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बिहार में वोटर लिस्ट संशोधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई गुरुवार को

बंगाल में भी प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी

अंजलि भाटिया
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिविजन (SIR) प्रक्रिया को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 10 जुलाई की तारीख तय की है। यह मामला चुनाव आयोग द्वारा 24 जून को जारी उस निर्देश से जुड़ा है, जिसके तहत बिहार में व्यापक स्तर पर मतदाता सूची की छंटनी और सत्यापन किया जा रहा है। इस प्रक्रिया को बंगाल में भी लागू करने की तैयारी चल रही है, जहां SIR का कार्य अगस्त से शुरू होने की संभावना है।
वरिष्ठ अधिवक्ताओं कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने इस मामले को न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ के समक्ष उठाया और तत्काल सुनवाई की मांग की।
अब तक इस मुद्दे पर चार याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। ये याचिकाएं ADR(एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, और राजद सांसद मनोज झा ने दायर की हैं। उनका तर्क है कि चुनाव आयोग का यह कदम संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 325 और 326 का उल्लंघन करता है, साथ ही जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और वोटर पंजीकरण नियम, 1960 के नियम 21A के भी खिलाफ है।
इन याचिकाओं में आशंका जताई गई है यदि यह आदेश रद्द नहीं हुआ,तो बड़ी संख्या में मतदाता सूची से नाम हटाए जा सकते हैं,करोड़ों मतदाता अपने अधिकार से वंचित हो सकते हैं.
सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने अदालत को बताया कि बिहार में करीब 8 करोड़ मतदाता हैं, और इतने बड़े स्तर पर 25 जुलाई तक संशोधन करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर कोई मतदाता तय समय में फॉर्म नहीं भरता, तो उसका नाम सूची से हट सकता है।
अभिषेक मनु सिंघवी ने याचिका में कहा है कि बिहार से प्राप्त हालिया रिपोर्टें बताती हैं कि लाखों ग्रामीण व वंचित समुदायों के पास वे दस्तावेज़ नहीं हैं, जो SIR के तहत मांगे जा रहे हैं।
इस पर जस्टिस धूलिया ने कहा कि चूंकि चुनाव की अधिसूचना अभी नहीं आई है, इसलिए समयसीमा की वैधता पर विचार किया जा सकता है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने सन्मार्ग को बताया यदि 24 जून को एसआईआर का आदेश रद्द नहीं किया गया, तो करोड़ो वोटर उचित प्रक्रिया के बिना अपने जनप्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार से वंचित हो जाएंगे। यह संविधान के बुनियादी ढांचे और लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है।

बॉक्स– चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि बिहार में एसआईआर प्रक्रिया 24 जून से लागू है और यह नियमित प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य अयोग्य नाम हटाना और योग्य नागरिकों को जोड़ना है। आयोग ने कहा कि 1 अगस्त को जो प्रारंभिक सूची जारी होगी, उसमें उन्हीं के नाम होंगे जिनके फॉर्म प्राप्त हुए हैं।
हालांकि आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि जो लोग 25 जुलाई तक फॉर्म नहीं भर पाएंगे, उन्हें ‘दावे और आपत्ति’ की अवधि में भी मौका मिलेगा।
इस मुद्दे पर बिहार की राजनीति गर्म है। विपक्षी दलों ने सवाल उठाए हैं कि वोटर लिस्ट का विशेष पुनरीक्षण सिर्फ बिहार में क्यों किया जा रहा है, जबकि इस साल वहां चुनाव है।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे दलितों और वंचितों के वोटिंग अधिकार छीनने की साजिश बताया है। उन्होंने कहा कि यह फैसला बीजेपी और आरएसएस की मिलीभगत से लिया गया है।
वहीं, एनडीए गठबंधन ने आरोपों को नकारते हुए कहा कि विपक्ष पहले से ही संभावित हार को देखते हुए सवाल उठा रहा है।

ऑपरेशन सिंदूर: चीन से मिल रही थी पाकिस्तान को लाइव खुफिया जानकारी

सेना का बड़ा खुलासा लेफ्टिनेंट जनरल राहुल सिंह ने कहा – एक सीमा पर दो नहीं, तीन दुश्मनों से निपटना पड़ा

अंजलि भाटिया
नई दिल्ली- भारत के ऑपरेशन ‘सिंदूर’ के दौरान पाकिस्तान को चीन की ओर से रियल-टाइम खुफिया जानकारी दी जा रही थी। भारतीय सेना के डिप्टी चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर. सिंह ने बड़ा खुलासा करते हुए कहा है कि हालिया सीमा संघर्ष में भारत को सिर्फ पाकिस्तान से नहीं, बल्कि चीन और तुर्की से भी एक साथ जूझना पड़ा।ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने पाकिस्तान की हर संभव मदद की थी.
नई दिल्ली में फिक्की द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से जुड़ी अहम जानकारियाँ साझा कीं।
लेफ्टिनेंट जनरल सिंह के अनुसार, “सीमा पर हमारे सामने दो नहीं, तीन शत्रु थे। पाकिस्तान मोर्चे पर था, लेकिन चीन ने उसे हरसंभव सैन्य और खुफिया सहयोग दिया। इतना ही नहीं, चीन ने इस संघर्ष को अपने हथियारों की लाइव परीक्षण प्रयोगशाला बना दिया। उन्होंने बताया कि पाकिस्तान के पास मौजूद 81 प्रतिशत हथियार चीन निर्मित हैं, और चीन ने इन्हीं हथियारों के ज़रिए अपनी मारक क्षमताओं की परख की।
जनरल सिंह ने कहा कि संघर्ष के दौरान जब भारत और पाकिस्तान के बीच डीजीएमओ स्तर की बातचीत चल रही थी, तब चीन ने पाकिस्तान को भारत की सैन्य तैनाती, हथियारों की स्थिति और सैटेलाइट तस्वीरों तक की जानकारी मुहैया कराई। उन्होंने कहा चीन की तरफ से दी गई यह खुफिया जानकारी दर्शाती है कि वह इस संघर्ष में एक सक्रिय साझेदार था।
उन्होंने चेताया कि इस प्रकार की सूचनात्मक सेंध भारत की रणनीतिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है और इस पर भारत को सख्त कदम उठाने की ज़रूरत है। सिर्फ चीन ही नहीं, तुर्की ने भी इस संघर्ष में पाकिस्तान को सहयोग दिया। जनरल सिंह के अनुसार, तुर्की ने न केवल ड्रोन दिए, बल्कि प्रशिक्षित लड़ाके भी भेजे, जिससे मोर्चे पर भारत को बहुस्तरीय चुनौती का सामना करना पड़ा।
लेफ्टिनेंट जनरल ने भारत की वायु रक्षा क्षमताओं को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा, “हमारे पास इजरायल जैसे आयरन डोम सिस्टम जैसी कोई भव्य व्यवस्था नहीं है। हमारा देश बहुत बड़ा है, और ऐसी प्रणालियाँ बेहद महंगी होती हैं। हमें अपनी ज़रूरतों और भूगोल के अनुसार व्यावहारिक समाधान विकसित करने होंगे।
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि कुछ स्वदेशी हथियारों ने बेहतर प्रदर्शन किया, जबकि कुछ हथियार अपेक्षा के अनुरूप नहीं उतरे। साथ ही उन्होंने कहा कि इस बार नागरिक क्षेत्रों की सुरक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया जा सका, जितना दिया जाना चाहिए था। अगली बार यह प्राथमिकता होगी।

रेलवे रिजर्वेशन चार्ट व्यवस्था में बड़ा बदलाव: दोपहर 2 बजे तक की ट्रेनों का चार्ट अब एक दिन पहले बनेगा

अंजलि भाटिया 

नई दिल्ली- भारतीय रेलवे ने लंबी दूरी की ट्रेनों के रिवर्जेशन चार्ट तैयार करने की प्रक्रिया में बड़ा बदलाव किया है। रेलवे बोर्ड की ओर से जारी नए निर्देशों के तहत अब तड़के 5 बजे से दोपहर 2 बजे के बीच प्रस्थान करने वाली ट्रेनों का चार्ट एक दिन पहले रात 9 बजे तक तैयार कर लिया जाएगा।

रेलवे बोर्ड ने बुधवार को इस संबंध में सभी जोनल रेलवे को परिपत्र जारी कर निर्देश दिए हैं कि चरणबद्ध तरीके से नई प्रणाली लागू की जाए। इसके तहत:

सुबह 5 बजे से दोपहर 2 बजे तक चलने वाली लंबी दूरी की ट्रेनों का चार्ट एक दिन पहले रात 9 बजे तक बनेगा।

दोपहर 2 बजे से रात 12 बजे तक, और इसके बाद सुबह 5 बजे तक चलने वाली ट्रेनों का चार्ट ट्रेन के प्रस्थान से 8 घंटे पहले तैयार किया जाएगा।

उदाहरण के तौर पर, यदि कोई ट्रेन दोपहर 2:05 बजे रवाना होती है, तो उसका चार्ट उसी दिन सुबह 6 बजे बनेगा। वहीं, शाम 4 बजे रवाना होने वाली ट्रेन का चार्ट सुबह 8 बजे जारी होगा।

रेलवे सूत्रों के अनुसार, ट्रेन के प्रस्थान से आधा घंटा पहले दूसरा चार्ट भी तैयार किया जाएगा, जिसमें तत्काल या कनफर्म टिकट रद्द होने की स्थिति में प्रतीक्षा सूची वाले यात्रियों को स्थान मिल सकता है।

रेलवे के इस नए चार्टिंग सिस्टम से वीआईपी कोटा और रिवर्जेशन चार्ट तैयार करने वाले कर्मचारियों पर अतिरिक्त भार पड़ेगा। पहले जहां सुबह 8 बजे से रात 12 बजे के बीच चार्ट बनाए जाते थे, अब दोपहर 2 बजे के बाद चलने वाली ट्रेनों के लिए हर ट्रेन के समय से 8 घंटे पहले चार्ट बनाना होगा, जिससे कर्मचारियों को सुबह 6 बजे से ही ड्यूटी करनी पड़ेगी। कुछ डिविजनों में यह व्यवस्था लागू हो चुकी है, बाकी जगहों पर इसे जल्द ही चरणबद्ध तरीके से लागू किया 

बंदरगाहों और समुद्र की हो कड़ी निगरानी

के.रवि (दादा)

अरब सागर के किनारे बसा मुंबई शहर जिनता ख़ूबसूरत है, उतनी ही डरावने अपराध मायानगरी नाम से मशहूर इस शहर में होते हैं। मुंबई में समुद्र के रास्ते से पाकिस्तानी जासूसों, लोगों और आतंकवादियों की घुसपैठ की उड़ती ख़बरें कई बार सामने आयी हैं। साल 2008 में 26-29 नवंबर तक 10 लश्कर-ए-तैयबा के क़रीब 10 आतंकवादियों ने मुंबई में हमला बोला था, जिसमें 164 लोग मारे गये थे और 300 से ज़्यादा लोग घायल हो गये थे। इसके बाद 26/11 के हमले को कौन भूल सकता है, जिसमें एक ज़िन्दा आतंकवादी कसाब पकड़ा गया था। इसके अलावा क़रीब छ: साल पहले भी पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों ने मुंबई में बने बंदरगाह पर हमला किया था। आतंकवादियों के लिए समुद्री रास्ता आसान हो जाता है; क्योंकि समुद्र में चप्पे-चप्पे की निगरानी संभव नहीं है। फिर भी हमारे नेवी के जवान और सीमाओं पर तैनात पुलिस और सेना के जवान समुद्री रास्ते से अवैध घुसपैठ को रोकने में ज़्यादातर कामयाब रहते हैं। पर समुद्री रास्ते से अवैध आयात-निर्यात होने पर रोक लगाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, जिसके चलते ड्रग्स और हथियारों की तस्करी की ख़ुफ़िया जानकारियाँ कई बार सामने आ चुकी हैं।

अब इन अवैध आयात-निर्यात और गलत लोगों के मुंबई में आने को रोकने के लिए राजस्व ख़ुफ़िया निदेशालय ने ऑपरेशन डीप मैनिफेस्ट नाम से एक मुहिम चलायी है। इस मुहिम का मक़सद मुंबई में दुबई, यूएई और पाकिस्तानी मूल के सामान के अवैध रूप से आयात और अवैध लोगों को आने से रोकना है। पिछले कुछ ही दिनों में इस मुहिम के ज़रिये पुलिस ने 39 कंटेनर ज़ब्त करके क़रीब 1,115 मीट्रिक टन अवैध सामान बरामद किया है, जिसकी क़ीमत क़रीब नौ करोड़ रुपये से ज़्यादा है। इस मामले में मुंबई पुलिस ने इंपोर्टिंग फर्म के एक सहयोगी को भी गिरफ़्तार किया है। मुंबई के बंदरगाहों पर अवैध आयात-निर्यात आयात-निर्यात नीति की शर्तों और क़ानूनी प्रतिबंधों का उल्लंघन करके होता है, जिससे बड़े पैमाने पर कालाबाज़ारी को बढ़ावा मिलता है।

बता दें कि अब पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद 02 मई, 2025 को भारत सरकार ने पाकिस्तान से आने वाली वस्तुओं के निर्यात पर व्यापक प्रतिबंध लगा दिया था। ये वस्तुएँ शिपिंग डॉक्यूमेंट्स में हेरफेर करके अवैध तरीक़े से लाखों टन वस्तुएँ हर साल मुंबई के रास्ते देश में भेजी जाती हैं, जिनमें अनुमान यह है कि ड्रग्स बड़ी मात्रा में आती है। गौतम अडाणी के मुंद्रा पोर्ट पर दो साल पहले पकड़ी गयी करोड़ों की क़रीब 3,000 किलो ड्रग्स इसका जीता-जागता उदाहरण है। 

प्रिवेंटिव कमिश्नरेट के हिस्से के रूप में सन् 1970 में स्थापित हुई मुंबई कस्टम्स की रम्मेजिंग एंड इंटेलिजेंस (आर एंड आई) विंग देश की सीमाओं की सुरक्षा और आर्थिक हितों की रक्षा में अहम भूमिका निभाती है। समुद्र में नेवी और पुलिस भी तैनात रहती है। बंदरगाहों पर भी पुलिस और कस्टम विभाग की पैनी नज़रें लगी रहती हैं। पर अवैध आयात-निर्यात फिर भी नहीं रुक पाता है और बहुत कम मामले पकड़ में आते हैं। ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि बंदरगाहों पर नियुक्त कुछ सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्ट हैं और अवैध आयात-निर्यात को बढ़ावा देते हैं। मुंबई के बंदरगाहों के ज़रिये 1960 के दशक के उत्तरार्ध में तस्करी में ख़तरनाक तरीके से बढ़ी थी। अवैध तस्करी से निपटने के लिए सन् 1970 में निवारक आयुक्तालय बनाया गया। पर तस्करी और अवैध आयात-निर्यात पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी। कुछ महीने पहले ही भारतीय नौसेना ने पश्चिमी भारतीय महासागर में 2,500 किलोग्राम से अधिक नशीले पदार्थों को ज़ब्त किया था। भारतीय समुद्रों के तटों पर नशीले पदार्थ पकड़े जाने के कई मामले हर साल आते हैं।

तटीय मार्गों से तस्करी और अवैध आयात-निर्यात को रोकने के लिए देश की व्यापक समुद्री सीमाओं की निगरानी और सुरक्षा के लिए समुद्री और निवारक विंग की स्थापना की गयी थी, जिसे सन् 1970 में निवारक आयुक्तालय में एकीकृत कर दिया गया। आज मुंबई बंदरगाह को 152 साल हो चुके हैं, जिसके ज़रिये हर दिन हज़ारों टन माल आयात-निर्यात होता है। अंग्रेजों ने इस बंदरगाह के ज़रिये भारत को लूटकर ख़ूब सामान और रुपया-पैसा ढोया था। आज तो इतना आधुनिकीकरण हो चुका है कि समुद्र में अंडरग्राउंड सड़क बन रही है। पर समुद्र के रास्ते से होने वाले अवैध आयात-निर्यात और गलत लोगों की घुसपैठ एक चिंताजनक विषय है, जिस पर महाराष्ट्र सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी ध्यान देना चाहिए और समुद्री निगरानी बढ़ानी चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्ति दिवस: “मैं और मेरा थैला”

