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67 साल की उम्र. 11 सालों तक खुद चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति. पिछले लोकसभा चुनाव में पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती, दोनों की बुरी हार. लोकसभा चुनाव के पहले ही दिल का ऑपरेशन और डॉक्टरों की सख्त हिदायत कि न ज्यादा भागदौड़ करनी है, न ही तनाव लेना है. कुल मिलाकर इस विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव इन्हीं स्थितियों के साथ खड़े थे. एक तरीके से टूटे हुए और बिखरे हुए भी. चुनाव शुरू होने के पहले जिस मुलायम सिंह यादव को ‘समधीजी-समधीजी’ कहकर लालू गले लगा रहे थे, वही ऐन मौके पर अलग हो गए. मुलायम सिर्फ अलग ही नहीं हुए, अपने बेटे अखिलेश को बिहार भेजकर लालू पर निशाना भी साधने-सधवाने लगे. इसके अलावा लालू को सहयोगी कांग्रेस द्वारा भी उपेक्षा ही मिल रही थी. राहुल-सोनिया द्वारा लालू को भाव न दिए जाने के किस्से सामने आ चुके थे. इतने के बाद उनके अपने दल के अंदर छुटभइये नेताओं की बगावत और विरोध अलग था. लालू की मुसीबत यहीं खत्म नहीं हो रही थी, नए-नवेले साथी बने नीतीश कुमार के दोस्त बन जाने के बाद भी उनसे अछूत की तरह बर्ताव कर रहे थे. रही-सही कसर मीडिया पूरी कर रहा था, जहां या तो नरेंद्र मोदी हीरो थे या फिर नीतीश कुमार.
इन तमाम कमजोरियों को देखते हुए ही विपक्षी भाजपा ने एक सुनियोजित रणनीति बनाई कि उसके नेता लगातार लालू यादव पर प्रहार करेंगे. लालू की इन कमजोर स्थितियों को देखते हुए बिहार में एक बड़े तबके ने यह माहौल बनाया कि नीतीश ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है. वे लालू के साथ गए हैं, अब कहीं के नहीं रहेंगे, न तीन में बचेंगे, न तेरह में. देश के कई बड़े विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों ने लिख दिया कि नीतीश कुमार ने अपना भविष्य तो दांव पर लगाया ही, बिहार का भविष्य भी दांव पर लगा दिया है. कुल मिलाकर इस बार के चुनाव में लालू के हिस्से में कांटे ही कांटे थे. कोई और नेता होता तो वह किसी तरह अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ता. कदम फूंक-फूंक कर रखता. अपने लक्ष्य को छोटा कर निर्धारित करता और फिर उसे ही पाने के लिए दिन-रात एक करता. लेकिन लालू ने सब उलटा किया, वह भी अपने तरीके से, अपने अंदाज में. डॉक्टरों ने ज्यादा भाग-दौड़ करने को मना किया तो वे बिहार में सबसे ज्यादा चुनावी सभा करने वाले नेता बन गए. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने 11,600 किमी. चलकर 251 चुनावी सभाएं कीं. पप्पू यादव जैसे नेता रोजाना विरासत को चुनौती देते रहे तो वह जवाब में एक ही बात करते रहे कि पप्पू के बारे में लालू बोलेगा तो वह खुद को बड़ा नेता समझने लगेगा, इसलिए हम कुछ नहीं बोलेंगे. भाजपा ने जंगलराज कहकर निशाना साधना शुरू किया तो उसका जवाब उन्होंने अपने अंदाज में दिया. पहले एक पोस्टर जारी किया, जिस पर लिखा, ‘जब दिया गरीबों को आवाज, उसे कहता है जंगलराज.’ फिर एक वाक्य को सभी सभाओं में दोहराने लगे, ‘भाजपा वाला जंगलराज कहता है तो हम कहते हैं कि जंगल में तुम क्या करने आए हो, जाओ जंगल से बाहर.’ जिस कांग्रेस को लालू से परेशानी थी, उस कांग्रेस की बड़ी नेता सोनिया गांधी को सामने बिठाकर ही लालू ने यह एहसास करा दिया कि आप भ्रम में न रहें. साथ रहकर भी संकोच का आवरण ओढ़कर थोड़ा अलगाव-दुराव का भाव रखने वाले नीतीश को तो उन्होंने इतने तरीके से सिर्फ मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बना दिया और यह सब देखते-जानते हुए भी नीतीश कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं रहे.
