Home Blog Page 1083

सुप्रीम कोर्ट ने खोली निर्वाचन आयोग की आंखें

आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने भारत निर्वाचन आयोग पर जब अपनी कार्रवाई का डर पैदा किया तो आयोग की आंखें कुछ खुलीं। आयोग तो यही दुहाई देता रहा हक उसके पास अधिकार नहीं हैं।  वह लाचार है। जब एक वरिष्ठ वकील अनंत हेगड़े ने कहा कि आयोग संविधान की धार 324 के तहत चुनावी अनियमितताओं पर कार्रवाई कर सकता है।

आम या राज्य चुनावों की घोषणा के साथ ही ‘माडल कोड ऑफ कंडक्ट’(आदर्श चुनाव संहिता) अमल में आ जाती है। इसकी अनदेखी इसलिए नहीं की जानी चाहिए क्योंकि पूरी चुनाव प्रक्रिया ठीक से बिना किसी हिंसा के अमल में आ सके और नई सरकार अपना पद संभाल सके।

जिन चार चुनाव प्रचारकों योगी आदित्यनाथ, मनेका गांधी, आज़म खान और मायावती पर भारत के निर्वाचन आयोग ने कार्रवाई की है उसे गलत नहीं कहा जा सकता। इनमें योगी और मेनका  तो एक धर्म विशेष के खिलाफ हैं। मेनका तो खुद मंत्री हैं वे तो संविधान की भी अनदेखी कर रही हैं जहां समानता की बात की गई है। जबकि आज़म खान ने अमर्यादित तरीके से बात की। मायावती को किसी धर्म विशेष के लोगों से किसी और दल को वोट न देने की बात नहीं कहनी थी।

भारत के निर्वाचन आयोग की आंखें अब कुछ खुली हैं। यह लोकतंत्र की खातिर बड़ी बात है। केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने (14 अप्रैल को) आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के कहने पर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को 72 घंटे और सभा चुनाव में चुनाव प्रचार करने से रोक दिया। इन पर चुनाव में आदर्श चुनाव संहिता (माडल कोड ऑफ कंडक्ट) का पालन न करने का आरोप था। इनके अलावा समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म खान को भी प्रचार से 72 घंटे दूर रहने और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी को भी चुनाव प्रचार से दूर रहने को कहा। निर्वाचन आयोग के आदेश का इन सबने अपने-अपने तरीके से पालन किया। निर्वाचन आयोग की इस कार्रवाई को आम मतदाता ने पसंद किया।

चुनाव आयोग की कमेटी ने मायावती को उत्तरप्रदेश में देवबंद में मुसलमानों से एक खास पार्टी को वोट न देने की अपील करने का दोषी माना। इसी तरह भाजपा के वरिष्ठ नेता और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को मेरठ में ‘अली’ और ‘बजरंग बली’ टिप्पणी करने के लिए दोषी माना गया। उन्होंने इस्लाम में एक सम्माननीय व्यक्तित्च अली से बजंरग बली की तुलना की थी।

योगी आदित्यनाथ की इस टिप्पणी पर समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा था,’अली भी हमारे हैं, जैसे बजरंग बली। हमें दोनों की ज़रूरत है । खासकर बजरंग बली की इसलिए क्योंकि वे दलित  समुदाया के थे। खुद योगी यह कहते भी रहे हैं कि बजरंग बली वनवासी और दलित थे।

समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता आज़म खान नेे रामपुर निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान चुनावी रैली में विपक्षी उम्मीदवार जयप्रदा पर एक भद्दी और अरूचिकर टिप्पणी कर दी थी।  हालांकि आज़म खान ने कहा कि उनकी टिप्पणी जयप्रदा के लिए नहीं थी। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने भी इस मुद्दे पर तुरंत संज्ञान लिया। केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी सपा के सुप्रीमो को एक संदेश ट्वीट किया।

 केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने सुल्तानपुर में चुनाव प्रचार (11अप्रैल को) करते हुए कहा कि मुसलमान यदि मुझे वोट नहीं भी देंगे तो भी मैं जीत जाउंगी। अगर मेरी जीत मुसलमानों के बिना होती है और फिर मुसलमान आता है काम के लिए तो मैं (फिर) सोचती हूं रहने दो।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा था,’मुस्लिम समाज वोट बांटना नहीं। आप बीएसपी, एसपी, रालोद के ही उम्मीदवारों को वोट देना। निर्वाचन आयोग के फरमान पर उन्होंने देर रात लखनऊ में कहा चुनाव आयोग प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष उन बयानों की अनदेखी लगातार करता रहा। अपने भाषणों में देशभक्ति और सेना की वीरता की तारीफ़ चुनावी वोट बटोरने के लिए करते रहे हैं। उन्हें कभी कारण बताओ तक नहीं भेजा। आयोग ने अलग लेकिन एक से पत्रों में योगी कहा है कि चारों नेताओं ने चुनाव प्रचार दौरान आदर्श चुनाव संहिता का उलल्घन किया।  इससे दोनों धार्मिक समुदायों में विरोध और ज्य़ादा बढ़ सकता है।

मायावती और योगी आदित्यनाथ को ऐसे बयान देने से खुद को रोकना था क्योंकि इससे चुनाव में ध्रुवीकरण का अंदेशा कहीं ज्य़ादा हुआ। इसका असर एक ही निर्वाचन क्षेत्र में नहीं बल्कि देश के दूसरे हिस्सों पर भी पड़ेगा क्योंकि आज बड़ी तेज़ी से खबर पहुंच जाती है।

चुनाव आयोग ने कहा कि दोनों ही नेताओं ने धार्मिक आधार पर वोटों की अपील की है जिसके कारण आदर्श चुनाव संहिता का हनन हुआ है। मायावती को 16 अप्रैल को आगरा और पास ही फतेहपुर सीकरी में बसपा-सपा-सलाद की संयुक्त रैली में प्रचार करना था। यहां पर 18 अप्रैल को दूसरे चरण का चुनाव हो रहा है। यहां उन्होंने अपने भतीजे को भेजा।

योगी आदित्यनाथ को लखनऊ में एक आयोजन में हिस्सा लेना। जहां देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को 16 अप्रैल को अपना नामांकन दाखिल करना था। और इनके रोड़ शो में भाग लेना था। वे सुबह ही हनुमान मंदिर गए। आयोग ने नहीं रोका। बाकी काम भी किए।

दरअसल सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग पर नाराज़गी जताई थी कि वह ऐेसे नेताओं पर कार्रवाई क्यों नहीं करता जो प्रचार के दौरान अपने भाषणों में घृणा के बीज बोते हुए निकल जाते हैं। सुप्रीमकोर्ट ने चुनाव आयोग की गठित समितियों (पैनेल) की ताकत के बारे में भी जानना चाहा। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित बेंच पर जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना ने जानना चाहा कि चुनावी पैनेल ने क्या कुछ किया। चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि उनके पास ज्य़ादा कानूनी ताकत इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है। वे चुनाव प्रचार के दौरान घृणा फैलाने वाले भाषणों पर सिर्फ नोटिस दे सकते हैं।

बेंच ने सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग को वकील को धमकाया कि यदि वे ठीक जवाब नहीं देंगे तो मुख्य चुनाव आयुक्त को भी आधे घंटे में अदालत बुलवा सकती हैं। बेंच ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वे नोटिस देें। सलाह दे सकते हैं और आखिर में निर्देश न मानने वाले राजनेता माडेल कोड ऑफ कंडक्ट ने मानने और जाति और धर्म पर घृणा से भरपूर भाषण चुनाव प्रचार करने वाले के खिलाफ पुलिस में एफआईआर भी दर्ज कर सकते हैं।

चुनाव आयोग ने कहा था कि उनके पास कानूनी अधिकार नहीं है, तो पहले नोटिस जारी करें, फिर उन्हेें सलाह दें और फिर उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराएं। चुनाव प्रचार में बेंच ने यह भी कहा कि चुनावी पैनेल को कानूनी ताकत दिलाने पर वे भी विचार करेंगे।

उन्होंने कहा हम खुद इस पूरे मामले का जायजा लेंगे। हम एक प्रतिनिधि भेंजेगे जिसे पूरी जानकारी होगी। वह सुबह साढ़े दस बजे से निगरानी का काम करेगा।

बेंच उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जो सांप्रदायिक भाषणों और धार्मिक आधार पर वोट मांग रहे थे। उन्होंने चुनाव आयोग के वकील अमित शर्मा से कहा, यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप बताएं कि आप क्या कर रहे हैं।

शर्मा ने इस पर कहा कि हम दोषी नेताओं को नोटिस दे रहे हैं। उन्होंने कुछ उदाहरण भी बताए। यह जताने के लिए कि चुनाव आयोग सतर्क है। सुप्रीम कोर्ट ने योगी आदित्यनाथ और मायावती का नाम आने पर आयोग के वकील से कार्रवाई का ब्यौरा पूछा। मायावती को 12 अप्रैल तक जवाब देना था। लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया था।

