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बंगाल में सत्ता हथियाने की जोड़-तोड़ तेज़

देश की 17वीं लोकसभा में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए को 2014 की तुलना में कहीं ज़्यादा सीटें मिली हैं। इसके बाद भी लगातार भाजपा इस कोशिश में है कि किस तरह बंगाल पर अपना आधिपत्य जमाया जाए। इसके लिए चुनाव बाद की हिंसा का नित्य प्रति फैलाव हो रहा है। यह कोशिश की जा रही है कि राज्य में पहले ही चुनाव करा दिए जाएं। इस तैयारी में भाजपा खास तौर पर रुचि ले रही है।

पश्चिम बंगाल में राज कर रही ममता बनर्जी ने भाजपा से मुकाबला करने का सिलसिला शुरू किया है। लोकसभा 2019 में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के सांसदों में फासला महज चार-पांच सीटों का ही है। एक सवाल के जवाब में ममता ने कहा कि उन्हें कतई 2019 में हुए लोकसभा चुनाव नतीजों का अंदाजा नही था। उन्होंने कहा, भाजपा नहीं जानती कि घायल बाघिन ज़्यादा खतरनाक होती है। कहीं बंगाल में मोदी शाह की पार्टी को मुंह की न खानी पड़ जाए।

बंगाल में चुनावी हिंसा में तृणमूल और भाजपा अपने अपने कार्यकर्ताओं के मारे जाने की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं। पिछले महीने कोलकाता में कालेज स्ट्रीट स्थित विद्यासागर कालेज में रखी बंगाल के विख्यात शिक्षा शास्त्री, दार्शनिक, समाज सुधारक और लेखक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की एक पुरानी मूर्ति को भाजपा-संघ परिवार के लोगों ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी प्रचार रैली में तोड़ डाला था वहां आगजनी और तोडफ़ोड़ भी हुई थी। बंगाल में किसी भी बालक की शिक्षा की शुरूआज जब होती है तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर की लिखी वर्णमाला पाठ से उसकी विद्या आरंभ होती है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को विद्यासागर कालेज में ईश्वर चंद्र विद्यासागर की साढ़े आठ फुट ऊंची मूर्ति का अनावरण (10 जून) पूरे धार्मिक-शैक्षणिक संस्कारों के साथ किया । इसे फाइबर ग्लास से ढका गया है। इस मौके पर विद्यासागर परिवार के लोग भी मौजूद थे। ममता ने कहा चुनाव बाद राज्य में हो रही हिंसा में तृणमूल के आठ और भाजपा-संघ परिवार के दो लोग मारे गए हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। मैंने राज्य के आपदा प्रबंधन कोष से सभी मृतकों के परिजनों को आर्थिक मदद दी है। इस राज्य को भाजपा पूरी कोशिश कर रही है कि गुजरात बना दिया जाए। लेकिन ऐसा मैं नहीं होने दूंगी।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जो खुद माने हुए वकील रहे हैं, उन पर आरोप है कि वे राज्य सरकार को भंग करने की तमाम कोशिशों में जुटे हैं। मुख्यमंत्री ने राज्यपाल का नाम लिए बिना कहा कि वे राज्य की संस्कृति बचाने के लिए जेल भी जाने को तैयार हैं। वे नहीं चाहती कि बंगाल फिर 50 पहले के दौर में आ जाए जब राज्य में हर कहीं धमाके ही धमाके होते थे और हिंसा व आगजनी का दौर-दौरा था।

उन्होंने कहा कि बंगाल की विरासत और संस्कृति को ये लोग जिस चश्मे से देखते हैं वह बहुलतावादी नहीं है।  बांग्ला संस्कृति और  साहित्य में पूरे समाज के वर्गों का हाथ रहा है। येे चाहते हैं। कि बंगवासी अपनी संस्कृति और विरासत भूल कर उत्पाती तत्व बन जाएं। इन लोगों ने एक समाज सुधारक, शिक्षाविद की मूर्ति तोड़ी। यह शर्मनाक हरकत थी। लेकिन ये जो करते हैं  उस पर कभी इन्हें कोई पछतावा नहीं होता।

अब ये हम पर मूर्ति तोडऩे का इल्ज़ाम लगा रहे हैं। हमने कभी कार्ल माक्र्स और लेनिन की आदमकद मूर्तियां नहीं तोड़ी । हम तो बंगाल की सत्ता में 35 साल के वामपंथी राज के बाद आए। हमने कभी ऐसा विध्वंस भी नहीं किया। लेकिन त्रिपुरा में सत्ता में  आते ही इन्होंने  आम्बेडकर, लेनिन और पेरियार की मूर्तियां तोड़ी। अब ये बंगाल को गुजरात बनाना चाहते हैं। इनकी कोशिश है कि बंगाल की जो शिक्षित  तस्वीर देश के सामने है उसे ये नष्ट कर दें।

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से विभिन्न दलों के बीच हिंसा गहराती  गई। बैरकपुर में तृणमूल  के दो समूहों में आपस में टकराव हुआ। पुलिस ने तृणमूल नेताओं के आदेशों के तहत काम किया। अभी ताजी हिंसा उत्तरी 24 परगना में हुई थी। भाजपा नेताओं के अनुसार यह हिंसा तृणमूल  की आंतरिक गुटबाजी के चलते हुई। फिलहाल जो हिंसा हो रही है वह देसी हथियारों और देसी बमों के जरिए हो रही है। इसका मकसद सिर्फ दहशत फैलाना है। साथ ही इलाकाई दादागीरी को एक बड़ी रकम पाने की आस में बचाए रखना है। इसमें कहीं-कहीं पुलिस और बड़े नेता भी हिस्सेदार हैं।

सिर्फ सत्ता के लिए एक चुनी हुई सरकार को किसी भी तरह गिरा देने से तरह-तरह की शंकाएं उपजती हैं। मानिकलता में मिठाई के व्यपारी तरुण घोष कहते हैं कि पहले कम्युनिस्ट राज ज़रूर था लेकिन पूरे राज्य में शांति थी। छिटपुट हिंसा थी। अभी तो पांचायत, विधानसभा,लोकसभा तमाम चुनावों में सत्ता पाने के लिए गंठजोड़ , दादागीरी और धर्म का सहारा राज्य में अशांति ही बढ़ा रहा है। इससे बच्च,ों  बड़ों का भविष्य बिगड़ रहा है। और बुजुर्गों की परेशानी बढ़ रही है। ऐसा तब नहीं था।

बहरहाल पश्चिम बंगाल में अशांति का फैला डर और आतंक पैर पसार रहा है। आज जनजीवन परेशान है।

बाज़ार और राजनीति में अस्तित्व तलाशती हिंन्दी

भाषा का सवाल इन दिनों बेहद पेंचीदा हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण बाजार और राजनीति का गठजोड़ है। देखने में यह मामूली बात लग सकती है। गंभीरतासे विचार किया जाए तो पता चलेगा कि किस तरह पिछले कुछ दशकों में भाषा पर जबरदस्त हमले हुए हैं। ये हमले सबसे ज्य़ादा हिन्दी पर हुए और इसका परिणामअन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों को भी भुगतना पड़ा। प्रभाकर श्रोत्रिय ने इसी भाषा के मुद्दे पर कभी कहा था कि,’हिन्दी ही तमाम भारतीय भाषाओं और बोलियोंका कवच है। जिस दिन यह खतरे में पड़ेगी उस दिन अन्य भारतीय भाषाओं का बचना भी मुश्किल हो जाएगा।

आज़ादी के बाद 70 साल से ज्य़ादा बीत गए पर भाषा का मसला वहीं का वहीं है। कभी इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया। कई बार विचार करने के बाद भीइस पर कोई अंतिम नतीजा नहीं निकला। क्योंकि इसका समर्थन से ज्य़ादा विरोध हुआ। इस संघर्ष का सबसे बड़ा फायदा अंग्रेज़ी को मिला। वह फलने-फूलने लगी।इसी का नतीजा हुआ कि उसकी जड़ें गहरे तक जम गई और अन्य भारतीय भाषाओं की जड़े सूखने लगी।

आज़ादी के बाद जो अंग्रेज़ी महज कुछ वर्षों के लिए स्वीकृत की गई थी, आज वह भाषा पूरे देश में बोली और उपयोग में लाई जाती है। सरकारी कामकाज की यहएक अनिवार्य भाषा है जिसका इस देश में चार सौ साल पहले तक कोई अस्तित्व नहीं था। जबकि इस बीच हिन्दी और भारतीय भाषाओं की स्थिति लगातार बद सेबदतर होती रही। इसके बावजूद कभी इस पर ठोस निर्णय नहीं लिया गया। इसका कारण यह है कि  इस पर जब भी बात हुई तो कुछ प्रदेशों ने हिन्दी का पुरज़ोरविरोध किया। उनके अपने राजनीतिक कारण और तर्क थे। लेकिन जब जब विरोध हुआ तब इसका मामला ठंडे बस्ते में चला गया और दब गया। नई शिक्षा नीति केअंतर्गत अभी त्रिभाषा सूत्र के मुद्दे पर तमिलनाडु में प्रदर्शन और विरोध की घटनाएं हुईं, वह इसका सबसे ताजा उदाहरण है।

एक पश्चिमी चिंतक ने कहा था कि ‘अगर हमें भाषा और आज़ादी में किसी एक को चुनना पड़े तो हम भाषा को चुनेंगे। हमारे पास अपनी भाषा होगी तो आज़ादी हमहासिल कर ही लेंगे। पर अगर भाषा नहीं रही तो आज़ादी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।Ó बिना भाषा के आज़ादी भी दरअसल गुलामी का ही दूसरा रूप है।दूसरी तमाम चीजों के विलुप्त होने की तरह भाषा भी धीरे धीरे विलुप्त हो रही है। दुनिया भर में इसके असंय उदाहरण हैं। जो भाषा उपयोग में नहीं लाई जाएगीउसका न तो विकास संभव है न ही वजूद। फि र वह उपेक्षित हो जाती है और धीरे धीरे इतिहास का हिस्सा बन जाती है। अब अगर भाषा नहीं बची तो क्या देश औरक्या संस्कृति!

