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सुप्रीम कोर्ट ने आरबीआई के सर्कुलर को असंवैधानिक करार दिया।

पावर, जहाजरानी, चीनी और अन्य कपंनियों के लिए एक बड़ी राहत के रूप में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी कंपनियों के संबंध में 12 फरवरी 2018 को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए गए सर्कुलर को असंवैधानिक करार देते हुए इसे अल्ट्रवाइरस कहा (किसी भी कानूनी शक्ति या अधिकार से परे)।

शीर्ष अदालत ने फैसला दिया कि ”हमने पाया है कि आरबीआई का 12 फरवरी का सर्कुलर अल्ट्रा वाइरस है।’’ आरबीआई सर्कुलर ने बैंको को दोषी कंपनियों को दिवालिया घोषित करने का आदेश दिया था। न्यायाधीश आरएफ नरीमन और विनीत सरन सहित दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कहा कि 12 फरवरी 2018 के सर्कुलर को जारी करने में आरबीआई ने अपनी शक्तियों, अधिकारों से बाहर काम किया है। नरीमन ने कहा, ”हमने आरबीआई के सर्कुलर को अल्ट्रा वाइरस घोषित किया है।’’

आरबीआई ने बैंको को निर्देश दिया था कि वे दोषी कपंनियों जिनके खातों में बकाया ऋण राशि 2000 करोड़ से अधिक है और अगर वे 180 दिन के अंदर कोई ऋण समाधान योजना लाने में विफल रहती हैं तो उनको दिवालिया कोटे में लाएं।

यह सर्कुलर आरबीआई और नार्थ ब्लाक के बीच सार्वजनिक झगड़े का एक कारण था जिसमें आखिरकार आरबीआई के गर्वनर उर्जित पटेल को हटा दिया गया। हालांकि आरबीआई के स्थान को उसके नेतृत्व परिवर्तन के साथ नहीं बदला गया।

आरबीआई के गर्वनर शक्तिकांत दास ने भी फरवरी के सर्कुलर को कम करने से इंकार कर दिया था। इसे सकारात्मक और उद्योग सर्मथन फैसला बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील दीपक भट्टाचार्य ने कहा, यह एक नियामक की कानूनी सीमाएं निर्धारित करता है जैसा कि इसे करना चाहिए।

न्यायाधीश आरएफ नरीमन और न्यायाधीश विनीत सरन की पीठ ने निर्णय सुनाया। भुगतान की गलती के कारण 75 से अधिक कपंनिया दिवालिया कार्रवाई का सामना कर रही थी।

एस्सार पावर, जीएमआर एनर्जी, केएसके एनर्जी, रतन इंडिया पावर, एसोसिएशन ऑफ पावर प्रोड्यूसर्स (एपीपी) और इंडिपेंडेंट पावर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईपीपीएआई) ने आरबीआई के सर्कुलर की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने के लिए पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।

सुुप्रीम कोर्ट के आदेश ने कई दोषी कॉरपोरेट को राहत की सांस दी जिसे वे तलाश रहे थे। इसने उन्हें एक निश्चित समय सीमा में निर्धारित दिवालिया प्रक्रिया से कुछ समय के लिए बचा लिया है। इस आदेश से सर्कुलर के तहत पहले से ही दिवालिया कोर्ट में पेश किए जा चुके मामलों को भी नया जीवन मिला है। इसी समय बैंक अब कई दोषी कपनियों विशेष रूप से पावर कंपनियों के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए स्वतंत्र होंगे जिन्हें सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के कारण रोक दिया गया था।

अनेक कपंनियों जैसे कि जीएमआर एनर्जी लिमिटेड, रतन इंडिया पावर लिमिटेड, टैक्सटाइल कंपनी, एसोसिएशन ऑफ पावर प्रोड्यूसर्स, इंडिपेंडेंट पावर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया , शूगर मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन ऑफ तमिलनाडु और गुजरात से शिप बिल्डिंग एसोसिएशन ने अलग-अलग अदालतों में आरबीआई के 12 फरवरी के सर्कुलर को चुनौती दी थी।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल सितंबर में उस सर्कुलर पर रोक लगा दी थी जिसमें बंैकों को निर्देश दिया गया था कि यदि वह 2000 करोड़ रुपए से अधिक के किसी भी लोन अकाउंट की रिपोर्ट इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड के तहत कर सकता है जिसे डिफॉल्ट के 180 दिनों के भीतर हल नहीं किया गया है।

इस संपत्ति को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में ले जाया जाएगा ताकि दोषी कंपनी के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई शुरू की जा सके।

हालांकि सर्कुलर ने उन कंपनियों के बीच विचार नहीं किया जिन्होंने खराब प्रबंधन और जिन लोगों ने एनपीए को चुनौती दी थी ।

जाली प्रचार की खुली पोल!

चुनाव प्रचार का तापमान अब भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के चुनावी प्रचार के चलते खासी ऊंचाई पर पहुंच गया है। वित्तमंत्री अरूण जेटली ने 21 मार्च को अपने ब्लॉग पर लिखा है कि ,”मैं लगातार यह मानता रहा हूं कि सच और गलती में जो मूलभूत अंतर होता है’। वह यह है कि सच आपस में जुड़ा रहता है जबकि झूठ बिखर जाता है। ‘कंपल्सियन कंट्रेरियंस’ की ओर एक समय में जो भी जाली प्रचार हुए उससे सच का ही बोलबाला हुआ। यह मतदाताओं का फैसला है या फिर न्यायिक तौर तरीका जिससे फैसला आया।

यूपीए मंत्री और नेताओं ने हिंदू आतंक की एक नई थ्योरी गढ़ी थी। उसे कंपल्सिन कंट्रेरियंस ने अपना लिया। जेहादी आतंक से ध्यान बंटाने की यह चाल है। यह एक साजिश थी जिसके तहत भारत के बहुसंख्यक समुदाय को बदनाम करने की चाल चली गई। आतंकवाद पर हिंदुओं को भी बराबरी पर रखा गया। हिंदू संस्कृति में तो आतंक की कोई जगह नहीं है। हम दुनिया भर में उन कुछ कामयाब देशों मे हैं जिन्होंने आतंक और देश के कई हिस्सो में विद्रोह पर काबू पाया। इसमें एक भी भारतीय न तो मारा गया और न कहीं धमाके के प्रयास में मारा गया या सीमा पार आतंकवादी हिंसा में गिरफ्तार ही हुआ।

जबकि यूपीए की शासन व्यवस्था में एक प्रयास किया गया था ‘हिंदू आतंक’ गढऩे का। इस अकेले प्रयास में एक वास्तविक आतंकवादी गिरफ्तार किया गया। सरकार में जब इस पूरे मामले में राय-मश्विरा हुआ तो एक आरोप पत्र बनाया गया जिसमें हिंदू समुदाय से जुड़े हुए लोगों के खिलाफ-आरोप बने। पिछली जांच से मिले तथ्यों के ठीक विपरीत थी यह प्रक्रिया। समझौता एक्सप्रेस धमाके की जांच में अमेरिकी विदेश विभाग और संयुक्त राष्ट्रसंघ तक ने अपनी जांच में यही संकेत दिया था कि कोई जेहादी संगठन और कुछ लोग 2007 में पानीपत में हुए धमाकों के लिए जिम्मेदार हंै। लेकिन तब की सरकार ने इसे ‘हिंदू साजिश’ करार दिया था। अदालत को अभी कल के फैसले से न्यायिक तौर पर ‘तथाकथित हिंदू आतंक’ की थ्योरी खारिज हो गई है।

 2002 में गोधरा ट्रेन में आग

गोधरा में 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी एक प्रयास था राज्य में सामाजिक और संप्रदायिक तनाव बढ़ाने का। इस मामले के आरोपियों की पहचान हो गई है। अच्छा खासा प्रमाण भी मिल गया है। जो आरोपी थे उन्हें अलग-अलग समय पर गिरफ्तार किया गया। उन पर आरोप पत्र दाखिल हुआ। उनकी जमानत के आवेदन खारिज हो गए वे भी सुप्रीम कोर्ट में और कल ट्रायल कोर्ट ने उन्हें सज़ा भी दे दी।

बहुतेरे ‘कप्लसिव कंट्रेरियंस’ जिन्होंने अपना करियर गुजरात में सामाजिक तनाव बढ़ा कर ही बनाया है वे यह कहने लगे कि यह आगजनी या तो अपने आप लगी या फिर उसमें राज्य या फिर कार-सेवकों का हाथ है।

यूपीए सरकार के दौर में रेल मंत्रालय लालू प्रसाद यादव के जिम्मे था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से बिना राय-बात किए ही सुप्रीम कोर्ट के ही सेवानिवृत जस्टिस यूएन बनर्जी को रेलवे जांच का कमिश्नर नियुक्त कर दिया। जज ने भी फिर सरकार और उसकी राजनीतिक रूचि का सम्मान किया। एक रपट जमा की गई जिसमें बताया गया कि भीड़ ने कोई आगजनी नहीं की थी। आग डिब्बे के अंदर ही लगी थी जहंा हिंदू तीर्थयात्री थे। मैं मानता हूं कि एक अपराध को ढांपने की यह यूपीए सरकार पर पर लगा एक धब्बा था। इसके लिए तब की सरकार और उसके प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं। इस रिपोर्ट में साक्ष्यों तक अभाव है इसलिए उसका कोई महत्व नहीं। कल ट्रायल कोर्ट ने तमाम प्रमाणों की पड़ताल के आधार पर एक और आरोपी को सज़ा दी है।

नीरव मोदी की गिरफ्तारी

बैंकों से नीरव मोदी की धोखाधड़ी का पता केंद्र में भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में पता लगा। हालांकि वह 2011 से ही सरकारी उपक्रमों के बैंकों को चूना लगा रहा था। अब वह विदेश भाग निकला। भारत सरकार के अनुरोध पर ब्रिटेन की स्कॉटलैंड यार्ड की पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया।

भारत में नीरव की अचल संपत्ति पर सरकारी कब्जा है। कुछ को नीलाम करके बैंक की ‘रिकवरी’ की कोशिश हो रही है। भारतीय जांच एजेसियां अपने कायदे -कानून के बरक्स छानबीन और कार्रवाई कर रही हैं। भारत सरकार को उम्मीद है कि देर-सवेर नीरव को भारत के हवाले ब्रिटिश सरकार कर देगी फिर अगली कार्रवाई होगी।

हमारे अनुरोध पर उसे गिरफ्तार किया गया उसे जमानत भी नहीं मिली। यह कहना गलत है कि वर्तमान सरकार उसका पक्ष ले रही है। गलत मुद्दों पर भरोसा करना उचित नहीं है।

अरूण जटेली ने अलग पोस्ट में लिखा है कि प्रिंट मीडिया पारंपरिक तरीके ही अपनाती है। हर खबर जो संवाददाता लाता है उसकी सत्यता की पुष्टि होनी चाहिए। पूरी सावधानी ज़रूरी है। दस्तावेज देखे जाने चाहिए। वैकल्पिक स्त्रोतों को टटोलना चाहिए। जबकि टेलीविजन ने यह परंपरा तोड़ी है। वहां टीआरपी पाने की जुगत में हर खबर खास न्यूज हो जाती है। सोशल मीडिया तो इन सब बातों को मानता तक नहीं। मानहानि एक अधिकार है और जिसे निशाना बनाया जा रहा है उसके सम्मान की कोई अहमियत नहीं। यदि किसी भी भाषण का एक हिस्सा प्रकाशन के लायक है तो सम्मान और इज्जत के साथ रहना भी जीवन का अधिकार है। दोनों ही जन्मसिद्ध अधिकार हैं।

गलत से मुकाबले के प्रयोग

गलत से मुकाबला करने की एक कोशिश गोधारा ट्रेन कांड में हुई थी। ‘आग अंदर ही लगी’ मूर्ख बनाया। इशरत जहां के मामले में जहां लश्कर-ए-तोएबा की साजिश को खुफिया विभाग ने नाकाम किया और सुरक्षा एंजेसियां कामयाब हुई। लेकिन आज जो गलत खबरों का सिलसिला है वह पीछे लगा रहा। उनका प्रचार जारी रहा। इसी तरह विजय माल्या और नीरव मोदी के मामले में। राफेल भी वैसा ही है। लेकिन राफेल और नीरव की कजऱ् माफी का हंगामा आज के दिनों के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। जेटली ने लिखा है कि निजी तौर पर वे बहुत ही दुखी हैं जब वे देखते हैं कि मीडिया का एक घराना राफेल की तुलना बोफोर्स जांच से कर रहा है।

