सीवान : बिहार सरकार की सीमा समाप्त

फोटो : तहलका आर्काइव
फोटो : तहलका आर्काइव

हाल ही में सीवान जाना हुआ. मशहूर मोदियाइन की दुकान पर लिट्टी-चोखा खाया और लोगों से बतकही हुई. मिट्टी के बर्तनों के लिए मशहूर बबुनिया रोड पर भी चहलकदमी हुई. मिट्टी के बर्तन की दुकानों पर आने वाले लोगों से मुलाकात होती है. सब जगह एक ही सवाल होता है- बताइए सीवान की पहचान के बारे में. सबके पास ढेरों बातें होती हैं अपने सीवान पर, लेकिन ज्यादातर बातें इतिहास की होती हैं. लोग राजेंद्र बाबू से बात की शुरुआत करते हैं. इतिहास के पन्ने दर पन्ने पलटते हैं. इस दौरान उनके चेहरों पर गर्व का भाव नजर आता है. बताते हैं कि पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू यहीं से हुए. मजहरूल हक साहब यहीं के हैं, आजादी की लड़ाई के दौरान जिन्होंने अपनी पूरी संपत्ति कांग्रेस को दान दे दी. उन्हीं की जमीन पर पटना में सदाकत आश्रम बना है, जो कांग्रेस का राज्य मुख्यालय है. कुछ लोग बताते हैं कि खुदाबख्श साहब का नाम सुना है, जिनके नाम पर देश में चर्चित पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी है, वे भी यहीं के थे. अतीत के और भी पन्ने खुलते रहते हैं. लोग बताते हैं कि जयप्रकाश बाबू की धर्मपत्नी जयप्रभाजी यहीं की थी न! जयप्रभा जी के बाबू जी ब्रजकिशोर बाबू भी यहीं के हुए, उन्हें भला कौन नहीं जानना चाहता. महान संगीतकार चित्रगुप्त यहीं के हैं, जिनके बेटे संगीतकार जोड़ी आनंद-मिलिंद हैं. शाहजहां के बेटे दाराशिकोह के नाम पर बसे दरौली का किस्सा बताया जाता है. सीवान शहर में बुढ़िया माई के मंदिर की कहानी बताई जाती है कि कैसे उसे पहले जंगली माई कहते थे. महेंद्रा शिव मंदिर की कहानी बताई जाती है. कुछ नई कहानियां बताई जाती हैं. जैसे- टीवी पर आने वाले ‘सिया के राम’ सीरियल में हनुमान की भूमिका निभा रहे दानिश सीवान से ही हैं. जेएनयू के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर की कहानी बताई जाती है कि वह भी तो इसी सीवान जिले के हैं और आज होते तो देश के एक महत्वपूर्ण नेताओं में से एक होते. चंद्रशेखर पर बात निकलती है तो हम उसका विस्तार पाने की कोशिश करते हैं. उन्हें मार दिए जाने की बात पर बात करना चाहते हैं लेकिन बैठकी में बात पलट जाती है. राजेश नामक एक नौजवान कहते हैं, ‘आप क्या जानना चाहते हैं सीवान के बारे में? यह बिहार की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में भूमिका निभाने वाला प्रमुख जिला है. आपको मालूम है न कि बिहार की अर्थव्यवस्था में रेमिटेंस मनी (विदेश में काम कर रहे कामगार द्वारा अपने देश भेजी जाने वाली रकम) का योगदान कितना महत्वपूर्ण होता है. साल 2015-16 में सीवान और पड़ोसी जिला गोपालगंज रेमिटेंस मनी में पहले पायदान पर रहा था. यही ट्रेंड पिछले साल भी था. 2014-15 में जीपीओ यानी मुख्य डाकघर के जरिए सीवान-गोपालगंज में 1800 करोड़ आए थे. उसी साल वेस्टर्न यूनियन मनी ट्रांसफर के जरिए 62 हजार रुपये का मनीआॅर्डर पहुंचा था. जानिए कि साल 2007 से 2012 के बीच 1,98,000 पासपोर्ट अकेले सीवान जिले से वेरीफाई हुए थे और उन्हीं सालों के दरम्यान गोपालगंज जिले से 1,53,000 पासपोर्ट वेरीफाई हुए. हमारे यहां से इतनी संख्या में लोग सउदी अरब, यूएई, कतर, ओमान, कुवैत आदि देशों में जाते हैं. भारत दुनिया में रेमिटेंस मनी की अर्थव्यवस्था में पहला स्थान रखता है, बिहार देश में दूसरा स्थान रखता है और जानिए कि पूरे बिहार में जितना भी रेमिटेंस मनी आता है, उसका 70 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ सीवान-गोपालगंज में आता है.’