यह साम्राज्य विस्तार का बिलकुल नया चेहरा है जब गुलाम बनाने के लिए सैनिकों और हथियारों की ज़रूरत नहीं पड़ती। सारा काम महीन तरीके से होता है। पताही नहीं चलता कि हम साथ किसका दे रहे हैं, खुद का या दुश्मन का। भाषा पर किया गया यह हमला जड़ों पर चोट करता है।

जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है तो आमतौर पर लोग कहते हैं कि हिन्दी को कोई खतरा नहीं है।  एक हद तक यह सही भी है। बाज़ार ने अपना हित साधने के लिए इसकापूरा इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है। उसे अपना माल बेचना है तो ग्राहक की भाषा में ही समझाना होगा। यह बाजार की मज़बूरी भी है। पर इससे भाषा का भलाकभी नहीं होगा। आज विज्ञापन, सीरियल, सिनेमा और तकनीक में हिन्दी का इस्तेमाल बहुत हो रहा है। यह  सुखद है पर इससे हिन्दी सिर्फ बाजार का एकउपकरण बन कर रह गई है। लोग गाते हिन्दी में हैं पर जो देखकर गाते हैं वह रोमन में लिखा होता है। भाषण हिन्दी में देते हैं पर लिखा वह रोमन में रहता है। इस परकाम करने वाले अधिकांश लोग न तो हिन्दी को जानते हैं न समझते हैं।

मुझे आश्चर्य तब हुआ जब एक बार ट्रेन में मैंने एक लड़के को जो कि नागालैंड का रहने वाला था, उसे फिल्मी गानें गाते देखा। वह मोबाइल से गाने सुनता और उसेउसी लय में दोहराता। मैंने उन गानों के अर्थ और भाषा के बारे में उससे पूछा तो उसने साफ कह दिया कि मुझे कुछ नहीं पता। उसे हिन्दी बिल्कुल नहीं आती थी।बस धुन अच्छी लगी तो सुन सुन कर गाने की कोशिश करता। देखने में यह गर्व करने का विषय हो सकता है, पर यह सोच कर मन सिहर जाता है कि ऐसी भाषाकिस काम की जब उसे बोला जाए पर महसूस नहीं किया जाए। यह एक बड़ी समस्या है जो बताती है कि कैसे किसी मनुष्य को धीरे धीरे कमज़ोर और अपाहिजबनाया जाता है। यह बड़े पैमाने पर की जा रही साजिश है जो भाषा के साथ साथ एक पूरी सयता और संस्कृति को बेसिर पैर करने की जिद्द का नतीजा है।

आज हिन्दी की स्थिति यह है कि इसके कई तह बन गए हैं। सरकारी काम काज की हिंदी अलग है और बोलचाल की हिन्दी अलग। दोनों के बीच बड़ा अंतर है।सरकारी काम काज में प्रयोग की जाने वाली हिन्दी का हश्र यह है कि उसे समझने के लिए शब्दकोश पलटना पड़ जाए। ऐसी लच्छेदार तत्सम युक्त भारी भरकमभाषा कोई सीखे भी तो कैसे! इससे दूरी का एक बड़ा कारण इसकी जटिलता है जो दरअसल निर्मित की गई है। भाषा को नदी की तरह बहती हुई होनी चाहिए।अगर वह ठहर जाती है तो गंदला होने के बाद धीरे धीरे सूख जाती है। संस्कृत इसका सबसे नया उदाहरण है। इतिहास देखें तो पता चलेगा कि यह एक समय में बड़ेपैमाने पर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा थी। फि र धीरे धीरे आमजन से यह दूर होती गई और आज वह कुछ ग्रंथों और पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह गई है। इसकाकारण भाषाई शुद्धता का आग्रह है। यह किसी भी भाषा के लिए एक बड़ा खतरा है। इसी शुद्धतावादी नज़रिए का शिकार हिन्दी हो रही है। इसकी दूरी अन्य भारतीयभाषाओं और बोलियों से लगातार बढ़ रही है। यही कारण है कि इसकी समृद्धि के तमाम रास्ते बंद पड़ गए हैं।

दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों से इसका छत्तीस का आँकड़ा है। जबकि होना यह चाहिए था कि दोनों के बीच कोई एक सेतु होता जो मैत्रीपूर्ण संबंध जोड़सकता। यह भाषाई और शाब्दिक आदान प्रदान से ही संभव हो सकता था। पर यह बहुत पहले ठहर गया। नतीजा हुआ कि हिन्दी के शब्दकोश में अंग्रेज़ी के शब्दज्य़ादा हैं और अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों के शब्द बहुत कम। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। अपनी भाषाओं और बोलियों से बनाई गई यही दूरी इसकीजड़ों को खोखला कर रही है।

अब समय आ गया है कि इस पर फि र से विचार किया जाए और उन कमियों को दूर किया जाए जिसके कारण भाषाएँ एक दूसरे की दुश्मन बन गई है। भाषा जबतक आमजन के बीच रहती है वह लगातार बदलती है। नए-नए शब्द उसमें जुड़ेंगे तो कुछ न कुछ हटेगा भी। यह एक चलनी की तरह चलने वाली प्रक्रिया है जोकार्यालयों और संस्थानों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। यह देश भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का देश है। जब तक एक दूसरे के प्रति आदर और समान काभाव नहीं रहेगा तब तक टकराव की स्थिति लगातार बनेगी। यह भाषा के स्तर भी होना जरूरी है।

भाषा किसी भी मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है। यह भाषा ही है जो अपने साथ एक पूरी सयता,साहित्य और संस्कृति को समेटे हुए मनुष्य का साथ देती है। उसकेबिना किसी परंपरा की कल्पना असंभव है। वह भाषा ही है जो मनुष्य की रचनात्मक क्षमता को प्रकट होने के अवसर देती है। यह जितना अपनी भाषा में सहजतापूर्वक संभव है उतना सीखी हुई या अर्जित की हुई भाषा में नहीं। सीखी हुई भाषाओं की अपनी सीमा है। वह उतना ही साथ देती है जितना कि अर्जित की गई।

मातृभाषा के साथ ऐसी बात नहीं है। उसके साथ अथाह स्रोत है। भाषा पर किए गए तमाम ज्ञात और अज्ञात हमले दरअसल उसी मातृभाषा पर किए जाते हैं जोसोचने समझने और चिंतन की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती हैं। यह पूंजीवाद का एक नया चेहरा है जब वह सीधे मस्तिष्क पर आघात कर रहा है। उसीयोजना का हिस्सा है वर्चस्व की लड़ाई। जब हिन्दी के साथ की सभी भाषाएँ एक दूसरे से दूर हो रही हैं और संघर्ष कर रही हैं तब अंग्रेज़ी के लिए वे अवसर ही बढ़ारही हैं। यह भयावह भविष्य का सूचक है। कोई भी भाषा तभी तक साथ देती है जब तक कि उसे बोलने वाले उसका साथ दें। नहीं तो अंत में विलुप्त होने के लिए तोअभिशप्त वह है ही।

भयंकर सूखे की चपेट में महाराष्ट्र

सुना है कि आप को राज्य सरकार में किसी मंत्री ने चुनौती देते हुए कहा था कि आप उनके साथ इस मामले में चर्चा करें…

हां सुना है लेकिन मैं ऐसे लोगों से चर्चा नहीं करना चाहता जिनकी इस बारे में समझ सीमित है अगर चर्चा करनी है तो उन सूखाग्रस्त इलाकों में जाएं  जहां पर लोगपरेशान हैं और पानी के लिए तरस रहे हैैं। उन किसानों से मिलें जिनकी फसलें खत्म हो गई हैं। चारा छावनियों में जाकर देखें जहां पर चारे की कमी है, पानी कीकमी है, जिन लोगों के फलों के बाग जल गए हैं उन लोगों से चर्चा करना सार्थक है। मैं महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों में घूम आया हूं। मैंने जो कुछ देखा वाकई वहबहुत ही गंभीर है। मुझे लगता है कि 1972 के बाद यह बहुत ही गंभीर समस्या है। महाराष्ट्र में मैं उन लोगों से मिला जो चारा छावनियां चला रहे हैं। उन्हें प्रतिदिन 90 रुपए मिलते हैं । रुपए 90 प्रति दिन में प्रति जानवर चारा पानी आदि कैसे संभव है? यह बढ़ा कर 115-120 तक कर देना चाहिए। कुछ लोगों ने यहां तक कह दियाकि कम पैसों में वह चारा छावनी नहीं चला सकते और बंद कर देंगे …अगर वह चारा छावनियों बंद कर देंगे तो स्थिति बहुत ही खराब हो जाएगी।

सरकार का दावा है कि टैंकरों से पानी सप्लाई की जा रही है…

 हां सरकार ने टैंकरों की व्यवस्था की है लेकिन टैंकर से पानी की आपूर्ति काफी कम है और स्थिति बदतर है। कभी कभी कहीं कहीं दो-तीन दिन में एक बार पहुंचताहै टैंकर। अब जिन दिनों टैंकर्स नहीं पहुंचते उन दिनों के लिए लोग क्या करें? कहां से पानी लाएं? कहीं कहीं सरकारी टैंकर दिन में सिर्फ एक दफा ही आता है …एकबार में एक टैंकर से कितनी जलापूर्ति होगी? गांव के कितने लोगों को पानी मिलेगा ? कितने परिवारों की प्यास बुझेगी… जानवरों की भी तकरीबन यही दशा है ।लोगों की अपेक्षा है कि टैंकर रोज़ आए और ज़्यादा से ज़्यादा चक्कर मारे ताकि लोगों को नियमित पानी मिले प्यास बुझाने के लिए।

सब से अधिक परेशान महिलाएं हैं जिनके कंधों पर घर परिवार की जिम्मेदारी है। पीने के लिए तो पानी चाहिए ही लेकिन घर के अन्य कामों जैसे खाना बनाने केलिए, बर्तन धोने , कपड़े धोने के लिए भी पानी चाहिए चाहिए। महिलाओं की शिकायत है कि टैंकर से जो पानी आता है वह स्वच्छ नहीं है… पीने लायक नहीं है। इसमामले में विशेष ध्यान देना चाहिए। यह ज़रूरी भी है कि कम से कम पीने का पानी साफ स्वच्छ हो ताकि लोग बीमार न पड़े। सूखे की मार झेल रहे लोग इलाज कैसेकरा पाएंगे? कहां से पैसे लाएंगे?

सूखाग्रस्त इलाकों में जल संकट के साथ साथ और भी परेशानियां हैं…

खेत, बगीचे खत्म हो गए, पानी की समस्या, चारे की समस्या, और रोजग़ार की समस्या मुंह बाए खड़ी है। गांव से 50 फीसदी से अधिक लोग रोजग़ार के लिए गांवछोड़कर जा कर चुके हैं । रोजग़ार की कोई व्यवस्था नहीं है। हताश निराश लोग पुणे, मुंबई जा रहे हैं । रोजी रोटी के लाले पड़ गए हैं। परेशान गांव वाले छोटे-मोटेशहरों की तरफ नहीं जाएंगे तो क्या करेंगे ? सब लोग रोजग़ार की मांग कर रहे हैं और रोजग़ार देना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। रोजग़ार के साथ ही पानी कीव्यवस्था हो ,जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था हो तो शायद कुछ दिशा दशा बदल सकती है इस संकट से । पशुधन को भी बचाना जरूरी है मैं कोई राजनीति नहींकर रहा हूं। इस  तकलीफ की घड़ी मे कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करना हम सब की जिम्मेदारीनहीं है?

