मध्य प्रदेश के सागर जिले के गेहुंरास गांव के 15 साल के प्रवीण रजक ने मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल के तहत 10वीं की परीक्षा दी थी. 16 मई को परीक्षा के परिणाम आए. प्रवीण गणित में पास नहीं हो पाया जबकि उसके सभी दोस्त पास हो गए थे. वह चुपचाप पास के जंगलों की तरफ चला गया. देर शाम तक जब वह वापस नहीं आया तब उसकी खोजबीन हुई. प्रवीण तो नहीं मिला, जंगल में एक पेड़ पर उसकी लाश टंगी हुई मिली. इसी तरह डिंडोरी जिले के सरसी गांव की कुंजन 12वीं की परीक्षा पास नहीं कर सकी. वह बहुत तनाव में थी. कुंजन को तनाव दूर करने का रास्ता आत्महत्या में दिखा और उसने फांसी लगा ली.
अब स्कूल के परीक्षा परिणामों में असफल हो जाने का दर्द जिंदा और सजग शरीर को आग लगा लेने से ज्यादा होता है. रीवा जिले के लालगांव हरदी की 10वीं की परीक्षा देने वाली कामना पटेल ने पास न होने पर मिट्टी का तेल डालकर खुद को आग लगा ली. स्कूल की ये परीक्षाएं जिंदगी की परीक्षाओं से बहुत बड़ी और धारदार हो गई हैं. ग्वालियर जिले की कृतिका माल्या ने तो परीक्षा परिणाम आने का भी इंतजार नहीं किया. उसे महसूस हो रहा था कि वह पास नहीं हो पाएगी. उसकी शंका सच निकली, वह एक विषय में पास नहीं हुई, लेकिन परिणाम आने से पहले ही उसने खुदकुशी कर ली.
सागर की 17 साल की कंचन सूर्यवंशी को भी ऐसा ही लगा था कि वह परीक्षा में पास नहीं होगी. कंचन ने भी खुदकुशी कर ली. हालांकि दो दिन बाद परीक्षा परिणाम आने के बाद कंचन के भाई ने उसके रोल नंबर से परीक्षा परिणाम जांचा तो पता चला कि वह तो पास हो गई है. तब तक परिवारवाले कंचन की अस्थियां मां नर्मदा में प्रवाहित कर चुके थे. भोपाल के राजीव नगर का एक बच्चा रवि कुमार भी बोर्ड परीक्षा पास नहीं कर सका. उसके पिता बसंत ने उसे समझाया कोई बात नहीं; लेकिन अखबारों में मेधावी बच्चों की फोटो छापते हैं. तू भी तो कुछ ऐसा कर कि नाम अखबार में छपे. अगले दिन सुबह रवि रस्सी के फंदे पर लटका मिला और उसकी खबर अखबार में प्रकाशित हुई.
शिक्षा बेहतर समाज के निर्माण का साधन न रहकर जब क्रूर सत्ता का भागीदार बनने का रास्ता बन जाए, तब वहां भी हिंसा ही होगी. शिक्षक भी हिंसा करेगा. सरकार भी हिंसा करेगी. बाजार तो बूचड़खाना है ही. सबसे आगे रहना इसलिए जरूरी हो गया है ताकि बच्चे भी उस सत्ता में शामिल हो सकें जो संसाधन, अवसर और संभावनाओं का असमान वितरण करती है. जो पहले लोगों को कमजोर बनाती है, फिर उन पर शासन करती है. ऊंचे अंक पाना इसलिए जरूरी है
मध्य प्रदेश में मई के पहले पखवाड़े में बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम जारी हुए. मध्य प्रदेश शिक्षा मंडल और स्कूल शिक्षा के केंद्रीय बोर्ड के परिणाम आए. एक दिन परीक्षा परिणामों की खबर अखबारों में पहले पन्ने पर थी. ठीक दूसरे दिन उन परीक्षा परिणामों में खुद को असफल देख आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या और कहानियां खबर बन गईं. कम अंक पाने या परीक्षा में पास न हो पाने की वजह से 30 बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी. इसके थोड़े दिन के बाद शहर की कोचिंग और निजी शिक्षण संस्थाओं के पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन छपे दिखेंगे. बच्चों की आत्महत्याओं की खबर उनकी तेरहवीं से ही पहले अपनी सामयिकता खो चुकी होगी.
