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‘बापू तुम तो नहीं, देशभक्त थे नाथूराम जी’

आम चुनाव 2019 से यह ज़रूर जाहिर हो गया कि आज़ादी के 72 साल बाद भी देश में सांप्रदायिक ताकतें बहुत मज़बूत हैं। देश की सत्ता में पांच साल रहने के बाद तो अब आतंक को बुरा नहीं मानते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल से सांसद के चुनाव मे उतार कर इस बहस को लगातार चलते रहने का मौका ज़रूर बना दिया है।

अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत करते हुए ही प्रज्ञा ठाकुर ने आंतकवाद का मुकाबला करते हुए मारे गए पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की मौत की वजह अपना शाप बताया था। बाद में इस पर माफी मांग ली। लेकिन कुछ ही दिन बाद जब वह दूसरी चुनावी सभा को जा रही थीं तो उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के दोषी नाथूराम गोडसे को महान देशभक्त बताया। जब शोर मचा तो मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष को उन्होंने इस बयान पर अपनी सफाई भेज दी। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि साध्वी ने भले ही माफी मांग ली हो लेकिन अब वे उन्हें निजी तौर पर माफ नहीं कर सकेंगे। लेकिन अब यक्ष प्रश्न यह है कि भाजपा का राष्ट्रवाद क्या है? क्या संविधान के प्रति इसकी निष्ठा है? क्या यह सांप्रदायिक आवरणों से बाहर आकर कभी भारती स्वरूप अपना सकेंगी।

जब भी देश में भाजपा सत्ता में आती है तो देश के बहुलतावादी नज़रिए से यह कभी समहित नहीं हो पाती। भाजपा के अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री इस बार प्रज्ञा के चलते बड़ी दुविधा में आज फंसे हैं। इसका असर मतदान के साथ ही देश की भावी राजनीति पर भी पडऩा ही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने पार्टी अध्यक्ष की मौजूदगी में प्रज्ञा से उनके वक्तव्यों पर दस दिन में अपनी सफाई देने को कहा है। प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष ने हाल-फिलहाल सार्वजनिक तौर पर प्रज्ञा की टिप्पणियों से खुद को अलग कर लिया है, हालंाकि यह मुद्दा काफी बड़ा है।

प्रज्ञा ने अपने बयान में गोडसे की खासी तारीफ की। उसे देशभक्त कहा। यह नई बात भी उसने उसी भरोसे से कही जिस भरोसे से उसने पहले कहा था कि हेमंत करकरे की मौत उसके श्राप से ही हुई।

हेमंत करकरे ही एंटी टेरिस्ट स्कवाड के वह अधिकारी थे जिन्होंने मालेगांव धमाके की जांच की थी। आतंकवादियों से मुकाबला करते हुए वे मुंबई में 26/11 को शहीद हो गए थे। तब भी भाजपा के बड़े नेता उसकी टिप्पणी से खासे बेचैन हुए थे।

लेकिन प्रज्ञा ठाकुर ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर जो बयान पहले दिया और उस पर जो सफाई दी उससे भी यह बात साफ हुई कि पूरे मामले में जो मुद्दे दरकते रहते हैं वे उभरते ही रहेंगे वे दबेंगे नहीं। दरअसल महात्मा गांधी पर संघ परिवार और भाजपा में हमेशा सहमति-असहमति का दौर-दौरा देश में चलता रहा है। हाल फिलहाल गांधी का नाम भाजपा के लिए भारतीय जनमानस को अपने पक्ष में करने में उपयोगी है, इसलिए वे गांधी के विरोध में भी ही नहीं जाना चाहते। लेकिन आरएसएस का मान और विचार घटाना भी नहीं चाहते। उधर सारी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ माहौल गहराता जा रहा है। हालांकि भाजपा भी संघ परिवार की तरह मानती है कि हिंदू आतंकवादी नहीं होता। जबकि देश का पुरातन इतिहास जो महाकाव्यों में है उसमें हिंसा ही मुखर रही है।

सम्मान राष्ट्रपिता का भी नहीं।

भारत अद्भुत है। यहां समाज में धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण की आज़ादी है। यहां देशवासियों की बेरोजग़ारी, मंहगाई, अशिक्षा, स्वास्थ्य, पानी आदि की ज़रूरतों को पूरा करने पर विचार नहीं होता। बल्कि उन मुद्दों पर ज़्यादा शोर-शराबा होता है, जिनका देश के विकास से कोई लेना-देना नहीं है।

पिछले दिनों भोपाल से सांसद होने के लिए प्रज्ञा ठाकुर उम्मीदवार थी। इनके दो बयानों से पूरे देश में सिहरन सी दौड़ गई। इनका एक बयान था कि पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे उसके ‘श्राप’ से मारे गए। करकरे मुंबई में 26/11 को आतंकवादियों का मुकाबला करते हुए मारे गए। उन्हें देश ने सम्मानित भी किया था। दूसरा बयान था, नाथूराम गोडसे देशभक्त थे। पूरा देश जानता है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी पर गोली चलाई थी। उन्हें इसकी सज़ा भी मिली थी। बाद में प्रज्ञा ने क्षमा याचना की थी।

लेकिन अफसोस देश में इस बदलाव के समर्थन में जो बयान केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगडे और एक सांसद नलिन कुमार कटील के जारी हुए। उन्होंने माफी मांग ली और बस!

महिलाओं ने रिकार्ड तोड़ा, 78 पहुंची निचले सदन में

बधाई हो! यहां बीते साल की सफल हिंदी फिल्मों में शुमार बधाई हो फिल्म की बात नहीं हो रही बल्कि 17वीं लोकसभा में जीत कर पहुंची 78 महिला सांसदों की बात हो रही है। आजाद भारत के लोकतंात्रिक इतिहास में पहली मर्तबा 78 महिलाओं ने संसद में जीत दर्ज कर पुरुषों की संख्या में 16वीं लोकसभा की तुलना में तीन फीसद की कमी ला दी है। अब 524 सांसदों वाली लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 14 प्रतिशत हो गई है और उम्मीद की जानी चाहिए कि 2024 आम चुनाव में इससे भी अधिक महिलाएं जीत दर्ज कर पुरुष प्रधान लोकसभा में पुरुषों के वर्चस्व को तोडऩे में सफल होंगी। दरअसल 2019 आम चुनाव के नतीजों पर एक निगाह इस नज़रिए से भी डालना जरूरी हो जाता है क्योंकि मुल्क में आधी आबादी महिलाओं की हैं। मुल्क में 48.5 फीसद महिलाएं हैं। महिलाओं की भागीदारी और सफलता चुनावी राजनीति में सकारात्मक संदेश है और महिला उम्मीदवारी से संबधित कई राजनीतिक पूर्वाग्रहों में हो रहे बदलाव पर चर्चा के दायरे को विस्तार और उसे अगले स्तर तक ले जाने में मददगार हो सकता है। महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण एक ऐसी ताकतवर कुंजी है,जिससे नई राहें खुलती हैं व कई गांठें सुलझती हैं। बतौर मतदाता उनकी भागीदारी पर चर्चा 2009, 2014 के आम चुनाव में भी हुई थी और इस बार महिलाओं ने पहली बार पुरुषों से अधिक मतदान किया। यह भी तथ्य गौरतलब है कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब 67.11 फीसद मतदाताओं ने अपने मतदान का इस्तेमाल किया। मुल्क के 13 सूबों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से अधिक थी। 9 सूबों में महिलाओं ने प्रतिशत की दृष्टि से पुरुषों से अधिक मतदान किया। 2014 में महिला मतदान 66 फीसद था। 1962 में पुरुष व महिलाओं की वोटिंग का अंतर 17 फीसद था और 1967 में महिला मतदाता पुरुष मतदाता से 11.3 फीसद पीछे थीं। 2014 में यह अंतर 1.4 फीसद का था और 2019 में यह .4 तक सिमट गया है। महिला मतदाताओं की बढ़ती संख्या महिला-पुरुष मतदाताओं के बीच के फासले को पाटने में अहम साबित हुई हैं। प्रसंगवश यहां इसका जि़क्र करना जरूरी लग रहा है कि 1952 में जब आज़ाद भारत के पहले आम चुनाव होने थे तब उसकी तैयारियों के लिए घर-घर जाकर मतदाताओं की संख्या, नाम आदि के ब्यौरे इक_े करने की जो कवायद चल रही थी, उससे पता चला कि परिवार का मुखिया पुरूष घर की महिलाओं के बारे में जो परिचय देता था, उसमें उसे किसी की पत्नी, बहन मां, बेटी आदि के रूप में कराता था यानी पुरुष महिला को बतौर स्ंवतंत्र मतदाता के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उनका यह मानना था कि जहां उनकी वोट जाएगी वही घर की महिला की वोट भी जाएगी। जबकि आजाद भारत ने पुरुषों व महिलाओं को मतदान का अधिकार देते समय कोई भेदभाव नहीं किया था। मुल्क में महिला मतदाताओं की संख्या 2014 के 47 फीसद से बढ़कर 2019 में 48.13 फीसद हो गई है। 4.35 करोड़ नए वोटरों में आधे से अधिक महिला वोटर हैं। महिला वोटरों के नामांकन में अग्रणी सूबों में उत्तरप्रदेश (54 लाख),महाराष्ट्र (45 लाख), बिहार (42.8 लाख),पश्चिम बंगाल (42.8 लाख) तमिलनाडु ( 29 लाख) शमिल हैं। जाहिर है महिला मतदाताओं की संख्या और मतदान करने में महिला-पुरुष के बीच के फासले के पटने की दर को देख राजनीतिक दलो ने भी अपनी चुनावी रणनीति व घोषणा पत्रों में उन पर फोकस किया। ओडिसा के मुख्यमंत्री और बीजीडी नेता नवीन पटनायक ने आम चुनाव की तारीखें घोषित होते ही ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी इस बार लोकसभा चुनाव में 33 फीसद टिकट महिलाओं के लिए आरक्षित करेगी। उसके अगले ही दिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने 40 फीसद टिकट महिलाओं को देने की घोषणा कर डाली। केंद्र में भाजपा सरकार ने तो उज्जवला, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, सौभाग्य, जनधन खाते, मुद्रा लोन आदि के जरिए महिला मतदाताओं को अपनी ओर करने की भरपूर कोशिश की और बकायदा इसके लिए रोडमैप भी बनाया। मोदी सरकार ने पांच राज्यों उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान की 216 सीटों पर 4.5 करोड़ उज्जवला गैस कनेक्शन बांटे थे और इन 216 सीटों में से भाजपा ने 156 यानी 66 फीसद सीटें जीत ली। गौर करने वाला तथ्य यह भी है कि 4.5 करोड़ उज्जवला गैस कनेक्शन में से 48 फीसद कनेक्शन उत्तरप्रदेश व बंगाल में बांटे गए थे। हो सकता है कि चुनाव परिणाम आने से पहले उत्तरप्रदेश में भाजपा को सपा-बसपा गठबंधन के चलते भारी नुकसान होने के जो विश्लेषण किए जा रहे थे, उन्हें गलत साबित करने में उज्जवला ने अपनी भूमिका निभाई हो। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 18 सीटों पर जो जीत दर्ज कर सबको चैंका दिया है,उसमें भी उज्जवला ने भाजपा का साथ दिया होगा। बहरहाल 17वीं लोकसभा में 78 महिला सांसदों का पहुंचना यानी 14 प्रतिशत महिलाएं लोकसभा में जनता का प्रतिनिधित्व करेंगी और यह आजाद भारत में पहली बार होगा। 16वीं लोकसभा में करीब 11 प्रतिशत महिलाएं थीं और सबसे पहली लोकसभा में पांच प्रतिशत महिलाएं थी। 78 महिला सांसदों में से एक तिहाई ऐसी हैं,जिन्हें जनता ने दोबारा भेजा है। इस बार (2019) 78 महिला सांसदों में से 11 उत्तर प्रदेश और 11 ही पश्चिम बंगाल से निर्वािचत हुई हैं। उत्तर प्रदेश मुल्क का सबसे बड़ा सूबा है और पश्चिम बंगाल से 11 महिला सांसदों का श्रेय बहुत हद तक ममता बनर्जी को जाता है क्योंकि ममता ने 41 फीसद टिकटें महिलाओं को दी थीं। 22 टीएमसी सांसदों में से 9 महिलाएं हैं। ओडिसा में बीजेडी ने 7 महिलाओं को टिकट दिया था और पांच ने जीत दर्ज की। भाजपा ने देशभर में 54 महिलाओं को टिकट दिए और 40 को जनता ने लोकसभा में भेजा है। कांगे्रस ने 53 महिलाओं को टिकट दिए और 6 के हिस्से जीत आई। इस बार आम चुनाव के लिए खड़े 8000 उम्मीदवारों में से महिला उम्मीदवारों की संख्या 10 फीसद से भी कम थी लेकिन संसद में जीतकर पहुंचने वाली महिलाओं का प्रतिशत 14 है। 2014 में पुरुष सांसदों की संख्या 462 थी,जोकि 2019 में घटकर 446 रह गई है। यूनाइेटड नेंशस यूनिवसिर्टी वल्र्ड इस्ंटीटयूट फॉर डवलपमेंट इकॉनामिकस की 2018 में कराई गई एक स्टडी के अनुसार जिन संसदीय इलाकों में महिलाओं को चुना जाता है,वहां आर्थिक गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्वि होती है। 78 महिला सांसदों के समक्ष महिला आरक्षण बिल को पारित कराना, रोजगाार में महिलाओं की भागीदारी की दर इस समय 26 प्रतिशत है उसे बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डालना ,महिला सुरक्षा और महिलाओं से जुड़े मुददों को राजनीति में प्राथमिकता दिलाने की चुनौती उनके सामने है।

सुनयना: देवदूत की करूण कविता

पिछले दिनों सीबीएसई का 12वीं का परिणाम आया। पहला स्थान पाने वाली दोनों लड़कियों के 500 में से 499 अंक आए। इसके बाद आईसीएस का परिणाम आया। इसमें प्रथम स्थान पाने वाली लड़की के इतिहास में पहली बार 100 प्रतिशत अंक आए। अखबारों के पन्नों पर इन बच्चों और इनके पालकों की रंगीन तस्वीरें छपी। चेहरे खुशी से चमक रहे थे। जाहिर है ऐसा होना भी चाहिए। ऐसे सारे बच्चों ने बताया कि उन्होंने कितनी लगन से दिन में कई-कई घंटे पढ़ाई की है। अधिकांश बच्चों ने बताया कि उन्होंने सबसे बड़ा त्याग किया है कि इस दिनों वे इंटरनेट पर सोशल साइट्स से दूरी बनाए हुए हैं। यह एक भारत है। वहीं जो दूसरा भारत है वह कुछ और बयान कर रहा है। वहां भी बच्चे हैं। वे भी पढ़ते हैं। उनके भी माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, सब कोई हैं पर फर्क यह है कि सब शारीरिक श्रम करके, खेती आदि करके अपना जीवन चलाते हैं। लगातार अभाव की जि़ंदगी जी रहे हैं।

पिछले दिनों एनडीटीवी के डॉ. प्रणव राय ने उत्तरप्रदेश के अमरैली जिले के मोहनलालगंज में सातवीं में पढऩे वाली एक लड़की सुनयना रावत का लंबा साक्षात्कार प्रसारित किया। यह साक्षात्कार भारत के प्रत्येक राजनीतिक दल के चुनावी घोषणापत्र और कार्यकलापों को उधेड़कर रख देता है। सुनयना, बोलती नहीं, गाती है। वह एक कविता की तरह है। दु:ख भरी कविता मगर नैराश्य नहीं, आशा से भरपूर लबालब भरी हुई। वह जिस तरह से बातों को रखती और समझाती है उससे लगता है जैसे कि कोई अदृश्य वैचारिक शक्ति उसमें प्रवेश कर गई है। उसका हंसता-मुस्कुराता चेहरा उसके व उसके परिवार के सामने आ रही विषमताओं को एक दस्तावेज की तरह सप्रमाण प्रस्तुत करता है। उसका हर उत्तर अंधे, बहरे और गूंगे होते जा रहे भारतीय समाज के लिए  एक सबक है, एक चुनौती है। अपनी आज की स्थिति को बयान करते हुए वह कहती है, आज रोज़गार नहीं है। खेत खाली हैं। सब खेत खाली पड़े है रोजगार कैसे मिले? पहले घर चलाने लायक अनाज हो जाता था, अब नहीं होता। पहले फसल घर लाते थे। बेच भी लेते थे। बात को समझाते हुए वह बिना कटुता लाए बताती है, जब खाने को ही नहीं मिलेगा तो बेचेंगे क्या? इसके बाद वह अपनी उसी काव्यात्मक लहजे में जो कुछ करती है, वह दहला देता है। सुनयना कहती है, वैसे अगर जानवर बन गए सब, पूरे गांव के तो हम लोगों का बहुत फायदा रहेगा। इतना ही कहना है उसकी इस यंत्रणा के लिए जिम्मेदार गाय व अन्य पशुओं को लेकर वह बताती है, गाय बंधने लगे तो अच्छा है। एकाध साल  पहले तक ऐसा नहीं था लोग गाय बांधकर रखते थे। अब हम लोग खाद-पानी वगैरह डालकर फसल लगाते हैं, लेकिन गाय खा जाती हैं। बचा-खुचा हमें मिलता है। गाय भी क्या करें, उनको भी तो जीना है। गौशाला में पानी है तो चारा नहीं। क्या वहां मरने भेजें। सबको उन्हें चारा देना चाहिए, बांधना चाहिए।

यह तो एक प्रश्र का जवाब है जो सुनयना दे रही है। उसके पास अपनी समझ है। कोई बाहरी विचार उसे प्रभावित नहीं कर पाया है। वह सहज है। प्राइवेट स्कूल में अंगे्रजी मीडियम में पढऩा चाहती है। पर उसके पास जूते नहीं है। किताबों के लिए भी पैसे नहीं है। 300 रुपए प्रतिमाह फीस के भी नहीं है। पर वह डॉक्टर बनना चाहती है। कम पैसों में गांव वालों का इलाज करना चाहती है। शहर के डॉक्टर बहुत पैसा लेते हैं। खलील जिब्रान की पंक्तियां हैं ‘आपके बच्चे/सिर्फ आपके नहीं हैं/जिंदगी ने खुद ही को चाहा है/खुद इंतजार करती बैठी है/वे बच्चे उसी कामना उसी इंतजार की संतानें हैं/’

पर सुनयना तो इस उम्र में सिर्फ अपने परिवार की नहीं पूरे गांव की सोच रही है। सिर्फ उसका अपना परिवार नहीं, पूरा गांव और उसकी भुखमरी की स्थिति में ले जाने वाली गाय भी उसकी अपनी है। वो एक बार भी उन गायों से नाराज़गी नहीं जताती। वह सहजीवन व सह अस्तित्व को न सिर्फ जानती है, बल्कि उसे जीती भी है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मायावती, अखिलेश यादव और तमाम नेताओं के पास सुनयना के लिए, उसके भविष्य के लिए शायद आश्वासनों के अलावा और कुछ नहीं है। राहुल गांधी ने इस साक्षात्कार पर टिप्पणी भी की है। परन्तु बड़ी बात यह है कि आखिर हम अपने देश के बच्चों के साथ कर क्या रहे हैं? अगर 12 साल के बच्चे की कल्पना में जानवर बन जाने का विचार आ रहा है तो यह बेहद शर्म की बात है। सुनयना बता रही है कि गांव में मनरेगा बंद है। वह कहती है जब घर में खाने को भी नहीं है तो क्या बतायें कि कितनी आमदनी है। एक गैस सिलेंडर उसके परिवार को मायावती ने दिया, एक उन्होंने स्वयं खरीदा और एक मोदी ने दिया। पर तीनों खाली हैं, चूल्हे पर खाना बन रहा है। सिलेंडर 900 रु  का आता है और खरीदने को पैसे नहीं है। परन्तु हमने एक ऐसी व्यवस्था खड़ी कर दी है, जिसमें गायों की संख्या का पता लगाने के लिए पहले उनके गांव गिने जाते हैं और फिर उनमें चार का भाग दिया जाता है। पहले 900-1000 सिलेंडर के भरिए। फिर खाते में जब भी गैस कंपनी या बैंक चाहे, सब्सिडी का धन वापस आएगा। सीधे नकद हस्तांतरण की वकालत करने वाले सोचें कि यदि इसे राशन पर भी लागू कर दिया गया तो लाखों लोग भूखे मर जाएंगे। झारखंड में इस विभीषिका को देख भी चुके हैं। वास्तविकता तो यही है कि सुनयना एक दुखान्त कविता की तरह भारतीय ग्रामीण समाज की जो तस्वीर प्रस्तुत कर रही है, वह हम सबके लिए एक सबक है। अभी वह किसी विचारधारा की प्रशंसक या विरोधी नहीं है। वह किसी भक्त मंडली की सदस्य भी नहीं है। उनके अनुभव इतने पवित्र हैं कि उन पर संदेह किया ही नहीं जा सकता। परन्तु क्या उसकी बात सुनी जाएगी?

स्पेनी कवि फेदेरिको मायोर लिखते हंै ‘तेरे बच्चे की आंखे/सब देख चुकी हैं, /भयंकर विभीषिका/हिंसा की/भूख की/युद्ध की/देख चुकी हैं/घाव, खून, घृणा, निर्दयता।’

हमारे आपके बच्चे अपनी पढ़ाई में जुटे एक बेहतर भविष्य, जो उन्हें शायद अमेरिका में मिलेगा, के लिए प्रयासरत हैं। पर सुनयना अपने घर से एक किलोमीटर दूर अपने खेत में पहुंचने को व्याकुल है। वहां उसकी मां है। उसे स्वयं खेत में बचा-खुचा भूसा भरकर लाना है, जिससे कि उसके घर में बंधी चार गायों को पेट भर सके। सुनयना का यह साक्षात्कार पत्रकारिता को सम्मान प्रदान कर रहा है और समझा रहा है कि वास्तव में इसका स्वरूप क्या होना चाहिए। सुनयना की आवाज और लहजा बेहद सौम्य और मिठास भरा है। परन्तु उसके सवाल उतने ही कठोर व तीखे हैं। किसके पास इनका समाधान है? राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा है, ‘मोदी जी, देखिए आपकी नीतियों ने सुनयना के साथ क्या किया है।’ वे आगे लिखते हैं ‘न्याय उसके साहस और धैर्य के प्रति सम्मान है। न्याय गरीबी की बेडिय़ों को तोड़ेगा। न्याय सुनयना और उसके जैसी करोड़ों का जीवन रूपांतरित करेगा’ सवाल यह है कि यदि कांग्रेस सत्ता में नहीं आई तो सुनयना का जीवन नहीं बदलेगा?

कोशिश करनी होगी कि किसी भी राजनीतिक या सामाजिक परिस्थिति में सुनयना की स्थिति बेहतर हो। उसके अंदर जो कोमलतम है, निर्मलतम है, वह बची रहे क्योंकि वही भारत का भविष्य है। बाकी सब गैरज़रूरी है। इस साक्षात्कार ने अवसर दिया है कि देश अपनी प्रत्येक सुनयना और सुनयन से माफी मांगे। वे सारे बच्चे जो आज बेहतर स्थिति में हैं, सुनयना जैसों के बारे में सोचे। उम्मीद अब बच्चों से ही है। एक बार फिर एनडीटीवी के डॉ. प्रणय राय को धन्यवाद। जापानी कवि तानिकावा सुंतारों कहते हैं,

‘एक बच्चा अभी भी है कुछ आशा/यहां तक कि हमारे दायित्व से बोझिल पृथ्वी पर/हमारे सारे भय के बावजूद/एक बच्चा अभी भी है खुशी की वजह/कितना भी अविश्वास हम क्यों न करें/ईश्वर के होने पर/बच्चा फिर भी है एक देवदूत/’

सुनयना के सिर पर रखे भूसे के बोरे से डगमगाती सुनयना के साथ भारत भी डगमगा रहा है।

जेट को धराशायी करने वाले को उडऩे से रोका!

जेट एयरलाइंस के पूर्व संस्थापक अध्यक्ष नरेश गोयल दंपत्ति को भारत सरकार के एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट ने विदेश जा रहे विमान को वापस मंगा कर देश में ही रोक लिया। यह कार्रवाई शनिवार शाम (25 मई) को हुई। वे एमीरेट ई के 507 से दुबई जा रहे थे। विमान मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज इंटरनेशनल एअरवेज के रनवे से  आकाश को उछाल लेता। तभी उसे वापस हवाई अड्डे में उतार लिया गया।

एमिरट एअरलाइंस के विमान के कमांडर ने भारतीय एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट की बात अनसुनी न कर विमान को वापस हवाई अड्डे पर लिया। गोयल दंपत्ति दुबई में विभिन्न व्यापारिक बैठकों में शिरकत करने को थे। हवाई अड्डे पर उन्हें और उनके सामान को उतारा गया। जो फ्लाइट तीन बज कर पंद्रह मिनट पर रवाना हो जाती वह फिर पांच बजकर पंद्रह मिनट पर उड़ान भर सकी। बाद में गोयल को बताया गया कि वे देश नहीं छोड़ सकते। उन्हें उनके पासपोर्ट वापस कर दिए गए और घर भेज दिया गया।

नरेश गोयल ने जेट एअरलाइंस की स्थापना 1993 में की थी। अभी दो तीन साल से एअरलाइंस पर देनदारी बढ़ती गई और यह लगातार घाटे का शिकार होती गई। मार्च में गोयल से इस्तीफा ले लिया, एअरलाइंस को कजऱ् देने वाले बैंकों ने। आज जेट पर लगभग आठ हजार करोड़ का कजऱ् है। नया कजऱ् देने से बैंकों ने इंकार कर दिया। पिछले महीने से जेट एअरलाइंस के तमाम विमान हवाई अड्डों पर ही खड़े हैं। इसके विभिन्न कामकाज देखने वाले तकरीन बीस हज़ार कर्मचारी अब सड़कों पर नौकरियां की तलाश मेें हैं। ज्य़ादातर को छह महीने से दो महीने का वेतन भी जेट एअरलाइंस का प्रबंधन नहीं दे सका। एमीरत एत्तिहाद जेट एअरलाइंस का सहयोगी था। बढ़ते हुए घाटे और कजऱ् को देखते हुए उसने भी अपना हाथ खींच लिया।

जेट एअरलाइंस में काम करने वाले लोगों को मानवीयता के आधार पर समर्थन देने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के एमएलसी किरण पावस्कर ने पुलिस में शिकायत कर रखी है कि जेट एअरलाइंस के संस्थापक और इसके विभिन्न प्रबंधकों को भारत छोडऩे न दिया जाए।

देश की विभिन्न एजेंसियां अब जेट एअरलाइंस के तमाम नए-पुराने ब्यौरों की छानबीन में जुटी हैं जिससे यह पता चले कि आर्थिक गड़बडिय़ां किस स्तर पर कैसे और कब शुरू हुईं और कौन लोग जिम्मेदार थे। आयकर विभाग से लेकर कारपोरेट विभाग, एन्फोर्सडायरेक्टरेट और दूसरे सरकारी महकमें इस जांच प्रक्रिया में लगे हैं। जेट एअरवेज ने किस आधार पर अपने लॉएल्टी प्रोग्रैक्स की बिक्री एतिहाद एअरवेज को की है उसकी भी छानबीन की जा रही है।

जेट एअरलाइंस फिर आकाश में उड़ान भरे इसके लिए तमाम संभावनाएं तलाशी जा रही हैं लेकिन बात अभी ठोस रूप ले नहीं ले पा रही है।

पाश की कविता

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए

हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए

हम चुनेंगे साथी, जि़न्दगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर

हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर

यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है

प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर

हम लड़ेंगे साथी

क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर

बुझी हुई नजऱों की क़सम खाकर

हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक

जब तक वीरू बकरिहा

बकरियों का मूत पीता है

खिले हुए सरसों के फूल को

जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते

कि सूजी आँखों वाली

गाँव की अध्यापिका का पति जब तक

युद्ध से लौट नहीं आता

जब तक पुलिस के सिपाही

अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं

कि दफ़्तरों के बाबू

जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर

हम लड़ेंगे जब तक

दुनिया में लडऩे की ज़रूरत बाक़ी है

जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी

जब तलवार न हुई, लडऩे की लगन होगी

लडऩे का ढंग न हुआ, लडऩे की ज़रूरत होगी

और हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे

कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता

हम लड़ेंगे

कि अब तक लड़े क्यों नहीं

हम लड़ेंगे

अपनी सज़ा कबूलने के लिए

लड़ते हुए जो मर गए

उनकी याद जि़न्दा रखने के लिए

हम लड़ेंगे.

कुछ कविताएँ

अखरा

गाँव की छाती में

होता-अखरा

जहाँ करमा में

लगता है-गहदम झूमर

 

औरतों के लिए

सबसे सुरक्षित स्वतंत्र

स्थान है-अखरा

धरती की आंत

जहाँ पुरूषों का दम्भ

पच जाता है !

 

जहाँ चौखट से बाहर

औरतें खोल पाती हैं-

अपने पाँव और

अपनी आत्मा के अतल को

 

औरतें अखरा में

खुलकर नाचती है

पांवों के थके जाने तक

आत्मा के भर जाने तक !

 

जब पहली बार

टूटी होगी पुरूषों की अकड़

दरकी होगी दम्भ की दीवारें

तब जाके बना होगा

धरती की छाती में

अखरा, आत्मा की तरह…..!

 

जिसमें स्त्रियों के पांव

थिरके होंगे धड़कन की तरह

और स्त्रियों ने लिया होगा

खुली हवा में सांस

और मुक्त आकाश के नीचे

मुक्त कंठ से गाया होगा

-मुक्ति का गान!

जड़े

जड़ें ज़मीन में जितने

गहरे धंसी होती हैं

उतना ही सीना तानकर

भुजाओं को उठाकर

पेड़ चुनौती देता है

-आकाश को

 

जितनी मजबूती से जड़ें

जमीन को जकड़ी होती हैं

पेड़ उतना ही झंझावातों से

टकराने का हौसला रखता है

 

जड़ों से उखड़ पेड़

तिनकों के समान

नदी के बहाव संग बहते

-इस छोर से उस छोर

 

सांझ ढलते ही पक्षियों का जोड़ा

खदानों में खटने गये मजदूरों को रैला

रोज़ भोर होते ही पश्चिम का डूबा सूरज

शायद इसीलिए लौट आता है

 

सबकुछ झाड़-पोंछकर

-अपनी जड़ों की ओर !

 

जूठे बत्र्तन

रात भर ऊँघते रहे

जूठे बत्र्तन

अपने लिजलिजेपन से

 

मुर्गे की बांग से

भोर होने की आस में

तारों को ताकते रहे

झरोखे की फांक से

 

सुबह होते ही

जूठे बत्र्तनों को

ममत्व भरे हाथों का

स्पर्श मिलता….

 

घर की औरतें

जूठे बत्र्तनों को

ऐेसे समेटती/सहेजती

मानो उनका स्वत्व

रातभर रखा हो

इन जूठे बत्र्तनों में !

 

चाहे ये जूठे बत्र्तन

किन्हीं के हों

किसी भी जात/धर्म के

ऊँच-नीच/भेद-भाव

तनिक नहीं करतीं

घर की औरतें

इन जूठे बत्र्तनों से !

 

पिता की खांसी

पिता की खांसी

जैसे उठता-कोई ज्वार

मथता हुआ सागर को

इस छोर से उस छोर

दर्द से टूटते पोर-पोर

 

जब खांसी का दौरा पड़ता

थरथराने लगता-पिता का धड़

डोलने लगता-माँ का कलेजा

मानो खांसी चोट करती

घर की बुनियाद पर

हथौड़े की तरह….

और हिल उठता-समूचा घर !

 

 

अब सत्तर की उमर पर

दवाओं का असर

कम पड़ रहा

पिता की खांसी पर

 

डॉक्टर कहा करते-

यह खांसी का दौरा

दमा कहलाता है

जो आदमी का

दम तोड़कर ही दम लेता है !

 

लेकिन

अगर आदमी में दम हो

तो पछाड़ सकता है

-दमा को

 

दमा और दम की

लड़ाई अभी जारी है…..!

इस साल का सावन

एक बार तो पहले भी

मैं लिख चुका हूँ-

इस साल का सावन

बिलकुल सूखा-सूखा

जैसे चैत के दिन

फागुन की रातें

 

लेकिन इस साल का सावन

उससे भी सूखा-सूखा

जैसे जेठ के दिन

बैसाख की रातें !

 

सावन की सप्तमी कृष्ण पक्ष में भी

दिन में दमकती धूप चम-चम

रातों को एक बूँद ओस नहीं !

 

मानो बंध गये हों मोरनी के पंख

और अकडऩे लगे हैं उसके पाँव

सील गया हो कोकिला का कंठ

और गुम है-दादुरों की टर्र-टर्र

सूख रहे नदी-नाले

धरती की नसों में

उबल नहीं रहा लोहू !

इस साल अभी तक नहीं सुना

किसी के होंठों से/न किसी बाजे से

‘सावन का महीना पवन करे सोर

जियरा झूमे ऐसे जैसे बनमां नाचे मोर’

जिसमें नायिका समझा रही नायक को

‘श’ और ‘स’ का उच्चारण भेद

 

खेतों में घास झुलस रही

चीटियां उनकी जड़े खोद रही हैं

बारियों में उग आये हैं कंटीले पौधे

और बीहन का रंग-बिलकुल पीला-पीला

 

आज मन तरस रहा रिझमिम में भीगने को

कान तरस रहे-रोपा के गीत सुनने को

पता नहीं कब चुवेगा छत से पानी

और बुझायेगा-जलता हुआ चूल्हा

 

आज तो गरीब भी चाहता है

कि-पानी चूवे उसके छप्पर से

और बुझे उसका जला हुआ चूल्हा

ताकि बारहों मास जलता रहे

सबके घर का चूल्हा !

वह शाल

मैं जब अपने सूटकेस संभाल रही थी तभी शम्सशाह घुसा कमरें मेें। उसने धम्म से टोकरा रखा। ‘मैं अपने बच्चों के लिए आम लाया था। आप इसे साथ ले जाएं।’

मैं कुछ कहती इसके पहले ही वह बाहरी बरामदे की ओर बढ़ गया बड़े दरवाज़ों की ओर। टोकरा उसने यहीं छोड़ दिया था। जिस पर एक पता लिखा था। मेरे पास अब कोई और चारा नहीं था सिवा इसके कि मैं आम लेकर ही जाऊं।

जब विमान उड़ा तो मैं बैठी हुई यही सोच रही थी कि : क्यों, इतने लोग घाटी की ओर जा रहे हैं। जब वहां कफ्र्यू लगा होता है और अनिश्चितता रहती है। गिरफ्तारियां और बंदी बनाना तो रोजमर्रा का काम ही है।

हालांकि ज्य़ादातर यात्री कश्मीरी ही हैं। लेकिन कई लोग वर्दी में भी हैं। ‘बाहरी’ लोगों और ‘भीतरी’ लोगों के साथ खड़े दिखते। एक अजीब सा आदमी मेरी बगल की सीट पर बैठा था। वैसे ही बेचैन तरीके से देखता हुआ। बहुत ही गंदे तरीके से खाता, किसी तरह गटकता हुआ। मानो, कई दिनों से उसने खाना खाया नहीं हो।

हल्की सा भी उतार चढ़ाव होता तो कंधे से लटका उसका बैग सरक जाता। पेंट के साथ पेंट ब्रश, मुड़ी तुड़ी ट्यूब, हाथ की बनी कागज

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ट्यूब और ब्रश को उसने लगभग फेंक दिया। इतने पर भी नहीं, तो उसने पेंट की हुई पट्टियां फेंक दी और सीट पर खुद को निढ़ाल कर सीट बेल्ट खोलनी और बांधनी शुरू की।

बड़ी ही बेसब्री से वह इधर-उधर देखता।

श्रीनगर का अभी-अभी बेहतर बना हवाई अड्डा, सुरक्षा के लिहाज से मौकों पर तैनात सुरक्षा सैनिक। पुतलों की तरह भावहीन।

*****

एक इंस्पेक्टर के चेहरे पर भाव उभरते हैं। वह आम की टोकरी की ओर गर्दन घुमाता है। चौसा! ‘ये आम यहां नहीं मिलते। न जाने कितनी दुकानों में तलाशा लेकिन ये मिले नहीं। … चौसा! टोकरा उठाते हुए, खुद जांचते हुए कहा, ‘वाह, वाह ये कहलाते हैं चौसा!’

साथ ही उसने मुझे ‘तलाशी कक्ष’  ओर चलने के लिए उसने इशारा किया। एक हमले सा लगभग अनचाहा, खींच-तान से भरपूर।

इसके बाद बाहर टोकरी पर चिपके शम्सशाह के घर के पते को टैक्सी ड्राइवर को दिखाया बताया।

‘यह है पता… इस जगह जाना है।’

‘यह तो बहुत दूर मीलों पार है। चरार से भी आगे।’

‘यहां से कितनी दूर होगा?’

‘चालीस से भी ज्य़ादा।’

‘क्या’

‘खासा दूर है?’

‘अच्छा’

‘फिर क्या चलें अब?’

‘ये आम तो तब तक नहीं रहेंगे।’

‘आठ सौ लगेंगे। सड़कें टूटी हुई हैं बाइपास तक। बहुत कठिन है ड्राइव करना, कोई और राह भी नहीं।’

‘क्या शाम होने तक पहुंच जाएंगे?’

‘और भी पहले बशर्ते वह सड़के…. अपने तुड़े मुड़े चश्मे को दुरूस्त करते हुए और चिट को ठीक करते हुए उसने कहा। फिर उसने दूसरा वाक्य शुरू कर दिया, मानो वह भावावेश में फूट पडऩे को हो या फिर मेरे तनाव को सहला रहा हो।’

‘ये सड़कें, होती थीं महज खच्चरों के लिए।’

एमएलए जनाब को न तो बिजली, पानी के लिए वक्त है और न हमारी जान के लिए।  कुछ देर रूकता है पर ज्य़ादा देर नहीं। देखिए, वहां उस झाड़ी में जवान क्या कर रहे हैं। उसे उजाड़ रहे हैं। देखिए, सिर्फ देखिए। अचानक रूक जाते हैं सभी। फिर शब्दों का गुबार, ‘दूसरा करावें का दूसरा दस्ता गुजर रहा है। कोई ओवरटेकिंग नहीं। निहायत ही खतरनाक। बेवजह मारे जो सकते हैं। मैं और आप भी। इन आंखों ने बहुत कुछ देखा है।  यहां खतरा है। इस जहन्नुम में। आप यहीं रहिए। आप सब जान जाएंगी। कितने मारे गए। कई सौ तो मुंह अंधेरे अनजान कब्रों में दफना दिए गए। और यह हुकूमत सिर्फ झूठ पर झूठ बोलती है।

फिर चलते है। लंबी सड़क पर। गैर उपजाऊ टुकड़े से होते हुए एक नाले से हम गुज़रते हैं। मुझे वह मुट्ठी भर जंगली घास देता है। साथ हैं स्फटिक और रंगीन पत्थर। यह है सुंदरता। ‘दुनिया में और कही नहीं मिलेगी यह नेमत। आप इनका आकार और रंगत देखिए। देखिए इस नीले को जिसकी हरियाली आभा है…. इन्हें रख लीजिए।’

सोचती रही इन्हें कहां सजाऊंगी उस टीक टेबल पर या आलमरी पर। मेरे हाथ उन्हेें अब देर तक थामे नहीं रह पाते। वे स्फटिक और घास की पंत्तियां गिरने लगती हैं। ‘अरे, यह तो वही आदमी है जो मेरी बगल में बैठा था विमान में।’ कुबड़ा सा वहां बैठा था बेहद बेचैन भी। उसी विमान में जिसमें मैं थी। उसे देख कर, खुद से फुसफुसाती हुई। ड्राइवर से नहीं कहा, वह… वह आदमी वहां, यह वही है जो…

‘आप जानती हैं?’

‘मेरे साथ ही बैठा था विमान में’

‘पागल है। वह चित्र बनाता हैं और बनाता ही रहता है कोई ब्रिकी नहीं , कहीं ले जाना नहीं।’

‘लेकिन वह मेरे साथ विमान में था?’

‘मुख्यमंत्री उसे आपकी दिल्ली में ले जाती हैं। कोई फार्म हाउस वहां वह पेंट करता है। यहां अखबारों में उसकी बड़ी खबर छपी थी। मैंने श्रीनगर साइट में इसे पढ़ा।’

‘क्या वह बेचता है।’

‘नहीं कोई बेचना नहीं। वह जो बनाता है उससे दूर होना ही नहीं चाहता।’

‘फिर मुख्यमंत्री के यहां कैसे?’

‘सरकारी जोर-जबर्दस्ती से जो न करा दें। उनकी हुकूमत। उनका रूतबा। कौन नहीं डरता पुलिसवालों से।

‘हम भी तो उनके ताबे में रहते हैं।’

ड्राइवर अपनी धुन में कमेंटरी दिए जा रहा था।

जिसमें उस आदमी को पागलपन पर खासा फोकस था। तभी हम जोडऩे वाले लकड़ी के पुल पर पहुंचे। अपनी मोटी गर्दन और पूरी भाव-भंगिमा चेहरे पर लिए हुए वह मुड़ा और उसने देखा। ‘कुछ लोग बताते हैं कि उसने अपने स्टूडियो को खुले वार्ड में पेंट कर रहा था तभी पुलिसवालों ने उसे धर-दबोचा। उसके बाद से वह थोड़ा पगला सा गया… वह लोगों पर हमले करने लगा। उस पर आरोप हैं। यह नहीं पता कि वे जाली हैं या असली। अचानक वे सारे आरोप खारिज हो गए। उसने कुछ मंत्रियों के घरों में पेटिंग की। लेकिन उसका बेटा लापता है… चला गया शायद।

‘उसका बेटा कहीं गया है या गुमशुदा है।’

‘गायब है। सरकारी रजिस्टरों में कहीं फेंक दिया गया है।’

‘गुमशुदा?’

‘और क्या संभव है? यह तकलीफदेह बात उसे पागल सा बनाए हुए है। वह पेंट करता है और बस पेंट ही करता है। फिर सब फाड़ देता है।’

‘उसका बेटा क्या फिर मिला?’

‘यहां कई गुमशुदा हैं। गायब है?’

‘उसका बेटा भी क्या पेंटर था?’

‘नहीं पता कि वह पेंटर था कि प्लंबर। लेकिन वह थोड़ा विकलांग था। खुदा जाने क्या बीमारी थी। वह ठीक से चल नहीं पाता था। उसे एक बार ,,,,,, करते देखा था। फिर तो वह लापता ही हो गया।’

‘उसका बेटा बड़ा था या बच्चा?’

‘यह सब दो साल पहले हुआ था। वह किशोर उम्र में था। आपने देखा होगा। यह आदमी भी अपनी उम्र से कहीं ज्य़ादा का जान पड़ता है। बहुत सारे लोग उसे मुर्ख  बनाते रहते हैं। उसे समझाते हैं कि वे उसके बच्चे की तलाश कर रहे हैं। उससे वे कुछ भी ले लेते हैं, उसका काम चुरा लेते हैं।’

‘फिर’

‘फिर क्या। कुछ भी नहीं।’

काठ के पुल से गाड़ी चला कर निकलते हुए चौड़ी जगह पर एक किनारे वह आदमी उकडूं होकर बैठा था। मुड़, कर फुसफुसाहट से तेज ड्राइवर की आवाज सुनी, ‘यह मैडम आम के साथ आगे जा रही है।’

वह अचानक खड़ा हो गया। उसने मुझे देखा कुछ उसी तरह जैसे विमान में देखा था।

‘यह तो वही महिला हैं… वही।’

‘हां, वे तुम्हारे साथ ही हवाई जहाज़ में थी। वे अब मेरी टैक्सी में हैं… मैं उन्हें ले जा रहा हूं। और साथ में आम।

‘उन्हें बताओ, वे सारे आम गायब हो चुके हैं। उस टोकरी में नहीं हैं। या जो भी तुम उस बड़े बाक्स को कहते हो के्रट या बड़ा डिब्बा।’

‘क्या’

‘उसे बाहर निकालो। बॉक्स को खोल कर देखो, पूरा खाली होगा।’

‘क्या! आप कह क्या रहे हैं?’

‘कुछ भी नहीं है उस बाक्स में। मैं दिखाता हूं। वह टोकरी खींचता है। टोकरी को खोलता है। देखो, टोकरी तो बड़ी है लेकिन अंदर कुछ नहीं है। अपना हाथ नचाते हुए वह मुझ पर आरोप लगाते हुए कहता है, ‘आपने सिक्यूरिटी वालों को आम खिला दिए। या उन्होंने आपसे सारे आम झटक लिए। या आपने उन्हें चोरी करने का मौका दिया। आपने यह शाल उन पर क्यों नहीं फेंक दी। यह शाल जो आप पर है, वह आपकी नहीं है। मेरे बेटे की शाल आप पर है। यह वही शाल है।

‘मेरे कंधों से सरकती शाल घास के ढेर पर गिर जाती है।’

मेरे हाथ कांपने लगाते हैं। नहीं, बढ़ते भी नहीं। उसकी ओर।

स्तब्ध माहौल। ड्राइवर गुस्से में बोलता है। धमकी देता है कि मैं सिपाहियों को बुलाता हूं। लेकिन वह कुबड़ा पेंटर, टूटी हुई टोकरी एक किनारे रखता है और कहता है कोई पुलिस यहां नहीं है। क्या तुम चाहते हो कि वे आदमी इस औरत का बलात्कार करें। आम तो उनके गले से पेट में गए और अब तुम इस औरत को उनके कमरों में ठूंसना चाहते हो? ‘तुम्हारा बेटा उसके साथ था!’

मेरी तरफ देखते हुए, शाल की तरफ देखते हुए, ‘ऐसी ही थी वह शाल। अशरफ ने खुद ओढ़ रखी थी। इस शाल में उसकी सुगंध है। उसके पसीने की सुगंध है। मेरे बेटे की गंध…।’ वह सुबकने लगा। ‘उसकी शाल, उसी करघे की बनी है। वही एम्ब्रायडरी, वे ही धागे, वही रंग। तुमने मेरे अशरफ को निगल लिया। वह फिर आएगा और उसका क्या रूप रंग होगा। जो चला गया वह चला गया, वह गया।

********

किसी तरह नई दिल्ली की फ्लाइट बुक कराई। घर की ओर जाते हुए एक गैरेज के पास नौजवान लड़कों को बैठे देखा। सभी एक कतार मेें थे। उन्हीं में पोलियोग्रस्त एक बच्चा भी था। उपेक्षित सा दिख रहा था। उकडूं बैठा उसका भी बैठने का तरीका वही था। मैं उसके दुखी चेहरे को देखती रही।

उसकी कूबड़ थोड़ी बिगड़ रही थी। दूसरे बच्चे फुसफुसा रहे थे, ‘अशरफ, अशरफ। अशरफ।’

उसकी आंखो में भी भरा था अविश्वास। उसमें आशा नहीं थी, जैसी मैंने उसके पिता की आंखों में देखी थीं।

था जो शाम्सशाह की आंखेां में थी। वह आदमी जिसने उसे मुझे बेच दिया था, तकरीबन दो साल पहले।

उस गैरेज में बैठे दूसरे बच्चों को भी देखा मैंने। आश्चर्य से सोचती रही मैं, क्या मुझे उन्हें वापस उन थाम के मैदानों के हवाले कर देना चाहिए। जहां से इनका अपहरण किया गया। या जहां इन्हेंं बाध्य किया गया कि वे कठिन पैटर्न की बुनावट करे उन औरतों और मर्दों के लिए जो शासन या फिर कुशासन चलाते हैं।

मोदी में है पर फिल्म में नहीं कोई दम

कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देख कर आप ठिठक जाते हैं। प्रेरित होते हैं। एक व्यक्तित्व को गंभीरता से लेते हैं। वैसा बनने की कोशिश करते हैं। बरसों पहले गांधी पर एक फिल्म आई थी ‘गांधी’। फिल्म निर्देशक अभिनेता रिचर्ड एटनबरो ने यह फिल्म बनाई थी। इस फिल्म को देखने की चाह  आज भी लोगों में मिलती है।

‘पी एम नरेंद्र मोदी’ नाम से बनी फिल्म एक अर्से से बनकर ठहर हुई है। इसका प्रदर्शन न हो, यह फैसला भारत के निर्वाचन आयोग ने किया था। फिल्म सिनेमा घरों में रिलीज नहीं हुई लेकिन हंगामा रहा। जब चुनावी नतीजे आ गए तो फिल्म भी सिनेमा हाल में प्रदर्शित हो गई।

यह फिल्म बड़ी अजब ही सी है। इसे देख कर फिल्म के नायक के प्रति कोई सहज अनुराग नहीं जगता। ऐसा ही लगता है कि कोई प्रचार फिल्म देख रहे हों। कोई गहराई नहीं। अभिनय भी औसत। दर्शक इस फिल्म को एक कला फिल्म भी नहीं मान सकते। इतनी खराब फिल्म जिसे देखकर यही हर पल लगता रहा कि पैसे आपके, प्रचार नायक का।

यह पूरी फिल्म नहीं एक रंगीन और खराब डाक्यूमेंटरी है। इस फिल्म में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाकपटुता, नारेबाजी, दावे हैं। उनके ढेरों इंटरव्यू से ली गई चीजें हैं। लेकिन इस फिल्म के निर्माता निर्देशक उमंग कुमार की फिल्म यह जताती है कि लगन हो तो जि़ंदगी अपने आप में बेहद सहज और आसान है। यह फिल्म बताती है कि कठिन जि़ंदगी को जीते हुए मेहनती, ईमानदार मोदी ने समाज को किस कदर जाना-समझा और वे कैसे समाज सेवी, प्रचारक और संगठन चलाने की जिम्मेदारी संभाली इमरजंसी के दिनों में उन्होंने लोगों की खूब मदद की। संगठन क्षमता के चलते वे राममंदिर आंदोलन के नेताओं से जुड़े। गुजरात में उनके समय में दंगे हुए। उन्होंने मुख्यमंत्री के तौर पर राजधर्म निभाया। फिर वह समय आया जब पूरे देश को अपनी वाकपटुता से प्रभावित करके 2014 में सरकार संभाली। अब 2019 की चुनावी सुनामी में दूसरी बार विजयी हुए।

इस फिल्म में यह बताने की कोशिश है कि नरेंद्र मोदी सबको चाहे वे मुसलमान हो या ईसाई या फिर सिख आने देश में साथ ही रखना चाहते हैं, क्योंकि मानव मात्र की वे चिंता करते हैं, और यह सिद्धि है जिसे नंगे पांव हिमालय की चोटियों पर जाकर उन्होंने हासिल किया था।

बहरहाल यह फिल्म दर्शक के मन में मोदी को जानने के उत्साह को खत्म करती है। ऐसा लगता है कि यह पूरी फिल्म सिनेमा दर्शकों के लिए नहीं सिर्फ बल्कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के लोगों के लिए ही, उनके प्रचार के लिए बनी है।

‘आ बता दें ये तुझे कैसे जिया जाता है..’

तो नतीजे आ गए। जीतने वालों को बधाई। इसका अर्थ है एक और अवसर नाचने, गाने और मौज मस्ती का। एक ओर झोपड़ी के बाहर हरिया, जुम्मन, माड़ू और मूसू नाच रहे हैं। तो दूसरी ओर राय बहादुर धर्मसेन, लाला नारायण दास और टिंबर किंग अशोक बंसल पांच तारा होटल के प्रांगण में जश्न मना रहे हैं। राय बहादुर, लाला और टिंबर किंग का नाचना तो समझ में आया कि इन लोगों की दौलत पिछले पांच साल में 500 से 1,000 गुणा तक बढ़ गई थी और अब आगे इतना ही और बढऩे की उम्मीद जग गई थी, पर जुम्मन, हरिया का नाचना समझ से परे था। इनकी बस्तियां बिल्डर्स ने उज़ाड कर शॉपिंग मॉल बना दिए थे। हरिया का बेटा पिछले तीन साल से डिग्री हाथ में लिए नौकरी तलाश रहा था। मूसू के भाई ने आढ़ती का कजऱ् न लौटा पाने के कारण अभी छह महीने पहले ही तो आत्महत्या की थी। पर ये सभी नाच रहे थे।

मैं बहुत देर तक इन्हें नाचते हुए देखता रहा। फिर देखा मेरा धोबी भी नाच रहा है। राजा और रंक दोनों को नाचते देख मैं भी नाचने लगा। आखिर मुझ में भी तो राष्ट्र प्रेम है। रोटी कोई मसला थोड़े है, बेरोजग़ारी का मुद्दा भी कोई मुद्दा है। रेहड़ी लगा लो, छाबड़ी लगा लो, चाय बेच लो, पकौड़े तल लो। शराब के ठेके जगह-जगह इसीलिए तो खोले हैं ताकि बेरोजग़ार नौजवान भटके नहीं। बस ठेके के साथ पकौड़े तलने शुरू कर दें। हमारे शराबी दारू पीते हैं ग़म भुलाने के लिए, अब साथ में अगर पकौड़ों जैसा पौष्टिक आहार भी मिल जाए तो सोने पे सुहागा हो जाए।

किसानों के लिए भी एक योजना है। अरे भाई आत्महत्या क्यों? कजऱ् नहीं चुका पा रहे कोई बात नहीं, बैंक वाले या साहूकार तंग करते हैं कोई बात नहीं। उनके गुंडे आकर मारपीट करते हैं कोई बात नहीं। अपनी ज़मीन साहूकार को दे दो, कौन सी छाती पर रख कर ले जानी है। भाई जान है तो जहान है। परिवार को सड़क पर ले आओ। ठेके के पास फड़ी लगा लो। क्या कहा नगरपालिका और पुलिस विभाग के लोग तंग करते हैं? तो भाई उनका हफ्ता बांध दो। बड़े-बड़े उद्योगपति, ठेकेदार, ट्रांसपोर्टर सभी तो हफ्ता देते हैं। हफ्ता दो मजे से चाहे पूरी सड़क घेर कर अपना धंधा जमा लो। आप शराबियों का साथ दो शराबी आपका साथ देंगे। यह अर्थशास्त्र मेरी समझ में आ गया।

बाकी हम सबने क्या लेना है। कोई बैंकों के पैसे लेकर विदेश चला जाए या अपनी सम्पति साल-दो-साल में अरबों रुपए की कर ले। किसी का किसी बैंक में खाता हो। हम तो सभी देशभक्त हैं, कोई सवाल खड़ा करके देशद्रोही थोड़ा बनना है। बेहतर है देशभक्त बनों जीत पर नाचो चाहे पैरों में बेडिय़ां और हाथों में हथकडिय़ां और मुंह पर ताला हो।

बाकी तो ठीक है पर कुछ कलम घसीट नहीं मानते। उन्हें आदत है हर बात में टांग अड़ाने की। हर रोज़ कोई न कोई सवाल खड़ा कर देते हैं। क्या ज़रूरत है पंगा लेने की। वही लिखो जो कहा जाए, वही दिखाओ जो वे चाहते हैं। टीआरपी बढ़ाओ, सर्कुलेशन बढ़ाओ, विज्ञापन पाओ, प्लाट हथियाओ, लोकतंत्र में पूरी छूट है। पर किसी ‘मसीहा’ की बुराई तो मत करो। यह काम तो दुश्मन देश कर ही रहा है, तुम करोगे तो तुम उसी के साथी हुए। तुम्हें वहीं चले जाना चाहिए नही ंतो कोई न कोई देशभक्त गोली मार ही देगा। आखिर देश को बचाने के लिए कुछ लोगों की कुर्बानी कौन सा बड़ी बात है। पहले भी गोलियां मारी गई हैं, कुछ और चल जाएंगी। जो कलम घसीट नहीं नाच रहा उस पर पैनी नजऱ रखो। अजी साहब खुश हो जाइए। हाथों और पैरों में पड़ी बेडिय़ों को भूल कर बस नृत्य करो। किसी शायर ने जिं़दगी और नृत्य का क्या खूबसूरत फलसफा दिया है:-

”कैसे जीते हैं भला, हमसे सीखो ये अदा

ऐसे क्यों जि़ंदा हैं लोग, कैसे शर्मिंदा हैं लोग

दिल पे सह कर सितम के तीर भी

पहन कर पांव में जंजीर भी

रक्स (नृत्य) किया जाता है

आ बता दें ये तुझे कैसे जिया जाता है।’’

गो एयर की एक फ्लाइट की औरंगाबाद में इमरजेंसी लैंडिंग

पटना से मुंबई आ रही गो एयर की एक फ्लाइट की औरंगाबाद में इमरजेंसी लैंडिंग की गई।फ्लाइट जी-8 586 की औरंगाबाद एयरपोर्ट पर इमरजेंसी लैंडिंग करवाई गई।

सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसारक तकनीकी समस्या के चलते फ्लाइट की औरंगाबाद एयरपोर्ट पर इमरजेंसी लैंडिंग कराई गई।फ्लाइट में क्रू मेंबर्स के साथ 158 पैसेंजर थे। सभी को फ्लाइट से सुरक्षित निकाल लिया गया है।

हांलांकि फ्लाइट की इमरजेंसी लैंडिंग को लेकर अभी तक कोई ओफिशियल बयान नहीं आया है। फिलहाल पैसेंजरों को अन्य फ्लाइट से भेज दिया गया है।