 गलत बयानी से जालसाजी तक

मीडिया रपट से यह स्पष्ट है कि राजनीतिकों और दूसरे लोगों जिनके पास इतनी नकदी है जो वे बांटते रहते हैं। उनके खिलाफ ‘काला धन’ के तहत प्रचार किया जा रहा है। मीडिया में ही खबरों में आया कि कांग्रेस के एक नेता के पास इस संबंध में एक डायरी में पूरा ब्यौरा मिला है। इस डायरी में कांग्रेस पार्टी के परिवार को भी दूसरों की तरह पैसे मिले।

एक दूसरे कांग्रेसी के यहां कई स्थानों पर पड़े छापे में और भी जानकारियां सामने आई। मीडिया रपट के अनुसार उसका बैंक में खाता भी देखा गया। सीबीडीटी बयान के अनुसार अलग-अलग कागजों में लिखा ब्यौरा एक कांगे्रस नेता ने ही दिया था। जिसे बीएस येदुरप्पा की डायरी बता दिया गया। येदुरप्पा ने अपना आपा नहीं खोया और सब कुछ सही बता दिया। उन्होंने अपनी लिखावट और हस्ताक्षर भी अधिकारियों को छानबीन के लिए सौंपे। कांग्रेस नेता ने अब खुद को उन दस्तावेजों से निकाल लिया है। वह अब उस दस्तावेज की सच्चाई के बारे में कोई पुष्टि भी नहीं कर रहे हैं।

इन दस्तावेजों पर अब आरोप है कि ये कांग्रेस पार्टी और उसके नेता की ओर से की गई जालसाजी ही है। जिसे बीएस येदुरप्पा की डायरी की फोटा प्रति बता कर प्रचारित किया गया।

गलतबयानी और जालसाजी चुनावों को प्रभावित नहीं करती। मतदाता राजनीतिकों से ज़्यादा बुद्धिमान होते हैं। अरुण जेटली पूछते हैं, क्या कांग्रेस पार्टी अपनी विरासत के अनुरूप करम कर रही है? उन्होंने कहा, हमेशा वे यह मानते रहे हैं कि ‘डायनेस्टी’ परिवारवाद वाली राजनीतिक पार्टियां तीन दशकों से दुर्भाग्य की शिकार हुई हैं। फिर इस विचारधारा की बुनियाद कांग्रेस ने रखी थी। परिवारों ने हमेशा सांगठनिक ढांचे बर्बाद किए हैं। वे कभी प्रतिभाशाली नेताओं या ज़्यादा लोगों को पार्टी से नहीं जोड़ पाते। परिवार वाली पार्टियों में जहां लोकतांत्रिक ढांचा खत्म हो जाता है तो जब परिवार खत्म होता है तो परिवार के साथ भीड़ ही खड़ी दिखती है। चौधरी चरण सिंह ने सही लिखा था” दुनिया भर में पार्टियां नेता चुनती हैं। भारत में नेता ही पार्टियां बनाते हैं। जहां भी नेता जाते हैं। उनके साथ पार्टी भी चलती है।’

पारिवारिक पार्टियों में सबसे बड़ी एक कमी होती है। यदि आज की पीढ़ी ज़्यादा प्रतियोगी, करिश्माई है, और उसका भरोसा तो परिवार में ज़्यादा जीतें हासिल करना होता है। ऐसे नेता के पीछे पार्टी खड़ी रहती है। लेकिन यदि वर्तमान पीढ़ी करिश्माई नहीं है, लोगों का भरोसा नहीं जीत पाती है तो परिवार के साथ खड़ा जनसमूह निराश भी होता है। यही आज हाल है आज कांग्रेस का।

 कांग्रेस

पिछले पांच साल से कांग्रेस सत्ता से बाहर है। इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं को दफ्तर में ही रहने की आदत है। वे एक दूसरे की हार के अंदेशे में ही डरे रहते हैं। वे अपने राजनीतिक सलाहकारों पर भी यकीन नहीं करते। लेकिन कुछ जो गैर-पारंपरिक है वे कांग्रेसी नेताओं से भी अलग हैं। चूंकि किसी भी मुद्दे पर नेता ही बोल सकता है इसलिए भविष्यवाणी करने की संभावना भी बनी रहती है।

जो कांग्रेसी नेताओं को करीब से जानते हैं वे उन बयानों को बाहर सुनाते हैं। कुछ उदाहरण देखें ‘मैं क्या कर सकता हूं। वह सुनता भी नहीं’, ’24 मई के बाद तो हमारी राजनीति शुरू होगी।’, ‘मेरी इच्छा तो इस्तीफा देने की होती है।’’

‘हमारी चुनावी योजना पिछड़ रही है। अंकल बेग आ जाते तो संभल लेते’’।

”हमें 2024 की तैयारी करनी चाहिए’’।

ये संवाद बताते हैं कि परिवार की एक पीढ़ी हताश है।

भारत में तीन पार्टियां हैं जो गैर परिवारदवाद की कही जाती हैं। पिछले कुछ दशकों में भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी सरीखे नेता दिए। जब वामपंथी दलों में नई पीढ़ी ने कमान संभाली तो उसमें प्रकाश करात और सीताराम येचुरी नजऱ आए। लेकिन उनका प्रभाव सीमित है। हालांकि उनका दशकों का अनुभव और वैचारिक सोच है। फिर है जनता दल (युनाइटेड) यह भी गैर परिवारवादी पार्टी है। इसमें नीतीश कुमार बतौर मुख्यमंत्री तीसरी अवधि पूरी करेंगे। उनकी ही यह काबिलियत है कि उन्होंने बिहार में शासन की संस्कृति बदली।

नेेता जब अपनी क्षमता को गलत आंकते हैं

परिवार हमेशा नेता थोपते हैं। ये नेता कभी महान नहीं होते। महानता उन पर थोपी जाती है। अपनी क्षमता का सही आकलन न कर पाने के कारण उनके अंदर खुद को महान समझने की एक आदत पड़ जाती है। इससे दूसरे लोगों का वे ठीक आकलन कभी नहीं कर पाते। यही स्थिति आज कांग्रेस पार्टी में जान पड़ती है।

उम्मीदवारों की छानबीन

भाजपा की पहली सूची में दुबारा चुनाव लडऩे जा रहे उम्मीदवारों में 150 लोग हैं। इनमें 128 सांसद हैं। दूसरे 146 उम्मीदवार नए हैं। उनमें 34 ऐसे हैं जिन्होंने 2014 में (ज़्यादातर आंध्र में) चुनाव नहीं लड़ा। काफी सांसद ऐसे है जो दुबारा चुनाव नहीं लड़ेंगे। इनमें भी पांच सीटें जनता दल (यू) को बिहार में दी गई हे। इनमें एक सीट है जहां उपचुनाव नहीं हुआ था जब भोला सिंह की मौत हो गई थी। कुछ करिश्माई नेता लालकृष्एा आडवाणी, बंदारु दत्तात्रेय, कार्यामुडा और शांता कुमार चुनाव मैदान में नहीं है। अपनी इच्छा से उमा भारती और सुषमा स्वराज भी इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगी।

भाजपा ने कई वर्तमान सांसदों को फिर बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक में उतारा है। जिन स्थानों पर भाजपा ने 2014 में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया उन्हें बदला गया।

उधर कांग्रेस ने ज़्यादातर नए चेहरे उतारे हैं। इसमें 150 नए प्रत्याशी मनोनीत किए है। इनमें वे 11 सीटें भी हैं जहंा 2014 में इन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। सिर्फ 68 कांग्रेसी उम्मीदवार जो 2014 में उम्मीदवार थे वे चुनाव लड़ रहे हैं इनमें 22 सांसद हैं। आठ सांसद बाहर हैं जिनमें केबी थामस और केसी वेणुगोपाल केरल के है। और मौसम नूर पश्चिम बंगाल से हैं। कांग्रेस ने आंध्र, केरल, महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में काफी नए चेहरे उतारे हैं।

महिलाओं के लिए स्थान

महिला प्रतिनिधत्व के मामले में दोनों ही पार्टियों ने ंगभीरता से काम नहीं किया। भाजपा ने 2014 में 38 महिला उम्मीदवारों (सभी प्रत्याशियों में 8.9 फीसद) को उतारा। जबकि कांग्रेस ने 60 महिलाओं को (सभी प्र्रत्याशियों का 12.9 फीसद) चुनाव क्षेत्र में उतारा।

भाजपा अब तक 36 टिकट महिला उम्मीदवारों को दे सकी है। जबकि कांग्रेस इस बार पिछड़ी है। इसने 26 टिकट दिए हैं।

मुस्लिम उम्मीदवार

कांग्रेस ने मुस्लिम उम्मीदवारों को 32 टिकट दिए थे। जबकि भाजपा ने सात को ही स्थान दिया। अब तक कांग्रेस ने 18 मुस्लिम उम्मीदवारों को स्थान दिया है। इनमें उत्तरप्रदेश (आठ) आंध्र (चार) बंगाल (तीन)। जबकि भाजपा ने पहले मुस्लिम उम्मीदवारों को ही टिकट दिए हैं। इनमें कश्मीर (तीन) आंध्र, बंगाल और लक्षद्वीप में एक ही है।

प्रचार कार्य में आगे है भाजपा

चुनाव एकदम करीब आ गए हैं। भारतीय जनता पार्टी बड़ी तेजी से विभिन्न माध्यमों से चुनाव प्रचार में लगी है। भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास कार्यो पर विशेष फोकस कर रही है।

कांग्रेस का प्रचार

भाजपा के मुकाबले कांग्रेस अपने पारंपरिक तरीके से चुनाव प्रचार कर रही है। कांग्रेस गरीबी हटाओ पर प्रमुखता देगी। बेरोजग़ारी, नोटबंदी, जीएसटी आदि इसके खास मुद्दे हैं।

मुकाबला रोचक है।

भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां चुनाव मैदान में हैं। भाजपा खासे मुकाबले में हैं। विपक्षी दलों चुनाव से पहले ‘महागठबंधन’ नहीं कर सकें। इसका लाभ भाजपा को होगा। भाजपा के साथ महागठबंधन में 29 पार्टियां हैं। इसका लाभ मिलेगा। कांग्रेस के साथ सिर्फ 17 पार्टियां हैं जिनका मकसद मोदी को परास्त करना है।

डाक्टर शौरी की हत्या पर उठते सवाल

पंजाब के स्वास्थ्य विभाग में जोनल लाइसेंसिंग अथॉरिटी के पद पर तैनात डॉ. नेहा शौरी की हत्या क्या पंजाब में बडे स्तर पर फैल रहे ड्रग माफिय़ा द्वारा करवाई गई है? क्या डॉ. नेहा शौरी की हत्या कर खुद को भी गोली मारने वाला बलविंदर सिंह मात्र मोहरा था? क्या कोई व्यक्ति दस साल पहले दवाईयों की दुकान पर मारे गए छापे का बदला लेने के लिए इतने वर्षों तक इंतज़ार करता है? क्या इतना लंबा इंतज़ार करने के बाद भी हत्यारा सरेआम दिन दिहाडे सरकारी कार्यालय में सरकारी अधिकारी को गोली मारने की जुर्रत कर सकता है? क्या हत्यारा अपने बचाव हेतु कोई भी योजना नहीं बनाएगा? यहाँ देसी कट्टा 20-25 हज़ार में आसानी से उपलब्ध है, वहाँ क्या हत्यारा पहले अपने असली नाम और पत्ते पर आर्म लाइसेंस बनवाता है और फिर प्वाइंट 32 बोर का रिवाल्वर खऱीद कर बक़ायदा अपने आर्म लाइसेंस में रिवाल्वर की एंट्री करवाता है? आर्म लाइसेंस, हथियार की खऱीद और फिर आर्म लाइसेंस में हथियार की एंट्री उस समय होती है, जब देश में चुनाव आचार संहिता लग चुकी हो? क्या कोई हत्यारा रिवाल्वर की पेमेंट अपने बैंक आकाउंट से आरटीजीएस करके करता है? आत्महत्या के लिए क्या कोई व्यक्ति पहले अपनी छाती पर गोली मारने के बाद फिर उसी समय अपने माथे के बीचोबीच रिवाल्वर रखकर गोली मार सकता है? क्या स्वास्थ्य विभाग में चल रहे व्यापक भष्ट्राचार में फि़ट नहीं बैठ रही थी डॉ. नेहा शौरी? क्यों कोई डॉ. शौरी का खरड से किसी दूर दराज़ के क्षेत्र में तबादला करवाना चाहता था? क्यों कोई अधिकारी चंडीगढ जैसे सुंदर शहर को छोड़कर खरड में डॉ. शौरी की जगह लगना चाहता था? पिछले कुछ दिनों से डॉ. नेहा शौरी परेशान क्यों चल रही थी और परेशानी का कारण क्या था?

ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, जोकि इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं, कि डॉ. शौरी की हत्या मात्र दस वर्ष पहले मारे गए एक छापे और उसके बाद दवाईयों की दुकान का लाइसेंस ख़त्म करने तक संबंधित नहीं हैं, बल्कि वह किसी बड़ी साजि़श का शिकार हुई हैं। इन सभी प्रश्नों के उत्तर तभी मिल पाएँगे, जब कोई जाँच एजेंसी इस मामले की गहराई में जाएगी।

29 मार्च, 2019 , दिन शुक्रवार को दिन के लगभग 11:40 बजे डॉ. शौरी की बलविंदर सिंह ने उस समय गोलियां मार कर हत्या कर दी, जब वह अपने खरड स्थित कार्यालय में अपनी चार वर्षीय भांजी को फल काटकर खिला रही थी। हत्यारे ने पहले डॉ. शौरी को होली की मुबारकें दी और फिर अपने बैग से रिवाल्वर निकालकर एक के बाद एक कई फ़ायर कर दिए। जिस कारण डॉ. शौरी की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। हालाँकि बलविंदर ने डॉ. शौरी की चार वर्ष की भांजी को कुछ नहीं कहा। वारदात को अंजाम देने के बाद बलविंदर ने वहाँ से भागने का प्रयास किया, परन्तु मौक़े पर गोलियों की आवाज़ सुनकर उक्त कार्यालय में काम करने वाले अन्य कर्मियों और वहाँ किसी न किसी काम से आए लोगों ने हत्यारे को कार्यालय की पार्किंग में घेर लिया। अपने आपको घिरा देखकर बलविंदर सिंह ने अपने बचाव में किसी अन्य व्यक्ति पर कोई फ़ायर न कर स्वंय को ही दो गोलियाँ मार कर आत्महत्या कर ली। हत्यारे ने पहली गोली अपनी छाती में मारी, फिर उसी समय दूसरी गोली अपने मथ्थे के बिलकुल बीचोंबीच मारी। हत्यारे ने भी घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया।

डॉ शौरी और बलविंदर सिंह का शव पीजीआई चंडीगढ़ से खरड़ सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए लाया गया। बलविंदर के शव का पोस्टमार्टम कर रहे डॉ. धर्मिंदर सिंह ने बताया कि उसके शरीर से दो गोलियां बरामद हुईं हैं। पहली गोली जो माथे में लगी थी, वह उसकी गर्दन के पिछले हिस्से में से बरामद हुई। दूसरी गोली जो उसने सीने पर रखकर चलाई थी, वह उसकी पीठ में से बरामद हुई है।

पुलिस ने कहा कि डॉ. शौरी खरड़ में दवा-खाद्य रासायनिक प्रयोगशाला में तैनात थीं और वह मोहाली-रोपड़ जिलों के लाइसेंस का काम संभालती थी। मोरिंडा के रहने वाले हत्यारे बलविंदर सिंह मोरिंडा में ही दवाईयों की दुकान चलाता था और वर्ष 2009 में डॉ. शौरी ने उसकी दुकान पर छापा मारा था और वहां से कथित रूप से नशीली दवाएं बरामद की थीं। इसके बाद डॉ. शौरी ने उसकी दुकान का लाइसेंस रद्द कर दिया था। इस वारदात में मज़ेदार बात यह है कि 29 मार्च को बलविंदर ने डॉ. शौरी की हत्या की थी, जबकि वारदात से ठीक एक दिन पहले 28 मार्च को उसे कुराली स्थित चौधरी अस्पताल से गंभीर लापरवाही के चलते नौकरी से निकाल दिया था। बलविंदर ने पिछले साल अक्तूबर में यह अस्पताल ज्वाइन किया था और उसकी लापरवाही के कारण एक 50 वर्षीय महिला की पीजीआई में मौत हो गई थी। अस्पताल के मालिक डॉ. रजिंद्र सिंह ने बताया कि जांच के बाद बलविंदर सिंह को 27 मार्च को अस्पताल में पूछताछ के लिए बुलाया था परंतु वह नहीं आया, जिस कारण उसे 28 मार्च को उसे नौकरी से निकाल दिया था।  डॉ. राजिंदर सिंह का यह भी कहना है कि बलविंदर को अंडर परफॉर्मेंस के चलते हटाया गया था। बलविंदर सिंह की बीएएमएस की डिग्री की वैधता को लेकर उठ रहे सवाल पर डॉ. राजिंदर सिंह का कहना था कि उसकी डिग्री पंजाब आयुर्वेद विभाग के पास रजिस्टर्ड थी।

बलविंदर सिंह के साले हरजीत सिंह ने बताया कि घर में परिवार के किसी भी सदस्य को इस बारे में भनक तक नहीं थी। बलविंदर सिंह के रिवाल्वर का लाइसेंस लेने व रिवाल्वर खरीदने के बारे में परिवार के सदस्य पूरी तरह अनजान हैं। हरजीत ने बताया कि 2009 में बलविंदर सिंह की दवाइयों की दुकान बंद होने के बाद उसने कुछ समय मोहाली में एक प्राइवेट अस्पताल में नौकरी की। फिर अपना काम शुरु किया, परन्तु वह चला नहीं। हरजीत के मुताबिक, बलविंदर आजकल कुराली के एक प्राइवेट अस्पताल में रात की शिट की नौकरी कर रहा था। दिन में आकर वह घर में सो जाता था और घर के सदस्यों से भी ज्य़ादा बातचीत नहीं करता था। बलविंदर की दो बेटियाँ हैं, एक बेटी विदेश में डाक्टरी की शिक्षा ग्रहण कर रही है, जबकि दूसरी बेटी बलविंदर के साथ ही रहती थी।

इस हत्याकांड की जांच सबसे पहले एसपी सिटी हरविंदर सिंह विर्क की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय विशेष जाँच दल को दी गई। इस टीम ने जाँच अभी शुरु ही की थी कि आईजी रोड वी नीरजा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय नए जाँच दल का गठन कर दिया गया। नए जाँच दल ने डॉ. शौरी के पति वरुण मोंगा सहित लगभग 100 व्यक्तियों से पूछताछ की है, परन्तु अब वरुण मोंगा और अन्य परिवारजनों इस मामले में सीबीआई जाँच की माँग शुरु कर दी है। डॉ. शौरी हत्याकांड की अब तक की जांच से परिवार निराश है। डॉ. नेहा के पिता कैप्टन केके शौरी ने जांच पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाए हैं। वे मामले की निष्पक्ष जांच के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के लिए पीएमओ के संपर्क में हैं। उन्होंने मामले में हाईपावर कमेटी और सीबीआई जांच की मांग की है। कैप्टन शौरी का आरोप है कि जांच करते हुए तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। वह पीएमओ से संपर्क बनाए हुए हैं। सेना के पूर्व अधिकारी व कैप्टन केके शौरी प्रधानमंत्री से मिलकर पंजाब सरकार की उस लापरवाही का मुद्दा उठाना चाहते हैं, जिसके चलते नेहा की हत्या हुई है। उन्होंने बताया कि इसमें सेना के कई पूर्व अधिकारी उनका सहयोग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री की चुनावी व्यस्तता के कारण फिलहाल उन्हें समय नहीं मिल सका है। लेकिन मामले में लापरवाही कहां हुई यह तभी सामने आ सकता है, जब हाईपावर कमेटी और सीबीआई समानांतर जांच करें। दूसरी ओर डॉ. शौरी हत्याकांड का संज्ञान लेते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय ने पंजाब के राज्यपाल को मामले में अगली कार्रवाई के लिए कहा है। ड्यूटी के दौरान हुई सरकारी अधिकारी की हत्या को पीएमओ ने गंभीरता से लिया है। अगले कुछ दिन में डॉ. नेहा का परिवार गवर्नर से मिलकर अपना पक्ष रखेगा।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मास्युटिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (नाइपर) के अधिकारियों ने बताया कि डॉ. शौरी ने एलुमनी बैच 2004 में नाइपर काउंसलिंग के माध्यम से एडमीशन लिया था। काउंसलिंग के दौरान वह 8 वें स्थान पर थी और पूरे भारत में उसका रैंक 472 था। दिसंबर 2015 में डॉ. शौरी का विवाह पंचकूला सेक्टर 6 निवासी वरुण मोंगा के साथ हुआ था। वरुण प्राईवेट कंपनी में नौकरी करते हैं। डॉ. शौरी की एक दो वर्ष की बेटी भी है।

पंजाब के खरड़ में ऑफिस में घुसकर महिला ड्रग्स लाइसेसिंग अधिकारी  की गोली मारकर हत्या के बाद से लोगों में काफी गुस्सा है। अपराध के बढ़ते स्तर को देखते हुए इससे जुड़े दूसरे अधिकारी भी डरे हुए हैं। ऐसे में ‘ऑल इंडिया ड्रग कंट्रोल ऑफिसर कॉन्फडरेशन’ (एआईसीओसी) ने राज्य सरकार और केंद्र सरकार को पत्र लिखकर तत्काल उनकी सुरक्षा बढ़ाने को कहा है। कॉन्फडरेशन के डायरेक्टर जनरल एस. डब्लू देशपांडे ने कहा कि यह पहली बार नहीं है, जब किसीअधिकारी  इस तरह हत्या की गई है। इसके पहले दिल्ली और उसके पहले उत्तर प्रदेश में भी अधिकारियों की हत्या की जा चुकी है। अपराधियों के इस तरह बढ़ते मनोबल से काम करना मुश्किल हो रहा है। मुंबई में तो सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद होने के कारण हमें उतना डर नहीं महसूस होता है, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में स्थिति चिंताजनक है। नकली दवाओं की बढ़ते बाजार के कारण इस तरह की समस्याएं बढ़ रही हैं। इसके खिलाफ काम करने वालों में डर बढ़ता जा रहा है और लोग अपनी सुरक्षा को लेकर असहज महसूस कर रहे हैं।

एआईसीओसी के अध्यक्ष जयंता चौधरी ने कहा कि वर्तमान स्थिति को देख हर अधिकारी डर के साए में काम कर रहा है। ऐसे में हमने राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को पत्र लिखकर तत्काल रूप से ड्रग्स अधिकारियों की सुरक्षा बढऩे की मांग की है। बता दें कि देशभर में इस संस्था से तकरीबन 3 हजार लोग जुड़े हैं।

पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री ब्रह्मा मोहिदरा डॉ. शौरी  के निवास पर पहुंचे और उन्होंने परिवार से दुख व्यक्त किया। ब्रह्मा मोहिदरा ने कहा कि मामले में जांच जारी है। साथ ही परिवार जिस भी एंगल पर जांच के लिए कहेगा, की जाएगी। नेहा के पति वरुण मोंगा ने कहा कि भले ही हत्यारे बलविदर ने सुसाइड कर लिया हो, परंतु इस पूरे प्रकरण में ड्रग माफिया का हाथ लगता है। साथ ही उन्होंने पुलिस पर भी सवाल खड़े किए कि जब चुनाव आचार संहिता लग चुकी थी, तो हत्यारे के रिवॉल्वर का लाइसेंस कैसे बनाया गया? उन्होंने कहा कि 10 साल बाद रंजिश निकालना समझ से परे है ! स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि स्वास्थ्य विभाग और पंजाब सरकार ने एक होनहार अधिकारी खो दिया है। हम मामले में उच्च स्तरीय जांच करवा रहे हैं और यदि कोई और भी इस मामले में दोषी है, तो उसे बख्शा नहीं जाएगा। वहीं, प्रदेश के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पुलिस महानिदेशक दिनकर गुप्ता को महिला अधिकारी नेहा शौरी की हत्या के मामले की जांच शीघ्र संपन्न करने का निर्देश दिया है.

