टायरों की दिल्ली शायरों की दिल्ली

किताबों के बढ़िया कारोबार की खबरों और इनकी पुष्टि में दिए जा रहे आंकड़ों के बावजूद लेखक आर्थिक और समाज, मानवीय कसौटियों पर ज्यादा विपन्न क्यों नजर आ रहा है?

दिल्ली के पुस्तक मेले में इस साल अच्छी-ख़ासी भीड़ रही, इस बात पर लेखकों-और प्रकाशकों की बिरादरी खुश है. प्रकाशक यह भी बता रहे हैं कि उनकी किताबें पहले से ज्यादा बिकी हैं. यानी पुस्तक प्रकाशन उद्योग फल-फूल रहा है. बाजार का अध्ययन करने वाले इस बात के कुछ और भी, और कहीं ज्यादा सटीक आंकड़े जुटा देंगे कि किताबों का कारोबार मुनाफे का कारोबार है. बिक्री और लाभ की इस आर्थिक कसौटी का जाना-पहचाना निष्कर्ष यह निकलता और निकाला जाता रहा है कि इंटरनेट के इस दौर में भी किताबों की भूख ख़त्म नहीं हुई है, पढ़ने वालों की प्यास बची हुई है.

लेकिन क्या यह पूरा सच है? क्या कुछ दूसरे आर्थिक और सामाजिक निष्कर्ष हो सकते हैं जिनके सहारे हम यह समझ पाएं कि पुस्तकों के इस कारोबार के बावजूद लेखक आर्थिक कसौटियों और समाज मानवीय कसौटियों पर ज्यादा विपन्न क्यों नजर आ रहा है? क्योंकि जो समाज ज्यादा किताबें पढ़ता-गुनता है, उसके पास ज्ञान और संवेदना का कोष भी बड़ा होना चाहिए- जो दुर्भाग्य से होता नजर नहीं आ रहा. ज्ञान की दुनिया कुछ तकनीकी विशेषज्ञताओं तक सिमट गई है और समाज में संवेदना कम, संकीर्णता ज्यादा दिखती है.

इस सवाल और संकट पर एक दूसरे कोण से विचार करें. पुस्तक मेले के ठीक पहले दिल्ली में वाहन मेला- यानी ऑटो एक्सपो लगा. 200 रुपए के न्यूनतम टिकट के बावजूद ऑटो एक्सपो में पुस्तक मेले से कई गुना ज्यादा लोग उमड़े. आने वाले दिनों में जब व्यापार मेला- यानी ट्रेड फेयर- लगेगा तब भी भीड़ पुस्तक मेले से कई गुना ज्यादा होगी.

ऐसा नहीं है कि ऑटो एक्सपो में गए सारे लोगों ने गाड़ियां खरीद लीं. इस लिहाज से सोचें तो जितने लोगों ने पुस्तक मेले में किताबें खरीदी होंगी, उससे कई गुना कम लोगों ने गाड़ियां खरीदी होंगी. फिर भी गाड़ियों के स्टॉल पर भीड़ रही, किताबों के स्टॉल सूने मिले तो इसका क्या मतलब है? इसका सीधा मतलब यह है कि हमारे समाज में लोगों को गाड़ियां बड़ी चीज लगती हैं, किताबें नहीं. शायरों पर नाज करने वाली दिल्ली अब टायरों पर जान छिड़क रही है- आलम यह है कि सड़क पर जगह नहीं है कि आप गाड़ियां तक करीने से पार्क करें. खुद ऑटो एक्सपो के दौरान प्रगति मैदान से चिड़ियाघर, इंडिया गेट और दिल्ली गेट तक इधर-उधर ठुंसी गाड़ियां इसकी गवाही देती रहीं.

इसके अलावा गाड़ियों के साथ-साथ पेट्रोल-डीजल की बढ़ती हुई क़ीमतें गाड़ी खरीदने के तर्क को हतोत्साहित करती हैं. फिर दिल्ली में जिस तरह मेट्रो का विस्तार हो रहा है, उसे देखते हुए भविष्य में गाड़ियों की उपादेयता और कम होने के आसार हैं. लेकिन दिल्ली अगर गाड़ियों पर टूटी पड़ रही है तो इसलिए नहीं कि गाड़ियों से उसकी सुविधा, उसके सफर का वास्ता है, बल्कि इसलिए कि पैसे कमाने से ज्यादा बनाने और दिखाने पर यकीन रखने वाली इस नई संस्कृति में उसकी हैसियत उसकी गाड़ी के हिसाब से ही आंकी जाती है. गालिब और मीर की समझ से नहीं, मर्सिडीज और बीएमडब्ल्यू की मिल्कियत से तय होता है कि कौन कितना बड़ा आदमी है.

