अभियानों के अभियान पर

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प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का पिछले पांच महीने का कार्यकाल भारतीय इतिहास के किसी भी दूसरे प्रधानमंत्री से ज्यादा सक्रिय और जीवंत रहा है. इन चंद महीनों में मोदी ने एक ऐसे व्यक्तित्व से देश का साक्षात्कार करवाया है जो अपनी से आधी उम्र के लोगों से भी ज्यादा सक्रिय रहता है, जो रोज कुछ न कुछ नया करने कि कोशिश करता है, जिसके मस्तिष्क में नई-नई योजनाओं की भरमार है, जिसके बारे में धारणा है कि वह कभी थकता नहीं है. यह प्रधानमंत्री इस बात को लेकर भी चैतन्य रहता है कि किसी नेता या शख्सियत से मुलाकात होने के बाद कौन सी फोटो मीडिया में जारी हो. जिसके लिए हर कार्यक्रम एक उत्सव है, एक आयोजन है और उसकी सफलता में कोई कमी उसे मंजूर नहीं. जिसकी हर कोशिश इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की भावना से की गई जान पड़ती है. जिसकी मार्केटिंग रणनीति को देखकर बड़े-बड़े एमबीएधारी भी बगलें झांकने को मजबूर हो जाते हैं. मोदी खुद को देश का प्रधान सेवक बताते हैं जबकि उनके आलोचक उन्हें सबसे बड़ा सेल्समैन बताते हैं. उनके बारे में सोशल मीडिया पर एक मजाक आजकल ट्रेंड कर रहा है कि उनके पैदा होने के बाद डॉक्टर ने कहा, ‘मुबारक हो मित्रों आईडिया हुआ है.’

अपने पांच महीने के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई कारणों से सुर्खियां बटोरी. इस दौरान उन्होंने बहुत कुछ ऐसा किया जिसे नवाचार कहा जा सकता है. यानी ऐसी चीजें जो या तो पहले नहीं हुईं थीं या उस रूप में नहीं की गईं थीं जिस रूप में मोदी ने उन्हें किया है. मोदी के ऐसे नए प्रयोगों की लिस्ट बहुत लंबी है. इन योजनाओं में कितनी संभावनाएं हैं, क्या ये योजनाएं वास्तव में किसी बड़े बदलाव की नींव तैयार कर रही हैं, या फिर ये योजनाएं और अभियान भी अतीत में बनाई गई तमाम योजनाओं की भीड़ का हिस्सा भर हैं. इनकी उपयोगिता क्या है और सफलता की क्या उम्मीद है, इनमें कितनी मौलिकता और कितनी नकल है? इन तमाम सवालों की पड़ताल इस लेख में करने की कोशिश की गई है.

‘जहां बड़ों की सुनवाई नहीं है वहां प्रधानमंत्री बच्चों से कहां बात करता है. यह संवाद बहुत जरूरी था. बच्चों से संवाद का सिलसिला रुकना नहीं चाहिए’

राष्ट्रीय शिक्षक दिवस

बचपन में आप और हम जैसे देश के लगभग अधिकांश बच्चों के पास तीन चाचा हुआ करते थे. एक तो वे जो रिश्ते के चाचा थे, दूसरे चाचा चौधरी और तीसरे जवाहर लाल नेहरू. ये जो तीसरे व्यक्ति हैं उनके बारे में स्कूल में ही रटाया जाता था कि फलाना फोटो में जैकेट पहने, टोपी लगाए और शेरवानी में गुलाब खोंसे जो व्यक्ति हैं वे चाचा नेहरू हैं. बताया जाता था कि उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था. जिनका सीधे तौर पर उनसे संपर्क हुआ था वे तो उन्हें चाचा मानते ही थे ही लेकिन जिन्होंने उन्हें सिर्फ तस्वीरों में देखा था वे भी नेहरु जी को चाचा ही कहा करते थे. अब ये चाचा वाली छवि खुद ब खुद बन गई या सोच-विचार कर बनाई गई इसके बारे में तो उस दौर के लोग ही बताएंगे लेकिन नेहरू की मृत्यु के बाद देश को फिर कोई ‘पॉलिटिकल’ चाचा नहीं मिला. अलग-अलग राज्यों ने इस दौरान मुख्यमंत्री के रूप में मामा और ताऊ जरूर देखे लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में बच्चों से संवाद साधने या रिश्ता बनाने की कहानी नेहरू के बाद कभी सुनने को नहीं मिली.