पंजाब के मुय चुनाव अधिकारी डॉ. करुणा राजु ने हत्यारे को चुनाव आचार संहिता लागु होने के बाद लाइसेंस और हथियार जारी होने के मामले में जाँच के आदेश दिए हैं। उन्होंने बताया कि पंजाब में लोकसभा चुनाव-2019 निष्पक्ष और शांतिपूर्ण कराने की तैयारियां चल रही हैं। आचार संहिता लागू होने के बाद उन्होंने सभी जिला उपायुक्तों और एसएसपी को लाइसेंसी हथियार जमा कराने को निर्देश जारी करने के बाद करीब 2.8 लाख हथियार जमा हो चुके हैं। इसमें से 2.04 लाख हथियार दिसंबर में हुए पंचायती चुनाव में ही जमा हो गए थे।  सरकार और नेशनल डेटाबेस ऑफ आर्म्स लाइसेंस (एनडीएएल) के आंकड़ों के मुताबिक 3.61 लाख लाइसेंसी हथियार हैं। यानी सूबे के हर 10वें घर में एक हथियार है। चूंकि पंजाब हर दिन शूटिंग (गोलीबारी) की 7 मामले सामने आ रहे हैं। ऐसे में हथियार जमा कराने के बाद लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिस की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। उन्होंने बताया कि गृह मंत्रालय द्वारा सभी हथियार लाइसेंसधारकों (नए या पुराने दोनों) के लिए एक हथियार लाइसेंस प्रणाली बनाई गई है इसके अंतर्गत राष्ट्रीय हथियार डेटाबेस बनाया गया है। इस प्रणाली में हथियार धारक को एक यूनिक पहचान संया (यूआईएन) भी जारी की जाएगी। इस पहल के पीछे सरकार का मकसद यह है कि सरकार जानना चाहती है कि देश में किस-किस व्यक्ति के पास किस-किस प्रकार के हथियार हैं। शस्त्र नियम में संशोधन होने से ऐसे व्यक्तियों को हथियार लाइसेंस मिलने की संभावना खत्म हो जाएगी जिनके पूर्वजों का ट्रैक रिकॉर्ड ठीक नहीं है।

आसान नहीं डगर भाजपा की

लोकसभा के लिए चुनावों के अंतिम परिणाम 23 मई को आने के साथ इस समय उपलब्ध सभी संकेत बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने 2014 के प्रदर्शन को दोहराने में असमर्थ है क्योंकि इसने विशेष रूप से काले धन के उन्मूलन, हर साल दो करोड़ नौकरियों का सृजन, किसानों की समस्याओं को दूर करने, राम मंदिर निर्माण आदि के बारे में अपने वादों को पूरा नहीं किया। दूसरी ओर लोगों के सामाजिक-आर्थिक संकटों को बढ़ाने में नोटबंदी और जीएसटी के अधूरे और कठिन कार्यान्वयन ने मोदी सरकार के प्रति लोगों के मोह को तोड़ा है और लोगों ने दिसबंर 2018 में तीन प्रमुख राज्यों -छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भाजपा के खिलाफ मतदान करके अपने असंतोष को जाहिर किया है।

पतन की ओर

तीन राज्यों में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के निष्कासन के बाद जनवरी में हुए चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में ऐसे उभार सामने आए हैं जिसमें केंद्र में सत्ता बरकरार रखने के लिए पर्याप्त संख्या जुटाने में भाजपा की असमर्थता की भविष्यवाणी की गई है। विपक्षी एकता के प्रयासों ने कर्नाटक में मई 2018 में जद(एस) और कांग्रेस के गठबंधन के नेतृत्व वाली सरकार की स्थापना के बाद गति पकडऩा शुरू कर दिया था हालांकि भाजपा शायद ही कभी इस विकास को लेकर चिंतित थी।

उत्तरपद्रेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के एक साथ आने और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा गैर -भाजपा राजनीतिक दलों को एक साथ लाने के प्रयासों और इस साल जनवरी में कोलकत्ता में विपक्षी रैली ने भाजपा को कुछ कमजोर किया, हालांकि उन्होंने घबराहट को प्रदर्शित नहीं किया। इस साल फरवरी के दूसरे सप्ताह तक हुए चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में से अधिकांश ने आगामी चुनावों में भाजपा की घटती लोकप्रियता की भविष्यवाणी की है।

राष्ट्रीय सुरक्षा पर पूंजीकरण

हालांकि पुलवामा में हुआ आतंकवादी हमला जिसमें 14 फरवरी को 40 से अधिक सीआरपीएफ के जवान शहीद हो गए थे और इसके बाद 26 फरवरी को पाकिस्तान के अंदर बालाकोट में भारतीय वायु सेना द्वारा की गई एयर स्ट्राइक, इसके बाद एयरफोर्स के पकड़े गए पायलट अभिन्ंादन को पाकिस्तान द्वारा छोड़े जाने की क्रिया ने राष्ट्रीय परिवर्तन में सहायक की भूमिका निभाई। इसने बुनियादी मुद्दों जैसे बेरोजग़ारी, कृषि संकट और राफेल घोटाले से लोगों का ध्यान हटाकर आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर केंद्रित कर दिया। इससे भाजपा की लोकप्रियता के ग्राफ में उसके प्रतिद्वंदियों की अपेक्षा ज़्यादा बढ़ोतरी हुई।

इस समय कई आलोचकों ने कहा कि यह कहना बहुत सरल था कि पुलवामा और बालाकोट ने प्रधानमंत्री मोदी को दूसरे कार्यकाल की गारंटी दी है। हालांकि पुलवामा और बालाकोट जनता की याददाशत में कम हो गया और भारत-पाकिस्तान के बीच लगातार गतिरोध के खत्म होने के साथ भारत की परेशानी का अंत हो गया। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह सब आगामी चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी को नुकसान पहुंचा सकता है। चुनाव की तारीखों की घोषणा और चुनाव कोड के प्रभाव में आने के साथ चुनाव प्रचार को उत्साह मिला है और पीएम मोदी की रैलियों में बड़ी सार्वजनिक उपस्थिति का अभाव भाजपा के लिए चिंता जनक है। पुलवामा और बालाकोट से उत्पन्न राष्ट्रवादी भावना के मद्देनजऱ भाजपा को चुनावी लाभांश फिर से हासिल करने की उम्मीद थी पर जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्याय योजना, आय योजना को लागू करने का वादा किया तब उन्हें जोरदार झटका लगा। एक आलोचक के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी को शायद समझ में आ गया कि कांग्रेस ”आय पर चर्चा’ के माध्यम से मोदी-शाह के चुनाव से पहले के जुमलों के खिलाफ पहल करने की शुरूआत कर रही है।

राष्ट्रवादी आख्यान में लोगों के कम होते रूझान को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 27 मार्च को एक ट्वीट कर घोषणा की कि वह एक महत्वपूर्ण संदेश के साथ देश को संबोधित करेंगे। जिसे ट्वीट के एक घंटे के बाद प्रसारित किया गया और इस एक घंटे के अंतराल में लोग घोषणा के बारे में कयास लगाते रहे क्योंकि मोदी को विमुद्रीकरण जैसे आश्चर्य के लिए जाना जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने ए-सैट के माध्यम से अंतरिक्ष में भारत की प्रगति की घोषणा की और इसका राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए भाजपा द्वारा इसे एक कदम माना गया। कुछ आलोचकों का कहना है कि भाजपा के इस तरह के प्रयास से ऐसा लगता है कि भाजपा कुछ ऐसा पाने के लिए जमीन पर गिर रही है जो उसे लोगों से जोड़ सकता हो। एक अन्य आलोचक ने कहा है कि मोदी के कार्यकाल से यह स्पष्ट हो सकता है कि वे मतदाताओं की मिल रही प्रतिक्रिया से चिंतित हैं।

कम संभावनाएं

भाजपा के अपने 2014 के प्रदर्शन को दोहराने की संभावनाएं कम प्रतीत होती हैं। युवाओं के लिए नौकरियां, कृषि संकट जैसे चिरस्थायी मुद्दों पर अपने वादों को पूरा करने में विफलता के साथ कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव और क्षेत्रीय दलों के बढ़ते गठजोड़ से भाजपा की चुनावी पकड़ में सेंध लगने की सभावना है। यह अभी हाल में हुए चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों द्वारा प्रमाणित भी है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान में हारने के बाद भाजपा को अपने 2014 में 65 सीटों में से 64 सीटें जीतने के प्रदर्शन को दोहराना काफी कठिन है। मध्यप्रदेश में जहां भाजपा ने 2014 में 29 में से 27 सीटें जीती थीं वहां पोल आईज की भविष्यवाणी के अनुसार भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। पोल आईज की भविष्यवाणी के अनुसार झारखंड में जहां 2014 में एनडीए ने 14 में से 12 सीटें जीती थी वहां एनडीए पांच सीटों पर आगे है जबकि यूपीए नौ सीटों पर आगे है। छत्तीसगढ़ जहां कांगे्रस ने पिछले दिसबंर में विधानसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज की वहां भाजपा को बड़ा झटका लगने की संभावना है। गुजरात में जहां भाजपा ने 2014 में सभी 26 सीटें जीती वहां पोल सर्वे के अनुसार अब 16 सीटें जीतने की संभावना है।

उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल किसी भी पार्टी के लिए केंद्र में सत्ता हासिल करने के लिहाज से महत्वपूर्ण राज्य हैं। 2014 में भाजपा ने उत्तरप्रदेश में बहुमत पाया और बिहार में अच्छी संख्या में सीटें हासिल कीं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन किया और भारी संख्या में सीटें हासिल कीं। हालांकि वर्तमान समय में उत्तरप्रदेश और बिहार के परिदृश्य में बढ़ा परिवर्तन आया है। एसपी, बसपा और आरएलडी के बीच गठबंधन ने भाजपा को प्रभावित किया है और कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। इस एकजुटता के प्रभाव ने भाजपा की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा है। चुनाव पूर्व अधिकांश सर्वेक्षणों ने सपा-बसपा गठबंधन को लाभ मिलने और भाजपा के लिए 2014 के प्रदर्शन को दोहराने को खारिज करने की भविष्यवाणी की है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन को 2014 की तुलना में कमतर आंकने का अनुमान है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा टीएमसी के साथ अपनी साख बचाने के लिए संघर्ष कर रही है । हालांकि यहां उसके वोटों के प्रतिशत में सुधार आ सकता है। ओडिशा में बीजद के पास भाजपा के मिलकर कुछ सीटों पर बढ़त बनाने की संभावना है आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में पहले से ही सत्ता पर काबिज पार्टियों द्वारा भाजपा को कोई स्थान ने देने की संभावना है। भाजपा को एआईंडीएमके के साथ गठबंधन के कारण तमिलनाडु में कुछ सीटें मिलने की संभावना है और केरल में हुए अलग-अलग चुनाव पूर्व सर्वे के अनुसार यहां एक सीट सुरक्षित कर सकती है। असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों मेंजहां भाजपा ने 2014 में अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन नागारिकता बिल लगाने के भाजपा के कदम के खिलाफ सार्वजनिक नाराजगी के मददेनजऱ अब वहां वैसा प्रदर्शन दोहराने की संभावना नहीं है, इस प्रकार समग्र परिदृश्य आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को बहुमत हासिल करने के लिए एक निराशाजनक संभावना प्रस्तुत करता है।

भविष्य में

निस्संदेह 23 मई को अंतिम परिणाम घोषित किया जाएगा। फिर भी भाजपा के लिए केंद्र में सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए रूझान प्रतिकूल हैं। अगर भाजपा लगभग 200 सीटों को जीतने में सफल होती है तो राजग के अन्य घटक दल महागठबंधन सरकार बनाने के लिए अपनी शर्तों को निर्धारित करने के लिए मज़बूत स्थिति में होंगे। जाहिर है कि भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने की संभावना है और इसे सत्ता पर काबिज होने के लिए अन्य क्षेत्रीय दलों का समर्थन लेना होगा। यदि अन्य घटक दल मोदी के नेतृत्व को अस्वीकार करते हैं तो भाजपा में विभाजन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए इस तरह की संभावना इसका अनुमोदन करती है: 23 मई भाजपा गई?

लेखक न्यूज24 चैनल के कार्यकारी संपादक हैं।

यहां दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।

ईश्वर और ऋतु

बहुत पुराने समय की बात है।

ईश्वर ऊपर स्वर्ग में रहता था।

नीचे एकदम घुप्प अंधेरा था।

सृष्टि के निर्माण का विचार ईश्वर के जेहन में शोरगुल मचा रहा था। अपने भीतर हो रहे जोड़-तोड़ में एकाग्र हो वह एक नदी किनारे घूम रहा था।

नदी पूरे उफान में बह रही थी। ज़रूर पहाड़ों में बारिश हुई होगी।

फूल पौधों के शीर्ष पर बैठे पंख फडफ़ड़ा रहे थे, जैसे उड़कर नदी से पार अपने मित्र-प्यारों से मिलने के लिए जाना हो।

पक्षी गर्दनें मटका-मटका कर उन्हें कुछ समझाने की कोशिश कर रहे थे।

बदल गरजे ईश्वर की एकाग्रता भंग हो गई।

उसने खीझकर सभी ऋतुओं को नीचे भेज दिया और कहा, बारी-बारी से, निर्मित हो रही सृष्टि पर पहरा दो।

आदेश से बंधी सभी ऋतु इस सृष्टि पर आ पहुंची। अपने में मस्त ऋतु यहां के आदमियों के साथ छेड़छाड़ करती। लोग इनसे बचने के लिए गुफाओं, खाइयों, कंदराओं, कोठों से घरों, बंगलों तक आ पहुंचे थे। किसी ऋतु में बारिश होती, नदियों में बाढ़ आती, गांवों के गांव बह जाते। रुतों के लिए यह भी शगल था, मगर जब इनका रेडियों लोगों को पहले ही बता देता कि कब बारिश आएगी और नदियों के बांध बनाकर ये लोग कैदियों की तरह मनमर्जी से पानी को इधर-उधर भेजने लगे।

पुराने समय में यदि शरारत से हवा सांस रोक लेती तो लोग कहते पापी पहरे पर बैठा है और तड़पते हुए चाहता है कि पहरा बदल जाए। मगर अब तो बिजली के पंखे हवा को बिना पूछे ही हवा बहाते रहते हैं।