लालू ने चुनाव के दौरान सब उलटा किया, वह भी अपने अंदाज में. डॉक्टरों ने ज्यादा भाग-दौड़ करने से मना किया तो वे सबसे ज्यादा चुनावी सभा करने वाले नेता बन गए. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने 11,600 किमी. चलकर 251 चुनावी सभाएं कीं
इसका नतीजा सबके सामने है. इतनी मुश्किल स्थितियों में लालू बिहार के चैंपियन बनकर उभरे हैं. तमाम राजनीतिक भविष्यवाणियों को झुठलाते हुए उन्होंने खुद के लिए 190 सीटों का लक्ष्य निर्धारित किया और 178 सीटें लाकर उसे प्राप्त करने के करीब भी पहुंच गए. यह सब कैसे हुआ? क्या नीतीश कुमार के साथ आने की वजह से? क्या जनता के मन में भाजपा के प्रति बढ़ी नाराजगी ने लालू को इतना बड़ा मौका दे दिया? क्या संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण वाले बयान ने उन्हें फिर से सबसे बड़ा नेता बन जाने का अवसर दे दिया? ऐसे तमाम सवाल हो सकते हैं और इसके जवाब भी लोग अपने हिसाब से दे रहे हैं, लेकिन जो लालू को जानते हैं, उनकी राजनीति को जानते हैं, वे यह भी जानते और मानते हैं कि सिर्फ इन वजहों से ही लालू प्रसाद को इस बार के चुनाव में ‘मैन ऑफ द मैच’ जैसा नहीं बन जाना था.
लालू की बड़ी जीत को जो नीतीश कुमार का साथ मिलना बता रहे हैं, उनसे यह पूछा जा सकता है कि फिर नीतीश कुमार खुद के लिए ऐसा करिश्मा क्यों नहीं कर पाए, जो लालू ने किया? नीतीश कुमार के पास तो प्रशांत किशोर जैसे चुनावी मैनेजर भी थे. ऐसे कई नेता भी थे, जो टीवी पर नीतीश का पक्ष संभालते थे. उनके पास अतिपिछड़ों, महादलितों और महिलाओं को ज्यादा हक देने का श्रेय भी था तो फिर वे उसे महागठबंधन के साथ ही अपने दल के पक्ष में भी उस तरह से क्यों नहीं करवा पाए. जबकि लालू इसमें सफल रहे. जो लोग मोहन भागवत के बयान को ही एकमात्र बड़ा कारण मानते हैं तो उनसे यह पूछा जा सकता है कि लालू तो संघ प्रमुख के बयान से पहले ही जातीय जनगणना को सार्वजनिक किए जाने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे. जो लोग उनकी इस बड़ी जीत को सिर्फ जाति की राजनीति के जीत के चश्मे से देख रहे हैं और उसे ही स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे यह भी पूछा जा सकता है कि जाति की राजनीति की शुरुआत तो भाजपा ने ही की. सबसे पहले उसने चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति तय की और उसके बाद जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान जैसे नेताओं को साथ मिलाकर बिसात बिछाई. खुद भाजपा ने प्रधानमंत्री को अतिपिछड़ा जाति का बताने से लेकर तमाम तरह की कोशिशें की. क्यों भाजपा का यह ऐलान भी काम नहीं आ सका कि जीत हासिल होने पर कोई पिछड़ा ही मुख्यमंत्री बनेगा? इतने के बाद बिहार में जिस एक बात को सबसे ज्यादा बार कहा जा रहा है, वह यह कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अगर आरक्षण का बयान नहीं दिया होता तो लालू इतने बड़े नेता नहीं बनते और भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं होती. इन लोगों से यह पूछा जा सकता है कि लालू की यह जीत अगर सिर्फ संघ प्रमुख के बयान की वजह से ही हुई है तो फिर उस बयान का खंडन करने में प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के 36 नेता क्यों सफल नहीं हो सके? वह यह बात बिहार की जनता को क्यों नहीं समझा पाए कि आरक्षण पर कोई संकट नहीं है. अकेले लालू कैसे यह समझाने में सफल हो गए कि आरक्षण पर खतरा है. और अगर ऐसा है, तब यह बात भी माननी चाहिए कि लालू की कनविंसिंग पावर प्रधानमंत्री समेत 36 बड़े नेताओं की तुलना में ज्यादा रही.