इस टूटे हुए तार को हाल ही में एक दूसरे प्रधानमंत्री ने फिर से जोड़ने की कोशिश की. बच्चों और देश के प्रधानमंत्री के बीच संवाद के रिश्ते को नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर से बहाल किया है. लेकिन उनकी भूमिका बिल्कुल बदली हुई थी. नेहरू जहां बच्चों के चाचा बने थे वहीं मोदी उनके शिक्षक के रूप में उनसे मिले. पांच सितंबर यानी शिक्षक दिवस के अवसर पर देश के सभी स्कूलों को यह निर्देश दिया गया था, जिसे बाद में सलाह बताया गया, कि कक्षा एक से लेकर बारहवीं तक के सभी स्कूलों में उस दिन छात्र-छात्राओं को नरेंद्र मोदी का भाषण लाइव सुनाया जाए. स्थिति यह थी कि जिस देश के एक बड़े हिस्से में आज भी कई स्कूलों को छत नसीब नहीं है, कहीं शिक्षक नहीं हैं तो कहीं बैठने की जगह नहीं है, उस देश में एक दिन, एक ही समय पर टीवी या रेडियो के माध्यम से प्रधानमंत्री का भाषण बच्चों तक पहुंचाना था जो कि असंभव के आसपास की चीज थी. खैर दिल्ली में बैठे हाकिमों ने चाबुक फटकारा तो जो अधिकारी सालों से स्कूलों की दुर्दशा जानने समझने के बाद भी हाथ पर हाथ धरे बैठे थे वो अचानक से काम में लग गए. इस दौरान ऐसी कई तस्वीरें आईं जहां नाव पर लोग टीवी रखकर ले जाते दिखे. कई स्कूलों में जहां बिजली नहीं थी वहां जनरेटर या बैट्री की व्यवस्था की गई. आखिरकार कार्यक्रम के दिन दिल्ली से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों को संबोधित किया. जिसे तमाम स्कूलों में बच्चों ने सुना. देश के कई दूर दराज के इलाके जैसे बस्तर, लेह, मणिपुर आदि से बच्चों के प्रधानमंत्री से सीधे प्रश्न करने की व्यवस्था की गई थी. बच्चों ने प्रश्न पूछा और उन्होंने जवाब दिया.

इस पूरे कार्यक्रम से मोदी ने उस तबके तक पहुंचने में सफलता पाई जो किसी भी राजनीतिक दल की प्राथामिकता या टार्गेट में नहीं है. पिछले लंबे समय से किसी राजनीतिक दल या नेता ने बच्चों से संवाद करने की जरूरत नहीं समझी थी. बच्चे चूंकि वोट नहीं देते इसलिए वे किसी संवाद का हिस्सा नहीं रहे. ऐसे में प्रधानमंत्री की इस पहल को कई लोगों ने सराहनीय कदम बताया.

आंकड़े बताते हैं कि देवालय से पहले शौचालय का नारा देनेवाले नरेंद्र मोदी के गुजरात में 2011 की जनगणना के मुताबिक 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं था

हालांकि मोदी के स्कूली बच्चों से उस दिन के संवाद को अगर ध्यान से देखें तो यह भी पता चलता है कि कैसे प्रश्नों से लेकर तमाम चीजें पहले से ही तय थीं और सब कुछ एक तय स्क्रिप्ट के हिसाब से हुआ. लेकिन घंटे-भर से अधिक के संवाद में ऐसे हिस्सों की भी कमी नहीं थी जहां एक समय के बाद बच्चे मोदी से बातचीत करने में काफी सहज नजर आए वहीं नरेंद्र मोदी ने भी शुरूआती गंभीरता और हिचक के बाद बच्चों से खुलकर हंसी-ठिठोली की.

इस एक दिन के मेल-मिलाप, जिसमें काफी कुछ पूर्वनिर्धारित था, को किसी बड़े बदलाव की शुरुआत मानना जल्दबाजी होगी लेकिन कई लोग इसे एक सकारात्मक शुरुआत के तौर पर देखते हैं. इलाहाबाद के प्रयाग स्कूल के प्रिंसिपल शारदा प्रसाद कहते हैं, ‘देखिए जिस व्यवस्था में बड़ों की सुनवाई नहीं है वहां देश का प्रधानमंत्री स्कूली बच्चों से कहां बात करता है. इस कार्यक्रम ने बच्चों से संवाद के प्रश्न को बेहद मजबूती के साथ रेखांकित किया है. हां ये सिलसिला बंद नहीं होना चाहिए.’

बच्चों पर इस संवाद का क्या असर पड़ा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. बिहार के नवादा जिले के एक प्राइमरी स्कूल में एक छात्र ने शिक्षक के दो दिन से गैरहाजिर रहने का कारण पूछा तो शिक्षक ने उसे पीट दिया. रोता हुआ छात्र शिक्षक के सामने ये कहते हुए चिल्ला उठा, ‘मैं आपकी शिकायत नमो (नरेंद्र मोदी) से करुंगा. उनसे कहूंगा की आप स्कूल में देर से आते हैं, पढ़ाते नहीं हैं और हम लोगों को मारते हैं.’ एक बच्चे को अपनी शिकायत के लिए अपना घर, परिवार, रिश्तेदार कोई काम का नहीं नजर आया, उसे नरेंद्र मोदी की याद आई. यह घटना कई बातें खुद ब खुद बयान करती है.

चतुर चाल दिवाली के मौके पर सियाचिन में सैनिकों के साथ मुलाकात करके प्रधानमंत्री ने एक नई शुरुआत की है
चतुर चाल दिवाली के मौके पर सियाचिन में सैनिकों के साथ मुलाकात करके प्रधानमंत्री ने एक नई शुरुआत की है

स्वच्छ भारत अभियान

इसे देखने के कई तरीके हो सकते हैं.  कुछ लोगों के लिए यह बेकार की कवायद हो सकती ह,ै तो कुछ लोग यह भी मान सकते हैं कि जब जागो तभी सवेरा. कुछ दिन पहले अखबारों में एक खबर आई कि रेलवे के अधिकारियों में इन दिनों एक होड़ लगी हुई है. सेवा और साफ सफाई करने की होड़. हुआ यह कि रेलवे अधिकारियों ने प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान से प्रेरित होकर रेलवे के प्लेटफॉर्मों को गोद लेना शुरू कर दिया. मकसद यह था कि गोद लेकर प्लेटफॉर्म की साफ सफाई अच्छी तरह की जा सके. कहनेवाले कहेंगे कि सफाई प्रेमी ये अधिकारी आज तक कहां थे. क्या मोदी के कहने से पहले उन्हें नहीं पता था कि देश के रेलवे स्टेशन गंदे स्थानों में सबसे ऊपर हैं.

गांधी जयंती के अवसर पर शुरु हुए स्वच्छता अभियान के तहत कथित तौर पर प्रधानमंत्री का सपना महात्मा गांधी के स्वच्छ भारत के सपने को पूरा करना है. इस स्वच्छता अभियान में जहां पूरी सरकार और उसके अधिकारियों से लेकर विभिन्न क्षेत्रों के तमाम सितारे शामिल हुए वहीं ऐसे लोग भी इस अभियान का हिस्सा बने जिन्हें न तो सरकार की तरफ से ऐसा करने को कहा गया था और न ही वे किसी तरह से राजनीति से जुड़े हैं. आम लोगों की झाडू लगाने वाली तस्वीरों से फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया भर उठा. जगह-जगह से लोग प्रधानमंत्री के नारे पर झाड़ू लेकर घर के बाहर निकल गए.

तमाम लोग हैं जो मानते हैं कि प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान के कारण लोगों में साफ-सफाई को लेकर जागरूकता आई है. एक धारणा प्रबल हुई है कि साफ सफाई सिर्फ एक तबके की या सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है. देश का प्रधानमंत्री झाड़ू लगा रहा है तो कोई भी लगा सकता है. इस तरह मोदी ने अपने इस अभियान से साफ सफाई को एक किस्म की अभिजात्यता दे दी है. जो वर्ग झाड़ू जैसी चीजों को पकड़ने की कल्पना भी नहीं करता था उसे भी झाड़ू के साथ सेल्फी खींचने में गर्व का अनुभव होने लगा है.

हालांकि इस अभियान की गंभीरता और प्रतीकात्मकता को लेकर भी हाल में खूब बहस हुई है. हाल ही में एक ऐसी घटना भी सामने आई जहां स्वच्छता के नाम पर पहले पत्ते फैलाये गए और फिर उन्हें झाड़ू से साफ करने की रस्म निभाई गई. नेताओं द्वारा की जा रही सफाई की ऐसी हास्यास्पद तस्वीरों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है. ऐसे और भी उदाहरण होंगे जो सामने नहीं आएं हैं.

स्वच्छता अपने निर्वाचन क्षेत्र बनारस के दौर पर पहुंचे प्रधानमंत्री वहां लोगों को अपनी प्रिय योजना का संदेश देना नहीं भूले
स्वच्छता अपने निर्वाचन क्षेत्र बनारस के दौर पर पहुंचे प्रधानमंत्री वहां लोगों को अपनी प्रिय योजना का संदेश देना नहीं भूले

प्रधानमंत्री का देश को स्वच्छ बनाने का जो दावा है उस पर कुछ लोग उनके अतीत के प्रदर्शन को देखते हुए प्रश्नचिन्ह लगाते हैं. आंकड़े बताते हैं कि देवालय से पहले शौचालय का नारा देनेवाले नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में 2011 की जनगणना के मुताबिक 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत और भी बदतर है. वहां 67 फीसदी घर शौचालय की सुविधा से वंचित हैं. गुजरात में आज भी 2,500 से अधिक परिवार सिर पर मैला ढोने के लिए अभिशप्त हैं.

कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर मोदी सरकार के इस अभियान की आलोचना करते हुए लिखते हैं, ‘ हमारे पास पहले से ही निर्मल भारत अभियान है, जिसे मोदी ने पूरी तरह से हड़प लिया है. इस तरह कांग्रेस की ही पुरानी बोतल पर बस भगवा लेबल चस्पां कर स्वच्छता अभियान का नाम दे दिया गया है. निर्मल भारत अभियान से पहले वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार ने संपूर्ण सफाई अभियान चलाया था ,लेकिन हमारे मोदी जी अपनी ही पार्टी के पूर्ववर्ती कार्यक्रमों को हड़पने में भी संकोच नहीं करते. कार्यक्रमों का इस तरह हड़पा जाना भी बर्दाश्त किया जा सकता है बशर्ते मोदी कम से कम निर्मल भारत अभियान तथा संपूर्ण सफाई अभियान के बारे में सोचने तथा उन्हें लागू करने के पीछे लगी अथक मेहनत तथा अतीत में उनमें रह गई खामियों का अध्ययन कर लें कि इस अभियान के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कौन से नए उपाय किए जाने चाहिए. उनके पास इनके विस्तार में जाने का समय ही नहीं है. वह जिस बात पर ध्यान देते हैं, वह है उनकी जैकेट का रंग, जो किसी फैशन मॉडल के लिए तारीफ की बात हो सकती है लेकिन किसी प्रधानमंत्री के लिए यह निंदनीय है’.

