बाबरी पर बावरापन

लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट को लेकर सरकार की अपनी योजनाएं थीं जो इसके लीक हो जाने से धरी-की-धरी रह गईं. वह इसे अपने तरीके से संसद में पेश करने से चूक गई जिससे संघ परिवार का नुकसान सीमित हो गया और भाजपा को इसका जबर्दस्त फ़ायदा हुआ 

छह दिसंबर 1992 के बाद अचानक एक ही रात में संघ परिवार और भाजपा भारतीय मीडिया के लिए दुश्मन नंबर एक बन गए थे. ऐसा इसलिए नहीं हुआ था क्योंकि मीडिया खुद को भारत की बहुसांस्कृतिक विरासत के संरक्षक के तौर पर देखता है. बल्कि इसकी वजह यह थी कि गुस्साए कारसेवकों ने यह मानते हुए कि अयोध्या विवाद की एकपक्षीय कवरेज हो रही है, घटनास्थल पर अपना काम कर रहे फोटोग्राफरों के साथ मारपीट कर दी थी. मीडिया और भगवा परिवार के बीच के रिश्तों के बीच की यह कड़वाहट इतनी बढ़ गई कि दो महीने बाद फरवरी 1993 में जब भाजपा कार्यकर्ताओं ने दिल्ली के बोट क्लब पर प्रस्तावित एक रैली पर लगे प्रतिबंध का उल्लंघन करने की कोशिश की और पुलिस ने उन्हें तितर-बितर करने के लिए पानी की तेज बौछार छोड़ी तो पत्रकारों का एक समूह इस पर खुश होते हुए कह रहा था – ‘इनके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए.’

संघ राजनीति को बहुत संकरे नजरिए से देख रहा था. उसे शायद सिर्फ यही चिंता रही होगी कि लिब्रहान रिपोर्ट आडवाणी को फिर से केंद्र में लाकर उनकी राजनैतिक अहमियत को पहले जैसा न बना दे और कहीं उसका आडवाणी को विपक्ष के नेता पद से हटाने का अभियान पटरी से न उतर जाए

ऐसा लगता है कि 17 साल बाद समय का चक्का पूरा एक चक्कर घूम गया है. भगवा परिवार खासकर संघ और विश्व हिंदू परिषद के लिए वही मीडिया अब संकटहारक की भूमिका में है. उसने लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़ी और बाबरी ढांचे के ध्वंस से जुड़ी लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट लीक कर भगवा परिवार को एक बड़ी मुश्किल से बाहर निकाल लिया है. सरकार की योजना तो यह थी कि वह इस रिपोर्ट को 22 दिसंबर के आसपास संसद में पेश करेगी यानी शीतकालीन सत्र खत्म होने से ठीक पहले. उसे आशंका थी कि अगर उसने यह काम पहले किया तो सदन को सामान्य रूप से चलाना बड़ा मुश्किल हो जाएगा. सत्र के आखिर तक रिपोर्ट पेश न करने की योजना का आधार यह भी था कि ऐसा करने से कार्रवाई रिपोर्ट में कुछ कड़े कदमों की घोषणा भी मुमकिन हो सकेगी. मगर यह योजना धरी-की-धरी रह गई. 23 नवंबर को इंडियन एक्सप्रेस ने लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट के चुनिंदा अंश छाप दिए. जैसी कि संभावना थी तुरंत ही भूचाल आ गया. संसद में सवाल उठा कि सदन से पहले यह रिपोर्ट अखबार को कैसे मिल गई. हंगामा हो ही रहा था कि एनडीटीवी ने एलान कर दिया कि उसके पास भी इस रिपोर्ट की एक प्रति है. इसे सच साबित करने के लिए चैनल ने रिपोर्ट के कुछ अंशों को उद्धृत करना शुरू कर दिया.

सरकार किसी की भी हो उसके लिए किसी जांच आयोग की हाईप्रोफाइल रिपोर्ट अपने पास रखना बड़ी सरदर्दी का काम होता है. इससे पहले इंदिरा गांधी की हत्या के मामले में ठक्कर आयोग और राजीव गांधी हत्याकांड मामले में जैन आयोग की रिपोर्ट भी इसी तरह मीडिया में लीक होकर सरकार के लिए समीकरण खराब करने और अनपेक्षित परिणामों का सबब बनती रही हैं. इस बार भी ऐसा ही हुआ. पहला अनपेक्षित परिणाम तो यह रहा कि रिपोर्ट के अंशों के छपने के बाद बहस इस पर होने की बजाय संसदीय विशेषाधिकार के उल्लंघन पर केंद्रित हो गई. दूसरा, भाजपा और संघ को प्रतिक्रिया की तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिल गया. लीक ने 17 साल पहले अयोध्या में जो हुआ उसकी रिपोर्ट से भाजपा को अचानक जोर का झटका लगने की संभावना खत्म कर दी.

