गांधी जी और नोबेल पुरस्कार

जिसकी राह पर चलने की कोशिश भर से लोग नोबेल के हक़दार बन जाते हों उसे खुद इसकी क्या जरूरत! 

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार क्या मिला हममें से कई कलेजा कूटने लग गए कि हाय हमारे बापू को जो नहीं मिला वो इस मुए ओबामा को कैसे मिल गया. आलोचकों का कहना है कि यह सौगात तो ओबामा को ऐसे पकड़ा दी गयी मानो नोबेल कोई झुनझुना हो.

मगर हम लोगों को इसका मातम मनाने की आवश्यकता ही क्या है कि गांधी जी को नोबेल नहीं दिया गया. गांधीजी के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकित होने के दौरान की गईं टिप्पणियों पर गौर करें तो साफ़ जाहिर है कि उन जैसे कद के मनुष्य की कल्पना तक नोबेल पुरस्कार देने वालों ने नहीं की थी. मनुष्य के आचार-विचार की जो भी सीमाएं नोबेल के आदर्शों के लिए मानक मानी गयी हैं यदि वे सभी गांधीजी के व्यक्तित्व के आगे बौनी साबित हो गईं तो इसमें दुखी होने का कोई कारण नहीं होना चाहिए. दरअसल नोबेल के निर्णायकों को गांधी जी के व्यक्तित्व के बहुआयामी पहलू परेशान किये रहे. वे समझ ही नहीं पाए कि उन्हें साधु-संत की श्रेणी में रखें या समाज सुधारक की या फिर एक नेता की. उनका हर रूप बेजोड़ था और अपनी ही परिधियों को तोड़ता भी रहता था. नोबेल जैसे पुरस्कार ऐसी व्यतिक्रमी विभूतियों के लिए नहीं हैं जिनकी सीमाओं का कोई ओर-छोर न हो और जो कई मोर्चों पर मानवता के लिए सक्रिय रहते हुए भी आम आदमी बनी रहें. और लानत है ऐसे नोबेल पर जो गांधी सरीखे व्यक्तित्वों के लिए अपनी सीमाओं में फेरबदल को तैयार न हो.

नोबेल के लिए गांधीजी का नाम वर्ष 1937,1938, 1939 1947 और उनकी मौत के बाद 1948 में अंतिम सूची में शामिल किया गया था. लेकिन उन्हें पुरस्कृत क्यों नहीं किया गया इस संदर्भ में एक टिप्पणी पर गौर करें. 1937 में नोबेल समिति के सलाहकार जैकब वर्म म्युलर ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में एक शांति कार्यकर्ता और राजनेता की गांधीजी की दोहरी भूमिका की आलोचना करते हुए लिखा, ‘वह अक्सर ईसा मसीह होते हैं लेकिन अचानक ही एक आम नेता बन जाते हैं.अर्थात उन्हें इकहरी भूमिका वाला व्यक्ति चाहिए था. चयन समितियों ने गांधी जी को नोबेल न मिलने के कई कारण बताए जिनमें एक यह भी था कि वह अत्यधिक भारतीय राष्ट्रवादी थे.म्युलर ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा कि गांधी जी एक प्रतिबद्ध शांतिवादी नहीं थे और उन्हें यह पता रहा होगा कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनके कुछ अहिंसक आंदोलन हिंसा और आतंक में बदल जाएंगे.अपने मुल्क को आजाद कराने के प्रति सक्रियता यदि किसी को पुरस्कृत होने से रोकती है तो क्या ऐसे पुरस्कार की आवश्यकता किसी जागरुक व्यक्ति को है? एक समिति का विचार था कि गांधी असल राजनीतिज्ञ या अंतरराष्ट्रीय कानून के समर्थक नहीं थे, न ही वह प्राथमिक तौर पर मानवीय सहायता कार्यकर्ता थे तथा न ही वे अंतरराष्ट्रीय शांति कांग्रेस के आयोजक थे.

मगर देखा जाए तो ये सब गांधीजी की सीमाएं नहीं बल्कि विशेषताएं हैं. और यही वे बातें हैं जो गांधी जी को सदैव प्रासंगिक बनाये रखेंगी. ये आलोचनाएं ही दरअसल गांधीजी की प्रशस्तियां हैं और बताती हैं कि नोबेल पुरस्कार के आदर्श गांधीजी के आदर्शों से कितने बौने हैं. रही बात ओबामा की तो खुद ओबामा गांधी जी के व्यक्तित्व के फैन हैं. क्या हमारे लिए यह गौरव की बात नहीं कि ओबामा को नोबेल उनके उन संकल्पों और स्वप्नदर्शिता की वजह से दिया गया है, जिनमें गांधी जी के आदर्शों को भी पर्याप्त जगह मिली हुई है. पुरस्कारों का औचित्य यही होना चाहिए कि वे चयनित व्यक्ति के कार्यों की सराहना ही न करें बल्कि  उसे और श्रेष्ठ कार्यों को करने के लिए प्रेरित भी करें. इस लिहाज से ओबामा जसे युवा और स्वप्नदृष्टा को दिया गया यह पुरस्कार औचित्यपूर्ण है और प्रशंसनीय भी.

अभिज्ञात

(लेखक सन्मार्ग में वरिष्ठ उप-सम्पादक और साहित्यकार हैं)