऊर्जा पर नए समझौते करके अमेरिकी भरोसे को तोड़ा है। भारत के वाणिव्य सचिव के अनुसार भारत का अमेरिका को निर्यात इससे प्रमाणित होगा। भारतीय रु पए में तकरीबन

रु पए 40 हज़ार करोड़ मात्र का निर्यात अमेरिकी जीएसपी योजना के तहत नहीं हो  पाएगा। यह अतिरिक्त ड्यूटी है जो निर्यातकों को अदा करनी होगी। उन्हें ज्य़ादा तंगी तब आएगी जब उनका माल जीएसटी संविधान से दूसरे देशों से आए माल की तुलना में कहीं ज्य़ादा महंगा होगा। अमेरिका ने हाल फिलहाल 60 दिनों की एक अवधि दी है। इस बीच बातचीत कर समस्या हल की जा सकती है।

यह अमेरिकी धमकी तब आई जब अमेरिकी ट्रेड रिप्रजेंटटिव (यूएसटीआर) ने यह सूचना दी। राष्ट्रपति डोनाल्ड टं्रप के निर्देशों के तहत अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि राबर्ट लाइटीजर ने कहा कि अमेरिका का इरादा है कि भारत और तुर्की को जीपीएस कार्यक्रम के तहत लाभ पाने वाले देशों की सूची से निकाल दिया जाए क्योंकि ये देश वैधानिक योग्यता पूरी नहीं करते। भारत को इसलिए इस सूची से हटाया जा रहा है क्योंकि इसने आश्वासन दिया था कि यह अमेरिका को भारतीय बाजारों में अपने विभिन्न क्षेत्रों के उत्पाद के साथ पहुंचने देगा। लेकिन यह सुविधा उसने प्रदान नहीं की। इसी तरह तुर्की को जो सैन्य समझौते से अमेरिका का सहयोगी है उसे सजा इसलिए दी जा रही है क्योंकि यह अलग हो कर सीरीया में रूस के साथ सहयोगी हो गया है।

ट्रंप प्रशासन ने यह सूचना दी है कि भारत को जीरो आयात ड्यूटी कार्यक्रम से अलग किया जा रहा है। क्योंकि यह अमेरिकी उत्पादकों को अपने देश के बाजार में उचित मौका नहीं दे रहा है।

भारत को कैसे मिला था लाभ?

भारत को ही इस योजना का सबसे ज्य़ादा लाभ मिलता था जब उसे और 120 देशों को कुछ साल पर जीरो टैरिफ प्रणाली की सुविधा हासिल थी। अमेरिका को इसने डालर 5.6 बिलियन का 2017 में इसे योजना के तहत भेजा था। अमेरिका को 2017 में हुए निर्यात में यह तब 11 फीसद ज्य़ादा था जो 48.6 बिलियन था।

भारत का यह निर्यात अमेरिका के मूल निर्यात 48.6 विलियम डालर की कुल कीमत से 11 फीसद ज्य़ादा था। भारत इस कार्यक्रम में सबसे ज्य़ादा लाभ कमाता था क्योंकि कुछ चीजों पर इसे जीरो-टैरिफ की सुविधा थी। इसने अमेरिका को अनुमोनित 5.6 बिलियन डालर कीमत का माल भेजा।

अब साठ दिन का नोटिस की अवधि में भारत चाहे तो अमेरिका को प्रेरित कर ले कि वह इसे प्राथमिकता के ही दर्जे पर रखे। यह तब संभव होगा जब भारत अमेरिकी मांगों को मान ले। भारत में होने वाले आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह नीतिगत बदलाव संभव नहीं दिखता। क्या ट्रंप प्रशासन का यह फैसला जल्दबाजी का फैसला है?

क्या भारत अब अमेरिका से यह अनुरोध करेगा कि यह अपने फैसले पर फिर विचार कर ले। भारत पहली अप्रैल से अमेरिका से आयात होने वाले 29 तरह के माल पर ड्यूटी बढ़ाने जा रहा है। इससे भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता ठीक करने पर जो बातचीत चल रही थी उस पर उल्टा असर पड़ेगा। जिन वस्तुओं पर ड्यूटी बढ़ेगी उनमें अमेरिकी अखरोट, चिक पीज़ लेंटिल, बेसिक एसिड आदि हैं। इन पर डालर 290 बिलियन मात्र का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। इस नए आयात कर अखरोट पर 120 फीसद होगा। जबकि चिकपीज, संगाल चना, मसूर की दाल पर 30 फीसद से बढ़ कर 40 फीसद हो जाएगा।

‘वर्ग चेतना’ जगाना चाहते थे भगत सिंह

आज के हालात पर नजऱ डालें तो यह लगता है कि देश में सांप्रदायिक घृणा बढ़ रही है। राजनेताओं के लिए धर्म की राजनीति काफी मुफीद साबित हो रही है। संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद राजनेता अपनी या अपने सिद्धांतों की आलोचना को सहन नहीं कर पाते। पश्चिम बंगाल में एक कार्टून बनाने पर एक कलाकार को जेल भेज दिया जाता है। पत्रकारों की कलम रोकने के लिए गौरी लंकेश जैसी पत्रकार को गोली मार दी जाती है। हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का नारा खोखला साबित होने लगा है। उत्तर भारत के लोगों पर मुंबई में हमले होते हैं। एक खास धर्म के लोगों को भीड़ अक्सर निशाने बनाती है। विश्वविद्यालयों में डर का वातावरण बनता जा रहा है। ‘भीड़तंत्र’ को मज़बूती मिल रही है। यह एक हथियार है जिसका इस्तेमाल आमतौर पर सत्ता पक्ष लोगों को आपस में बाटने और अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए सफलता पूर्वक करता रहता है।

ऐसे हालात देश में पहली बार पैदा नहीं हुए हैं। आज़ादी से पूर्व भी अंग्रेज ऐसे हालात पैदा करते थे। यदि हम 1928 में ‘किरती’ में छपे अमर शहीद भगत सिंह के लेख पर नजऱ डालें तो स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती है।

संाप्रदायिकता की इस समस्या के हल के लिए क्रांतिकारी आंदोलन ने अपने विचार पेश किए। जून 1928 में ‘किरती’ में छपा यह लेख उस समय के हालात और उसके हल की बात करता है। इस लेख में भगत सिंह ने लिखा-

1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार किया। इस असर से राष्ट्रीय-राजनैतिक चेतना में सांप्रदायिक दंगों पर लंबी बहसें चली। दंगों को समाप्त करने की ज़रूरत सबने महसूस की और कांग्रेसी नेताओं ने हिंदू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखवाकर दंगों को रोकने जैसे यत्न किए।

इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रांतिकारी आंदोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। भगत सिंह का यह लेख जून 1928 के किरती में छपा।

भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहंी छोड़ी है। यह मार काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन् इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों के द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजऱ आता है। इन धर्मों ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दगों ने संसार की नजऱों में भारत को बदनाम कर दिया है और हमने देखा है कि अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई विरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी डण्डे-लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी बचे तो कुछ फांसी पर चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं, तथा रक्तपात होने पर धर्मजनों पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने पर आ जाता है।

जहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वहीं जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिर पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वहीं या तो अपने सिर छुपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धाता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठनेवालों की संख्या भी कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, वैसे तो ज़मीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं, और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।

दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं।

पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरूद्ध बढ़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनायें भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं, ऐसे लेखक जिनके दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हों, बहुत कम हैं।

अखबारों का असली कत्र्तव्य शिक्षा देना, लोगों की संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावना हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कत्र्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों में खून के आंसू बहने लगते हैं और दिल से सवाल उठता है कि ”भारत का बनेगा क्या?”

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहां थे वे दिन कि स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहां आज यह दिन कि स्वराज एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। वहीं नौकरशाही- जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था कि आज गई कल गई – आज अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।

यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गई थी। असहयोग आंदोलन के धीमा पडऩे पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया, जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये हैं। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल ज़रूर होता है। कार्ल माक्र्स के तीन बड़े सिद्धांतों में से यह एक मुख्य सिद्धांत है। इसी सिद्धांत के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णीय है।

बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है, क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को चवन्नी देकर किसी और को भी अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांतों को ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता।

लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती, इसलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तब सरकार न बदल जाए, चैन की संास न लेनी चाहिए।

लोगों को परस्पर लडऩे से रोकने के लिए वर्गचेतना की ज़रूरत है। गरीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा लेना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वह किसी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता और देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि ज़ार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ है वहां नक्शा ही बदल गया है। अब वहां कभी दंगे नहीं हुए। अब वहां सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। ज़ार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत खराब थी, इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्गचेतना आ गई है, इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आती।

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हंै, लेकिन कलकत्ते के दंगे में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आई। वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियनों के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया है और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्गचेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, वे साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।

यह खुशी का समाचार हमारे कानों में मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लडऩा व घृणा कराना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजऱ से हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है और भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए, बल्कि तैयार-बर-तैयार हो यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने ताकि दंगे हों।

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।

यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इक_े हो सकते हैं। धर्मों में चाहे हम अलग-अलग ही रहें।

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर ज़रूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे।

मज़हबी वातावरण पर भगत सिंह की लेखनी का समर्थन आज भी लोग कर रहे हैं। पंजाबी के एक प्रोफेसर पीआर थापर का कहना है कि भगत सिंह का लेख आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि देश की आर्थिक व्यवस्था में कोई मौलिक बदलाव नहीं आया है। इस कारण जो सामाजिक और आर्थिक ढांचा अंग्रेजों ने तैयार किया था, आज़ादी के बाद सरकार ने उसी को अपना लिया।

पंजाबी के मशहूर लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित नछत्तर सिंह का कहना है कि भगत सिंह की सोच को अपनाने की आज उस समय से भी ज़्यादा ज़रूरत है। उस समय अंग्रेज थे जो बाहरी लोग थे और लोगों को साफ दिखते थे। आज गऱीबों का शोषण करने वाले हमारे बीच में बैठे हैं। युवाओं को नशे की और धकेला जा रहा है। नछत्तर सिंह का कहना है कि लोगों को विशेष तौर पर युवाओं को सीधे रास्ते पर लाने के लिए उनमें वर्ग चेतना को जगाना ज़रूरी है। भगत सिंह ने वर्ग चेतना जगाने पर ज़ोर दिया है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना अंग्रेजों के समय था। नछत्तर सिंह का मानना है कि यदि लोगों में वर्ग चेतना आ जाएगी तो सांप्रदायिक दंगे और मार काट स्वंय ही बंद हो जाएगी।

फांसी से पहले …!

यह 23 मार्च 1931 की सवेरे थी। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव सुबह उठे। उन्हें अगल दिन यानी 24 मार्च को फांसी पर लटकाया जाना था। इन तीनों को सांडर्स हत्या मामले में सात अक्तूबर 1930 को मौत की सज़ा सुनाई गई थी। इनके अलावा तीन और अभियुक्तों अजय घोष, जतिंदर दास सान्याल और देसराज को छोड़ दिया गया। इसमें कुंदनलाल को सात साल का कड़ा कारावास और प्रेम दत्ता को पांच साल की सज़ा सुनाई गई। किशोरी लाल, महावीर सिंह, विजोय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव और कमलनाथ तिवारी को उम्रकैद की सज़ा दी गई।

23 मार्च की सुबह यह अनुमान नहीं था कि फांसी उस दिन भी हो सकती थी। लोगों के रोष को देखते हुए फांसी एक दिन पूर्व यानी 23 मार्च शाम को ही लगाने का आदेश दे दिया गया। देश में यह पहला ऐसा मामला था जब किसी को भी शाम के समय फांसी दे दी गई थी। वैसे फांसी हमेशा सुबह दी जाती थी। फांसी देने की पूरी प्रक्रिया के समय स्टीड, बारकर, रॉबर्टस, हार्डिज, चोपड़ा उप जेल अधीक्षक खान साहिब मोहम्मद अकबर वहां मौजूद थे। फांसी देने वाले जल्लाद मसीह को शहादरा से बुलाया गया था। शहादरा लाहौर के निकट एक स्थान है। जैसे ही इन तीनों क्रांतिकारियों को उनकी कोठडिय़ों से निकाला गया, सारी जेल ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों से गूंज उठी।

पिछले 88 साल में हम हर 23 मार्च को उन शहीदों को याद कर लेते हैं। 23 मार्च 1931 को पूरा देश शोक में डूब गया था। लोग सड़कों पर निकल आए थे। लोगों का गुस्सा पागलपन की हद तक था। इस कारण प्रशासन ने शहीदों के शव उनके परिवारों को नहीं सौंपे। इसकी बजाए उन्होंने जेल की पिछली दीवार तोड़ी और अंधेरे में तीनों के शव सतलुज नदी के किनारे अंतिम संस्कार के लिए ले गए। वहां उनके शरीरों को टुकड़ों में काट कर जलाने का प्रयास किया। शव अभी आधे ही जले थे कि गुस्से में भरी लोगों की भारी भीड़ वहां पहुंच गई। भीड़ को देख पुलिस वाले वहां से भाग खड़े हुए। इसके बाद वहां पहुंचे लोगों ने उनका अंतिम संस्कार किया।

