साख पर सवाल

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ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर बढ़ाए जाने के खिलाफ जल सत्याग्रह बिना किसी परिणाम के खत्म हो जाना इस तरह के आंदोलनों के प्रति गिरते विश्वास की तरफ इशारा करता नजर आ रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि आंदोलन के प्रति इस बार सरकार की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया गया. ये कुछ वैसा ही था जैसे भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आम आदमी पार्टी ने राजनीति में कदम रखा था. दिल्ली की जनता ने उन पर भरोसा किया और अरविंद केजरीवाल के दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद पता लगा कि आम आदमी पार्टी भी वैसी ही है जैसै कि दूसरे दल.

मध्य प्रदेश के अखबारों में इसे लेकर कुछ इस तरह की खबरें प्रकाशित हुईं ‘आंदोलन के 32वें दिन 12 मई को आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह घोघलगांव पहुंचे और किसानों से चर्चा के बाद सीधे पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से मोबाइल पर बात करने के बाद जल सत्याग्रह को खत्म करने का निर्णय ले लिया.’ पिछले 11 अप्रैल से किसान कमर भर पानी में खड़े होकर इसलिए जल सत्याग्रह कर रहे थे क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार ने एक बार फिर ओंकारेश्वर बांध के जलस्तर को 189 मीटर से बढ़ाकर 191 मीटर करने का निर्णय किया है. इससे उस क्षेत्र में आने वाले किसानों की उपजाऊ जमीनें डूब क्षेत्र में आ गई हैं. तकरीबन 32 दिनों तक पानी में खड़े रहने के बाद आंदोलनकारियों के पैरों से खून रिसने लगा था. कुछ आंदोलनकारी गंभीर रूप से बीमार भी हो गए थे लेकिन इस बार सरकार ने इन पर ध्यान नहीं दिया. जबकि 2012 में जब इसी घोघलगांव में डूब प्रभावितों ने जल सत्याग्रह किया था तो मध्य प्रदेश सरकार आंदोलन के 17वें दिन ही जमीन के बदले जमीन देने और बांध के जलस्तर को 189 मीटर पर नियंत्रित रखने के आदेश देने को मजबूर हो गई थी.

नैतिक बल जन आंदोलनों की सबसे बड़ी पूंजी होती है, लेकिन जल सत्याग्रह में आम आदमी पार्टी के कूदने के बाद उनका नैतिक बल कम हो गया है

पूरे आंदोलन के दौरान सरकार का रवैया उदासीन रहा. वह न तो प्रभावितों की बात ही सुनने को तैयार थी और न ही अपनी बात से झुकने को. इस आंदोलन को लेकर राज्य सरकार शुरू से ही आक्रामक रही. उसके एक मंत्री ने तो इस सत्याग्रह को आधारहीन भी करार दे दिया था. प्रदेश भाजपा द्वारा भी इसे आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक का जल सत्याग्रह बताया गया था. आंदोलन के नेता मुख्यमंत्री से बात करने के लिए अनुरोध करते रहे, जिससे ओंकारेश्वर बांध से प्रभावित सत्याग्रहियों के पुनर्वास को लेकर कोई समाधान निकल सके लेकिन इसके जवाब में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नर्मदा बचाओ आंदोलन और आम आदमी पार्टी को विकास और किसान विरोधी कह रहे थे. उनका कहना था कि क्षेत्र की जनता नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ नहीं है और कुछ लोगों को भड़काकर कथित जल सत्याग्रह चलाया जा रहा है इसलिए सरकार उनके दबाव में नहीं आएगी.

इस बार ऐसा क्या बदल गया है कि 31 दिनों तक सत्याग्रह चलने के बाद भी सरकार असंवेदनशील बनी रही? दरअसल इस बार सत्याग्रह अकेले नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में नहीं चल रहा था. आप आदमी पार्टी भी इसमें पूरी सक्रियता के साथ शामिल थी. शायद इसीलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह सहूलियत थी कि वे इससे एक आंदोलन से ज्यादा सियासत के तौर पर पेश आ सकें. इसलिए जब आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की ओर से आंदोलनकारियों के समर्थन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक पत्र लिखते हुए बांध प्रभावितों के उचित पुनर्वास की मांग की गई और आरोप लगाया गया कि इस संबंध में केजरीवाल ने उनसे फोन पर बात करने की भी कोशिश की थी, लेकिन मुख्यमंत्री की तरफ से समय नहीं दिया गया. बाद में शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि उन्हें अरविंद केजरीवाल का कोई पत्र नहीं मिला है. उनकी कुमार विश्वास से बात हुई है जिन्हें सारी जमीनी हकीकत बता दी गई है.