अंक जितने ज्यादा बढ़ते जाते हैं, अवसर और विकल्प उतने ही कम होते जाते हैं, अपेक्षाएं उतनी ही बढ़ती जाती हैं, दबाव भी उतना ही बढ़ता है. ज्यादा अंक कुछ ज्यादा करने की मानसिक-भावनात्मक क्षमता नहीं बढ़ाते, बल्कि कुछ खास और तथाकथित उच्चवर्गीय काम करने और खास होने की भावना विकसित करते हैं.
ऊंचे अंक केवल कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक, विशेष डाॅक्टर, विशेष वकालती, विशेष इंजीनियर या अब बड़ा बाजारू अधिकारी बनने का सपना गढ़ते हैं. ‘विशेष’ का मतलब होता है ऊंची फीस, या ऊंचा वेतन, ऊंची कमाई और संसाधनों पर ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण कर पाने की संभावनाएं. ऊंचे अंक सामान्य और समाज के समकक्ष का शिक्षक, किसान, लेखक, प्रशिक्षक, वकील बनने का सपना नहीं गढ़ते.
जरा सोचिए ऐसा वक्त और परिस्थिति क्यों आई कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को बच्चों से यह अपील करनी पड़ रही है कि परीक्षा परिणाम आने के बाद बच्चों आत्महत्या मत करना? क्या उस अपील को पढ़ाकर असफल होने का एहसास बच्चों के मन से निकाला जा सकेगा? क्या हिंसक प्रतिस्पर्धा की भावना खत्म हो जाएगी? क्या यह विश्वास पैदा हो पाएगा कि उसके लिए भी देश-दुनिया में विविधतापूर्ण और बहुत कुछ रचने के अवसर मौजूद हैं? यह देश, समाज और विश्व 99-100 प्रतिशत अंक वालों से नहीं चल रहा है. उनमें से ज्यादातर तो वास्तव में समाज के लिए नई चुनौतियां ही खड़ी कर रहे हैं. समस्याअों से जूझने का काम तो वे लोग कर रहे हैं जिन्हें ‘अंक प्रणाली’ असफल साबित करती है.
यह शिक्षा ऐसी वैज्ञानिकता सिखाती है जिससे बना विशेषज्ञ अपनी दुकान के आगे नींबू और हरी मिर्ची की माला डालता है. महल बनवाते समय राक्षस के चेहरे वाली मटकी टांगता है. वह इतना लालची हो जाता है कि आध्यात्मिकता का भी बाजार लगा लेता है और श्रद्धा को सरे बाजार बेचता है. इतना ही नहीं, यह शिक्षा ऐसे इंसान बनाती है जो अंदर से क्रूर भी होते हैं, खोखले भी और कमजोर भी. यह शिक्षा इंसानियत को कितने गहरे तक मार देती है
सर्वोच्च श्रेणी में तो 0.1 फीसदी बच्चे आते हैं, बाकी के काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं. सर्वोच्च श्रेणी वालों को मालिक माना जाने लगा है और यह भी धारणा है कि शेष 99.99 प्रतिशत उनके दास या गुलाम होंगे. सरकार भी यही मानती है. शिक्षक भी यही मानते हैं. अब पालक भी यही विश्वास करते हैं. मौजूदा संकट बच्चों की आत्महत्या तक ही सीमित नहीं है. वास्तव में कम अंक यह डर पैदा करते हैं कि अब हम यानी बच्चे स्वतंत्र नहीं रह पाएंगे. अब हमें गुलाम हो जाना होगा. वे गुलाम होने के बजाय मर जाना बेहतर विकल्प समझते हैं.
वैसे आप जानते ही होंगे की भारत की 58 प्रतिशत पूंजी एक प्रतिशत लोगों के पास है. ऐसा इसलिए है कि हम स्कूल में यही सिखा रहे हैं कि पूंजी पर कैसे कौशलपूर्ण तरीके से कब्जा किया जाए! अपनी शिक्षा व्यवस्था इस स्थिति को बदलने की मंशा नहीं रखती है. वह इसे बनाए रखने के लिए बनी है. यही कारण है कि समाज अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर उस ‘एक प्रतिशत’ के गिरोह में शामिल करने के लिए तत्पर है. उन्हें पता है कि बच्चे को कलेक्टर क्यों बनाना है, डाॅक्टर क्यों बनाना है, एमबीए क्यों बनाना है. ताकि वह पूंजी की लूट में अपना हिस्सा कमा सके.
उनका यह डर गलत नहीं है. यह मिथ्या भी नहीं है. यह एक राजनीतिक-आर्थिक सच्चाई है. शिक्षा बेहतर समाज के निर्माण का साधन न रहकर जब क्रूर सत्ता का भागीदार बनने का रास्ता बन जाए, तब वहां भी हिंसा ही होगी. शिक्षक भी हिंसा करेगा. सरकार भी हिंसा करेगी. बाजार तो बूचड़खाना है ही. सबसे आगे रहना इसलिए जरूरी हो गया है ताकि बच्चे भी उस सत्ता में शामिल हो सकें जो संसाधन, अवसर और संभावनाओं का असमान वितरण करती है. जो पहले लोगों को कमजोर बनाती है, फिर उन पर शासन करती है. ऊंचे अंक पाना इसलिए जरूरी है ताकि शासन करने वालों की श्रेणी में शामिल हुआ जा सके. यदि अंक कम आए, तो बच्चे कमजोर और शोषितों की जमात का हिस्सा बनेंगे.
जब भारत को महाशक्ति बनाने का दावा किया जाता है तब उस भाव में एक किस्म की हिंसा ही होती है. दूसरों पर शासन करने और संसाधनों पर कब्जा करने की हिंसक भावना. महाशक्ति बनने के लिए ऐसा ही समाज चाहिए जो अपने मित्र, अपने हमउम्र और समान इंसान को यह एहसास करा सके कि तुम मुझसे पीछे हो. मैं निर्णय लूंगा. मेरी ताकत ज्यादा है. यही एहसास बच्चों को उस हिंसा के लिए तैयार करता है जो महाशक्ति बनने के लिए जरूरी है. यह एहसास मुख्यमंत्री जी की अपील से खत्म न होगा.
यह बुरा और खतरनाक एहसास खत्म करने के लिए शिक्षा व्यवस्था का बाजारीकरण रोकना होगा. समान शिक्षा प्रणाली, जहां सभी परिवारों के बच्चे एकसमान शिक्षा परिवेश में शिक्षा हासिल कर सकें, को विकसित करना होगा. शिक्षा को धार्मिक कट्टरपंथ से बचाकर मानवीय मूल्यों से जोड़ना होगा. हर बच्चे को समझने की क्षमता विकसित करनी होगी कि उसकी खासियत और क्षमताएं क्या हैं; वह एक चित्रकार हो सकता है, संगीतकार या कहानीकार, या मिट्टी का वास्तुकार, या किसान, या अच्छा यात्री, या शिक्षक, या फिर अच्छा मनोवैज्ञनिक.
आप बच्चों में बड़ी कार लेने की क्षमता विकसित करना चाहते हैं, साथ ही आप यह भी मानते हैं कि जब वह कार खराब हो जाएगी तो उसे ठीक करने वाला या उसका पंक्चर बनाने वाला व्यक्ति ‘निकृष्ट’ होता है. आपकी शिक्षा व्यवस्था ऐसी है जो यह नहीं सिखाती कि अगर इंजन और पंक्चर ठीक न हुआ, तो तुम्हारी बड़ी कार कबाड़े से ज्यादा कुछ नहीं है! सवा तीन लाख किसानों की आत्महत्या से समाज को कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे स्कूल, हमारे शिक्षक बच्चों को यह बताते ही नहीं हंै कि किसानी और किसान होने का मतलब क्या है. आजकल स्कूल में पढ़ाया जाता है कि खाना किसी कंपनी या डिपार्टमेंटल स्टोर या बड़े माॅल से आता है! किसानी को एक निकृष्ट काम बनाने का काम राजसत्ता और शिक्षा व्यवस्था ने मिलकर किया है. यह शिक्षा व्यवस्था नाव खरीदना, नाव चलाने वाले नाविक को नौकरी पर रखना, उस नाविक का खूब शोषण करना सिखाती है; पर यह शिक्षा तैरना और नाव की मरम्मत करना नहीं सिखाती. वह बच्चों को सिखाती है कि अच्छे अंक लाओगे तो तुम नाव और नाविक दोनों के मालिक बनोगे. तुम्हें तैरना सीखने की जरूरत नहीं है. यह शिक्षा व्यवस्था बच्चों को ऐसा बना देती है कि वे लहरों के ऊंचे उठने, नदी में भंवर के बनने और तूफान आने पर बौखला जाते हैं. उन्हें तैरना नहीं आता. नाविक तैरकर भंवर से निकल सकता है. उसे नदी और तूफान के सिद्धांत पता होते हैं.
सवा तीन लाख किसानों की आत्महत्या से समाज को कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे स्कूल, हमारे शिक्षक बच्चों को यह बताते ही नहीं हैं कि किसानी और किसान होने का मतलब क्या है. आजकल स्कूल में पढ़ाया जाता है कि खाना किसी कंपनी या डिपार्टमेंटल स्टोर या बड़े माॅल से आता है! किसानी को एक निकृष्ट काम बनाने का काम राजसत्ता और शिक्षा व्यवस्था ने मिलकर किया है
यह शिक्षा ऐसे इंसान बनाती है जो अंदर से क्रूर भी होते हैं, खोखले भी और कमजोर भी. यह शिक्षा इंसानियत को कितने गहरे तक मार देती है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लग सकता है कि शिक्षित होकर व्यापारी, अधिकारी, नौकरशाह या जन प्रतिनिधि बनने के बाद वह बेहद निष्ठुर व्यवहार करता है. कई मामलों में महिला, महिला के प्रति असंवेदनशील हो जाती है, दलित, दलित के ही प्रति असंवेदनशील हो जाता है, नौकरशाह उपेक्षितों के प्रति असंवेदनशील हो जाता है. कुछ बिरले ही मामले होते हैं जहां शिक्षित व्यक्ति इंसान की तरह व्यवहार करता है. बाद में हम लड़ते हैं कि आरक्षण बनाए रखो या आरक्षण खत्म कर दो. माननीयों, यह बताइए आखिर में पैदा कौन हो रहा है? यह शिक्षा ऐसी वैज्ञानिकता सिखाती है जिससे बना विशेषज्ञ अपनी दुकान के आगे नींबू और हरी मिर्ची की माला डालता है. महल बनवाते समय राक्षस के चेहरे वाली मटकी टांगता है. वह इतना लालची हो जाता है कि आध्यात्मिकता का भी बाजार लगा लेता है और श्रद्धा को सरे बाजार बेचता है.
कुछ नीतिगत सवाल; मध्य प्रदेश में निजी शिक्षण संस्थाएं हर साल शिक्षण शुल्क में खूब बढ़ोतरी कर देती हैं. लोग खूब हल्ला मचा रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि फीस की वृद्धि को नियंत्रित किया जाए. इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार फीस नियंत्रण के लिए नियामक व्यवस्था बना रही है. यह व्यवस्था पांच साल से बस बन ही रही है, लागू नहीं हो रही है; क्योंकि सरकार की मंशा ही नहीं है कि स्कूली शिक्षा का बाजारीकरण रुके. पिछले 17 साल से सबको यह पता है और सामने दिखता है कि बच्चों के बस्ते का वजन उनके अपने वजन से ज्यादा होता है. उसे कम करने के लिए कमेटियां बनीं. बच्चों पर यह वजन इतना बढ़ा कि उन्हें आत्महत्या आसान लगने लगी. बस्ते का वजन इसलिए कम नहीं होगा कि स्कूलवालों का गिरोह किताब छापने वालों के गिरोह के साथ मिलकर धंधा करता है. बच्चों पर से दबाव कम करने के लिए एक नीति बनी कि आठवीं कक्षा तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं किया जाएगा और उसको किसी कक्षा में रोका नहीं जाएगा; ऐसा लगता है कि यह नीति सरकार की बुद्धि में पड़ी नहीं! उन्होंने सोचा कि जब कोई बच्चा फेल ही नहीं होना है तो शिक्षक और प्रशिक्षक की क्या जरूरत. तो शिक्षक से पढ़ाई का काम छोड़कर हर किस्म का बाबूगीरी का काम करवाया जाने लगा. परिणाम यह हुआ कि बच्चा आठवीं तक पास है, लेकिन क्षमता के नाम पर उसे पंगु बना दिया गया. सरकार ने यह बहुत सुनियोजित ढंग से किया ताकि निजी शिक्षा क्षेत्र पनप सके. और जब बच्चे 9वीं, 10वीं या 12वीं में पंहुचे तो उनकी नींव बहुत कमजोर रही. हमारी सरकारों का बहुत बड़ा और अक्षम्य अपराध है शिक्षा का बाजारीकरण करने में पूरी मदद करना और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को नेस्तनाबूत करना.
मानवीय संवेदनाओं का जीवन अब बहुत छोटा है. सुबह अखबार में बच्चों की आत्महत्या की खबर पढ़ते हैं, थोड़ी-बहुत बातचीत की जाती है, थोड़ा ज्ञान पेलते हैं और अपने धंधे पर चल देते हैं. क्योंकि आत्महत्या की आज की खबर उनके बच्चे के बारे में नहीं, किसी और के बच्चे के बारे में होती है. बात को आत्महत्या तक ही सीमित रखना अनुचित है. बात उससे कहीं बड़ी है. मुझे भी पता है और आपको भी कि अब 8वीं कक्षा से बच्चों को कोचिंग संस्थान और मार्गदर्शी संस्थान नामक ‘प्रताड़ना गृहों’ में डाला जाने लगा है ताकि वे आईआईटी, एमबीए, डाॅक्टर, इंजीनियर ही बनें. अब बच्चों को तय करने का अधिकार नहीं है कि उनकी रुचि और सक्षमता किस क्षेत्र में है; यह तो बाजार के साथ मिलकर मम्मी-पापा तय करते हैं. वे गर्व से कहते हैं कि हमारी बेटी या बेटा तो इतनी तैयारी कर रहा है कि वह 3 साल से घर से बाहर ही नहीं निकला, कहीं रिश्तेदारी में नहीं जाता, शादियों में नहीं जाता. उसने तो दीवाली भी नहीं मनाई. जरा सोचिए तो सही कि क्या यह स्थिति अच्छी है? जो बच्चा समाज और रिश्तों को ही नहीं जानता-मानता वह डाॅक्टर बनकर क्या करेगा; बीमारों को देखकर उसकी लार ही तो टपकेगी! यह शिक्षा बच्चों को मानव समाज और उसके मूल्यों से काटकर अलग कर देती है.
जब सरकारें शिक्षा व्यवस्था के इस सच को छिपाने की कोशिश करती हैं, तब अपील जारी करती हैं, कमेटी बनाती हैं. अभी मध्य प्रदेश में भी एक नई कमेटी बनी है जो बच्चों की आत्महत्या रोकने के लिए रास्ता सुझाएगी! यह तय है कि वह कमेटी भी इस षड्यंत्र पर चुप ही रहेगी. वे ऐसा व्यवहार करती हैं, मानो उन्हें सच पता न हो. उन्हें पूरा सच पता है. उन्हें यह भी पता है कि हर बच्चे को आत्महत्या के लिए उनकी असमान शिक्षा नीतियों ने मजबूर किया है. शिक्षा के बाजारीकरण और मशीनीकरण ने मजबूर किया है पर वह चुप रहेगी!
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के सालाना प्रतिवेदनों का अध्ययन करने से जो कुछ भी पता चलता है वह डरा देने वाला है. वर्ष 2001 से 2014 के बीच भारत में परीक्षाओं में फेल हो जाने के कारण 31,877 बच्चों ने आत्महत्या कर ली. इसी अवधि में मध्य प्रदेश में 2,118 बच्चों ने खुद को खत्म कर लिया. यह सही है कि ज्यादातर बच्चे आत्महत्या के विकल्प के बारे में नहीं सोचते होंगे, लेकिन हिंसक प्रतिस्पर्धा और ताकतवर बनने-बनाने की अपेक्षाएं उन्हें किसी न किसी के प्रति हिंसा करना तो सिखाती ही हंै. जरा शिक्षा को इस नजरिये से देखिए कि क्या वह बच्चे को एक अच्छा दोस्त, एक अच्छा इंसान, एक अच्छा कलाकार, एक सहृदय इंसान, एक अच्छी संतान और एक अच्छा नागरिक बना रही है? हमारा स्कूल परीक्षा के माध्यम से यह तो जांच कर लेता है कि बच्चा कितना जान पाया, पर यह नहीं जांच पाता कि जो नहीं जान पाया उसका कारण क्या है. हमारा स्कूल यह कभी नहीं जांचता कि बच्चे की खासियत, अभिरुचि और कौशल क्या है. उसके लिए महत्वपूर्ण हैं अंक, जो अपना महत्व खो चुके हैं.