यूसीसी : तुरुप का पत्ता

समान नागरिक संहिता को 2024 के चुनावी रण का मास्टर स्ट्रोक बनाने की तैयारी में भाजपा

भाजपा को पता है कि 2024 में उसे सत्ता तश्तरी में रखी नहीं मिलेगी। देश में राजनीतिक स्थितियाँ हाल के महीनों में भाजपा के लिए उतनी सुखद नहीं रही हैं। यदि इस साल के विधानसभा चुनावों में उसे जीत नहीं मिलती है, तो आम चुनाव की उसकी डगर कठिन हो सकती है। लिहाज़ा भाजपा इन चुनावों से पहले ऐसा कार्ड तैयार रखना चाहती है, जो उसके लिए संजीवनी का काम कर सके। इसके लिए उसने सम्भवत: समान नागरिक संहिता को चुना है और इस पर तैयारी शुरू कर दी है। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

ट्रिपल तलाक़, जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और राम मंदिर निर्माण जैसे अपने एजेंडे पर काम करने के बाद भाजपा ने अब समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर नज़र टिका दी है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में उसने इस मुद्दे को अपने चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल किया था, जबकि उत्तराखण्ड में उसकी सरकार संहिता तैयार करने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है।

भाजपा समान नागरिक संहिता को अगले लोकसभा चुनाव से पहले ला सकती है; क्योंकि उसका लक्ष्य 2024 में एनडीए-3 सरकार सुनिश्चित करना है। हालाँकि मोदी सरकार इसे किस रूप में लाती है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। भाजपा, जिसमें पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हैं; का यूसीसी राग लोकसभा ही नहीं, बल्कि इस साल होने वाले विधानसभा के चुनाव के लिए भी है। क्योंकि भाजपा महसूस करती है कि उसकी स्थिति उतनी बेहतर नहीं है।

यदि समान नागरिक संहिता भाजपा के हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे के हिसाब से हुई, तो निश्चित ही विपक्षी दल, अन्य धार्मिक और सामाजिक संगठन इसका विरोध करेंगे। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि 21वें विधि आयोग ने मार्च, 2018 में जनता के साथ विमर्श के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि फ़िलहाल समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की ज़रूरत देश को नहीं है। अब पाँच साल बाद 22वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर आम जनता से विमर्श की प्रक्रिया शुरू कर दी है, और 15 जुलाई तक लोगों से विचार माँगे हैं। क़ानून और न्याय की संसदीय समिति ने भी यूसीसी मामले में 3 जुलाई को बैठक बुलायी है, जिसमें सुशील मोदी की अध्यक्षता में विधि आयोग और कमेटी के सदस्य भी रहेंगे। विधि आयोग को अब तक साढ़े आठ लाख से अधिक सुझाव मिल चुके हैं। समान नागरिक संहिता इसलिए देश में चर्चा के केंद्र में आ गयी है, क्योंकि इसके लागू होने के बाद देश में रहने वाले हर नागरिक के लिए समान क़ानून लागू होगा। यूसीसी में पर्सनल लॉ या विरसे के क़ानून, गोद लेने और उत्तराधिकार से जुड़े क़ानूनों को एक समान संहिता से संचालित किये जाने की संभावना है। चूँकि समान नागरिक संहिता भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र का अहम हिस्सा रही है। ज़्यादातर जानकारों को लगता है कि इसका प्रारूप उसे चुनावी लाभ देने की दृष्टि वाला बनाया जा सकता है। ऐसे में अन्य धार्मिक संगठन, जिनकी अपनी धार्मिक संहिता (पर्सनल लॉ) हैं; इस पर विरोध कर सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 जून को मध्य प्रदेश भाजपा के ‘मेरा बूथ, सबसे मज़बूत’ अभियान के तहत पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अपने सम्बोधन में समान नागरिक संहिता का ज़ोरदार पक्ष लिया और ज़ोर देकर कहा कि एक ही देश में दो क़ानून नहीं हो सकते। चुनाव भाषणों को छोड़ दें, तो हाल के वर्षों में यह पहला मौक़ा है, जब प्रधानमंत्री मोदी इस तरह समान नागरिक संहिता पर बोले हैं। चूँकि विधि आयोग ने इससे जुड़ी प्रक्रिया पहले ही शुरू कर दी है, मोदी का इस तरह इस पर बोलना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