फसलों के साथ-साथ फल बागानों खत्म हो जाने से लोगों की मुश्किलें बढ गई हैं । हालांकि  फसलों का खत्म होना भी तकलीफदेह हैं लेकिन फल बागानों की स्थितिज़्यादा गंभीर हो जाती है। क्योंकि लगभग पांच वर्ष लग जाते हैं बागानों को फलदार बनने में। आने वाले 20 साल तक उत्पादन का जो संसाधन होता है वह बागानों केखत्म होने से खत्म हो जाता है। हमारी सरकार ने जिस तरह से बागान वालों को पानी के टैंकरों के पैसे दिए थे इस सरकार को भी इसी तरह कुछ उपाय योजनाकरनी चाहिए। सरकार का सहयोग नहीं मिल रहा है लोगों को । एक बात अच्छी है कि कुछ लोग निजी रूप से व निजी संस्थाए , एनजीओ दिल खोलकर सहयोगकरने की कोशिश कर रहे हैं सूखे की मार झेल रहे लोगों की। लेकिन इन लोगों के भरोसे छोड़ कर सरकार अपने हाथ खड़े नहीं कर सकती। यह सरकार की नैतिकजिम्मेदारी है जिसे सरकार को पूरी तरह से निभाना ही होगा।

फिलहाल मुख्यमंत्री टेली कांफ्रेंस के जरिए स्थिति पर नजर रखे हुए हैं…

मुख्यमंत्री टेलीकॉम टेली कांफ्रेंस के जरिए स्थिति पर नजऱ रखे हुए हैं। मैं जानता हूं। वह ठीक कर रहे हैं अपने संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं और डिस्ट्रिक्ट के सभीअधिकारियों से चर्चा कर रहे हैं लेकिन बेहतर यह है कि मुख्यमंत्री वहां जाकर चारा छावनियों की जानकारी लें। जानवरों की क्या दशा है वह देखें। चारा छावनीचलाने चलाने वालों की क्या हालत है उसे देखें। जल शिविरों की क्या स्थिति है उसका पता लगाएं । जानवरों के मालिकों से बातचीत करें और फल बगानों की स्थितिपता लगाएं। लोगों तक पानी पहुंचाएं।

वामपंथ नहीं तो देश का भविष्य क्या?

देश में खासकर पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी। जब तक देश में बेरोजग़ारी, मंहगाई रहेगी तब तक वाम मोर्चे का वजूद बना रहेगा।भले ही आप यह मान लें कि देश में अच्छे दिन आ गए हैं। आलम यह है कि देश में बेरोजग़ारी सबसे खराब स्थिति में है। चुनाव देश में होने थे तो आंकड़ें दबा दिएगए। चुनाव खत्म होने के बाद अब यह बात साफ हुई । दरअसल सवाल यह नहीं है कि वामपंथ का भविष्य क्या है। अलबत्ता सवाल यह है कि वामपंथ के बगैर देशका भविष्य क्या है?

जब पश्चिम बंगाल में 2011 में विधानसभा चुनाव हुए तभी से मीडिया में यह लिखा जाने लगा कि वाम मोर्चा खत्म हो गया है। उसका किला ढह गया है। जबकि मैं औरमेरे साथी परेड ग्राउंड में लाखों की भीड़ के साथ थे। भाजपा इस मैदान में सभा करने की हालत में भी नहीं थी। लेकिन मीडिया में चल  वह रहा था जिसमें न सच्चाईथी और न तथ्य। यह ठीक है कि वाममोर्चा की हार चुनावों में हुई लेकिन उसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई।

दक्षिणपंथी दल बेमतलब की बातों  को राजनीति में ले आते हैं। इसका असर वामपंथ पर पर्दा डालना होता है। पूरा देश जानता ही नहीं बल्कि जानता है कि वामपंथीभविष्य की लड़ाई आज लड़ते हैं। जबकि दक्षिणपंथी हमेशा भविष्य के सुनहरे सपने दिखाते हैं। अच्छे दिनों का भरोसा जगाते हैं। अतीत में ज़रूर वामपंथ में कुछगलतियां हुई होंगी। उन्हें नकारा नहीं जा सकता। लेकिन वामपंथी हमेशा अतीत से सबक लेकर, भविष्य के लिए काम करते हैं।

हाल में हुए लोकसभा चनुावों के बाद बंगाल में तृणमूल कांग्रेस खासी कमज़ोर हुई है। वामपंथी यह मानते हैं कि उनका संगठन, उनका आंदोलन और जन-जन केलिए उनकी प्रासंगिकता अभी खत्म नहीं हुई है। वामपंथियों की सक्रियता और उसके आंदोलन कभी किसी के कमजोर होने से उज्जवल नहीं होते। इसकी खासवजह यह है कि अपनी कमज़ोरियों को दूर करके ही यह ताकत में बढ़ोतरी करता है।

संभव है तृणमूल का निर्माण  इसलिए किया गया हो कि वाममोर्चा की राजनीति को खत्म किया जा सके और धर्म पर आधारित राजनीति शुरू की जाए। बंगाल कीधरोहर नष्ट की जाए। इस मकसद को पाने के लिए धर्म चिन्ह, धर्म पताकाएं, धर्म लिबास, धर्म गुरू, धार्मिक अनुष्ठनों का भरपूर उपयोग राजनीति में किया गया। ऐसाकभी पहले बंगाल में नहीं हुआ। बंगाल की अपनी लोक संस्कृति, परंपरा और मूल्यों को नष्ट कर दिया गया। इसका नुकसान वामपंथ पर भी पड़ा। वाम मोर्चाकमज़ोर हुआ। क्योंकि वामपंथी मंदिर-मस्जिद, पंडित, मौलाना और धर्म का दूसरे धर्म से टकराव कतई पसंद नहीं करते। वाममोर्चा दुर्गा पूजा, रामनवमी औरमुहर्रम पर कभी सियासत नहीं करेगा। ऐसी सियासत वे राजनीतिक दल ही कर सकते हैं जिनके पास अपनी कोई विचारधारा नहीं है।

अब यह साफ दिख रहा है कि केंद्र में हावी भाजपा-आरएसएस (राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ) अब तृणमूल कांग्रेस पर हावी है। अब ये राजनीति में राम मंदिर, राम नवमी, हनुमान जयंती आदि के सहारे जो चाहे वह कर सकते हैं। दक्षिणपंथी इस बात के लिए कुख्यात हैं कि ज़रूरत पडऩे पर ये धर्म का चोला पहन कर वह सब करते है।चाहे मौका चुनाव जीतने का हो या फिर ‘मॉब लिंचिंगÓ का।

इस समय बंगाल में हिंदू-मुसलमानों को लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति हो रही है। हिंदी भाषियों और बांग्ला भाषियों के बीच सदियों ही नहीं बल्किआज़ादी के बाद दशकों से रहे सुमधुर संबंधों में तनाव लाने की पुरज़ोर कोशिशें आज हो रही हैं। आज भाजपा और तृणमूल अपस में नहीं लड़ रही हैं बल्कि दोनोंमिलकर बंगाल में शिष्टता, शांति और भाई-चारे को नष्ट कर रही हैं।

वामपंथी आज भाजपा-तृणमूल साजिश को बेनकाब कर रहे हैं जनता में। हर सुबह और हर शाम। बंगाल की जनता यह समझ रही है। वह समझ रही है कि वामपंथी जब सत्ता में थे तो राज्य में कितनी शांति, अमन चैन और सुकून था। वाममोर्चा बंगाल में अब जनता को एकजुट कर रहा है। बंगाल की जनता अब अपनी एकताको और मज़बूत करती हुई, खुद को तैयार कर रही है। वाममोर्चा के कार्यकर्ता भी आने वाली चुनौतियों को जानते -समझते हुए मुकाबलों के लिए खुद को हर चुनौतीके लिए तैयार कर रहे हैं।

 (लेखक, माकपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद हैं)

केरल, बंगाल और त्रिपुरा में वामपंथ को भारी धक्का, माना माकपा ने

लोकसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को 2014 के मुकाबले ज़्यादा सीटें मिली हैं। यह उनके पक्ष में निर्णायक जनादेश है। पिछले पांच साल के दौरानभाजपा ने जो दक्षिणपंथी हमला छेड़ा था उसे इस जनादेश ने पुख्ता किया है। यह बात माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कमेटी की तीन  दिन तक चली बैठकके बाद जारी विज्ञप्ति में कही गई है। पार्टी ने माना कि पुलवामा तथा बालाकोट के बाद भाजपा लोक आख्यान को रोजी-रोटी के उन अनेकानेक मुद्दों से दूर करने मेंसफल रही है जो एनडीए सरकार के पिछले पांच सालों ने थोपे थे।

सांप्रदायिक राष्ट्रवादी उन्मत्तता के इस आख्यान को बनाने में, अनेकानेक कारकों के योग से गढ़ी गयी मोदी की छवि ने मदद की थी। मीडिया के कुछ हिस्से इसतरह की प्रस्तुति के साझीदार बन गए। इस चुनाव में धनबल का अभूतपूर्व इस्तेमाल हुआ। चुनावी बांडों के जरिए भाजपा को भारी रकमें दी गयी थीं। चुनाव आयोगकी भूमिका ने इन सब को बढ़ाने वाले कारक का काम किया।

विपक्षी पार्टियां

अधिकांश विपक्षी पार्टियों  को इन चुनावों में भारी धक्का लगा है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा कुछ ही अन्य राज्यों की पार्टियां इसका अपवाद रही हैं।

विपक्षी पार्टियां खासतौर पर कांग्रेस, धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों की एकता कायम करने में विफल रहीं, जिसकी चुनाव की पूर्वबेला में बात हो रही थी। सांप्रदायिकहमले के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की हिफाजत करने के लिए अभियान नहीं चलाया गया। कट्टर हिंदुत्व का जवाब, नरम हिंदुत्व नहीं है। हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षता केबीच विचारधारात्मक लड़ाई ताकत के साथ नहीं चलायी गयी।

सीपीआई(एम) और वाम को गंभीर धक्का

सीपीआई(एम) तथा वामपंथ को खासतौर पर अपने गढ़ केरल, पश्चिम बंगाल तथ त्रिपुरा में गंभीर धक्का लगा है।

पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा दोनों में भारी तनाव तथा हिंसा के वातावरण में चुनाव हुए थे। ऐसी हिंसा में बंगाल में सीपीआई(एम) के पांच और त्रिपुरा में एक कार्यकर्ताकी जान गयी है। त्रिपुरा पश्चिमी लोकसभाई क्षेत्र में तथा त्रिपुरा में डायमंड हार्बर लोकसभाई क्षेत्र में चुनाव में बहुत हद तक धांधली हुई थी जबकि अन्य अनेकलोकसभाई क्षेत्रों में भी चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए। चुनाव आयोग ‘स्वतंत्र तथा निष्पक्षÓ चुनाव कराने का अपना वादा पूरा नहीं कर सका।

केंद्रीय कमेटी ने तीनों  राज्य कमेटियों द्वारा की गयी आरंभिक समीक्षा पर चर्चा की। मतदान-केंद्रवार विस्तृत समीक्षा जारी है, जिसके आधार पर अंतिम रूप सेचुनाव के अनुभवों का आकलन किया जाएगा।

इन चुनावों में सीपीआई(एम) ने भाजपा तथा उसके सहयोगियों को हराने का, संसद में वामपंथ की ताकत बढ़ाने का और केंद्र में एक वैकल्पिक धर्मनिरपेक्ष सरकारबनाने का आहवान किया था। इस जनादेश ने इन सभी लक्ष्यों को ठुकरा दिया है

