केसरिया की राह बंगाल में आसान की लाल झंडे ने

कोलकाता में तृणमूल सुप्रीमो ने बड़े प्रेम से तृणमूल को पूरे बंगाल में फैलाया। लेकिन अब लगता है वे थक रही हैं। कांग्रेस से तृणमूल को अलग रख कर पुष्पित  -पल्लवित करने में उनकी जो भूमिका रही है उसे लोकतंत्र के विकास में नकारा नहीं जा सकता। आम चुनाव 2019 में जिस तरह लाल झंडे ने केसरिया की राह आसान की वह बेचैनी भरा है। भाजपा नेतृत्व एनडीए सरकार का उन पर लगातार  बढ़ता दबाव उन्हें बेहद बेचैन कर रहा है। यह बेचैनी इस हद तक है कि वे राज्य का मुख्यमंत्री पद छोडऩे की सोचती हैं। लेकिन उनकी पार्टी में ऐसी ताकतें है जो चाहती हैं वे सक्रिय रहें और पार्टी को राज्य को और लोकतंत्र को मज़बूत करने में जुटी रहें।

तृणमूल पार्टी को आम चुनाव 2019 में काफी हद तक वाम मोर्चा ने झकझोरा। जिससे भाजपा सफल हुई। फिर भी राज्य में ममता की लोकप्रियता के चलते लोकसभा में भाजपा से कुछ ही ज़्यादा संख्या में तृणमूल है। वामपंथी नेता भारत में हमेशा हिमालयी भूलों को करते रहे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने अपनी ही शत्रु पार्टी भाजपा को राज्य में आ जाने का मौका दिया। यानी उसी भूल का दुहराव जो पहले तृणमुल ने  भाजपा के प्रतिनम्र रवैया दिखा कर की। वैसी ही भूल बंगाल में वामपंथियों ने इस बार की। लेकिन अब वाम मोर्चा का बंगाल में वापसी की संभावनाओं पर ही हमेशा के लिए ठहराव आ गया है।

बंगाल हिंदू, संस्कृति के प्रतीक और बांग्ला पुनर्जागरण के प्रतीक पुरूष ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति को तोड़ कर भाजपा ने बंगाल में विरोधी माहौल पैदा कर लिया था। लेकिन तृणमूल कार्यकर्ताओं में केंद्रीय पार्टी भाजपा का हिस्सा बनने की इच्छा हिलोरे मार रही थी। दिलीप घोष और उनके साथियों ने तृणमूल से भाजपा के आकर्षण में आए कार्यकर्ता और नेता को वामपंथियों ने भी बढ़ावा दिया। मतदान में बड़ी तादाद में वाम मोर्चा कार्यकर्ताओं ने कमल के फूल पर अपनी मुहर लगाई। इसमें बंगाल वाममोर्चा के पदाधिकारियों की भूमिका रही।

बंगाल में यह पूरी संभावना है कि विधानसभा चुनाव अगले ही साल करा दिए जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक रैली में कह भी चुके हैं कि दीदी आपके 40 विधायक मेरे संपर्क में हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष इस समय बेहद उत्साह में हैं। प्रचारक रहे इस नेता का कहना है कि, ‘राजनीति में कुछ भी संभव है। हो सकता है तृणमूल के 100 विधायक मेरे संपर्क में हों।’

तृणमूल नेता और बंगाल की जागरूक नेता ममता बनर्जी ज़मीनी नेता हंै। लोकसभा चुनाव में जिस तरह बंगाल में भाजपा ने अपना गणित मज़बूत किया । यह वह जानती है अच्छी तरह। विधानसभा में बंगाल का चुनाव किन हालातों में होगा उसकी एक झलक वे लोकसभा चुनावों में देख चुकी है।  चुनावी नतीजे आने के बाद तकरीबन 48 घंटे उन्होंने पेंटिंग बनाने और कविताएं लिखने में लगाए। उन्होंने शनिवार (25 मई) से अपने घर पर बैठक शुरू की । अब पार्टी का अनुशासन पर्व शुरू हो गया है। अनुशासन के इस दायरे से बाहर उनका अपना भतीजा भी नहीं है। वे चाहती है कि पूरी ताकत से भाजपा को विधानसभा में रोका जाए। भाजपा के भाषाई सांप्रदायिकवाद, हथियार बंद हिंदुत्व और बांग्ला संस्कृति में उसकी दखलंदाजी को हर लिहाज से रोका जाए। वे खुद हिंदी बोलती हैं, हिंदी शेंर अपनी रैलियों में सुनाती हैं लेकिन राजनीति का जब मामला आता है तो वे तमिलनाडु के स्टालिन का पक्ष लेती हैं और हिंदी का विरोध करती हैं।

हालांकि कोलकाता उस हद तक बंगाल नहीं माना जाता जहां हिंदी का चलन नहीं हो। जब हुसैन शहीद सुहरावर्दी अविभाजित बंगाल के प्रधानमंत्री थे। वे कोलकाता को ऐसा शहर मानते थे जो विदेशियों की धन-संपत्ति से ही बना। यहां ज़्यादातर वे लोग आकर बसे जो दूसरे देशों और हिंदुस्तान के दूसरे प्रदेशो के थे। जिनकी यहां जड़ें नहीं थी। लार्ड कर्जन तो कहते ही थे, कलकत्ता एक यूरोपियन शहर है जो एशिया की ज़मीन पर बसा । जो यहां के मूल निवासी हैं वे भी अंग्रेज़ों के साथ हैं।

ब्रिटिश गए। उनकी जगह ले ली मारवाडिय़ों ने । ये लोग यहां 1890 और 1920 में आए।  बाद में जब राजस्थान में सूखा पड़ा तो इनकी आबादी और बढ़ी। इनका यहां व्यापार पर आधिपत्य है। बिहार, उत्तरप्रदेश, ओडिसा से यहां ब्राहमण तो आए ही । साथ ही बड़ी तादाद में छोटे किसान और भूमिहीन आए जिन्होंने यहां विभिन्न  छोटे-बड़े काम अपने हाथ में लिए। जब वामपंथियों का यहां मेराथन राज चला तो यहां की बोलचाल की भाषा बंाग्ला अनिवार्य हुई।

लेकिन जब से तृणमूल सत्ता में आई तो भाजपा को भी राज्य में में सेंध लगाने का चस्का लग गया। अब ममता बहन को निश्चय  ही भारी तकलीफ है कि भाजपा  के प्रति उनकी सहृदयता का यह पार्टी उन्हें और उनकी पार्टी को सत्ता से बाहर करने में लगी है। इसी कारण उन्होंने लोकसभा चुनावों में उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन लोकतंत्र में तो जनता राजा होती है।