ख़बर क्यों नहीं है पत्नकारों की छंटनी?

गलाकाट होड़ के बावजूद चैनलों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे किसी भी प्रकार के मामले में एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं बोलेंगे

जिस तरह से पत्नकारों को निकाला गया है, उसका संपादकीय स्वतंत्नता पर भी असर पड़े बिना नहीं रहेगा. आखिर यह छंटनी देखने के बाद कौन पत्नकार पेड कंटेंट या खबरों में मिलावट या मीडिया कंपनी के ऐसे ही उलटे-सीधे निर्देशों को मानने से इनकार कर पाएगा

जानी-मानी टीवी कंपनी टीवी-18 ने अभी हाल में अपने बिजनेस समाचार चैनलों से एक झटके में 200 से ज्यादा मीडियाकर्मियों को निकाल दिया. इनमें काफी संख्या में पत्नकार भी हैं. लेकिन इस खबर को अधिकांश अखबारों और चैनलों ने ख़बर नहीं माना. इसलिए यह खबर कहीं नहीं छपी या चली, सिवाय कुछ ब्लॉगों के. इससे पहले भी पिछले एक साल में कई अखबारों और टीवी समाचार चैनलों में मंदी के नाम पर या उसके बहाने सैकड़ों पत्नकारों की छंटनी हुई, बाकी के वेतन में कटौती हुई और नई भर्तियों पर रोक लगा दी गई, लेकिन उसकी भी कोई खबर कहीं नहीं दिखाई दी. टिप्पणी या चर्चा तो दूर की बात है. सवाल यह है कि पत्नकारों की छंटनी खबर क्यों नहीं बनती है? क्या यह खबर नहीं है?

शायद आपको याद हो, पिछले साल जब जेट एयरवेज ने इसी तरह अपने कुछ सौ कर्मचारियों को निकाला था, तब चैनलों ने उस खबर को खूब उछाला था. उस व्यापक कवरेज के कारण जो जनदबाव बना, उसकी वजह से जेट को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था. फिर पत्नकारों और चैनलकर्मियों को निकाले जाने की खबर को इस तरह ब्लैकआउट करने की वजह क्या है? यही नहीं निकाले गए चैनलकर्मियों के हक में किसी पत्नकार संगठन या यूनियन या चैनलों के संपादकों की संस्था – ब्राडकास्ट एडिटर्स संगठन – ने भी कुछ नहीं कहा. गोया कुछ हुआ ही नहीं हो. अलबत्ता उसी के आसपास सभी चैनल आईबीएन लोकमत पर शिवसैनिकों के हमले को लोकतंत्न पर हमला बताते हुए सर आसमान पर उठाए हुए थे.

इरादा इन दोनों घटनाओं की तुलना करने का नहीं है और न ही आईबीएन लोकमत पर हुए हमले को कम करके आंकने का है. लेकिन चैनलों के संपादकों से कुछ अपेक्षा तो थी ही. क्या कारण है कि चैनलों और मीडिया के अंदर चल रही हलचलों या पत्नकारों की समस्याओं को खबर या चर्चा के लायक नहीं माना जाता? असल में, आपस में गलाकाट होड़ के बावजूद इस मामले में चैनलों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे ऐसे मामलों में एक दूसरे के खिलाफ नहीं बोलेंगे, भले ही वह कितनी बड़ी खबर क्यों न हो.

चैनल चलाने वाली कंपनियां कह सकती हैं कि इसमे नया क्या है? खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में कर्मचारियों को हायर और फायर किया जाता रहता है. पिछले एक साल में आर्थिक मंदी के कारण लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है. ऐसे में, मीडियाकर्मी अपवाद कैसे हो सकते हैं? सच यह है कि चैनलों समेत पूरे कॉर्पोरेट मीडिया ने जेट जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अन्य क्षेत्नों में मंदी के नाम पर लाखों कर्मचारियों की छंटनी की खबरों को कोई महत्व नहीं दिया. यही नहीं, उसने इन खबरों को अंडरप्ले किया और अब तो वह अर्थव्यवस्था के पुराने दिन लौटने के गीत गाने में जुटा है.

कहा जा सकता है कि ऐसे में पत्नकारों की छंटनी को इतना तूल देने का क्या मतलब है? निश्चय ही, पत्नकार कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं है. लेकिन चैनलों और मीडिया में चल रही इस छंटनी का संबंध केवल मीडिया कंपनियों और उनके कर्मचारियों यानी पत्नकारों तक सीमित नहीं है. यह इसलिए चिंता की बात है कि इसका सीधा सम्बन्ध चैनलों के कंटेंट से है. जिन भी चैनलों से पत्नकारों की छंटनी हुई है, वहां उनके न्यूज ऑपरेशन पर इसका असर पड़ना तय है. खबरों का दायरा कम होगा और इसके कारण खबरों के संग्रह से लेकर विभिन्न बीटों की कवरेज पर नकारात्मक असर पड़ेगा. इसका मतलब यह होगा कि आनेवाले दिनों में चैनलों पर बेसिर-पैर का इंडिया टीवी मार्का सस्ता कंटेंट और बढ़ेगा. आखिर जब पत्नकार और खबरें नहीं होगीं तो चैनल क्या दिखाएंगे?

इससे भी बड़ी बात यह है कि चैनलों से जिस तरह से पत्नकारों को निकाला गया है, उसका संपादकीय स्वतंत्नता पर भी असर पड़े बिना नहीं रहेगा. आखिर यह छंटनी देखने के बाद कौन पत्नकार पेड कंटेंट या खबरों में मिलावट या मीडिया कंपनी के ऐसे ही उलटे-सीधे निर्देशों को मानने से इनकार कर पाएगा. इससे पत्नकारों और अन्य मीडियाकर्मियों पर काम का दबाव और तनाव और भी बढ़ जाएगा. चैनलों में पहले ही पत्नकारों को बारह-बारह घंटे काम करना पड़ रहा है जिससे अधिकांश टीवी पत्नकार डायबिटीज से लेकर ब्लड प्रेशर और अन्य तरह की बीमारियों से ग्रस्त हैं. नए हालात में उनकी स्थिति और बिगड़ेगी. इसका असर भी कंटेंट पर पड़ेगा.

क्या अब भी बताने की जरूरत है कि एक दर्शक के रूप में इसकी कीमत आप-हम सभी को और अंतत: पूरे लोकतंत्न को चुकानी पड़ेगी?

आनंद प्रधान