इससे जुड़े कई सवाल आज भी जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं। एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी आरके कौशिक ने कुछ छुपे तथ्यों का पता लगाया। उन्होंने इन तीनों क्रांतिकारियों के अंतिम घंटों का जि़क्र किया है।

वे लिखते हैं-” 22मार्च की रात को लाहौर में एक भारी तूफान आया था। इससे पूर्व लाहौर हाईकोर्ट के जज एमवी भीडे ने वह याचिका खारिज कर दी थी जिसमें स्पेशल ट्रिब्यूनल के उस अधिकार को चुनौती दी गई थी जिसके तहत उसने भगत सिंह, शिवराम राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुनाई थी। इस कारण फांसी का मिलना तय था।

23 मार्च को तूफान थम चुका था। जेल अधीक्षक पीडी चोपड़ा के कक्ष में सभी अधिकारी फुसफुसाहट में बात कर रहे थे। भगत सिंह का वकील प्राणनाथ मेहता उनसे मिला। जैसे ही वह वकील जाने लगा, भगत सिंह ने उसे हाथ से लिखे कागज़ों के चार बंडल थमा दिए। इसके बाद स्टेड, बारकर, रॉबर्टस, हार्डिंग और चोपड़ा भगत सिंह से मिले। उन्होंने जान के बदले भगत सिंह को माफी मांगने की सलाह दी जिसे भगत सिंह ने नाकार दिया। इनके जाने के बाद जेल के वार्डन चत्तर सिंह ने भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को सूचना दी कि उन्हें उसी दिन शाम को फांसी दे दी जाएगी। चत्तर सिंह ने भगत सिंह को सलाह दी कि वह अंतिम समय में भगवान का नाम ले। पर उस समय भगत सिंह रूस के क्रांतिकारी व्लादिमीर लेनिन की किताब पडऩे में व्यस्त थे।

भगत सिंह ने जेल के एक मुस्लिम सफाई कर्मचारी बेब से कहा कि फांसी से पहले वह उसके घर का भोजन खाना चाहते हैं। बेब सहर्ष मान गया और इस वादे के साथ वहां से चला गया कि वह शाम को खाना लेकर आएगा। पर उसके तुरंत बाद सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत कर दी गई इस कारण वह शाम को खाना ले कर जेल में दाखिल ही नहीं हो सका। उधर जेल के अंदर और बाहर तनाव का माहौल था। सरकार को दंगा-फसाद होने का डर था।

दोपहर बीत गई और घड़ी की सुइयां शाम का संकेत देने लगी। जि़ले के नागरिक और पुलिस अधिकारी जेल के मुख्यद्वार पर आ बैठे। उनमें शेख अब्दुल हामिद (अतिरिक्त जि़ला मेजिस्ट्रेट), डीएसपी कसूर सुदर्शन सिंह, डीएसपी (सिटी) अमर सिंह, डीएसपी मुख्यालय जेआर मोरिस और भारी संख्या में पुलिस बल वहां मौजूद था।

जि़ला कांग्रेस लाहौर के सचिव पिंडीदास जेल के पास ही रहते थे। भगत सिंह और उनके साथियों ने जो नारेबाजी की उसे पिंडीदास के घर पर सभी ने सुना। तीनों क्रांतिकारियों के साथ जेल के दूसरे कैदियों ने भी नारे लगाए।

भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जब फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो वहां मौजूद 1909 बैच के आईसीएस अधिकारी एए लाने रॉबर्टस ने भगत सिंह के साथ बातचीत की। भगत सिंह ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा- ”थोड़ी देर में लोग देखेंगे और याद रखेंगे कि भारतीय क्रांतिकारी किस बहादुरी से मौत को गले लगाते हैं’’। उन तीनों ने अपने चेहरे पर ‘टोपा’ पहनने से इंकार कर दिया। असल में भगत सिंह ने तो अपना ‘टोपा’ जि़ला मेजिस्ट्रेट के मुंह पर दे मारा था। इसके बाद तीनों एक दूसरे के गले मिले और नारे लगाए-‘डाउन दि ब्रिटिश अम्पायर।’ (अंग्रेजी हकूमत मुर्दाबाद)

सबसे पहले भगत सिंह को फांसी दी गई। उसके बाद राजगुरू और फिर सुखदेव को फांसी पर लटकाया गया। किंग एडवर्ड मेडिकल कालेज के प्रिंसीपल कर्नल हार्पर नेलसन और सिविल सर्जन कर्नल एनएस सोढी उस समय जेल में भीतर ही थे पर उन्होंने फांसी लगती नहीं देखी। बाद में सिविल सर्जन सोढी ने तीनों की मौत कर पुष्टि कर दी। जेेल के बाहर भारी गिनती में लोग जमा थे। रात को 10 बजे डीएसपी कसूर सुदर्शन सिंह और डीएसपी सिटी अमर सिंह की अगवानी में ”ब्लैक बैच’’ पुलिस रेजिमेंट का दस्ता उन तीनों के शरीर लेकर निकल गया। सुदर्शन सिंह ने रास्ते में एक गं्रथी और एक पंडित जगदीश अचरज को साथ लिया और गंडा सिंह वाला गांव के पास तीनों को आग के हवाले कर दिया। पर इतने में लोग आ पहुंचे और पुलिस को भागतना पड़ा’’।

‘सरकार की नजऱ में शहीद नहीं हैं भगत सिंह’

भारत सरकार आज भी भगत सिंह को ‘शहीद’ नहीं मानती। अंग्रेजी हकूमत ने भगत सिंह को आतंकवादियों की सूची में डाल दिया था, जो आज तक उसी सूची में चल रहा है। पिछले 72 साल में भारत की किसी भी सरकार ने इस अमर शहीद को ‘शहीद’ का दर्जा नहीं दिया। चाहे वे कांग्रेस की सरकारें रही हों या खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली एनडीए की सरकार। इन राजनीतिज्ञों ने केवल अपने स्वार्थ के लिए भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल किया, पर न तो उसे शहीद का दर्जा दिया और न ही उसके विचारों को दुनिया तक आने दिया। स्कूल की किसी पुस्तक में भगत सिंह की सोच का कोई जिक्र नहीं है। हालांकि पाकिस्तान में भगत सिंह को ‘शहीद’ का दर्जा देने की कोशिश शुरू कर दी है। यह बात ‘तहलका’ के साथ बातचीत में अमर शहीद भगत सिंह की बहन बीबी प्रकाश कौर के बेटे हकूमत सिंह मल्ही ने कही। मल्ही अभी पिछले महीने पाकिस्तान हो कर लौटे हैं। अब कैनेडा में रह रहे मल्ही को खेद है कि देश की सरकारों ने अपने शहीदों के परिवारों की कोई खोज-खबर नहीं ली।