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि आप अब क्या करेंगे। क्या हम मुख्य चुनाव आयुक्त को यहां बुलवा लें। क्या यह चुनाव आयोग के नोटिस की अनदेखी नहीं है? आप क्या करने को हैं। चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि यदि और भी शिकायतें हुई तो नोटिस जारी होगी और शिकायत दर्ज करेंगे। हमारे पास किसी उम्मीदवार को चुनाव में भाग लेने से रोकने का अधिकार नहीं है। वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े से सुप्रीम कोर्ट ने जब पूछा तो उन्होंने कहा कि आयोग संविधान धारा 324 के तहत चाहे तो समुचित कार्रवाई करने में साक्षम है।

सुप्रीम कोर्ट में एक अनिवासी भारतीय हरप्रीम मनसुखनी ने जनहित याचिका दायर की थी। हरप्रीत यूएई में योग प्रशिक्षक हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपनी जनहित याचिका से यह निर्देश मांगा था कि चुनाव प्रचार के दौरान जाति, धर्म के आधार पर उम्मीदवार जनता में चुनाव प्रचार करते हैं तो उनके खिलाफ भारतीय आयोग समुचित कार्रवाई क्येां नहीं करता।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मिला बढ़ावा खोजी पत्रकारिता को

समाज की भलाई के लिए एक पत्रकार को सच्चाई की तह तक जाना ही चाहिए। यही सोच ‘तहलका’ की भी रही है। राफेल जेट विमान सौदे के समझौते से संबंधित तमाम दस्तावेजों की समसामयिकता जांचने के लिए मीडिया में प्रकाशित दस्तावेजों को भी जांच के दायरे में शामिल करके पूरे मामले को पूरी समग्रता से देखने जानने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला नि:संदेह खोजी पत्रकारिता के लिए बड़ा कदम है।

दिसंबर में ही एपेक्स कोर्ट ने वह याचिका रद्द कर दी थी जिसमें रु पए 59000 करोड़ के राफेल विमान सौदे में व्यवसायिक पक्षपात का आरोप लगाया गया था। यह सौदा 2016 में फ्रांस के साथ 36 जेट खरीदने को लेकर हुआ था। इस सौदे की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यों की पीठ कर रही थी। इसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई कर रहे थे। उनका फैसला स्वागत योग्य है।

सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी आपत्तियों को खारिज कर दिया जिनमें कहा गया था कि ‘गुम हो गए दस्तावेज़ों’ का संज्ञान न लिया जाए। रक्षा मंत्रालय ने भी समीक्षा बैठक पर इस आधार पर आपत्ति जताई कि ‘गोपनीय मामला जनता की परिधि में आ जाएगा। अदालत ने कहा कि बतौर साक्ष्य इसकी प्रांसगिकता है।

अदालत ने कहा, ‘ऑफीशियल सीके्रटस एक्ट’ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि जिसके आधार पर शासन एक्जक्यूटिव ‘गोपनीय कागज़ात’ का प्रकाशन रोक सकता हो। अपनी जांच में उन दस्तावेजों को शामिल करना अनुचित नहीं है जिनके बारे में पहले कहा गया था कि वे ‘खो’ गए हैं। फिर इनकी गैरकानूनी तौर पर ‘फोटो कापी’ किए जाने की बात कही गई। इन बातों को दरकिनार कर इन्हें देखा जाना चाहिए।

इविडेंस एक्ट (साक्ष्य कानून) और ऑफीशियल सीक्रेट्स एक्ट (शासकीय गोपनीय कानून) के तहत भी कुछ याचिकाएं बतौर दावे के आई थीं लेकिन अदालत ने उस सिद्धांत को ही सर्वोपरि माना जिसमें यह आवश्यक नहीं कि यह जाना जाए कि साक्ष्य कब, कहां और कैसे मिला।

दस्तावेजों को बतौर साक्ष्य विचारार्थ लेना प्र्रेस की आज़ादी को मान्यता देता है और जनहित में इसके महत्व को कबूल करता है। इस फैसले से यह भी स्पष्ट है कि ऑफीशियल सीक्रेट्स एक्ट लगा कर कानूनी छानबीन या जनहित के मुद्दों को कम करके आंका नहीं जा सकता।

यदि सरकारी कागजात लीक होते हैं तो उसकी जिम्मेदारी उस पर आनी चाहिए जिसने उसे लीक किया। इसकी जिम्मेदारी को उन मीडिया घरानों पर नहीं डाला जा सकता जिन्होंने उसे प्रकाशित या प्रसारित किया। यह नहीं है कि गुम हो गए दस्तावेज हासिल कैसे किए गए बल्कि यह देखना ज्य़ादा ज़रूरी है कि उन दस्तावेजों में क्या महत्वपूर्ण है। ‘राष्ट्रीय हित’ के नारों से अदालत की छानबीन नहीं रु केगी।

ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट पर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ भी बरकरार रखी। इन्फारमेशन टेक्नॉलॉजी एक्ट की धारा 66ए जिसका इस्तेमाल पुलिस, सरकार की आलोचना करने वालों और राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी के लिए करती थी उस कानूनी धारा को सुप्रीमकोर्ट ने खत्म कर दिया। अदालत ने माना कि इस एक्ट की भाषा ऐसी है कि इसका उपयोग गलत तरीके से भी किया जा सकता है। इसलिए तार्किक पाबंदियों के साथ इसे संविधान की धारा 19(2) के ही तहत  रखा है।

सुप्रीमकोर्ट के फैसले के मद्देनज़र सरकार को इसकी साक्ष्म जांच परख का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि राफेल जेट सौदे पर अंतिम फैसला अभी आना है।

अमल क्यों नहीं होता चुनावी घोषणा-पत्रों के वादों पर!

आम चुनाव ही पूरे देश के लिए वह मौजूं समय होता है जब राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने नव बदलावों और योजनाओं के साथ चुनावी घोषणा तैयार करती हैं जिन्हें वे अमल में लाने का स्वांग भी रचते हैं। उनके चुनावी घोषणापत्र में हर किसी के लिए कुछ  न कुछ होता ही है। वे गरीबी हटाने का वादा करते हैं। वे उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करते हैं साथ ही महंगाई घटाने की बात भी करते हैं।

अभी केंद्र में जो सरकार है उसने यह वादा किया है कि कृषि से होने वाली आमदनी को वे दुगुनी कर देंगे। जबकि असलियत यह है कि कृषि से होने वाली  आमदनी घटी है। इसकी दो बड़ी वजहें हैं एक तो आर्थिक हालात और सूखा। वादा था कि हर साल दो करोड़ नौकरियां सृजित करेंगे। लेकिन हालात इतने खराब  हैं कि सरकार ने बेरोज़गारी पर सरकारी आंकड़े भी जारी नहीं होने दिए। साथ ही यह तर्क भी दिया कि किसी के भी पास उपयुक्त सही आंकड़े नहीं हैं।

यदि इतिहास देखें तो पाएंगे कि सरकारें मैनीफेस्टो में दी गई तमाम घोषणाओं में से काफी कुछ पूरा नहीं कर पातीं। कांग्रेस ने 1991 में सत्ता संभालते 150 दिन में कीमतों को 1989 के स्तर पर लाने की बात कहीं थी लेकिन सत्ता में आने के बाद पार्टी ने कहा कि यह मुमकिन ही नहीं है।

ऐसा लगता है कि सरकारें जनता के प्रति जवाबदेह ही नहीं होना चाहतीं। पार्टियां  निहित स्वार्थों की शिकार हो जाती हैं और समाज के आम कल्याण की बात कहीं पीछे छूट जाती है। आज़ादी के बाद तो यह कल्याण भारतीय समाज में दाल में नमक की तरह हो गया। ढेरों बेहद $गरीब (अत्योदय) परिवारों को ज़रूर शुरू में इसका लाभ मिला लेकिन विकास का लाभ देश के साथ कुलीन समूहों को ही मिला। नई आर्थिक नीति 1991 में आई इस से हालात और बिगड़े।

यह कहना कि टैक्स लगा कर पुनर्वितरण संभव है और इसक पीछे तर्क दिया जाता है कि इन्हीं नीतियों के चलते कामयाब लोग पूंजी निवेश नहीं करते और अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो जाती है। यह भी तर्क दिया जाता है कि इससे पंूजी विदेश चली जाएगी। यह दावा दिया जाता है कि यदि $गरीबों को धन से मदद की तो वे सुस्त हो जाएंगे। वैकल्पिक तौर पर वेतन का खर्च बढ़ जाएगा। भारत वैश्विक बाज़ारों में अपनी प्रतियोगी स्थिति खो बैठेगा। इन तमाम तर्कों में सच्चाई कुछ तो है।