विपक्ष का सवाल है कि जब पाँच साल पहले इसी सरकार के समय विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा था कि देश को समान नागरिक संहिता की ज़रूरत नहीं है, तो अब ऐसी क्या स्थिति पैदा हो गयी कि इसे लागू किया जाए? विपक्ष के मुताबिक, संहिता लागू होने से देश में कई तरह के विवाद के पिटारे खुल जाएँगे। भाजपा का कहना है कि समान नागरिक संहिता देश में बराबरी का रास्ता खोलेगी और इसमें ग़लत क्या है? पार्टी के मुताबिक, इससे बेहतरी का रास्ता खुलेगा। बता दें कि विधि आयोग ने सन् 2016 में जब इस मुद्दे पर विचार विमर्श की प्रक्रिया शुरू की थी, तो क़रीब दो साल का समय लगा था। जनता, जिसमें तमाम धार्मिक और सामाजिक समूह शामिल हैं; के सुझावों के बाद उसने मार्च, 2018 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें साफ़तौर पर कहा गया था कि फ़िलहाल समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की ज़रूरत देश को नहीं है। हालाँकि इस रिपोर्ट में पारिवारिक क़ानून (फैमिली लॉ) में सुधार की बात ज़रूर कही गयी थी।

73 साल पहले हुई गहन चर्चा

अब जब यूसीसी की चर्चा भारत में बहुत तेज़ी से हो रही है, तो दिलचस्प बात यह है कि आज से 73 साल पहले 23 नवंबर, 1948 को देश की संसद में इस विषय पर गहन चर्चा हुई थी। उस समय सवाल यह था कि क्या समान नागरिक संहिता को संविधान में शामिल किया जाना चाहिए या नहीं? लम्बी बहस के बाद भी इस पर कोई राय नहीं बन पायी। कारण था देश का बहुलवादी होना। जब इस पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया, तो यह मुद्दा टाल दिया गया। एक कार्यकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें यूसीसी लागू कराने की माँग की गयी थी।

हालाँकि 7 दिसंबर, 2015 को अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को देश में यूसीसी लागू करने का निर्देश देने से इनकार कर दिया था और कहा था कि क़ानून बनाने का काम संसद का है।

इसके बाद इसी साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात और उत्तराखण्ड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कमेटी के गठन को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दी। याचिकाकर्ता अनूप बरनवाल ने अपनी याचिका में राज्यों की इस पहल को चुनौती दी थी। प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा की पीठ ने कहा कि आर्टिकल 162 के तहत राज्यों को कमेटी के गठन का अधिकार है। अगर राज्य ऐसा कर रहे हैं, तो इसमें क्या ग़लत है। सिर्फ़ कमेटी के गठन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती।

दरअसल उत्तराखण्ड सरकार ने मई, 2022 में सेवानिवृत्त जज न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था। समिति को राज्य में समान नागरिक संहिता के अध्ययन और क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी सौपी गयी थी। यही नहीं, गुजरात सरकार ने भी अक्टूबर, 2022 में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए समिति गठित करने का फ़ैसला किया था। यही नहीं शादी, तलाक़, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार के लिए सभी धर्मों में एक समान क़ानून लागू करने की माँग वाली याचिका भी वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में डाली है।

मध्य प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए जब प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी इसे लागू करने की बात कर चुका है, तो वास्तव में यह उत्तराखण्ड सरकार के फ़ैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आधार पर ही कहा गया है। भाजपा के अन्य नेता भी इसी को आधार बनाकर इसका समर्थन करते हैं।

