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महाराष्ट्र सरकार ने माना तीन साल में 12021 किसानों ने आत्महत्या की

आखिर महाराष्ट्र की सरकार ने भी स्वीकार कर लिया की राज्य में किसानों की आत्महत्या थम नहीं रही है। राज्य में 2015 से 2018 दौरान 12021 किसानों ने आत्महत्या की। इस साल मार्च तक 610 किसानो ने मौत को गले लगाया है।

जातक आर्थिक मदद की बात है इसमें 6845 किसानों को ही सरकार ने एक एक-एक लाख की आर्थिक मदद दी है । इन मामलों की छानबीन के बाद 192 किसान परिवारों को आर्थिक मदद का पात्र घोषित किया गया और बाद में 182 परिवारों को सरकार ने मदद के तौर एक एक लाख रुपए दिए ।96 मामले में मदद के लिए अपात्र पाए गए। फिलहाल 323 मामलों की जांच चल रही है।

विधानसभा में एनसीपी के अजित पवार ,जितेंद्र अवार्ड सहित कई विधायकों ने किसान आत्महत्या से संबंधित सवाल पूछा था। इस मसले पर लिखित जवाब देते हुए मदत व पुनर्वसन मंत्री सुभाष देशमुख ने स्वीकार किया राज्य में किसानों की आत्महत्या नहीं रुक रही है।

किसानों की कर्ज माफी के सिलसिले में विधान परिषद में विपक्ष ने जमकर हंगामा किया। विधान परिषद प्रतिपक्ष नेता धनंजय मुंडे ने सदन में वाशिम जिले के अशोक ग्यानजू का मामला उठाते हुए कहा कि 2 साल पहले इस परिवार को मुख्यमंत्री ने कर्ज माफी का सम्मान पत्र दिया था लेकिन आज तक उनका कर्ज माफ नहीं हुआ और इस वक्त ग्यानजू विधान भवन परिसर में मौजूद हैं ।मुंडे ने सभापति से कहा कि उनकी अनुमति के बाद ही किसान को सदन में लाया जा सकेगा। मुंडे ने कहा राज्य में ऐसे बहुत सारे किसान हैं जिनके कर्ज माफ नहीं किये गये हैं। हलांकी इस बात पर सहकार मंत्री सुभाष देशमुख ने विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह सरकार के खिलाफ गलत व भ्रामक प्रचार कर रहे हैं। उनका कहना था कि राज्य के भीतर जिन जिन किसानों पर दो लाख के भीतर कर्ज थे उनके करीब करीब कर्ज माफ कर दिए गए हैं । इस जवाब से असंतुष्ट विपक्ष में सदन में हंगामा शुरू किया और सदन की कार्यवाही कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गई।

कर्ज माफी के मुद्दे का विधान परिषद में हुए हंगामे के बीच विधान भवन में विधान भवन के परिसर में मौजूद 2 किसानों को गिरफ्तार करने वाले सुरक्षा अधिकारियों के तत्काल निलंबन की मांग धनंजय मुंडे ने की ।सभापति रामराजे निंबालकर ने सुरक्षा अधिकारियों को निलंबित करने का आदेश दे दिया।

श्रीलंका में इमरजेंसी एक और महीने के लिए बढ़ी

श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने शनिवार को देश में सुरक्षा की स्थिति के मद्देनजर पहले से लागू इमरजेंसी की अवधि को और एक महीने के लिए बढ़ा दिया है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक राष्ट्रपति ने एक विशेष राज अधिसूचना पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कहा गया था कि आपातकाल सार्वजनिक सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था के संरक्षण और समुदाय के जीवन के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के प्रबंधन के लिए प्रभावी है।
सिरीसेना ने दो महीने पहले देश में हुए भयंकर आतंकवादी हमले के एक दिन बाद २२ अप्रैल को आपातकाल लागू कर दिया था। याद रहे इस हमले में २५० से ज्यादा लोगों की जान चली गयी थी। आपातकाल को २२ मई को पहली बार एक महीने के लिए बढ़ा दिया गया था।
श्रीलंका में आतंकी हमले से जुड़े संदिग्धों को पकड़ने का काम अभी तक चल रहा है। वहां बड़ी संख्या में छापे मारे गए हैं। पुलिस के मुताबिक आतंकी हमलों के संबंध में अब तक १०० से ज्यादा संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया है। श्रीलंका में आतंकी हमले की घटना की दुनिया भर में निंदा की गयी थी।

मेहरौली में टीचर ने पत्नी, ३ बच्चों की हत्या की

राजधानी दिल्ली के मेहरौली में शुक्रवार रात एक एक टीचर ने अपनी पत्नी और तीन अवैध बच्चों की हत्या कर दी है। ह्त्या का कारण अभी पता नहीं चला है। टीचर डिप्रेशन का मरीज बताया गया है हालांकि मेडिकल के बाद ही इसकी पुष्टि हो सकेगी। आरोपी ने ह्त्या का जिम्मा लेते हुए अंगरेजी और हिंदी में नोट भी लिखे हैं।
रिपोर्ट्स के मुताबिक इस टीचर ने इन चारों का गला रेत दिया और खुद को उसी घर में बंद कर लिया। पुलिस ने आरोपी टीचर को हिरासत में ले लिया है और मामले की जांच कर रही है। सुबह उसी जगह रहने वाली महिला की मां ने जब दरवाजे पर दस्तक दी तो घर को भीतर से बंद पाया जिसके बाद पड़ोसियों की मदद से घर का दरवाजा तोड़कर भीतर देखा कि चार जनों का गला रेत दिया गया है और टीचर भी वहीं बैठा है।
घटना महरौली इलाके के वार्ड २ की है जहाँ टीचर उपेंद्र शुक्ला तीन बच्चों और पत्नी के साथ रह रहा है। पूछताछ से सामने आया है कि शुक्ला ने शुक्रवार-शनिवार की  रात एक बजे पत्नी अर्चना और तीनों बच्चों की हत्या कर दी। तीन लोगों की पत्थर काटने वाली ग्रेंडर मशीन से जबकि १२ साल के मासूम बच्चे की गला घोंटकर हत्या की गई है। उपेंद्र एक स्कूल में पढ़ाता है और वह कथित तौर पर डिप्रेशन में चल रहा था।