लेकिन आज एक बहुत बड़ा मुद्दा है नागरिकता का। क्या बेहद दुरूह हालातों में लोगों को रहना चाहिए? आमतौर पर इसकी वजह भी $गरीब ही मान लिए जाते हैं। आधुनिक काम-धंधा करने के लिए उनके पास कौशल नहीं होता। इसकी वजह यह कतई नहीं है कि उन्हेें पढ़ाई-लिखाई का मौका नहीं मिला या उन्हें उचित पोषण नहीं मिला और स्वास्थ सुविधाएं हासिल नहीं हुई।

आज़ादी के समय, यह माना गया था कि समाज की बुराइयों मसलन $गरीबी और अशिक्षा का समाधान सामूहिक तौर पर किया जाएगा। अर्थव्यवस्था में राज्य को खासी अहमियत दी गई। यह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दौर में बनी आम राय थी।

लेकिन इस आम राय की अनदेखी हुई। देश में क्रोनी कैपिटलिज्म और मोनोपॉलिज का विकास हुआ। हालांकि देश में 1991 में मोनोपोलीज एंड रिस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रैक्टिस एक्ट भी बना। यह जो आदर्श बदलाव आया कि व्यक्ति विशेष को ही बाज़ार जाकर अपनी निजी समस्याओं को हल करना चाहिए। इससे समाज मेें असमानताएं बढ़ेंगी। ऐसे कुछ संकटों के निदान के लिए यूपीए एक ने मनरेगा और शिक्षा के लिए अधिकार और स्कूल में दोपहर का भोजन आदि योजनाएं शुरू कीं। हालांकि ये योजनाएं समाधानकारक ही रहीं लेकिन यदि इन योजनाओं को नेहरू के आदर्श की ओर वापिसी कहें तो गलत नहीं होगा।

देश में असमानता लगातार बढ़ती गई है। अभी हाल जारी डाटा से यह साफ है कि देश की एक फीसद आबादी के पास पूरे देश के खजाने का 70 फीसद है और सारी आय का 22 फीसद है। यदि इससे कालाधन भी जोड़ दिया जाए यह सब मिलकर कुल खजाने का 85 फीसद और आमदनी सारी आय का 45 फीसद है।

यह सबसे बड़ी वजह है आर्थिक मंदी और देश की बड़ी जनसंख्या के विरोध की मोदी सरकार ने पहले यह वादा किया था कि वे नीतियों से नेहरूवादी तत्वों को हटा देंगे। लेकिन मनरेगा ही जारी नहीं रहा, बल्कि उसका बजट उसी श्रेणी की नई नीति उज्जवल योजना शुरू कर दी गई। बस उसमें एक व्यावसायिक नज़रीया ज़रूर जोड़ दिया गया। नतीजा अब दिख रहा है।

कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में एक भरे-पूरे समाज की बात की गई है। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि राज्य ही देश के बेहद गरीब वर्गों की जिम्मेदारी भी वहन करेगा – न्याय योजना उसी तरह की है। लेकिन क्या भरोसा जमेगा?

जनता के प्रति जवाबदेही की ज़रूरत ऐसे तमाम कार्यक्रमों में होनी ही चाहिए।  इन कार्यक्रमों में यह बात भी ज़रूरी होगी कि यह बताया जाए कि ऐसे कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने के लिए कहां से संसाधन जुटाए जाएंगे। जिससे चुनावी घोषणापत्र में दिया गया लक्ष्य हासिल हो सके। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कागज पर की गई घोषणा का देश की जनता के लिए कोई मायने नहीं होगा।

अरुण कुमार

लेखक मालकम अदिसेलिया चेयर

सोशल साइसेज में प्रोफेसर हैं।

साभार: इंडियन एक्सपे्रस

चुनावी बांड पर रोक नहीं, लेकिन तीस मई को हिसाब दें- सुप्रीम कोर्ट

चुनावी खर्च में पारदर्शिता लाने के लिए राजनीतिक दलों को चुनावी बांड से धन दिए जाने का जो अंतरिम आदेश दिया है, वह बेहतर है। भाजपा के नेतृत्व की एनडीए सरकार ने चुनाव में ज़्यादा खवर्च न करने और पार्टियों को विभिन्न व्यवासायिक घरानों से मिलने वाले धन को चुनावी बांड में बदल कर देने की व्यवस्था की थी। चुनावी बांड के लिए जो दानकर्ता बैंको में आएंगे उनकी जानकारी सरकार को होगी लेकिन आम लोगों को नहीं। इस पूरे मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट करेगा। इसके खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी राजनीतिक दलों को कहा है कि जिन्होंने चुनावी बांड के जरिए दान लिया है, वे 15 मई तक मिले धन और उसके खर्च का पूरा ब्यौरा 30 मई को सील कवर में चुनाव आयोग को दे दें। अदालत इस पूरे मामले पर गहराई से विचार करेगी। अदालत ने सभी राजनीतिक पार्टियों से कहा है कि ब्यौरा, हर चुनावी बांड की रकम, तारीख और उसके एवज में मिली रकम और खर्च दिया जाए।

माकपा और गैर सरकारी स्वंयसेवी संगठनों के संगठन और लोकतांत्रिक सुधार (एडीआर) ने चुनावी बांड की इस पूरी नीति पर सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका दायर की थी। चुनाव आयोग के अनुसार इस योजना के तहत भाजपा को रुपए 210 करोड़ मात्र, बतौर दान 2017-18 के दौरान मिले थे। जबकि कांग्रेस को 2016-17 में रुपए 160 करोड़ मात्र मिले।

भारत के एटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल कहते हैं कि चुनाव में मतदाताओं की सिर्फ इतनी दिलचस्पी होनी चाहिए कि उन्हें किन उम्मीदवारों में से किसे चुनना है। उन्हें क्यों यह चिंता करनी चाहिए कि राजनीतिक दलों को चंदा कहां से मिलता है।

सुप्रीम कोर्ट  की शंकाओं पर वे अपनी बात रख रहे थे। मुद्दा यह था कि मशहूर वकील प्रशांत भूषण और एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) और माकपा ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार कीे ओर से चुनावी बांड योजना में पारदर्शिता न होने पर सवाल उठाया था। इस पर वेणुगोपाल का कहना था कि राजनीतिक पार्टियों के चुनाव में खर्च करने के लिए चुनावी बांड योजना बनी थी। लेकिन इसमें पारदर्शिता कभी इसका मंत्र नहीं हो सकती। इस योजना से दीर्घकाल में काला धन पर रोक लग सकेगी। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में चल रही सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी खर्च के चुनावी बांड योजना बनाई थी। सरकार यह चाहती है कि चुनावी बांड योजना में दान देने वालों की गोपनीयता बरकरार रखी जाए। लेकिन विपक्ष और पोल पैनेल इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उनकी मांग है कि चुनावी फंड प्रक्रिया में और ज़्यादा पारदर्शिता हो और सारे मामले को स्पष्ट करने में सुप्रीम कोर्ट मदद दे।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता, और संजीव खन्ना इस मामले की सुनवाई में हैं। राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता के मुद्दे पर सरकार के एटार्नी जनरल के बयान पर कहना है कि आज के हालात के मद्देनजऱ फंडिंग में पारदर्शिता पर ध्यान दिया जाना बहुत ज़रूरी है। जिसके बिना इस योजना का आकलन संभव नहीं है।

जस्टिस खन्ना ने कहा कि ऐसी हालत में शेल कंपनियां भी अपना योगदान इस चुनावी बांड के कोष में करती ही होंगी। इस पर एटार्नी जनरल ने कहा कि आयकर अधिकारी तो जब चाहे वे हमेशा ऐसी जानकारी हासिल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि नई योजना पिछली योजना से ज़्यादा बदतर नहीं है जिसके तहत व्यवस्था में ही काला धन पहुंच जाता था। उन्होंने काला धन कम करने की दिशा में उठाया गया कदम बताया। समय ही बता सकेगा कि काला धन रोकने में यह कितना कामयाब रहा।

उधर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच को बताया कि उसे इस बात की जानकारी है कि बांड की शक्ल में किस पार्टी को कितना दान मिला है कि बांड की शक्ल में किस पार्टी को कितना दान मिला है। वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने बताया कि यह जानकारी खुद राजनीतिक दलों ने ही दी है।

सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने आश्चर्य जताया। उन्होंने कहा कि सारा हल्ला हंगामा तो इस बात पर है कि कानून में बदलाव करके बांड प्रक्रिया जारी की गई, और उसमें भी जानकारी देने पर रोक है।

जामिया मिलिया इस्लामिया में पहली महिला वाइस चांसलर नज्मा अख्तर

आप मानें या न मानें लेकिन सच यही है कि नई दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सटी में पहली महिला वाइस चांसलर नज्मा अख्तर नियुक्त हुई हैं। यह भी इत्तेफाक ही है कि जामिया मिलिया इस्लामिया को बने 99 साल हुए हैं और उन्हें यह मौका मिला। जामिया मिलिया इस्लामिया की 16वीं वाइसचांसलर हैं। इतना ही नहीं, देश के तमाम कंद्रीय विश्वविद्यालयों में नज्मा अख्तर अकेली और पहली महिला वाइस चांसलर हैं।

