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विकास के दावे संदेह के घेरे में

भारत सरकार मानती है कि देश में बड़ी तादाद में शेल कंपनियां हैं इनका किसी को अता-पता नहीं है। लेकिन इनकी छानबीन अब होगी बता रहे हैं भारत हितैषी

शेल कंपनियां और  सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) स्टेटिस्टिक एंड प्रोग्राम इंपलीमेंटेंशन मंत्रालय ने साफ तौर पर बताया है कि ऐसी कंपनियां हैं जो पंजीकृत हैं औरउनकी शेल कंपनियां हैं जिनकी जानकारी बहुधा गलत होती है।

म्ंात्रालय ने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि कारपोरेट मामलों के डाटाबेस (मिनिस्ट्री ऑफ कारपोरेट अफेयर्स एमसीई) ने राष्ट्रीय लेखा अनुमानों की तैयारी और74 वीं एनएसएस राउंड की महत्वपूर्ण तकनीकी रपट जारी की है।

आरोप हैं कि एक तिहाई गैर सरकारी, गैर वित्तीय कंपनियां जो सेवा क्षेत्र में हैं  उनका कोई अता-पता मिल ही नहीं रहा है। यह जानकारी अभी हाल में मिले नेशनलसैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की 2016-17 की रपट में भी उपलब्ध नहीं है। ऐसे में अनुमान है कि ऐसी कंपनियां शेल, जाली, बोगस कंपनियां हो सकती हैं जोएमसीए -21 डाटाबेस में सक्रिय कंपनियों में शामिल थी जिससे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का पता लगाना था। नई पड़ताल से यह अंदेशा है कि निजी कारपोरेटक्षेत्र में जीडीपी का वर्तमान तौर पर ज़्यादा अनुमान लगाया जा रहा है।  जिससे विकास के सरकारी दावे पर संदेह होता है।

हालांकि आज जीडीपी के आधे से ज़्यादा हिस्से में सर्विस क्षेत्र में जो आउटपुट अनुमान है वह काफी कम है। सार्वजनिक क्षेत्र के बाहरी अनुमान खासे कम हैं जोसार्वजनिक क्षेत्र और बड़ी निजी कंपनियों के मुकाबले काफी पीछे हैं।

इस कमी को पूरा करने के लिए सीएसओ सर्विसेज का एक सालाना सर्वे (एएसआई की तर्ज पर) करा रहा है। इसके पहले कदम के तौर पर एनएसएसओ ने गैरसरकारी और गैर वित्तीय कंपनियों और 2016-17 में तीन फ्रेम बनाकर काम शुरू किया। इसके तहत (या तो यूनिवर्सेस ऑफ एंटरप्राइेजेज) सर्वे के लिए एमसीएसैंपल तैयार किए गए। इसमें एमसीए सैंपल सबसे बड़ा होता था। दस फीसद नमूना सीएसओ के यूनिवर्स के तहत साढ़े तीन लाख सक्रिय गैर वित्तीय कंपनियांमिली। जब एनएसएसओ ने पूरे ब्यौरे की पड़ताल की तो उसे निराशा हाथ लगी। उसे जानकारी मिली कि 45 फीसद चुनी गई कंपनियों ने तो सर्वे में भाग लेना हीपसंद नहीं किया।

सर्वे की परेशानियां

एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार एमसीए इकाइयों में 45 फीसद की तो सर्वे के बाहर कैजुएलिटी बताया गया। इस सर्वे में अधिकांश इकाइयों का हाल बुरादिखा। यह कंपनियों के जवाब न देने, यूनिट के बंद होने, यूनिट के कवरेज एरिया से बाहर होने या उनके न मिल पाने की वजहें थीं।

जो हो मंत्रालय का कहना है कि एनएसएसओ ने 35,456 कंपनियों को बतौर नमूना लिया। (संदर्भ आधार था 2013-14) और इन कारपोरेट के पास जानकारी हेतुअधिकारी गए भी थे। ऐसी कंपनियां जो सर्विस क्षेत्र में नहीं थी और सीआईएन पर आधारित थी उन्हें अलग किया गया और सर्वे से बाहर रखा गया। जिससे ऐसा नेलगे कि ये कारपोरेट हैं ही नहीं।

आश्चर्य तो तब हुआ जब एनएसएसओ ने देखा  कि नतीजे तो निहायत खराब है। इससे पहले से तय दो खंड के नतीजों को रोकना पड़ा और संक्षेप में एक तकनीकीरिपोर्ट लगानी पड़ी जो अभी हाल प्रकाशित है: कई इकाइयां, खासकर एमसीए की सूची की इकाइयों की पहचान इसलिए नहीं हो सकी। खासकर एमसीए सूची कीक्योंकि पोस्टल एड्रेस पूरे नहीं थे। इसी कारण कई नोटिस सही जगह पर पहुंचे ही नहीं। इसके अलावा ऐसी ढेरों इकाइयां मिली जिनकी कोई छानबीन कभी हुई हीनहीं। कुछ की छोटी सी तकनीकी रपट ज़रूर मिली जिसे अभी हाल जारी किया गया था। इसमें यह यह माना गया कि एनएसएसओ को इस सर्वे के दौरान किनपरेशानियों से गुजरना पड़ा। कई इकाइयां खासकर जो एमसीए की सूची में थीं उनकी पहचान नहीं की जा सकी क्योंकि वास्तविक डाक के पते ही नहीं थे। इसकेचलते बहुत सारे नोटिस उचित जगह नहीं पहुंचे। एक बड़ी संख्या उन इकाइयों की मिली जो आउट ऑफ कवरेज इकाइयां थी। वे अलबत्ता मिली । इन इकाइयों परधारा 2.35 के आधार पर दस्तख्त नहीं लिए गए क्योंकि इसमें समय लगता और जो मालिक थे वे भी दस्तख्त करने पर सहज राजी नहीं थे। कई मामलों में तो यह भीदेखा गया कि चुने गए उद्योगपतियों ने सलाना आडिट रपट 2015-16 के लिए तैयार ही नहीं की थी साथ ही 2015-16 की कोई बैलेंस शीट ही पहले कभी बनी।

शेल कंपनियां

ऐसा सोचा जा सकता है कि ऐसी कंपनियां जाली हो सकती हैं। जो सिर्फ पेपर पर कानूनी तौर पर ही हैं न तो वे कोई माल उत्पादित करती हैं और न ही कोई सेवाकार्य। फिर जीडीपी के उल्लेख में इनका क्या उपयोग?

ऐसा माना जाता है कि शेल कंपनियां दो वजहें बताती हैं- एक शेल कंपनियों से अर्थव्यवस्था में एक वेल्यू आती है। उसके घट जाने से जीडीपी पर असर दिखता है।दूसरे सभी सक्रिय कंपनियां जो अपना ऑडिट किया हुआ तीन साल में एक बार भेजती ही हैं। शेल कंपनियों का योगदान एमसीए डाटाबेस में है।

दोनों ही तर्कोंे पर सवाल उठते हैं। शेल कंपनियां कोई माल उत्पादित नहीं करती और कोई सेवा का काम भी नहीं करती। वे मालिक का लाभ छिपाने या घाटादिखाने में मदद अलबत्ता करती हैं। यानी एक कंपनी जिसकी मालिक दूसरी कंपनी है और इसका इस्तेमाल तरह से खासतौर पर गलत इस्तेमाल में होता है।

एक तर्क यह भी है कि तमाम सक्रिय कंपनियां एमसीए के तहत पिछले तील साल का हिसाब-किताब एक बार जमा करती हैं हालांकि यह भी नौकरशाही का बनायागया झूठ है। यदि यह सही माना जाए तो सात-आठ लाख कंपनियां जो पहले कभी सक्रिय नहीं थी, सक्रिय दिखेंगी। एक डाटा के अनुसार सात आठ लाख कंपनियांऐसी ही हैं।

जीडीपी को क्षति

एनएसएसओ के सर्विस सेक्टर के सर्वे में 45 फीसद की तो पहचान इसलिए नहीं हो सकी क्योंकि शेल, बोगस कंपनियां थीं। एमसीए-21 के डाटा सेट की गुणवत्ताएकदम नहीं है। यह नई जीडीपी सिराज की आधार भी है। एनएसएसओ सर्वे के नतीजों से सवाल ज़्यादा उठे हैं, और दुहराव प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगे हैं।

याद करें तो 2004-05 के नेशनल एकाउंट्स की सिरीज पर आरबीआई में जो नमूना अध्ययन 2500 कंपनियों का किया और ग्रास वैल्यू एडेड सेविंग्स आदि काआकलन  तैयार किया जो प्राइवेट कारपोरेट सेक्टर (पीपीएस) के लिए था। इस नमूने का पेड-अप-कैपिटल (पीयूसी) के मानक से भी कंपनियों की कारगुजारी कीपड़ताल हुई। इस तरीके की अपनी सीमाएं थीं। फिर भी इसे एडवाइजरी कमेटी ऑन नेशनल एकांउट्स स्टेटिस्टिक्स (एसीएमएएस) ने लिया और नेशनल एकाउंट्सका अधार वर्ष 2011-12 माना। एक उप समिति (एसीएनएएस) के तहत गठित हुई।

जिसने एमसीए-21 कारपोरेट डाटाबेस  के तौर पर प्रयोग में लाने को कहा। यह तय पाया कि पीयूसी आधारित वैज्ञानिक तरीके से कंपनियों के नतीजों का जायजालिया जाए वह भी पहले संशोधित अनुमानित स्टेज के बाद। यह तरीका कंपनियों के लिए उचित माना गया। खास कर वे कंपनियां जो सक्रिय हों और उन्होंने नेशनलएकाउंट्स अनुमान के समय रिटर्न न दायर किया हो।

म्ंात्रालय ने तय किया कि यह सर्विस सेक्टर का सालाना सर्वे करेगी खास कर 2019-20 में। इसमें हासिल निष्कर्षों का इस्तेमाल नेशनल एकाउंट्स एस्टिमेट मेंकिया जा सकेगा।

कारपोरेट जो खारिज किए गए

74वें राउंड सर्वे का मकसद उन इकाइयों की पहचान था जो सर्विस सेक्टर में सक्रिय हैं और रेट्स और रेटियों को आउटपुट और इनपुट के आधार पर विभिन्नसर्विसेज में परखा जाए।

जब भी कोई कारपोरेट कारपोरेटस अफेयर्स मिनिस्ट्री में पंजीकृत होता है (एमसीए-21) उसे एक कारपोरेट पहचान नंबर (सीआईएन) दिया जाता है। अबसीआईएन में नेशनल इंडस्ट्रियल क्लासिफेशन (एनआईसी)कोड होता है। इस तरह एक कारपोरेट के पास सीआईएन आधारित एनआईसी कोड रजिस्ट्रेशन केसमय मिलता है। यानी एक कारपोरेट एक अलग एनआईसी कोड से आर्थिक कार्य कलाप कर सकता है। बहुत कम कारपोरेट हैं जो नवीनतम एनआईसी कोड केलिए अपना सीआईएन बदलवाती हैं। इसके अलावा कई कारपोरेट तो काम धंधा बंद भी कर देते हैं। पिछले कुछ साल में 6.3 लाख कारपोरेट गैर पंजीकृत हुए हैं।

एनएसएस टेक्निकल रिपोर्ट जो एनएसएस राउंड में 74वीं हैं। उसे समझने की कोशिश इसी संदर्भ में करनी चाहिए। एनएसएस ने 35,456 कंपनियों (संदर्भ आधार2013-14) के नमूने लिए और कारपोरेट से संपर्क किया। ऐसी कंपनियां जो सक्रिय सेक्टर में सक्रिय नहीं थी पर अपने सीआईएन के जरिए काम कर रही थीं। उन्हेंअध्ययन की संभावना से बाहर कर दिया और उन्हें ‘आउट ऑफ  सर्वेÓ करार दिया। इसका मतलब यह नहीं है कि कारपोरेट है ही नहीं।

और जो मिले ही नहीं

कारपोरेट मामलों के मंत्रालय के सहयोग से 74वीं एनएसएस राउंड को ही आगे के काम का आधार माना गया और 35,456 कारपोरेट को इस नमूने में शामिलकिया गया। अगर ऊपर से देखें तो पाएंगे कि 74वें राउंड में तकरीबन 35,456 कंपनियोंं में से 34,834 , 86.6 फीसद कंपनियों ने अपने रिटर्न एमसीए डाटा बेस मेंदायर किए। इनमें 622 को ढूंढा भी नहीं जा सका। शायद सीआईएन में बदलाव के चलते। जीवीए अनुमान जो निजी कारपोरेट सेक्टर (पीसीए) है इसमें 4,235 इकाइयों का पता ही नहीं चल सका। ये 4,235 इकाइयां थी जो बताए गए 74वें राउंड में दिए गए पते पर नहीं मिली। जबकि 3,154 यूनिट ने एमसीए के पोर्टल परऑन लाइन रिटर्न भी दाखिल किए थे।

यानी कारपोरेट का एमसीए रिटर्न भरना तो एक रिवाज सा ही है। राष्ट्रीय एकाउंट्स एस्टिमेंट के अनुसार एक सहज प्रक्रिया है। एनएसएस की जो महत्वपूर्णजानकारियां हैं उसके तहत जब एनुअल सर्वे ऑफ सर्विस सेक्टर अमल में आएगा तो एनएसएस सर्वे से खासी जानकारी मिल सकेगी। तब नई रणनीति तैयार करनेमें सहयोग मिलेगा। इससे गुणवत्ता और भी सुधरेगी और बढ़ेगी।