अय्यर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘अगर मोदी संकीर्ण सोच से इतर कहीं भी आगे बढ़ रहे होते तो वह ‘ब्रांड एम्बैसेडर’ के रूप में फिल्म अभिनेताओं और एजेंटों के रूप में काम कर रहे कांग्रेसियों को नहीं तलाश करते, बल्कि स्वच्छता के क्षेत्र में काम करनेवाले लोगों से बात करते. उनकी राय जानते. ताकि यह समझा जा सके कि हमारे पास पहले से मौजूद सफाई कार्यक्रमों में अब तक क्या-क्या सही हुआ है, क्या-क्या गलत हुआ है और अपनी रणनीति को सही दिशा में लाने के लिए क्या-क्या करने की ज़रूरत है.’

बहुत से लोगों का मानना है कि जहां देश में सफाई कर्मचारियों की जिंदगी खुद बहुत बुरी स्थिति में है, उनकी स्थिति सुधारने के लिए सरकार के पास कोई योजना भी नहीं दिखती है. ऐसे में ये अभियान फोटो खिंचवाने से आगे कहां तक जा सकते हैं?

स्मार्ट सिटी के नाम पर इंदिरा गांधी हवाई अड्डे के टीथ्री टर्मिनल और रिलायंस कंपनी द्वारा संचालित मुंबई मेट्रो की याद आती है जहां बारिश हर साल खेल दिखाती है

मेक इन इंडिया

15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए पहली बार प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया का नारा दिया था. मेक इन इंडिया से मोदी का आशय तमाम छोटी-बड़ी, देशी-विदेशी कंपनियों को भारत के निर्माण उद्योग में निवेश करने के लिए प्रेरित करना है. उनकी इच्छा कुछ-कुछ उसी तर्ज पर निवेश लाने की है जैसा चीन में विश्व की नामचीन कंपनियों ने किया है. आज तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों पर ‘मेड इन चाइना’ का लेबल मिलता है. इस तरह से मोदी का मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया के सपने को सच करने के लिए उठाया गया पहला कदम कहा जा सकता है. कई मायनों में यह एक महत्वाकांक्षी और दूरदर्शी योजना भी है.

ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी सरकार ने निवेश के लिए प्रयास नहीं किए थे. विभिन्न सरकारों ने इस दिशा में काम किया है. लेकिन मोदी का मेक इन इंडिया इस मायने में अलग है कि इसकी मार्केंटिंग बेहद आक्रामक है. मोदी ने एक टर्म ईजाद किया मेक इन इंडिया. ये संभव है कि इस टर्म के बाद भी भारत में निवेश उतना ही हो जितना पिछली सरकारों में हुआ था लेकिन माहौल बनाने में मोदी कोई कमी नहीं रखना चाहते. भाजपा से मोहभंग की हालत में चल रहे एक नेता कहते हैं, ‘मोदी छोटा कुछ करते नहीं. काम अगर छोटा भी होता है तो वे मार्केटिंग के जरिए उसे बड़ा बना देते हैं.’

इसे आप उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में शुरू की गई योजनाओं से भी समझ सकते हैं. जैसे पूरे देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने निवेश आकर्षित करने के लिए हर साल इनवेस्टर्स मीट आयोजित करने शुरु किए वैसे ही गुजरात ने भी एक आयोजन शुरू किया था. वहां देश-विदेश के तमाम उद्योगपति आते हैं. गुजरात में भी निवेश सम्मेलन आयोजित होता था लेकिन उसकी पैकेजिंग और तौर-तरीका अलग था. बाकी राज्य इनवेस्टर्स मीट कराते थे लेकिन मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ कराते थे. इतने बड़े पैमाने पर उसकी मार्केंटिग होती थी कि देश का प्रधानमंत्री भी ऐसे कार्यक्रमों से कतराने लगे. हालांकि इस भड़कीले कार्यक्रम की हकीकत कुछ और भी थी. पता चलता था कि वाइब्रेंट गुजरात में आए निवेशकों ने निवेश का वादा तो सागर भर का किया था लेकिन अंत में गागर भर ही निवेश हुआ. जैसे 2005 के आयोजन में यह दावा किया गया कि इसमें 1.06 लाख करोड़ रुपये के निवेश के लिए सहमति बनी है. लेकिन आरटीआई से मिली जानकारी ने बताया कि कि इसमें से सिर्फ 23.52 फीसदी यानी 24,998 करोड़ रुपये का निवेश ही हुआ. खुद गुजरात सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2003 से लेकर अब तक वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में जितने निवेश की घोषणा हुई है उसका सिर्फ 6.13 फीसदी असल में निवेश हो पाया है. लेकिन फिर भी मोदी पूरे आत्मविश्वास से वाइब्रेंट गुजरात की सफलता के किस्से सुनाते रहते हैं.

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जानकार मेक इन इंडिया को भी वाइब्रेंट गुजरात के तर्ज की ही एक योजना के रूप में देखते हैं. यह भव्य है, इसकी माकेंर्टिंग और पैकेजिंग में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी गई है. लेकिन इस मेक इन इंडिया के तहत देश का कितना निर्माण होता है इस पर कई तरह के किंतु-परंतु हैं.

जिस मेक इन इंडिया को लेकर मोदी सातवें आसमान पर हैं और चाहते हैं कि पूरी कायनात उसे सफल बनाने में उनका साथ दंे, उस मेक इन इंडिया को उनकी मातृ संस्था आरएसएस ही लाल झंडा दिखा रही है. हाल ही में एक बयान जारी कर संघ के आनुषंगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने मेक इन इंडिया को देश के लिए आत्मघाती कदम ठहराया. मंच के अखिल भारतीय सह संयोजक भगवती प्रकाश शर्मा के मुताबिक मेक इन इंडिया बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सामान आयात करने जैसा है. यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक होगा. उनके अनुसार देश को मेक इन इंडिया नहीं बल्कि मेक बाई इंडिया की जरूरत है.