पाकिस्तान की अपनी यात्रा के बारे में मल्ही ने कहा कि उन्हें फैसलाबाद के पास भगत सिंह के गांव चक 105 में पहुंच कर ऐसा लगा जैसे वे अपनी नानी के घर आ गए हों। उन्हें वही अनुभूति हुई जैसे बचपन में नानी के घर आने पर होती थी। उन्हें वहां अपने बुर्जुगों के होने का एहसास हो रहा था। मल्ही ने बताया कि अब इस गांव का नाम बदल कर भगत सिंह पुरा रख दिया गया है। इस नाम को सरकारी मान्यता भी मिल गई है। यह गांव ‘वंगे’ के नाम से भी जाना जाता है। मल्ही के अनुसार भगत सिंह का यह गांव फैसलाबाद-जड़ांवाली सड़क पर पड़ता है। वहां सड़क पर आपको ‘भगत सिंह पुरा’ गांव के बोर्ड साफ नजऱ आ जाते हैं। वहां के सरकारी अफसरों के मुताबिक भगत सिंह का एक पाठ जल्दी ही स्कूल की किताबों में जोड़ दिया जाएगा ताकि आने वाली नस्लों को पता चल सके कि भगत सिंह की सोच क्या थी। वे क्या चाहते थे? उनके जहन में आज़ाद भारत की तस्वीर क्या थी? वे कैसा भारत चाहते थे?

मल्ही ने बताया कि भगत सिंह पुरा में एक पुस्तकालय खोलने की भी तैयारी हो रही है जिसमें भगत सिंह से जुड़े सभी दस्तावेज और विभिन्न लेखकों की भगत सिंह पर लिखी किताबें रखी जाएंगी भगत सिंह के घर के बारे में मल्ही ने बताया कि जिस घर में भगत सिंह का जन्म हुआ वह अब तीन हिस्सों में बंट चुका है। दो हिस्से जिनके पास हैं उन लोगों ने तो घर को अपने-अपने हिसाब से बनवा लिया है पर जो हिस्सा साकू विर्क नाम के आदमी के पास है उसे उसने भगत सिंह की यादगार के तौर पर सहेज कर रखा है। घर की पूरी मरम्मत करवा दी गई है उसमें उस ज़माने का चरखा ,चक्की और कुछ दूसरे बर्तन मौजूद हैं। इसके अलावा भगत सिंह के ज़माने की बेरी का पेड़ आज भी वहां लगा हुआ है।

मल्ही के मुताबिक देश में भगत सिंह की बात तो सभी करते हैं पर उनकी विचारधारा को समझना नहीं चाहते, क्योंकि उनकी विचारधारा आज की पूंजीवादी व्यवस्था को रास नहीं आती। यहां लोग धर्मों, जातियों और भाषाओं के नाम पर लड़ते या लड़ाए जाते हैं जबकि भगत सिंह ने तो राष्ट्रों की सरहदों से भी ऊपर उठकर ‘वर्ग चेतना’ की बात कही।

हकूमत सिंह मल्ही को इस बात का खेद है कि हमारे देश में राजनेताओं को ‘शहीद’ की परिभाषा का ही पता नहीं। उन्हें पता नहीं कि ‘शहीद’ किसे कहा जाए। एक सवाल के जवाब में मल्ही ने कहा कि उनके परिवार ने कभी यह मांग नहीं उठाई कि भगत सिंह को सरकार शहीद का दर्जा दे क्योंकि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार उन्हें शहीद मानती है या नहीं, पर इससे सरकार की नीयत का पता ज़रूर लगता है। आज देश के करोड़ों लोग भगत सिंह को शहीद मानते और सम्मान देते हैं, अब सरकार की सरकार जाने। उनका कहना था कि देश में शहीदों की कोई कद्र नहीं है। हर बात वोटों को ध्यान में रख कर की जाती है।

पाकिस्तान के बारे में मल्ही ने बताया कि वहां उन्हें पूरा मान-सम्मान दिया गया। कई सांसद और विधायक उनसे मिले। वहां के प्रमुख नौकरशाहों ने भी उनसे संपर्क किया।

आठ अप्रैल 1929 को एसेंबली हाल में भगत सिंह के साथ बम फैंकने वाले उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के बारे में मल्ही ने बताया कि दत्त का जीवन काफी कष्ट में बीता। उन्होंने बताया कि एक बार उनकी नानी विद्यावती (भगत सिंह की माता) उन्हें अपने साथ लेकर बटुकेश्वर दत्त के घर गई थी। उस समय मल्ही नौवी या 10वीं कक्षा के छात्र थे। दत्त की खराब स्थिति देख कर वे उसे दिल्ली ले आई। उस समय दत्त तपेदिक से जूझ रहे थे। उनके घर में उनकी पत्नी और बेटी थीं। दत्त का इलाज एम्स में चला पर सरकार ने कभी उनकी सुध नहीं ली। बस अंत में दत्त की एक ही तमन्ना थी कि मरने के बाद उनका संस्कार वहीं किया जाए जहां उनके साथियों भगत सिंह, शिवराज राजगुरु और सुखदेव थापर का संस्कार किया गया था। आखिर 20 जुलाई 1965 को 54 वर्ष की आयु में यह क्रांतिकारी बिना किसी पहचान के अपने साथियों से जा मिला।

बटुकेश्वर का जि़क्र जनरल टीएन कॉल की मशहूर किताब ‘द अनटोल्ड स्टोरी’ में भी मिलता है।

मल्ही ने विश्वास जताया कि जल्दी ही देश के हालात बदलेंगे और भगत सिंह जैसे सभी शहीदों को एक पहचान मिलेगी। वैसे भी जो देश अपने शहीदों को भूल जाता है, वह कभी विकास नहीं कर सकता।

कारगिल में घुसपैठिए

‘कारगिल में घुसपैठिए’

कहने को तो ये कुल तीन शब्द हैं

लेकिन अभी तो मेरे पास

एक अक्षर तक नहीं है भाषा में

तेरा खाता खुला कहां है?