केरल में मतदाताओं को लगा कि कंाग्रेस ही एक वैकल्पिक धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए बेहतर स्थिति में होगी। इसका नतीजा यह हुआ कि धर्मनिरपेक्षविचार के लोगों तथा अल्पसंख्यंकों के एक हिस्से ने उनके पक्ष में वोट डाला। हालांकि एनडीए की सरकार सबरीमाला के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को लागूकरने के लिए बाध्य थी, फिर भी इस मामले में उसके सही रुख का इस्तेमाल कर भाजपा तथा यूडीएफ ने आस्थावानों के एक हिस्से के मन में शिकायतें पैदा कर दीं।पार्टी इन तबकों को फिर से अपने साथ लाने के सभी प्रयास करेगी।

पश्चिम बंगाल में ये चुनाव बहुत ही ध्रुवीकृत माहौल में हो रहे थे।  मीडिया ने एक द्विध्रुवीय आख्यान रचने में बहुत भारी भूमिका अदा की और इसने तृणमूल कांग्रेसऔर भाजपा के बीच ऐसे ध्रुवीकरण में मदद की। सांप्रदायिक रंग से रंगे चुनाव अभियान ने मतदाताओं का और ज़्यादा ध्रुवीकरण कर दिया। तृणमूल कांग्रेस केखिलाफ बहुत भारी शासक विरोधी भावना थी। सीपीआई(एम) तथ वामपंथ के लोग विकल्प की तरह नहीं देख पा रहे थे और इसके चलते हमारे परंपरागतमतदाताओं का एक हिस्सा खिसक गया। भाजपा विरोधी और टीएमसी विरोधी वोट को एक जुट किए जाने के वामपंथ के प्रस्ताव को स्वीकार करने से कांग्रेस केइंकार ने इस ध्रुवीकरण और बल दिया।

त्रिपुरा में दो में से एक सीट मोटे तौर पर धांधली का शिकार हुई। अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित दूसरी सीट पर जिस पर भाजपा को जीत मिली है, कांग्रेस दूसरेनंबर पर आयी है।

 इन दोनों राज्यों में भी पार्टी कमेटियां हमारे परंपरागत समर्थन आधर में गिरावट का ईमानदारी से आकलन कर रही हैं और इन तबकों को दोबारा पार्टी के साथलाने के लिए फौरन उठाने वाले कदम तय करेंगी। इन मजबूत गढ़ों के बाहर, तमिलनाडु में सीपीआई(एम) ने डीएमके पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन के हिस्से के तौरपर लड़ी दोनों सीटें  स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था। महाराष्ट्र में डिंडोरी  में सीपीआई(एम) को 1,09,570 वोट मिले हैं जो अन्य राज्यों में उसकी लड़ी दूसरी सभी सीटोंमें से सबसे ज़्यादा हैं।

ओडिशा राज्य विधानसभा के चुनाव में सीपीआई(एम) ने बोनाई सीट पर अपना कब्जा बनाए रखा है। इस बार उसे पिछले चुनाव से 20 हजार ज़्यादा वोट मिले हैं।

केंद्रीय कमेटी ने दर्ज किया है कि पार्टी की स्वतंत्र शक्ति और उसकी राजनीतिक हस्तक्षेप की क्षमतााओं में गिरावट जारी है। केंद्रीय कमेटी ने इस  तरह के रुझानको गहरा करने में योग दे रहे विभिन्न कारकों पर चर्चा की और इस गिरावट को रोकने तथा पलटने के लिए पार्टी द्वारा उठाए जाने वाले फौरन ज़रूरी सांगठिनकतथा राजनीतिक कदम तय किए।

चुनाव के बाद आने वाली चुनौतियां

केंद्रीय कमेटी इस निष्कर्ष पर  पहुंची कि देश और जनता को, भाजपा की इस निर्णायक जीत से निकलने वाली सिर पर आने वाली चुनौतियों का सामना करने केलिए खुद को तैयार करना चाहिए। केंद्रीय कमेटी ने ऐसी चार चुनौतियों को दर्ज किया।

भाजपा ने यह निर्णायक जीत पैसे की अभूतपूर्व ताकत और अंतरराष्ट्रीय तथा घरेलू कार्पोरेट के पूर्ण समर्थन के आधार पर हासिल की हैं। बड़ी पूंजी तथा अमीरो जानातय है। पार्टी, ऐसे आर्थिक हमलों के खिलाफ संघर्षों में जनता के ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सों को गोलबंद करने के लिए पहल करेगी।

हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सुदृढ़ीकरण , धार्मिक तथ भाषायी अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले और उनकी सुरक्षा चिंताओं के तथा आजीविका के हालातबदतर होने की ओर ले जाएगा। हमारे संविधान में प्रतिष्ठापित धर्मनिरपेक्षता की हिफाजत करने तथा उसे मजबूत करने को पार्टी हाथ में लेगी और इन संघर्षों मेंजनता के बड़े तबकों को खींचेगी।

 पिछले पांच साल में सभी संवैधानिक संस्थाओं में आरएसएस की जो घुसपैठ हुई है, उसका अब और तेज किया जाना तय है। यह ऐसी संस्थाओं को कमजोर किएजाने की ओर ले जाएगा ताकि ”हिंदू राष्ट्र” की आरएसएस की विचारधारात्मक परियोजना में, हमारे संवैधानिक गणराज्य के रुपांतरण को सुगम बनाया जा सके।सीपीआई(एम) इन संघर्षों में साथ आने को तैयार दूसरी सभी ताकतों को साथ लेकर, सभी संवैधानिक सत्ताओं की हिफाजत तथा उन्हें मजबूत करने की अगुआईकरेगी।

 भारत में एक ”सीक्योरिटी” स्टेट कायम करने की मांग भाजपा इस जीत के केंद्र में थी। व्यक्तिगत अधिकारों पर और खासतौर पर असहमति के अधिकार परहमला तेज हो जाने वाला है। इसके अनिष्टकर संकेत अभी से सामने आने शुरू हो गए हैं। इस या उस बहाने से दलितों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ निजीसेनाओं के हमले और तेज  हो जाने वाले हैं। यह खोज-खोज कर उत्पीडऩ की ओर ले जाएगा। इन चुनौतियों का सीधे-सीधे सामना करने के लिए सीपीआई(एम) हमारी जनता के उन व्यपकतम हिस्सों को गोलबंद करने के लिए पहल करेगी जो जनतांत्रिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं से प्यार करते हैं।

फौरी काम और कदम

केंद्रीय कमेेटी ने पार्टी को लगे इस धक्के से पैदा हुए गंभीर हालात का सामना करने के लिए अनेक कदमों तथा कामों को तय किया है।

जनता के साथ रिश्तों को गहरा करने के लिए ओर विभिन्न मोर्चों की गतिविधियों को मजबूत करने के लिए ठोस कदम तय किए गए हैं।

रोजीरोटी के मुद्दों के संघर्षों को अनुसूचित जातियों, जनजातियों अल्पसंख्यकों तथा महिलाओं के सामाजिक उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्षों के साथ जोडऩे पर खासध्यान दिया जाएगा।

पार्टी संगठन तथा उसके काम-काज के संबंध में 2015 में कोलकाता में हुए पार्टी प्लेनम में जो महत्वपूर्ण फैसले लिए गए थे। उनके अमल की पार्टी समीक्षा करेगी।इस समीक्षा के आधार पर जिसे राज्यों द्वारा अगस्त के आखिर तक पूरा कर लिया जाएगा, पार्टी को मज़बूत करने और उसके कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने केलिए ,आगे का रास्ता तय किया जाएगा।

इन चुनावों का अनुभव दूरगामी चुनाव सुधारों की ज़रूरत दर्शाता है। इसमें चुनाव आयोग में सुधार तो तत्काल ज़रूरी है। सीपीआई(एम) राजनीतिक इंद्रधनुष केसाथ आने को तैयार सभी रंगों को यह सुनिश्चित करने के लिए गोलबंद करेगी कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक कोलीजियम द्वारा कीजाए, न कि तत्कालीन सरकार द्वारा।

ईवीएम की निष्पक्षता के संबंध में विभिन्न शिकायतों और इन मशीनों के साथ संभव छेड़छाड़ के संदेहों के सिलसिले में सीपीआई(एम) संबंधित रिपोर्टों का अध्ययनकरेगी और अन्य राजनीतिक पार्टियों के साथ परामर्श कर भविष्य की कार्य दिशा तय करेगी।

केंद्रीय कमेटी ने चुनाव के बाद धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी डा. राम पुनियानी को दी गयी धमकियों की निंदा की।

केंद्रीय कमेटी ने अनुसूचित जनजाति  की युवा पोस्ट ग्रेजुएट मैडीकल छात्रा डा. पायल तडवी की आत्महत्या पर शोक जताया। वह जातिगत उत्पीडऩ के चलतेआत्महत्या करने पर मज़बूर हो गयी। महाराष्ट्र सरकार को दोषियों के खिलाफ और इस तरह के घृणा अभियानों को पैदा करने वाले के खिलाफ कड़ी कार्रवाईकरनी चाहिए।

हिमाचल में फिर रेप, पुलिस प्रशासन बेखबर

यह बड़ी उलझन वाला मामला है। उन्नीस साल की एक लड़की का आरोप है कि उसका अपहरण कर उसके साथ चलती कार में दुष्कर्म किया गया। लेकिनफॉरेंसिक रिपोर्ट में यह प्रमाणित नहीं होता कि जिस दिन का जिक्र लड़की अपनी शिकायत में कर रही है उस दिन उसके साथ कोई ‘सेक्सुअल इंटरकोर्सÓ हुआ।फिलहाल यह मामला कोर्ट में है।

रेप का यह मामला देव भूमि शिमला को शर्मसार करने वाला रहा। लोक प्रदर्शन भी हुए इस घटना के विरोध में। राजनीतिक दलों ने भी आवाज उठाई। कांग्रेस औरमाकपा ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपने की मांग की। दिलचस्प यह है कि आरोप लगने के बाद करीब डेढ़ महीने के इस समय में एक भी व्यक्ति कीगिरतारी नहीं हुई। पीडि़त युवती पढ़ाई में भी अच्छी रही है और कहा जाता है कि जमा दो की परीक्षा उसने 90 प्रतिशत अंकों से ज्य़ादा के साथ पास की थी।

‘तहलकाÓ ने शिमला में डीआईजी साउथ आसिफ जलाल से इस बारे में बात की। जलाल ने कहा -‘अभी इस मामले में जांच चल रही है। कुछ फाइनल नहीं हुआ है।Ó उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि इस मामले से जुड़ी फॉरेंसिक रिपोर्ट तो आई है लेकिन उसमें क्या है यह वो बता नहीं सकते। ‘यह एक संवेदनशील मामला है।कोर्ट के भी निर्देश हैं। लिहाजा मैं आपको रिपोर्ट के बारे में कुछ बताने की स्थिति में नहीं।Ó जलाल ने मीडिया में फॉरेंसिक रिपोर्ट को लेकर छपी रिपोर्ट्स पर भीटिप्पणी से इंकार कर दिया।

