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स्मृति ईरानी के चुनाव प्रचारक की हत्या

उत्तरप्रदेश में अमेठी से केंद्रीय मंत्री और भाजपा की वरिष्ठ नेता स्मृति ईरानी विजयी रहीं। उनकी जीत में सहायक माने जा रहे बारुलिया गांव के पूर्व सरपंच और भाजपा नेता सुरेंद्र सिंह रविवार (26 मई ) की रात अमेठी निर्वाचन क्षेत्र में मृत पाए गए। सात लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है।

पुलिस के अनुसार सिंह के आवास पर भोर में तीन बजे हमलावरों ने गोलियां चला कर उनकी हत्या कर दी। उन्हें केजीएमयू ट्रॉमा सेंटर पहुंचाया गया लेकिन रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई।

अमेठी के एसपी राजेश कुमार ने बताया कि उनकी हत्या की वजह पुरानी रंजिश है। पुलिस की जांच जारी है। सुरेंद्र सिंह के पुत्र में बताया कि अमेठी में ईरानी की जीत के उत्सव से वे अपने घर लौटे थे। उसके अनुसार सुरेंद्र सिंह स्मृति ईरानी के लिए चौबीसों घंटे प्रचार कार्य करते थे। वे उनकी विजय यात्रा से लौटे थे कि कुछ लोगों ने उनकी हत्या कर दी। मुझे लगता है हमलावरों में कांगे्रस के समर्थक भी रहे होंगे।

पिछले दिनों बारुलिया गांव की चर्चा इसलिए भी काफी हुई थी क्योंकि स्मृति ईरानी ने चुनाव प्रचार के दौरान यहां जूते बांटे थे। कांग्रेस की महासविच प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा था कि जूते बांटना, अमेठी की जनता का अपमान है।

स्मृति ईरानी सुरेंद्र सिंह की हत्या की खबर सुनकर उनके परिवार में गई । अंत्येष्टि में कंधा दिया। साथ ही शोकसंतप्त परिवार को उन्होंने ढांढस़ बंधाया।

राहुल हारे नहीं, बल्कि जीते

राहुल की हार, इस देश की जनता की जीत है। जिसकी वे चिंता कर रहे थे। जनता जानती है क्या होती है जीत और हार। गली-मोहल्ले में बहुरूपिए के नाच और पश्चिमी संगीत पर चा चा चा… नाच में अंतर होता है। इस अंतर को समझने वाली जनता जानती है कि राहुल आज हारे नहीं है। वे आज उस जनता के ह्रदय में हैं। जो अपने नेता को ध्यान से सुनती है। वोट नहीं देती लेकिन सब समझती है।

जनता को पता है कि राहुल वह प्रतिभा हैं जो आज नहीं तो कल, बहुमत से भी ज्य़ादा वोट पाकर एक दिन संसद में पहुंचेगे। गाली-गलौच नहीं करते। झूठे सपने नहीं दिखाते। वे कभी अपने सपने को भारत में साकार करेंगे। इस देश की जनता ने इस चुनाव में अच्छे से यह बात भी जान ली है कि राहुल जहां जहां भाषण देते है। अपनी योजनाएं बताते हैं वे क्यों नहीं देश की जनता तक पहुंचती। गांव के तिलकधारी प्रधान तो लालच देते हैं सब साथ चलेंगे, कमल पर ठप्पा लगाएंगे। शाम को गाड़ी-घोड़ा, जलपान सबकी अच्छी व्यवस्था है। प्रधान तो यह बताते हैं अबकी गैस का सिलंडर और चूल्हा मिल गया। आगे पांच साल हंडा भी मुफ्त मिलेगा। सब व्यवस्था किए हैं सरकार। इसीलिए इतनी गर्मी में इतना लंबा चुनाव। सब जानते हैं गप और सच।

राहुल को शिशु से युवा होते देखा है इस देश की जनता ने। उसे पता है राहुल की दीदी प्रियंका ने जब दुखी होकर बताया था कि आतंकवाद क्या होता है। ‘हम जानते हैं। कैसे हमारे पिता मारे गए। कैसे हमारी दादी मारी गई। परिवार का कमाने वाला जब मार दिया जाता है तो उसकी कितनी तकलीफ होती है। हम जानते हैं। पैसों से भूख ज़रूर बुझ जाती है लेकिन परिवार में ज़रूरत होती है साथ की, प्यार और दुलार की।’ आतंकवाद किस तरह उजाड़ता है परिवार लेकिन वे नहीं जानते जो दावे करते हैं झूठे। यह राहुल, प्रियंका और उसकी मां जानते हैं, समझते हैं। बस दुहाई नहीं देते।

देश की जनता ने राहुल बाबा को अपने बीच बड़े होते और अमेठी में आते जाते देखा और जाना है। एक दौर था जब बात करते करते राहुल ठिठक जाते थे। लेकिन दो साल में वे हजारों लोगों के बीच आज अपनी बात समझाना सीख गए हैं।

इसी चुनाव में उनका जो चुनावी मैनीफेस्टो आया। उसमें कितनी योजनाएं थीं। कितने सपने थे। लेकिन उनको समझाता कौन। यह चुनावी दस्तावेज भरोसे का था लेकिन उसे घर-घर ले जाकर लोगों को समझाता कौन? कांग्रेस के जिन नेताओं का यह काम था वे तो बकरी के गले में थन की तरह उस परिवार से चिपके रहने में ही अपनी भलाई देखते रहे हैं। वे सिर्फ बयान बाजी करते हैं। घूप में घूमें क्यों। गाड़ी से उतरें क्यों?

इस देश की जनता ने देखा है कि इस चुनाव में युवा नेता राहुल के साथ उनके नाम का मंत्रपाठ करने वाली उत्साही भीड़ नहीं थी। राहुल को उनके नाना जवाहर लाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी, पिता राजीव गांधी का नाम ले-लेकर वे कोसते थे जो नया भारत रचे थे। राहुल को पप्पू, नामदार, शहंशाह और न जाने क्या क्या पदवी दी जाती थी। जिसे पांच हजार नेता दुहराते रहे। चुनाव में आचार संहिता की खूब धज्जियां उड़ीं। चुनाव आयोग लाचार था और सिर्फ चुप रहा। देश की सीमा की रक्षा, और हिंदुत्व के नाम पर देश का तमाम तरह का मीडिया उनके था जिसके पास सत्ता थी।

राहुल ‘न्याय’ की बात करते थे। जनता को समझाया गया, जानते हो, इन्कम टैक्स की दर बढ़ा कर, सरचार्ज लगा कर आपका पैसा लेकर छोटे किसानों, दलितों व आदिवासियों में ऐसे उड़ा दिया जाएगा। यह प्रचार समाज के मझोले तबके और वणिक वर्ग में किया गया। बताया गया क्या मोदी पांच साल में बेरोज़गारी नहीं दूर की। अरे छोटी-छोटी नौकरियां जैसेे सहायकों की, चौकीदारों की, ड्राइवर की नौकरियां तो लगाई। क्या उनका ईपीएफ नहीं जमा होता। किसी ने नहीं पूछा कि तीन महीने बाद ये नौकरियां ‘रिन्यू’ क्यों नहीं होती। ईपीएफ में तीसरी किश्त क्यों नहीं जमा करता नियोक्ता। लेकिन सत्ता का प्रचार जारी रहा। राहुल कहां से नौकरियां देंगे। वे चीन का उदाहरण देते हैं।

देश की जनता ने देखा, करारी हार के बाद भी राहुल गांधी देश की जनता के सामने प्रेस कांफ्रेस में आए। उन्होंने शालीनता से कहा, ‘मैंने अपने चुनाव प्रचार में कहा था और आज भी कहता हूं कि जनता मालिक है। जनता का फैसला आज ही आया। मैं मोदी जी को बधाई देता हूं। इस चुनाव में उनकी अलग विचारधारा थी। वे इस चुनाव में जीते हैं। मैं उन्हें बधाई देता हूं।’

पार्टी के कार्यकर्ताओं से उन्होंने कहा, ‘हमारी लड़ाई विचारधारा की है। आप डरें नहीं, घबराएं नहीं। हम एक साथ मिल कर लड़ेंगे और जीतेंगे।’ उन्होंने उस मीडिया को भी धन्यवाद दिया जो इस पूरे चुनाव में कभी निष्पक्ष नहीं दिखा। इसके बाद राहुल उठ गए। बेहद शांत, शालीन और सौम्य।

इस देश की जनता जानती है कि उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में रायबरेली, अमेठी कभी थे। तब यहां की सफेद मिट्टी में बमुश्किल दो फसलें साल भर में होती थीं। लेकिन गांधी परिवार ने इस इलाके में नहर से पानी और विकास की एक राह बनाई। राजीव गांधी की मृत्यु के बाद जो भी विकास योजनाएं पहले की थीं उन पर केंद्र सरकार पैसा ही नहीं देती थी। क्या विकास ठहर गया। निजी तौर पर गांधी परिवार ने वहां स्वास्थ्य, नारी शिक्षा और छोटे काम-धंधे यानी वैकल्पिक आय के स्रोत के लिहाज से हस्तशिल्प के काम सिखाना बताना शुरू किया। लेकिन राहुल इस बार अमेठी में हार गए। अपनी प्रेस कांफ्रेस में राहुल ने कहा, ‘इस बार अमेठी से स्मृति ईरानी जीत गई हैं। मैं उन्हें बधाई देता हूं। वे वहां की जनता के भरोसे का ख्याल रखेंगी। इसकी मुझे उम्मीद है।’

