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काययाब तो हुआ है आरएसएस

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में बना। इसका सपना रहा है भारत को हिंदुस्थान बनाना। यानी हिंदूराष्ट्र बनाना। इसका अर्थ है वर्ण, जाति, पितृसत्ता आदि ब्राह्मणवादी मूल्यों को बनाए रखते हुए दूसरे बहुसंख्यक हिंदुओं को अपने साथ जोड़ते हुए, मुसलमानों और ईसाइयों को देश में दोयम दर्ज का नागरिक घोषित करना।

संघ के इस काम में सबसे बड़ी बाधा भारतीय समाज में द्विज (ब्राहमण) और गैर द्विज का विभाजन था। गैर द्विज या कल के शुद्र (पिछड़ी जातियंा) और अति शूद्र (दलित) तथा कथित हिंदू समाज के करीब पिचासी फीसद हंै। एक लंबे समय तक संघ ब्राहमणों -बनियों के आधार पर ही सिमटा रहा। लेकिन देश की नियंत्रक स्थिति में आना है तो ताकत नहीं है। संघ ने तब रणनीति में थोड़ा बदलाव किया।

मुख्य संगठन आरएसएस को छोड़ कर अपने दूसरे अनुषांणिक संगठनों में पिछड़ी जातियों (कल के शूद्र लेकिन अस्पृश्य नहीं) के लोगों को नेतृत्व में आने का लालच देकर जोड़ा। सबसे पहले बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद में बड़े पैमाने पर पिछड़ों को लाया गया।

विनय कटियार सरीखे नेता इसी दौर में बजरंग दल के संयोजक बने। कहते हैं कि मस्जिद ढहाने के सबसे बड़े अगुवा भी वे तब बने ही थे। देश में दंगों के लिए भी पिछड़ी जातियों के लड़ाकू लोगों को भर्ती किया गया। इसका एक नमूना मुजफ्फरनगर में जाटों ने दिया।

लोकतंत्र में बहुमत पाकर सत्ता पर कब्जा भी संघ नहीं कर सकता था। भाजपा के जरिए 15 फीसद द्विज के जरिए यह संभव नहीं था, इसलिए पिछड़ी जातियों के ऐसे पैरोकारों को जोड़ा गया जो हिंदुत्व के भी प्रखर पैरोकार हुए। कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे लोग इसके पहले उदाहरण थे। फिर भी केंद्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला।

इसके तोड़ में संघ ने पिछड़ों के प्रतिनिधि के रूप में प्रधानमंत्री पद का दावेदार मोदी को बना दिया। जाति का ही कार्ड खेलते हुए संघ ने एक दलित को देश का राष्ट्रपति भी बना दिया। सिर्फ औपचारिक तथ्यों के आधार पर कहें तो देश के शीर्षस्थ व्यक्ति राष्ट्रपति दलित (अतिशूद्र) हैं। सत्ता पर विराजमान प्रधानमंत्री पिछड़े शूद्र औपचारिक तौर पर ही सही पर द्विज तो नहीं ही हैं। यानी जाति के ही नाम पर सच्चा प्रतिनिधि तय होता हो तो देश में किसका राज रहा है यह जगजाहिर है।

समस्या फिर भी दलितों के साथ बनी हुई है। इसकी दो वजहें हैं। एक ओर संघ आज भी ऊँची और अगड़ी-पिछड़ी जातियों, दलितों को घृणा की हद तक नापसंद करता है। दूसरे डा. अंबेडकर की विचारधारा का दलितों पर प्रभाव है। फिर भी यदि कहें तो पिछली बार लोकसभा में दलितों का सबसे ज़्यादा वोट भाजपा को मिला था।

अब तथ्य यह है कि संघ ने प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कल के शूद्र यानी पिछड़ी जातियों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ कर लिया है। यानी वर्ण, जाति और पितृसत्ता यानी ब्राहमणवाद के कायम रखते हुए हिंदू राष्ट्र के निर्माण को संघ के सपने को भी तकरीबन पूरा कर लिया है। अब देखना है आगे क्या होती है रणनीति!

चुनाव आयोग ने आचार-संहिता के हनन पर मोदी-शाह को कभी नोटिस नहीं दिया

अशोक लवासा चुनाव आयोग में एक चुनाव आयुक्त हैं। चुनाव आयोग पैनेल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ माडल कोड ऑफ कन्डक्ट आदर्श चुनाव संहिता हनन करने के आरोपों पर चार मई से कोई सुनवाई ही नहीं की।

आदर्श चुनाव संहिता के हनन के आरोपों पर चुनाव आयोग का पैनेल सुनवाई करता है। अमूमन शिकायत पर चुनाव में खड़ा उम्मीदवार उसकी पार्टी के नेताओं और सरकार आदि के व्यवहार की पड़ताल इस बैठक में होती है। लेकिन अशोक लवासा ने खुद को पैनेल से अलग कर लिया तो बैठक भी नहीं हुई। उनका कहना है कि चुनाव आयोग के फैसले के दायरे में जब असंतोष वाले नोट और माइनॉरिटी फैसले शामिल किए जाएंगे तभी  वे इसमें भाग लेंगे। चुनाव आयोग ने तमाम आरोपों से तीन मई को मोदी और शाह को मुक्त कर दिया था। इन फैसलों से लवासा असहमत थे। हालांकि उनकी असहमति को नकार कर आदेश जारी कर दिए गए।

कांग्रेस की नेता सुष्मिता सेन ने जब शाह मोदी के ऊपर आदर्श चुनाव संहिता का पालन न करने पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका देकर इस मुद्दे पर निर्देश चाहा तो चुनाव आयोग के हाथ-पैर फूल गए हैं।