अमेरिका-ईरान में बढ़ रहा है तनाव

अमेरिका और ईरान के बीच  लगातार बढ़ रहे तनाव के बीच सतर्कता की दृष्टि से  भारतीय नौसेना ने ओमान और फारस की खाड़ी में अपने युद्धपोत तैनात कर दिए हैं। इसका कारण क्षेत्र में मौजूद या वहां से गुजरने वाले भारतीय पोतों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। कुछ विशेषज्ञों ने इस तनाव के चलते तीसरे विषयुद्ध का खतरा बताते हुए इस तनाव तो टालने की कोशिशे शुरू कर दी हैं।
भारत ने इसे ”ऑपरेशन संकल्प शुरु” का नाम दिया है। भारतीय युद्धपोतों को जिम्मेदारी दी गई है कि फारस की खाड़ी, ओमान की खाड़ी और होरमुज-स्ट्रेट से गुजर रहे भारत के जहाजों की सुरक्षा सुनिश्चित हो। नौसेना ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि भारतीय नौसेना के विमान क्षेत्र में हवाई निगरानी रख रहे हैं।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, आईएनएस चेन्नई और आईएनएस सुनयना को ओमान की खाड़ी में तैनात किया गया है। नौसेना के टोही विमान भी आसमान से नजर रखें हुए हैं कि भारतीय जहाज सुरक्षित वहां से निकल सकें। दिल्ली के करीब गुरूग्राम में हिंद महासागर के लिए बने इंफोर्मेशन फ्यूजन सेंटर से भी पूरे खाड़ी-क्षेत्र पर नजर बनाए हुए हैं। आशंका है कि ईरान और अमेरिकी नौसेना के बीच टकराव की वजह से दूसरे देशों के पोत चपेट में आ  सकते है।
उधर अमेरिका ने अपने विमानों को ईरान और ओमान की खाड़ी से होकर गुजरने पर पहले ही रोक लगा दी है। दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव को देखते हुए फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन (एफएए) ने यह घोषणा की। जिस ड्रोन को ईरान ने मार गिराया, उसकी कीमत करीब १२५० करोड़ रुपए थी। इसके पंख बोइंग ७३७  जेटलाइनर से भी बड़े थे। करीब ३० साल पहले अमेरिका की नेवी ने भी ईरान के यात्री विमान को मार गिराया था।
वैसे अमेरिका का कहना है कि जिस ड्रोन को ईरान ने १९ जून को मार गिराया, वह उसके हवाई क्षेत्र में नहीं था। ड्रोन ओमान की खाड़ी के ऊपर नागरिक वायुमार्गों के आसपास के क्षेत्र में था। उधर ईरान की वायुसेना ने कहा कि ड्रोन ईरान के हवाईक्षेत्र में प्रवेश कर चुका था।

तीन तलाक बिल लोक सभा में पेश

इंस्टेंट तीन तलाक बिल ”मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक २०१९” गुरूवार को विपक्ष के शोर के बीच लोक सभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पेश किया। इस समय इस पर सदस्य अपना पक्ष रख रहे हैं। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस बिल के वर्तमान स्वरुप का कड़ा विरोध किया है।
नयी लोकसभा के गठन के बाद मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह पहला बिल है। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद संसद में तीन तलाक बिल पेश करेंगे. सरकार के पिछले कार्यकाल में भी तीन तलाक पर बिल लाया गया था लेकिन यह राज्यसभा से पास नहीं हो पाया था। कांग्रेस की तरफ से शशी थरूर ने कुछ मुद्दों के आधार पर
बिल के वर्तमान प्रावधानों का विरोध किया। कुछ और सदस्यों जिनमें ओवैसी भी शामिल हैं इस बिल का विरोध किया।
सरकार के बिल को समर्थन भी मिल रहा है और इसका विरोध भी हो रहा है।  एनडीए की सहयोगी जेडीयू तक इसके विरोध में हैं। पिछले साल दिसंबर में यह बिल लोकसभा में पास हो गया था। पत्नी को इंस्टेंट तीन तलाक देने वाले मुस्लिम शख्स को तीन साल सजा का प्रावधान इस बिल में है। लेकिन राज्यसभा में संख्याबल कम होने के कारण बिल पास नहीं हो पाया। विपक्षी पार्टियों की मांग थी कि इसे पुनरीक्षण के लिए संसद की सिलेक्ट कमिटी को भेजा जाए। लेकिन सरकार ने यह मांग खारिज कर दी.
जब यह बिल पिछली बार आया था तो भी ज्यादातर विपक्षी पार्टियां पति को जेल भेजने जैसे सख्त प्रावधान के खिलाफ थीं। उनका तर्क था कि एक घरेलू मामले में सजा के प्रावधान को पेश नहीं किया जा सकता और यह बिल मुसलमानों को पीड़ित करने वाला होगा। वहीं सरकार का कहना है कि इस बिल से मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार रुकेगा और उन्हें समान अधिकार मिलेगा। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पिछले हफ्ते कहा, ”प्रस्तावित कानून लिंग समानता पर आधारित है और यह मोदी सरकार के सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के सिद्धांत का हिस्सा है।”

कुल्लू हादसे में मृतकों की संख्या ४४ हुई

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के बंजार के पास गुरूवार हो हुए निजी बस हादसे में मरने वालों की संख्या ४४ हो गयी है। अभी भी ३५ लोग घायल हैं जिनमें कुछ की हालत गंभीर होने के कारण उनका अस्पताल में इलाज चल रहा है।
याद रहे गुरूवार शाम बंजार से एक किलोमीटर आगे भियोठ मोड़ के पास एक ओवरलोडेड निजी बस करीब ४५० फुट गहरी खाई में गिर गई थी। सरकार के आदेश के बाद एडीएम कुल्लू अक्षय सूद हादसे की मजिस्ट्रेट जांच करेंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर हादसे पर दुःख जताते हुए मृतकों के परिजनों से गहरी संवेदना जाहिर की है। मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, केंद्रीय  वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर, पूर्व सीएम वीरभद्र सिंह, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री सहित कई नेताओं ने हादसे पर गहरा शोक व्यक्त किया है।
कुल्लू से गाड़ागुशैणी-खौली की तरफ जा रही यह बस यात्रियों से ओवरलोडेड थी और महज दो किलोमीटर दूर ही लगभग ४५० फुट गहरी खाई में गिर गई। बस में सवार अधिकांश लोग गाड़ागुशैणी के रहने वाले हैं। बस में ८० लोग सवार थे जबकि बस की कपैसिटी इससे आधी ही थी।
हिमाचल के परिवहन मंत्री गोविंद सिंह ठाकुर ने कहा कि दुखद घटना घटी है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार सड़क हादसों को रोकने के लिए सख्त कदम उठाएगी और प्रदेश में सभी ब्लैक स्पॉट व खस्ताहाल सड़कों को दुरुस्त किया जाएगा। उन्होंने कहा – ”निजी बस ऑपरेटरों व वाहन चालकों को ट्रैफिक नियमों का पालन करना होगा और जनता को भी जागरूक करना पड़ेगा। सीएम आज (शुक्रवार) को क्षेत्रीय अस्पताल में घायलों से मिल रहे हैं। इस हादसे में मृतकों के परिजनों को फिलहाल फौरी राहत दी गई है। घायलों का क्षेत्रीय अस्पताल में फ्री इलाज हो रहा है।”