तुझे खबर न हो

तेरी खिलखिलाहट और हंसी

तेरा घुटनों के बल चलना और गिरना

तेरा हमें पहचानना और मुस्काराना

तेरा दूध के लिए रोना,

सिर्फ तेरे ही नहीं

हमारे अपने जीवन का भी आगे बढऩा है।

जाड़ों में देवताओं और पुरखों के आर्शीपुष्पों की वर्षा के बीच

जब तू आया था

एक नए किरणाघात, एक नए स्वर,

एक नए रंग  की तरह इस संसार में

तब, उन्ही दिनों के आसपास

ये हमारी सरहदों में घुसे थे

सर्द हवा और बर्फीली आंधियों के बीच

ठीक उस समय जब मेरी दूध गंध

तेरी नन्ही उंगलियों में फंसे

खिलौने और झुनझुने

तेरी शैतान होती आंखें

सब कुछ अनश्वर लग रहा है

तभी सरहद पर बर्फीली चोटियों के आसपास

वे मर रहे हैं, मार रहे हैं, मारे जा रहे हैं

तेरे शब्दकोष में न हों, अभी कोई शब्द

तेरी सच-कम-सपना- अधिक देखने वाली आंखों में

अभी समा न पाई हो यह

दुनिया अपनी सारी रंगतों के साथ,

चिडिय़ों, बरतनों, झुनझुनों, हवा की सरसराहट

चीजों के गिरने, हमारे प्यार-पूचकार के अलावा

तूने भले न सुनी हो और कोई आवाज़

पर हम सब, हम और तू भी,

मेरे पोते,

एक ऐसी दुनिया में हैं जहां हर-रोज़

कुछ सुंदर बेवजह नष्ट हो रहा है,

धमाकों और  विस्फोटों के साथ।

2

साहस एक पवित्र शब्द है।

बलिदान एक पवित्र शब्द है।

प्रतिरोध एक पवित्र शब्द है।

पर युद्ध को पवित्र शब्द कहना संभव नहीं

भले ही वह हम पर थोपा ही क्यों न गया हो!

युद्ध के साथ चली आती है मृत्यु,

भले युद्ध के बाद,

उसकी सारी तबाही-बरबादी के बाद

संसार में बचता है फिर भी जीवन ही, मृत्यु नही!

शहादत को याद करता और अकसर भुलाता हुआ

जीवन ही बचता है,

मेरेे लाडले,

युद्ध के बाद-

फिर भी युद्ध एक पवित्र शब्द नहीं है।

हर युद्ध के साथ कुछ सुंदर और पवित्र नष्ट होता है।

युद्ध अकसर होता है भाइयों और पड़ोसियों के बीच

हमसे लडऩेे कहीं और से दुश्मन नही,

भाई और पड़ोसी ही आते हैं

इसलिए युद्ध एक पवित्र शब्द

कभी नहीं हो पाता

संसार का सारा सच तेरी

निश्छल आंखों में समा गया है

और तू अपने सपने में सोया मुस्करा रहा है

हम अपने धूल-धक्कड़ और

कीचड़-खून सने सच में लिथड़े हैं।

सब कह रहे हैं सयाने और जिम्मेदार कि अब

मारने और मरने के अलावा

किसी और के लिए समय नहीं रह गया है।

फिर भी, मंै। एक अधेड़ कवि,

बिना थके-हारे और

बिना किसी कायर उल्लास में

शामिल हुए

जानता हूं कि अभी भी न सिर्फ तेरे लिए

और दुनिया के तमाम बच्चों के लिए

बल्कि सबके लिए सुंदर और

पवित्र को बचाने के लिए

प्रार्थना में हाथ उठाने और

सिर झुकाने का समय है

प्रार्थना भी एक लड़ाई है

निश्छल सपनों और कीचड-खून सने सच के बीच

उस जगह को बचाने की

जहां से हम सुंदर और पवित्र की ओर लौट सकते हैं

बिना जाने-समझे

निशब्द

मेरे पोते,

प्रार्थना में अपने अभय हाथ उठा।

(अपने साढ़े छह महीने के पोते के लिए युद्धगीत)

कवि: अशोक वाजपेयी

कविता संकलन: कम से कम (2015-2018)

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

मिस्टर और मिसेज इन

गर्मी की लंबी बड़ी छुट्टिया ंहम शाहजहांपुर में गुजारते थे। यहीं मेरी मां रहती थी। यहीं वह एक जोड़ा भी था। मेरे लिए यह अजीबोगरीब जोड़ा था जबकि दूसरे मिस्टर और मिसेज इन कह कर इनसे बातचीत करते। अंग्रेजी राज जाने के बाद ये यहीं छूट से गए थे। इनकी शायद इच्छा भी नहीं थी कि वे विलायत जाएं। ये देसी लोगों में ही रच-बस गए थे।

उनकी पृष्ठभूमि क्या थी इसका तो पता नहीं, लेकिन उनके बारे में इतना ही कुछ सुना था कि देश के विभाजन के बाद ये लोग इस कस्बे के आसपास घूमते दिखते थे। तब मिसेज इन की स्कर्ट की बड़ी चर्चा होती थीं यह उस भारतीय स्कर्ट की तरह तो नहीं थी जो लंबी लहरदार सी होती थी। बल्कि यह काफी छोटी थी। लोगों में जिज्ञासा भी होती होगी। आखिर उस पर लोगों की निगाहें तो अटकती। उनके चेहरे से भी यह झलकता कि वे यहां रहने वाले लोगों के नाक-नक्श की तो नहीं हैं। हां भले ही थोड़ा बहुत मेल हो। फिरंगियों की मक्खनी बूंदें शायद देसी बदन पर छिटकी हों। या फिर किसी हिम्मती जमींदार ने अपनी लालसाभरी निगाहों से किसी गोरी मेेम साहिब को बेधा हो।

बहरहाल जो हो मिस्टर और मिसेज इन इस बात को लेकर ज़रूर चिंता में थे कि जिंदगी के बचे खुचे साल कैसे गुजारे जाएं। इसके पहले कि अवध की इस ज़मीन के नवाब के संरक्षण की हैसियत भी खत्म हो जाए या वे खुद किसी ताजा खोदी गई कब्र में दफना दिए जाएं।

इसके साथ ही इस विलायती जोड़े ने अपना सारा माल-असबाब एक गाड़ी में लदा और खुद उसे चलाते हुए इस इलाके में एक कमरे की तलाश में जुटे। मेरी मां के परिवार ने अपने पूर्वजों के कई बंगलों में से किसी एक में इन्हें पनाह दी।