कला को शिक्षा से जोडऩे में लगे हैं निक्लॅस हाफलैंड

बहुमुखी प्रतिभा के धनी निकलॅस हाफ़लैंड की सृजनशीलता बंधेबंधाए खांचों में ‘फिटÓ नहीं आ पाती। पहाड़ी नदी सा निरंतर बेचैन, सतत प्रयासशील, बीच-बीच मेंलुप्तप्राय हो जाता यह व्यक्ति जब भी प्रकट होता है, कुछ नया और अद्भुत करता मिलता है। लंबे समय तक विज्ञापन जगत में सक्रिय रहे निकलॅस फि़ल्म निर्माण केसभी पक्षों-संगीत रचना, लेखन और डिज़ाइन-पर अधिकार रखते है। उन्हें करीब से जानने वाले जानते हैं कि वह उतने ही ज़बर्दस्त ख़ानसामां भी है। अपने बारे मेंजानकारी देने में बेहद संकोची निकलॅस के मित्रों और प्रशंसकों को उनके कवितासंग्रह का बेकरारी से इंतज़ार है।

पिछले कुछ बरसों से निकलॅस कलाओ के क्षेत्र में जनशिक्षा का जैसा अभियान चला रहे हैं उसकी ज़रूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। उनकी जीवनदृष्टिके अनुरूप ही उनका यह शिक्षण मॉडल बहुत ही मितव्ययी और कहीं भी लागू हो सकनेवाला है: वह सस्ती ऑडियो-विजुअल टैक्नॉलॉजी, सहज सुलभ सामग्री औरलगभग नि:शुल्क उपलब्ध सामुदायिक/सार्वजनिक जगहों का उपयोग करके देहरादून और दिल्ली में कला रसिकों और जिज्ञासुओं की कई पीढिय़ों के जुटने औरअपने अनुभव

साझा करने, शंकाओं का समाधान पाने के अवसर रचते हैं।

हाल ही में कनाट प्लेस स्थित इंस्तितुतो सर्वान्तेस में कॉरल सिंगिंग (समूह में गायन) पर केंद्रित उनकी प्रस्तुति अपने विस्तार और सरलता के परिप्रेक्ष्य में चकित करदेनेवाली रही। लगभग क़ब्बन मिजऱ्ा के अंदाज़ में, यूट्यूब पर सहज उपलब्ध पश्चिमी संगीत के वीडियोज़ का उपयोग उदाहरणों के रूप में करते हुए निकलॅस नेआयुवर्ग (15 से 80 वर्ष) और विषय में गति (ज्ञानोत्सुक से सुशिक्षित रसिक तक) के स्तरों पर बहुत विविध अपने दर्शक-श्रोताओं का परिचय स्त्री और पुरूष गायकोंके कंठस्वरों की श्रेणियों से करवाया और फिर समूह गायन के विभिन्न स्वरूपों की ओर बढ़ गए। वैसे तो समूह गायन का इतिहास शायद मनुष्य समाज के गठनजितना ही पुराना होगा लेकिन पश्चिमी शास्त्रीय परंपरा में उसका आधिकारिक लिखित उल्लेख 11वीं सदी में बड़े चर्चों की स्थापना के साथ ही मिलता है।

निकलॅस का इरादा अपने दर्शक-श्रोताओ का पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के इतिहास से इस तरह परिचय करवाने का है कि वे इसे सामाजिक-ऐतिहासिक बदलावों केएक सहज परिणाम के रूप में देखें-समझें और इससे जुड़े अनावश्यक सांस्कृतिक तामझाम और औपनिवेशिक अतीत से आक्रांत हुए बिना संगीत की एक शैली केरूप में इसका आनंद ले पाएं। वह ऐसी ही प्रस्तुतियां भारतीय शास्त्रीय और सुगम संगीत के बारे में भी देते रहे हैं।

आप के इस प्रयास का उद्देश्य क्या है?

– अर्से से हमारे सामुदायिक जीवन में कलाओं और उनके अभ्यास-आस्वादन की जगह घटती चली गई है। आम धारणा यह है कि सिनेमा, संगीत, लेखन, थियेटरऔर बाकी दूसरी कलाएं एक खास वर्ग के लिए है; वही उन्हें समझता और उनका आनंद ले पाता है। इसके पीछे बड़ा कारण तो खैर यही रहा है कि कला कीज़्यादातर विधाओं का अभ्यास समय, कड़ी मेहनत और प्रतिभा की मांग करता है जो सचमुच ही हर किसी के बस की बात नहीं है। लेकिन आज जब टैक्नॉलॉजीबहुत सुलभ और सस्ती हो चुकी है, तब तो कलाओं में रूचि रखनेवालों के लिए कलाएं सुलभ होनी चाहिएं। निजी स्तर पर ऐसा हुआ भी है। मेरा प्रयास संगीत केतमाम रूपों, डॉक्युमेंटरी फि़ल्मों, कला और लेखन के रसास्वादन, प्रसार, अध्ययन और चर्चा के लिए एक ऐसी सामुदायिक जगह तैयार करना है जहां उत्सुक लोगकला से जुड़े प्रभामंडल से आतंकित हुए बिना मिल बैठें। समाज में कला के हर स्वरूप के रसिक उपस्थित हैं लेकिन जब तक वे संगठित न होंगे यह विभिन्न स्वरूपफलफूल नहीं पाएंगे।

अपने अर्जित ज्ञान के अलावा आपकी सामग्री का स्त्रोत कौन से संस्थान हैं?

– संस्थान? भारतीय डॉक्युमेंटरी फि़ल्म निर्माताओं के काम पर आधारित सत्रों के लिए हमें पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टिंग ट्रस्ट और स्वतंत्र फि़ल्मकारों से सामग्री मिलजाती है। इस सामग्री की मदद से हम भारत में दृष्टियों की बहुलता का विचार समाज के उस बड़े वर्ग तक ले जा पाते हैं जो अब तक जानकारी के दायरे से बाहर रहाचला आया है।

देहरादून में आप का कार्यक्रम मुख्यत: भारतीय कलाकारों और उन के काम पर केंद्रित रहता है।

– शुरूआत तो ऐसे ही हुई थी। हमारा ध्यान कला के छात्रों पर था जिनके लिए ज़्यादा संसाधन उपलब्ध नहीं रहते। हम भारतीय कलाकारों के काम और रचना-प्रक्रिया के बारे में उनकी समझदारी बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अब इन सत्रों में छात्रों, कलासाधकों और उत्सुक लोगों की भागीदारी लगभग बराबररहती है।

कुछ काम लेखन को लेकर भी चल रहा था।

– अब भी चल रहा है। अनियमित अंतरालों पर लेखन में रूचि रखने वाले लोग मिल बैठते हैं, एकदूसरे की रचनाओं पर चर्चा करते हैं, अपने सहयात्रियों के अनुभवजानते हैं और अपने संघर्ष के लिए साहस पाते हैं। लेखन कोई बहुत आसान काम तो है नहीं…..

आप को लगता है कि युवाओं के बीच बढ़ती हताशा और भटकाव के इस दौर में ऐसे प्रयास चलते रह सकते है?

-क्यों नहीं? अब तक तो हमारा प्रयास समानधर्मा लोगों के सहयोग से चला ही है। कला को ‘वर्गÓ की जकडऩ से बाहर लाने, उसे जन की पहुंच में ला कर एक सहजअनुभव बनाने, रहस्य के आवरण को उतारने के इस प्रयास की मांग बढ़ रही है। संगीत परिचय के सत्रों में दर्शक-श्रोताओं की संख्या लगातार बढ़ी है, शिक्षा संस्थानऔर नागरिक संगठन अपने यहां ऐसे आयोजनों की संभावना के बारे में पूछताछ करने लगे हैं। हम तो और आगे जा कर उभरते संभावनाशील कलाकारों की उनकेसमुदायों में सार्वजनिक प्रस्तुतियों के आयोजन पर भी विचार कर रहे हैं।

कला की समझदारी और स्वीकार्यता बढ़ाने के इस महत्वपूर्ण आयोजन से आप की क्या अपेक्षाएं हैं?

– बहुत अपेक्षाएं हैं। मैं सोचता हूं कि अगला चरण आज के उत्सुक लोगों को हमारी समकालीन मानवीय स्थिति को दजऱ् करने में समर्थ बनाना है। लोग बिलकुलअपना संगीत, अपनी फि़ल्म, अपना साहित्य, अपनी ही कला रचें भले ही वह मोबाइल फ़ोन पर ही क्यों न हो। कहीं न कहीं यह चाहत भी है कि हमारे लोगव्यावसायिक हितों द्वारा झोंकी जा रही सामग्री के उपभोक्ता मात्र न बने रहें बल्कि

अपने विचार, अपनी दृष्टि को प्रस्तुत करने का साहस भी करें।

और अंत में, आगे की योजना?

– हमारे प्रयोगात्मक स्टूडियों के माध्यम से युवा कलाकारों का काफ़ी जटिल किस्म का काम सामने आ रहा है। हमारी कोशिश एक ऐसा कला संस्थान स्थापित करनेकी है जो अनेक समुदायों से सक्रिय जुड़ाव बना सके। हमें आशा है कि हम ऐसी जगह तैयार कर पाएंगे जहां भारत की बहुलता के लिए सहज स्वीकार्यता होगी।

वह अंग्रेज़ लड़की जिसने भारत के लिए आज़ादी की जंग लड़ी

देश का मौजूदा परिदृश्य पूरी तरह निराशाजनक है। मैं भविष्य में बहुत  आगे देखने की भी चाहवान नहीं हू तो मेरे पास जो बीत गया उसी का विश्लेषण करने केअलावा और कोई चारा भी नहीं है। असल में तो सोच यही रहती है कि जो बीत गया वह बीत गया, पर जब बीते समय में झांकते हैं तो उन विभूतियों से मुलाकात होतीहै जिनका पूरा प्रभाव देश के सामाजिक और राजनैतिक पटल पर नजऱ आता है।

यह लिखने की प्रेरणा मुझे पिछले दिनों किंग्स कॉलेज लंदन में आयोजित किए गए ‘खुशवंत सिंह लिटरेरी फेस्टिवलÓ के दौरान  फ्रेडा बेदी पर हुए सेशन में मिली।यह कमाल का सेशन था। वहां नार्मा लीवाइन और एंड्रयू व्हाइट हैड ने अपने बहुमूल्य विचार रखे। उन्होंने अद्भूत अंग्रेज महिला फ्रेडा के बारे में बताया। ध्यान रहेकि फ्रेडा ने एक भारतीय सिख बीपीएल बेदी के साथ शादी की थी। इसके बाद वह भारत आ गई। यहां वह देश के विभिन्न स्थानों पर रही। उसके बच्चे और पति भीसाथ थे। भारतीय फिल्मों के सितारे कबीर बेदी भी उनके पुत्र हैं। पर कई सालों की शादी के उपरांत उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया और बौद्ध भिक्षु बन गई। उसकेबारे में उपरोक्त दोनों लेखकों ने खूब लिखा। उन्होंने इस बात का खास जि़क्र किया कि जैसे ही 1933 में उसने बीपीएल बेदी से शादी की वैसे ही वे खुद को भारतीयमानने लगी।

इंग्लैंड के एक मध्य वर्गीय परिवार में जन्मी वह भारतीय राष्ट्रवाद की प्रमुख सिपाही बन गई। उन्होंने सत्यग्रही के रूप में  लाहौर में जेल भी काटी। 1940 में जबउनके पति बीपीएल बेदी ने ‘न्यू कश्मीरÓ घोषणापत्र तैयार किया उसी दौरान फ्रेडा ने भूमिगत वामपंथी राष्ट्रवादियों के साथ संपर्क साधा और बाद में पाकिस्तानीकबाइलियों के हमले से कश्मीर को बचाने के लिए नारी सेना का हिस्सा बन गई। 1950 में अपनी बर्मा यात्रा के दौरान वे बौद्धमत से जुड़ी। बर्मा की यात्रा उनकेजीवन में एक बड़ा बदलाव लाई और वह अध्यात्मवाद से जुड़ गई। 1959 में उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू से संपर्क कर तिब्बती शरणर्थियों के लिए काम करनाशुरू किया और उनके लिए स्कूल खोले। शायद फ्रेडा पहली बौद्ध भिक्षु बनी।

 एंड्रयू ने अपनी किताब में फ्रेडा और उनके पति की कश्मीर में निभाई भूमिका को भी उजागर किया। स्थान के अभाव के कारण मैं सब कुछ न लिख सकूं पर उनपत्रों का जि़क्र ज़रूर कर रही हूं जो जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को लिखे थे। ये पत्र उस पुस्तक में हैं। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला पर दवाब डाला कि वेकम्युनिस्टों को अपने से दूर रखें। इनमें भी बेदी उनका मुख्य निशाना थी। मई 1949 में नेहरू ने कश्मीर की यात्रा के बाद नेहरू ने लिखा-” शेख साहिब कश्मीर मेंकम्युनिस्टों की घुसपैठ बहुत खतरनाक है। हमारे दूतावासों ने इस पर बहुत चिंता जताई है। उन्होंने बेदी के बारे में बहुत सुना है। मुझे पता है कि बेदी एक अखबारका संपादन कर रहे हैं। जिसके लिए उन्हें अच्छा वेतन और कार की सुविधा मिल रही है। बेदी के खिलाफ मेरी कोई निजी शिकायत नहीं है पर कम्युनिस्टों के साथहमारी जो लड़ाई देश में चल रही है इस कारण बेदी का नाम लगातार सामने आ रहा है।