लड़की का आरोप

खुद को दुष्कर्म का शिकार बताने वाली हरियाणा की 19 साल की युवती शिमला में एक संस्थान में कोचिंग लेती थी। उसका आरोप है कि वह 28 अप्रैल की रातकरीब दस बजे मॉल रोड से जब आ रही थी तो ढली-भट्टाकुफर मार्ग पर शिव मंदिर के पास एक कार आकर उसके पास रुकी। आरोप के मुताबिक युवती को कारके भीतर खींच लिया गया और फिर चलती कार में उसके साथ दुष्कर्म किया गया। बाद में उसे अर्धनग्न अवस्था में कार से बाहर फेंक कर कार में बैठे लोग फरार होगए। उसके मुताबिक कार में तीन लोग मौजूद थे। कथित घटना वाले दिन युवती लक्कड़ बाजार पुलिस चौकी गई थी जहाँ पुलिस ने युवती को गुडिय़ा हेल्पलाइन कानंबर दिया था।

इसके बाद पीडि़ता ने ‘गुडिय़ा हेल्पलाइनÓ के जरिए खुद से दुष्कर्म की शिकायत दर्ज करवाई। इसके बाद पुलिस जांच में जुटी। शिमला पुलिस ने दर्जनों लोगों सेपूछताछ की। एक चश्मदीद भी सामने आया। पुलिस ने युवती के एक दोस्त को भी हिरासत में लिया और पूछताछ की। लेकिन कुछ ठोस हाथ नहीं लगा।

पीडि़ता का आरोप रहा है कि उसे आरभ से ही हिमाचल पुलिस की जांच पर भरोसा नहीं। पीडि़ता का पुलिस पर उसके चरित्र हनन का भी आरोप रहा है। उसकाकहना है कि वो झूठ क्यों बोलेगी। उधर पीडि़ता के पिता का कहना है कि एसआईटी की जांच रिपोर्ट क्या आती है इसके बाद ही वह अगला कदम उठाएंगे।

इस मामले में सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश भी दिए हैं जिसकी जांच रिपोर्ट्स का इन्तजार है। फिलहाल शिमला पुलिस अब तक इस मामले में खाली हाथ हैऔर किसी भी आरोपी की गिरतारी नहीं हुई है।

फोरेंसिक रिपोर्ट पुलिस को मिल चुकी है लेकिन जानकारों के मुताबिक युवती के दुष्कर्म के आरोप फोरेंसिक जांच रिपोर्ट से मेल नहीं खाते। पुलिस का कहना रहाहै कि जांच के दौरान उसे ऐसा कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिला जिससे साफ हो सके कि लड़की के साथ अपहरण और दुष्कर्म हुआ है।

मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि एसआईटी का दावा था कि जब उसने जांच शुरू की तो लड़की को उस जगह पैदल जाते देखा गया जिस जगह उसने अपहरणहोने की बात कही है। चलती कार में जिस जगह  युवती ने खुद से दुष्कर्म होने का आरोप लगाया है उस समय वहां से करीब 25-26 वाहन गुजरे हैं। एसआईटी कीएक थ्योरी यह भी रही कि युवती अपने एक दोस्त की अटेंशन पाना चाहती थी।

पुलिस ने जांच में पाया कि पीडि़ता युवती ढली बायपास पर शिव मंदिर लेकर हिलग्रोव स्कूल तक करीब डेढ़ किलोमीटर तक पैदल गई। हालांकि पीडि़ता ने आरोपलगाया था कि उसका ढली शिव मंदिर के पास एक कार में अपहरण किया गया था। जांच में उस जगह से अपहरण की बात सामने नहीं आई है।

जांच में शामिल टीम के सदस्यों ने इस मामले में छात्रा के एक दोस्त के अलावा कुछ अन्य युवकों से भी पूछताछ की है। पुलिस ने काफी समय तक छात्र के दोस्त केछात्र से पूछताछ की है। छात्रा के इस दोस्त ने पुलिस को बयान दिया था कि पीडि़ता के कॉल करने पर वह उस जगह पहले पहुंचा था, जहां उसको कार से फेंकागया था। पुलिस ने इस बारे में उससे कई सवाल पूछे।

पुलिस ने युवती की कॉल डिटेल रिपोर्ट (सीडीआर) भी खंगाली है। सीडीआर के आधार पर कुछ युवकों से पूछताछ की गई। पुलिस ने ढली टनल से लेकर उस जगहतक के सीसीटीवी खंगाले हैं, जहां युवती के आरोप के मुताबिक उसे फेंका गया था। पुलिस जांच में वह हिल ग्रोव स्कूल के पास लगे सीसीटीवी कैमरे में भी पैदलजाती दिखाई दे रही है। युवती के मुताबिक उसने घटना की जानकारी अपने एक दोस्त को दी थी जो कि कॉलेज में पढ़ता है। दोस्त ने उसको कपड़े दिए और अपनेघर ले गया जहां फिर पुलिस पहुंची।

लेकिन यहाँ यह सवाल ज़रूर है कि ऐसा ही था तो उसने ‘गुडिय़ा हेल्पलाइनÓ पर कॉल क्यों किया? यही नहीं इससे पहले वो लक्कड़ बाजार पुलिस चौकी भी गई।वैसे घटना के जांचकर्ता एसआईटी प्रमुख प्रवीर ठाकुर का कहना है – ‘ एसआईटी हर पहलू पर जांच कर रही है।

राजनीतिक दल भी इस मामले में आवाज उठा रहे हैं। कांग्रेस का आरोप है कि जब से  भाजपा आई है प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की हालत पटड़ी से उतरी हुई है।शिमला ग्रामीण से कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य ने पुलिस की जांच पर सवाल उठाए हैं। विक्रमादित्य ने कहा कि मामले को लेकर पुलिस राजनीतिक दवाब में हैऔर मामले को दबाने का प्रयास किया गया है। विक्रमादित्य ने कहा – ‘मामले की सीबीआई जांच होनी चाहिए।Ó माकपा ने भी मामले की उचित जांच की मांग कीहै। पार्टी विधायक राकेश सिंघा ने कहा – ‘सच क्या है यह लोगों के सामने आना चाहिए।

राष्ट्रवाद से किसानों के आंसू तो सूखे, पर छाई भूखमरी और बेरोज़गारी

सियासत इतिहास को नकार सकती है। मतदाता अब गठबंधन के रसायन को स्वीकार करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं। लोगों को अब ऐसी सरकार चाहिए जोउनके मनोबल की धार कुंद न होने दें। उन्हें फख्र से बोलने का अवसर दे और आंखों में एक ‘लहक पैदा करे कि, ‘कैसे हम उनके घर में घुसकर मारकर वापसआएं? यही था ‘राष्ट्रवाद का जोश! जिसकी आंच में ग्रामीण बदहाली, मंदी, बेरोज़गारी और जातीय समीकरण सरीखे सारे मुद्दे राख हो गए। लोगों का सीधा तर्क थाकि ‘अगर हम सुरक्षित हैं तो विकास की डगर तो अपने आप ही बनती चली जाएगी। लोगों को नोटबंदी और जीएसटी की मुश्किलें बर्दाश्त करना कबूल हुआ।लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता से समझौता करना कबूल नहीं हुआ। विश्लेषकों का कहना है कि, ‘राष्ट्रवाद की भावना से उफनते युवाओं ने सेंन्टीमेंटस के अंडरकरंट मेंमतदान किया।

राजस्थान में राष्ट्रवाद का जोश मीडिया ने भी अनुभूति के स्तर पर स्वीकार किया। विश्लेषकों का तो यह तक कहना है कि, ‘विधानसभा चुनावों में जो ताकत कांग्रेस नेहासिल की, वो राष्ट्रवाद के मुद्दे के आगे नहीं ठहर सकी। विराट जीत के बाद मोदी जब पहली बार कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे, उन्होंने जिस अंदाज में कहाकि, ‘जनता ने फकीर की झोली भर दी…। जाहिर है उन्हें ‘राष्ट्रवाद का सिक्का चल जाने की पूरी उम्मीद थी। याद रखिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जब बीते बरस संघका अधिवेशन आयोजित किया था तो उसका मजमून ‘भविष्य का भारत था। यानी संघ और मोदी एक साल पहले भारत का भविष्य गढ़ चुके थे। लेकिन कांग्रेस कोभनक तक नहीं लगी ?

इस अदृश्य शक्ति के संकेत से बेखबर कांग्रेस अपने तरकश में राफेल, बेरोजग़ारी और नोटबंदी से मोदी पर वार करने के हथियार तलाश रही थी। उस दौरान वरिष्ठपत्रकार अंशुमान तिवारी ने संकेत भी दिया था कि ‘भारतीय लोकतंत्र में एक नया वैचारिक महामंथन तैयार हो रहा है, नतीजों का इंतजार

करिए…।ÓÓ लेकिन कोई समझ ही नहीं पाया। मोदी ने जब पहली बार 23 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो संघ से जुड़े एक वरिष्ठ नेता का कहना था’मोदी का लक्ष्य अब दुनिया में काबिलियत का लोहा मनवाना और स्वयं को एक स्टेट्समैन के रूप में स्थापित करना है और वो घड़ी आखिर आ ही गई। विश्लेषकफिर भी एक बात तो कहते हैं कि, ‘मोदी का कहना था कि,’अच्छे दिन आएंगे….लेकिन अच्छे दिन का अहसास सिर्फ कागजों पर ही दिखा, सही मायनों में जिंदगी मेंकितना दिख पाया? लेकिन कोई बात तो थी कि,’युवाओं ने मोदी पर जमकर भरोसा लुटाया ।

राजस्थान ही नहीं, देश भर में किसानों की आत्महत्या की दुखांत कथाओं से खेत-दर-खेत, गांव-दर-गांव अटे पड़े हैं। किसानों की आत्महत्याओं को लेकरराजनीतिक माहौल क्या कम गरमाया? एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने आलेख में एक शेर का जि़क्र किया था कि, ‘जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी, उस खेतके हर खोश-ए-गंदुम को जला दो, उठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो। लोग जागे भी लेकिन वो वोट तो मोदी को दे आए ? राजस्थान का शेखावाटी और कोटासंभाग तो किसानों के दर्द की दास्तानों से सुलग पड़ा था। लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि किसान अपने दर्द को भूलकर ‘राष्ट्रवाद की धुन पर नाचने लगा ।विश्लेषक कहते हैं कि बेशक ‘राष्ट्रवाद हमारा धर्म है लेकिन क्या रोटी, रोज़गार का कोई धर्म नहीं?