जब पहली बार मेरी नजऱ इन पर पड़ी जो अजब सी बात मुझे खटकी वह थी कि इनके पड़ोसी वे दो माली थे जिनकी झुर्रियां पड़ चुकी थीं। एक रसोइया और उसका अपना परिवार था, झुक चले चैकीदार थे। ये सभी, धोबी के ही दूरदराज के सगे संबंधी थे। ये सारे परिवार हमारे पूर्वजों के बंगले के पिछवाड़े में रहते थे जहां आम और अमरूद के बगीचे थे।

हालांकि इन लोगों और इन दंपति में गर्व का खासा अंतर दिखता था। लेकिन इनके पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था। जब भी मैं बगीचें में आम या अमरूद की तलाश में निकलती तो मैं उन्हें एक जर्जर चारपाई पर बैठे एक-दूसरे को निहारते बिना हिले-डुले, एक से कपड़े पहने देखती। ऐसे ही गुजर जाते दिन।

वह उन पतलून के पुराने जोड़े पहने दिखता जिस पर बेडौल सी एक जैकेट होती और वह अपनी लंबी स्कर्ट, सिकुडी सी कमीज और लटकती छातियों पर लहराता एक स्कार्फ

एक दोपहर जब मैं अपनी मां से स्कूल से मिले कामकाज को निपटाने में मदद ले रही थी तो बातचीत छिड़ी कि मैं बाहर उन घरों की ओर जाऊं। इन दंपति से मिलूं और उनसे बात करूं कि वे मेरे स्कूली काम को पूरा करने में मदद दें।

‘वे क्या अंग्रेजी पढ़ाएंगे’

‘ हां, बेशक! धारा-प्रवाह अंग्रेजी। वे नबाब साहब के बच्चों को पढाते थे। जब तक कि वे यहां आए नहीं’।

‘लेकिन क्या अब वे पढ़ाएंगे जबकि हमें सब पूरा करके लखनऊ को लौटना है।

 ‘पापा उनसे एक भी रुपया नहीं लेते हैं..उनको उन्होंने कमरा, बिजली-पानी सब मुफ्त दिया है। वे तुम्हें पढ़ाएंगे अपनी किताबें लेकर जाओ।’

और मैं पहुंच गई उस खुले मैदान में। जहां थे वे घर और तमाम लोग बाहर ही थे। धोबी की कामचलाऊ अपनी मेज थी। वह अचकन और शेरवानी पर तह जमा रहा था। माली ढेरों लताओं के झाड़ से लौकी, कद्दू वगैरह निकाल रहे थे। शायद वे शाम के खाने की तैयारी में जुटे थे। चमेली के झाड़ के पास चैकीदार खर्राटे ले रहे थे। रसोइया लहसून छील रहा था। मिस्टर और मिसेज इन के बारे में कुछ कह रहा था। पास में ही था रसोइए का किशोर बच्चा बग्गा। वह एक आवारा कुतिया के गले में चमड़े की बेल्ट बांध रहा था जिसे वह पालना चाहता था। वह इन सब तैयारियों से बेपरवाह अपनी कुतिया से ही बातचीत कर रहा था।

मुझे देखते ही इन मुड़े, अरे तुम! इस मूढ़े पर बैठो, नहीं खाट पर बैठो। इस कुतिया ने गंदा कर दिया इसे

‘अम्मी ने आपके लिए ये कबाब भेजे हैं। मैं साथ में अंग्रेजी की अपनी किताबें भी लाई हूं। क्या आप मुझे कुछ बता देंगे यदि आप मेरी मदद करें।’ मैं इसके पहले कि कुछ और बोल पाती कि कुतिया स्टेनलेस स्टील के उस डिब्बे की ओर झपटी। मेरी पकड़ से डिब्बा छूटा। वह उस पर झपटी और उसे झाडियों में ले जाकर बैठ गई। तब उसके आसपास दूसरे कुत्ते भी आ गए। लालसा में, खेलते कूदते, चाटते, एक दूसरे को पुचकारते दुलारते , गुर्राते।

मैं तब तेरह साल की रही होंगी। और मैं तब ज़्यादा नहीं समझ पाती थी कि कुत्ते आपस में प्यार कर रहे हैं, क्या खुल कर। मुझे लगता जब भी मैं ऐसे किसी खेल को देखती तो भयंकर तौर पर बेकाबू हो जाती। आखिर धोबी क्यों अपना सिर झुकाए खड़ा हुआ है। क्यों चैकीदार जागरूक नहीं है। क्यों मिसेज इन विस्मित तरीके से मिस्टर इन को देख रहीं है और वह स्टेनलेस स्टील का डिब्बा अजीब सा तुड़ा मुड़ा दिख रहा है? क्यों रसोइया कहीं खोया हुआ सा दिख रहा है, अब तो वह लहसुन भी नहीं छीन रहा है क्या वह उसे खा भी रहा है? क्यों बग्गा उछल रहा था? सब अचानक चुप से?

शायद मेरा ध्यान बटाने के लिए इन दंपति मुझे लेकर अपने कमरे में आए। बेहद हल्की रोशनी थी कमरे में। कमरे में सिर्फ एक तख्त था। टिन का एक बक्सा ही उनका डायनिंग टेबल था।

‘भोजन के पहले हम तुम्हें कुछ पढ़ा ही लेते हैं’। मिसेज इन ने शायद खुद से कहा। वे अच्छी गोल रोटियां प्लास्टिक की प्लेट में रख रही थी। न जाने क्यों वे उन्हें ‘गेंहू का केक’ कहती। साथ ही प्याज और गाजर , मूली काटती। घर में ताजा कटा सलाद जिसे सरसों का कुछ तेल भी मिला लिया जाए।’ शायद यह सलाद भी उसी बगीचे में उगाया था जो बाग के पास था जहां से सलाद उखाड़ कर धोकर सरसों के फूलों से निकले तेल लगा कर काटा जा रहा था करीने से।

टिन बाक्स पर सज रहे भोजन को देख कर मैंने तय किया कि घर लौट कर मैं कुछ और कबाब इनके लिए ले आऊं।

मैं जैसे ही खड़ी हुई। इन दंपति बहुत चकित हुए। मैंने तख्त के एक किनारे किताबें रखीं, ‘मैं अभी आई कुछ कबाब लेकर आती हूं’।

लेकिन तुम अपनी किताबें छोड़े जा रही हो। जल्दी आना हम जल्दी ही तुम्हें पढ़ाएंगे।

‘मैं दो मिनट में आई मुझे यह सब रविवार के पहले ही खत्म कर लेना है। फिर हमें लखनऊ जाना है। सोमवार को स्कूल खुल जाएगा।

