फरहान की नई उड़ान

दिल चाहता है नाम की इस कहानी को फिल्मी परदे पर उतरे सात साल हो चुके हैं और ये हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर बन गई है. इस फिल्म ने दर्शकों को एक नए चलन से रूबरू करवाया था. ये चलन था मल्टीप्लेक्स फिल्मों का. फरहान बताते हैं कि इस फिल्म की मूल पटकथा अंग्रेजी में लिखी गई थी और आमिर खान भी इसे अंग्रेजी में ही बनाना चाहते थे मगर व्यावसायिक पहलू को देखते हुए उन्होंने इसे हिंदी में बनाने का फैसला किया. युवाओं को फिल्म खास तौर पर पसंद आई और इसने बॉक्स ऑफिस पर सफलता का परचम लहरा दिया.

इसके बाद फरहान के निर्देशन में आई दूसरी फिल्म थी लक्ष्य. ये फिल्म कई मायनों में उनके लिए कायाकल्प जैसी थी. दिल चाहता है में अपनी जिंदगी की कहानी को परदे पर उतारने वाले फरहान को सेना की जिंदगी के बारे में कुछ भी पता नहीं था. वो कहते हैं, ‘फिल्म बनाते वक्त हालात जितने हो सकते थे, तने खराब थे. युद्ध और मौत जैसे संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाना एक असाधारण जिम्मेदारी थी. जब मैंने ये फिल्म बनाने का फैसला किया तो मुझे पता नहीं था कि चुनौतियां कितनी बड़ी हो सकती हैं. बतौर निर्देशक ये मेरा असल इम्तहान था.

कभी फरहान भी लक्ष्य के मुख्य पात्र की तरह ही हुआ करते थे जो जिंदगी का कोई मकसद ढूंढने की जद्दोजहद से जूझता रहता है. उनकी बहन और फिल्म निर्देशक जोया अख्तर उस वक्त को याद करती हैं जब फरहान को कम उपस्थिति की वजह से ग्रेजुएशन के दूसरे ही साल में कालेज से निकाल दिया गया था. इसके बाद उनके अगले कुछ साल फिल्में देखते हुए गुजरे. इसके अलावा उन्होंने शायद ही कुछ और किया हो. जोया कहती हैं, “मैंने 19 साल की उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था. मैं उससे कहा करती थी कि तुम सारा दिन लेटे-लेटे क्या करते हो और वो जवाब देता था कि मैं कुछ नहीं करना चाहता, मैं ऐसे ही खुश हूं. अब जोया महसूस करती हैं कि उस दौर ने फरहान को फिल्मों के बारे में काफी कुछ सिखाया.

देखा जाए तो निर्देशन में मिली सफलता के बाद से ही फरहान अभिनय का सपना देखने लगे थे. जोया के शब्दों में, ‘मेरा भाई हमेशा से एक कलाकार रहा है जो लोगों का ध्यान खींचने के लिए लालायित रहता था.

वक्त बदला और बाद में वही फरहान सही फैसले लेने वाले एक बेहद प्रतिभाशाली निर्देशक बन गए. हम उनसे पूछते हैं कि एक अच्छे निर्देशक में क्या खासियतें होनी चाहिए और उनका जवाब आता है कि दूरदृष्टि, सहज बुद्धि, तुरंत फैसले लेने की क्षमता और काम के लिए सही लोगों का चयन. फरहान कहते हैं, ‘मैं अपने क्रू क चयन में बहुत सावधानी बरतता हूं क्योंकि एक भी गलत आदमी आपका दम निकाल सकता है. मैं ऐसे लोगों का साथ नहीं चाहता जो किसी फिल्म में सिर्फ इसलिए काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं कि उसमें शाहरुख खान है.

फरहान की फिल्मों में जो एक खास बात बार-बार दिखती है, वो है पुरुष पात्रों का आपसी जुड़ाव. दिल चाहता है से रॉक ऑन तक दोस्तों की आत्मीयता फिल्म के विषय के केंद्र में रहती है. फरहान खुद भी बेहिचक स्वीकार करते हैं कि वो लड़कों के चहेते रहे हैं. उनकी शुरुआती जिंदगी पर उनके पिता और जानी-मानी शख्सियत जावेद अख्तर का व्यापक असर रहा है. पिता-पुत्र कुछ मायनों में एक जैसे हैं भी. दोनों अच्छे श्रोता हैं और लचीला नजरिया रखते हैं. फरहान कहते हैं, ‘मेरे पिता वक्त के साथ बदलने में कामयाब रहे क्योंकि वो खुले दिमाग के हैं और दूसरों का पक्ष समझने की कोशिश करते हैं. शायद यही वजह है कि उन्होंने अपने बेटे के काम को हमेशा उसकी नजर से देखा है और खुद को उसके मुताबिक ढाला है.