धार्मिक समूह सक्रिय

समान नागरिक संहिता की चर्चा तेज़ होने के साथ ही धार्मिक समूह भी सक्रिय हो गये हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 27 जून को इस विषय पर चर्चा के लिए बैठक की। यह उसकी इस तरह की पहली बैठक थी। कोई तीन घंटे की इस बैठक में संहिता के तमाम क़ानूनी पहलुओं पर चर्चा की गयी। बैठक में बोर्ड से जुड़े तमाम वकील मौज़ूद थे। इसमें फ़ैसला किया गया ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर एक ड्राफ्ट तैयार करेगा। साथ ही बोर्ड से जुड़े लोग विधि आयोग के अध्यक्ष से मिलने का समय माँगेगे। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जो ड्राफ्ट तैयार करेगा, उसे विधि आयोग को सौंपा जाएगा। जानकारी के मुताबिक, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने ड्राफ्ट पर मुख्य फोकस शरीयत के ज़रूरी हिस्सों पर रखेगा। दिलचस्प यह है कि बोर्ड की इस बैठक में प्रधानमंत्री मोदी के मध्य प्रदेश के पार्टी कार्यकर्ताओं को दिये गये भाषण का भी ज़िक्र किया गया, जिसमें उन्होंने समान नागरिक संहिता को लागू करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था।

मोदी के बयान के बाद एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने सवाल किया कि प्रधानमंत्री पाकिस्तान से प्रेरणा क्यों ले रहे हैं? ओवैसी ने पूछा कि क्या यूसीसी के नाम पर देश के बहुलवाद और विविधता को छीन लिया जाएगा? सरकार का कहना है कि विधि आयोग सिविल कोड को लेकर संजीदगी से विचार कर रहा है। कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद सरकार सभी सम्बन्धित पक्षों से बात करेगी। लेकिन इसे लागू करने के बारे में फ़ैसला संसद को लेना है। कोई बाहरी अथॉरटी उसे क़ानून बनाने के लिए निर्देश नहीं दे सकती। हाल के वर्षों में संसद में बिल लाकर धारा-370 ख़त्म करने जैसे फ़ैसले मोदी सरकार ने किये हैं, उन्हें देखते हुए इस बात में कोई संदेह नहीं कि ऐसा ही वह समान नागरिक संहिता को लेकर भी कर सकती है।

आने वाले दिनों में अन्य धार्मिक समूह भी इस पर बैठकें करके विधि आयोग के सम्पर्क कर सकते हैं, जिनमें वह अपना धार्मिक पक्ष रखेंगे। ऐसे में यह चीज़ ही मायने रखेगी कि विधि आयोग सबकी बात सुनकर क्या रिपोर्ट देता है। इसके बाद सरकार उसमें अपने हिसाब से चीज़ें जोड़ या हटा सकती है। संसद में जब इससे जुड़ा बिल पेश किया जाएगा, उसे देखकर ही पता चलेगा कि सरकार ने किसकी कितनी सुनी या अपने एजेंडे के हिसाब से ही बिल लाया। ज़ाहिर है संसद में इस पर जबरदस्त बहस और हंगामे की सम्भावना रहेगी।

भाजपा की तैयारी

प्रधानमंत्री मोदी के यूसीसी पर बोलने के बाद अब यह माना जा रहा है कि भाजपा इसे लागू करके 2024 के चुनाव में अपना मुख्य मुद्दा बना सकती है। भाजपा के ही बीच तेज़ चर्चा है कि लोकसभा के मानसून सत्र में भी इसे संसद में लाया जा सकता है। समान नागरिक संहिता-1998 के आज तक भाजपा के सभी चुनाव घोषणा-पत्रों का हिस्सा रहा है। नवंबर, 2019 में पार्टी सदस्य नारायण लाल पंचारिया ने इससे जुड़ा विधेयक संसद में पेश किया था। हालाँकि विपक्ष के जबरदस्त विरोध के बाद इसे वापस ले लिया गया।

एक साल बाद ही मार्च, 2020 में संसद सदस्य किरोड़ी लाल मीणा एक बार फिर बिल लेकर आये; लेकिन संसद में इसे पेश ही नहीं किया। विवाह, तलाक़, गोद लेने और उत्तराधिकार से सम्बन्धित क़ानूनों में समानता की माँग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी याचिकाएँ दायर की गयी हैं।

सन् 2018 के विधि आयोग के परामर्श पत्र में माना था कि देश में कई परिवार क़ानून व्यवस्थाओं के भीतर की प्रथाएँ महिलाओं से भेदभाव करती हैं और उन्हें देखने की ज़रूरत है। भाजपा विपक्ष के यूसीसी को लेकर विरोध पर सावधानी भी बरत रही है।

हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक बैठक में मध्य प्रदेश में भाजपा नेताओं से विपक्ष के यूसीसी को लेकर विपक्ष के अभियान के ख़िलाफ़ अपना पक्ष मज़बूती से रखने को कहा है। कारण यह है कि मध्य प्रदेश सहित देश में कई जगह आदिवासी बहुल सीटें हैं और विपरीत अभियान भाजपा को नुक़सान कर सकता है। बैठक में आरएसएस ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी.डी. शर्मा को सुझाव दिया कि नवंबर के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों और अनुसूचित जाति (एससी)-बहुल सीटों पर भाजपा की संभावनाओं को नुक़सान पहुँचाने वाले ऐसे अभियानों का मुक़ाबला करने के लिए सभी बूथ स्तर की इकाइयों को शिक्षित किया जाना चाहिए।

बैठक में विद्या भारती, संस्कार भारती और वनवासी कल्याण परिषद् सहित आरएसएस के 22 सहयोगी संगठनों ने हिस्सा लिया। याद रहे पिछले साल भारत जोड़ो यात्रा में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने मध्य प्रदेश की एक रैली में भाजपा पर हमला करते हुए कहा था कि वह आदिवासियों को वनवासी कहती है; लेकिन कांग्रेस आपको आदिवासी कहती है, अर्थात् भारत में मूल हितधारक और देश के संसाधनों के स्वामी। राहुल ने कहा था कि वे (भाजपा) यह कहकर उनके (आदिवासी) अधिकार उनसे छीन लेते हैं कि तुम्हारी भूमि न कभी तुम्हारी थी, और न कभी तुम्हारी होगी।

किन देशों में है यूसीसी?

कहाँ भारत में इसी साल के आख़िर तक यूसीसी लागू करने की संभावना जतायी जा रही है; वहीं दुनिया में ऐसे कई देश हैं, जहाँ समान नागरिक संहिता पहले से लागू है। इनमें प्रगतिशील माने जाने वाले अमेरिका से लेकर राजकीय धर्म इस्लाम मानने वाले मिस्र तक शामिल हैं। अमेरिका और मिस्र के अलावा आयरलैंड, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्किये, इंडोनेशिया, सूडान, पाकिस्तान, इंडोनेशिया आदि शामिल हैं। इन देशों में यूसीसी के तहत क़ानून सभी नागरिकों के लिए समान हैं। हाल के वर्षों में ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस जैसे देशों में देश के क़ानूनों का दूसरे धर्मों के लोगों को सख़्ती से पालन करने की हिदायत दी जाती रही है।

क्या हैं पेचीदगियाँ?

देश की स्वतंत्रता के बाद एक से ज़्यादा बार समान नागरिक संहिता की निजी (धार्मिक/सामाजिक) क़ानूनों में सुधार का मुद्दा उठा है। यदि सिर्फ़ समान नागरिक संहिता की ही बात की जाए, तो इसे लागू करने में कई चुनौतियाँ हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, यह मसला जम्मू कश्मीर में धारा-370 ख़त्म करने से भी कहीं ज़्यादा उलझा हुआ है।

धार्मिक समूह तो विरोध करेंगे ही, इस पर राजनीतिक सहमति बनाना भी बहुत मुश्किल काम होगा। साथ ही देश के क़ानूनों के भीतर ही कई विरोधाभास हैं। विवाह, तलाक़, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार जैसे देश में ऐसे कई मामले हैं, जिनमें भरपूर धार्मिक हस्तक्षेप है। 31 अगस्त, 2018 को 21वें विधि आयोग ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि यह ध्यान रखना होगा कि सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं हो कि एकरूपता की कोशिश ही ख़तरे का कारण बन जाए।