महाराष्ट्र के नांदेड में छह अप्रैल को प्रधानमंत्री और शाह ने अपने भाषण में कहा था कि बहुसंख्यक अब वायनाड में अल्पसंख्यक हो गए हैं। वाराणसी में उन्होंने कहा कि पुलवामा में 40 सिपाहियों की हत्या का बदला 42 आतंकवादियों को  मार कर ले लिया गया है। शाह ने केरल में कहा था कि यह कह पाना कठिन है कि वायनाड केरल मेें है या पाकिस्तान में।

जानकारों के अनुसार लवासा ने मुख्य चुनाव आयुक्त को चार मई के बाद कई बार रिमाइंडर भेजे जिनमें मांग की कि अंतिम आदेशों के साथ ही माइनारिटी फैंसले या विरोधी टिप्पणियां भी रखी जाएं। लेकिन चुनाव आयोग ने चुनाव संहिता के हनन पर कोई आदेश ही जारी नहीं किया। चुनाव आयोग ने आचार संहिता के कोई आदेश जारी नहीं किया जबकि संबंधित पक्षों से कथित हनन पर सफाई ज़रूर मांग ली।

पहले कमिश्नर लवासा ने यह जानना चाहा था कि उनके विरोधी तर्कों को भी कमीशन की ओर से जारी आखिरी आदेशों का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जा रहा है?

 पूर्व वित्त सचिव  रहे लवासा पहले भी चुनाव पैनेल के दूसरे दो सदस्यों सुनील अरोड़ा और सुशील चंद्र से असहमति जता चुके हैं, क्योंकि इन लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ आदर्श चुनाव संहिता के हनन की शिकायतो ंपर ‘क्लीन चिट’ जारी कर दी थी। जबकि इन मामलों पर लवासा चाहते थे कि मोदी को नोटिस जारी की जाए। दोनों ही अधिकारियों ने उसे नही माना। कम से कम ऐसी छह शिकयतें थीं जिसमें प्रधानमंत्री को ‘क्लीन चिट’ दी गई। एक मामले में  कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को बख्शा गया।

आदर्श चुनाव संहिता का पालन न करने की प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ कई शिकायतें आयोग के पास पहुंची थी। इनमें एक यह भी थी कि उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ‘भ्रष्टाचारी नंबर एक’ कहा था। इस पर आायोग अभी भी शुभ दिन और शुभ घड़ी के इंतजार में है।

यह पूछने पर कि क्या आयोग उनकी (लवासा  की) गैर हाजिरी में भी बैठक कर सकता है। उन्होंने कहा कि नियमों में है कि बहुमत से जो फैसला हो उसे ही माना जाए तो उनकी गैर हाजिरी में भी फैसला हो सकता है।

चुनाव आयोग (कंडीशन्स ऑफ सर्विस ऑफ इलेक्शन कमिशनर्स  एंड ट्राजैक्शन ऑफ बिजिनेस) एक्ट 1991 के अनुसार यदि मुख्य चुनाव कमिश्नर और दूसरे चुनाव कमिश्नर में किसी मुद्दे पर राय-बात नहीं हो पाती तो बहुमत के आधार पर उसका समाधान हो। आयोग अपना कामकाज नियमित तौर पर बैठकों को करके करता है। तमाम चुनाव आधिकारियों को अपनी बात रखने का मौका मिलता है।

इस बार ऐसा लगा कि विपक्ष ने काफी पहले से न तो मतदाता सूचियों की तैयारी की और न चुनाव आयोग के अधिकारियों ने ही पूरी सूची को इक्कीसवीं सदी के अनुरूप बनाने की कोशिश की। नतीजा यह रहा कि भारत सरकार के निर्वाचन आयोग के पास कोई जवाब नहीं था न तो मतदाता सूची में नाम न होने पर और न ईवीएम (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) और वीवीपीएटी की उपलब्धता पर।

जानबूझ कर सुरक्षा दस्ते एक निर्वाचन क्षेत्र से दूसरी जगह जा सकें। इस तर्क पर सात चरण में इतने दिनों तक फैला कर चुनाव कराए गए। ऐसा लगा कि सुरक्षा दस्ते और ईवीएम नहीं बल्कि एक खास पार्टी के कार्यकर्ताओं की भारी खेप दूसरी जगह पहुंच कर काम संभालले इस लिहाज से यह व्यवस्था की गई। जब सब तब उजागर हुआ जब पता लगा कि चुनाव आयोग अपने ही एक

सदस्य के फैसले की अवेहलना कर रहा है। अब दुनिया भर में भारत के निर्वाचन आयोग की क्या छवि बनी है। इसका भी जायजा लिया जाना चाहिए।

भव्य शोभायात्रा में आगजनी और मूर्ति का टूटना।

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने रोड शो (14 मई) किया। यह अद्भुत था। इसमें एक स्टेज पर ओडिसी नृत्य हो रहा था। दूसरे स्टेज पर सजे-संवरे राधाकृष्ण। तीसरे पर दिल्ली, असम, उत्तरपूर्व राज्यों से आए भाजपा और गठबंधन के नेता थे। चौथे पर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह चुनाव में मुकाबला कर रहे भाजपा उम्मीदवार और भाजपा के राज्य अध्यक्ष। कई सौ किलो गेंदे और गुलाब की पंखुडिय़ां दर्शकों पर बिखेरते हुए, अमित शाह की शोभायात्रा निकल रही थीं। इस यात्रा में सबसे आगे थे युवा लड़के-लड़कियां श्रीराम धुन पर मगन थिरकते हुए और उनके पीछे थे रामायण के पात्रों के विभिन्न अवतार बने किशोर और बच्चे। इन सबके पीछे कई सौ थे भाजपा -संघ परिवार के कार्यकर्ता जो दूसरे प्रदेशों से आए थेे।