जामिया मिलिया इस्लामिया के वाइस चांसलर में एक से बढ़ कर एक प्रतिभाएं रही हैं। इनमें देश के उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन, युशीरूल हसन और दिल्ली में लेफ्टिमेंट गवर्नर रहे नजीबजंग आदि हैं। नज्मा के वाइस चांसलर बनने से पहले वहां तलत अहमद इस पद पर थे जो अब कश्मीर यूनिवर्सटी की कमान संभाल रहे हैं।

अमूमन मीडिया से दूर रहने वाली नज्मा अख्तर अच्छी खासी पढ़ी-लिखी हैं। उन्होंने इंग्लैंड में वारविक और नाटिंगम विश्वविद्यालयों से डिग्री हासिल की है और फ्रांस में पेरिस की आईआईईपी यूनेस्को और यूनीसेफ, डैनिडा जैसी अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों से बतौर सलाहकार जुड़ी रही हैं। वे अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सटी से गोल्डमेडलिस्ट हैं और कुरूक्षेत्र यूनिवर्सटी से उन्होंने शिक्षा में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

उन्होंने तकरीबन 15 साल डिपार्टमेंट ऑफ एजूकेशनल एडमिनिस्ट्रेशन (एनआईपीए) में प्रशासन संभालने में निकाल दिए। उन्हें 130 देशों में शिक्षा अधिकारियों के लिए अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक प्रशासन का कोर्स तैयार किया। जिसमें बड़ी तादाद में लोग भाग लेते हैं। उन्होंने इलाहाबाद (प्रयागराज) में पहला राज्यस्तरीय प्रबंधनकूल (एसआईई) बनाया जहां देश के शिक्षा अधिकारी प्रशिक्षित किए जाते हैं। उन्होंने कई और महत्वपूर्ण शिक्षा संस्थानों के प्रबंधन पर नज़र रखी।

वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सटी में एकेडेमिक कार्यक्रमों की निदेशक रहीं। इग्नू में कई दूरस्थ शिक्षा शास्त्रियों की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विद्यालयों की क्षमता बढ़ाने में उन्होंने खासा सहयोग दिया।

ऐसी उम्मीद की जाती है कि जामिया मिलिया इस्लामिया की पहली महिला वाइस चांसलर नज्मा अख्तर इस विश्वविद्यालय को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान दिला सकेंगी।

जनता के प्रधानमंत्री

रोमन शासक जूलियस सीजर ने अपने पुराने दोस्त ब्रूटस से आखिरी जो शब्द कहे थे। वे थे ‘तुम भी मेरे बच्चे।’ यह बात लिखी है रोमन इतिहासकार सुटोनियस ने। रोमन सिविल वार में राजधानी पर विजय हासिल हुई और सिंहासन भी मिला। सीजर की पहचान उसकी हिम्मत, बहादुरी से होती है। उसने रुबिकॉन नदी पार की। अपने विरोधी पोंपेई को उसने पदास्त किया। सीजर ने अपने नेतृत्व का कौशल दिखाया जिसके चलते वह औरों से कहीं अलग था। वह जन आंदोलन के मंच पर आया, बेहद नाटकीय तरीके से। उसने अपनी जि़ंदगी के शुरूआती दिनों में ही यह पहल ली। धीरे-धीरे रोम की जनता के दिल में उसने अपनी छाप छोड़ी।

सीजर एक कुशल सैनिक योद्धा था। वह अपने अर्धसैनिकों से छापा मुकाबलों में भी कामयाब रहता था। रण के मैदान में या तो वह एक ऊंची पहाड़ी से अपनी सेनाओं को ऊंचा दिखाई देता था या फिर युद्ध के मैदान में वह सैनिकों के बीचों-बीच होता था। वह उनका नेतृत्व करता था। वह सैनिकों में खासा लोकप्रिय था। सैनिक उसके इरादे के प्रति समर्पित थे। उनके लिए वह महान था।

नेता वह नहीं होता जो खुद को वैसा बना लेता है जैसा समाज चाहता है बल्कि सच्चा नेता वह होता है जो खुद को योग्यता और अपने कर्म के चलते जनता में अपनी छवि बनाता है। ऐसी छवि पहले कभी सीजर की थी। आज नरेंद्र मोदी की है। मोदी की असल ताकत उनका फोकस और ध्यान है। वे अकेले जीत पर केंद्रित रहते हैं। उनका फोकस और उनकी जबरदस्त छवि एक अजेय योद्धा के तौर पर उभरती है। एक जनरल और सैन्य रणनीति के कुशल जानकार कार्ल वॉन क्लॉजविट्ज ने एक बार कहा था,’सबसे अच्छी रणनीति तो यह है कि हमेशा मज़बूत रहा जाए, पहले सबके साथ फिर फैसला लेते हुए। रणनीति में कोई और सबसे ऊंची और रणनीति की सबसे निचली तकनीक नहीं होती जिस पर सेनाएं अपना ध्यान जमाती है।। संक्षेप में कहें तो पहला सिद्धांत यही है कि बहुत ध्यान से कार्रवाई की जाए।’

विपक्ष में जिस तरह का नेतृत्व है उसकी तुलना में मोदी के संदेश लक्ष्य केंद्रित हैं और कतई अस्पष्ट नहीं हैं। उनकी ‘चौकीदार’ प्रचार शैली बताती है कि उनकी नेतृत्व क्षमता क्या है। आलोचकों के लिए भले ही यह उत्तेजक और नाटकीय हो, लेकिन मोदी के लिए यह एक ऐसा लक्ष्य रहा है जिसका एक उद्देश्य था।

मोदी बेवजह महात्मा गांधी को याद नहीं करते। गांधी के पास लक्ष्य तक पहुंचने के अपने तरीके थे। उनकी लंगोटी, उनका सत्याग्रह उनके अहिंसक प्रतिरोध और उनके हरिजन आंदोलन ने ताकतवर ब्रिटिश शासन को घुटने टेकने पर मज़बूर कर दिया था। मोदी गांधी को इसीलिए भी याद करते हैं।

मोदी के प्रचार में जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है – वह गांधी का भी था- कि गऱीब इंसान को सम्मान दो। माक्र्स और माओ ने भी ऐसे समाज के बारे में सोचा था कि ऐसा समाजवादी समाज हो जहां सभी नागरिक एक समान हों। वे कामयाब इसलिए नहीं हुए क्योंकि समान दर्जे से वे खुद जुड़े हुए थे। मोदी ने अपना नज़रिया  कहीं अलग रखा है।

उन्होंने ‘चौकीदार’ प्रचार में ‘बिरादरी की भावना’ खुद को ‘चैकीदार’ के तौर पर पेश करने और उस भावना से जोड़कर उन्होंने दो वस्तुनिष्ठता साधी। सीजर की शैली में वे दुश्मनों के सामने अविजित योद्धा बन गए। दूसरे डाक्टरों, इंजीनियरों, सरकारी मुलाजि़मों और व्यापारियों के लिए वे चौकीदार प्रधानमंत्री बन गए। बड़ी ही चतुराई से उन्होंने एक छोटे समझे जाने वाले पेशे में भी सम्मान की भावना भर दी। अब आज कोई भी जो ऐसे छोटे समझे जाने वाले पेशे में हैं वह कभी सर्विस वर्ग के ऐसे काम को कम नज़रिए से नहीं देखेगा।

साधारण लोगों के लिए सम्मान की भावना जगाना ही मोदी का सुशासन है। प्रधानमंत्री जन-धन योजना से स्वच्छ भारत, उनकी ऐसी योजनाएं रहीं हैं, जो शांत और गंभीर और सम्मान पर ज़ोर देती हैं। सरकारी लाभ जो उनके लिए होते थे वह नगद दिए जाते थे। उससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा था और राजनीतिक आधिपत्य भी। गऱीब तब नौकरशाहों और राजनीतिकों की कृपा पर जी रहे थे। जनधन, आधार, मोबाइल एप आदि से बहुत कुछ बदल गया। जेएएम से एक नई आधुनिक आर्थिक पहचान बनी जिससे गऱीब आर्थिक तौर पर न केवल मज़बूत हुआ है बल्कि उसका सम्मान भी बढ़ा है।

आलोचक भी मानते हैं कि मोदी की वक्तृता कौशल अद्वितीय है जिसका उन्हें मौका भी मिला है। बिना अच्छा काम किए कोई लोगों के दिल पर राज नहीं कर सकता। भारतीय मतदाता वर्ग एक स्तर पर बहुत प्रौढ़ है तो दूसरे ही क्षण बेहद निर्मम। पिछले कई चुनावों में कई नेताओं के साथ ऐसा हो चुका है।