गडग़ड़ाहट, बिजली की चमक, बारिश। लेकिन राह में कहीं कोई बाधा नहीं। मैं बंग्लों को बढ़ती रही।

मेरी मां दरवाजे पर ही थी, ‘तुम्हारी किताबें?’ वहीं छोड़ दी..अभी वापिस जाऊंगी। कुछ और दे दो कबाब.. वहंा कुत्ते ने ही डिब्बा झटक लिया’।

‘किताबें वहीं छोड़ दी’

‘वापस जा रही हूं न। वे मुझे अभी पढ़ाएंगे।’

‘पर! ठस बारीश में ! तुम्हें कहीं नहीं जाना है। जब तक बारिश रुक न जाए। तुम बीमार पड़ जाओगी।

एक घंटा या कुछ ज़्यादा हुआ होगा। बारिश झिर्रियों में बदल गई। भागती-दौड़ती मैं बाहरी इलाकों के उन घरों को पहुंची। मेरे मन में था कि कहीं इन बाहर तो नहीं गए होंगे। मैं हिचकिचाती सी उनके घर के बाहर दीमक लगे दरवाजे पर पहुंच गई। क्या मुझे अंदर जाना चाहिए? हां, क्यों नहीं? आखिर मेरी किताबें वहीं है।

हल्का पारदर्शी पर्दा हटा कर में अंदर धुंधले कमरे में भीतर जा सकती थी। वे लोग वहीं थे। लेकिन बैठे हुए नहीं। तख्त पर लेटे हुए बड़े ही उलझे हुए तरीके से एक दूसरे पर। मिस्टर इन का पूरा शरीर मिसेज दन के इकहरे बदन पर था। न, वह न तो चीख रही थी और न उनकी किसी बात का विरोध कर रही थी। एक-दूसरे को दुलारते हुए मिस्टर इन बड़बड़ा रहे थे, मेरी सुंदरी कुत्तिया, मेरी दुलारी।

क्या! वह उसे कुत्तिया कह रहा था। और वह खिलखिला रही थी। वहां कुछ हो रहा था, सब कुछ बड़ा अनोखा। मैं आसानी से दरवाजे से बाहर जा सकती थी। लेकिन खड़ी रही मैं। मेरे पांव मुझे लौटाने को तैयार नहीं थे। मैं बिना हिले-डुले खड़ी रही। मैंने देखा उन्होंने उसकी स्कर्ट उतार दी। उसकी फटी पुरानी ब्रा एक ओर फेंक दी। उसकी धारीदार जांधिया भी सरका दी। उनके हाथ उसके पूरे शरीर पर धूम रहे थे। उनकी उंगलियां कहीं भीतर मानों जाना चाहती हों, शायद कहीं वहीं। वह जोर से कराही।

मैं जहां की तहां खड़ी थीं जोड़ा अपने हाथ इधर-उधर एक-दूसरे के बदन पर फिरा रहा था। उसके हाथ उसकी सूखी सी छातियों पर थे। उसके हाथ उसके शरीर पर इधर-उधर घूम रहे थे। कोहनियाते हुए और एक दूसरे को चूमते-चित्कारते हुए जिससे खेल चलता रहे।

फिर कुछ शंाति सी। फिर उनकी आवाज़ आई, बस। मेरी उम्र के हिसाब- से इतना बहुत है।

मुझे पता था तुम एक नाकाम।

क्या।

क्हीं मत जाओ। मुझे थामे रहो। मुझे छोड़ो मत। इस सड़ी, वाहियात जगह में कुछ भी तो और नहीं।

ठसके बाद वह सनक सी होगई, जोर से बोलने लगी। पास ही पड़े स्कार्फ को खीचने और फाडऩे लगी। वह बैठ गया। उसने उसकी नाराजगी को संभाला। फिर अचानक उसने उसे चुमना शुरू किया। फिर वह शायद उसमें था, वह फुसफुसाया ‘देखों मैं नाकाम नही हंू।

वह हसंी और अजब तरीके से चिल्लाई। फिर उसने अपने शरीर को ठीक किया इधर-उधर पड़े अपने कपड़ों को दरवाजे की ओर उछाला। कुछ तो लगभग मेरे उन पर आ पड़े। मेरी चीख ही निकल गई।

इन काफी चकित हुए। खड़े हुए। उन्हें लगा कि कोई घुस आया है।

 मिस तुम! यहां।

‘मेरी किताबें मेरी किताबें यहां थी।

कुछ बड़बड़ाते हुए।मैं भाग खड़ी हुई बंगले की तरफ, इसके पहले कि राह में कोई और बाधा आती।

घर पर फिर सुनी अम्मा की चुभती आवाज़,’क्या, अभी फिर तुम अपनी किताबें नहीं ला सकी। बहुत हो गई तुम्हारी मूर्खताएं। बैठो अब। अभी ड्राइवर आया है। उन्होंने आवाज़ दी,’मुश्ताक मियां,जो पुरानी कार तो चलाता और इधर-उधर के भी काम कर देता मसलन यही अजीब सी हालात में छूट गई मेरी किताबों को लाना। फिर अम्मा ने मेरे स्कूली बस्ते को तलाशा। उन्होंने बॉयलॉजी की मोटी किताब निकाली। कोई बर्बाद नहीं करना है समय। बहुत हो गया। बॉयोलॉजी की तुम्हारी किताब पड़ी हुई है। इन पाठों को पढ़ो। प्रजनन के बारे में पढ़ो। शुरू करो।

इस अध्याय को जोर से पढ़ा तो मगर मेरी आंखों के सामने तो वह सारा माहौल था जो बार-बार दिख रहा था।

‘कहां खो गई। वह पैराग्राफ फिर पढ़ो’

‘अभी देखा वह सब, वे कुत्ते उन अंग्रेजों को।

‘क्या’।

‘अभी देखा, दल दंपति को यह सब करते हुए।

हम उस सप्ताह के आखिर में लखनऊ नहीं जा सके। बारिश जो बहुत हुई थी। फिर बाढ़ भी आ गई। इसी बारिश में मिस्टर इन की मौत हो गई। तख्त पर ही उनकी मौत हुई। मिसेज इन भी उनसे बहुत दूर नहीं रहीं।

इस बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। वे भी चले गए। और वह भी।

आज फिर कविता को गद्य से आगे आने की ज़रूरत है

पिछले समय के कवियों ने लोगों को संदेश दिए कि वे बोलें खुल कर और इज़हार करें गुस्से का। उन्होंने लिखा अपने समय की उन पीड़ाओं को जो लोग भोग रहे थे।

लोगों में प्रतिरोध के स्वर आज भी हैं, पर इन पर कहीं कोई कविता सुनाई नहीं देती। वे पंक्तियां जो जज़्बातों और भावनाओं से ओतप्रोत हों। कहां है हमारे कवि? कहीं नज़र नहीं आते, कहीं सुनाई नहीं देते, वे तराने जो पूरे वातावरण को ऊर्जावान बना दें और उस अराज़कता पर सीधा प्रहार करें जो धीरे-धीरे पूरी योजना के साथ फैलाई जा रही है।

यदि मैं गलत हूं तो मुझे सही कीजिए पर इतिहास गवाह है कि हमारे काले दिनों में विद्रोही कवियों और शायरों ने विद्रोह के स्वर उभारे और वे सड़कों पर भी उतरे। आज वे कवि और शायर कहां हैं वे लेखक कहां हैं जिनसे लोगों के साथ सड़कों पर उतरने की आस थी?

