बीते अगस्त की तीन तारीख को रात के लगभग 11 बजे मोहन कुशवाह को एक अंजान नंबर से फोन आता है. रीढ़ की हड्डी में चोट से जूझ रहे मोहन जब तक फोन उठाते तब तक वह कट चुका था. मोहन पिछले 24 घंटे से अपने छोटे बेटे धर्मेंद्र की कोई खोज-खबर न मिलने से परेशान थे. यही हाल उनकी पत्नी और बेटी का भी था. धर्मेंद्र को एक दिन पहले ही पुलिस उठाकर ले गई थी. इस बीच अंजान नंबर से आई कॉल में उन्हें एक उम्मीद की किरण नजर आई.
उन्होंने वापस कॉल की तो दूसरी तरफ से एक महिला ने अपना परिचय ग्वालियर पुलिस की क्राइम ब्रांच में पदस्थ अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एएसपी) प्रतिमा एस. मैथ्यू के रूप में दिया. उन्होंने मोहन से परिवार की जानकारी लेकर फोन काट दिया. शंकाओं से मोहन का मन भर उठा. उन्होंने फिर वही नंबर घुमाया और बेटे के बारे में पूछा. उसके बाद उन्हें जो जवाब मिला वह सुनकर उनके पैरों तले जमीन खिसक गई. बताया गया कि उनका बेटा पुलिस एनकाउंटर में मारा जा चुका है. इस बात का उन्हें भरोसा न हुआ. रात चिंता और बेचैनी में गुजर गई. सुबह जब अखबार उनके हाथों में पहुंचा तो उनकी दुनिया लुट चुकी थी. उनका बेटा वास्तव में पुलिस की गोली का शिकार हो चुका था.
इस कथित एनकाउंटर के बारे में एएसपी प्रतिमा एस. मैथ्यू कहती हैं, ‘यूपी एटीएस ने ग्वालियर पुलिस को आगाह किया था कि जेल में बंद अंतर्राज्यीय शूटर हरेंद्र राणा प्रॉपर्टी डीलर बिल्लू भदौरिया हत्याकांड के गवाह पंकज भदौरिया को मारना चाहता है. ऐसा इसलिए क्योंकि बिल्लू की हत्या में उसका छोटा भाई अरुण भी नामजद है और हरेंद्र की प्रतिज्ञा है कि वह भाई को जेल नहीं होने देगा. अपने खिलाफ चल रहे लगभग हर आपराधिक प्रकरण में राजीनामा कर चुका हरेंद्र, पंकज भदौरिया को राजीनामे के लिए तैयार नहीं करा पा रहा था इसलिए उसने उसे ठिकाने लगाने की योजना बनाई और यह काम सौंपा धर्मेंद्र कुशवाह को. शिवपुरी लिंक रोड के एक खंडहर में धर्मेंद्र जब अपने साथियों के साथ इस काम को अंजाम दे रहा था तब मुखबिर की सूचना के आधार पर पुलिस ने दबिश दी और एक घंटे चली मुठभेड़ में धर्मेंद्र ढेर हो गया, जबकि उसके दो साथी भागने में सफल रहे.’ हालांकि पुलिस की ये कहानी धर्मेंद्र के पिता मोहन कुशवाह सिरे से नकार चुके हैं. उनका दावा है, ‘एनकाउंटर से एक दिन पहले पुलिस उनके बेटे को पूछताछ के नाम पर घर से उठाकर ले गई थी. लॉकअप में मारपीट के दौरान उसकी मौत हुई है. पुलिस एनकाउंटर की मनगढ़ंत कहानी रचकर अपने पापों पर पर्दा डाल रही है.’ अपनी बात के समर्थन में वह धर्मेंद्र के शव पर बने चोटों के निशान भी दिखाते हैं.