इसके बाद नेहरू ने इसी ”पैटर्न पर शेख अब्दुल्ला को एक और पत्र लिखा। उन्होंने लिखा,”आपने बेदी परिवार का जि़क्र किया था, मैं उन्हें पसंद करता हूं खासतौरपर फ्रेडा को। मुझे पता है फ्रेडा ने कुछ साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी है। उसके बाद उन्होंने क्या किया, इसका मुझे कोई इल्म नहीं। पर मुझे इतना पता है किबेदी पार्टी में बने हुए हैं। आज पार्टी उन लोगों को  नहीं रख रही जो उसकी आज की रणनीति में नहंी आते। मैं नहीं चाहता कि आप बेदी परिवार पर कोई बेवजहदबाव बनाएं। पर मैं यह चाहता हूं कि उन्हें कोई महत्वपूर्ण काम न सौपा जाएं और उन्हें पूरी तरह पीछे रखा जाए।कल मैंने एक किताब देखी जो बेदी पति-पत्नी नेतुम पर लिखी है। इसमें एकदम यह प्रभाव पड़ता है कि बेदी दंपति कश्मीर में महत्वूपर्ण भूमिका निभा रहे हैं और तुम्हारे बहुत करीब हैं। इससे तुम्हारी ओर तुम्हारीसरकार के खिलाफ प्रतिक्रिया पैदा हो रही है। ऐसा नहीं है कि  बेदी दंपति को इन घटनाओं का पता नहीं था। इसी किताब से पता चलता है-”बीपीएल बेदी को अपनेप्रति नेहरू की धृणा का पता था और यह भी कि वे उन्हें अलग-थलग करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि -मुझे कश्मीर से निकालने के लिए केंद्र का बड़ा दवाब था, उन्हें डर था कि यदि मैं वहां पर रहा तो वामपंथी नीतियां वहां फैलती रहेंगी।

कुछ इस तरह संकेत भी थे कि बेदी दंपति अपनी लेखनी से शेख अब्दुल्ला के राष्ट्रीय नेता बनाना चाहता था। यह भी सही है कि बेदी दंपति ने अपने जीवन का सबसेअच्छा वक्त कश्मीर में ही काटा। इस किताब  में यह बताया गया है किवे किस-किस से मिले और बातचीत की।

फ्रीडा के जीवन का अंतिम पड़ाव अलग अलग तरह के फैसलों का रहा। बौद्ध बनने के बाद उनके अपने भीतर और परिवार से भी कई प्रतिक्रियाएं निकलीं।   परवह लगी रही कुछ भी अलग करने, देखा जाए तो उनकी मौत भी अलग ही थी।

शायद हम यह सब उस फिल्म में देख सकें जिसके बारे में कहा जाता है कि उनका बेटा कबीर बेदी बना रहा है।

‘भागा देवी का चायघर’ पाठकों को लेता है मोह

हरनोट की कहानियां यथार्थ और मानवता के करीब होती हैं। उनकी दो नई कहानी पुस्तकों का शिमला में लोकार्पण हुआ जिसमें वक्ताओं ने समय-समाज के सन्दर्भ में हरनोट की मुक्कमल समझ और दायित्वशीलता की सराहना करते हुए उनके सृजन के विभिन्न दायरों और दिशाओं की चर्चा की।

मुय अतिथि डॉ. गौतम सान्याल ने कहा कि हरनोट की कहानी ‘भागा देवी का चायघरÓ इको फेमिनिजम हिन्दी की पहली कहानी है। कहानियों पर बात करते हुए  सान्याल ने कहा कि सात कहानियों का यह संग्रह ‘कीलें वर्तमान पहाड़ी जीवन की भूमंडलीकृत हौलनाकी का अभिनव भाष्य परोसता है। उन्होंने कहा – ‘ये कीलेकिन्हीं कथा स्थितियों या प्रोटेगॉनिस्टों में बलपूर्वक ठोक नहीं दी गई है बल्कि इनका पैनापन पहाड़ की चेतना की अथाह वेदना से उपजा है।

सान्याल के मुताबिक हरनोट समकालीन जीवन के पॉपुलर नैरेटिव्स के समांतराल अपने नैरेटिव्स गढऩे में माहिर हैं। सान्याल ने इसी संकलन की एक बहु चर्चितकहानी ‘भागा देवी का चाय घर पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि इको-फेमिनिज्म के आलोक में भारतीय और उसके स्त्रीमयता और उसके पर्वत-पार्वती  स्वरूप को आंकते हुए कदाचित यह हिन्दी की पहली कहानी है। सान्याल ने कहा – कहानी और ये कीलें (संकल्न की कहानियां) पाठक-मन में देर तक और दूर तकगहरे चुभते हुए, सिर्फ सीत्कारें ही पैदा नहीं करती बल्कि ये पाठक-मन में गहरे घुलकर समय-समाज-राष्ट्र के बारे में व्याकुल चिंताएं भी उगाहती है।

पुस्तकों का विमोचन शिमला रोटरी टाउन हॉल में वाणी प्रकाशन दिल्ली, कैिब्रज स्कॉलर्स पब्लिशिंग लंदन और ओकार्ड इंडिया के साझे तत्वावधान में हुआ।एसआर हरनोट की दो कहानी पुस्तकों – वाणी से प्रकाशित ‘कीलेंÓ और कैिब्रज स्कालर्स पब्लिशिंग लंदन से अंग्रेजी अनुंवाद की पुस्त’केटस टॉकÓ कालोकार्पण प्रयात आलोचक प्रो. गौतम सान्याल ने किया। लोकार्पण के अवसर पर विभिन्न विद्वजनों ने गहन विचार-विमर्श करते हुए, हरनोट की समकालीन समय-समाज के सन्दर्भ में उनकी मुक्कमल समझ और दायित्वशीलता की सराहना करते हुए उनके सृजन के विभिन्न दायरों और दिशाओं की चर्चा की। प्रारिभकवक्ताओं में प्रो.  मीनाक्षी एफ पॉल, डा.  खेमराज शर्मा, डा. विद्यानिधि और डा. देविना अक्षवर रहे।

अंग्रेजी की पुस्तक का संपादन और छह कहानियों के अनुवाद डॉ.  खेमराज शर्मा और प्रो. मीनाक्षी एफ पॉल ने किए हैं, जबकि अन्य कहानियों के अनुवाद प्रसिद्धअनुवादकों डा.  आरके शुक्ल, डा. मंजरी तिवारी, प्रो. इरा राजा और डा. रवि नंदन सिन्हा ने किए हैं।

प्रो. मीनाक्षी पॉल ने अंग्रेजी संग्रह केट्स टॉक की अनुवाद प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए अनुवाद प्रक्रिया के मूल्यवत्ता पर भी विस्तार से बात की। खेमराज शर्मा नेइन कहानियों की कथावस्तु में जाति, शोषण, पर्यावरण और बदलते युग में रिश्तों के विघटन को रेखांखित किया।

वरिष्ठ आलोचक डॉ.  विद्यानिधि ने संग्रह पर चर्चा करते हुए कहा कि हरनोट ऐसे कथाकार हैं जिनका सृजन आज देश में ही नहीं, विश्व में भी पढ़ा, समझा और सराहाजाता है। उन्होंने कहा – ‘इन कहानियों की विशेषता यह है कि ये आम ग्रामीणजन की दुर्लबताओं पर आंसू नहीं बहाती, उनके अंधविश्वासों को जायज नहीं ठहरातीबल्कि इस ग्रामीणजन को एक ऐसे साहसी, सशक्त, विचारवान और आशावान रूप में प्रतिष्ठित करती हैं जो सिर्फ गांव, शहर और देश की राजनीति को ही नहींसमझता, इस राजनीति को निर्धारित करनेवाले उत्तर-आधुनिक ग्लोबल युग के हालात और दवाबों को भी समझता है।

डा. देविना अक्ष्यवर ने कीलें संग्रह पर बोलते हुए कहा कि कहानियों में केवल पहाड़ी संस्कृति की ही झलक नहीं मिलती बल्कि समकालीन सामाजिक सांस्कृतिकऔर राजनीतिक

परिस्थितियों का भी बारीक चित्रण मिलता है।

अध्यक्षीय वक्तव्य से पूर्व गौतम सान्याल जी की धर्मपत्नी संध्या सिंह, जो प्रयात सेमी क्लासिकल गायिका हैं और पूरे देश में संगीत के प्रोग्राम देती रहती हैं, ने एकगीत और एक गज़़ल गाकर सभी को मन्त्रमुग्ध कर दिया।

मंच संचालन और कहानियों पर कुछ गंभीर टिप्पणियां कवि आत्मारंजन ने कीं। हरनोट ने कीलें कहानी संग्रह की चर्चित कहानी ‘भागा देवी का चायघर कहानी केकुछ अंशों का पाठ भी किया।

सड़कों पर घूमता कवि

दुपहरिया ढलान, ऐनक लगा, एक गंजा आदमी दाल-भात, डायबिटीज़ की दवा और आठ-दस अ$खबार खाने के बाद योजना भवन की परली तरफ खलीफा ईदू मार्ग पर पैदल अपनेदफ़्तर की ओर चला आ रहा है। उसके चलने में इत्मीनान है, जो इस सच से पैदा हुआ है कि उस जैसे लोगों के रोज़ी कमाने का सफर अंतहीन है, जो उनके मरने के साथ खत्म होगा।काहे की हड़बड़ी!

उसके झुकते कंधे पर एक रैक्सीन का बैग है, जो कहीं भी रात बिताने की तैयारी के साथ भटकने वाले गुजऱे ज़माने के फक्कड़ लेखकों के रूमान की लाश की तरह फूला और नुचाहुआ है। उसमें हो सकता है एक कंघा हो, जो देर रात लौटकर पी जानेवाली शराब की शीशी के साथ लिव इन में रहता है। उंगलियों में एक सिगरेट है जिसे आग के कटखने फूल कीतरह सावधानी से सहेजा गया है। टेरीकाट की पैंट-कमीज़, पुराकालीन स्लीपर और बीच में ठिठक कर मल्टीस्टोरी इमारतों को ताकने की हरक़त सब चुगली कर रहे हैं कि इसआदमी को खुद को सजाने वाले सामान के विपुल वैविध्य, आसान उपलब्धता और समकालीन फैशन की खबर नहीं है। उसके तबके के बहुतेरे लोग छैला बने दिखते हैं क्योंकि सूखचुकी हसरतों के पूरे होने के अवसर इधर बहुत बढ़े हैं।

वैसे यह किसी एक आदमी की तस्वीर नहीं है। राजनीति, साहित्य, कला, संस्कृति के दायरों में ऐसे पुराने, भौचक और अटपटे इक्का-दुक्का लोग अब भी दिख जाते हैं, जिन्हें किसी स्वप्नसे उठाकर सड़क पर चला दिया गया है। उन्होंने जो स्वप्न ही नहीं, बेचैनी, प्रयोग, मोहभंग का भी ऊबड़-खाबड़ अपारंपरिक जीवन जिया है, उसकी अब कल्पना संभव नहीं रह गयीहै। इकहरे, सनकी, अवसरवादी और महाआत्मकेंद्रित होते जाते ज़माने की नयी पीढ़ी को तो यक़ीन भी दिलाना मुश्किल है कि एक ऐसा भी समय था कि घुटन और शोषण से भरेपुराने ढाँचे को तोड़-ताड़ कर सबके लिए कुछ नया बनाने की दिशा में सोचते हुए उस ऊंचाई तक जाने की आज़ादी थी, जहाँ से गिरकर आदमी ऐसा हो जाता है। इस आदमी कीजवानी की भी एक तस्वीर होगी, लेकिन दिखाने से क्या $फायदा। कोई मानेगा ही नहीं।

उसकी डुबान देखिए। वह किसी और युग में चलते हुए दफ़्तर की ओर आ रहा है और मैं घोड़ा अस्पताल के सामने बरगद के नीचे चाय की दुकान पर उसका इंतज़ार वर्तमान में कररहा हूँ। लग सकता है कि यह आदमी ज्य़ादातर किसी बीते समय में रहता है। उसकी रुचियाँ, आदतें, सड़क पर चलने और जीने का सलीक़ा सब वहीं बने होंगे लेकिन वह बड़े आरामसे वर्तमान, भविष्य और दूसरे अज्ञात समयों में भी ऑटोमैटिक आता-जाता रहता है। उसके ऊपर से पुराने और बेतरतीब लगते व्यक्तित्व में एक करीनापन है। वह खुद से अच्छी तरहसंतुष्ट होकर ही घर से निकला है। उसकी अपने साथ व्यस्तता से जाहिर है कि बिना अप्वाइंटमेंट मुला़कात संभव नहीं है।

लीजिए वह खरामा-खरामा आ पहुँचे। देख लिया है, लेकिन जो भाव आँखों में आना चाहिए, वह हाथ की तरफ भेज दिया गया है जिसके कारण वह हल्का-सा हिला है, ‘क्या हाल है यार,केतनी देर से बइठे हैं? ‘

निराशा होती है। ‘मान लीजिए, आप जान लें कि मैंने ठीक कितनी देर आपका इंतज़ार किया तो…क्या करेंगे? ‘ इस जानकारी का इस्तेमाल अपने उपेक्षित खस्ता अस्तित्व को संतोषऔर खुशी का जऱा-सा चारा खिलाने के सिवा और क्या किया जाएगा!

मुझसे पहले अपनी बेकरारी का इज़हार करने के लिए अचानक एक पिल्ला बेंचों के नीचे से होता हुआ आगे आ जाता है और उनके चारों ओर मंडराने लगता है। ‘अच्छा, तुम भी यहींजमे हो! ‘  वह चाय की दुकान में रखे मर्तबान से एक बिस्कुट निकाल कर उसे देते हैं। वह नहीं खाता, सूंघकर एक ओर चल देता है। वह कहते हैं, ‘जाओ बच्चू! जब तुमको बड़े कुत्तेझोरेंगे तब इस बिस्कुट की याद आएगी।’

वह हैरानी के साथ पूछते हैं, ‘का हो, यह बताइए, क्या आजकल के बच्चे भी अपने बाथरूम के लिए लड़ते हैं? ‘

क्या मतलब है इस बात का!