भाषा विवाद: चश्मे से ही नहीं आँख से देखिए

भाषा का सवाल जितना सीधा व सरल है, उसका उत्तर उतना ही कठिन व जटिल। हम क्यों बोलते हैं? क्या बोलते हैं, से आज ज्य़ादा महत्वपूर्ण यह होता जा रहा है कि हम किस भाषा में बोल रहे हैं। हम अपनी बोली व लिखी जाने वालीभाषा को ही सार्वभौमिक बना देखना चाहते हैं। जाहिर है, सामने वाला भी यही चाहेगा। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो समझ में आता है कि शासन बदलने के साथ-साथ अक्सर भाषा भी बदलती गई। सम्राट अषोक के समय भीउपयोग में आई लिपि को अब तक हम लोग ठीक से समझ नहीं पाए हैं। उससे भी पहले हड़प्पा-युगीन लिपि भी हमारे लिए रहस्य बनी हुई है। समय के साथ संस्कृत, पाली, प्राकृत, फारसी, अरबी, उर्दू, हिन्दी और अंत में अंग्रेज़ी समय-समय पर प्रमुखता पाती गई। वैसे यह सरलीकरण ही है, क्योंकि इस सबके समानांतर भारत के तमाम रजवाड़ों में अपनी-अपनी भाषाएं, बोलियां और लिपियां प्रचलन में थीं और उनमें से तमाम अभी भी प्रचलन में हैं।

एकीकृत भारत की परिकल्पना में इतनी सारी भाषाओं का सहअस्तित्व बहुत कठिन था। तमिल के अलावा अधिकांश भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से मानी जाती है। सिर्फ तमिल का अपना अनूठा भाषा विन्यास है। अतएव तमिलनाडुमें भाषा को लेकर व्यग्रता बेहद ज्य़ादा है और इसका स्वागत और सम्मान किया जाना चाहिए। प्रस्तावित शिक्षा नीति के त्रिभाषा सिद्धान्त ने फिर भाषाओं की स्वीकार्यता को सर्वोच्चता की दृष्टि से देखने को मजबूर सा कर दिया।तमिलनाडु व दक्षिण के अन्य राज्यों में इसे लेकर बेहद विवाद की स्थिति बनी और नीति से वह बात हटा दी गई।

बात को आगे बढ़ाने से पहले भाषा को लेकर विनोबा भावे के अनूठे रवैये पर विचार करते हैं। वे लिखते हैं, ”मुझे भाषाओं के लिए अत्यन्त प्रेम है। कोशिश करके मैंने अपनी भाषाओं का अध्ययन किया। हिन्दुस्तान के संविधान में 15 भाषाओं के नाम हैं। उन सब भाषाओं का अध्ययन बाबा को हुआ है। उसके बाद फारसी और अरबी इन दोनों भाषाओं का भी अच्छा अध्ययन बाबा को है। ”विनोबा यहीं नहीं ठहरते, उन्हें जापानी व चीनी भाषा का भी ज्ञान था। वे कहतेथे, ”मेरे ध्यान में आया यदि नागरी लिपि भारत में चलेगी तो जापान के लोग भी नागरी लिपि स्वीकार कर सकते हैं क्योंकि वे भी लिपि की तलाश में है।

विनोबा एक ही लिपि यानी सभी भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि की वकालत भी करते नजऱ आते हैं। वे कहते हैं, चीनी बड़ी विकट भाषा है। छोटे-छोटे शब्दों में पूरा वाक्य बन जाता है। बड़ी सुन्दर भाषा है। यह चित्र लिपि की भाषा हैऔर चित्रलिपि के नाते उसमें 1000-1200 ”सिम्बल हैं। ये सारे ”सिम्बलÓÓ सीखने के बाद भाषा आती है। चीन में अनेक भाषाएं हैं, लेकिन उनकी एक लिपि-चित्रलिपि होने से उस लिपि पर से चीनी लोग अपनी-अपनी भाषाएं पढ़ लेतेहैं। ”विनोबा पहले दौर में अत्यन्त व्यावहारिकता के साथ केवल उत्तर भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि की बात को स्वीकारते है। गौर करिए विनोबा ने जर्मन और फ्रेंच भी सीखी। फिर किसी ने कहा कि आपने एक नई भाषा, ”एस्पिरेण्टो” का अध्ययन नहीं किया। जब वे पंजाब में पदयात्रा कर रहे थे किसी ने उनके पास युगोस्लाविया से एक शिाक्षक को उन्हें ”एस्पिरेण्टो” सिखाने के लिए भेजा। विनोब ने 20 दिन में वह नई भाषा भी सीख ली। वे कुल 20 भाषाएं जानते थे।

ऐसा ही कुछ राहुल सांस्कृतायन के बारे में भी है। वे भाषा को समझ कर उसी में रचना भी करते थे। अगर महात्मा गांधी की बात करें तो वो 12 भाषाएं जानते थे। इसमें भारतीय भाषाओं की बात करें तो गुजराती, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, तमिल व तेलगू पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वे मराठी भी ठीक-ठाक बोल लेते थे। यरवदा व शेगांव जेल में उन्होंने मराठी व तमिल सीखी थी। उन्होंने गुरूदेव से मिलने और उन्हें अच्छे से समझने के लिए सन् 1920 के दशक में थोड़ीबंगाली भी सीखी थी। वही अपने जीवन के अंतिम दिनों (जनवरी-1948) में भी फिर बंगाली सीख रहे थे, जिससे कि वहां के शरणार्थियों और पीडि़तों से वे उनकी भाषा में बात कर उन्हें अधिक दिलासा दे सकें। विदेशी भाषाओं में उनकाअंग्रेजी, लेटिन, अरबी, फारसी व फ्रांसीसी पर अच्छा अधिकार था। उनका मानना था कि भारत के प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा के अलावा एक अन्य भारतीय भाषा में पारंगत होना आवश्यक है। यानी भाषा अधिकार नहींअपनापन बढ़ाने का जरिया बनना चाहिए।

परन्तु भारत में कुछ ऐसा घट गया, जिससे भाषा बजाए सम्प्रेषण के टकराव का जरिया बनती चली गई। इस लेख की शुरूआत में जि़क्र आया था कि भारत में पिछले 2,500 वर्षों में जैसे-जैसे शासन बदले कमोवेश राज्य की भाषा भीबदलती गई, परन्तु जब 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, तब पहली बार ऐसा हुआ कि हम शासक, वह भी औपनिवेशिक शासक की भाषा को अपनी भाषा के रूप में अंगीकार करने को विवश हो गए। यही बात बेहद घातकभी सिद्ध हुई।