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चुनाव के बाद बिहार में बहुत सारे लोग इस बात की हवा फैला रहे हैं कि परिणाम नीतीश या लालू की जीत से ज्यादा भाजपा की हार वाला है. भाजपा को हराने का अभियान था, इसलिए यह बड़ी जीत हासिल हुई? ऐसे तर्कों के एवज में यह सवाल भी बनता है कि जब किसी तरह भाजपा को हराने का ही अभियान था तो फिर पप्पू यादव जैसे नेता, जो पैसा लेकर अपनी पूरी ताकत लगा दिए, वे अपने कोसी के इलाके में भी प्रभावी क्यों नहीं हो सके. मायावती की बसपा आरक्षित सीटों पर भी जीत के लिहाज से न सही, वोट प्रतिशत बढ़ा लेने में सफल क्यों नहीं हो सकी. इस बार साथ होकर लड़े छह वाम दल ज्यादा सीटों पर जीत क्यों नहीं हासिल कर सके. इनमें सिर्फ माले ही तीन सीट को क्यों ला सकी. बिहार में कभी बहुत मजबूत रही भाकपा जैसी पुरानी पार्टी खुद को उभारने में क्यों सफल नहीं रही?
‘बिहार को हमसे ज्यादा कौन बूझेगा. हम बड़े विश्लेषकों और सर्वेक्षणों के फेर में नहीं पड़ता हूं. हम जनता की भीड़ देखकर समझ गए थे कि बाजी इस बार पलट गई है और हमारे हाथ में आने वाली है’
इतने सारे सवालों के जवाब बडे़-बड़े विश्लेषक अपने तरीके से देते हैं. वो जीत-हार के हजार कारण देते हैं लेकिन लालू एक लाइन में जवाब देते हैं, ‘बिहार को हमसे ज्यादा कौन बूझेगा. हम बडे़ विश्लेषकों और सर्वेक्षणों के फेर में नहीं पड़ता हूं. हम जनता की भीड़ देखकर समझ गया था कि बाजी इस बार पलट गई है और हमारे हाथ में आने वाली है, इसलिए मैं 190-190 कहता रहा और अपनी धुन में रहा. अपने मसले से टस से मस नहीं हुआ. मैं जनता की नब्ज जानता हूं.’
लालू प्रसाद का यह जवाब सही भी लगता है. वे जनता की नब्ज पकड़ने के उस्ताद नेता हैं. यह पहला मौका नहीं है जब लालू ने जनता की नब्ज को पकड़ा या समझा. कई बार वे नब्जों की गति को भी अपने हिसाब से ढाल लेते हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘इस बार के बिहार चुनाव में एक बड़ी चाल यह रही कि भाजपा लालू पर निशाना साधने की पूरी रणनीति बनाने में लगी रही और उसके अनुसार काम करती रही, लेकिन लालू ने अपनी चालों से पूरी भाजपा टीम को अपनी पिच पर लाकर मैच खेलने को मजबूर कर दिया. लालू की पिच पर उनसे बड़ा बल्लेबाज, बॉलर और फील्डर कोई हो ही नहीं सकता. आप देखिए कि भाजपा नीतीश कुमार को परास्त करने के लिए विकास बम से लेकर पैकेज बम तक फोड़ती रही और तमाम तरह की बातें करती रही लेकिन लालू ने मोहन भागवत का बयान आने से पहले से ही जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने की मांग करके भाजपा को अपनी पिच पर लाने की कोशिश की. अंत में वह सफल भी रहे. भाजपा के बड़े नेताओं के साथ ही प्रधानमंत्री खुद लालू के बिछाए जाल में फंसे. वो भी जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति की बात करने लगे. और उसी दिन लग गया कि अब लालू से पार पाना इनके बस की बात नहीं.’
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘चुनाव में पिछड़ों की अभूतपूर्व गोलबंदी हुई है. 1995 वाली स्थिति बनी है. यह गोलबंदी सिर्फ और सिर्फ लालू प्रसाद ही करवा सकते थे. दरअसल लालू प्रसाद एक ऐसे नेता हैं, जिनकी 100 गलतियों को 100 वर्षों तक पिछड़े व दलित माफ करते रहेंगे और अगले 100 वर्ष तक अगड़े उनसे अलगाव का भाव बरतते रहेंगे.’ राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘यह चुनाव परिणाम अब तक किसी को समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा कैसे हुआ, क्यों हुआ लेकिन यह सबको समझ में आ रहा है कि इस बार के चुनावी मैच में मैन ऑफ द मैच लालू प्रसाद ही रहे.’