इतनी देर में वह स्मृति की बस पकड़ कर सोनभद्र जिले के मुख्यालय रापटगंज पहुँचते हैं और वहाँ से पैदल अपने गाँव की ओर चल पड़ते हैं। निहायत औपचारिक ढंग से अपनेमतलब की तफसीलों पर जोर देते हुए एक बहुत पुराना कि़स्सा शुरू होता है… हम लोग छोटे थे। बच्चे ही कहिए। प्राइमरी में पड़ते थे, तो क्या कहिएगा। हाँ, बच्चा तो हुए ही। तब कीबात कर रहा हूँ। हमारे गाँव चरकोनवां के बगल से एक नदी बहती थी। उसे मैं बच्चा नदी कहता हूँ। ऐसी कोई बड़ी या गहरी नहीं थी कि कोई नहाने जाए तो डूब जाए। पठार कीछिछली नदी समझिए। उसके कारण स्कूल में बड़ी लड़ाई होती थी। हम लोग कहते थे कि वह हमारी नदी है। दूसरे गाँव के बच्चे कहते थे, हमारी है। क्योंकि वही नदी तो उनके गाँव केपास से भी जाती है और वे उसके किनारे खेलते हैं, तो वह हम लोगों की नदी कैसे हुई। हम लोग कहते थे कि भाई, वह सब ठीक है कि वह तुम लोगों के गाँव के पास से भी जाती है।नदी है, तो जाएगी ही। लेकिन है वह हमारी ही नदी। पहले हमारे गाँव आती है, तब न तुम लोगों की तरफ और उससे भी आगे जाती है!

ऐसे तो पहिले की दुलहिनें भी अपने गाँव के लिए लड़ती थीं। जब ससुराल में कोई ताना मारे कि उसकी तरफ के लोग भतहा; ज्य़ादा चावल खाने वाले, पनहग्गा; बाढ़ के दिनों में पानी मेंशौच करने वाले या छेरिहा; बकरी पालने वाले हैं लेकिन बच्चे…बच्चों का क्या कहा जाए। अपार्टमेंट में रहने वाले बच्चों का अपना बाथरूम है। उस पर उनके माँ-बाप का कानूनीमालिकाना हक़ है लेकिन नदी जैसा अधिकार महसूस नहीं होता। नदी की तरह आदमी भी प्रकृति का जि़ंदा हिस्सा है इसलिए नदी, पेड़ और तारों पर नानी-दादी जैसा अधिकारमहसूस हुआ करता था। लेकिन यह खूब पढ़ा-लिखा आदमी इतना तो जानता ही होगा कि बस्तियाँ नदियों के किनारे सिंचाई-प्यास-पूजा और परिवहन के लिए बसीं लेकिन असलीसभ्यता तो नदियों और पेड़ों से दूर जाने का नाम है। यह प्रकृति से छिटक कर उसे मनमाफक पालने, नष्ट करने और  भर लोगों के खज़ाने को और भारी करने की प्रक्रिया है। मालूम हैकि ऐसा नहीं हो सकता, फिर भी यह आदमी बच्चों को फिर से असभ्य बनाकर किसी बीते समय में ले जाना चाहता है ताकि उन्हें प्लास्टिक और कल्पना की परछाई से बने वीडियोप्लेयर के बजाय नदी और जंगली घास के फूलों से अपना संबंध महसूस होने लगे।

ओहो! तभी सभ्य लोगों ने अपने बच्चों को बचाने के लिए इसका यह हाल किया है।

अब यह आदमी आज की तुलना में अपने काफी जंगली बचपन की याद करने और तब से अब तक के विकास के गलत हो जाने की शिकायत करने के अलावा कुछ और नहीं करसकता। हो न हो, कहीं यह एक कवि तो नहीं है!

कोई सत्रह साल पहले, पहली मुलाकात बनारस में हुई थी। तब भी कवि कलकत्ते से रापटगंज के रास्ते में था।

सुशील पंडित साथ लेकर आये थे। वह एक बंद हो चुके काफी पुराने अखबार ‘कैमूर समाचार’ का फिर से रजि़स्ट्रेशन कराना चाहते थे। कुछ इस तरह परिचय कराया था- ये कलकत्ता’जनसत्ता’ में फीचर एडीटर हैं। जल्दी ही वीआरएस लेकर यहीं रहेंगे। तब मजा आयी राजा! ये आ जाएं, तो हम लोग बनारस के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में कचाका हस्तक्षेपकिया जाएगा।

सुशील पंडित हमारी आत्मा पर लगे पैबंदों को छिपाने के लिए या मिस्कीन हालत को कुर्बानी की गरिमा देने के लिए कभी अचानक लोहिया युग के अदरकी सोशलिस्टों की तरह बोलनेलगते थेए जबकि ज़न्नत की हक़ीक़त सबको मालूम थी।

मैं बनारस में ‘हिन्दुस्तान’ अखबार का घुमंतू संवाददाता था जो कई दिनों से एक पुराने कवि विनय श्रीकर की जासूसी करने में लगा हुआ था। लहुराबीर के पिछवाड़े महामंडल नगर कीएक गली में मद्रास हाउस की छत पर बने अकेले बड़े से कमरे में रहता था, जिसमें ताला लगाने की नौबत दो-चार महीने में एक बार आती थी। नीचे लोहे के दरवाज़े, ग्रिल, कंडाल,कड़ाही बनाने का कारखाना था। बीच की मंजिल पर खराद मशीन की शक्ल वाले कुछ सेल्समैन, छात्र और पत्रकार किराये पर आ बसे थे। कमरे में मेज़ पर एक हीटर, कुकर, कुछआलू, चावल का कनस्तर और आलमारी में आधा-पौना रम की बोतल हमेशा उपलब्ध रहते थे। किसी रिपोर्टिंग असाइनमेंट से लौटने के बाद बाहर से आया कोई दोस्त या परिचितअक्सर आबाद मिलता था। अरविंद चतुर्वेद भी कलकत्ते से आये और अपना बैग रखकर तहरी के लिए मटर छीलने लगे। कमरे की हालत का मुआयना करते हुए उन्होंने कहा,काधिक बार मैंने भी च्यवनप्राश के साथ रोटी खायी है।

हाँ, कोई खास बात नहीं है। कवियों के साथ कभी-कभार ऐसा हो जाता है। उन्हें पता नहीं चलता कि कब सारी दुकानें बंद हो गयीं, शहर सो गया। तब जो मिले, उसी से काम चलानापड़ता है।

शाम उतर आयी। आठ-साढ़े आठ का समय होगा। कुछ ऐसा हुआ कि मटर की छीमियों में सड़कें बन गयीं, जिनके किनारे विक्टोरिया युग के लैपपोस्ट थे, ढलवां लोहे की लंगड़ी बेन्चेंथीं। छिलकों में कलकत्ते के कीचड़-कादो से लथपथ ऊबड़-खाबड़, हरे बदरंग मोहल्ले दिखाई देने लगे, जिनके बीच में कहीं-कहीं खपरैल वाले मकान थे। थाली में लुढ़कते दानों मेंएक पीली छत वाली एम्बैसडर टैक्सी चल रही थी जिसमें नवारुण भट्टाचार्य और अरविंद चतुर्वेद बैठे थे। किसी गोष्ठी से लौट रहे होंगे। अरविंद ने कहा, नवारुण दा, ऐसा करते हैं किकिसी बार में दो-दो पेग रम पीकर तब घर जाते हैं।

नवारुण ने जतीन दास पार्क के मेट्रो स्टेशन के सामने टैक्सी रुकवाई। गाजा पार्क के बगल में सड़क के मुहाने पर एक पुरानी धूसर इमारत के दूसरे तल्ले पर एक बिना साइनबोर्ड काबार था। बालकनी से होकर गुजऱते एक संकरे गलियारे में ऊंघते दरवाज़े के पीछे एक बूढ़ा जर्जर हॉल था। बल्ब की पीली मटमैली रोशनी। बहुत पुरानी नाटे क़द की चौड़ी मेज़ें औरउधड़े गद्दों वाली सो$फानुमा कुर्सियाँ। कम से कम दो पीढ़ी पुराना बार होगा। खालीपन के एक नुकीले कोने में दो बुजुर्ग व्हिस्की पी रहे थे। नवारुण ने दो नहीं, तीन पेग पीने के बादपनीली आँखों से देखते हुए गाजा पार्क की ओर हाथ उठाया, इसी बगल के पार्क में मेरा बचपन गुजऱा है। हम यहीं माँ-बाबा के साथ पास में रहते थे। एक सुबह पार्क में आया, तो देखताहूँ बेंच पर काकू; फिल्मकार ऋत्विक घटक, जो महाश्वेता देवी से उम्र में थोड़े ही बड़े थे मगर उनके काका थे, बैठे हैं। वे रात भर उसी बेंच पर सोये रह गये थे। उन्होंने पास बुलाया,मुझसे एक चाय और बंद मंगाकर खाया। उन्हें भूख लगी थी। कहा, माँ-बाबा को बताना मत।

टैक्सी दोनों को लेकर कहीं चली गयी। अब महाश्वेता देवी कंधे पर बड़ा-सा थैला टांगे बाँट रही थीं। वे पोस्टमैन थीं। एक दिन घर आये अरविंद को धमका रही थीं, आजकल नवारुण केसाथ ज्य़ादा दोस्ती हो रही है। देखना, तुमको भी डायबिटीज़ हो जाएगी। फिर देखा, एक तौलिया भिगोकर अरविंद के सिर पर रगड़ रही थीं। कह रही थीं, जब मैं बहुत थक जाती हूँ, तोऐसा ही करती हूँ। वह आदिवासियों का एक वाकय़ा सुनाने के बाद कह रही थीं, इसे तुम लोग लिख मत देना। यह मेरा अपना प्लाट है। भूल न जाऊं, इसलिए सुना दिया।

अचानक अरविंद चतुर्वेद ने कहा, आपके पास कुछ कविताएं होनी चाहिए!

मुझे थाली में पहली बार मटर के दानों के गिरने की टंकार सुनाई दी। मैंने काफी दिन पहले कविता जैसा कुछ बनाया तो था लेकिन लगता है यह आदमी नारियल घुमाकर कविताखोजने निकला है क्या। बचपन में एक ऐसे आदमी को देखा था जिसे कुआं खोदने का संकल्प कर लेने के बाद धरती के नीचे भरपूर पानी वाली जगह खोजने के लिए बुलाया जाता था।वह मंत्र से पवित्र किये गये सूत में बंधा नारियल झुलाते हुए खेतों में घूमता था। जिस जगह नारियल नाचने लगता था, निशान लगा दिया जाता था। उसका कहना था कि नारियल केभीतर का पानी ज़मीन के पानी को पहचान लेता है।

मैंने थोड़ी ही देर पहले एक स्वयंभू संपादक का जि़क्र किया था, जिसने अपनी पत्रिका का पहला अंक भेजा था और अब समीक्षा लिखने के लिए एसएमएस भेजकर चरस किये हुए था।कविताएं घटिया थीं, कहानियाँ अपठनीयता की हद तक लद्धड़, लेख पुराने और संपादक के आत्मप्रचार के नमूने पन्नों पर बेशर्मी से बिखरे हुए थे। मैंने बिना पढ़े ही एक कोने में फेंकदिया था। अरविंद चतुर्वेद ने गंभीरता में इतने गहरे धंसी कि न दिखने वाली शरारत से कहा था- जवाब दे दीजिए : प्रयास अच्छा है। आप जैसे विद्वान से और सुधार अपेक्षित है।शुभकामनाएं। सेट लैंग्वेज है। ऐसे ही कहा जाता है।

अगली शाम कवि ज्ञानेंद्रपति आये। मुझे कविता से कहीं बहुत अधिक उनकी जि़ंदगी आकर्षित करती रही है। उन्होंने बहुत पहले नौकरी-दुनियादारी छोड़कर बनारस में सिर्फ एककवि बने रहना चुन ही नहीं लिया था, इसे संभव भी कर दिखाया। मैं उनसे पूछा करता था, मैं ऐसी जि़ंदगी कब जी पाऊंगा? वह हैरान करने वाली उदासीनता में छिपे चुप्पे आत्मविश्वाससे कहते थे- हो जाएगा, सब पहले भीतर होता है।

हम लोग मलदहिया के एक देसी ठेके पर जा बैठे, जहां जाली के भीतर बोतलों के आगे एक लंगोट सूख रहा था। शोर, सौजन्य, बांग्ला कवियों, कलकत्ता के अड्डों और चेतना पारीख परबातचीत के बीच अचानक मैंने विनय श्रीकर को देखा, जो कुछ दूरी पर अकेले बैठे नमक के साथ पी रहे थे। नशा लगभग हिरन ही हो गया क्योंकि मेरी एक आँख उनकी हरक़तों सेचिपक गयी थी। मामला ही कुछ ऐसा था कि वह निकलने लगे, तो मैं भी चुपचाप उठकर पीछे लग लिया। बाद में अरविंद चतुर्वेद ने बताया, ज्ञानेंद्रपति को लगा था कि मैं किसी बात सेदुखी होकर चला गया हूँ। दोनों ने काफी देर मेरा इंतज़ार किया, आसपास खोजा और लौट गये।

अगले साल अरविंद चतुर्वेद फिर बनारस आये। इस बार साज़ोसामान के साथ। जगतगंज में अपने बालसखा भोला यानी जीतेंद्र मोहन तिवारी के घर के सामने एक कमरा किराये परलेकर रहने लगे। कलकत्ते में रहने के औचित्य बहुत थे। एक दशक से भी अधिक पुराने संपर्कों-संबंधों का जाल था, जो उन्हें जनसत्ता से वीआरएस लेने के बाद बड़े आराम से थामसकता था और वह उस समय नवारुण भट्टाचार्य की पत्रिका ‘भाषाबंधन’ में संपादक थे, जो बांग्ला में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की साझा पत्रिका थी। लेकिनकलकत्ते का ही औचित्य शायद नहीं रह गया था क्योंकि उनकी गर्लफ्रेंड मुनमुन सरकार की मृत्यु हो गयी थी। मुनमुन ने तसलीमा नसरीन की लज्जा समेत छह किताबों का बांग्ला सेहिन्दी में अच्छा अनुवाद किया है और नवारुण के प्रसिद्ध उपन्यास हरबर्ट का भी।

अब उनकी खबर भोला से मिलती थी।

कबीरचौरा अस्पताल के सामने से गुजऱो, तो अपने मेडिकल स्टोर के काउंटर पर आधे से अधिक बाहर लटके भोला पान की पीक मारते हुए चिल्लाते थे- काहो अरविंदवा से भेंटभयल?