यूसीसी का मतलब प्रभावी रूप से विवाह, तलाक़, गोद लेने, संरक्षण, उत्तराधिकार, विरासत इत्यादि से जुड़े क़ानूनों को व्यवस्थित करना होगा। इसमें देश भर में संस्कृति, धर्म और परम्पराओं को देखना होगा। कई जनहित याचिकाएँ अभी सुप्रीम कोर्ट में लम्बित हैं। इनमें महिलाओं की सुरक्षा के साथ तलाक़, गार्जियनशिप (अभिभावक्ता) और उत्तराधिकार से सम्बन्धित क़ानूनों के नियमित करने की माँग की जा रही है। मुस्लिम महिलाओं की ओर से दायर कई याचिकाओं में इस्लामिक क़ानून में भेदभाव उजागर होता है। इनमें तत्काल तलाक़ (तलाक़-ए-बेन), अनुबंध विवाह (मुता), और दूसरे पुरुष से अल्पकालिक विवाह (निकाह हलाला) जैसी भेदभावपूर्ण प्रथाएँ शामिल हैं।

तीन तलाक़ का क़ानून आ जाने के तीन साल बाद भी यह हो रहा है। यही नहीं, सिखों के विवाह क़ानून-1909 के आनंद कारज, विवाह अधिनियम के तहत आते हैं। लेकिन उनमें तलाक़ के प्रावधानों का अभाव है। इसके कारण सिख तलाक़ हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत ही होते हैं। प्रॉपर्टी, उत्तराधिकार और अन्‍य कई मामलों में भी अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग तरह के क़ानून हैं।

यूसीसी लागू करने में यही पेच है। जानकार मानते हैं कि देश में इतने धर्मों के होते हुए समान नागरिक संहिता बनाना मुश्किल काम रहेगा, क्योंकि संविधान में मिले धर्म की आज़ादी और समानता के अधिकार के बीच संतुलन बनाना बेहद कठिन रहेगा। ज़ाहिर है समान नागरिक संहिता लागू होती है, तो इसके चलते धर्म और जातीय आधार वाले निजी क़ानून अस्तित्व खो देंगे। केंद्र ने पिछले साल समान नागरिक संहिता पर उच्चतम न्यायालय में अपने हलफ़नामे में कहा था कि विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के लोग अलग-अलग सम्पत्ति और वैवाहिक क़ानूनों का पालन करते हैं, जो ‘देश की एकता के ख़िलाफ़’ है।

अक्टूबर, 2022 में एक याचिका के जवाब में दायर हलफ़नामे में केंद्रीय क़ानून और न्याय मंत्रालय ने कहा था कि अनुच्छेद-44 (यूसीसी) संविधान की प्रस्तावना में निहित धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के उद्देश्य को मज़बूत करता है। मंत्रालय ने शीर्ष अदालत में कहा था कि विषय वस्तु के महत्त्व और इसमें शामिल संवेदनशीलता को देखते हुए विभिन्न समुदायों को नियंत्रित करने वाले विभिन्न व्यक्तिगत क़ानूनों के प्रावधानों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है। केंद्र ने भारत के विधि आयोग से यूसीसी से सम्बन्धित मुद्दे की जाँच करने और उनकी सि$फारिश करने का अनुरोध किया था।

यूसीसी से क्या बदलेगा?

लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ेगी, ताकि वह कम-से-कम ग्रेजुएट हो जाएँ। ग्राम स्तर पर शादी के पंजीकरण की सुविधा होगी। बिना पंजीकरण सरकारी सुविधा बंद हो जाएगी। पति-पत्नी दोनों को तलाक़ के समान आधार और अधिकार होंगे। बहु-विवाह पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी। उत्तराधिकार में लडक़े-लडक़ी की बराबर की हिस्सेदारी (पर्सनल लॉ में लडक़े का शेयर ज़्यादा होता है) होगी। नौकरीपेशा बेटे की मौत पर पत्नी को मिलने वाले मुआवज़े में माता-पिता के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी भी शामिल होगी। पत्नी की मौत के बाद उसके अकेले माता-पिता का सहारा महिला का पति बनेगा। मुस्लिम महिलाओं को गोद लेने का हक़ मिलेगा, प्रक्रिया आसान कर दी जाएगी। हलाला और इद्दत पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी। लिव-इन रिलेशन का डिक्लेरेशन देना होगा। बच्चे के अनाथ होने पर गार्जियनशिप की प्रक्रिया आसानी की जाएगी। पति-पत्नी में झगड़े होने पर बच्चे की कस्टडी ग्रैंड पैरेंट्स (दादा-दादी या नाना-नानी) को दी जाएगी। जनसंख्या नियंत्रण पर भी बात होगी।