अर्थशास्त्र के प्रोफेसर देवाशीष मित्रा की मानें तो, ‘भारत में किसानों को बिचौलिए निचोड़ रहे हैं और उनकी पैदावार का बड़ा हिस्सा अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचनेसे पहले ही नष्ट हो जाता है। क्या इन बिचौलियों का खात्मा हुआ? मौजूदा श्रम संबंधी नियम कायदों से भारत में श्रम प्रधान मैन्यूफैकच्रिंग का विस्तार थम गया है। फिरभी श्रमिक मोदी केा वोट दे आए? मित्रा कहते हैं कि, ‘विदेशी सुपर मार्केट हमारे पड़ोस की किराना दुकानों को तबाह कर रहे हैं। इस तबाही पर जो लोग चीख-पुकार मचा रहे थे, वोट तो मोदी को ही देकर आए। मेक इन इंडिया ही नहीं, मंडी कानून बदलने को लेकर भाजपा ने अपने ही राज्यों की नहीं सुनी। टिप्पणीकारों काकहना है कि, शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया, लेकिन लोगों ने मोदी को झोली भर कर वोट दिए। भाजपा कीसियासत मध्यम वर्ग की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई लेकिन वोट तो मोदी को ही दिए? आखिर किस पैमाने पर मोदी लोगों के दुलारे हो गए? विश्लेषकों काकहना है कि,’क्या मोदी ने वादा किया था कि, ‘किसान हितों की रक्षा के साथ महंगाई पर काबू रखने का संतुलन होगा। लेकिन अभी तक तो मोदी सरकार इस डगरपर एक डग भी आगे नहीं बढ़ी?

आखिर इस सवाल का क्या जवाब है कि, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में राष्ट्रवाद ही छाया रहा। लेकिन क्यों यह मुद्दा पंजाब मे ज़मीनी ज़रूरतों पर हावीनहीं हुआ? दरअसल राजस्थान में सत्ता में आई कंाग्रेस दो कंगूरों पर बैठी थी। इसलिए जातिवाद के बखेड़े में उलझ गई? कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों से पहलेगुर्जर मीणा तथा युवा वोट तैयार किया था, फिर लोकसभा चुनावों में यह वोट बैंक क्यों कर छिटक गया? सूत्रों का तो यह भी कहना है कि, गुर्जर मतदाता जोपरम्परागत परिदृश्य में भाजपा का माना जाता है, पूरी तरह से कांग्रेस से जुड़ गया था, दरअसल उसे पायलट के मुख्यमंत्री बनाने की उम्मीद थी। युवा मतदाता भीनये पीढी के प्रदेशाध्यक्ष को अपनी जमात का, अपनी सोच और पसंद का व्यक्ति मान कर कांग्रेस से जुड़ा था।

जिस नेता का जो मूल समर्थक होता है नेता उसको कभी नहीं छोड़ता। चाहे मायावती हो या लालू यादव या कोई और। पर कांग्रेस ने

राजस्थान में विधानसभा चुनाव की सीमित सफलता के बाद लोकसभा चुनाव में अपनी ”मूल स्टेेंथ गुर्जर और युवा से मुंह मोड़ लिया। राजस्थान में विधानसभा चुनावके बाद नाजुक पर सफल राजनीतिक संतुलन बिखर गया । इन हालात में क्या पूर्वी राजस्थान भरपाई कर पाता? जोधपुर, बीकानेर डिवीजन के नुकसान का? संभवतया नहीं?

राजस्थान में गत् कई बार से पहले विधानसभा चुनाव होते रहे हैं और उसके कुछ माह के बाद लोकसभा चुनाव। जो पार्टी विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनातीहै, वही लोकसभा के चुनाव में भी भारी सफलता पाती रही है, सरकार में आने का जोश, लोकसभा चुनाव तक कायम रहता ही था। कार्यकर्ताओं का जोश, नयीसरकार से आशाएं, नये मंत्रीगण से अपेक्षाएं सहायक होती थी, विधानसभा चुनाव जीतने वाली पार्टी को लोकसभा चुनाव में भी सफलता पाने में। परन्तु इस बार ऐसानहीं हुआ । क्या कारण रहे?  नये वादे, नयी सरकार की वादे पूरे करने की कवायद यह सभी इस बार नदारद हो गए। वो ही पुराने थके हुए चेहरे वो ही पुरानी बातें, वोही पुराने लहजे, कोई ”फ्रंश स्टार्ट या नयी ताज़गी नहीं दिखी। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं पनपी, बल्कि पनपा अविश्वास और  साजिश।

युवा नेतृत्व तैयार करने तथा नया जोश भरने का अवसर था, पर हुआ उल्टा ही पुराने चेहरे, पुराना ढर्रा, युवा मतदाता, नयी ताकतें, (गुर्जर आदि) इधर-उधर भटकगये?

यहां सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर का कथन अत्यंत सार्थक है कि, मोदी ने एक अलग ही प्रचार अभियान चलाया। उन्होंने दावा किया कि भारत भीतरी वबाहरी शत्रुओं से घिरा है । केवल उनके बाहुबली राष्ट्रवादी और सतर्क चौकीदार ही देश को आतंकियों, घुसपैठियों, राष्ट्रद्रोहियों और ‘दीमकों से सुरक्षित रख सकतेहैं, जो उस हिन्दू राष्ट्र को खोखला करना चाहते हैं जिसे वे निर्मित कर रहे हैं। यह तरीका काम कर गया। मोदी के ‘खाकी प्रचार अभियान ने उन्हें 2014 से भी बड़ीजीत दे दी । उन्हें 303 सीटें मिली और इसके अलावा 50 उनके सहयोगी दलों को भी मिल गई ।

यह असाधारण बात है कि भाजपा लोगों को अपने हितों की बजाय पूर्वाग्रहों के आधार पर वोट देने के लिए प्रेरित कर सकी, क्योंकि 2014 में नौकरी की उम्मीद सेमोदी को वोट देने वाले युवा 2019 ने उन्हें फिर वोट क्यों दिया जबकि वह अब भी बेरोज़गार हैं?

आरएसएस रहेगा अब कामयाबी की वजह

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (कल्चरल नेशनेलिंजम) की सोच जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज नेता वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर ने सुझाया उसका संबंधक्या लोकतंत्र से है? मूल मुद्दों पर ज्य़ादा सवाल करना बहुसंख्यक लोगों की लोकतंत्र में आस्था मूलत: लोकतांत्रिक है? इन सवालों पर एक सोच इन सवालों के पक्ष मेंभी दिखती है। संघ के एक विचारक का तो मानना है कि हिंदू राष्ट्रवाद लगभग तभी पनपने लगा जब उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को कुछ सीमितअधिकार (भारत सरकार के 1919 कानून) के तहत जारी किए। बताया कि भारत एक ऐसा समाज है जहां विभिन्न समुदायों की अलग-अलग पहचान है। लोकतंत्र कीविविधता में ज़रूरी है कि विभिन्न समुदायों की साझेदारी  को परखना।

हालांकि चुनाव में जीत जाना ही लोकतंत्र नहीं है। बल्कि उनकी भागीदारी उतनी ही ज़रूरी है जो राज करना चाहते हैं और जो सत्ता के पथ पर आगे बढ़ते हुए सृजनके इच्छुक हैं। लोकतंत्र के बीच संबंध रहें क्योंकि वे दोनों भी वैधता का तात्कालिक विवेचन करके चुनाव में जीत हासिल कर रहे हैं। यद्यपि लोकतांत्रिक राजनीति मेंशायद वह होना चाहिए यानी ज्य़ादा लोकतांत्रिक राजनीति हो न कि चुनाव का महज बहाना। हालांकि तब हिंदुत्व कहीं ज्य़ादा उफान पर रहता है। चुनाव में जीतनहीं। राष्ट्रवादी हिंदू संगठन जो 1920 के दशक में उभरे खास कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इससे निकले छोटे पारिवारिक समूह आज भारतीय समाज में सक्रियहैं।

हालांकि आरएसएस का केंद्र अमूमन चुनावी रणनीति से दूर ही रहता है। इतना ही नहीं, यह 1925 के विभिन्न वैचारिक आंदोलनों से भी दूर रहा। खास करवामपंथियों से। उद्देश्य की शुद्धता के लिए यह दूरी बनाए रखता है। इसकी हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के पीछे सिर्फ हिंदू वोट बैंक को बनाए रखना नहीं बल्कि इसकीपरिभाषा में इहितास, राष्ट्रवाद और नागरिकता भी है। मशहूर किंवदंती गुप्तचर, शरलॉक होम्स का एक कथन था कि सिद्धांत (थ्योरी) के हिसाब से तथ्य गढ़ो न कितथ्यों के आधार पर सिद्धांत।

यदि आरएसएस और इसके परिवारिक दो संगठनों ने पिछले सौ साल के अंदर कांग्रेसी राज में भी देश में अपनी विविध सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों को बिनाथके करते हुए देशवासियों को लगातार हिंदू राष्ट्र का एक सपना विभिन्न आयु वर्ग के देशवासियों को दिखाया। साथ ही इसने अनुसूचित जातियों, आदिवासियों औरविभिन्न जनजातियों के लोगों के प्रशिक्षित समूह भी तैयार किए। इसका एक मात्र मकसद था हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कठिन तैयारी। यह एक जबर्दस्त तैयारी थीईसाइयों और मुसलमान बगैर एक राष्ट्रीय निर्माण की जबकि कांग्रेस और दूसरे विभिन्न राजनीतिक दलों का मकसद रहा है किसी तरह चुनाव में सत्ता पाना। जबकिआरएसएस का मकसद सिर्फ सत्ता पाना नहीं रहा। इसका मकसद रहा समाज में प्रचार कार्य करते हुए अपना प्रभाव फैलाते जाना। जिससे लोग न केवल इसकेउत्पाद बने बल्कि वे प्रचार की इसकी मुहिम को और तेज करें जिससे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद फूले-फले।

सांगठनिक और वैचारिक तौर पर आरएसएस और भाजपा में अंतर सिर्फ पतले धागे का है। भाजपा हिंदू जातियों को खुर्दबीन से जांचती परखती है और मुसलमानोंको दूसरा बताती है। इसके नेताओं के भाषण से साफ है कि ये कितने ‘असहिष्णुÓ     हैं। सोचिए  ‘कांग्रेस मुक्त भारतÓ, ‘अरबन नक्सलÓ, ‘एंटी नेशनल अब कितनासुनाई देता है। आरएसएस की वैचारिक कोशिश का यह मूल आधार रहा है। हालांकि इसकी राजनीतिक पार्टी भाजपा जब से लोकसभा में बहुमत में आई। तबसेइसका भी सुर बदला हुआ है।

आप ध्यान दें, बिहार चुनाव 2015 के पहले सरसंघ चालक ने तब आरक्षण की समीक्षा की बात की थी जब भाजपा विभिन्न जातियों के साथ समझौते कर रही थी।इसके अलावा नागपुर में संघ की सर्वोच्च सत्ता ने एक भव्य समारोह में पूर्वा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को बुलाया और उनसे भाषण भी कराया।

आरएसएस की दूसरी प्राथमिकताओं में माक्र्सवादी-लेनिनवादी वामपंथियों से कभी-कभार मुठभेड़ का रहा है। आम तौर पर भाजपा के लिए अब भी माक्र्सवादियों,लेनिनवादियों से मुकाबला करना अब घाटे का सौदा कतई नहीं है। फिर मुकाबले में, केरल को छोड़ दें तो आज ये मुकाबले में हैं भी नहीं। हालांकि शिक्षा-शास्त्रीऔर बुद्धिजीवी लोगों पर राष्ट्रविरोधी होने का इल्जाम लगता ही रहा है उन्हें भारतीय संस्कृति से अलग बतायाा जाता है। यह कहा जाता है कि उनका बहुत हीफासीवादी और रूढि़वादी तरीका है दुनिया को देखने का। मनमोहन वैद्य जैसे अनुभवी लेखक का कहना बताता है कि आरएसएस आज भी उन लोगों के कितनाखिलाफ है जो इस देश के चुनावों में लगातार पराजित होते गए और जनता में भी अब इनकी लोकप्रियता सही है। यह सिर्फ एक सोच है अपने एक जमाने केबौद्धिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रमुख का दम भरने का है।