ढलती सांझ में विद्यासागर कालेज में मंगलवार (14 मई)को हुई हिंसा और आगजनी से पूरा प्रदेश और देश स्तब्ध है। यही नहीं ईश्वर चंद्र विद्यासागर के पड़पोते आज भी सदमे में हैं। भाजपा की रैली में पैदल चल रहे भाजपा व संघ परिवार समर्थक कार्यकर्ता राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पुष्पों से सुंसज्जित गाड़ी के काफी पीछे चल रहे थे। फुटपाथ पर हाथों में भाजपा विरोधी पोस्टर लेकर खड़े तृणमूल के कार्यकताओं को देखकर अचानक वे भड़क उठे। फिर हुआ जमकर पथराव, लाठीबाजी और आगजनी। विद्यासागर कालेज के ताले को तोड़कर नोच कर फेंक दिया गया। परिसर के अंदर घुस कर तो इन लोागों ने कोहराम मचा दिया। दरवाजा तोड़ कर ये अंदर गए और शीशे में रखी ईश्वर चंद विद्यासागर की मूर्ति को लाठी मार कर नीचे गिरा दिया। और उसे तोड़ दिया। इन्ही लोगों ने दो मोटर साइकिलें और एक साइकिल भी आग के हवाले कर दी।

बांग्ला समाज में उपयोगी बांग्ला वर्णमाला और सांस्कृतिक पुनर्जागरण लाने वाले सुधारकों में प्रमुख ईश्वर चंद्र विद्यासागर के पड़पोते डा. प्रतीप बनर्जी ने कहा,’ मंगलवार की शाम कालेज में जो हिंसक कार्रवाई हुई उसकी हम निंदा करते हैं। पूरा देश ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अवदान को नहीं भूला पाता है। मेरे पास शब्द नहीं हैं यह बता पाने को यह सब बंगाल की धरती पर क्यों हुआ।

मशहूर डाक्टर बनर्जी ने कहा, ‘इस घटना से मुझे काफी सदमा पहुंचा है। विद्यासागर एक दिग्गज व्यक्तित्व थे। मुझे भरोसा नहीं होता कि उनकी काफी पुरानी मूर्ति के साथ यह बर्ताव किया जाएगा। मेरे पिता डा. प्रशांत बनर्जी जब उस कालेज में पढ़ते थे तब भी यह मूर्ति वहीं थी। विद्यासागर पूरे देश के थे और हम चाहेंगे कि इस कांड के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।

पश्चिम मिदनापुर जिले के बीरसिंह गांव में 26 सितंबर 1820 को जन्मे ईश्वर चंद्र एक दार्शनिक, शिक्षाविद, विद्वान, लेखक, अनुवादक, मुद्रक- प्रकाशक, समाज सुधारक और नेतृत्ववादी थे। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह कानून भी पास करवाया था।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर के कृतित्व पर शोध करने वाले मशहूर गोविदो दोलई ने कहा, बंगाल में यह दिन काला दिवस बतौर मनाया जाना चाहिए। जिन लोगों ने यह तोडफ़ोड़ की क्या उन्हें यह अंदाज था कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। बंगाल की यह संस्कृति कभी नहीं रही है। बीरसिंह गांव के भगवती विद्यालय में पुस्तकालय अध्यक्ष के तौर पर दोलई काम करते हैं।

बांग्ला भाषा संस्कृति का विरोध

महत्वपूर्ण अब यह नहीं है कि मूर्ति तोड़ी किसने। लेकिन शहर कोलकाता में रैली (भव्य शोभायात्रा) तो भाजपा ने निकाली थी। जिस हिंदू बहुल देश में बड़ी मुश्किल से उनकी कुछ पहचान बनी है वह भी बाहर से आए लोगों के कारण। इन बाहरी लोगों में उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड से आए लोगों में अपने साहित्य- संस्कृति -समाज के प्रति कोई चेतना जान नहीं पड़ती। ऐसे में वे बांग्ला साहित्य और बांग्ला भद्रलोक और बांग्ला फुटबाल का महत्व क्या जानें। ये तो लाठी भांजने, बंदूक का थोड़ा दबाने वाले और अपने चेहरे छिपाकर भाग जाने वाले लोग हैं।

इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि रसगुल्ला बंगाल में सबसे पहले कहां बना। इनको संदेश में सिर्फ मिठास से मोह है। ये बांग्ला सुंदरियों को ऐसे मुह खोलकर देखता है जैसे उनको लील जाएगा। ऐसे लोग अब बंगाल में सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं। इसलिए इनके नेता बार-बार बंगाल को कंगाल कहता है और कहता है बड़ा पंच धातु का मूर्ति बनवा देंगे। इनको फिर तोड़ा क्यों? पुराना था। इनको इससे मतलब नहीं है कि दो सौ साल पुराना धरोहर टूटा। ये तो हर चीज़ का नुकसान कर मुआवजा देकर मुंह बंद करने की सोचता है।

इनको इस बात से कोई लेना देना नहीं कि बंगाल में बच्चा जब सरस्वती पूजा के लिए कालीघाट के काली मंदिर जाता है तो उसके हाथ में जो वर्ण परिचय पुस्तिका होती है उसे ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने ही तैयार किया था। बंगाल में शिक्षा का और उसके प्रचार-प्रसार में उनका योगदान था। उन्होंने 19वीं सदी में बंगाल में पुनर्जागरण आंदोलन किया था। विद्यासागर कालेज से न जानें कितने हिंदी-बंाग्ला -ईसाई-मुस्लिम-सिख छात्र निकले जो समाज में विभिन्न क्षेत्रों में योगदान करने के लिए आज भी जाने जाते हैं। आपने उस कालेज का संस्थापक की मूर्ति तोड़ को दिया।

भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले और बंगाल में तोड़-फोड़, आगजनी करने वाले यह नहीं जानते कि बांग्ला भाषा -संस्कृति क्या है। उन्होंने विनाश करके बंगाल में खुद के प्रति उदासीनता का माहौल सब कहीं भर दिया है।

बंग संस्कृति में एक से बढ़ कर एक मिट्टी की बड़ी-बड़ी मूर्ति मां दुर्गा, मां काली, कार्तिकेय, मां सरस्वती, मां शारदा आदि की बनती हैं। जब पूजा-पाठ हो जाता है तो सम्मान से उसे जल में प्रवाहित करते हैं। मूर्ति तोडऩे की संस्कृति बंग समाज में नहीं है। यहां सभी धर्मों का सम्मान है।

अब हर बंगाली सोचेगा कि बाहरी लोगों से सावधान रहना ज़्यादा ज़रूरी है। क्योंकि सोनार बांग्ला को यहीं के कुछ लोगों के साथ मिलकर फिर लूटने की साजिश रची जा रही है। ऐसे में सावधान, बंग समाज।

वामपंथ पर संकट के बादल

पिछले एक दशक से देश में वामपंथ का सूरज पश्चिम की ओर जाता दिखाई दे रहा है। जब से हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु और एबी वर्दन जैसे लोग पटल से हटे हैं, तभी से न तो माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और न ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) को कोई संभाल पाया है। वैसे भी देश में कम्युनिस्ट सही वक्त पर ग़लत फैसले लेने के लिए मशहूर हैं। 1996 में ज्योतिबसु को देश का प्रधानमंत्री न बनने देना एक बड़ी ऐतिहासिक भूल थी इतना ही नहीं इस बार सीताराम येचुरी को राज्यसभा में न जाने देना एक और भूल साबित हुई। इसके अलावा 1964 में वैचारिक मतभेद होने के कारण पार्टी का दो फाड़ होना और फिर आज 2019 तक इनका आपस में विलय करने के बारे में न सोचना एक और भूल है। इन दो दलों के अतिरिक्त कम से कम 20 वाम दल ऐसे हंै जो अपने आप को माक्र्स के दर्शन से ओतप्रोत मानते हैं। नक्सलवादी या माओवादी इस वर्ग में आते हैं। ये कभी हथियारबंद क्रांति की बात करते हैं तो कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहते हैं। उन्हें खुद पता नहीं चलता कि वे चाहते क्या हैं।

पश्चिम बंगाल ऐतिहासिक रूप से कम्युनिस्ट विचारधारा का गढ़ रहा है। 1977 से 2011 तक बंगाल पर वाम मोर्चा का शासन रहा लेकिन अब लगता है कि इस दौरान माकपा अपने ‘कैडर’ को पूंजीवादी व्यवस्था की कमज़ोरियों से बचा नहीं पाई। ज़मीन सुधार वाम मोर्चे का सबसे बडा़ कदम था। इसके अलावा पंचायतीराज को मज़बूत करके मोर्चे ने देश के अंतिम आदमी तक सत्ता की बागड़ोर पहुंचा दी। इसके साथ ही ज्योति बसु जैसा व्यक्तित्व और प्रमोद दास गुप्त जैसा ‘लौह पुरुष’ सरकार और पार्टी को संभालने में लगा था। ज्योतिर्मय बसुु ने पार्टी को नई ऊँचाइयों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान किया इन दोनों के बीच पार्टी ने कभी भी इस बात पर गौर नहीं किया कि उसके कार्यकर्ता किस ओर जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि गांवों में ऐसे लोग वामपंथी प्रतिनिधि बन गए जिनका वर्ग चरित्र उन ग्राम वासियों से कहीं अलग था जिनके साथ वे काम कर रहे थे। इसके अलावा ग्रामीण स्तर से जो जानकारी राज्य सरकार और पार्टी को भेजी जा रही थी वह ग़लत थी। 2009 के पंचायत चुनाव में यह बात काफी हर साबित हो गई थी कि तृणमूल कांग्रेस अपने पैर जमा रही है, लेकिन माकपा के नेतृत्व ने इस पर जऱा भी ध्यान नहीं दिया। नतीजा हुआ कि 2011 में सत्ता ममता बनर्जी के हाथ चली गई। उसके बाद लोगों का आक्रोश माकपा के खिलाफ उभरा। पार्टी के दफ्तर जला दिए गए। उसके कार्यकर्ताओं को मारा पीटा गया कुछ की हत्या भी कर दी गई। चुनाव में हार-जीत होती रहती है लेकिन 35 साल से सत्ता में रही पार्टी 10 साल में पूरी तरह बिखर जाए ऐसा कभी नहीं देखा।

बंगाल में आज स्थिति यह है कि ममता के अत्याचारों से बचने के लिए वामपंथी ‘कैडर’ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसी दक्षिणपंथी पार्टी की गोद में जा बैठा। माकपा इसे अपनी रणनीति का हिस्सा बता रही है। उन्हें लगता है कि ममता को हारना भाजपा के हारने से ज़्यादा मुश्किल है। इसका नतीजा निश्चित तौर पर वामपंथ के पक्ष में तो कदापि नहीं होगा।

बात सिर्फ बंगाल की नहीं, इसके अलावा बिहार, पंजाब, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु जैसे प्रदेशों में भी कम्युनिस्ट पार्टियां खत्म सी हो गई हैं। पंजाब जैसा जुझारू प्रांत जहां 1972 में कम्युनिस्ट पार्टियों के 11 विधायक  भी रहे हैं। इनमें से 10 भाकपा के और एक माकपा का था।1977 में माकपा ने आठ और भाकपा ने सात सीटें जीतीं। इस प्रकार वाम पंथ के 15 विधायक थे। सत्यपाल डांग ने चौथी बार अपनी सीट जीती। 1980 में भाकपा ने नौ और माकपा ने पांच सीटों पर जीत हासिल की।