मोहन के दावों की पुष्टि धर्मेंद्र की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी करती है, जिसमें बताया गया है कि उनकी मौत गोली लगने से नहीं बल्कि किसी भोथरे हथियार से दी गई चोट के कारण सिर में खून जमा होने से हुई है. पोस्टमॉर्टम करने वाली डॉक्टरों की तीन सदस्यीय टीम का हिस्सा रहे सार्थक जुगलानी बताते हैं, ‘धर्मेंद्र के शरीर पर एक से दो दिन पुरानी कई चोटें थीं, जो किसी भोथरे हथियार से दी गई थीं. चोटें इतनी गंभीर थीं कि सामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति की मौत का कारण बन सकती थीं.’ धर्मेंद्र के मुठभेड़ में मारे जाने की पुलिसिया कहानी इसलिए भी किसी के गले नहीं उतर रही क्योंकि धर्मेंद्र को लगी गोलियों के घाव से खून नाममात्र का निकला है. गोली लगने पर इतना कम खून निकलना तब ही संभव है जब गोली लगने के कई घंटों पहले व्यक्ति दम तोड़ चुका हो. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में डॉक्टरों ने इस बात की भी पुष्टि की है. धर्मेंद्र को दो गोली लगी थी. पहली छाती के नीचे बायीं बांह की साइड में और दूसरी छाती के बायीं ओर ऊपर मारी गई थी. दोनों ही गोलियां शरीर के दूसरी ओर से बाहर निकल गई थीं.
इस पर प्रतिमा मैथ्यू का कहना है, ‘धर्मेंद्र चूंकि अपराधी प्रवृति का था, इसलिए मुठभेड़ के पहले हुए किसी झगड़े में उसे चोटें आईं होंगी. रहा सवाल कम खून निकलने का तो यह चिकित्सीय शोध का विषय है. क्या पता उन चोटों के कारण उसके शरीर में कुछ ऐसी अंदरूनी रासायनिक क्रियाएं हो रही हों जिससे कम खून निकला.’ हालांकि सार्थक जुगलानी उनकी इस कहानी को हास्यास्पद ठहराते हुए बताते हैं, ‘पहली बात चिकित्सीय विज्ञान में ऐसा संभव ही नहीं कि जीवित व्यक्ति को गोली लगे और खून न निकले और दूसरा यह कि धर्मेंद्र शारीरिक रूप से एकदम स्वस्थ था.’ मध्य प्रदेश पुलिस के सेवानिवृत उप पुलिस अधीक्षक एमपी सिंह चौहान कहते हैं, ‘पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देखने के बाद मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि धर्मेंद्र की मौत पुलिस मुठभेड़ में नहीं हुई, उनकी हत्या की गई है.’
वहीं, मुठभेड़ के दौरान दो अपराधियों के भाग जाने की प्रतिमा मैथ्यू की कहानी भी गले नहीं उतरती. विशेषज्ञों का कहना है कि एफआईआर रिपोर्ट में उन्होंने मुठभेड़ स्थल को जिस तरह से घेरा जाना बताया है, उसके बाद किसी के भाग जाने की गुंजाइश ही नहीं बचती, फिर दो बदमाश कैसे भाग गए. वहीं पोस्टमॉर्टम के पहले डॉक्टरों की टीम ने भी मुठभेड़ स्थल का निरीक्षण किया था. वह भी ऐसे ही कई साक्ष्य मिलने का दावा करते हैं जो पुलिस की कहानी पर सवालिया निशान लगाते हैं. अगर धर्मेंद्र का आपराधिक रिकॉर्ड खंगाला जाए तो उस पर शहर के किसी भी थाने में कोई प्रकरण तक दर्ज नहीं है. वह दिन में ऑटो चलाता था और रात को ऑटो स्टैंड पर चौकीदारी करता था.
धर्मेंद्र के बारे में उसके पड़ोसियों का कहना है, ‘वह बस अपने काम से काम रखता था. ज्यादा बोलता भी नहीं था.’
बहरहाल पुलिस की दहशत का क्षेत्र में कुछ ऐसा आलम है कि लोग अपना नाम तक बताना नहीं चाहते. नाम न छापने की शर्त पर एक शख्स बताते हैं, ‘धर्मेंद्र जब 4-5 साल का था, मैंने तब से उसे देखा है. वह बीड़ी, सिगरेट, पान तक नहीं छूता था, किसी की हत्या क्या करेगा. उसके साथ अन्याय हुआ है. दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए.’ वहीं स्थानीय निवासी भगवानदास रत्नाकर का कहना है, ‘पिता के कहने पर पहले वह दोने-पत्तल की दुकान पर बैठा करता था, फिर मोबाइल की दुकान खोली लेकिन वह चली नहीं. उसके बाद वह ऑटो चलाने लगा और पिता के साथ चौकीदारी. पुलिस ने उस मासूम को क्यों मार दिया, समझ नहीं आता.’
