ये कैसी दुनिया है जहां भीख मांगने वालों की जेब पर भी डाका पड़ता है…

इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव

ये पिछले साल गर्मियों की बात है. रात के अंधेरे में वीराने को चीरती शिवगंगा एक्सप्रेस पूरी रफ्तार में दौड़ती चली जा रही थी. दिल्ली से इलाहाबाद का मेरा सफर थोड़ा मुश्किल था क्योंकि रिजर्वेशन कन्फर्म नहीं हुआ था. खचाखच भरी बोगी में कहीं भी बैठने की जगह नहीं थी. सीट न मिलने से मेरी मुश्किलें और बढ़ गई थीं. खैर, मीडिया का नाम लेकर मैंने टीटी से कहीं बैठाने की गुजारिश की तो उन्होंने अपने लिए आरक्षित एक बोगी की सात नंबर सीट पर मुझसे बैठने को कह दिया था.

उनका आभार व्यक्त करते हुए मैं सीट पर पहुंचा, तो वहां पहले से कोई मुसाफिर लेटा हुआ मिला. पूछने पर पता चला कि वो रेलवे में असिस्टेंट ड्राइवर हैं और मेरी तरह उनके लिए भी टीटी ने उसी सीट पर लेटने या कहें कि बैठने का इंतजाम किया था. अब हम एक सीट पर दो लोग थे. वो लेटे हुए थे लेकिन सज्जनता दिखाते हुए उस सहयात्री ने मुझे ठीक से बैठने की जगह दी. हममें कुछ बातें भी हुईं. उन्होंने मुझसे मेरी नौकरी के बारे में पूछा. पत्रकारिता के पेशे से जुड़ा होने की बात पता चलने पर उन्होंने मेरे न्यूज चैनल और वहां काम के तरीकों की जानकारी ली. इन सबके बीच रात के एक बज चुके थे. हम दोनों एक छोटी-सी बातचीत के बाद चुप थे. मैंने बैठे-बैठे आंखें बंद ही की थीं कि एक छोटी-सी बच्ची का रुदन कान तक पहुंचा. मैं चौंका, मन में ये ख्याल आया कि इतनी रात गए ट्रेन में बच्ची के इस तरह रोने की वजह क्या है. ट्रेनों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाली घटनाओं से हम समय-समय पर वाकिफ होते रहते हैं.

जेहन में ये ख्याल आते ही पूरा शरीर सिहर उठा. इन सारी जिज्ञासाओं के बीच बच्ची का रोना सुन साथ लेटे यात्री की नींद भी खुल गई. उन्होंने कहा, ‘भाई साहब! जरा देखिए तो कौन रो रहा है.’ तब तक मैं भी सीट छोड़कर उठ चुका था. आगे बढ़कर देखा तो सात-आठ साल की एक मासूम वॉश बेसिन के पास सिर पर हाथ रखे रो रही थी. मटमैली फ्रॉक पहने वो एक भीख मांगने वाली बच्ची थी. मैंने रोने की वजह पूछी. उसने बताया कि वो फर्श पर सो रही थी, इस बीच किसी ने उसका सारा पैसा चुरा लिया. हैरानी, गुस्से और अफसोस के मिले-जुले एहसास मेरे दिल में तैर गए. ये कैसी दुनिया है जहां भीख मांगने वालों की जेब पर भी डाका पड़ता है.

उस बच्ची के माता-पिता नहीं थे. चाची की मारपीट की वजह से उसने घर छोड़ दिया था और भीख मांगकर अपना पेट भरती थी

खैर, मैंने उसे चुप कराया और उसके हाथ में पचास रुपये रखे. उस क्षणिक अपनत्व को पाकर गरीब, बेबस लड़की के आंसू रुक गए. मेरे पूछने पर उसने अपना नाम ‘आकांक्षा’ बताया. और पूछने पर पता चला कि उसके मां-बाप नहीं हैं. चाचा-चाची के साथ रहती थी लेकिन चाची की मारपीट और जुल्म से तंग आकर उसने घर छोड़ दिया था. वो दोबारा घर नहीं लौटी और शायद उसे ईमानदारी से ढूंढ़ने की कोशिश भी नहीं हुई. आकांक्षा अब भीख मांगकर अपना पेट भरती है. नींद आने पर ट्रेन और प्लेटफॉर्म से लेकर स्टेशन के बाहर तक, जहां जगह मिले, सो जाती है. अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि वो बच्ची कभी भी किसी हैवान की वहशत का शिकार हो सकती है. इस बात की भी गारंटी नहीं कि पूर्व में उसके साथ कुछ गलत न घटा हो. लेकिन जो दुनिया के फेंके चंद सिक्कों की मोहताज हो वो अपना हाल कहे भी तो किससे? वो तो किसी भी हालत में अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम नहीं है.

पढ़ने-लिखने और भविष्य के सपने देखने का हक आकांक्षा को भी है. उसकी पेट की भूख और शिक्षा का प्रबंध करना बेशक सरकार की ही जिम्मेदारी है. लेकिन हक और इंसाफ की बातें तो किताबी हैं. व्यावहारिकता को देखें तो ना जाने कितनी ‘आकांक्षाएं’ बेबसी के आलम में जीने को मजबूर हैं. मेरे जैसे चंद लोग कभी मेहरबान हुए, तो पचास-सौ रुपये पकड़ाकर उनकी मदद कर देते हैं और बात वहीं की वहीं खत्म हो जाती है. इससे उनकी समस्या का कोई खास हल नहीं निकल पाता. उनकी समस्याओं की जड़ तक पहुंचकर उसे मिटाने का बीड़ा कौन उठाता है? ट्रेन के अंदर जो मंजर मैंने देखा वो देश के हर हिस्से में देखा और महसूस किया जा सकता है. कोई पूछने वाला नहीं है. न कोई व्यवस्था और न ही बड़ी-बड़ी बातें करने वाले गैर – सरकारी संगठन. शायद सरकारें ही नहीं, हम सभी अपने स्वार्थ के लिए जी रहे हैं. समाज की डगमगाती नैया को धारा के विपरीत खींचकर ले जाने की हिम्मत किसी में भी नहीं है. 

(लेखक टीवी पत्रकार हैं और नोएडा में रहते हैं)