राजनीतिक सत्ता के चलते यह राह ज्य़ादा सहज है। दुवारा टेक्स्ट बुक तैयार करके इतिहास में रहा बदल कर और अपने तैयार किए हुए शिक्षा शास्त्रियों को साथलेकर तमाम शिक्षा केंद्रों को उनके हवाले करके ऐसा करना खासा संभव है। सिनेमा के जरिए यह काम और भी मैबजी टेक्लॉजी आदि का फिर से नव लेखक करहिंदू राष्ट्र बनाया जा होगा। चुनाव सिर्फ सत्ता में बने रहना और इन तमाम कामों पर अमल कराना है। यह सब करने के लिए आधा दशक और तो चाहिए।

यह ज़रूर साफ है कि बिना राजनीतिक सत्ता पाए हिंदुत्व की बात मानी है। दो बार के आम चुनावों मेें लोकसभा में दो बार जीत हासिल कर आरएसएस ने  सहसाब्दिउपलब्धि अलबत्ता हासिल तो कर लीं है। विचारों के आदान प्रदान में इसका उल्लेख होता भी होगा। फिर जीत का सिलसिला चलेगा। इसी परियोजना के तहत खानाखाने की आदतों सलीकों, साहित्य और अर्थ शास्त्र विज्ञान आदि में मन चाहे तो फेरबदल हो सकते है।

जो देश में ऐसा एक तरह का विकास नहीं चाहते वे कभी प्रतिरोध भी ढ़ो सकते हैं। तब चुनाव ही एकमात्र तरीका नहीं होगा। उसकी भी तैयारी दिखती तो है।

आकाश जोशी,

 साभार: इंडियन एक्सपे्रस

नई दिल्ली

भारत में हर साल दो लाख लोग मरते हैं दूषित पानी से

प्रतिवर्ष गर्मियों के मौसम में सूखे की चपेट आने वाला भारत नदियों का एक ऐसा देश है जहां आधुनिक युग में भी जल संकट से निपटने के लिए बहुत पुराने तरीकेअपनए जा रहे हैं।  जल भंडारण करने की अवैज्ञानिक विधि के तहत सरकार बांध बनवाकर प्रतिवर्ष तेज रतार  से जंगलों को ध्वस्त कर जलाश्यों की संया मेंइजाफा करती जा रही है।

इसी कारण प्रतिवर्ष सूखे की चपेट में आने वाले भूभाग का विस्तार भी उसी रतार से होता जा रहा है। पीने के पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसने वालों की संख्याबढ़ रही है। दूषित जल पीकर मरने वालों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है और भूजल के अत्यधिक दोहन से धरती की गागर खाली होती जा रही है।

ब्रह्मांड में पृथ्वी एक मात्र ऐसा स्थान है जहां जीवन है और यह मनुष्यों सहित लाखों प्रजातियों का घर है यही नहीं पृथ्वी ही जीवन की उत्पत्ति के अनुकूल है और जन्मलेने, जीवित रहने के लिए सबसे जरूरी अनमोल प्राकृतिक संपदा जीवन की डोर हवा, पानी और मिट्टी जो करोड़ों वर्षों की प्राकृतिक धरोहर के रूप में हमें मिली।विकास नियोजक के गलत तरीके और प्रकृति से छेड़छाड़ कर हमने अपने जीवन की सांसों की डोर ‘हवा, पानी और मिट्टीÓ को ऐसी दशा में पहुंचा चुके हैं जहांप्यास बुझाने वाला पानी, सांस लेने वाली हवा और अन्न उगाने वाली मिट्टी जहरीला बना चुके हैं।

भीषण गर्मीं में देश का 42 फीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में आने के कारण 60 करोड़ लोग पीने के पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। नीति आयोग भीअपनी रिपोर्ट में खुलासा कर चुका है कि देश की 70 फीसदी आबादी दूषित और जहरीला पानी पीने को विवश है जिस कारण दूषित पानी पीकर मरने वालों कीसंया प्रतिवर्ष दो लाख पहुंच चुकी है।

दूसरी तरफ 2017 में नेशनल रजिस्टर ऑफ लार्ज डैस (एनआरएलडी) की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार देश में 5254 बड़े बांध बनवा चुकी थी और 447 निर्माणाधीन थे।

वर्ष 1980 में वन अधिनियम के अस्तित्व में आने से पहले नदियों पर बांध बनाकर जलाश्य बनाने के लिए कितने भूभाग पर आबाद प्राकृतिक जंगलों को ध्वस्त कियागया है इसके आंकड़े जुटा पाना तो संभव नहीं हैं लेकिन वन अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद 1980 से लेकर 2000 के बीच बने 1877 बांधों में से जिन 60 बांधोंकी जानकारी उपलब्ध थी।

उनके आधार पर गणना करने पर इस अवधि में 91 लाख 57 हजार 883 हेक्टर जमीन डूबी। यानी प्रत्येक बांध से औसतन 4879 हेक्टर जंगल का विनाश हुआ है।जबकि केन्द्रीय जल आयोग के आंकडों से गणना करने पर जंगल विनाश का आंकडा 45 लाख 4 हजार 800 हेक्टर बैठता है।

प्रकृति से ऐसी छेड़छाड़ का भीषण असर, जलवायु परिवर्तन के रूप में उभर कर आ चुका है। जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का तापमान बढऩे से  हिमालय केग्लेशियरों का रकबा सिमटता जा रहा है, प्राकृतिक जल स्त्रोत सूखते जा रहे हैं नदियों का जल स्तर गिरता जा है और वर्षा चक्र गड़बड़ाने, भीषण गर्मी और अत्यधिकभूजल के दोहन के कारण धरती की गागर खाली होती जा रही है।

 करोड़ों वर्षों से विरासत में मिली जीवन दायनी हवा, पानी और मिट्टी को हमने अंधाधुंध विकास के नाम पर दूषित कर डाला जहां जिंदा रहने के लिए प्यास बुझाने केलिए जो दूषित पानी हम पी रहे हैं वह देश में प्रतिवर्ष दो लाख लोगों की जान लेने लगा है, जिंदा रहने के लिए जिस दूषित हवा में हम सांस ले रहे हैं वह प्रतिवर्ष 12 लाख लोगों की जान ले रही है और भूख मिटाने के लिए थाली में जो भोजन हम ले रहे हैं उसमें फसलों में छिड़का कीटनाशक और रसायन युक्त जहर जाने अनजानेहम खा रहे हैं। खेती में जिन कीटनाशकों और रसायन का उपयोग हम कर रहे हैं वह जहर बनकर हमारी भोजन की थाली में,बरसात के पानी से नदियों में और हवामें शामिल हो जाता है। जो भोजन हम करते हैं, फल खाते हैं, पानी पीते हैं सांस लेते है, इन सभी के जरिए वास्तव में हम अनजाने में जहर का सेवन भी करते हैं।

एक तरफ सरकार ने जीवन जीने के प्राकृतिक अहम स्त्रोत वायु के रूप में आक्सीजन के पोषक  पेड़-पौधों और प्राकृतिक जंगलों को बचाने के लिए वर्ष 1980 में  जमू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में वन संरक्षण अधिनियम 1980 को लागू किया, और दूसरी तरफ नदियों पर बांध बनाकर एकएक जलाश्य के लिए  वनअधिनियम 1980 के अस्तित्व को नकारते हुए हजारों एकड़ भूभाग में आबाद प्राकृतिक जंगलों को ध्वस्त कर रही है।

सरकार दूसरी तरफ जीवन जीने प्राकृतिक अहम स्रोत जल संकट से देश को बचाने के लिए अविरल बहने वाली नदियों समाधान के लिए नदियों पर बांध बनाकरजलाश्यों की गिनती में विस्तार करती जा रही है लेकिन सरकार न तो दूषित पानी पीने को विवश देश की 70 फीसदी आबादी को पीने का साफ पानी उपलब्ध करापा रही है, न प्रतिवर्ष  भीषण गर्मियों में सूखे की चपेट में आने वाले करोडों लोगों को प्रर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध करा पा रही है। न भूजल के अत्यधिक दोहन सेखाली हो रही धरती की गागर को खाली होने से बचा पा रही है। न दूषित जल पीने से होने वाली मौतों में हो रही बढोत्तरी रोक पा रही है।

 पेयजल स्वच्छता गुणांक की 122 देशों की सूची में भारत का स्थान 120वां है।

देश में एक तो पानी की समस्या है। दूसरे जहां है वहां अधिक जगहों पर दूषित है। कहीं आर्सेनिक मिला हुआ है तो कहीं लोराइड। लेकिन मज़बूरी में लोग इसीपानी को पी रहे हैं।

इंडिया वाटर पोर्टल के अनुसार भारत के 50 फीसद शहरी, 85 प्रतिशत फ ीसद इलाकों में पानी चिंताजनक ढंग से विलुप्त हो रहा है। 3400 विकासखण्डों में सेदेखा गया कि 449 विकासखण्डों में 85 फ ीसद से अधिक पानी खत्म है। ज्य़ादातर राज्यों में भूमिगत जलस्तर 10 से 50 मीटर तक नीचे जा चुका है।

नीति आयोग की वर्ष 2018 में आई रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2020 तक दिल्ली और बंगलुरू जैसे भारत के 21 बड़े शहरों से भूजल गायब हो जाएगा। इससे करीब 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। अगर पेयजल की मांग ऐसी ही रही तो वर्ष 2030 तक स्थिति और विकराल हो जाएगी। वर्ष 2050 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद मेंछह फीसद तक की कमी आएगी।

हम देख रहे हैं कि प्रतिवर्ष देश में भूजल के स्तर में गिरावट और सूखे की चपेट में आने वाले भूभाग का न केवल विस्तार हो रहा है बल्कि गर्मियों में पीने के पानी कीएक-एक बूंद के लिए तरसने वाले और दूषित व जहरीला पानी पीने वालों की संया में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। प्रतिवर्ष गंदा पानी पीकर कैंसर जैसे असाध्य रोगों सेभी मरने वालों की संया में भी इजाफा हो रहा है। प्रतिवर्ष पानी के कारोबारियों के कारोबार में वृद्धि हो रही है।  प्रतिवर्ष नदियों के जल स्तर में कमी और नदियांअधिक दूषित होती जा रही हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) कह चुका है कि गंगा का पानी भी न तो नहाने के लायक है और न पीने के लायक है।

हैरानी की बात है कि ज़मीन पर पर्याप्त मात्रा में जल होने के बावजूद लोग प्यास से तड़प रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि जल संकट से निपटने के लिए  सरकार नदियों के उतने ही हिस्से में बांध बनाकर जलाश्यों में पानी रोकने में सक्षम है