पहले जब कभी बारिश नहीं होती थी तो वनस्पति सूख-मुरझा जाती थी। लोग यज्ञ करते, हवन करते। कहां क्या विध्न पड़ा, सोच-विचार करते, मगर अब लोगों ने ट्यूबवेल लगा लिए। वह बरसात की भी परवाह नहीं करते थे।

ऋतु उदास हो गई।

वो चीखकर ईश्वर के पास गई।

”रामजी, धरती पर हमारी कोई ज़रूरत नहीं, हमें लौट आने की आज्ञा दो।’’

”यह कैसे हो सकता है?’’ ईश्वर ने हैरान होकर पूछा,”आप खुद चल कर देख लो बेशक।’’ ऋतुओं ने अर्ज की। ईश्वर एक छोटी सी चिडिय़ा बन कर धरती पर ऋतुओं की स्थिति के बारे में जांच-पड़ताल करने आ गया।

समय शाम का था।

ऋतु बहार की थी।

आसमान पर बादल घिर आए।

मोरों ने पंख खोल लिए, झूम-झूम कर, नाच-नाच कर बादलों को धरती पर उतर आने के लिए कहा।

जंगली फूल एक-दूसरे की ओर इशारे कर-कर हंस रहे थे।

नन्हे-नन्हें पक्षी, फूलों के, पत्तों के, पपहियों के गीत हवा से बांध-बांध कर अपने प्यारे मित्रों की ओर भेज रहे थे।

”यह धरती तो बहुत संदर स्थान है, ईश्वर ने बहार से कहा।’’

इतने में एक शहर आ गया।

बहुत भीड़ थी।

हर एक जैसे खोया हुआ था।

सभी लोग जैसे आसमान से गिरे हों, किसी का कोई कुछ नहीं लगता था, कोई किसी का जानकार नहीं था। यहां तक कि कोई किसी के ग्राम का भी प्रतीत नहीं होता था।

चिडिय़ा बने रब ने देखा, ये लोग बार-बार घड़ी की ओर देख रहे थे।

”चिडिय़ा ले लो, रंग-बिरंगी चिडिय़ा।’’ पिंजऱे में कितनी सारी चिडिय़ों बंद करे , छोटे-छोटे पिंजऱों का ढेर कंधे पर डाले एक व्यक्ति हांक लगा रहा था।

चिडिय़ा बने ईश्वर ने देखा तो वह घबरा गया।

वह वहां से उड़कर तेज़ी से एक मंदिर में जा घुसा।

”ताजा मोतिए का हार दो-दो आने।’’ मंदिर के बाहर नंगे,फटे हुए कपड़े वाला एक लड़का हार बेच रहा था।

”लो पकड़ो, डेढ़ आना, दे दे हार।’’ अपनी तोंद मुश्किल से संभाले आ रहे एक तिलकधारी लाले ने पैसे लड़के के हाथ में देते हुए कहा।

लड़का दुविधा में पड़ गया। जैसे उसने पहले ही बहुत कम कीमत बताई थी।

”अरे छोड़, यह भी कोई खाने की चीज़ है भला और दो घंटे बाद यह वैसे भी बासी हो जाएगी।’’ लाला जी ने समझदारी भरी दलील दी।

बात  लड़के की समझ में आ गई। उसने बेबस-सा होकर डेढ़ आने में ही हार दे दिया।

लाला जी मंदिर में आ पहुंचे।

देवी की पत्थर की मूर्ति के सामने खड़े होकर आंखे मींच कर अंतरध्यान होकर उससे लेन-देन की बात की और फिर नमस्कार कर जीवित फूलों का हार उसके चरणों पर फेंककर मारा।

ईश्वर मंदिर से बाहर आ गया।

एक औरत अपने बालों में बहुत सुंदर फूल लगाकर जा रही थी। वह औरत खुद भी बहुत सुंदर थी।

रब की आंखों में चमक आ गई।

”सिर ढंक लीजिए ज़माना बहुत खराब है।’’ उस औरत को पीछे आ रही एक बुढिय़ा, जो शायद उस औरत की सास थी, ने कहा।

आज्ञाकारी बेटियां-बहुओं के समान उसने सिर ढक लिया। रब उस फूल के बारे में सोचने लगा, जिसका ज़रूर दुपट्टे के नीचे सांस घुटा जा रहा होगा।

इतने में रिमझिम होने लगी।

लोगों के आने-जाने में तेजी आ गई।

बरसाती छतरियां चमकने लगी।

चिडिय़ा बना रब एक खंभे पर बैठने ही लगा था कि उसे करंट का ऐसा झटका लगा कि पल दो पल के लिए उसकी सुरति गुम हो गई।

कच्ची सी हंसी से वह एक घर की छत पर बैठ गया। उसे फिक्र हो रही थी कि शहर में कहीं कोई वृक्ष ही नहीं पक्षी कहां रहेंगे? घोंसले कहां बनाएंगे। रात को कहां सोते होंगे?’’

उसे यह किसी ने नहीं बताया था कि इस शहर में पक्षी है ही नहीं।

चिडिय़ा बना ईश्वर हैरान होकर देख रहा था कि ना किसी ने फुहार की छेडख़ानी महसूस की थी। ना किसी की आंखों में बादल के साए नाचे। ना कोई नंगे-नंगे पैरों धरती की सुगंध पीने आया। न किसी ने बाल खोलकर गिरते मोतियों को थामा।

अब ईश्वर बहार के मुंह की ओर देखने में झिझकता था। वह उस शहर की ओर पीठ करके चल दिया। अब शहर पीछे रह गया था।

 टेढ़ी-मेड़ी पगडंडी पर खुले खेतों के बीच एक आदमी गाते हुए जा रहा था, ”मैंने तुमसे न मिलने की कसम खाई है।’’

”किससे न मिलने की कसम खाई है इसने?’’ चिडिय़ा बने रब ने बहार से पूछा।

”उसे, जो बहार के मौसम में शायद इसे सबसे ज़्यादा याद आ रहा है।’’

”तुम्हें कैसे मालूम?’’

”ना मिलने के लिए कसम जो खानी पड़ रही है।’’

फुहार और तेज़ हो गई। पगडंडी पर जाते आदमी ने कंधे झटकाए, चुटकी बजाई, बादलों की ओर जानकार की तरह देखा और गाने लगा, ”मैंने तुमको न मिलने की क़सम ,खाई है।’’

सामने से चि_ियां देकर वापस लौटते डाकिये ने उसे पहचानकर साइकिल धीमा कर लिया।

 ”बारिश आ रही है, कहो तो मैं साइकिल पर छोड़ आता हंू। जाना कहां है?’’ डाकिये ने नाक पर चश्मा ठीक करते हुए एक पैर धरती पर टिकाकर साइकिल रोकते हुए पूछा।

”जाना-जाना तो कहीं भी नहीं है।’’ उसने अपनी चाल धीमे किए बिना चलते हुए ही कहा।

”बारिश आ रही है, कपड़े भीग जाएंगे।’’ यह बात डाकिये ने शायद उसकी बजाय अपने घिसे हुए मैले खाकी कपड़ों को ध्यान में रखकर कही।

”आप चलो। बारिश से पहले पहले अपने ठिकाने पर पहुंचो।’ शरारती हंसी हंसते हुए उस आदमी ने डाकिये से कहा।

तेज़ी से पैडल मारते हुए डाकिया सोचने लगा,”इसमें भला हंसने की क्या बात थी। मैंने तो अ़क्ल की बात कही थी।’’

गांव से दूर श्मशान के पास वाले छप्पड़ की ओर वह आदमी मुड़ गया।

”क्यां?’’ चिडिय़ा बने रब ने बहार से पूछा।

”शायद सोच रहा होगा कि मरे हुए लोगों में से कोई जि़ंदा आदमी ही हो।’’

चिडिय़ा बना ईश्वर हंस दिया।

”यहां आदमियों को मरने के बाद ही पता लगता है कि वे जीवित थे?’’ रब ने हैरान होकर पूछा।

वह आदमी छप्पड़ के किनारे पहुंच गया।

छप्पड़ मे फूल खिले हुए थे।

उस आदमी के मन में कितना कुछ खिल गया। उसने  शिद्दत से गाया, ”मैंने तुमको न मिलने की कसम खाई है।’’

छप्पड़ में बगले चुहलबाजी करते हुए घूम रहे थे। कुछ बोल भी रहे थे। उसे लगा, जैसे कह रहे हों,”अच्छा, अच्छा।’’

छप्पड़ के मटमैले पानी में गिरती रिमझिम बूंदें पानी से मानो छेडख़ानी कर रही थी।

फिर उस आदमी ने किनारे पर बैठकर छप्पड़ की चिकनी काली मिट्टी अपने हाथों में मल ली। फिर वह हाथों को हिला-हिलाकर हाथों की परछाई पानी में देखते हुए जैसे हैरान हो रहा हो कि मिट्टी के बने हाथ कैसे नृत्य कर रहे हैं, मानों सचमुच के हों। और इन हाथों की हू-ब-हू नकल पानी में दिखाई देती इनकी परछाई कर रही थी। उसे यह कोई बहुत बड़ी करामात प्रतीत हुई।

फिर उसने अंजुरी में पानी भर कर फूलों पर फेंका। वह उठा, और गाने लगा-

सूरजों की जान मेरी

बादलों की जान मेरी

पक्षियों की जान मेरी

पत्तियों की जान मेरी

पवन की जान मेरी

”मैंने तुमको न मिलने की क़सम खाई है।’’

फिर उसने हाथ धो लिए।

किनारे खड़े बरोट के वृक्ष के साथ आंखों ही आंखों में बात की।

तेज़ हवा में बरोट के पत्ते आगे-पीछे खड़-खड़ करते जैसे भागते जा रहे हों।

चिडिय़ा बने ईश्वर को बरोट पर बैठे उस व्यक्ति ने सीटी मारी। ईश्वर के पास खड़ी बहार शरमा गई।

ईश्वर हंस दिया और बोला,”उन सभी के लिए ना सही ऐसे एक के लिए ही ऋतु आती रहेगी। बादल बरसते रहे। फूल खिलते रहेंगे और सूरज चढ़ते रहेंगे, जो गा रहा था, ”मैंने तुमको न मिलने की क़सम खाई है।’’

बहार ने ‘जैसी आज्ञा ‘ कहकर सिर झुका लिया।

चिडिय़ा  बना ईश्वर सोच रहा था कि ऊपर स्वर्ग में जाए कि नहीं।

साभार: बीसवीं सदी की पंजाबी कहानी

संपादक: रघुबीर सिंह

अनुवाद: जसविंदर कौर बिंद्रा

प्रकाशक: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली

हवा के झोंके के साथ यादों में खोना

एक ही सड़क। उस पार है वह गली रामदुलाल सरकार दूसरी ओर है बेथुन रो। तकरीबन डेढ सौ साल से भी ज़्यादा हुआ। मैं यहां आकर खड़ा हूं। बेहद अचंभित। मकान नंबर है 133, भव्य लाल रंग और ऊँचा। इस पुराने मकान से जुड़ी न जाने कितनी होंगी कहानियां। बाहर से बंद दिखता है मकान। मुखौटे से लगती हैं इसकी बंद हरी खिड़कियां। शायद इन्हें बंद किया गया है। जिससे चहचहाती गौरैया अंदर न आ जाए। धूप और गर्मी न आए। बाहर सड़क से गुजरने वाले लोग अंदर न झांकने लगें।

दरवाजे के अंदर मैं कदम रखता हूं। लगता है धीरे-धीरे मैं प्रेमिका के कदमों की आहट पर पीछे-पीछे चल रहा हंू। क्या बढिय़ा महक है पक रहे गोश्त की। मसालों की सुंगंध नाक में समा जाती है। न जाने कितनी तरह के मसाले उसमें पड़े होंगे। गहरी सांस लेता हूं। तकरीबन डेढ़ सौ साल से पहले ऐसी ही सांस ली थी शायर गालिब ने जब वे यहीं होते थे।

धूल भरे शहरों में धोड़े पर सवार मिजऱ्ा ग़ालिब अपनी बकाया पेंशन लेने जाते थे।। लखनऊ से पहले, जहां तब निखालिस उर्दू बोली जाती थी। एकदम अलग, दिल्ली की उर्दू जबान से। न जाने कितने मसखरे तब होते थे जो अपनी सांस्कृतिक पहचान के दीवाने थेे और वे तो बुरा सलूक कर बैठते थे शायर मीर तकी मीर से भी।

फिर वह काशी जिसे ग़ालिब काबा-ए-हिंदोस्तां कहते थे। इसी शहर के नाम पर उनकी गज़ल भी है। यहां वे लोग भी आते थे जो अपने सुलगते दिलों के साथ यहां की वेश्याओं की लचकती कमर का बोशा लेने आते थे।