पंजाब में 1985 में चुनाव राजीव-लौंगोवाल समझौते के बाद हुए और इसका खामियाजा  कम्युनिस्ट पार्टियों को भोगना पड़ा। भाकपा केवल एक ही सीट जीत सकी। 1992 में खालिस्तान आंदोलन के दौरान अकालियों ने चुनाव का बहिष्कार किया और कांग्रेस को बिना विपक्ष के चुनाव लडऩे का मौका मिल गया। आतंकवादियों के निशाने पर सबसे ज़्यादा कम्युनिस्ट नेता ही रहे। पर फिर भी इन चुनावों में भाकपा को चार  और माकपा को एक सीट मिल गई। इसमें सबसे बढिय़ा प्रदर्शन बहुजन समाज पार्टी का रहा।

वामपंथ के लिए जातिवादी राजनीति का हावी होना और शहरों में ट्रेड यूनियन आंदोलन का कमज़ोर होना काफी हानिकारक रहा। इसी कारण 1990 के बाद पूरे देश में वामपंथ का आधार सिकुड़ा। बिहार में भी जहां के कुछ इलाकों को कम्युनिस्टों का घर कहते थे, वहां जाति और सांप्रदायिकता  ने उन्हें कमजोर कर दिया। आज वहां कम्युनिस्टों की कोई पहचान नहीं। कमोवेश हर राज्य की ऐसी ही हालत है। समय बदल गया है प्रचार माध्यम बदल गए हैं। युवाओं की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं बदल गई हैं। मंहगाई का तीव्र गति से बढऩा, किसानों की आत्महत्याएं और बेरोजग़ारी का चरम पर पहुंचने के बावजूद वामपंथी पार्टियां इसे लोगों की लड़ाई बना सकने में असमर्थ रही हैं। लोकतंत्र में चुनाव जीतना भी उतना ही ज़रूरी है, जितना कि आंदोलन को चलाना। वाम दल आज भी प्रदर्शनों के लिए 10 से 15 लाख तक कि अनुशासित भीड़ इक_ी करने में सक्षम हैं पर उसे वोट में बदल नहीं सकते। यही कारण है कि राजस्थान और महाराष्ट्र में बड़े-बड़े किसान आंदोलन चलाने के बाद भी वहां से इनका एक भी प्रतिनिधि लोकसभा में नहीं पहुंच सका।

बंगाल के नंदीग्राम में किसानों पर गोली चलना, उनकी ज़मीनों पर जब्री कब्जे करना किसी भी हालत में कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुरूप नहंी था। आज देश के हालत को देखते हुए वामपंथ का जीवित, रहना बहुत ज़रूरी है। कम्युनिस्ट नेताओं को नए सिरे से हर चीज़ पर विचार कर अगले कदम उठाने चाहिए।

साध्वी प्रज्ञा सिंह हाजिर हो!

अपने विवादित बयानों चर्चा में रही और भोपाल से बीजेपी एमपी के तौर पर चुनी गई साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को अब कम से कम सप्ताह में एक दिन कोर्ट में हाजिर होना पड़ेगा।

मालेगांव ब्लास्ट केस में प्रज्ञा सिंह ने अपील की थी कि वह भोपाल से एमपी चुनी गई हैं उन्हें जीत के बाद की संसद की सभी प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए 3 से 7 जून तक कोर्ट में पेशी से छूट दी जाए। सोमवार को स्पेशल एन.आई.ऐ कोर्ट ने उनके आवेदन को खारिज कर दिया और निर्देश दिया कि वह इस सप्ताह अदालत में हाजिर हों।

सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर फिलहाल स्वास्थ्य कारणों से जमानत पर बाहर है और उनके खिलाफ मुकदमा चल रहा है। चूंकि इस दरमियान कोर्ट में गवाहों को बुलाया जा रहा है जिसके चलते अन्य आरोपियों के साथ प्रज्ञासिंह ठाकुर का कोर्ट में हाजिर होना ज़रूरी है।

गांधी को हटाने के चक्कर में खुद ही ‘हट’ गई निधि चौधरी!

मुंबई म्युनिसीपल कारपोरेशन की ज्ऑइंट कमिश्नर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तस्वीर करेंसी से हटाने संबंधित ट्वीट के चलते खुद ही ‘हटना’ पड़ गया।

IAS आफिसर निधि चौधरी तबादला BMC से मंत्रालय के वाटर सप्लाई और सैनिटेशन डिपार्टमेंट ने कर दिया गया।
निधि अपने ट्वीट में लिखा था कि महात्मा गांधी की 150 वी जयंती को मनाने के पीछे क्या उम्मीद हो सकती है। यह सही वक्त है कि देश की करेंसी से उनकी तस्वीर हटाई जाए और उनके स्टेटस को भी दुनिया से हटाया जाना चाहिए। आब हमें एक सच्ची श्रद्धांजलि देने की जरूरत है…. धन्यवाद गोडसे 30.01.1948।

हालांकि 17 मई को लिखें अपने ट्वीट पर बढ़ते विवाद के चलते उन्होंने अपनी सफाई भी दी थी ।विवादित ट्वीट के चलते निधि चौधरी कांग्रेस एनसीपी के निशाने पर आ गईं। एनसीपी चीफ़ शरद पवार, महाराष्ट्र कांग्रेस प्रेसिडेंट अशोक चव्हाण व अपोजीशन के कई लीडर्स ने निधि के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की थी। सोशल मीडिया पर भी निधि के खिलाफ कार्यवाही की मांग बढ़ती जा रही थी जिसे देखते हुए सरकार को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। इसी सिलसिले में उन्हें शो कॉज नोटिस भी दी गई थी।

बेरोज़गारी के लिए नेहरू- गांधी जिम्मेदार नहीं : उद्धव ठाकरे !