एक सवाल के जवाब में उन्होंने प्रेस कांफ्रेस में ही कहा कि कांग्रेस की कार्यकारिणी की जल्दी ही बैठक होगी उसमें हार की तमाम वजहों पर हम छानबीन करेंगे। एक और सवाल पर उन्होंने कहा, ‘पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मैंने हमेशा शांति से, प्यार से ही अपनी बात रखी। हमेशा मेरी यही कोशिश थी कि मैं प्यार से ही बोलूं। प्यार से ही अपनी बात रखूं।’ जनता का अपना यह दुलारा नेता था जिसे अमेठी की जनता ने अपनी आंखों के सामने छोटे से बड़ा होते देखा। उसी अमेठी के लोगों की देख-रेख, शिकायतों, रोज़गार, काम धंधो, खेती-किसानी की समस्याओं को प्यार से देखने-समझने की गुजारिश उन्होंने जीती हुए उम्मीदवार से की। जो सिर्फ महानगरों की तड़क-भड़क, रंगीनी जानती हैं। वे अमेठी के लोगों के साथ न्याय नहीं कर पाएगी। भले ही उन्होंने देश के गांधी परिवार के एक नेता को उसी के घर में हराने का तमगा हासिल कर लिया। उनका एक मकसद पूरा हो गया। यह जीत अमेठी की जनता की हार है। उसे पता है कि अब उसके दिन लौटेंगे जो 72 साल पहले थे। क्योंकि उनकी नई प्रतिनिधि के पास न तो वक्त है और न उनकी समस्याओं को समझ पाने की क्षमता।

देश की जनता जानती है कि पांच साल सिर्फ चमक-दमक के थे। उस चमक-दमक-रंगीनी से प्रभावित युवाओं का मोहभंग जल्दी ही होगा। तब देश की जनता नया इतिहास रचेगी।

नागरिक भारतीय

रेगिस्तान में डूबी कांग्रेस की नैया

कई बार कोई करारी शिकस्त राजनैतिक दल को बुरी तरह सदमें में ला देती है तो उसके पीछे अप्रत्याशित भला भी छिपा हो सकता है? लोकसभा चुनावों में राजस्थान में कांग्रेस की पराजय को पार्टी नेतृत्व इसी चश्में से देखने की कोशिश करे तो सिर धुनने से बचा जा सकेगा। दरअसल इस चुनावी दंगल में कांग्रेस ने अपने एक दर्जन विधायक दांव पर लगा दिए थे। अगर सभी विधायक फतह हासिल कर लेते तो किनारे पर टिकी गहलोत सरकार इनकी भरपाई कैसे करती? मोदी मैजिक के अंधड़ में यह संभव ही नहीं था। नतीजतन गहलोत सरकार तिनके की तरह उड़ जाती? लिहाजा कांग्रेस नेतृत्व को ठेठ राजनीतिक मातमी सूरत बनाने की ज़रूरत नहीं होनी चािहए। ज़रूरत तो फिलहाल इस बात की है कि इस बात पर गहन मंथन किया जाना चाहिए कि कांग्रेस का संगठन क्यों ध्वस्त हो गया? विश्लेषक इसका रटा-रटाया उत्तर देते हैं कि,’संगठन का मुखिया तो सत्ता से रोमांस करता हुआ संगठन को श्रद्धांजलि दे रहा था? इस जनादेश ने इस साधारण से सत्य को सामने ला दिया कि क्या संगठन के मुखिया की सत्ता में उपस्थिति होनी चहिए थी?

विश्लेषकों का कहना है कि,’उत्तर विचारधारा के इस युग में जबकि गतिज उर्जा निर्माण अथवा विध्वंस रचती है? क्या कांग्रेस को गुब्बारों की तरह फुलाए गए सपनों के थोक व्यापारियों से डर जाना चािहए? विश्लेषकों का कहना है कि,’बदलाव के सियासी रोमांस की प्रचलित अवधारणा के मद्देनजर कांग्रेस को इस पराजय से पहला सबक लेना चाहिए कि प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति गढऩे तक हुई भारी भूलों का मलबा किस तरह साफ किया जाए? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि,’इस जनादेश ने अप्रत्यक्ष रूप से संदेश दे दिया है कि,’सरकार को बदलाव के बड़े कदम उठाने के लिए शासन की निरन्तरता और स्थायित्व आवश्यक है। कोठारी कहते है कि,’जनादेश में जो बात स्पष्ट रूप से सकारात्मकता के साथ सामने आई? उसके मुताबिक भाजपा और संघ के कार्यकर्ता ज़मीन से जुड़े नजर आए जबकि कांग्रेस एक कागज़ी पार्टी बनकर रह गई? कांग्रेस के किसी भी नेता को ज़मीनी हकीकत क्यों नजऱ नहीं आई? कोठारी कहते हैं कि प्रश्न हार जीत का नहीं है। सुलगता सवाल है कि आग्रही लोकतंत्र में विपक्ष कहां मौजूद था? कांग्रेस के स्तर पर सबसे बड़ा खोट था उसका संगठनात्मक ढांचा पूरी तरह लडख़ड़ा गया था। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट दो नावों पर सवार थे। पायलट सत्ता में भी घुसपैठ किए हुए थे और कथित रूप से संगठन को भी संभाल रहे थे? कोठारी कहते हैं कि, कांग्रेस ने युवा शक्ति को नजऱ अंदाज किया जबकि इस बार युवा शक्ति ने भावावेश में नहीं दीर्घकालीन हित को ध्यान में रखकर मोदी को वोट दिया।

प्रदेश अध्यक्ष पायलट के निर्वाचन क्षेत्र टोंक में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया? विश्लेषक कहते हैं कि, चुनावी रण में जब प्रदेश अध्यक्ष को सबसे चुस्त दांव चलने चाहिए थे, वे ‘कुर्सी’ से लगाव की अपनी रटी-रटाई राजनीति कर रहे थे। जिस वक्त सियासत को ज़्यादा रूमानी बनाने की जरूरत थी, उसकी संगठनात्मक रणनीति गायब थी। ऐसा क्यों कर हुआ कि राजस्थान के हर निर्वाचन क्षेत्र में रोजमर्रा की राजनीति ही चलती रही? नतीजतन वर्ष 2014 की तरह फिर प्रदेश में क्लीन स्वीप हुआ। भाजपा केा 58.5 फीसदी और कांग्रेस को 34.2 फीसदी वोट मिले। विश्लेषकों का मत है कि विधानसभा चुनावों के जयघोष में कांग्रेस को इस बात को नहीं भूलना चाहिए था कि,’वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं…।’’

सूत्रों की मानें तो, प्रदेश की 25 लोकसभाई सीटों पर पराजय के बावजूद गहलोत सरकार पर कोई संकट आ सकता है? फिलहाल ऐसे कोई आसार तक नहीं है। अलबत्ता सरकार और संगठन में टकराव निश्चित रूप से तय है। सत्ता और संगठन में फेरबदल तो निश्चित है। लेकिन राजनीतिक राणनीतिकारों का कहना है कि,’पायलट संगठन के मुखिया बने रहेंगे? यह अब संभव नहीं है। उधर इस बार भाजपा ने बेशक 25 सीटें जीती है, लेकिन इसमें वसुंधरा की कोई भूमिका नहीं है। इसलिए आलाकमान को झुकाकर मनमानी कर चुकी वसुंधरा राजे की सत्ता के गलियारों से तो विदाई तय है। अलबत्ता प्रदेश के भाजपा के राजनीतिक क्षितिज पर गजेन्द्र सिह शेखावत नए सितारे के रूप में उभर सकते है।

राजस्थान की 25 संसदीय सीटों पर दो चरणों में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में 66.12 फीसदी वोट पड़े। यह पहला रिकार्ड मतदान था। विश्लेषकों ने इसे ‘वोटर जीत गया’ की संज्ञा देते हुए परिभाषित किया। लेकिन चुनावी राजनीति की सियासी ज़मीन का पारा नापने से पहले दो बातें पूरी तरह समझ लेनी होगी। पहली- भाजपा बेशक प्रत्यक्ष्पा रूप से मजबूत नजर नहीं आई किन्तु फिर भी इस मर्तबा भी भाजपा ने सभी 25 सीटें कब्जा ली। क्या यह मोदी का अंडर करंट नहीं था? दूसरा-कांग्रेस विधानसभा सरीखा प्रदर्शन दोहरा पाएगी? ऐसा कयास ही गलत साबित हुआ। इस बार

राजस्थान में बेशक मोदी फैक्टर पूरी तरह हावी रहा है। निश्चित रूप से कांग्रेस ने ‘मोदी फैक्टर’ के दबाव में चुनाव लड़ा है। भाजपा पूरी तरह मोदी के चेहरे और मुद्दे पर सिमटी रही। साफ लग रहा था कि,’यह चुनाव भाजपा का नहीं मोदी का है….. कांग्रेस तराजू के दो पलड़ों की तरह आक्रामक और रक्षात्मक होने की जुगत में झूलती रही। चुनाव में मोदी हमलावर रहे तो सिर्फ गहलोत पर। विश्लेषकों की मानें तो गहलोत के सामने चुनौती भी इसलिए ज़्यादा रही कि 2014 के लोकसभा चुनावों में ‘रक्षात्मक रेखा’ पूरी तरह उनके खिलाफ रही थी। इसलिए गहलोत बेशक हमलावर बने रहे। लेकिन अपनी पारम्परिक और विनम्र छवि को ही भुनाने की तरफ ज्यादा तवज्जो दी। वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत की मानें तो ‘हालांकि मतदाताओं में आक्रोश और आकांक्षाएं कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही थी लेकिन उनकी उम्मीदों के फलक पर मोदी ही छाए रहे।

भाजपा ने पहली बार राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल से गठजोड़ कर एक नए राजनीतिक अध्याय की शुरूआत की। भाजपा के प्रदेश प्रभारी प्रकाश जावडेकर ने यह कहते हुए इस गठजोड़ की घोषणा की कि, ‘रालोद के संयोजक हनुमान बेनीवाल अपनी पार्टी से नागौर सीट से चुनाव लड़ेंगे। सूत्रों की मानें तो,’हनुमान बेनीवाल और वसुंधरा राजे के बीच कट्टर शत्रुता थी। इस गठजोड़ का चुनावी रण किसे मुफीद हुआ इस गठजोड़ ने मारवाड़ में गहरी पैठ रखने वाले जाट समुदाय को बेशक कई हिस्सों में बांट दिया। उन्होंने तो यहां तक अंदेशा जताया कि,’बेनीवाल के साथ गठजोड़ से राजपूतों और रावणा राजपूतों का बड़ा हिस्सा गजेन्द्र सिंह शेखावत से छिटक जाएगा। ऐसा हुआ भी लेकिन फिर भी शेखावत जीत गए?