-काहे!

-अरे, हमसे बाल फिर से जमाने वाली दवाई माँग रहा था। और कोई बात नहीं है।

अरविंद चतुर्वेद में अपने वक़्त यानी सत्तर के दशक का बनारस भूसे की तरह भरा हुआ था।

बीएचयू कैम्पस की व्यवस्थित हरियाली पार कर लेने के बाद लंका का मद्रास कैफ़े था, जिसके आगे लंवगलता-लस्सी की दुकान थी, फिर कभी-कभार साइकिल का पैडिल मारने परभी काम चला देने वाली अस्सी तक की ढलान थी।

साइकिल पर बैठने के पहले के समय में एक जगह थी, जहाँ नया भारत बनाने के लिए कसमसाता प्रगतिशील कि़स्म का राष्ट्रवाद था, नेहरू के घर में अखंड आशावाद की कलारी थी,जिसका माल किसी भी किस्म के समाजवाद के साथ मिलाकर पीने पर नशा कर्रा होता था लेकिन हैंगओवर बहुत बुरा था। किसी गरीब को कुछ मनहर गानों के अलावा कुछ नहींमिला था और नेहरू मर गये। मरते समय उन्होंने अपनी राख हवाई जहाज से देश पर बिखराने को कहा था। वह जहाँ-जहाँ गिरी, वहाँ जो जऱा रूमानी और आधुनिक था और अधिकहरा हो रहा था। सफर में नीम की दातुन का गड्डा और पान का चौघड़ा लेकर चलने वाले देहाती काशीनाथ सिंह तब जीन्स पहनने लगे थे। जीन्स का ही झोला लटका, लाल रंग कीसाइकिल से बीएचयू के हिन्दी विभाग आते थे, जो गुलमोहर के नीचे खड़ी होती थी। पालि की क्लास के बाद अपने चैंबर में अरविंद को बुलाकर कहते थे, आर्य, अब आप सिगरेट पीएंऔर मुझे भी एक पान खिलाएं। उन्होंने तब ‘अपना मोर्चा’ उपन्यास लिखा था, जिसका अब कोई नाम भी नहीं लेता।

पच्चीस साल बाद मैंने देखा, धवल धोतीधारी काशीनाथ सिंह ‘हंस’ में ‘देख तमाशा लकड़ी का’ और ‘काशी का अस्सी’ छपने के बाद गद्गद आत्मीयता से स्वीकार कर रहे थे- अहिरा;राजेंद्र यादव ने हमको अमर कर दिया।

नक्सलबाड़ी कुचला जाकर फ्लाप हो चुका था लेकिन वसंत के वज्रनाद की गूँज़ हवा में थी। जवान रीढ़ों में झुरझुरी थी- हो सकता है, हो सकता है। रूस, चीन से आई किताबें खासतौरसे उपन्यास बेहद सस्ते थे। अभी क्रांतिकारियों की जात देखकर भी नहीं देखी जा रही थी लेकिन कहाँ चूक हुई, इसके लिए एक जटिल तकनीकी भाषा में मूल्यांकन चल रहा था।लोफर लौंडे भी जानते थे कि एक क़दम आगे दो क़दम पीछे का क्या मतलब है। समाज बदलने के अधिक वैज्ञानिक तरीकों की खोज़ की जा रही थी, इसलिए दुर्गाकुंड पर सर्वहाराक्रांति के लिए वाजि़ब साहित्य व अन्य संस्कृतिकर्म की रचना को लेकर डॉ. रामनारायण शुक्ल, जलेश्वर उफऱ् टुन्ना, ओमप्रकाश द्विवेदी, श्रीकांत पांडेय, राजशेखर के साथ की जानेवाली लंबी बहसें थीं। बगल में रवींद्रपुरी से लगी, जो मेहतर बस्ती थी उसके वर्गीय चरित्र की व्याख्या सर्वहारा मानकर की जा रही थी। यह अंदाज़ा लगाना असंभव था कि वे सब भविष्यकी मायावती यानी दौलत की बेटी के वोट थे। टेम्पर इतना था कि तभी अरविंद ने बनारस शहर में बने रहने के लिए ‘आज’ अखबार की नौकरी कर ली और उन्हें पूँजीवाद का  घोषितकर दिया गया।

इंदिरा ने इमरज़ेंसी लगा दी थी तो क्या हुआ, पीठियाठोंक जेपी आंदोलन भी था। गोदौलिया पर ‘द रेस्टोरेंट’ और तांगा स्टैंड था जहाँ विरोध सभाएं हुआ करती थीं। कुछ नौजवानों कोबर्दाश्त नहीं था कि आदमी आदमी को खींचे, इसलिए वे रिक्शे पर नहीं बैठने का काम किया करते थे। अभी मुसलमान होना पाप नहीं बना था। चौराहों पर ऐसी बिरहा सुनी जा सकतीथी, जिसमें हनुमान जी अमेरिका जाते हैं और किसी डिपार्टमेंटल स्टोर में बहुत छोटे, अजनबी कपड़ों में सजी मेनिक्विन को सीता माता समझ कर चकित होते हैं।

भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद था लेकिन विद्रोही चिंतन और घर के भीतर प्रतिपक्ष भी था। कोई ज़रूरी नहीं था कि बाप अगर बेईमानी करके बेटे को रेस जिता दे, वह उसे पूजनीय भीमानने लगे। हिन्दी विभाग में सिफऱ् दो कारें थीं। एक महाप्रतापी प्रोफेसर विजयपाल सिंह की, दूसरी सेकेंड हैंड टाइप कमलिनी मेहता के पास। विजयपाल सिंह के लड़के ने एम. ए. मेंगोल्डमेडल लाने वाले नामवर सिंह और शिव प्रसाद सिंह दोनों का रिकार्ड एक साथ तोड़ा था और जे.एन.यू. से लौटकर एम.ए. को पत्रकारिता का वह विशेष प्रश्न पत्र पढ़ाने लगा था, जोछात्र व्याखाता के तौर पर अरविंद पढ़ाया करते थे। आता-जाता कुछ था नहीं, क्लास में भयभीत वन्यपशु की तरह बचता फिरता था। जिस रोज़ कोई लड़का सवाल पूछ दे, तो घरलौटकर विजयपाल सिंह को केहुनाठय केहुनाठ मारता था- वहाँ रोज़ मेरा मज़ाक उड़ता है। बेइज्ज़ती कराने के लिए लेक्चरर बनवा दिये हो!

स्वाधीन ढंग से सोचने वाले, वर्जनाएं तोडऩे वाले, अपनी जि़ंदगियों के साथ निर्मम प्रयोग करने वाली स्वाधीन युवा आत्माओं की कमी नहीं थी। रीवा कोठी छात्रावास की खिड़की थी,जहाँ से खाली दोपहरी में पंडों की लंगड़ी छतरियाँ और नदी में हिलती छूँछी नावें दिखाई देती थीं।

एक दिन मैंने देखा कि वह नखलऊ में एक अखबार में संपादक लगे थे और अब जीवन के केंद्र में नौकरी आ गयी थी। बीच के बीते दिनों का निचोड़ कहने लगे- भौगोलिक नहीं, समयकी दूरी मायने रखती है। साला, बनारस में अब सिफऱ् पुराना साइनबोर्ड बचा है। मैंने पाया कि गोदौलिया पर मक्खियाँ बहुत बढ़ गयी हैं, ठंडाई पर हरी काई जमी है, भीड़ भयावह है,परमसुपरिचित जगहों पर भी जा पाना दुरूह, टेलर मास्टरों के गले में हमेशा लटकने वाला फीता उतर चुका है, अब सब कुछ रेडिमेड है, हर जगह विज्ञापन के बोर्ड हैं, जो भी आत्मीयऔर पहचाना थाए वह जादू के जोर से गायब हो चुका है। सब ओर पलस्तर झर रहा है। इंतज़ार किया जाए तो जो दिखता है, वही बदरंग और कुरूप निकलता है। शंख घोष की कवितायाद आती है-

एकला हए दांडि़ए आछी

तोमार जन्य गलिर कोने

भाबी आमार मुख देखाबो

मुख ढेके जाय विज्ञापने।

एकटा दूटा सहज कथा

बोलबो भाबी चोखेर आड़े

जौलूशे ता झलसे उठे

विज्ञापने रंगबाहारे।

(तुम्हारे इंतजार में अकेला खड़ा हूँ। गली के मोड़ पर। सोचता हूँ दिखाऊंगा अपना मुखड़ा। चेहरा ढँक जाता है विज्ञापन से। सोचता हूँ सहज ही एक-दो बातें करूँगा नज़रों की ओट से।लेकिन भीड़ में विज्ञापन की रंगीनियों में वह चौंधिया रहा है।)

भूल गया था, इसी बीच में उदारीकरण हुआ और दुनिया एक गाँव भी तो बन गयी थी। घोड़ा अस्पताल पर बरगद के नीचे चाय की दुकान पर मिलने जाओ, तो लगता था जैसे कोईकिलनी चिपकी हुई है। एक चाय, एक सिगरेट और आधा गाल बतकही के बाद धागा खट्ट से टूट जाता था, ‘चलें यार, दफ़्तर में बहुत काम है।’

मैं नकली हैरानी और खांटी उपेक्षा से देखता था, ‘ऐसा क्या काम है।’

‘है यार, आप समझ नहीं रहे हैं। आदमी कम हैं। अभी जो स्थिति है, उसी में दफ़्तर से निकलते-निकलते बारह बज जाता है।’

मैं यह सोचकर उनकी उपस्थिति से ही कपट अनजान हो जाता था कि उपेक्षा का असर पड़ेगा और वे थोड़ी देर और बैठेंगे लेकिन वे तो सचमुच पछताते हुए क़दमों से दफ़्तर की ओरचल देते थे। मैं सोचता था कि आदमी सदा से किरानी रहा होगा या इन दिनों बदल कर ऐसा कामी हो गया है।

आखिरकार एक दिन मैं यह देखने दफ़्तर के भीतर गया कि यह आदमी काम कैसे करता है। मैंने पाया कि किसी कॉपी को एडिट करने या लेख पर हेडिंग लगाने के बाद कम्यूटर केकी-बोर्ड पर इतनी जोर से हाथ मारता है कि लगता है, वह टूट जाएगा। क्या उसे पता नहीं है कि हल्का-सा कमांड पाने के बाद $फाइल अपने आप जहाँ भेजी जा रही है, साइबर स्पेसमें तैरती हुई पहुँच जाएगी। पता था, लेकिन यक़ीन नहीं…कम्प्यूटर छकड़ा था, यह आदमी पल्लेदार की तरह पूरी ताकत लगाकर खबरों और लेखों में भरे अक्षरों के वजन का अनुमानलगाते हुए वाजि़ब डेस्कों और प्रिंटर तक पहुँचा रहा था, जिससे अक्सर सांस उखड़ जाती थी। प्रिंटर से निकलते कागजों पर असुरक्षा भी छपी होती थी लेकिन कोई उसे देख नहीं पाताथा क्योंकि सभी उसके नजऱबंद में काम कर रहे थे।

मैं एक रात उन्हें दफ़्तर से उठाकर त्रिपुर सुंदरी का लॉन दिखाने ले गया। यह बरसात के दिनों में ला मार्टिनियर कॉलेज और अंबेडकर पार्क के बीच की बढिय़ाई गोमती नदी थी,जिसके दोनों किनारों पर ऊपर सड़क तक बोल्डर जड़ दिये गये थे। रात में जब गोमती नगर को जाने वाले पुल, अंबेडकर पार्क के आगे नदी के पुश्ते पर लगे लैंपपोस्टों की रोशनियाँपानी पर पड़ती थीं और दूसरे छोर पर दिलकुशा के पास अंधेरे में कोई रेलगाड़ी नदी पार कर रही हो, तो खुशी और उदासी का अज़ीब सा मेल होता महसूस होता था। पुरवाई से पानीमें लहरें उठती थीं, तब नदी का पाट रोशनियों के वन में बदल जाता था। प्रकाश का यह जादू अँधेरे और हल्के नशे में ही चलता था वरना दिन में तो किसी रेगिस्तानी किले जैसाअम्बेडकर स्मारक था, किलोमीटरों तक चिलचिलाते बोल्डर थे, जिन पर सूखते गू से बचकर चलना पड़ता था। नदी में प्लास्टिक की पन्नियाँ, रसायनों का झाग और शहर का कचराभरा था। दुर्गंध के भभके बेचैन किये रहते थे। हम दोनों काफी देर तक बोल्डरों पर बैठे साथ में लाए तरल की चुस्कियाँ लेते सौंदर्य पर मुग्ध होते रहे। मोटरसाइकिल से वापस लौटते हुएख्याल आया, क्या कविता और साहित्य की दुनिया इस त्रिपुर सुंदरी के लॉन जैसी ही नहीं है जिसमें हम लोग रहते हैं?

