अंतर्जाल की उड़ान को लगाम!

शिवसेना द्वारा कंप्यूटर साइंस के छात्र अजित डी. के खिलाफ दायर मामले की सुनवाई पर रोक संबंधी याचिका सुप्रीम कोर्ट द्वारा ठुकराए जाने के बाद से हिंदुस्तानी ब्लॉगजाल पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी बहसों की बाढ़ सी आ गई है. ऑर्कुट पर शिवसेना विरोधी समुदाय (कम्युनिटी) की शुरुआत करने वाले 19 वर्षीय अजित के ऊपर धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने और धमकी देने के  आरोप लगाए गए हैं. इसकी वजह है उनकी कम्युनिटी पर आई एक गुमनाम टिप्पणी जिसमें शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को जान से मारने की धमकी दी गई थी.

 क्या भारतीय न्याय व्यवस्था को आम आदमी और किसी हस्ती के मामले में अवमानना संबंधी एक ही मानक अपनाना चाहिए, विशेषकर बाल ठाकरे जैसी विवादास्पद हस्ती के मामले में?

मगर भारतीय ब्लॉगर्स इस पर आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर ही अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. यहां बेहद महत्वपूर्ण है कि हम इस मामले को शिवसेना की वैचारिक असहिष्णुता और पत्रकारों, कलाकारों एवं लेखकों के प्रति उनके हिंसक प्रतिरोधों की अनवरत श्रंखला के संदर्भ में देखें. लिहाजा नवंबर 2006 और मई 2007 के बीच मुंबई और पुणे के साइबर केंद्रों में जब शिवसैनिक अपनी आहत धार्मिक भावनाओं की ज्वाला में ऑर्कुट समुदायों को भस्म करने के प्रयास कर रहे थे, तो ये स्थापित परंपरा का निर्वहन करने जैसा ही था.

इस विरोध ने गूगल को अपनी स्थापित नीतियों में बदलाव के लिए मजबूर कर दिया – वो न केवल अपने उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारियों को साझा करने बल्कि एक ऐसा तंत्र बनाने पर भी राजी हो गया जिसके जरिए मुंबई पुलिस किसी भी आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए सीधे गूगल को कह सकती थी. साथ ही वो संबंधित सामग्री के लिए जिम्मेदार व्यक्ति का आईपी पता और सर्विस प्रोवाइडर की जानकारी भी मांग सकती थी.

बीते दो सालों में ढेर सारे शिवसेना विरोधी ऑर्कुट समुदायों को डिलीट कर दिया गया है और 16 ऑर्कुट उपयोगकर्ताओं को आपराधिक आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया है. ये बेहद चिंताजनक है जो निश्चित ही भविष्य में और भी भयावह स्वरूप ले लेगा. लिहाजा ढेरों गंभीर सवाल खड़े होते हैं. शुरुआत इस सवाल से कि क्या हमें किसी ऐसे ब्लॉगर, कम्युनिटी धारक या टिप्पणीकार का बचाव करना चाहिए जो किसी आम या खास को हत्या की धमकी चस्पा करता हो या करने की इजाजत देता हो और फिर उसे हटाने से इनकार करता हो

साथ ही क्या भारतीय न्याय व्यवस्था को आम आदमी और किसी हस्ती के मामले में अवमानना संबंधी एक ही मानक अपनाना चाहिए, विशेषकर बाल ठाकरे जैसी विवादास्पद हस्ती के मामले में? शिवसेना को भावनाएं आहत होने जैसी शिकायत करने की छूट भी कैसे दी जा सकती है जबकि बाल ठाकरे की जरा सी भी आलोचना हमेशा ही उनकी भावनाओं को आहत कर देती है. और फिर शिवसेना की पहचान ही एक ऐसे संगठन की है जिसने भड़काऊ धार्मिक बयानों की परंपरा शुरू की और विरोध करने वालो को अपनी हिंसा का निशाना बनाया. सवाल ये भी है कि भारतीय न्याय व्यवस्था को किनारे कर गोपनीय जानकारियां पुलिस को उपलब्ध कराने पर गूगल की सहमति के बाद हमें गूगल की ऑनलाइन सेवाओं का उपयोग करते समय कितना सहज महसूस करना चाहिए?

एक दूसरे स्तर पर हमें इस मामले को भारत और दूसरे लोकतांत्रिक देशों में पनप रही एक परंपरा की कड़ी के रूप में देखना चाहिए. यहां परंपरागत संस्थान इंटरनेट के खिलाफ एक किस्म की लड़ाई लड़ रहे हैं और इसकी आजादी को सीमित करने की कोशिशों में हैं. बरखा दत्त और एनडीटीवी द्वारा ब्लॉगर चेतन कुंटे को मानहानि का दावा करने की धमकी इसी चलन का एक हिस्सा है. श्रीराम सेना द्वारा मंगलोर के पब में लड़कियों की पिटाई के बाद पिंक चड्डी अभियान के लोगों को कानूनी कार्रवाई की धमकी देना भी इसी परंपरा का हिस्सा है.

अमेरिकी सीनेटरों का, इंटरनेट पर बच्चों को खतरा है, ऐसा मानने से इनकार करना भी इसी चलन की बानगी है. अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और भारत की सरकारों द्वारा लागू की गई कठोर बंदिशें और साइबर अपराध कानून भी इसी परंपरा की कड़ी हैं.

एकाकी और सामूहिक तौर पर की गई ये सारी कसरत हमारी व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वतंत्रता को सीमित करने के साथ-साथ इन अधिकारों के लिए हमारी संघर्ष करने की क्षमता को भी सीमित करती है. अजित के मामले में जो हुआ वो तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही देश और दुनिया में इंटरनेट के साथ जो हो रहा है वो भी उतना ही महत्वपूर्ण है. हमें समय रहते अपनी आंखें खोलकर इसके पीछे के व्यापक परिदृश्य को समझना होगा.

गौरव मिश्रा 2008-09 के दौरान जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय में याहू के फेलो थे