राजनीतिक रणनीतिकारों का तो यहंा तक कहना था कि,’नागोर में अगर राजपूत बेनीवाल के खिलाफ कांग्रेसी खेमें में चले गए तो इसका सीधा असर बाड़मेर पर होगा, जहां राजपूत और अन्य पिछड़ा वर्ग पूरे मन से मानवेन्द्र ंिसंह के साथ खड़ा हो जाएगा। क्यों ऐसा नहीं हुआ? इसका भेद 23 मई को ही खुला और मानवेन्द्र सिंह हार गए?

लोकसभा के रण में राजस्थान की कुछ सीटें तो ऐसी रही जो सीधे-सीधे कद्दावर नेताओं की सियासी ज़मीन को हिला सकतीे थी। जोधपुर-जहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रतिष्ठा दांव पर थी। यहां से उनके बेटे वैभव गहलोत राजनीति में उतरे। ंजोधपुर गहलोत का गढ़ कहा जाता है। झालावाड़-यहां राजनीति का दूसरा नाम ही वसुंधरा राजे है और उनका इस क्षेत्र में एक छत्र आधिपत्य है। यहां से वसुंधरा राजे पांच बार और उनके पुत्र दुष्यंत लगातार तीन पारियों से जीतते रहे है। यहां इस बार राजे की प्रतिष्ठा दांव पर रही। लेकिन दुष्यंत जीत गए। दौसा-यहां टिकट बंटवारे में ही तलवारें खिंच गई थी। राजे और उनके धुर विरोधी भाजपा से राज्यसभा सदस्य किरोड़ीलाल मीणा के बीच ऐसी रस्साकस्सी चली कि पार्टी को पसीने आ गए। यहां से भाजपा की जसकौर मीणा और कांग्रेस की सविता मीणा के बीच इस मुकाबले को दिलचस्प बनाया निर्दलीय अंजु धानका ने। भाजपा के ही मीणा समुदाय के दो दिग्गजों किरोड़ीलाल मीणा और किरोड़ीमल बैसला के प्रभाव क्षेत्र वाली इस सीट की जंग को लोगों ने टकटकी लगाकर देखा।

जयपुर शहर की सीट से कांग्रेस ने पहली बार मेयर रही महिला उम्मीदवार ज्योति खंडेलवाल को रण में उतारा। उनका मुकाबला पिछले चुनावों में सबसे ज्यादा मत बटोरने वाले भाजपा के रामचरण बोहरा से हुआ। नतीजतन यह देखना दिलचस्प रहा कि,’हर बार भाजपा के कब्जे में रही इस सीट पर मेयर रही महिला को दांव पर लगाना कैसे कांग्रेस को भारी पड़ा?यहां बेशक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने आठ में से पांच सीटें जीत ली थी। लेकिन वोट प्रतिशत की हिस्सेदारी में तो भाजपा कांग्रेस से आगे थीं। जयपुर ग्रामीण सीट पर दो ओलंपियंस की भिडंत ने मुकाबले को चर्चा में ला दिया। निशानेबाजी में ओलंपियन और केन्द्रीय मंत्री राज्यवर्द्धन के मुकाबले में कांग्रेस की कृष्णा पूनिया कम नहीं रही। बेशक इस सीट पर भाजपा की पकड़ मजबूत रही, लेकिन कांग्रेस ने कृष्णा को मैदान में उतारकर खेल को नए पैंतरों में ढाल दिया किन्तु कोई भी पैंतरा काम नहीं आया। राजस्थान के दूसरे जाटलेंड कहे जाने वाले शेखावाटी में भाजपा के सामने 2014 का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती रही। जबकि कांग्रेस को सत्ता में होने की अपनी प्रामाणिकता देने के लिए जबरदस्त जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन कोई कवायद काम नहीं आई।

वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद यह कहते हुए चैंकातेे हैं कि,’शेखावाटी में धर्म, जाति, भावनाओं और संवेदनाओं की ऐसी खिचड़ी पकती रही कि दिग्गज जाट नेता भी डरे हुए नजर आए। सीकर में भाजपा ने सांसद सुमेधानंद को फिर दोहराया। इस बार उनका सामना कांग्रेस के सुभाष महरिया से था। कांटे का मुकाबला तो सीकर और झुंझनू सीट पर भी हुआ। भाजपा ने अलवर में भी धार्मिक धु्रवीकरण का पासा फेंका। यहां से बाबा बालकनाथ का मुकाबला कांग्रेस के पूर्व सांसद भंवर जितेन्द्र सिंह से था। मुकाबला बेशक बराबरी का था, फिर भी बालकनाथ जीत गए। अति पिछड़ों, पिछड़ों और दलितों के बड़े हिस्से के वोट को लेकर राजस्थान के चुनाव में भी अजब-गजब सी स्थिति बनी रही। राजस्थान की दस सीटों पर हार जीत का फैसला जात-पात पर ही होना था, लेकिन मोदी लहर में सब बह गया? प्रदेश की 25 में से 7 सीटें आरक्षित है। भरतपुर,करोली-धोलपुर,बीकानेर, और गंगानगर दलितों के लिए जबकि उदयपुर,बांसवाड़ा और दौसा आदिवासी पिछड़ों के लिए आरक्षित है। भरतपुर, करेाली, धोलपुर और दोसा में तो जाट बिरादरी ही भारी है। सबसे जबरदस्त मुकाबले की सीट तो जोधपुर और जयपुर ग्रामीण की मानी गई। आदिवासी बहुल क्षेत्र बांसवाड़ा में बीटीपी, सीकर में सीपीएम और अलवर में बसपा वोट कटवा पार्टी ही साबित हुई। इसकी वजह भी साफ है कि बीटीपी की बूथ स्तर पर अच्छी पकड़ रही। अलबत्ता यह बात फिर दोहराना वाजिब होगा कि पहली मर्तबा वोट डालने वाले 13 लाख वोटर जिधर गए जीत की राह तो उधर से ही निकली। यानी युवा वोटर ने कर दिया फैसला।

हार, इस्तीफा और सवाल

लोकसभा चुनावों में मिली पराजय से पस्त होकर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे के प्रस्ताव को मशहूर पत्रकार प्रसन्न राजन के टिप्पणी के संदर्भ में देखा जाए तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि,’वैचारिक भ्रम में खोए हुए नकारवाद पर उतारू दक्षिण पंथ ने इस बात को सत्य सिद्ध कर दिया है कि,’साहसिक विचारों के अभाव में राजनीतिक संगठन सड़ांध मारने लगता है।’ राज्यों के शीर्ष नेताओं को राहुल गांधी की फटकार उनके आक्रोश को पूरी तरह प्रतिध्वनित करती है कि,’राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व केन्द्रीय मंत्री चिदंबरम ने अपने बेटों को पार्टी के ऊपर रखा। बेटों को टिकट दिलाने और उन्हीं को जिताने में लगे रहे। जबकि दूसरे क्षेत्रों पर ध्यान देने में विफल रहे। विश्लेषक राहुल की नाराजग़ी को यह कहते हुए जायज बताते हैं कि कांग्रेस बुरी तरह हारी जबकि बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी। तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं, लेकिन कांग्रेस के खाते में सिर्फ तीन सीटें आई। एक मध्यप्रदेश और दो छत्तीसगढ़ से। राजस्थान में कांग्रेस सभी 25 सीटें हार गई, मुख्यमंत्री गहलोत अपने बेटे वैभव गहलोत को भी नहीं जिता सके? तमिलनाडु की 37 सीटों में चिदंबरम बेटे कार्तिक सहित केवल आठ सीटें ही जिता पाए। लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि राजनीति में जय-पराजय को आत्ममंथन से समझा जाना चाहिए। क्या राहुल ऐसा कर पाए। सवाल है कि राहुल क्या जनता के साथ भावनात्मक संवाद स्थापित कर पाए? संगठन बुरी तरह लडख़ड़ा रहा था, क्या उसे देख पाए? नए वोटों को साधने में पहल करनी चाहिए थी, राहुल नहीं कर पाए? चुनावों में बूथ प्रबंधन तो सिरे से गायब था। जिन नेताओं पर संगठन को सक्रिय करने की जिम्मेदारी थी, वे कहां थे? बेशक कांग्रेस कार्य समिति के जबरदस्त दबाव में राहुल गांधी ने इस्तीफा वापस ले लिया है लेकिन कई सवाल तो अब भी मुंह बाए खड़े है कि, जिन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर रही, वहां कांग्रेस 20 प्रतिशत से ज़्यादा वोटो से पीछे रही। उनके कुल वोट 35 प्रतिशत से कम रहे? विश्लेषकों की मानें तो इसका सीधा अर्थ है कि, कांग्रेस वामदलों और क्षेत्रीय दलों के खिलाफ बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। लेकिन भाजपा के खिलाफ नहीं। बेशक राहुल गांधी ने गहलोत समेत शीर्ष नेताओं पर ऊंगली उठाई। लेकिन सवाल तो उठता है कि कांग्रेस की यह हार कितनी बड़ी है? कांग्रेस ने थोड़ा ही सही, कहां बेहतर प्रदर्शन किया? क्यों ओर किस कीमत पर?