यह पहला मौका नहीं है जब ग्वालियर पुलिस की क्राइम ब्रांच की कार्यप्रणाली पर उंगुली उठी हो. पिछले वर्ष हुए मुकेश राठौर एनकाउंटर मामले में उनके खिलाफ हाई कोर्ट का फैसला 21 अगस्त को ही आया है, जिसमें कोर्ट ने एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए क्राइम ब्रांच की टीम पर उचित कानूनी कार्रवाई करने के आदेश दिए हैं. इसी क्राइम ब्रांच ने पिछले वर्ष 21 अक्टूबर को चेन स्नैचिंग की वारदात को अंजाम देकर भागने के दौरान मुकेश राठौर को मार गिराने का दावा किया था. लेकिन मुकेश के परिजनों ने इस पर हंगामा कर दिया. शहर के हजीरा चौराहे पर शव रखकर जाम लगा दिया था और मामले की सीबीआई जांच की मांग की. धर्मेंद्र की तरह ही मुकेश के परिजनों का दावा था कि पुलिस ने मुकेश को महाराजपुरा क्षेत्र के कुंवरपुरा गांव से 20 अक्टूबर को उठाया था तो वह अगले दिन चोरी की घटना को अंजाम देते हुए कैसे पुलिस की गोली का शिकार हो गया? इसके समर्थन में जब गांव के कुछ प्रत्यक्षदर्शी भी सामने आए तो एनकाउंटर की यह कहानी क्राइम ब्रांच ही नहीं प्रशासन के भी गले की हड्डी बन गई. पुलिस जिस समय थाने में मुकेश को थर्ड डिग्री टॉर्चर दे रही थी उसी समय रामेश्वर यादव वहां मौजूद थे. दूसरे दिन जब उन्होंने मुकेश के एनकाउंटर की खबर अखबार में पढ़ी तो मीडिया के सामने आकर पुलिस के झूठ से पर्दा उठा दिया. रामेश्वर यादव के बयान और मुकेश के शरीर पर कई गंभीर चोटों के निशान से प्रशासन बैकफुट पर आ गया और मामले की सीआईडी जांच के आदेश दे दिए.
दूसरी ओर प्रशासन और पुलिस मामले को दबाने की जी तोड़ कोशिश में लग गए. मुकेश के भाई सुनील राठौर बताते हैं, ‘जब रामेश्वर मीडिया के सामने आए तो वहां मौजूद एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उन्हें मामले से दूर रहने की समझाइश दी ताकि हमारा केस कमजोर पड़ जाए. पर वह अपने बयान पर डटे रहे. उनकी गवाही ही पुलिस के खिलाफ आए फैसले में निर्णायक साबित हुई.’ सुनील बताते हैं, ‘मेरे भाई पर पुलिस ने भले ही चोरी-चकारी के कई प्रकरण दर्ज किए हों पर वह बार-बार उन आरोपों से बरी कर दिए गए. फिर भी क्राइम ब्रांच ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. नए सिरे से जिंदगी शुरू करने का बार-बार प्रयास किया लेकिन क्राइम ब्रांच के दो सिपाही जिनमें से एक हत्या के आरोप में जेल तक काट आया है और आज पुलिस से बर्खास्त है, उनके पीछे पड़े रहे. भैया जहां जाते वे वहीं से उन्हें उठा लाते और मामला दर्ज कर लेते. आप खुद ही देखिए क्राइम ब्रांच में ऐसे लोग भी काम कर रहे हैं जो हत्यारे भी हो सकते हैं.’ इस मामले में मुकेश पक्ष की पैरवी करने वाले वकील अवधेश भदौरिया का कहना है, ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मुकेश के शरीर पर पंद्रह से अठारह गंभीर चोटों की पुष्टि हुई थी. मुकेश को तीन हिस्सों में पीटा गया था. कुछ चोटें छह तो कुछ दस से बारह घंटे पुरानी थीं. शरीर पर लगीं इन गंभीर चोटों के कारण ही उनकी मौत हो चुकी थी. पुलिस हिरासत में हुई मौत को छिपाने के लिए पुलिस ने एनकाउंटर की झूठी कहानी रची और कुछ किरदारों को इसमें शामिल कर चेन स्नैचिंग का सीन फिल्मा सबकी आंखों में धूल झोंकने का प्रयास किया.’