एक अनुमान के मुताबिक पर्वतीय क्षेत्र में नदियां अपने पूरे सफर का सात से 15 फीसदी रास्ता तय करती हैं और बाकी पूरा सफर समतल  धरती पर तय होता है।भारत सरकार के पास नदिय़ों के बाकी 85 से 93 फीसदी हिस्से के माध्यम से प्रतिवर्ष बरसात के दिनों में भीषण बाढ़ और तबाही मचाकर सीधे समुद्र में पहुंचने वालेथल को रोकने की न तो विधि है और न जल संकट का ऐसा वैज्ञानिक समाधान करने की कला।

वैज्ञानिक श्याम सुंदर राठी की साफ मान्यता है कि जब तक जल को साधारण वह तुच्छ तरल पदार्थ मान कर अवैज्ञानिक प्रणाली से भण्डारण करने की प्रक्रिया कात्याग  कर दुनिया के सारे तरल पदार्थों की भांति एक ऐसे बर्तन में नहीं रखा जाता है जिस बर्तन को टंकी के रूप में पहचान मिली हुई है।

 दूसरे बरसात के दिनों में नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंचने वाले अतिरिक्त जल का भंडारण करने की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती है तब तक न तो जल संकट कासमाधान हो सकता है और न भूजल के अत्धिक दोहन से खाली हो रही धरती की गागर को बचाया जा सकता है और न देशवासियों को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराया जा सकता है।

वैज्ञानिक श्याम सुंदर राठी की साफ राय है। जल भंडारण के लिए जल भीमकाय टंकियों में रखना ज़रूरी है। इसके लिए उन्होंने अपने शोध के तहत एमएसडीटंकियों का विकास व टंकियों में जल भराव की विशेष विधि का विकास किया है। उनका दावा है एमएसडी टंकियों में रखा हुआ जल वर्षो तक साफ बिना नुकसानके रह पाएगा।

 भारत सरकार श्यामा सुंदर राठी के  महाविज्ञान को अपना कर देश में पीने के पानी की आपूर्ति के साथ-साथ सिंचिंत भूमि के लिए 100 फ ीसद पानी का भंडारणकर सकती हैं।

अब नई ऊँचाइयाँ पाएगी भारतीय अर्थव्यवस्था

सारे सरकारी बैंक, ईंफ्रा, ऑटो, ऊर्जा, एफएमसीजी, खनिज और फार्मा आदि में आज बढ़ोतरी है। लेकिन जो डाटा है वह बताता है कि कितनी आर्थिक मंदी तमामक्षेत्रों में हैं। द सोसायटी ऑफ इंडियन आटोमोबाइल मैन्यूफैकच्रर्स के अनुसार घरेलू गाडिय़ों और दुपहिया की बिक्री घटी है। पिछले साल की अवधि मेंआटोमोबाइल क्षेत्र की कुल बिक्री यह जताती है कि सभी शहरी और ग्रामीण संस्था और वैयक्तिक तौर मांग और बिक्री कम होती गई है। कारों की बिक्री बीसफीसद घटी है और कोई ऐसा प्रोत्साहन भी नहीं जिससे बिक्री बढ़े।

2018-2019 में सालाना औद्योगिक उठान 2.70 फीसद था लेकिन 17 कंपनियों में से दस ऐसी थी जिनकी बिक्री भारतीय सड़कों के लिए हुई ही नहीं। अप्रैल 2019 मेंआटोमोबाइल उद्योग से आई मासिक जानकरी के अनुसार पिछले आठ साल में बिक्री बहुत ज़्यादा गिरी है। जो आंकड़े सोसायटी ऑफ इंडियन आटोमोबाइलमैन्युफैकच्रर्स से उपलब्ध हैं उसके अनुसार यात्री गाडिय़ों की बिक्री 2.47 लाख अप्रैल 2019 में थी बनिस्बत

2.98 लाख की बिक्री इसी अवधि में पिछले साल थी। यानी 17 फीसद की गिरावट। इंश्योरेंस में सितंबर से बढ़े खर्च का भी असर बिक्री बढऩे के खिलाफ रहा है।

इसी तरह औद्योगिक उत्पाद का इंडेक्स जो मार्च में जारी हुआ उससे पता चलता है कि 21 महीने से भी कम रहा आएटपुट। इसी तरह कैपिटल गुड्स क्षेत्र में अप्रैलमहीने में यह 8.7 फीसद से मार्च में 8.9 फीसद सिकुड़ा। उपभोक्ता का आउटपुट भी 5.1 फीसद रहा।

एक साल पहले उपभोक्ता नॉन-ड्यूरेबल उत्पाद में बढ़ोतरी मार्च 2019 में 0.3 फीसद रह गई थी जो मार्च 2018 में 14.1 फीसद की रफ्तार पर थी। यानी उत्पाद जोइंडेक्स में लगभग 78 फीसद था यह और गिरा। इस क्षेत्र की बढ़ोतरी 2018-19 में 3.5 फीसद रह गई।

नई सरकार जो 23 मई के बाद सत्ता संभालेगी उसे अर्थ व्यवस्था ठीक करने पर ध्यान देना होगा। भारत के उपभोक्ता टूथपेस्ट से गाड़ी तक खरीदने पर काफी कमखर्च करते हैं। इससे विकास में ठहराव है। दरअसल पिछले छह महीनों में मांग कमज़ोर हुई है और महत्वूपर्ण क्षेत्रों में विकास में ठहराव आया है। विमानन उद्योग मेंआए संकट से यात्रियों की आवाजाही पर असर पड़ा।

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक आकलन के अनुसार भारत की रिसर्च शाखा ने पाया कि 384 कंपनियों में से 380 ने 2018-19 मझोले (मिडलाइन) और सबसे निचलेस्तर (बाटम लाइन) पर नकारात्मक विकास दिखाया। वित्त मंत्रालय ने भी माना कि आर्थिक विकास 2018-19 में कुछ गिरा।

वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के महकमे ने अपनी रपट ‘मंझली इकॉनॉमिक रिपोर्टÓ जो मार्च 2019 की है। उसमें निजी खपत में गिरती मांग, फिक्सड इन्वेस्टमेंटऔर निर्यात में कमी मंदी की खास वजहें बताती है।

भारत की एफएमसीजी कंपनियों का मार्च में जो तिमाही नतीजा आया है वह दबाव के पहले संकेत देता है। हिंदुस्तान यूनिलीवर की बढ़त 7 फीसद रह गई जबकिइसकी अच्छी खासी बढ़त डबल डिजिट में हुआ करती थी। यह पांच तिमाहियों के नतीजों में भी जाहिर है। डाबर इंडिया ने बताया कि इसकी महज चार फीसदबढ़त है। जबकि गोदरेज कंज्यूमर प्रोडक्ट का घरेलू उत्पाद बमुश्किल एक फीसद बढ़त की बात करते हैं।

नेल्सन के अनुसार एफएमसीजी क्षेत्र में जो बढ़त 13.6 फीसद पर 2019 के पहले तीन महीनों में हुई वह 2018 के आखिरी तीन महीनों में 16 फीसद थी। चौथीतिमाही के लिए आर्थिक डाटा जून 2019 के पहले सप्ताह में जारी होगा। ज़्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि यह बढ़त छह फीसद से 6.5 फीसद के बीच ही होगी।

प्रधानमंत्री की इकॉनॉमिक एडवाइजरी कौंसिल के एक सदस्य रथीन रॉय ने अभी हाल एक बातचीत में यह चेतावनी दी थी कि भारत ‘स्ट्रकच्रल क्राइसिसÓ की दौड़में है यदि देश के सामाजिक-आर्थिक पिरामिड के 90 लाख लोगों ने मांग पैदा की है। यह अपने आप खत्म होगी। हम ‘स्ट्रकच्रल क्राइसिसÓ की ओर बढ़ रहे हैं। यहसमय से पहले बेअसर चेतावनी है। उन्होंने आगे कहा कि इसका मतलब है कि हम दक्षिण कोरिया नहीं है और न चीन ही हैं। हम ब्राजील हो सकते हैं। हम दक्षिणअफ्रीका में हो सकते हैं। हम मझोली आय वाले देश हैं जहां बड़ी तादाद में गऱीबी है। बढ़ते हुए अपराध हैं। दुनिया के इतिहास में देशों ने मझोली आय वाले फंदे मेंफंसने से बचने की कोशिश करनी है। क्योंकि फिर कोई देश इससे बाहर निकल नहीं सकता।

दरअसल तमाम मैक्रो और माइक्रो आर्थिक संकेत इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था में खासी कमज़ोरी की ही ओर इशारा कर रहे हैं। कोई भी अर्थव्यवस्था चार तरहसे विकास की ओर रुख करती है बशर्ते एक तो निजी क्षेत्र में पूंजी निवेश, सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश और मूलभूत संसाधनों में विकास हो और देश के अंदर खपत बढ़ेऔर निर्यात विदेशों में बढ़े।

एक लंबे अर्से से सरकार मूलभूत संसाधनों को विकसित करने में संसाधन झोंक रही है। निजी निवेश का भी विकास बेहतर रहा है। दूसरे अर्थव्यवस्था घरेलू उत्पादोंमें उपभोक्ता के लिए एफएमसीजी उत्पाद इस समय 15-16 फीसद की दर पर है। इसी तरह निर्यात की स्थिति देखें । भारत का निर्यात जो अमेरिकी डालर 314.88 बिलियन 2017-18 में था वह अब 2013-14 के स्तर पर है। विकास का चौथा इंजन निजी निवेश औंधे मुंह आ गिरा है। 2018-19 में नया निवेश प्रस्ताव मात्र साढ़े नौलाख करोड़ का है जो 14 साल में सबसे कम है।

सीएमआईई के अनुसार अथव्यवस्था में कुल निवेश का दो तिहाई निजी पूंजी निवेश होता है। लेकिन 2014 से इसकी हिस्सेदारी कम होती गई है और 2018-19 में तोइसमें खासी गिरावट रही।

कोई भी अर्थव्यवस्था सिर्फ एक इंजन के भरोसे नहीं रहती और इसके साफ संकेत हैं कि अर्थव्यवस्था कहीं धसक रही है। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 2018-19 में 6.98 फीसद रहा जबकि 2015-16 में आठ फीसद था। औद्योगिक क्रियाकलाप घट रहा है जो औद्योगिक उत्पाद के सूचकांक में दिसंबर 2018 की तिहाई में 3.69 फीसद ही था। जनवरी में आईआईपी में 1.79 फीसद की गिावट दिखी। फरवरी 2019 में आईआईपी तो और भी नीचे यानी महज 0.1 फीसद बीस महीने में था।

फिर भी ऐसी चमकदार संभावना रियल एस्टेट क्षेत्र में दिख रही है जहां व्यावसायिक तौर पर खासी उन्नति है और आवासीय क्षेत्र में मांग बढ़ रही है। लेकिन इस क्षेत्रमें भी सरकार को ही पहल करनी है। सार्वजनिक पूंजी निवेश मूलभूत संसाधनों को विकसित करके करना है। सार्वजनिक निवेश से ही उपभोक्ता इंजन गति लेगा।इसलिए इसके लिए भी सरकार को ही आर्थिक प्रलोभन देने चाहिए।