बृज खंडेलवाल द्वारा

पचास वर्षों का साथ 

मेरे जीवन का एक विश्वस्त साथी रहा है—मेरा झोला। यह कोई साधारण थैला नहीं, बल्कि मेरे व्यक्तित्व, मेरे विचारों और मेरी आदतों का प्रतीक है। पचास वर्षों से यह मेरे साथ रहा है। कभी किताबों से भरा, कभी कागज़ातों से, तो कभी सपनों से। मेरे मित्र स्व. श्रवण कुमार समय-समय पर मुझे नए थैले भेंट करते रहे, जिनमें से हर एक की अपनी एक कहानी थी। दिल्ली के पुराने समाजवादी साथी प्रो. पारस नाथ चौधरी (दरभंगा वाले) तो अपने थैले के साथ ही सोते हैं। वहीं, स्व. कामरेड राम किशोर का झोला ज़माने भर के क्रांतिकारी पेम्प्लेट्स और पर्चों से भरा रहता था। ये झोले सिर्फ़ थैले नहीं थे, बल्कि आत्मनिर्भरता, विचारधारा और परिवर्तन के प्रतीक थे। 

झोला: आज़ादी और स्थिरता का प्रतीक 

झोला या कपड़े का थैला केवल एक सामान रखने की वस्तु नहीं है—यह एक जीवनशैली है। यह उस सोच को दर्शाता है जो प्लास्टिक की गुलामी से मुक्त होकर प्रकृति के साथ तालमेल बिठाती है। जब हमारे पास अपना झोला होता है, तो हमें प्लास्टिक या पॉलीथिन की थैलियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह छोटा-सा कदम पर्यावरण को बचाने की दिशा में एक बड़ा बदलाव ला सकता है। 

प्लास्टिक मुक्ति: एक ज़रूरी संकल्प

आज अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्ति दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम प्लास्टिक बैग्स का उपयोग बंद कर देंगे। प्लास्टिक प्रदूषण आज दुनिया की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। यह न सिर्फ़ हमारी धरती को प्रदूषित कर रहा है, बल्कि समुद्री जीवन, वन्यजीवों और मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक साबित हो रहा है। प्लास्टिक की थैलियाँ सैकड़ों वर्षों तक नष्ट नहीं होतीं और मिट्टी व पानी को जहरीला बना देती हैं। 

कपड़े के थैले: टिकाऊ और स्टाइलिश विकल्प 

कपड़े के थैले न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि ये टिकाऊ और स्टाइलिश भी हैं। आजकल बाज़ार में कई तरह के आकर्षक डिज़ाइनों वाले कपड़े के झोले उपलब्ध हैं, जिन पर प्रेरक संदेश लिखे होते हैं, जैसे— 

– “प्लास्टिक फ्री, दैट्स मी!”

– “कैरी क्लॉथ, सेव अर्थ!”

– “मेरा झोला, मेरी पहचान!” 

ये थैले न सिर्फ़ आपके शॉपिंग एक्सपीरियंस को बेहतर बनाते हैं, बल्कि आपको एक जागरूक नागरिक के रूप में भी पहचान दिलाते हैं। 

एक छोटा कदम, बड़ा बदलाव 

हर व्यक्ति यदि अपने स्तर पर प्लास्टिक बैग्स का उपयोग बंद कर दे, तो इससे बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। आइए, इस दिवस पर हम यह प्रण लें— 

1. हमेशा अपना कपड़े का थैला साथ रखेंगे।

2. दुकानदारों को प्लास्टिक बैग देने से मना करेंगे।

3. अपने परिवार और दोस्तों को भी प्लास्टिक मुक्त जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करेंगे। 

मेरा झोला मेरे लिए सिर्फ़ एक थैला नहीं, बल्कि एक विचारधारा है—सादगी, स्वावलंबन और पर्यावरण संरक्षण की। आप भी अपने जीवन में एक सुंदर-सा झोला अपनाइए, जो न सिर्फ़ आपका सामान संभालेगा, बल्कि प्रकृति के प्रति आपकी ज़िम्मेदारी भी निभाएगा।

दिल के दौरे के लिए कोविड वैक्सीन नहीं जिम्मेदार, अध्ययन में खुलासा

अंजलि भाटिया
नई दिल्ली: देश में पिछले कुछ सालों से अचानक होने वाले हृदय घात या एस्चेमिक हार्ट अटैक के मामले लगातार बढ़ रहे है, जिसको लेकर यह कहा जा रहा था कि कोविड वैक्सीन की वजह से लोगों को अचानक दिल का दौरा पड़ रहा है, लेकिन आईसीएमआर और एम्स के नये अध्ययन में इस बात को सिरे से खारिज कर दिया गया है। अध्ययन के अनुसार कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए लगाई गई कोविड 19 वैक्सीन एस्चेमिक हार्ट अटैक की वजह नहीं है। इसलिए वैक्सीनेशन और हार्ट अटैक का आपस में कोई संबंध नहीं है।
आईसीएमआर, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और नेशनल सेंटर फॉर डिसीस कंट्रोल (एनसीडीसी) द्वारा किए गए संयुक्त अध्ययन में स्पष्ट तौर पर देखा गया कि वैक्सीनेशन बढ़ते हुए हृदयघात की वजह नही है। अध्ययन में यह भी कहा गया कि कोविड संक्रमण से बचाव के लिए देश में किया गया कोविड टीकाकरण पूरी तरह सुरक्षित है, बहुत ही दुर्लभ मामलों में इसके प्रयोग का दुष्रभाव देखा गया, जोकि बहुत कम या न के बराबर हैं। सडन कार्डियक या एस्चेमिक कार्डियक अरेस्ट की कई वजहें हो सकती हैं, जिसमें जेनेटिक, लाइफस्टाइल, पहले की बीमारियां या फिर कोविड संक्रमण के बाद होने वाली परेशानियों को शामिल किया गया है।
आईसीएमआर और एनसीडीसी लंबे समय से इस विषय पर अध्ययन कर रहा था। जिसमें 18 से 45 साल के युवाओं में अचानक होने वाले हार्ट अटैक और मृत्यु की वजहों का बारिकी से अध्ययन किया गया। इस विषय का विस्तृत अध्ययन करने के लिए अध्ययन को दो वर्गों में विभाजित किया गया, जिसमें पहले में हार्ट अटैक के पूर्व के डाटा का विश्लेषण किया गया, जबकि दूसरे क्रम में रियल टाइम इंवेस्टिगेशन किया गया। पहला अध्ययन आईसीएमआर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऐपिडेमेलॉजी द्वारा किया गया, जिसका शीर्षक फैक्टर एसोसिएटेड विद इन एस्पलेंड डेथ अमांग एज 18 टू 45 इन इंडिया रखा गया, यह अध्ययन 19 राज्यों में अगस्त 2023 से 47 विभिन्न प्रादेशीय अस्पतालों में किया गया। देखा गया कि ऐसे युवा जो स्वस्थ थे, उनकी अक्टूबर 2021 से मार्च 2023 के बीच अचानक मृत्यु हो गई। जिनकी अचानक मृत्यु हो गई थी, जबकि वे पहले स्वस्थ थे। इस शोध में यह सामने आया कि इन मौतों के पीछे वैक्सीनेशन नहीं, बल्कि कई अन्य कारक जैसे आनुवंशिक प्रवृत्तियाँ, जीवनशैली संबंधी दोष, पहले से मौजूद बीमारियां, या फिर कोविड संक्रमण के पश्चात उत्पन्न होने वाली जटिलताएं जिम्मेदार थीं। निष्कर्ष में यह पाया गया कि युवाओं की मृत्यु का कोविड वैक्सीनेशन से कोई लेना देना नहीं है, इसलिए युवाओं की मौत की वजह से कोविड19 वैक्सीन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।
दूसरा अध्ययन रियल टाइम पर आधारित था, यह अध्ययन एम्स नई दिल्ली और आईसीएमआर द्वारा किया गया। इसमें अचानक होने वाले हृदयघात की सामान्य वजहों को पहचाना गया, आरंभिक डाटा में पाया गया कि मायकार्डियल इंफ्रेक्शन एमआई को अचानक होने वाली हृदयघात की मुख्य वजह पाया गया। अहम यह रहा कि इस तरह के हृदयघात के सभी मामले लगभग एक जैसे थे, किसी में भी विशेष परिवर्तन नहीं देखा गया। वैज्ञानिकों के अनुसार इस आधार पर कहा जा सकता है कोविड वैक्सीन पूरी तरह सुरक्षित है, हालांकि अध्ययन के फाइनल या अंतिम परिणाम आने अभी बाकी हैं।

