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महाराष्ट्र में भाजपा-सेना आगे, हरियाणा में उलझा है कांटा

दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में अभी तक के रुझानों में भाजपा-शिव सेना गठबंधन  महाराष्ट्र में बेहतर करता दिख रहा है और उसकी सरकार बनना कमोवेश निश्चित दिख रहा है। हालांकि, हरियाणा के रुझानों ने भाजपा की नींद उड़ाई है और वहां उसे कांग्रेस कड़ी टक्कर दे रही है। यदि मामला फंसा तो ६-८ सीटों पर आगे दिख रही नई बनी पार्टी जेजेपी ”किंग मेकर” की भूमिका में आ सकती है।

इस बीच भाजपा आलाकमान ने सीएम एमएल खट्टर को दिल्ली तलब किया है। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस ने ट्वीट किया है कि वह महाराष्ट्र में शिव सेना को स्पोर्ट करने के लिए तैयार है। ”सामना” में शिव सेना हमेशा कांग्रेस नेता राहुल गांधी की तारीफ़ करती रही है लिहाजा कांग्रेस का यह ट्वीट इस मायने में अहम हो जाता है कि शिव सेना अपना मुख्यमंत्री होने की बात हमेशा कहती रही है।

महाराष्ट्र में अभी तक के रुझानों के मुताबिक कुल २८८ सीटों में से भाजपा १०३, उसकी सहयोगी शिव सेना ७२, कांग्रेस ४१ और एनसीपी ५० सीटों पर आगे चल रहे हैं। वैसे नतीजों को देखा जाए तो भाजपा ने इस चुनाव में महाराष्ट्र  २०१४ के चुनाव के मुकाबले अभी पीछे है जबकि शिव सेना ने हासिल किया है। २०१४ में भाजपा ने १२२ और शिव सेना ने ६३ सीटें जीती थें। वहीँ कांग्रेस की स्थिति २०१४ जैसे ही है जबकि एनसीपी ने गेन किया है। वो अभी तक ५० सीटों पर आगे है जबकि २०१४ में उसने ४१ सीटें जीती थीं।

उधर हरियाणा के रुझान साफ़ कर रहे हैं कि भाजपा का ७५ पार का नारा फुर्र हो गया है और वहां उसे बहुमत तक पहुँचने के लाले पड़ सकते हैं। भाजपा अभी तक वहां ४३ सीटों पर आगे है जबकि कांग्रेस ३१ पर आगे है। हरियाणा में बार-बार आँखड़े बदल रहे हैं लिहाजा अंतिम नतीजा क्या रहेगा, अभी कहना मुश्किल है। यह साफ़ है कि हरियाणा में स्थानीय मुद्दे भारी पड़े हैं।

1984 के दंगों में फिर फंसे कमलनाथ

1984 के भूत का डर कांग्रेस नेता और मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री कमलनाथ को अभी भी सता रहा है। लगभग 35 सालों के बाद कमलनाथ अभी भी कांग्रेस गृह मंत्रालय द्वारा गठित विशेष जांच दल के कटघरे में खड़े हैं। आधिकारिक अधिसूचना के अनुसार केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा गठित विशेष जांच दल ने सिख विरोधी दंगों से जुड़े सात मामलों को फिर से खोलनेका फैसला किया है। जहां आरोपियों को या तो बरी कर दिया गया या मुकदमा बंद कर दिया है। एसआईटी ने इस मामले केा फिर से खोल दिया है और वश्ष्ठि अनुभवी कांग्रेस नेता के खिलाफ नए सबूतों पर विचार करने की संभावना है।

इस मामले को फिर से खोलने की घोषणा के तुरंत बाद शिरोमणि अकाली दल के नेता मनजिंदर सिंह सिरसा, जो इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठा रहे है उन्होंने ट्वीट किया, ‘अकाली दल के लिए एक बड़ी जीत। एसआईटी ने

1984 के सिख नरसंहार में शामिल होने के लिए कमलनाथ के खिलाफ मामला खोला।’ नौ सितंबर को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मामले को फिर से खोलने के लिए अपनी मंजूरी दे दी। एसआईटी 31 अक्तूबर 1984 को नई दिल्ली के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के नरसंहार में उनकी भूमिका के लिए कमलनाथ के खिलाफ नई जांच करेगी।

कमलनाथ शुरू में इस मामले के आरोपी थे, लेकिन अदालत ने उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं पाया। अब 72 वर्षीय बुजुर्ग कांग्रेसी नेता और गांधी परिवार के वफादार नेता को परेशानी हो रही है क्योंकि लंदन के पत्रकार संजय सूरी ने भी मामले में खुलासा करने को तत्परता (इच्छा) व्यक्त की है। पत्रकार संजय सूरी के 15 सितंबर के एसआईटी को अपने बयान दर्ज कराने के लिए उचित समय और तारीख देने के लिए लिखा था। शिरोमणि अकाली दल के नेता मनजिंदर सिंह सिरसा ने ट्विटरपर सूरी के पत्र को सांझा किया।

वास्तव में 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले के मुख्य गवाह मुख्तार सिंह विशेष जांच दल (एसआईटी) के सामने अपना बयान पहले ही दर्ज करवा चुके हैं। इससे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कमलनाथ भी मुश्किलें बढ़ गई हैं। यह पहली बार है जब मुख्तार सिंह तीन सदस्यीय एसआईटी की टीम के सामने अपना बयान दर्ज कराने के लिए उपस्थित हुआ। एक उन्मादी (क्रोधित) भीड़ द्वारा 2 नवंबर 1984 को गुरूद्वारा रकाबगंज में सिखों की हत्या के बारे में उनका बयान दर्ज किया गया है।

यह याद किया जा सकता है कि गवाहों ने आरोप लगाया था कि कमलनाथ ने मध्य दिल्ली के रकाबगंज गुरूद्वारे के बाहर भीड़ का नेतृत्व किया था और उनकी उपस्थिति में दो सिख मारे गए थे। दंगों की जांच कर रहे नानावती आयोग ने दो लोगों की गवाही सुनी थी, जिसमें तत्कालीन इंडियन एक्सपे्रस के पत्रकार संजय सूरी, जिन्होंने बताया था कि कमलनाथ मौके पर मौजूद थे। हालांकि कमलनाथ ने कहा कि वे मौके पर मौजूद थे और लोगों के शांत करने का प्रयास कर रहे थे। नानावती आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि कमलनाथ के शामिल होने की कोई सबूत नहीं है, जिससे सिख समुदाय में गुस्सा था।

इस बीच मनजिंदर सिंह सिरसा में के्रंदीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में गवाहों की सुरक्षा की मांग करते हुए आरोप लगाया कि वह इस मामलेे में गवाहों की सुरक्षा के लिए डरते है। हम गवाहों की सुरक्षा के लिए डरते है और इस तरह उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। इस मामले की सुनवाई में तेजी लाई जानी चाहिए ताकि कमलनाथ को उनके अपराध के लिए  सज़ा दी जाए। शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने यह भी मांग की है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता को उनकी कथित भूमिका के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। सिरसा ने यह मांग भी की है कि कांग्रेस अध्यक्ष को तुरंत कमलनाथ का इस्तीफा ले लेना चाहिए और उन्हें अपने पद से हटा देना चाहिए ताकि सिखों को न्याय मिले।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस में फेरबदल

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने आखिरकार सोनभद्र, उन्नाव और शाहजहांपुर के पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए आक्रामक अभियान के दौरान कांगे्रस नेतृत्व की ज़मीनी स्तर की क्षमता का आकंलन करने के बाद राज्य कांग्रेस नेतृत्व में फेरबदल किया। सोनभद्र के भूमिहीन मज़दूरों पर क्रूर गोलीबारी, जिसमें 10 लोग मारे गए, जबकि उन्नाव और शाहजहाँपुर के मामलों ने उजागर किया कि कैसे भाजपा नेताओं के साथ जो बलात्कार जैसे मामले में आरोपी है उनके साथ पुलिस ने कैसे व्यवहार किया और सबूतों को नष्ट किया।

प्रियंका ने नई टीम को दो बार के विधायक अजय कुमार लल्लू को सौंप कर, राज्य के पार्टी अध्यक्ष और सिने-स्टार राज बब्बर का स्थान दिया। संसदीय चुनावों के तुरंत बाद बब्बर ने पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया, जो राहुल गांधी के अमेठी निर्वाचन क्षेत्र को भी नहीं बचा सका।

इस बार नवगठित समिति में केवल युवा और ऊर्जावान कार्यकतार्ओं को जगह मिली। प्रियंका ने लगभग 500 पदाधिकारियों की राज्य समिति को केवल 40-45 तक सीमित कर दिया। वह उन्हें अपनी नियत जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह बनाने की कोशिश कर रही है ताकि कई तरह के अधिकार उनकी जिम्मेदारियों को कम न करें ।