गांधी भारत के लिए एक राष्ट्र्रभाषा चाहते थे और इसके लिए हिन्दी को उपयुक्त समझते थे। वे मानते थे कि राष्ट्र्र्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। वे भी विनोबा की तरह हिन्दुस्तान के लिए देवनागरी लिपि की पैरवी करते थे तथा रोमन लिपि केबेहद खिलाफ थे। वे हिंदी के प्रश्न को स्वराज्य का प्रश्न मानते थे। साथ ही राष्ट्र्रभाषा के प्रयोग को वे देश की शीघ्र उन्नति से भी जोड़ते थे। गांधी ने अंग्रेज़ी की सर्वोच्चता के अंधविष्वास से बाहर निकलने का आहवान भी किया था। वे मानतेथे कि अंग्रेज़ी कतिपय अफसरों के अनुकूल हो सकती है, सबके नहीं। बाकी जनता के लिए तो वह सिरदर्द ही साबित होगी। वे जानते थे कि इसकी वजह से शासन, प्रशासन और जनता के बीच गहरी खाई पैदा होगी, इसीलिए हिन्दीको राष्ट्र्रभाषा का दर्जा देने के साथ-ही साथ वे चाहते थे कि शिक्षण का माध्यम तो मातृभाषा ही होनी चाहिए।

हमें यह भी समझ लेना होगा कि गांधी मूल रूप से हिन्दी भाषी नहीं गुजराती बोलने-समझने वाले थे। वे जानते थे कि भारत में अन्य तमाम लिपियां बंगाली, तमिल, तेलगु, गुरूमुखी, गुजराती आदि प्रचलन में है, परन्तु देवनागरी में अन्यभाषाओं को अपनाने की क्षमता सबसे ज़्यादा है। उन्होंने अंग्रेज़ी भूल जाने की घोषणा भी की थी। उनके मन में हिन्दी को सर्वोच्चता प्रदान करने का विचार नहीं बल्कि भारत में आपसी सम्प्रेषणीयता में वृद्धि था। परन्तु दक्षिण भारतीयसमाज ने इसे अपने पर थोपे जाना समझ लिया। उनकी इस समझ के पीछे दिल्ली में बैठे कांग्रेसी नेताओं की भी गलती रही है।

यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है मौजूदा तमिलनाडु जो कि पहले मद्रास या मद्रास प्रेसिडेंसी के नाम से जाना जाता था, में हिन्दी विरोधी आंदोलन आज़ादी के भी पहले सन् 1937 में प्रारंभ हो गया था। यह तब हुआ जबकिभारतीय राष्ट्र्रीय कांग्रेस की सी.राजगोपालाचारी सरकार ने हिन्दी पढ़ाने का निश्चय किया। इस कदम का ई.वी.रामास्वामी ने विरोध किया। यह आंदोलन करीब 3 साल तक चला और सन् 1939 में कांग्रेस सरकार के इस्तीफा दे देने केबाद फरवरी 1940 में ब्रिटिश सरकार ने हिन्दी पढ़ाई का आदेश वापस ले लिया। जैसा कि हम जानते हैं कि संविधान सभा में भी भाषा (राष्ट्र्रभाषा) एक चर्चित मुद्दा रहा है। भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। सरकारके प्रस्ताव कि सन् 1965 के बाद हिन्दी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बना दिया जाए, से अनेक गैर हिन्दी भाषी राज्य सहमत नहीं थे। वहीं जैसे-जैसे 26 जनवरी 1965 नजदीक आता गया वैसे-वैसे अहिन्दी भाषी राज्यों में स्थितियांबिगडऩे लगी।

मद्रास में 25 जनवरी 1965 को छात्रों ने बड़ा आंदोलन किया। राज्य में अर्धसैनिक बलों की तैनाती करनी पड़ी। इन दंगों में 70 से ज्य़ादा लोग मारे गए। यह सब कुछ कांग्रेसी शासन के अन्तर्गत हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने यह आश्वासन दिया कि अंग्रेज़ी को तब तक आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त रहेगा, जब तक कि अहिन्दी भाषी राज्य चाहते हैं। इस असंतोष का एक परिणाम यह निकला कि सन् 1967 में हुए विधानसभा चुनावों मेंकांग्रेस हार गई और डी.एम.के. की जीत हुई और कांग्रेस फिर आज तक वहां सत्ता में नहीं आ पाई। आखिर केन्द्र में सत्ता में आई इंदिरा गांधी सरकार ने सन् 1967 में आधिकारिक भाषा अधिनियम में संशोधन कर यह सुनिश्चित करदिया कि हिन्दी व अंग्रेज़ी का आधिकारिक भाषा के रूप में प्रचलन अनिश्चित काल तक जारी रहेगा।

रोचक तथ्य यह है कि जब मद्रास (अब तमिलनाडु) में हिन्दी विरोधी आंदोलन चल रहा था। ठीक उसी समय उत्तर भारत में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन भी अपने चरम था। इस संदर्भ में उन्होंने सन्1965 में उत्तर प्रदेश में विधायकों के समक्ष एक महत्वपूर्ण भाषण ”अंग्रेज़ी कैसे हटे दिया था। उनका मानना था कि लोग अंग्रेज़ी को इसलिए भी पढ़ते हैं क्योंकि इससे रूतबा बढ़ता है। उन्होंने कहा, ”यह संभव नहीं है कि वर्तमान नीतिके चलते बंगाल और तमिलनाडु स्वेच्छा से अंग्रेज़ी हटा देंगे। करोड़ों लोग हिन्दी मुर्दाबाद के नारे लगते हैं और बंगाल में तो यहां तक नारे चल पड़े हैं कि ”जय हिन्दी देश तोड़ती है और जय अंग्रेज़ी देश जोड़ती है।” वे मानते थे कि बंगालमें दो धाराएं काम करती हैं, एक हिन्दी को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने और दूसरी धारा हिन्दी का तिरस्कार करने की। इसके दो वर्ष पश्चात सन् 1967 में उन्होंने नारा दिया ”अंग्रेज़ी हटाओ। वे अंग्रेज़ी भाषा का विरोध ब्रिटिशऔपनिवेशिक मानसिक गुलामी से मुक्तिके लिए कर रहे थे। डॉ. लोहिया भी अनेक हिन्दुस्तानी और विदेशी भाषाओं के जानकार थे। उनका मानना था कि ”दरअसल, हथियार और पलटन किसी कौम को जिताया नहीं करते। सबसेपहले नम्बर की ज़रूरत होती है दिल की यह ताकत, इच्छा शक्ति, संकल्प शक्ति से ही राष्ट्र्र अपना जीवन बनाया करते हैं। अपने लंबे संवाद के अंत में वे कहते हैं, ”देखो पलटन का अफसर किस भाषा में बोलता है? सिपाही किस भाषामें बोलता है ? अपनी मातृभाषा चाहे मलयालम हो या बंगला हो पर ज़्यादातर पलटन में जो सिपाही लोग हैं वे तो हिन्दुस्तानी वाले हैं ना तो पलटन के सिपाही तो बोले, समझें, सब कुछ काम करें अपनी भाषा में, मातृभाषा में औरअफसर लोग कागज घिसें, हुक्म दें और सब व्युह रचें अंग्रेज़ी में। कैसे काम चल सकता है।