तीसरा और आखिरी झटका सरकार के लिए शायद यह रहा कि रिपोर्ट के लीक होने से मीडिया को इसे मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने का मौका मिल गया. अगर सरकार यह रिपोर्ट पेश करती तो वह यह भी ध्यान रखने की कोशिश करती कि रिपोर्ट को उसके हिसाब से इस्तेमाल किया जाए. सामान्य स्थिति में 1000 पन्नों की किसी रिपोर्ट के साथ इसका सार भी होता है जिसे सरकार उसी रंग में पेश करती है जो राजनैतिक रूप से उसे फायदा पहुंचाता है. इसकी बजाय हुआ यह कि सांप्रदायिक कड़वाहट फैलाने के लिए दोषी 68 लोगों की सूची में आश्चर्यजनक तरीके से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम होना और तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव सरकार की दोषमुक्ति (जिस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए) बहस का मुख्य विषय बन गया. जस्टिस लिब्रहान के निष्कर्षों पर होने वाली राजनैतिक बहस की दिशा क्या हो यह तय करने का मौका सरकार को नहीं मिल पाया.

मीडिया ने संघ परिवार को किस मुसीबत से बचाया है इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. रिपोर्ट में संघ परिवार पर गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं. इसमें दावा किया गया है कि ध्वंस सुनियोजित तरीके से अंजाम दी गई एक आपराधिक साजिश थी जिसमें छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी वाजपेयी सहित समूचा भगवा परिवार शामिल था. इसमें कहा गया है कि भाजपा तो सिर्फ संघ की कठपुतली है. रिपोर्ट की मानें तो भाजपा शासित राज्यों में प्रशासन तक पर संघ का नियंत्रण था. यहां यह बात गौण है कि लिब्रहान के कई निष्कर्ष ऐसे हैं जो बस दावे ही लगते हैं और जिनके समर्थन में कोई ठोस सबूत नहीं दिए गए हैं. कई जगहों पर रिपोर्ट किसी न्यायिक अधिकारी के फैसले की बजाय किसी पर्चे सरीखी लगती है. मगर गौर करने वाली बात यह है कि लिब्रहान ने किसी भी सरकार के लिए एक ऐसा आधार तैयार कर दिया था जिससे वह इस सूची में शामिल लोगों के खिलाफ आपराधिक से इतर जाकर भी कार्रवाई कर सकती थी. 17 साल की विवेचना के बाद लिब्रहान ने सरकार को भाजपा नहीं तो कम से कम संघ पर तो फौरन ही पाबंदी लगाने के लिए पर्याप्त बारूद दे दिया था.

आयोग के वकील रह चुके अनुपम गुप्ता ने दावा किया कि लिब्रहान ने वाजपेयी का नाम इसलिए शामिल किया ताकि आडवाणी की आलोचना की धार थोड़ी कम लग सके. उनके दावे माने बिना भी कहा जा सकता है कि जब वाजपेयी को आयोग के सामने पेशी के लिए कभी बुलाया ही नहीं गया तो रिपोर्ट में उनका नाम आना हैरानी का विषय तो है हीमगर ऐसा नहीं हो सका. वैसे भी जांच आयोग कोई न्यायिक संस्था नहीं होती और इसके निष्कर्षों का कोई वैधानिक महत्व नहीं होता. अगर संघ के खिलाफ कोई भी कानूनी कार्रवाई की भी जाती तो उसे आज की जमीनी हकीकतों से संचालित एक राजनैतिक फैसला ही माना जाता. 17 साल पहले की इस घटना के लिए आज प्रतिबंध लगाने से संदेश यही जाता कि ऐसा भाजपा को कमजोर करने के लिए किया गया है. वैसे इस बात को लेकर भाजपा में भी ज्यादातर लोग आश्वस्त थे कि सरकार संघ पर प्रतिबंध नहीं लगाएगी. पर उन्हें यह आशंका नहीं थी कि रिपोर्ट में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की इतने कठोर शब्दों में निंदा की जाएगी. वे यह जरूर मान कर चल रहे थे कि सरकार रिपोर्ट से ज्यादा से ज्यादा राजनैतिक फायदा उठाएगी और पूरे राम जन्मभूमि आंदोलन पर बुरे से बुरा ठप्पा लगा देगी. पार्टी के प्रतिबद्ध लोगों पर तो हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता मगर उस पीढ़ी को जरूर पड़ता जो गुजरात दंगों के बाद से वैसे ही भाजपा के बारे में अच्छी राय नहीं रखती.