इस मामले में प्रदेश भाजपा भी कूदती हुई दिखाई पड़ी. आंदोलन के बीच में जब कुमार विश्वास घोघलगांव आए थे तो उन्होंने यह आरोप लगाया कि इंदौर से घोघलगांव जाते समय भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनके काफिले को रोकने की कोशिश की और पथराव किया. जवाब में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने इस आरोप को बेबुनियाद बताते हुए घोघलगांव सत्याग्रह को कुछ लोगों की नौटंकी करार दिया था. शिवराज सिंह चौहान की इस बेरुखी का मूल कारण आंदोलनकारियों की मांगें नहीं बल्कि आप आदमी पार्टी थी. वह बिलकुल नहीं चाहते थे कि आम आदमी पार्टी को ऐसा कोई मौका दिया जाए जिससे वह मध्य प्रदेश में किसानों के मुद्दों पर प्रभावी तरीके से लड़ती हुई दिखाई दे और उसे यहां एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने का मौका मिल जाए. दरअसल शिवराज सिंह का लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का एक प्रमुख कारण विपक्षी पार्टी का लगातार कमजोर होते जाना है. कांग्रेसी क्षत्रपों की आपसी खींचतान से यह स्थिति पैदा हुई है. कोई तीसरी पार्टी ऐसी है नहीं जो चुनौती खड़ी कर सके. ऐसे में शिवराज सिंह भला क्यों चाहेंगे कि इस समीकरण में किसी तरह का कोई बदलाव हो और कोई नया खिलाड़ी मैदान में उन्हें चुनौती देता नजर आए.

एक प्रभावित किसान का कहना है कि सत्ताधारी पार्टी के लोग कहने लगे थे हम नौटंकी कर रहे हैं. 32 दिनों तक पानी में खड़े होकर कोई नौटंकी नहीं करता

गौरतलब है कि 2012 में  सरकार ने इन्हीं सत्याग्रहियों की मांगें मानकर जल सत्याग्रह समाप्त कराया था लेकिन इस दफा सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और आखिरकार सत्याग्रहियों को खुद ही आंदोलन स्थगित करना पड़ा. सरकार इसे एक ऐसे आंदोलन की तरह ट्रीट नहीं कर रही थी जिसकी विश्वसनीयता और नैतिक ताकत चुनावी राजनीतिक दलों से ऊपर रहा करती थी. इस बार तो वह इसे एक राजनीतिक पार्टी द्वारा चलाए जा रहे एक आंदोलन की तरह देख रही थी जिसका मकसद इसके बहाने चुनावी फायदा उठाना है. 2012 में स्थिति दूसरी थी आम आदमी पार्टी का गठन नहीं हुआ था और नर्मदा बचाओ आंदोलन कोई राजनीतिक चुनौती नहीं थी.

इस सत्याग्रह के प्रमुख चेहरे आलोक अग्रवाल नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक धड़े के नेता तो हैं, साथ ही वे आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक भी हैं. पार्टी के उभार के बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन के दो प्रमुख नेता आलोक अग्रवाल और मेधा पाटकर इसके साथ जुड़े थे. मेधा पाटकर ने मुंबई और आलोक अग्रवाल ने खंडवा से लोकसभा चुनाव भी लड़ा था. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण विवाद के बाद मेधा पाटकर ने खुद को पार्टी से अलग कर लिया था लेकिन आलोक पार्टी के साथ बने हुए हंै. नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ लंबे समय से जुड़े रहे कई लोगों का मानना है कि इसके नेताओं के चुनावी राजनीति में जाने से आंदोलन की विश्वसनीयता पर प्रभाव पड़ा है, इसलिए इसे लेकर सरकार का रवैया पहले के मुकाबले अलग था. मध्य प्रदेश में लंबे समय से विभिन्न जन आंदोलनों से जुड़े रहे समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता अनुराग मोदी कहते हैं, ‘जन आंदोलनों की सबसे बड़ी पूंजी नैतिक बल होती है. हम राज्य के सामने कोई बड़ी ताकत नहीं होते, फिर भी सरकारों को हमारे नैतिक बल के सामने झुकना पड़ता है. नर्मदा बचाओ आंदोलन के पास भी यह बल था. वह प्रमुखता से यह रेखांकित कर पा रहे थे कि सरकारों के पास विकास का जो मॉडल है वह गलत और अन्यायपूर्ण है, इसलिए इस ‘विकास’ को नकारना है. इसी आधार पर अब तक जो विस्थापित हुए उनके पुनर्वास के लिए संघर्ष किया जा रहा था, लेकिन सत्याग्रह में आम आदमी पार्टी के कूदने के बाद उनका नैतिक बल कम हो गया. मामले में राजनीति होने की भनक लगते ही सरकार ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया. मजबूरी में सत्याग्रह को खत्म करना पड़ा.’ इस बार आंदोलन को मध्य प्रदेश के जन संगठनों और लोगों का भी वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा पहले मिला था.