हांलांकि लोकसभा चुनावों में शानदार नतीजों के बाद शिवसेना चीफ उद्धव ठाकरे ने सहयोगी बीजेपी को बधाई दी ,पिछली बार की तरह सत्ता के भागीदार बनें, और महाराष्ट्र में होने जा रहे हैं विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन बनाये रखने की घोषणा की। लेकिन बेरोजगारी ,महंगाई घटते उत्पादन, बंद होते उद्योग और किसानों की आत्महत्या को लेकर सहयोगी दल बीजेपी के कान उमेठने में उन्होंने कोताही नहीं बरती है।

अपने मुखपत्र ‘सामना’ में बेरोजगारी पर हमला करते हुए शिवसेना ने लिखा है – देश की आर्थिक स्थिति स्पष्ट रूप से बिगड़ी नजर आ रही है ।आसमान फटा हुआ है इसलिए सिलाई भी कहां करें ऐसी अवस्था हो गई है ।मोदी की सरकार आ रही है इस सुगबुगाहट के साथ ही सट्टा बाजार और शेयर बाजार मचल उठा लेकिन जीडीपी गिर पड़ा और बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ गया। यह कोई अच्छे संकेत नहीं हैं ।बेरोजगारी का संकट ऐसे ही बढ़ता रहा तो क्या करना होगा ।इस पर सिर्फ चर्चा करके और विज्ञापन बाजी करके कोई उपयोग नहीं होगा कृति करनी पड़ेगी ।देश में बेरोजगारी की ज्वाला भड़क रही है। नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के अनुसार 2017 -18 में बेरोजगारी दर 6.1% पहुंच गयी है। पिछले 45 वर्षों का यह सर्वोच्च आंकड़ा है। केंद्रीय मंत्रालय ने भी इस पर मुहर लगा दी है।

जबकि ये आंकड़े सरकार के ही हैं, हमारे नहीं। सरकार का कहना ऐसा है कि बेरोजगारी बढ़ रही है यह हमारा पाप नहीं है। बेरोजगारी की समस्या कोई पिछले 5 वर्षों में भाजपा ने तैयार नहीं की है, ऐसा श्री नितिन गडकरी ने कहा है। हम उनके विचार से सहमत हैं ।लेकिन प्रतिवर्ष दो करोड़ रोजगार देने का आश्वासन था और उस हिसाब से पिछले 5 वर्षों में कम से कम 10 करोड़ रोजगार का लक्ष्य पार करना चाहिए था, जो होता नहीं दिख रहा है और उसकी जिम्मेदारी नेहरू-गांधी पर नहीं डाली जा सकती ।

सामना के संपादकीय के अनुसार रोजगार निर्माण की सच्चाई ऐसी है कि रोजगार निर्माण निरंतर गिर रहा है ।केंद्र सरकार की नौकरी भर्ती में 30 से 40% की गिरावट आई है ।2017 में केंद्र सरकार द्वारा 1लाख नौकरियों की भर्तियां हुई हैं। 2017- 18 में सिर्फ 70000 नौकरियों को भरा गया। इसमें यूपीएससी और स्टाफ सिलेक्शन की भर्ती भी है। रेलवे की भर्ती और बैंक की नौकरियों का आंकड़ा भी नीचे गिरा है। मध्यम ,लघु और सूक्ष्म उद्योग की अवस्था ठेला गाड़ी से भी खराब हो गई है। केंद्र सरकार के अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम बंद है या फिर घाटे में चल रहे हैं। बी एस एन एल के हजारों कर्मचारियों पर बेरोजगारी का कहर बरपा है। नागरिक हवाई यातायात व्यवसाय का किस तरह ’12 ‘ बजा है यह जेट कर्मचारियों के रोज होने वाले आंदोलन से स्पष्ट हो गया है। नए हवाई अड्डे बने लेकिन वहां से पर्याप्त उड़ान नहीं भरी जा रही ।सड़क निर्माण का कार्य जोरों पर है। होगा अभी लेकिन वहां ठेकेदारी और असंगठित मजदूर वर्ग है ।यह स्थाई रोजगार नहीं। सवा सौ करोड़ के देश में 30 करोड़ लोगों को काम चाहिए और सरकारी स्तर पर सिर्फ एक लाख नौकरियों की भर्ती हुई है ।

सरकारी आंकड़े क्या कह रहे हैं उन्हें देखिए।

2015 -16 में सैंतीस लाख नौकरियों की जरूरत थी जबकि प्रत्यक्ष रूप से 1लाख48हजार लोगों को नौकरियां मिली। 2017-18 में 23लाख नौकरियों की जरूरत थी तब नौ लाख 21हजार लोगों को रोजगार मिला।
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना पर तंज़ कसते हुए सामना लिखता है , ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना शुरू हुई है निश्चित तौर पर क्या हुआ यह शोध का विषय है।’

देश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है ,ऐसा सरकार कहती है लेकिन विकास दर घट रही है और बेरोजगारी बढ़ रही है यह भी उतना ही सच है।

शहरी क्षेत्र के 18 से 30 वर्ष की उम्र के 19% बच्चे बेरोजगार हैं ।लड़कियों में यही औसत 27.2% है ।कृषि रोजगार देने वाला उद्योग था वहां भी अब हम मार खा रहे हैं ।पिछले 5 माह में सिर्फ मराठवाड़ा में 315 किसानों ने आत्महत्या की है ।इसके अनुसार संपूर्ण महाराष्ट् और देश की तस्वीर विदारक है। खेती जल गई है और हाथों को काम नहीं है। इस दुष्चक्र में फंसे किसानों ने नई आशा के साथ मोदी को मतदान किया है। ‘मोदी है तो मुमकिन है’ इस मंत्र पर विश्वास रखकर करोड़ों बेरोजगार युवकों ने भी मोदी की जीत में अपना सहयोग दिया है। इसलिए पिछले 5 वर्षों में रोजगार निर्माण में आई गिरावट को रोककर 2019 में बेरोजगारों को काम देना कि अब एकमेव ध्येय होना चाहिए।

विदेशी निवेश के आंकड़े कई बार गलत होते हैं। यह एक लाभ और एक नुकसान का व्यवहार है उसके जरिए बेरोजगारी का राक्षस कैसे खत्म होगा ? नये उद्योग , बंदरगाह, सड़क, हवाई अड्डे, यातायात जैसे क्षेत्रों में निवेश से ही रोजगार का निर्माण होगा और जीडीपी बढ़ेगी। देश में बुलेट ट्रेन आ रही है, उसमें एक व्यक्ति को भी रोजगार नहीं मिलेगा। राफेल उद्योग में भी रोजगार का बड़ा मौका नहीं है। चीन में काम करने वाली 300 अमरीकी कंपनियां वहां से बोरिया बिस्तर लपेट कर हिंदुस्तान आ रही है, ऐसी तस्वीर चुनाव पूर्व दिखाई गई थी। मगर अब अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष ट्रंप ने हिंदुस्तान पर व्यापारिक प्रतिबंध लाद दिया है। यह दृश्य संभ्रम पैदा करने वाले हैं ।महंगाई, बेरोजगारी, घटते उत्पादन और बंद होते उद्योग जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा । शब्द भ्रम का खेल खेलने से बेरोजगारी नहीं आएगी अर्थव्यवस्था संकट में है ।नए अर्थ मंत्री को चाहिए कि वह राह निकालें!

भले ही शिवसेना सत्ता में हिस्सेदार बनी हुई है और जिन मुद्दों को विपक्षी दलों को उठाना चाहिए उन मुद्दों को संजीदगी से उठा रही है तो इसे एक ईमानदार कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए।

लेकिन इसे उद्धव ठाकरे की नाराज़गी के तौर पर भी देखा जा सकता है । हाल ही में हुए नये मंत्रिमंडल गठन में शिवसेना को मिली हिस्सेदारी और कैबिनेट में मिले विभागीय जिम्मेदारी से शिवसेना खासी नाराज़ है।

ईद पर भाई जान और ‘अफगान जलेबी’ का रंग!

अपने सल्लू मियां यानी सलमान खान के लिए ईद मुबारक बनती नज़र आ रही है। दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी फिल्म ‘भारत’ के नाम को बदलने और रिलीज पर रोक लगाने की याचिका को खारिज कर दी है। अब फ़िल्म ईद पर रिलीज होगी।

याचिका में फिल्म के नाम पर आपत्ति जताते हुए कहा गया था कि, ‘फिल्म का नाम एम्ब्लेम्स एंड नेम्स एक्ट के सेक्शन 3 का उल्लंघन करता है। इस एक्ट के मुताबिक ‘भारत’ शब्द का प्रयोग आर्थिक कारणों के लिए नहीं किया जा सकता है।’ लेकिन कोर्ट ने याचिका खारिज़ कर दी।

भाई जान की इस फिल्म को लेकर उनके फैंस में काफी उत्साह है। ‘भारत’ में सलमान खान के अपोजिट में सल्लू की खास फैंड कटरीना कैफ है। दोनों की जोड़ी हिट और फिल्म के हिट होने की गारंटी मानी जाती है। हालांकि इस फिल्म में सलमान ने पहनले प्रियंका चोपरा को लीड रोल के लिए प्रपोज किया था लेकिन निक जोनस के प्यार में पागल पिगी चोप ने फिल्म करने से इनकार कर दिया था। दरअसल प्रियंका और निक की शादी की डेट और ‘भारत’ की शूटिंग डेट दोनों क्लैश हो रही थी। सलमान ने प्रियंका को यह तक कह दिया था कि वह भारत की शूटिंग की डेट आगे बढ़ा सकते हैं लेकिन प्रियंका नहीं मानी। जिसके चलते भाई जान प्रियांका पर चिढ़ गए थे और काफी जगह उन्होंने प्रियंका की खिंचाई करते रहे। खैर अब कैटरीना के साथ सल्लू की जोड़ी एक बार फिर पर्दे पर दस्तक दे रही है। देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि ईद के मौके पर ‘भारत’ में ‘अफगान जलेबी’ एक दफा फिर क्या रंग दिखाती है?

भाजपा की सुनामी बेअसर रही आंध्र, केरल व तमिलनाडु में

जनादेश 2019 में आंध्र, केरल, पंजाब, तमिलनाडु में भाजपा को प्रवेश नहीं मिला। केरल में इस बार भी भाजपा पूरी कोशिश करके भी यानी सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे को टीवी चैनेल पर प्रसारित करने के बाद भी कामयाब नहीं हो सकी। जनता में भाजपा के खिलाफ माहौल था साथ ही माकपा के नेतृत्व वाले एलडीएफ के प्रति थोड़ा आक्रोश था। कांग्रेस को 19 सीटें मिली। भाजपा और माकपा की राजनीति को केरल के मतदाता ने खरिज कर दिया।

आंध्र प्रदेश भी केरल की राह चला। तकरीबन साल भर पहले तक पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में थे। उधर वाईएसआर कांग्रेस के जगन ने आंध्र के लोगों को समझाया कि राज्य को तोड़ कर तेलंगाना राज्य बना और 2014 में यह भरोसा भाजपा ने दिया था कि आंध्र प्रदेश को ‘स्पेशल पैकेज’ मिलेगा लेकिन वह नहीं मिला। वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और नायडू की तेलुगु देशम पार्टी ने भाजपा को प्रदेश में हावी नहीं होने दिया।

तमिलनाडु में डीएमके(द्रमुक) नेता एस के स्टालिन ने तमिलनाडु और पुडुचेरी की आधी सीटें द्रमुक गठबंधन, नौ पार्टियों का सेक्यूलर प्रोग्रेसिव अलाएंस को दे दी थी। स्टालिन ने भाजपा विरोधी हवा को लगातार तेज रखा। खासकर दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों का नरमुंड लेकर दिल्ली के जंतर-मतर पर दो-दो बार प्रदर्शन लेकिन मोदी सरकार का उस पर कतई ध्यान न देना और पारंपरिक तौर पर यहां चलने वाले जलिलकटटू आंदोलन पर केंद्र की खामोशी और कावेरी नदी जल विवाद जीएसटी और विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के तमाम मुद्दों को डीएमके ने जि़ंदा रखा। जिसका लाभ द्रमुक गठबंधन को हुआ। गठबंधन में शामिल छोटी पार्टियों को इसका लाभ मिला। माकपा और भाकपा को अच्छी कामयाबी मिली। डीएमके नेता स्टालिन ने समर्थकों को लिखा,’ केंद्र को रचनात्मक राजनीति करनी चाहिए और देश के सर्वागीण विकास पर ध्यान देना चाहिए। लोकसभा में द्रमुक गठबंधन की जीत पर अपनी पार्टी के कैडर को भेजी चिटठी में द्रमुक अध्यक्ष स्टालिन ने लिखा है कि वे दिन अब हवा हुए जब भारतीय राजनीति में हिंदी लोगों का आधिपत्य था। पत्र में लिखा गया है कि तमिलनाडु द्रविड संस्कृति में ही संपृक्त है। यह कभी भी भाजपा को पैर जमाने नहीं देगी। उन्होंने कहा आज हमारी जीत की वजह वह जनता है जिसका प्यार हमारे चुनावी गठबंधन को मिला। यह प्यार ही मतों में बदला। उप चुनावों में ज़रूर हमारे प्रदर्शन की निंदा हुई। लेकिन हमने वे 12 सीटें पा ली हैं जो एआईएडीएमके के पास थी। हमने जनता से जो वादा किया है उसे पूरा करने के लिए पूरी जान लगाकर मेहनत करेंगे।

उत्तर भारत में सिर्फ पंजाब ही भाजपा को रोक सका। यह वह प्रदेश है जहां भारत-पाकिस्तान युद्ध का सबसे ज़्यादा असर पड़ता है। इस प्रदेश ने पूरे देश की एक तरह से रक्षा भी की है। पंजाब हमेशा पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध चाहता रहा है। पंजाब में इस बार आम आदमी पार्टी के चलते कांग्रेस को लाभ मिला। आम आदमी पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली। जबकि 2014 में कांग्रेस, आप और शिरोमणि अकाली दल को चार-चार सीटें मिली थीं और भाजपा को महज एक। इस बार भाजपा को कुल दो सीटें मिली एक तो सन्नी देयोल को और बादल परिवार की दो सीटें। पंजाब में अकाली-भाजपा राज के दस साल के खिलाफ आज भी गुस्सा है, जीएसटी को लेकर। इसका जिम्मेदार पार्टी को माना जाता है।

तहलका ब्यूरो

खेती, मौसम और सेना को उपग्रह से सूचना

इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑरगेनाइजेशन) ने बुधवार (22 मई) की भोर में रिसाट-2 बी नाम का उपग्रह अंतरीक्ष में प्रक्षेपित किया है। यह उपग्रह देश का नवीनतम माइक्रोवेव अर्थ ऑब्जरवेशन सेटेलाइट है। यह ज़मीन से 557 किलोमीटर ऊपर अपने अंतरिक्ष केंद्र से सक्रिय रहेगा। प्रक्षेपण के पंद्रह मिनट बाद ही अंतरिक्ष में निर्धारित जगह पर पहुंच कर 37 डिग्री झुकाव के साथ उसके संदेश आने लगे।

इस उपग्रह की यह खासियत है कि इससे तमाम मौसम संबंधी ब्यौरा, रात-दिन मिलता रहेगा। इसके साथ ही कृषि संबंधी तमाम ज़रूरी जानकारियां, भविष्यवाणियां और प्राकृतिक विपदा और राहत एजंसियों के कामकाज का पूरा ब्यौरा भी इस उपग्रह से हासिल होगा।

इसकी सबसे महत्वपूर्ण उपयोगिता सुरक्षा सेनाओं के लिए होगी। इससे ज़मीन पर हो रही तमाम तरह की गतिविधियां इस उपग्रह के जरिए हासिल हो सकेंगी। इसरो के चेयरमैन के सिवन ने श्रीहरिकोटा लांचिंग पैड से बताया कि यह प्रक्षेपण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उपग्रह कृषि और सैन्य लिहाज से उपयोगी जानकरी दे सकेगा। उन्होंने यह भी बताया कि 3.6 मीटर का रेडियल एंटेना भी इस उपग्रह पर है।

उपग्रह के साथ ही कम लागत के विक्रम प्रोसेसर का भी परीक्षण किया गया। इसे चंडीगढ़ के सेमीकंडक्टर कांप्लेक्स में विकसित किया गया। यह प्रोसेसर बाद में इसरो लांच व्हीकल का नियंत्रण कर सकेगा।

डा. सिवन विज्ञान विभाग के सचिव भी हैं। उन्होंने बताया कि जुलाई में नौ से सोलह  के बीच चंद्रायन दो लैंडर-शेवर मिशन शुरू होगा।