-हाँ यार बात तो कुछ ऐसी ही है लेकिन किया क्या जाए!

सोशलिस्टों ने कुछ किया हो या नहीं, भाषा को कुछ शब्द बहुत सटीक दिये हैं। ऐसे ही एक पद ‘निराशा के कर्तव्य’ की याद बेसाख्ता आयी, जब देखा कि अरविंद चतुर्वेद फेसबुक परइस फ्यूजऩ के ज़माने में खालिस दोहे लिख रहे हैं और हर दोहे में जो कहा जा रहा है, उसका पहला श्रोता बांकेलाल है।

मैंने उसे पहचान लिया। उसका असली नाम कुछ और है लेकिन उस पर हिक़ारत की इतनी धूल पड़ी है कि कोई उसके नाम से पुकारे, तो वह चौंक कर किसी और को देखने लगेगा।मूर्ख समझे जाने की हद तक लटक कर भी हमेशा मुस्काने वाला बांकेलाल चरकोनवां का रहने वाला है। उसके दो ही शौक हैं महुए की शराब और मछली। मछली तो वह गाँव केतालाब से बंसी डालकर पा लेता है लेकिन महुए के लिए काम करना पड़ता है। कभी उसका पुलिस से सीधा पाला नहीं पड़ा लेकिन उसे खाकी वर्दी से बहुत डर लगता है। यह डरगाजर-मूली लोगों को ही नहीं, पुलिस वालों को भी पुलिस वालों से लगता है। वह अपने बेटे के विवाह के मंडप से एक वर्दी में आये होमगार्ड को देखकर पेशाब करने के बहाने भागखड़ा हुआ था, जो दरअसल दुलहिन का मामा था। प्रधानी और विधायकी के चुनाव में मतदान के दिन वह छिपकर बैठ जाता है क्योंकि उस दिन पोलिंग बूथ पर पुलिस वाले तैनात होतेहैं। उससे वोट डलवाने के लिए उम्मीदवारों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, पुलिस वालों को जऱा देर के लिए इधर-उधर हटाना पड़ता है। ये दोहे निराशा के कर्तव्य के पालन मेंउसी बांकेलाल से कहे गये हैं।

धोनी का दस्ताना विवाद

खेलों की दुनिया भी विवादों से अलग नहीं है। चाहे ओलंपिक खेल हों या क्रिकेट कुछ न कुछ होता ही रहता है। आजकल चल रहे विश्व कप क्रिकेट मुकाबलों में भीऐसा ही वाकया सामने आया है। भारतीय विकेटकीपर महेंद्र सिंह धोनी ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ मैच में जो दस्ताने पहने थे। उन पर ‘बलिदानÓ का बैज लगाथा। कैमरे में यह निशान पकड़ में आ गया। इसके उपरांत यह मामला तूल पकड़ गया। आईसीसी ने इसे गंभीरता से लिया। धोनी को ये दस्ताने न पहनने कीहिदायत दी। शुरू में बीसीसीआई ने धोनी के हक में तर्क रखने की कोशिश की, इसे राष्ट्रवाद, देशप्रेम और सेना से जोडऩे का भी प्रयास किया लेकिन आईसीसी इसेमानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। आईसीसी का कहना था कि विश्व कप के नियमों का उल्लंघन सहन नहीं किया जा सकता।

इस मुद्दे को सोशल मीडिया पर उछाला गया। वे लोग जिन्हें शायद न तो क्रिकेट की समझ है और न ज्ञान है आईसीसी के नियमों पर वे सबसे ज़्यादा भड़काऊटिप्पणियां कर रहे थे। इतना ही नहीं कुछ ऐसे पूर्व और मौजूदा खिलाडी भी इस मामले को तूल दे रहे थे। जिन्होंने आईसीसी के नियम नहीं पढ़े या जाने थे। लेकिनइन बातों से उत्तेजित हुए बिना बीसीसीआई ने धोनी से उस बैज को हटा देने को कहा। इस प्रकार धोनी ने आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेले दूसरे मैच में दस्तानों पर वहबैज नहीं लगाया।

क्रिकेट के इतिहास में यह पहला अवसर नहीं है जब इस प्रकार का विवाद सामने आया है। 2014 में भारत-इंग्लैंड शृंखला के तीसरे मैच के दौरान मोइन अली नेगेंदबाजी करते वक्त जो ‘रिस्ट  बैंडÓ पहन रखा था उस पर ‘गाजा बचाओÓ और ‘फिलिस्तीन को मुक्त करोÓ लिखा था।  इस पर मैच रैफरी ने मोइन को चेतावनीदी। रेफरी ने यह कहा कि कोई भी खिलाड़ी मैदान से बाहर अपने किसी प्रकार के विचार रखने के लिए स्वतंत्र है लेकिन मैदान पर यह सब नहीं चल सकता। उससमय आईसीसी ने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय मैच के दौरान राजनीतिक, धार्मिक या नस्ली गतिविधियों से जुड़े संदेशों का प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं दी जासकती।

2017 में भी ऐसा ही एक मामला इमरान ताहिर के साथ हुआ था। दक्षिण अफ्रीकी इस गेंदबाज ने श्रीलंका के खिलाफ टी-20 मैच में विकेट लेने के बाद अपनी जर्सीऊपर कर ली। जर्सी के नीचे पाकिस्तानी धार्मिक उपदेशक की तस्वीर लगी थी। इसी कारण आईसीसी ने ताहिर को फटकार लगाई थी।

यह नियम केवल आईसीसी ही नहीं बनाती बल्कि सभी खेल संगठन ऐसा करते हैं। इसका कारण बस इतना ही है कि मैदान में किसी भी प्रकार के राजनीतिक, धार्मिक या नस्ली गतिविधि को रोका जा सके। इसके साथ ही राजनीति को खेल से दूर रखा जा सके।

इस मामले में सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि महेंद्र सिंह धोनी एक वरिष्ठ खिलाडी हैं। कई सालों से हर स्तर पर क्रिकेट खेल चुके हैं। क्या उन्हें यह अहसासनहीं था कि आईसीसी के नियम उन्हें ‘बलिदानÓ का बैज लगाने की इज़ाजत नहीं देते। कानून की जानकारी न होना कोई बहाना नहीं होता। इसी प्रकार आईसीसी केनियमों की जानकारी न होना कोई बहाना नहीं बन सकता। इस बात को कुछ लोग राष्ट्रवाद से जोड़ कर देख रहे हैं। असल में राष्ट्रवाद से इसका कुछ लेना देना नहींहै। मैदान के अंदर वहां के नियमों का पालन करना अनिवार्य है। नियमों का मानना ही खेल भावना का परिचायक है। आईसीसी के नियमों में स्पष्ट है कि दस्तानों परकेवल उन्हें बनाने वाली उद्यौगिक इकाई का लोगो हो सकता है। वह भी पूरी इज़ाजत लेने के बाद। इस मामले में धोनी के पास इसके दस्ताने पर केवल दस्तानों केउत्पादक ‘एसजीÓ का ‘लोगोÓ लगाने की इज़ाजत थी।

आईसीसी की नियमों की पुस्तिका में साफ लिखा है कि क्रिकेट की ‘किटÓ और उसकी ‘वर्दीÓ (खेलने के कपडे) खेलने का सामान पर राष्ट्रीय ‘लोगोÓ, व्यवसायिकलोगो, इवेंट का लोगो, उत्पादक का लोगो, खिलाडी के बैट का लोगो, ‘चैरिटी का लोगो,Ó गैर व्यवसायिक लोगो जो कि नियमों के तहत हो, और कोई लोगो नहींलगाया जा सकता। इसके साथ ही यदि किसी मैच अधिकारी को पता चल जाए कि किसी खिलाडी के कपड़ों या सामान पर ऐसा चिन्ह है जो नियमों के खिलाफ है तोवह मैच अधिकारी ऐसे खिलाडी को मैदान में आने से भी रोक सकता है।

जो लोग धोनी के दस्तनों पर ‘लोगोÓ लगाने को उचित ठहरा रहे हैं उनकी दलील है कि हमेें अपनी सेनाओ का मान-सम्मान करना चाहिए। इसके अलावा पाकिस्तानको भी इस माध्यम से संदेश दिया जाना चाहिए। बाकि हर व्यक्ति की कुछ अपनी राय और पसंद भी होती है। धोनी विशेष बल के मानद लेफ्टिनेंट कर्नल हैं, उन्होंनेअपनी योग्यता से यह प्रतीक हासिल किया है। इसे छीना नहीं जा सकता। पर प्रश्न यह है कि क्या यहां मैदान में भारतीय सेना या विशेष बल क्रिकेट खेल रहे हैं? नहींयह टीम पूरे राष्ट्र की टीम है जिसमें समाज के हर तबके के खिलाड़ी है। सभी सैनिक नहीं है। देश में अपनी सेनाओं का सम्मान तो सभी करते हैं पर हमारे देश केभीतर जो कुछ पाकिस्तान कर रहा है उसका विरोध देश की टीम विदेशी धरती पर क्रिकेट खेलते समय करे यह सही नहीं। चाहे कितना भी विरोध हो पर खेल केनियमों और खेल भावनाू9 को दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए। यदि ऐसा करने की इजाज़त दे दी जाए तो हमारे विरोधी भी सैन्य वर्दी पहन कर मैदान में आ जाएगेतो क्रिकेट कहां जाएगा।

प्रसिद्ध लेखक जार्ज ऑरवेल ने अपने एक लेख द स्पोर्टिग स्प्रिट यानी खेल भावना में लिया था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर का खेल युद्ध केसमान है। इसमें से झलकती है पूरेदेश के लोगों की परछाई। भारत और पाकिस्तान के बीच के मुकाबले हमेशा ही तनावपूर्ण होते हैं। पर यह तनाव केवल मैच के दौरान मैदान तक ही रहता है। मैचके बाद मैदान के बाहर टीमें सदा दोस्ती के साथ रही। ध्यान रहे कि जब 1971 की जग लड़ी जा रही थी तो सुनील गावस्कर और जहीर अब्बास ने आस्ट्रेलिया में विश्वएकादशा की टीम के लिए इकट्ठे बल्लेबाजी की थी। इसके अलावा 1999 में जब भारत और पाकिस्तान दोनों इंग्लैंड में विश्व कप खेल रहे थे उस समय कारगिल मेंलड़ाई चल रही थी। पर दोनों टीमों में कोई तनाव नहीं था। इस तरह खेल और जंग दो अलग चीज़ें हैं और खेल को इनसे मुक्त रखना ही समझदारी है।

 क्रिस गेल को भी इजाज़त नहीं

आईसीसी ने सिर्फ महेंद्रसिंह धोनी के ‘बलिदान बैज़Ó वाले विकटकीपिंग दस्तानों के पहनने का अनुरोध खारिज नहीं कियाबल्कि वेस्टइंडीज के तूफानी बल्लेबाजक्रिस गेल पर  ‘यूनिवर्स बॉसÓ लोगो के इस्तेमाल की अनुमति देन से भी इनकार कर दिया।

इन दोनों ही मामलों में उपकरण नियमों के उल्लंघन का हवाला दिया गया। खुद को ‘यूनिवर्स बॉसÓ कहने वाले क्रिस गेल ने आईसीसी से अपने बल्ले पर इसकेइस्तेमाल की अनुमति देने का अनुरोध किया था। उन्हें सूचित कर दिया गया है कि वे किसी भी निजी संदेश लिए किसी भी कपड़े या खेल उपकरण का इस्तेमाल नहींकर सकते।

सूत्रों के अनुसार आईसीसी धोनी के लिए अपवाद नहीं बना सकती थी क्योंकि किसी भी व्यक्तिगत संदेश को उपकरण पर लगाने की अनुमति नहीं दी जाती।आईसीसी ने सिर्फ महेंद्रसिंह धोनी के ‘बलिदान बैज़Ó वाले विकटकीपिंग दस्तानों के पहनने का अनुरोध खारिज नहीं किया बल्कि वेस्टइंडीज के तूफानी बल्लेबाजक्रिस गेल पर  ‘यूनिवर्स बॉसÓ लोगो के इस्तेमाल की अनुमति देन से भी इनकार कर दिया।

इन दोनों ही मामलों में उपकरण नियमों के उल्लंघन का हवाला दिया गया। खुद को ‘यूनिवर्स बॉसÓ कहने वाले क्रिस गेल ने आईसीसी से अपने बल्ले पर इसकेइस्तेमाल की अनुमति देने का अनुरोध किया था। उन्हें सूचित कर दिया गया है कि वे किसी भी निजी संदेश लिए किसी भी कपड़े या खेल उपकरण का इस्तेमाल नहींकर सकते।

सूत्रों के अनुसार आईसीसी धोनी के लिए अपवाद नहीं बना सकती थी क्योंकि किसी भी व्यक्तिगत संदेश को उपकरण पर लगाने की अनुमति नहीं दी जाती।