अपनी महत्वाकांक्षी योजना की राह आसान करने के लिए प्रधानमंत्री ने श्रम कानून में बड़े बदलाव की शुरुआत की है. इसका नाम उन्होंने श्रमेव जयते दिया है. इसकी भी विभिन्न हलकों में काफी आलोचना हो रही है. श्रमेव जयते पर सवाल उठाने का सबसे पहला काम खुद संघ ने ही किया. भारतीय मजदूर संघ के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय कहते हैं, ‘मजदूरों से जुड़ा फैसला करते समय प्रधानमंत्री ने मजदूर संगठनों से ही कोई बात नहीं की, यहां तक की मजदूर संघ से भी नहीं. ऐसा लगता है कि औद्योगिक घरानों के हित साधने के लिए मोदी सरकार रास्ता बना रही है.’

मेक इन इंडिया भी वाइब्रेंट गुजरात के तर्ज की योजना हैं. यह भव्य है, इसकी पैकेजिंग शानदार है लेकिन इसकी राष्ट्रनिर्माण की क्षमता साबित होना बाकी है

संघ के अलावा भी अन्य कई हिस्सों से मेक इन इंडिया के विचार और उसके लिए किए जा रहे श्रम सुधारों की आलोचना हो रही है. उद्योगपतियों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने, मजदूरों के मानवाधिकारों के साथ खिलवाड़ करने से लेकर पूंजीपतियों के फायदे के लिए कुछ भी कर गुजरने के आरोप लगाए जा रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार इसे कुछ इस तरह बयान करते हैं, ‘आपने कहा कि कम मेक इन इंडिया यानी विदेशी कंपनियों आओ अपना माल भारत में बनाओ, यह काम तो अमीर देशों की कंपनियां दसियों सालों से कर रही हैं, यह मुनाफाखोर कंपनियां उन्हीं देशों में अपने कारखानें खोलती हैं जहां उन्हें सस्ते मजदूर मिल सकें और पर्यावरण बिगाड़ने पर सरकारें उन्हें रोक न सकें.’

सांसद आदर्श ग्राम योजना

मोदी के नवाचारों में सांसद आदर्श ग्राम योजना भी एक महत्वपूर्ण कदम है. इस योजना के अनुसार देश का हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के एक गांव को गोद लेगा और उसे अगले एक साल में आदर्श गांव के रूप में विकसित करेगा. मोदी के मुताबिक यह विकास आपूर्ति पर आधारित मॉडल की बजाय मांग और जरूरत तथा जनता की भागीदारी पर आधारित होगा. योजना के तहत गांवों में बुनियादी और संस्थागत ढांचा विकसित किया जाएगा, साफ-सफाई रखी जाएगी और वहां शांति-सौहार्द के साथ लैंगिक समानता और सोशल जस्टिस पर जोर दिया जाएगा. प्रधानमंत्री के शब्दों में, ‘हमारे देश में हर राज्य में 5-10 ऐसे गांव जरूर हैं जिसके विषय में हम गर्व कर सकते हैं. उस गांव में प्रवेश करते ही एक अलग अनुभूति होती है. हमें ऐसे बहुत सारे गांव बनाने हैं.’

इस योजना के अनुसार 2016 तक प्रत्येक सांसद एक गांव को विकसित करेगाे और 2019 तक दो और गांवों का विकास होगा. प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर राज्य सरकारें भी विधायकों को इस योजना के लिए काम करने को प्रोत्साहित करें तो इसी समय सीमा में जिले के 5 से 6 और गांवों को विकसित बनाया जा सकता है.

इस योजना पर लोग दो सवाल उठाते हैं. पहला यह कि क्या देश-भर में मुट्ठीभर गांवों के आदर्श बन जाने से देश के सारे गांव आदर्श हो जाएंगे. और दूसरा यह कि क्या ये सिर्फ प्रचार पाने का तरीका नहीं है कि हम आदर्श ग्राम बनाने जा रहे हैं. क्योंकि गांवों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार की दर्जनों योजनाएं पहले से गांवों में काम कर रही हैं. गांवों को आदर्श बनाने के लिए जब पहले से ही इतनी योजनाएं हैं तब यह योजना उन योजनाओं की संख्या में एक और वृद्धि भर नहीं है?

प्रधानमंत्री अपनी जनता से सीधे ‘मन की बात’ कह रहा है. वह चिट्ठियों के माध्यम से दूर-दराज के क्षेत्रों से भेजे गए लोगों के सवालों का जवाब भी देता है

स्मार्ट सिटी

एक तरफ जहां मोदी गांवों को आदर्श बनाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ देश में 100 स्मार्ट शहरों को बसाने का सपना भी देख रहे हैं. सरकार का कहना है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत जिन शहरी इलाकों को शामिल किया जाएगा वहां 24 घंटे बिजली और पानी की व्यवस्था होगी, शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं होंगी, साइबर कनेक्टिविटी और ई-गवर्नेन्स की सुविधा होगी, हाईटेक ट्रांसपोर्ट नेटवर्क बहाल किया जाएगा और सीवर और कचरा निबटान का सौ फीसदी इंतजाम होगा.