समझदारी से घाटे से उबर सकते हैं किसान

योगेश

कुछ दिन पहले बिहार के भागलपुर जिले की मथुरापुर सब्ज़ी मंडी के बाहर सड़क पर एक किसान ने अपनी परवल की सब्ज़ी को लाठी पीटकर ख़राब कर दिया। सब्ज़ी मंडी में अपने परवल बेचने पहुँचा किसान परवल के कम भाव से ग़ुस्से में था। कहा जा रहा है कि व्यापारी परवल का भाव 100 से 200 रुपये कुंतल ही लगा रहे थे, जबकि इससे ज़्यादा किसान का ढुलाई ख़र्च आया था। इसी ग़ुस्से में किसान ने रोत हुए अपनी परवल की सब्ज़ी नष्ट कर डाली। देश में हर साल कई फ़सलों के भाव अच्छे न मिलने पर कई पीड़ित किसान अपनी फ़सलों को खेतों में जोतकर या सड़कों पर फेंककर नष्ट कर देते हैं। किसानों की यह दशा बाज़ार में फैली अव्यवस्था और ज़्यादा व्यापारिक फ़ायदे के लालच से पैदा हुई है, जहाँ किसानों को कभी उचित भाव नहीं मिलता और व्यापारी उनकी फ़सलों पर तगड़ी कमायी कर लेते हैं। सरकार किसानों को अच्छा न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं देना चाहती। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर गारंटी क़ानून भी नहीं बनाना चाहती और सब्ज़ियों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता भी नहीं है। बाज़ार में सब्ज़ियों का सही भाव न मिलने से किसान अक्सर परेशान रहते हैं। जो सब्ज़ी किसानों से 100 रुपये कुंतल सब्ज़ी मंडियों में ख़रीदी जाती है, वही सब्ज़ी मंडी के व्यापारी 1,800 से 2,000 रुपये कुंतल सब्ज़ी विक्रेताओं को बेचते हैं और सब्ज़ी विक्रेता उसी सब्ज़ी को बाज़ार में 40 से 60 रुपये किलो बेचते हैं। किसानों को लूटकर इस तरह बाज़ार की व्यवस्था में उपभोक्ता भी लूटे जाते हैं। इसलिए बाज़ार व्यवस्था में सुधार होना चाहिए।

सरकार को किसानों को इस समस्या से निकलना चाहिए, जिसमें बाज़ार व्यवस्था में सुधार करना चाहिए। लेकिन अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो किसानों के सामने इस समस्या से निकलने के लिए एक दूसरा उपाय है कि वे उन फ़सलों की खेती करें, जिनका बाज़ार में अच्छा भाव मिले। इसके लिए किसानों को अपने खेतों में ज़्यादा लाभ वाली फ़सलें उगानी चाहिए। इसके अलावा किसानों को उन फ़सलों को उगाना चाहिए, जो कम उगायी जा रही हों। भेड़ चाल से फ़सलों को उगाने से किसानों को बहुत नुक़सान होता है। किसानों को अपनी फ़सलों की बुवाई करते समय फ़सल चक्र के अलावा बाज़ार की माँग और फ़सलों की पुरानी और संभावित क़ीमतों को ध्यान में रखना चाहिए। इससे किसानों को अपनी फ़सलों को नष्ट नहीं करना पड़ेगा और उन्हें फ़सल बेचकर लाभ भी मिल सकता है। इसके लिए किसानों को यह देखना चाहिए कि ज़्यादातर किसान कौन-सी फ़सल नहीं बो रहे हैं। जिन फ़सलों को किसान कम बो रहे हैं, उन फ़सलों का बाज़ार में भाव क्या है और बाज़ार में उनकी माँग कितनी है। जब किसान ऐसी फ़सलें उगाएँगे, तो उन्हें बाज़ार में उन फ़सलों का अच्छा भाव मिलेगा, जिससे उन्हें घाटा नहीं होगा। इसके अलावा किसानों को फ़सल चक्र भी अपनाना चाहिए, जिससे उन्हें अच्छी पैदावार मिल सके। बाज़ार में जिन फ़सलों की माँग ज़्यादा होती है, उन फ़सलों की बुवाई करके किसानों को फ़सलों की बिक्री की भी समस्या नहीं रहेगी और उन्हें ख़रीदने वाले ज़्यादा व्यापारी होंगे। इसे कृषि की भाषा में कम जोखिम वाली फ़सलें भी कहते हैं। लेकिन कम जोखिम वाली फ़सलों में दो तरह की फ़सलें आती हैं, जिनमें एक तो वे फ़सलें हैं, जिन्हें पशुओं, कीटों से ज़्यादा नुक़सान नहीं पहुँचता और दूसरी वे फ़सलें हैं, जिन्हें बेचने पर अच्छा भाव मिलता है और उन्हें ख़रीदने के लिए ग्राहक भी अधिक मिलते हैं।

इसके लिए किसानों को फ़सलों को उगाने की सही जानकारी के अलावा फ़सलों के भाव और स्थानीय बाज़ारों में उनकी माँग की सही जानकारी होनी चाहिए, जिसके लिए आजकल इंटरनेट की मदद काफ़ी कारगर साबित हो सकती है। फ़सलों को उगाने के लिए किसानों को मौसम का भी पूर्वानुमान होना चाहिए। किसान ऐसा भी न करें कि जहाँ बोई जाने वाली फ़सलों के अनुकूल मौसम न हो, वहाँ फ़सल बो दें। इसके अलावा अपने खेत की मिट्टी की गुणवत्ता और वातावरण का भी किसान ध्यान रखें। जहाँ किसी फ़सल के योग्य मिट्टी की गुणवत्ता नहीं हो, वहाँ उस फ़सल को नहीं उगाना चाहिए। इसी तरह जहाँ जिन फ़सलों के योग्य मौसम न हो, वहाँ उन्हें नहीं उगाना चाहिए। हालाँकि अब बहुत-से किसान हर फ़सल को उन जगहों पर उगा रहे हैं, जहाँ उन फ़सलों के अनुसार मौसम ही नहीं है। जैसे राजस्थान में निरे रेत वाले क्षेत्रों में खीरा और हरी सब्ज़ियाँ उगायी जा रही हैं। उत्तर भारत में केसर और मेवे उगाये जा रहे हैं। अगर कहीं किसानों को समस्या आये, तो उन्हें कृषि विशेषज्ञों से सलाह लेनी चाहिए।

किसानों को इन सब बातों को तो ध्यान में रखना ही चाहिए। लेकिन उन्हें संभावित घाटे से बचने के लिए लाभ वाली फ़सलों को प्राथमिकता देनी चाहिए। किसानों को ऐसी फ़सलों चुनाव तो आँख बंद करके कर लेना चाहिए, जो हमेशा लाभ देकर जाती हैं। ऐसी फ़सलों में जो फ़सलें जहाँ आसानी से पैदा हो सकती हैं, वहाँ के किसान उन फ़सलों को उगाकर अच्छा लाभ कमा सकते हैं। इन फ़सलों में आम, अमरूद, केला, पपीता, नींबू, कटहल, जामुन, अंगूर, आडू, बुखारा आलू, लीची, संतरा, सेब, मौसमी, अनानास, फाल्से, बेल, नाशपाती, वनीला और विदेशी फल जैसी फ़सलें शामिल हैं, तो सब्ज़ियों में मशरूम, चना, दालें और वे सब्ज़ियाँ जिनकी पैदावार कम और माँग ज़्यादा रहती है। लेकिन फलों वाली फ़सलों में छोटी फ़सलें उगाने से किसान ज़्यादा लाभ कमा सकते हैं। मेवे वाली, औषधि वाली और मसाले वाली फ़सलें उगाकर किसान अच्छा लाभ कमा सकते हैं। इसके अलावा लकड़ी वाले पौधे लगाकर उनके बीच में फ़सल बोकर भी किसान ज़्यादा लाभ कमा सकते हैं। सभी मसाले वाली फ़सलें अच्छा लाभ देती हैं। कम समय में अच्छा लाभ देने वाली फ़सलों में लहसुन, मिर्च, एलोवेरा, तुलसी, मशरूम, आंवला, पपीता, केला, धनिया, पुदीना और मौसमी सब्ज़ियाँ हैं। इन सब्ज़ियों की बिक्री कम होने पर इनसे दवाएँ बनाकर या इनका पाउडर जैल आदि बनाकर पैकिंग करके लाभ कमाया जा सकता है। साल में एक बार लाभ देने वाली फ़सलों में केसर, लौंग, तुलसी, फूल, इलायची, काली मिर्च, हल्दी, अदरक और फल वाली फ़सलें आती हैं। इसके अलावा किसान उन फ़सलों को भी उगाकर ज़्यादा लाभ कमा सकते हैं, जिनकी पैदावार अच्छी होती है। इन फ़सलों में आलू, पालक, मेथी, बथुआ, चुकंदर, गाजर, मूली, अरबी, टमाटर, बैंगन, सेम और वे फ़सलें आती हैं, जो फ़सलें दोहरा लाभ देने वाली होती हैं। किसानों के लिए दालों वाली फ़सलें भी लाभ देने वाली होती हैं।