क्या है समान नागरिक संहिता?

संविधान के अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गयी है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से सम्बन्धित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। समान नागरिक संहिता में देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान क़ानून होता है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक़ और ज़मीन-जायदाद के बँटवारे आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही क़ानून लागू होता है। अभी देश में जो स्थिति है, उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। सम्पत्ति, विवाह और तलाक़ के नियम हिन्दुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-अलग हैं। इस समय देश में कई धर्म के लोग विवाह, सम्पत्ति और गोद लेने आदि में अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है, जबकि हिन्दू सिविल लॉ के तहत हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।

देश में धार्मिक क़ानून

 हिन्दू विवाह अधिनियम-1955

 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956

 हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम-1956

 हिन्दू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम-1956

 काज़ी अधिनियम-1880

 शरीयत अधिनियम-1937

 मुस्लिम विवाह अधिनियम-1939

 मुस्लिम महिला (तलाकों पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम-1986

 भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम-1872

 पारसी विवाह और तलाक़ अधिनियम-1936

पक्ष में तर्क

 धार्मिक आधार के पर्सनल लॉ संविधान की पंथनिरपेक्ष की भावना का उल्लंघन करते हैं।

 हर नागरिक को अनुच्छेद-14 के तहत क़ानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद-15 में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद-21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार है।

 समान नागरिक संहिता न होने से महिलाओं के मूल अधिकार का हनन होता है। जिसमें शादी, तलाक़, उत्तराधिकार शामिल हैं। लैंगिक समानता सामाजिक समानता के लिए ज़रूरी है।

 मुस्लिम महिलाएँ धर्म के आधार पर चल रहे पर्सनल लॉ की वजह से हिंसा और भेदभाव का शिकार होती हैं। उन्हें बहु-विवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का दंश झेलना पड़ रहा है।

विरोध में तर्क

 21वें विधि आयोग ने कहा था कि यूसीसी न तो आवश्यक है और न ही यह वांछनीय है। व्यक्तिगत क़ानूनों में भेदभाव और असमानता से निपटने के लिए सभी धर्मों में मौज़ूदा पारिवारिक क़ानूनों को संशोधित और संहिताबद्ध किया जाना चाहिए।

 अल्पसंख्यक समुदाय यूसीसी का खुलकर विरोध करता रहा है। संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद-25 से 28 के बीच हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है।

 मुस्लिम इसे अपने धार्मिक मामलों में दख़ल मानते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल हमेशा से यूसीसी को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताता रहा है। बोर्ड का मत है कि संविधान हर नागरिक को अपने धर्म के मुताबिक जीने की अनुमति देता है। इसी कारण अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों को अपने रीति-रिवाज़, आस्था और परम्परा के मुताबिक अलग पर्सनल लॉ के पालन करने की छूट है।

