कला को शिक्षा से जोडऩे में लगे हैं निक्लॅस हाफलैंड

बहुमुखी प्रतिभा के धनी निकलॅस हाफ़लैंड की सृजनशीलता बंधेबंधाए खांचों में ‘फिटÓ नहीं आ पाती। पहाड़ी नदी सा निरंतर बेचैन, सतत प्रयासशील, बीच-बीच मेंलुप्तप्राय हो जाता यह व्यक्ति जब भी प्रकट होता है, कुछ नया और अद्भुत करता मिलता है। लंबे समय तक विज्ञापन जगत में सक्रिय रहे निकलॅस फि़ल्म निर्माण केसभी पक्षों-संगीत रचना, लेखन और डिज़ाइन-पर अधिकार रखते है। उन्हें करीब से जानने वाले जानते हैं कि वह उतने ही ज़बर्दस्त ख़ानसामां भी है। अपने बारे मेंजानकारी देने में बेहद संकोची निकलॅस के मित्रों और प्रशंसकों को उनके कवितासंग्रह का बेकरारी से इंतज़ार है।

पिछले कुछ बरसों से निकलॅस कलाओ के क्षेत्र में जनशिक्षा का जैसा अभियान चला रहे हैं उसकी ज़रूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। उनकी जीवनदृष्टिके अनुरूप ही उनका यह शिक्षण मॉडल बहुत ही मितव्ययी और कहीं भी लागू हो सकनेवाला है: वह सस्ती ऑडियो-विजुअल टैक्नॉलॉजी, सहज सुलभ सामग्री औरलगभग नि:शुल्क उपलब्ध सामुदायिक/सार्वजनिक जगहों का उपयोग करके देहरादून और दिल्ली में कला रसिकों और जिज्ञासुओं की कई पीढिय़ों के जुटने औरअपने अनुभव

साझा करने, शंकाओं का समाधान पाने के अवसर रचते हैं।

हाल ही में कनाट प्लेस स्थित इंस्तितुतो सर्वान्तेस में कॉरल सिंगिंग (समूह में गायन) पर केंद्रित उनकी प्रस्तुति अपने विस्तार और सरलता के परिप्रेक्ष्य में चकित करदेनेवाली रही। लगभग क़ब्बन मिजऱ्ा के अंदाज़ में, यूट्यूब पर सहज उपलब्ध पश्चिमी संगीत के वीडियोज़ का उपयोग उदाहरणों के रूप में करते हुए निकलॅस नेआयुवर्ग (15 से 80 वर्ष) और विषय में गति (ज्ञानोत्सुक से सुशिक्षित रसिक तक) के स्तरों पर बहुत विविध अपने दर्शक-श्रोताओं का परिचय स्त्री और पुरूष गायकोंके कंठस्वरों की श्रेणियों से करवाया और फिर समूह गायन के विभिन्न स्वरूपों की ओर बढ़ गए। वैसे तो समूह गायन का इतिहास शायद मनुष्य समाज के गठनजितना ही पुराना होगा लेकिन पश्चिमी शास्त्रीय परंपरा में उसका आधिकारिक लिखित उल्लेख 11वीं सदी में बड़े चर्चों की स्थापना के साथ ही मिलता है।

निकलॅस का इरादा अपने दर्शक-श्रोताओ का पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के इतिहास से इस तरह परिचय करवाने का है कि वे इसे सामाजिक-ऐतिहासिक बदलावों केएक सहज परिणाम के रूप में देखें-समझें और इससे जुड़े अनावश्यक सांस्कृतिक तामझाम और औपनिवेशिक अतीत से आक्रांत हुए बिना संगीत की एक शैली केरूप में इसका आनंद ले पाएं। वह ऐसी ही प्रस्तुतियां भारतीय शास्त्रीय और सुगम संगीत के बारे में भी देते रहे हैं।

आप के इस प्रयास का उद्देश्य क्या है?

– अर्से से हमारे सामुदायिक जीवन में कलाओं और उनके अभ्यास-आस्वादन की जगह घटती चली गई है। आम धारणा यह है कि सिनेमा, संगीत, लेखन, थियेटरऔर बाकी दूसरी कलाएं एक खास वर्ग के लिए है; वही उन्हें समझता और उनका आनंद ले पाता है। इसके पीछे बड़ा कारण तो खैर यही रहा है कि कला कीज़्यादातर विधाओं का अभ्यास समय, कड़ी मेहनत और प्रतिभा की मांग करता है जो सचमुच ही हर किसी के बस की बात नहीं है। लेकिन आज जब टैक्नॉलॉजीबहुत सुलभ और सस्ती हो चुकी है, तब तो कलाओं में रूचि रखनेवालों के लिए कलाएं सुलभ होनी चाहिएं। निजी स्तर पर ऐसा हुआ भी है। मेरा प्रयास संगीत केतमाम रूपों, डॉक्युमेंटरी फि़ल्मों, कला और लेखन के रसास्वादन, प्रसार, अध्ययन और चर्चा के लिए एक ऐसी सामुदायिक जगह तैयार करना है जहां उत्सुक लोगकला से जुड़े प्रभामंडल से आतंकित हुए बिना मिल बैठें। समाज में कला के हर स्वरूप के रसिक उपस्थित हैं लेकिन जब तक वे संगठित न होंगे यह विभिन्न स्वरूपफलफूल नहीं पाएंगे।

अपने अर्जित ज्ञान के अलावा आपकी सामग्री का स्त्रोत कौन से संस्थान हैं?

– संस्थान? भारतीय डॉक्युमेंटरी फि़ल्म निर्माताओं के काम पर आधारित सत्रों के लिए हमें पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टिंग ट्रस्ट और स्वतंत्र फि़ल्मकारों से सामग्री मिलजाती है। इस सामग्री की मदद से हम भारत में दृष्टियों की बहुलता का विचार समाज के उस बड़े वर्ग तक ले जा पाते हैं जो अब तक जानकारी के दायरे से बाहर रहाचला आया है।

देहरादून में आप का कार्यक्रम मुख्यत: भारतीय कलाकारों और उन के काम पर केंद्रित रहता है।

– शुरूआत तो ऐसे ही हुई थी। हमारा ध्यान कला के छात्रों पर था जिनके लिए ज़्यादा संसाधन उपलब्ध नहीं रहते। हम भारतीय कलाकारों के काम और रचना-प्रक्रिया के बारे में उनकी समझदारी बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अब इन सत्रों में छात्रों, कलासाधकों और उत्सुक लोगों की भागीदारी लगभग बराबररहती है।

कुछ काम लेखन को लेकर भी चल रहा था।

– अब भी चल रहा है। अनियमित अंतरालों पर लेखन में रूचि रखने वाले लोग मिल बैठते हैं, एकदूसरे की रचनाओं पर चर्चा करते हैं, अपने सहयात्रियों के अनुभवजानते हैं और अपने संघर्ष के लिए साहस पाते हैं। लेखन कोई बहुत आसान काम तो है नहीं…..

आप को लगता है कि युवाओं के बीच बढ़ती हताशा और भटकाव के इस दौर में ऐसे प्रयास चलते रह सकते है?

-क्यों नहीं? अब तक तो हमारा प्रयास समानधर्मा लोगों के सहयोग से चला ही है। कला को ‘वर्गÓ की जकडऩ से बाहर लाने, उसे जन की पहुंच में ला कर एक सहजअनुभव बनाने, रहस्य के आवरण को उतारने के इस प्रयास की मांग बढ़ रही है। संगीत परिचय के सत्रों में दर्शक-श्रोताओं की संख्या लगातार बढ़ी है, शिक्षा संस्थानऔर नागरिक संगठन अपने यहां ऐसे आयोजनों की संभावना के बारे में पूछताछ करने लगे हैं। हम तो और आगे जा कर उभरते संभावनाशील कलाकारों की उनकेसमुदायों में सार्वजनिक प्रस्तुतियों के आयोजन पर भी विचार कर रहे हैं।

कला की समझदारी और स्वीकार्यता बढ़ाने के इस महत्वपूर्ण आयोजन से आप की क्या अपेक्षाएं हैं?

– बहुत अपेक्षाएं हैं। मैं सोचता हूं कि अगला चरण आज के उत्सुक लोगों को हमारी समकालीन मानवीय स्थिति को दजऱ् करने में समर्थ बनाना है। लोग बिलकुलअपना संगीत, अपनी फि़ल्म, अपना साहित्य, अपनी ही कला रचें भले ही वह मोबाइल फ़ोन पर ही क्यों न हो। कहीं न कहीं यह चाहत भी है कि हमारे लोगव्यावसायिक हितों द्वारा झोंकी जा रही सामग्री के उपभोक्ता मात्र न बने रहें बल्कि

अपने विचार, अपनी दृष्टि को प्रस्तुत करने का साहस भी करें।

और अंत में, आगे की योजना?

– हमारे प्रयोगात्मक स्टूडियों के माध्यम से युवा कलाकारों का काफ़ी जटिल किस्म का काम सामने आ रहा है। हमारी कोशिश एक ऐसा कला संस्थान स्थापित करनेकी है जो अनेक समुदायों से सक्रिय जुड़ाव बना सके। हमें आशा है कि हम ऐसी जगह तैयार कर पाएंगे जहां भारत की बहुलता के लिए सहज स्वीकार्यता होगी।