कई फ़सलें ऐसी हैं, जो किसानों को मालामाल बना सकती हैं। लेकिन किसानों को उन्हें उगाने और बेचने की सही जानकारी होनी चाहिए। इनमें कई फ़सलें कम लागत वाली होती हैं। हालाँकि किसानों को इन फ़सलों को उगाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ सकती है। इसमें सुझाव यह है कि छोटे खेत वाले किसानों को बहुफसली और कम समय में मुनाफ़ा देने वाली फ़सलें ही उगानी चाहिए, जिससे उनकी ज़रूरतें जल्द पूरी होती रहें और लाभ मिलता रहे। छोटे खेत के मालिक किसान जब देर में पैदा होने वाली फ़सलें पैदा करते हैं, तो उन्हें लागत लगाने के लिए क़ज़र् भी लेना पड़ता है और लाभ के लिए ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ता है, जिससे उन्हें अपने परिवार के लालन-पालन में परेशानी आती है। किसानों को ज़्यादातर नक़दी फ़सलें उगानी चाहिए, जिससे उन्हें फ़सल बेचने के दौरन ही नक़द रुपये मिल सकें। उड़द, मसूर, मूँग, अलसी, सौंफ, अजबाइन, भिंडी, मूली, गाजर, शलगम, धनिया, पालक और कुछ सब्ज़ियों वाली फ़सलें ऐसी ही फ़सलें हैं, जो फ़सलों के बीच में भी पैदा हो जाती हैं और कम समय में पैदा हो जाती हैं। इन फ़सलों की बाज़ार में माँग भी अच्छी है और इन्हें बेचने पर नक़द रुपये भी मिलते हैं।

इस तरह खेती करने से किसानों को बाज़ार भाव गिरने का डर भी कम रहता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य की भी चिंता नहीं रहती है। आज के समय में ज़्यादातर किसान कई समस्याओं से जूझ रहे हैं, जिनमें सबसे बड़ी समस्या उनकी ग़रीबी है, जिससे बाहर निकलने की जगह वे क़ज़र् में डूबते जा रहे हैं। ऐसे किसान क़ज़र् से छुटकारे के लिए मज़दूरी करते हैं, खेती रेहन रख देते हैं या खेत बेच देते हैं। कई किसान जब परेशानियों से छुटकारा पाते नहीं देखते हैं, तो आत्महत्या कर लेते हैं। किसानों की इस दशा के लिए जितनी ज़िम्मेदार व्यवस्था है, उतने ही किसान भी ज़िम्मेदार हैं। कम जानकारी, खेती के अनुभव की कमी और क़ज़र् जैसी समस्याएँ किसानों के लिए घातक साबित हो रही हैं। इससे निकलने के लिए किसानों को ख़ुद ही प्रयास करने होंगे। सरकार के भरोसे बैठने से कुछ हाथ नहीं लगेगा।

चुनावी षड्यंत्र

चुनाव आयोग पर लगातार धाँधली करके भाजपा को जिताने के आरोपों के बीच चुनाव आयोग ने मतदान की वीडियो और फोटोज 45 दिन में मिटाने का फ़ैसला लेकर अपने ऊपर चुनावी षड्यंत्र करने का एक और आरोप ख़ुद ही लगा लिया है। क्या चुनाव आयोग सोशल मीडिया पर वायरल चुनावी धाँधली के वीडियो और सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश से डर गया है, जिसमें चुनाव आयोग को किसी भी चुनावी डेटा को डिलीट न करने को कहा गया था?

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश ईवीएम का डेटा सुरक्षित रखने को लेकर था। लेकिन चुनाव आयोग ने वीडियो फुटेज और फोटो डिलीट करने की योजना बनाकर यह साबित कर दिया है कि वह एक पार्टी विशेष को जबरन चुनाव जिताने के रास्ते बंद नहीं करेगा। क्योंकि ईवीएम बदलने और फ़र्ज़ी मतदान के अनेक सुबूत होने के बाद भी न चुनाव आयोग  यह मानने को तैयार है कि चुनावों में धाँधली होती है और न ही निष्पक्षता से चुनाव कराने के लिए अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता पर खरा उतरने को तैयार है।

कई महत्त्वपूर्ण लोगों ने यहाँ तक आरोप लगाये हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में 100 सीटों पर धाँधली करके भाजपा को जिताया गया है। 2019 में भी 16,00,000 ईवीएम के ग़ायब होने के भी दावे किये गये। 2024-25 में हुए कई विधानसभा चुनावों में भी इस तरह की धाँधली करके भाजपा को चुनाव जिताने के आरोप भी चुनाव आयोग पर लगे। हालाँकि कुछ चुनाव विश्लेषकों ने ऐसे आरोपों का खण्डन हमेशा किया है। लेकिन गड़बड़ियों के दावों के साथ कई ऐसे तथ्य सामने आते रहते हैं, जिनके आधार पर यह भी नहीं माना जा सकता कि चुनाव निष्पक्षता से हो रहे हैं। उदाहरण के रूप में हरियाणा चुनाव में कई ईवीएम ऐसी पायी गयीं, जिनकी बैटरी मदतान के बाद भी 75 प्रतिशत से 98 प्रतिशत तक चार्ज निकलीं। ऐसा असंभव है कि ईवीएम की बैटरी पूरे दिन मतदान के बाद कई दिन स्ट्रॉन्ग रूम में रहने पर भी इतनी ज़्यादा चार्ज रह सके। दूसरा चंडीगढ़ मेयर के चुनाव में निर्वाचन अधिकारी की हरकत किसी से छिपी नहीं है। इसके अलावा ज़्यादातर चुनावों में दूसरे कई ऐसे तथ्य और प्रमाण सामने आये हैं, जिनके होते हुए निष्पक्ष चुनाव की बात गले नहीं उतरती। इतने पर भी हर चुनाव में धाँधली के आरोप के बाद यह कहना कि चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और निष्पक्षता के प्रमाण भी सार्वजनिक नहीं किये जाते हैं।

2024 में केंद्र सरकार ने चुनाव संचालन नियम-93(2)(ए) में संशोधन करके वीडियो और फोटो तक जनता की पहुँच को सीमित कर दिया था। अब वीडियो और फोटो 45 दिन में डिलीट करने का चुनाव आयोग का फ़ैसला निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया पर एक कुठाराघात है, जो चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर संदेह को और गहरा करता है। राजनीतिक पार्टियों की चुनावी धाँधली, करोड़ों रुपये का ख़र्च, मतदाताओं को रिझाने के लिए धन, बल, शराब और दूसरे तोहफ़े देने के चलन पर भी चुनाव आयोग कोई रोक नहीं लगाता। अब तो स्थिति यह है कि सत्ताधारी पार्टी की छोटी-छोटी शिकायतों पर भी तुरंत कार्रवाई होती है; लेकिन सत्ता में बैठे नेताओं की गंभीर हरकतों पर भी चुनाव आयोग आँखें मूँद लेता है। विपक्षी पार्टियों की जायज़ शिकायतें भी अनसुनी कर देता है। उनके नामांकन छोटी-छोटी कमियों के बहाने रद्द कर देता है।

विपक्षी पार्टियाँ और लाखों दूसरे लोग कई वर्षों से ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से चुनाव कराने की माँग कर रहे हैं। लेकिन सत्त पक्ष ईवीएम को छोड़ने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है। चुनाव आयोग की भाषा भी सरकार की भाषा बन चुकी है। केंद्रीय चुनाव आयोग को भारत निर्वाचन आयोग भी कहते हैं, जो कि एक स्‍वायत्त संवैधानिक प्राधिकरण है। चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि वह लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव निष्पक्ष कराये। हालाँकि चुनाव आयोग भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव कराने के अलावा राज्‍य सभा से लेकर राष्‍ट्रपति एवं उप-राष्‍ट्रपति के पदों के लिए निर्वाचन प्रक्रिया का संचालन भी करता है। संविधान का अनुच्छेद-324 चुनाव आयोग को आदेश देता है कि वह स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराये। यही उसका कर्तव्य है। लेकिन चुनाव आयोग में अपने पक्ष के अधिकारियों को नियुक्त करके वर्तमान केंद्र सरकार ने यह साबित कर दिया है कि चुनाव उसके हिसाब से ही होंगे, जिसके लिए चुनाव अधिकारी भी अपनी मर्यादा और कर्तव्य भुलकर नियुक्ति का सरकारी अहसान उतारते नज़र आते हैं।

आगामी चार-पाँच महीने में बिहार में विधानसभा होने वाले हैं। इसके बाद 2026 में भी कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। राजनीतिक पार्टियाँ अभी से चुनाव जीतने के लिए अपनी काली कमायी लुटा रही हैं। जो जितना ताक़तवर है, उसके पास उतना ही ज़्यादा पैसा लुटाने के लिए है। चुनाव आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाने का अधिकार भी उसी के पास है। लेकिन चुनाव आयोग को इससे कोई मतलब नहीं। क्या यह एक चुनावी षड्यंत्र नहीं है?

चुनावी प्रचार में अघोषित ख़र्च की अति

बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के सीवान के जसौली में जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि बाबा साहेब आंबेडकर का अपमान करके राजद और कांग्रेस के लोग ख़ुद को उनसे बड़ा दिखाना चाहते हैं। इनके मन में दलित, महादलित, पिछड़े, अति पिछड़े के प्रति कोई सम्मान नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने 5,900 करोड़ की 28 योजनाओं का शिलान्यास, उद्घाटन किया और इसके साथ ही दो नयी रेलगाड़ियों की सौग़ात भी बिहार को दी। ग़ौरतलब है कि कुछ ही महीनों बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस चुनाव में जीत के लिए कई रैलियाँ आयोजित कर चुके हैं और चुनाव होने तक वह ऐसा करते रहेंगे। जसौली में 20 जून की रैली में काफ़ी भीड़ होने का दावा सरकार की ओर से किया जा रहा है और इधर एक वीडियो सोशल मीडिया पर वहाँ कैसे भीड़ को जमा किया गया। इस बाबत वायरल वीडियो में एक रिपोर्टर महिलाओं से भरी बस में उनसे बात करता है, तो महिलाएँ बताती हैं कि वे गोपालगंज की आँगनबाड़ी सेविकाएँ हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें आदेश मिला है कि सारी आँगनबाड़ी सेविकाएँ आम पब्लिक बनकर इस रैली में जाएँगीं। अपनी वर्दी में नहीं जाएँगी। वहाँ उन्हें आम भीड़ का हिस्सा बनना है।’

इन महिलाओं ने अपने नाम तक बताये और एक ऐसी सच्चाई फिर से सामने रख दी कि राजनीतिक दल चाहे वह सत्ताधारी हों या विपक्षी रैलियों व अन्य कार्यक्रमों में भीड़ को इकट्ठी करने के लिए क्या-क्या तरीक़े अपनाते हैं। यहाँ पर एक सवाल यह भी उठता है कि भाजपा व उसका प्रचार तंत्र प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के बखान करने में कोई क़सर नहीं छोड़ता, तो अगर यह सच है, तो भीड़ तो ख़ुद ही जुटनी चाहिए। सरकारी आदेश, सरकारी तंत्र का इस्तेमाल इस काम के लिए करना उस लोकप्रियता के दावों पर सवाल तो खड़े करता ही है। दरअसल, खुली ज़मीन पर राजनीतिक रैलियों के लिए भीड़ जुटाने के ज़रिये अपनी राजनीतिक ताक़त का प्रदर्शन करना आसान काम नहीं है। गाँवों और क़स्बों से अपने घरों से लोगों को रैली स्थल तक लाना बाएँ हाथ का काम नहीं है।

ग़ौरतलब है कि राजनीतिक दल रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए अक्सर कई तरीक़े अपनाते हैं। इसमें सम्बन्धित राजनीतिक दल के कार्यकर्ता, राज्य स्तर व ज़िला स्तर के दल पदाधिकारियों का बैठकों के ज़रिये लोगों से संपर्क साधना, मुफ़्त परिवहन व भोजन की व्यवस्था आदि करना। यही नहीं, वे लोग भीड़ इकट्ठी करने का काम करने वाली एजेंसियों की भी सेवाएँ लेते हैं और उन्हें इसके बदले मोटी रक़म दी जाती है। ऐसी एजेंसियों का जाल देशभर में फैला हुआ है। उनके काम करने के अपने तरीक़े हैं, जैसे मज़दूर चौकों से मज़दूरों को उनकी दिहाड़ी देकर रैलियों में ले जाना। ऐसे मोहल्लों से संपर्क साधना, जहाँ लोग पैसे के बदले रैलियों में चले जाते हैं।

ध्यान देने वाली बात यह है कि जो लोग भीड़ का हिस्सा बनते हैं, वे उसी राजनीतिक दल को अपना वोट भी डालें ज़रूरी नहीं। वे अगले हफ़्ते किसी और राजनीतिक दल की रैली में भी देखे जा सकते हैं। वैसे 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिस तरह से डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल चुनाव के लिए किया, वह ब्रेनवाश का नया तरीक़ा है। फोन में भेजे गये संदेशों और सोशल मीडिया पर नेताओं के संदेशों की क्लिप ने तो चुनाव के प्रचार को जो गति प्रदान की है, वब हैरतअंगेज़ है। पर इस डिजिटल प्रचार की तेज़ रफ़्तार में क्या सही है, क्या गलत है; इसकी परख करने का न तो वक़्त है और न ही कोई इसके लिए तैयार दिखता है। हाँ, एक ऐसा वर्ग है, जो इसके बीच के फ़र्क़ को समझता है और लोगों को भी सचेत करने की कोशिश में लगा हुआ है। भीड़ जुटाने वाला पारंपरिक मीडिया व सोशल मीडिया दोनों ही राजनीतिक दलों के लिए अपना-अपना काम करते हैं। यह अलग बात है कि पारंपरिक मीडिया की तुलना में सोशल मीडिया राजनीतिक विचारों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर सकता है और भारत जैसे विशाल देश की 146 करोड़ से ज़्यादा की आबादी तक जल्द व आसानी से पहुँचा देता है। यही नहीं, देश के बाहर भी राजनीतिक राय को किसी के पक्ष व विपक्ष में बनाने में अहम है।

एक अनुमान है कि अगले साल 2026 तक भारत में अंदाज़ा एक अरब लोगों के पास स्मार्ट फोन होंगे, ऐसी सूरत में राजनीतिक रैलियाँ और भीड़तंत्र का रिश्ते में और क्या बदलाव आ सकते हैं, इस पर नज़र रहेगी। पर यहाँ भारत के संदर्भ में अभी भी राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक दलों के स्टार नेताओं की खुले मैदानों में रैलियाँ करने के लिए लाखों-करोड़ों तक ख़र्च करते हैं। बेशक चुनाव प्रचार की लागत बढ़ रही है, चुनावी ख़र्चों पर अधिक-से-अधिक पारदर्शिता वाला मुद्दा भी उठता रहता है; लेकिन भीड़ जुटाने के लिए किये गये बहुत सारे ख़र्चे, भुगतान अक्सर अघोषित होते हैं। वे चुनावी ख़र्चों के अधिकृत ब्योरों से बाहर रहते हैं।

देश में होने वाले हादसों की ज़िम्मेदारी किसकी?

पिछले दिनों अहमदाबाद में जिस प्रकार से एयर इंडिया की फ्लाइट का भयंकर हादसे के बाद गृहमंत्री अमित शाह ने बड़ी आसानी से कह दिया कि यह एक्सीडेंट है, एक्सीडेंट को कोई रोक नहीं सकता। लेकिन जिस तरह यह हादसा हुआ, उससे कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। सवाल इसलिए भी कि इस प्रकार का हादसा होना नामुमकिन जैसा लगता है और इसलिए भी सवाल उठते हैं कि ऐसे दर्दनाक हादसे जब देश में होते हैं, तो उसकी ज़िम्मेदारी कोई मंत्री या सरकार क्यों नहीं लेती? चाहे वो फ्लाइट हादसा हो, चाहे ट्रेन हादसा हो, चाहे सड़क हादसा हो या फिर चाहे पानी में हुआ कोई बड़ा हादसा हो। सवाल ये भी है कि जब अपनी जेब से एक भी पैसा ख़र्च किये बिना किसी शिलान्यास से लेकर उद्घाटन तक का श्रेय मंत्री और सरकार लेती है, तो किसी हादसे की ज़िम्मेदारी आख़िर मंत्री या सरकार क्यों नहीं लेते?

हद तो तब हो जाती है, जब सरकारी काम को उन पार्टियों के नेता भी चुनावों में भुनाते हैं, जिनकी पार्टी की सरकार में कोई छोटे-से-छोटा भी काम हुआ होता है। जबकि सरकार के पास जो भी पैसा होता है, वो जनता की मेहनत की कमायी में से दिये गये टैक्स का होता है। लेकिन ज़रा-से शिलान्यास पर भी मंत्री, बल्कि आजकल तो सीधे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का नाम लिखा जाता है और फोटो छपवा दिया जाता है। ज़रा-ज़रा से काम के प्रचार के लिए बड़े-बड़े पोस्टर, बैनर और होर्डिंग लगाये जाते हैं। लेकिन जब कोई दर्दनाक हादसा होता है, तो एक चुप्पी साध ली जाती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। जिन कामों का श्रेय लिया जाता है, उन्हीं कामों में कोई ख़राबी या हादसे के बाद कोई सामने नहीं आता। मसलन, कई पुल, सड़कें और निर्माण उद्घाटन के बाद ही ढह जाते हैं, तो उसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली जाती है।

दरअसल, अहमदाबाद के सरदार वल्लभभाई पटेल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ा एयर इंडिया का एआई-171 नंबर का बोइंग 787-8 ड्रीमलाइनर जहाज़ मेघानी नगर में सिविल हॉस्पिटल के मेडिकल हॉस्टल से टकराया, उसकी रोंगटे खड़े कर देने वाले वीडियो केंद्र सरकार को याद दिलाते रहेंगे कि ऐसे हादसे आख़िर कब तक होते रहेंगे और सरकार को सवालों के घेरे में रखेंगे, भले ही केंद्र सरकार इस तरफ़ ध्यान दे या न दे। झकझोरने वाले अहमदाबाद में हुए इस जहाज़ हादसे में उठे सवालों में पहला सवाल तो यह है कि जब जहाज़ तक़रीबन 12 साल पुराना बताया जाता है और उसका इंजन हादसे से तीन महीने पहले ही बदला गया था, फिर यह हादसा कैसे हो गया? और दूसरा सवाल यह है कि दोनों इंजन फेल कैसे हो गये? तीसरा सवाल यह है कि हादसे की जाँच के लिए मुख्य जाँचकर्ता की नियुक्ति में देरी क्यों की गयी? चौथा बड़ा सवाल यह है कि जब ब्लैक बॉक्स मिल गया, तो उसका डेटा निकालने और उसकी जाँच में हीलाहवाली का क्या मतलब है? पाँचवाँ बड़ा सवाल यह है कि जब जहाज़ में ख़राबी आयी और पायलट ने मदद माँगी, तो मदद क्यों नहीं मिल सकी या मदद का मौक़ा क्यों नहीं मिला? सवाल तो और भी हैं; लेकिन यह कहना होगा कि इतनी जल्दी हवाई जहाज़ का हादसा होना किसी के गले नहीं उतर रहा है।

हालाँकि कुछ रिपोर्ट्स से यह पता चला है कि जहाज़ पुराना था और उसमें कई ख़ामियाँ थीं। अगर ऐसा था, तो फिर बिना रिपेयरिंग किये उसकी उड़ान जारी क्यों रखी गयी? कहा जा रहा है कि एयर इंडिया के इस जहाज़ की डिटेल मेंटेनेंस जाँच जून, 2023 में भी की गयी थी और इस साल यानी 2025 के दिसंबर महीने में इसकी अगली डिटेल मेंटेनेंस जाँच होनी थी।

अक्सर देखा जाता है कि जिन मशीनों की क़ीमत ज़्यादा होती है। उनके चलने में रिस्क ज़्यादा होता है और उनकी मेंटेनेंस पर न सिर्फ़ ज़्यादा ख़र्च किया जाता है, बल्कि उनकी निगरानी भी ज़्यादा करनी पड़ती है। फ्लाइट यानी हवाई जहाज़ की यात्रा भी बहुत जोखिम भरी होती है, जिसके चलते उसकी जाँच, मेंटेनेंस, निगरानी और हर ज़रूरी दिशा-निर्देश का ख़याल रखना होता है। जब कोई जहाज़ रनवे से उड़ान भरने वाला होता है, तो उससे दो-ढाई घंटे पहले ही उसकी फिटनेस चेक होती है, जिससे अगर उसमें कोई कमी हो, तो उसे दूर किया जा सके और उसमें यात्रा करने वाले सही सलामत अपने गंतव्य तक पहुँच सकें। अहमदाबाद में भी एयर इंडिया के इस जहाज़ की फिटनेस जाँच ज़रूर हुई होगी, तो फिर ऐसा हादसा क्यों हुआ, जिसमें अभी तक 275 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की गयी है; जबकि अंदेशा है कि मारे गये लोगों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा हो सकती है।

बहरहाल, हमने देखा है कि सरकार डीजल की साल पुरानी और पेट्रोल की 15 साल पुरानी गाड़ियों को हटाने का काम करती है। तो क्या इसी प्रकार जहाज़ों के चलने की भी कोई समय सीमा निर्धारित है? या उन्हें भी पुरानी ट्रेनों की तरह लगातार इस्तेमाल में लाया जाता है? या जिन पेट्रोल और डीजल की गाड़ियों को लोग अपनी मेहनत की कमायी से जैसे-तैसे पैसा जोड़कर ख़रीदते हैं, सिर्फ़ उन्हीं पर ही यह फार्मूला लागू है? यहाँ पर एक बहुत बड़ा सवाल यह है कि पुरानी गाड़ियाँ सड़क पर नहीं चल सकतीं; लेकिन पुराने हवाई जहाज़ों को आकाश में उड़ाया जाता है। पुरानी ट्रेनों और सरकारी बसों को पटरी और सड़कों पर दौड़ाया जाता है। क्या केंद्र सरकार की यह दोहरी नीति नहीं है, जो जताती है कि सरकार किस प्रकार से बड़ी-बड़ी कम्पनियों के फ़ायदे के लिए दबाव में या पार्टी को मिलने वाले चंदे के चक्कर में अपने एजेंडे को साधती है और इस प्रकार के क़ानून बनाती है, जिससे आम आदमी, जिसमें मध्यम वर्ग सबसे ज़्यादा प्रताड़ित है, उसकी जेब से लगातार पैसा निकलता रहे और वहीं अमीर यानी पूँजीपतियों की जेब में और सरकार के ख़ज़ाने में उन्हीं घिसी-पिटी मशीनों या वाहनों से लगातार पैसा आता रहे, वो भी तब जब हवाई जहाज़ से लेकर ट्रेनों और सरकारी बसों का किराया लगातार बढ़ाया जाता है और उस पर भी टैक्स लिया जाता है।

अभी हाल ही में हमारे बीएसएफ के 1,200 जवानों को जिस प्रकार से त्रिपुरा से अमरनाथ में ड्यूटी पर जाने के लिए एकदम ख़राब हालत वाली ट्रेन मुहैया करायी गयी थी, जबकि नेताओं के लिए बेहतर-से-बेहतर ट्रेन में फर्स्ट क्लास यात्रा मुफ़्त दी जाती है। क्या वाहनों के चलने की अवधि और भेदभाव वाले ऐसे क़ानूनों में परिवर्तन करने की गंभीर ज़रूरत नहीं है? और ऊपर से जब कोई हादसा होता है, तो केंद्र सरकार के जवाबदेही वाले मंत्री न सवालों के जवाब देते हैं और न कोई ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं। जबकि एक समय था कि किसी भी हादसे पर मंत्री अपना इस्तीफ़ा खुद दे दिया करते थे। आज कोई नेता या मंत्री इस्तीफ़ा नहीं देता, क्योंकि इस्तीफ़ा अब अपनी ग़लती मानकर शर्मसार होने का प्रतीक नहीं, हार मानने का प्रतीक बना दिया गया है। सत्ताधारी वर्ग छवि प्रबंधन यानी इमेज मैनेजमेंट में माहिर हो गया है। सत्ता अब मीडिया, सोशल मीडिया और पेड नैरेटिव्स से चलती है, जवाबदेही से नहीं। आख़िर जवाबदेही अब सिस्टम का हिस्सा क्यों नहीं रही?

यह केवल एक आलेख नहीं, बल्कि एक आत्मिक दस्तावेज़ है और एक ऐसी सच्चाई का आईना है, जिसे आमतौर पर या तो नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है या फिर सत्ता के शोरगुल या दूसरे बड़े मुद्दे को उठाकर दबा दिया जाता है। अब हर त्रासदी या हादसे के बाद मृतकों के सही और आधिकारिक आँकड़े सामने नहीं आते। या यह कहा जाता है कि हादसे को कौन रोक सकता है। इसका मतलब यह है कि मौतें सिर्फ़ गढ़ी हुई ख़बरों की तरह अख़बारी शब्दों में समेटी या छुपाई गयी मनगढ़ंत संख्या बन चुकी हैं, जिन्हें कहीं ऊपर से मैनेज किया जाता है कि मौतों के आँकड़े कितने देने हैं और धीरे-धीरे देने हैं। और यह चलन बन गया है कि कहीं भी चाहे हादसा किसी भी प्रकार का हो, अगर ग़लती अपनी सरकार में हुई है, तो उस पर बेशर्मी से अपनी ग़लती छुपाने या ज़िम्मेदारी से भागने के लिए लीपापोती करनी है और जनता को गुमराह रखना है।

दरअसल, जब किसी पार्टी और उसके नेताओं का लक्ष्य सिर्फ़ चुनाव जीतना ही हो, तो जवाबदेही एक बोझ लगने लगती है। इसलिए ऐसी पार्टियों की सरकारों में न इस्तीफ़े होते हैं, न माफ़ी माँगी जाती है; सिर्फ़ पीआर कैंपेन्स चलती हैं। क्योंकि हमें भावनाओं से बाँध दिया गया है। अगर सवाल पूछे या सरकार या किसी मंत्री पर उँगली उठायी, तो देशद्रोही का टैग लगा देना अब आम बात हो चुकी है। पार्टियों और सरकारों के लिए यह इसलिए आसान हो चुका है, क्योंकि हम राष्ट्र भक्ति, राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र रक्षा, धर्म, संस्कृति को अपना सर्वस्व मानते हैं और जातीयता की ज़ंजीरों में हमें जकड़कर रखा गया है। और मनोविज्ञान कहता है कि इंसान, ख़ासतौर पर आम इंसान जिन चीज़ों को दिल की गहराइयों से मानता है, जिनकी आड़ में उसे आसानी से भावुक और ब्लैकमेल किया जा सकता है। और अगर कोई फिर भी एक जागरूक नागरिक है और सवाल करता है, तो उसे राष्ट्र, धर्म और संस्कृति जैसे मार्मिक शब्दों के ख़िलाफ़ बताकर देशद्रोही, धर्मद्रोही, असभ्य और दुश्मन देश का नागरिक बता दो, जिससे वह सवाल करने की जगह अपने बचाव में लग जाए।

यही वजह है कि आज ज़्यादातर लोग सवाल नहीं करते और जो सवाल करते हैं, उन्हें देशद्रोही या धर्मद्रोही, पाकिस्तानी या असभ्य बताकर बुनियादी सवालों से दूर होने को मजबूर कर दो। फिर भी कोई न माने, तो उसे पीट दो, उसकी हत्या करा दो या उसके ऊपर संगीन मामलों के तहत रिपोर्ट दर्ज कराकर झूठे मुक़दमों में फँसा दो या जेल भेज दो। आख़िर यह सब हो क्या रहा है? क्या किसी हादसे या कमी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? यह पूछना गुनाह है? नहीं; यह लोकतंत्र की आत्मा है, जिसे ज़िन्दा रखना बहुत ज़रूरी है। वर्ना वो दिन दूर नहीं, जब आम आदमी ग़ुलामी की ज़ंजीरों में उसी तरह जकड़ा नज़र आएगा, जिस तरह अंग्रेजों ने हमें जकड़ा था।

इसलिए मेरा मानना है कि लोग भावनाओं में बहकर नहीं, बल्कि सरकारों और नेताओं के कामकाज पर ध्यान केंद्रित करें। वर्ना हादसे होंगे, अत्याचार होगा, अपराध होंगे और जवाब देने वाला कोई नहीं होगा। क्योंकि लोकतंत्र में जब जनता सो जाती है, तब सत्ता मनमानी करने लगती है। विपक्ष का भी असली काम सरकार से जवाब माँगना है और चुप रहना एक अपराध है और लोकतंत्र की हत्या में एक मूक सहमति है। अगर सरकार विपक्षियों की नहीं सुनती है, तो उन्हें चाहिए कि वे हर समस्या को आन्दोलन में बदल दें, ताकि सरकार किसी भी मामले से भागे नहीं, बल्कि मजबूर होकर सही; लेकिन ज़िम्मेदार बने।

अब सवाल यह है कि अप्रैल में एअर इंडिया ने बोइंग 787-8 ड्रीमलाइनर के लिए बीमा कवर 750 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 850 करोड़ रुपये कर दिया गया था और अहमदाबाद में हुए इस जहाज़ हादसे के बाद टाटा ग्रुप को इस जहाज़ के हादसे में ख़त्म हो जाने के बदले तक़रीबन 3,000 करोड़ रुपये इंश्योरेंस कम्पनी को भरने पड़ सकते हैं, जो कि अब तक का सबसे बड़ा इंश्योरेंस क्लेम होगा। कहा जा रहा है कि इस क्लेम से एविएशन इंश्योरेंस सेक्टर में भूचाल आ सकता है। लेकिन उनका क्या, जिनकी जान चली जाती है या जो किसी हादसे में अपाहिज हो जाते हैं या बुरी तरह चोटिल हो जाते हैं और अपने इलाज में लाखों रुपये ख़र्च करने को मजबूर होते हैं।

अहमदाबाद के जहाज़ हादसे में भी मरने वालों के परिजनों को और उस हॉस्टल में मौज़ूद मरने वालों के परिजनों को कुछ ख़ास नहीं मिलेगा। इसमें तो मिलेगा भी; लेकिन सड़क और रेल हादसों में हमेशा के लिए हैंडीकैप होने या चोटिल होने पर हादसे के शिकार लोगों को और मारे गये ज़्यादातर लोगों के परिजनों को कोई मुआवज़ा तक नहीं मिलता।

आज देश में हर साल तक़रीबन पाँच लाख से ज़्यादा बड़े सड़क हादसे होते हैं, जिनमें तक़रीबन दो लाख लोग मारे जाते हैं और तक़रीबन तीन लाख से ज़्यादा लोग गंभीर रूप से घायल होते हैं। इसी तरह ट्रेन हादसे में मारे गये बहुत से लोगों की गिनती इसलिए नहीं होती, क्योंकि वो जनरल या रिजर्वेशन कंफर्म न होने पर यात्रा करते हैं।

रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ़ केंद्र की मोदी सरकार में साल 2014 से साल 2024 तक देश भर में 641 ट्रेन हादसे हो चुके हैं; लेकिन कोई बड़ी ज़िम्मेदारी अभी तक मौज़ूदा सरकार के ज़िम्मेदार रेल मंत्री या प्रधानमंत्री ने अपने सिर पर लेते हुए इस्तीफ़ा देने की बात तो दूर, माफ़ी तक नहीं माँगी है। इसी तरह देश में कई विमान हादसे भी हो चुके हैं; लेकिन सभी में सिर्फ़ जाँच का दिलासा मिल जाता है, ज़िम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं होता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)