मोदी के संबंध में उनके वादों के पूरे होने और उनके वक्तृता कौशल के चलते वे आज भी जन के दुलारे हैं। इस बार का आम चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी की लड़ाई, विकास कार्य पर उनका ज़ोर और साधारण नागरिकों के जीवनशैली में सुधार लाने की उनकी कोशिशों पर ही केंद्रित है। मोदी का ‘सब का साथ, सब का विकास’ महज नारा नहीं है। यह देश के 126 करोड़ नागरिकों के प्रति उनका वादा है। जिन्हें वे अपना परिवार कहते हंै।

चुनाव में असल मुद्दा भटक कर किसी और दिशा में भी जा सकता है। लेकिन यह मानने की कोई वजह नहीं है कि समाज के अल्पसंख्यक समुदाय उनसे घृणा करते हैं। पिछले पांच साल में अल्पयंख्यकों का उन्हें खासा भरोसा मिला है।

देश में मोदी ने एक बहुत बड़ा बदलाव लाने में खासा नाम कमाया है। एक मज़बूत नेता जिसके पास विकास करने का एक अच्छा एजेंडा है देश की संस्कृति को अच्छी तरह जानने समझने के कारण उन्होंने विकास को एक मकसद माना है। अब इसी कारण उन्होंने दिल जीते हैं। और पूरी दुनिया में यश। इसी कारण यदि वे इस बार फिर विजयी होकर आते है। जिसकी प्रचंड संभावना है। इस चुनाव में भी हम उनकी जीत की उम्मीद में ही हैं।

राम माधव

(महासचिव भारतीय जनता पार्टी)

इस बार रोचक हैं हिमाचल में चुनावी टक्कर

हिमाचल प्रदेश में लोक सभा चुनाव बहुत दिलचस्प हो गया है। भाजपा ने एक मंत्री सहित दो विधायकों को मैदान में उतार दिया है तो कांग्रेस ने भी दो विधायकों पर दांव आजमाया है। मुय मुकाबला इन दोनों में ही है, हालांकि कुछ अन्य उमीदवार भी किस्मत आजमा रहे हैं। पिछले चुनाव में भाजपा चार की चार सीटें जीत गयी थी लेकिन इस बार कांग्रेस उससे सीटें छीनने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है।

कांग्रेस ने भाजपा के बाद अपने चारों उमीदवार घोषित कर दिए। उमीदवारों को देखें तो भाजपा ने दो उमीदवार रिपीट किये हैं जबकि कांग्रेस के सभी उमीदवार पिछले चुनाव में नहीं लड़े थे। इस बार कांग्रेस ने मंडी से आश्रय और कांगड़ा से पवन काजल को मैदान में उतारा हैं। कांग्रेस के सामने हमीरपुर सीट पर उमीदवार का चयन लंबे समय तक फंसा रहा। कारण यह था कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और तीन बार भाजपा के सांसद रहे सुरेश चंदेल कांग्रेस में आना और उसका टिकट चाह रहे थे। एक बार तो लग रहा था कि आश्रय की तरह वे भी टिकट पा जायेंगे लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान में उनका पत्ता साफ़ हो गया।

हमीरपुर में कांग्रेस ने पूर्व मंत्री राम लाल ठाकुर को टिकट दिया है जो तीन बार पहले भी इस सीट पर हार चुके हैं। उनका मुकाबला तीन बार के सांसद भाजपा के अनुराग ठाकुर से है। अनुराग के पिता और पूर्व मुयमंत्री प्रेम कुमार धूमल का इस हलके में जबरदस्त प्रभाव है लिहाजा अनुराग को इसका लाभ रहता है।

यह माना जाता है कि सुजानपुर से कांग्रेस विधायक राजेंद्र राणा अपने बेटे के लिए हमीरपुर से टिकट चाहते थे। उन्हें पूर्व मुयमंत्री वीरभद्र सिंह का पूरा समर्थन था। वे इलाके में एक लोकप्रिय नेता हैं और पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने पूर्व मुयमंत्री प्रेम कुमार धूमल को हरा दिया था।

सुजानपुर के सुभाष का कहना है कि राणा के बेटे को टिकट मिलता तो मुकाबला होता। ‘अब तो मुझे लगता है कि अनुराग का रास्ता साफ़ है। ऊपर से अनुराग ने काफी काम भी किये हैं।’ घुमारबीं के कृष्ण कुमार ने कहा कि इस बार राम लाल के प्रति सहानुभूति जाग सकती है क्योंकि वे तीन बार हारे हैं।  मंडी में सांसद राम स्वरूप को भाजपा ने दुबारा मैदान में उतारा है। अब उनका मुकाबला सुख राम के पोते आश्रय से है। सुख राम मंडी विधानसभा हलके में एक बार भी नहीं हारे जबकि लोकसभा के चार में से दो चुनाव उन्होंने हारे हैं। उनका मंडी जिले में अच्छा प्रभाव माना जाता है। यह कहा जाता है कि 2017 में विधानसभा के चुनाव में भाजपा के मंडी की सभी दस सीटें जीतने के पीछे सुख राम का प्रभाव भी था।

सुख राम अब कांग्रेस में हैं और पूर्व मुयमंत्री वीरभद्र सिंह से उनकी बिलकुल नहीं बनती। यदि वीरभद्र सिंह दिल से सुख राम के पोते को समर्थन दे देते हैं तो आश्रय मंडी में भाजपा को चौंका सकते हैं। भाजपा के लिए मंडी लोक सभा सीट अहम इसलिए भी है क्योंकि मुयमंत्री जयराम ठाकुर का यह गृह जिला है। पत्रकार बीरबल शर्मा कहते हैं कि दल बदलने से सुख राम की इमेज पर खऱाब असर पड़ा है। ‘इसके बावजूद सुख राम के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। वीरभद्र सिंह का रोल भी इस सीट पर बहुत असर करेगा।’

कांगड़ा सीट पर इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों ने नए उमीदवारों को टिकट दिया है। वरिष्ठ नेता शांता कुमार का टिकट काटे जाने के बाद उनके समर्थक किशन कपूर को टिकट दिया है जो जय राम सरकार में मंत्री हैं। कांग्रेस ने भी विधायक पवन काजल को मैदान में उतारा है जो ओबीसी समुदाय से हैं जबकि कपूर गद्दी समुदाय के हैं।

नगरोटा के नरेंदर सिंह ने कहा कि पवन काजल अच्छे उम्मीदवार हैं। जबकि गद्दी समुदाय के अभिषेक कपूर का कहना था कि किशन कपूर को उनके समुदाय से पूरा वोट मिलेगा। शिमला सीट पर कांग्रेस ने पहले भी सांसद रह चुके विधायक धनी राम शांडिल को मैदान में उतारा है। भाजपा ने भी विधायक सुरेश कश्यप को टिकट दिया है। इस सीट पर भी जबरदस्त टक्कर देखने को मिलेगी क्योंकि शांडिल की इमेज हलके में अच्छी है जबकि सुरेश भी अपने हलके में काफी लोकप्रिय हैं।

सोलन के रत्ती राम का कहना था कि शांडिल पहले भी सांसद रहे हैं और उनका ट्रैक रिेकॉर्ड अच्छा रहा है जबकि नाहन के बिल्लू राजपूत ने कहा कि सुरेश मेहनती हैं और कमाल कर सकते हैं।

हिमाचल में 19 मई को मतदान होना है लिहाजा यहां प्रचार धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ेगा। कांग्रेस और भाजपा की तरफ से तमाम बड़े नेता पीएम मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी प्रचार के लिए आएंगे।

पिता, दादा और कांग्रेस उमीदवार

यह दिलचस्प परिदृश्य शायद पहाड़ की चुनावी बयार में पहली ही बार बना। जब बेटे आश्रय को कांग्रेस टिकट मिला तो पिता अनिल शर्मा भाजपा की सरकार में मंत्री थे। इससे उनके लिए धर्मसंकट की स्थिति बन गयी। भाजपा के उनके मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार में उनके पिता पूर्व केंद्रीय मंत्री सुख राम और कांग्रेस प्रत्याशी बेटे आश्रय की आलोचना करने लगे। जब हिम्मत हारी तो मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। बता दें तीनों, यानी सुख राम, अनिल शर्मा और आश्रय, 2017 के अक्टूबर तक कांग्रेस में ही थे। तब भी अनिल शर्मा मंत्री थे लेकिन कांग्रेस की सरकार में। आश्रय कांग्रेस के ब्लाक प्रभारी थे। लेकिन दिसंबर के विधानसभा चुनाव से ऐन पहले तीनों भाजपा में चले गए। अनिल ने मंडी विधानसभा सीट से चुनाव जीता और भाजपा सरकार में भी मंत्री हो गए। अब सवा साल के बाद अनिल के पिता सुख राम, नरसिम्हा राव सरकार में केबिनेट मंत्री रहे, अपने पोते आश्रय के साथ मार्च के आखिर में दिल्ली में राहुल गांधी से मिले और न सिर्फ कांग्रेस में शामिल हुए, आश्रय के लिए मंडी लोक सभा सीट से टिकट का भी इंतजाम कर गए। सुख राम के घर से दो दशक पहले जब कोई साढ़े तीन करोड़ रूपये मिले थे, कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। बाद में कई घटनाक्रमों के बाद अब सुख राम दोबारा कांग्रेस में पहुँच गए हैं। मंडी में जो दिलचस्प स्थिति बनी वो यह कि अनिल शर्मा खुद तो भाजपा सरकार में मंत्री थे और बेटा चुनाव मैदान में कांग्रेस की टिकट पर भाजपा के प्रत्याशी को टक्कर दे रहा था। जाहिर है अनिल बेटे के लिए प्रचार कर नहीं कर सकते थे। धर्मसंकट यह था  कि यदि भाजपा के लिए करते हैं तो बेटे के खिलाफ प्रचार हो जाएगा। अब इस्तीफा देकर मंत्री पद तो छोड़ दिया, कह रहे हैं कि भाजपा के प्राथमिक सदस्य वे अभी भी  हैं। देखते कुछ दिन में क्या दृश्य बनता है।

… ई तौ बाबा जानें उनके मनवा में का ह!