बिहार के अलग-अलग हिस्सों में कितने ही दिग्गज हुए लेकिन सब मिट गए और अधिकांश का नामोनिशान नहीं है लेकिन शहाबुद्दीन दिन-ब-दिन इसलिए मजबूत होते गए क्योंकि पटना से उन्हें शह मिलती रही और सीवान में वे समानांतर सरकार चलाते रहे. जनता को उनके लोग दिनदहाड़े सताते रहे लेकिन पटना ने अपनी आंखों पर पट्टी बांधे रखी

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सीवान के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद बिहार में बढ़ते अपराधीकरण की चर्चा फिर से होने लगी है. अपराधीकरण की इस चर्चा के बीच शहाबुद्दीन की भी चर्चा होती है, जो पिछले कुछ दशकों में सीवान की ‘इकलौती’ पहचान बनकर उभरे हैं. सीवान की पहचान पर बात करने में कोई भी उन्हें बीच में नहीं लाना चाहता. बातचीत में कई किस्से-कहानियां आपस में टकरा जाते हैं लेकिन शहाबुद्दीन का नाम लेने से लोग कतराते ही नजर आते हैं. यह कहने पर कि इन दिनों तो सीवान पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या की वजह से चर्चा में है तो राजेश कहते हैं, ‘आप असल बात पर अभी आए. पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बारे में जितना आप जानते होंगे, उतना ही हम लोग भी जानते हैं. उनकी हत्या के संबंध में दर्जन भर कहानियां हवा में तैरती रहीं. कभी बताया गया कि प्रेम प्रसंग में हत्या हुई, कभी कहा गया कि शहाबुद्दीन जेल में जो जनता दरबार लगाते थे, उसकी तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई, उसी तसवीर को अखबार में छाप देने के कारण उनकी हत्या हुई. इस बीच सीवान जेल से शहाबुद्दीन को भागलपुर भेज दिया गया. जेल में जनता दरबार में भाग लेने गए 50 के करीब लोगों को भी पुलिस ने हिरासत में लिया. यह कहानी दुनिया जानती है और हम लोग भी इतना ही जानते हैं.’