लोहिया का मानना था कि भारत में उत्पादकता में कमी का एक बड़ा कारण अंग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व ही है। वे कहते थे ”हिन्दी के साथ सबसे बड़ी झंझट यह हुई है कि इसका क्या बोलते हैं, अभिषेक तो हो गया तिलक नहीं लगा, यातिलक लग गया पर अभिषेक नहीं हुआ। लिख तो दिया, हो गई हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा, लेकिन तिलक नहीं चढ़ा। नतीजा यह हुआ कि काम हुआ नहीं लेकिन लोगों का मन बिगड़ गया। बंगाली, तमिल, तेलगू जितने थे उनको मौकामिल गया और वे एक सैकड़ा लोग थे, उनको मौका मिल गया कि वे चारों तरफ इसके खिलाफ आवाज उठा दें।ÓÓ इसके प्रतिकार स्वरूप वे चाहते थे कि बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा इन पांच सूबो कोअंग्रेज़ी हटा देनी चाहिए। डॉ. लोहिया के इस सैद्धान्तिक विरोध व आंदोलन को उस दौरान काफी समर्थन भी मिला था, परन्तु बाद में उन्हें इस बात के लिए कोसा जाने लगा कि उनकी वजह से उत्तर भारतीय पिछड़ गए। जबकिसमस्या भाषा के चयन की थी और दक्षिण भारत पर हिन्दी नहीं थोपी जा सकी, परन्तु उत्तर व मध्य भारत में चुपचाप अंग्रेज़ी थोप दी गई।

हिन्दी विरोधी व अंग्रेज़ी हटाओं आंदोलनों को बीते अब 50 बरस से भी ज़्यादा हो गए हैं। दक्षिण भारत ने अपने हिन्दी विरोधी तेवरों में ज़्यादा कमी नहीं आने दी, परन्तु उत्तर भारतीय, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों ने हाथ टेक दिये याअपने हथियार डाल दिए। दक्षिण भारत ने अंग्रेज़ी के साथ अपनी मातृभाषा को जबरदस्त ढंग से प्रोत्साहित किया और अगली पीढ़ी के मन में मातृभाषा के प्रति जबरदस्त लगाव भी बनाए रखा। वहीं हिन्दी भाषी समाज को जैसे हिन्दी सेविरक्ति नहीं बल्कि वितृष्णा सी हो गई। गली-गली में अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय खुल गए। इन विद्यालयों में पढ़ाने वालों को न तो अंग्रेज़ी आती थी और न ही शास्त्रीय हिन्दी।

अंग्रेज़ी का ज्ञान सामाजिक प्रतिष्ठा का पैमाना बनता चला गया और स्थितियां दिनों दिन बद् से बद्तर होती चली गई। हिन्दी प्रदेशों में यह मानसिकता पैठ बनाती गई कि हिन्दी एक हीन भाषा है, और इसके माध्यम से जीवन के उच्चतमशिखरों (अर्थात धन कमाने) तक नहीं पहुंचा जा सकता। इस बीच भारत की अधिकांश आबादी के लिए सूचना क्रांति का अर्थ मोबाइल क्रांति तक सीमित हो कर रह गया। साहित्य को छोड़ दें, तो हिन्दी में अन्य पठन-पाठन व लेखन कासर्वथा अभाव होता चला गया और यह माना जाने लगा कि सर्वश्रेष्ठ तो अंग्रेज़ी में ही लिखा जा सकता है, फिर बात विज्ञान की हो, कला की हो, साहित्य की हो, दर्शनशास्त्र की हो या फिर समाजशास्त्र आदि की। अतएव हमें लेखक वरचियता नहीं बल्कि अच्छे अनुवादक चाहिए। और माने या न माने हिन्दी प्रदेशों ने इसमें पारंगता प्राप्त की और इसे एक बेहतरीन व्यवसाय में बदल डाला। हिन्दी में अनुदित पुस्तकों की बिक्री बढ़ती गई। अतएव प्रकाशकों कोअनुवादकों की बिरादरी की तलाश थी, जो उन्हें सस्ते में और आसानी से उपलब्ध हो गई। वहीं सरकार के अधिकांश विभाग व एजेंसियों को भी सस्ते अनुवादकों की आवश्यकता थी, उन्हें भी यह परिस्थिति काफी अनुकूल जान पड़ी।इधर फेसबुक आदि पर स्तरहीन अनुवाद भी त्वरित उपलब्ध होने से हिन्दी की बची-खुची अस्मिता भी दांव पर लग गई।

इस सबके चलते कोढ़ में खारिश के रूप में वर्तमान भाषा विवाद सामने आया और 50 साल पहले की परिस्थितियों का पुन: दुहराव हो गया और एक बार फिर हिन्दी विरोध के ईंधन ने दक्षिण भारत को भाषायी विविधता व राजनीतिकविरोधाभास के चलते एकसाथ ला खड़ा किया। केन्द्र सरकार दोबारा हिन्दी व राष्ट्र्रभाषा के मुद्दे पर असफल सिद्ध हुई और वही हुआ जो 5 दशक पहले हुआ था। त्रिभाषा फार्मूला हिन्दी थोपने के नाम पर बदनाम कर दिया गया औरऔपनिवेशिकता या गुलामी की पहचान, अंग्रेज़ी के पैर और भी मजबूत हो गए। इस बार हिन्दी विरोधियों के तरकश में और भी घातक तीर थे। जैसे सूचना क्रांति, दुनिया का सिमट कर छोटा हो जाना आदि-आदि। परन्तु इस सबकेचलते यह कोई नहीं समझ रहा कि अब अंग्रेज़ी को हटाने की बात नहीं रह गई है बल्कि राष्ट्र्रीय स्तर पर संप्रेषण व संवाद के लिए एक भारतीय भाषा के चयन की बात प्रमुख है। खेद की बात यह है कि इक्का-दुक्का को छोड़ दें तोहिन्दी भाषी समुदाय भी अपनी ही मदद को सामने आने को तैयार नहीं है। इस भाषा विवाद का सबसे ज़्यादा लाभ अंग्रेज़ी के नाम पर शिक्षा की दुकानें चलाने वाला वर्ग उठाएगा और आमफहम को समझा देगा कि देखिए अब अंग्रेज़ीका वर्चस्व, पूरे भारत में शाश्वत हो गया है और हमने गांधी, विनोबा लोहिया को अंतिम शिकस्त दे दी है।

अनुपम मिश्र लिखते हैं, ”लेकिन कभी-कभी समाज के कुछ लोगों का माथा थोड़ा बदलने लगता है। यह माथा फिर अपनी भाषा बदलता है। यह सब इतने चुपचाप होता है कि समाज के सजग माने गए लोगों के भी कान खड़े नहीं होपाते। इसका विश्लेषण, इसकी आलोचना तो दूर इसे कोई क्लर्क या मुंशी की तरह भी दर्ज नहीं कर पाता।ÓÓ धीरे-धीरे हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग कर इसे हिग्लिंष्श में बदला। अब पूरी तरह से नकारने का दौर चल रहा है।परन्तु इस वर्ग के सामने समस्या यह है कि हिन्दी अभी भी बाज़ार की भाषा है और करीब 70 करोड़ से ज्य़ादा लोगों द्वारा बोली-समझी जाती है। गौरतलब है आज से 800 वर्ष से भी पहले सारी दुनिया में हिन्दी जानने वाले लोग थे, क्योंकि यह व्यापार की भाषा थी। भारत में तीन तरह की हिन्दी प्रचलन में थी जिसमें एक दखनी हिन्दी भी है, जिसका रूप हमें अभी हैदराबाद के आसपास दिखाई देता है कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी बाज़ार की भाषा बने,बाज़ारू नहीं।

हम जानते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ में शब्द नहीं थे, भाषा नहीं थी। इसे मानव ने ही विकसित किया है। इसे लेकर दो तथ्य सामने आते हैं, पहला यह कि भाषा के न होने पर आदिम मनुष्य ने भारी दिक्कतों का सामान किया होगा औरदूसरा यह कि भाषा को विकसित करने में मनुष्य को कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा होगा। उसे कितनी कल्पनाशीलता का उपयोग करना होगा। आज हम इसे सहज ही पा लेते हैं। अतएव यह समझना होगा कि प्रत्येकभाषा या बोली का विकास मानव सभ्यता के विकास की क्रमबद्ध कहानी जैसा ही है, इसलिए भाषाएं विवाद नहीं सामंजस्य का द्योतक है। हिन्दी भाषा-भाषियों को समझना होगा कि हिन्दी से लगाव ही उनकी संस्कृति को सहेज सकताहै। हिन्दी को अनुवाद नहीं, रचना की भाषा बनाए रखना होगा। हमें अपनी मर्जी से अपनी मातृभाषा के अलावा एक और भारतीय भाषा सीखनी होगी। सौहार्द बढ़ाने के लिए यह भाषा ”तमिलÓÓ भी हो सकती है। परन्तु किसी भी हालमें भाषा के आधार पर सामाजिक तानाबाना टूटना नहीं चाहिए। वैसे हमने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन कर अनेक भाषाओं को लुप्त होने से बचाया है। आगे क्या यह संभव हो पाएगा? अंत में विनोबा ही एक बात, ”भगवानशंकर को तीसरी आँख थी, वह ज्ञान दृष्टि कहलाती है। वैसे ही हमें भी तीसरी आँख चाहिए। संस्कृत भाषा का अध्ययन हमें लाभदायी होगा। अंग्रेज़ी भाषा चश्में के तौर पर काम आयेगी। चश्में की ज़रूरत सबको नहीं होती। कुछ लोगोंको कभी ज़रूरत होती है, तो उतना अंग्रेज़ी का स्थान है। पर भारत में तो चश्मा ही आँख का पर्याय हो गया है।

राजनीतिक मोहरा न बनाएं भाषा को

समस्या यह है कि अब आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिमी बंगाल और उत्तरपूर्वी राज्यों ने भी हिंदी के विरोध में कमर कस ली है। जबकि दशकों से देश में त्रिभाषा फार्मूला चल रहा है। यह तो तय है कि पूर्व शिक्षामंत्री एमसीचागला की अध्यक्षता में बनी समिति ने जिस त्रिभाषा फार्मूले को हरी झंडी दी थी और बाद की सरकारों ने उस पर अमल भी किया। लेकिन अब भाजपा नेतृत्व की केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार उसमें निश्चय ही इस तरह से फेरबदल करेगी जिससे बहुत ज़्यादा विरोध भी न हो और उनका मकसद भी पूरा हो जाए।

देश के संविधान में हिंदी को आधिकारिक भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी के साथ ही 15 साल के लिए मान्य किया गया है। लेकिन हमेशा ही खासा भ्रम रहा है उनमें जो  अनिश्चित काल तक के लिए अधिकारिक भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग देश में नहीं चलने देना चाहते । वे इसे विभिन्न चरणों में हटाना चाहते हैं और इसकी जगह हिंदी को देना चाहते हैं। हिंदी के जानकारों के अनुसार हिंदी यदि आधिकारिक भाषा बन गई तो हिंदी में लिखा होने के बावजूद उसे समझने के लिए शब्दकोष पलटने की ज़रूरत पड़ेगी। हिंदी भाषियों का भी एक बड़ा तबका यह चाहता है कि अंग्रेज़ी के साथ -साथ सरल हिंदी की भी व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे दूसरे भाषा-भाषी भी सरकारी हिंदी को ठीक तरह से समझ सकें।

भाषाई विवाद पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में यह भरोसा दिया था कि जब तक विभिन्न भाषाओं के राज्य हैं तब तक पूरे देश में बतौर राजभाषा हिंदी नहीं बनेगी। अंग्रेज़ी को सहयोगी भाषा के तौर पर कायम रखा जाएगा। यह स्थिति तब तक रह सकती है जब तक वे अहिंदी भाषी राज्य खुद राजी नहीं हो जाते।

त्रिभाषा फार्मूले पर इसलिए तब अमली जामा पहनाया गया था कि बच्चा मातृभाषा पढ़े फिर मातृभाषा के साथ-साथ हिंदी भी विकसित करे और फिर अंग्रेज़ी को और कायदे से सीखे। इसके पीछे सोच यही थी कि फिर वह दुनिया की दूसरी भाषाएं भी सीख सकता है। इस फार्मूले पर अमल करते हुए कई  शैक्षणिक संस्थानों ने जर्मन, फ्रेंच और दूसरी भाषाओं के शिक्षण-प्रशिक्षण की शुरूआत की। इससे मातृभाषा तो बोलचाल के स्तर पर आ गई , लेकिन हिंदी का पठन-पाठन एकदम ठप्प हो गया। वह भी बाज़ार की भाषा के तौर पर समाज में पहले की ही तरह विकसित हुई। दक्षिण भारत  हिंदी प्रचार समितियों ने ज़रूर खुद को महाविद्यालय स्तर तक विकसित किया। उनका भी मकसद छात्रों को प्रशिक्षित कर डिग्री दिलाने भर का रह गया।

समाजशास्त्री, भाषाविद और शिक्षाशास्त्री इस बात पर एकमत हैं बच्चों पर सीखने का बहुत दबाब  नहीं देना चाहिए। उन्हें एक तो मातृभाषा और अंग्रेज़ी ज़रूर सिखनी चाहिए फिर यदि बातचीत करते हुए उन्हें पूरी दुनिया के बारे में विश्व ज्ञान दें और अपना देश वे अच्छी तरह जान समझ सकें उसके लिए वे वह उपयुक्त भाषा सीखें जो उन्हें पसंद हो।

भाषा चाहे जो हो उसके जानकारों से संवाद और उसका उचित ज्ञान बेहद ज़रूरी है।  इसी साल के शुरू में लाल किले के बाहरी परिसर में आर्टिस्ट एम्सेंबल का एक भव्य विचित्रानुष्ठान समारोह हुआ। इसमें असम-अरूणाचल सीमा के ही एक जनप्रतिनिधि ने कुछ गीत पेश किए। हिंदी-अंग्रेज़ी के ये गीत काफी रिझाऊ थे। हालांकि इनमें हिंदी-भोजपुरी की भदेस गालियां  भी थी। इसका विरोध कई महिलाओं ने किया। क्योंकि महिलाओं के शरीर से जोड़ कर दी जाने वाली गालियां आम तौर पर पूरी देश में अब सुनाई देती हैं।  लेकिन उन महिलाओं को उसका एक दो गानों में इस्तेमाल बेहद नागवार लगा। लेकिन जनप्रतिनिधि विरोध के बावजूद कई गुना ज़्यादा प्रशंसा पा चुके थे। उन्होंने  यदि हिंदी या संस्कृत पढ़ी होती तो शायद वे गालियों को भी शिष्ट भाषा में प्रयोग करते हुए और ज़्यादा प्रशंसा के हकदार होते। हिंदी में कविताओं में धूमिल, कहानियों में राजकमल चौधरी और संस्कृत में तो विभिन्न रचनाकारों ने महिला सौंदर्य को शिष्ट प्रयोग से उभारा और प्रंशसा ही पाई।

देश की संस्कृति को समझने के लिए भी बहुभाषी होना आज मजबूत राष्ट्र की ज़रूरत है।  इसके लिए अहिंदी भाषी राज्यों को भी यह समझना होगा कि हिंदी का विकास विस्तारवादी फार्मूले के तहत नहीं हुआ है। पूरे देश की  आबोहवा में आज हिंदी है जो जम्मू-कश्मीर से पॉडिचेरी तक जानी समझी जाती है। इसके साथ ही कच्छ से उत्तरपूर्व तक इसे बोलने-समझने वाले मिल जाते हैं। इसलिए हिंदी को मित्र भाषा ही माना जाना चाहिए।

भाषा को कभी भी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मातृभाषा के प्रति जो लगाव होता है उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही विविध भाषाओं की जानकारी से जो आत्मविश्वास बढ़ता है और मानसिक खुलापन आता है वह बेजोड होता है।

हिंदी का विरोध तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तरपूर्व के प्रदेशों में दिख रहा है उसकी वजह नई शिक्षा नीति के मसविदे को जारी किया जाना रहा।भाजपा को ये सभी राज्य शंकालु नज़रिए ये देखते भी रहे हैं। दूसरी सच्चाई है कि इन तमाम राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का अपना वजूद स्थानीय भाषा, उपभाषा के कारण ही बढ़ता गया है। इसलिए उनका सतर्क होना ओर खुद को केंद्र के विरूद्ध खड़ा रखना स्थानीय राजनीतिक ज़रूरतों के ही आधार पर है। इनकी भाषाई विविधता ऐच्छिक तौर पर दूसरी भाषा के ज्ञान संबंधी पहल केंद्र को करना चाहिए।

केंद्र सरकार को भी यह समझना चाहिए कि भाषाई, सांस्कृतिक विविधताओं को राष्ट्रीय एका के आधार पर जोर जबरदस्ती से लागू करना उचित नहीं है और न रहेगा। हमारा देश जितना विविध है वहां यह मुमकिन नहीं है कि देश की अकेली राष्ट्रभाषा हिंदी घोषित की जाए। हिंदी को अकेली राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रचारित करने से दूसरी भाषाओं के लोगों में बेवजह तनाव होगा। जिससे उपद्रव पूरे देश में  फैल सकता है। त्रिभाषा फार्मूले की आड़ में भी हिंदी को अहिंदी भाषी राज्य पसंद नहीं करेंगे। इससे बेवजह तनाव ही फैलेगा।

केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंकÓ खुद जाने-माने रचनाकार रहे हैं। उन्हें पूर्व वैज्ञानिक केके कस्तूरीरंगन ने अपनी अध्यक्षता में न्यू  एजुकेशन पॉलिसी के लिए गठित कमेटी की रपट और सिफारिशों को सौंपा है। इस मसौदा रपट में छात्रों की संवाद क्षमता बढ़ाने के लिए त्रिभाषा फार्मूला विकसित करने पर ज़ोर है। इसमें यह भी प्रस्ताव है कि अहिंदी भाषी छात्रों को हिंदी-अंग्रेज़ी के अलावा क्षेत्रीय भाषा भी सीखनी होगी। दक्षिण भारत के  विभिन्न राज्यों के नेताओं का कहना है कि भाजपा जबरन अहिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी लाद रही है। यह उसकी एक राजनीतिक चाल है। जबकि हिंदी कुछ ही राज्यों की भाषा है जहां ढेरों लोकभाषाएं हैं जो हिंदी से भी ज़्यादा  लोकप्रिय गांव-घरों में हैं। भाषा का उद्देश्य है कि लोग आपस में बातचीत करें। अपने प्रतिनिधि और सरकार से संवाद स्थापित कर सकें।

आम तौर पर बुद्धिजीवी यह कहते हैं देश में आज जो सूचना क्रांति हुई है  उसके चलते शहरी और ग्रामीण परिवारों में औसतन तीन -चार भाषाओं की जानकारी युवाओं को है। विविध भाषाओं की जानकारी से जहां आत्मविश्वास  बढ़ता है और दिमागी खुलापन भी । भाषाएं सीखना बुरा नहीं, लेकिन उनको राजनीतिक रूप न दिया जाए।

पत्रकारों की फिर मदद करने आगे आया सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने आगे बढ़कर फिर अपने आदेश से पत्रकार प्रशांत कनौजिया को तुरंत जमानत देकर रिहा कराया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ योगी से संबंधितकानूनी तौर पर एक अभद्र वीडियों को प्रशांत ने शेयर कर लिया था। इस पर उत्तरप्रदेश पुलिस ने तत्काल पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया ।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हमें फिर भरोसा मिला है कि हम अभी भी ‘बनाना रिपब्लिक’ नहीं है। छुट्टियों के दौरान बैठी वकेशन बेंच में इंदिरा बनर्जी और अजयरस्तोगी ने तो विवादित ट्वीटस को एक पत्रकार की निजी आज़ादी में कटौती करने लायक पर्याप्त नही माना। इस पूरे मामले में पुलिस बड़े लोगों के दबाव में थी। यहबात तथ्य से भी जाहिर है कि कानौजिया को दिल्ली से बाहर उत्तरप्रदेश ले जाया गया वह भी बिना मेजिस्ट्रेट से लिए किसी ट्रांजिट रिमांड के।