सूरज के शीशे में बनारस की छाया नाचती हुई लगती है। उन्होंने चिराग-ए-दैर (मंदिर का दिया) में प्रार्थना की है कि ‘अल्लाह, बनारस की रक्षा करना। यहां स्वर्ग के बाग हैं। इसे बुरी निगाहों से बचाना।’

कलकत्ता में उन्होंने फारसी में अपनी काबिलियत से क्या हंगामा मचा रखा था। इस शहर में उनका समय दो तरह की चिंता में ऐसे गुजऱता था मानों उनके सिर पर दो तलवारें एक दूसरे से टकरा रही हों। परंपरा और शैली में प?? उनके परिंदों के परों को छूती हुई मुहावरों से ही पली-बढ़ी चिडिय़ां सर्र से निकल जाती थीं। कोई भी नहीं टिकती थी।

ऐसे में उनकी तकलीफ को थोड़ा बहुत सुकुन मिलता था। किफायत खान भी उनके लिए राहत का काम करते थे जो ईरान से आए एक दूत थे। लेकिन इन सबसे भी उन्हें कोई लाभ नहीं था। उनका हाल आधे-अधूरे दिल से मांगी गई माफी की तरह था। बेवजह छोटे पंखों वाली रंगीन पंछियों को ललचाने सा। न तो किस्मत थी और न नियति कि ब्रिटिश लार्ड की जिं़दगी ही मददगार हो। वाद-ए-मुखालिफ (हवा का विरोध) व्यंग्य से कम न थी उनकी क्षमायाचना भी। उनकी याचिका खाती रही धूल और बगल में बहती रही गंगा। प्रतिकूल घटनाओं के चलते तकलीफ वैसे ही पीछा करती जैसे नदियां।

हमेशा वे गंगा पर ध्यान जमाए बैठे रहना चाहते थे। लेकिन वे लौट आते बीच रास्ते से ही, वापस दिल्ली को। इच्छा अधूरी ही रह जाती। उनकी शायरी धड़कन थी उनके दिल की। उनकी निराशा उनकी नियति थी। उनकी किस्मत दुख में भी उनके साथ थी। सारा कुछ उनकी काबिलियत पर आधारित था। गालिब कभी व्यंग्य से मुक्त नहीं हो पाए।

पसीने से तरबतर अपने दो गमछों को दो मज़दूरों ने अपने कंधों पर फैला रखा था। ऐसा लग रहा था मानों दो बिल्लियो हरे रंग के दरवाजे के पास बैठी गुर्रा रही हैं। गोया उन्होंने मेरी आवाज़ सुनी। थोड़े अनमने भाव से। इस पुराने मकान को देखने आया था एक ऐतिहासिक यात्री। मेहनत की जिंदगी में फुरसत कहां होती है इतिहास जानने की। और फिर शायरी के लिए तो और भी नहीं।

लेकिन उन्हें पता था कि इस पुराने मकान में एक कुत्ता ज़रूर है। कुत्ता भला क्यों? क्या उस महक पर कुत्ता पहरा देता था। मैं अंधेरे में ऊपर की ओर जाती सीढिय़ों को देखता रहा। इन पर लोहे के जंगले लगे हुए थे। मैं सोचता ग़ालिब कितने आहिस्ता-आहिस्ता इन सीढिय़ों से नीचे-ऊपर चढ़ते-उतरते होंगे। गरीबी और शायरी के बीच उनके मुश्किल दिन कैसे गुजऱते होंगे। बीच-बीच में कैसे वे कहराते दुख की फांक लगाते हुए कैसे हलक से उतारते होंगे पसंदीदा शराब का कड़वा जाम।

जब उन्होंने छोड़ा (अगस्त 1829) तो एक शेर में लिखा कि चलिए, हम खुशकिस्मत हैं कि पहुंच गए कलक दूरी का जख्म भुलाते हुए, अजीज लोगों के साथ पीते हुए शराब । एक खत में तो उन्होंने तारीफ भी है,’हर किसी को शुक्रगुजार होना चाहिए कि ऐसा भी एक शहर, एक शहर, जहां उन्हें ढेरों दुश्मन और कुछ एक ही दोस्त मिले। इनमें कुछ तो बेहद अनोखे थे। जो एक साथ सौ साल पहले और सौ साल बाद की बात करते थे। एक ऐसा शहर जहां बीते हुए कल के सपने देखता है भविष्य।

अचानक नथुनों में फिर आई महक। ताजी हवा की तरह। मुझे भी उड़ा ले चली हवा के झोंके के साथ यादों की ओर। एक भूखे कुत्ते की तरह, वहीं जहां कभी किसी समय गालिब ने भी ली थी सांसे।

मानस फिराक भट्टाचार्य

साभार: बायर इन

‘मैं भी मुंह में जुबां रखता हूं, काश पूछो कि मुद्दा क्या है’

”आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक’’। ‘आह को असर के लिए उम्र चाहिए और आह यही कि उम्र बीते जाती है और असर होता ही नहीं।’ मिजऱ्ा नौशा अका ग़ालिब को गुजरे जमाना हुआ और ज़माने ने बड़ी आसानी से उसे भुला दिया। 1869में ग़ालिब की मृत्यु हुई। इस लिहाज से मिजऱ्ा ग़ालिब को गए इस बरस 150 साल से ऊपर हो चुके हैं। दुनिया भर की खुशमस्ती और एक दूसरी ही खाम-ख्याली में डूबा समाज अपने समय के बड़े मौजू कलाकार को भूला बैठा है। ग़ालिब का जीवन संघर्ष से भरा रहा पर संघर्षों के बीच मुस्कराने की कला कोई ग़ालिब से सीखे। हर कदम पर किस्मत से लेकर आस-पास के लोगों से मिले धोखे ने ग़ालिब को कमजोर नहीं बनाया, बल्कि मज़बूत ही किया। पर बड़ा बेदर्द है ज़माना जाने के बाद की हकदारी तो बहुत ज़्यादा रही और रहते-रहते की कैफियत किसी ने ली ही नहीं। डिक्री कर दी गई अपने ही घर में नजऱबंद हो गए पेंशन के लिए धक्के खाते रहे, कलकत्ते में रहते और तकलीफ पाते ग़ालिब हर कदम पर कष्ट पाते रहे और अपने कलाम को धार देते रहे।

ग़लिब के कलाम का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ, इस कलाम के अशआर आज भी उतने ही मौजंू हैं और हमें राह दिखाने में उनकी स्तादी का कोई जोड़ नहीं।

‘बना कर फकीरों का हम भेस ग़ालिब/ तमाशा-ऐ-अहले करम देखते हैं’ शायद इसीलिए ग़ालिब जैसा और कोई नहीं हो सका। ”हंै और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे/ कहते है कि ग़ालिब का है अंदाज-ए-बयां और!

वरिष्ठ आलोचक रशीद अहमद सिद्दीकी कहते हैं ”अगर मुझसे पूछा जाए कि हिन्दुस्तान को मुगलिया सल्तनत ने क्या दिया तो मैं बेतकल्लुफ तीन नाम लूंगा- ग़ालिब, उर्दू और ताजमहल’’।

ग़ालिब के पिता मिर्जा अब्दुल्लाह बेग खान योद्धा थे। पिता के देहांत के बाद चाचा ने लाड-प्यार से इनका पालन किया। अपने पुरखों के पेशे की ओर न जाकर कलम के मुरीद बने – ग़ालिब। हिंदुस्तान की सरजमीं को आज गर्व है ग़ालिब के होने पर, लेकिन ग़ालिब का जीवन बहुत कष्टकर रहा। उनकी रचनाओं में ग़म और खुशी दोनों एक साथ मिलती है, दोनों को अलग करके देखना संभव नहीं। अली सरदार जाफरी लिखते हैं-

ग़ालिब ने निश्चय ही इस विश्वास से एक बड़ा आशावादी दृष्टिकोण अपनाया जो उनके काव्य में बाग-ओ-बहार की तरह दौड़ रहा है। दुख और संताप आनन्द के नवीनीकरण की बुनियाद है। इसीलिए इनसे विमुख रहना मृत्यु और खेलना जीवन की दलील है। स्वंय मृत्यु जीवन का आनन्द बढ़ा देती है और कार्य-आनन्द का साहस प्रदान करती है। ग़ालिब ने अपने एक फारसी कसीदे में कहा है कि मेरा जूनुन मुझे बेकार नहीं बैठने देता, आग जितनी तेज है, उतनी ही मैं उसे और हवा दे रहा हूं। मौत से लड़ता हंू और नंगी तलवारों पर अपने शरीर को फेंकता हूं, तलवार और कटार से खेलता हूं और तीरों को चूमता हूं।’’(दीवान-ए- ग़ालिब, अली सरदार जाफरी, पृष्ठ 10)

ग़ालिब के दादा-ए-परिवार समरकंद से हिंदुस्तान आए जहां उनका संबंध पंजाब गवर्नर मुगलिया शहंशाह शाह आलम और जयपुर के महाराज से रहा। खुद ग़ालिब के पिता भी उसी क्षेत्र से जुड़े रहे।

ग़ालिब की उम्र चार बरस भी नहीं रही होगी जब उनके पिता का इंतकाल हो गया। ग़ालिब की शुरूआती जि़ंदगी अपने ननिहाल में ही गुजऱी। यह ग़ालिब के जीवन के सबसे खूबसूरत लम्हे थे जिन्हें याद करके उन्होंने कई अशआर भी लिखे और खत भी, जहां रोमानियत ज़्यादा है और अहसास-ए- बन्दिगी भी।

ग़ालिब भाषा के मुआमले में साफ जुबान के हकदार थे। पर्शियन भाषा की नुमाइंदगी करते थे और जब उर्दू में लिखने लगे तो शुरू में तो उसे नौकरी ही मानकर लिख पाए। हकीर को खत में लिखते हुए कहते हैं ‘दोस्त तुम मेरी गज़लों की तारीफ करते हो पर मैं शर्मसार हूं क्योंकि ये गज़ल नहीं सिर्फ रोज़ी का ज़रिया है। मुझे सुकूं तो फारसी में लिखने से मिलता है पर हजार हैफ उसे को कोई पसंद नहीं करता। पर यह भी सच है कि उर्दू आम-फहम जबान होने के कारण जनता के सीधे दिल तक पहुंचने में कामयाब थी और ग़ालिब ने दिलों में घर इसी भाषा के मार्फत किया। गुलज़ार लिखते हैं, ग़ालिब अपने समय के गर्वीले लेखक थे और अपने बारे में अहं करने के हकदार भी थे। वे जनता की आम जबान में लिख रहे थे और बाकी शायर फारसी में। ग़ालिब को इस बात का गर्व था कि वे जनता की जबान में लिख रहे थे।

ग़ालिब को अपने समय में वह इज्जत-सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। ग़ालिब इस बात को जानते भी थे कि उनकी शायरी का स्तर सचमुच ऊँचा है। अपने समय के शायरों के साथ उनके कुछ तीखे कुछ खट्टे अनुभव हुए जिसका जिक्र उनके अशआरों में भी मिलता है।पर इससे बढ़कर बात यह थी कि ग़ालिब की शायरी की परख इतनी बेहतरीन थी कि अगर किसी का शेर पसंद आ जाए तो उसके बदले अपनी शायरी को एक तरफ रख देने की ताकत भी रखते थे। इस संबंध में दो किस्से कहे जाते हैं- पहला ज़ौक के साथ उनके संबंधों के बारे में और दूसरा मोमिन के संबंध में। टीएनराज इन किस्सों का जिक्र करते हैं-

किसी के शेर की तब तक दाद नहीं देते थे जब तक वह दिल में चुभ न जाए। चुनांचे जब उन्होंने मोमिन का यह शेर सुना – तुम मेरे पास होते हो, गोया/ जब कोई दूसरा नहीं नहीं होता। तो बहुत तारीफ की और कहा, काश! मोमिन मेरा सारा दीवान मुझसे ले लेता और यह शेर मुझ को दे देता। मुंशी गुलाम अली खान मर्हूम ने किसी को सुनाने के लिए ज़ौक का यह शेर पढ़ा, ”अब तो घबरा के कहते हैं कि मर जाएंगे/मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे’’। मुझसे बार-बार पढ़वाते थे और सर धुनते थे। तनातनी के बावजूद अपने ही समकालीनों के लिए ग़ालिब का यह अंदाज उनके कद को कुछ और बड़ा कर देता है। अपने समकालीनों के बीच ग़ालिब को कभी माकूल जगह नहीं मिली, उनकी शायरी को हमेशा कठिन कहकर खारिज किया गया । यहां तक कि ग़ालिब ने भी एक समय के बाद यह मानना शुरू कर दिया कि उनके शुरूआती अशआर कठिन थे। सुरेन्द्र वर्मा के कैद-ए-हयात(नाटक) में इसक विस्तृत उल्लेख है।

यासीन: तुम लफ्ज़ों का ऐसा इस्तेमाल क्यों करते हो कि उनका मानी खेंचतानकर निकालना पड़े? जैसे तुम्हारी एक गज़ल वो भी है, रदीफ वे वाली।

 मिजऱ्ा: कोई फनकार रिवायत को तोड़ता भी है। चूंकि जमाम लफ्ज एक ही माने में लगातार इस्तेमाल से घिस चुके होते हैं। दूसरी बात यह कि यों तो एक ही मतलब को जाहिर करने वाले कई लफ्ज़ होते हैं, फिर भी उसमें मानी के जरा -से किसी नामालूस साए का फर्क होता है। फनकार अपने इजिहार के खायियत के लिहाज से और अपने काबिलियत के मुताबिक उसमें नए मानी पैदा करता है।

यासीन: बला से पल्ले ख़ाक न पड़े। (कैद-ए-हयात, पृष्ठ29)

ग़ालिब की रचनाएं लफ्ज़ों के नए इस्तेमाल और मानी खोज ढूंढने की मिसाल कायम करती हैं। शायद इसीलिए ग़ालिब कहते हैं कि गज़ल में कसीदे का रंग जोड़कर उन्होंने ऐसी नई शैली ईज़ाद की है जिसके अनुकरण के लिए वे शायर दोस्तों को बुलावा देते हैं-

अदा-ए-ख़ास से ग़ालिब हुआ है नुक्ता सरा/सला-ए-आम है, याराने-नुक्तादां के लिए।

ग़ालिब का दीवान तो जग-प्रसिद्ध है ही इसके अलावा उनकी कृतियां हैं -ऊदे-हिन्दी, उर्दू-ए-मुअल्ला, कुल्लियात-ए-नज्म-फारसी, कुल्लियात-ए-नस्र फारसी (इसमें पंज आहंग, महरे नीमरोज, दस्तम्बू शामिल हैं), दुआ-ए-सबाह, कातिए बुर्हान, दुरफ्श कावियानी। मिजऱ्ा शुरू में असद नाम से ही शेर लिखते थे बाद में ग़ालिब उपनाम उसमें जुड़ गया।

परिवार के स्तर पर भी मिजऱ्ा का संघर्ष कम नही रहा। संतानों की मृत्यु होने के कारण उनके और उमराव के बीच संबंध तीखे और उदासीन ही रहे। अंत में उमराव की आपा ने अपने बड़े बेटे जैनुल को इन्हें सौंप दिया। जैनुल की मृत्यु के बाद उसके बच्चों की जिम्मेदारी मिजऱ्ा ग़ालिब ने ली पर इस घटना ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई। ग़ालिब के कलाम में शायद इसीलिए दर्द का हद से गुजरना है,दवा हो जाना’।

दिल्ली के शाहजहांबाद में बल्लीमारान की हवेली ग़ालिब का घर कभी दिल्ली की शान रहा। आज भी दिल्ली के दिल की शान है वो कूचे और गलियां जहां कभी ग़ालिब के कदम पड़े। ग़ालिब ने अपने शेरों में दिल्ली का जि़क्र बड़ी शान से किया है ‘ दिल्ली के रहने वालों असद को सताओ मत। बेचारा चंद रोज़ का यो मेहमान है।’ इस लिहाज से अगर पूछा जाए तो दिल्ली आज ग़ालिब को याद करती है या नहीं? अगर हां तब कैसे और नहीं तो क्यों। दिल्ली में ग़ालिब की उपस्थिति एक ऐतिहासिक तथ्य है और उनकी मृत्यु भी। क्योंकि आखिर उनका मकबरा निज़ामुद्दीन में ही है। नई दिल्ली के अंग्रेजों की राजधानी बनने से पहले ही ग़ालिब इस दुनिया -ए-फानी को अलविदा कह गए। शायद यही कारण है कि वे आज नयी दिल्ली की कहानी से गायब हैं।

ग़ालिब के खत भी इतने माकूल और मज़बूत हैं कि अगर वे शायर न होते तो भी उनके अफसानों और खतों से उनकी वही शख्सियत बनी होती जो शायरी के बल-बूते है। वे शहर में किसी बीमारी का जि़क्र करते हैं और इतनी तकलीफ से करते है कि सचमुच इतने लोग मर गए शायद हमारे जाने के बाद रोने को कोई रहेगा ही नहीं। ग़ालिब अपने समय की परेशानियों से सीधा ताल्लुक रखत थे, इसीलिए बीमारी (दवा) के समय, उससे मुंह मोड़कर बैठे नहीं, बल्कि अपने खतों में इसका सल्लेख भी किया।

पांच लश्कर का हमला पै दर पै इस शहर पर हुआ। पहला बागियों का लश्कर उसने शहर का एतबार लुटा। दूसरा लश्कर खा़कियों का उसमें जान-ओ-माल-नामूस व मकान व मकीन व आसमान व ज़मीन व आसार-ए-हस्ती सरासर लुट गए। तीसरा लश्कर का, उसमें हज़ारों आदमी भूखे मरे। चौथा लश्कर हैज़े का उसमें बहुत-से पेट भरे मरे। पांचवां लश्कर तप का, उसमें ताब व ताकत अमूमन लुट गई। मरे आदमी कम, लेकिन जिसको तप आई, उसने फिर आज़ा में ताकत न पाई। अब तक इस लश्कर ने शहर से कूच नहीं किया।

उनकी शायरी के कुछ नमूने पेश हैं-

न गुले-नग्मा हूं, न पर्दा-ए-साज़/मैं हूं अपनी, शिकस्त की आवाज़।

मौत का एक दिन मुएय्यन है/नींद क्यों रात भर नहीं आती।

हस्ती के मत फेर में आ जाइयो ‘असद’/आलम तमाम, हल्का-ए-दामे-खय़ाल है।

दरिया-ए-म्यासी, तुनुक-आबी से हुआ खुश्क/ मेरा सरे-दामन भी अभी, तर न हुआ था।

अगले वक्तों के है ये लोग, इन्हें कुछ न कहो/ जो मै-ओ-नग्मा को, अंदोह रुबा कहते हैं।

ग़ालिब की शायरी के इन नमूनों में दुनिया के धोखे से सावधान रहने की सीख भी है और दुनिया को माया समझने के प्रति चेतावनी भी। शराब और नग्मों से ग़म में होने वाले इजाफे का जि़क्र भी है और शराब न छोड़ पाने के बावजूद उससे मुंह मोडऩे की कोशिश भी। ग़ालिब मानते थे कि शराब पीने की लत अच्छी नहीं और बार-बार सागरे-जा़म से जामे-सिफाल को बेहतर भी बताते हैं। पर साथ ही ज़ाम की तारीफ भी छोड़ नहीं पाते जां फिज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया ग़ालिब की शायरी में हर अंदाज है और अपने युग की आवाज़ भी। पर आज समय बदल गया है गा़लिब को भी लोग तभी याद करेंगे जब उन पर सेमिनार और चर्चा की बाग़-ओ-बहार होगी। अब समय कला का नहीं कला-बाजारी का है और होड़ में है जमानाद्य अब लोग रश्क नहीं, हसद करते हैं। ग़ालिब होते तो यही कहते-

हम को उन से वफा की है उम्मीद/ जो नहीं जानते वफा क्या है

तब तक ग़ालिब के अकेलेपन को सलाम।

कविताएं

70 साल की आज़ादी में पूछे नहीं सवाल

तेरे टूटे लित्तर पाटय कुरता क्यूं हो गया फटेहाल सूनो।

भरी दोपहरी खेत कमाया भरके पेट कदै खाया ना

रात दिना तनै मिल चलाया तन पै कपड़ा पाया ना

भट्टे पे ला खिया ईट काद दो घरों खोरिया लाया ना

कमा कमा के हाड गला दिए कदै जुड़ी धन भाया ना

ढाली बैठया का सैंसेक्स चढरया होरया किया कमाल सूनो।

तेरे टूटे लित्तर-

           अनपढ़ सादा मानस था थारो चाल समझ में आई ना

              भेडा का मिले भेडिय़ा या खाल समझ में आई ना

              थारे चाल चरित्र के ई ढाल समझ में आई

              गिणत गिणता लहर तुल या झाल समझ में आई ना

              महंगाई बेरोजगारी का आया किसा भूचाल सूनो।

              तेरे टूटे लित्तर –

धाले पासे अडै कई तरह के चूसै खून गरीबा का

मंदिर जा के टाल बजावे कहरे खेल नसीबां का

जग बीती ना कहरया सूं यो कहरया हाल करीबां का

जात धर्म और गोत नात के बुणरे जाल रेबा का

तेरे एक ढर्रे में डूंढ उजड़ जावे व्हिस्की पी मालामाल सुनो।

तेरे टूटे लित्तर-

              गरीब अमीर की यारी ना हो कहती दुनिया सारी है

              करमो का यो लेख बता कै म्हारी अकिल मारी है

              कठटे होकै सोच जरा ओ दुनिया के नर नारी रै

              अपणे हक में लडऩे का ऐलान करो तुम जारी रै

              कह मुकेश तू चेत साथियां माच्चै के धमाल सुणो

              तेरे टूटे लित्तर पाटया कुरता क्यूं होग्ये फटेहाल सूणो।

प्रस्तुति : दिगंबर

राजनीति केर दाव

में मारु धोबिया पाट

ग्ंागेश गुंजन

जत्तेक कहबनि कहि दिय नु ओ नहि देता कान

अपने स्वार्थक ध्यान में ओ छथि बनल अकान।

भोर-सांझ दुपहर भने रहू अहां बेचैन

ओ पुछताह औ बंधुगण किनका भोट देबैन?

अहोंक पसेना अहोंक देह हुनकर की छनि हानि

सब विचार बनि गेल अछि सत्ताक पएर धोआइनि।

सौंसे गायक भुखमरी सौंसे गायक आहि

छथि नेता एहि क्षेत्र केर मुदा कोन पर वाहि?

वाणी में किछु कहि दियै बढ़़ दिव थिक पाखण्ड

सयम सुतारू राजनीतिक नेते बनल अबंड।

राजनीति केर दाव में मारु धोबिया पाट

खसय चित्त जे खसि पड्यो अहोंक खूजय बाट

‘दु:खक दुपरिया’ (मगही कविताएं)

क्रांति पीठ प्रकाशन

जानना महानगरों की परंपरा को!

पुराने ऐतिहासिक, धार्मिक-सांस्कृतिक नगरों में उत्तरप्रदेश सरकार की काफी रुचि है। शायद इच्छा हो आधुनिक पीढ़ी भी अपनी परंपरा को जाने समझे और संजोए। लेकिन यह काम और बेहतर होता यदि भारतीय जनमानस को तटस्थ भाव से परंपरा की जानकारी देने का काम शासन कर पाता।

प्रधानमंत्री का संसदीय निर्वाचन क्षेत्र है वाराणसी। वाराणसी या बनारस गंगा जमुनी तहजीब में रचा-बसा पुराना शहर है। वाराणसी में जीवन भर लोग रहते हैं लेकिन वे इसे नहीं समझ पाते। कहते है वाराणसी पुराणों के काल से ‘शिव के त्रिशुल पर बसी काशी’ कही जाती रही है।

गंगा और शिव के बिना इस काशी की कोई चर्चा हो ही नहीं सकती। यही वे विश्वविख्यात शिव हैं जिनके दरवाजे पर कभी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान शहनाई बजाते थे तो विश्वनाथ मंदिर के कपाट खुलते थे। यह वह काशी है जहां पंडित राज जगन्नाथ गंगा की आराधना में रहते थे और गंगा खुद आकर उनके चरण का स्पर्श करती थी। यह वहीं नगर है जो सदियों से सिर्फ मोक्ष के लिए नहीं बल्कि शिक्षा, धर्म, व्यापार के लिए भी चर्चा में रहा। यहीं पंडित मंडन मिश्र और पंडित शंकराचार्य के बीच शास्त्रार्थ भी हुआ था।

उत्तरप्रदेश पत्रिका के काशी अंक में शायद यह न हो। एक दौर वह भी था जब एयर इंडिया के टिकट पर वाराणसी का टिकट लेते हुए उस पर लिखा होता था ‘सुबह-ए-बनारस’ और लखनऊ लौटते हुए को ‘शाम-ए-अवध’। लेकिन अब वह रिवाज नहीं है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी, आदि का कोई उल्लेख इस काशी में नहीं किया गया। यहां के संस्कृत और कश्मीर के पूर्व महाराज कर्ण सिंह का स्थापित रणवीर संस्कृत विद्यालय का भी कहीं कोई उल्लेख नहीं है। जहां से वेदपाठी आज पूरे देश में फैले हुए हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर के कलशों पर सोने का पतरा पंजाब के महाराज रणजीत सिंह ने लगवाया था। इस तरह मंदिर परिसर में कभी फर्श पर अशर्फियों बिछवाई गई थीं लेकिन समय के साथ वे गायब हो गईं। वाराणसी में एक मान्यता यह भी रही है कि विद्वत परिषद का आप पर साया है तो आपकी मेहनत सिर-आंखों पर। खैर यह दौर अंग्रेज़ी राज की शुरूआत में ही खत्म हो गया। यहीं तीज-त्योहारों में कजरी, ठुमरी, बिरहा आदि लोकगीतों की खासी परंपरा थी जिसे गाने सेे गिरिजा देवी का देश-दुनिया में खासा नाम हुआ और कीर्ति फैली।

आंदंोलनों और आज़ादी के बाद भी पूरे देश में चल रहे आंदोलनों की वाराणसी में खासी प्रतिध्वनि थी। एक दौर था जब यहां के नामी फोटोग्राफर एस अतिबल, सुधेदु पटेल और एक बड़ा हुजूम यहां साहित्यिक -सांस्कृतिक गतिविधियों में खासा योगदान करता था। हिंदी के विभिन्न साहित्यकार वाराणसी आना अपना सौभाग्य मानते थे। विदेशी विश्वविद्यालयों से बड़ी संख्या में तब छात्र बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी संपर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी विद्याापीठ में आते थे। पंडित विद्यानिवास मिश्र इसी वाराणसी के पढ़े-लिखे विद्वान थे। ऐसे ही ढेरों नाम हैं जिनकी तस्वीर अचानक कौंध जाती है जब कोई बनारस जाने की बात करता है।

उत्तरप्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने राज्य के दोनो पारंपरिक नगरों बनारस और इलाहाबाद पर अपनी मशहूर पत्रिका उत्तरप्रदेश के दो अंक निकाले हैं। अंक संग्रहणीय हैं। बनारस पर निकला ह ै’काशी अंक’ और इलाहाबाद पर ‘प्रयाग अंक’। काशी अंक जहां 428 पेज का है वहीं ‘प्रयाग अंक’ सिर्फ 326 पेज का। दोनों ही अंकों की संपादक हैं कहानीकार और उपन्यासकार एम.हिमानी जोशी। बड़े ही धीरज के साथ यदि उत्तरप्रदेश के इन दोनों अंकों को पढ़े ंतो इनकी अद्वितीय सांस्कृतिक-सामाजिक-साहित्यिक विरासत की तस्वीर ज़रूर उभरती है।

बनारस या वाराणसी के काशी क्षेत्र में विश्वनाथ मंदिर और गंगा घाट तक पहुंचने के लिए पुराणकाल से मुगल काल तक गलियां निरंतर संकरी होती गई। पूरी दुनिया में बनारस को इसकी तंग गलियों के लिए जाना जाता था। उन गलियों को उत्तरप्रदेश प्रशासन ने विश्वनाथ कारिडोर और गंगा पाथवे बनाने के लिए उजाड़ कर ऐतिहासिक-आर्थिक-सामाजिक संस्कृति का विनाश कर दिया। काशी अंक में उन गलियों को उजाडने की बात न का उल्लेख न होना काशी को विस्मरणीय बनाने के लिए काफी है। शिव के त्रिशूल पर बसी काशी एक जीवंत, फक्कड़पन और मस्ती की नगरी थी। उसे आप विशाल महानगर में तबदील हो रहे वाराणसी में नहीं पा सकेंगे। वाराणसी अब तमाम नगरों की तरह ही एक नगर हैं जहां अध्ययन, धार्मिक, पर्यटन, व्यापार और रोजग़ार के लिए आसपास से हर सुबह हजारों आते हैं। कुछ रह जाते हैं। बाकी लौट जाते हैं।

इलाहाबाद (प्रयागराज) में अभी हाल अर्धकुंभ का विशाल आयोजन हुआ। इसमें स्नान से पुण्य लाभ लेने वालों में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी थे। उनका आग्रह राज्य सरकार ने सिर माथे लिया कि पुण्यार्थियों को कहीं कोई तकलीफ न हो। इस मौके पर प्रकाशित उत्तरप्रदेश का प्रयाग अंक वाकई संग्रहणीय है। काशी अंक की तुलना में ज़रूर इसकी पेज संख्या कम हैं लेकिन सामग्री अच्छी है। काशी अंक से प्रयाग अंक बेहतर है। यह ज़रूर है कि इसकी पृष्ष्ठ संख्या यदि काशी अंक जितनी ही होती तो पाठकों के साथ और न्याय होता।

इलाहाबाद या प्रयाग शुरू से ही शिक्षा, धर्म, राजनीति और साहित्य के क्षेत्र के रूप में पाया। एम जोशी ‘हिमानी’ ने परिश्रम से इस अंक में भी अच्छी सामग्री का गुलदस्ता तैयार किया है। पारंपरिक तौर पर यहां सरस्वती (अब लुप्त) गंगा और यमुना नदियों के मिलन को सदियों से धार्मिक मान्यता मिली हुई है। यहां अखाड़े और आश्रम खूब हैं। इसलिए यहां बारह साल बाद कुंभ और छह साल बाद अर्द्धकुंभ का भव्य आयोजन होता है। अभी मार्च में महाशिवरात्रि के दिन अर्द्धकुभ का समापन हुआ।

इलाहाबाद का 1857 की आज़ादी की लड़ाई में भी खासा नाम रहा है। आज़ादी की दीवानगी देश की आज़ादी के साथ बढ़ती गई जिसका असर यहां शिक्षा साहित्य पर भी दिखता है।

जीतने के लिए जीत की आदत जरूरी, भारत शूट आउट में हारा

नाजुक अवसरां पर गलतियां करने, अंतिम क्षणों में गोल खाने और फाइनल मैच का दवाब न झेल पाने की कमज़ोरी एक बार फिर सामने आई। सुल्तान अजनाल शाह हाकी प्रतियोगिता के फाइनल में भारत की युवा टीम दक्षिण कोरिया के साथ खेली और शूट आउट में हार गई। भारत के लिए यह स्थिति नई नहीं है। चाहे 2000 के सिडनी ओलंपिक खेल हों या इस बार के एशियाई खेल भारत हमेशा चूक करता रहा है। टीम के कई कोच बदले गए। नई तकनीकों पर काम हुआ। टीम में मज़बूती भी आई पर फाइनल में हारना या नाजुक अवसरों पर चूक जाना जैसी कमज़ोरियां अभी तक बनी हुई हैं। हालांकि इस बार भारत ने पोलैंड के खिलाफ एक लबें समय के बाद जीत दर्ज की है और साथ ही कनाडा को भी अच्छे अंतर से हराया है पर भारतीय टीम के प्रदर्शन में एक निरंतरता की कमी दशकों से देखी जा रही है। हाकी टीम को इस बात का भी फर्क नहीं पड़ता कि वह विदेश की धरती पर खेल रही हैं या अपने दर्शकों के सामने। भारतीय प्रदर्शन कभी बहुत अच्छा तो कभी बहुत ही खराब होता रहा है।

अभी भारत को 2020 के टोक्यो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करना है। 2008 में पहली बार भारतीय टीम ओलंपिक में नहीं खेल पाई थी। इस हिसाब से टीम को मानसिक तौर पर शक्तिशाली बनाने की ज़रूरत है। टीम में प्रतिभा की कोई कमी नहीं लेकिन जीत की आदत से टीम महरुम लगती है।

सुल्तान अजनाल शाह टूर्नामेंट इपोह (मलेशिया) में खेला गया। इसमें मेजबान मेलशिया सहित भारत, जापान, कोरिया, कनाडा और पौलेंड की टीम ने हिस्सा लिया। टूर्नामेंट का फाइनल मुकाबला दक्षिण कोरिया और भारत के बीच हुआ। दोनों टीमें फुल टाइम तक 1-1 की बराबर पर थी। फाइनल मुकाबले में कोरिया ने भारत को शूटआउट में 4-2 से हरा कर नौ साल बाद खिताब अपने नाम किया। कोरिया 2010 में भारत के साथ सयुक्त विजेता बना था। दूसरी तरफ इस हार के साथ भारत का छठी बार खिताब जीतने का सपना टूट गया। भारतीय टीम पांच बार 1985, 1991, 1995, 2009 और 2010 में चैम्पियन बनी थी। कोरिया ने 23 साल बाद शूटआउट में भारत को हराया है। अंतिम बार 1996 में अटलांटा ओलिंपिक में कोरिया ने 3-3 की बराबरी के बाद शूटआउट में मुकाबला 5-3 से जीता था।

भारत अपराजित रहते हुए टूर्नामेंट के फाइनल में पहुंचा था। फाइनल मुकाबले में भारत ने अच्छी शुरूआत की। मुकाबले का पहला गोल भारत के सिमरनजीत सिंह ने 9वें मिनट में किया और भारत को 1-0 की बढ़त दिलाई। 47वें मिनट में पेनल्टी स्ट्रोक पर कोरिया के जोंगहाून जांग ने गोल कर स्कोर 1-1 से बराबर कर दिया। मैच के आखिरी 13 मिनट में कोई भी टीम गोल नहीं कर सकी। इसके बाद मैच का निर्णय शूटआउट से हुआ। शूटआउट में भारत के सुमित वाल्मिकी और सुमित कुमार गोल नहीं कर सके। बीरेंदर लाकड़ा और वरूण कुमार ने गोल किए। वहीं कोरिया की ओर से चिओनजी, जुंगजुन ली, मांजेई जुंग ओर नायंग ली ने एक -एक गोल किया। सिर्फ किहून किम गेंद को गोलपोस्ट में नहीं डाल सके। इस टूर्नामेंट में भारत की यह पहली हार है। लीग के पांच मुकाबले में टीम ने 4 मुकाबले जीते और एक मैच ड्रा रहा। मेजबान मलेशिया ने कनाडा को 4-2 से हराकर ब्रॉन्ज पदक जीता।

इस टूर्नामेंट में भारत का पहला मैच एशियन गेम्स के विजेता जापान के साथ हुआ। इस लीग मैच में भारत ने जापान को 2-0 से शिकस्त दी। इसके बाद दूसरे लीग के दूसरे मैच में भारत का मुकाबला कोरिया के साथ हुआ। भारत ने अंतिम मिनट में गोल गंवाया और उसे 1-1 के ड्रा पर ही संतोष करना पड़ा।

अपने तीसरे मुकाबले में भारत ने मेजबान मलेशिया को 4-2 से हरा दिया। भारत के लिए सुमित ने 17वें मिनट में सुमित ने 17 वें मिनट में, सुमित कुमार ने 27वें, वरूण ने 36 वें, और मंदीप ने 58 वें मिनट में एक-एक गोल किया। जबकि मलेशिया के लिा राजी ने 21वें और फिरहान ने 57 वें मिनट में एक-एक गोल किया। भारत ने इस टूर्नामेंट में मलेशिया को आठवीं बार हराया है।

 भारत का चैथा मैच कनाडा के साथ हुआ। भारतीय टीम ने 7-3 से कनाडा को पराजित किया। भारतीय टीम के लिए वरूण कुमार ने 12वें, मनदीप सिंह ने 20वें, 27वें और 29वें, अमित रोहिदास ने 39 वें, विवेक प्रसाद ने 55 वें मिनट में और नीलकांता शर्मा ने 58 वें मिनट में गोल किए। भारतीय खिलाडिय़ों के दमदार खेल के सामने कनाडा की टीम पस्त नजऱ आई। भारतीय टीम ने टूर्नामेंट के अंतिम लीग मैच में पौलेंड को 10-0 से हराया। टीम इंडिया ने 83 साल के बाद किसी यूरोपियन देश के खिलाफ 10 गोल किए। भारतीय टीम ने पोलैंड के खिलाफ आक्रामक शुरूआत की। पहले ही मिनट में विवेक प्रसाद ने गोल कर टीम को 1-0 की बढ़त दिलाई। सुमित कुमार ने 7वें मिनट में दूसरा गोल किया। पहले क्वार्टर तक स्कोर 2-0 था। वरूण ने पेनल्टी पर 18वें और 25वें मिनट मेंए सुरेंद्र ने 19वें और सिमरनजीत सिंह ने 29 वें मिनट में गोल किया। नीलकांता शर्मा ने 36वें मिनट और मनदीप सिंह ने 50वें और 51 वें मिनट में लगातार दो गोल करके टीम को 9-0 की बढ़त दिलाई। 55वें मिनट में अमित रोहिदास ने गोल कर स्कोर 10-0 कर दिया। पोलैंड की टीम पूरे मैच में कोई खास प्रदर्शन नहीं कर सकी।

अगर पूरे टूर्नामेंट में भारत के प्रदर्शन को देखा जाए तो भारतीय टीम का प्रदर्शन शानदार था। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों को ध्यान में रखते हुए टीम को शूटआउट पर और मेहनत करनी होगी।