ऐ भैया। पहिले ओनका गंगा मैया बुलौले रहलीं। अबहीं ओंलें तो कहिलें, हमने बाबा विश्वनाथ को मुक्त कर दिया है अब वे सांस ले सकते हैं।’ त भैय्या अब त ऊ विश्वनाथ कारिडोर और गंगा व्यू बनवत हौउएं। ओनकर गंगा मैय्या और बाबा विश्वनाथ से सोझा ‘डायलॉग’ बा। उतो अब बाबा के दरबार के आसपास एतना खुला करा देहले कि अब ऊहां सब आपन बरधा (गाय-बैल) रह वहीं बांध सकैंलें। (यानी सरकारी गौशाला)।

वाराणसी या कहें बनारस बड़ा ही अनोखा और मस्त शहर है। इसी महीने के आखिरी सप्ताह में प्रधानमंत्री आए थे। इसकी मशहूर तंग गलियों में कई मशहूर गलियों जरूर योगी-मोदी ने विश्वनाथ कारीडोर और गंगा व्यू के नाम पर खदान बना दी। अब बाबा विश्वनाथ और गंगा का दर्शन करने जो भी तीर्थयात्री आ रहे हैं वे भी बाबा की नष्ट नगरी देख कर दुखी मन से लौट रहे हैं। अब चुनाव होने हैं। धुंधाधार प्रचार हो रहा है। लेकिन बाबा का दरबार सूना है। लगता है यहां कभी ऐसा था जो उनका अपना था। अब वह नहीं है।

जब भी गोद लिया पर आप नाम दूध बेचने वाले की दुकान पर चुनाव के बारे में पूछिए। आप सुनेंगे, ‘बाबा ताइहेें ओ चाहे, गंगा मैया। हम का बताईं। हमरे कान में जब फूंक पड़ी तो जाके वोट दे आइब।’ इतने उदास सुर पर यदि पूछें कि ‘मुकाबला में यदि कांग्रेस से प्रियंका उतर जाएं तब?’ दूध औबते हुए रामबली कहते हैं कि देखा। उहौ आइल रहलीं। ‘बनारस मेें एक जमाना रहल जब राज्य में एकर मुख्यमंत्री रहलें। तब कांग्रेस का जमाना रहल। अब प्रियंका तिनका-तिनका जोड़त हुई। देखा, बाबा का मरजी का वा?’

बनारस में कांग्रेसियों की एक जमात चाहती है कि प्रियंका जी पर पूरब का रंग चढ़ जाए। वे चुनाव लड़ लें। सभी पाटियां उन्हें समर्थन दें। वहीं कुछ पुराने कांग्रेसी-समाजवादी-भाजपाई चाहते हैं कि वे चुनाव न लड़ें। नहीं तो अरविंद केजरीवाल की तरह हाल होगा। वे तो मुख्यमंत्री हैं। लेकिन प्रियंका का राजनीतिक  कैरियर शुरू होने से पहले खत्म हो जाएगा।

खुद प्रियंका गंगा के शुरूआती यात्रा में लोगों से मिल बात करके बखूबी समझ गई हैं कि पूर्वांचल की इन शहरी-देहाती बस्तियों में धर्म-कर्म, मंदिर-मस्जिद के नाम पर पिछले पांच वर्ष में कहीं कुछ नहीं हुआ। साथ ही सपा, बसपा, भाजपा सरकारों ने अपने कुछ सौ लोगों का ही विकास किया।

कांग्रेस की सरकार के समय यहां कम से कम शिक्षा संस्कृति लघु व्यापार-दस्तकारी का माहौल था जिसे चौपट कर दिया गया। आज तो बाबा के दरबार में  पहुंचना साधारण जन के लिए तो और भी कठिन हो गया है। अच्छा यही है कि शास्त्रों के अनुसार अपने मन मंदिर में ही बाबा को याद कर पूजा-अर्चना कर लें। गंगा भी लगातार सूख रही हैं। गंदगी का आज भी बहाव है। हालांकि विज्ञापनों में गंगा की रक्षा सफाई आदि की मनोहरी तस्वीरें हैं।

बनारस से प्रियंका चुनाव लड़ेंगी या नहीं, यह उनका परिवार और कांग्रेस पार्टी तय नहीं कर सकी है। लेकिन बनारस संसदीय क्षेत्र के लोग चाहते हैं कि वे चुनाव में उतरें। बनारस संसदीय क्षेत्र के लोग चाहते हैं कि वे चुनाव में उतरें। बनारस पहले की तरह फिर शैक्षणिक सांस्कृतिक और हस्तशिल्प का केंद्र बने। इसका अपना अल्हड़पन, बनारसीपन और मस्ती वैसी ही रहे जैसी आज़ादी के दिन से 70 के दशक तक थी। बीती हुई यादें अब वास्ताविकता में भले न आएं लेकिन एक नामी प्राचीन शहर जो आज प्राचीनता बनाए रखने और सुंदरकरण के नाम पर खंडहर में तब्दील कर दिया गया वह तो थमे। उसे जस का तस ही सही आज बचाए रखना ज़रूरी है। बनारस के लोग अब अच्छी तरह समझ गए है कि हिंदुत्व क्या है और उससे कैसे बचें।

वह दिन था आठ मार्च। यही था वह दिन। प्रधानमंंत्री ने काशी में आकर बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का ऐलान यही मंच से किया था। आज भी यहां पुलिस के जवान मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहे हैं।

बाबा की ‘मुक्ति पर्व’ के एक माह बाद यानी सात अप्रैल को इच्छा हुई ‘मुक्तिधाम’ की कुछ तस्वीरें उतार लें। मेरे साथ छायाकार संतोषकुमार पांडेय भी थे।  शाम छह बजे हम पहुंचे। अंधेरा जल्दी न हो। कुछ अच्छी फोटो भी हो जाए।

दशाश्वमेध गली से हम ‘मुक्तिधाम’ को बढ़े। वहां घुसने के लिए सरस्वती फाटक गली अब पैक कर दी गई है। आना-जाना संभव नहीं। हमने पार्क की राह से जाने की कोशिश की। इस रास्ते पर लोहे का चैनेल गेट है। हालांकि पांच-छह फूट का एक रास्ता श्रद्धालु यात्रियों के लिए अभी खुला है।

अब इलाके में बाउंसर खूब हैं। हमने गेट की तस्वीर लेनी चाही कि बाउंसर साहिब अपना मुसुक बल्ला चमकाते पास आ गए। कहने लगे, फोटो खींचने की मनाही है। हालांकि वे यह नहंी बता सके कि यह हुक्मनामा किसकी ओर से है। यही है वह ‘मुक्तिधाम’ परिसर जहां से प्रधानमंत्री ने बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का ऐलान किया था। इस ऐतिहासिक स्थल की सुरक्षा में वहां आज भी पुलिस के जवान तैनात हैं।

इसके ठीक सामने 50 मीटर दूर ही है चद्रगुप्त महादेव मंदिर। इसे चंद्रगुप्त ने बनवाया था। इसकी सूचना वहां लगी पट्टिका से मिलती है। लगा मानो अपनी ऐतिहासिकता बता कर यह मंदिर काशी वासियों को चिढ़ा रहा है। मंदिर में रंगबिरंगी लाइट सजी है। लेकिन मंदिर के आसपास ध्वस्त किए गए घरों-गलियों के मलबे का ढेर जमा हैं।

चंद्रगुप्त महादेव मंदिर के ठीक सामने नीलकंठ महादेव है। आज वे ज़मीन से 25-30 फुट नीचे हैं। पहले तो वे मलबे में ही विलीन हो गए थे। लेकिन जब मीडिया में गलती से खुसर फुसर हुई तो मलबे के ऊपर ही टीन शेड लगा कर वैरिकेंडिग कर दी गई। कम से कम तब नीलकंठ महादेव को सांस लेने में दिक्कत तो नहीं होगी। कहते हैं जब काशी की स्थापना हुई थी, तब से ही नीलकंठ महादेव। लेकिन काशी की स्थापना कब हुई थी? मतभेद तो विद्वानों में है।