पुलिस की कार्रवाई से मीडिया हलकों में खासी धमक रही। एडीटर्स गिलड ऑफ इंडिया ने इसे कानूनों का मनमाना इस्तेमाल करार दिया। देश के विभिन्न प्रेसक्लब, पत्रकारों के मीडिया संगठनों के अपने संगठनों ने इस पुलिसिया कार्रवाई की निंदा की। पूरा मीडिया समुदाय गिरफ्तार पत्रकार के समर्थन में एकजुट हो गया।पुलिस ने उस पर आईटी एक्ट की धारा 67 लगा रखी थी। जिसके तहत किसी अश्लील सामग्री को शेयर करना संगीन अपराध है। इसके लिए रिमांड आदेश चाहिए।

उत्तरप्रदेश सरकार जिस बात पर नाराज़ हुई वह एक वीडियो क्लिप था जिसमें एक महिला मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से शादी करने की इच्छा जताती दिखती हैं।उत्तरप्रदेश पुलिस ने कानौजिया के खिलाफ वीडियों शेयर करने का आरोप लगा कर उसे गिरफ्तार कर लिया। कनौजिया ने आरोप लगाने वाली कानपुर की इसमहिला का वीडियो शेयर किया था। उसे दिल्ली के मकान से गिरफ्तार किया गया और जेल भेज दिया गया। उस महिला को भी शाम को गिरफ्तार कर लिया गया।पुलिस ने टीवी के दो पत्रकारों को भी हिरासत में लिया जिन्होंने उस विवादित वीडियों को प्रसारित किया।

सोशल मीडिया पोस्ट करने पर किसी पत्रकार को गिरफ्तार करना निश्चय ही प्रेस की आज़ादी पर हमला है। यह न केवल अलोकतांत्रिक है बल्कि यह आज़ादी कोकम करने की साजिश भी है।

एपेक्स कोर्ट में साफतौर पर बताया है कि कहां पुलिस ने गलती की। कनौजिया के खिलाफ पुलिस कानूनी कार्रवाई तो कर सकती थी लेकिन वह किसी के निजीअधिकारों को नहीं छीन सकती। अपने मालिकों को खुश करने के लिए इसने नोएडा के एक निजी टीवी चैनेल के दफ्तर, परिसर को भी सील कर दिया, क्योंकिमुख्यमंत्री आदित्यनाथ को बदनाम करने की यह एक साजिश था। इसलिए संपादक को भी गिरफ्तार किया गया।

कनौजिया के खिलाफ लखनऊ के हजरतगंज पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज की गई। अलग से नोएडा के सिटी मेजिस्ट्रेट शैलेंद्र मिश्र ने एक आदेश जारी करकेनेशन लाइव के परिसरों को दो महीने के लिए सील करा दिया। यह कार्रवाई एक दिन बाद हुई जब चैनेल प्रमुख ईशिका सिंह और संपादक अनुज शुक्ला गिरफ्तारकिए जा चुके थे। मेजिस्ट्रेट के आदेश में कहा गया है कि इस घटना से भविष्य में कानून और व्यवस्था और बिगड़ सकती थी इसलिए तात्कालिक प्रसारण रोकनेे केलिए चैनेल को बंद करना पड़ा। अब सेक्टर 45 का परिसर दो महीने तक बंद रहेगा जिसकी शुरूआत नौ जून को हुई।

अधिकारी यह भी कहते हैं कि चैनेल के पास नेटवर्क 10 का लाइसेंस है, ‘नेशन लाइव’ का नहीं जिसके कारण यह गैर कानूनी प्रसारण हुआ। इन गिरफ्तारियों केसाथ ही विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ता और वकील ज़ोर शोर से यह कहने लगे कि पुलिस कार्रवाई से प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को तोड़ दिया गया है। यहभरोसा कर पाना कठिन है कि जब सोशल मीडिया में ऐसी ऊल-जलूल सामग्री भरी हुई है तो कैसे पुलिस एक या दो लोगों को उस अपराध के तहत, बिना छानबीनके हिरासत में ले लेती है जिसमें छूट पाना आसान नहीं होता।

कठुआ कांड के अपराधियों को उम्रकैद

कश्मीर में ऊँचाई पर रहने वाले खानाबदोश बकरवाल का दिल चूरचूर हो गया था जब उसे पता चला कि उसकी आठ साल की बच्ची के साथ एकमंदिर में सामूहिक दुष्कर्म हुआ था।

पठानकोट के सेशन कोर्ट के जस्टिस डा. तेजविंदर सिंह ने सांझीराम, दीपक खजूरिया और प्रवेश कुमार को उम्रकैद की सज़ा दी। साथ ही इन परएकएक लाख का जुर्माना भी लगाया। पुलिस कर्मियों आनंददत्ता, तिलक राज और सुरेंद्र कुमार को पांचपांच साल की सज़ा और

50-50 हजार का जुर्माना लगाया। कोर्ट ने सांझीराम के बेटे विशाल को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया।

पिछले साल दस जनवरी को कठुआ के गांव रसाना में बच्ची का अपहरण हुआ था। सात दिन बाद उसकी क्षतविक्षत लाश मिली। पुलिस ने एकनाबालिग समेत आठ लोगों पर पिछले साल अप्रैल में चार्जशीट दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2018 में यह मामला जम्मू-कश्मीर से बाहर भेजने काफैसला किया था।

पुलिस चार्जशाीट के अनुसार सांझीराम के मन में बकरवाल समुदाय के लोगों से चिढ़ थी। उसने औरों को साथ लेकर अपहरण और दुष्कर्म को अंजामकिया। बच्ची को वे नशे का इंजेक्शन देदेकर यातनाएं देते थे। उसे खूब मारापीटा गया। पुलिस कर्मियों ने भी इन अपराधियों का साथ दिया। यहां तकविशेष पुलिस अधिकारी दीपक खजूरिया ने तो डेढ़ लाख रुपए लेकर  मामले को दबाने का आश्वासन दिया और बेहोश बच्ची से दुष्कर्म भी किया।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनिया गुटेरेस ने जम्मूकश्मीर की इस बच्ची के अपहरण, जबरन नशा, दुष्कर्म और मार-पीट व यातनाओं को बेहदवीभत्स और डरावना बताया। उन्होंने उम्मीद जताई कि प्रशासन इसमें उचित न्याय करेगा।

भाजपा समर्थक मीडिया (पिं्रट और टीवी) लगातार इस हादसे के होने से ही इंकार करता रहा। भाजपा के दो नेता चंद्रप्रकाश गंगा और चौधरी लालसिंह को हिंदू एकता मंच के प्रदर्शन में शामिल होने पर मंत्रिमंडल से हटना पड़ा।