बहरहाल, धर्मेंद्र कुशवाह को क्राइम ब्रांच ने कब उठाया? यह साफ नहीं हो पा रहा है. धर्मेंद्र के पिता का कहना है, ‘दो अगस्त की रात 11 बजे पांच–छह पुलिसवाले घर आए और पूछताछ के नाम पर उसे घर से उठा ले गए थे.’ वहीं दूसरी ओर ये बात भी सामने आ रही है कि मोहन कुशवाह किसी दबाव के चलते सच छिपा रहे हैं. धर्मेंद्र को उसके घर से नहीं बल्कि घर से कुछ सौ मीटर की दूरी पर सुनसान जगह से क्राइम ब्रांच वालों ने तब उठाया जब वह खाना खाकर टहलने निकला था. पुलिस द्वारा महिंद्रा बोलेरो में धर्मेंद्र को ले जाते समय दो स्थानीय निवासियों ने भी देखा था. तीन दिन पहले घर में हुई अनबन के चलते धर्मेंद्र एक रात गायब रहा था. इसलिए जब उस रात धर्मेंद्र घर नहीं पहुंचा तो पिता ने सोचा कि शायद वह फिर से उसी तरह कहीं गया हो लेकिन जब उसका सुबह होने पर भी पता नहीं चला तो वह चिंतित हो उठे. तभी उन्हें धर्मेंद्र के अपहरण के दोनों प्रत्यक्षदर्शियों ने रात का घटनाक्रम कह सुनाया जिसके बाद वह बेटे की खोज-खबर के लिए आसपास के थानों में भी गए.
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परिवार वालों को न्याय का इंतजार
पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आने से पहले ही धर्मेद्र के परिजन मामले की न्यायिक जांच के लिए अड़े हुए थे. जांच खत्म होने तक मुठभेड़ में शामिल क्राइम ब्रांच की टीम को बर्खास्त करने या तबादला करने की मांग भी उन्होंने शासन के सामने रखी ताकि दोषी जांच को किसी भी प्रकार से प्रभावित न कर सकें. अपनी मांग के समर्थन में धर्मेंद्र के शव पर लगी चोटों को दिखाते हुए उन्होंने शवगृह से शव ले जाने से इंकार कर दिया.
फिर उनके समर्थन में क्षेत्रीय जनता, कुशवाह समाज और कई राजनीतिक दलों के नेता शवगृह पर आ डटे. विरोध के स्वर बढ़ते देख आनन-फानन में जिला कलेक्टर डॉ. संजय गोयल ने पीड़ित पक्ष और प्रदर्शनकारियों के साथ बैठक बुलाकर न्यायिक जांच के आदेश का मांग पत्र राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को फैक्स किया. साथ ही गृह सचिव और मुख्यमंत्री से फोन पर न्यायिक जांच की स्वीकृति मिलने की बात बताकर जांच जल्द शुरू कराने का आश्वासन दिया. तब जाकर पीड़ित धर्मेंद्र का शव ले जाने तैयार हुआ. तीन दिन बीतने के बाद भी जब न तो न्यायिक जांच के लिखित आदेश आए और न ही मुठभेड़ में शामिल क्राइम ब्रांच की टीम को बर्खास्त किया गया तो राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता ‘पुलिस अत्याचार मिटाओ संघर्ष समिति’ का गठन कर मोहन कुशवाह के साथ अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए. इस धरने की गूंज भोपाल तक पहुंची तो दूसरे ही दिन राज्य सरकार ने जस्टिस सीपी कुलश्रेष्ठ की अध्यक्षता में एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठनकर धरना स्थल पर न्यायिक जांच के लिखित आदेश भिजवा दिए. लेकिन आंदोलनकारी इससे संतुष्ट नहीं हुए और अगले एक महीने तक धरने पर बैठे रहे.
उनकी मांग थी कि जांच को प्रभावित होने से बचाने के लिए मुठभेड़ में शामिल क्राइम ब्रांच की टीम को भी हटाया जाए. साथ ही उन्हें सीपी कुलश्रेष्ठ को जांच की कमान सौंपे जाने पर भी आपत्ति थी. पुलिस अत्याचार मिटाओ संघर्ष समिति के महासचिव भारत देहलवार बताते हैं, ‘जांच के नाम पर शासन केवल लीपापोती कर रहा था. जांच जस्टिस सीपी कुलश्रेष्ठ को थमा दी गई, जिनके भाई स्वयं संभाग के मुरैना जिले में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के तौर पर पदस्थ हैं. ऊपर से मुठभेड़ में शामिल क्राइम ब्रांच की एएसपी प्रतिमा एस. मैथ्यू व उनकी टीम को न तो बर्खास्त किया गया और न ही उनका तबादला हुआ. इससे तो जांच प्रभावित होने की आशंका है और वैसे भी आप ही देखिए जांच आयोग तो बना दिया पर महीने भर से ज्यादा होने को है लेकिन जांच अब तक शुरू नहीं की जा सकी है.’
उधर, बैकफुट पर आता देख पुलिस ने खुद मोर्चा संभाला और आंदोलनकारी और पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टरों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. आंदोलन के संरक्षक काशीराम देहलवार के भतीजे नीलेश को झूठे आरोप में फंसाकर हवालात में डाल दिया गया. पोस्टमॉर्टम करने वाली डॉक्टरों की टीम पर दबाव बनाने के लिए एएसपी प्रतिमा मैथ्यू ने पीएम रिपोर्ट से संबंधित क्वैरी मांगने के लिए अस्पताल अधीक्षक को पत्र लिख दिया. पर दोनों ही तरफ से पुलिस को मुंह की खानी पड़ी. न तो नीलेश पर आरोप साबित हुए और डॉक्टर भी अपनी दी पीएम रिपोर्ट पर डटे रहे. 25 अगस्त को राज्य सरकार के विरोध में माकपा और समानता दल ने 194 गिरफ्तारियां दीं.
मामला राजनीतिक तूल पकड़ चुका था. छह सितंबर को मुख्यमंत्री का ग्वालियर दौरा प्रस्तावित था और दो दर्जन से अधिक दलों के सहयोग से बनी ‘पुलिस अत्याचार मिटाओ संघर्ष समिति’ ने मुख्यमंत्री को काले झंडे दिखाने की योजना बनाई थी. सूबे के मुखिया के सामने अपनी किरकिरी होने से बचाने के लिए पुलिस और प्रशासन ने आंदोलन को तोड़ने की रणनीति पर अमल करना शुरू किया जिसमें उन्हें दो सत्तारूढ़ दल के स्थानीय विधायकों का साथ मिला.
समिति के संरक्षक काशीराम देहलवार बताते हैं, ‘प्रशासन-पुलिस जब धर्मेंद्र के न्याय की आवाज नहीं दबा सके तो उन्होंने आंदोलन में फूट के बीज बोने शुरू कर दिए. मोहन को आर्थिक सहायता, उनके दूसरे बेटे को सरकारी नौकरी और दूसरी मांगों को पूरी करवाने का आश्वासन देकर मुख्यमंत्री से सीधी मुलाकात करवाने का वादा किया. पूरा कुशवाह समाज इस धरने प्रदर्शन में शामिल था इसलिए कुशवाह समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले दो स्थानीय भाजपा विधायक भी मुख्यमंत्री के सामने अपनी किरकिरी नहीं होने देना चाहते थे. दोषी को सजा मिले और पीड़ित को न्याय इसे दरकिनार कर उन्होंने बस अपनी राजनीति की. लिहाजा पिता मोहन न्याय के लिए भटक रहे हैं.’