हिंदी का लेखक अपने समाज का नायक नहीं है. वह एक बेचेहरा उपस्थिति है जिसकी अच्छी कविताएं अनसुनी रह जाती हैं, जिसकी अच्छी किताबों की रायल्टी इतनी नहीं होती कि वह एक महीने का भी खर्च चला सके. लेकिन अगर वह फिर भी लिख रहा है, फिर भी मेले में दिख रहा हैसवाल है, इस समाज में किताबों का मेला फिर भी भीड़ क्यों जुटा लेता है. एक तो इसलिए कि लक्ष्मी के सारे वर्चस्व के बावजूद सरस्वती का रुतबा कुछ हद तक कायम है- यानी अगर आप पैसे के साथ-साथ कुछ इल्म भी रखते हों तो आपकी हैसियत बढ़ती है. आपके गराज में बड़ी गाड़ियां देखने वाला आदमी आपके ड्राइंग रूम में किताबें देखकर शायद अभिभूत होता है कि इतने बड़े आदमी को किताबों से भी कितना प्रेम है. किताबों का संकलन किसी व्यक्ति के बड़प्पन में एक ऐसी विनम्रता का तत्व जोड़ देता है जो गाड़ियों की कतार नहीं जोड़ पाती.

दूसरी बात देखने की यह है कि इस मेले में कौन-सी किताबें ज्यादा बिकीं. कोई शोधार्थी अगर इसका हिसाब लगाने में जुटे तो उसे दो-तीन चीजें साफ दिखाई देंगी. एक तो शिक्षा और करिअर से जुड़ी वे उपयोगितावादी किताबें जो अच्छे खाने से लेकर खुश रहने तक के सौ नुस्खे बताती हैं और जिनके चमकीले पन्ने अपने सामने खड़े अनजान, लेकिन गांठ के पूरे पाठक को भरोसा दिलाने में कामयाब रहते हैं कि उसके लिए इससे अच्छी किताब दूसरी नहीं हो सकती. यहां भी एक तरह का उपभोक्तावाद सक्रिय रहता है जिसे अपने लिए एक फायदे की किताब खरीदनी है. दूसरी तरह की किताबें वे बिकीं जिनके साथ कोई चर्चित हस्ती जुड़ी हो. बॉलीवुड से जुड़े तथाकथित लेखकों या शायरों की किताबें ज्यादातर स्टॉलों पर नजर आईं और उन्हीं के आसपास भीड़ मंडराती नजर आई. इसके अलावा शोभा डे और चेतन भगत जैसे वे अंग्रेजी नाम बिकते नजर आए जिनकी कुछ किताबों को सतही लोकप्रियता मिल गई है. यही नहीं, जिन किताबों पर फिल्में बनी हैं- चाहे वे शरतचंद की देवदास या परिणीता हो या विकास स्वरूप की क्यू एंड ए, जिसपर स्लमडॉग मिलिनेयर आधारित है- वे भी पाठकों की भीड़ को आमंत्नित करती रहीं. तीसरी तरह की किताबें वे रहीं जिन्होंने हाल के वर्षों में किन्हीं विवादों को जन्म दिया हो. इस लिहाज से बीजेपी से अलग हुए नेता जसवंत सिंह की किताब भी खूब बिकी. अपनी विवादित छवि की वजह से बरसों-बरस से तसलीमा नसरीन हिंदी में भी हिंदी के किसी लेखक से ज्यादा बिकती रही हैं.

गरज यह कि वास्तविक साहित्यिक मूल्य और महत्व वाली कृतियां मेले में उस तरह नहीं बिकीं, जिस तरह दूसरी अगंभीर किस्म की किताबें बिकती रहीं. फिर मेला जिस तरह नियोजित था, उसमें- कम से कम हिंदी में- सारे बड़े प्रकाशक एक जगह बैठा दिए गए थे. नतीजतन वास्तविक पुस्तक प्रेमियों की भीड़ भी मेले के एक हिस्से तक सीमित रही. एक ही हॉल का ज्यादा बड़ा हिस्सा, जहां छोटे प्रकाशक थे- या तो सूना पड़ा रहता या सरसरी पार होती निगाहों में अपने लिए एक उम्मीद खोजता दिखता. जाहिर है, खरीददारों के अपने सीमित बजट की गुंजाइश आम तौर पर बड़े प्रकाशकों के यहां कुछ जानी-पहचानी कृतियों की खरीद में ख़त्म हो जाती थी और बाद में किसी छोटे स्टॉल पर किसी नए लेखक की कोई नई कृति उपेक्षित रह जाती.

पाठक की जेब के सवाल पर हिंदी के पुस्तक व्यवसाय से जुड़ी एक आम शिकायत का ध्यान आता है कि हिंदी की किताबें काफी महंगी हैं- पाठक चाहे भी तो जेब इजाजत नहीं देती कि वह उन्हें खरीद सके. एक हद तक इस मायने में यह शिकायत सही लगती है कि किताब की लागत और क़ीमत के बीच का फासला काफी बड़ा है और इस फासले में प्रकाशक छूट और रिश्वत से लेकर कमीशन तक की गुंजाइश बनाए रखते हैं. अगर ये गोरखधंधे न हों तो पाठक आज जिस किताब को डेढ़ सौ रुपए में खरीदता है, वह सौ रुपए में मिल जाए.