इसका कोई सबूत नहीं है कि संघ नेतृत्व को लिब्रहान रिपोर्ट से पैदा हो सकने वाली मुश्किलों का इतना ज्यादा अंदाजा रहा होगा. वैसे भी अपनी ही दुनिया में रहने वाला संघ भाजपा को दुरुस्त करने की अपनी भूमिका में इतना मसरूफ था कि उसका ध्यान बाहरी घटनाक्रमों पर गया ही नहीं. दरअसल पिछले कुछ हफ्तों से भाजपा की कमान अपने हाथ में लेने की कवायद में लगा संघ राजनीति को बहुत संकरे नजरिए से देख रहा था. उसे शायद सिर्फ यही चिंता रही होगी कि लिब्रहान रिपोर्ट आडवाणी को फिर से केंद्र में लाकर उनकी राजनैतिक अहमियत को पहले जैसा न बना दे और कहीं उसका आडवाणी को विपक्ष के नेता पद से हटाने का अभियान पटरी से न उतर जाए.

शायद इससे समझा जा सकता है कि लिब्रहान रिपोर्ट के लीक होने पर संघ की शुरुआती प्रतिक्रिया एक हद तक बेतुकी थी. भाजपा का काम देखने वाला संघ का एक हिस्सा कुछ हद तक अजीबोगरीब एक निष्कर्ष पर पहुंचा कि मीडिया उन भाजपा नेताओं के इशारे पर काम कर रहा है जिन्हें संघ का दखलंदाजी वाला रवैया पसंद नहीं है. उनका शक उस धड़े पर था जिसे वे आडवाणी खेमा मानते हैं. 23 नवंबर की शाम और अगले दिन सुबह पत्रकारों को फोन किए गए. फोन करने वाले पार्टी अध्यक्ष से जुड़े हुए सज्जन का कहना था कि रिपोर्ट को लीक करवाने का यह काम राज्य सभा में भाजपा के नेता अरुण जेतली ने किया है और इसमें उनकी मदद उनके साथी वकील पी चिदंबरम ने की है. पत्रकारों के लिए यह बात इतनी बचकानी थी कि इसे किसी गॉसिप कॉलम तक में जगह नहीं मिली. मगर इससे साफ संकेत मिला कि संघ पूरी तरह से असमंजस के भंवर में फंसा हुआ था.

मगर भाजपा के मामले में स्थिति बिल्कुल दूसरी थी. हालांकि लीक की टाइमिंग से – जिसे कम जानकार गन्ना आंदोलन पर विपक्षी दलों की एकता को तोड़ने के लिए चुना गया समय बता रहे थे –  वह भी हैरत में थी मगर उसने अपने बचाव के दो हथियार ढूंढ़ लिए. पहला था खुद लीक का मुद्दा. इंडियन एक्सप्रेस की खबर में गृह मंत्रालय के सूत्र का हवाला दिया गया था इसलिए भाजपा के कुछ सदस्यों ने चिदंबरम की तरफ उंगलियां उठाईं. यह दिलचस्प है कि जेतली, जिनकी मीडिया के शीर्ष स्तर तक पहुंच से उनके साथी ईर्ष्या करते हैं, ने अपनी उंगली आयोग की तरफ उठाई. यानी उद्देश्य शायद आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करना रहा होगा.

तोगड़िया भले ही कहते रहें कि राम मंदिर के लिए वे फांसी के फंदे पर चढ़ने के लिए भी तैयार हैं मगर देश उस दौर से आगे बढ़ चुका है जब कमंडल ने मंडल और मुस्लिम कार्ड का मुकाबला किया था

भाजपा के जवाबी हमले का दूसरा हथियार था पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के बारे में की गई तल्ख टिप्पणियां. यह सभी जानते हैं कि वाजपेयी मंदिर आंदोलन में भाजपा की सीधी भागीदारी नहीं चाहते थे और शायद वे अकेले ऐसे वरिष्ठ भाजपा नेता थे जिन्होंने ध्वंस पर खेद प्रकट किया था. यह बात भी सर्वविदित है कि संघ सरकार के काम में दखलअंदाजी न करे इसके लिए वाजपेयी हरमुमकिन कोशिश करते रहे. ऐसे नेता को संघ की कठपुतली कहना और देश का माहौल खराब करने के लिए उसकी आलोचना करना साफ तौर पर अप्रत्याशित था.

आयोग के वकील रह चुके अनुपम गुप्ता ने दावा किया कि लिब्रहान ने वाजपेयी का नाम इसलिए शामिल किया ताकि आडवाणी की आलोचना की धार थोड़ी कम लग सके. उनके दावे माने बिना भी कहा जा सकता है कि जब वाजपेयी को आयोग के सामने पेशी के लिए कभी बुलाया ही नहीं गया तो रिपोर्ट में उनका नाम आना हैरानी का विषय तो है ही. हालांकि इससे भाजपा को अपने खिलाफ लगाए गए गंभीर आरोपों के खिलाफ वाजपेयी को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने का बड़ा मौका मिल गया. चूंकि रिपोर्ट एक ऐसे राजनैतिक दिग्गज की प्रतिष्ठा पर हमला कर रही थी जिसकी हर नेता इज्जत करता है इसलिए यह बात पूरी रिपोर्ट को खारिज करने का ही जरिया बन गई. निश्चित रूप से साजिश में शामिल 68 लोगों की सूची में वाजपेयी का नाम होना एक ऐसा कारक रहा जिसने सरकार के इस फैसले में सबसे बड़ी भूमिका निभाई कि रिपोर्ट पर किसी गंभीर कार्रवाई की जरूरत नहीं है.

यहां पर यह भी कहा जाना चाहिए कि लीक पर अपनी प्रतिक्रिया के रूप में सरकार को मजबूरी में तय समय से पहले ही रिपोर्ट को संसद में पेश करना पड़ा. प्रधानमंत्री अमेरिका के महत्वपूर्ण दौरे पर थे और सरकार नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा राजनैतिक विस्फोट हो जाए जिससे देश और प्रधानमंत्री को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने शर्मिंदा होना पड़ जाए. हालात ऐसे बन गए थे कि सरकार को कम से कम आक्रामकता दिखानी पड़ी. इसके लिए भाजपा और संघ को मीडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए.

अगले महीने जब लिब्रहान रिपोर्ट संसद में व्यापक चर्चा का विषय बनेगी तो संभावना है कि भाजपा राम जन्मभूमि आंदोलन की राजनीति का अपना संस्करण पेश करे. वह एक बार फिर कहेगी कि उन हिंदू मंदिरों के पुरातात्विक अवशेषों के प्रमाण मिले हैं जो 1528 में मीर बकी द्वारा बाबरी मस्जिद बनाए जाने से पहले वहां मौजूद थे. वह फिर से इस बात पर जोर देगी कि न्यायिक प्रक्रिया में लग रही असीमित देरी ने हिंदू राष्ट्रवादियों में रोष भरा और सीधी कार्रवाई की मांग को हवा दी. यह संघ परिवार के खिलाफ लिब्रहान की कठोरता और पिछली कांग्रेस सरकार के खिलाफ उनकी चकित कर देने वाली उदारता की भी बात करेगी. मगर एक पहलू ऐसा है जो इसे रक्षात्मक रवया अपनाने के लिए मजबूर करेगा. वह है रिपोर्ट में लगाया गया यह आरोप कि यह राजनैतिक पार्टी नहीं बल्कि गैरजिम्मेदार संघ की कठपुतली है.

संघ द्वारा भाजपा की कमान अपने हाथ में लेने पर मची उथल-पुथल और संघ के मुखिया मोहन राव भागवत द्वारा अगले पार्टी अध्यक्ष के कथित चयन के संदर्भ में देखें तो भाजपा में ऐसे कई हैं जो पिछले दरवाजे से आने वाले नेताओं की तानाशाही से बहुत परेशान हैं. लिब्रहान रिपोर्ट के बाद उन्हें यह सोचकर उतनी ही चिंता हो रही है कि इसकी उन्हें बड़ी राजनैतिक कीमत इस तरह भी चुकानी पड़ सकती है कि उन्हें आने वाले समय में संघ की कठपुतली समझ जाएगा. सदन में भाजपा सफलतापूर्वक वाम दलों और समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर विपक्ष की एकता का दिखावा तो कर सकती है मगर संघ का नाम आते ही यह एकता तुरंत खत्म हो जाती है.

24 नवंबर को भाजपा के संसदीय दल की एक बैठक हुई. यह एक आम साप्ताहिक बैठक थी. इसमें बिहार के पूर्णिया से दूसरी बार चुनकर आए एक अपेक्षाकृत गुमनाम सांसद उदय सिंह ने खलबली पैदा कर दी. वे अचानक अपनी सीट से उठे और नेतृत्व से सवाल किया कि क्यों एक बाहरी आदमी पार्टी को सर्जरी और कीमोथेरेपी की सलाह दे रहा है. वे यही नहीं रुके और उन्होंने आगे पूछा कि अगला पार्टी अध्यक्ष उन लोगों द्वारा क्यों चुना जा रहा है जो खुद पार्टी में नहीं हैं.

इस घटनाक्रम का दिलचस्प पहलू यह था कि न तो इस सांसद से किसी ने चुप होने के लिए कहा और न किसी ने उनकी बात पर अप्रसन्नता जताई.  उनके सवालों के दौरान एक चुप्पी छाई रही और आखिरकार पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने हस्तक्षेप करते हुए यह आश्वासन देकर उदय सिंह को शांत किया कि बाहर का कोई भी आदमी यह फैसला नहीं करेगा कि पार्टी अध्यक्ष कौन हो. बैठक खत्म होने के बाद उदय सिंह को कई लोगों ने हिम्मत कर वह बात कहने के लिए बधाई दी जिसे कहने की वे भी काफी समय से सोच रहे थे.

व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो लगता नहीं कि लिब्रहान रिपोर्ट अयोध्या मामले में लोगों की दिलचस्पी फिर से पैदा कर सकेगी. तोगड़िया भले ही कहते रहें कि राम मंदिर के लिए वे फांसी के फंदे पर चढ़ने के लिए भी तैयार हैं मगर देश उस दौर से आगे बढ़ चुका है जब कमंडल ने मंडल और मुस्लिम कार्ड का मुकाबला किया था. हिंदुओं को यह इच्छा अब भी हो सकती है कि अयोध्या में विवादित स्थल पर राम का भव्य मंदिर बने मगर अब वे इसके लिए कोई भी नाटक-नौटंकी करने और सहने को तैयार नहीं. स्पष्ट देखे जा सकने वाले भविष्य में अयोध्या में स्टील बैरीकेडों और सुरक्षा बलों से घिरा हुआ अस्थायी राम मंदिर ही रहने वाला है इसलिए हैरत नहीं कि भाजपा के यथार्थवादी अयोध्या से ज्यादा गन्ने के मूल्य और मधु कोड़ा पर बहस करने के पक्ष में दिखते हैं.

लिब्रहान रिपोर्ट का सीमित असर सिर्फ यही होगा कि संघ एक बार फिर तीखे विवाद का विषय बन जाएगा और खुद को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए इसे भाजपा की जरूरत होगी. रिपोर्ट पर शुरुआती बवाल शांत होने के बाद भाजपा कार्यकर्ता इस विडंबना की तरफ इशारा कर रहे थे कि भागवत द्वारा ब्लैक लिस्ट किए गए चार नेताओं में से दो यानी सुषमा स्वराज और अरुण जेतली ही संघ के वकील की भूमिका निभा रहे हैं. मीडिया में छिड़ी बहस में संघ ने भी पाया कि इसके पसंदीदा राजनाथ जैसे नेता या तो पूरी तरह से अप्रभावी रहे या उनमें वह गहराई नजर नहीं आई जिसकी ऐसे मौकों पर जरूरत होती है. संघ के सुर्खियों में आने से आडवाणी को नया जीवन मिल सकता है. उन्होंने भले ही अपना प्रधानमंत्री बनने का सपना छोड़ दिया हो मगर सदन में एक भरोसेमंद सांसद की भूमिका निभाने के लिए वे अब भी पार्टी के पसंदीदा हैं, तब तक तो हैं ही जब तक प्रधानमंत्री पद का अगला उम्मीदवार चुना नहीं जाता. दो हफ्ते पहले तक ऐसा लग रहा था कि जैसे संघ को भाजपा की हर कमान अपने हाथ में लेने से अब कोई रोक नहीं सकता. मगर राजनीति में दो हफ्ते भी लंबा वक्त होता है. जिस तरह छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में हुए विस्फोट के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में उदारवादी नेताओं को आगे आना पड़ा था उसी तरह लिब्रहान रिपोर्ट संघ को अपने विस्तारवाद की समीक्षा करने के लिए मजबूर कर सकती है. भाजपा में उदारवादी भले ही एक लुप्तप्राय प्रजाति हो मगर ऐसे मौके आते हैं जब यही प्रजाति भाजपा को राजनैतिक रूप से खत्म या अप्रासंगिक होने से बचाती है. भाजपा में मौजूद राजनेता यह बात समझते और मानते हैं. मगर क्या संघ भी इस बात को समझेगा? 

स्वपन दासगुप्ता (वरिष्ठ पत्रकार)