विश्लेषकों का कहना है कि ‘क्या अपने बेटों को राजनीति में उतारने का काम क्या सिर्फ कांग्रेस के नेताओं ने ही किया है? भाजपा में तो इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। वसुंधरा राजे ने क्या अपने बेटे दुष्यंत को राजनीति में नहीं उतारा? क्या उनकी चुनावी कमान नहीं संभाली? राजनाथ सिंह के अलावा अन्य दलों राजद या रालोद के संयोजक रामविलास पासवान का नाम भी लिया जा सकता है। पासवान के बेटे चिराग पासवान भी चुनाव जीते हैं। सवाल जीत-हार का भी नहीं है। लेकिन चुनावी मंजर को समझे ंतो ‘यह सिर्फ मोदी के लिए जबरदस्त रेफ्रेंडम था……मतलब पौराणिक तर्ज पर कृष्ण उवाच की तरह कि,’मैं ही विश्व…। मोदी नही ंतो कोई नहीं?

उधर लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार को लेकर कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे मंथन और इस्तीफों के दौर में रविवार 27 मई को कृषि मंत्री लालचंद कटारिया का इस्तीफा भी सामने आया है। लेकिन उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया? यह बात अभी समझ से परे है?

अलबत्ता राजस्थान में सरकार होने के बावजूद इतनी बड़ी हार न तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का पच रही है और न ही कांग्रेस आलाकमान को? इसके लिए न तो कोई नेता आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेता नजऱ आ रहा है ओर न ही आलाकमान कोई कार्रवाई करता लग रहा है। फिलहाल तो हर बात को लेकर संशय का कुहासा छाया हुआ है। बहरहाल इस गंभीर मुद्दे पर गहन मंथन होना तय है। इस बैठक में कांग्रेस के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, के अलावा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट समेत अन्य नेताओं को बुलाया गया है। इस बैठक में क्या होगा? अंदरूनी सूत्रों की बात करे ंतो इस हार का ठीकरा संगठन के सिर ही फूटेगा।

पंजाब में ‘आप’ का चढ़ता-ढलता सूरज

2014 के लोकसभा चुनावों में जब ‘आम आदमी पार्टी’ ने पंजाब में लगभग एक तिहाई सीटें जीत ली तो सभी को हैरानी हुई थी, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पंजाब के सियासी हालात को 60-70 के दशकों से जानते हैं। उनके लिए आम आदमी पार्टी के चार सांसदों का जीतना एक सामान्य बात थी।

यदि पंजाब के इतिहास को थोड़ा झांक कर देखें तो इसमें ‘गदरी बाबाओं’ से लेकर ‘नक्सलवादी आंदोलन’, ‘छात्र संघर्ष और ‘किसान आंदोलन’ ही नजऱ आएंगे। कम्युनिस्ट विचारधारा वहां आज भी मौजूद हैं कामरेड सतपाल डांग, विमला डांग, दर्शन सिंह कनेडियन, हरकिशन सिंह सुरजीत, और बलदेव सिंह मान जैसे कम्युनिस्ट नेता पंजाब से ही निकले। पंजाब जब आतंकवाद से जूझ रहा था, उस समय कम्युनिस्ट पार्टियां ही थी जो खुल कर उनका विरोध कर रहीं थी। कई बार उन्होंने आमने-सामने आतंकवादियों का सामना भी किया। इन नेताओं ने आतंकवादियों के गढ़ों में जाकर जनसभाएं की। इसकी कीमत इन्हें अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी।

इससे पूर्व भी मोगा के छात्र आंदोलन के दौरान पृथपाल सिंह रंधावा जैसा नेता सामने आया और पंजाब में कम्युनिस्ट सोच पूरी तरह फैलने लगी। बाकी सियासी दल इससे घबराने लगे थे। खास तौर पर अकाली । लेकिन ये सारे छात्र नेता किसी एक कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं गए। इनमें से कुछ नक्सलवादी आंदोलनों का हिस्सा बन गए और कुछ निष्क्रिय हो कर घर बैठ गए। कुछ लोग माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) में चले गए। सियासी रूप से वामपंथ का आंदोलन कभी भी वोटों की राजनीति में सफल नहीं रहा, लेकिन आम लोगों के दिमाग में माक्र्सवाद का प्रभाव छोड़ गया।

जब अन्ना आंदोलन के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) का गठन हुआ और वहां ‘आप’ की सरकार बन गई तो पंजाब में वे लोग जो माक्र्सवाद की विचारधारा के होते हुए भी किसी कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं गए थे, उन्हें ‘आप’ का मंच सही लगा और डाक्टर धर्मवीर गांधी व प्रोफेसर साधु सिंह (फरीदकोट से सांसद) जैसे लोग -‘आप’ में शामिल हो गए। इसी प्रकार पंजाब के गावों में बसे ज़्यादातर लोग जो अकाली और कांग्रेस दोनों से दुखी थे वे ‘आप’ में चले आए। उन लोगों को लगा कि ‘आप’ एक ऐसी पार्टी है जो पंजाब की सियासी खला को भर सकती है। इस वजह से उन्होंने ‘आप’ का साथ दिया और इनके प्रत्याशी, पटियाला, (डाक्टर धर्मवीर गांधी), संगरूर (भगवंत मान), फतेहगढ़ साहिब (हरिंदर सिंह खालसा) और फरीदकोट (प्रोफेसर साधु सिंह) से विजयी हुए।

यह एक संयोग ही था कि लोकसभा में आप का प्रतिनिधित्व करने वाले चारों सांसद पंजाब से ही थे। देखा जाए तो पटियाला, संगरूर, फतेहगढ़ साहिब और फरीदकोट राज्य के मालवा क्षेत्र में आते हैं। यह इलाका कपास के लिए मशहूर रहा है और यहां किसान आंदोलन भी खूब चले हैं। दोआबा और माझा में ‘आप’ कुछ ज़्यादा नहीं कर पाई।

इसी प्रकार विधानसभा चुनाव में भी एक समय ऐसा लगता था कि यहां ‘आप’ की सरकार बन सकती है। लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीय नेताओं की अनदेखी की और सारे फैसले दिल्ली से लेकर राज्य पर थोपते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि पार्टी मालवा में भी अपना आधार नहीं बचा पाई और वह 20 सीटों पर सिमट गई। यहां कांग्रेस को 77, आम आदमी पार्टी को 20, लोक इंसाफ पार्टी को 02, अकाली दल को 15, और भाजपा को 03 सीटें मिली। पंजाब के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि अकाली दल मुख्य विपक्ष नहीं बन पाया। यह स्थान पहली बार चुनाव लड़ रही ‘आप’ ले गई।

विधानसभा के गठन के बाद ऐसा लगा जैसे ‘आप’ ने इस राज्य में रुचि लेनी ही छोड़ दी। पार्टी में राजनीतिक विचारधारा की कंगाली भी इसका एक कारण बनी। पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल के पास न तो कोई आर्थिक कार्यक्रम है और न ही कोई राजनैतिक सिद्धांत। इस वजह से उन लोगों का पार्टी में रहना संभव नहीं था जो किसी विचारधारा से जुड़े थे। खास कर माक्र्सवाद की समझ रखने वाले। उन लोगों के सुझावों को न माना जाना और वे काम नहीं करने दिए गए जो ये लोग करना चाहते थे। इस कारण राज्य और केंद्र के नेतृत्व के बीच दूरियां बढ़ती गईं और सुखपाल सिंह खैरा, अमरजीत सिंह संदोहा, हरविंदर सिंह फुलका और नाजऱ सिंह मानसहिया जैसे विधायक ‘आप’ से इस्तीफा दे गए। इनके पार्टी छोडऩे का प्रभाव पंजाब में पूरी पार्टी पर पड़ा है।

सवाल यह नहीं है कि ‘आप’ का वजूद पंजाब में रहता है या नहीं, पर ‘आप’ के उभार ने एक बात स्पष्ट कर दी है कि राज्य में तीसरी पार्टी के लिए काफी संभावना है। यदि ‘आप’ के नेता कोई पुख्ता कदम नहीं उठाते तो इस का यहां खत्म हो जाना लगभग तय है। फिर वे लोग किस ओर जाएंगे, जो ‘आप’ मे एक मज़बूत सियासी विकल्प तलाश रहे थे। पार्टी को विधानसभा चुनावों में मिले 23.7 फीसद वोट किस ओर जाते हैं यह देखना रोचक होगा।

‘आप’ के भविष्य पर सवालिया निशान

पंजाब में ‘आप’ का उदय जिस अप्रत्याशित तरीके से हुआ उसी प्रकार उसका सूर्य अस्त भी हो रहा है। इसका मुख्य कारण है केंद्रीय नेतृत्व का तानाशाही रवैया। दिल्ली में बैठे ‘आप’ के नेताओं को यह गलतफहमी हो गई थी कि अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पंजाब में ‘आप’ की लहर उठी थी, जबकि सत्य यह है कि वामपंथी सोच के वे लोग जो कम्युनिस्ट पार्टियों के काम उनके संगठन के तरीकों और नेताओं से नाखुश थे वे ‘आप’ में आए थे। उन्होंने ही यहां संगठन खड़ा किया। उनका साथ यहां के बुद्धिजीवियों ने दिया। एक समय ऐसा भी आया था कि पंजाब में ‘आप’ की सरकार बनती दिखने लगी थी। शायद केंद्रीय नेतृत्व को ऐसी आशा नहीं थी। वहां बैठे लोग न तो पंजाब की राजनीति को समझते थे और न ही यहां की संस्कृति को। उन्होंने यह कोशिश भी नहीं की कि वे जानें कि ‘आप’ को राज्य में इतना समर्थन क्यों मिल रहा है। इस सारेे मामले में यह प्रभाव दिया गया कि अरविंद केजरीवाल खुद पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने लगे। केजरीवाल ने कभी भी इस प्रभाव को खत्म करने की कोशिश नहीं की। माना जाता है कि पंजाब के लोग किसी भी गैऱ पंजाबी को अपना मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं करतेे। इसलिए नेतृत्व को यह भी कहा गया कि वे किसी को भी राज्य का भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दें ताकि लोगों में विश्वास बना रहे, पर पार्टी ने ऐसा नहीं किया।

दूसरी ओर कांग्रेस व अकाली दल ने इस बात का जमकर प्रचार किया कि ‘आप’ के सत्ता में आने के बाद यहां का मुख्यमंत्री ग़ैर सिख और ग़ैर पंजाबी होगा। गावों में इसका बहुत असर हुआ और जो लोग ‘आप’ के लिए वोट देने का मन बनाए बैठे थे वे कांग्रेस की ओर हो गए। नतीजा यह हुआ कि जिन 36 विधानसभा हल्कों में पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बढ़त ली थी उनमें से 16 इनके हाथ से निकल गए। उन्हें केवल 20 सीटें ही मिली जबकि कांग्रेस की झोली में 77 सीटें हो गईं। अकाली 15 सीटें जीत पाए और उन्हें पिछले चुनावों के मुकाबले 41 सीटें कम मिली जबकि कांग्रेस को 31 सीटों का लाभ हुआ। इतना ही नहीं जब पंजाब की पार्टी के कुछ नेताओं ने अपना रूख आला कामान के सामने रखा तो केजरीवाल ने कई नेताओं को पार्टी से निकाल दिया।

‘आप’ का नेतृत्व क्या करना चाहता है इसका किसी को कुछ पता नहीं । एक समय हिमाचल प्रदेश के 200 से ज़्यादा नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता एक साथ ‘आप’ में चले गए थे। संजय सिंह ने उन्हें पार्टी में शामिल किया, पर उसके बाद केजरीवाल, संजय सिंह और किसी और नेता ने हिमाचल प्रदेश के किसी कार्यकर्ता का फोन तक नहीं उठाया। आखिरकार दो-तीन साल तक इंतज़ार के बाद वे लोग दूसरी पार्टियों में चले गए। आज हिमाचल प्रदेश में ‘आप’ का एक भी सक्रिय कार्यकर्ता नहीं है।

गुजरात में ‘आप’ के लिए जीे जान से काम करने वाली व नौ विधानसभाओं को संभालने की जिम्मेदारी निभाने वाली एक महिला नेता का आरोप है कि ‘आप’ का नेतृत्व पार्टी टिकट देने के लिए लाखों रुपए मांगता था। उसका आरोप है कि वहां उन्ही को टिकट मिले जिन्होंने पार्टी को पैसा दिया। रिश्वत और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से उपजी इस पार्टी के नेताओं पर पैसे बटोरने का इल्ज़ाम लगना काफी चौंकाने वाला है।

पंजाब में अब ‘आप’ संगरूर की एकमात्र सीट ही जीत पाई है। वह भी इसलिए कि वहां से उनके प्रत्याशी भगवंत मान एक लोकप्रिय हास्य कलाकार होने के साथ-साथ व्यक्तिगत तौर पर लोगों से जुड़े हैं। लोकसभा चुनाव के ये नतीजे इस बात का पक्का सबूत है कि राज्य में ‘आप’ का वजूद खत्म हो रहा है।

कमाल तो उन योजनाओं का था जिनसे खिला कमल

भाजपा के नेतृत्व के एनडीए ने सत्ता में रहते हुए देश के बेहद गरीब जिलों में मरनेगा के अलावा जो योजनाएं ईमानदारी से अमल कीं उनसे 60 फीसद सीटों में बढ़ोतरी हुईं। बिहार, झारखंड, बंगाल के इन जिलों में मतदाताओं ने भाजपा गठबंधन वाले दलों को अपना मत दिया। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने इन योजनाओं के नफा-नुकसान का कभी न जानना चाहा और न रु चि ली।

पिछली लोकसभा चुनावों के बाद से ही अभावग्रस्त ग्रामीण जनता का सामाजिक-आर्थिक सर्वे किया गया। वहां की ज़रूरतों के अनुरूप राज्य सरकारों को निर्देश दिए गए। ये योजनाएं सिर्फ शौचालय, रसोई गैस और ग्रामीणघर नहीं थीं। बल्कि प्रधानमंत्री की ग्रामीण आवास योजना पर अमल था। हालांकि यूपीए दौर में इंदिरा आवास योजना तो थी लेकिन वह नौकरशाही और राज्य सरकार की तवज्जुह न पाने के कारण सिर्फ कागजों में रह गई। जबकि भाजपा के नेतृत्व की एनडीए सरकार ने उस पर अमल किया। पिछले पांच साल में डेढ़ लाख  घर बने। लोगों में उत्साह भी जगा।

इसी तरह अभावग्रस्त परिवारों के लिए विभिन्न राज्यों में महात्मा गांधी नेशनल रूरल एंप्लाएमेंट गारंटी योजना का बजट बढ़ाया गया। स्वच्छ भारत ग्रामीण योजना के तहत सरकार ने दस करोड़ शौचालय, फ्लैट के लिए, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए (बीपीएल) रु पए 12 हजार मात्र की राशि मुहैया कराई। यह सुविधा महिलाओं दिव्यांग और अंत्योद्य किसानों को मिली। इन सुविधाओं का असर सामूहिक तौर पर भाजपा के नेतृत्व के एनडीए राज प्रणाली को मिला।

बंगाल की मुख्यमंत्री जो केंद्र से मिली योजनाओं को अमली जामा पहनाने से बिदकती हैं उन्होंने भी स्वच्छ भारत को निर्मल बांग्ला के रूप में पूरे राज्य में अमल किया।

इसी तरह उज्जवला योजना को एसईसीसी 2011 के तहत बीपीएल परिवारों को दिया गया। इस से जिन्हें लाभ मिला वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार थे। इसी तरह प्रधानमंत्री आवास योजना और अंत्योदय अन्न योजना का लाभ जंगलभूमि में रहने वाले पिछड़े लोगों को मिला। चाय बागान मज़दूरों और नदी-समुद्र द्वीप समूहों पर रह रहे लोगों तक ये योजनाएं पहुंची। दूसरी पार्टियों ने कभी इन योजनाओं पर अमल में कमियों को गंभीरता से नहीं लिया इसलिए हो सकता है 100 फीसद लोगों तक यह योजना न पहुंची हो। लेकिन इन योजनाओं की भनक अलबत्ता गांव-गांव पहुंची और मतदाताओं में कमल के प्रति उत्साह जगा।

उज्जवला योजना सिर्फ रसोई गैस की सप्लाई का दायरा बढ़ाने की कोशिश नहीं थी। बल्कि  इसके जरिए बड़ी तादाद में धुंए और गंदगी से ग्रामीण जनता को बचाने की पहल भी थी। लेकिन इस सुविधा की प्रारंभिक लागत ही इतनी ज्य़ादा हो जाती थी कि लोग इसमें पैसा लगाने की हिम्मत नहीं करते थे। भाजपा नेतृत्व की राजग सरकार ने गैस का कनेक्शन मुफ्त कर दिया। इससे गांव की आधी आबादी का ज्य़ादा समय जो चौके में जाता था। वह कम हुआ। उसका उपयोग बाल-बच्चों की देखरेख और वैकल्पिक सिलाई-कढ़ाई योजना में होने लगा। यह योजना बलिया (उत्तरप्रदेश) में मई 2016 में प्रधानमंत्री ने शुरू की थी। अब देश के 725 जिलों में से 714 में कुल 7.19 करोड़ गैस कनेक्शन लग चुके हैं। यह ज़रूर है एलपीजी  कनेक्शन के सिलिंडरों की कीमत ज्य़ादा है इसलिए रि-फिल ज्य़ादा नहीं हो पाती। लेकिन जो परिवार अपने निजी खर्चों से तालमेल करके चलते हैं उनके लिए यह बड़ी सुविधा तो है ही।

सभी घरों को बिजली की सुविधा देने पर भी एसईसीसी 2011 डाटा के तहत प्रयास किया गया। जिन घरों में बिजली नहीं थी उन्हें बिजली का कनेक्शन मुफ्त दिया गया। बाकी के लिए यह सुविधा की गई कि वे रु पए पांच सौ मात्र की किस्त बांध कर धीरे धीरे भुगतान करते रहें। सितंबर 2017 से शुरू की गई इस योजना से 2.63 करोड़ परिवारों में आज बिजली है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार देश में कुल 18,734 परिवार हैं जहां बिजली अभी नहीं है।

यदि आप इन योजनाओं के अमल में आने की रिपोर्ट देखें तो यह जाहिर होता है कि 2014 में भाजपा जिन राज्यों में जीती या उसके गठबंधन के दल जहां जीते वहां भी भाजपा ने केंद्रीय मदद देकर अपनी पार्टी की राह बनाई।

बंगाल में 2014 में भाजपा महज आसनसोल सीट पर विजयी हो पाई थी। इस बार 18 सीटों पर जीत हासिल हुई। राजाघाट, बालूरघाट और माल्दा उत्तर पहले तृणमूल के कब्जे में थीं। आज तस्वीर एकदम अलग है। सौभाग्य योजना के तहत तकरीबन दस लाख घरों में नादिया (रानाघाट), 3.16 घर (दक्षिण) दीनाजपुर (बालूरघाट) और 9.6 लाख घर माल्दा (माल्दा उत्तर) में प्रकाशित हो गए।

ऐसे ही ओडिशा में भी कई जिलों में भाजपा अपनी योजनाओं को वास्तविक तौर पर अमल  में लाते हुए अपनी अनिवार्यता पर जोर दे रही है। जबकि वामपंथी, कांग्रेस, समाजवादी और दूसरी पार्टियां केंद्र की इन योजनाओं का लाभ पूरी जनता को मिले, उस पर ध्यान ही नहीं देती। और तो और, ये पार्टियां मतदाताओं के मतदातापत्रों के नवीकरण पर भी ध्यान नहीं देते। ऐसे में सिर्फ भाषण के बल पर वोट हासिल होंगे इस पुरानी सोच को इन पार्टियों को तिलांजलि देकर समाज में अपने महत्व को कायम करने की कोशिश करनी चाहिए जो बाहुबल, धनबल से नहीं बल्कि मनोबल से ही हासिल हो सकता है। अब ‘नया भारत’ बनाने में शायद भाजपा घर-घर पेयजल, लोगों की बुनियादी ज़रूरतों पर शायद और तेजी से अमल करे। विपक्षी दलों पर है कि वे अपने को समसामयिक बनाए  रखने में क्या करते हैं।

पार्टी के अध्यक्ष को सौंपी बोलने की जिम्मेदारी !

तो यह है नरेंद्र मोदी का मीडिया सिस्टम। अपनी ही पार्टी के मुख्यालय में प्रधानमंत्री के बहाने बुलाई गई प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया। यह पहली बार था कि प्रधानमंत्री मोदी 22 मिनट तक चुप बैठे और 22 मिनट तक पार्टी अध्यक्ष को सुनते सबने देखा। अमित शाह 22 मिनट बोलते रहे।

अमित शाह ऐसा कुछ भी नहीं बता रहे थे जो भाजपा कवर करने वाले पत्रकारों को पता नहीं रहा होगा। चुनाव शुरू होने से पहले की जो जानकारियां थीं उन्हें वे चुनाव खत्म होने के बाद बता रहे थे। प्रधानमंत्री उन्हें इस तरह से सुन रहे थे मानों उन्हें पहली बार पता चल रहा हो।

इसके बाद दोनों ने प्रेस कांफ्रेंस की गरिमा समाप्त कर दी। बता दिया, आपके सामने हैं प्रधानमंत्री। यही न्यूज टीवी चैनेलों पर भी चली कि प्रधानमंत्री की है यह पहली प्रेस कांफ्रेंस। यों भी पांच साल में उन्होंने एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की।

इस प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री को कवर करने गया था प्रेस, लेकिन अमित शाह प्रधानमंत्री को कवर करने आए थे। अमित शाह ने पहले 22 मिनट और बाद में 17 मिनट बोल कर प्रधानमंत्री को खूब कवर किया। अपने नोट्स से लगातार 22 मिनट बोल कर उन्होंने बताया कि उनके दिमाग में राजनीति की रेखाएं कितनी साफ हैं। उन्होंने राजनीति को निर्जीव बना दिया है उसमें प्रमुख है सिर्फ संख्या। अमित शाह खुद को प्रमाणित कर रहे थे कि उन्होंने एक अच्छे प्रबंधक की भूमिका निभाई है। जिस तरह वे बूथों की संख्या गिना रहे थे, मुझे उम्मीद हुई कि वे शामियाने में लगे हैंगर्स और उनमें लगी बल्लियों की संख्या भी बता देंगे। वहां पंखे कितने लगे और कुर्सियां कितनी लगी। मैं थोड़ा निराश हुआ। उन्होंने नहीं बताया कि प्रधानमंत्री की सभाओं में गेंदे की माला पर कितना खर्च आया। जो जानकारी अमित शाह दे रहे थे वह नई नहीं थी।

फिर आपने कब देखा कि पत्रकारों ने अपनी तरफ से सवाल की बौछार की हो। जो काम पांच साल से बंद रहा, वह अचानक कैसे शुरू हो जाता। भाजपा ने अपने पत्रकारों को रैलियों की संख्या और उनका विश्लेषण करने वाले संपादकों में बदल दिया है। मुझे 17 मई को लगा कि इन दोनों का भाव कुछ ऐसा था कि आप लोगों को पता ही नहीं चला कि हमने चुनाव कैसे लड़ा। मोदी ने भी कहा कि हम बहुत पहले से तैयारियां करते हैं। आपको पता नहीं चलता। दोनों ने औपचारिक और सार्वजनिक रूप से प्रमाणित किया कि आप भाजपा कवर तो करते हैं, लेकिन भाजपा के बारे में खबर नहीं रखते। क्योंकि खबर तो हम देते ही नहीं हैं।

प्रधानमंत्री बारह मिनट बोले। सट्टा बाजार से लेकर चुनाव के समय ही आईपीएल होने तक। फिर रमजान और हनुमान जयंती भी हुई। पत्रकार ‘कंफ्यूज’ हुए कि यह सब मोदी सरकार करा रही थी। चुनाव तो पहले भी हुए और चुनावों के दौरान पहले भी यह सब राजनीतिक रहा होगा। इसमें नया क्या है। मोदी शाह ने 17 मई को ज़रूर साबित किया कि उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस खत्म कर दी है। तो क्या करें। वे प्रेस डिक्टेशन देते हैं। कांफ्रेंस तो करते नहीं। हैरानी यह है कि सवाल न पूछे जाने की गारंटी के बाद भी प्रधानमंत्री ने सवालों को प्रोत्साहित नहीं किया।

पांच साल पहले की मोदी यात्रा याद कीजिए। उन्होंने यकीन दिलाया था कि वे बोलने वाले प्रधानमंत्री हैं। वे मौन मोहन नहीं हैं। किसी के बोलने की क्षमता का मजाक उड़ाया गया। कहा गया वे (मनमोहन) लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं। दस जनपथ से जो लिख कर आता है वही पढ़ते हैं। पांच साल खत्म होते-होते देश ने देखा, बोलने वाले प्रधानमंत्री की जगह मिला है बड़बोला प्रधानमंत्री। उनके जवाब के मजाक उड़े। बादलों और रडार से लेकर डिजिटल कैमरा और ईमेल के जवाब से साबित हुआ कि वे कुछ भी बोलते हैं। पूरे देश ने देखा, प्रधानमंत्री लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं। मगर मीडिया ने सिखा दिया कि कैसे मोदी की कमज़ोरी को ताकत और उनके झूठ को सत्य समझना है।

दोनों ने कहा, तीन सौ सीटें आएंगी। दोनों को शपथ लेने और सरकार बनाने से ही मतलब है। सवालों और जवाब से नहीं। किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि 22 मिनट बोल कर अमित प्रधानमंत्री मोदी के बॉस हो गए हैं। इन दोनों में वर्चस्व की लड़ाई देखने वाले इनके रिश्तों की गहराई नहीं जानते। प्रधानमंत्री भरी सभा में इस तरह अपने वर्चस्व की हार का ‘लाइव टेलिकॉस्ट’ कराने नहीं आएंगे।

देखिए अमित शाह का युग शुरू हो रहा है। मोदी का युग जा रहा है। ऐसा कुछ होगा नहीं। मोदी को आडवाणी समझने की भूल न करें।

मोदी और मीडिया की समझ बहुत ज़रूरी है। जैसे दिल्ली में सल्तनत कायम करने के लिए बलबन सिजदा और पायबोश की फारसी परंपरा लाया वैसे ही कांग्रेसी राज को सल्तनत कहने वाले मोदी खुद बादशाही मिजाज के हो गए। बलबन ऊँचाई पर बैठता था। उसके दरबार में आने वाला सिर झुका कर सलाम करता था। दूरी और ऊँचाई की रेखा उसने साफ खींच दी थी। मोदी सिस्टम में भी दूरी की अपनी जगह है। आप प्रधानमंत्री के सारे इंटरव्यू देखिए, दूरी और भव्यता दिखेगी। कुर्सियां कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ। सवाल पूछने वाला एक खास दूरी पर। हर इंटरव्यू का फ्रेम और शॉट एक सा।

मैं नहीं जानता तो नहीं कहूंगा कि रिकार्डिंग भी प्रधानमंत्री के कैमरे से ही होती होगी। अगर सारे चैनेल अपने कैमरे से करते हैं तो यह भी कमाल है कि हर किसी का फ्रेम एक सा है। आप ट्रंप की प्रेस कांफ्रेंस याद करें। प्रेस और राष्ट्रपति के बीच की दूरी कम होती है। लगता है राष्ट्रपति पे्रस के बीच हैं। आप प्रेस के सामने मोदी की मौजूदगी देखिए लगता है अवतार पुरुष हैं।

इंटरव्यू और प्रेस कांफ्रेंस मीडिया के ये दो आधार स्तंभ हैं। मोदी सिस्टम ने इन दोनों को समाप्त कर दिया। न्यूज चैनेल्स ने मोदी सरकार की योजनाओं की कमियों और धांधलियों की रिपोटिंग बंद कर दी। सवाल की हर संभावना कुचल दी गई। मोदी युग में मीडिया मालिकों की आज़ाद हैसियत अब समाप्त कर दी। मालिक और एंकर एक समान नजऱ आते हैं।

मोदी ने प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। यह तथ्य है। यह भी तथ्य है कि मोदी से पूछने वाला प्रेस नहीं है। होता तो प्रेस कांफ्रेंस की ज़रूरत नहीं होती। वह अपनी खबरों से मोदी को जवाब देने के लिए मज़बूर कर देता।

रवीश कुमार

मूर्ति तोड़ कर संस्कृति पर हमला

कोलकाता में ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे शिक्षा शास्त्री और समाजशास्त्री की मूर्ति एक राजनीतिक दल की हंगामा सेना ने तोड़ दी। इस पर पूरे बंगाल में शोक रहा, खासी नाराज़गी रही।

हालांकि पहली बार ऐसा नहीं हुआ था। भाजपा की हनुमान ब्रिगेड ने ऐसा ही उपद्रव पहले भी किया था। कुछ दिन पहले ही क्रांतिकारी कवि सुकांत भट्टाचार्य की मूर्ति त्रिपुरा में तोड़ दी गई। अलगाववादी ताकतें ही उत्तर भारत में पिछले कई वर्षों से बड़े ही सोचे-समझे तरीके से मूर्तिभंजन करती रही हैं और फिर ये आपस में अट्टाहस करते हैं। वजह क्या है? बहुत साफ है। उन्हें पसंद नहंी उनकी मूर्तियां जो समाज में नई चेतना,  आर्थिक, जाति और लैंगिक समानता, समाज सुधार, आदि अच्छी बातों के लिए जाने जाते रहे हैं। जबकि विभूर्तियों की मूर्तियों से आधुनिक समाज में जीने की बेहतर राह को सुगम बनाने का हौसला बढ़ता है। हिंदुत्व की राजनीति ब्राहमणवादी कट्टरता और कथित राष्ट्रवाद फासीवाद ही है। आप देखें, हिंदुत्व के दो प्रचारक गोलवरकर और हेडगेवार खुद मुसोलिनी और हिटलर जैसे तानाशाहों के समर्थक रहे। वे हमेशा मानवीयता की प्रकृति का विरोध करते हैं। ये समाज में उस आज़ादी और समाज सुधार का हमेशा विरोध करते हैं जिसके पक्ष में राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, सावित्री फुले, अंबेडकर रविंद्रनाथ टैगोर, अमत्र्य सेन वगैरह हमेशा रहे।

‘ईश्वर चंद्र विद्यासागर (1820-1891) पारंपरिक आधुनिकवादी थे। वे संस्कृत के विद्वान थे। वे शास्त्रों के ज्ञाता, व्याकरण और प्राचीन साहित्य के अच्छे जानकार थे। जब वे ब्रिटिश संपर्क में आए तो उन्होंने खुद में व्यापक उदारता और विज्ञान के क्षेत्र में असीम संभावनाओं की ज़रूरत जानी-समझी।

उन्होंने वेदों का तिरस्कार किया और प्राचीन गं्रथों के आधार पर हुए तमाम धार्मिक सुधारों का विरोध किया। वे कुछ अंहकारी थे। कहा जाता है कि वे कहते थे कि ईश्वर को क्यों याद करें। मुझे यह जानने की ऐसी क्या ज़रूरत है कि ईश्वर है या नहीं। मुझे तो उनसे कुछ भी अच्छा मिला नहीं। एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा ‘मैं परंपरा का दास नहीं हूं।’  यह दौर था नए राष्ट्रवाद का जो बढ़ते मशीनीकरण में इस पक्ष में थे कि महिलाओं को आज़ादी मिले उनकी सोच-समझ में बदलाव ज़माने के साथ आए। उनका सपना था कि भारतीय समाज में एक समय आएगा जब महिलाओं को कहीं ज्य़ादा आज़ादी होगी। वे पुरूषों की तरह जी सकेंगी। मुख्यत: उनके पराजित न किए जा सकते वाले मुद्दों में था हिंदू विधवा पुनर्विवाह कानून जिसे उपनिवेशवादी सरकार ने 1846 में पास किया। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी और सरकार से इसके खिलाफ कानून बनाने को कहा।

सुमित सरकार बताते हैं कि उन्हें बहुत कम कामयाबी हासिल हुई। उनकी अपनी जाति और उनका वर्ग इसमें बाधक हुआ। वे चाहते थे ऐसी ब्राहमण विधवाएं जो बहुपत्नी प्रथा के कारण विधवा हुई हैं। वे आर्थिक और सामाजिक तौर पर विपन्न हैं और इनमें से ज्य़ादातर बदनाम वेश्यालयों में पहुंंच जाती हैं। मुझे यह देख कर तकलीफ होती है। उस समय की रिपोर्ट भी बताती है कि देह व्यापार में ब्राहमण महिलाओं की संख्या तब काफी थी।

विद्यासागर खुद जातिवादी नहीं थे लेकिन उन्होंने खुलकर उसका विरोध भी नहीं किया। जिसके कारण आज भी समाज में असमानता और हद दर्जे की गुलामी है। वे तब के तमाम हिंदू बुद्धिजीवियों की ही तरह मुस्लिम जन समुदाय की तकलीफों से बुरी तरह बेखबर था।

राजा राममोहन राय की तरह उनकी दिलचस्पी राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक अधिकार और प्रेस की आज़ादी और औपनिवेशिक प्रणाली में असमान आदान-प्रदान में कतई नहीं थी। वे पूरी तरह शिक्षा शास्त्री थे। उनके विचार सर चाल्र्स वुड की विचारधारा से भी मेल नहीं खाते थे। जिनकी इच्छा थी कि शिक्षा जनसाधारण तक पहुंचनी चाहिए। दरअसल विद्यासागर में भी रूढि़वाद था उन्हें यह लगता था कि सरकार जिस उत्साह से जनसाधारण में शिक्षा पर ज़ोर दे रही है। उससे शिक्षा का स्तर गिरेगा। उन्होंने कई स्कूलों में इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल नियुक्त कराए और अपने द्वारा लिखी बांग्ला वर्णमाला और दूसरी किताबों को कोर्स में रखवाया। उसके बदले धन भी लिया। जिसे उन्होंने दान देने में खत्म किया। वे निर्धन की मौत मरे। वे बांग्ला बुद्धिजीवियों की बेरूखी से बेहद निराश थे। वे उनमें अवसरवादिता और पैसे के प्रति भूख देखते। आखिर में निराश होकर वे आदिवासियों के बीच उन्हीं के साथ एक गांव में रहने लगे। वहीं उनका निधन हुआ। बांग्ला संस्कृति दरअसल ऊंची जातियों और मझोली जाति की प्रधानता है। इसमें शायद ही कभी शूद्र, दलित, मुस्लिम या आदिवासियों की आवाज़ सुनाई देती है। इनमें भी कुछ सांस्कृतिक विभूतियां हैं। जिनमें रामकृष्ण परमंहस, विवेकानंद, सुभाष बोस, सत्यजीत रे और बेहद उपयुक्त रवींद्रनाथ टैगोर रहे क्योंकि उन्हें नोबल पुरस्कार मिला।

बांग्ला बुद्धिजीवी अमूमन उतने जानकार नहीं होते जितने वे समझ लिए जाते है। वे बुद्धिहीन और नाटकीय ज्य़ादा होते हैं। उनमें वह कभी हिम्मत नहीं देखी गई जिससे वे धारा के खिलाफ चलें। वे सिर्फ तत्कालीन उभार और दबावों के चलते अपना मन बनाते हैं। हालांकि एक दौर वह भी था जब वे उन राष्ट्रवादियों का समर्थन कर रहे थे जो आतंकवाद के पक्ष में थे।

जब वामपंथी मोर्चा सत्ता में आया तो वे उनके साथ हो गए। तब वे खूब माक्र्सवादी लफ्फाजी करते थे और सामाजिक व राजनैतिक लाभ भी उठाते थे। अब वे वामपंथियों के खिलाफ हैं क्योंकि अब सौदा लाभ का नहीं रहा। इन दिनों वे तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में है। इनमें से कई ने वहां एक ब्राहमण भी ढूंढ़ निकाला है जिसकी लेनिन और माओ की ही तरह एक तस्वीर है। अब हिंदुत्व की उठान के  चलते वे दक्षिणपंथ की गोद में आनंद महसूस कर रहे हैं।

यह पहली बार नहीं है कि विद्यासागर की मूर्ति तोड़ी गई। नक्सली विचारक सरोज दत्त का मानना था कि विद्यासागर इसलिए अपराधी है क्योंकि उन्होंने साम्राज्यवाद से मिल कर उस क्रांति को पीछे कर दिया जिसका नेतृत्व उन्हीं को करना था। इनकी मूर्ति को नक्सलवाद के खतरनाक युवाओं ने पीछे कर दिया। आज हमले की तैयारी है धुर दक्षिणपंथ की। विद्यासागर पिछले हमलों में तो किसी तरह बच गए लेकिन लगता है इस बार कठिन रहा उनका बच पाना।

लेखक कलकत्ता विश्व विद्यालय में रहे हैं।

केसरिया की राह बंगाल में आसान की लाल झंडे ने

कोलकाता में तृणमूल सुप्रीमो ने बड़े प्रेम से तृणमूल को पूरे बंगाल में फैलाया। लेकिन अब लगता है वे थक रही हैं। कांग्रेस से तृणमूल को अलग रख कर पुष्पित  -पल्लवित करने में उनकी जो भूमिका रही है उसे लोकतंत्र के विकास में नकारा नहीं जा सकता। आम चुनाव 2019 में जिस तरह लाल झंडे ने केसरिया की राह आसान की वह बेचैनी भरा है। भाजपा नेतृत्व एनडीए सरकार का उन पर लगातार  बढ़ता दबाव उन्हें बेहद बेचैन कर रहा है। यह बेचैनी इस हद तक है कि वे राज्य का मुख्यमंत्री पद छोडऩे की सोचती हैं। लेकिन उनकी पार्टी में ऐसी ताकतें है जो चाहती हैं वे सक्रिय रहें और पार्टी को राज्य को और लोकतंत्र को मज़बूत करने में जुटी रहें।

तृणमूल पार्टी को आम चुनाव 2019 में काफी हद तक वाम मोर्चा ने झकझोरा। जिससे भाजपा सफल हुई। फिर भी राज्य में ममता की लोकप्रियता के चलते लोकसभा में भाजपा से कुछ ही ज़्यादा संख्या में तृणमूल है। वामपंथी नेता भारत में हमेशा हिमालयी भूलों को करते रहे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने अपनी ही शत्रु पार्टी भाजपा को राज्य में आ जाने का मौका दिया। यानी उसी भूल का दुहराव जो पहले तृणमुल ने  भाजपा के प्रतिनम्र रवैया दिखा कर की। वैसी ही भूल बंगाल में वामपंथियों ने इस बार की। लेकिन अब वाम मोर्चा का बंगाल में वापसी की संभावनाओं पर ही हमेशा के लिए ठहराव आ गया है।

बंगाल हिंदू, संस्कृति के प्रतीक और बांग्ला पुनर्जागरण के प्रतीक पुरूष ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति को तोड़ कर भाजपा ने बंगाल में विरोधी माहौल पैदा कर लिया था। लेकिन तृणमूल कार्यकर्ताओं में केंद्रीय पार्टी भाजपा का हिस्सा बनने की इच्छा हिलोरे मार रही थी। दिलीप घोष और उनके साथियों ने तृणमूल से भाजपा के आकर्षण में आए कार्यकर्ता और नेता को वामपंथियों ने भी बढ़ावा दिया। मतदान में बड़ी तादाद में वाम मोर्चा कार्यकर्ताओं ने कमल के फूल पर अपनी मुहर लगाई। इसमें बंगाल वाममोर्चा के पदाधिकारियों की भूमिका रही।

बंगाल में यह पूरी संभावना है कि विधानसभा चुनाव अगले ही साल करा दिए जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक रैली में कह भी चुके हैं कि दीदी आपके 40 विधायक मेरे संपर्क में हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष इस समय बेहद उत्साह में हैं। प्रचारक रहे इस नेता का कहना है कि, ‘राजनीति में कुछ भी संभव है। हो सकता है तृणमूल के 100 विधायक मेरे संपर्क में हों।’

तृणमूल नेता और बंगाल की जागरूक नेता ममता बनर्जी ज़मीनी नेता हंै। लोकसभा चुनाव में जिस तरह बंगाल में भाजपा ने अपना गणित मज़बूत किया । यह वह जानती है अच्छी तरह। विधानसभा में बंगाल का चुनाव किन हालातों में होगा उसकी एक झलक वे लोकसभा चुनावों में देख चुकी है।  चुनावी नतीजे आने के बाद तकरीबन 48 घंटे उन्होंने पेंटिंग बनाने और कविताएं लिखने में लगाए। उन्होंने शनिवार (25 मई) से अपने घर पर बैठक शुरू की । अब पार्टी का अनुशासन पर्व शुरू हो गया है। अनुशासन के इस दायरे से बाहर उनका अपना भतीजा भी नहीं है। वे चाहती है कि पूरी ताकत से भाजपा को विधानसभा में रोका जाए। भाजपा के भाषाई सांप्रदायिकवाद, हथियार बंद हिंदुत्व और बांग्ला संस्कृति में उसकी दखलंदाजी को हर लिहाज से रोका जाए। वे खुद हिंदी बोलती हैं, हिंदी शेंर अपनी रैलियों में सुनाती हैं लेकिन राजनीति का जब मामला आता है तो वे तमिलनाडु के स्टालिन का पक्ष लेती हैं और हिंदी का विरोध करती हैं।

हालांकि कोलकाता उस हद तक बंगाल नहीं माना जाता जहां हिंदी का चलन नहीं हो। जब हुसैन शहीद सुहरावर्दी अविभाजित बंगाल के प्रधानमंत्री थे। वे कोलकाता को ऐसा शहर मानते थे जो विदेशियों की धन-संपत्ति से ही बना। यहां ज़्यादातर वे लोग आकर बसे जो दूसरे देशों और हिंदुस्तान के दूसरे प्रदेशो के थे। जिनकी यहां जड़ें नहीं थी। लार्ड कर्जन तो कहते ही थे, कलकत्ता एक यूरोपियन शहर है जो एशिया की ज़मीन पर बसा । जो यहां के मूल निवासी हैं वे भी अंग्रेज़ों के साथ हैं।

ब्रिटिश गए। उनकी जगह ले ली मारवाडिय़ों ने । ये लोग यहां 1890 और 1920 में आए।  बाद में जब राजस्थान में सूखा पड़ा तो इनकी आबादी और बढ़ी। इनका यहां व्यापार पर आधिपत्य है। बिहार, उत्तरप्रदेश, ओडिसा से यहां ब्राहमण तो आए ही । साथ ही बड़ी तादाद में छोटे किसान और भूमिहीन आए जिन्होंने यहां विभिन्न  छोटे-बड़े काम अपने हाथ में लिए। जब वामपंथियों का यहां मेराथन राज चला तो यहां की बोलचाल की भाषा बंाग्ला अनिवार्य हुई।

लेकिन जब से तृणमूल सत्ता में आई तो भाजपा को भी राज्य में में सेंध लगाने का चस्का लग गया। अब ममता बहन को निश्चय  ही भारी तकलीफ है कि भाजपा  के प्रति उनकी सहृदयता का यह पार्टी उन्हें और उनकी पार्टी को सत्ता से बाहर करने में लगी है। इसी कारण उन्होंने लोकसभा चुनावों में उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन लोकतंत्र में तो जनता राजा होती है।

विकास के नाम पर कारमाइकेल लाइब्रेरी की बलि

इतिहास गवाह है कि जब भी कभी किसी जेल की इमारत को ध्वस्त किया जाता है तो वहां के कैदियों को रखने की वैकल्पिक व्यवस्था पहले से कर दी जाती रही है। यह आज़ाद भारत की विडंबना है कि आज जब काशी में कारमाइकेल लाइब्रेरी को तोड़-फोड़ दिया गया है तो उसमें रखी बहुमूल्य किताबों को लावारिस छोड़ दिया गया। इनमें वे किताबें भी हैं जिनकी आज शायद और कोई प्रति उपलब्ध ही न हो।

इस लाइब्रेरी की स्थापना आज से 147 साल पहले 1872 में संकठा प्रसाद खत्री ने तत्कालीन कल्कटर करमाइकल के नाम पर की थी। इसे बनाने में बनारस के तत्कालीन कल्कटर करमाइकल ने खासी मेहनत की थी। इसी वजह से लाइब्रेरी का नाम उनके नाम पर रख दिया गया था। राजा शिव प्रसाद सितार-ए-हिंद इस लाइब्रेरी के पहले अध्यक्ष रहे। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान यह लाइब्रेरी भी राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों और उसमें शामिल लोगों की गवाह बनी।

बनारस के साहित्यकारों का यहां कभी जमावड़ा हुआ करता था। जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भैय्या जी बनारसी आदि साहित्यकार भी अक्सर यहां आते-जाते थे। अनेक दुर्लभ पुस्तकों का यहां भंडार है।

इस भवन के निचले हिस्से में अनेक छोटी-छोटी दुकानें हैं। दुकानदार पिंटू बरनवाल ने बताया कि लगभग 28 लोगों की यहां दुकानें हैं। जिससे उनकी रोजी-रोटी चलती है। यहां की कुछ दुकानें तो 80-90  साल पुरानी हैं। इस भवन के  ध्वस्त हो जाने से अब उनके समक्ष बेरोजग़ारी का संकट खड़ा हो गया है।

कारमाइकेल लाइब्रेरी भवन गोदौलिया चौंक जाने वाले मुख्यमार्ग पर बांसफाटक के पास स्थित है।  यहां से बाबा विश्वनाथ मंदिर की दूरी लगभग 200 मीटर होगी। अब यह भवन विश्वनाथ का गलियारा और गंगा पाथवे की जद में आ गया है। इस भवन के कुछ दुकानदारों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खट-खटाया था, लेकिन उनकी याचिका खारिज होने के साथ ही लाइब्रेरी भवन को तोडऩे का काम अब शुरू हो गया है।

कारमाइकेल लाइब्रेरी की ऊपरी मंजिल का बहुत सा भाग ध्वस्त किया जा चुका है। 25 मई को दोपहर में कई मज़दूर भवन के ऊपरी हिस्से को हथौडे से तोड़ते हुए देखे गए। इस भवन को ध्वस्त किए जाने के बाद कॉरिडोर का बहुत सा हिस्सा मुख्यमार्ग से ही दिखाई देने लगेगा। विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर क्षेत्र में रहने वाले 7-8 लोग जो अभी तक प्रशासन को अपना घर नहीं बेचे थे उनकी भी हिम्मत अब कारमाइकेल लाइब्रेरी के ध्वस्तीकरण से टूट गई है। विकास के सामने अब उन्होंने आत्मसमर्पण कर देने का मन बना लिया है।