इसके बाद सीवान के रहने वाले संतोष से बात होती है. वे कहते हैं, ‘सीवान का यह नाम क्यों पड़ा मालूम है? कौशल राज के समय यह सीमांत इलाका था, सीमांत से यह सीवान बन गया.’ सीवान से कुछ ही दूरी पर मैरवा नाम का कस्बा है. वहां के रहने वाले एक शिक्षक संतोष पाठक ने पिछले कुछ सालों की मेहनत के बाद एक खामोश क्रांति की है. बिहार की हैंडबाॅल टीम में अधिकांश लड़कियां मैरवा की ही होती हैं. एक बार तो बिहार की टीम में नौ लड़कियां वहीं की थीं. रानी लक्ष्मीबाई क्लब बनाकर वर्षों से यह काम पाठक कर रहे हैं लेकिन सीवान में उनका नाम उतना नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था. संतोष आगे हमें दोन के बारे में बताते हैं. कहते हैं, दोन गुरु द्रोणाचार्य का इलाका है, उन्हीं के नाम पर इसका नाम दोन पड़ा.’ फिर पूछते हैं, ‘पिछले साल हसनपुर के बनियापट्टी गांव के शंभू महतो की बेटी पूजा महतो के बारे में तो सुना ही होगा. कितना साहस का काम किया उन्होंने. विद्या बालन रोज टीवी पर प्रचार करती नजर आती हैं कि ‘जहां सोच, वहां शौचालय’ और शौचालय नहीं तो शादी नहीं लेकिन पूजा ने उस प्रचार को हकीकत में साबित किया है. पूजा की शादी के बाद जब विदाई होने वाली थी उन्हें मालूम चला कि जिस घर में वह ब्याह कर जा रही हैं, वहां शौचालय ही नहीं है. ऐसे में पूजा मना कर देती है कि वह ससुराल नहीं जाएगी. इसके बाद पंचायत बैठती है कि पूजा गलत कर रही हैं लेकिन वह अपनी बात पर अड़ी रहती हैं. मजबूर होकर लड़के के पिता को कहना पड़ता है कि वे पहले जा रहे हैं, जल्द ही शौचालय बनवा देते हैं, तब बहू आएगी.’ संतोष घूमा-फिराकर शहाबुद्दीन का नाम लिए बिना सीवान की पहचान को स्थापित करने के लिए बहुतेरी कोशिश करते हैं. बात करते-करते दरौंदा की बात होती है.  दरौंदा यानी वह इलाका, जो चार साल पहले तब चर्चा में आया जब वहां की विधायक जगमातो देवी का असमय निधन हो गया. वे नीतीश कुमार की पार्टी जदयू से विधायक थीं. उपचुनाव होना था. जगमातो के बेटे अजय सिंह कुख्यात थे. उन पर कई आपराधिक मामले चल रहे थे, सो अजय को टिकट दिया नहीं जा सकता था. खरमास के दिन चल रहे थे. बिहार में खरमास में शादियां होती नहीं लेकिन टिकट देने के लिए नीतीश कुमार के इशारे पर फटाफट अजय ने शादी कर ली और उनकी पत्नी को टिकट मिला और वे चुनाव जीतकर विधायक बन गईं.

सीवान में पिछले दिनों पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या कर दी गई
सीवान में पिछले दिनों पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या कर दी गई

संतोष कई लोगों से मुलाकात करवाते हैं लेकिन कोई भी खुलकर शहाबुद्दीन पर बात करने को तैयार नहीं होता. सब आश्वस्त हो जाना चाहते हैं कि मेरा मोबाइल बंद है या नहीं. कहीं मैं किसी की आवाज रिकाॅर्ड तो नहीं कर रहा. कहीं मैं शहाबुद्दीन का ही आदमी तो नहीं. सीवान में पहले से ही शहाबुद्दीन के नाम से यह खौफ रहा है. लोग गलती से भी खुलकर उनके बारे में बातें करने से बचते रहे हैं लेकिन राजदेव रंजन की हत्या