प्रियंका ने पुराने और नए के मिश्रण पर भरोसा किया। उनका दृष्टिकोण युवाओं को प्रोत्साहित करने लगता है जबकि अनुभवी कांग्रेस कार्यकर्ता महासचिव के लिए सलाहकार परिषद में संतुलन की भूमिका निभाएंगे। मोहसिना किदवई, प्रमोद तिवारी, रणजीत सिंह जूदेव, सलमान खुर्शीद, प्रदीप माथुर, निर्मल खत्री, जफर अली नकवी, अनुग्रह नारायण सिंह, अजय कपूर, प्रवीण सिंह आरोन, पी.एल. पुनिया, आर.पी.एन सिंह, राशिद अल्वी, संजय कपूर, राजेश मिश्रा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और विवेक बंसल को इस भूमिका के लिए नामित किया गया है। प्रियंका खुद इस सलाहकार परिषद का नेतृत्व करेंगी।

रणनीति और योजना पर ध्यान केंद्रित किया  है जिसमें जितिन प्रसाद, आर. के. चौधरी, राजीव शुक्ला, इमरान मसूद, प्रदीप जैन आदित्य, राजा राम पाल, बृज लाल खबरी और राज किशोर सिंह। यह समूह पार्टी के विभिन्न विरोध और कार्यक्रमों को आयोजित करने के लिए रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्य करेगा।

नई राज्य टीम ने चार उपाध्यक्षों की नियुक्ति की गई है। उनकी भूमिकाएं वीरेंद्र चौधरी (संगठनात्मक पूर्व), पंकज मलिक (संगठन-पश्चिम), ललितेशपति त्रिपाठी फ्रंटल्स सेल एंड डिपार्टमेंट्स (पीवाईसी, एनएसयूआई, ओबीसी, किसान, महिला) और दीपक कुमार फ्रंटल्स, सेल्स एंड डिपार्टमेंट्स (सेवा दल) को सौंपी गई हैं। एससी-एसटी और अल्पसंख्यक)। समिति में 12 महासचिव होंगे, जिनमें आलोक प्रसाद पासी, विश्व विजय सिंह, चौधरी धरम लोधी, राकेश सचान, यूसुफ अली तुरक, अनिल यादव, राजीव त्यागी, वीरेंद्र सिंह गुड्डू, योगेश दीक्षित, राहुल राय, शबाना खंडेलवाल, बदरुद्दीन कुरैशी शामिल हैं।

इस सूची में गुरमीत भुल्लर, विदित चौधरी, राहुल रिछारिया, देवेंद्र निषाद, मोनिंदर सूद वाल्मीकि, विवेकानंद पाठक, देवेंद्र प्रताप सिंह, ब्रह्म स्वरूप सागर, कैसर जहान अंसारी, रमेश शुक्ला, धीरेंद्र सिंह धीरू, सत्यम सिन्हाम, सत्यम सिन्हा, सरिता डोहरे, शाहनवाज आलम, कनिष्क पांडे, अमित सिंह दिवाकर, कुमुद गंगवार, राकेश प्रजापति, मुकेश धनखड़, हरदीपक निषाद, जीतलाल सरोज, सचिन चौधरी और प्रदीप कुमार कोरी समेत 24 सचिव शामिल हैं।

प्रियंका गांधी ने न केवल संसदीय चुनावों में अपने संघर्ष के दौरान, बल्कि योगी आदित्यनाथ सरकार के खिलाफ विरोध मार्च के दौरान सक्रिय युवाओं की पहचान कीं। उन्होंने नई समिति बनाने में क्षेत्रीय और जातिगत संतुलन बनाने की कोशिश की। उनकी नई टीम में 40 से कम आयु वर्ग के युवाओं का वर्चस्व है। उन्होंने मुख्य रूप से सीमांत एमबीसी अन्य पिछड़ी जातियों के श्रमिकों को 45 फीसद प्रतिनिधित्व दिया। 20 फीसद पद एससी-एसटी को दिए गए जबकि 15 फीसद मुसलमानों को पिछड़े मुस्लिमों को विशेष देखभाल के साथ दिए गए। उच्च जातियों ने नई समिति में 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी हासिल की। इसलिए जाति और धर्म की राजनीति के प्रभुत्व के बाद अपने पुराने मैदान में हारने वाली सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का कायाकल्प करने के लिए सभी तरह के संतुलन और सावधानियां बरती गई हैं।

भगवा की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने शस्त्रागार से आखिरी तीर के रूप में प्रियंका गांधी को लॉन्च किया। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि वह उत्तर प्रदेश की सडक़ों पर योगी आदित्यनाथ के शासन के मुद्दों पर लोगों की दुर्दशा पर अपनी पार्टी के पिछले गौरव को फिर से पाने के लिए किस तरह से कदम उठाती है।

झारखंड में भाजपा ने दलबदल करवा ५ एमएलए साथ मिलाये

विधानसभा चुनाव से ऐन पहले झारखंड में भाजपा ने दूसरे दलों के नेताओं को फोड़ने का काम शुरू कर दिया है। भाजपा इससे पहले दूसरे राज्यों में भी ऐसा करती रही है। बुधवार को गैर भाजपा दलों के ५  विधायक भाजपा में शामिल हो गए।

यह दलबदल करवाकर भाजपा ने चुनाव से पहले विपक्षी पार्टियों को झटका देने की कोशिश की है। सूबे की राजधानी रांची में विपक्षी पार्टियों के यह पांच विधायक सीएम रघुबर दास की मौजूदगी में भाजपा में शामिल हुए। इनमें झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के दो विधायक (कुनाल षाडंगी, जेपी भाई पटेल), कांग्रेस के भी दो  विधायक (सुखदेव भगत, मनोज यादव) और नव जवान संघर्ष मोर्चा के भानु प्रताप शाही भाजपा में शामिल होने वालों में शामिल हैं।

सीएम समेत पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा और अन्य नेता इस मौके पर मौजूद रहे। भाजपा दूसरे दलों के नेताओं को चुनाव से पहले अपने साथ मिलाने की परंपरा में आगे बढ़ती दिख रही है। दूसरे राज्यों में भी भाजपा ने यही किया है। भाजपा को उम्मीद है कि दूसरे दलों को अपने साथ मिलाने से उसे चुनाव में बड़ा फायदा होगा।  मन जा रहा है कि भाजपा झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस में बगावत को हवा दे रही है।

इन विधायकों को पार्टी ज्वाइन कराते हुए सीएम रघुवर दास ने कहा – ”जवान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष भानु प्रताप ने पार्टी का विलय किया है। यह सूबे के लिए सुखद संदेश है।”

कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार को जमानत

कांग्रेस नेता पूर्व मंत्री डीके शिवकुमार को दिल्ली हाईकोर्ट से धनशोधन मामले में जमानत मिल गयी है। दिलचस्प है कि यह जमानत मिलने से कुछ देर पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी शिवकुमार से जेल में मिलीं। याद रहे सोनिया पी  चिदंबरम से मिलने भी तिहाड़ जेल गईं थीं।

शिवकुमार को २५ लाख के मुचलके पर जमानत दी गयी है। गौरतलब है कि शिवकुमार मनी लांड्रिंग मामले में इस समय प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल में बंद हैं। न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने उनकी जमानत याचिका पर १७ अक्तूबर को फैसला सुरक्षित रख लिखा था।

उधर कांग्रेस अंतरिमअध्यक्ष सोनिया गांधी ने बुधवार को कर्नाटक कांग्रेस के पूर्व मंत्री डीके शिवकुमार से तिहाड़ जेल में मुलाकात की। सोनिया गांधी और शिवकुमार के बीच लगभग आधे घंटे मुलाकात हुई। कांग्रेस के मुताबिक सोनिया कर्नाटक के वरिष्ठ कांग्रेस नेता शिवकुमार का हालचाल जानने के साथ-साथ उनके प्रति एकजुटता जताने के लिए उनसे मिलने गईं।

शिवकुमार को ईडी ने कुछ हफ्ते पहले गिरफ्तार किया था। सोनिया ने आईएनएक्स मीडिया मामले में गिरफ्तार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम से भी तिहाड़ पहुंचकर मुलाकात की थी।

सरकार ने ज़्यादातर वादे पूरे किए अमरिंदर का दावा

अपनी सरकार का आधा कार्यकाल पूरा होने के साथ ही मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने अपने मंत्रियों को अपने क्षेत्रों में विकास कार्यों को और गति देने के लिए सभी संबधित विभागों को व्यापक कार्य योजना बनाने और विकास कार्योंं को गतिशील बनाने के लिए क्षेत्र के विधायकों के साथ निकट जुड़ाव बढाने के निर्देश दिए। अपनी सरकार के ढाई साल का कार्यकाल पूरा करने पर मुख्यमंत्री ने और उनकी मंत्रिपरिषद ने पिछले 30 महीनों में सरकार द्वारा किए गए कार्यो की चर्चा की और राज्य की विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए आगे बढऩे का मार्ग प्रशस्त किया।

कैप्टन अमरिंदर ने अब तक किए गए कार्यों पर संतोष व्यक्त किया कि सभी विभागों ने अकाली-भाजपा गढबंधन सरकार के 10 साल के शासन में कुप्रबंध के परिणामस्वरूप पैदा हुए वित्तीय संकट के बावजूद सभी विभागों ने अच्छा कार्य किया।

अपनी सरकार के आधे कार्यकाल को रूकने का अवसर और अतीत के काम की समीक्षा करके और दूसरे आधे कार्यकाल के लिए एक विस्तृत रणनीति तैयार करने का अवसर करार देते हुए मुख्यमंत्री ने केंद्रिय कार्य योजनाओं के साथ आगे बढऩे की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होने अपने मंत्रियों से कहा कि वे अपने क्षेत्रों में विधायकों के साथ मिलकर काम करें और नियमित रूप से उनके इनपुट और फीडबैक लें। उन्होंने विधायकों को अपने निर्वाचन क्षेत्र में कार्य पहचाने और शुरू किए गए विकास कार्यो पर विशेेष ध्यान देने का निर्देश दिया। मुख्यमंत्री ने कहा कि राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से भविष्य की रणनीति के लिए यह महत्वपूर्ण था। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ज़ोर दे कर कहा कि राजनीतिक रूप से यह पहचानने की ज़रूरत है कि लोगों के साथ बेहतर तरीके से कैसे जुडऩा है, हमारी उपलब्धियां उनके पास पहुंचनी चाहिए और उनके ज़रूरी मुद्दों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

नीतियों और परियोजनाओं और सुचारू रूप से लागू करने लिए विभागों का पुनर्गठन और महत्वपूर्ण जनशक्ति की भर्ती के महत्व को मुख्यमंत्री ने पहचाना जैसे कि सरकार राज्य के विकास के लिए और अधिक आक्रामक रूप से आगे बढऩे के लिए तैयार है।

मुख्यमंत्री का विचार था कि हर विभाग समग्र रूप से अपनी उपलब्धियों की जांच और समीक्षा करे और उन मु्द्दों पर ध्यान केंद्रित करे जिन्हें अभी तक प्रभावी ढंग से संबोधित नहीं किया गया था या सरकार द्वारा अभी तक पूरा नहीं किया गया था। उन्होंने यह सुनिश्चित करने करने पर ज़ोर दिया कि लोगों की आकाक्षाएं जो वे सरकार से रखते हैं उन्हें पूरा किया जाए।

जबकि सरकार के प्रत्येक सदस्य ने इन 30 महीनों मे अनुकरणीय प्रदर्शन किया। अब और अधिक अच्छा करने का समय है। कैप्टन अमरिंदर ने सभी मत्रियों से और अधिक मेहनत करने और अपने सबंधित विभाग को और अधिक उंचाई पर ले जाने का आह्वान किया।

मुख्यमंत्री ने उनकी सरकार द्वारा किए गए हर वादे काू पूरा करने के लिए अपनी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने कहा कि सरकार की 161 घोषणाओं में से 141 पहले ही लागू कि जा चुकी हैं शेष भी क्रियान्वयन की प्रक्रिया में हैं।

कैप्टन अमरिंदर ने स्वस्थ्य, औद्योगिकीकरण, कृषि, कानून और व्यवस्था के मामले में भारत के अग्रणी राज्य के रूप में पंजाब को वापस पटरी पर लाने के लिए ठोस कदम उठाने का आह्वान किया। हर क्षेत्र में जबकि प्रगति हुई है तब भी उनकी सरकार राज्य के सर्वागीण विकास के उच्चतम स्तर को सुनिश्चित करने और हर वर्ग के विकास के लिए वचनबद्ध है।

कांग्रेस पार्टी एंटी इंकाबेंसी की सवारी करके सत्ता में वापस लौटी थी, अकाली-भाजपा गठबंधन के खिलाफ नशीली दवाओं के व्यापार और विकास से चूकने के आरोपों के चलते आम आदमी पार्टी ने सत्ता में आने के लिए एक बडी गंभीर बोली लगाई थी पर वह केवल दूसरे स्थान पर ही बरकरार रह सकी। लोगों ने कैप्टन अमरिंदर द्वारा किए गए वादों पर विश्वास करते हुए प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस को सत्त में वापिस

लौटा दी। अभी तक सब ठीक चल रहा था। हालांकि जब सरकार अपने आधे कार्यकाल की समाप्ति के निकट थी तो इसने अपनी चमक को कुछ खोना शुरू कर दिया। इसका पहला संकेत था गुरदासपुर में कांग्रेस प्रमुख सुनील जाखड़ की लोकप्रिय अभिनेता सन्नी देओल से हार। इसके बाद जाखड़ ने अपना इस्तीफा दे दिया जो अपेक्षित नहीं था। इसके बाद मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में में छह विधायकों की नियुक्ति का मामला। यह स्पष्ट था कि पार्टी के अंदर कुछ खलल था। उन्हें सलाहकार नियुक्त करने के कदम पर भी मतभेद था।

अगर हम पंजाब में कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र को याद करें और पढ़े तो ‘‘इन बेअदबी की इन घटनाओं में अब तक न तो कोई अपराधी पहचाने गए हैं और न ही उन्हें न्याय के लिए लाया गया। यह घटनाएं पंजाब की शांति को स्पष्ट रूप से मिल रही धमकियां थी।’’ कांग्रेस पार्टी ने गुरू ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं पर आक्रोश व्यक्त किया था। अब दो ढाई साल की जांच के बाद मुख्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल इन घटनाओं के पीछे नहीं थे और उन्हें क्लीन चिट दे दी। हंगामें के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने एक स्पष्टीकरण जारी किया लेकिन साक्षात्कार करने वाला पत्रकार कहानी पर अड़ा रहा। विडंबना यह है कि कैप्टन सरकार की आलोचना केवल राजनीतिक विरोधियों से ही नहीं , बल्कि उनके अपने मंत्रियों और विधायकों से भी होती है।

जून 2015 में गुरू ग्रंथ साहिब कीे बेअदबी का मामला हुआ जब फरीदकोट के गांव बुर्ज जवाहर के गुरूद्वारे से ‘पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब ’ की बीड़ चोरी हो गई थी। 12 अक्तूबर को चुराए गई बीड़ के कुछ पन्ने नजदीक के गांव बरगारी में बिखरे पाए गए। दो दिन बाद 14 अक्तूबर को बेहबलकलां में दो प्रदर्शनकारियों को मार दिया गया और कोटकपुरा में प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई।

चार महीने बाद चोरी हुए गुरू ग्रंथ साहिब के कुछ पन्ने समीप के गांव बरगारी की सडक़ों पर बिखरे पाए गए। शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार को तब बड़ा झटका लगा जब जनता ने बड़ी संख्या में सडक़ों पर उतरकर अपने ‘‘गुरू’’ के लिए न्याय की मांग की। स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि अकाली दल के नेता अपने निर्वाचन क्षेत्रों में जाने से डरते थे। फिर 14 अक्तूबर 2015 को एक पुलिस कार्रवाई से बेहबलकलां गांव में में दो प्रदर्शनकारियों की हत्या हो गई।

 तत्कालीन मुख्यमंत्री के राष्ट्रीय सलाहकार हरचरण सिंह बैंस ने स्थिति का विश्लेषण करते हुए लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने के लिए और उन्हें शांत करने के लिए सीनियर बादल से मुआयना करने को कहा। हालांकि अकाली दल जो की पंथिक कारणों का चैपियन होने का दावा करता था उसे बहुत नुकसान हुआ था। दस साल से सत्त से बाहर कांग्रेस ऐसे ही मौके की तलाश में थी और दिसंबर 2015 में कांग्रेस अध्यक्ष और पार्टी के स्टार प्रचारक अमरिंदर ने बठिंडा में रैली ‘पवित्र गुटखा’ साहिब में लेकर इस बेअदबी की घटना के लिए बादल को जिम्मेदार ठहराया था और अपराधियों को पकडऩे की शपथ खाई।

सत्ता में आने के एक महीने के बाद ही सरकार ने पुलिस गोलीबारी की घटना की जांच करने के लिए न्यायमूर्ति रंजीत सिंह आयोग का गठन किया। जब विधानसभा में आयोग की रिपोर्ट पर बहस हुई। बादल और तत्कालीन डीजीपी सुमेध सिंह सैनी के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग उठाई गई और सरकार ने ठोस कार्रवाई करने का वादा किया। हालांकि यह हर किसी के लिए एक सदमे के रूप में सामने आया जब सीबीआई ने एक क्लोजऱ रिपोर्ट दायर की। सिर्फ विपक्ष ने ही नही बल्कि कांग्रेस के विधायकों ने भी आरोपी बादल को बचाने के लिए मुख्यमंत्री को कटघरे में खड़ा कर दिया।

सत्ता में आने के बाद 14 अप्रैल 2017 को कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने न्यायाधीश रंजीत सिंह आयोग का गठन किया था। 24अप्रैल 2018 को एसआईटी ने बहबलकलां की घटना में 792 पन्नों कीे चार्जशीट दायर की। सात जून को, डेरा सच्चा सौदा के नेता और एक मुख्य आरोपी मोहम्मद पाल बिट्टू को पालमपुर से पकड़ा गया। बाद में नाभा जेल में उसकी हत्या कर दी गई। 29 अगस्त 2017 को विधानसभा में सात घंटे की बहस के बाद बेअदबी का मामला सीबीआई से वापिस लेने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया था। 19 फरवरी 2019 को आईजी परमराज सिंह उमरानंगल को बेहबलकलां गोलीबारी मामले में गिरतार किया गया था। इससे पहले एसएसपी चरणजीत शर्मा को गिरतार किया गया था। 31 जुलाई जो सीबीआई ने बेअदबी के मामले पर क्लोजऱ रिपोर्ट मोहली की अदालत में दायर की। 26 अगस्त को सबीआई ने दायर याचिका में अदालत से कहा कि आगे की जांच की जा रही है इसलिए क्लोजऱ रिपोर्ट स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। दरअसल इससे एक अनावश्यक विवाद पैदा हो गया था और कुछ कांग्रेस के नेताओं ने बादल और कुछ अन्य लोगों को क्लीन चिट देने के मामले में अपनी पीड़ा जनता के बीच जाकर व्यक्त की थी ।

नशीली दवाओं का खतरा

यदि बेअदबी की घटनाओं ने तत्कालीन बादल सरकार के भाग्य में कील लगा दी थी तो नशीली दवाओं के खतरे को गलत साबित करना उसमें अंतिम कील साबित हुआ। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस पार्टी ने युवाओं से पंजाब में ड्रग्स का सफाया करने का वादा किया।

कैप्टन अमरिंदर सिंह के पांच साल के कार्यकाल की पहली छमाही में सरकार ने मादक पदार्थों के सेवन और तस्करी और बड़ी गिरतारियों का एक बढ़ा अभियान छेड़ा। पुलिस इसके नेटवर्क की कई परतों को उजागर करने में सफल रही है। हालांकि, नए मामले भी सामने आते रहे। पुलिस ने दावा किया कि ‘उसने लगभग 175 हाई-प्रोफाइल आरोपियों को गिरतार किया है। एसटीएफ नई चुनौतियों के आधार पर अपनी रणनीति में सुधार कर रहा है। हमने हाल ही में नशीली दवाओं के दुरूपयोग के खिलाफ एक 360 डिग्री हमला शुरू किया है। इसमें प्रवर्तन, नशामुक्ति और रोकथाम शामिल हैं। नशेडी का इलाज और नशे की लत में उनके पतन को रोकने के लिए शुरू की गई मित्र प्रणाली में लगभग 5.27 लाख स्वंयसेवक मदद कर रहे हैं। नशेडी को आधुनिक उपचार प्रदान करने के लिए 181 आएट-पेशेंट ओपियाइड ट्रीटमेंट केंद्र हैं। नशे के खिलाफ लड़ाई में केंद्र सरकार भी अब सक्रिय रूप से भाग लेने लगी है। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने पंजाब में अपने कर्मचारियों की संख्या 40 से बढ़ा कर 120 कर दी है। इसने अमृतसर में एक नए यूनिट के साथ उप महानिदेशक स्तर के अधिकारी की नियुक्ति भी की है। इससे पहले उत्तरी राज्यों के लिए चंडीगढ़ में एक इकाई थी।

हम कह सकते हैं कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस बहुमत के साथ सत्ता में आने में कामयाब रही इसने अपने कई वादे पूरे किए। नशीली दवाओं की लड़ाई, कृषि कर्ज माफी, उद्योग को पांच रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली, अन्य वर्गों के लिए बिजली शुल्क पर फ्रीज, 2500 रुपए बेरोजग़ारी भत्ता, मुत स्मार्ट फोन, प्रति परिवार एक नौकरी, आत्महत्या करने वाले किसान परिवारों के सदस्य को नौकरी, 1500 रुपए मासिक कल्याण पेंशन, किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता और स्वास्थ्य बीमा योजना कांग्रेस द्वारा किए गए वादों की सूची में से कुछ हैं। थोड़ा संदेह है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह सत्ता पर नियंत्रण रखने में सक्षम रह पाते हैं जबकि उनकी सरकार ने अपने कार्यकाल को आधा सफर पूरा कर लिया है।

वैश्विक गरीबी को कम करने के लिए किए गए शोध से भारत में पैदा हुए अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार

भारतीय-अमेरिकी अभिजीत बनर्जी, एस्तेर डुफ्लो और माइकल क्रेमर ने संयुक्त रूप से 2019 का नोबेल अर्थशास्त्र पुरस्कार ‘अपने प्रयोगात्मक दृष्टिकोण से वैश्विक गरीबी को कम करने के लिए’ जीता है।

58 वर्षीय बनर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, जहाँ उन्होंने 1988 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। वे वर्तमान में अपनी प्रोफ़ाइल के अनुसार मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल प्रोफेसर ऑफ इकोनॉमिक्स हैं।

2003 में, बनर्जी ने डफ्लो और सेंथिल मुलैनाथन के साथ, अब्दुल लतीफ़ जमील गरीबी एक्शन लैब की स्थापना की, और वह लैब के निदेशकों में से एक बने रहे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के 2015 विकास एजेंडा पर प्रख्यात व्यक्तियों के उच्च-स्तरीय पैनल में भी कार्य किया।

अभिजीत बनर्जी, एस्थर डुफ्लो और माइकल क्रेमर द्वारा किए गए शोध ने वैश्विक गरीबी से लडऩे की क्षमता में काफी सुधार किया है। केवल दो दशकों में, उनके नए प्रयोग-आधारित दृष्टिकोण ने विकास अर्थशास्त्र को बदल दिया है, जो अब अनुसंधान का एक समृद्ध क्षेत्र है।

नोबेल पुरस्कार द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, 700 मिलियन से अधिक लोग अभी भी बहुत कम आय पर उप-निर्वाह करते हैं। हर साल, पाँच साल से कम उम्र के लगभग पाँच मिलियन बच्चे अभी भी उन बीमारियों से मर जाते हैं जिन्हें अक्सर सस्ते इलाज से रोका या ठीक किया जा सकता था। दुनिया के आधे बच्चे अभी भी बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल के बिना स्कूल छोड़ते हैं।

एस्तेर डुफ्लो और माइकल क्रेमर के साथ अभिजीत बनर्जी ने वैश्विक गरीबी से लडऩे के सर्वोत्तम तरीकों के बारे में विश्वसनीय उत्तर प्राप्त करने के लिए एक नया दृष्टिकोण पेश किया है। इसमें इस मुद्दे को छोटे, अधिक प्रबंधनीय, प्रश्नों में विभाजित करना शामिल है – उदाहरण के लिए, शैक्षिक परिणामों या बाल स्वास्थ्य में सुधार के लिए सबसे प्रभावी हस्तक्षेप। उन्होंने दिखाया है कि ये छोटे, अधिक सटीक, प्रश्नों को अक्सर सबसे अच्छे तरीके से डिजाइन किए गए प्रयोगों के माध्यम से उत्तर दिया जाता है जो सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

लॉरेट्स के शोध के निष्कर्ष – और उनके नक्शेकदम पर चलने वाले शोधकर्ताओं ने – गरीबी से लडऩे की क्षमता में सुधार किया है। उनके एक अध्ययन के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में, पांच मिलियन से अधिक भारतीय बच्चों को स्कूलों में उपचारात्मक ट्यूशन के प्रभावी कार्यक्रमों से लाभ हुआ है। एक और उदाहरण निवारक स्वास्थ्य देखभाल के लिए भारी सब्सिडी है जिसे कई देशों में पेश किया गया है।

वैश्विक गरीबी का मुकाबला करने के लिए, किसी को कार्रवाई के सबसे प्रभावी रूपों की पहचान करनी चाहिए। लंबे समय से अमीर और गरीब देशों के बीच औसत उत्पादकता में भारी अंतर के बारे में जागरूकता है। हालाँकि, जैसा कि अभिजीत बनर्जी और एस्तेर डफ़्लो ने उल्लेख किया है, उत्पादकता न केवल अमीर और गरीब देशों के बीच, बल्कि गरीब देशों के बीच भी बहुत भिन्न है। कुछ व्यक्ति या कंपनियां नवीनतम तकनीक का उपयोग करती हैं, जबकि अन्य (जो समान वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करते हैं) उत्पादन के पुराने साधनों का उपयोग करते हैं। कम औसत उत्पादकता इस प्रकार काफी हद तक कुछ व्यक्तियों और कंपनियों के पीछे पडऩे के कारण है। क्या यह ऋण की कमी, खराब तरीके से तैयार की गई नीतियों को दर्शाता है, या कि लोगों को पूरी तरह से तर्कसंगत निवेश निर्णय लेने में मुश्किल होती है? इस वर्ष के लॉरेट्स द्वारा डिज़ाइन किया गया शोध दृष्टिकोण बिल्कुल इस प्रकार के प्रश्नों से संबंधित है।

लॉरेट्स के पहले अध्ययनों ने जांच की कि शिक्षा से संबंधित समस्याओं से कैसे निपटा जाए। कम आय वाले देशों में, पाठ्यपुस्तकें दुर्लभ हैं और बच्चे अक्सर भूखे स्कूल जाते हैं। यदि उनके पास अधिक पाठ्य पुस्तकों तक पहुँच होती है, तो क्या विद्यार्थियों के परिणामों में सुधार होगा? या उन्हें मुफ्त स्कूल भोजन देना अधिक प्रभावी होगा? 1990 के दशक के मध्य में, माइकल क्रेमर और उनके सहयोगियों ने इन प्रकार के उत्तर देने के लिए उत्तर-पूर्वी अमेरिका में अपने विश्वविद्यालयों से अपने शोध का एक हिस्सा ग्रामीण पश्चिमी केन्या में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक स्थानीय गैर-सरकारी संगठन के साथ साझेदारी में कई क्षेत्र प्रयोग किए।

क्रेमर और उनके सहयोगियों ने बड़ी संख्या में स्कूलों को लिया, जिन्हें काफी समर्थन की आवश्यकता थी और उन्हें अलग-अलग समूहों में विभाजित किया। इन समूहों के स्कूलों में सभी को अतिरिक्त संसाधन प्राप्त हुए, लेकिन अलग-अलग रूपों में और अलग-अलग समय पर। एक अध्ययन में, एक समूह को अधिक पाठ्यपुस्तकें दी गईं, जबकि दूसरे अध्ययन में मुफ्त विद्यालय भोजन की जांच की गई। क्योंकि मौका निर्धारित किया गया था कि किस स्कूल को क्या मिला, प्रयोग की शुरुआत में विभिन्न समूहों के बीच औसत अंतर नहीं थे। इस प्रकार, शोधकर्ता विभिन्न परिणामों के समर्थन में सीखने के परिणामों में बाद के अंतर को विश्वसनीय रूप से जोड़ सकते हैं। प्रयोगों से पता चला कि न तो अधिक पाठ्यपुस्तकों और न ही मुफ्त स्कूल भोजन से सीखने के परिणामों पर कोई फर्क पड़ा। यदि पाठ्यपुस्तकों का कोई सकारात्मक प्रभाव था, तो यह केवल बहुत अच्छे विद्यार्थियों पर लागू होता है।

बाद के क्षेत्र प्रयोगों ने दिखाया है कि कई कम आय वाले देशों में प्राथमिक समस्या संसाधनों की कमी नहीं है। इसके बजाय, सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षण विद्यार्थियों की जरूरतों के लिए पर्याप्त रूप से अनुकूलित नहीं है। इन प्रयोगों के पहले में, बनर्जी, डफ्लो, दो भारतीय शहरों में विद्यार्थियों के लिए उपचारात्मक ट्यूशन कार्यक्रमों का अध्ययन किया। मुंबई और वडोदरा के स्कूलों में नए शिक्षण सहायकों को प्रवेश दिया गया जो विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों का समर्थन करेंगे। इन स्कूलों को सरल और बेतरतीब ढंग से विभिन्न समूहों में रखा गया था। इस प्रयोग ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि सबसे कमजोर विद्यार्थियों को लक्षित करने में मदद छोटे और मध्यम अवधि में एक प्रभावी उपाय था।

उपर्युक्त अध्ययन ने यह दिखाया  कि कमजोर विद्यार्थियों के लिए लक्षित समर्थन का मध्यम अवधि में भी मजबूत सकारात्मक प्रभाव था। यह अध्ययन एक संवादात्मक प्रक्रिया की शुरुआत थी, जिसमें विद्यार्थियों के समर्थन के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रमों के साथ नए शोध परिणाम सफल साबित हुए। ये कार्यक्रम अब 100,000 से अधिक भारतीय स्कूलों तक पहुंच गया है।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या दवा और स्वास्थ्य देखभाल के लिए शुल्क लिया जाना चाहिए और यदि हां, तो उन्हें क्या खर्च करना चाहिए। क्रेमर और सह-लेखक द्वारा एक क्षेत्र प्रयोग ने जांच की कि कैसे परजीवी संक्रमण के लिए डॉर्मॉर्मिंग गोलियों की मांग कीमत से प्रभावित हुई थी। उन्होंने पाया कि 75 प्रतिशत माता-पिता ने अपने बच्चों को ये गोलियां दीं, जब दवाई मुफ्त थी, 18 प्रतिशत की तुलना में जब उनके पास अमेरिकी डॉलर से कम लागत थी, जो अभी भी भारी सब्सिडी पर है। इसके बाद, कई समान प्रयोगों में एक ही बात सामने आई है: गरीब लोग निवारक स्वास्थ्य देखभाल में निवेश के बारे में बेहद मूल्य-संवेदनशील हैं।

निम्न सेवा गुणवत्ता एक और व्याख्या है कि गरीब परिवार निवारक उपायों में इतना कम निवेश क्यों करते हैं। एक उदाहरण यह है कि टीकाकरण के लिए जिम्मेदार स्वास्थ्य केंद्रों के कर्मचारी अक्सर काम से अनुपस्थित रहते हैं। जांच की गई कि क्या मोबाइल टीकाकरण क्लीनिक – जहां देखभाल कर्मचारी हमेशा साइट पर थे – इस समस्या को ठीक कर सकते हैं। इन क्लीनिकों में 6 प्रतिशत की तुलना में 18 प्रतिशत की दर से बेतरतीब ढंग से चुने गए गाँवों में टीकाकरण की दर तीन गुना हो गई। यह और बढ़ कर 39 प्रतिशत हो गया, अगर परिवारों को उनके बच्चों का टीकाकरण करने पर दाल का एक बैग बोनस के रूप में मिलता था। क्योंकि मोबाइल क्लिनिक में निश्चित लागत का एक उच्च स्तर था, प्रति टीकाकरण की कुल लागत वास्तव में आधी हो गई

टीकाकरण अध्ययन में, प्रोत्साहन और देखभाल की बेहतर उपलब्धता ने समस्या को पूरी तरह से हल नहीं किया, क्योंकि 61 प्रतिशत बच्चे आंशिक रूप से प्रतिरक्षित बने रहे। कई गरीब देशों में कम टीकाकरण दर के अन्य कारण हैं, जिनमें से एक यह है कि लोग हमेशा पूरी तरह से तर्कसंगत नहीं होते हैं। यह स्पष्टीकरण अन्य टिप्पणियों के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकता है, जो कम से कम शुरुआत में, समझने में मुश्किल दिखाई देते हैं।

ऐसा ही एक अवलोकन यह है कि बहुत से लोग आधुनिक तकनीक को अपनाने से हिचकते हैं। चतुराई से डिजाइन किए गए क्षेत्र प्रयोग में, जांच की गई कि छोटे शेयरधारकों – विशेष रूप से सबश्रान अफ्रीका में – अपेक्षाकृत सरल नवाचारों को नहीं अपनाते हैं, जैसे कि कृत्रिम उर्वरक, हालांकि वे महान लाभ प्रदान करेंगे। एक स्पष्टीकरण वर्तमान पूर्वाग्रह है – वर्तमान लोगों की जागरूकता का एक बड़ा हिस्सा लेता है, इसलिए वे निवेश निर्णयों में देरी करते हैं। जब कल आता है, तो वे एक बार फिर उसी निर्णय का सामना करते हैं, और फिर से निवेश में देरी करते हैं। इसका परिणाम एक दुष्चक्र हो सकता है जिसमें व्यक्ति भविष्य में निवेश नहीं करते हैं, भले ही ऐसा करना उनके दीर्घकालिक हित में हो।

बंधी हुई तर्कसंगतता में नीति के डिजाइन के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं। यदि व्यक्ति मौजूद-पक्षपाती हैं, तो अस्थायी सब्सिडी स्थायी लोगों की तुलना में बेहतर है: एक प्रस्ताव जो केवल यहां लागू होता है और अब निवेश में देरी के लिए प्रोत्साहन को कम करता है। यह वही है जो डुफ्लो, क्रेमर प्रयोग में खोज की गई: स्थायी सब्सिडी की तुलना में अस्थायी सब्सिडी का उर्वरक के उपयोग पर काफी अधिक प्रभाव पड़ा।

विकास अर्थशास्त्रियों ने बड़े पैमाने पर पहले से लागू किए गए कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के लिए क्षेत्र प्रयोगों का भी उपयोग किया है। एक उदाहरण विभिन्न देशों में सूक्ष्मजीवों का व्यापक परिचय है, जो महान आशावाद का स्रोत रहा है।

बनर्जी, डुफ्लो ने एक माइक्रोक्रिडिट कार्यक्रम पर एक प्रारंभिक अध्ययन किया, जो हैदराबाद के भारतीय महानगर में गरीब परिवारों पर केंद्रित था। उनके क्षेत्र प्रयोगों ने मौजूदा छोटे व्यवसायों में निवेश पर छोटे सकारात्मक प्रभाव दिखाए, लेकिन उन्हें खपत या अन्य विकास संकेतकों पर कोई प्रभाव नहीं मिला, न तो 18 पर और न ही 36 महीनों में। इसी तरह के क्षेत्र प्रयोगों, बोस्निया-हजऱ्ेगोविना, इथियोपिया, मोरक्को, मैक्सिको और मंगोलिया जैसे देशों में भी इसी तरह के परिणाम मिले हैं।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दोनों के कार्य पर नीति का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। स्वाभाविक रूप से, यह मापना असंभव है कि विभिन्न देशों में नीतियों को आकार देने में उनका शोध कितना महत्वपूर्ण रहा है। हालांकि, कभी-कभी अनुसंधान से नीति तक एक सीधी रेखा खींचना संभव है।

जिन अध्ययनों का हमने पहले ही उल्लेख किया है उनमें से कुछ का वास्तव में नीति पर सीधा प्रभाव पड़ा है। रेमेडियल ट्यूटरिंग के अध्ययन ने अंतत: बड़े पैमाने पर सहायता कार्यक्रमों के लिए तर्क प्रदान किया जो अब पाँच मिलियन से अधिक भारतीय बच्चों तक पहुँच चुके हैं। निर्जलीकरण के अध्ययन से न केवल यह पता चला है कि ओसिंग स्कूली बच्चों के लिए स्पष्ट स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है, बल्कि यह भी है कि माता-पिता बहुत मूल्य-संवेदनशील हैं। इन परिणामों के अनुसार, डब्ल्यूएचओ ने सिफारिश की है कि उन क्षेत्रों में रहने वाले 800 मिलियन से अधिक स्कूली बच्चों को मुफ्त में दवा वितरित की जाती है जहां 20 प्रतिशत से अधिक में एक विशिष्ट प्रकार का परजीवी कृमि संक्रमण होता है।

इन शोध परिणामों से कितने लोग प्रभावित हुए हैं इसका भी मोटे तौर पर अनुमान है। ऐसा एक अनुमान वैश्विक शोध नेटवर्क से आया है जिसमें दो लोरेट्स ने पाया; नेटवर्क के शोधकर्ताओं द्वारा मूल्यांकन के बाद जिन कार्यक्रमों को बढ़ाया गया है, वे 400 मिलियन से अधिक लोगों तक पहुंचे हैं।

हालांकि, यह स्पष्ट रूप से कुल शोध प्रभाव को कम करता है, क्योंकि सभी विकास अर्थशास्त्री छ्व-क्क्ररु से संबद्ध हैं। गरीबी का मुकाबला करने के लिए काम करना भी अप्रभावी उपायों में पैसा नहीं लगाना है। सरकारों और संगठनों ने कई कार्यक्रमों को बंद करके अधिक प्रभावी उपायों के लिए महत्वपूर्ण संसाधन जारी किए हैं जिनका मूल्यांकन विश्वसनीय तरीकों का उपयोग करके किया गया था और अप्रभावी दिखाया गया था।

सार्वजनिक निकायों और निजी संगठनों के काम करने के तरीके को बदलकर, लॉरेटेस के अनुसंधान पर भी अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। बेहतर निर्णय लेने के लिए, वैश्विक गरीबी से लडऩे वाले संगठनों की बढ़ती संख्या ने नए उपायों का मूल्यांकन करने के लिए व्यवस्थित रूप से शुरुआत की है, जो अक्सर क्षेत्र प्रयोगों का उपयोग करते हैं।

इस वर्ष के लॉरेट्स ने विकास अर्थशास्त्र में अनुसंधान को फिर से शुरू करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है। सिर्फ 20 वर्षों में, यह विषय एक समृद्ध, मुख्य रूप से प्रायोगिक, मुख्यधारा के अर्थशास्त्र का क्षेत्र बन गया है। इस नए प्रयोग-आधारित शोध ने पहले से ही वैश्विक गरीबी को कम करने में मदद की है और इस ग्रह पर सबसे कमजोर लोगों के जीवन को और बेहतर बनाने की क्षमता है।

अफगानिस्तान में अनिश्चितता का कोई अंत नहीं

अफगानिस्तान, जो ज्यादातर गलत कारणों से खबरों में बना रहता है, एक नई तरह की अनिश्चितता का सामना कर रहा है । कोई भी निश्चितता के साथ नहीं कह सकता है कि वास्तव में यह एक शांतिपूर्ण कानून का पालन करने वाले राष्ट्र का दर्जा कब हासिल करेगा। अभी-अभी संपन्न राष्ट्रपति चुनावों के परिणाम, जो इस महीने के तीसरे सप्ताह में घोषित होने वाले है, इस तनावग्रस्त देश में शांति और स्थिरता लाने की संभावना प्रगट नहीं करते है।

राष्ट्रपति पद के लिए दोनों प्रमुख प्रतियोगी, सरकार के प्रमुख, प्रोफेसर अशरफ गनी और डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला, जीत का दावा कर रहे हैं, लेकिन परिणाम के टाई होने की संभावना है। ऐसी स्थिति में फिर से चुनाव कराना पड़ेगा जो कि अत्यधिक सर्दी के महीनों तक संभव नहीं है। इसका मतलब है अशरफ गनी की कार्यवाहक सरकार इस अवधि के दौरान कोई भी बड़ा निर्णय नहीं ले पाएगी जो केवल देश में अराजकता को बढ़ाएगी। यह अलग बात है कि देश की राजधानी काबुल से आगे शायद ही सरकार का लेखन चलता है।

स्पष्ट विजेता होने की स्थिति में, नई सरकार भी केवल नाम की ही होगी। अफगानिस्तान के वास्तविक शासकों, शक्तिशाली तालिबान गुटों, जिन्होंने चुनावों का बहिष्कार किया था, ने घोषणा की है कि उनके लिए पिछली सरकारों की तरह नई सरकार अमेरिकी कठपुतली सरकार होगी। इसका मतलब है कि सरकार के हितों पर तालिबान के हमले बेरोकटोक जारी रहेंगे।

राष्ट्रपति गनी ने कहा है कि अगर वह फिर से सत्ता में आए तो वह तालिबान से बातचीत के नए प्रस्ताव को शासन के ढांचे के साथ आतंकवादी तत्वों को जोडऩे की दृष्टि से बढ़ाएंगे। हालांकि, तालिबान गुट सरकार के साथ किसी भी तरह की बातचीत करने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं, हालांकि यह एक निर्वाचित होगा। हालाँकि, उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे चाहते हैं कि अमेरिका के साथ तनातनी शांति वार्ता को पुनर्जीवित किया जाए ताकि अफगानिस्तान में तैनात विदेशी बलों को घर के लिए छोड़ दिया जाए, जिससे अफगानिस्तान को प्रच्छन्न या निर्विवाद रूप से अमेरिका के समर्थन के बिना अफगानों द्वारा शासित किया जा सके।

अफगानिस्तान में भारत का निवेश सबसे अच्छा संरक्षित होगा यदि निर्वाचित सरकार, जब भी बनती है, तालिबान गुटों का हिस्सा बनने के बाद भी एक कमांडिंग स्थिति में रहती है। अशरफ गनी और डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला को अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के कार्य में भारत की भूमिका के महत्व का एहसास है।

अमेरिका, जिसने अमेरिका-तालिबान वार्ता प्रक्रिया को रोक दिया है, भारत के हितों के बारे में थोड़ा परेशान हो गया है क्योंकि उसने नई दिल्ली को दोनों पक्षों के बीच वार्ता से दूर रखने पर सहमति व्यक्त की थी, जिसमें पाकिस्तान ने एक प्रमुख सूत्रधार की भूमिका निभाने की अनुमति दी थी। फिर भी बातचीत एक स्वागत योग्य बात थी क्योंकि अफगानिस्तान में शांति की स्थापना पूरे दक्षिण एशिया में एक उत्साहजनक संदेश होती।

तालिबान के साथ शांति वार्ता बंद करने का अमेरिका का फैसला पूरी तरह से आश्चर्यजनक नहीं था। डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन चाहता था कि तालिबान शांति वार्ता के दौरान अपने आत्मघाती विस्फोटों को रोक दे, लेकिन अफगान आतंकवादियों ने अमेरिकी दलील को नजरअंदाज कर दिया। उग्रवादियों ने जोर दिया कि एक समझौते पर पहुंचने के बाद ही ऐसा किया जा सकता है। उन्होंने एक संकेत दिया कि हिंसा, वाशिंगटन को उनकी मांग को स्वीकार करने के लिए बाध्य करने की रणनीति का हिस्सा थी, कि दोनों पक्षों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद कोई विदेशी टुकड़ी अफगान धरती पर नहीं रहे।

अमेरिका, जो तालिबान आत्मघाती विस्फोटों को एक बड़े लक्ष्य के लिए भुगतान करने की लागत के रूप में सहन कर रहा था, ने घोषणा की थी कि वादा किए गए सैन्य वापसी का मतलब 9/11 के मद्देनजर 2001 में कब्जा की गई भूमि के एक बार में पूर्ण निर्वासन नहीं था। अमेरिका चाहता था कि उसके 14000 सैनिकों में से 8000 को रखा जाए और उसके सशस्त्र बलों को कतरी राजधानी, दोहा में शांति वार्ता के सफल समापन के बाद ही घर के लिए रवाना होना था।

ट्रम्प की रणनीति में समय-समय पर सेना की वापसी शामिल थी, जो तालिबान के लिए अस्वीकार्य प्रतीत होती थी। लेकिन वे विली-नीली हिंसा से बच निकलने का आश्वासन देने के साथ-साथ अल-कायदा और आईएस जैसे किसी भी विदेशी आतंकवादी समूह और अफगानिस्तान के किसी भी हिस्से का उपयोग करने के लिए विनाशकारी गतिविधियों में लिप्त होने पर हस्ताक्षर करने के बाद भी इस शर्त पर सहमत नहीं थे। वार्ता लगभग समाप्त हो गई थी और कैंप डेविड, मैरीलैंड (यूएस) में अंतत: एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने की संभावना थी, लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प, आठ महीने की लंबी कवायद के बाद अनिश्चित दिखाई दिए।

निर्विवाद रूप से दोनों पक्षों के बीच एक बड़ा विश्वास अंतर था। इस तथ्य को देखते हुए, यह माना जाता है कि ट्रम्प, शायद, वार्ता को ख़तम करने के बहाने की तलाश में थे और उन्हें ऐसा मौका मिला जब 5 सितंबर को एक आत्मघाती बम हमले में एक अमेरिकी सैनिक, 11 अन्य के साथ मारा गया था।

तालिबान द्वारा जघन्य कृत्य में शामिल होने की जिम्मेदारी स्वीकार करने के बाद ट्रम्प ने ट्वीट की एक श्रृंखला के माध्यम से अपने फैसले की घोषणा की। अपने एक ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘‘अगर वे इन बेहद महत्वपूर्ण शांति वार्ता के दौरान युद्ध विराम के लिए सहमत नहीं हो सकते हैं, और यहां तक कि 12 निर्दोष लोगों को मार देंगे, तो वे शायद वैसे भी एक सार्थक समझौते पर बातचीत करने की शक्ति नहीं रखते हैं।’’

क्या ट्रम्प अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के हित में अपने फैसले की समीक्षा करेंगे और बाकी क्षेत्र को देखा जाना बाकी है। लेकिन इतिहास उन्हें सरकार के दूरदर्शी प्रमुख के रूप में याद रखेगा, अगर वह शांति वार्ता को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचने की अनुमति देते है।

इसके विपरीत उकसावे के बावजूद समझौते पर हस्ताक्षर करना एक बेहतर विकल्प होगा, जहां आठ महीने पहले जब शांति वार्ता शुरू की गई थी, उस स्थिति में वापस जाने से बेहतर विकल्प होगा। उग्रवादी समूह ने बातचीत के तडक़ने के बाद कहा, ‘अमेरिका की विश्वसनीयता को नुकसान होगा; उनके शांति-विरोधी रुख दुनिया के लिए अधिक स्पष्ट हो जाएंगे; उनके हताहतों और वित्तीय नुकसान में वृद्धि होगी, और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक बातचीत में अमेरिकी भूमिका बदनाम होगी।’

बेशक, तालिबान कोई महान राजनयिक नहीं हैं। माना जाता है कि वे अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए केवल हिंसा की भाषा जानते थे। लेकिन अब वे सबूत दे रहे हैं कि वे बुरे वार्ताकार नहीं हैं। शायद, अब उन्हें पता चल गया है कि कूटनीति को एक ऐसे देश में शांति लाने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए, जिसने इसे दशकों से नहीं देखा है।

लेखक दिल्ली स्थित राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।

अंतरिक्ष में नया इतिहास रचने को तैयार हैं महिलाएं

इस 21 अक्तूबर को अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में एक नया इतिहास रचा जाएगा। अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में पहली बार दो महिला अंतरिक्ष यात्री स्पेस वॉक करने जा रही हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा पहली बार बिना किसी पुरुष सहयोगी के 15 महिलाओं की टीम को स्पेसवॉक के लिए भेज रही है। 21 अक्तूबर को यह टीम अलग-अलग चरणों में स्पेस वॉक करेगी। ‘ऑल वीमेन स्पेस वॉक ’ नाम की इस ऐतिहासिक स्पेस वॉक को दुनिया भर में लाइव देखा जाएगा। महिलाओं की इस टीम को अंतरिक्ष यात्री क्रिस्टीना कोच और जेसिका मीर लीड करेंगी,क्योंकि इन दोनों महिला अंतरिक्ष यात्रियों के पास अंतरिक्ष यात्रा का अनुभव है।

अंतरिक्ष यात्री जेसिका मीर मार्च से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र में रह रही हैं। जबकि क्रिस्टीना बीते माह सितंबर में ही वहां पहुंची। 21 अक्तूबर को ये दोनों महिला अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष स्टेशन से बाहर निकलकर उसके सौर पैनल में लगी लिथियम ऑयन बैटरी बदलेगीं। क्रिस्टीना ने ट्वीट किया कि अब तक हुई स्पेस वॉक में पुरुष और महिला अंतरिक्ष यात्री समूह में ऐसे काम करते रहे हैं। ऐसा पहली बार होगा जब समूह में दोनों महिलाएं होंगी। जेसिका मीर ने कहा कि वे ऐतिहासिक अंतरिक्ष चहल कदमी के लिए उत्साहित है। जेसिका ने अपने पूरे गुट को ‘स्पेस सिस्टर्स’ कहकर संबोधित किया। गौरतलब है कि स्पेस वॉक में स्पेसक्राफ्ट की मरम्मत, वैज्ञानिक प्रयोग और नए उपकरणों का परीक्षण होता है।

आप को जानकर हैरानी होगी कि यह स्पेस वॉक मार्च में होनी थी लेकिन अंतरिक्ष केंद्र में मध्यम आकार के स्पेससूट की कमी के कारण इसे रद्द कर दिया गया था। जिस पर हिलेरी क्ंिलटन और अन्य नामी महिला हस्तियों ने नासा की आलोचना की थी क्रिस्टीना कोच ने खुद सूट को कॉन्फिगर किया और उस पर काम किया। अब तक तीन सूट बनकर तैयार हो गए हैं। अंतरिक्ष विज्ञान क्षेत्र से महिलाओं का वास्ता बहुत पुराना है। 1940-60 के दरम्यान नासा के स्पेस फ्लाइट रिसर्च में महिलाओं ने निर्णायक योगदान दिया था। इसके बाद 16 जुलाई 1969 को अमेरिका ने पहली मर्तबा चांद पर इंसान को भेजा था। इसी 12 जून को अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने वाशिंगटन में नासा मुख्यालय से लगी गली का नाम बदल कर ‘हिडन फिगर्स वे’ रख दिया। ऐसा नासा ने उन तीन महिला गणितज्ञों के सम्मान में किया जिन्होंने 1940-60 के दौरान नासा के स्पेस फ्लाइट में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। कल्पना चावला अंतरिक्ष में जाने वाली पहली भारतीय महिला थी। एयरोनॉटिक्स के क्षेत्र में उपलब्धि और योगदान के मामले में वह कई महिलाओं के लिए आदर्श मॉडल रही हैं। भारत में भी अंतरिक्ष विज्ञान में महिलाओं को जिम्मदारी के पद दिए जाने लगे हैं। 12 जून को इसरो प्रमुख डा.के.सिवन ने जब देश को चंद्रयान-2 की जानकारी दी तो उसी समय उन्होंने यह अहम खुलासा भी किया कि यह भारत का पहला अंतरग्रहीय मिशन होगा जिसका संचालन दो महिलाएं करेंगी। एम वनिता को चंद्रयान-2 का प्रोजेक्ट डायरेक्टर और रितु करिधाल को मिशन डायरेक्टर बनाया गया था। बेशक च्रंदयान-2 की सात सितंबर को हार्ड लैंडिग हुई लेकिन वैज्ञानिकों की राय में यह मिशन 95 प्रतिशत सफल हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में महिला वैज्ञानिकों को यह जिम्मा देकर इसरो ने न केवल देशभर की युवा महत्वाकांक्षी लड़कियों को भी अंतरिक्ष शोध संबंधी क्षेत्र में अधिक रुचि दिखाने और कॅरिअर अपनाने का संदेश ही नहीं दिया बल्कि विज्ञान में महिलाओं को शीर्ष नेतृत्व वाली भूमिका देकर उनकी योग्यता व क्षमताओं पर भी भरोसा जताया है। इसके साथ ही यहां इस बात का उल्लेख करना •ारूरी लग रहा है कि बीते कई सालों से दसवीं की बोर्ड परीक्षा में पास होने वाली लड़कियों की संख्या लडक़ों से अधिक है लेकिन उच्च व उच्चतर कक्षाओं में उनकी संख्या में गिरावट देखी जाती है और विज्ञान पढऩे वाली लड़कियों की संख्या कम होती है। यही नहीं महिला वैज्ञानिकों की संख्या तो और भी कम होती है। इस मुददे पर राष्ट्रीय महिला वैज्ञानिक कांग्रेस में भी चिंता व्यक्त की जाती है। पुरानी सोच कहती है कि विज्ञान व गणित कठिन विषय हैं और ये महिलाओं के लिए नहीं हैं क्योंकि वे कमतर दिमाग वाली होती हैं। नतीजा हमारे सामने है कि समाज ऐसे विषयों के लिए बेटों को प्राथमिकता देता है और लड़कियां पीछे छूट जाती हैं। इसरो की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक 2018-19 में इसरों में 20 प्रतिशत महिलाएं हैं जिनमें से 12 प्रतिशत वैज्ञानिक या तकनीकी भूमिका में हैं। देश में आज भी 14 प्रतिशत लड़कियां ही शोध करती हैं जबकि विश्व में यह आंकड़ा 28.4 प्रतिशत है। नासा में 50 प्रतिशत फ्लाइट डायरेक्टर्स महिलाएं हैं। भारत में करीब पौने तीन लाख टेक्नोलेजिस्ट और इंजीनियर रिसर्च और डवलपमेंट के लिए काम कर रहे हैं और इनमें लड़कियों की संख्या करीब 40,000 है। महिलाओं की कम तादाद के कारण वैज्ञानिक केंद्रों और संस्थानों, शोध संस्थाओं में महिला प्रमुख बहुत ही कम देखने को मिलती हैं और महत्वपूर्ण फैसले लेने वाली समितियों में उनकी मौजूदगी नाममात्र की ही होती है। महिलाओं को विज्ञान,गणित जैसे विषय पढऩे की सलाह नहीं देने के पीछे एक दलील यह भी दी जाती है कि उनका दिमाग पुरुषों से कमतर होता है। इसी कारण उन्हें महत्वपूर्ण आधिकारिक पद व समाज में शाक्तिशाली भूमिका अदा करने से रोका जाता है। लेकिन हाल ही में संज्ञान और न्यूरोलॉजी पर शोध करने वाली ब्रिटिश महिला वैज्ञानिक जीना रिपन ने अपनी किताब ‘जेंडर एंड अवर ब्रेन्स’ में दिमाग की क्षमता पर विश्लेषण किया है और उनका मत है कि महिलाओं और पुरुषों के दिमाग की क्षमता अलग-अलग नहीं होती है। जीना का कहना है, चाल्र्स डार्विन के जमाने से महिलाओं और पुरुषों के दिमाग को अलग-अलग माना जा रहा है। उन्होंने कहा था, महिलाएं अक्षम हैं क्योंकि उनके दिमाग पुरुषों से कमतर हैं इसीलिए उन्हें समाज में शाक्तिशाली भूमिका अदा करने का अधिकार नहीं है। लेकिन ऐसा कोई पैटर्न नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि यह महिला का दिमाग है या पुरुष का। लिंग के आधार पर दिमाग में कुछ अंतर हो सकता है पर बॉयालोजी के आधार पर ताकत की बात को चुनौती देने की जरूरत है। दिमाग के लिए अज्ञानी समाज ताने मारता है,इसके अलावा भी कई कारणों के चलते विज्ञान, गणित, तकनीक, इंजीनियरिंग को बतौर कॅरिअर चुनना लड़कियों की प्राथमिकता नहीं होता और चुन भी लेती हैं तो घरेलू जिम्मेदारियों के कारण कइयों को अपनी नौकरी बीच में ही छोडऩी पड़ती है। घरेलू जिम्मेवारियों के कारण ही अधिकतर महिलाएं लैब में चुनौती वाले काम लेने से बचती हैं। इसरो में काम करने वाली महिला वैज्ञानिक भी इस बात की तस्दीक करती हैं कि घर व इसरों में काम करना आसान नहीं है लेकिन मजबूत इच्छाशाक्ति के चलते व परिवारजनों और दफ्तर के मैत्रीपूर्ण रवैए से ऐसा करना संभव है। समाज में महिला वैज्ञानिकों की रोल मॉडल वाली मजबूत छवि को गढऩे की जरूरत है, इसमें हरेक को भूमिका निभानी चाहिए।

शौचालय नहीं तो कैसे रहे सफाई?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुले में शौच से देश को मुक्त होने का जो दावा किया है उसमें मोदी की नीति और सोच में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है। सन् 2014 से ही जब प्रधानमंत्री बने थे तब वे लगातार स्वच्छता पर बल देते रहे और स्वच्छता आंदोलन को धार देते रहे है। उसी कड़ी के तहत उन्होंने दो अक्तूबर को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर स्वच्छ भारत मिशन आरंभ करने के साथ सरकार के संकल्प की घोषणा की जिसे राजघाट से प्रधानमंत्री ने पूरे देश में लांच किया है। दिल्ली सहित पूरे देश में सरकार के साथ साथ विपक्ष ने स्वच्छता अभियान पर बल दिया और देशवासियों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। जिसका असर अब धीरे-धीरे दिख रहा है। सरकार के आदेश का पालन क्रियान्वित होने में जहां नागरिकों को जिम्मेदारी समझनी चाहिये वहीं सरकारी पदों पर बैठे अधिकारियों और स्थानीय नेताओं जैसे पार्षदों और विधायकों को भी इस अभियान को संकल्प के तौर अपनाना चाहिये पर ऐसा व्यवहारिक तौर पर होता नहीं दिख रहा है।

दिल्ली के पॉश इलाकों बस अड्डों अस्पतालों रेलवे स्टेशनों और दिल्ली के पार्को में जब तहलका ने गहन पड़ताल की तो स्वच्छता अभियान में ज़मीनी स्तर पर काफी भेद देखा गया और जागरूकता की कमी भी नज़र आयी है। ज्य़ादात्तर लोगों ने कहा कि सफाई अच्छी बात है पर मेरी एक दिन की गंदगी की वजह से थोड़ा गंदगी है। ऐसे में नागरिकों के साथ सफाई कर्मचारियों को पैनी नजर रखनी होगी। दिल्ली के सराय काले के बाहर निकलते की सामने पुल पार करते ही यमुना तट पर आज भी खुले में शौच आम बात है। इसमें दिल्ली में दूर दराज इलाकों से आये यात्री जिसमें पुरूष, महिलायें और बच्चे शामिल हैं। बस वाले ऑटो वाले तो अपना अधिकार समझ कर काले खॉ के पास दांये -वाये खुले पड़े मैदान में शौच करते है। ऑटो चालक से बात की कि खुले में शौच नहीं करना तो उसने जवाब दिया सुबह सुबह कौन देखता है जो एकाध शौचालय दिल्ली नगर निगम के बने हैं उसमें हज़ारों की तदाद में यात्रियों और ऑटो चालकों व बस चालकों का प्रयोग मुश्किल है। आनंद बिहार से काले खॉ के बस चालक रतन ने बताया कि हम लोग बस चालक हैं, बस चलाते हैं अनपढ़ आदमी हैं और खुले को शौच का तो हम बचपन से करते आ रहे है। यही हाल बस अड्डा कश्मीरी गेट मोरी गेट का है जहां पुलों के नीचे और सामने यमुना तट पर खुले में शौच यात्रियों के साथ साथ ऑटो चालक और बस चालक कर रहे हैं।

दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर और लोटस टैम्पल में तो ये आम बात है। अक्षरधाम मंदिर में दक्षिण भारत और गांव देहात के जो गांवों से बसों में हजारों की संख्या में दर्शनार्थी आते है वे सुबह से दर्शन करने पूर्व स्वयं तो स्वच्छ हो कर स्नान करके जाते है। पर वे कॉमनवेल्थ विलेज के पास जो मैदान है बरसाती घास और वहीं से निकली रेलवे लाइन के पास खुले में शौच करते हैं। ऐसा नहीं यहां के पांडव नगर निवासी मनोरंजन ने स्वस्च्छता बल देते हुये दर्शनार्थियों को रोका तो किसी ने कोई बात न मानी बल्कि कहा कि अपने घर ले चलो मैं कहां करूं। अब बात करते हैं दिल्ली के बड़े अस्पतालों का यहीं हाल है जहां पर प्राइवेट गार्ड भी अस्पतालों में तैनात हैं फिर भी हाल बे हाल है। केन्द्र सरकार के सफदरजंग अस्पताल जो दिल्ली रिंग रोड़ पर है यहां पर सुबह सुबह मरीजों के परिजनों द्वारा मजबूरी में की गई शौच और पेशाब करने से आने जाने वाले मरीजों को ही नहीं बल्कि आम लोगों को भयंकर बदबू का सामना करना पड़ता है। ऐसा नहीं की यहां की गंदगी से अस्पताल प्रशासन और दिल्ली के नेता वाकिफ नहीं है। पर कुछ भी नहीं हो रहा है। यही हाल दिल्ली के लोकनायक अस्पताल का है जहां पर हज़ारों की संख्या में मरीज इलाज कराने को आते हैं। जो अस्पताल का फुटपाथ बना है वह पूरी तरह शौच और गंदगी से भरा है।

दिल्ली का शायद कोई भी ऐसा पार्क नहीं है जो जनता द्वारा की गंदगी की मार न झेल रहा हो। सामाजिक व सभ्य लोग पार्को के सजाने संवारने में लगे रहते पर कुछ लोग है जो गंदगी फैलाने लगे है।

ये बात हुई आम नागरिकों की जो अपनी घटिया सोच को अच्छी सोच में बदलने में तौहीन समझते है पर कई ऐसे लोग है जो अपनी पावर और शान के चलते कुत्तों को तो पालते हैं पर कुत्तों को दिल्ली की सूनी पड़ी सडक़ों में ही नहीं जहां मौका मिलता है वहां कराने बाज नहीं आते है। दिल्ली के पॉश इलाकों में रहने वाले तो अपनी कोठी में शान से रहते है पर वे अपने कुत्तों को नौकरों के हवाले कर घरों के बाहर शौच के लिये भेजते न ये देखते हैं कि धार्मिक स्थल है स्कूल है और बाजार है कि स्थानीय इलाका है। इसमें दिल्ली के राजनेताओं और अफसरों के कुत्तों को भी नौकर सुबह शाम शौच करवाने ले जाते है। कई बार कुत्तों के शौच को लेकर दिल्ली में मारधाड़ और झगड़े भी हुये है। लेकिन इस ओर सरकार का काई ध्यान नहीं होने लोगों को काफी नाराज़गी है। सामाजिक कार्यकर्ता सचिन कुमार ने बताया कि सरकार के खासकर प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान का वो दिल से स्वागत करते हैं। पर वो सत्ता से जुड़े लोगों से अपील करते है कि नागरिकों को सुधरने में समय लगेगा एक दिन नागरिक सुधर भी जायेगा पर वे नागरिक कब सुधरेगे जो अपने घरों में साफ -सफाई से रहते है लेकिन अपने पालतू कुत्तें जो लाखों में खरीद कर उनकी गंदगी को दिल्ली की सडक़ों में फैलाते हैं। इस पर सरकार को कोई कठोर कानून बनाने की ज़रूर है तब जाकर सही मायने सफाई दिल्ली दिखेगी और शौच मुक्त भारत दिखेगा।