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दूसरी ओर, धर्मेंद्र के पुलिस के निशाने पर आने की जो कहानी सामने आई है उसके अनुसार धर्मेंद्र और हरेंद्र राणा का दाहिना हाथ मनीष कोली बचपन से ही एक-दूसरे से परिचित थे. दोनों ही हजीरा क्षेत्र में रहते थे. समय के साथ मनीष कोली अपराध की दुनिया से प्रभावित होकर उसका हिस्सा बन गया और धर्मेंद्र ने परिवार की जिम्मेदारी उठा ली. पांच सदस्यों वाले धर्मेंद्र के परिवार में उसके माता-पिता, एक बड़ा भाई और एक बहन थे. पिता एक ऑटो स्टैंड की चौकीदारी करते थे. धर्मेंद्र बचपन से ही पढ़ाई के साथ पिता के काम में हाथ बंटाया करता था. पहले पिता ने उसे दोने-पत्तल की दुकान खुलवा दी. दुकान नहीं चली तो धर्मेंद्र ने मोबाइल का काम शुरू किया लेकिन कुछ दिन बाद वह भी बंद करके ऑटो चलाने लगा. इसके अलावा धर्मेंद्र ने एक प्राइवेट काॅलेज से बीएससी में दाखिला भी लिया था. हालांकि दो साल पहले गिरने से पिता की रीढ़ की हड्डी में चोट लगने के कारण परिवार की सारी जिम्मेदारी धर्मेंद्र के कंधों पर आ गई. बड़ा भाई एम. टेक कर रहा था, उसकी पढ़ाई में कोई व्यवधान न पड़े इसलिए धर्मेंद्र ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी. अब वह दिन में ऑटो चलाता था और रात को ऑटो स्टैंड पर चौकीदारी करता था. बीच में समय मिलता था तो ऑटो स्टैंड के बाहर ही गाड़ियों की धुलाई कर लेता था. कभी-कभार राह चलते उसकी मुलाकात मनीष कोली से हो जाती थी. अपनी ही दुनिया में खोया रहने वाला धर्मेंद्र इस बात से अंजान था कि मनीष कोली पुलिस और क्राइम ब्रांच के निशाने पर है. इन्हीं मुलाकातों के चलते धर्मेंद्र क्राइम ब्रांच की नजर में आया. हरेंद्र राणा और मनीष कोली की गिरफ्तारी के बाद जब पुलिस को संदेह हुआ कि ये दोनों जेल से ही कोई आपराधिक षड्यंत्र रच रहे हैं तो उन्होंने इनके संपर्कों को टारगेट करना शुरू कर दिया. इसी कड़ी में धर्मेंद्र को क्राइम ब्रांच ने उठा लिया और हरेंद्र राणा से उसके संबंध उगलवाने के लिए उसे तब तक पीटा, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई. इसके बाद क्राइम ब्रांच ने मुकेश राठौर एनकाउंटर की तरह ही फिर एक पटकथा लिखी और उसे एनकाउंटर का नाम दे दिया.
वैसे दोनों ही मामलों में शासन-प्रशासन के रवैये को देखकर लगता ही नहीं कि वह पीड़ितों को न्याय दिलाने के इच्छुक हैं. धर्मेंद्र की मौत के मामले में जांच के नाम पर बस खानापूर्ति ही की जा रही है. कथित एनकाउंटर के दूसरे दिन ही न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गए थे लेकिन 40 दिन बीतने के बाद भी अब तक जांच शुरू नहीं हो सकी है. वहीं सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार आयोग की स्पष्ट गाइडलाइन हैं कि एनकाउंटर में किसी भी व्यक्ति के मारे जाने पर तुरंत मजिस्ट्रियल जांच प्रशासन द्वारा कराई जानी चाहिए (वैसे तो निर्देश एनकाउंटर में शामिल टीम के हथियार जब्त करने के भी हैं लेकिन इसका पालन नहीं किया जाता) लेकिन धर्मेंद्र के मामले में तो मजिस्ट्रियल जांच ही एक महीने बाद शुरू करवाई गई. एक सीनियर एडवोकेट का कहना है कि यह सब बस मामले को लटकाना चाहते हैं इसलिए जांच प्रक्रिया को लंबा खींचा जा रहा है.
एक अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि अगर इस मामले में कार्रवाई होती है तो पुलिस अधीक्षक हरिनारायणचारी मिश्र पर भी आईपीसी की धारा 120 (बी) के तहत प्रकरण दर्ज हो सकता है, क्योंकि मुठभेड़ को उनकी भी स्वीकृति प्राप्त थी. इसलिए विभाग फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है. वहीं मुकेश राठौर के मामले में भी पुलिस विभाग ने क्राइम ब्रांच पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है जिससे साफ जाहिर है कि एएसपी प्रतिमा एस. मैथ्यू और उनकी टीम को बचने का पूरा मौका दिया जा रहा है. इस बारे में विभाग का कहना है कि कोर्ट के फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन दाखिल की गई है. मामले की सीआईडी जांच भी चल रही है. बहरहाल न्याय की आस लगाए धर्मेंद्र कुशवाह और मुकेश राठौर के परिजनों को अब बस कोर्ट से ही न्याय की उम्मीद है.