फरहान की फिल्म के पात्रों के हेयर स्टाइल भी काफी लोकप्रिय हुए हैं. वो कहते हैं, ‘किसी पात्र का हेयर स्टाइल उस में आए बदलाव को दिखाने का सबसे आसान जरिया है. इस काम के लिए प्रतिभा उनके घर में ही मौजूद है. उनकी पत्नी अधुना हेयर स्टाइल एक्सपर्ट हैं जिन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर ऐसे हेयर स्टाइल्स पेश किए जिनका पूरे देश पर खुमार सा छा गया. रॉक ऑन में फरहान ने समय में बदलाव को दिखाने के लिए कंधे तक झूलते अपने बालों को बाद में छोटा कर दिया है.

दरअसल देखा जाए तो निर्देशन में मिली सफलता के बाद से ही फरहान अभिनय का सपना देखने लगे थे. जोया के शब्दों में, ‘मेरा भाई हमेशा से एक कलाकार रहा है जो लोगों का ध्यान खींचने के लिए लालायित रहता था. फिर 1980 का जमाना आया जब फिल्मों का स्तर इतना गिर गया था कि उसे एक्टिंग से डर लगने लगा और उसका ध्यान दूसरी चीजों की तरफ मुड़ गया.’ अब फरहान कहते हैं, अभिनय आपको भावुकता के स्तर पर आज़ाद बना देता है. अचानक आप अपने भावों को बिल्कुल अलग तरह से इस्तेमाल करने लगते हैं. मुझे चीजें महसूस करनी पड़ीं. मुझे उन चीजों के बारे में सोचना पड़ा जिनके बारे में मैं सामान्यतया नहीं सोचता.

फिलहाल फरहान दो और फिल्मों में अभिनय कर रहे हैं. उनके किरदार बेहद दिलचस्प हैं. उदाहरण के लिए द फकीर ऑफ वेनिस में वो एक ऐसे व्यक्ति की भूमिका निभा रहे हैं जो एक आर्ट प्रोजेक्ट के लिए एक गंजेड़ी साधु को वेनिस ले जाता है. ये उनके मित्र और बीइंग सायरस के निर्देशक होमी अजानिया के अनुभव पर आधारित फिल्म है. लक बाय चांस में वो दिल्ली से मुंबई गए एक संघर्षरत अभिनेता का किरदार निभा रहे हैं तो सबसे पहले रिलीज हुई रॉक ऑन में वो एक पॉपुलर रॉक बैंड के सदस्य हैं.

शहरी मध्यवर्ग के सुरक्षात्मक खोल में पले बढ़े फरहान को 1990 में थोड़े समय के लिए इस खोल की कमजोरियों का अनुभव तब हुआ जब मुसलमान होने पर उन्हें औरों से अलग करके देखा गया. फरहान बताते हैं कि वो उनकी जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर था. उनके दोस्तों के मां-बाप उन्हें बार-बार ये अहसास दिलाते कि वो कुछ अलग हैं. फरहान कहते हैं कि वो अगर कट्टरपंथी नहीं हुए तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि उदार थी.

फरहान बताते हैं कि अभिनय के बारे में उन्होंने उन बड़े अभिनेताओं से भी काफी कुछ सीखा जिन्हें उन्होंने निर्देशित किया है. द फकीर ऑफ वेनिस में फकीर की भूमिका निभा रहे अन्नू कपूर ने सेट पर फरहान की घबराहट को कम करने में बड़ी मदद की. कपूर कहते हैं, ‘फरहान बहुत खुले दिल के हैं और औरों की बात सुनने से परहेज नहीं करते. अभिनय को निखारने का यही मूलमंत्र है. इस फिल्म के निर्देशक और फरहान के दोस्त आनंद सुरपुर बताते हैं कि अपने पात्र पर ध्यान देने के साथ फरहान के भीतर का निर्देशक दूसरी जरूरी चीजों पर भी उतनी ही नजर रखता है.

फरहान कहते हैं, “मैं खुद सहित और जितने भी निर्देशकों को जानता हूं, वो फिल्म की रिलीज और उसका एक हफ्ते का प्रमोशन पूरा होते ही निढ़ाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ते हैं. आप किसी से मिलना नहीं चाहते. कहीं जाना नहीं चाहते. आप बस टीवी देखते हैं और कुछ नहीं करते. इससे पता चलता है कि हर फिल्म में आप अपनी कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं.

एनेस्टेशिया गुहा