अलविदा क्रिकेट: युवी

19 साल की उम्र में भारत के लिए डेब्यू करने वाले, 2007 के टी20 वल्र्ड कप के टॉप परफॉर्मर, एक ओवर में छह छक्के लगाने वाले, 2011 के वल्र्ड कप के मैन आफ द टूर्नामेंट और कैंसर को मात देने वाले योद्धा युवराज सिंह ने सोमवार (10 जून) को क्रिकेट को अलविदा कह दिया। अब उनके प्रशंसक उन्हें नीली जर्सी पहले मैदान में फिर नहीं देख सकेंगे। परन्तु उनकी खेली गई यादगार पारियां उनके दिलों- दिमाग में हमेशा रहेंगी। क्रिकेट के इतिहास में युवराज का नाम उन खिलाडिय़ों में गिना जाता है जिन्होंने अपने करियर और जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच भी एक ऐसा मुकाम हासिल किया, जो किसी अन्य खिलाड़ी के लिए हासिल करना काफी कठिन है।

प्रतिभा के धनी इस करिश्माई खिलाडी को सीमित ओवरों की क्रिकेट का दिग्गज माना  जाता है लेकिन उन्होंने इस टीस के साथ संन्यास लिया कि वे टेस्ट मैचों में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं  कर पाए।

बाएं हाथ के इस बल्लेबाज ने कई बार परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोडऩे का प्रयास किया। 37 वर्षीय युवराज ने संवाददाता सम्मेलन में कहा, ‘मैंने 25 साल 22 गज की पिच के आसपास बिताने और लगभग 17 साल अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने के बाद आगे बढऩे का फैसला किया है। क्रिकेट ने मुझे सब कुछ दिया  और यही वजह है कि मैं आज यहां पर हूं। उन्होंने कहा,” मैं बहुत भाग्यशाली रहा कि मैंने भारत की तरफ से 400 मैच खेले। जब मैंने खेलना शुरू किया था तब मैं इस बारे में सोच भी नहीं सकता था। उन्होंने कहा,” यह इस खेल के साथ एक तरह से प्रेम और नफरत जैसा रिश्ता रहा। मैं शब्दों में बयंा नहीं कर सकता कि वास्तव में यह मेरे लिए कितना मायने रखता है। इस खेल में मुझे लडऩा सिखाया। मैंने जितनी सफलताएं अर्जित की उससे अधिक बार मुझे हार मिली पर मैंने कभी हार नहीं मानी।

अपने प्रशंसकों के बीच युवी के नाम से मशहूर युवराज ने सौरव गांगुली की कप्तानी में अपना करियर शुरू किया था और सचिन, द्रविड, और कुंबले, जैसे लीजैंड के साथ खेला। भारत के बेहतरीन ऑलराउंडर में से एक युवी ने क्रिकेट के सभी प्रारूपों में कई अह्म पारियां खेली और भारत को जीत दिलवाई।

क्रिकेट करियर

युवराज ने 40 टेस्ट, 304 वनडे और 58 टी-20 मैच खेले। उन्होंने सन 2000 में 19 साल की उम्र में टीम इंडिया की तरफ से केन्या के खिलाफ पहला वनडे मैच खेला था। उन्होंने 304 वनडे मैचों में 8701 रन बनाए। इसमें उनके 14 शतक और 52 अद्र्धशतक शामिल हैं।

युवराज ने अपने करियर का पहला टेस्ट मैच 2003 में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला। 40 टेस्ट मैच में उन्होंने 1900 रन बनाए। टेस्ट करियर में 32 शतक और 11 अद्र्धशतक उनके नाम हैं। इस टेस्ट सफर में उन्होंने 260 चौके और 22छक्के भी लगाए।

युवी ने अपना पहला टी-20 मैच स्काटलैंड के खिलाफ खेला था। उन्होंने टी-20 फॉरमेट में 58 मैचों में 1177 रन बनाए। दक्षिण अफ्रीका में 2007 में खेले गए टी-20 विश्व कप में उनकी उपलब्धि का कोई सानी नहीं है। उन्होंने इंग्लैंड के गेंदबाज स्टुअर्ट ब्रॉड के एक ओवर में छह छक्के लगाए थे जिसे क्रिकेट प्रेमी कभी भूल नही पाएंगे। उन्होंने 12 गेंदों में 50 रन बनाकर सबसे तेज अद्र्धशतक बना था।

युवराज आईपीएल 2015 में सबसे मंहगे खिलाडी थे। उन्होंने अपना पहला आईपीएम मैच मुंबई इंडियंस की तरफ से खेला था।

उन्होंने विश्व कप 2011 में अपनी ऑलराउंडर क्षमता का शानदार नमूना पेश किया था। उन्होने 362 रन बनाए और 15 विकेट भी लिए। इस विश्व कप में उन्हें चार मैचों में मैन ऑफ द मैच और बाद में मैन ऑॅफ द टूर्नामेंट चुना गया।

युवराज ने कहा, ”विश्व कप जीतना, मैन ऑफ द टुर्नामेंट बनना सब सपने जैसा था जिसके बाद कैंसर से पीडित होने के कारण मुझे कड़वी वास्तविकता से रू-ब-रू होना पडा। उन्होंने कहा कि यह सब तेजी से घटित हुआ और तब हुआ जब मैं अपने करियर के चरम पर था। मैं अपने परिवार और दोस्तों के मिले सहयोग को शब्दों में बयां नहीं कर सकता। जो उस समय मेरे लिए मजबूत स्तंभ की तरह थे।

युवराज ने सौरव गांगुली और महेंद्र सिंह धोनी को अपना पसंदीदा कप्तान बताया और अपने करियर में जिन गेंदबाजों को खेलने में उन्हें मुश्किल हुई उनमें श्रीलंका के मुथैया मुरलीधरन और आस्ट्रेलिया के ग्लेन मैकग्रा का नाम गिनाया।

युवराज ने आईपीएल से भी संन्यास लेने की घोषणा की है। अब उनके प्रश्ंासक उन्हें मैदान में चौके छक्के लगाते नहीं देख पाएंगे। परन्तु उनके द्वारा खेली गई शानदार पारियां उनके दिमाग में हमेशा रहेंगी। क्रिकेट में  उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जाएगा।

अपने संन्यास कीे घोषणा करते हुए युवराज ने कहा,” मैं अब जीवन का लुत्फ उठाना चाहता हूं और बीसीआई से स्वीकृति मिलने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न टी20 लीग में फ्रीलांस खिलाडी के रूप में खेलना चाहता हूं। लेकिन अब मैं इंडियन प्रीमियर लीग में नहीं खेलूंगा।

युवी ने मुझे गेंदबाज बना दिया: ब्रॉड

युवराज के संन्यास लेते ही पूरा विश्व क्रिकेट उनके सजदे में झुक गया। इसके साथ ही उनकी बेहतरीन पारियां उनके प्रशंसकों की आंखों में तैरने लगी। हर किसी ने उन्हें भावी जीवन के लिए शुभकामनाएं दी। इनमें से एक है इंग्लैंड के गेंदबाज स्टुअर्ट ब्रॉड जिनके ओवर में युवी ने छह छक्के लगाए थे। स्टुअर्ट ने ईएसपीएन से बातचीत में कहा कि आज वो जिस तरह के गेंदबाज हैं वो युवराज के छह छक्कों की वजह से ही हैं। स्टुअर्ट ने कहा, ”मैं उस समय 19 साल का था, डेथ ओवर में गेंदबाजी करने की कला और अनुभव मेरे पास नहीं था। युवी गेंद को बहुत अच्छी तरह हिट कर रहे थे। मैं अब भी सोचता हूं कि मैं छह यॉर्कर या छह स्लोअर गेंद मार सकता था, लेकिन वह जबरदस्त अंदाज से हिटिंग कर रहे थे। मैं उस दिन को नकारात्मक रूप में देख सकता हैं लेकिन यह सच है कि युवराज के छह छक्को ने मुझे अच्छा गेंदबाज बनाया। स्टुअर्ट ने ट्विटर पर युवराज को शुभकामना दी और अपने पोस्ट में उन्होंने युवी को लेजेंड करार दिया।

युवी की यादगार पारियां

नेटवेस्ट फाइनल

2002 में नेटवेस्ट सीरीज के फाइनल में 327 रन का पीछा करते हुए भारत ने 146 रन पर छह विकेट गंवा दिए थे। युवराज ने इस मैच में 69 रन की शानदार पारी खेली और मोहम्मद कैफ के साथ 121 रन जोड़कर भारत को शानदार जीत दिलाई।

पहला टेस्ट शतक

2004 में लाहौर में पाकिस्तान के खिलाफ युवी ने पहला शतक लगाया। युवराज ने 129 गेंदों पर 15 चौंकों और दो छक्कों की मदद से 112 रन बनाए। हालांकि भारत यह मैच हार गया था परंतु युवराज का यह शानदार शतक क्रिकेट प्रशंसकों के जेहन में आज भी है।

एक ओवर और छह छक्के

दक्षिण अफ्रीका में 2007 में हुए टी-20 विश्व कप के दौरान डरबन में भारत और इंग्लैंड के बीच हुए मैच में युवराज ने स्टुअर्ट  ब्रॉड के ओवर में छह छक्के लगाकर तहलका मचा दिया और एक ऐसा रिकार्ड बनाया जिसका किसी के दिमाग में कोई ख्याल तक नहीं था। इस मैच में ही युवी ने 12 गेंदों पर 50 रन बनाए। यह सबसे तेज अद्र्धशतक था।

2011 विश्व कप फाइनल

2011 का विश्व कप जिताने में युवराज ने अह्म भूमिका निभाई थी। फाइनल मैच में कप्तान धोनी के साथ 54 रन जोड़े थे। इस विश्व कप में युवराज चार मैचों में मैन ऑफ द मैच और मैन आफ द टूर्नामेंट रहे उन्होंने 362 रन बनाए । इस मैच में उनके द्वारा लगाया गया छक्का लोगों के दिलो दिमाग में आज भी है। युवी विश्व कप में दो बार प्लेयर आफ द टूर्नामेंट  रहे। पहली बार 2000 में श्रीलंका में हुए अंडर-19 विश्व कप में और दूसरी बार 2011 विश्व कप में उन्हें मैन ऑफ द सीरीज चुना गया।

देश बंटा ज़रूर लेकिन दिल नहीं बंटे

भारत की आज़ादी के समय बड़े पैमाने पर खून-खराबा हुआ। हज़ारों लोग मार दिए गए। कई सौ लड़कियां-औरतें हवस का शिकार हुईं। लाखों बेघरबार हुए लोगों ने तिल-तिल कर अपनी नई जि़ंदगी शुरू की। देश को आज़ादी मिली।  कांग्रेसी सोच, आंदोलनों और अहिंसा के प्रयोग के जरिए।

लेकिन देश के बंटवारे में हुई मारकाट के बाद विस्थापितों को बेहद असुविधाजनक हालातों में अपनी जि़ंदगी शुरू करनी पड़ी। इनमें सड़कों पर खुद को जो मजबूत कर पाए वे अपनी जि़ंदगी मे सात दिनों, चौबीस घंटे साहस, मेहनत और बहादुरी मौत के कुंओं में दिख पाए। इस दिलेरपन से शुरू होती है फिल्म ‘भारत’ एक नए विकास की ओर।

कांग्रेस ने समाज के सभी वर्गों के साथ लेकर युवा भारत को मज़बूत भारत बनाने की पहल ली। भ्रष्टाचार तब कम, मगर था। आज की तरह भाई-भतीजावाद और पार्टीबाजी उतनी नहीं थी। देश की प्रगति के साथ जनता विकास पथ पर थी। देश में उदारवाद आने के बाद जो तब्दीली दिखी। वह मर्चेंट नेवी और मुंबइया फिल्मों के गीतों और नायकों के प्रभाव के साथ उभरती है। फिल्म से ही यह पता लगता है कि भारतीय समाज में किस तरह बदलाव आया। विवाह बदल गया ‘लिव-इन’ में। एक परिवार बनाने में कामयाबी ‘लिव-इन’ से यदि आती है तो विवाह ज़रूरी नहीं।

फिल्म ‘भारत’ के निर्देशक अली अब्बास जफर बातचीत में कहते है कि उन्होंने देश के 70 साल के इतिहास को इस तरह पेश किया है कि यह देश के 70 साल की फिल्मी दास्तान है। इसमें आप छह-सात फिल्मों को देखने का आनंद ले सकते हैं। यानी एक किताब के कई चैप्टरों की तरह इस फिल्म में भी हर दशक एक अलग चैप्टर की तरह शुरूआत लेता है और फिर समापन लेता है। फिल्म में हर अदाकार जब अपनी बात रखता है तो आप महसूस करते हैं कि यह फिल्म किसी एक व्यक्ति की नहीं है। बल्कि यह फिल्म हर हिंदुस्तानी की है।

फिल्म निर्देशक अली अब्बास जफर इसके पहले ‘सुल्तान’ (2016), और ‘टाइगर जिंदा है’ (2017) फिल्मों के भी निर्देशक रहे हैं। विलार्ड कैरोल की रोमांटिक कॉमेडी ‘मेरीगोल्ड’  (2007) में अली लार्टर के साथ बतौर सहायक निदेशक काम भी कर चुके हैं। उस समय वे महज 23 साल के थे और सेट संबंधी तमाम छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखने की जिम्मेदारी भी निभाते थे। उनकी मुलाकात कबीर खान की फिल्म ‘न्यूयार्क’ (2009) में कैफ से हुई थी। जिन्होंने उनकी मुलाकात सलमान खान से करा दी। कैफ और सलमान की यह तीसरी फिल्म है। जो बाक्स आफिस पर सफल है।

सलमान खान ने फिल्म ‘भारत’ के उपयुक्त अभिनेता के तौर पर खुद को साबित किया। फिल्म में सलमान से उनके पिता कहते है तुझसे पूरा देश है, ‘भारत’।

कैफ कैटरीना फिल्म ‘भारत’ में ‘मैडम सर’ कही जाती हैं। अपनी भूमिका में वे अच्छी और कामयाब रहीं। अभिनय के मामले में वह सलमान से कम नहीं रहीं। फिल्म में एक और किरदार विलायती (ग्रोवर) हैं जो दोस्ती और भाईचारे पर अच्छी बात करता है। विभाजन देश का ज़रूर हुआ लेकिन दिल नहीं बदले हैं। पूरे परिवार के लिए यह एक अच्छी फिल्म है।

एक निर्भीक और बेबाक व्यक्तित्व थे गिरीश कर्नाड

सिनेमा और रंगमंच के महान कलाकार , लेखक और निर्देशक गिरीश कर्नाड अब नहीं रहे। 10 जून को उनके निवास पर उनका निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कर्नाड ने ‘नागमंडल, ‘तुगलक, और ‘ययाति जैसे नाटकों की संरचना की। वे केवल एक मंजे हुए कलाकर, लेखक या निर्देशक ही नहीं अपितु एक निडर इंसान भी थे। उन्होंने अपने विचारों को हमेशा बेबाकी से व्यक्त किया। जैसे वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाजपा का एकमात्र चेहरा होने की काफी आलोचना करते थे। अपने विचारों को खुल कर रखने के कारण वे कई बार विवादों में भी घिरे। गिरीश कर्नाड भाजपा और उनके सहयोगियों के आलोचक भी थे। जिन 600 कलाकारों ने चुनाव में भाजपा को हराने की अपील करते हुए एक पत्र जारी किया था उनमें कर्नाड भी शामिल थे।

गिरीश कर्नाड के परिवार में उनकी पत्नी सरस्वती, बेटा रधु कर्नाड और बेटी राधा है। रधु कर्नाड एक पत्रकार व लेखक हैं। परिवार के लोगों के अनुसार उन्होंने सुबह आठ बजे अंतिम सांस ली। गिरीश कर्नाड काफी लंबें समय से बीमार चल रहे थे। उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनके मरने पर कोई रीतिरिवाज न किया जाए, इसी कारण परिवार ने सभी से अपील की कि वे सीधे श्मशान घाट पर ही पहुंचें और वहीं उन्हें अंतिम विदाई दें। राज्य सरकार ने उनके सम्मान में एक दिन की छुट्टी और तीन दिन के राजकीय शोक की घोषणा की है। यह विडंबना ही है कि उनके अंतिम संस्कार के समय न कोई बड़ी फिल्मी हस्ती और न ही कोई राजनेता वहां मौजूद था।

विविध प्रतिभाओं के धनी गिरीश कर्नाड का जन्म 1938 में डाक्टर रधुनाथ कर्नाड के घर हुआ। उनकी माता का नाम कृष्णाबाई था। गिरीश कर्नाड ने कई फिल्मों और नाटकों में सशक्त भूमिका निभाई जिनकी बहुत तारीफ हुई। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित गिरीश कर्नाड को 1974 में पद्मश्री और 1992 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वे 1960 के दशक में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के रोहड्स स्कॉलर भी रहे। उन्होंने वहां से दर्शनशास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थ शास्त्र में ‘मास्टर ऑफ ऑट्र्स की डिग्री हासिल की।

उनके कन्नड़ भाषा में लिखे नाटकों का अंग्रेज़ी और भारत की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। वे ‘नव्या साहित्य अभियान का हिस्सा भी रहे। उनके नाटक ‘नागमंडल, ‘ययाति और ‘तुगलक बहुत लोकप्रिय हुए। कर्नाड ने ‘टाइगर जिंदा है और शिवाय जैसी फिल्मों में भी काम किया

कर्नाड के निधन पर सिनेमा, राजनीति और नाटक से जुड़े लोगों ने शोक जताया है। उनके निधन पर देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ट्वीट किया,’लेखक, अभिनेता, और रंगमंच के सशक्त हस्ताक्षर गिरीश कर्नाड के देहांत के बारे में जानकार दुख हुआ है। उनके जाने से हमारे सांस्कृतिक जगत को अपूरणीय क्षति हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा,’ वे उन मुद्दों पर भावुकता से बोलते थे जो उन्हें प्यारे लगते थे। आने वाले सालों में उनके काम की लोकप्रियता बनी रहेगी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा,’उनके परिजन और दुनिया भर में मौजूद उनके मुरीदों के प्रति संवेदनाएं। बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने कहा,’ प्रख्यात लेखक, रंगकर्मी, अभिनेता और निर्देशक गिरीश कर्नाड का निधन अति दुखद है। उनके परिवार और मित्रों के प्रति मेरी गहरी संवेदनाएं।

गिरीश कर्नाड के निधन पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमार स्वामी ने ट्वीट किया-‘ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार, प्रतिष्ठित अभिनेता और फिल्म निर्माता गिरीश कर्नाड के निधन की खबर सुनकर मैं दुखी हूं। साहित्य, थिएटर और फिल्में में उनके बहुमूल्य योगदान को सदा याद रखा जाएगा। उनके निधन से हमने एक सांस्कृतिक दूत खो दिया। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने भी कर्नाड के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि कन्नड़ भाषा को उन्होंने ही सातवां ज्ञानपीठ दिलाया था। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष बीएस येदुरप्पा ने अपने एक ट्वीट में कहा है – ‘जाने-माने अभिनेता, नाटककार व ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गए गिरीश कर्नाड के निधन की खबर से मैं दुखी हूं। उनके परिवार के साथ मेरी संवेदनाएं हैं। मख्यमंत्री कार्यालय ने कहा कि कर्नाड को राजकीय सम्मान दिया  जाएगा जो ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोगों को दिया जाता है।

फिल्मकार और अभिनेता कमल हसन ने ट्वीट किया-‘ गिरीश कर्नाड उनकी पटकथाएं मुझे हैरान और प्रेरित करती हैं। वे अपने पीछे कई प्रेरित प्रशंसक छोड़ गए हैं, जो लेखक हैं। इनके कार्य शायद उनके नुकसान को कुछ  हद तक सहनीय बनाएं। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चंद्रशेखर कंबार ने कहा कि उन्होंने कर्नाड के रूप में एक करीबी मित्र खो दिया।

50 साल के अपने करियर में उन्हें चार बार फिल्मफेयर अवार्ड भी मिले। उन्होंने अपना पहला नाटक ‘ययाति 23 साल की उम्र में लिखा। 1961 में लिखा गया यह नाटक कन्नड़ में था। गिरीश की शुरूआती पढ़ाई मराठी में हुई। जब वे 14 साल के थे तो उनका परिवार कर्नाटक के धारवाड़ में शिफ्ट हो गया। वहां उन्होंने कन्नड़ भाषा सीखी। उन्होंने 1958 में कर्नाटक आर्ट कालेज से बीए पास की। 1960 में वे पढ़ाई पूरी करने इंग्लैंड गए। वे यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में प्रोफेसर भी रहे। पर वहां उनका मन नहीं लगा तो नौकरी छोड़ कर भारत लौट आए। इसके बाद वे पूरी तरह फिल्मों के साथ जुड़ गए। उन्हें 1978 में बनी फिल्म ”भूमिका के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

 अपनी विचारधारा के प्रति पूरी तरह समर्पित कर्नाड एक कार्यक्रम में एक तख्ती लटका कर पहुंचे जिस पर लिखा था- ‘मैं भी अर्बन नक्सल हूं। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था-‘मैं तब 17 साल का था जब मैंने आइरिश लेखक सीन ओकेसी का स्कैच बना उन्हें भेजा था। बदले में उन्होंने मुझे एक चि_ी भेजी इसमें लिखा था- मैं यह सब करके समय बरबाद न करूं बल्कि ऐसा करूं जिससे लोग मेरा ‘आटोग्राफ मांगे। पत्र पढऩे के बाद मैंने ऐसा करना बंद कर दिया। इससे मेरे जीवन में कई बदलाव आए।

इन्हीं बदलावों के नतीजे वे उस मुकाम तक पहुंचे जहां वे अपने अंतिम समय तक रहे। इतिहास उन्हें कभी भुला नहीं पाएगा।

‘बना कर फ़कीरों का हम भेस ग़ालिब तमाश-ए-अहल-ए करम देखते है’

चलो भई चुनाव हो गए। एक काम खत्म हुआ। अब अगले पंाच साल तक वह जनता जिसने इन्हें भारी बहुमत से जिताया है, इनके खिलाफ सड़कों पर उतरेगी, किसान पेड़ों पर लटकेंगे, उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पकौड़े तलने की तैयारी करेंगे। जिन्हें गैस दी गई है उनके सिलेंडर खाली रहेंगे। बैंक अकाउंट में एक-दो महीने आया 2000-2000 रुपया नहीं आएगा। ऐसा ही तो होता है हर बार जब सरकार चुनी जाती है। जनता अजीब है, पहले चुनती है फिर आलोचना करती है। चुनाव के दिन वे सारे राष्ट्रभक्त बन जाते हैं और उन्हें भूख-प्यास, बेरोजग़ारी, किसानों की मुसीबतें कुछ याद नहीं रहता। पर नतीजे आते ही लग जाते हैं अपने दुखों का बखान करने। तब उन्हें वे नेता और लोग याद आते हैं जिन्हें उन्होंने कभी वोट नहीं दी होती। इस राजनीतिक गणित के फार्मूले से यह बात साबित होती है कि नेता दो तरह के होते हैं। एक वोट लेने वाले नेता दूसरे आंदोलन चलाने वाले। वोट लेने वाले नेताओं में अच्छी भाषा, मर्यादा और सामान्य ज्ञान होना कोई ज़रूरी नहीं। व्यवहार में तो यह आया है कि जो जितना ‘अज्ञानी उतना बड़ा नेता।

देश का जीडीपी, ऊपर-से-ऊपर जा रहा है चारों ओर विकास ही विकास। ‘सनसेक्स रिकॅार्ड ऊँचाई पर, लेकिन हरिया के घर आटा नहीं, जुम्मन का बेटा एमए की डिग्री लिए सड़कों की खाक छान रहा है। गरीबू की बेटी के साथ जगीरदार लैहमर सिंह के बेटे और भतीजे ने बलात्कार कर दिया। प्रजातंत्र में सब चलता रहता है, पर कुछ नेताओं को यह तरक्की पसंद नहीं। अब जिसे तरक्की पसंद नहीं वह जाए किसी और मुल्क। हम तो उस मुल्क का नाम नहीं लेते। अब बताओ, जिन युवाओं पर ऐसे इलज़ाम लगाए गए वे बेचारे कहां जाए। कुछ को तो देश की जनता ने चुनाव जितवा दिया। पिछली बार इस प्रकार के 34 फीसद नेता जीते थे, इस बार यह आंकड़ा 43 फीसद पर पहुंच गया। कर दिया न कमाल। इसका अर्थ यह है कि इन लोगों पर लगे आरोप झूठे हैं। नहीं तो देश का प्रबुद्ध मतदाता उन्हें थोड़ा न चुनता। जो चुने गए वे तो चुने गए पर बेचारे उनका क्या जो न तो चुने गए और न ही कहीं जाने लायक रहे। खैर इनके सहयोगी खुद इन्हें संभाल लेंगे। ठीक ही तो कहा गया है कि ‘सांच को आंच नहीं।

आज़ादी से लेकर आज तक 17 चुनाव हो चुके हैं। पर यह पहला चुनाव है जो 1957 या 1962 के चुनावों में जीते नेताओं के कर्मों पर लड़ा गया। देश में जो भ्रष्टाचार है वह 1952 या 1957 में बनी सरकारों के कारण है। उन नेताओं के बाप-दादाओं में खोट था। उनके ‘जीन्स सही नहीं थे। उनमें देश प्रेम नहीं था। ऐसा अहसास होता है जैसे देश प्रेमी तो अभी पैदा होने शुरू हुए हैं। इसी कारण आज देश में सुख समृद्धि है। कहीं भ्रष्टाचार का नाम तक नहीं। अगले पांच साल में शिक्षा में व्यापक सुधार किए जाएंगे। विश्वविद्यालयों में देशप्रेमी कुलपति होंगे। छात्रों को नए तरह का इतिहास और साहित्य पढ़ाया जाएगा। ‘सूचना के अधिकार कानून में यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी को भी किसी की शैक्षणिक योग्यता की कोई जानकारी नहीं दी जाएगी। असल में यह बहुत ही संवेदनशील और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। राष्ट्रीय सीक्रेट है। वैसे भी शैक्षणिक योग्यता करनी क्या है। आदमी वैसे योग्य होना चाहिए। फिर जिसे जनता ने बहुमत से जिता दिया उससे बड़ा योग्य व्यक्ति कौन हो सकता है। लोगों की बुद्धिमत्ता पर सवाल कैसा?

अब बात आती है बजट की, अजी बजट का क्या है बहुत आईएएस बैठे हैं उनके हाथों को भी काम मिल जाएगा। उन्होंने लिखना है आपने तो बस पढऩा है समझ आए न आए कुछ ने मेज़ थपथपाने हैं, कुछ ने आलोचना करनी है। यानी सभी की भूमिकाएं तय है।

जो भी हो चुनाव हो गए, सरकार बन गई हमें तो किसी ने मंत्री बनाना नहीं तो हम चिंतित क्यों हैं। हम तो जो हैं सो है। हम पर ही तो मिजऱ्ा ग़ालिब ने लिखा था:

‘बना कर फ़कीरों का हम भेस ग़ालिब

तमाशा-ए-अहल-ए करम देखते हैं।’