तीन बड़े मामले

पहला मामला 1985 का शाह बानो का है। इस मामले में तलाक़ में मुस्लिम महिला के अधिकारों के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद को एक समान नागरिक संहिता की रूपरेखा को रेखांकित करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया था कि समान नागरिक संहिता एक अनसुलझी संवैधानिक अपेक्षा बनी हुई है। दूसरा, सन् 1995 का सरला मुद्गल मामला है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘संविधान के अनुच्छेद-44 के अंतर्गत व्यक्त की गयी संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार और कितना समय लेगी? उत्तराधिकार और विवाह को संचालित करने वाले परम्परागत हिन्दू क़ानून को बहुत पहले ही 1955-56 में संहिताकरण करके अलविदा कर दिया गया है। देश में समान नागरिक संहिता को अनिश्चितकाल के लिए निलम्बित करने का कोई औचित्य नहीं है। कुछ प्रथाएँ मानवाधिकार और गरिमा का अतिक्रमण करती हैं। धर्म के नाम पर मानवाधिकारों का गला घोटना निर्दयता है, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मज़बूत करने के लिए नितांत आवश्यक है। तीसरा मामला 2003 का जॉन बलवत्तम मामला है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘यह दु:ख की बात है कि अनुच्छेद-44 को आज तक लागू नहीं किया गया। संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता लागू के लिए क़दम उठाना है।

एक ही परिवार के अलग-अलग सदस्यों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। कोई भी देश दो क़ानूनों के आधार पर नहीं चल सकता। यदि ट्रिपल तलाक़ इस्लाम का अभिन्न अंग है, तो उसका पालन मुस्लिम-बहुल देशों मिस्र, इंडोनेशिया, क़तर, जॉर्डन, सीरिया, बांग्लादेश और पाकिस्तान में क्यों नहीं किया जाता और 90 फ़ीसदी सुन्नी मुस्लिम आबादी वाले मिस्र में ट्रिपल तलाक़ को 80-90 साल पहले ही ख़त्म कर दिया गया था। जो ट्रिपल तलाक़ की वकालत करते हैं, वे वोट बैंक के भूखे हैं, और मुस्लिम बेटियों के साथ घोर अन्याय कर रहे हैं। ऐसे ही यूसीसी का विरोध करने वाले लोग अपने हित साधने के लिए कुछ लोगों को भडक़ा रहे हैं। भारतीय मुसलमानों को समझना होगा कि कौन-से राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए उन्हें भडक़ा रहे हैं और नष्ट कर रहे हैं। हमारा संविधान भी सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों की बात करता है, और सुप्रीम कोर्ट ने भी यूसीसी लागू करने को कहा है। इसकी आलोचना करने वाले यदि वास्तव में मुसलमानों के शुभचिन्तक होते, तो समुदाय के अधिकांश परिवार शिक्षा और रोज़गार में पिछड़ नहीं रहे होते और कठिन जीवन जीने को मजबूर नहीं होते।’’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

(समान नागरिक संहिता पर मध्य प्रदेश में)

समान नागरिक संहिता को लोगों पर थोपा नहीं जा सकता। प्रधानमंत्री ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि यूसीसी साधारण प्रक्रिया है। उन्हें पिछले विधि आयोग की रिपोर्ट पढऩी चाहिए, जिसमें कहा गया है कि यह इस वक्त सही नहीं है। भाजपा की कथनी और करनी के कारण देश आज बँटा हुआ है। ऐसे में लोगों पर थोपा गया यूसीसी विभाजन को और बढ़ाएगा। एजेंडा आधारित बहुसंख्यक सरकार इसे लोगों पर थोप नहीं सकती।’’

पी. चिदंबरम

(कांग्रेस नेता एक ट्वीट में)

हमारे पास पूरे देश में एक समान और पूर्ण आपराधिक संहिता है, जो दण्ड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में निहित है। हमारे पास सम्पत्ति के हस्तांतरण का क़ानून है, जो सम्पत्ति और उससे जुड़े मामलों से सम्बन्धित है और पूरे देश में लागू है। फिर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट हैं; और मैं कई अधिनियमों का हवाला दे सकता हूँ, जो यह साबित करेंगे कि इस देश में व्यावहारिक रूप से एक नागरिक संहिता है, इनके मूल तत्त्व एक समान हैं और पूरे देश में लागू हैं। उन्होंने कहा कि सिविल क़ानून एकमात्र विवाह और उत्तराधिकार क़ानून का उल्लंघन करने के मामले में सक्षम नहीं हैं।’’

डॉ. बीआर अंबेडकर

(संविधान मसौदा समिति के तत्कालीन अध्यक्ष)