मलिन बस्ती के घरों को ध्वस्त करने के बाद उसका मलबा ‘मुक्तिधाम’  में ही सुरक्षित रखा गया है। शायद दलित बस्ती के अवशेष में भविष्य की तलाश का आदेश आ जाए। पहले की प्राचीन संस्कृति की ललिता गली और लाहौरी टोला चौराहा तो ‘मुक्तिधाम’ में विलीन हो गए। अनुमान लगाते रहिए कहां थी ललिता गली और कहां था लाहौरी टोला।

जैसे हम ‘मुक्तिधाम’ में टहल रहे थे। उसी समय दक्षिण भारत से आए 50-60  दक्षिण भारतीय श्रद्धालु वहां घूमते हुए। वह ललिता गली तलाश रहे थे जिससे वे सुरक्षित पहुंंच सकें गंगा किनारे। लेकिन वे जाएं तो किधर से जाएं। न कहीं गाइड और न बोर्ड। ललिता गली में पीपल के पेड़ के पास लगभग दस-पंद्रह फुट मलबा पड़ा है। लेकिन यही वह रास्ता है जो ललिता घाट तक जाएगा। अब अंधेरा हो गया है लेकिन ये सब तीर्थ यात्री एक दूसरे का हाथ पकड़ धीरे-धीरे किसी तरह आगे बढ़ रहे थे। यह है मां गंगा के प्रति अनुराग।

अब इस ‘मुक्तिधाम’ में शाम को गंगा की लहरों से ठंडी पुरवैया हवा बहुत अच्छी आती है। अब तो धूप भी खूब है। पूरी दुनिया में कभी यहां की मशहूर संकरी-तंग गलियां जीवनशैली और संस्कृति के नाम की धूम थी। यह ज़रूर है कि तब यहां की हवा और धूप ठहर गई थी। जिसे भाजपा के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री वापस ला सकें। उन्होंने बाबा विश्वनाथ को अपनी मुक्ति का जश्न मनाने के लिए एक बहुत बड़ा कारिडोर का सपना नक्शे के रूप में दिया है जो कई चरणों में पूरा होगा कभी।

ऐतिहासिकता के लिए प्रसिद्ध रहे बनारस में आज गंगा में बढ़ता प्रदूषण और घटता जलस्तर गंगा के रूप को और कुरूप कर रहा है। वे पक्के घाट जो कभी किसी सरकार ने नहीं बल्कि देश के विभिन्न राजा-राजवाड़ों ने बनवाए जो आज भी टिके हैं। लेकिन उनकी सीढिय़ों पर अब नहीं आतीं गंगा। काशी के ऐतिहासिक मानमंदिर घाट पर सीढिय़ों के ऊपर है मानमंदिर महल। जयपुर के राजा जयसिंह के मानमंदिर महल में जंतर-मंतर का निर्माण कराया था। सदियों तक इसमें धूप और छाया के आधार पर समय, ग्रह-नक्षत्र और उनकी चाल का अध्ययन होता रहा। आज भी देशी विदेशी पर्यटक इसका अवलोकन करने आते हैं। इस पद्धति का निर्माण उन्होंने दिल्ली और जयपुर में भी कराया। लेकिन कौन करे, इनका रखरखाव।

आइए अब देखिए काशी में तुलसी घाट। कहते हैं तकरीबन पांच-छह सौ साल या कुछ और पहले संत तुलसी दास ने इसी घाट पर साधना की और मानस रचा। इस घाट का कोई पुरसाहाल नहीं है। इस घाट के बगल में ही है अस्सी घाट। जिसका खूब जि़क्र होता रहा है। खूब साफ-सफाई खुद प्रधानमंत्री कभी आकर कर गए। लेकिन अब हाल क्या है? इस घाट की सीढिय़ों को छोड़ती हुई गंगा मैया अब सौ मीटर आगे खिसक गई हैं। दोनों घाटों के बीच है गंगा घाट। उसकी भी यही दशा है।

एक ज़माना था जब तुलसी घाट पर लबालब गंगा जल लहर मारता था। अब वह थम गया तो इस घाटों पर चूहे, नेवले, जंगली बिल्ली, वनबिलाव, खेंखर आदि  जंतुओं ने अपनी खोह बनानी शुरू कर दी। उनके अपने घर का अलग ही सौंदर्यबोध है।

घाट के किनारे पत्थर के नीचे बने सुरंगनुमा खोह देख कर ऐसा ही लगता है। रात में जब लोग अपने घरों को लौट जाते हैं तो रात में शुरू होती है इन जंतुओं की चहल-पहल। तुलसीघाट पर सभी इस सुरंगनुमा गुफा के मुहाने पर भुरभुरी मिट्टी के ढेर से यही लगता है कि गंगा की बाढ़ में आई मिट्टी से अपने घर को बनाने का काम यहां शुरू है।

झोपड़पट्टी का पक्का इलाज ढूँढा केरल सरकार ने

देश में जगह जगह बन रही झोपड़पट्टी का पक्का स्थाई इलाज केरल की वाम डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने ढूँढ लिया है। केरल सरकार ने देश के विभिन्न राज्यों में झोपड़पट्टी को लेकर पेश आ रही समस्याओं का सर्वे करने के बाद प्रवासी मज़दूरों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएँ शुरु की हैं। जिसमें गत 23 फऱवरी को मुख्यमंत्री पी विजयन ने पलक्कड में ‘अपना घर’ प्रोजेक्ट का उद्धाटन कर मज़दूरों को सौंपा। यह प्रोजेक्ट भारत अर्थ मुवर्स लिमिटेड (बीईएमएल) नामक फ़ैक्टरी के सामने स्थित है। इस भवन में लगभग 620 मज़दूरों के रहने की व्यवस्था की गई है। इस प्रोजेक्ट को बनाने में तीन वर्ष लगे हैं। ‘अपना घर’ प्रोजेक्ट में मज़दूरों को रहने के लिए खुले डुले 64 कमरे बनाकर किराए पर दिए जा रहे हैं। एक कमरे में 10 मज़दूरों के रहने की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक कमरे में प्रत्येक मज़दूर को एक लोहे का बैड और एक अलमारी की सुविधा दी गई है। यहाँ रहने वाले मज़दूरों को सिर्फ 800 रुपए महीना देने होंगे, परन्तु उन्हें बिजली, पानी और रसोई गैस की सुविधा मुफ़्त दी जा रही है। इतना ही नहीं मज़दूरों के खेलने के लिए बैडमिंटन कोर्ट और बालीवाल कोर्ट की भी सुविधा दी गई है। इस ‘अपना घर’ में 32 रसोई घर, 8 डैनिंग रुम और 96 बाथरूम आदि की सुविधा भी दी गई है।

केरल के श्रम और कौशल मंत्री टी पी रामाकृष्णन ने बताया कि यहाँ रहने वाले मज़दूरों को अपना खाना स्वंय बनाने के लिए 32 साँझे रसोई घर की व्यवस्था की गई है, जिसमें गैस चूल्हे लगे हुए हैं और पाईप लाईन से गैस की सप्लाई दी गई है। जिसके लिए उनसे कोई भी अतिरिक्त चार्ज वसूल नहीं किया जाएगा। उन्होंने बताया कि पलक्कड में बने ‘अपना घर’ में 640 मज़दूर रह सकते हैं, परन्तु केरल के अन्य जिलों में बन रहे ‘अपना घर’ प्रोजेक्टों में एक एक हज़ार मज़दूरों के रहने की व्यवस्था की जा रही है।

श्रम और कौशल मंत्री टी पी रामाकृष्णन ने बताया कि जब भी कोई मज़दूर यहाँ से काम छोड़कर किसी अन्य जगह जाएगा या फिर इस भवन को छोडऩा चाहता है, तो जो भी मज़दूर प्रतिक्षा सूची में होगा, उसको वह वैड इश्यू कर दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि पलक्कड में ‘अपना घर’ प्रोजेक्ट में उद्घाटन से पहले ही सभी बैंड पहले ही फ़ुल हो चुके हैं और बहुत से मज़दूर प्रतिक्षा सूची में हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ पर सीसीटीवी कैमरे भी लगाए गए हैं, ताकि किसी भी प्रकार के अपराध पर अंकुश लगाया जा सके और यहाँ रहने वाले मज़दूरों को सुरक्षा प्रदान की जा सके।