मणि जीत के इस समीकरण को नीतीश और लालू के अलग-अलग फ्रेम में बांधते हैं. ऐसा सिर्फ वही नहीं कर रहे. पूरे बिहार में अब इस पर बात जारी है कि जीत के हीरो नीतीश हैं या लालू. यह बहस चुनाव परिणाम के बाद से शुरू हुई है और एक तरह से यह बेजा बहस है. बिहार के चुनाव को देखें तो यह साफ होगा कि नीतीश जीत के बाद हीरो बने या जीतकर भी वे उतने बड़े हीरो नहीं बन सके, जितने बड़े स्वाभाविक तौर पर लालू बन गए. इसका आकलन सिर्फ उन्हें या उनकी पार्टी को मिली सबसे ज्यादा सीटों से नहीं किया जा सकता बल्कि पूरे चुनाव में या चुनाव के पहले लालू ने जो नीति-रणनीति अपनाई, उससे वे हीरो बनते गए.
नीतीश की ही सभा में लालू ने बहुत आसानी से नीतीश और कांग्रेस दोनों को बैकफुट पर लाकर एक बड़ी चाल चल दी. ऐसा करके लालू ने पूरे बिहार में पिछड़ों को और उसमें भी विशेषकर यादवों को यह संदेश दे दिया कि वे गोलबंद हों
इसके लिए लालू प्रसाद यादव की रणनीति को लोकसभा चुनाव के बाद से ही देखना होगा. लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद लालू प्रसाद ने ही यह कहा था कि हमारे वोटों के बिखराव का फायदा बिहार में भाजपा या नरेंद्र मोदी को मिला है. लालू के इस बयान के बाद से ही हिसाब मिलाकर देखा गया तो आंकड़े गवाही देने लगे. लालू की ही पहल थी कि लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद नीतीश के साथ मिलकर बिहार में उपचुनाव लड़े और अच्छी जीत मिली. यह एक तरीके से टेस्ट करने जैसा था. उसके बाद लालू ही पहल करते रहे, बात आगे बढ़ती गई लेकिन इस बढ़ती हुई बात के बावजूद नीतीश, लालू की तरह आश्वस्त नहीं दिखे. लालू हमेशा इस महागठजोड़ में सफलता के सूत्र देखते रहे, आंकते रहे. नीतीश साथ आने को राजी होकर भी दूरी का भाव बरतते रहे. जब चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत हुई तो नीतीश कुमार के सलाहकार प्रशांत किशोर ने नीतीश के नेता के रूप में चयन हुए बिना ही पटना में ‘यूं ही बढ़ता रहे बिहार’, ‘एक बार और नीतीश कुमार’ वाले बड़े-बड़े पोस्टर टंगवा दिए. इसे लेकर नीतीश से सवाल हुए. उन्होंने कहा कि उन्हें जानकारी नहीं. उसके बाद नीतीश नेता चुने गए, लालू ने ही उनके नाम का ऐलान किया लेकिन नीतीश अकेले ही प्रचार अभियान चलाते रहे. पटना से लेकर बिहार के अलग-अलग हिस्सों में नीतीश के ही पोस्टर-होर्डिंग लगते रहे, गाने बजते रहे. इन सबसे लालू को दूर रखा गया. अब कहा जा रहा है कि यह प्रशांत किशोर के प्रचार अभियान का हिस्सा था कि लालू प्रसाद को पहले थोड़ा दूर रखा जाए, फिर बाद में पोस्टर पर लाया जाए, साथ होने का एहसास कराया जाए.
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अब ऐसे तमाम तर्क दिए जा रहे हैं कि सब कुछ रणनीति के तहत हुआ लेकिन यह एक तरीके से सच्चाई को झुठलाने वाली बात है. सच यही है कि जब नीतीश कुमार के बड़े और आकर्षक होर्डिंग लग रहे थे और पूरा पटना रातोंरात उनके पोस्टरों से पट रहा था तब भाजपा, पप्पू यादव और लोजपा जैसी पार्टियां भी उस पोस्टर वार में अपनी जगह तलाशने में लगे हुए थे. उस वक्त लालू अपने तरीके से चुनावी अभियान में लगे हुए थे. वे जातिगत जनगणना को जारी करने की मांग को लेकर पटना के गांधी मैदान में धरना-प्रदर्शन कर रहे थे. अपने समर्थकों के साथ राजभवन मार्च कर रहे थे. जब सबके पोस्टर चमकने लगे और सबने अपने-अपने रथ निकालने शुरू किए तो लालू राजधानी पटना में टमटम यात्रा निकालकर सबके अभियान की हवा निकाल रहे थे. उस टमटम यात्रा से ही अंदाजा लग गया था कि भाजपा या नीतीश कुमार कितना भी प्रचार कर लें, लालू कोई भी एक अभियान चलाकर सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेंगे. उसके बाद भी नीतीश की उन्हें लेकर हिचक दूर नहीं हुई. वे दूरी का भाव बरतते ही रहे. सीटों का बंटवारा हो जाने, टिकट का वितरण हो जाने के बाद भी साझा प्रचार अभियान की कमी लगातार दिखती रही और बार-बार बताया जाता रहा कि नीतीश कुमार व उनके साथी ऐसा कर ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ वाली स्थिति पाना चाहते थे. अगर लालू प्रसाद के साथ हार हुई तो भी वे अपनी छवि बचाकर रखना चाहते थे ताकि वे कह सकें कि उन्होंने कभी शालीनता नहीं तोड़ी, कभी जाति की बात नहीं कही और जीत जाएंगे तो सेहरा उनके माथे बंधेगा ही. लेकिन दूसरी ओर लालू प्रसाद इन तमाम किस्म की नीतियों-रणनीतियों से अलग अपनी धुन में लगे रहे. भाजपा को हराने से पहले उन्होंने नीतीश कुमार और कांग्रेस को चित किया, उन्हें बैकफुट पर लाने का काम किया. दोनों को चित करने के लिए और दोनों के तारणहार के तौर पर चुनाव से बहुत पहले उन्होंने खुद को बहुत ही चतुराई से स्थापित कर दिया. यह पटना के गांधी मैदान में आयोजित स्वाभिमान सम्मेलन में हुआ, जब उनके साथ नीतीश कुमार और सोनिया गांधी दोनों थे. उस सभा में एक वरिष्ठ नेता की तरह जब उन्हें सबसे अंत में बोलने का मौका मिला तो लालू ने भारी भीड़ को देखकर उसके अनुसार ही बोलना शुरू कर दिया. सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस की सोनिया गांधी को समझाया कि वे उन्हें कमतर आंकने की कोशिश न करें और वे जो उन्हें उपेक्षित करती हैं, वह ठीक नहीं है. सोनिया के सामने ही दूसरे शब्दों में यह बात कहकर लालू ने एक तरीके से कांग्रेस को अपना संदेश दे दिया. उसके बाद उन्होंने कहा कि नीतीश डरते रहते हैं, इन्हें धुकधुकी लगी हुई है कि हम उनको सीएम बनाएंगे कि नहीं लेकिन हम यहां भारी भीड़ में उन्हें आश्वस्त करना चाहते हैं कि उनको ही सीएम बनवाएंगे, डरे नहीं. नीतीश कुमार की ओर से आयोजित सभा में लालू ने बहुत आसानी से नीतीश और कांग्रेस दोनों को बैकफुट पर लाकर एक बड़ी चाल आसानी से चल दी. ऐसा करके लालू प्रसाद ने आसानी से पूरे बिहार में पिछड़ों को और उसमें भी विशेषकर यादवों को यह संदेश दे दिया कि वे गोलबंद हों, क्योंकि महागठबंधन की जीत पर नीतीश भले ही सीएम बनें लेकिन असली हीरो और किंगमेकर लालू प्रसाद ही रहेंगे. लालू यादवों की नब्ज पकड़ चुके थे कि नीतीश और भाजपा द्वारा बार-बार खलनायक और जंगलराज का पर्याय बनाए जाने के बाद वे सत्ता में वापसी की छटपटाहट में हैं. ऐसी स्थिति में श्रेष्ठताबोध की राजनीति ही यादवों को गोलबंद होने का अवसर देगी. लालू ने सिर्फ उसी मंच से अपने को किंगमेकर जैसा साबित नहीं किया बल्कि बीच में जब-जब मौका आया, तब-तब उन्होंने इस संदेश को अधिकाधिक फैलाने की कोशिश की कि वे हीरो हैं, किंगमेकर रहेंगे.