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डूबते को किसका सहारा: आंदोलन के साथ हो रही राजनीति के कारण बांध प्रभावितों का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है

दूसरी तरफ आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल का कहना है, ‘सत्याग्रह के दौरान मध्य प्रदेश सरकार का रुख नकारात्मक रहा. केंद्र और राज्य दोनों में एक ही पार्टी की सरकार है इसलिए अब वह ज्यादा  असंवेदनशील हो गई है. दोनों ही सरकारें किसानों से दूर होकर पूंजीपतियों के पक्ष में जा रही हैं. एक तरफ राज्य सरकार ने जमीन-हदबंदी कानून हटा दिया है तो केंद्र सरकार भी भूमि अधिग्रहण कानून के जरिए किसानों की जमीन उद्योगों को सौंपने के लिए तैयार है.’ यह पूछने पर कि क्या जल सत्याग्रह के साथ सीधे तौर पर आम आदमी पार्टी के जुड़ने से भी शिवराज सरकार का यह रुख सामने आया है, उन्होंने कहा, ‘महत्वपूर्ण यह नहीं है कि मांग कौन कर रहे थे बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि मांगें क्या थीं. लोग पुनर्वास के लिए अपना कानूनी अधिकार मांग रहे थे. लोकतंत्र में हर किसी को ये हक है कि वह लोगों के लिए आवाज उठाए. ऐसे में अगर कोई राजनीतिक पार्टी मानवाधिकार का मुद्दा उठा रही है तो उस पर सवाल खड़ा करना एक खतरनाक संदेश है. आम आदमी पार्टी हमेशा से इस तरह के मुद्दों को उठाती रही है. अफसोस तो यह है कि कोई और पार्टी इन मुद्दों को उठाती ही नहीं. यह सब बहानेबाजी है. सरकार इसका बहाना बनाकर विस्थापितों को उनका कानूनी हक देने से बचने की कोशिश कर रही है.’

इस पर अनुराग मोदी का कहना है, ‘आम आदमी पार्टी से यह पूछा जाना चाहिए कि एक दल के तौर पर बड़े बांध बनाने को लेकर उनका पक्ष क्या है? ऐसा नहीं हो सकता कि आप एक तरफ बांध प्रभावितों के पुनर्वास की लड़ाई लड़ें और दूसरी तरफ आपके और दूसरी पार्टियों के विकास के मॉडल में कोई फर्क भी दिखाई न दे. यह तो बहुत बड़ा विरोधाभास होगा. नर्मदा बचाओ आंदोलन की लड़ाई से भले ही हम बड़े बांध रोकने और प्रभावितों को पूरी तरह से पुनर्वास दिलाने में कामयाब न रहे हों, कम से कम यह विकास के पूरे ढांचे पर सवाल तो खड़ा कर पा रहा था लेकिन इस बार यह भी नहीं हो पाया.’

बहरहाल, इस बार आंदोलन की प्रकृति किस कदर बदली हुई थी इसका नजारा सत्याग्रह के 26वें दिन 7 मई को भोपाल में बोर्ड ऑफिस चौराहे पर हुए प्रदर्शन के दौरान देखने को मिला. इसमें खंडवा जिले से सैकड़ों बांध प्रभावित शामिल हुए थे. प्रदर्शन में आम आदमी पार्टी के पदाधिकारी, कार्यकर्ता समर्थन में मौजूद थे, लेकिन स्थानीय जन संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मौजूदगी वैसी नहीं थी, जो पहले हुआ करती थी. मंच पर आम आदमी पार्टी और नर्मदा बचाओ आंदोलन दोनों के बैनर लगे थे, मगर ज्यादातर आप के नेता दिखाई पड़ रहे थे. तकरीबन 500 प्रभावित लोगों में से ज्यादातर लोग आम आदमी पार्टी की टोपियां पहने हुए थे. हाथों में नर्मदा बचाओ आंदोलन का झंडा भी मौजूद था. इसके अलावा सत्याग्रह की समाप्ति के मौके पर घोघलगांव में आम आदमी पार्टी के नेताओं ने बलात्कार पीड़ित नाबालिग लड़कियों और उनके परिवार के लोगों को मंच पर बुलाया. उन्हें पार्टी की टोपी पहनाकर बिना चेहरा ढंके अपने साथ हुई ज्यादती की कहानी माइक से सुनाने को कहा गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार पीिड़ताओं और उनके परिवार की पहचान को किसी भी हालत में सार्वजनिक नहीं करने के सख्त निर्देश दिए हैं. सत्याग्रह के समाप्ति के समय इसका कोई औचित्य भी नहीं था.

घोघलगांव के प्रभावित किसान अजय भारती का कहना है, ‘सत्ताधारी पार्टी के लोग कहने लगे थे हम नौटंकी कर रहे हैं. 32 दिनों तक पानी में खड़े होकर कोई नौटंकी नहीं करता. हम पर दो से चार लाख रुपये तक का कर्ज चढ़ा हुआ है. ऊपर से हमारी जमीनें भी डुबो दी गई हैं. हमारे पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है. अगर सरकार ने कुछ और महीनों तक हमारी बात नहीं सुनी तो हमारे पास आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. मुख्यमंत्री किसी एक पार्टी का नहीं सभी का होता है. उन्हें सबकी सुननी चाहिए. उन्हें किसान को देखना चाहिए, किसी पार्टी को नहीं.’ इस आंदोलन के साथ हो रही राजनीति के कारण बांध प्रभावितों का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है.