के बाद से पूरे इलाके में एक अजीब किस्म का खौफ पसरा हुआ दिखता है. कोई खुलकर यह नहीं बताता कि शहाबुद्दीन के कारण कैसे यह खूबसूरत-सा इलाका बदनामी का पर्याय बन गया है. पत्रकार राजदेव रंजन के गांव हक्कामगांव में भी सन्नाटा पसरा है, भय का माहौल है. कोई कुछ नहीं कहना चाहता, कुछ नहीं बताना चाहता. रंजन के पिता राधे चौधरी सिर्फ इतना कहते हैं, ‘हम छोटे लोग हैं. गरीब लोग हैं. बड़े लोगों से नहीं टकरा सकते. कोई मेरे बेटे को पत्रकार होने के कारण मारेगा, ऐसा तो कभी सोचा नहीं था. ऐसा संभव भी तो नहीं. इतने लोग तो खबर लिखते हैं.’ रंजन के बड़े भाई कालीचरण, जो पेशे से घड़ीसाज हैं, वे बहुत कुछ कहना चाहते हैं लेकिन वे भी बस इतना ही कहते हैं, ‘मीडिया क्या कर सकती है? सीबीआई जांच का दबाव और माहौल बनाने तक सहयोग कर सकती थी. सबको मालूम है कि मेरा भाई क्यों मारा गया, किसने मारा लेकिन कोई बताएगा नहीं!’ कालीचरण सही कहते हैं. सीवान में कोई कुछ बताने को तैयार नहीं होता. सीवानवालों में यह डर और भय अकारण नहीं है. सीवानवालों ने अपने शहर को कुख्यातपन के जरिए विख्यात होते देखा है. सब जानते हैं कि शहाबुद्दीन भले जेल में हों, भले उन्हें भागलपुर शिफ्ट कर दिया गया हो, भले उनके जनता दरबार पर कड़ाई कर दी गई हो लेकिन सीवान में कहीं पत्ता भी हिलता है तो उसकी खबर उनको होती है. शहाबुद्दीन के बारे में हम जानने की कोशिश करते हैं लेकिन सभी जगह एक चुप्पी रहती है. सिर्फ शहाबुद्दीन ही नहीं, नए रंगरूट राजद नेता उपेंद्र सिंह के बारे में भी कोई कुछ नहीं बोलना चाहता. उपेंद्र सिंह तो फिर भी एक नेता हैं. छुटभैयों के बारे में भी कोई कुछ नहीं बोलना चाहता. पिछले तीन साल में ही तीन बड़ी घटनाओं को सीवानवालों ने करीब से देखा है. व्यवसायी चंदा बाबू के दो बेटों को जिंदा तेजाब से नहलाकर मार दिए जाने के बाद दो साल पहले मामले के चश्मदीद उनके एक और बेटे राजीव की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई. सबने देखा है कि सांसद ओमप्रकाश सिंह के मीडिया सलाहकार श्रीकांत भारती को कैसे नवंबर 2014 में मार डाला गया. और अब राजदेव रंजन की हत्या कर दी गई है. यह तो फिर भी हालिया दिनों की बात हुई. सीवानवाले जानते हैं कि पटना में बैठकर कोई भी सरकार भले ही पूरे राज्य में कानून व्यवस्था बहाल करने की बात कहे लेकिन सीवान पिछले दो दशक से अधिक समय से पटना के नियंत्रण से मुक्त रहा है. चाहे वह लालू प्रसाद यादव का समय रहा हो, राबड़ी देवी का या फिर नीतीश कुमार और भाजपा का समय रहा हो या अब नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव के गठजोड़ का समय रहा हो. सीवान में बिहार सरकार की सीमा समाप्त हो जाती है. सब जानते हैं कि शहाबुद्दीन से असल लड़ाई जमीनी स्तर पर अब तक सिर्फ भाकपा माले जैसे दल ही लड़ते रहे हैं. बाकी भाजपा से लेकर राजद और जदयू जैसी पार्टियों को अपने उम्मीदवारों तक को तय करने में भी मुश्किलें होती हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में सीवान में यह चर्चा आम थी कि भले ही पार्टी कोई लड़े, उनके प्रत्याशियों पर आखिरी मुहर शहाबुद्दीन ही लगा रहे हैं. यह चर्चा हवाबाजी नहीं. इसे तब और बल मिला था जब भाजपा जैसी पार्टी ने, जो पटना में बैठकर शहाबुद्दीन का विरोध करती है, रघुनाथपुर विधानसभा सीट से अपने निवर्तमान विधायक कुंवर का टिकट काटकर मनोज सिंह को दे दिया था. सीवान वाले जानते थे कि मनोज सिंह कौन थे. मनोज सिंह को शहाबुद्दीन के पूर्व शूटर के रूप में जाना जाता है. मनोज की बात सिर्फ सीवानवाले ही नहीं जानते, पूरे बिहार में उनके नाम का हंगामा मचा था. आरा के भाजपाई सांसद आरके सिंह ने खुलेआम कहा था कि पैसे से भाजपा के नेता अपराधियों को भी टिकट बेच रहे हैं. मनोज सिंह कहते हैं, ‘ये आरोप बेबुनियाद था. हमें तो खुद डर रहता है इसलिए बाॅडीगार्ड लेकर चलते रहे हैं. हम तो सिर्फ शहाबुद्दीन के गांव के हैं, साथ पढ़े हैं, इसलिए आसानी से शूटर का आरोप लगा दिया गया था.’ 2003 से शहाबुद्दीन जेल में हैं. 2009 मंे उनकी पत्नी हीना चुनाव हार चुकी हैं, इस हिसाब से देखिए तो इनका जलवा कम होना चाहिए था, रुआब उतरना चाहिए था लेकिन वह कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. ऐसा क्यों, यह कोई नहीं बताता चाहता. सब बताते हैं कि जब पूरे बिहार में लालू प्रसाद यादव का ‘माई’ समीकरण यानी मुस्लिम-यादव समीकरण बना, तब भी सीवान में उस तरह से खुलकर माई समीकरण नहीं बन सका. मुस्लिम और यादव धरातल पर एक नहीं हो सके लेकिन वोटों का गणित सेट होता रहा और उनका कब्जा बना रहा. एक-एक कर कई बातें बताई जाती हैं कि शहाबुद्दीन का गणित क्या रहा है. लोग बताते हैं कि असल में शहाबुद्दीन का उतना खौफ सीवान में कभी नहीं चलता. बिहार के अलग-अलग हिस्सों में कितने ही दिग्गज हुए लेकिन सब मिट गए और अधिकांश का तो नामोनिशान नहीं है लेकिन शहाबुद्दीन दिन-ब-दिन इसलिए मजबूत होते गए क्योंकि पटना से उन्हें शह मिलती रही और सीवान में वे समानांतर सरकार चलाते रहे. उनके लोग सरेआम कभी पुलिसवाले को थप्पड़, कभी गोलियां मारते रहे. गिरफ्तार करने गई पुलिस को उनके लोग गोलियों से मारकर भगाते रहे, आम आदमियों को उनके लोग दिनदहाड़े सताते रहे, मारते रहे लेकिन पटना ने सीवान को बिहार से बाहर किसी अन्य राज्य या देश का हिस्सा मानकर अपनी आंखों पर पट्टी बांधे रखी और शहाबुद्दीन का कद बढ़ता गया.

‘पटना ने गुहार सुननी बंद कर दी तो भला-बुरा, न्याय-अन्याय सबकी उम्मीद बस शहाबुद्दीन के दरबार से ही बच गई थी. छोटा-बड़ा हर  फरियादी उनके पास पहुंचने लगा. यह सिलसिला साल 2000 के पहले से ही शुरू हुआ, जो अब तक जारी है. 2009 से शहाबुद्दीन पर चुनाव लड़ने से रोक लगा दी गई है. हीना चुनाव हार चुकी हैं. अब उनके बेटे ओसामा नए नायक के रूप में है’

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फोटो : तहलका आर्काइव

शहाबुद्दीन के बारे में सीवान में सब परोक्ष रूप में बात करना चाहते हैं, प्रत्यक्ष तौर पर नहीं. शहाबुद्दीन के गांव प्रतापपुर के ही रहने वाले एक सज्जन नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘शहाबुद्दीन जब काॅलेज में पढ़ता था, तभी अपराध की दुनिया में कदम रख दिया था. 19 साल की उम्र में यानी 1986 में ही पहली बार अपराध की दुनिया में शहाबुद्दीन का नाम सुना गया. फिर जमशेदपुर में तिहरा हत्याकांड हुआ तो उसमें नाम आया, शहाबुद्दीन के नाम से भय होने लगा. शहाबुद्दीन ने चतुराई दिखाई. सही समय पर राजनीति में कदम रख दिया. लालू प्रसाद ने आशीर्वाद दिया. जनता दल की युवा इकाई से जुड़े. फिर 1990 में टिकट मिल गया और चुनाव जीत गया. फिर 1995 में चुनाव जीता. लालू प्रसाद मेहरबान होते गए. 1996 में संसद में भेजने के लिए सांसदी का चुनाव लड़वा दिया और शहाबुद्दीन जीत गया. 1997 में जनता दल के बाद राष्ट्रीय जनता दल बना. शहाबुद्दीन ने लालू प्रसाद का साथ दिया, कद और बढ़ा. शहाबुद्दीन ने मौन की राजनीति शुरू कर दी, लेकिन एक बड़ी फौज खड़ी की, जो हर तरह का काम करती रही. 2001 में शहाबुद्दीन ने एक काम किया कि उनके एक शागिर्द मनोज यादव को जब पुलिस गिरफ्तार करने पहुंची तो एक पुलिस अधिकारी संजीव कुमार को शहाबुद्दीन ने थप्पड़ मारा. यह बात जंगल में आग की तरह फैली. बाद में पुलिस गिरफ्तार करने पहुंची तो शहाबुद्दीन के लोगों के साथ पुलिस को घंटों तक गोलीबारी करनी पड़ी. दो पुलिसकर्मियों समेत कई लोग मारे गए, शहाबुद्दीन फरार हो गया. ऐसी घटनाओं का असर यह पड़ा कि सामान्य लोगों की बात कौन करे, पुलिस और प्रशासन के लोग ही खौफजदा रहने लगे. नतीजा यह हुआ कि सीवान में सारे फैसले शहाबुद्दीन के लोग ही करने लगे. निजी विवाद के निपटारे से लेकर तमाम तरह के फैसले. जब प्रशासन ने काम करना बंद कर दिया था, पटना ने गुहार सुननी बंद कर दी तो भला हो या बुरा, न्याय-अन्याय सबकी उम्मीद बस शहाबुद्दीन के दरबार से ही बच गई थी. लोग साहेब कहने लगे. छोटे से छोटे, बड़े से बड़े फरियादी पहुंचने लगे. यह सिलसिला साल 2000 के पहले से ही शुरू हुआ, जो अब तक जारी है, तभी कुछ दिनों पहले सीवान जेल में जनता दरबार में पहुंचे लोगों को गिरफ्तार किया गया और बताया गया कि कार्रवाई हुई है, जबकि सच्चाई यह है कि यह दरबार कोई आज से नहीं लग रहा. 2009 से शहाबुद्दीन पर चुनाव लड़ने से रोक लगा दी गई है. हीना चुनाव हार चुकी हैं. अब शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा का नाम नए नायक के रूप में है. ओसामा साहेब नहीं कहे जाते लेकिन बिहार मंे छोटे सरकार और छोटे साहब का चलन बहुत है, सो उनके लिए भी वही उपनाम चलाया जा रहा है.’ इसके बाद प्रतापपुर के ये सज्जन कहते हैं, ‘सब यहीं भूल जाइए कि हमने आपको कुछ बताया है. सामान्य जानकारी देने के बाद भी लोग डरते हैं.’ फिर संतोष कहते हैं, ‘चलिए, शहाबुद्दीन की कहानी तो अंतहीन है. यहां उनके लोगों का नारा ही है, हम विवाह भी कराते हैं, विवाह होने के बाद पति-पत्नी मंे अनबन हो तो उसका निपटारा करवाकर वंश को चलते रहने का मार्ग भी प्रशस्त भी करते हैं और जरूरत पड़ने पर वंशावली को आगे बढ़ने से रोक भी देते हैं.’