लेकिन एक दूसरे स्तर पर सोचें तो क्या वाकई किताबें दूसरे उपभोक्तावादी सामानों के मुक़ाबले ज्यादा महंगी हैं? इन दिनों किसी फिल्म के एक शो पर चार-पांच सौ रुपए खर्च हो जाते हैं, परिवार सहित किसी औसत रेस्तरां में खाने का खर्च भी छह-सात सौ से ऊपर बैठ जाता है, घरों में लगे टीवी केबल या डिश ऐंटिना का खर्च भी महीने के तीन-साढ़े तीन सौ रुपए के हिसाब से सालाना 4,000 रु  से ऊपर पड़ता है. साल भर में उतार दिया जाने वाला जूता 1,000 रुपए से कम नहीं आता. आम मध्यवर्गीय घरों में अनलिमिटेड डाउनलोड की सुविधाओं वाला इंटरनेट कनेक्शन 750 रुपए में आता है.

मतलब सिर्फ इतना है कि औसत हिंदीभाषी घरों में किताबों पर खर्च का अनुपात बाकी खर्च के मुकाबले नहीं के बराबर होता है. एक औसत आदमी साल में जितने की कोल्ड ड्रिंक पी जाता है, जितने की फिल्में देख लेता है, जितने पैसे इंटरनेट, मोबाइल और टीवी पर खर्च कर देता है, उसका छोटा-सा हिस्सा भी किताबों पर नहीं लगाता. इसी कारण जब वह साल में एक बार किताब की दुकान पर जाता है तो न उसे अच्छी किताबों की पहचान होती है और न ही उनकी कीमत का कोई अंदाजा. वह अपनी बाकी खरीद की तरह यहां भी ऊंची कीमत और चमचमाती जिल्द पर भरोसा करता है और घर लौटकर पाता है कि किताब में दम नहीं. किस्मत या दूसरों से मिली जानकारी के आधार पर अच्छी किताब मिल भी जाए तो वह उतनी हल्की और मजेदार नहीं होती जितनी फिल्म होती है. इसे अंधेरे में पॉपकॉर्न खाते हुए देखा नहीं जा सकता, इसे रोशनी जलाकर और बैठकर पढ़ना पड़ेगा. चूंकि बैठकर पढ़ने का अभ्यास नहीं है, इसलिए यह भारी किताब एक दिन उसकी मेज से उठकर शेल्फ पर धूल खाने चली जाती है.

लेकिन यह एक सच्चाई है. दूसरी सच्चाई यह भी है कि किताबों का एक वफादार पाठक है जो इस मेले में अपनी गाढ़ी कमाई की बचत लिए पहुंचता है और अपनी प्रिय किताबों को पहुंच से बाहर पाता है. दरअसल, यही पाठक मेले का असली ग्राहक है. वह ऑटो एक्सपो नहीं जाता, व्यापार मेले की भीड़-भाड़ से खुद को दूर रखता है. लेकिन जब वह पुस्तक मेले में पहुंचता है तो पुस्तकों को भी कार और फ्रिज की तरह महंगा पाता है. जिन किताबों, जिस साहित्य ने उसे बाजार के विरुद्ध ख़डे होने के संस्कार दिए हैं, खुद को बाजार से बड़ा मानने की हिम्मत दी है, वही अब बाजार की गिरफ्त में है. इस पाठक की शिकायत वास्तविक है.

तो क्या किया जाए? जवाब एक ही है. हिंदी में पढ़ने-लिखने की जो संस्कृति अब नहीं बची है, उसे फिर जिलाया जाए. दरअसल, अभी एक दुष्चक्र हिंदी संसार को घेरे हुए है. किताबें नहीं मिलतीं क्योंकि दुकानें नहीं हैं. दुकानें इसलिए नहीं हैं कि किताबें नहीं बिकतीं. बाजार पर, स्कूल-कॉलेजों में अंग्रेजी का कब्जा और बोलबाला है. हिंदी का लेखक अपने समाज का नायक नहीं है. वह एक बेचेहरा उपस्थिति है जिसकी अच्छी कविताएं अनसुनी रह जाती हैं, जिसकी अच्छी किताबों की रायल्टी इतनी नहीं होती कि वह एक महीने का भी खर्च चला सके. लेकिन अगर वह फिर भी लिख रहा है, फिर भी मेले में दिख रहा है, फिर भी इतने पाठक हैं जो उसे पढ़ रहे हैं तो यह उम्मीद कर सकते हैं कि यह दुष्चक्रभी टूटेगा.

प्रियदर्शन

(लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं)