अपने बेपरवाही भरे अंदाज में जितेंद्र झानवले ने एक घंटे के भीतर 30वीं बार फोन कान से लगाया. ‘ठीक है, कितने? कहां गया वो?’, कहकर जल्दी से फोन काटा और फिर कुछ लोगों से मुखातिब हुए जो उनके पैर छूने के लिए झुक रहे थे. 30 के करीब इन लोगों में से बहुतों के गले में सोने की चेनें और हाथों में कई अंगूठियां थीं. किसी आम दिन ये सभी लोग बांद्रा और अंधेरी के बीच के इलाके का जिम्मा उठाने वाले शिवसेना कार्यकर्ता झानवले के एक इशारे पर जरा-सी देर में हंगामा खड़ा कर देते. मगर आज उनके हाथ बंधे थे. इसलिए क्योंकि वे बांद्रा पुलिस स्टेशन के भीतर थे जहां उन्हें घेरे पुलिसकर्मियों का काम आज बस यही था कि वे किसी भी तरह झानवले और उनके झुंड को रोके रखें. ऐसा नहीं होता तो उन्होंने कांग्रेस महासचिव और शिवसेना के निशाने राहुल गांधी को परेशान करने के तरीके ढूंढ़ ही लिए होते जो उस दिन मुंबई आए हुए थे. झानवले अपने काम में कितने दक्ष हैं यह इसी से समझ जा सकता है कि बांद्रा पुलिस ने जल्दी से जल्दी उन्हें अपने शिकंजे में ले लिया ताकि उन्हें गांधी से जितना हो सके दूर रखा जा सके.
बाकी मुंबई और महाराष्ट्र अब भी शिवसेना के लिए दूर की दुनिया लगता है. दरअसल, मुंबई के भीतर कई मुंबई हैं. मुंबईकर तो बस एक क्षेत्रीय पहचान है. इस महानगर में कई भाषाएं हैं, कई संस्कृतियां हैं. मगर उन सभी को सिर्फ इसी एक बात से फर्क पड़ता है कि उनकी रोजमर्रा की जिंदगी ठीक से चलती रहेशिवसेना, जिसके लिए झानवले काम करते हैं, बाल ठाकरे ने जून, 1966 में बनाई थी. लंबे समय तक इस दक्षिणपंथी पार्टी को उन हमलों के लिए जाना जाता रहा जो यह ऐसे लोगों पर बोलती थी जो इसके हिसाब से इसके खिलाफ थे. लेकिन अब इसके सामने खुद की राजनीति बदलने की मजबूरी खड़ी है. मराठी पहचान का मुद्दा इसे अब वह फायदा नहीं दे रहा जो पहले देता था. सामने एक दोराहा है और आगे किस रास्ते पर बढ़ा जाए इसपर पार्टी में बहस जारी है.
इस बहस का एक हिस्सा यह भी है कि कैसे अपने हमलावर तेवर थोड़ा कम किए जाएं और पार्टी को नए लोगों से जोड़ा जाए. शाहरुख खान मुद्दे पर इसके रुख और पिछले कुछ समय से सूचना-तकनीकी (आईटी) के प्रति इसके झुकाव को देखकर यह बात समझी जा सकती है. हालांकि बाहर से तो ऐसा लग रहा था कि सेना ने खान के साथ पूरी तरह से टकराव का रास्ता अख्तियार कर रखा है मगर पार्टी, महाराष्ट्र कांग्रेस और राज्य प्रशासन में अंदरूनी लोगों से मिली जानकारियां बताती हैं कि बाल ठाकरे और शाहरुख खान के बीच मुलाकात लगभग तय हो गई थी. बताया जाता है कि समझौता हो जाए इस बारे में मिल-बैठकर बात करने के लिए ठाकरे के निवास मातोश्री और खान के बंगले मन्नत के बीच 20 बार फोन पर बातचीत हुई.
सेना के वरिष्ठ नेताओं के मुताबिक जैसे ही ऐसा लगने लगा कि चीजें सुलझ जाएंगी तभी खान ने बातचीत तोड़ दी. कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि नई दिल्ली में पार्टी हाईकमान को चिंता थी कि शिवसेना के विरोध के मद्देनजर मुंबई में राहुल गांधी की लोकल ट्रेन यात्रा से उसे जो फायदा हुआ है, खान और ठाकरे की मुलाकात से वह कहीं खत्म न हो जाए. समझा जा रहा है कि कांग्रेस नहीं चाहती थी कि शांति का श्रेय, भले थोड़ा ही सही, ठाकरे परिवार को चला जाए. खान तक संदेश पहुंचा दिया गया कि वे ठाकरे से दूर रहें और खान देश से बाहर चले गए.
इस बात से कि शिवसेना खान के साथ शांति समझौता करने की पूरी कोशिश कर रही थी, पार्टी के भविष्य की संभावित राह का पहला संकेत मिलता है. कांग्रेस के अड़ंगा लगाने के बाद यह नहीं हो सका लेकिन इसके बावजूद सेना ने मुंबई में कोई खास उत्पात नहीं मचाया. सिर्फ अंधेरी में एक घटना हुई जिसमें कुछ सेना कार्यकर्ताओं ने एक सिनेमा हॉल पर पत्थर फेंके.
दूसरा संकेत है आईटी को लेकर शिवसेना का नजरिया. अपना मुद्दा उछालने के लिए पार्टी पारंपरिक रूप से सड़कों को प्राथमिकता देती रही है. लेकिन अब सेना की एक आईटी विंग बन रही है जो तीन चीजों पर ध्यान देगी. पहली, आईटी सेक्टर में ज्यादा से ज्यादा मराठी आएं. दूसरी, पार्टी कैडर को आईटी का प्रयोग सिखाया जाए और तीसरी, इंटरनेट के इस्तेमाल के जरिए पार्टी का विस्तार. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को अपनी बेबसाइट बनाने और भविष्य की लड़ाइयों के हिसाब से तैयार रहने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. सेना को उम्मीद है कि आईटी के प्रति यह दोस्ताना रवैया युवा मराठियों को आकर्षित कर सकता है और वे राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) की बजाय उसके पाले में आ सकते हैं.
फिलहाल मनसे और शिवसेना के वोटर एक ही हैं. राज की ज्यादातर योजनाएं और गतिविधियां सेना के कोंकण जैसे पूर्व गढ़ों पर केंद्रित रही हैं. जब भी वे कुछ करते हैं तो ये काफी हद तक सेना को चोट पहुंचाने के लिए ही होता है
बदलाव आ रहा है यह बात दादर स्थित पार्टी मुख्यालय शिवसेना भवन से भी समझी जा सकती है. हालांकि इसमें अब भी दूसरी पार्टियों के नई दिल्ली स्थित मुख्यालयों जैसी बात नहीं है जहां के विशाल खुले प्रांगणों में लोगों का हुजूम टूटा पड़ता है. सेना भवन में सिर्फ उन्हीं को प्रवेश मिलता है जो या तो वहां काम करते हैं या फिर जिनका वहां आने का कार्यक्रम पहले से तय होता है. भीतर जाने पर मैं पाता हूं कि यह बहुत ही साफ-सुथरा है. यहां एक कॉल सेंटर भी है. महिलाएं काली टीशर्ट में नजर आती हैं जिनमें बाईं तरफ शिवसेना का चुनाव चिह्न तीर-कमान भगवा रंग में छपा हुआ है.
मैं रिसेप्शनिस्ट को अपना कार्ड थमाता हूं. उसके द्वारा इसपर दर्ज जानकारी डेटाबेस में दर्ज की जाती है और तुरंत ही मेरे फोन पर मराठी में एक स्वागत संदेश आ जाता है. हर मंजिल पर फ्लैट स्क्रीन टीवी सेट लगे हैं. कैडर को टीवी देखने की मनाही नहीं, बस क्या देखना है और क्या नहीं, इस बारे में अपनी समझ से सावधानी रखने का निर्देश है. यहां मौजूद लोगों से बात करने पर पता चलता है कि अकसर वे क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण ही देखते हैं. पांचवीं मंजिल की लॉबी में आज करीब 30 लोग हैं. इनमें से कुछ भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच चल रहा टेस्ट मैच देख रहे हैं. सचिन तेंदुलकर, जिनके एक बयान की कुछ समय पहले बाल ठाकरे ने आलोचना की थी, जल्दी आउट हो जाते हैं. शिव सैनिक टीवी बंद कर देते हैं.
इससे कई मील दूर जोगेश्वरी में पहली बार सेना के टिकट पर विधायक बने रविंद्र वाइकर एक नई संस्कृति के निर्माण में लगे हैं. जोगेश्वरी वही जगह है जहां बाबरी विध्वंस के एक महीने बाद 1993 में कुछ हिंदू परिवारों की झोपड़ियों को आग लगा दी गई थी. इस घटना में पांच महिलाओं सहित छह लोग मारे गए थे. इससे हिंसा भड़क गई थी और दो हफ्ते तक शिव सैनिक पूरी मुंबई में अलग-अलग जगहों पर मुसलमानों को निशाना बनाते रहे थे. ये घटनाएं अब इतिहास में मुंबई दंगों के नाम से दर्ज हो गई हैं. जोगेश्वरी में बेरोजगारों की संख्या काफी थी जिनकी व्यवस्था से नाराजगी शिवसेना को काफी कैडर उपलब्ध करा देती थी. तब इसे मुंबई का मैला हिस्सा कहा जाता था.
अब उसी जोगेश्वरी की तस्वीर बदल रही है. वाइकर चार बार म्युनिसिपल कॉरपोरेटर रह चुके हैं और अब जोगेश्वरी ईस्ट से विधायक हैं. वे कहते हैं, ‘आप इसे देखिए. क्या आपको विश्वास होता है कि यह वही जोगेश्वरी है.’ यहां तीन विशाल और साफ-सुथरे पार्क हैं जिनका नामकरण 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए हमले में शहीद पुलिस अधिकारियों हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर के नाम पर हुआ है. जोगेश्वरी के प्रवेश द्वार पर ही सड़क किनारे एक चमचमाता गणपति मंदिर बना हुआ है. मंगलवार की शाम है और मंदिर में खचाखच भीड़ है. यह देखकर हैरत होती है कि यहां जमा लोगों में से ज्यादातर युवा हैं. वाइकर कहते हैं, ‘हम ऐसे तरीके खोज रहे हैं जिनसे युवा पीढ़ी का ध्यान खींचा जा सके. सत्ता में होने पर हमारी व्यस्तता वादे पूरे करने की दिशा में होती है. जब सत्ता नहीं होती तो हमें पता नहीं होता कि हम क्या करेंगे. इससे कैडर में बेचैनी पैदा हो जाती है. चाहें तो अब भी हम दस हजार लोग इकट्ठा कर सकते हैं मगर अब हम उन फौरी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जिनसे लोगों पर फर्क पड़ता है.’
ऐसा लगता है कि वाइकर मानुस मुद्दे पर समझदारी के साथ काम कर रहे हैं. गणपति मंदिर की छत पर खुली जगह में एक क्लास चल रही है. इसमें करीब 150 छात्र हैं. एक शिक्षक उन्हें टिप्स दे रहा है कि बोर्ड परीक्षाओं में मराठी में ज्यादा से ज्यादा अंक कैसे हासिल किए जा सकते हैं. शिक्षक के पास एक माइक है और स्पीकर के जरिए उसकी आवाज हर छात्र तक पहुंच रही है- ‘आज तक किसी ने भी मराठी में 100 फीसदी अंक हासिल नहीं किए हैं. तुमको यह उपलब्धि हासिल करने वाला पहला छात्र बनना है.’ छात्रों के एक तरफ शिवाजी की प्रतिमा और कुछ समय पहले दिवंगत हुईं बाल ठाकरे की पत्नी मीनाताई की फ्रेम जड़ी और माला लगी तस्वीर दिखती है.
वाइकर का एक आदमकद पोस्टर भी लगा है. यह सेना का नया स्वरूप है. वाइकर के लोगों को जोगेश्वरी की हर चाल और इसमें रहने वाले हर आदमी की जरूरतों का काफी कुछ पता है. वाइकर के दफ्तर को मालूम है कि जोगेश्वरी में कितनी विधवाएं या अनाथ बच्चे रहते हैं, या फिर वहां रहने वाले कितने लोगों के कोई औलाद नहीं है. मंदिर में रोज बूढ़ी महिलाओं को मुफ्त खाना मिलता है. मंदिर के पास ही जॉगिंग के लिए ट्रैक और एक छोटी-सी झील बनाई गई है. रात को यहां घूमने वाले लोगों की भीड़ लगी रहती है. हालांकि भीतर से जोगेश्वरी अभी भी खचाखच भरा है. मगर बाहर से इसकी तसवीर बदल रही है.
मगर बाकी मुंबई और महाराष्ट्र अब भी शिवसेना के लिए दूर की दुनिया लगता है. दरअसल, मुंबई के भीतर कई मुंबई हैं. मुंबईकर तो बस एक क्षेत्रीय पहचान है. इस महानगर में कई भाषाएं हैं, कई संस्कृतियां हैं. मगर उन सभी को सिर्फ इसी एक बात से फर्क पड़ता है कि उनकी रोजमर्रा की जिंदगी ठीक से चलती रहे. अब यह मुमकिन नहीं कि सारी मुंबई पर सिर्फ एक आदमी की सत्ता चले.
इस सबसे मराठी मानुस की पहचान को लेकर भ्रम पैदा हो रहा है जो सेना का केंद्रीय मुद्दा है. 70 वर्षीय मराठी साहित्यकार दिनकर गंगल को समझ में नहीं आता कि मराठी मानुस है कौन. वे चेंबूर के पास रहते हैं और उनका ज्यादातर वक्त इसी कोशिश में गुजरा है कि महाराष्ट्रवासी और भी ज्यादा पढ़ने की आदत डालें. 1982 में उन्होंने पढ़ने की आदत को प्रोत्साहित करने के लिए एक यात्रा का आयोजन किया था. गंगल कहते हैं, ‘अभी कोई अगर पूछे तो मैं बता नहीं पाऊंगा कि मराठी मानुस कैसा होता है. मेरे पास सिर्फ वही प्रचलित धारणा है कि ऐसा व्यक्ति महाराष्ट्र में जन्मा और पला-बढ़ा होता है और धाराप्रवाह मराठी बोलता है.’ तो आखिर मराठी मानुस कौन है, इस बारे में बेहतर राय कायम करने के लिए गंगल का प्रस्ताव है कि मार्च में पुणे में हो रहे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के दौरान 2000 लोगों पर सर्वे किया जाए. जैसा कि वे कहते हैं, ‘वहां दस हजार लोग इकट्ठा होंगे. यह सबसे बड़ा मराठी साहित्य आयोजन है. हम 2000 लोगों से पूछेंगे कि उनकी नजर में मराठी मानुस क्या है.’ गंगल कहते हैं कि अपने चाचा से अलग राह पर चल चुके राज ठाकरे की मनसे कुछ मराठियों के बीच ज्यादा लोकप्रिय है. वे कहते हैं, ‘बड़ी उम्र के महाराष्ट्रवासी और युवा राज की तरफ आकर्षित दिखाई देते हैं. उन्हें राज में इंदिरा गांधी की झलक दिखती है.’
फिलहाल मनसे और शिवसेना के वोटर एक ही हैं. राज की ज्यादातर योजनाएं और गतिविधियां सेना के कोंकण जैसे पूर्व गढ़ों पर केंद्रित रही हैं. जब भी वे कुछ करते हैं तो ये काफी हद तक सेना को चोट पहुंचाने के लिए ही होता है. उनके हमलावर तेवर भी वैसे ही हैं जो अतीत में शिवसेना कैडर के होते थे. हालांकि विदर्भ जैसे इलाकों के एक बड़े हिस्से में मनसे अब भी काफी कमजोर है. इसलिए हालात शिवसेना के हाथ से पूरी तरह से बाहर नहीं निकले हैं.
ऐसा भी लगता है कि मराठी मानुस के पास खुद का एक नजरिया है और शायद वह इतनी आसानी से भावनाओं में न बहे. इसका एक संकेत है 2009 में आई निर्देशक महेश मांजरेकर की फिल्म मी शिवाजीराजे भोसले बोलतोय. मराठी पहचान से जुड़े सवालों को संबोधित करती यह फिल्म अब तक 25 करोड़ रुपए की कमाई कर चुकी है और इसे अब तक की सबसे हिट मराठी फिल्म करार दिया गया है. इसके केंद्र में एक आम मराठी परिवार है जिसका मुखिया अपने काम और अपने बच्चों की असफलताओं से निराश है. वह अपनी मराठी पहचान के साथ-साथ अपने पुरखों को भी कोसता है कि उसने एक मराठी के रूप में जन्म लिया. इससे छत्रपति शिवाजी नाराज हो जाते हैं और ‘जाग’ जाते हैं. इसके बाद वे इस व्यक्ति के साथ बात करते हैं और कहते हैं कि दुनिया पर दोष थोपने से पहले वह अपनी गलतियां देखे कि क्यों मराठी मानुस को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. इसके बाद फिल्म का केंद्रीय चरित्र अपना नजरिया बदल लेता है. महाराष्ट्र को भी उम्मीद है कि शिवसेना का नजरिया बदलेगा.