जब सबने अपने-अपने रथ निकालने शुरू किए तो लालू राजधानी पटना में टमटम यात्रा निकाल सबके अभियान की हवा निकाल रहे थे. उससे ही अंदाजा लग गया था कि कितना भी प्रचार कोई कर ले, लालू सबका ध्यान अपनी ओर खींच ही लेंगे
लालू प्रसाद से यह पूछने पर कि नीतीश तो विरोधी थे आपको ही पछाड़कर आगे गए थे, फिर कैसे उनके साथ समीकरण बना रहे हैं और जीत का दावा कर रहे हैं? तब उनका जवाब था, ‘अरे हम नीतीश को भेजे थे हनुमान बनाकर दुश्मन के खेमे में कि जाओ और भेद लेकर आओ और लंका का दहन भी कर आओ. नीतीश ने हनुमान की भूमिका निभा दी है तो अब लौट आए हैं हमारे खेमे में.’ लालू ऐसी बातें कहकर खुद को बड़े नेता के तौर पर स्थापित करते रहे और चुनाव परिणाम आ जाने के बाद भी जब नीतीश को हीरो बनाने की तमाम कोशिशें होती रहीं और मीडिया ‘नीतीशगान’ में लगा रहा तब लालू ने एक बार में बाजी पलटकर फिर से संदेश दे दिया कि नीतीश उनके शागिर्द हैं, सेनापति भर हैं, असली हीरो, राजा, गुरु या किंगमेकर वही हैं. चुनाव परिणाम आने के दिन भारी भीड़ में एक बार फिर लालू ने कहा कि नीतीश ही सीएम बनेंगे और अब यहीं रहकर बिहार को संभालेंगे. मैं अब बनारस से लेकर दिल्ली तक जाकर राष्ट्रीय राजनीति को देखूंगा, समझूंगा और मोदी का विरोध करूंगा. ऐसा कहकर लालू जीत जाने के बाद भी बाजी को अपने हाथ में रख लिए कि नरेंद्र मोदी के विरोध और उस विरोध से निकली जीत के असली हीरो वही हैं.
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/i-believe-in-secularism-says-lalu-prasad-yadav-after-grand-alliance-s-massive-win-in-assembly-election-2015/” style=”tick”]पढ़ें लालूप्रसाद यादव से पूरी बातचीत[/ilink]
ऐसा कहकर लालू प्रसाद कोई आत्ममुग्धता वाली बात भी नहीं कर रहे बल्कि यह पूरे चुनाव में देखा भी गया कि वही हीरो रहे, जिन्होंने भाजपा की पूरी टीम का मुकाबला किया. बीच चुनाव में तो कई ऐसे मौके आए, जब उन्होंने न सिर्फ शब्दावलियों व मुहावरों को बदलकर भाजपा को नीतीश से लड़ने की बजाय खुद से लड़ने के लिए मजबूर किया बल्कि बातों में उलझाकर जाति और संप्रदाय की राजनीति पर भी आ जाने को विवश भी किया. इतना ही नहीं प्रचार के दौरान ऐसे कई मौके आए, जब उन्होंने अपने पहले से निर्धारित सभाओं में भी फेरबदल कर दिए और इसके लिए उन्हें किसी की सलाह या सुझाव की जरूरत नहीं रही. कई बार ऐसा हुआ, जब लालू ने फेर बदल कर अपनी सभा को वहां तय करवा दिया, जिस इलाके में नरेंद्र मोदी की सभा हुई. वो मोदी की सभा के पहले या तो उस इलाके में मोदी का खेल बिगाड़ते रहे या मोदी की सभा के बाद उनकी बातों की असर की धार को कमजोर करते रहे.
लालू प्रसाद ने भाजपा से पहले नीतीश से एक बड़ी बाजी सीटों के बंटवारे में जीती. सीटों के बंटवारे में नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए ज्यादा सीट चाहते थे लेकिन लालू ने बराबरी के बंटवारे की शर्त रखी. बहुत दिनों तक मतभेद रहा लेकिन लालू एक बार अपनी बात कहकर फिर अपने अभियान में ही लग गए. नीतीश कुमार को मजबूर होना पड़ा कि वे लालू प्रसाद की शर्तों पर आएं. यह नीतीश की मजबूरी भी थी क्योंकि लोकसभा चुनाव में यह साबित हो गया था कि अलग-अलग लड़ने की स्थिति में लालू प्रसाद उनसे ज्यादा बड़े नेता साबित होंगे और ऐसा लोकसभा चुनाव में अधिक सीट और अधिक वोट पाकर लालू ने साबित भी कर दिया था.