$खैर, जब तक वे स्वर सुनाई नहीं देते तो बेहतर है कि हम आराम से बैठ कर कै$फी आज़मी, फैज़ अहमद $फैज़, साहिर लुृधियानवी, जोश महलीयावादी, अली सरदार जाफरी को एक बार पढ़ें, बार-बार पढ़ें। असल में इस पूरे सप्ताह मैंने फिर से पढ़ा, ‘एनथम्स ऑफ रजिसटेंस’(इंडिया इंक/रोली बुक्स) को जिसमें दो भाई, अली हुसैन मीर और रज़ मीर पुराने ज़माने की मज़बूत कविताओं और $गज़लों पर काम कर रहे थे।

उनकी ज़बान में, ‘यह किताब कोशिश है उन यादों को सहेज कर रखने की जिन्हें हम जानबूझ कर भूल रहे हैं। इसके साथ ही उन प्रगतिशील कवियों की विरासत को बचाने की, उस काल में जब उनके शब्द, उनकी दृष्टि और राजनीति पूरी तरह सार्थक हैं। यह एक प्रयास है प्रतिरोध की उस उर्जा को फिर से उजागर करने का जो किसी ज़माने में उर्दू साहित्य में आम नज़र आती थी। यह समय था प्रगतिशील लेखक आंदोलन का। इस लिहाज से यह किताब केवल पुरानी यादों को ताज़ा करने से भी आगे, हमारी अपनी राजनैतिक परियोजना है। पर केवल भूतकाल का इतिहास नहीं बल्कि यह तो वर्तमान का इतिहास है या यह फिर इतिहास है भविष्य काल का भी।’

हालांकि मैें कई साल पहले 17 जनवरी 2006 को इस किताब के विमोचन समारोह में मौजूद थी जो जामिया मिलिया नस्लामिया में हुआ था, वहां ये दोनों भाई अमेरिका से आए थे, वहां वे विश्व विद्यालय में प्रोफेसर थे, पर आज जब मैं इसे फिर से पढऩे बैठी हूं ‘एनथम्स ऑफ रिजिसटेंस’ बार-बार मेरे जहन पर प्रहार कर रहे हैं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। शायद इस समय हम उनसे भी ज्य़ादा काले दिनों में जी रहे है।

इसी किताब से लेकर कुछ पंक्तियां यहां लिख रही हूं-

ये कैफी आज़मी की लाइनें हैं:-

कहां तक बिल जब्र मर-मर के जीना

बदलने लगा है अमल का करीना

लहू में है खौलत जबीं पर पसीना

खौलत, जलीं पर पसीना

धड़कती है नसबन, धड़कता है सीना

गरज़-ए-बगावत को तैयार हूं मैं

ये लाइनें हैं $फैज अहमद फैज़ की:-

चश्मनम जान-ए-शोरीदा का$फी नहीं

तोहमत-ए-इश्क पोशीदा का$फी नहीं

आज बाज़ार में पा-बा-जुलान चलो

साहिर लुधियानवी ने कुछ ऐसा लिखा है:-

वो सुबह कभी तो आएगी

इन काली सदियों के सिर से

जब रात का आंचल ढलकेगा

जब दुख के बादल पिघलेंगे

जब सुख का सागर छलकेगा

जब अंबर झूम के नाचेगा

जब धरती नगमें गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

साहिर साहिब की इन पंक्तियों को भी पढ़े:-

मेरे सरकश तरानों की हकीकत है, तो इतनी है,

कि जब मैं देखता हूं, भूख के मरते किसानों को

$गरीबों मुफलिसों को, बेकासों को, बेसहारों को

सिसकती नज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को

तो दिल्ल ताब-ए-निशात-ए-बज़म-ए-इशरत ला नहीं सकता

मैं चाहूं भी तो ख्वाब आवर तराने गा नहीं सकता

इसमें रोचक तथ्य यह है कि पुराने ज़माने के एक के बाद दूसरे शायर ने लोगों से यही कहा है कि वे बोलें, अपनी पीड़ा व्यक्त करें। खामोश न रहें। इस पर पेश हैं साहिर की कुछ पंक्तियां:-

बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है,

जिस्म-ओ-ज़बान की मौत से पहले

बोल, के सच जि़ंदा है अब तक

वो, जो कुछ कहना है कह ले!

इनके साथ ही फैज़ ने अपनी कविता ‘बोल’ में लिखा है:-

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बां अब तक तेरी है

तेरा सुतवां जिस्म है तेरा

बोल, कि जां अब तक तेरी है

देख कि आहन-गर की दुकां में

उंद है शोले, सूर्ख है आहन

खुलने लगे कुफलों के दहाने

फैला हर जंजीर का दामन

बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है

जिस्मों ज़ुबां की मौत से पहले

फैज़ केवल यहां नहीं रु के, बल्कि

इससे आगे भी भावुक हो कर

करते है:-

माता-ए-लहू-ओ कलम छिन गई तो

क्या गम है

कि खून-ए-दिल में डुबां ली है उंगलियां मैंने

ज़ुबां पे मोहर लगी है जो क्या, कि रख दी है

हर इक हलका-ए-ज़ंजीर में ज़ुबां मैंने

आज मैं इंतज़ार में हूं कवियों की उन पंक्तियों को सुनने की जिसमें आज बढ़ रही मुसीबतों और लोगों की पीड़ा की बात हो और आप को छोड़ रही हूं अहमद राही की इन लाइनों के साथ –

मायूसी में उम्र कटी थी, आस ने अंगड़ाई सी ली थी

सोचा था किस्मत बदलेगी, लेकिन हमने धोखा खाया