मोदी के स्मार्ट शहर की योजना जमीन पर कब और कैसे आकार लेगी यह तो समय बताएगा लेकिन इसको लेकर अभी से दो हिस्से हो चुके हैं. एक तबका इसको लेकर बहुत आशान्वित है तो वहीं दूसरा इसे लेबल बदलने से ज्यादा नहीं मानता. शहरी विकास मंत्रालय के पूर्व अधिकारी ए.एस वासुदेव कहते हैं, ‘ देखिए तमाम योजनाओं के बाद भी शहरों का क्या हाल है यह हमारे सामने है. वजह ये है कि हम हवा में शहर खड़ा करने की सोचते हैं. नए शहर के लिए सबसे जरूरी है इंफ्रास्ट्रक्चर, उसमें हम कोई निवेश ही नहीं करते. यह ऐसा ही है कि आप भैंस को चारा-पानी न दें लेकिन दूध निकालने के लिए घर के सारे बर्तन लेकर पहुंच जाएं. अभी तो हम सिटी बनाने से ही दूर हैं. स्मार्ट सिटी तो कल्पना की बात है. खाली मार्केटिंग से न तो शहर बनते हैं न ही वो स्मार्ट हो जाते हैं.’

स्मार्ट सिटी पर चर्चा करते हुए देश के कुछ स्मार्ट कंस्ट्रक्शंस की बरबस याद आ जाती है. मसलन इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पिछले दो साल से टीथ्री नाम का टर्मिनल बारिश के मौसम में पानी में डूब जाता है. यात्री तैराकी करते हुए अंदर-बाहर आते-जाते हैं. दूसरी घटना हाल ही की है जब रिलायंस कंपनी द्वारा संचालित मुंबई मेट्रो में बारिश के समय चलती मेट्रो की छत से पानी बरसने लगा. ये उदाहरण प्रासंगिक इसलिए हैं क्योंकि ये दोनों ही प्रोजेक्ट हमारी चरम स्मार्टनेस का प्रतीक रहे हैं. इन पर खूब धन और मन खर्च हुआ है. इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा तो कॉमनवेल्थ खेलों के समय विशेष रूप से तैयार किया गया था. ऐसे ही कॉमनवेल्थ खेलों के समय बने पूल और मकान भी हैं जिनमें टूट-फूट की खबरें आए दिन आ रही हैं. ऐसे में स्मार्ट सिटी का विचार किस रूप में सामने आता है यह देखना दिलचस्प होगा.

जनता और सरकार के बीच मौजूद खाई को खत्म करने के लिए एक पुल बनाए जाने की आवश्यकता है. उसी का परिणाम है माईगवडॉटइन नामक वेबसाइट

मन की बात

मोदी के नए-नवेले विचारों की श्रृंखला में मन की बात एक अहम शुरुआत है. पिछले कुछ समय में जिस तरह से लोक और तंत्र के बीच दूरियां बढ़ती गई हैं, सत्ता का समाज से संवाद खत्म होता गया है उस रौशनी में इसे देखें तो यह एक अच्छी शुरुआत जान पड़ती है. पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर लोगों की सबसे बड़ी शिकायत यही थी कि वे बोलते नहीं थे. सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह का मजाक बनाते तमाम पोस्ट इसकी गवाही देते हैं. हमारे यहां स्थिति कुछ ऐसी है कि प्रधानमंत्री कुछ करें या न करें लेकिन वो चुप नहीं रहने चाहिए. इस देश का मिजाज ऐसा है कि उसे चुप रहनेवाले रास नहीं आते. यहां कहा भी जाता है कि बात करने से बहुत सारी चिंताएं और समस्याएं दूर हो जाती हैं. इतिहास में जाकर देखें तो पता चलता है कि कैसे जनता ने उन नेताओं को सर पर उठाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी जो बात करते थे, मिलते-जुलते थे, हालचाल पूछते थे. ऐसे नेता जमीनी स्तर पर बिना कुछ खास किए लंबे समय तक लोगों के दिल में राज कर सके. इस कड़ी में सबसे बड़ा उदाहरण जवाहरलाल नेहरू का है जिनके बारे में कहा जाता है कि वे जिस अधिकार के साथ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और महारानी से संवाद करते थे उसी सहजता के साथ देश की ज्यादातर अशिक्षित जनता के साथ भी घुलमिल जाते थे.

काफी लंबे समय से जनता और नेता के बीच का यह संवाद गायब था. मोदी ने इस टूटी हुई कड़ी को फिर से जोड़ने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने बेहद जन लोकप्रिय माध्यम रेडियो को चुना है. मोदी ने तय किया है कि वो महीने में दो बार रेडियो के माध्यम से जनता को संबोधित करेंगे. जनता से हो रहे इस एकतरफा संवाद में कोई ऐसी खास बात नहीं है जो मोदी अपनी सभाओं और दूसरी जगहों पर नहीं कहते हों. इसका महत्व इस बात में छिपा है कि देश का प्रधानमंत्री अपने देश के लोगों से सीधे ‘मन की बात’ कह रहा है. वह चिट्ठियों के माध्यम से देश के दूर-दराज से भेजे गए लोगों के सवालों का जवाब भी देता है. मोदी के लिए मन की बात जनता तक पहुंचने के साधनों का विस्तार है. वो जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हर उस माध्यम का प्रयोग कर रहे हैं जो अस्तित्व में है.

रन फॉर यूनिटी

देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को इस साल से मोदी सरकार ने एकता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है. कांग्रेसी रहे पटेल की मोदी तमाम अवसरों पर तारीफ करते रहे हैं. उन्हें जानबूझकर या अनजाने में गांधी और नेहरू के बराबर या उनसे बड़ा बनाकर खड़ा करते रहे हैं. अगर हम ध्यान दें तो पिछले कुछ सालों में दो पुराने नेता बड़ी तेजी से चर्चा के केंद्र में आए हैं. एक भीमराव अंबेडकर और दूसरे सरदार पटेल. सियासत की जमीन पर तेजी से दौड़ रहे नरेंद्र मोदी ने उस तबके को रन फॉर यूनिटी के जरिए आकर्षित किया है जिसके मन में बहुत गहरे तक यह बात बैठी है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ न्याय नहीं किया. यह वो तबका है जो मानता है कि नेहरु की जगह यदि पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो तस्वीर कुछ और होती. देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इस तरह की शिकायत करते हुए मिल जाएंगे कि कैसे पटेल की जयंती और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ‘बलिदान’ दिवस एक ही दिन पड़ने के बावजूद कांग्रेस इंदिरा के योगदानों पर तो चर्चा करती है लेकिन पटेल का जिक्र तक नहीं आता. एकतरफ अखबारों में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा के आशय वाले विज्ञापन छपते हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी में पटेल को उनके कामों के माध्यम से याद करने का प्रयास तक नहीं दिखता. कुछ लोग इसे कांग्रेस की बौद्धिक बेईमानी बताते हुए पटेल के जन्मदिन को एकता दिवस के रूप में मनाए जाने की तारीफ करते हैं. इतिहास के प्राध्यापक रहे निर्मल कोठारी कहते हैं, ‘इतिहास में मिट्टी डालने और खोदने का काम चलता रहता है. कांग्रेस ने जिस पटेल पर मिट्टी डाली थी उन्हें मोदी ने खोद निकाला है. धीरे-धीरे आप देखेंगे वो कांग्रेस के हर उस नेता को ढूंढ निकालेंगे जिन्हें जनमानस में बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने कोई प्रयास नहीं किया. इतिहास अपने आप को इसी तरह दुरुस्त करता है.’

प्रधानमंत्री जन-धन योजना

पिछले पांच महीने में मोदी की तूफानी तेजी ने एक और योजना को जन्म दिया है. नाम है प्रधानमंत्री जन धन योजना. प्रधानमंत्री ने 68वें स्वाधीनता दिवस पर ऐतिहासिक लाल किले के अपने भाषण में पहली बार इस योजना का जिक्र करते हुए कहा था, ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना के माध्यम से हम देश के गरीब से गरीब लोगों को बैंक खाता की सुविधा से जोड़ना चाहते हैं. देश में ऐसे करोड़ों परिवार हैं जिनके पास मोबाइल फोन तो है लेकिन बैंक में खाता नहीं है. किसान साहूकार का कर्ज नहीं दे पाता तो मजबूरन आत्महत्या कर लेता है. यह योजना ऐसे परिवारों के लिए सोचकर बनायी गयी है.’

इस योजना के तहत लोगों के या तो नए खाते खोले जा रहे हैं या फिर अगर पहले से उनके पास बैंक खाता है तो इस योजना को उससे जोड़ दिया जाएगा. योजना के तहत तहत 15 करोड़ गरीब लोगों के बैंक खाते खोले जाने हैं. इसमें 5,000 रुपए की ओवरड्राफ्ट सुविधा तथा एक लाख रुपये के दुर्घटना बीमा संरक्षण की सुविधा भी होगी. इस योजना के तहत पिछले 4 महीने में करीब 5.29 करोड़ खाते खोले गए हैं. इस योजना की घोषणा होने के बाद जो बैंक खाता खोलने में ना-नुकुर किया करते थे वे लोगों का हाथ पकड़कर खाता खुलवाते दिखे. इस योजना की तारीफ कांग्रेस के नेता भी करते दिखे. आंकड़ों के आइने में योजना की सफलता और साफ हो जाती है. योजना लागू होने के पखवारे भर के भीतर इन खातों के जरिए बैंकों के पास पांच हजार करोड़ रुपए पहुंच गए.

मेरी सरकार (mygov.in)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केन्द्र की सत्ता में अपने 60 दिन पूरे होने पर बयान दिया कि उन्हें यह महसूस हो गया है कि सरकारी कामकाज और जनता के बीच बड़ी दूरी होती है. जनता और सरकारी कामकाज की प्रक्रिया के बीच मौजूद इस खाई को खत्म करने के लिए एक पुल बनाए जाने की आवश्यकता है. उसी का परिणाम है माईगवडॉटइन नामक वेबसाइट. इसे इस रूप में विकसित किया गया है जहां आम जनता सरकार की विभिन्न योजनाओं को लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे सकती है और साथ ही अगर उसके पास शासन से जुड़ी कोई योजना है तो उसे सरकार से साझा कर सकती है. सरकार का दावा है कि इसके जरिए देश के विकास की बुनियाद में जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है. मोदी के मुताबिक इसके माध्यम से हर नागरिक की ऊर्जा और उसकी क्षमता का राष्ट्र के विकास के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. वेबसाइट को निर्मल गंगा, बालिका शिक्षा, स्वच्छ भारत, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे कई समूहों में बांटा गया है.

वेबसाइट के पिछले कुछ समय के कामकाज से पता चलता है कि बड़ी संख्या में जनता ने सरकार के कार्यक्रमों और योजनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. इसके साथ ही सरकार द्वारा शुरू किए जा रहे किसी कार्यक्रम की घोषणा होने के बाद उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे- लोगो डिजाइन से लेकर अन्य विषयों पर यहां आम जनता के लिए प्रतियोगिता आयोजित की जाती है. ये सारी चीजें किसी ने किसी रूप में पहले भी थीं लेकिन अंतर यह है कि इस बार इसके लिए एक अलग मंच (वेबसाइट) का निर्माण कर दिया गया है. यह पूरी तरह से प्रतिक्रिया के लिए ही बनाई गई है.

मोदी के पिछले पांच महीने का कार्यकाल जिन कई नवाचारों और प्रयोगों से भरा है उसमें दिवाली के मौके पर उनका कश्मीर जाना भी शामिल है. दिवाली के कुछ दिन पहले मोदी ने घोषणा कर दी कि वो दिवाली कश्मीर के बाढ़ पीड़ितों के साथ मनाएंगे. मोदी वहां गए भी. इसे मोदी का बेहद चतुर राजनीतिक कदम माना गया. कई हलकों में इसकी तारीफ हुई. राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती समेत तमाम सियासी पार्टियों ने मोदी के इस कदम की सराहना की. जम्मू कश्मीर से देश के प्रधानमंत्री का यह संवाद एक नए संबंध की तरफ इशारा था. हालांकि उनके राजनीतिक विरोधियों ने इसे दिखावा कहकर खारिज भी किया. कुछ का ये भी कहना था कि जो लोग दिवाली नहीं मनाते उनके बीच दिवाली मनाने का क्या मतलब. अगर लगाव ही है तो ईद मनाने क्यों नहीं आए. लोगों ने उसे आगामी राज्य विधानसभा चुनाव के प्रचार के रूप में भी देखा. कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार मीर इमरान कहते हैं, ‘मोदी राजभवन आए और वहां पहले से चुने हुए लोगों से मिल कर चले गए. आम कश्मीरी तो बाढ़ से तबाह अपने घर को बनाने में लगा है. उसको क्या पता कौन आ रहा है कौन जा रहा है.’ खैर अपनी इसी कश्मीर यात्रा में मोदी सियाचिन भी गए. वहां जाकर सैनिकों से मिले और उन्हें दिवाली की बधाई दी. ये पहली बार था जब भारत का कोई प्रधानमंत्री किसी त्योहार के मौके पर सियाचिन की दुर्गम चोटियों पर जाकर सैनिकों से मिल रहा था. इन कदमों का अपना एक प्रतिकात्मक महत्व है और नरेंद्र मोदी इसके माहिर नेता माने जाते हैं. मोदी की इस सक्रियता और उनकी प्लानिंग को कई लोग इवेंट मैनेजमेंट करार देते हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर उन्हें पीएम की जगह ईएम अर्थात इवेंट मैनेजर बताते हैं. वो कहते हैं, ‘सभी देशों के पास ‘पीएम’ (प्राइम मिनिस्टर) होता है, हमारे पास ‘ईएम’ (ईवेन्ट मैनेजर) है.’

फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जो कुछ किया जा रहा है वह सब बहुत विशाल दिख रहा है. एक भव्य आयोजन की तरह. चाहे उनकी अमेरिका यात्रा हो या नेपाल की. हर जगह लगता है मानों मोदी गए और छा गए. जानकारों के मुताबिक अभी शुरुआत है इसलिए लोगों का रुझान बना हुआ है लेकिन जल्द जनता इससे ऊब जाएगी. उसे कुछ ठोस चाहिए होगा. वो जानना चाहेगी कि अमेरिका में उनका प्रधानमंत्री खाली घूमने और ओबामा के साथ फोटो खिंचावाने गया था या वहां से देश के लिए कुछ लेकर भी आया. पांच साल के बाद चुनावों में जनता के पास जाने के लिए मोदी के पास कुछ जमीनी बताने लायक होना चाहिए. इन योजनाओं और अभियानों की सारी सफलता आनेवाले कुछ दिनों में जमीन पर महसूस कर सकने लायक बदलाव से तय होगी. प्रधानमंत्री का हनीमून पूरा हो चुका है, लेकिन जनता का हनीमून जारी है. अभी वो इस बात से ही खुश है कि उनका प्रधानमंत्री उनसे बात करता है, लालकिले से बुलेटप्रूफ शीशे के बगैर बात करता है. विदेश में जाता है तो माहौल बना देता है. आम मजदूरों की तरह फावड़ा लेकर मिट्टी निकालता है, झाड़ू लगाता है, अपने घर-परिवार वालों को कोई लाभ नहीं पहुंचाता है. गाहेबगाहे अपने पड़ोसी को ललकारता भी है. इस खुशनुमा माहौल को बनाए रखने में सिर्फ एक ही चीज नरेंद्र मोदी के काम आएगी वह है आनेवाले कुछ दिनों में इन सारी योजनाओं से होनेवाले कुछ स्थायी और वास्तविक जमीनी बदलाव. अगर जल्द ही जनता यह बदलाव महसूस नहीं करती है तो फिर मोहभंग की शुरुआत भी हो सकती है.