‘चुनाव में पिछड़ों की अभूतपूर्व गोलबंदी हुई है. यह गोलबंदी सिर्फ लालू ही करवा सकते थे. वह ऐसे नेता हैं, जिनकी 100 गलतियों को 100 वर्षों तक पिछड़े व दलित माफ करते रहेंगे और अगले 100 वर्ष तक अगड़े उनसे अलगाव का भाव बरतते रहेंगे’
महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘लालू प्रसाद यादव का कोई भी काम योजनाबद्ध नहीं होता और यही उनके काम करने का अंदाज है.’ सुमन की बातों का विस्तार करें तो उसे कई स्तरों पर देख सकते हैं और तब साबित होता है कि वे नब्ज समझने के साथ ही रणनीतियों को मन ही मन बनाने और फिर खुद से ही उसे लागू कर देने के उस्ताद नेता रहे हैं. इसका एक बेहतरीन नमूना और मिलता है. उसे एक किस्से के रूप में एक बड़े पत्रकार सुनाते हैं जो अपने एक साथी को लेकर लालू प्रसाद यादव के पास गए थे. यह वह समय था जब नीतीश कुमार परेशान से थे. आचार संहिता लगने के कोई एक सप्ताह पहले की बात है. नीतीश पटना में दो महत्वपूर्ण योजनाओं का उद्घाटन करने की हड़बड़ी में थे. उन्हें पटना के बेली रोड पर बने फ्लाईओवर और बेली रोड पर ही बन रहे राज्य संग्रहालय का उद्घाटन करना था. तब तक दोनों में से किसी का काम पूरा नहीं हो सका था. फ्लाईओवर बन गया था लेकिन एक तरफ का काम बाकी था और राज्य संग्रहालय तो अब तक पूरा नहीं हो सका है. नीतीश कुमार तब दोनों के उद्घाटन की तिथि एकबारगी से तय कर दोनों महत्वपूर्ण निर्माण कार्यों का श्रेय अपने पास रखकर भविष्य में अपने काम का हिसाब जोड़ने में व्यस्त थे. उस समय भाजपा की ओर से एक बयान आया कि उसने देश को पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री दिया. लालू प्रसाद उस समय उसी वरिष्ठ पत्रकार और उनके साथी के साथ बैठे हुए थे. वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि जिस समय अमित शाह का यह बयान आया उस समय लालू को इसके बारे में बताया गया. तब लालू कुछ नहीं बोले. वह पत्रकार कहते हैं कि उन्होंने लालूजी से कहा कि भाजपा झूठ बोल रही है, पहले पिछड़े प्रधानमंत्री तो देवगौड़ा थे, जो आप लोग ही दिए थे. यह सुनते ही लालू प्रसाद तुरंत गति में आ गए. उनके दिमाग से यह बात निकली हुई थी. तुरंत देवगौड़ा को फोन मिलवाया. सीधे पूछे कि किस जाति के हैं आप देवगौड़ाजी. जवाब मिला. लालू प्रसाद ने तुरंत मीडिया वालों को फोन मिलवाया कि मेरा बयान जारी करवाओ की भाजपा झूठ बोल रही है, पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री हम लोगों ने दिया था-देवगौड़ा के रूप में. अमित शाह को जवाब दो. वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि लालू प्रसाद को वे और उनके साथी समझाते रहे कि शाम को आराम से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताइए, आप सब काम अचानक, बिना प्लानिंग के, इतनी हड़बड़ी में क्यों करते हैं. तब लालू ने जवाब दिया कि इतना मौका राजनीति में नहीं मिलता. हम नहीं बोलेंगे, कोई दूसरा बोल देगा तो लालू एक मौका खो देगा, मुंह देखता रह जाएगा. वह पत्रकार वहीं बैठे रहे, पांच मिनट में लालू ने अमित शाह को जवाब देकर अपने बयान को देश भर में चर्चित करवा दिया. पत्रकार कहते हैं कि उनके साथ चुनाव प्रबंधन का जो उस्ताद साथी गया था, वह एकटक लालू प्रसाद यादव को देखता ही रह गया कि इतने तेज दिमाग के नेता को चुनाव प्रबंधक की क्या जरूरत है.