दूसरी ओर पंजाब के राज्यपाल और चंडीगढ के प्रशासक वी पी सिंह बदनौर ने पिछले दिनों मलोया में रिहैबिलिटेशन स्कीम के तहत 100 अलाटियों को चाबियाँ दी। चंडीगढ में रिहैबिलिटेशन स्कीम के तहत 25,728 मकान बनने हैं, जबकि 17696 मकान बनाए जा चुके हैं। लोकसभा चुनाव के मद्देनजऱ शेष मकान भी बहुत जल्द बनाकर देने का वायदा किया गया है, परन्तु इसके वाबजूद चंडीगढ में झोपड़पट्टी की समस्या समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही। इन घरों का मार्किट रेट 20-22 लाख रुपए हैं, जिस कारण ज़्यादातर मज़दूर इन घरों को लाखों रुपए में बेचकर फिर से झोपड़पट्टी बनाकर रहना शुरु कर देते हैं। और फिर अपने बच्चों के नाम पर मकान की डिमांड करना शुरु कर देते हैं। यह हाल तब है जबकि रिहैबिलिटेशन स्कीम के तहत मिले इन मकानों का मालिकाना हक़ इन मज़दूरों के पास नहीं है। इस लोकसभा चुनाव के मद्देनजऱ इन मज़दूरों ने अपनी नई माँग रखते हुए फैसला किया है कि इस बार उनका वोट उस उम्मीदवार को मिलेगा, जोकि उन्हें रिहैबिलिटेशन स्कीम के तहत मिले इन मकानों का मालिकाना हक़ दिलाने का वायदा करेगा। इतना ही नहीं यहाँ रहने वाले मकानों की लगभग 800 रुपए प्रति माह किराए पर दिए गए हैं, परन्तु यहाँ रहने वाले ज़्यादातर लोग यह किराया भी जमा नहीं करवा रहे, जिस कारण किराए की यह मामूली राशि बढ़कर करोड़ों में पहुँच गई है।

वोट और स्लम रिहैबिलिटेशन स्कीम का आपस में क्या रिश्ता है, इसको समझने के लिए यह काफ़ी है कि स्लम रिहैबिलिटेशन स्कीम के तहत चंडीगढ़ के गांव मलोया में मकान बन कर लगभग दो वर्ष से तैयार हैं, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट भी लग चुका है लेकिन लोकसभा चुनाव में समय रहने के कारण ये खंडहर का रूप ले रहे थे। यहां के कई मकानों के शीशे शरारती तत्वों ने तोड़ दिए थे, कई दीवारों को भी खुरच दिया गया था, जबकि नशेडिय़ों के लिए ये आजकल नशा करने का सेफ अड्डा बन गया था। देश में चुनाव आचार संहिता लगने से कुछ ही समय पहले पंजाब के राज्यपाल और चंडीगढ के प्रशासक वी पी सिंह बदनौर ने मलोया में रिहैबिलिटेशन स्कीम के तहत 100 अलाटियों को चाबियाँ दी।

सीवरेज की सफाई में होने वाली मौंतों को रोकने की पहल

तकरीबन दो साल से माया कौर (62साल) अपने बेटे इंदरजीत का इंतज़ार कर रही है। उनका बेटा इंदरजीत घिटरौनी (लाज़पतनगर नई दिल्ली) में जुलाई 2017 में एक सीवर की सफाई में घुसा लेकिन वह कभी बाहर नहीं निकल पाया। वह उन चार लोगों में एक था जो पहले इस सीवर की सफाई में मारे गए। इस परिवार में जो शोक जताने आते हैं, वे दिलासा देते हंै, चिंता मत करों एक दिन इंदरजीत आ जाएगा। दिल्ली सरकार ज़रूर कुछ करेगी। अब उसे सीवेज सफाई की एक आधुनिक मशीन, उसे चलाना, रखने और साफ-सफाई का बंदोबस्त दिल्ली सरकार कर रही है।

दिल्ली जल बोर्ड ने इस मशीन के लिए ठेकेदार भी चुन लिए हैं। पहली आठ मशाीनें उन परिवारों में जाएगी जिनके सदस्यों की मौत सीवेज सफाई के दौरान हुई। यह दावा दिल्ली जलबोर्ड का है कि इन मशीनों पर काम करते हुए प्रति परिवार हर महीने रुपए 35 हजार मात्र की आमदनी होगी। इन मशीनों की टूट-फूट, मरम्मत आदि एक अलग कंपनी करेगी जिसे दिल्ली जल बोर्ड ने ठेका दिया है। दलित चैंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री (डीआईसीसीआई)ने मशीन खरीदने, उसकी देखरेख और भुगतान संबंधी जिम्मेदारी ली है। इसके कार्यकारी अध्यक्ष आरके नारा ने कहा कि इन मशीनों को चलाने के लिए 250 ड्राइवर और पांच सौ सहायक लोगों को भी न्यूनतम वेतनमान पर रखा गया है।

अब मशाीनों से होगी बदबूदार सीवेज की सफाई। यह पहल की है दिल्ली की आप सरकार ने। विदेश से तकरीबन दो सौ मशीनें मंगाई गई हैं ं जो तंग गलियों में भी जाकर सीवर की सफाई कर सकेंगीं और उन दिहाड़ीदार कर्मचारियों को अब कुछ राहत मिलेगी जो ऐसे बदबूदार मौत के कुएं में दम घुटने से मौत के शिकार हो जाते थे। और उनके बच्चे और परिवार लाचारी झेलते थे।

सीवेज की सफाई के काम में नौजवानों को लगाने वाले ठेकेदार भी काम के दौरान हुई ऐसी मौतों की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। देश के विभिन्न महानगरों और कस्बों में न जाने कितने सफाई कर्मी सफाई का काम करते हुए मरते हैं। किसी भी सरकार के पास उनका आंकड़ा नहीं होता। लेकिन वे मौतें उस देश के नागरिकों की हैं जो देश में स्वच्छता अभियान में जुड़े रहे। ये मौतें उन परिवारों के लिए भारी हैं। सफाई का यह काम विभिन्न राज्य सरकारें चाहें तो मशीनें खरीदकर उनको समुचित संचालन की व्यवस्था कर, प्रशिक्षण दिलाकर सफाई कर्मियों की मौत रोक सकती हैं। लेकिन अंतरिक्ष में धावा बोलने का दावा करने वाले देश के महान नेताओं में इस छोटे सी समस्या को हल करने की न तो नीयत है और न इरादा।

तकरीबन एक महीने पहले इन मौतों को थामने का संकल्प लिया दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने। सीवर क्लीनिंग मशीन मंगाने की फाइल पर उन्होंने दस्तखत किए। अभी इनमें से आठ मशीनें ही आई हैं। उन सफाई मजदूरों के परिवारों को ये मशीनें दी जानी हैं जिनके परिवार के लोगों की सफाई करते हुए मौत हुई।

अमूमन देश के सभी शहरों, जि़लों में जनता सीवेज की सफाई में सरकार से तकनालॉजी से सहयोग की मांग करती रहती हैं, लेकिन यह मानवीय मांग की अनसुनी होती रही है। अब उन्हें दिल्ली सरकार के इस नए कदम पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए। यदि सीवेज साफ करने वाली इन मशीनों का ठीक संचालन, उचित देखभाल और समय≤ पर उचित मरम्मत होती रही तो दिल्ली, गाजियाबाद , गुडगांव , मेरठ आदि नगरों में सीवेज साफ करने वालों की विषैली गैस और गंदगी में दम घुटने से मौतों होने की तादाद में ज़रूर कमी आ जाएगी।

दिल्ली की आप सरकार ने विदेश से ऐसी दौ सौ मशाीनें खरीद कर इनकी तैनाती से उन अमानवीय मौतों को थामने का बीड़ा उठाया है। मशीनों की खासियत है कि राजधानी में ये झुग्गी-झोपडियों, शहरी होने में जुड़े गांवों तक में सीवेज की अच्छी साफ-सफाई कर सकेंगी। हर मशीन में स्प्रेवाटर और गंदगी को इक_ा करने का टैंक है। सफाई के दौरान मशीन गाद को सड़क पर फैलाने की बजाए साथ ले जाएगी। समुचित जगह उसका निस्तारण किया जाएगा। सीवेज साफ करने वालों का इस मशीन को चलाने, इसे साफ करने और उसमें थोड़ी बहुत टूट-फूट को दुरस्त करने का प्रशिक्षण भी दिल्ली जल बोर्ड दिलाने को है।

सीवेज सफाई के काम में कुल कितने लोग लगे हैं और कितने काम के दौरान मरे इसकी जानकारी दिल्ली के श्रम विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को नहीं हैं। लेकिन पिछले कुछ साल में अखबारों में छपी खबरों के आधार पर ज़रूर कुछ नाम-पते छानबीन करके निकाले गए हैं।

अपने देश में प्रोव्हीशन ऑफ मैनुअल स्कैवेंचर्स एक्ट अमल में हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर कड़ाई से अमल करना चाहिए और प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान में सहयोग देना चाहिए। सरकारों और निजी आवसीय सोसाइटी को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि हाथों से सफाई कानूनन निषिद्ध है और रोजग़ार के इच्छुकों को वे प्रशिक्षित करके मशीनों के जरिए साफ-सफाई अभियान तेज करें।