ऐसा नहीं कि लालू यादव ने उस रोज अनायास ही यह किया. वह रोजाना की राजनीति में बहुत कुछ अनायास, बिना प्लानिंग करते रहते हैं लेकिन कुछ भी प्लानिंग के साथ न करके सब कुछ प्लानिंग के साथ ही करते हैं. उन्होंने 1997 में राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री भी बनाया था तो सबने कहा था कि यह अचानक बिना सोचे समझे फैसला ले रहे हैं, अब इनकी नइया डूब जाएगी. रसोई से निकाल एक महिला को सत्ता के शीर्ष पर बिठाकर अपनी राजनीति खत्म कर रहे हैं. लेकिन उस समय लालू प्रसाद ने अगर यह फैसला नहीं लिया होता और राबड़ी देवी की जगह किसी और को मुख्यमंत्री बना दिया होता तो आज वह बिहार के राजनीतिक इतिहास में दफन हो चुके होते. लालू प्रसाद ने अपने सालों को आगे बढ़ाया, उससे बदनामी हुई तो समय रहते ही कैसे अलग हुआ जाता है, उसे भी दिखाया. लालू प्रसाद ने समझदारी के साथ पहले अपनी बेटी मीसा को ही राजनीति में लाकर आजमाया, जब बात नहीं बनी तो मीसा को भविष्य की राजनीति के लिए सुरक्षित रख दिया.
‘अरे हम नीतीश को भेजे थे हनुमान बनाकर दुश्मन के खेमे में कि जाओ, भेद लेकर आओ और लंका का दहन भी कर आओ. नीतीश ने हनुमान की भूमिका निभा दी है तो अब लौट आए हैं हमारे खेमे में’
इस बार जब पप्पू यादव से लेकर तमाम दूसरे नेता दोनों बेटों को राजनीति में लाने को लेकर उन पर हमला बोलते रहे, राजद के नेता भी इसका विरोध करते रहे लेकिन लालू प्रसाद जान गए थे कि इस बार नहीं तो फिर आगे कभी नहीं. और लालू प्रसाद ने इस बार अगड़ा-बनाम पिछड़ों की लड़ाई भी एक बार सही समय पर ही शुरू की. उनके दल में सवर्ण नेताओं की भरमार रही है. राजपूत जाति से उनके दल में बड़े नेता रहे हैं लेकिन लालू लोकसभा चुनाव में ही जान गए थे कि राजपूतों की निष्ठा उनके दल के प्रति नहीं बल्कि राजपूत उम्मीदवारों के प्रति ज्यादा है, इसलिए इस बार उनके दल के नेता रघुवंश प्रसाद सिंह जो भी बोलते रहे, लालू प्रसाद ने ज्यादा नोटिस नहीं लिया. जगतानंद सिंह जैसे दिग्गज नेता मौन साधे रहे, लालू प्रसाद ने उस पर ध्यान नहीं दिया. लालू ने इस बार अगर सीधे तौर पर भूमिहारों का विरोध किया और अपने दल से एक भी भूमिहार को टिकट नहीं दिया तो यह भी सिर्फ इस चुनाव में अगड़ा बनाम पिछड़ा होने की कहानी नहीं थी. लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार भूमिहारों की शरण में जाकर, भूराबाल साफ करो जैसे नारे पर माफी मांगकर, अपने कार्यकर्ताओं को भूमिहारों को सामंत न कहने की हिदायत आदि देकर आजमा चुके थे कि इसका उन्हें कोई फायदा नहीं मिला था, भूमिहार उनसे नहीं जुड़ सके थे. महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘लालू प्रसाद जानते हैं कि वे एक ऐसे नेता हैं, जो अगले कई साल तक बिना गलती के भी सवर्णों के बीच खलनायक ही बने रहेंगे, इसलिए उन्होंने इस बार आखिरी बार की तरह आर पार की लड़ाई छेड़ी.’ कहने का मतलब यह कि लालू प्रसाद एक ऐसे नेता हैं, जो स्थितियों को देखकर अपना दांव, अपनी रणनीति सब बदलते रहते हैं. हालांकि पिछले 25 वर्षों से उन्होंने सिर्फ एक बात में बदलाव नहीं किया है और वह है भाजपा विरोध.